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Hindi Kahani: ऐसा तो होना ही था

Hindi Kahani: नमिता की बातें सुन कर ऋचा पलंग पर कटी पतंग की तरह गिर पड़ी. दिल इतनी जोरों से धड़क रहा था मानो निकल कर बाहर ही आ जाएगा. आखिर उस के साथ ही ऐसा क्यों होता है कि उस के हर अच्छे काम में बुराई निकाली जाती है. नमिता के कहे शब्द उस के दिलोदिमाग पर प्रहार करते से लग रहे थे :

‘दीदी मंगलसूत्र और हार के एक सेट के साथ विवाह के स्वागत समारोह का खर्च भी उठा रही हैं तो क्या हुआ, दिव्या उन की भी तो बहन है. फिर जीजाजी के पास दो नंबर का पैसा है, उसे  जैसे भी चाहें खर्च करें. हमारी 2 बेटियां हैं, हमें उन के बारे में भी तो सोचना है. सब जमा पूंजी बहन के विवाह में ही खर्च कर दीजिएगा या उन के लिए भी कुछ बचा कर रखिएगा.’

भाई के साथ हो रही नमिता भाभी की बात सुन कर ऋचा अवाक््रह गई थी तथा बिना कुछ कहे अपने कमरे में चली आई.

नमिता भाभी तो दूसरे घर से आई हैं लेकिन सुरेंद्र तो अपना सगा भाई है. उस को तो प्रतिवाद करना चाहिए था. वह तो अपने जीजा के बारे में जानता है. यह ठीक है कि उस के पति अमरकांत एक ऐसे विभाग में अधीक्षण अभियंता हैं जिस में नियुक्ति पाना, खोया हुआ खजाना पाने जैसा है. लेकिन सब को एक ही रंग में रंग लेना क्या उचित है? क्या आज वास्तव में सच्चे और ईमानदार लोग रह ही नहीं गए हैं?

बाहर वाले इस तरह के आरोप लगाएं तो बात समझ में भी आती है. क्योंकि उन्हें तो खुद को अच्छा साबित करने के लिए दूसरों पर कीचड़ उछालनी ही है पर जब अपने ही अपनों को न समझ पाएं तो बात बरदाश्त से बाहर हो जाती है. एक मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है. आज उसे वह कहावत अक्षरश: सत्य प्रतीत हो रही थी. वरना अमर का नाम, उन्हें जानने वाले लोग आज भी श्रद्धा से लेते हैं. स्थानांतरण के साथ ही कभी- कभी उन की शोहरत उन के वहां पहुंचने से पहले ही पहुंच जाया करती है.

ऐसा नहीं है कि अपनी ईमानदारी की वजह से अमर को कोई तकलीफ नहीं उठानी पड़ी. बारबार स्थानांतरण, अपने ही सहयोगियों द्वारा असहयोग सबकुछ तो उन्होंने झेला है. कभीकभी तो उन के सीनियर भी उन से कह देते थे, ‘भाई, तुम्हारे साथ तो काम करना भी कठिन है. स्वयं को कुछ तो हालात के साथ बदलना सीखो.’ पर अमर न जाने किस मिट्टी के बने थे कि उन्होेंने बड़ी से बड़ी परेशानियां सहीं पर हालात से समझौता नहीं किया और न ही सचाई व ईमानदारी के रास्ते से विचलित हुए.

मर्मांतक पीड़ा सहने के बाद अगर कोई समय की धारा के साथ चलने को मजबूर हो जाए तो उस में उस का नहीं बल्कि परिस्थितियों का दोष होता है. परिस्थितियों को चेतावनी दे कर समय की धारा के विपरीत चलने वाले पुरुष बिरले ही होते हैं. अमर को उस ने हालात से जूझते देखा था. यही कारण था कि अमर जैसे निष्ठावान व्यक्ति के लिए नमिता के वचन ऋचा को असहनीय पीड़ा पहुंचा गए थे तथा उस से भी ज्यादा दुख भाई की मौन सहमति पा कर हुआ था.

एक समय था जब अमर की ईमानदारी पर वह खुद भी चिढ़ जाती थी. खासकर तब जब घर में सरकारी गाड़ी खाली खड़ी हो और उसे रिकशे से या पैदल, बाजार जाना पड़ता था. उस के विरोध करने पर या अपनी दूसरों से तुलना करने पर अमर का एक ही कहना होता, ‘ऋचा, यह मत भूलो कि असली शांति मन की होती है. पैसा तो हाथ का मैल है, जितना भी हो उतना ही कम है. फिर व्यर्थ की आपाधापी क्यों? वैसे भी सरकार से वेतन के रूप में हमें इतना तो मिल ही जाता है कि रोजमर्रा की जरूरत की पूर्ति करने के बाद भी थोड़ा बचा सकें…और इसी बचत से हम किसी जरूरतमंद की सहायता कर सकें तो मन को दुख नहीं प्रसन्नता ही होनी चाहिए. इनसान को दो वक्त की रोटी के अलावा और क्या चाहिए?’

अमर की बातें ऋचा को सदा ही आदर्शवाद से प्रेरित लगती रही थीं. भला अपनी खूनपसीने की कमाई को दूसरों पर लुटाने की क्या जरूरत है. खासकर तब जब वह सहयोगियों की पत्नियों को गहने और कीमती कपड़ों से लदेफदे देखती और किटी पार्टियों में काजूबादाम के साथ शीतल पेय परोसते समय उस की ओर लक्ष्य कर व्यंग्यात्मक मुसकान फेंकतीं. बाद में ऋचा को लगने लगा था कि ऐसी स्त्रियां गलत और सही में भेद नहीं कर पाती हैं. शायद वे यह भी नहीं समझ पातीं कि उन का यह दिखावा उस काली कमाई से है जिसे देखना भी भले लोग पाप समझते हैं. ऋचा के संस्कारी मन ने सदा अमर की इस ईमानदारी की दाद दी है. अचानक उसे वह घटना याद आ गई जब अमर के विभाग के ही एक अधिकारी के घर छापा पड़ा और तब लाखों रुपए कैश और ज्वैलरी मिलने पर उन की जो फजीहत हुई उसे देखने के बाद तो उसे भी लगने लगा कि ऐसी आपाधापी किस काम की जिस से कि बाद में किसी को मुंह दिखाने के काबिल ही न रहें.

आश्चर्य तो उसे तब हुआ जब उस अधिकारी के बहुत करीबी दोस्त, जो वफादारी का दम भरते थे, उस घटना के बाद उस से कन्नी काटने लगे. शायद उन्हें लगने लगा था कि कहीं उस के साथ वह भी लपेटे में न आ जाएं. उस समय उस की पत्नी को अकेले ही उन की जमानत के लिए भागदौड़ करते देख यही लगा था कि बुरे काम का नतीजा भी अंतत: बुरा ही होता है. आज नमिता की बातें ऋचा को बेहद व्यथित कर गईं. आज उसे दुख इस बात का था कि बाहर वाले तो बाहर वाले उस के अपने घर वाले ही अमर की ईमानदारी पर शक कर रहे हैं, जिन की जबतब वह सहायता करते रहे हैं. दूसरों से इनसान लड़ भी ले पर जब अपने ही कीचड़ उछालने लगें तो इनसान जाए भी तो कहां जाए. वह तो अच्छा हुआ कि अमर उस के साथ नहीं आए वरना उन के कानों में नमिता के शब्द पड़ते तो.

ऋचा को नींद नहीं आ रही थी. अनायास ही अतीत उस के सामने चलचित्र की भांति गुजरने लगा…

पिताजी एक सरकारी स्कूल में अध्यापक थे. अपनी पढ़ाने की कला के कारण वह स्कूल के सभी विद्यार्थियों में लोकप्रिय थे. वह शिक्षा को समाज उत्थान का जरिया मानते थे. यही कारण था कि उन्होंने कभी ट्यूशन नहीं ली पर अपने छात्रों की समस्याओं के लिए उन का द्वार हमेशा खुला रहता था.

अमर भी उन के ही स्कूल में पढ़ते थे. पढ़ने में तेज तथा धीरगंभीर और अन्य छात्रों से अलग पढ़ाई में ही लगे रहते थे. पिताजी का स्नेह पा कर वह कभीकभी अपनी समस्याओं के लिए हमारे के घर आया करते थे. न जाने क्यों अमर का धीरगंभीर स्वभाव मां को बेहद भाता था. कभीकभी वह हम भाईबहनों को उन का उदाहरण भी देती थीं. एक बार पिताजी घर पर नहीं थे. मां ने उन के परिवार के बारे में पूछ लिया. मां की सहानुभूति पा कर उन के मन का लावा फूटफूट कर बह निकला. पता चला कि उन की मां सौतेली हैं तथा पिताजी अपने व्यवसाय में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि बच्चों की ओर ध्यान ही नहीं दे पाते. सौतेली मां से उन के 2 भाई थे. उन की मां को शायद यह डर था कि उन के कारण उस के पुत्रों को पिता की संपत्ति से पूरा हिस्सा नहीं मिल पाएगा.

अमर की आपबीती सुन कर मां द्रवित हो उठी थीं. उस के बाद वह अकसर ही घर आने लगे. अमर के बालमन पर मां की कही बातें इतनी बुरी तरह से बैठ गई थीं कि वह अनजाने ही अपना बचपना खो बैठे तथा उन्होंने अपना पूरा ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित कर लिया, जिस से कुछ बन कर अपने व्यर्थ हो आए जीवन को नया मकसद दे सकें. पिताजी के रूप में अमर को न केवल गुरु वरन अभिभावक एवं संरक्षक भी मिल गया था. अत: जबतब अपनी समस्याओं को ले कर अमर पिताजी के पास आने लगे थे और पिताजी के द्वारा मार्गदर्शन पा कर उन का खोया आत्मविश्वास लौटने लगा था.

अमर के बारबार घर आने से हम दोनों में मित्रता हो गई. समय पंख लगा कर उड़ता रहा और समय के साथ ही हमारी मित्रता प्रगाढ़ता में बदलती चली गई. अमर का परिश्रम रंग लाया. प्रथम प्रयास में ही उन का रुड़की इंजीनियरिंग कालिज में चयन हो गया और वह वहां चले गए. अमर के जाने के बाद मुझे महसूस हुआ कि मेरे मन में उन्होंने ऐसी जगह बना ली है जहां से उन्हें निकाल पाना असंभव है. पिताजी को भी मेरी मनोस्थिति का आभास हो चला था किंतु वह अमर पर दबाव डाल कर कोई फैसला नहीं करवाना चाहते थे और यही मत मेरा भी था. रुड़की पहुंच कर अमर ने एक छोटा सा पत्र पिताजी को लिखा था जिस में अपनी पढ़ाई के जिक्र के साथ घर भर की कुशलक्षेम पूछी थी. पर पत्र में कहीं भी मेरा कोई जिक्र नहीं था. इस के बाद भी जो पत्र आते मैं ध्यान से पढ़ती पर हर बार मुझे निराशा ही मिलती. मैं ने अमर का यह रुख देख कर अपना ध्यान पढ़ाई में लगा लिया तथा अमर को भूलने का प्रयत्न करने लगी.

दिन बीतने के साथ यादें भी धुंधली पड़ने लगी थीं. मैं ने भी धुंध हटाने का प्रयत्न न कर पढ़ाई में दिल लगा लिया. हायर सेकंडरी करने के बाद मैं इंटीरियर डेकोरेशन का कोर्स करने लगी थी. एक दिन मैं कालिज से लौटी तो एक लिफाफा छोटी बहन दिव्या ने मुझे दिया. पत्र पर जानीपहचानी लिखावट देख कर मैं चौंक उठी. धड़कते दिल से लिफाफा खोला. लिखा था, ‘ऋचा इतने सालों बाद मेरा पत्र पा कर आश्चर्य कर रही होगी पर फिर भी आशा करता हूं कि मेरी बेरुखी को तुम अन्यथा नहीं लोगी. यद्यपि हम ने कभी अपने प्रेम का इजहार नहीं किया पर हमारे दिलों में एकदूसरे की चाहत की जो लौ जली थी, उस से मैं अनजान नहीं था. मुझे अपने प्यार पर विश्वास था. बस, समय का इंतजार कर रहा था. आज वह समय आ गया है.

‘तुम सोच रही होगी कि अगर मैं वास्तव में तुम से प्यार करता था तो इतने सालों तक तुम्हें पत्र क्यों नहीं लिखा? तुम्हारा सोचना सच है पर उन दिनों मैं इन सब बातों से हट कर अपना पूरा ध्यान पढ़ाई में लगाना चाहता था. मैं तुम्हारे योग्य बन कर ही तुम्हारे साथ आगे बढ़ना चाहता था. अब मेरी पढ़ाई समाप्त हो गई है तथा मुझे अच्छी नौकरी भी मिल गई है. आज ही ज्वाइन करने जा रहा हूं अगर तुम कहो तो अगले सप्ताह आ कर गुरुजी से तुम्हारा हाथ मांग लूं. लेकिन विवाह मैं एक साल बाद ही करूंगा. क्योंकि तुम तो जानती ही हो कि मेरे पास कुछ भी नहीं है तथा पिताजी से कुछ भी मांगना या लेना मेरे सिद्धांतों के खिलाफ है.

‘मैं चाहता हूं कि जब तुम घर में कदम रखो तो घर में कुछ तो हो, घरगृहस्थी का थोड़ाबहुत जरूरी सामान जुटाने के बाद ही तुम्हें ले कर आना चाहूंगा. अत: मुझे आशा है कि मेरी भावनाओं का सम्मान करते हुए जहां इतना इंतजार किया है वहीं कुछ दिन और करोगी पर यह कदम मैं तुम्हारी स्वीकृति के बाद ही उठाऊंगा. एक पत्र इसी बारे में गुरुजी को लिख रहा हूं. अगर इस रिश्ते के लिए तुम तैयार हो तो दूसरा पत्र गुरुजी को दे देना. जब वे चाहेंगे मैं आ जाऊंगा.’

पत्र पढ़ने के साथ ही मेरे मन के तार झंकृत हो उठे थे. इंतजार की एकएक घड़ी काटनी कठिन हो रही थी. पिताजी को पत्र दिया तो वह भी खुशी से उछल पडे़. घर में सभी खुश थे. इतने योग्य दामाद की तो शायद किसी ने कल्पना भी नहीं की थी. आखिर वह दिन भी आ गया जब सीधेसादे समारोह में मात्र 2 जोड़ी कपड़ों में मैं विदा हो गई. मां को मुझे सिर्फ 2 जोड़ी कपड़ों में विदा करना अच्छा नहीं लगा था लेकिन अमर की जिद के आगे सब विवश थे. हां, पिताजी जरूर अपने दामाद के मनोभावों को जान कर गर्वोन्मुक्त हो उठे थे.

विवाह के कुछ साल बाद ही पिताजी का निधन हो गया. सुरेंद्र उस समय मेडिकल के प्रथम वर्ष में था. दिव्या छोटी थी. मां पर तो जैसे दुखों का पहाड़ ही टूट पड़ा था. पेंशन में देरी के साथ पीएफ का पैसा भी नहीं मिल पाया था. घर खर्च के साथ ही सुरेंद्र की पढ़ाई का खर्च चलाना मां के लिए कठिन काम था. तब अमर ने ही मां की सहायता की थी. अमर से सहायता लेने पर मां झिझकतीं तो अमर कहते, ‘मांजी, क्या मैं आप का बेटा नहीं हूं, जब सुरेंद्र आप के लिए करेगा तो क्या आप को बुरा लगेगा?’

यद्यपि मां ने पिताजी का पैसा मिलने पर जबतब मांगी रकम को लौटाया भी था, पर अमर को उन का ऐसे लौटाना अच्छा नहीं लगा था. उन का कहना था कि ऐसी सहायता से क्या लाभ जिस का हम प्रतिदान चाहें. अत: जबजब भी ऐसा हुआ मैं मां के द्वारा लौटाई राशि को बैंक में दिव्या के नाम से जमा करती गई. यह सुझाव भी अमर का ही था. दिव्या उस के विवाह के समय केवल 7 वर्ष की थी. अमर ने उसे गोद में खिलाया था. वह उसे अपनी बेटी मानते थे. इसीलिए दिव्या के प्रति अपने कर्तव्यों की पूर्ति करना चाहते थे और साथ ही मां का भार कम करने में अपना योगदान दे कर उन की मदद के साथ गुरुजी के प्रति अपनी श्रद्धा को बनाए रखना चाहते थे. वैसे भी हमारे 2 पुत्र ही हैं. पुत्री की चाह दिल में ही रह गई थी. शायद ऐसा कर के अमर दिव्या के विवाह में बेटी न होने के अपने अरमान को पूरा करना चाहते थे.

मां की लौटाई रकम से मैं ने दिव्या के लिए मंगलसूत्र के साथ हार का एक सेट भी खरीदा था मगर स्वागत समारोह का खर्चा अमर दिव्या को अपनी बेटी मानने के कारण कर रहे हैं. पर यह बात मैं किसकिस को समझाऊं. आज सुरेंद्र के मौन और नमिता की बातों ने ऋचा को मर्माहत पीड़ा पहुंचाई थी. कितना बड़ा आरोप लगाया है उस ने अमर की ईमानदारी पर. सुनियोजित बचत के कारण जिस धन से आज वह बहन के विवाह में सहायता कर पा रही है उसे दो नंबर का धन कह दिया. वैसे भी 20 साल की नौकरी में क्या इतना भी नहीं बचा सकते कि कुछ गहनों के साथ एक स्वागत समारोह का खर्चा उठा सकें. इस से दो नंबर के पैसे की बात कहां से आ गई. क्या इनसानी रिश्तों का, भावनाओं का कोई महत्त्व नहीं रह गया है.

निज स्वार्थ में लोग इतने अंधे क्यों होते जा रहे हैं कि खुद को सही साबित करने के प्रयास में दूसरों को कठघरे में खड़ा करने में भी उन्हें हिचक नहीं होती. उस का मन किया कि जा कर नमिता की बात का प्रतिवाद करे. लेकिन नमिता के मन में जो संदेह का कीड़ा कुलबुला रहा है, वह क्या उस के प्रतिरोध करने भर से दूर हो पाएगा. नहींनहीं, वह अपनी तरफ से कोई सफाई पेश नहीं करेगी. यदि इनसान सही है और निस्वार्थ भाव से कर्म में लगा है तो देरसबेर सचाई दुनिया के सामने आ ही जाएगी. अचानक ऋचा ने एक निर्णय लिया कि दिव्या के विवाह के बाद वह इस घर से नाता तोड़ लेगी. जहां उसे तथा उस के पति को मानसम्मान नहीं मिलता वहां आने से क्या लाभ. उस ने बड़ी बहन का कर्तव्य निभा दिया है. भाई पहले ही स्थापित हो चुका है तथा 2 दिन बाद छोटी बहन भी नए जीवन में प्रवेश कर जाएगी. अब उस की या उस की सहायता की किसी को क्या जरूरत? लेकिन क्या जब तक मां है, भाई है, उस का इस घर से रिश्ता टूट सकता है…अंतर्मन ने उसे झकझोरा.

आखिर वह दिन भी आ गया जब दिव्या को दूसरी दुनिया में कदम रखना था. वह भी ऐसे व्यक्ति के साथ जिस को वह पहले से जानती तक नहीं है. जयमाला के बाद दिव्या और दीपेश समस्त स्नेहीजनों से शुभकामनाएं स्वीकार कर रहे थे. समस्त परिवार उन दोनों के साथ सामूहिक फोटोग्राफ के लिए मंच पर जमा हुआ था तभी दीपेश के पिताजी ने एक सज्जन को दीपेश के चाचा के रूप में अमर से परिचय करवाया तो वह एकाएक चौंक कर कह उठे, ‘‘अमर साहब, आप की ईमानदारी के चर्चे तो पूरे विभाग में मशहूर हैं. आज आप से मिलने का भी अवसर प्राप्त हो गया. मुझे खुशी है कि ऐसे परिवार की बेटी हमारे परिवार की शोभा बनने जा रही है.’’

दीपेश के चाचा, जो अमर के विभाग में ही उच्चपदाधिकारी थे, ने यह बात इतनी गर्मजोशी के साथ कही कि अनायास ही मंच पर मौजूद सभी की नजर अमर की ओर उठ गई.

एकाएक ऋचा के चेहरे पर चमक आ गई. उस ने मुड़ कर नमिता की ओर देखा तो उसे सुरेंद्र की ओर देखते हुए पाया. उस की निगाहों में क्षमा का भाव था या कुछ और वह समझ नहीं पाई लेकिन उन सज्जन के इतना कहने भर से ही उस के दिलोदिमाग पर से पिछले कुछ दिनों से रखा बोझ हट गया. सुखद आश्चर्य तो उसे इस बात का था कि एक अजनबी ने पल भर में ही उस के दिल के उस दंश को कम किया जिसे उस के अपनों ने दिया था.

आखिर सचाई सामने आ ही गई. ऐसा तो एक दिन होना ही था पर इतनी जल्दी और ऐसे होगा ऋचा ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था. वास्तव में जीवन के नैतिक मूल्यों में कभी बदलाव नहीं होता. वह हर काल, परिस्थिति और समाज में हमेशा एक से ही रहे हैं और रहेंगे, यह बात अलग है कि मानव निज स्वार्थ के लिए मूल्यों को तोड़तामरोड़ता रहता है. प्रसन्नता तो उसे इस बात की थी कि आज भी हमारे समाज में ईमानदारी जिंदा है. Hindi Kahani

Short Story: रीते हाथ

Short Story: महत्त्वाकांक्षी उमा ने खूब सपने संजोए थे अपने भावी पति के बारे में. जल्द ही उस का सपना पूरा भी हो गया. सिला खत्म कर उमा घर से निकली तो मैं दरवाजा बंद कर अंदर आ गई. आंखों में अतीत और वर्तमान दोनों आकार लेने लगे. मैं सोफे पर चुपचाप बैठ कर अपने ही खयालों में खोई अपनी सहेली के रीते हाथों के बारे में सोचती रही. क्यों उमा से मेरी दोस्ती मां को बिलकुल पसंद नहीं थी. सुंदर, स्मार्ट, हर काम में आगे, उमा मुझे बहुत अच्छी लगती थी. वह मुझ से एक क्लास आगे थी और रास्ता एक होने के कारण हम अकसर साथ स्कूल आतेजाते थे. तब मैं भरसक इस कोशिश में रहती कि मां को हमारे मिलने का पता न चले, पर मां को सब पता चल ही जाता था.

उमा स्कूल से कालिज पहुंची तो दूसरे ही साल मेरा भी दाखिला उसी कालिज में हो गया. कालिज के उमड़ते सैलाब में तो उमा ही मेरा एकमात्र सहारा थी. यहां उस का प्रभाव स्कूल से भी ज्यादा था. कालिज का कोई भी कार्यक्रम उस के बगैर अधूरा लगता था. नाटक हिंदी का हो या अंगरेजी का उमा का नाम तो होता ही, अभिनय भी वह गजब का कर लेती थी. लड़कों की एक  लंबी फेहरिस्त थी, जो उमाके दीवाने थे. वह भी तो कैसे बेझिझक उन सब से बात कर लेती थी. बात भी करती और पीठ पीछे उन का मजाक भी उड़ाती. कालिज से लौटते समय एक बार उमा ने मुझे बताया था कि अभी तो ये ग्रेजुएशन ही कर रहे हैं और इन को कुछ बनने में, कमाने में सालों लगेंगे. मैं तो किसी ऐसे युवक से विवाह करूंगी जिस की अच्छी आमदनी हो ताकि मैं आराम से रह सकूं.

