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Social Story : चिकित्सा – ज्योतिषी की बात को झुण्लाती एक मनोवैज्ञानिक की कहानी

Social Story : मैं कालेज से आ कर कपड़े भी नहीं उतार पाया था कि पत्नी ने सूचना दी, ‘‘सोमेश्वरजी को दिल का दौरा पड़ा है. घंटाभर पहले उन की पत्नी का मैसेज आया था.’’ सोमेश्वरजी मेरे घनिष्ठ मित्र हैं. मेरी और उन की अवस्था में 30 वर्ष का अंतर है. पर इस से हम लोगों की मैत्री में कभी बाधा नहीं पड़ी. व्यवसाय भी हम दोनों का भिन्न है. मैं अध्यापक हूं और वे आरएमपी डाक्टर. मैं इस नगर में आया, उस के 2 मास पश्चात ही मेरा उन से परिचय हो गया था. इस नगर का पानी मेरे अनुकूल नहीं था. मुझे भयानक पेचिश हुई. चिकित्सक उसे ठीक करने में विफल रहे. सभी ने एक ही सलाह दी, ‘चाय पियो या प्याज खाओ. तभी यहां का पानी अनुकूल आएगा.’ मैं दोनों में से एक भी काम नहीं कर सकता, इसलिए मैं ने यहां से जाने का निर्णय कर लिया.

तभी किसी ने मुझे सोमेश्वरजी के पास जाने की सलाह दी. सोमेश्वरजी की पहली ही गोली से मुझे फायदा होने लगा. यदि यह कहूं कि मैं इस नगर में सोमेश्वरजी की कृपा से ही हूं तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. यदि वे न होते तो मैं यहां से अवश्य चला गया होता. सोमेश्वरजी से मेरा परिचय घनिष्ठता में बदला और शीघ्र ही घनिष्ठता ने मित्रता का रूप ले लिया. इस बात से लगभग सारा नगर परिचित है कि जब मैं यहां होता हूं तो 4 बजे से 5 बजे तक सोमेश्वरजी के क्लीनिक पर अवश्य बैठता हूं. उस समय मेरा घर में मिलना असंभव होता है, इसलिए वहां से निराश हो कर लोग मुझे सोमेश्वरजी की दुकान पर ही खोजते हैं. इतनी घनिष्ठता होने के कारण सोमेश्वरजी के अस्वस्थ होने की बात से मेरा चिंतित होना स्वाभाविक था. वैसे सोमेश्वरजी का अस्वस्थ होना कोई आश्चर्य की बात नहीं थी. वे 70 साल की अवस्था में इतना अधिक परिश्रम करते थे कि उन्हें दिल का दौरा न पड़ना ही विचित्र बात जान पड़ती थी.

मैं ने उलटासीधा खाना खाया और सोमेश्वरजी के अस्पताल की ओर चल पड़ा. सोमेश्वरजी कमरे में लेटे हुए थे. कमरे के बाहर बहुत से लोग बैठे थे. डाक्टर ने उन के पास लोगों को जाने से मना कर दिया था. दरवाजे के बाहर उन की पत्नी के साथ दोनों पुत्रवधुएं चुपचाप आंसू बहा रही थीं. वातावरण अत्यंत शांत एवं करुण बना हुआ था. मेरे पहुंचते ही सोमेश्वरजी के बड़े लड़के ने मुझे प्रणाम किया और धीरे से किवाड़ खोल कर मुझे कमरे में ले गया. मैं एक कुरसी पर बैठ गया. मैं सोमेश्वरजी को देख रहा था और सोमेश्वरजी मुझे. डाक्टर ने उन्हें पूरा विश्राम करने की सलाह दी थी. उन्हें बोलने और उठनेबैठने की मनाही थी.

सोमेश्वरजी कुछ कहना चाह रहे थे, पर मैं ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया. सहसा उन की दोनों आंखों से आंसुओं की बूंदें निकल पड़ीं, जो उन के मानसिक ताप की साक्षी थीं. मैं ने सोमेश्वरजी के समीप बैठ कर उन्हें समझाया, ‘‘आप निराश क्यों होते हैं? आप अवश्य ठीक हो जाएंगे. वैसे भी आप को घबराना नहीं चाहिए. आप अपने सभी उत्तरदायित्व पूरे कर चुके हैं.’’ मेरी बात का सोमेश्वरजी पर विशेष प्रभाव नहीं हुआ. तभी सूचना मिली कि डाक्टर साहब उन्हें देखने आए हैं. मैं कमरे से बाहर आ गया. डाक्टर साहब मेरे परिचित थे. उन्होंने कमरे में घुसने से पहले मुझे नमस्ते की. मैं कुछ पूछता, इस से पहले ही वे सोमेश्वरजी के कमरे में प्रवेश कर गए. डाक्टर साहब कुछ देर बाद बाहर निकले. उन के चेहरे पर असंतोष के भाव थे. मैं उन्हें भीड़ से एक ओर ले गया. सोमेश्वरजी का बड़ा लड़का भी मेरे साथ था. मैं ने डाक्टर साहब से पूछा, ‘‘कहिए डाक्टर साहब, मेरे मित्र के स्वास्थ्य में कुछ सुधार है?’’

डाक्टर साहब ने विवशता दिखाते हुए उत्तर दिया, ‘‘मैं ने बढि़या से बढि़या दवा दी है. दवा अपना काम कर रही है पर उतना नहीं जितना करना चाहिए.’’

‘‘दवा पूरा प्रभाव क्यों नहीं कर रही, उन्हें आप की इच्छा के अनुसार लाभ क्यों नहीं हो रहा?’’ मैं ने उत्सुकता से पूछा.

डाक्टर साहब कुछ देर तक सोचते रहे. उन के चेहरे पर अनिश्चितता के भाव छाए रहे. सहसा कुछ निश्चय सा कर के वे कहने लगे, ‘‘इन के मन में जीवन के प्रति आशा और उमंग बिलकुल नहीं है. ये समझ बैठे हैं कि इन की मृत्यु निश्चित है. इन के मन में निराशा समाई हुई है. जब तक ये मन से जीवन की अभिलाषा नहीं करेंगे तब तक दवा पूरा लाभ नहीं कर सकती. इन्हें जीवन के प्रति आशावान बनना पड़ेगा अन्यथा ये चल बसेंगे. अगर इन्होंने 4 दिन काट लिए तो इन के बचने की संभावना बढ़ जाएगी.’’

‘‘आप ने इन्हें जीवन के प्रति आशावान बनाने का प्रयत्न नहीं किया?’’ मैं ने डाक्टर साहब से अगला प्रश्न किया.

‘‘मैं केवल समझा सकता हूं, इन्हें तसल्ली दे सकता हूं. मैं ने इन्हें कई बार बताया है कि आप मरेंगे नहीं, आप अवश्य ठीक हो जाएंगे. पर इन के ऊपर कोई असर नहीं होता,’’ डाक्टर साहब ने उदासीनतापूर्वक उत्तर दिया. मेरे मुख पर हलकी सी मुसकराहट दौड़ गई. मैं ने डाक्टर साहब को विश्वास दिलाते हुए कहा, ‘‘आप इन्हें दवा दीजिए. इन के मन में जीवित रहने वाली भावना जगाने का प्रबंध मैं कर दूंगा.’’ पर उन के चेहरे से ऐसा लगा जैसे वे न तो मेरी बात समझे हैं और न ही मेरी बात पर उन्हें विश्वास हो रहा है. उन्हें शायद दूसरा मरीज देखने जाना था, इसलिए बात अधिक न बढ़ा कर चले गए. मैं सोमेश्वरजी की कमजोरी जानता था. वे अंधविश्वास में ज्यादा भरोसा करते थे. वे ज्योतिषियों पर बहुत विश्वास करते थे. मुझे शंका हुई कि अवश्य किसी ज्योतिषी ने उन की मृत्यु की भविष्यवाणी कर दी है, इसीलिए वह अपने जीवन की समाप्ति का विश्वास कर के मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं.

सोमेश्वरजी के क्लीनिक पर एक लड़का नौकर था, जो दवाएं उठाउठा कर देता था. सोमेश्वरजी कुरसी पर बैठे रहते थे. वे जिस दवा का नाम लेते थे, लड़का उसी की शीशी अलमारी से निकाल कर सोमेश्वरजी के सामने रख देता था. काम हो जाने पर शीशी को अलमारी में रखना भी उसी का काम था. मैं ने उस से पूछा, ‘‘क्या, कुछ दिन पहले डाक्टर साहब के पास कोई ज्योतिषी आया था?’’

‘‘आया था. डाक्टर साहब ने अपनी जन्मपत्री भी उसे दिखाई थी,’’ लड़के ने उत्तर दिया.

मैं ने लड़के से अगला प्रश्न किया, ‘‘तुम्हें ध्यान है कि उस ने डाक्टर साहब को क्या बातें बताई थीं?’’

लड़का याद करता हुआ बोला, ‘‘बातें तो उस ने बहुत सी बताई थीं, पर मुझे तो एक ही बात याद है. उस ने कहा था कि आप की मृत्यु शीघ्र ही होने वाली है.’’ मैं ने जो अनुमान किया था वह सत्य निकला. डाक्टर साहब का बड़ा लड़का घबरा कर मुझ से पूछने लगा, ‘‘अब क्या होगा, शास्त्रीजी? लगता है, पिताजी अब नहीं रहेंगे. उस ज्योतिषी की बात इन के मन में बैठ गई है.’’ मैं ने सोमेश्वरजी के बड़े लड़के को आश्वासन दिया और सोचने लगा, विष को विष ही काटता है. कांटे से ही कांटा निकाला जा सकता है. यदि कोई ज्योतिषी विश्वास दिलाए तो सोमेश्वरजी जीवन के प्रति आशावान बन सकते हैं. पहले तो मैं ने सोचा कि उसी ज्योतिषी को बुला कर लाया जाए और उस से कहलवा दिया जाए कि उस ने जो कुछ बताया था, वह झूठ था. तभी मुझे ध्यान आया कि अब डाक्टर साहब उस की बात पर विश्वास नहीं करेंगे. वे समझ जाएंगे कि इस ने पहले तो ठीक बात बताई थी, अब वह किसी के कहने पर झूठ बोल रहा है. मैं ने किसी अन्य ज्योतिषी को बुला कर सोमेश्वरजी को जीवन की आशा दिलाने की बात सोची. पर कुछ देर में यह विचार भी मुझे लचर जान पड़ा. यह आवश्यक नहीं है कि वे एक ज्योतिषी के कहने से दूसरे की बात झूठ मान लें.

इसी समय मेरा ध्यान हस्तरेखा देख कर भविष्य बताने वालों की ओर चला गया. समीप ही ग्वालियर है. वहां अकसर हस्तरेखा विशेषज्ञ आते रहते हैं. उन के विज्ञापन समाचारपत्रों में निकलते हैं. मैं ने ग्वालियर से निकलने वाला एक दैनिक पत्र उठा कर देखा. उस में एक इसी प्रकार का विज्ञापन निकला था. मैं ने तुरंत मोबाइल से ग्वालियर फोन किया और उन्हें सारी स्थिति समझाई.

वे कहने लगे, ‘‘यह तो असत्य भाषण है. मुझ से यह नहीं हो सकेगा.’’

मैं ने उन्हें लालच देते हुए बताया, ‘‘मैं आप को 5 हजार रुपए दे सकता हूं. आप को आनेजाने में विशेष समय नहीं लगेगा. वहां तो केवल 10 मिनट का काम है. आप को केवल 2 बातें कहनी हैं. एक तो हस्तरेखा विज्ञान को ज्योतिष से श्रेष्ठ सिद्ध करना है, दूसरे, सोमेश्वरजी के कई वर्ष जीवित रहने की बात कहनी है.

‘‘रही झूठ बोलने की बात. यदि आप ने कभी भी झूठ नहीं बोला हो तो आज भी मत बोलिए. यह भी तो संभव है कि सोमेश्वरजी के हाथ की रेखाएं अभी उन के जीवित रहने का संकेत कर रही हों. वैसे भी किसी इंसान से जीवनरक्षा के लिए मन रखने वाली बात कह दी जाए तो मैं कुछ बुरा नहीं समझता.’’ लगता था हस्तरेखा विशेषज्ञ महोदय 2-5 हजार रुपए का लालच नहीं छोड़ सके. वे मेरे साथ चले आए. मैं उन्हें सोमेश्वरजी के कमरे में ले गया तो मेरे सिखाए अनुसार उन के बड़े लड़के ने हस्तरेखा विशेषज्ञ की ओर संकेत कर के पूछा, ‘‘शास्त्रीजी, ये सज्जन कौन हैं? मैं ने इन्हें पहले कभी नहीं देखा.’’

मैं ने उत्तर दिया, ‘‘तुम इन्हें देखते कहां से, ये यहां के रहने वाले नहीं हैं. ये प्रसिद्ध हस्तरेखा विशेषज्ञ हैं जो ग्वालियर के गूजरी महल में ठहरे हैं. यहां तहसीलदार साहब के घर आए थे. वहां से मैं इन्हें ले आया हूं सोमेश्वरजी का हाथ दिखाने.’’ हस्तरेखा विशेषज्ञ को अपने सामने बैठा जान कर सोमेश्वरजी अपना भविष्य जानने की अभिलाषा न रोक सके. उन्होंने अपना दायां हाथ धीरे से आगे बढ़ा दिया. मैं ने सोमेश्वरजी के विषय में जो कुछ बताया था, उसी के आधार पर हस्तरेखा विशेषज्ञ ने उन का भूतकाल इस प्रकार ठीकठीक बता दिया, जैसे खुली हुई किताब पढ़ रहे हों. उन बातों से सोमेश्वरजी पर उन का पूरा विश्वास जम गया.

मैं ने हस्तरेखा विशेषज्ञ से सोमेश्वरजी की आयु के विषय में पूछा तो उन्होंने सीधे हाथ की चारों उंगलियों को एकएक कर के हथेली पर मोड़ा और आत्मविश्वास के साथ कहने लगे, ‘‘इन की आयु 80 वर्ष है. इस से पहले इन की मृत्यु नहीं हो सकती.’’ सोमेश्वरजी चुप नहीं रह सके और धीरे से बोले, ‘‘मगर कुछ दिन पहले एक ज्योतिषी ने मेरी जन्मपत्री देख कर बताया था कि मैं 1 महीने से अधिक नहीं जी सकता. मुझे मारकेश लग चुका है.’’