इसलिए मैं किसी के प्यार के चक्कर में नहीं पड़ती. मैं उस की दूरदर्शी बातें सुन कर आश्चर्यचकित रह गई. मुझ में झिझक थी. मैं अपनी किताबी दुनिया से बाहर कुछ नहीं जानती थी और उमा ठीक मेरे विपरीत थी. क्या यही कारण था, जो मुझे उस के व्यक्तित्व की ओर आकर्षित करता था? मन में छिपी एक कसक थी कि काश, मैं भी उस की जैसी बन पाती लेकिन मां क्यों…?

संयोग देखो कि उस की आकांक्षाओं पर जो युवक खरा उतरा वह मेरा ही मुंहबोला भाई विकास था. विकास से हमारा पारिवारिक रिश्ता इतना भर था कि उस के और मेरे पिता कभी साथसाथ पढ़ते थे पर इतने भर से ही विकास ने कभी हम बहनों को भाई की कमी महसूस नहीं होने दी. अपने घर की एक पार्टी में मैं ने विकास का परिचय उमा से कराया था और यह परिचय दोस्ती का रूप धर धीरेधीरे प्रगाढ़ होता चला गया था. मगर उस के पिता का मापतौल अलग था, उमा की आकांक्षाओं पर विकास भले ही खरा उतरा था. उमा की मां किसी राजघराने से संबंधित थीं और इस बात का गरूर उमा की मां से अधिक उस के पिता को था.

एक साधारण परिवार में वह अपनी बेटी ब्याह दें, यह नामुमकिन था. इसलिए उन्होंने एक खानदानी रईस परिवार में उमा का रिश्ता कर दिया. ऐसी बिंदास लड़की पर भी मांबाप का जोर चलता है, सोच कर मुझे आश्चर्य हुआ पर यही सच था. उमा के विवाह के 2 महीने बाद ही मेरा भी विवाह हो गया. पहली बार मायके आने पर पता चला कि उमा भी मायके आई हुई है, हमेशा के लिए. ‘लड़का नपुंसक है,’ यही बात उमा ने सब से कही थी. यह सच था अथवा उस ने अपने डिक्टेटर पिता को उन्हीं की शैली में जवाब दिया था, वही जाने. बहरहाल, पिता अपना दांव लगा कर हार चुके थे. इस बार मां ने दबाव डाला. उमा एक बार फिर दुलहन बनी और इस बार दूल्हा विकास था. प्यार की आखिरकार जीत हुई थी. एक असंभव सी लगने वाली बात संभव हो गई. हम सभी खुश थे. विकास की खुशी हम सब की खुशी थी. बस, मां ही केवल औपचारिकता निभाती थीं उमा से.

साल दर साल बीत रहे थे. अब शादीब्याह जैसे पारिवारिक मिलन के अवसरों पर उमा से मुलाकात हो ही जाती. एकदूसरे की हमराज तो हम पहले से ही थीं, अब और भी करीब हो गई थीं. एक बात सोचती हूं कि मनचाहा पा कर भी व्यक्ति संतुष्ट क्यों नहीं हो पाता? और ऊंचे उड़ने की अंधी चाह औंधेमुंह पटक भी तो सकती है. उमा यही बात समझ नहीं पा रही थी. उसे अपनी महत्त्वा- कांक्षाओं के आगे सब बौने लगने लगे थे. विकास से उस की शिकायतों की फेहरिस्त हर मुलाकात में पहले से लंबी हो रही थी, वह महत्त्वाकांक्षी नहीं, पार्टियों, क्लबों का शौकीन नहीं, उसे अंगरेजी फिल्में पसंद नहीं, वह उमा के लिए महंगेमहंगे उपहार नहीं लाता…और भी न जाने क्याक्या? मैं भी अब पहले जैसी नादान नहीं रही थी. दुनियादारी सीख चुकी थी और मुझ में इतना आत्मविश्वास आ चुका था कि उमा को अच्छेबुरे की, गलतसही की पहचान करा सकूं.

‘देख उमा, मैं जानती हूं कि विकास बहुत महत्त्वाकांक्षी नहीं है पर तुम तो आराम से रहती हो न, और सब से बड़ी बात, वह तुम्हें कितना प्यार करता है. इस से बड़ा सौभाग्य क्या और कुछ हो सकता है? बताओ, कितनों को मनपसंद साथी मिलता है. फिर भी तुम्हें शिकायतें हैं, जबकि ज्यादातर औरतें एक अजनबी व्यक्ति के साथ तमाम उम्र गुजार देती हैं, बिना गिलेशिकवों के.’

‘मैं यह नहीं कहती कि पुरुष की सब बदसलूकियां चुपचाप सह लो, उस के सब जुल्म बरदाश्त कर लो पर जीवन में समझौते तो सभी को करने पड़ते हैं. यदि औरत घरपरिवार में तो पुरुष भी घर से बाहर दफ्तर में, काम में समझौते करता ही है.

‘मुझे ही देखो. मेरे पति अपने पैसे को दांत से पकड़ कर रखते हैं. अब इस बात पर रोऊं या इस बात पर तसल्ली कर लूं कि फुजूलखर्ची की आदत नहीं है तो दुखतकलीफ में किसी के आगे हाथ तो नहीं फैलाने पड़ेंगे. दूसरे, कंजूस व्यक्ति में बुरी आदत जैसे सिगरेटशराब की लत पड़ने का भय नहीं रहता. अब यह तो जिस नजर से देखो नजारा वैसा ही दिखाई देगा.’

‘समझौता करना, कमियों को नजरअंदाज कर देना, यह सब तुम जैसे कमजोर लोगों का दर्शन है सुधा, सो तुम्हीं करो. यह समझौते मेरे बस के नहीं. मुझे जो एक जीवन मिला है मैं उसे भरपूर जीना चाहती हूं. शादी का मतलब यह तो नहीं कि मैं ने जीवन भर की गुलामी का बांड ही भर दिया है. ठीक है, गलती हो गई मेरे चयन में तो उसे सुधारा भी तो जा सकता है. मैं तुम्हारी तरह परंपरावादी नहीं हो सकती, होना भी नहीं चाहती और विकास को तो मैं सबक सिखा कर रहूंगी. इसी के लिए तो मैं पहले पति को छोड़ आई थी.’

विकास को सबक सिखाने का उमा ने नायाब तरीका भी ढूंढ़ निकाला. उस के काम पर जाते ही वह अपने पुरुष मित्रों से मिलने चल पड़ती. उस का व्यक्तित्व एक मैगनेट की तरह तो था ही जिस के आकर्षण में पुरुष स्वयं ख्ंिचे चले आते थे. क्या अविवाहित और क्या विवाहित, दोनों ही. उमा अब विकास के स्वाभिमान को, उस के पौरुष को खुलेआम चुनौती दे रही थी. उसे लगता था कि इस से अच्छा तो तलाक ही हो जाता. कम से कम वह चैन से तो जी पाएगा. उमा की यह इच्छा भी पूरी हो गई. उस का विकास से भी तलाक हो गया और वह अपनी 5 वर्षीय बेटी को भी छोड़ने को तैयार हो गई, क्योंकि इस बीच उस ने नवीन पाठक को पूरी तरह अपने मोहजाल में फंसा कर विवाह का वादा ले लिया था.

मैं उस के नए पति से कभी मिली नहीं थी और न ही मिलने की कोई उत्सुकता थी. बस, इतना जानती थी कि वह किसी उच्च पद पर है और प्राय: ही विदेश जाता रहता है. कुछ दिन के बाद उमा दूसरे शहर चली गई तो हम सब ने राहत की सांस ली. बस, विकास को देख कर मन दुखी होता था. इस रिश्ते का टूटना विकास के लिए महज एक कागजी काररवाई न थी. उस में अस्वीकृति का बड़ा एहसास जुड़ा था और उस जैसे संवेदनशील व्यक्ति के लिए यह गहरा धक्का था. वैरागी सा हो गया था वह. कम ही किसी से मिलता और काम के बाद का सारा समय वह अपनी बेटी के संग ही बिताता.

लंबे अंतराल के बाद एक बार फिर उमा अचानक मिल गई. इस बीच हम भी अनेक शहर घूम दिल्ली आ कर बस गए थे. हुआ यों कि एक शादी के रिसेप्शन में शामिल होने हम जिस होटल में गए थे, होटल की लौबी में अचानक ही उमा मुझे दिख गई. उस ने भी मुझे देख लिया और फौरन हम एकदूसरे की तरफ लपके. उमा अब 50 को छू रही थी किंतु उस के साथ जो पुरुष था वह उस से काफी बड़ा लग रहा था. उस समय तो अधिक बातचीत नहीं हो पाई पर उसे देख कर सब पुरानी यादें उमड़ पड़ी थीं. मैं ने फौरन उसे अगले ही दिन घर आने और पूरा दिन संग बिताने के लिए आमंत्रित कर लिया. आश्चर्य, अब भी उस के प्रति मेरा अनुराग बना हुआ था. उमा समय पर पहुंची. मैं ने खाना तो तैयार कर ही रखा था, काफी भी बना कर थर्मस भर दिया था ताकि इत्मीनान से बैठ कर हम बातचीत कर सकें.

मेरे पहले प्रश्न का उत्तर ही मुझे झटका दे गया, महज बात शुरू करने के लिए मैं ने पूछा, ‘‘तुम्हारे पाठक साहब कैसे मिजाज के हैं? मैं ने कल पहली बार उन्हें देखा.’’

उमा के चेहरे पर एक बुझी हुई और उदास सी मुसकान दिखाई दी और पल भर में वह गायब भी हो गई, कुछ पल खामोश रही वह, पर मेरी उत्सुक निगाहों को देख टुकड़ोंटुकड़ों में बोली, ‘‘वह पाठक नहीं था. हम दोनों अब एकसाथ रहते हैं. दरअसल, पाठक सही आदमी नहीं था. बहुत ऐयाश किस्म का आदमी था वह. तुम सोच नहीं सकतीं कि मैं किस तनाव से गुजरी हूं. जी चाहता है जान दे दूं. एंटी डिपे्रशन की दवाई तो लेती ही हूं.’’

विकास के साथ किए गए उस के पुराने व्यवहार को भूल कर मैं ने उस का हाथ अपने हाथ में ले कर सांत्वना देने का प्रयत्न किया.

‘‘कई औरतों के साथ पाठक के संबंध थे और विवाह के एक साल बाद से ही वह खुलेआम अपने दफ्तर की एक महिला के संग घूमने लगा था. जब जी चाहता वह घर आता, जब चाहता रात भी उसी के संग बिता देता. अपनी ऐसी तौहीन, मेरे बरदाश्त के बाहर थी.’’

‘हमारे किए का फल कई बार कितना स्पष्ट होता है’ कहना चाह कर भी मैं कह नहीं पाई. मुझे उस से हमदर्दी हो रही थी. एक औरत होने के नाते या पुरानी दोस्ती के नाते? जो भी मान लो.

‘‘फिर अब कहां रहती हो?’’ मैं ने पूछा.

‘‘एक फ्लैट पाठक ने विवाह के समय ही मेरे नाम कर दिया था. मैं उसी में रहती हूं. बाकी मैं रीयल एस्टेट का अपना व्यवसाय करती हूं ताकि उस से और किसी सहायता की जरूरत न पड़े.’’

बच्चों की बात हुई तो मैं ने उसे बताया कि मेरे दोनों बच्चे ठीक से सैटल हो चुके हैं. बेटे ने अहमदाबाद से एम.बी.ए. किया है और बेटी ने बंगलौर से. बेटी का तो विवाह भी हो चुका है और अब बेटे के विवाह की सोच रहे हैं. जानती तो मैं भी थी उस की बिटिया के बारे में पर वह कितना जानती है पता नहीं. यही सोच कर मैं कुछ नहीं बोली. उस ने स्वयं ही बेजान सी आवाज में कहा, ‘‘सुना है, अलग अपनी किसी सहेली के साथ रहती है. कईकई दिनों घर नहीं जाती. मुझ से तो ठीक से बात करने को भी तैयार नहीं. फोन करूं तो एकदो बात का अधूरा सा जवाब दे कर फोन रख देती है,’’ यह कहतेकहते वह रोंआसी हो गई. मैं उस की ओर देखती रही, लेकिन ढूंढ़ नहीं पाई जीवन से भरपूर, अपनी ही शर्तों पर जीने वाली उमा को.

‘‘सिर पर छत तो है पर सोच सकती हो, उस घर में अकेले रहना कितना भयावना हो जाता है? लगता है दीवारें एकसाथ गिर कर मुझे दबोच डालने का मनसूबा बनाती रहती हैं. शाम होते ही घर से निकल पड़ती हूं. कहीं भी, किसी के भी साथ… मैं तुम्हें पुरातनपंथी कहती थी, मजाक उड़ाती थी तुम्हारा. पर तुम ही अधिक समझदार निकलीं, जो अपना घर बनाए रखा, बच्चों को सुरक्षात्मक माहौल दिया. बच्चे तुम्हारे भी तुम से दूर हैं, फिर भी वह तुम्हारे अपने हैं. पूर्णता का एहसास है तुम्हें, कैसा भी हो तुम्हारा पति तुम्हारे साथ है, उस का सुरक्षात्मक कवच है तुम्हारे चारों ओर. जानती हो, मुझे कैसीकैसी बातें सुननी पड़ती हैं. मेरी ही बूआ का दामाद एक दिन मुझ से बोला, कोई बात नहीं यदि पाठक चला गया तो हम तो हैं न.

‘‘उस की बात से अधिक उस के कहने का ढंग, चेहरे का भाव मुझे आज भी परेशान करता है पर चुप हूं. मुंह खोलूंगी तो बूआ और उन की बेटी दोनों को दुख पहुंचेगा. और फिर अपने ही किए की तो सजा पा रही हूं…’’

उमा को अपनी गलतियों का एहसास होने लगा था. ठोकरें खा कर दूसरों के दुखदर्द का खयाल आने लगा था पर अब बहुत देर हो चुकी थी. मैं उस की सहायता तो क्या करती, सांत्वना के शब्द भी नहीं सोच पा रही थी. वही फिर बोली, ‘‘सुधा, घर तो खाली है ही मेरा मन भी एकदम खाली है. लगता है घनी अंधेरी रात है और मैं वीरान सड़क पर अकेली खड़ी हूं… रीते हाथ. Short Story

Bihar Politics : पावरलेस नीतीश कुमार- नाम किसी का राज किसी का

बिहार में चुनाव हो गए और नीतीश कुमार 10वीं बार मुख्यमंत्री बन गए. इस बार नीतीश कुमार बदलेबदले नजर आ रहे हैं. बिहार के 2020 और 2025 के दोनों विधानसभा चुनावों में खास बात यह थी कि भाजपा के विधायकों की संख्या जदयू के विधायकों से अधिक थी. इस के बाद भी भाजपा ने नीतीश कुमार को बिहार का मुख्यमंत्री कबूल कर लिया.
2025 के चुनाव नतीजों से पहले यह कयास लगाया जा रहा था कि भाजपा नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री का पद नहीं देगी. भाजपा ने नेता और गृहमंत्री अमित शाह ने कहा भी था कि ‘मुख्यमंत्री का नाम चुनाव नतीजों के बाद तय कर लिया जाएगा.’ अमित शाह के बयान का यह मतलब था कि नीतीश कुमार को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने के लिए भाजपा तैयार नहीं है.
बिहार में नीतीश कुमार का क्रेज था. नीतीश कुमार का नाम चल रहा था. ऐसे में भाजपा ने ‘सीएम फेस’ के मुद्दे पर अपने पैर वापस खीचें.
विपक्ष लगातार इस मुददे को हवा दे रहा था कि भाजपा नीतीश कुमार को साइड कर रही है. नीतीश कुमार का साथ भाजपा के लिए जरूरी और मजबूरी दोनों है. केंद्र सरकार को चलाने में नीतीश कुमार और चन्द्र बाबू नायडू का सहयोग जरूरी हैं. ऐसे में बिहार में भाजपा को अपनी ज्यादा सीटों के बाद भी नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाना मजबूरी था, क्योंकि केंद्र के लिए नीतीश कुमार जरूरी हैं.
इस उहापोह के बीच भाजपा का एक सपना फंसा हुआ है. वह पूरे भारत को जीत कर चक्रवर्ती सम्राट बनना चाहती है. बिहार को जीत तो लिया पर राज तो नीतीश का ही चल रहा है. यह भाजपा को सहन नहीं हो रहा है. इस के लिए उस ने बीच का रास्ता यह निकाला कि नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री पद पर बैठ तो जाएं पर वह पावरलेस रहें. वह केवल रबर स्टैंप हों. इस योजना के तहत बिहार में भाजपा ने शतरंज की गोट बिछा दी है.
बिहार में मुख्यमंत्री का पद भले ही नीतीश कुमार के पास हो पर उन के साथ दो उपमुख्यमंत्री बना दिए गए हैं. इन में पहले सम्राट चौधरी हैं और दूसरे उपमुख्यमंत्री विजय कुमार सिन्हा हैं. सम्राट चौधरी को गृह विभाग मिलने से उन का पावर अधिक हो गया है. सम्राट चौधरी को नीतीश कुमार के विकल्प के रूप में तैयार किया जा रहा है.
26 सदस्यों की टीम में नीतीश कुमार के अलावा 9 नए चेहरे शामिल है. इन में भाजपा के 14, जदयू के 8, लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के 2, हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा (सेक्युलर) और राष्ट्रीय लोकमोर्चा (आरएलएम) के एकएक सदस्य शामिल हैं. नीतीश की इस कैबिनेट में एक मुसलिम मंत्री और 3 महिलाएं हैं. पिछली नीतीश सरकार के मंत्री रहे एक दर्जन से अधिक नेताओं को इस बार नीतीश की नई कैबिनेट में जगह नहीं मिली. इन में भाजपा के 15 और जदयू के 6 सदस्य हैं. इन में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा के बेटे नीतीश मिश्रा भी हैं.
नीतीश कैबिनेट में जातीय समीकरणों का भी पूरा ध्यान रखा गया. सब से अधिक 8 मंत्री सामान्य वर्ग से हैं, 6-6 पिछड़ी और अतिपिछड़ी जाति से और 5 अनुसूचित जाति से मंत्री है. भाजपा की ओर से पूर्व उपमुख्यमंत्री रेणु देवी के साथ नीरज कुमार सिंह, नीतीश मिश्रा, जनक राम, हरि सहनी, केदार प्रसाद गुप्ता, संजय सरावगी, जीवेश कुमार, राजू कुमार सिंह, मोतीलाल प्रसाद, कृष्ण कुमार मंटू, संतोष सिंह और कृष्णनंदन पासवान के नाम शामिल हैं. इस मंत्रिमंडल में सब से खास बात यह है कि उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी आरएलएम से उन के बेटे दीपक प्रकाश को मंत्री बनाया गया. वह न तो विधायक हैं न ही विधान परिषद् के सदस्य. उन को 6 माह के भीतर सदस्य बनना पड़ेगा.

गृह विभाग क्यों होता है खास ?

नीतीश कुमार की हालत महाभारत के धृतराष्ट्र वाली है. जहां सिंहासन पर भले ही धृतराष्ट्र बैठे हों पर राजकाल दुर्योधन के अनुसार चल रहा है. नीतीश कुमार जब से बिहार के मुख्यमंत्री है गृहविभाग उन के ही पास रहा है. जब वह 10वीं बार मुख्यमंत्री बने तो गृहविभाग उप मुख्यमंत्री और भाजपा नेता सम्राट चौधरी को देना पड़ा. किसी भी देश और प्रदेश में गृहविभाग सब से अहम होता है. केंद्र की मोदी सरकार में 2014 में गृहविभाग राजनाथ सिंह के पास था. 2019 में जब अमित शाह को मोदी मंत्रिमंडल में जगह दी गई तो उन को गृहविभाग देने के लिए राजनाथ सिंह को रक्षा विभाग की तरफ खिसका दिया गया. इस की वजह यह थी कि अमित शाह पीएम नरेंद्र मोदी के बेहद खास माने जाते हैं.
प्रदेशों में ज्यादातर ताकतवार मुख्यमंत्री गृह विभाग अपने पास रखते हैं. उत्तर प्रदेश में गृह विभाग मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पास है. जिस के बल पर उन का ‘बुलडोजर’ चलता है. गृहविभाग के अंदर ही पुलिस आती है. जिस से सरकार का रसूख चलता है. बिहार सरकार के गृह विभाग में प्रशासन के रखरखाव के साथ अग्निशमन, कारागार प्रशासन, कानून और व्यवस्था, अपराध की रोकथाम और नियंत्रण, अपराधियों के अभियोजन का काम आता है.
20 साल में जब भी नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री थे तब इस विभाग के कामकाज की फाइल सीधे नीतीश कुमार के पास आती थी. क्योंकि वह गृहविभाग के मंत्री थे. अब गृहविभाग की फाइल सम्राट चौधरी के पास जाएगी. जब नीतीश कुमार मुख्यमंत्री के तौर पर इस में कोई हस्तक्षेप करना चाहेंगे तभी फाइल उन के पास जा सकती है. यह हालत आपसी विवाद को जन्म देगी क्योंकि कोई भी मंत्री यह नहीं चाहता कि कोई दूसरा उस के कामकाज में हस्तक्षेप करें. सम्राट चौधरी भाजपा के नेता हैं.
गृह विभाग सम्राट चौधरी के पास होने का मतलब यह है कि बिहार में कानून व्यवस्था की कमान अब भाजपा के पास है. सम्राट चौधरी के बयान भी इसी दिशा में हैं कि अपराधी या तो जेल में रहें या फिर बिहार के बाहर चले जाएं. यह भी हो सकता है कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यना का बुलडोजर अब सम्राट चौधरी के काम आने लगे. भाजपा उन को नीतीश कुमार के विकल्प के तौर पर उभरने का मौका दे रही है. ऐसे में नीतीश कुमार का हस्तक्षेप भाजपा को भी रास नहीं आएगा.