हस्तरेखा विशेषज्ञ यह बात सुन कर जोश से भर गए और आत्मविश्वास के साथ कहने लगे, ‘‘जन्मपत्री और हस्तरेखाओं का अंतर आप समझ लेंगे तो मेरी बात ही आप को ठीक लगेगी. जन्मपत्री जन्मकाल के आधार पर बनाई जाती है. गांव के लोग बच्चे के जन्म का समय ठीक नहीं बता पाते, क्योंकि वहां सभी परिवारों में घडि़यां नहीं होतीं. यदि घड़ी हो तब भी समय में थोड़ाबहुत अंतर पड़ जाता है, क्योंकि अधिकांश घडि़यां थोड़ीबहुत आगेपीछे रहती हैं. ज्योतिष के 2 अंग हैं, गणित और फलित. गणित के आधार पर ज्योतिषी फलित के रूप में भविष्यवाणियां करते हैं. जन्मकाल ठीक ज्ञात न होने से गणित में अंतर पड़ जाता है और जन्मपत्री की घटनाएं सही नहीं बैठ पातीं. हस्तरेखाओं के विषय में ऐसी कोई बात नहीं है, उन्हें कभी भी देखा जा सकता है.’’ हस्तरेखा विशेषज्ञ की लंबीचौड़ी बातें सुन कर सोमेश्वरजी ज्योतिष की अपेक्षा हस्तरेखा विज्ञान को श्रेष्ठ समझने लगे हैं, ऐसा उन के चेहरे से लग रहा था. शीघ्र ही सोमेश्वरजी के मुख पर फिर शंका की भावना जगी और वे धीरे से बोले, ‘‘आप की बात ठीक होगी पर मुझे तो ऐसा लगता है कि मेरा अंतिम समय आ गया है.’’

सोमेश्वरजी की बात सुनते ही हस्तरेखा विशेषज्ञ की घनी भौंहें तन गईं. वह आत्मविश्वासपूर्वक बोले, ‘‘अधिक बात तो मैं नहीं कहता, पर आप के जीवन के प्रति मैं शर्त लगा सकता हूं. अभी तो आप को चारों धामों की तीर्थयात्रा करनी है. अगर 80 वर्ष से पहले आप की मृत्यु हो जाए तो मैं हस्तरेखा देखने का काम छोड़ दूंगा.’’ सोमेश्वरजी को हस्तरेखा विशेषज्ञ पर पक्का विश्वास हो गया. उन के चेहरे की उदासी मिट गई और वहां आशा का प्रकाश झलकने लगा. हस्तरेखा विशेषज्ञ बाहर निकले तो मैं ने सफल अभिनय के लिए उन की प्रशंसा की तथा 5100 रुपए दिए. 100 रुपए अभिनय का इनाम था. धीरेधीरे सोमेश्वरजी की दशा सुधरने लगी. अगले दिन डाक्टर साहब उन्हें देख कर बाहर निकले तो कहने लगे, ‘‘इन की हालत में जमीनआसमान का अंतर है. आप ने कमाल कर दिया है?’’

मैं ने डाक्टर साहब को सब बातें बताईं तो वे चकित रह गए. जब सोमेश्वरजी पूरी तरह से ठीक हो गए तो मैं ने उन्हें सारी बातें बता दीं. उस के बाद से सोमेश्वरजी ने ज्योतिष वगैरह में न सिर्फ विश्वास करना छोड़ दिया बल्कि दूसरे लोगों को भी इस तरह की फुजूल बातों पर विश्वास न करने की हिदायत देने लगे. इस बात को 8 वर्ष हो गए हैं. सोमेश्वरजी अपना काम पहले के समान ही परिश्रम और लगन के साथ कर रहे हैं. Social Story

Family Story In Hindi : मेरा घर – क्या मां काव्या को उसके बर्थ डे का गिफ्ट दे पाई ?

Family Story In Hindi : स्पीच के बाद कुछ लोगों से मिलने के उपरांत स्मिता ने जैसे ही प्लेट उठाई, पीछे से एक धीमी, चिर परिचित आवाज आई, जिसे वह वर्षों पहले भूल चुकी थी-‘‘हैलो स्मिता ‘‘.

यह सुनते ही स्मिता चैंक कर मुड़ी, तो सामने रुद्र था. वह बोला, ‘‘कैसी हो स्मिता? अब तो घर लौट आओ, प्लीज…‘‘

रुद्र को इतने सालों बाद अपने सामने देख स्मिता को ऐसा लगा जैसे किसी ने उस की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो, उस के जख्म फिर हरे हो गए और वह समारोह बीच में ही छोड़ वहां से निकल गई. सारे रास्ते वह विचारों में खोई रही. इतने सालों बाद रुद्र का इस प्रकार उस के समक्ष आना और घर वापस चलने को कहना, उस का मन कंपित हो उठा.   

समारोह में सम्मिलित सभी गणमान्य और प्रतिष्ठित लोगों के बीच केवल एक ही नाम की चर्चा थी और वह नाम था स्मिता, जो एक बिजनेस टायकून और ‘‘फैशन… द रिवौल्यूशन‘‘ कंपनी की मालकिन थी. हर कोई उसे देखने और सुनने को आतुर था, क्योंकि आज का यह समारोह स्मिता को सम्मानित करने के लिए आयोजित किया गया था. आज स्मिता को बिजनेस वुमन औफ द ईयर से सम्मानित किया जाना था. सभी की निगाहें स्मिता पर ही टिकी हुई थी.

स्मिता के सशक्त और भावपूर्ण उद्बोधन के पश्चात भोज का भी प्रावधान रखा गया था, जब रुद्र उसे मिला था.

घर पहुंचते ही वह सीधे अपने कमरे में जा, सारी बत्तियां बुझा आरामकुरसी पर बैठ कर झूलने लगी. वह रुद्र और अपने जीवन के उन पन्नों को पलटने लगी, जिन पन्नों को वह अपने जीवनरूपी किताब से हमेशा के लिए फाड़ कर फेंक देना चाहती थी, पर वह ऐसा कर न सकी, क्योंकि इस अध्याय से उसे काव्या जैसे अनमोल मोती की प्राप्ति भी हुई थी, जिस की रोशनी आज भी उस के जीवन को जगमगा रही है.

‘‘स्मिता, तुम अपनी यह कंपनी ‘‘फैशन….द रिवौल्यूशन‘‘ बंद क्यों नहीं कर देती? क्या जरूरत है तुम्हें अपनी यह छोटी सी कंपनी चलाने की‘? जब मेरा खुद का इतना बड़ा बिजनेस है.’’

‘‘नहीं रुद्र, नहीं, यह कंपनी मेरा सपना है, इसे मैं ने अपनी कड़ी मेहनत से खड़ा किया है और फिर मैं इसे शादी के पहले से रन कर रही हूं और उस वक्त तो तुम्हें इस बात से कोई एतराज भी नहीं था, फिर आज ऐसा क्या हुआ कि तुम मुझे कंपनी बंद करने को कह रहे हो और फिर मैं घर पर बैठ कर करूंगी क्या…?‘‘

‘‘क्या मतलब… करूंगी क्या?’’

‘‘इतनी सारी औरतें घर पर बैठ कर क्या करती हैं? अपना घर संभालती हैं, पूजापाठ करती हैं, किटी पार्टी करती हैं, तुम भी वही करो,‘‘ रुद्र ने गुस्से से कहा.

स्मिता घर पर किसी तरह का कोई झगड़ा नहीं चाहती थी, इसलिए वह शांत भाव से बोली, ‘‘रुद्र, मैं फैशन डिजाइनिंग में बीई हूं. मुझे ये पूजापाठ, सत्संग में कोई दिलचस्पी नहीं है और मैं जब घर बहुत अच्छी तरह से संभाल रही हूं, तो फिर मैं अपनी कंपनी क्यों बंद करूं.’’

स्मिता के इतना कहते ही रुद्र का गुस्सा ज्वालमुखी की तरह फूट पड़ा और चीखते हूए कहने लगा, ‘‘तुम इस दुनिया की कोई पहली फैशन डिजाइनिंग में बीई या पढ़ीलिखी औरत नहीं हो, मां को देखो, वे अपने समय की ग्रेजुएट हैं, लेकिन उन्होंने अपना सारा जीवन इस चारदीवारी में पूजापाठ और सत्संग में गुजारा है. कभी इस तरह के प्रपंच में वे नहीं पड़ी हैं और न ही तुम्हारी तरह पापा के संग बातबात पर तर्क करती थीं, ऐसी होती है आदर्श नारी, तुम्हारी तरह बदजबान नहीं,’’ ऐसा कहता हुआ रुद्र चला गया.

स्मिता जड़वत सी खड़ी रही. उस की जबान पर यह बात आ कर ठहर गई कि मां ग्रेजुएट नहीं पोस्ट ग्रेजुएट हैं और वह भी संगीत विश्वविद्यालय से, लेकिन मां ने शादी के बाद गाना तो दूर वह अपने दिल के जज्बात भी कभी किसी से बयां नहीं कर पाई, क्योंकि हमारा घर, हमारा समाज, पुरूष प्रधान है, जहां एक स्त्री को अपने मन के भावों को व्यक्त करने का कोई अधिकार नहीं, तभी मां ने स्मिता के कंधे पर धीरे से अपना हाथ रखा, तो वह मां के गले लग बिफर कर रो पड़ी.

रिश्तों में विभाजन की सीलन और गंध बढ़ती जा रही थी, रोज रुद्र कोई न कोई बहाने बना कर घर को कुरुक्षेत्र बनाने पर आमादा रहता. स्मिता घर और अपने बिखर रहे रिश्ते को समेटने का असफल प्रयास करने लगी.

अचानक कुछ समय बाद रुद्र में आ रहे परिवर्तन से स्मिता चकित थी. उसे ऐसा महसूस होने लगा कि रुद्र एकाएक उस के प्रति केयरिंग और कुछ बहुत ज्यादा ही कन्सर्न रहने लगा है, जिस का कारण उस की समझ से परे था.

सहसा एक दिन रुद्र स्मिता को अपनी बाहों के घेरे में लेते हुए कहने लगा, ‘‘स्मिता, मैं चाहता हूं कि अब हमें 2 से 3 हो जाना चाहिए. अब परिवार को बढ़ाने का समय आ गया है.’’

यह सुन स्मिता हैरान रह गई, अपनेआप को रुद्र से अलग करती हुई बोली, ‘‘रुद्र, इतनी जल्दी क्या है? शादी को अभी केवल सालभर ही तो हुआ है. अभी तो मुझे अपनी कंपनी को विस्तार देने का समय है और मुझे यह मौका भी मिल रहा है. मैं अभी 1-2 साल बच्चे के लिए तैयार नहीं हूं.‘‘

स्मिता के इतना कहते ही रुद्र स्मिता पर बरस पड़ा. रोजरोज के क्लेश से बचने और अपना घर बचाने के लिए स्मिता ने हार मान ली. परिवार बढ़ाने के लिए वह राजी हो गई और फिर काव्या जैसी परी स्मिता की गोद में आ गई, जिस से स्मिता की जिम्मेदारी में बढ़ोतरी के साथ उस की दुनिया खुशियों से भी भर गई.

लेकिन रुद्र के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया, बल्कि अब वह बारबार काव्या और उस की देखभाल को ले कर स्मिता से झगड़ता, उसे अपनी कंपनी बंद करने को कहता, और स्वयं काव्या की जिम्मेदारी संभालने से पीछे हट जाता.

मां यदि कुछ कहतीं या स्मिता का पक्ष लेतीं तो वह मां को भी झिड़क देता. यह देख मां चुप हो जातीं. स्मिता अब समझ चुकी थी क्यों रुद्र को परिवार बढ़ाने की जल्दी थी? असल में वह मातृत्व की आड़ में स्मिता की प्रगति पर अंकुश लगाना चाहता था.

स्मिता घर, परिवार और बेटी काव्या के उत्तरदायित्व के साथ ही साथ  बिजनेस भी बखूबी संभाल रही थी. व्यापारी वर्ग में स्मिता अपनी पहचान और एक विशेष स्थान बनाने में कामयाब होने लगी थी, जो रुद्र और उस के पुरुषत्व को नागवार गुजरने लगा और एक दिन रुद्र बेवजह अपना फ्रस्ट्रेशन, अपनी नाकामयाबी पर अपने पुरुषत्व और अहम का रंग चढ़ा स्मिता से कहने लगा, ‘‘अगर तुम्हें कुछ करने का इतना ही शौक है तो छोटीमोटी कोई टाइमपास 9 से 5 बजे वाला जाब क्यों नहीं कर लेती? क्या जरूरत है इस कंपनी को चलाने की. और सुनो, कंपनी का नाम ‘‘द रिवौल्यूशन’’ रखने से कोई रिवौल्यूशन नहीं होने वाला समझी…

‘‘ये मेरा घर है और यदि तुम्हें इस घर में रहना है तो मेरे अनुसार रहना होगा, वरना इस घर से निकल जाओ.’’

यह सुनते ही स्मिता के सब्र का बांध टूट गया और उस ने आज रुद्र को समझाने की कोई कोशिश नहीं की. उस ने केवल इतना कहा, ‘‘यदि यह घर सिर्फ तुम्हारा है और मुझे इस घर में रहने के लिए कठपुतली की तरह तुम्हारे इशारों पर नाचना होगा तो बेहतर है कि मैं अभी इसी वक्त यह घर छोड़ दूं,’’ इतना कह कर स्मिता ने काव्या के संग उस रात घर छोड़ दिया और मां भी स्मिता के साथ हो लीं.

सारी रात स्मिता अतीत की काली स्याही में डूबी रही. दरवाजे पर हुई आहट से वह यथार्थ में लौटी.

‘‘मैडम, आप की कौफी…‘‘ स्मिता की मेड ने कहा.

‘‘हूं…. यहां रख दो. काव्या और मां जाग गए?‘‘ स्मिता ने अपनी मेड से पूछा. पूरी रात जागने की वजह से स्मिता की आंखें लाल और स्वर में थोड़ा भारीपन था.

मेड ने बड़े अदब से दोनों हाथों को बांधे और सिर झुका कर जवाब दिया, ‘‘मैडम, मांजी को काफी समय हो चुका जागे. उन के स्टूडेंट्स भी आ गए हैं और मांजी संगीत की क्लास ले रही हैं, और काव्या बेबी सो रही है.‘‘

‘‘ठीक है, तुम जाओ,‘‘ कह कर स्मिता अपनी कौफी खत्म कर काव्या के कमरे में जा कर वहां सो रही काव्या के सिर और बालों में अपनी उंगलियां फेरती और उस के माथे को चूमती हुई बोली, ‘‘हैप्पी बर्थ डे टू माई डियर स्वीट हार्ट. आज मेरी डौल को उस के एटिन्थ बर्थ डे पर क्या चाहिए.‘‘

काव्या स्मिता से लिपटती हुई बोली, ‘‘मम्मा… मुझे मेरी कंप्लीट फैमिली चाहिए. मैं चाहती हूं कि पापा भी हमारे साथ रहें.‘‘

तभी स्मिता का फोन बजा. फोन रुद्र का था. स्मिता के फोन रिसीव करते ही रुद्र बोला, ‘‘आई एम सौरीस्मिता, मैं बहुत अकेला हो गया हूं. तुम सब प्लीज घर लौट आओ.‘‘

स्मिता ने सौम्य भाव से कहा, ‘‘रुद्र, मैं तुम्हें माफ कर सकती हूं, लेकिन मेरी एक शर्त है कि मैं तुम्हारे घर आ कर नहीं रहूंगी, तुम्हें मेरे घर आ कर हम सब के साथ रहना होगा.‘‘

रुद्र खुशीखुशी मान गया और कहने लगा, ‘‘तुम सब के चले जाने के बाद ही मुझे यह एहसास हुआ कि ईंटपत्थरों से बनी इस चारदीवारी में मेरा घर नहीं हैं, जहां तुम सब हो, जहां मेरा पूरा परिवार रहता है, वही मेरा घर है.  Family Story In Hindi 

Social Story In Hindi : मखमली दंश

Social Story In Hindi : आज फिर बसंती बुआ का मन रहरह कर घबरा रहा था. कमरे की छोटी सी खिड़की से वह आसमान की ओर नजरें टिकाए खड़ी थी. बिजली कौंध रही थी. जैसे ही बादलों की गरजती आवाज धरती से टकराती तो उन के कलेजे को चीर जाती. किसी अनहोनी का डर उन्हें अंदर तक हिला देता. अपने सपनों का गांव उन्हें किसी भूतिया गांव सरीखा लगता.

पलभर में बूढ़ी आंखें बहुत दूर तक पहुंच जातीं. क्या कुछ नहीं था उन के जीवन में…पिताजी भले ही खेतीबाड़ी करने वाले अनपढ़ इंसान थे, लेकिन व्यावहारिक बुद्धि में पढ़ेलिखों से ज्यादा विवेकशील और समझदार. बचपन में नहीं पढ़ सके तो क्या, समय के साथसाथ कानूनी मसलों में भी विशेषज्ञता हासिल कर ली थी उन्होंने. और जहां गांव की लड़कियों की शादी 15-16 साल में कर दी जाती, वहां उन्होंने अपनी बेटी बसंती की शादी 21 साल होने के बाद ही की.

वे देशभक्ति से ओतप्रोत व्यक्ति थे इसलिए 24 साल का युवा सेना में लांस नायक हरिवीर उन्हें अपनी बेटी बसंती के लिए पसंद आ गया था. भले ही उस का घर टिहरी में था, जो समय की नजाकत को समझते हुए उस वक्त चमोली जिले से काफी दूर लगता था क्योंकि आवाजाही के साधन कम थे. आज की तरह हर घर में वाहन कहां थे, सड़कों का जाल भी आज की तरह नहीं बिछा हुआ था. बसंती की जवानी के दिनों में तो एक संकरी सङक हुआ करती थी, जिस के एक तरफ ऊंचेऊंचे पहाड़ और दूसरी तरफ नदी बहती थी. इक्कादुक्का बसें होती थीं लेकिन बहुत ही संभल कर चलना होता था. जरा सी चूक हुई तो नदी में समा जाने का डर रहता था.

बसंती की मां उसे इतनी दूर भेजने को तैयार नहीं थीं. उन का सोचना था कि आसपास के किसी गांव में ही बेटी को ब्याह दिया जाय ताकि समयसमय पर मिलती रहेंगी पर पिता दूरदर्शी थे. हालांकि प्रदेश की राजधानी तब लखनऊ थी लेकिन देहरादून, ऋषिकेश, हरिद्वार सरीखे शहर तब भी उन्नत और सुविधा संपन्न ही थे और टिहरी से देहरादून की दूरी बहुत अधिक नहीं.

बसंती शादी के बाद ससुराल चली गई. लगभग 18 महीने हुए थे. वह 3-4 महीने की गर्भवती थी. तभी टिहरी में भागीरथी और तेलंगाना नदी के संगम पर बांध का निर्माण शुरू हो गया था. बहुत सारे गांवों के डूब क्षेत्र में आने का डर था इसलिए वक्त की नजाकत को देखते हुए लोगों को विस्थापित करने का काम शुरू कर दिया गया था. हालांकि गांव के लोगों ने इस परियोजना के विरोध में अहिंसात्मक आंदोलन चलाया लेकिन आम लोगों की एक न चली. बांध का निर्माण होना तय था. यह परियोजना का आखिरी चरण में था.

यों विचार तो आजादी पाने के 15 साल बाद ही शासन के मन में आ गया था. बस, योजना को पंख नहीं लग पा रहे थे. मंजूरी में कोई न कोई व्यवधान आ ही जा रहा था. वर्षों लग गए थे लोगों को समझाने, मनाने, डराने और अपनी जड़ों से तोड़ कर अलहदा बसाने में. आखिरकार, पुराने शहर की कोख से एक नए शहर का जन्म हुआ पर इस प्रक्रिया में पुराना शहर झील में समा कर अपने अस्तित्व को खो बैठा था.

बसंती के सासससुर भी आखिरी समय तक डटे रहे. लेकिन आखिरकार उन के लिए हटना जरूरी हो गया था. गर्भावस्था के आखिरी समय में बसंती बूढ़े सासससुर के साथ कहां जाती? पति उस वक्त सिक्किम में पोस्टेड थे. बसंती बुआ के पिताजी ऐसे समय में संकटमोचन बन कर आए. गांव में उन के 2 घर थे. दुश्वारी के इन पलों में उन्होंने अपनी बेटी को ही नहीं बल्कि उस के बूढ़े सासससुर को भी अपने घर में आश्रय देने का निश्चय किया क्योंकि कुछ लोगों को वहीं शहर के दूसरे छोर में तो कुछ लोगों को देहरादून, ऋषिकेश, हरिद्वार के आसपास जमीन आवंटिन की जा रही थी. हमेशा गांव में रहे बसंती बुआ के सासससुर ने वहां जाने से बिलकुल मना कर दिया था. वे आखिरी समय तक अड़े रहे.

आंदोलन अपनी जगह था पर कंपनी ने निर्माण कार्य शुरू कर दिया था. पानी भरना और झील का बनना जारी था. कई मकान जबरन खाली करवा दिए गए और कई लोगों ने खुद ही डर से खाली कर दिए. धीरेधीरे कई गांव डूब क्षेत्र में आ गए और पुरानी टिहरी का घंटाघर भी इस की भेंट चढ़ गया। विस्थापित लोगों को आननफानन में धनराशि दी गई ताकि वे सुरक्षित जगहों में अपने मकानों का निर्माण कर सकें।

बसंती के पिताजी टिहरी पहुंच गए थे. उन्होंने बसंती के ससुर से विनती की कि अपनी बहू की खातिर वे लोग उन के साथ चमोली चलें. ऐसी हालत में यहां रहना खतरे से खाली नहीं. लेकिन सामाजिक रस्मोंरिवाज को ध्यान में रखते हुए शायद बसंती के ससुर ऐसा करने के लिए राजी नहीं थे. ‘समाज क्या कहेगा’ वाली बात सब से पहले सामने आ रही थी. लोग भी तो कहते न कि बहू को मायके जा कर रहना पड़ रहा है.

बसंती के पिता अपने समधी की इस कश्मकश को समझ रहे थे,”कुछ मत सोचो ठाकुर साहब, यह परिस्थिति की मांग है. सबकुछ ठीक हो जाने पर आप अपने घर लौट जाएंगे. अभी नया घर बनने में काफी समय लगेगा. जाड़ों का मौसम आ रहा है. कहां रहेगी बसंती नवजात के साथ?”

अपनी बेटी की फिक्र करना हर मातापिता के लिए जायज है और बसंती के ससुर ने इस बात का बुरा भी नहीं माना,”आप से एक विनती करता हूं, राणाजी कि बसंती को कुछ समय के लिए आप अपने साथ ले जाएं. आप सही कह रहे हैं कि यहां पर इस के और नवजात के लिए बहुत मुश्किल हो जाएगी. हम लोग अपना कुछ न कुछ इंतजाम देख लेंगे और फिर सब कुछ सामान्य होने पर बसंती को लेने मैं खुद आ जाऊंगा.”

काफी आग्रह करने के बावजूद भी बसंती के ससुर उस के पिता के साथ चलने को तैयार नहीं हुए. आखिर थकहार कर राणाजी बसंती को ले कर अपने गांव वापस लौट आए. बसंती की सास ने देहरादून में आवंटित जमीन में मकान बनवा कर रहने से बिलकुल ही इनकार कर दिया. पैसा बड़े बेटे के अकाउंट में ट्रांसफर करवा दिया था. लोगों ने समझाया भी कि बड़ा शहर है, स्वास्थ्य संबंधी सुविधाएं भी सबकुछ वहां पर हैं पर वह टस से मस नहीं हुए।

नगर के ऊंचाई वाले क्षेत्र में नया टिहरी बस कर तैयार हो रहा था. उन्होंने अपने किसी करीबी रिश्तेदार के मकान में ही 2 कमरे किराए पर ले कर वहीं समय गुजारने की ठान ली. बसंती की सास रोज टकटकी लगा कर खिड़की से झील के पानी को देखती, जहां उस का घर समाधिस्थ हो गया था. झील में अब इक्कादुक्का नावें तैरतीं दिखाई देतीं. 24 सौ मेगावाट की जल विद्युत परियोजना के निर्माण के लिए बनाए गए इस डैम में लगभग 40 गांव डूब गए थे और 80 के लगभग गांव आंशिक रूप से प्रभावित हुए थे.

इधर बसंती के पिता के गांव में कामचलाऊ सबकुछ था. खेती, अनाज, कुछ जानवर जिस के बल पर यहां के गांव आबाद थे वरना तो पलायन की मार ने दूरदराज के गांवों को अपनी चपेट में ले लिया था. लेकिन स्वास्थ्य सुविधा नहीं के बराबर थी. सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र की मदद से तय समय पर बसंती ने एक बेटे को जन्म दिया. 2-3 दिन पहले उस के पति हरिवीर भी 1 महीने की छुट्टी ले कर आ गए थे.

समय का कुचक्र ऐसा चला कि गंगोत्री यात्रा के दौरान एक दुर्घटना में कई दूसरे श्रद्धालुओं के साथसाथ बसंती के सासससुर भी मारे गए. ससुराल की तरफ से बसंती अनाथ हो गई. प्रेम रखने वाले सासससुर ही नहीं रहे तो क्या करती, पलट कर कभी टिहरी की तरफ नहीं गई. वहां न घर, न कोई परिवार का सदस्य. कुछ सालों में पुत्री और पुत्र के रूप में 2 संतानें और हुईं. ये तीनों ही अपने नाना के घर में ही पल कर बड़े हुए.
बसंती के जेठ रिटायर हो कर शहर से गांव आ गए थे और उन्होंने आवंटित भूमि में मकान बना लिया. ऐसा करते समय बसंती के पति से राय लेनी जरूरी नहीं समझी और और न ही उन को हिस्सेदार बनाने की कोई पहल की. हरिवीर भी सोचते रहे कि बड़ा भाई है, जब जरूरत होगी हमारा हिस्सा दे देगा. बसंती मायके में ही रह गई. 45 साल की उम्र में उस के पति भी सेना से रिटायर हो कर आ गए थे.

आवंटित भूमि में 2 कमरे बनाने की चाह रखते हुए बड़े भाई से बात करने की कोशिश की लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. फिर वे भी चमोली जिले में ही चले आए. 3 बच्चों में से 2 ऋषिकेश और दिल्ली में छोटीछोटी नौकरी करते थे जबकि बेटी का ससुराल पौड़ी श्रीनगर के पास ही कीर्ति नगर में था.

युवा बसंती अब बूढ़ी हो चली थी. गांवभर की बसंती बुआ थी वह. बुआ ने अपनी तमाम उम्र इसी गांव में काट दी थी. पिता का घर छोड़ कर अब उन्होंने इसी गांव में कुछ दूरी पर अपना छप्पर डाल लिया था.

बसंती बुआ के पिता अपने दामाद हरिवीर को बताते, “पहले तिब्बत से व्योपार होता था. धीरेधीरे सब खत्म हो गया। विकास की होड़ ने नदी, नाले, पहाड़ किसी को भी नहीं बख्शा.”