विवादों के घिरे रहे हैं सम्राट चौधरी

भाजपा में यह खासियत है कि वह दूसरे दलों के नेताओं न केवल अपने दल में मिला लेती है बल्कि उन को अहम जिम्मेदारी भी देती है. उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पाटी से आए ब्रजेश पाठक को उपमुख्यमंत्री बनाया उसी प्रकार से राजद, जदयू से निकले सम्राट चौधरी को बिहार का उपमुख्यमंत्री बना दिया. अब उन को बिहार में भाजपा नेता का प्रमुख चेहरा बना रही है. जिस से 2030 के विधानसभा चुनाव में वह अपने नेता के साथ चुनाव में जा सके. तभी भाजपा का विजयरथ आगे बढ़ सकेगा.
सम्राट चौधरी की खास बात यह है कि वह अभी 57 साल के है. उन के पास 10-15 साल का कैरियर बाकी है. इस के अलावा वह कोइरी (कुशवाहा) समुदाय से आते हैं. बिहार में राजनीत में भाजपा सवर्ण, एससी और अतिपिछड़ी जातियों को जोड़ कर चलती है. सम्राट चौधरी बिहार की राजनीति में लव-कुश (कुर्मी-कोइरी) गठजोड़ को मजबूत करने वाले प्रमुख ओबीसी चेहरे के रूप जाने जाते हैं. जो भाजपा को मजबूत आधार देने का काम करेगा.
सम्राट चौधरी का जन्म 16 नवंबर 1968 को मुंगेर जिले के लखनपुर गांव में हुआ था. उन का परिवार दशकों से बिहार की राजनीति के केंद्र में रहा है. उन के पिता शकुनी चौधरी 7 बार विधायक और सांसद रह चुके हैं, जबकि मां पार्वती देवी 1995 में तरापुर से विधायक थीं. सम्राट चौधरी की पत्नी ममता कुमारी पेषे से अधिवक्ता हैं और उन के दो बच्चे हैं.
सम्राट चौधरी ने 1990 में राष्ट्रीय जनता दल के अपने राजनीतिक कैरियर की शुरूआत की थी. 1999 में वे राबड़ी देवी सरकार में कृषि मंत्री बने. उस समय उन की उम्र 25 साल से कम थी. इस बात को ले कर विवाद उठा तो उन को मंत्री पद से हटा दिया गया था. 2000 और 2010 में सम्राट चौधरी परबत्ता सीट से विधायक चुने गए. 2010 में विपक्ष के मुख्य सचेतक बने. 2014 में वे जनता दल यूनाइटेड में शामिल हुए और जीतन राम मांझी सरकार में शहरी विकास एवं आवास मंत्री भी रहे.
2017-2018 में सम्राट चौधरी ने भाजपा का दामन थामा और तेजी से संगठन में आगे बढ़े. पहले वह बिहार भाजपा के उपाध्यक्ष और बाद में अध्यक्ष बने. 2020 में वह विधान परिशद सदस्य चुने गए. 2021-2022 में उन को पंचायती राज मंत्री बनाया गया. जब नीतीश और भाजपा गठबंधन टूटा तो अगस्त 2022 से अगस्त 2023 तक वे बिहार विधान परिशद में विपक्ष के नेता बने थे.
मार्च 2023 से जुलाई 2024 तक उन्होंने बिहार भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में पार्टी को नेतृत्व दिया. इसी दौरान उन्होंने पगड़ी पहनने की कसम खाई थी कि जब तक भाजपा सत्ता में नहीं लौटेगी, तब तक नहीं उतारेंगे. लोकसभा चुनाव से पहले जब नीतीश वापस भाजपा के साथ आए तो जनवरी 2024 में उन को भाजपा विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद उपमुख्यमंत्री बनाया गया. 2025 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपनी पैतृक सीट तरापुर से चुनाव जीता.
सम्राट चौधरी विवादों से घिरे रहे हैं. 25 साल से कम उम्र में मंत्री बनने के विवाद के चलते उन को हटना पड़ा था. उन की शिक्षा को ले कर भी विवाद है. सम्राट चौधरी की शिक्षा गृहनगर में पूरी की थी. उच्च शिक्षा के तौर पर मदुरै कामराज विश्वविद्यालय से डाक्टर औफ लिटरेचर (डी.लिट.) की डिग्री का उल्लेख किया है. 2010 के चुनावी हलफनामे में सम्राट चौधरी ने खुद को 7वीं कक्षा तक पढ़ा बताया था. 2025 में प्रशांत किशोर ने उन की डिग्री की प्रामाणिकता पर सवाल उठाया था. इस तरह से उन की शिक्षा विवादों में रही है.
चुनाव में अनुचित प्रभाव (धारा 171एफ), सरकारी आदेश की अवज्ञा (धारा 188), चोट पहुंचाने और दंगा से संबंधित आरोप भी सम्राट चौधरी पर दर्ज हैं. 2023 में उन का बयान विवादों में रहा कि भारत 1947 में नहीं, बल्कि 1977 में जेपी की संपूर्ण क्रांति से आजाद हुआ था. अब वह बिहार के उपमुख्यमंत्री हैं लेकिन उन को सुपर सीएम माना जा रहा है. भाजपा उन को बिहार में सीएम फेस के रूप में उभारना चाहती है. भाजपा को इस बात का दर्द है कि बिहार में उसका अपना मुख्यमंत्री कभी नहीं रहा है. उसे नीतीश कुमार के पीछे चलना पड़ रहा है. आने वाले 5 सालों में नीतीश कुमार कमजोर होंगे. उन के साथ भाजपा वही करेगी जो अपने सहयोगी दलों के साथ करती है. शिवसेना, एनसीपी और अकाली दल जैसी कई पार्टियां इस का दंश झेल रही है.

सहयोगियों खत्म कर ही बढ़ेगा भाजपा का विजय रथ

भाजपा के मूल में लोकतंत्र की भावना नहीं है. भाजपा पौराणिक राज को वापस लाना चाहती है जिस में राजा कोई भी हो पर राज ब्राहमणों का चलता रहा है. भाजपा अलगअलग जातियों को कुर्सी पर बैठा सकती है पर सिहासन पर आदेश आरएसएस का ही चलना चाहिए. यह व्यवस्था बनाने के लिए वह सहयोगी दलों को खत्म करना पड़ता है. नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू भले ही केंद्र में भाजपा के सहयोगी हों पर भाजपा उन को भी मौका मिलते ही खत्म करने में देर नहीं लगाएगी.
बिहार से पहले महाराष्ट्र इस का सब से बड़ा उदाहरण है. भाजपा ने सब से पहले शिवसेना को तोड़ा. इस के लिए उस ने एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बना दिया था. जब भाजपा का बहुमत आया तो एकनाथ शिंदे को वापस उपमुख्यमंत्री बना कर भाजपा नेता देवेन्द्र फडणवीस को मुख्यमंत्री बना दिया. एनसीपी में शरद पंवार के भतीजे अजित पंवार को भाजपा ने तोड़ कर अलग कर दिया. अब एकनाथ शिंदे और अजीत पंवार दोनों ही भाजपा के पिछलग्गू बन कर रह गए हैं.
बिहार में जदयू ही नहीं चिराग पासवान की लोकजन शक्ति पार्टी का भी वही हाल है. चिराग पासवान में अपने बलबूते कुछ करने की ताकत नहीं है. ऐसे में उन की पार्टी भाजपा की पिछलग्गू ही बनी रहेगी. जिस लोकजन शक्ति पार्टी को एससी और ओबीसी की बेहतरी के लिए काम करना था उस के नेता चिराग पासवान नरेंद्र मोदी के हनुमान बन कर ही खुश है. बिहार के नेता जीतन राम मांझी जैसे नेता भी नाराज होने के बाद भी भाजपा के पीछे चलने को मजबूर है.
उत्तर प्रदेश में लोकदल, अपना दल अनुप्रिया पटेल, ओम प्रकाश राजभर और संजय निषाद भाजपा के सहयोगी दल है. पिछड़ी जाति के आरक्षण को ले कर अनुप्रिया पटेल ने उत्तर प्रदेश की योगी सरकार से नाराज है. लोकदल के नेता जंयत चौधरी केंद्र में मंत्री रह कर ही खुश है. वह भाजपा से अलग का सोच नहीं सकते हैं. उन को लगता है कि भाजपा विरोध में उन का दल टूट जाएगा. ओमप्रकाश राजभर और सुभाश निषाद योगी सरकार के खिलाफ कुछ भी बोलने की हालत में नहीं है. बहुजन समाज पार्टी जब से भाजपा के दबाव में आई है उस को जनाधार खत्म होता जा रहा है.
पंजाब में शिरोमणि अकाली दल भारतीय जनता पार्टी का सहयोगी दल था. अटल बिहारी वाजपेई से लेकर नरेंद्र मोदी सरकार तक केंद्र सरकार में अकाली दल के नेताओं को मंत्री पद मिला हुआ था. कृषि कानूनों के विरोध में जब किसान आंदोलन हुआ तब से अकाली दल और भाजपा के बीच दूरियां बढ़नी शुरू हुई. भाजपा जब भी ‘हिंदू राष्ट्र’ की बात करती है तो सहज भाव से सिख को अपना खालिस्तान याद आने लगता है. अकाली नेता प्रकाश सिंह बादल हिंदू और सिखों के बीच एक कड़ी का काम करते थे जो दोनों को जोड़े थे. शिरोमणि अकाली दल के कमजोर होने का प्रभाव पंजाब की राजनीति पर पड़ रहा है. भाजपा ने अकाली दल का खत्म कर दिया है.
नवीन पटनायक और चन्द्रबाबू नायडू के साथ भी भाजपा ने इसी तरह से खेल किया है. दक्षिण भारत एआईएडीएमके जयललिता के समय से भाजपा के साथ थी. नरेंद्र मोदी के दौर में भाजपा की बदलती विस्तारवादी नीति से परेशान हो कर भाजपा से दूर हो गई. इस तरह से भाजपा अपने सहयोगी दलों से तभी तक मतलब रखती है जब तक उसे काम होता है. जैसे काम निकल जाता है भाजपा उन को पहचानती नहीं है. भाजपा अपने हिंदू राष्ट्र की पताका पूरे देश में फहराना चाहती है इस के लिए जरूरी है कि उस की विचाराधारा से सहमत न रहने वाले दलों को खत्म कर दिया जाए.
बिहार के बाद अगले साल 2026 में पष्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडू के विधानसभा चुनाव है जहां भाजपा अपना आधार बढाना चाहती है. पश्चिम बंगाल में भाजपा टीएमसी के साथ टकरा रही है. वामपंथी दल और कांग्रेस वहां खत्म हो गए हैं. भाजपा वहां टीएमसी और ममता बनर्जी को सत्ता से उतारना चाहती है. जिस से भाजपा के पौराणिक राज का विस्तार हो सके. इस की एक झलक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अयोध्या में दिए गए भाषण में मिलती है. राममंदिर में ध्वजारोहण करते पीएम मोदी के कहने का अर्थ यह था कि धर्मध्वजा रामराज का प्रतीक है. यहां निषाद राज, सबरी, अहल्या, महर्षि अगस्त्य, तुलसीदास, जटायू और गिलहरी की मूर्तियां भी हैं. इस के बाद राममंदिर है.
रामराज में जिस तरह से अलगअलग समुदाय के लोग थे पर राजा केवल महर्षि वशिष्ठ और महर्षि विश्वामित्र के कहे अनुसार चलता था. उसी तरह से देश में अलग अलग विचारधारा के लोग हो सकते हैं लेकिन उन को चलना भाजपा और संघ के अनुसार होगा. वह राजसत्ता चलाने के लिए नहीं है. वह केवल वानर सेना का हिस्सा भर हो सकते हैं. विजय पताका केवल भाजपा की ही फैल सकती है. उस के पीछे वाले केवल साथ चल सकते हैं. इस के लिए सहयोगी दलों को समझना होगा. एनडीए में किसी दल की हैसियत नहीं है कि वह भाजपा से अलग सोच सके. पौराणिक ग्रंथों के चक्रवर्ती साम्रराज्य की पटकथा में भाजपा विजयश्री की माला खुद ही पहनना चाहती है.

Story in Hindi: एक मौका और दीजिए

Story in Hindi: नीलेश शहर के उस प्रतिष्ठित रेस्टोरेंट में अपनी पत्नी नेहा के साथ अपने विवाह की दूसरी सालगिरह मनाने आया था. वह आर्डर देने ही वाला था कि सामने से एक युगल आता दिखा. लड़की पर नजर टिकी तो पाया वह उस के प्रिय दोस्त मनीष की पत्नी सुलेखा है. उस के साथ वाले युवक को उस ने पहले कभी नहीं देखा था. मनीष के सभी मित्रों और रिश्तेदारों से नीलेश परिचित था. पड़ोसी होने के कारण वे बचपन से एकसाथ खेलेकूदे और पढ़े थे. यह भी एक संयोग ही था कि उन्हें नौकरी भी एक ही शहर में मिली. कार्यक्षेत्र अलग होने के बावजूद उन्हें जब भी मौका मिलता वे अपने परिवार के साथ कभी डिनर पर चले जाते तो कभी किसी छुट्टी के दिन पिकनिक पर. उन के कारण उन दोनों की पत्नियां भी अच्छी मित्र बन गई थीं.

मनीष का टूरिंग जाब था. वह अपने काम के सिलसिले में महीने में लगभग 10-12 दिन टूर पर रहा करता था. इस बार भी उसे गए लगभग 10 दिन हो गए थे. यद्यपि उस ने फोन द्वारा शादी की सालगिरह पर उन्हें शुभकामनाएं दे दी थीं किंतु फिर भी आज उसे उस की कमी बेहद खल रही थी. दरअसल, मनीष को ऐसे आयोजनों में भाग लेना न केवल पसंद था बल्कि समय पूर्व ही योजना बना कर वह छोटे अवसरों को भी विशेष बना दिया करता था. मनीष के न रहने पर नीलेश का मन कोई खास आयोजन करने का नहीं था किंतु जब नेहा ने रात का खाना बाहर खाने का आग्रह किया तो वह मना नहीं कर पाया. कार्यक्रम बनते ही नेहा ने सुलेखा को आमंत्रित किया तो उस ने यह कह कर मना कर दिया कि उस की तबीयत ठीक नहीं है पर उसे इस समय देख कर तो ऐसा नहीं लग रहा है कि उस की तबीयत खराब है. वह उस युवक के साथ खूब खुश नजर आ रही है.

नीलेश को सोच में पड़ा देख नेहा ने पूछा तो उस ने सुलेखा और उस युवक की तरफ इशारा करते हुए अपने मन का संशय उगल दिया.

‘‘तुम पुरुष भी…किसी औरत को किसी मर्द के साथ देखा नहीं कि मन में शक का कीड़ा कुलबुला उठा…होगा कोई उस का रिश्तेदार या सगा संबंधी या फिर कोई मित्र. आखिर इतनेइतने दिन अकेली रहती है, हमेशा घर में बंद हो कर तो रहा नहीं जा सकता, कभी न कभी तो उसे किसी के साथ की, सहयोग की जरूरत पड़ेगी ही,’’ वह प्रतिरोध करते हुए बोली, ‘‘न जाने क्यों मुझे पुरुषों की यही मानसिकता बेहद बुरी लगती है. विवाह हुआ नहीं कि वे स्त्री को अपनी जागीर समझने लगते हैं.’’

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‘‘ऐसी बात नहीं है नेहा, तुम ही तो कह रही थीं कि जब तुम ने डिनर का निमंत्रण दिया था तब सुलेखा ने कह दिया कि उस की तबीयत ठीक नहीं है और अब वह इस के साथ यहां…यही बात मन में संदेह पैदा कर रही है…और तुम ने देखा नहीं, वह कैसे उस के हाथ में हाथ डाल कर अंदर आई है तथा उस से हंसहंस कर बातें कर रही है,’’ मन का संदेह चेहरे पर झलक ही आया.

‘‘वह समझदार है, हो सकता है वह दालभात में मूसलचंद न बनना चाहती हो, इसलिए झूठ बोल दिया हो. वैसे भी किसी स्त्री का किसी पुरुष का हाथ पकड़ना या किसी से हंस कर बात करना सदा संदेहास्पद क्यों हो जाता है? फिर भी अगर तुम्हारे मन में संशय है तो चलो उन्हें भी अपने साथ डिनर में शामिल होने का फिर से निमंत्रण दे देते हैं…दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा.’’

नेहा ने नीलेश का मूड खराब होने के डर से बीच का मार्ग अपना लेना ही श्रेयस्कर समझा.

‘‘हां, यही ठीक रहेगा,’’ किसी के अंदरूनी मामले में दखल न देने के अपने सिद्धांत के विपरीत नीलेश, नेहा की बात से सहमत हो गया. दरअसल, वह उस उलझन से मुक्ति पाना चाहता था जो उस के दिल और दिमाग को मथ रही थी. वैसे भी सुलेखा कोई गैर नहीं, उस के अभिन्न मित्र की पत्नी है.

वे दोनों उठ कर उन के पास गए. उन्हें इस तरह अपने सामने पा कर सुलेखा चौंक गई, मानो वह समझ नहीं पा रही हो कि क्या कहे.

‘‘दरअसल सुलेखा, हम लोग यहां डिनर के लिए आए हैं. वैसे मैं ने सुबह तुम से कहा भी था पर उस समय तुम ने कह दिया कि तबीयत ठीक नहीं है पर अब जब तुम यहां आ ही गई हो तो हम चाहेंगे कि तुम हमारे साथ ही डिनर कर लो. इस से हमें बेहद प्रसन्नता होगी,’’ नेहा उसे अपनी ओर आश्चर्य से देखते हुए भी सहजता से बोली.

‘‘पर…’’ सुलेखा ने झिझकते हुए कुछ कहना चाहा.

‘‘पर वर कुछ नहीं, सुलेखाजी, मनीष नहीं है तो क्या हुआ, आप को हमेंकंपनी देनी ही होगी…आप भी चलिए मि…आप शायद सुलेखाजी के मित्र हैं,’’ नीलेश ने उस अजनबी की ओर देखते हुए कहा.

‘‘यह मेरा ममेरा भाई सुयश है,’’ एकाएक सुलेखा बोली.

‘‘वेरी ग्लैड टू मीट यू सुयश, मैं नीलेश, मनीष का लंगोटिया यार, पर भाभी, आप ने कभी इन के बारे में नहीं बताया,’’ कहते हुए नीलेश ने बडे़ गर्मजोशी से हाथ मिलाया.

‘‘यह अभी कुछ दिन पूर्व ही यहां आए हैं,’’ सुलेखा ने कहा.

‘‘ओह, तभी हम अभी तक नहीं मिले हैं, पर कोई बात नहीं, अब तो अकसर ही मुलाकात होती रहेगी,’’ नीलेश ने कहा.

अजीब पसोपेश की स्थिति में सुलेखा साथ आ तो गई पर थोड़ी देर पहले चहकने वाली उस सुलेखा तथा इस सुलेखा में जमीनआसमान का अंतर लग रहा था…जितनी देर भी साथ रही चुप ही रही, बस जो पूछते उस का जवाब दे देती. अंत में नेहा ने कह भी दिया, ‘‘लगता है, तुम को हमारा साथ पसंद नहीं आया.’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं है. दरअसल, तबीयत अभी भी ठीक नहीं लग रही है,’’ झिझकते हुए सुलेखा ने कहा.

बात आईगई हो गई. एक दिन नीलेश शौपिंग मौल के सामने गाड़ी पार्क कर रहा था कि वे दोनों फिर दिखे. उन के हाथ में कुछ पैकेट थे. शायद शौपिंग करने आए थे. आजकल तो मनीष भी यही हैं, फिर वे दोनों अकेले क्यों आए…मन में फिर संदेह उपजा, फिर यह सोच कर उसे दबा दिया कि वह उस का ममेरा भाई है, भला उस के साथ घूमने में क्या बुराई है.

मनीष के घर आने पर एक दिन बातोंबातों में नीलेश ने कहा, ‘‘भई, तुम्हारा ममेरा साला आया है तो क्यों न इस संडे को कहीं पिकनिक का प्रोग्राम बना लें. बहुत दिनों से दोनों परिवार मिल कर कहीं बाहर गए भी नहीं हैं.’’

‘‘ममेरा साला, सुलेखा का तो कोई ममेरा भाई नहीं है,’’ चौंक कर मनीष ने कहा.

‘‘पर सुलेखा भाभी ने तो उस युवक को अपना ममेरा भाई बता कर ही हम से परिचय करवाया था, उसे सुलेखा भाभी के साथ मैं ने अभी पिछले हफ्ते भी शौपिंग मौल से खरीदारी कर के निकलते हुए देखा था. क्या नाम बताया था उन्होंने…हां सुयश,’’ नीलेश ने दिमाग पर जोर डालते हुए उस का नाम बताते हुए पिछली सारी बातें भी उसे बता दीं.

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‘‘हो सकता है, कोई कजिन हो,’’ कहते हुए मनीष ने बात संभालने की कोशिश की.

‘‘हां, हो सकता है पर पिकनिक के बारे में तुम्हारी क्या राय है?’’ नीलेश ने फिर पूछा.

‘‘मैं बाद में बताऊंगा…शायद मुझे फिर बाहर जाना पडे़,’’ मनीष ने कहा.

नीलेश भी चुप लगा गया. वैसे नीलेश की पारखी नजरों से यह बात छिप नहीं पाई कि उस की बात सुन कर मनीष परेशान हो गया है. ज्यादा कुछ न कह कर मनीष कुछ काम है, कह कर उस के पास से हट गया. उस दिन उसे पहली बार महसूस हुआ कि दोस्ती चाहे कितनी भी गहरी क्यों न हो पर कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें व्यक्ति किसी के साथ शेयर नहीं करना चाहता.

उधर मनीष, नीलेश के प्रति अपने व्यवहार के लिए स्वयं को धिक्कार रहा था. पहली बार ऐसा हुआ था कि कोई प्रोग्राम बनने से पूर्व ही अधर में लटक गया था पर वह करता भी तो क्या करता. नीलेश की बातें सुन कर उस के दिल में  शक का कीड़ा कुलबुला कर नागफनी की तरह डंक मारते हुए उसे दंशित करने लगा था.

वह जानता था कि उसे महीने में 10-12 दिन घर से बाहर रहना पड़ता है. ऐसे में हो सकता है सुलेखा की किसी के साथ घनिष्ठता हो गई हो. इस में  कुछ बुरा भी नहीं है पर उसे यही विचार परेशान कर रहा था कि सुलेखा ने उस सुयश नामक व्यक्ति से उसे क्यों नहीं मिलवाया, जबकि नीलेश के अनुसार वह उस से मिलती रहती है. और तो और उस ने उस का नीलेश से अपना ममेरा भाई बता कर परिचय भी करवाया…जबकि उस की जानकारी में उस का कोई ममेरा भाई है ही नहीं…उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे पर सिर्फ अनुमान के आधार पर किसी पर दोषारोपण करना उचित भी तो नहीं है.

एक दिन जब सुलेखा बाथरूम में थी तो वह उस का सैलफोन सर्च करने लगा. एक नंबर  उसे संशय में डालने लगा क्योंकि उसे बारबार डायल किया गया था. नाम था सुश…सुश. नीलेश की जानकारी में सुलेखा का कोई दोस्त नहीं है फिर उस से बारबार बातें क्यों किया करती है और अगर उस का कोई दोस्त है तो उस ने उसे बताया क्यों नहीं. मन ही मन मनीष ने सोचा तो उस के अंतर्मन ने कहा कि यह तो कोई बात नहीं कि वह हर बात तुम्हें बताए या अपने हर मित्र से तुम्हें मिलवाए.

पर जीवन में पारदर्शिता होना, सफल वैवाहिक जीवन का मूलमंत्र है. अपने अंदर उठे सवाल का वह खुद जवाब देता है कि वह तुम्हारा हर तरह से तो खयाल रखती है, फिर मन में शंका क्यों?

‘शायद जिसे हम हद से ज्यादा प्यार करते हैं, उसे खो देने का विचार ही मन में असुरक्षा  पैदा कर देता है.’

‘अगर ऐसा है तो पता लगा सकते हो, पर कैसे?’

मन तर्कवितर्क में उलझा हुआ था. अचानक सुश और सुयश में उसे कुछ संबंध नजर आने लगा और उस ने वही नंबर डायल कर दिया.

‘‘बोलो सुलेखा,’’ उधर से किसी पुरुष की आवाज आई.

पुरुष स्वर सुन कर उसे लगा कि कहीं गलत नंबर तो नहीं लग गया अत: आफ कर के पुन: लगाया, पुन: वही आवाज आई…

‘‘बोलो सुलेखा…पहले फोन क्यों काट दिया, कुछ गड़बड़ है क्या?’’

उसे लगा नीलेश ठीक ही कह रहा था. सुलेखा उस से जरूर कुछ छिपा रही है… पर क्यों, कहीं सच में तो उस के पीछे उन दोनों में… अभी वह यह सोच ही रहा था कि सुलेखा नहा कर आ गई. उस के हाथ में अपना मोबाइल देख कर बोली, ‘‘कितनी बार कहा है, मेरा मोबाइल मत छूआ करो.’’

‘‘मेरे मोबाइल से कुछ नंबर डिलीट हो गए थे, उन्हीं को तुम्हारे मोबाइल से अपने में फीड कर रहा था,’’ न जाने कैसे ये शब्द उस की जबान से फिसल गए.

अपनी बात को सिद्ध करने के लिए वह ऐसा ही करने लगा जैसा उस ने कहा था. इसी बीच उस ने 2 आउटगोइंग काल, जो सुश को करे थे उन्हें भी डिलीट कर दिया, जिस से अगर वह सर्च करे तो उसे पता न चले.