जहां तक नजर पड़ती, मखमली हरियाली और हरेभरे पर्वतों के बीच से कलकल बहते झरनों का कदमकदम पर आत्मसात होता. पर्यटक मंत्रमुग्ध थे. मैदानी क्षेत्रों में इन दिनों गरमी भी तो बहुत बढ़ गई थी. आजकल पैसे की कमी तो नहीं सब के पास अपने वाहन हैं. नहीं तो 20-25 सीटर टूरिस्ट बस भी तो है. 2-4 परिवार मिलजुल कर इन्हें बुक करा कर निकल पड़ते हैं पहाड़ की शांत व सुंदर वादियों की ओर।

टूरिस्ट सीजन चल रहा था. सालभर यही 2-4 महीने कमाई के होते. वरना तो सन्नाटा पसरी रहती इस पूरे इलाके में. बर्फबारी होने के दौरान लोग सुरक्षित जगहों में चले जाते थे. पूरे जिले में चल रहा तमाम अनियंत्रित निर्माण कार्य संवेदनशील लोगों के माथे पर बल लाने के लिए काफी था. बसंती बुआ के पिता यह सब देखदेख कर हैरानपरेशान होते लेकिन उन की कौन सुनता. हर किसी को स्टे होम या होटल बना कर इनकम बढ़ाने का सुरूर चढ़ गया था. लोगों ने अपने घरों को थोड़ा विस्तार दे कर उसी में होमस्टे खोल दिए थे. कुछ निर्माण तो गुपचुप तरीके से बिना किसी अनुमति के भी किए गए थे. पर्यटकों की भरमार तात्कालिक लाभ जरूर प्रदान करती. जिस के पास कुछ नहीं, वह भी मक्के को उबाल कर या भून कर चटपटा नमक लगा कर पर्यटकों को देता तो अच्छीखासी कमाई कर लेता पर दीर्घकाल के लिए यह अभिशाप ही कहा जा सकता है.

दुखी मन ले कर बसंती बुआ के पिताजी भी 2 साल पहले गुजर गए. मां अकेली रह गई थीं. बसंती बुआ और अगलबगल में रहने वाले रिश्तेदार ही देखभाल करते. बसंती बुआ ने अपने साथ आ कर रहने को कहा लेकिन बूढी मां को यह मंजूर नहीं था. पति की यादें जो बसी थीं इस घर में. बूढ़ी धीरेधीरे अपने दिनप्रतिदिन के काम खुद ही किया करती.

कच्ची युवावस्था की पहाड़ियां. सड़क निर्माण के लिए पेड़ों का कटान. मिट्टी का बहना लाजिमी है. रेलवे लाइन के लिए सुरंगों को खोदना. धरती अंदर ही अंदर कुपित थी. यह आक्रोश साल दर साल कौलेस्ट्रौल की तरह धरती की धमनियों में परत बना रहा था.

हाल के वर्षों की तरह इस बार भी बरसात ने रौद्र रूप दिखाया. इलाके में 2 बार बादल फटने की घटनाएं हो चुकी थीं. बसंती बुआ के मायके के दोनों मकान बहुत जर्जर हो चुके थे. उस के पति ने कई बार उन से कह दिया था कि उस घर में अकेली बूढ़ी मां का रहना खतरे से खाली नहीं है.

“बसंती, अपनी मांजी से हमारे साथ आ कर रहने को कहो.”

“पूरी उम्र मां ने उस घर में गुजार दी. अब कहां आएगी हमारे साथ? मैं ने कई बार कहा, सुनती ही नहीं,” बुआ ने उदास हो कर बोली.

जगहजगह बहुत नुकसान हुआ था. पुल धाराशाई, रास्ते बंद, सवारियां बह गईं. खेती उजड़ गई, खानेपीने के लाले पड़ गए. बसंती बुआ का दिल्ली वाला बेटा हफ्ताभर छुट्टी ले कर आया था पर यहीं फंसा रह गया. नेटवर्क जीरो. औफिस के काम में अड़चन आ रही थी पर जाने के रास्ते बंद थे.

उस दिन सुबह से ही रुकरुक कर बारिश हो रही थी. शाम ढलते ही बारिश ने मूसलाधार रुख अख्तियार कर लिया था. बिजली सप्लाई या तो रोक दी गई होगी या कुछ खराबी आ गई थी. दूरदूर तक पहाड़ियों में अंधेरा पसर गया था.

रात के लगभग 12 बज रहे थे. नींद सभी की आंखों से कोसों दूर थी, उसे बुलाने भर की नाकाम कोशिश हो रही थी. तभी अचानक इतनी जोर की आवाज आई कि सभी लोग अचकचा कर उठ गए. मोबाइल फोन लगभग डिस्चार्ज होने के कगार पर था. बसंती बुआ के पति ने अपने सिरहाने रखा टौर्च उठा कर जलाया जिस की रोशनी भी मरियल सी हो रही थी. शायद बैटरी कमजोर हो गई थी. लालटेन का ही एकमात्र सहारा था अब.

किसी अनहोनी की आंशका दूरदूर तक फैले सांयसांय करते अंधेरे ने पहले ही दे दी थी. बसंती बुआ के हाथ में लालटेन थी, उन के पति ने टौर्च थामा था और बेटा मोबाइल ले कर लकड़ी के क्षतविक्षत हो चुके खोखले दरवाजे को खोलते हुए बाहर पहुंचते हैं. लालटेन, टौर्च और मोबाइल तीनों की रोशनी मिल कर भी घुप्प अंधेरे का सामना करने में नाकाफी साबित हो रही थी. तीनों बसंती बुआ की मां के घर की तरफ बढ़े जो बमुश्किल डेढ़ से 2 सौ मीटर की दूरी पर घुमावदार मोड़ पर था. अचानक सब से आगे चल रहे बुआ के बेटे संदीप का पैर टकराया और वह मुंह के बल गिर कर गीली और पथरीली मिट्टी में लोटपोट हो गया. किसी तरह खुद को संभाल कर उठा और मां और पिताजी को सावधानी से चलने की हिदायत देते हुए नानी के घर की तरफ बढ़ा. नानी के घर में जानवरों के रहने का गुठियार ध्वस्त हो गया था. आगे बढ़ कर कुछ करने की स्थिति नहीं बन पा रही थी. वे तीनों निरीह बन कर देखने के सिवाय कुछ नहीं कर सकते थे.

घर का मुख्यद्वार भी मलबे के ढेर में दबा था. संदीप कुछ नंबरों पर फोन मिलाया लेकिन बात नहीं हो पाई. लाचारी और हताशा दिलोदिमाग पर हावी हो रही थी लेकिन यह अवसर हताशा को उखाड़ फेंक कर साहस दिखाने का था.

बसंती बुआ आवाज लगाने की कोशिश करती है,”मां.. मांजी…” उन का गला चोक हो गया था और आवाज गले में ही धंसी जा रही थी.

संदीप ने हिम्मत कर के जोर से पुकारा,” नानी, कहां हो? हिम्मत रखना. हम यहीं पर हैं. अभी आप तक पहुंचते हैं.”

प्रतिउत्तर में कोई स्वर नहीं उभरा. तभी बसंती बुआ को किसी जानवर के मिमियाने की आवाज सुनाई दी. उन के इशारा करने पर संदीप उस ओर बढ़ा. किसी तरह मिट्टी के ढेर को हटाता आगे बढ़ा. एक नन्हीं सी बकरी सांसों के लिए लड़ रही थी. संदीप ने उसे बाहर निकाला. पशुधन के साथसाथ मुख्य चिंता नानी की थी. कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. आपातकाल में सब से बड़ा सहायक मोबाइल फोन भी इस वक्त खुद असहाय नजर आ रहा था.

धुंधलका सा वातावरण हो चुका था. झीने आवरण में लिपटा अंधेरा इस बात की तसदीक कर रहा था कि इसे चीर कर उजाला जल्द ही हाजिर होगा. पर मन के अंधेरों का क्या? उम्मीदों के दीए रातभर थरथरा कर अब बुझने लगे थे. इस नाउम्मीदी के बीच अपनी मां के बचे होने की उम्मीद बसंती बुआ को अभी भी थी. यही जीवन का फलसफा है शायद.
संदीप ने पुलिस के नंबर पर फोन मिलाया. जल्द पहुंचने का आश्वासन मिला. भूस्खलन की जानकारी टीम को दूसरे सूत्रों से पहले ही हो चुकी थी. आसपास के दूसरे एरिया में भी भारी तबाही मची थी. आसपास के 2-3 गांव तबाह हो गए थे. बीएसएफ, बीआरओ, सेना की भी मदद ली जा रही थी. जवानों ने जान जोखिम में डाल कर काररवाई शुरू कर दी थी. अंतिम सांसें गिनती हुई बसंती बुआ की मां मानो उन्हीं के इंतजार में थी. मिट्टी में सनी शुष्क आंखों से उसे निहारने लगी. अस्पताल ले जाने की कोशिशों के बीच ही दम तोड़ दिया. बसंती बुआ की आंखों से आंसू का एक कतरा भी नहीं बहा.

रोशनी बढ़ने के साथ ही स्थिति स्पष्ट होती जा रही थी. हर तरफ बरबादी का मंजर था. यह पहाड़ इतना निर्दयी भी हो सकता है क्या? पिछले कुछ सालों में बद्रीनाथ जाने वाले श्रद्धालुओं की संख्या में बहुत अधिक बढ़ोत्तरी हुई थी जिस की वजह से अंधाधुंध रेल के डिब्बों जैसे छोटेछोटे भवन दरकती, भुरभुरी कच्ची पहाड़ियों में होमस्टे, होटल की शक्ल ले चुके थे. बसंती बुआ के पिता ने इस अवैध और अवैज्ञानिक निर्माण का बहुत विरोध किया था. संबंधित पुलिस अधिकारी और जिला न्यायालय तक वह इस शिकायत को ले गए थे पर जीत पूंजीवाद की ही हुई. सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़तेलड़ते एक दिन वह जिंदगी की लड़ाई हार गए थे और आज यह भवन आपदा की चपेट में आ कर धराशाई हो गया था.

बसंती बुआ ने गांव को डूबतेउभरते देखा था. कभी टिहरी गांव भी डूबा था. लोग दुखी थे, उदास थे. उन के आंसुओं के खारे पानी के बल पर टिहरी झील बन गई थी. फिर तो धीरेधीरे आंसू भी सूख गए. इधरउधर विस्थापित होने पर जड़ों से बिछड़ने का दुख बच्चों और युवाओं को तो ज्यादा नहीं पर बुजुर्गों को दंश दे गया था.

आज फिर इस तबाही के बाद बुआ अब गांव में नहीं रहना चाहती थीं. बेटे से ताऊजी को फोन कर इस बाबत बताने को कहा कि वे लोग भी अब देहरादून ही जा कर रहना चाहते हैं.

ताऊ का दोटूक जवाब था,” जब मकान बनाने के लिए पैसे और मेहनत की जरूरत थी, उस वक्त गांव का प्रेम उमड़ रहा था, अब सबकुछ बनाबनाया तैयार है तो तुम्हें पच नहीं रहा।”

बस फिर क्या था? बेटा बोला, “कुछ समय और इंतजार करो. मैं ने गुड़गांव में जो फ्लैट बुक किया था, उस का पजेशन शायद अब मिलने की उम्मीद है. फिर वहीं चल कर रहोगे आप दोनों.”

पाईपाई जुटा कर, कुछ पैसे पिता से ले कर कई सालों से फ्लैट बुक करा कर, पैसे फंसा कर वह भी कोरी उम्मीद में जी रहा था. शायद उम्मीद ही जिंदगी का सिलसिला है वरना जीना ही दुश्वार हो जाए. उसे दिल्ली जाना ही था. नौकरी में इतनी छुट्टी कहां?

छप्पर तले रह गए थे 2 बुजुर्ग अकेले. मखमली वादियां कभीकभी जीवन का सब से गहरा घाव दे जाती हैं. एक ऐसा दंश जिसे इंसान ताउम्र नहीं भूल पाता. पीढ़ियां रोती हैं, मातम मनाती हैं लेकिन अपनी भोग विलासितापूर्ण जीवनशैली को बदलने के लिए भी तैयार नहीं. यही तो विडंबना है.

केदारनाथ त्रासदी की याद दिलाते हुए एक गांव फिर दफन हो चुका था. आपदा में जान गंवाने वालों का सामूहिक दाहसंस्कार कर दिया गया था. मलबे के भीतर जिंदगी की खोज अंधेरा होने की वजह से बंद कर दी गई थी. कुछ बची हुई या अधमरी जानों की चीखपुकार भी अब बंद हो चुकी थी. वादी में सन्नाटा पसरा था.

रोज शाम ढले बसंती बुआ और उन के पति धरती की गोद में बैठ कर सामने पहाड़ियों को ताकते रहते थे. यही अब उन के माईबाप थे. वातावरण में वीरानी छाई थी. न बूढ़ों की डांटफटकार थी, न बच्चों का शोरगुल, न युवाओं का जोश. वक्त के थपेड़ों की चोट खाखा कर कठोर हो गए झुर्रियां पड़े उन गालों में जब कभी आंसुओं की नमी तैरा करती तो शुष्क पहाड़ियों की तलहटी पर ग्लेशियरों के पिघलने से नमी का एहसास दिलातीं.  Social Story In Hindi 

Family Story : मझली – एक पिता के मन को छू देने वाली कहानी

Family Story : ठाकुर साहब के यहां मैं छोटी के बाद आई थी, लेकिन मझली मैं ही कहलाई. ठाकुर साहब के पास 20 गांवों की मालगुजारी थी. महलनुमा बड़ी हवेली के बीच में दालान और आगे ठाकुर साहब की बैठक थी. हवेली के दरवाजों पर चौबीसों घंटे लठैत रहते थे. हां, तो बड़ी ही ठाकुर साहब के सब से करीब थीं. जब ठाकुर साहब कहीं जाते, तब वे घोड़े पर कोड़ा लिए बराबरी से चलतीं. उन में दयाधरम नहीं था. पूरे गांवों पर उन की पकड़ थी. कहां से कितना पैसा आना है, किस के ऊपर कितना पैसा बकाया है, इस का पूरा हिसाब उन के पास था.