अब संदेह बढ़ गया था पर जब तक सचाई की तह में नहीं पहुंच जाए तब तक वह उस से कुछ भी कह कर संबंध बिगाड़ना नहीं चाहता था. उस की पत्नी का किसी के साथ गलत संबंध है तथा वह उस से चोरीछिपे मिला करती है, यह बात भी वह सह नहीं पा रहा था. न जाने उसे ऐसा क्यों लगने लगा कि वह नामर्द तो नहीं, तभी उस की पत्नी को उस के अलावा भी किसी अन्य के साथ की आवश्यकता पड़ने लगी है.

‘तुम इतने दिन बाहर टूर पर रहते हो, अपने एकाकीपन को भरने के लिए सुलेखा किसी के साथ की चाह करने लगे तो इस में क्या बुराई है?’ अंतर्मन ने पुन: प्रश्न किया.

‘बुराई, संबंध बनाने में नहीं बल्कि छिपाने में है, अगर संबंध पाकसाफ है तो छिपाना क्यों और किस लिए?’

‘शायद इसलिए कि तुम ऐसे संबंध को स्वीकार न कर पाओ…सदा संदेह से देखते रहो.’

‘क्या मैं तुम्हें ऐसा लगता हूं…नए जमाने का हूं…स्वस्थ दोस्ती में कोई बुराई नहीं है.’

‘सब कहने की बात है, अगर ऐसा होता तो तुम इतने परेशान न होते… सीधेसीधे उस से पूछ नहीं लेते?’

‘पूछने पर मन का शक सच निकल गया तो सह नहीं पाऊंगा और अगर गलत निकला तो क्या मैं उस की नजरों में गिर नहीं जाऊंगा.’

‘जल्दबाजी क्यों करते हो, शायद समय के साथ कोई रास्ता निकल ही आए.’

‘हां, यही ठीक रहेगा.’

इस सोच ने तर्कवितर्क में डूबे मन को ढाढ़स बंधाया…उन के विवाह को 10 महीने हो चले थे. वह अपने पी.एफ. में उसे नामिनी बनाना चाहता था, उस के लिए सारी औपचारिकता पूरी कर ली थी. बस, सुलेखा के साइन करवाने बाकी थे. एक एल.आई.सी. भी खुलवाने वाला था, पर इस एपीसोड ने उसे बुरी तरह हिला कर रख दिया. अब उस ने सोचसमझ कर कदम उठाने का फैसला कर लिया.

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यद्यपि सुलेखा पहले की तरह सहज, सरल थी पर मनीष के मन में पिछली घटनाओं के कारण हलचल मची हुई थी. एक बार सोचा कि किसी प्राइवेट डिटेक्टर को तैनात कर सुलेखा की जासूसी करवाए, जिस से पता चल सके कि वह कहां, कब और किस से मिलती है पर जितना वह इस के बारे में सोचता, बारबार उसे यही लगता कि ऐसा कर के वह अपनी निजी जिंदगी को सार्वजनिक कर देगा…आखिर ऐसी संदेहास्पद जिंदगी कोई कब तक बिता सकता है. अत: पता तो लगाना ही पड़ेगा, पर कैसे, समझ नहीं पा रहा था. हफ्ते भर में ही ऐसा लगने लगा कि वह न जाने कितने दिनों से बीमार है. सुलेखा पूछती तो कह देता कि काम की अधिकता के कारण तबीयत ढीली हो रही है…वैसे भी सुलेखा का उस की चिंता करना दिखावा लगने लगा था. आखिर, जो स्त्री उस से छिप कर अपने मित्र से मिलती रही है वह भला उस के लिए चिंता क्यों करेगी?

उस दिन मनीष का मन बेहद अशांत था. आफिस से छुट्टी ले ली थी. सुलेखा ने पूछा तो कह दिया, ‘‘तबीयत ठीक नहीं लग रही है, अत: छुट्टी ले ली.’’

सुलेखा ने डाक्टर को दिखाने की बात कही तो वह टाल गया. आखिर बीमारी मन की थी, तन की नहीं, डाक्टर भी भला क्या कर पाएगा. रात का खाना भी नहीं खाया. सुलेखा के पूछने पर कह दिया कि बस, एक गिलास दूध दे दो, खाने का मन नहीं है. सुलेखा दूध लेने चली गई. उस के कदमों की आहट सुन कर उसे न जाने क्या सूझा कि अचानक अपनी छाती को कस कर दबा लिया तथा दर्द से कराहने लगा.

दर्द से उसे यों तड़पता देख कर उस ने दूध मेज पर रखा तथा उस के पास ‘क्या हुआ’ कहती हुई आई. उस के आते ही उस ने हाथपैर ढीले छोड़ दिए तथा सांस रोक कर ऐसे लेट गया मानो जान निकल गई हो. वह बचपन से तालाब में तैरा करता था, अत: 5 मिनट तक सांस रोक कर रखना उस के बाएं हाथ का खेल था.

सुलेखा ने उस के शांत पड़े शरीर को छूआ, थोड़ा झकझोरा, कोई हरकत न पा कर बोली, ‘‘लगता है, यह तो मर गए…अब क्या करूं…किसे बुलाऊं?’’

मनीष को उस की यह चिंता भली लगी. अभी वह अपने नाटक का अंत करने की सोच ही रहा था कि सुलेखा की आवाज आई :

‘‘सुयश, हमारे बीच का कांटा खुद ही दूर हो गया.’’

‘‘क्या, तुम सच कह रही हो?’’

‘‘विश्वास नहीं हो रहा है न, अभीअभी हार्टअटैक से मनीष मर गया. अब हमें विवाह करने से कोई नहीं रोक पाएगा…मम्मी, पापा के कहने से मैं ने मनीष से विवाह तो कर लिया पर फिर भी तुम्हारे प्रति अपना लगाव कम नहीं कर सकी. अब इस घटना के बाद तो उन्हें भी कोई एतराज नहीं होगा.

‘‘देखो, तुम्हें यहां आने की कोई आवश्यकता नहीं है. बेवजह बातें होंगी. मैं नीलेश भाई साहब को इस बात की सूचना देती हूं, वह आ कर सब संभाल लेंगे…आखिर कुछ दिनों का शोक तो मुझे मनाना ही होगा, तबतक तुम्हें सब्र करना होगा,’’ बातों से खुशी झलक रही थी.

‘पहले दूध पी लूं फिर पता नहीं कितने घंटों तक कुछ खाने को न मिले,’ बड़बड़ाते हुए सुलेखा ने दूध का गिलास उठाया और पास पड़ी कुरसी पर बैठ कर पीने लगी.

मनीष सांस रोके यह सब देखता, सुनता और कुढ़ता रहा. दूध पी कर वह उठी और बड़बड़ाते हुए बोली, ‘अब नीलेश को फोन कर ही देना चाहिए…’ उसे फोन मिला ही रही थी कि  मनीष उठ कर बैठ गया.’

‘‘तुम जिंदा हो,’’ उसे बैठा देख कर अचानक सुलेखा के मुंह से निकला.

‘‘तो क्या तुम ने मुझे मरा समझ लिया था…?’’ मनीष बोला, ‘‘डार्लिंग, मेरे शरीर में हलचल नहीं थी पर दिल तो धड़क रहा था. लेकिन खुशी के अतिरेक में तुम्हें नब्ज देखने या धड़कन सुनने का भी ध्यान नहीं रहा. तुम ने ऐसा क्यों किया सुलेखा? जब तुम किसी और से प्यार करती थीं तो मेरे साथ विवाह क्यों किया?’’

‘‘तो क्या तुम ने सब सुन लिया?’’ कहते हुए वह धम्म से बैठ गई.

‘‘हां, तुम्हारी सचाई जानने के लिए मुझे यह नाटक करना पड़ा था. अगर तुम उस के साथ रहना चाहती थीं तो मुझ से एक बार कहा होता, मैं तुम दोनों को मिला देता, पर छिपछिप कर उस से मिलना क्या बेवफाई नहीं है.

‘‘10 महीने मेरे साथ एक ही कमरे में मेरी पत्नी बन कर गुजारने के बावजूद आज अगर तुम मेरी नहीं हो सकीं तो क्या गारंटी है कल तुम उस से भी मुंह नहीं मोड़ लोगी…या सुयश तुम्हें वही मानसम्मान दे पाएगा जो वह अपनी प्रथम विवाहित पत्नी को देता…जिंदगी एक समझौता है, सब को सबकुछ नहीं मिल जाता, कभीकभी हमें अपनों के लिए समझौते करने पड़ते हैं, फिर जब तुम ने अपने मातापिता के लिए समझौता करते हुए मुझ से विवाह किया तो उस पर अडिग क्यों नहीं रह पाईं…अगर उन्हें तुम्हारी इस भटकन का पता चलेगा तो क्या उन का सिर शर्म से नीचा नहीं हो जाएगा?’’

‘‘मुझे माफ कर दो, मनीष. मुझ से बहुत बड़ी गलती हो गई,’’ सुलेखा ने उस के कदमों पर गिरते हुए कहा.

‘‘अगर तुम इस संबंध को सच्चे दिल से निभाना चाहती हो तो मैं भी सबकुछ भूल कर आगे बढ़ने को तैयार हूं और अगर नहीं तो तुम स्वतंत्र हो, तलाक के पेपर तैयार करवा लेना, मैं बेहिचक हस्ताक्षर कर दूंगा…पर इस तरह की बेवफाई कभी बरदाश्त नहीं कर पाऊंगा.’’

उसी समय सुलेखा का मोबाइल खनखना उठा…

‘‘सुयश, आइंदा से तुम मुझे न तो फोन करना और न ही मिलने की कोशिश करना…मेरे वैवाहिक जीवन में दरार डालने की कोशिश, अब मैं बरदाश्त नहीं करूंगी,’’ कहते हुए सुलेखा ने फोन काट दिया तथा रोने लगी.

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उस के बाद फिर फोन बजा पर सुलेखा ने नहीं उठाया. रोते हुए बारबार उस के मुंह से एक ही बात निकल रही थी, ‘‘प्लीज मनीष, एक मौका और दे दो…अब मैं कभी कोई गलत कदम नहीं उठाऊंगी.’’

उस की आंखों से निकलते आंसू मनीष के हृदय में हलचल पैदा कर रहे थे पर मनीष की समझ में नहीं आ रहा था कि वह उस की बात पर विश्वास करे या न करे. जो औरत उसे पिछले 10 महीने से बेवकूफ बनाती रही…और तो और जिसे उस की अचानक मौत इतनी खुशी दे गई कि उस ने डाक्टर को बुला कर मृत्यु की पुष्टि कराने के बजाय अपने प्रेमी को मृत्यु की सूचना  ही नहीं दी, अपने भावी जीवन की योजना बनाने से भी नहीं चूकी…उस पर एकाएक भरोसा करे भी तो कैसे करे और जहां तक मौके का प्रश्न है…उसे एक और मौका दे सकता है, आखिर उस ने उस से प्यार किया है, पर क्या वह उस से वफा कर पाएगी या फिर से वह उस पर वही विश्वास कर पाएगा…मन में इतना आक्रोश था कि वह बिना सुलेखा से बातें किए करवट बदल कर सो गया.

दूसरा दिन सामान्य तौर पर प्रारंभ हुआ. सुबह की चाय देने के बाद सुलेखा नाश्ते की तैयारी करने लगी तथा वह पेपर पढ़ने लगा. तभी दरवाजे की घंटी बजी. दरवाजा मनीष ने खोला तो सामने किसी अजनबी को खड़ा देख वह चौंका पर उस से भी अधिक वह आगंतुक चौंका.वह कुछ कह पाता इस से पहले ही मनीष जैसे सबकुछ समझ गया और सुलेखा को आवाज देते हुए अंदर चला गया, पर कान बाहर ही लगे रहे. सुलेखा बाहर आई. सुयश को खड़ा देख कर चौंक गई. वह कुछ कह पाता इस से पहले ही तीखे स्वर में सुलेखा बोली, ‘‘जब मैं ने कल तुम से मिलने या फोन करने के लिए मना कर दिया था उस के बाद भी तुम्हारी यहां मेरे घर आने की हिम्मत कैसे हुई. मैं तुम से कोई संबंध नहीं रखना चाहती…आइंदा मुझ से मिलने की कोशिश मत करना.’’

सुयश का उत्तर सुने बिना सुलेखा ने दरवाजा बंद कर दिया और किचन में चली गई. आवाज में कोई कंपन या हिचक नहीं थी.

वह नहाने के लिए बाथरूम गया तो सबकुछ यथास्थान था. तैयार हो कर बाहर आया तो नाश्ता लगाए सुलेखा उस का इंतजार कर रही थी. नाश्ता भी उस का मनपसंद था, आलू के परांठे और मीठा दही.

आफिस जाते समय उस के हाथ में टिफिन पकड़ाते हुए सुलेखा ने सहज स्वर में पूछा, ‘‘आज आप जल्दी आ सकते हैं. रीजेंट में बाबुल लगी है…अच्छी पिक्चर है.’’

‘‘देखूंगा,’’ न चाहते हुए भी मुंह से निकल गया.

गाड़ी स्टार्ट करते हुए मनीष सोच रहा था कि वास्तव में सुलेखा ने स्वयं को बदल लिया है या दिखावा करने की कोशिश कर रही है. सचाई जो भी हो पर वह उसे एक मौका अवश्य देगा. Story in Hindi

Hindi Stories: एक और आकाश

Hindi Stories: उस गली में बहुत से मकान थे. उन तमाम मकानों में उस एक मकान का अस्तित्व सब से अलग था, जिस में वह रहती थी. उस के छोटे से घर का अपना इतिहास था. अपने जीवन के कितने उतारचढ़ाव उस ने उसी घर में देखे थे. सुख की तरह दुख की घडि़यों को भी हंस कर गले लगाने की प्रेरणा भी उसे उसी घर ने दी थी. कम बोलना और तटस्थ रहते हुए जीवन जीना उस का स्वभाव था. फिर भी दिन हो या रात, दूसरों की मुसीबत में काम आने के लिए वह अवश्य पहुंच जाती थी. लोगों को आश्चर्य था कि अपने को विधवा बताने वाली उस शांति मूर्ति ने स्वयं के लिए कभी किसी से कोई सहायता नहीं चाही थी.

अपने एकमात्र पुत्र के साथ उस घर की छोटी सी दुनिया में खोए रह कर वह अपने संबंधों द्वारा अपने नाम को भी सार्थक करती रहती थी. उस का नाम ज्योति था और उस के बेटे का नाम प्रकाश था. ज्योति जो बुझने वाली ही थी कि उस में अंतर्निहित प्रकाश ने उसे नई जगमगाहट के साथ जलते रहने की प्रेरणा दे कर बुझने से बचा लिया था. तब से वह ज्योति अपने प्रकाश के साथ आलोकित थी. जीवन के एकाकी- पन की भयावहता को वह अपने साहस और अपनी व्यस्तता के क्षणों में डुबो चुकी थी. प्यार, कर्तव्य और ममता के आंचल तले अपने बेटे के जीवन की रिक्तताओं को पूर्णता में बदलते रहना ही उस का एकमात्र उद्देश्य था.

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उस दिन ज्योति के बच्चे की 12वीं वर्षगांठ थी. पिछली सारी रात उस की बंद आंखों में गुजरे 11 वर्षों का पूरा जीवन चित्रपट की तरह आताजाता रहा था. उन आवाजों, तानों, व्यंग्यों, कटाक्षों और विषम झंझावातों के क्षण मन में कोलाहल भरते रहे थे, जिन के पुल वह पार कर चुकी थी. उस जैसी युवतियों को समाज जो कुछ युगों से देता आया था, वह उस ने भी पाया था. अंतर केवल इतना था कि उस ने समाज से पाया हुआ कोई उपहार स्वीकार नहीं किया था. वह चलती रही थी अपने ही बनाए हुए रास्ते पर. उस के मन में समाज की परंपरागत घिनौनी तसवीर न थी, उसे तलाश थी उस साफ- सुथरे समाज की, जिस का आधार प्रतिशोध नहीं, मानवीय हो, उदार हो, न्यायप्रिय और स्वार्थरहित हो.

अपनी जिंदगी याद करतेकरते अनायास ज्योति का मन कहीं पीछे क्यों लौट चला था, वह स्वयं नहीं जान पाई थी. मन जहां जा कर ठहरा, वहां सब से पहला चित्र उस की अपनी मां का उभरा था. उसे बच्चे की वर्षगांठ मनाने की परंपरा और संस्कार उसी मां ने दिए थे. वह स्वयं उस का और उस के भाई का जन्मदिन एक त्योहार की तरह मनाती थीं. याद करतेकरते मन में कुछ ऐसी भी कसक उठी जो आंखों के द्वारों से आंसू बन कर बहने के लिए आतुर हो उठी. उस ने आंखें पोंछ डालीं. यादों का सिलसिला चलता रहा…

काश, कहीं मां मिल जातीं. केवल उस दिन के लिए ही मिल जातीं. मां प्रकाश को भी उसी तरह आशीष देतीं जैसे उसे दिया करती थीं. उसे विश्वास था कि बड़ेबूढ़ों के आशीर्वाद में कोई अदृश्य शक्ति होती है. भले ही उस की मां के आशीर्वाद उस के अपने जीवन में फलदायक न हो सके हों, परंतु वह अब जो कुछ भी थी, उस में मां के आशीर्वाद के प्रभाव का अंश, बचपन में मां से मिले संस्कारों का असर अवश्य रहा होगा.

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मन रुक न सका. सुबह होतेहोते ज्योति कागजकलम ले कर बैठ गई थी. भावनाओं के मोती शब्दों के रूप में कागज पर बिखरने लगे थे. 11 वर्ष की लंबी अवधि में मां के नाम ज्योति का यह पहला पत्र था. उसे भरोसा था कि वह उस पत्र को लिखने के बाद पोस्ट अवश्य करेगी. हमेशा की तरह वह पत्र टुकड़ों में बदल जाए, अब वह ऐसा नहीं होने देगी. वह लिखे जा रही थी और आंखें पोंछती जा रही थी. कैसी विडंबना थी कि आज उसे उस घर की धुंधली पड़ गई छवि को नए रूप में याद करना पड़ रहा था जो कभी उस का अपना घर भी था. उस में वह 16 वर्ष की आयु तक पलीबढ़ी, पढ़ीलिखी थी. उस की बनाई हुई पेंटिंगों से उस घर की बैठक की दीवारों की शोभा बढ़ी थी. उस घर के आंगन में उस के नन्हेनन्हे हाथों ने एक नन्हा सा आम का पौधा लगाया था.

वह कल्पना में अपना अतीत स्पष्ट देख रही थी. पत्र को अधूरा छोड़ कर होंठों के बीच कलम दबाए हुए आंसू भरी आंखों के साथ सोच रही थी. मां बहुत बूढ़ी हो चली थीं, शायद अपनी उम्र से अधिक. पिता के चेहरे पर कुछ रेखाएं बढ़ जाने के बावजूद उन की आवाज में अब भी वही रोब था, शान थी और अपने ऊंचे खानदान में होने का अहंकार था. वह अपने समाज और खानदान में वयोवृद्ध सदस्य की तरह आदर पा रहे थे. भाई के सिर के बाल सफेद होने लगे थे. भाभी  आ गई थीं. घर के आंगन में नन्हेमुन्ने भतीजेभतीजी खेल रहे थे. सोच रही थी ज्योति. बैठक की दीवार पर लगी पेंटिंगें हटाई नहीं गई थीं. शायद इसलिए कि घर वालों की दृष्टि में वह भले ही मर चुकी हो, लेकिन उन पेंटिंगों के बहाने उस की याद जिंदा रही. नित्य उन की धूलगर्द झाड़तेपोंछते समय उसे जरूर याद किया जाता होगा. कभी आंगन में लगाया गया आम का पौधा बढ़तेबढ़ते आज वृक्ष का रूप ले चुका था. उस में फल आने लगे थे और प्रत्येक फल की मिठास में एक विशेष मिठास थी, उस की याद की, उस घर की बेटी की यादों की.

इस तरह वह पत्र पूरा हो चला था, जगहजगह आंखों से टपके आंसू की मुहरों के साथ. उस पत्र में ज्योति ने अपने अब तक के जीवन की पुस्तक का एकएक पृष्ठ खोल कर रख दिया था, कहीं कोई दाग न था. वह पत्र मात्र पत्र न था, कुछ सिद्धांतों का दस्तावेज था. उस के अपने आत्मविश्वास की प्रतिछवि था वह. उस में आह्वान था एक नए आकार का, जिस के तले नई सुबहें होती हों, नई रातें आती हों. उस के तले जीने वाला जीवन, जीवन कहे जाने योग्य हो. ऐसा जीवन, जो केवल अपने लिए न हो कर दूसरों के लिए भी हो. ज्योति ने उस पत्र की प्रतिलिपि को अपने पास सहेज कर एक हितैषी द्वारा दूसरे शहर के डाकघर से भिजवा दिया था.

7 दिन बीत चुके थे. इस बीच ज्योति के मन के भीतर विचित्र अंतर्द्वंद्व चलता रहा था. कौन जाने उस के पत्र की प्रतिक्रिया घर वालों पर क्या हुई होगी. पत्र अब तक तो पहुंच चुका होगा. 33 किलोमीटर दूर स्थित दूसरे शहर के डाकघर से पत्र भेजने का अभिप्राय केवल इतना था कि वह पत्र का उत्तर आए बिना, अपना असली पता नहीं देना चाहती थी. जवाब के लिए भी उस ने दूसरे शहर में रहने वाले एक ऐसे सज्जन महेंद्र का पता दिया था जो उसे असली पते पर पत्र भेज देते. ज्योति एकएक दिन उंगलियों पर गिनती रही थी. अब तक तो पत्रोत्तर आ जाना चाहिए था. क्यों नहीं आया था? उस के पत्र ने घर की शांति तो नहीं भंग कर दी थी? नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. निश्चय ही उस के हाथ की लिखावट देखते ही उस की मां ने पत्र को चूम लिया होगा. फिर खूब रोई होंगी. पिता को भलाबुरा सुनाया होगा. खुशामद की होगी कि जा कर बेटी को लिवा लाएं. पिता ने कहा होगा कि बेटी ने सौगंध दी है कि उसे केवल पत्रोत्तर चाहिए. उत्तर के स्थान पर कोई उसे लिवाने न आए. यहां आना या न आना, उस का अपना निर्णय होगा.

फिर भी पिता के मन में छटपटाहट जागी होगी कि चल कर देखें अपनी बेटी को. अनायास पिता का भूलाबिसरा वास्तविक रूप उस को याद आ गया था. नहीं, नहीं, पिता मुझ तक आएं यह उन की शान के विरुद्ध होगा. पत्र पढ़ कर जब मां रोई होंगी तब पिता की दबंग आवाज ने मां को डांट दिया होगा. परंतु वह खुद भी भावुक होने से न बच पाए होंगे.

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मां के सो जाने के बाद उन्होंने भी लुकछिप कर एक बार फिर उस के पत्र को ढूंढ़ कर पढ़ने की कोशिश की होगी. आंखें भर आई होंगी तो इधरउधर ताका होगा कि कहीं कोई उन्हें रोते हुए देख तो नहीं रहा. मां ने पिता की इस कमजोरी को पहचान कर पहले ही वह पत्र ऐसी जगह रखा होगा, जहां वह चोरीछिपे ढूंढ़ कर पढ़ सकें क्योंकि सब के सामने उस पत्र को बारबार पढ़ना उन की मानप्रतिष्ठा के विरुद्ध होता और इस बात का प्रमाण होता कि वह हार रहे हैं. ज्योति अनमनी सी नित्य बच्चों को पढ़ाने स्कूल जाती थी. घर लौट कर देखती थी कि कहीं पत्र तो नहीं आया. धीरेधीरे 10 दिन बीत गए थे और आशा पर निराशा की छाया छाने लगी थी.

एक दिन रास्ते में वही हितैषी महेंद्र अचानक मिल गए थे. उन के हाथ में एक लिफाफा था. उस पर लिखी अपने पिता की लिखावट पहचानने में उसे एक पल भी न लगा था.

‘‘बेटी, डाक से यहां तक पहुंचने में देर लगती, इसलिए मैं खुद ही पत्र ले कर चला आया…खुश है न?’’ महेंद्र ने पत्र उसे थमाते हुए कहा.

स्वीकृति में सिर झुका दिया था ज्योति ने. होंठों से निकल गया था, ‘‘कोई मेरे बारे में पूछने घर से आया तो नहीं था?’’

‘‘नहीं, अभी तक तो नहीं आया. और आएगा भी तो तेरी बात मुझे याद है, घर के सब लोगों को भी बता दिया है. विश्वास रखना मुझ पर.’’

‘‘धन्यवाद, दादा.’’

महेंद्र ने ज्योति के सिर पर हाथ फेरा. बहुत सालों बाद उस स्पर्श में उसे अपने मातापिता के हाथों के स्पर्श जैसी आत्मीयता मिली. पत्र पाने की खुशी में यह भी भूल गई कि वह स्कूल की ओर जा रही थी. तुरंत घर की ओर लौट पड़ी.

लिफाफा ज्यों का त्यों बंद था. मां के हाथों की लिखावट होती तो अब तक पत्र खुल चुका होता. परंतु पिता के हाथ की लिखावट ने ज्योति के मन में कुछ और प्रश्न उठा दिए थे क्योंकि अब तक वह पिता के प्रति अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं ला सकी थी. उस की दृष्टि में उस के दुखों के लिए वह खुद तो जिम्मेदार थी ही, परंतु उस के पिता भी कम जिम्मेदार न थे.

तो क्या उन्हीं कठोर पिता का हृदय पिघल गया है? मन थरथरा उठा. कहीं पिता ने अपने कटु शब्दों को तो फिर से नहीं दोहरा दिया था?

कांपते हाथों से ज्योति ने लिफाफा फाड़ा. पत्र निकाला और पढ़ने लगी. एकएक शब्द के साथ मन की पीड़ा पिघलपिघल कर आंखों के रास्ते बहने लगी. वह भीगती रही उस ममता और प्यार की बरसात में, जिसे वह कभी की खो चुकी थी. ज्योति अगले दिन की प्रतीक्षा नहीं कर सकी थी और उसी समय उठ कर स्कूल के लिए चल दी थी. छुट्टी का आवेदन देने के साथसाथ डाकघर में जा कर तार भी दे आई थी. वह रात भी वैसी ही अंधियारी रात थी, जैसी रात में ज्योति ने 11 वर्ष पूर्व अकेले यात्रा की थी. मांबाप और समाज के शब्दों में, अपने गर्भ में वह किसी का पाप लिए हुए थी और अनजानी मंजिल की ओर चली जा रही थी एक तिरस्कृता के रूप में. और उसी पाप के प्रतिफल के रूप में जन्मे पुत्र के साथ वह वापस जा रही थी. उस रात जीवन एक अंधेरा बन कर उसे डस रहा था. इस रात वही जीवन सूरज बन कर उस के लिए नई सुबह लाने वाला था.

उस रात ज्योति अपने घर से ठुकरा दी गई थी. इस रात उस का अपने उसी घर में स्वागत होने वाला था. यह बात और थी कि उस स्वागत के लिए पहल स्वयं उस ने ही की थी क्योंकि उस ने अपना अतापता किसी को नहीं दिया था. अपने साहसी व्यक्तित्व के इस पहलू को वह केवल परिवारजनों के ही नहीं, पूरे समाज के सामने लाना चाहती थी, यानी इस तरह घर से ठुकराई गई बेटियां मरती नहीं, बल्कि जिंदा रहती हैं, पूरे आदरसम्मान और उज्ज्वल चरित्र के साथ.

ठुकराए जाने के बाद अपने पिता का घर छोड़ते समय के क्षण ज्योति को याद आए. मन में गहन पीड़ा और भय का समुद्र उफन रहा था. फिर भी उस ने निश्चय किया था कि वह मरेगी नहीं, वह जिएगी. वह अपने गर्भ में पल रहे भ्रूण को भी नष्ट नहीं करेगी. उसे जन्म देगी और पालपोस कर बड़ा करेगी. वह समाज के सामने खुद को लज्जित अनुभव कर के अपने बच्चे को हीन भावना का शिकार नहीं होने देगी. वह समाज के निकृष्ट पुरुष के चरित्रों के सामने इस बात का प्रमाण उपस्थित करेगी कि पुरुषों द्वारा छली गई युवतियों को भी उसी तरह का अधिकार है, जिस तरह कुंआरियों या विवाहिताओं को. वह यह भी न जानना चाहेगी कि उस का प्रेमी जीवित है या मर गया. वह स्वयं को विधवा मान चुकी थी, केवल विधवा. किस की विधवा इस से उसे कोई मतलब नहीं था.

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इस मानसिकता ने उस नींव का काम किया था, जिस पर उस के दृढ़ चरित्र का भवन और बच्चे का भविष्य खड़ा था. उस ने घरघर नौकरी की. पढ़ाई आगे बढ़ाई. बच्चे को पालतीपोसती रही. जिस ने उस के शरीर को छूने की कोशिश की, उस पर उस ने अपने शब्दों के ही ऐसे प्रहार किए कि वह भाग निकला. आत्मविश्वास बढ़ता गया और उस ने कुछ भलेबुजुर्ग लोगों को आपबीती सुना कर स्कूल में नौकरी पा ली. एक घर ढूंढ़ लिया और अब अपने महल्ले की इज्जतदार महिलाओं में वह जानी जाती थी. ज्योति का अब तक का एकाकी जीवन उस के भविष्य की तैयारी था. उस भविष्य की जिस के सहारे वह समाज के बीच रह सके और यह जता सके कि जिस समाज में उसे छलने वाले जैसे प्रेमी अपना मुंह छिपा कर रहते हैं, ग्लानि का बोझ सहने के बाद भी दुनिया के सामने हंसते हुए देखे जाते हैं, वहां उन के द्वारा ठुकराई हुई असफल प्रेमिकाएं भी अपने प्रेम के अनपेक्षित परिणाम पर आंसू न बहा कर उसे ऐसे वरदान का रूप दे सकती हैं, जो उन्हें तो स्वावलंबी बना ही देता है, साथ ही पुरुष को भी अपने चरित्र के उस घिनौने पक्ष के प्रति सोचने का मौका देता है.

उस एकाकीपन में ऐसे क्षण भी कम नहीं आए थे, जब ज्योति के लिए किसी पुरुष का साथ अपरिहार्य महसूस होने लगा था. कई बार उस ने सोचा भी था कि इस समाज के कीचड़ में कुछ ऐसे कमल भी होंगे, जो उसे अपना लेंगे. कुछ ऐसे व्यक्तित्व भी उसे मिलेंगे, जिन में उस जैसी ठुकराई हुई लड़कियों के लिए चाहत होगी. परंतु उसी क्षण हृदय के किसी कोने में पुरुष के प्रति फूटा घृणा का अंकुर उसे फिर किसी पुरुष की ओर आकृष्ट होने से रोक देता. तब सचमुच उसे प्रत्येक युवक की सूरत में बस, वही सूरत नजर आती, जिस से उसे घृणा थी, जिसे वह भूल जाना चाहती थी. उस ने धीरेधीरे अपनी इच्छाओं, कामनाओं को केवल उसी सीमा तक बांधे रखा था, जहां तक उस की अपनी धरती थी, जहां तक उस का अपना आकाश था.

शारीरिक भूख से अधिक महत्त्व- पूर्ण उस के अपने बच्चे प्रकाश का भविष्य था, जिसे संवारने के लिए वह अभी तक कई बार मरमर कर जी थी. अपने को उस सीमा तक व्यस्त कर चुकी थी, जहां उस को कुछ सोचने का अवकाश ही नहीं मिलता था. ज्योति की कल्पना में अभी स्मृतियों का क्रम टूट नहीं पाया था. वह शाम आंखों में तिर गई थी, जब उस ने मां को सबकुछ साफसाफ कह दिया था. अपने प्रेम को भूल का नाम दे कर रोई थी, क्षमा की भीख मांग कर मां से याचना की थी कि वह गर्भ नष्ट करने के लिए उसे जाने दे.

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मां ने उसे गर्भ नष्ट कराने का मौका न दे कर सबकुछ पिता को बता दिया था. फिर पहली बार पिता का वास्तविक रूप उस के सामने आया था. उन्होंने ज्योति को नफरत से देखते हुए दहाड़ कर कहा था, ‘‘खबरदार, जो तू ने मुझे आज के बाद पिता कहा. निकल जा, अभी…इसी वक्त इस घर से. तेरा काला मुंह मैं नहीं देखना चाहता. जाती है या नहीं?’’

अब उन्हीं पिता का पत्र उसे मिला था. क्षण भर के लिए मन तमाम कड़वाहटों से भर आया था. परंतु धीरेधीरे पिता के प्रति उदासीनता का भाव घटने लगा था. वह निर्णय ले चुकी थी कि अगर पिता ने उसे क्षमा नहीं किया तो कोई बात नहीं, वह अपने पिता को अवश्य क्षमा कर देगी. उस दिन तो पिता की दहाड़ सुन कर कुछ क्षण ज्योति जड़वत खड़ी रही थी. फिर चल पड़ी थी बाहर की ओर. उसे विश्वास हो गया था कि उस का प्रेमी हो या पिता, पुरुष दोनों ही हैं और अपने- अपने स्तर पर दोनों ही समाज के उत्थान में बाधक हैं.

उस दिन ज्योति घर छोड़ कर चल पड़ी थी. किसी ने उस की राह नहीं रोकी थी. किसी की बांहें उस की ओर नहीं बढ़ी थीं. किसी आंचल ने उस के आंसू नहीं पोंछे थे. आंसू पोंछने वाला आंचल तो केवल मां का ही होता है. परंतु साथ ही उसे इस बात का पूरा एहसास था कि पिता के अंकुश तले दबी होंठों के भीतर अपनी सिसकियों को दबाए हुए उस की मां दरवाजे पर खड़ी जरूर थीं, पर उसे पांव आगे बढ़ाने की अनुमति नहीं थी. वह चली जा रही थी और समझ रही थी मां की विवशता को. आखिर वह भी तो नारी थीं उसी समाज की. बच्चे को जन्म देने के बाद ज्योति ने उसे प्रकाश नाम दे कर अपने भीतर अभूतपूर्व शक्ति का अनुभव किया था. उसे वह गुलाब के फूल की तरह अनेक कांटों के बीच पालती रही थी.

अब ज्योति की आंखों में केवल एक ही स्वप्न शेष था. किस प्रकार वह समाज में अपना वही स्थान प्राप्त कर ले, जिस पर वह घर से निकाले जाने से पहले प्रतिष्ठित थी. शायद इन्हीं भावनाओं ने ज्योति को प्रेरित किया था मां के नाम पत्र लिखने के लिए. डब्बे में रोशनी कम थी. फिर भी उस ने अपने पर्स को टटोल कर उस में से कुछ निकाला. आसपास के सारे यात्री सो रहे थे या ऊंघ रहे थे. ज्योति एक बार फिर उस पत्र को पढ़ रही थी जिसे उस ने केवल मां को भेजा था, केवल यह जानने के लिए कि कहीं भावावेश में किसी शब्द के माध्यम से उस का आत्मविश्वास डिग तो नहीं गया था.

‘‘मां, अपनी बेटी का प्रणाम स्वीकार करते हुए तुम्हें यह विश्वास तो हो गया है न कि ज्योति जीवित है.

‘‘मैं जीवन के युद्ध में एक सैनिक की भांति लड़ी हूं और अब तक हमेशा विजयी रही हूं प्रत्येक मोर्चे पर. परंतु मेरी विजय अधूरी रहेगी जब तक अंतिम मोर्चे को भी न जीत लूं. वह मोर्चा है, तुम्हारे समाज के बीच आ कर अपनी प्रतिष्ठा पुन: प्राप्त कर लेने का. मैं ने उस घर को अपना घर कहने का अधिकार तुम से छीन लेने के बाद भी छोड़ा नहीं. मैं उसी घर में आना चाहती हूं. परंतु मैं तभी आऊंगी जब तुम मुझे बुलाओगी. सचसच कहना, मां, क्या तुम में इतना साहस है कि तुम और पिताजी दोनों अपने समाज के सामने यह बात निसंकोच स्वीकार कर सको कि मैं तुम्हारी बेटी हूं और प्रकाश मेरा पुत्र है.

‘‘मेरी परीक्षा की अवधि बीत चुकी है. अब तुम दोनों की परीक्षा का अवसर है. मैं नहीं चाहती कि आप में से कोई मेरे पास ममतावश आए. मैं चाहूंगी कि आप सब कभी मुझे इस दया का पात्र न बनाएं. मैं छुट्टियों के कुछ दिन आप के पास बिता कर पुन: यहां वापस आ जाऊंगी. मेरे पुत्र या मुझे ले कर आप की प्रतिष्ठा पर जरा भी आंच आए, यह मेरी इच्छा नहीं है. मैं ऐसे में अंतिम श्वास तक आप के लिए उसी तरह मरी बनी रहने में अपनी खुशी समझूंगी जिस तरह अब तक थी. यदि मैं ने आप लोगों को अपनी याद दिला कर कोई गलती की है तो भी क्षमा चाहूंगी. शायद यही सोच कर मैं ने इस पत्र में केवल अपनी याद दिलाई है, अपना पता नहीं दिया.

-ज्योति.’’

ज्योति को यह सोच कर शांति मिली थी कि उस ने ऐसा कुछ नहीं लिखा था जिस से उन के मन में कोई दुर्बलता झांके. उस ने पत्र को पर्स में रखने के साथ दूसरा पत्र निकाला, जो उस के पिता का था. वह पत्र देखते ही उस की आंखें डबडबा आईं और उन आंसुओं में उतने बड़े कागज पर पिता के हाथ के लिखे केवल दो वाक्य तैरते रहे, ‘‘चली आ, बेटी. हम सब पलकें बिछाए हुए हैं तेरे लिए.’’

सुबह का उजाला उसे आह्लादित करने लगा था. अपनी जन्मभूमि का आकर्षण उसे बरबस अपनी ओर खींच रहा था. कल्पना की आंखों से वह सभी परिवारजनों की सूरत देखने लगी थी.

गाड़ी ज्योंज्यों धीमी होती गई, ज्योति की हृदयगति त्योंत्यों तीव्र होती गई. प्रकाश की उंगली थामे हुए वह डब्बे के दरवाजे पर खड़ी हो गई. कल्पना साकार होने लगी. गाड़ी रुकते ही कई गीली आंखें उन दोनों पर टिक गईं. कई बांहों ने एकसाथ उन का स्वागत किया. कई आंचल आंसुओं से भीगे और कई होंठ मुसकराते हुए कह बैठे, ‘‘कैसी हो गई है ज्योति, योगिनी जैसी.’’

ज्योति ने डबडबाई आंखों से भाई की ओर निहारा जो एक ओर चुपचाप खड़ा सहज आंखों से बहन को निहार रहा था. ज्योति ने अपने पर्स से पिछले 11 वर्षों की राखी के धागे निकाले और उस की कलाई पर बांधते हुए पूछा, ‘‘भाभी नहीं आईं, भैया?’’

‘‘नहीं, बेटी. तेरे बिना तेरे भैया ने शादी नहीं की. अब तू आ गई है तो इस की शादी भी होगी,’’ मां बोल उठी थीं.

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घर की ओर जातेजाते ज्योति के मन में अपूर्व शांति थी. अपने भाई के प्रति मन स्नेह से भर गया था. उस का संघर्ष सार्थक हुआ था. उस के वियोग का मूल्य भाई ने भी चुकाया था. उस ने ऊपर की ओर ताका. मन के भीतर ही नहीं, ऊपर के आकाश को भी विस्तार मिल रहा था. Hindi Stories

Short Hindi Story: गाय लें या कार

Short Hindi Story: इधर कई दिनों से मैं भी सोच रहा था कि बहुत हो गया जिंदगी के 55 बजट बिना कार के सिटी बसों में धक्के खाते और देते गुजार दिये अब मुझे भी एक फोर व्हीलर यानि कि एक अदद कार ले ही लेना चाहिए . इसके लिए मैंने जरूरी रकम 2 लाख रु जिसे बैंक की भाषा में डाउन पेमेंट कहते हैं जुगाड़ भी ली थी. बाकी 6-8 लाख दूसरे निम्न मध्यमवर्गियों की तरह कर्ज लेने जरूरी जानकारियां भी जुटा ली थीं. यह अब तक की सबसे बड़ी राशि थी जो मेरे बचत खाते में इकट्ठा हुई थी .

एक भारतीय लेखक के लिए इतनी बड़ी राशि जुगाड़ लेना किसी चंद्रयान बना लेने से कम उपलब्धि नहीं होती जो हरेक रचना के पारिश्रमिक के लिए प्रकाशक नाम की शोषक बिरादरी का मोहताज रहता है. अभी चार दिन पहले ही ऐसा ही हजार रु का चेक लेकर बैंक पहुंचा और एंट्री के लिए पासबुक क्लर्क के आगे प्रस्तुत की तो उसने मेरी तरफ जेबी जासूस की तरह देखा और बोला क्या बात है प्रेमचंद जी, लगता है लिखने का धंधा खूब चकाचक चल रहा है. मैंने हमेशा की तरह उसके इस ताने का बुरा नहीं माना .

सालों से मैं अपने इकलौते खाते में चेक ही जमा कर रहा हूं लेकिन बीते 2 सालों से पैसा कम निकाल रहा हूं. बाबू भी मेरे खाते की तरह प्राचीन है जो जानता है कि यह वही शख्स है जो चेक जमा होने के दूसरे दिन से ही बैंक आकर पूछना शुरू कार देता है कि चेक क्लियर हुआ या नहीं जबकि उसे यानि मुझे मालूम है कि इसमें हफ्ता भर तो लग ही जाता है .

उस दिन मैं फोर व्हीलर को लेकर जोश में था क्योंकि उसके भ्रूण के दिमाग में विकसित होने का वक्त पूरा हो चुका था. इसलिए डिलिवर हो ही गई कि सोच रहा हूं कि फोर व्हीलर ले लूं. कहा भी इस रईसी अंदाज में मानों भाजी तरकारी खरीदने की बात कर रहा हूं.

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इतना सुनना भर था कि बाबू को गश सा आ गया.  अभी तक वह मुझे शक भरी निगाहों से देख रहा था लेकिन अब उसको यकीन हो आया कि मैं जरूर कोई बड़ी गड़बड़ लिखने के नाम पर कर रहा हूं.  उसकी नजरों में तरस का सितारा भी चमकता हुआ मुझे साफ साफ दिखा. कुछ संभलकर उपहास  उड़ाने के अंदाज में वह बोला ले लो, आप भी ले लो शायद कोई दूसरा बैंक कर्ज दे दे . आदतन बाबू की बातों को ईर्ष्या समझ मैं उसे सकपकाया हुआ छोड़ कर वापस आ गया और सड़क पर आती जाती दर्जनों कारों के मौडलों का मुआयना करता रहा कि कौन सी ठीक रहेगी. जानें क्यों हर बार वे ही कारें जमी जिन्हें कोई खूबसूरत महिला चला रही थी. मैं खुद नहीं समझ पा रहा था कि मैं पसंद क्या कर रहा हूं, खूबसूरत कार या खूबसूरत महिला .

बाबू पर दिल का राज खोल चुका था इसलिए घर आकर पत्नी को भी सूचित कर दिया कि जल्द ही हम लोग भी कार वाले हो जाएंगे. उम्मीद थी कि सुनकर वह फिल्मी हीरोइनों की तरह गले से लिपट जाएगी और कहेगी ओह डार्लिंग तुम कितने अच्छे हो.  लेकिन उसने चाकू और सब्जी किनारे रखकर पास आकर मेरे नथुनो में अपने नथुने घुसाकर यह तसल्ली कर ली कि भरी दोपहर में मैं पीकर नहीं आया हूं और जो कह रहा हूं वह अविश्वसनीय ही सही. लेकिन  वैसा सच नहीं है जैसा यह था कि सभी के खाते में 15 – 15 लाख आएंगे .

पहले तो उसने इन्कमटेक्स अधिकारियों की तरह सारी पूछताछ की फिर एक और तसल्ली हो जाने के बाद कार आने की खुशी में पैसा छिपाने के इल्जाम से मुझे बाइज्जत बरी कर दिया. फिर शुरू हुई आगे की प्लानिंग कि चलो जैसे तैसे कार ले भी ली तो उसकी किश्तें कहां से भरेंगे. लिखने के धंधे में भी मंदी आती रहती है अगर दो तीन महीने भी काम नहीं चला तो कार बैंक वाले घसीट ले जाएंगे. एक तो पहले से ही अपनी समाज और रिश्तेदारी में कोई खास इज्जत नहीं है इसलिए बेइज्जती कराने के पहले हजार बार सोच लो क्योंकि वह अभी तक बहुत ज्यादा नहीं हुई है.

इतना सुनना भर था कि सालों की भड़ास निकल पड़ी कि बेइज्जती तो तब होती है जब लोग हमें अपने कार विहीन होने को लेकर ऐसे देखते है. जैसे पैसे वाले भक्त मंदिर के बाहर खड़े भिखारी को  याद कर रहे हैं. रिश्तेदार कैसे कैसे हमें बेज्जत करते हैं पिछले महीने ही मुन्नू ( मेरा फुफेरा भाई ) का फोन आया था कि मिलने आपके घर आ रहा हूं, रास्ते में हूं यह बताएं कि क्या मेरी कार आपकी गली में घुस पाएगी, अभी उठाई है 12 लाख की है थोड़ी बड़ी है इसलिए पूछ रहा हूं .

याद करो लोग कैसे कैसे अपनी कारों के बारे में बताकर हमें नीचा दिखाते हैं. दूर दराज के मेरिज गार्डन में किसी शादी में जाओ तो हाल चाल से पहले भाई, भतीजे, भांजे तक यह पूछते हैं कि अरे कैसे आए.  इतनी रात गए तो आटो रिक्शा मिलता नहीं और मिल भी जाये तो मुंह मांगा पैसा वसूलते हैं जिसे देना हर किसी ( आपके) के बस की बात नहीं होती  और अब जाएंगे कैसे.  मैं आप लोगों को ड्रौप कर देता लेकिन वो क्या है कि अभी एक शादी में और जाना है खैर कुछ न कुछ इंतजाम हो ही जाएगा. लेकिन  अब आप भी कार ले ही लो आजकल तो आसानी से लोन मिल जाता है.

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ऐसे कई पीड़ादायक संदर्भ प्रसंगों का पुण्य स्मरण करने के बाद ईएमआई बगैरह गौण लगने लगीं और पत्नी को समझ आ गया कि अब  मैं बिना कार लिए मानने वाला नहीं तो वह सालों बाद असली प्यार से मेरे खिचड़ी बालों में अपनी सख्त हो गई उंगलियां फिराते बोली , कहो तो छोटू से बात करूं उससे 2-3 लाख उधार ले लेंगे फिर अपनी सहूलियत से लौटाते रहेंगे .