ठाकुर साहब 65 साल के आसपास हो चले थे और बड़ी 60 के करीब थीं. ठाकुर साहब को बस एक ही गम था कि उन के कोई औलाद नहीं थी. इसी के चलते उन्होंने पहले छोटी से शादी की थी और 5 साल बाद अब मुझ से. छोटी को राजकाज से कोई मतलब नहीं था. दिनभर ऐशोआराम की जिंदगी गुजारना उस की आदत थी. वह 40 के आसपास हो चली थी, लेकिन उस के आने के बाद भी ठाकुर साहब का गम कम नहीं हुआ था. कहते हैं कि उम्मीद पर दुनिया टिकी है, इसीलिए ठाकुर साहब ने मुझ से ब्याह रचाया था. मेरी उम्र यही कोई 20-22 साल के आसपास चल रही थी. मैं गरीब परिवार से थी. एक बार धूमरी गांव में जब ठाकुर साहब आए थे, तब मैं बच्चों को इकट्ठा कर के पढ़ा रही थी. ठाकुर साहब ने मेरे इस काम की तारीफ की थी और वे मेरी खूबसूरती के दीवाने हो गए थे. और न जाने क्यों उन के दिल में आया कि शायद मेरी वजह से उन के घर में औलाद की खुशियां आ जाएंगी.

मेरी मां तो इस ब्याह के लिए तैयार नहीं थीं, लेकिन पिताजी की सोच थी कि इतने बड़े घर से रिश्ता जुड़ना इज्जत की बात है. खैर, बहुत शानोशौकत के साथ ठाकुर साहब से मेरा ब्याह हुआ. जैसा कि दूसरी जगह होता है, सौतन आने पर पुरानी औरतें जलन करती हैं, लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं था. बड़ी ने ही मेरी नजर उतारी थी और छोटी मुझे ठाकुर साहब के कमरे तक ले गई थी. मेरे लिए शादीब्याह की बातें एक सपने जैसी थीं, क्योंकि गरीब घर की लड़की की इज्जत से गांव में खेलने वाले तो बहुत थे, पर इज्जत देने वाले नहीं थे, इसलिए जब ठाकुर साहब के यहां से रिश्ते की बात आई, तब मैं ने भी नानुकर नहीं की. अब बड़ी और छोटी के कोई औलाद नहीं थी, इसलिए आपसी तनातनी वाली कोई बात भी नहीं थी.

हां, तो मैं बता रही थी कि बड़ी ही ठाकुर साहब के साथ गांवगांव जाती थीं और वसूली करती थीं. ऐसे ही एक बार वे रंभाड़ी गांव गईं. वहां सब किसानों ने तो अपने कर्ज का हिस्सा ठाकुर साहब को भेंट कर दिया था, लेकिन सिर्फ रमुआ ही ऐसा था, जो खाली हाथ था. वह हाथ जोड़ कर बोला, ‘‘ठाकुरजी… ओले गिरने से फसल बरबाद हो गई. पिछले दिनों मेरे मांबाप भी गुजर गए. अब इस साल आप कर्ज माफ कर दें, तो अगले साल पूरा चुकता कर दूंगा.’’ लेकिन बड़ी कहां मानने वाली थीं. उन्होंने लठैतों से कहा, ‘‘बांध लो इसे. इस की सजा हवेली में तय होगी.’’

मैं जब ठाकुर साहब के यहां आई, तब पहलेपहल तो किसी बात पर अपनी सलाह नहीं दी थी, लेकिन ठाकुर साहब चाहते थे कि मैं भी इस हवेली से जुड़ूं और जिम्मेदारी उठाऊं. धीरेधीरे मैं हवेली में रचबस गई और वक्तजरूरत पर सलाह देने के साथसाथ हवेली के कामकाज में हिस्सा लेने लगी. रात हो चली थी कि तभी हवेली में हलचल हुई. पता करने पर मालूम हुआ कि ठाकुर साहब आ गए हैं. बड़ी ने अपना कोड़ा हवा में लहराया, तब मुझे एहसास हुआ कि आज भी किसी पर जुल्म ढहाया जाना है. अब मैं भी झरोखे में आ कर बैठ गई. रमुआ को रस्सियों से बांध कर आंगन में डाल दिया गया था. अब बड़ी ठाकुर साहब के इशारे का इंतजार कर रही थी कि उस पर कोड़े बरसाना शुरू करे. मैं ने अपनी नौकरानी से उस को मारने की वजह पूछी, तब उस ने बताया, ‘‘मझली ठकुराइन, यहां तो यह सब होता ही रहता है. अरे, कोई बकाया पैसा नहीं दिया होगा.’’ रमुआ थरथर कांप रहा था.

तभी मैं ने उस नौकरानी से ठाकुर साहब के पास खबर भिजवाई कि मैं उन से मिलना चाहती हूं और मैं झरोखे के पीछे चली गई.

तभी वहां ठाकुर साहब आए और उन्होंने मेरी तरफ देखा

मैं ने कहा, ‘‘ठाकुर साहब, यह रमुआ मुझे ईमानदार और मेहनती लगता है, इसलिए इसे यहीं पटक देते हैं. पड़ा रहेगा. हवेली, खेतखलिहान के काम तो करेगा ही, यह मजबूत लठैत भी है.’’ ठाकुर साहब को मेरी सलाह पसंद आई, लेकिन दूसरों पर अपना खौफ बनाए रखने के लिए उन्होंने रमुआ को 10 कोड़े की सजा देते हुए हवेली के पिछवाड़े की कोठरी में डलवा दिया. एक दिन मैं ने नौकरानी से रमुआ को बुलवाया. हवेली में कोई भी मर्द औरतों से आमनेसामने बात नहीं कर सकता था, इसलिए बात करने के लिए बीच में परदा डाला जाता था. रमुआ ने परदे के दूसरी तरफ आ कर सिर झुका कर कहा, ‘‘मझली ठकुराइनजी आदेश…’’ झीने परदे में से मैं ने रमुआ को एक निगाह देखा. लंबा कद, गठा हुआ बदन. सांवले रंग पर पसीने की बूंदें एक अजीब सी कशिश पैदा कर रही थीं. उसे देखते ही मेरे तन की उमंगें और मन की तरंगें उछाल मारने लगीं.

मैं ने रमुआ पर रोब गांठते हुए कहा, ‘‘तो तू है रमुआ. अब क्या हवेली में बैठेबैठे ही खाएगा, यहां मुफ्त में कुछ नहीं मिलता है… समझा?’’

यह सुन कर रमुआ घबरा गया और बोला, ‘‘आदेश, मझली ठाकुराइन.’’

मैं ने कहा, ‘‘इधर आ… यह जो ठाकुरजी की बैठक है, उस के ऊपर मयान (पुराने मकानों में छत इन पर बनाई जाती थी) में हाथ से झलने वाला पंखा लगा है. उस की डोरी निकल गई है. जरा उसे अच्छी तरह से बांध दे.’’ मैं अब भी परदे के पीछे नौकरानी के साथ खड़ी थी. रमुआ बंदर की तरह दीवार पर चढ़ कर मयान तक पहुंच गया और उस ने पंखे की सभी डोरियां बांध दीं. इस के बाद बैठक को साफ कर अच्छी तरह जमा दिया. दोपहर को ठाकुर साहब ने बैठक का इंतजाम देखा, तो उन्हें बहुत अच्छा लगा. जब उन्होंने इस बारे में नौकरानी से पूछा, तब उस ने मेरा नाम बताया. ठाकुर साहब की निगाह में मेरी इमेज अच्छी बनती जा रही थी.

एक दिन मैं ने ठाकुर साहब से कहा, ‘‘इस रमुआ को हवेली की हिफाजत के लिए रख लेते हैं और कहीं जाते समय मैं भी अपनी हिफाजत के लिए नौकरानी के साथ इसे भी रख लिया करूंगी.’’ ठाकुर साहब ने मेरी बात मान ली और मेरी हिफाजत की जिम्मेदारी रमुआ के ऊपर सौंप दी. हवेली से कुछ ही दूरी पर खेत था. खेत में मकान बना था, जिस से हवेली का कोई आदमी वहां जाए, तो उसे कोई परेशानी न हो. एक दिन मैं ने नौकरानी को बैलगाड़ी लगाने के लिए कहा. बैलगाड़ी के चारों डंडों पर चादर बांध दी गई थी, जिस से बाहर के किसी मर्द की निगाह हवेली की औरतों पर नहीं पडे़. चूंकि बड़ी अब 60 के पार हो चुकी थीं, इसलिए ये सब बंदिशें उन पर तो नहीं थीं, छोटी पर कम और मेरे ऊपर सब से ज्यादा थीं.

खैर, हवेली के दरवाजे से बैलगाड़ी तक दोनों तरफ परदे लगा दिए गए और मैं उन परदों के बीच से हो कर बैलगाड़ी में बैठ गई और रमुआ बैलगाड़ी पर लाठी रख कर हांकने लगा. खेत पर जा कर मैं ने रमुआ को मेड़ बांधने और पानी की ढाल ठीक करने के लिए कहा. थोड़ी देर में काली घटाएं उमड़घुमड़ कर बरसने लगीं. रमुआ अभी भी खेत पर काम कर रहा था. नौकरानी को मैं ने ऊपर के कमरे में भेज दिया और कहा, ‘‘जब चलेंगे, तब बुला लूंगी,’’ और बाहर से कुंडी लगा दी. बरसात तेज हो गई थी और रमुआ छपरे में खड़ा हो कर पानी से बच रहा था. मैं ने रमुआ को अंदर आने के लिए कहा, तभी जोर से बिजली कड़की और ऐसा लगा कि वह मकान पर ही गिर रही है. मैं ने डरते हुए रमुआ को जोर से जकड़ लिया. उस समय मैं रमुआ के लिए औरत और रमुआ मेरे लिए मर्द था.

थोड़ी देर में बरसात थम गई. मेरा मन सुख से भर गया था. रमुआ मुझ से आंखें नहीं मिला पा रहा था. मैं ने उसे फिर से खेत पर भेज दिया और ऊपर के कमरे में नौकरानी, जो अभी भी सो रही थी, को झिड़क कर उठाते हुए कहा, ‘‘क्या रात यहीं गुजारने का इरादा है?’’ नौकरानी हड़बड़ा कर उठी और बैलगाड़ी लगवाई. वापस हवेली में आ कर मैं ने रमुआ को दालान में बुलवाया और बड़ी से कोड़ा ले कर रमुआ पर एक ही सांस में 10-20 कोड़े बरसा दिए. मेरे इस बरताव की किसी को उम्मीद नहीं थी, लेकिन ठाकुर साहब और बड़ी खुश हो रहे थे कि मझली भी अब हवेली के रंगढंग में रचबस रही है. और उधर रमुआ अब भी यह नहीं समझ पाया कि आखिर मझली ठकुराइन ने उस पर कोड़े क्यों बरसाए?

पहली बात तो यह कि रमुआ को मैं ने एहसास दिलाया कि जो खेत पर हुआ है, उस के लिए उसे चुप रहना है, वरना… दूसरी, ठाकुर साहब और नौकरानी को यह एहसास दिलाना कि मुझे रमुआ से कोई लगाव नहीं है. तीसरी यह कि अगर हवेली में मेरे से वारिस आता है, तो उस के हक के लिए मैं कोडे़ भी बरसा सकती हूं. इस के बाद मैं ने ठाकुर साहब को रात मेरे कमरे में गुजारने की गुजारिश इतनी अदाओं के साथ की कि वे मना नहीं कर सके. मैं खुद नहीं समझ पा रही थी कि यह औरतों वाला तिरिया चरित्तर मुझ में कहां से आ गया, जिस के बल पर मैं अपने इरादे पूरे कर रही थी.

अगले दिन मैं पहले की तरह सामान्य थी. नौकरानी से रमुआ को बुला कर हवेली की साफसफाई कराई. वह अभी भी डरा और सहमा हुआ था. समय अपनी रफ्तार से गुजर रहा था. आज ठाकुर साहब की खुशियों का पारावार नहीं था. हवेली दुलहन की तरह सजी हुई थी. दावतों, कव्वाली और नाचगानों का दौर चल रहा था. कब रात होती, कब सुबह, मालूम नहीं पड़ता. जो पैसा अब तक हवेली की तिजोरियों में पड़ा था, खुशियां मनाने में खर्च हो रहा था, जगहजगह लंगर चल रहे थे, दानधर्म चल रहा था और हो भी क्यों नहीं, ठाकुर साहब का वारिस जो आ गया था. बड़ी और छोटी भी औरत थीं और इतने दिनों तक हवेली को वारिस नहीं देने की वजह वे जानती थीं, लेकिन इस के बावजूद वे यह समझ नहीं पा रही थीं कि मझली ने यह कारनामा कैसे कर दिया?  Family Story

Romantic Story In Hindi : एक नई शुरुआत – क्या समर की प्रेम कहानी आगे बढ़ पाई ?

Romantic Story In Hindi : रोजरोज के ट्रैफिक जाम, नेताओं की रैलियां, वीआईपी मूवमैंट्स और अकसर होने वाले फेयर की वजह से दिल्ली में ट्रैवल करना समस्या बनता जा रहा है. अब अगर आप किसी बड़ी पोस्ट पर हैं तो कार से ट्रैवल करना आप की अनिवार्यता बन जाता है. बड़े शहरों में प्रैस्टिज इश्यू भी किसी समस्या से कम नहीं है. ड्राइवर रखने का मतलब है एक मोटा खर्च और फिर उस के नखरे. भीड़ भरी सड़कों पर जहां आधे से ज्यादा लोगों में गाड़ी चलाने की तमीज न हो, गाड़ी चलाना किसी चुनौती से कम नहीं है और ऐसी सूरत में ड्राइविंग को ऐंजौय कर पाना तो बिलकुल ही संभव नहीं है.

समर को ड्राइविंग करना बेहद पसंद है. पर रोजरोज की परेशानी से बचने के लिए उस ने सोचा कि अब अपने ओहदे को भूल उसे मैट्रो की शरण ले लेनी चाहिए. कहने दो, लोग या उस के जूनियर जो कहें. पैट्रोल का खर्चा जो कंपनी देती है, उसे बचाने के चक्कर में बौस मैट्रो से आनेजाने लगे हैं, ऐसी बातें उस के कानों में भी अवश्य पड़ीं, पर सीधे उस के मुंह पर कहने की तो किसी की हिम्मत नहीं थी.