छोटू यानि उसका इकलौता भाई और मेरा इकलौता साला जो पुलिस में हवलदार है और उसकी चार कारें किराए पर चलती हैं. लाख  दो लाख उसके लिए उतनी ही मामूली रकम है जितनी मेरे लिए सौ दो सौ रु की होती है. प्रस्ताव हालांकि आकर्षक था लेकिन मेरे स्वभाव और स्वाभिमान से मेच करता हुआ नहीं था इसलिए मैंने उसे क्रूरता पूर्वक ठुकराते पत्नी को कुछ पुरानी बातें याद दिलाईं कि दहेज में मैंने तुम्हारे पूज्य जमींदार पिता से एक ढेला भी नहीं लिया था. उल्टे फिल्मी स्टाइल में हीरो की तरह डायलौग मारा था कि बेटी को एक जोड़ी कपड़ों में विदा कर दो और वे भी न हों तो कोई बात नहीं. मैं अभी शुभम वस्त्रालय से मगा लेता हूं मेरा उधारी खाता उसी के यहां चलता है .

इस पर ससुर जी खूब पछताए थे कि बेटी ने एक फक्कड़ लेखक के प्यार में फंसकर प्रेम विवाह कर डाला कोई खास हर्ज वाली बात नहीं पर बेचारी अब खुद ज़िंदगी भर पछताएगी. उन्होंने तो मुझे यह पेशकश तक की थी कि लिखते हो कोई बात नहीं, अक्सर जवानी में कुछ लोगों को यह रोग लग जाता है लेकिन इससे गृहस्थी नहीं चलती.  तुम लिखते रहो पर कहो तो कहीं मास्टरी दिलवा दूं या पटवारी बनवा दूं . कई नेता चंदे के लिए हर चुनाव में मेरी चौखट पर मत्था टेकते हैं . आदर्श और प्रलोभनों की लड़ाई में आदर्श हमेशा की तरह जीते और ससुर जी बेचारे अपनी फूल सी बेटी की चिंता में कुम्हलाकर देव लोक प्रस्थान कर गए. इन भूतपूर्व बातों से पत्नी को समझ आ गया कि अब कुछ नहीं हो सकता यह आदमी बीस साल बाद भी नहीं बदला , नहीं तो छोटू तो एक फोन पर लाख दो लाख तो क्या पूरी कार ही भेज देता .

खैर अतीत के झरोखों से उतर कर बात कारों के माडलों पर आकर रुक गई . तय यह हुआ कि बेटा कालेज से आ जाये तो उससे ही पूछते हैं कि कौन सी ठीक रहेगी. सोचने की देर थी कि बेटा अरुण जिन्न की तरह प्रगट हो गया. उसने पूरी गंभीरता से पूरी रामायण सुनी और विशेषज्ञ अर्थशास्त्रियों की तरह ज्ञान बघारा कि आजकल आटो मोबाइल सेक्टर मंदी के दौर से गुजर रहा है और उसमें हम जैसे अभावग्रस्त लोग योगदान न ही दें तो बेहतर है . उसके इस दो टूक जवाब से मेरी हिम्मत जीडीपी की तरह गिरने लगी तो मेरा उतरा चेहरा देखकर उसने ही वित्त मंत्री की तरह हिम्मत बंधाई कि आप टेंशन मत लो भगवान की कृपा से आज नहीं तो कल मंदी का कोहरा चीर कर रोजगार का सूरज निकलेगा और नौकरी लगते ही मैं आपको पसंद की कार गिफ्ट करूंगा . तब तक और सड़कें नाप लेते हैं अब तो और नई नई बन गईं हैं .

फिर उसने कार न लेने की ढेरों वजहें गिना दीं कि लोग दिखावे के लिए ले तो लेते हैं लेकिन वे गाय भैंसो की तरह खड़ी रहती हैं क्योंकि उनका चारा यानि पेट्रोल दिनोंदिन महंगा होता जा रहा है. अचानक उसकी नजर पास पड़े अखबार के मुख पृष्ठ पर पड़ी तो वह चहकते हुये बोला देखिये आपका फोर व्हीलर का शौक यूं पूरा हो सकता है कि अपन एक गाय खरीद लें . प्रधानमंत्री जी तक मथुरा में कह रहे हैं कि गाय का नाम सुनते ही लोगों के कान खड़े हो जाते हैं .

आप ही बताइये हमारे कितने रिश्तेदारों के पास गाय है. फिर उसने गाय के फायदे गिनाना शुरू कर दिये कि गाय पशु नहीं देवता है उसे पालने से दरिद्रता दूर होती है.  अभी हम जो हजार बारह सौ रु महीने का दूध खरीदते हैं वह पैसा बच जाएगा और कार में तो ईएमआई देना पड़ेगी. यहां तो गाय ही हमें ईएमआई देगी और हम देसी मुख्यधारा से जुड़ जाएंगे यानि दोहरी बचत होगी. आप व्हाट्सएप पर सक्रिय होते तो आपको पता चलता कि गाय की महिमा अपरमपार है .उस पर हाथ फेरने से हाइ ब्लड प्रेशर ठीक हो जाता है, जो आर्थिक तनाव के चलते आपको और मम्मी को हो गया है. गाय के मूत्र से कैंसर जैसी  कई लाइलाज बीमारियां ठीक हो जाती हैं और जरा सोचिए वह खूब खाकर खूब गोबर देगी जिससे उपले बनेंगे इससे हमारा महंगे गेस सिलेन्डर का खर्च कम होगा .

मुमकिन है कल को सरकार गाय पालने वालों को पद्म श्री बगैरह देने लगे जो लेखन से तो इस जिंदगी में पूरी होने से रही. मुमकिन यह भी है कि सरकार यह घोषणा भी कर दे कि गाय पालकों को धर्म और संस्कृति का सम्मान व रक्षा करने पर पेंशन दी जाएगी. गाय की महिमा का बखान करते करते वह वाकई जोश में आ आकर बोला मुमकिन यह भी है कि सरकार यह एलान भी कर दे कि गौ पालकों की संतानों को नौकरियों में आरक्षण देगी फिर तो मुझे बैठे बिठाये नौकरी मिल जाएगी.

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रही बात गौ माता के खाने की तो बात चिंता की नहीं आजकल लोग रोटी खिलाने गाय को कोहिनूर की तरह ढूंढते नजर आते हैं.  हम चाहें तो ऐसे धर्म प्रेमियों से अपनी गाय को रोटी खिलाने का शुल्क भी वसूल सकते हैं और बची रोटियाँ खुद भी खा सकते हैं  . उसने यह ज्ञान वृद्धि भी की कि चारे की चिंता भी न करें आजकल की  गाय दिन भर यहां वहां मुंह मार कर पेट भर लेती है लेकिन दूध मालिक को ही देती है .

अब मैं कार के मौडलों के बजाय गायों की उन्नत नस्लों की जानकारियां एकत्रित कर रहा हूं और सोच रहा हूं कि आस्तिक होते गाय के माथे पर ऊं गुदवा दूंगा आखिर लोग फोर व्हीलर पर साईं, शंकर, या फलां देवी माता या बाबा कि कृपा लिखवाते हैं तो मैं अपने फोर व्हीलर पर  ऊं गुदवाकर मुन्नू जैसे  फुफेरे, मौसेरे, चचेरे और ममेरे भाइयों के कानों के साथ साथ बाल भी खड़े कर दूंगा कि मेरे पास तो देवों वाला फोर व्हीलर है. जो धर्म और संस्कृति का प्रतीक है तुम्हारे लोन के फोर व्हीलर की तरह भौतिकता का भ्रम और छलावा नहीं है. Short Hindi Story

Dharmendra Property : क्या कानूनी तौर पर हेमा मालिनी का भी होगा संपत्ति में अधिकार

Dharmendra Property :  अभिनेता धर्मेंद्र का 89 साल की उम्र में मुंबई में निधन हो गया. धर्मेंद्र ने दो शादियां की थीं. उन की पहली पत्नी प्रकाश कौर हैं और दूसरी हेमा मालिनी. धर्मेंद्र की दूसरी शादी हिंदू मैरिज एक्ट के अनुसार नहीं हुई थी, यही कारण है कि दूसरी शादी की मान्यता को ले कर सवाल उठते रहते हैं. अब सवाल यह है कि क्या धर्मेंद्र की दूसरी पत्नी हेमा मालिनी का उन की संपत्ति में कानूनन कोई अधिकार है?

धर्मेंद्र जब फिल्म इंडस्ट्री में आए तो वे प्रकाश कौर से शादी कर चुके थे. सो, प्रकाश कौर ही धर्मेंद्र की पहली पत्नी और कानूनी पत्नी का दर्जा रखती हैं. बौलीवुड में सफलता की सीढ़ी चढ़ने के साथ ही धर्मेंद्र का हेमा मालिनी के साथ इश्क परवान चढ़ने लगा. हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के अनुसार एक पत्नी के रहते दूसरी शादी कानूनन अपराध है, इसलिए धर्मेंद्र ने 1979-80 में मुसलिम धर्म के अनुसार हेमा मालिनी से निकाह किया. तब दोनों ने उस शादी के लिए धर्म बदला था लेकिन फिर हिंदू धर्म में आ गए थे

अब धर्मेंद्र की मृत्यु हो चुकी है और धर्मेंद्र के नाम लगभग 400 करोड़ रुपए की संपत्ति है. इस में मुंबई से बाहर 100 एकड़ का फार्महाउस, रियल एस्टेट, कृषि भूमि, प्लौट और फ्लैटस शामिल है. उन के पास कई लग्जरी कारें भी हैं. सिने प्रोडक्शन कंपनी से ले कर रैस्टोरैंट कारोबार में भी धर्मेंद्र का पैसा लगा हुआ है. धर्मेंद्र की मौत के बाद उन की इसी दौलत के बंटवारे का सवाल खड़ा है. धर्मेंद्र की दूसरी पत्नी हेमा मालिनी के दो बेटियां हैं. अगर वे अपने पति की संपत्ति से हिस्सा लेना चाहें तो क्या क़ानून इस की इजाजत देता है?

सुप्रीम कोर्ट की वकील शौर्या तिवारी कहती हैं कि किसी की संपत्ति में अधिकार कई तरीके से तय होता है. उस में क्लेम, वसीयत, लीगल इंटरप्रेटीशन, वारिसान जैसे पहलू शामिल होते हैं. क्लेम आमतौर पर फाइल करना होता है और यह दावा करना होता है कि अमुक संपत्ति में क्यों उन का भी हिस्सा बनता है. फिर जिस की संपत्ति हो, अगर वो कोई वसीयत कर रहा हो, तो उस में नाम होना चाहिए. अन्यथा इसे चैलेंज भी किया जा सकता है.

जैसे दिल्ली के बिजनैसमैन और उद्योगपति संजय कपूर के निधन के मामले में हो रहा है, जिस में उन की दूसरी पत्नी रहीं करिश्मा कपूर के उन से हुए दो बच्चों ने अदालत में चुनौती दी है. कई बार कानूनी तौर पर अधिकार लेने के लिए किस तरह से अदालत में लीगल इंटरप्रेटीशन किया जाता है और अदालत उस को कितना मानती है, इस पर भी तय करता है, जैसे हालिया कुछ मामलों में लिवइन में रहने वालों को भी अदालत से ऐसे अधिकार मिले हैं. सब से आखिरी बात यह है कि क्या बच्चे वारिसान वाली पात्रता रखते हैं. अगर बच्चों के जन्म प्रमाणपत्र और कानूनी दस्तावेजों में पिता के तौर पर नाम आया है तो बच्चों का हक बनता है.

कानूनी कागजों और दस्तावेजों की बात करें तो किसी कानूनी दस्तावेज में यह सुबूत नहीं मिला है कि धर्मेंद्र ने हेमा मालिनी को ‘वैध पत्नी’ के रूप में कानूनी विवाह पंजीकरण कराया हो. जब वे 2004 में बीकानेर से लोकसभा का चुनाव लड़ने गए तो उन्होंने पत्नी का कौलम खाली छोड़ दिया था.

हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, कांग्रेस नेताओं ने इंदौर अदालत में एक निकाहनामा पेश किया था, जिस में धर्मेंद्र-हेमा की शादी का दावा किया गया था. बेशक यह निकाहनामा एक धार्मिक दस्तावेज हो सकता है, लेकिन हिंदू विवाह कानून के तहत यह कानूनी रूप से वैध नहीं माना गया. विशेष रूप से तब अगर पहली पत्नी जीवित हो और तलाक न हुआ हो.

हेमा मालिनी ने खुद भी कहा है कि उन्होंने धर्मेंद्र की पहली फैमिली को ‘छेड़े बिना’ शादी की थी. दोनों हमेशा साथ नहीं रहे.

हिंदू मैरिज एक्ट 1955 बहुपत्नी को स्वीकार नहीं करता. इस कानून की धारा 11 कहती है कि अगर कोई पहले शादी में है, तो दूसरी शादी शुरुआत से ही अवैध है. नई भारतीय दंड संहिता में सैक्शन 82 है, यह धारा भी दूसरे विवाह को स्वीकृति नहीं देती, इसलिए कानूनी तौर पर हेमा मालिनी को धर्मेंद्र की संपत्ति में कोई अधिकार नहीं मिलेगा. इस का मुख्य कारण यह है कि धर्मेंद्र की पहली पत्नी प्रकाश कौर से विवाह 1954 में हुआ था और उन्होंने पहली पत्नी से बिना तलाक लिए 1980 में हेमा मालिनी से दूसरा विवाह किया गया. हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5 के तहत एक से ज्यादा शादी गैरकानूनी है, इसलिए धर्मेंद्र का दूसरा विवाह अवैध माना जाएगा.

अब चूंकि धर्मेंद्र का दूसरा विवाह कानूनी रूप से मान्य नहीं है इसलिए हेमा मालिनी को पत्नी के रूप में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (एचएसए) 1956 के तहत कोई हिस्सा नहीं मिलेगा लेकिन धर्मेंद्र की पहली पत्नी प्रकाश कौर और प्रकाश कौर से पैदा हुए चार बच्चे सनी, बौबी, विजेता, अजीता और हेमा मालिनी की दो बेटियां ईशा देवगन और अहाना देवगन के बीच धर्मेंद्र की संपत्ति का बंटवारा समान रूप से होगा.

हेमा मालिनी धर्मेंद्र की लिवइन पार्टनर के रूप में केवल रखरखाव का दावा कर सकती हैँ, वे धर्मेंद्र की सपत्ति में स्वामित्व या उत्तराधिकार का दावा नहीं कर सकतीं.

अब सवाल यह है कि धर्मेंद्र की संपत्ति में हेमा मालिनी की दो बेटियों को बराबर का हिस्सा कैसे मिल सकता है? हेमा मालिनी की दोनों बेटियां हिंदू मैरिज एक्ट की धारा 16(1) के तहत वैध संतान हैं. सुप्रीम कोर्ट के 2023 के फैसले (रेवना सिद्दप्पा बनाम मलिकार्जुन) में स्पष्ट किया गया है कि अवैध विवाह से जन्मे बच्चे मातापिता की व्यक्तिगत और पैतृक संपत्ति में क्लास वन उत्तराधिकारी के रूप में हिस्सा पा सकते हैं.

यदि धर्मेंद्र ने वसीयत बनाई है, तो वे हेमा को संपत्ति दे सकते हैं, लेकिन यदि बिना वसीयत के मृत्यु हो, तो कानूनी उत्तराधिकार ही लागू होगा. वैसे, हेमा मालिनी ने खुद कई इंटरव्यूज में कहा है कि उन्हें धर्मेंद्र की संपत्ति या धन की जरूरत नहीं है.
Dharmendra Property

Hindi Kahani: बहू बेटी

Hindi Kahani: घर क्या था, अच्छाखासा कुरुक्षेत्र का मैदान बना हुआ था. सुबह की ट्र्र्रेन से बेटी और दामाद आए थे. सारा सामान बिखरा हुआ था. दयावती ने महरी से कितना कहा था कि मेहमान आ रहे हैं, जरा जल्दी आ कर घर साफ कर जाए. 10 बज रहे थे, पर महरी का कुछ पता नहीं था. झाड़ ूबुहारु तो दूर, अभी तो रात भर के बरतन भी पड़े थे. 2-2 बार चाय बन चुकी थी, नाश्ता कब निबटेगा, कुछ पता नहीं था.

रमेश तो एक प्याला चाय पी कर ही दफ्तर चला गया था. उस की पत्नी जया अपनी 3 महीने की बच्ची को गोद में लिए बैठी थी. उस को रात भर तंग किया था उस बच्ची ने, और वह अभी भी सोने का नाम नहीं ले रही थी, जहां गोद से अलग किया नहीं कि रोने लगती थी.

इधर कमलनाथ हैं कि अवकाश प्राप्त करने के बाद से बरताव ऐसा हो गया है जैसे कहीं के लाटसाहब हो गए हों. सब काम समय पर और एकदम ठीक होना चाहिए. कहीं कोई कमी नहीं रहनी चाहिए. उन के घर के काम में मदद करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं था.

गंदे बरतनों को देख कर दयावती खीज ही रही थी कि रश्मि बेटी ने आ कर मां को बांहों में प्यार से कस ही नहीं लिया बल्कि अपने पुराने स्कूली अंदाज से उस के गालों पर कई चुंबन भी जड़ दिए.

दयावती ने मुसकरा कर कहा, ‘‘चल हट, रही न वही बच्ची की बच्ची.’’

‘‘क्या हो रहा है, मां? पहले यह बताओ?’’

 

मां ने रश्मि को सारा दुखड़ा रो दिया.

‘‘तो इस में क्या बात है? तुम अपने दामाद का दिल बहलाओ. मैं थोड़ी देर में सब ठीक किए देती हूं.’’

‘‘पगली कहीं की,’’ मां ने प्यार से झिड़क कर कहा, ‘‘2 दिन के लिए तो आई है. क्या तुझ से घर का काम करवाऊंगी?’’

‘‘क्यों, क्या अब तुम्हारी बेटी नहीं रही मैं? डांटडांट कर क्या मुझ से घर का काम नहीं करवाया तुम ने? यह घर क्या अब पराया हो गया है मेरे लिए?’’ बेटी ने उलाहना दिया.

‘‘तब बात और थी, अब तुझे ब्याह जो दिया है. अपने घर में तो सबकुछ करती ही है. यहां तो तू बैठ और दो घड़ी हंसबोल कर मां का दिल बहला.’’

‘‘नहीं, मैं कुछ नहीं सुनूंगी. तुम अब यहां से जाओ. या तो इन के पास जा कर बैठो या छुटकी को संभाल लो और भाभी को यहां भेज दो. हम दोनों मिल कर काम निबटा देंगे.’’

‘‘अरे, बहू को क्या भेजूं, उसे तो छुटकी से ही फुरसत नहीं है. यह बच्ची भी ऐसी है कि दूसरे के पास जाते ही रोने लगती है. रोता बच्चा किसे अच्छा लगता है?’’

रश्मि को मां की बात में कुछ गहराई का एहसास हुआ. कहीं कुछ गड़बड़ लगती है, पर उस ने कुरेदना ठीक नहीं समझा. वह भी किसी की बहू है और उसे भी अपनी सास से निबटना पड़ता है. तालमेल बिठाने में कहीं न कहीं किसी को दबना ही पड़ता है. बिना समझौते के कहीं काम चलता है?

बातें करतेकरते रश्मि ने एक प्याला चाय बना ली थी. मां के हाथों में चाय का प्याला देते हुए उस ने कहा, ‘‘तुम जाओ, मां, उन्हें चाय दे आओ. उन को तो दिन भर चाय मिलती रहे, फिर कुछ नहीं चाहिए.’’

मां ने झिझकते हुए कहा, ‘‘अब तू ही दे आ न.’’

‘‘ओहो, कहा न, मां, तुम जाओ और दो घड़ी उन के पास बैठ कर बातें करो. आखिर उन को भी पता लगना चाहिए कि उन की सास यानी कि मेरी मां कितनी अच्छी हैं.’’

रश्मि ने मां को जबरदस्ती रसोई से बाहर निकाल दिया और साड़ी को कमर से कस कर काम में लग गई. फुरती से काम करने की आदत उस की शुरू से ही थी. देखतेदेखते उस ने सारी रसोई साफ कर दी.

फिर भाभी के पास जा कर बच्ची को गोद में ले लिया और हंसते हुए बोली, ‘‘यह तो है ही इतनी प्यारी कि बस, गोद में ले कर इस का मुंह निहारते रहो.’’

भाभी को लगा जैसे ननद ताना दे रही हो, पर उस ने तीखा उत्तर न देना ही ठीक समझा. हंस कर बोली, ‘‘लगता है सब के सिर चढ़ जाएगी.’’

‘‘भाभी, इसे तो मैं ले जाऊंगी.’’

‘‘हांहां, ले जाना. रोतेरोते सब के दिमाग ठिकाने लगा देगी.’’

‘‘बेचारी को बदनाम कर रखा है सब ने. कहां रो रही है मेरे पास?’’

‘‘यह तो नाटक है. लो, लगी न रोने?’’

‘‘लो, बाबा लो,’’ रश्मि ने हंस कर कहा, ‘‘संभालो अपनी बिटिया को. अच्छा, अब यह बताओ नाश्ता क्या बनेगा? मैं जल्दी से तैयार कर देती हूं.’’

भाभी ने जबरन हंसते हुए कहा, ‘‘क्यों, तुम क्यों बनाओगी? क्या दामादजी को किसी दूसरे के हाथ का खाना अच्छा नहीं लगता?’’

हंस कर रश्मि ने कहा, ‘‘यह बात नहीं, मुझे तो खुद ही खाना बनाना अच्छा लगता है. वैसे वह बोल रहे थे कि भाभी के हाथ से बने कबाब जरूर खाऊंगा.’’

‘‘बना दूंगी. अच्छा, तुम इसे जरा गोदी में ले कर बैठ जाओ, सो गई है. मैं झटपट नाश्ता बना देती हूं.’’

‘‘ओहो, लिटा दो न बिस्तर पर.’’

‘‘यही तो मुश्किल है. बस गोदी में ही सोती रहती है.’’

‘‘अच्छा ठहरो, मां को बुलाती हूं. वह ले कर बैठी रहेंगी. हम दोनों घर का काम कर लेंगे.’’

‘‘नहींनहीं, मांजी को तंग मत करो.’’

जया को मालूम था कि एक तो छुटकी मांजी की गोद में ज्यादा देर टिकती नहीं, दूसरे जहां उस ने कपड़े गंदे किए कि वह बहू को आवाज देने लगती हैं. स्वयं गंदे कपड़े नहीं छूतीं.

रश्मि को लगा, यहां भी कुछ गड़बड़ है. चुपचाप धीरे से छुटकी को गोद में ले कर बैठ गई और प्यार से उस का सुंदर मुख निहारने लगी. कुछ ही महीने की तो बात है, उस के घर भी मेहमान आने वाला है. वह भी ऐसे ही व्यस्त हो जाएगी. घर का पूरा काम न कर पाएगी तो उस की सास क्या कर लेगी, पर उस की सास तो सैलानी है, वह तो घर में ही नहीं टिकती. उस का सामाजिक दायरा बहुत बड़ा है. गरदन को झटका दे कर रश्मि मन ही मन बोली, ‘देखा जाएगा.’

मुश्किल से 15 मिनट हुए थे कि बच्ची रो पड़ी. हाथ से टटोल कर देखा तो पोतड़ा गीला था. उस ने जल्दी से कपड़ा बदल दिया, पर बच्ची चुप न हुई. शायद भूखी है. अब तो भाभी को बुलाना ही पड़ेगा. भाभी ने टोस्ट सेंक दिए थे, आमलेट बनाने जा रही थी. पिताजी अभी गरमगरम जलेबियां ले कर आए थे.

भाभी को जबरदस्ती बाहर कर दिया. बच्ची की देखभाल आवश्यक थी. फुरती से आमलेट बना कर ट्रे में रख कर मेज पर पहुंचा दिए. कांटेचम्मच, प्यालेप्लेट सब सही तरह से सजा कर पिताजी और अपने पति को बुला लाई. मां अभी नहा रही थीं. उस ने सोचा वह मां और भाभी के साथ खाएगी बाद में.