आरंभ के कुछ दिन तो उसे भी दिक्कत महसूस हुई. मैट्रो में कार जैसा

आराम तो नहीं मिल सकता था, पर कम से कम वह टाइम पर औफिस पहुंच रहा था और वह भी सड़कों पर झेलने वाले तनाव के बिना. हालांकि मैट्रो में इतनी भीड़ होती थी कि कभीकभी उसे झुंझलाहट हो जाती थी. धीरेधीरे उसे मैट्रो के सफर में मजा आने लगा.

दिल्ली की लाइफलाइन बन गई मैट्रो में किस्मकिस्म के लोग. लेडीज का अलग डब्बा होने के बावजूद उन का कब्जा तो हर डब्बे में होना और पुरुषों का इस बात को ले कर खीजते रहना देखना और उन की बातों का आनंद लेना भी मानो उस का रूटीन बन गया. पुरुषों के डब्बे में भी महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें होती हैं. लेकिन वह उन पर कम ही बैठता था. उस दिन मैट्रो अपेक्षाकृत खाली थी. सरकारी छुट्टी थी. वह कोने की सीट पर बैठ गया.

वह अखबार पढ़ने में तल्लीन था कि तभी एक मधुर स्वर उस के कानों में पड़ी, ‘‘ऐक्सक्यूज मी.’’

उस ने नजरें उठाईं. लगभग 30-32 साल की कमनीय काया वाली एक महिला उस के सामने खड़ी थी. एकदम परफैक्ट फिगर… मांस न कहीं कम न कहीं ज्यादा. उस ने पर्पल कलर की शिफौन की प्रिंटेड साड़ी और स्लीवलैस ब्लाउज पहना था. गले में मोतियों की माला थी और कंधे पर डिजाइनर बैग झूल रहा था. होंठों पर लगी हलकी पर्पल लिपस्टिक एक अलग ही लुक दे रही थी. नफासत और सौंदर्य दोनों एकसाथ. कुछ पल उस पर नजरें टिकी ही रह गईं.

‘‘ऐक्सक्यूज मी, यह लेडीज सीट है. इफ यू डौंट माइंड,’’ उस ने बहुत ही तहजीब से कहा.

‘‘या श्योर,’’ समर एक झटके से उठ गया.

अगले स्टेशन के आने की घोषणा हो रही थी यानी वह खान मार्केट से चढ़ी थी. समर की नजरें उस के बाद उस से हटी ही नहीं. बारबार उस का ध्यान उस पर चला जाता था. बहुत चाहा उस ने कि उसे न देखे, पर दिल था कि जैसे उसी की ओर खिंचा जा रहा था. लेकिन यों एकटक देखते रहने का मतलब था कि उस के जैसे भद्र पुरुष का बदतमीजों की श्रेणी में आना और इस समय तो वह कतई ऐसा नहीं करना चाहता था. अपनी खुद की 35 साल की जिंदगी में किसी के प्रति इस तरह का आकर्षण या किसी को लगातार देखते रहने की चाह इस से पहले कभी उस के अंदर इतनी तीव्रता से उत्पन्न नहीं हुई थी. वैसे भी सफर लंबा था और वह उस में किसी तरह का व्यवधान नहीं चाहता था.

वैल सैटल्ड और पढ़ीलिखी व कल्चर्ड फैमिली का होने के बावजूद न जाने क्यों उसे अभी तक सही लाइफ पार्टनर नहीं मिल पाया था. कभी उसे लड़की पसंद नहीं आती तो कभी उस के मां बाप को. कभी लड़की की बैकग्राउंड पर दादी को आपत्ति होती. ऐसा नहीं था शादी को ले कर उस ने सैट रूल्स बना रखे थे पर पता नहीं क्यों फिर भी 25 साल की उम्र से शादी के लिए लड़की पसंद करने की कोशिश 35 साल तक भी किसी तरह के निर्णय पर नहीं पहुंच पाई थी.

धीरेधीरे चौइस भी कम होने लगी थी और रिश्ते भी आने कम हो गए थे.

उस ने भी अपनी इस एकाकी जिंदगी को ऐंजौय करना शुरू कर दिया था. अब तो मम्मीपापा और भाईबहन भी उस से यह पूछतेपूछते थक गए थे कि उसे कैसी लड़की चाहिए. वह अकसर कहता लड़की कोई फोटो फ्रैम तो है नहीं, जो परफैक्ट आकार व डिजाइन की मिल जाएगी. मेरे मन में कोई इमेज तो नहीं है उस की, बस जैसी मुझे चाहिए जब वह सामने आएगी तो मैं खुद ही आप लोगों को बता दूंगा.

उस के बाद से घर वाले भी शांत हो कर बैठ गए थे और वह भी मस्त रहने लगा था. वह सीट से उठी तो एक बार उस ने फिर से उसे गहरी नजरों से देखा. एक स्वाभाविक मुसकान मानो उस के चेहरे का हिस्सा ही बन गई थी.

गालों पर डिंपल पड़ रहे थे. समर को सिहरन सी महसूस हुई. क्या है यह… क्यों उस के भीतर जलतरंग सी बज रही है. वह कोई 20-21 साल का नौजवान तो नहीं, एक मैच्योर इनसान है… फिर भी उस का रोमरोम तरंगित होने लगा था. अजीब सी फीलिंग हुई… अनजानी सी… इस से पहले किसी लड़की को देख कर ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ था. मानो मिल्स ऐंड बून्स का कोई किरदार पन्नो में से निकल कर उस के भीतर समा गया हो और उसे आंदोलित कर रहा हो. यह खास फीलिंग उसे लुभा रही थी.

उस के नेहरू प्लेस उतरने के बाद जब तक मैट्रो चली नहीं वह उसे जाते देखता रहा. मन तो कर रहा था कि वहीं उतर जाए और पता करे कि वह कहां काम करती है. पर यह उसे शिष्ट आचरण नहीं लगा. उसे आगे ओखला जाना था. लेकिन मैट्रो से उतरने के बाद भी उसे लगा कि जैसे उस का मन तो उस कोने वाली सीट पर ही जा कर अटक गया है.

औफिस में भी वह बेचैन ही रहा. काम कर रहा था पर कंसनट्रेशन जैसे गायब हो चुका था. वह बारबार खुद से यही सवाल कर रहा था कि आखिर उस महिला के बारे में वह इतना क्यों सोच रहा है. क्यों उस के अंदर एक समुद्र उफान ले रहा है, क्यों वह चाहता है कि उस से दोबारा मुलाकात हो… बहुत बार उस ने अपने खयालों पर फाइलों के बोझ को डालना चाहा, बहुत बार कंप्यूटर स्क्रीन पर आंखें गड़ाने की कोशिश की पर नाकामयाब रहा. खुद को धिक्कारा भी कि किसी के बारे में यों मन में खयाल लाना अच्छी बात नहीं है. फिर भी घर लौटने के बाद और रात भर वह अपने अंदरबाहर फैली सिहरन को महसूस करता रहा.

सुबह बारबार यह सोच रहा था कि आज भी मैट्रो में उस से मुलाकात हो जाए. फिर खुद पर ही उसे हंसी आ गई. मान लो उस ने वही मैट्रो पकड़ी तब भी क्या गारंटी है कि वह आज भी उसी डब्बे में चढ़ेगी जिस में वह हो. उसे लग रहा था कि अगर उस का यही हाल रहा तो कहीं वह स्टौकर न बन जाए. समर खुद को संभाला… उस ने अपने को हिदायत दी. मैच्योर इनसान इस तरह की हरकतें करते अच्छे नहीं लगते… सही है पर खान मार्केट आते ही नजरें उसे ढूंढ़ने लगीं. पर नहीं दिखी वह.

अब तो जैसे सुबहशाम उसे तलाशना ही उस का रूटीन बन गया था. उसे लगा कि हो सकता है वह रोज ट्रैवल न करती हो. मायूस रहने लगा था समर… कोई इस तरह दिमाग पर हावी रहने लग सकता है. उस ने कभी सोचा नहीं था. क्या इसे ही लव ऐट फर्स्ट साइट कहते हैं. किताबी और फिल्मी बातें जिन का कभी वह मजाक उड़ाया करता था आज उसे सच लग रही थीं. काश, एक बार तो वह कहीं दिख जाए.

खान मार्केट से समर को कुछ शौपिंग करनी थी. वैलेंटाइनडे की वजह से खूब चहलपहल थी. बाजार रोशनी से जगमगा रहे थे, खरीदारी करने के बाद वह कौफी कैफे डे में चला गया. कौफी पी कर सारी थकान उतर जाती है उस की. एक सिप लिया ही था कि सामने से वह अंदर आती दिखी. हाथों में बहुत सारे पैकेट थे. आज मैरून कलर का कुरता और क्रीम कलर की लैगिंग पहन रखी थी उस ने. कानों में डैंगलर्स लटक रहे थे जो बीचबीच में उस की लटों को चूम लेते थे.

चांस की बात है कि सारी टेबलें भरी हुई थीं. वह बिना झिझक उस के सामने वाली कुरसी पर आ कर बैठ गई. समर को लगा जैसे उस की मनचाही मुराद पूरी हो गई. कौफी का और्डर देने के बाद वह अपने मोबाइल पर उंगली घुमाने लगी. फिर अचानक बोली, ‘‘आई होप मेरे यहां बैठने से आप को कोई प्रौब्लम नहीं होगी… और कोई टेबल खाली नहीं है…’’

उस की बात पूरी होने से पहले ही तुरंत समर बोला, ‘‘इट्स माई प्लैजर.’’

‘‘ओह रियली,’’ उस ने कुछ इस अंदाज में कहा कि समर को लगा जैसे उस ने व्यंग्य सा कसा हो. कहीं उस के चेहरे पर आए भावों का वह कोई गलत मतलब तो नहीं निकाल रही… कहीं यह सोचे कि वह उस पर लाइन मारने की कोशिश कर रहा है.

‘‘वैसे आप को कोने वाली सीट ही पसंद है… डिस्टर्बैंस कम होती है और आप को वैसे भी पसंद नहीं कि कोई आप की लाइफ में आप को डिस्टर्ब करे… अपने हिसाब से फैसले लेने पसंद करते हैं आप.’’

हैरानी, असमंजस… न जाने कैसेकैसे भाव उस के चेहरे पर उतर आए.

‘‘आप परेशान न हों, समर… मैं ने उस दिन मैट्रो में ही आप को पहचान लिया था. संयोग देखिए फिर आप से मुलाकात हो गई तो सोच रही हूं आज बरसों से दबा गुबार निकाल ही लूं. आप की हैरानी जायज है. हो सकता है आप ने मुझे पहचाना न हो. पर मैं आप को भूल नहीं पाई. अब तक तो आप को अपना परफैक्ट लाइफ पार्टनर मिल ही गया होगा. अच्छा ही है वरना बेवजह लड़कियों को रिजैक्ट करने का सिलसिला नहीं रुकता.’’

‘‘हम पहले कहीं मिल चुके हैं क्या?’’ समर ने सकुचाते हुए पूछा.

समर कहां तो इस से मुलाकात हो जाने की कामना कर रहा था और कहां अब

वही कह रही थी कि वह उसे जानती है और इतना ही नहीं उसे एक तरह से कठघरे में ही खड़ा कर दिया था.

‘‘हम मिले तो नहीं हैं, पर हमारा परिवार अवश्य एकदूसरे से मिला है. थोड़ा दिमाग पर जोर डालें तो याद आ जाए शायद कि एक बार आप के घर वाले मेरे घर आए थे. यहीं शाहजहां रोड पर रहते थे तब हम. पापा आईएएस अफसर थे. हमारी शादी की बात चली थी. आप के घर वालों को मैं पसंद आ गई थी. आप का फोटो दिखाया था उन्होंने मुझे. वे तो जल्दी से जल्दी शादी की डेट तक फिक्स करने को तैयार हो गए थे. फिर तय हुआ कि आप के और मेरे मिलने के बाद ही आगे की बात तय की जाएगी.

मैं खुश थी और मेरे मम्मीपापा भी कि इतने संस्कारी और ऐजुकेटेड लोगों के यहां मेरा रिश्ता तय हो रहा है. हम मिल पाते उस से पहले ही पापा पर किसी ने फ्रौड केस बना दिया. आप की दादी ने घर आ कर खूब खरीखरी सुनाई कि ऐसे घर में जहां बाप बेईमानी का पैसा लाता हो हम रिश्ता नहीं कर सकते हैं. पापा ने बहुत समझाया कि उन्हें फंसाया गया है पर उन्होंने एक न सुनी.

‘‘मुझे दुख हुआ पर इसलिए नहीं कि आप से रिश्ता नहीं हो पाया, बल्कि इसलिए कि बिना सच जाने इलजाम लगा कर आप की दादी ने मेरे पापा का अपमान किया था. उस के बाद मैं ने तय कर लिया था कि शादी करूंगी ही नहीं. पापा तो खैर बेदाग साबित हुए पर मेरा रिश्ता टूटने का गम सह नहीं पाए और चले गए इस दुनिया से.

‘‘हमारे समाज में किसी लड़की को रिजैक्ट कर देना आम बात है पर कोई एक बार भी यह नहीं सोचता कि इस से उस के मन पर क्या बीतती होगी, उस के घर वालों की आशा कैसे बिखरती होगी… आप को कोई रिजैक्ट करे तो कैसा लगेगा समर?’’

‘‘मेरा यकीन करो…’’

‘‘मेरा नाम निधि है.’’

नाम सुन कर समर को लगा कि जैसे घर में उस ने कई बार इस नाम को सुना था. मम्मीपापा, भाईबहन यहां तक कि दादी के मुंह से भी. वह भी कई बार कि लड़की तो वही अच्छी थी पर उस का बाप… दादी उन से शादी हो जाती तो भैया अब तक कुंआरे न होते, बहन को भी उस ने कहते सुना था कई बार. पर आप की जिद ने सब गड़बड़ कर दिया… पापा भी उलाहना देते थे कई बार दादी को. अब तक जितनी लड़कियां देखी थीं, समर के लिए वही मुझे सब से अच्छी लगी थी. मम्मी के मुंह से भी वह यह बात सुन चुका था. जिसे देखा न हो उस के बारे में वह क्या कहता. इसलिए चुप ही रहता था.