नाश्ते के बाद रश्मि ने कुछ काम बता कर पति को बाजार भेज दिया. अब मैदान खाली था. झट से झाड़ ू उठा ली. सोचा कि पति के वापस आने से पहले ही सारा घर साफसुथरा कर देगी. वह नहीं चाहती थी कि पति के ऊपर उस के मायके का बुरा प्रभाव पड़े. घर का मानअपमान उस का मानअपमान था. पति को इस से क्या मतलब कि महरी आई या नहीं.

जैसे ही उस ने झाड़ ू उठाई कि जया आ गई. दोनों में खींचातानी होने लगी.

‘‘ननद रानी, यह क्या कर रही हो? लोग क्या कहेंगे कि 2 दिन के लिए मायके आई और झाड़ बुहारु, चौकाबरतन सब करवा लिए. चलो हटो, जा कर नहाधो लो.’’

‘‘नहीं जाती, क्या कर लोगी?’’ रश्मि ने मुसकरा कर कहा, ‘‘मेरा घर है, मैं कुछ भी करूं, तुम्हें मतलब?’’

‘‘है, मतलब है. तुम तो 2 दिन बाद चली जाओगी, पर मुझे तो सारा जीवन यहां बिताना है.’’

रश्मि ने इशारा समझा, फिर भी कहा, ‘‘अच्छा चलो, काम बांट लेते हैं. तुम उधर सफाई कर लो और मैं इधर.’’

‘‘बिलकुल नहीं,’’ जया ने दृढ़ता से कहा, ‘‘ऐसा नहीं होगा.’’

भाभी और ननद झगड़ ही रही थीं कि बच्ची ने रो कर फैसला सुना दिया. भाभी मैदान से हट गई. इधर मां ने दिन के खाने का काम संभाल लिया. छुटकी को नहलानेधुलाने व कपड़े साफ करने में ही बहू को घंटों लग जाते हैं. सास बहू की मजबूरी को समझती थी, पर एक अनकही शिकायत दिल में मसोसती रहती थी. बहू के आने से उसे क्या सुख मिला? वह तो जैसे पहले घरबार में फंसी थी वैसे ही अब भी. कैसेकैसे सपनों का अंबार लगा रखा था, पर वह तो ताश के पत्तों से बने घर की तरह बिखर गया.

वह कसक और बढ़ गई थी. नहीं, शायद कसक तो वही थी, केवल उस की चुभन बढ़ गई थी. दयावती के हाथ सब्जी की ओर बढ़ गए. फिर भी उस का मन बारबार कह रहा था, लड़की को देखो, 2 दिन के लिए आई है, पर घर का काम ऐसे कर रही है जैसे अभी विवाह ही न हुआ हो. आखिर लड़की है. मां को समझती है…और बहू…

संध्या हो चुकी थी. रश्मि और उस का पति विजय अभीअभी जनपथ से लौटे थे. कितना सारा सामान खरीद कर लाए थे. कहकहे लग रहे थे. चाय ठंडी हो गई थी, पर उस का ध्यान किसे था? विजय ने पैराशूटनायलोन की एक जाकेट अपने लिए और एक अपनी पत्नी के लिए खरीदी थी. रश्मि के लिए एक जींस भी खरीदी थी. उसे रश्मि दोनों चीजें पहन कर दिखा रही थी. कितनी चुस्त और सुंदर लग रही थी. दयावती का चेहरा खिल उठा था. दिल गर्व से भर गया था.

बहू रश्मि को देख कर हंस रही थी, पर दिल पर एक बोझ सा था. शादी के बाद सास ने उस की जींस व हाउसकोट बकसे में बंद करवा दिए थे, क्योंकि उन्हें पहन कर वह बहू जैसी नहीं लगती थी.

रात को गैस के तंदूर पर रश्मि ने बढि़या स्वादिष्ठ मुर्गा और नान बनाए. इस बार बहू अपने मायके से तंदूर ले कर आई थी, पर वह वैसा का वैसा ही बंद पड़ा था. उस पर खाना बनाने का अवकाश किसे था. सास को आदत न थी और बहू को समय न था. तंदूर का खाना इतना अच्छा लगा कि विजय ने रश्मि से कहा, ‘‘कल हम भी एक तंदूर खरीद लेंगे.’’

दयावती के मुंह से निकल गया, ‘‘क्यों पैसे खराब करोगे? यही ले जाना. यहां किस काम आ रहा है.’’

कमलनाथ ने कहा, ‘‘ठीक तो है, बेटा. तुम यही ले जाओ. हमें जरूरत पड़ेगी तो और ले लेंगे.’’

बहू चुप. उस के दिल पर तो जैसे किसी ने हथौड़ा मार दिया हो. उस ने अपने पति की ओर देखा. बेटे ने मुंह फेर लिया. एक ही इलाज था. कल ही बहन के लिए एक नया तंदूर खरीद कर ले आए. लेकिन इस के लिए पैसे और समय दोनों की आवश्यकता थी.

बेटी को अपना माहौल याद आया. एक बार तंदूर ले गई तो उस के ससुर व पति दोनों जीवन भर उसे तंदूर पर ही बैठा देंगे. दोनों को खाने का बहुत शौक था. इस के अलावा उसे याद था कि जब मां का दिया हुआ शाल सास ने उस की ननद को बिना पूछे पकड़ा दिया था तो उसे कितना मानसिक कष्ट हुआ था. आंखों में आंसू आ गए थे. भाभी की हालत भी वही होगी.

बात बिगड़ने से पहले ही उस ने कहा, ‘‘नहीं मां, यह तंदूर भाभी का है, मैं नहीं ले जाऊंगी. मेरे पड़ोस में एक मेजर रहते हैं. उन्होंने मुझे सस्ते दामों पर फौजी कैंटीन से तंदूर लाने के लिए कहा है. 2-2 तंदूर ले कर मैं क्या करूंगी?’’

बेटी ने तंदूर के लिए मांग नहीं की थी, परंतु उस ने ससुराल लौटते ही मेजर साहब से तंदूर के लिए कहने का इरादा कर लिया था.

अगले दिन बेटी और दामाद चले गए. घर सूनासूना लगने लगा. चहलपहल मानो समाप्त हो गई थी. इस सूनेपन को तोड़ने वाली केवल एक आवाज थी और वह थी बच्ची के रोने की आवाज. वातावरण सामान्य होने में कुछ समय लगा. मां के मुंह से हर समय बेटी का नाम निकलता था. वह क्याक्या करती थी…क्या कर रही होगी…बच्चा ठीक से हो जाए…तुरंत बुला लूंगी. 3 महीने से पहले वापस नहीं भेजूंगी. बहू सोच रही थी, उसे तो पीछे पड़ कर 1 महीने बाद ही बुला लिया था.

दयावती की बहन की लड़की किसी रिश्तेदार के यहां विवाह में आई थी, समय निकाल कर वह मौसी से मिलने भी आ गई.

‘‘क्या हो रहा है, मौसी?’’

‘‘अरे, तू कब आई?’’ दयावती ने चकित हो कर कहा, ‘‘कुछ खबर भी नहीं?’’

‘‘लो, जब खुद ही चली आई तो खबर क्या भेजनी? आई तो कल ही हूं. शादी है एक. कल वापस भी जाना है, पर अपनी प्यारी मौसी से मिले बिना कैसे जा सकती हूं? भाभी कहां हैं? सुना है, छुटकी बड़ी प्यारी है. बस, उसे देखने भर आई हूं.’’

‘‘अरे, बैठ तो सही. सब देखसुन लेना. देख कढ़ी बना रही हूं. खा कर जाना.’’

‘‘ओहो…बस, मौसी, तुम और तुम्हारी कढ़ी. हमेशा चूल्हाचौका. अब भाभी भी तो है, कुछ तो आराम से बैठा करो.’’

दयावती ने गहरी सांस ले कर कहा, ‘‘क्या आराम करना. काम तो जिंदगी की अंतिम सांस तक करना ही करना है.’’

‘‘हाय, दीदी, तुम्हारा कितना काम करती थी. सच, तुम्हें रश्मि दीदी की बहुत याद आती होगी, मौसी?’’

‘‘अब फर्क तो होता ही है बहू और बेटी में,’’ दयावती ने फिर गहरी सांस ली.

जया सुन रही थी. उस के दिल पर चोट लगी. क्यों फर्क होता है बहू और बेटी में? एक को तीर तो दूसरे को तमगा. जब सास की बहन की लड़की चली गई तो जया सोचने लगी कि इस स्थिति में बदलाव आना जरूरी है. सास और बहू के बीच औपचारिकता क्यों? वह सास से साफसाफ कह सकती है कि बारबार बेटी की रट न लगाएं. पर ऐसा कहने से सास को अच्छा न लगेगा. अब उसे ही बेटी की भूमिका अदा करनी पड़ेगी. न सास रहेगी, न बहू. हर घर में बस, मांबेटी ही होनी चाहिए.

वह मुसकराई. उसे एक तरकीब सूझी. परिणाम बुरा भी हो सकता था, परंतु उस ने खतरा उठाने का निर्णय ले ही लिया. अगले सप्ताह होली का त्योहार था. अगर कुछ बुरा भी लगा तो होली के माहौल में ढक जाएगा. उस ने छुटकी को उठा कर चूम लिया.

प्रात: जब वह कमरे से निकली तो जींस पहने हुए थी और ऊपर से चैक का कुरता डाल रखा था. हाथ में गुलाल था.

‘‘होली मुबारक हो, मांजी,’’ कहते हुए जया ने ननद की नकल करते हुए सास के गालों पर चुंबन जड़ दिए और मुंह पर गुलाल मल दिया. दयावती की तो जैसे बोलती ही बंद हो गई. इस से पहले कि सास संभलती, जया ने खिलखिला कर ‘होली है…होली है’ कहते हुए सास को पकड़ कर नाचना शुरू कर दिया. होहल्ला सुन कर कमलनाथ भी बाहर आ गए और यह दृश्य देख कर हंसे बिना न रह सके.

‘‘यह क्या हो रहा है, बहू?’’ कमलनाथ ने हंसते हुए कहा.

‘‘होली है, पिताजी, और सुनिए, आज से मैं बहू नहीं हूं, बेटी हूं…सौ फीसदी बेटी,’’ यह कहते हुए उस ने ससुर के मुंह पर भी गुलाल पोत दिया.

इस से पहले कि कुछ और हंगामा खड़ा होता, पासपड़ोस के लोग मिलने आने लगे. स्त्रियां तो घर में ही घुस आईं. इसी बीच छुटकी रोने लगी. जया ने दौड़ कर छुटकी को उठा लिया और उस के कपड़े बदल कर सास की गोदी में बैठा दिया.

‘‘मांजी, आप मिलने वालों से निबटिए, मैं चायनाश्ता लगा रही हूं.’’

‘‘पर, बहू…’’

‘‘बहू नहीं, बेटी, मांजी. अब मैं बेटी हूं. देखिए मैं कितनी फुरती से काम निबटाती हूं.’’

लोग आ रहे थे और जा रहे थे. जया फुरती से नाश्ता लगालगा कर दे रही थी. रसोई का काम भी संभाल रही थी. गरमागरम पकौडि़यां बना रही थी, जूठे बरतन इकट्ठा नहीं होने दे रही थी. साथ ही साथ धो कर रखती जाती थी. सास को 2 बार रसोई से बाहर किया. उस का काम केवल छुटकी को रखना और मिलने वालों से बात करना था. सास को मजबूरन 2 बार छुटकी के कपड़े बदलने पड़े. सब से बड़ी बात तो यह थी कि दादी की गोद में छुटकी आज चुप थी, रोने का नाम नहीं. लगता था कि वह भी षडयंत्र में शामिल थी.

जब मेहमानों से छुट्टी मिली तो दयावती ने महसूस किया कि छुटकी कुछ बदल गई है. रोई क्यों नहीं आज? बल्कि शैतान हंस ही रही थी.

कमलनाथ ने आवाज दी, ‘‘बहू, जरा एक दहीबड़ा और दे जाना, बहुत अच्छे बने हैं.’’

रसोई से आवाज आई, ‘‘यहां कोई बहूवहू नहीं है, पिताजी.’’

‘‘बड़ी भूल हो गई बेटी,’’ कमलनाथ ने हंसते हुए कहा, ‘‘अब तो मिलेगा न?’’

‘‘और हां बेटी,’’ सास ने शरमाते हुए कहा, ‘‘अपनी मां का भी ध्यान रखना.’’

सास के गले में बांहें डालते हुए जया ने कहा, ‘‘क्योें नहीं, मां, आप लोगों को पा कर मैं कितनी धन्य हूं.’’

रमेश ने जो यह नाटक देख रहा था, गंभीरता से कहा, ‘‘इन हालात में मेरी क्या स्थिति है?’’ और सब हंस पड़े. Hindi Kahani

Hindi Story: असली पहचान

Hindi Story: मैं राजेश को जब भी देखती मेरे जेहन में ‘गुलाम’ फिल्म में आमिर खान का गेटअप घूम जाता था. वह बिलकुल उसी तरह बालों की स्टाइल, हाथों में कड़ा और गले में चेन डाल कर घूमता रहता था. वह मेरी पड़ोसिन की बूआ का बेटा था. मेरे परिवार के लोग राजेश को टपोरी समझते थे पर उसी टपोरी ने वह कर दिखाया था जिस के बारे में न तो मैं ने कभी सोचा था न मेरे परिवार में किसी को उम्मीद थी.

आज जब राजेश का फोन आया कि नीलू मां बनने वाली है तो मेरे परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई. मां और बाबूजी के साथ मेरे देवर भी तरहतरह के मनसूबे बनाने लगे और मैं सोचने लगी कि इस दुनिया में कितने ऐसे लोग हैं जो जैसे दिखते हैं वैसे अंदर से होते नहीं और जो बाहर से भोलेभाले दिखते हैं स्वभाव से भी वैसे हों यह जरूरी नहीं.

नीलू मेरी सब से छोटी ननद है. मेरी आंखों के सामने उस की बचपन की तसवीर घूमने लगी और मेरा मन 15 साल पीछे की बातों को याद करने लगा.

मैं इस घर में बहू बन कर जब आई थी तब मेरे दोनों देवर व ननद छोटेछोटे थे. मेरे पति सब से बड़े थे. उन में व बाकी बहनभाइयों में उम्र का काफी फासला था. हमारी शादी के दूसरे दिन ही बूआ सास ने मजाक में कहा था, ‘बहू, तुम्हें पता है कि तुम्हारे पति व अन्य बहनभाइयों में उम्र का इतना अंतर क्यों है? तुम्हारे पति के जन्म के बाद मेरी भाभी ने सोचा थोड़ा आराम कर लिया जाए…’ और इतना कह कर वह जोर का ठहाका मार का हंस पड़ी थीं.

नईनई भाभी पा कर मेरे छोटेछोटे देवर तो मेरे आगेपीछे चक्कर काटते और मेरा आंचल पकड़ कर घूमते रहते थे. पर मैं ने गौर किया कि मेरी सब से छोटी ननद नीलू जो लगभग 6-7 साल की थी, मेरे सामने आने से कतराती थी. यदि वह कभी हिम्मत कर के पास आती भी थी तो उस के भाई उसे झिड़क देते थे. यहां तक कि मांजी भी हमेशा उसे अपने कमरे में जाने को बोलतीं. नीलू मुझे सहमी सी नजर आती.

शादी के कुछ दिन बाद घर मेहमानों से खाली हो गया था. कोई काम नहीं था तो सोचा कमरे में पेंटिंग ही लगा दूं. मैं अपने कमरे में पेंटिंग लगा रही थी कि देखा, नीलू चुपचाप मेरे पीछे आ कर खड़ी हो गई है. मुझे इस तरह उस का चुपचाप आना अच्छा लगा.

‘आओ नीलू, तुम अपनी भाभी के पास नहीं बैठोगी? तुम मुझ से बातें क्यों नहीं करतीं.’

मैं उस से प्यार से अभी पूछ ही रही थी कि मेरा बड़ा देवर संजय आ गया और नीलू की ओर देख कर बोला, ‘अरे, भाभी, यह क्या बातें करेगी…इतनी बड़ी हो गई पर इसे तो ठीक से बोलना तक नहीं आता.’

संजय ने बड़ी आसानी से यह बात कह दी. मैं ने देखा कि नीलू का खिला चेहरा बुझ सा गया. मैं ने सोचा कि इस बारे में संजय को कुछ नसीहत दूं. पर तभी मांजी मेरे कमरे में आ गईं और आते ही उन्होंने भी नीलू को डांटते हुए कहा, ‘तू यहां खड़ीखड़ी क्या कर रही है. जा, जा कर पढ़ाई कर.’

नीलू अपने मन के सारे अरमान लिए चुपचाप वापस अपने कमरे में चली गई. उस के जाने के बाद मांजी बोलीं, ‘देखो बहू, मैं ने तुम्हारे लिए यह सूट खरीदा है,’ और वह मुझे सूट दिखाने लगीं, पर मेरा मन नीलू पर ही लगा रहा. शाम को जब यह घर आए तो चायनाश्ते के समय मैं ने इन से पूछा, ‘आप एक बात बताइए कि यह नीलू इतनी डरीसहमी सी क्यों रहती है?’

यह गौर से मुझे देखते हुए बताने लगे कि वह साफसाफ बोल नहीं पाती. दरअसल, नीलू ने बोलना ही देर से शुरू किया और 6 साल की होने के बावजूद हकलाहकला कर बोलती है.

‘आजकल तो कितनी मेडिकल सुविधाएं हैं. आप नीलू को किसी स्पीच थेरेपिस्ट को क्यों नहीं दिखाते?’

उस समय उन्होंने मेरी बात हवा में उड़ा दी पर मैं ने मन ही मन सोचा कि मैं खुद नीलू को दिखाने के लिए किसी स्पीच थेरेपिस्ट के पास जाऊंगी. इस बारे में जब मैं ने बाबूजी से बात की तो उन्होंने भी कोई उत्सुकता नहीं दिखाई लेकिन उन्होंने सीधे मना भी नहीं किया. अगले हफ्ते मैं नीलू को शहर की एक लोकप्रिय महिला स्पीच थेरेपिस्ट के पास ले गई.

थोड़ी देर बाद जब थेरेपिस्ट नीलू का विश्लेषण कर के बाहर आईं तो बोलीं, ‘इस का हकला कर बोलना उतनी परेशानी की बात नहीं है जितना इस के व्यक्तित्व का दबा होना. इसे लोगों के सामने आने में घबराहट होती है क्योंकि लोग इस के हकलाने का मजाक उड़ाते हैं. इसी से यह खुल कर नहीं रहती और न ही बोल पाती है.’

मैं नीलू को ले कर घर चली आई. मैं ने निश्चय किया कि नीलू को ले कर मैं बाहर निकला करूंगी, उसे अपने साथ घुमाने ले जाया करूंगी और उस दिन से मैं नीलू पर और ज्यादा ध्यान देने लगी. मैं ने नीलू के व्यक्तित्व को निखारने की जैसे कसम खा ली थी. इस के नतीजे जल्दी ही हम सब के सामने आने लगे. उस दिन तो घर में खुशी की लहर ही दौड़ गई जब नीलू अपने स्कूल में कविता प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार ले कर घर आई थी.

समय पंख लगा कर कितनी तेजी से उड़ गया, पता ही नहीं चला. मेरे सभी देवरों की शादी हो गई. अब घर में बस, नीलू ही थी. उस ने भी एम.ए. कर लिया था. हम लोग उस की शादी के लिए लड़का देख रहे थे. जल्द ही लड़का भी मिल गया जो डाक्टर था. परिवार के लोगों ने बड़ी धूमधाम से नीलू की शादी की. शादी के बाद के कुछ महीनों तक तो सब कुछ ठीकठाक चलता रहा. धीरेधीरे मैं ने महसूस किया कि नीलू की आवाज में खुशी नहीं झलकती. मैं ने पूछा भी पर उस ने कुछ बताया नहीं और शादी के केवल 2 साल बाद ही नीलू अकेले मायके वापस आ गई.

उस के बुझे चेहरे को देख कर हम सभी परेशान रहते थे. मैं ने सोचा भी कि कुछ दिन बीत जाएं तो उस के ससुराल फोन करूं. क्या पता पतिपत्नी में खटपट हुई हो. 15 दिन बाद जब मैं ने नीलू के ससुराल फोन किया तो उस की सास व पति के जवाब सुन कर सन्न रह गई. ‘मेरा तो एक ही बेटा है, आप ने हम से झूठ बोल कर शादी की और अपनी तोतली बेटी हमें दे दी. उस पर वह बांझ भी है. मैं तो सीधे तलाक के पेपर भिजवाऊंगी,’ इतना कह कर नीलू की सास ने फोन काट दिया.

घर में सन्नाटा छा गया. मांजी ने मुझे भी कोसना शुरू कर दिया, ‘मैं कहती थी कि यह कभी ठीक नहीं होगी. तुम्हारे उस ‘स्पीच थेरेपी’ जैसे चोंचलों से कुछ होने वाला नहीं है. लो, देखो, अब रखो अपनी छाती पर इसे जिंदगी भर.’ मुझे नीलू की सास की बात सुन कर उतना दुख नहीं हुआ जितना कि अपनी सास की बातों से हुआ. दरअसल, नीलू एकदम ठीक हो गई थी पर नए माहौल में एकाध शब्द पर थोड़ा अटकती थी जोकि पता नहीं चलता था. पर उस के ससुराल वालों ने उसे कैसे बांझ करार दे दिया यह बात मेरी समझ में नहीं आई. क्या 2 साल ही पर्याप्त होते हैं किसी स्त्री की मातृत्व क्षमता को नापने के लिए?

खैर, बात काफी आगे बढ़ चुकी थी. आखिर तलाक हो ही गया. इस के बाद नीलू एकदम चुप सी रहने लगी. जैसे कि मेरी शादी के समय थी. बंद कमरे में रहना, किसी से बातें न करना. एक दिन मैं ने जिद कर के नीलू को अपने साथ बाहर चलने के लिए यह सोच कर कहा कि घर से बाहर निकलेगी तो थोड़ा बदलाव महसूस करेगी. रास्ते में ही पड़ोस की बूआ का बेटा राजेश मिल गया. उस ने मुझे रोक कर नमस्कार किया और बोला, ‘भाभी, मुझे मुंबई में अच्छी नौकरी मिल गई है और कंपनी वालों ने रहने के लिए फ्लैट दिया है. किसी दिन मम्मी से मिलने के लिए आप मेरे घर आइए न.’

‘ठीक है भैया, किसी दिन मौका मिला तो आप के घर जरूर आऊंगी,’ इतना कह कर मैं नीलू के साथ बाजार चली गई.

एक दिन मैं बूआ के घर गई. उन का घरपरिवार अच्छा था. अपना खुद का कारोबार था. मैं ने बातों ही बातों में बूआ से नीलू का जिक्र किया तो वह बोल पड़ीं, ‘अरे, उस बच्ची की अभी उम्र ही क्या है? कहीं दूसरी शादी करा दें तो ठीक हो जाएगी.’

‘लेकिन बूआ, कौन थामेगा उस का हाथ? अब तो उस पर बांझ होने का ठप्पा भी लग गया है. यद्यपि मैं ने उस के तमाम मेडिकल चेकअप कराए हैं पर उस में कहीं कोई कमी नहीं है,’ इतना कहते- कहते मेरा गला जैसे भर्रा गया.

‘मैं कैसा हूं आप के घर का दामाद बनने के लिए?’ राजेश बोला तो मैं ने उसे डांट दिया कि यह मजाक का वक्त नहीं है.

‘भाभी, मैं मजाक नहीं सच कह रहा हूं. मैं नीलू का हाथ थामने को तैयार हूं बशर्ते आप लोगों को यह रिश्ता मंजूर हो.’

मेरा मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया. आश्चर्य से मैं बूआ की ओर पलटी तो मुझे लगा कि उन्हें भी राजेश से यह उम्मीद नहीं थी.