‘‘निधि, सच में मुझे कोई जानकारी नहीं है. हालांकि घर में अकसर तुम्हारी बात होती थी पर तुम मेरे लिए किसी अनजान चेहरे की तरह थीं. आई एम सौरी… मेरे परिवार वालों की वजह से तुम्हें अपने पापा को खोना पड़ा और इतना अपमान सहना पड़ा. पर…’’ कहतेकहते रुक गया समर. आखिर कैसे कहता कि जब से उसे देखा है वही उस के दिलोदिमाग पर छाई हुई है. अपने दिल की बात कह कर कहीं वह उस का दिल और न दुखा दे और फिर अब उस ने ही उसे रिजैक्ट कर दिया तो क्या होगा…

‘‘समर मुझे आप की सौरी नहीं चाहिए. यह तो आम लड़की की विडंबना है जिसे वह सहती आ रही है, उस के हर तरह से काबिल होने के बावजूद. एनी वे चलती हूं. आई होप फिर हमारी मुलाकात…’’

‘‘हो…’’ समर जल्दी से बोला, ‘‘एक मौका भूल सुधार का तो हर किसी को मिलता है. यह मेरा कार्ड है. फेसबुक पर आप को ढूंढ कर फ्रैंड रिक्वैस्ट भेजूंगा, प्लीज निधि ऐक्सैप्ट कर लेना… विश्वास है कि आप रिजैक्ट नहीं करेंगी… कोने वाली सीट नहीं चुनूंगा अब से,’’ समर ने अपना विजिटिंग कार्ड उसे थमाते हुए कहा, ‘‘पुराना सब कुछ भुला कर नई शुरुआत की जा सकती है.’’

कार्ड लेते हुए निधि ने अपने शौपिंग बैग उठाए. बाहर जाने के लिए पलटी तभी उस के डैंगलर ने उस की बालों की लटों को यों छुआ और लटें इस तरह हिलीं मानो कह रही हों इस बार ऐक्सैप्ट आप को करना है. Romantic Story In Hindi

Social Story : माहौल – सुलझ गई आत्महत्या की गुत्थी

Social Story : सुमन ने फांसी लगा ली, यह सुन कर मैं अवाक रह गया. अभी उस की उम्र ही क्या थी, महज 20 साल. यह उम्र तो पढ़नेलिखने और सुनहरे भविष्य के सपने बुनने की होती है. ऐसी कौन सी समस्या आ गई जिस के चलते सुमन ने इतना कठोर फैसला ले लिया. घर के सभी सदस्य जहां इस को ले कर तरहतरह की अटकलें लगाने लगे, वहीं मैं कुछ पल के लिए अतीत के पन्नों में उलझ गया. सुमन मेरी चचेरी बहन थी. सुमन के पिता यानी मेरे चाचा कलराज कचहरी में पेशकार थे. जाहिर है रुपएपैसों की उन के पास कोई कमी नहीं थी. ललिता चाची, चाचा की दूसरी पत्नी थीं. उन की पहली पत्नी उच्चकुलीन थीं लेकिन ललिता चाची अतिनिम्न परिवार से आई थीं. एकदम अनपढ़, गंवार. दिनभर महल्ले की मजदूर छाप औरतों के साथ मजमा लगा कर गपें हांकती रहती थीं. उन का रहनसहन भी उसी स्तर का था. बच्चे भी उन्हीं पर गए थे.

मां के संस्कारों का बच्चों पर गहरा असर पड़ता है. कहते हैं न कि पिता लाख व्यभिचारी, लंपट हो लेकिन अगर मां के संस्कार अच्छे हों तो बच्चे लायक बन जाते हैं. चाचा और चाची बच्चों से बेखबर सिर्फ रुपए कमाने में लगे रहते. चाचा शाम को कचहरी से घर आते तो उन के हाथ में विदेशी शराब की बोतल होती. आते ही घर पर मुरगा व शराब का दौर शुरू हो जाता. एक आदमी रखा था जो भोजन पकाने का काम करता था. खापी कर वे बेसुध बिस्तर पर पड़ जाते.

ललिता चाची को उन की हरकतों से कोई फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि चाचा पैसों से सब का मुंह बंद रखते थे. अगले दिन फिर वही चर्चा. हालत यह थी कि दिन चाची और बच्चों का, तो शाम चाचा की. उन को 6 संतानों में 3 बेटे व 3 बेटियों थीं, जिन में सुमन बड़ी थी.

फैजाबाद में मेरे एक चाचा विश्वभान का भी घर था. उन के 2 टीनएजर लड़के दीपक और संदीप थे, जो अकसर ललिता चाची के घर पर ही जमे रहते. वहां चाची की संतानें दीपक व संदीप और कुछ महल्ले के लड़के आ जाते, जो दिनभर खूब मस्ती करते.

मेरे पिता की सरकारी नौकरी थी, संयोग से 3 साल फैजाबाद में हमें भी रहने का मौका मिला. सो कभीकभार मैं भी चाचा के घर चला जाता. हालांकि इस के लिए सख्त निर्देश था पापा का कि कोई भी पढ़ाईलिखाई छोड़ कर वहां नहीं जाएगा, लेकिन मैं चोरीछिपे वहां चला जाता.

निरंकुश जिंदगी किसे अच्छी नहीं लगती? मेरा भी यही हाल था. वहां न कोई रोकटोक, न ही पढ़ाईलिखाई की चर्चा. बस, दिन भर ताश, लूडो, कैरम या फिर पतंगबाजी करना. यह सिलसिला कई साल चला. फिर एकाएक क्या हुआ जो सुमन ने खुदकुशी कर ली? मैं तो खैर पापा के तबादले के कारण लखनऊ आ गया. इसलिए कुछ अनुमान लगाना मेरे लिए संभव नहीं था.

मैं पापा के साथ फैजाबाद आया. मेरा मन उदास था. मुझे सुमन से ऐसी अपेक्षा नहीं थी. वह एक चंचल और हंसमुख लड़की थी. उस का यों चले जाना मुझे अखर गया. सुमन एक ऐसा अनबुझा सवाल छोड़ गई, जो मेरे मन को बेचैन किए हुए था कि आखिर ऐसी कौन सी विपदा आ गई थी, जिस के कारण सुमन ने इतना बड़ा फैसला ले लिया.

जान देना कोई आसान काम नहीं होता? सुमन का चेहरा देखना मुझे नसीब नहीं हुआ, सिर्फ लाश को कफन में लिपटा देखा. मेरी आंखें भर आईं. शवयात्रा में मैं भी पापा के साथ गया. लाश श्मशान घाट पर जलाने के लिए रखी गई. तभी विश्वभान चाचा आए. उन्हें देखते ही कलराज चाचा आपे से बाहर हो गए, ‘‘खबरदार जो दोबारा यहां आने की हिम्मत की. हमारातुम्हारा रिश्ता खत्म.’’

कुछ लोगों ने चाचा को संभाला वरना लगा जैसे वे विश्वभान चाचा को खा जाएंगे.

ऐसा उन्होंने क्यों किया? वहां उपस्थित लोगों को समझ नहीं आया. हो सकता है पट्टेदारी का झगड़ा हो? जमीनजायदाद को ले कर भाईभतीजों में खुन्नस आम बात है. मगर ऐसे दुख के वक्त लोग गुस्सा भूल जाते हैं.

यहां भी चाचा ने गुस्सा निकाला तो मुझे उन की हरकतें नागवार गुजरीं. कम से कम इस वक्त तो वे अपनी जबान बंद रखते. गम के मौके पर विश्वभान चाचा खानदान का खयाल कर के मातमपुरसी के लिए आए थे.

पापा को भी कलराज चाचा की हरकतें अनुचित लगीं. चूंकि वे उम्र में बड़े थे इसलिए पापा भी खुल कर कुछ कह न सके. विश्वभान चाचा उलटेपांव लौट गए. पापा ने उन्हें रोकना चाहा मगर वे रुके नहीं.

दाहसंस्कार के बाद घर में जब कुछ शांति हुई तो पापा ने सुमन का जिक्र किया. सुन कर कलराज चाचा कुछ देर के लिए कहीं खो गए. जब बाहर निकले तो उन की आंखों के दोनों कोर भीगे हुए थे. बेटी का गम हर बाप को होता है. एकाएक वे उबरे तो बमक पड़े, ‘‘सब इस कलमुंही का दोष है,’’ चाची की तरफ इशारा करते हुए बोले. यह सुन कर चाची का सुबकना और तेज हो गया.

‘‘इसे कुछ नहीं आता. न घर संभाल सकती है न ही बच्चे,’’ कलराज चाचा ने कहा. फिर किसी तरह पापा ने चाचा को शांत किया. मैं सोचने लगा, ’चाचा को घर और बच्चों की कब से इतनी चिंता होने लगी. अगर इतना ही था तो शुरू से ही नकेल कसी होती. जरूर कोई और बात है जो चाचा छिपा रहे थे, उन्होंने सफाई दी, ‘‘पढ़ाई के लिए डांटा था. अब क्या बाप हो कर इतना भी हक नहीं?’’

क्या इसी से नाराज हो कर सुमन ने आत्महत्या जैसा आत्मघाती कदम उठाया? मेरा मन नहीं मान रहा था. चाचा ने बच्चों की पढ़ाई की कभी फिक्र नहीं की, क्योंकि उन के घर में पढ़ाई का माहौल ही नहीं था. स्कूल जाना सिर्फ नाम का था.

बहरहाल, इस घटना के 10 साल गुजर गए. इस बीच मैं ने मैडिकल की पढ़ाई पूरी की और संयोग से फैजाबाद के सरकारी अस्पताल में बतौर मैडिकल औफिसर नियुक्त हुआ. वहीं मेरी मुलाकात डाक्टर नलिनी से हुई. उन का नर्सिंगहोम था. उन्हें देखते ही मैं पहचान गया. एक बार ललिता चाची के साथ उन के यहां गया था. चाची की तबीयत ठीक नहीं थी. एक तरह से वे ललिता चाची की फैमिली डाक्टर थीं. चाची ने ही बताया कि तुम्हारे चाचा ने इन के कचहरी से जुड़े कई मामले निबटाने में मदद की थी. तभी से परिचय हुआ. मैं ने उन्हें अपना परिचय दिया. भले ही उन्हें मेरा चेहरा याद न आया हो मगर जब चाचा और चाची का जिक्र किया तो बोलीं, ‘‘कहीं तुम सुमन की मां की तो बात नहीं कर रहे?’’

‘‘हांहां, उन्हीं की बात कर रहा हूं,’’ मैं खुश हो कर बोला.

‘‘उन के साथ बहुत बुरा हुआ,’’ उन का चेहरा लटक गया.

‘‘कहीं आप सुमन की तो बात नहीं कर रहीं?’’

‘‘हां, उसी की बात कर रही हूं. सुमन को ले कर दोनों मेरे पास आए थे,’’

डा. नलिनी को कुछ नहीं भूला था. नहीं भूला तो निश्चय ही कुछ खास होगा?

‘‘क्यों आए थे?’’ जैसे ही मैं ने पूछा तो उन्होंने सजग हो कर बातों का रुख दूसरी तरफ मोड़ना चाहा.

‘‘मैडम, बताइए आप के पास वे सुमन को क्यों ले कर आए,’’ मैं ने मनुहार की.

‘‘आप से उन का रिश्ता क्या है?’’

‘‘वे मेरे चाचाचाची हैं. सुमन मेरी चचेरी बहन थी,’’ कुछ सोच कर डा. नलिनी बोलीं, ‘‘आप उन के बारे में क्या जानते हैं?’’

‘‘यही कि सुमन ने पापा से डांट खा कर खुदकुशी कर ली.’’

‘‘खबर तो मुझे भी अखबार से यही लगी,’’ उन्होंने उसांस ली. कुछ क्षण की चुप्पी के बाद बोलीं, ‘‘कुछ अच्छा नहीं हुआ.’’

‘‘क्या अच्छा नहीं हुआ?’’ मेरी उत्कंठा बढ़ती गई.

‘‘अब छोडि़ए भी गड़े मुरदे उखाड़ने से क्या फायदा?’’ उन्होंने टाला.

‘‘मैडम, बात तो सही है. फिर भी मेरे लिए यह जानना बेहद जरूरी है कि आखिर सुमन ने खुदकुशी क्यों की?’’

‘‘जान कर क्या करोगे?’’

‘‘मैं उन हालातों को जानना चाहूंगा जिन की वजह से सुमन ने खुदकुशी की. मैं कोई खुफिया विभाग का अधिकारी नहीं फिर भी रिश्तों की गहराई के कारण मेरा मन हमेशा सुमन को ले कर उद्विग्न रहा.’’

‘‘आप को क्या बताया गया है?’’

‘‘यही कि पढ़ाई के लिए चाचा ने डांटा इसलिए उस ने खुदकुशी कर ली.’’

इस कथन पर मैं ने देखा कि डा. नलिनी के अधरों पर एक कुटिल मुसकान तैर गई. अब तो मेरा विश्वास पक्का हो गया कि हो न हो बात कुछ और है जिसे डा. नलिनी के अलावा कोई नहीं जानता. मैं उन का मुंह जोहता रहा कि अब वे राज से परदा हटाएंगी. मेरा प्रयास रंग लाया.

वे कहने लगीं, ‘‘मेरा पेशा मुझे इस की इजाजत नहीं देता मगर सुमन आप की बहन थी इसलिए आप की जिज्ञासा शांत करने के लिए बता रही हूं. आप को मुझे भरोसा देना होगा कि यह बात यहीं तक सीमित रहेगी.’’

‘‘विश्वास रखिए मैडम, मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा जिस से आप को रुसवा होना पड़े.’’

‘‘सुमन गर्भवती थी.’’  सुन कर सहसा मुझे विश्वास नहीं हुआ. मैं सन्न रह गया.

‘‘सुमन के गार्जियन गर्भ गिरवाने के लिए मेरे पास आए थे. गर्भ 5 माह का था. इसलिए मैं ने कोई रिस्क नहीं लिया.’’