थोड़ी देर रुक कर वह बोलीं, ‘मैं घूमघूम कर समाजसेवा करती हूं और जब अपने घर की बारी आई तो पीछे क्यों हटूं? फिर जब राजेश को कोई एतराज नहीं है तो मुझे क्यों होगा?’

राजेश मेरी ओर मुड़ कर बोला, ‘भाभी, जहां तक बच्चे की बात है तो इस दुनिया में सैकड़ों बच्चे अनाथ पड़े हैं. उन्हीं में से किसी को अपने घर ले आएंगे और उसे अपना बच्चा बना कर पालेंगे.’

राजेश के मुंह से ऐसी बातें सुन कर मुझे सहसा विश्वास ही नहीं हुआ. जिस की पहचान हम उस के पहनावे से करते रहे वह तो बिलकुल अलग ही निकला और जो सूटटाई के साथ ‘जेंटलमैन’ बने घूमते थे वह कितने खोखले निकले.

मेरे मन से राजेश के लिए सैकड़ों दुआएं निकल पड़ीं. मेरा रोमरोम पुलकित हो उठा था. मुझे टपोरी ड्रेस में भी राजेश किसी राजकुमार की तरह लग रहा था. घर आ कर मैं ने यह बात परिवार के दूसरे लोगों को बताई तो सब इस के लिए तैयार हो गए और फिर जल्दी ही नीलू की शादी राजेश के साथ कर दी गई. शादी के साल भर बाद ही वे दोनों अनाथ आश्रम जा कर एक बच्चा ले आए और आज जब नीलू खुद मां बनने वाली है तो मेरा मन खुशी से झूम उठा है.

मैं ने राजेश से फोन पर बात की और उसे बधाई दी तो वह कहने लगा कि भाभी, हम मांबाप तो पहले ही बन चुके थे पर बच्चों से परिवार पूरा होता है न. बेटी तो हमारे पास पहले से ही है अब जो भी होगा उसे ले कर कोई गिलाशिकवा नहीं रहेगा, क्योंकि वह हमारा ही अंश होगा. राजेश के मुंह से यह सुन कर सचमुच मन भीग सा गया. राजेश ने मानवता की जो मिसाल कायम की है, यदि ऐसे ही सब हो जाएं तो समाज में कोई परेशानी आए ही न. यह सोच कर मेरी आंखों में राजेश व उसके परिवार के प्रति कृतज्ञता के आंसू आ गए. Hindi Story

Stories Hindi: इसी को कहते हैं जीना

Stories Hindi: ‘‘नेहा, क्या तुम ने कभी यह सोचा है कि तुम अकेली क्यों हो? हर इनसान तुम से दूर क्यों भागता है?’’नेहा चुपचाप मेरा चेहरा देखने लगी.

‘‘किसी भी रिश्ते को निभाने में तुम्हारा कितना योगदान होता है, क्या तुम ने कभी महसूस किया है? जहां कहीं भी तुम्हारी दोस्ती होती है वहां तुम्हारा समावेश उतना ही होता है जितना तुम पसंद करती हो. कोई तुम्हारे काम आता है तो उसे तुम अपना अधिकार ही मान कर चलने लगती हो. जिन से तुम दोस्ती करती हो उन्हें अपनी जरूरत के अनुसार इस्तेमाल करती हो और काम हो जाने के बाद धन्यवाद बोलना भी जरूरी नहीं समझती हो…लोग तुम्हारे काम आएं पर तुम किसी के काम आओ यह तुम्हें पसंद नहीं है, क्योंकि तुम्हें लोगों से ज्यादा मिलनाजुलना पसंद नहीं है. जो तुम्हारे काम आते हैं उन से तुम हफ्तों नहीं मिलतीं तो सिर्फ इसलिए कि स्कूल के बाद तुम्हें अपने घर को साफ करवाना जरूरी होता है.

लौटते हुए

‘‘अच्छा, यह बताओ कि तुम्हारे घर में कितने लोग हैं जो रोज इतनी साफसफाई करवाती हो. साफ घर हर रोज इस तरह साफ करती हो मानो दीवाली आने वाली हो. आता कौन है तुम्हारे घर पर? न तुम्हारे मांबाप आते हैं न सासससुर…पति न जाने किस के साथ कहां चला गया, तुम खुद भी नहीं जानतीं.’’

आंखें और भी फैल गईं नेहा की.

‘‘जरा सोचो, नेहा, तुम कब किसी के काम आती हो. कब तुम अपने कीमती समय में से समय निकाल कर किसी का सुखदुख पूछती हो…कितना बनावटी आचरण है तुम्हारा. मुंह पर जिस की तारीफ करती हो पीठ पीछे उसी की बुराई करने लगती हो. क्या तुम्हें प्रकृति से डर नहीं लगता? सोने से पहले क्या कभी यह सोचती हो कि आज रात अगर तुम मर जाओ तो क्या तुम कोई कर्ज साथ नहीं ले जाओगी?’’

‘‘किस का कर्ज है मेरे सिर पर? मुझे तो किसी का कोई रुपयापैसा नहीं देना है.’’

‘‘रुपएपैसे के आगे भी कुछ होता है, जो कर्ज की श्रेणी में आता है.

‘‘रुपएपैसे के एहसान को तो इनसान पैसे से चुका सकता है मगर उन लोगोें का बदला कैसे चुकाया जा सकता है जहां  लगाव, हमदर्दी और अपनत्व का कर्ज हो. जिस ने मुसीबत में तुम्हें सहारा दिया उस का कभी हालचाल भी नहीं पूछती हो तुम.’’

उसे किस ने मारा

‘‘किस की बात कर रहे हो तुम?’’

‘‘इस का मतलब तुम पर किस के एहसान का कर्ज है यह भी तुम्हें याद नहीं.’’

मैं नेहा का मित्र हूं और हमारी मित्रता का कोई भी भविष्य मुझे अब नजर नहीं आ रहा. मित्रता तो एक तरह का निवेश है. प्यार दो तो प्यार मिलेगा. आज तुम किसी के काम आओ तो कल कोई तुम्हारे काम आएगा. नेहा तो सूखी रेत है जिस पर चाहो तो मन भर पानी बरसा दो वह फिर भी गीली नहीं हो सकती.

अफसोस हो रहा है मुझे खुद पर और नेहा पर भी. खुद पर इसलिए कि मैं  नेहा का मित्र हूं और नेहा पर इसलिए कि क्या उसे कोई किनारा मिल पाएगा कभी? क्या वह रिश्ता निभाना सीख पाएगी कभी?

नेहा से मेरी जानपहचान शर्माजी के घर हुई थी. शर्माजी हमारे विभाग में वरिष्ठ अधिकारी हैं और बड़े सज्जन पुरुष हैं. शर्माजी की पत्नी ललिताजी भी बड़ी मिलनसार और ममतामयी महिला हैं. मैं कुछ फाइलें उन्हें दिखाने उन के घर गया था, क्योंकि वह कुछ दिन से बीमार चल रहे थे.

हम दोनों के सामने चाय रख कर ललिताजी जल्दी से निकल गई थीं. टिफिन था उन के हाथ में.

‘‘भाभीजी बच्चों को टिफिन देने गई हैं क्या?’’

पिंजरे वाली मुनिया

‘‘अरे, बच्चे कहां हैं यहां हमारे,’’ शर्माजी बोले, ‘‘दोनों बेटे अपनीअपनी नौकरी पर बाहर हैं. यहां तो हम बुड्ढाबुढि़या ही हैं. तुम्हें क्या हमारी उम्र इतनी छोटी लग रही है कि हमारे बच्चे स्कूल जाते होंगे.

‘‘मेरी पत्नी समाज सेवा में भी विश्वास करती है. यहां 2 घर छोड़ कर कोई बीमार है…उसी को खाना देने गई है. अकेली लड़की है. बीमार है, बस, उसी की देखभाल करती रहती है. क्या करे बेचारी? अपने बच्चे तो दूर हैं न. उन की ममता उसी पर लुटा कर खुश हो लेती है.’’

तब पहली बार नेहा के बारे में जाना था. स्कूल में टीचर है और पति कुछ समय पहले कहीं चला गया था. शादी को 2-3 साल हो चुके हैं. कोई बच्चा नहीं है. अकेली रहती है, इसलिए ललिताजी उस से दोस्ती कर के उस की मदद करती रहती हैं और समय का सदुपयोग भी.

अभी हम फाइलें देख ही रहे थे कि ललिताजी वापस चली आईं और अपने साथ नेहा को भी लेती आई थीं.

‘‘बहुत तेज बुखार है इसे. मैं साथ ही ले आई हूं. बारबार उधर भी तो नहीं न जाया जाता.’’

ललिताजी नेहा को दूसरे कमरे में सुला आई थीं और अब शर्माजी को समझा रही थीं,  ‘‘देखिए न, अकेली बच्ची वहां पड़ी रहती तो कौन देखता इसे. बेचारी के मांबाप भी दूर हैं न…’’

‘‘दूर कहां हैं…हम हैं न उस के मांबाप…हर शहर में हमारी कम से कम एक औलाद तो है ही ऐसी जिसे तुम ने गोद ले रखा है. इस शहर में नहीं थी सो वह कमी भी दूर हो गई.’’

‘‘नाराज क्यों हो रहे हैं…जैसे ही बुखार उतर जाएगा वह चली जाएगी. आप भी तो बीमार हैं न…आप का खानापीना भी देखना है. 2-2 जगह मैं कै से देखूं.’’

मैं ने भी उसी पल उन्हें ध्यान से देखा था. बहुत ममतामयी लगी थीं वह मुझे. बहुत प्यारी भी थीं.

लगभग 4 घंटे उस दिन मैं शर्माजी के घर पर रहा था और उन 4 घंटों में शर्मा दंपती का चरित्र पूरी तरह मेरे सामने चला आया था. बहुत प्यारी सी जोड़ी है उन की.  ललिताजी तो ऐसी ममतामयी कि मानो पल भर में किसी की भी मदद करने को तैयार. शर्माजी पत्नी की इस आदत पर ज्यादातर खुश ही रहते.

मेरे साथ भी मां जैसा नाता बांध लिया था ललिताजी ने. सचमुच कुछ लोग इतने सीधेसरल होते हैं कि बरबस प्यार आने लगता है उन पर.

‘‘देखो बेटा, मनुष्य को सदा इस  भावना के साथ जीना चाहिए कि मेरा नाम कहीं लेने वालों की श्रेणी में तो नहीं आ रहा.’’

‘‘मांजी, मैं समझा नहीं.’’

‘‘मतलब यह कि मुझे किसी का कुछ देना तो नहीं है न, कोई ऐसा तो नहीं जिस का कर्ज मेरे सिर पर है, रात को जब बिस्तर पर लेटो तब यह जरूर याद कर लिया करो. किसी से कुछ लेने की आस कभी मत करो. जब भी हाथ उठें देने के लिए उठें.’’

मंत्रमुग्ध सा देखता रहता मैं  ललिताजी को. जब भी उन से मिलता था कुछ नया ही सीखता था. और उस से भी ज्यादा मैं यह सीखने लगा था कि नेहा के करीब कैसे पहुंचा जाए. नेहा अपना कोई न कोई काम लिए ललिताजी के पास आ जाती और मैं उस के लिए कुछ सोचने लगता.

‘‘बहुत अच्छी लड़की है, पढ़ीलिखी है, मेरा जी चाहता है उस का घर पुन: बस जाए.’’

‘‘मांजी, उस का पति वापस आ गया तो. ऐसी कोई तलाक जैसी प्रक्रिया तो नहीं गुजरी न दोनों में. पुन: शादी के बारे में कैसे सोचा जा सकता है.’’

शर्माजी के घर से शुरू हुई हमारी जानपहचान उन के घर के बाहर भी जारी रही और धीरेधीरे हम अच्छे दोस्त बन गए.

ललिताजी से मिलना कम हो गया और हर शाम मैं और नेहा साथसाथ रहने लगे. मार्च का महीना था जिस वजह से आयकर रिटर्न का काम भी नेहा ने मुझे सौंप दिया. कभी नया राशन कार्ड बनाना होता और कभी पैन कार्ड का चक्कर. उस के घर की किस्तें भी हर महीने मेरे जिम्मे पड़ने लगीं. 2-3 महीने में नेहा के सारे काम हो गए. कभीकभी मुझे लगता, मैं तो उस का नौकर ही बन गया हूं.

कुछ दिन और बीते. एक दिन पता चला कि ललिताजी को भारी रक्तस्राव की वजह से आधी रात को अस्पताल में भरती कराना पड़ा. शर्माजी छुट्टी पर चले गए. उन के  बच्चे दूर थे इसलिए उन्हें परेशान न कर वह पतिपत्नी सारी तकलीफ खुद ही झेल रहे थे.

मेरा परिवार भी दूर था सो कार्यालय के बाद मैं भी अस्पताल चला आता था, उन के पास.

नेहा अस्पताल में नहीं दिखी तो सोचा, हो सकता है वह ललिताजी का घर संभाल रही हो. ललिताजी का आपरेशन हो गया. मैं छुट्टी ले कर उन के आसपास ही रहा. नेहा कहीं नजर नहीं आई. एक दिन शर्माजी से पूछा तो वह हंस पड़े और बताने लगे :

‘‘जब से तुम उस के काम कर रहे हो तब से वह मुझ से या ललिता से मिली कब है, हमें तो अपनी सूरत भी दिखाए उसे महीना बीत गया है. बड़ी रूखी सी है वह लड़की.’’

मुझ में काटो तो खून नहीं. क्या सचमुच नेहा अब इन दोनों से मिलती- जुलती नहीं. हैरानी के साथसाथ अफसोस भी होने लगा था मुझे.

ललिताजी अभी बेहोशी में थीं और शर्माजी उन का हाथ पकड़े बैठे थे.

‘‘ललिता का तो स्वभाव ही है. कोई एक कदम इस की तरफ बढ़ाए तो यह 10 कदम आगे बढ़ कर उस का साथ देती है. हम नएनए इस शहर में आए थे. यह लड़की एक शाम फोन करने आई थी. उस का फोन काम नहीं कर रहा था… गलती तो ललिता की ही थी… किसी की भी तरफ बहुत जल्दी झुक जाती है.’’

स्तब्ध था मैं. अगर मुझ से भी नहीं मिलती तो किस से मिलती है आजकल?

4 दिन और बीत गए. मैं आफिस के बाद हर शाम अस्पताल चला जाता. मुझे देखते ही ललिताजी का चेहरा खिल जाता. एक बार तो ठिठोली भी की उन्होंने.

‘‘बेचारा बच्चा फंस गया हम बूढ़ों के चक्कर में.’’

इंद्रधनुष

‘‘आप मेरी मां जैसी हैं. घर पर होता और मां बीमार होतीं तो क्या उन के पास नहीं जाता मैं?’’

‘‘नेहा से कब मिलते हो तुम? हर शाम तो यहां चले आते हो?’’

‘‘वह मिलती ही नहीं.’’

‘‘कोई काम नहीं होगा न. काम पड़ेगा तो दौड़ी चली आएगी,’’ ललिताजी ने ही उत्तर दिया.

शर्माजी कुछ समय के लिए घर गए तब ललिताजी ने इशारे से पास बुलाया और कहने लगीं, ‘‘मुझे माफ कर देना बेटा, मेरी वजह से ही तुम नेहा के करीब आए. वह अच्छी लड़की है लेकिन बेहद स्वार्थी है. मोहममता जरा भी नहीं है उस में. हम इनसान हैं बेटा, सामाजिक जीव हैं हम… अकेले नहीं जी सकते. एकदूसरे की मदद करनी पड़ती है हमें. शायद यही वजह है, नेहा अकेली है. किसी की पीड़ा से उसे कोई मतलब नहीं है.’’

‘‘वह आप से मिलने एक बार भी नहीं आई?’’

‘‘उसे पता ही नहीं होगा. पता होता तो शायद आती…और पता वह कभी लेती ही नहीं. जरूरत ही नहीं समझती वह. तुम मिलना चाहो तो जाओ उस के घर, इच्छा होगी तो बात करेगी वरना नहीं करेगी… दोस्ती तक ही रखना तुम अपना रिश्ता, उस से आगे मत जाना. इस तरह के लोग रिश्तों में बंधने लायक नहीं होते, क्योंकि रिश्ते तो बहुत कुछ मांगते हैं न. प्यार भी, स्नेह भी, अपनापन भी और ये सब उस के पास हैं ही नहीं.’’

शर्माजी आए तो ललिताजी चुप हो गईं. शायद उन के सामने वह अपने स्नेह, अपने ममत्व को ठगा जाना स्वीकार नहीं करना चाहती थीं या अपनी पीड़ा दर्शाना नहीं चाहती थीं.

3-4 दिन और बीत गए. ललिताजी घर आ चुकी थीं. नेहा एक बार भी उन से मिलने नहीं आई. लगभग 3 दिन बाद वह लंच में मुझ से मिलने मेरे आफिस चली आई. बड़े प्यार से मिली.

‘‘कहां रहीं तुम इतने दिन? मेरी याद नहीं आई तुम्हें?’’ जरा सा गिला किया था मैं ने.

‘‘जरा व्यस्त थी मैं. घर की सफाई करवा रही थी.’’

‘‘10 दिन से तुम्हारे घर की सफाई ही चल रही है. ऐसी कौन सी सफाई है भई.’’

मन में सोच रहा था कि देखते हैं आज कौन सा काम पड़ गया है इसे, जो जबान में मिठास घुल रही है.

‘‘क्या लोगी खाने में, क्या मंगवाऊं?’’

खाने का आर्डर दिया मैं ने. इस से पहले भी जब हम मिलते थे खाना मैं ही मंगवाता था. अपनी पसंद का खाना मंगवा लिया नेहा ने. खाने के दौरान कभी मेरी कमीज की तारीफ करती तो कभी मेरी.

‘‘शर्माजी और ललिताजी कैसी हैं? शर्माजी छुट्टी पर हैं न, कहीं बाहर गए हैं क्या?’’

‘‘पता नहीं, मैं ने बहुत दिन से उन्हें देखा नहीं.’’

‘‘अरे भई, तुम इस देश की प्रधानमंत्री हो क्या जो इतना काम रहता है तुम्हें. 2 घर छोड़ कर तो रहते हैं वह…और तुम्हारा इतना खयाल भी रखते हैं. 10 दिन से वह तुम से मिले नहीं.’’

‘‘मेरे पास इतना समय नहीं होता. 2 बजे तो स्कूल से आती हूं. 4 बजे बच्चे ट्यूशन पढ़ने आ जाते हैं. 7 बजे तक उस में व्यस्त रहती हूं. इस बीच काम वाली बाई भी आ जाती है…’’

‘‘किसी का हालचाल पूछने के लिए आखिर कितना समय चाहिए नेहा. एक फोन काल या 4-5 मिनट में जा कर भी इनसान वापस आ जाता है. उन के और तुम्हारे घर में आखिर दूरी ही कितनी है.’’

‘‘मुझे बेकार इधरउधर जाना अच्छा नहीं लगता और फिर ललिताजी तो हर पल खाली रहती हैं. उन के साथ बैठ कर गपशप लगाने का समय नहीं होता मेरे पास.’’

नेहा बड़ी तल्खी में जवाब दे रही थी. खाना समाप्त हुआ और वह अपने मुद्दे पर आ गई. अपने पर्स से राशन कार्ड और पैन कार्ड निकाल उस ने मेरे सामने रख दिए.

‘‘यह देखो, इन दोनों में मेरी जन्मतिथि सही नहीं लिखी है. 7 की जगह पर 1 लिखी गई है. जरा इसे ठीक करवा दो.’’

हंस पड़ा मैं. इतनी हंसी आई मुझे कि स्वयं पर काबू पाना ही मुश्किल सा हो गया. किसी तरह संभला मैं.

‘‘तुम ने क्या सोचा था कि तुम्हारा काम हो गया और अब कभी किसी की जरूरत नहीं पड़ेगी. मत भूलो नेहा कि जब तक इनसान जिंदा है उसे किसी न किसी की जरूरत पड़ती है. जिंदा ही क्यों उसे तो मरने के बाद भी 4 आदमी चाहिए, जो उठा कर श्मशान तक ले जाएं. राशन कार्ड और पैन कार्ड जब तक नहीं बना था तुम्हारा मुझ से मिलना चलता रहा. 10 दिन से तुम मिलीं नहीं, क्योंकि तुम्हें मेरी जरूरत नहीं थी. आज तुम्हें पता चला इन में तुम्हारी जन्मतिथि सही नहीं तो मेरी याद आ गई …फार्म तुम ने भरा था न, जन्मतिथि तुम ने भरी थी…उस में मैं क्या कर सकता हूं.’’

‘‘यह क्या कह रहे हो तुम?’’ अवाक्  तो रहना ही था नेहा को.

‘‘अंधे को अंधा कैसे कहूं…उसे बुरा लग सकता है न.’’

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘मतलब साफ है…’’

उसी शाम ललिताजी से मिलने गया. उन्हें हलका बुखार था. शर्माजी भी थकेथके से लग रहे थे. वह बाजार जाने वाले थे, दवाइयां और फल लाने. जिद कर के मैं ही चला गया बाजार. वापस आया और आतेआते खाना भी लेता आया. ललिताजी के लिए तो रोज उबला खाना बनता था जिसे शर्माजी बनाते भी थे और खाते भी थे. उस दिन मेरे साथ उन्होंने तीखा खाना खाया तो लगा बरसों के भूखे हों.

‘‘मैं कहती थी न अपने लिए अलग बनाया करें. उबला खाना खाया तो जाता नहीं, उस पर भूखे रह कर कमजोर भी हो गए हैं.’’

ललिताजी ने पहली बार भेद खोला. दूसरे दिन से मैं रोज ही अपना और शर्माजी का खाना पैक करा कर ले जाने लगा. नेहा की हिम्मत अब भी नहीं हुई कि वह एक बार हम से आ कर मिल जाती. हिम्मत कर के मैं ने सारी आपबीती उन्हें सुना दी. दोनों मेरी कथा सुनने के बाद चुप थे. कुछ देर बाद शर्माजी कहने लगे, ‘‘सोचा था, प्यारी सी बच्ची का साथ रहेगा तो अच्छा लगेगा. उसे हमारा सहारा रहेगा हमें उस का.’’

‘‘सहारा दिया है न हमें प्रकृति ने. बच्ची का सहारा तो सिर्फ हम ही थे… बदले में सहारा देने वाला मिला है हमें… यह बच्चा मिला है न.’’

ललिताजी की आंखें नम थीं, मेरी बांह थपथपा रही थीं वह. मेरा मन भी परिवार के साथ रहने को होता था पर घर दूर था. मुझे भी तो परिवार मिल गया था परदेस में. कौन किस का सहारा था, मैं समझ नहीं पा रहा था. दोनों मुझे मेरे मातापिता जैसे ही लग रहे थे. वे मुझे सहारा मान रहे थे और मैं उन्हें अपना सहारा मान रहा था, क्योंकि शाम होते ही मन होता भाग कर दोनों के पास चला जाऊं.

क्या कहूं मैं? अपनाअपना तरीका है जीने का. कुदरत ने लाखों, करोड़ों जीव बनाए हैं, जो आपस में कभी मिलते हैं और कभी नहीं भी मिलते. नेहा का जीने का अपना तरीका है जिस में वह भी किसी तरह जी ही लेगी. बस, इतना मान सकते हैं हम तीनों कि हम जैसे लोग नेहा जैसों के लिए नहीं बने, सो कैसा अफसोस? सोच सकते हैं कि हमारा चुनाव ही गलत था. कल फिर समय आएगा…कल फिर से कुछ नया तलाश करेंगे, यही तो जीवन है, इसी को तो कहते हैं जीना. Stories Hindi

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