मैं भरे मन से वापस आ गया. यह मेरे लिए एक आघात से कम नहीं था. 20 वर्षीय सुमन गर्भवती हो गई? कितनी लज्जा की बात थी मेरे लिए. जो भी हो वह मेरी बहन थी. क्या बीती होगी चाचाचाची पर, जब उन्हें पता चला होगा कि सुमन पेट से है? चाचा ने पहले चाची को डांटा होगा फिर सुमन को. बच निकलने का कोई रास्ता नहीं दिखा तो सुमन ने खुदकुशी कर ली.

मेरे सवाल का जवाब अब भी अधूरा रहा. मैं ने सोचा डा. नलिनी से खुदकुशी का कारण पता चल जाएगा तो मेरी जिज्ञासा खत्म हो जाएगी मगर नहीं, यहां तो एक पेंच और जुड़ गया. किस ने सुमन को गर्भवती बनाया? मैं ने दिमाग दौड़ाना शुरू किया. चाचा ने श्मशान घाट पर विश्वभान चाचा को देख कर क्यों आपा खोया? उन्होंने तो मर्यादा की सारी सीमा तोड़ डाली थी. वे उन्हें मारने तक दौड़ पड़े थे. मेरी विचार प्रक्रिया आगे बढ़ी. उस रोज वहां विश्वभान चाचा के परिवार का कोई सदस्य नहीं दिखा. यहां तक कि दिन भर डेरा डालने वाले उन के दोनों बेटे दीपक और संदीप भी नहीं दिखे. क्या रिश्तों में सेंध लगाने वाले विश्वभान चाचा के दोनों लड़कों में से कोई एक था? मेरी जिज्ञासा का समाधान मिल चुका था. Social Story 

Family Story In Hindi : अफसोस – दो सहेलियां क्यों बनी दुश्मन ?

Family Story In Hindi : ‘वंदना के पति अरुण का तबादला कानपुर हो गया है, अगले सप्ताह वे लोग कालोनी छोड़ कर चले जाएंगे.’ यह खबर सविता को अपनी पड़ोसिन आंचल से मिली.

‘‘विदाई पार्टी देने के लिए तुम वंदना को अपने घर आमंत्रित करोगी.’’ मुसकराती हुई आंचल ने सविता को जानबूझ कर छेड़ा.

‘‘उसे पार्टी देगा मेरा ठेंगा,’’ सविता एकदम चिढ़ उठी.

‘‘2 साल पहले तक तुम दोनों कितनी अच्छी सहेलियां हुआ करती थीं.’’

‘‘अब वह मुझे फूटी आंख नहीं भाती. उस के जाने की बात सुन कर मेरे कलेजे में बहुत ठंडक पड़ी है.’’

‘‘अपने पति के साथ तुम्हारा नाम जोड़ कर उस ने तुम्हें बदनाम करने की जो कोशिश की थी उस के लिए आज तक माफ नहीं किया तुम ने उसे.’’

‘‘ऐसा गलत और गंदा आरोप क्या कभी कोई भुला सकता है. बहुत बार कोशिश की उस ने फिर से मेरे साथ दोस्ती करने की पर मैं ने ही उसे घास नहीं डाली,’’ सविता की आंखों से नफरत और गुस्से की चिनगारियां फूटने लगीं.

सविता को थोड़ा और भड़का कर आंचल ने उस के मुंह से कुछ अन्य चटपटी बातें वंदना के खिलाफ उगलवाईं और फिर उन्हें अपनी सहेलियों के बीच बताने को विदा हो गई.

आंचल के जाने के बाद सविता के मन में उस दिन की कड़वी यादें उभरीं जिस दिन वंदना ने उसे उस की सहेलियों के बीच बदनाम व अपमानित करने की कोशिश की थी.

उस दिन सविता के घर आंचल, नीलम और निशा वहीं थीं. सविता का मूड शुरू से खराब था. उस ने न चाय पी न कुछ खाया.

‘कल शाम तुम मेरे घर किसलिए आई थी.’ वंदना के बोलने का लहजा झगड़ा शुरू करने का इरादा साफ दिखा रहा था.

‘तुम से यों ही मिलने आई थी लेकिन इतने अजीब ढंग से यह सवाल क्यों पूछ रही हो तुम.’ सविता नाराज हो उठी थी.

‘मुझे आए आधा घंटा हो गया है मगर अब तक तुम ने मुझे क्यों नहीं बताया कि तुम मेरे घर आई थीं?’

‘क्या ऐसा कहना जरूरी है.’

‘मेरे सवाल का जवाब दो, सविता.’

‘मैं भूल गई थी तुम्हें बताना.’

‘भूल गईं या इस बात को छिपाना चाह रही हो?’ वंदना ने चुभते लहजे में पूछा.

‘मैं मामूली सी तुम्हारे घर जाने की बात भला क्यों छिपाना चाहूंगी?’ गुस्साए सविता की आवाज ऊंची हो गई.

‘अपनी गंदी हरकतों पर कौन परदा नहीं डालना चाहता?’

‘क्या मतलब?’

‘मतलब यह कि तुम अरुण पर डोरे डाल रही हो. कल शाम खिड़की से मैं ने तुम्हें अरुण के गले लगते अपनी आंखों से देखा. अपनी सहेली के साथ विश्वासघात करते हुए तुम्हें शरम नहीं आई?’ वंदना ने उसे सब के सामने अपमानित किया था.

‘क्या बकवास कर रही हो. ऐसा झठा आरोप मुझ पर मत लगाओ,’ सविता और ज्यादा जोर से चिल्लाई.

‘जो मेरी आंखों ने देखा है वह झठ नहीं है. खबरदार जो तुम कभी मेरे घर मेरी पीठ पीछे गईं या अरुण से अकेले में मिलने की कोशिश की. मेरी तुम्हारी दोस्ती आज से खत्म, सुना तुम ने,’ प्रश्नवाचक मुद्रा में देखा वंदना ने. फिर गुस्से से पैर पटकती हुई उस के घर से चली गई थी.

उस के जाने के बाद सविता खूब रोई. उसे पता था कि उस की सहेलियां इस घटना को चटखारे लेले कर पूरी कालोनी में फैला देंगी. अपनी छवि के खराब हो जाने की कल्पना ने उस के आंसुओं को कई दिन तक थमने नहीं दिया था.

इस घटना से 3 दिन पहले सविता का सोने का हार चोरी हो गया था. चोर कौन था, इस का उसे बिलकुल अंदाजा नहीं था पर अपनी सहेलियों के बीच वंदना को नीचा दिखाने के लिए उस दिन उस ने चोरी का इलजाम वंदना के मत्थे मढ़ दिया.

‘इतनी चालाक और काइयां औरत मैं ने अपनी जिंदगी में पहले कभी नहीं देखी,’ सविता ने आंखों में आंसू भर आहत भाव से कहा था, ‘आज की उस की जलील हरकत देख कर मेरा शक विश्वास में बदल गया है कि मेरा हार वंदना ने ही चुराया है. अब झठा लांछन लगा कर मुझ से लड़ रही है. मुझ से संबंध तोड़ कर बारबार मेरे सामने शर्मिंदा होने के झंझट से मुक्ति पा गई चोट्टी.’

कुछ देर उस की हां में हां मिला कर उस की सहेलियां विदा हो गई थीं. सिर्फ 24 घंटे के अंदर इस घटना की जानकारी पूरी कालोनी को हो गई.

सविता ने वंदना को आज तक कभी दिल से माफ नहीं किया. यों कुछ महीनों बाद उन के बीच औपचारिक सा वार्त्तालाप हो जाता, लेकिन न उन का एकदूसरे के घर आनाजाना शुरू हुआ और न ही कभी दोस्ती के संबंध फिर से कायम हुए.

अगली शाम सविता का वंदना से आमनासामना बाजार में हुआ. तब तक सविता अपनी दसियों सहेलियों के घरों में जा कर हार चोरी हो जाने व अपनी झठी बदनामी वाली बातों की चर्चा कर आई थी. वंदना की बुराई करने व अपनी सहेलियों की सहानुभूति पाने में उसे अब भी अजीब सा सुख व शांति मिलती थी. पिछले 2 सालों में ऐसा कम ही हुआ था कि वह कालोनी में किसी से मिली हो और इन दोनों घटनाओं की चर्चा कर वंदना को भलाबुरा न कहा हो.

‘‘सुना है अगले सप्ताह कानपुर जा रही हो.’’ सविता ने जबरदस्ती वाले अंदाज में मुसकरा कर वंदना से पूछा.

‘‘अरुण का तबादला हो गया है, इसलिए जाना तो पड़ेगा ही,’’ वंदना भी बेचैन नजर आ रही थी.

‘‘नई जगह जा कर नई सहेलियां बनाना अच्छी बात ही है.’’

‘‘नए को पुराना होते और दोस्ती को दुश्मनी में बदलते ज्यादा देर नहीं लगती,’’ वंदना कुछ उदास सी हो कर बोली.

‘‘ताली दोनों हाथों से बजती है, एक से नहीं,’’ सविता चुप न रह सकी.

‘‘अरे, अब छोड़ो भी ऐसी बातों को. मुझे बहुत सी पैकिंग करनी है. मैं चलती हूं,’’ वंदना ने हाथ मिलाने को अपना हाथ उस की तरफ बढ़ाया.

कल रात को तुम सब घर आ जाओ न,’’ अचानक यों आमंत्रित कर के सविता खुद भी हैरान हो उठी.

‘‘कल तो आंचल ने बुलाया है, ‘गुड बाय’ कहने के लिए मैं वैसे तुम्हारे यहां आऊंगी जरूर. अब चलती हूं,’’ वंदना इस अंदाज में अपने घर की तरफ चली मानो आगे कुछ कहने में उसे बहुत कठिनाई होती.

इस मुलाकात ने सविता के सोच और यादों की धारा को मोड़ दिया. वंदना के साथ झगड़ने से पहले के समय की बहुत सी मुख्य घटनाएं उस के जेहन में घूमने लगीं.

अपने बेटे राहुल के होने के समय वह 3 दिन तक नर्सिंगहोम में रही थी. तब और बाद में भी उस की घरगृहस्थी संभालने में वंदना ने पूरा योगदान दिया था.

सप्ताह में 3-4 बार वह एकदूसरे के यहां जरूर खाना खाते. कई बार पिकनिक मनाने व फिल्में देखने साथ ही गए. जन्मदिन या शादी की वर्षगांठ जैसे समारोहों में बिलकुल अपनों की तरह शामिल होते.

वंदना को अपनी ससुराल वालों की नियमित रूप से आर्थिक सहायता करनी पड़ती थी. इस कारण उस का हाथ कभीकभी बहुत तंग हो जाता. ऐसे मौकों पर 5-10 हजार रुपए की आर्थिक सहायता उस की कई बार सविता ने की थी.

एक समय सविता को लगता था कि उस ने वंदना के रूप में बहुत अच्छी सहेली पा ली थी. फिर एक ही झटके में उन की दोस्ती दुश्मनी में बदल गई.

सविता के दिल में वंदना के प्रति नफरत भी उतनी ही गहरी बनी जितना गहरा कभी प्यार होता था. उसे बदनाम करने या उस का काम बिगाड़ने का कोई मौका सविता कभी नहीं चूकी.

वंदना की आंखों में भी वह अपने प्रति सदा नाराजगी व नफरत के भाव पाती. झगड़े के बाद एकदूसरे से सिर्फ नमस्ते शुरू करने में उन्हें 6 महीने से ज्यादा का समय लगा. उन की सहेलियों ने उन के बीच मनमुटाव बनाए रखने में पूरा योगदान दिया. वह एक के मुंह से दूसरे के खिलाफ निकली बातों को नमकमिर्च लगा कर इधर से उधर पहुंचातीं. इन्हीं औरतों के सामने अपनी नाक ऊंची रखने के लिए वह बढ़ाचढ़ा कर एकदूसरे की बुराई करतीं व आमनासामना होने पर सीधे मुंह बात न करतीं.

जैसेजैसे वंदना के जाने का समय नजदीक आता गया, सविता की बेचैनी व उदासी बढ़ने लगी. ऐसा क्यों हो रहा है, यह वह खुद भी नहीं समझ पा रही थी.

‘वंदना जा रही है तो मैं क्या करूं. मैं ने तो बहुत पहले उस से दोस्ती का संबंध तोड़ डाला था,’ किसी भी परिचित महिला के सामने अब भी वह बड़ी बेरुखी से कहती लेकिन उस के दिल की इच्छा कुछ और थी.

झगड़ा होने के बाद से अब तक वंदना का खयाल उस के दिलोदिगाम पर छाया रहा. अब वह उस की जिंदगी से निकल कर बहुत दूर जा रही थी, इस बात से खुशी या राहत महसूस करने के बजाय वह अजीब सी बेचैनी, चिढ़ व गुस्सा महसूस कर रही थी. खुद को वंदना के हाथों ठगा गया सा महसूस कर रही थी.

दिन गुजरते गए और वंदना उस से न मिलने आई और न ही किसी और जगह दोनों का आमनासामना हुआ. सविता ने कई बार सोचा कि वह खुद वंदना के घर चली जाए, लेकिन हर बार मन ने उस के कदम रोक लिए. उस का आंतरिक तनाव उस की शांत रहने की हर कोशिश को विफल कर बढ़ता गया.

वंदना को जिस रात गाड़ी पकड़नी थी. उस दिन दोपहर को वह सविता से मिलने अकेली आई.

‘‘आखिर मुझ से मिलने आने की तुम ने फुरसत निकाल ही ली.’’ शिकायत करने से सविता खुद को रोक नहीं पाई.

‘‘पैकिंग का काम निबटने में ही नहीं आ रहा था,’’ वंदना मुसकराई.

‘‘अभी कुछ नहीं, पहले वह सब सुन लो जो मैं तुम से आज कहने आई हूं,’’ वंदना के मुंह से शब्द फंसेफंसे से अंदाज में निकले.

‘‘तुम से बहुतकुछ कहने की इच्छा मेरे मन में भी है, वंदना,’’ सविता भावुक हो उठी.

‘‘पहले मैं कहूं.’’

‘‘कहो.’’

‘‘आज के बाद न जाने कब मिलूंगी. अतीत में जिन गलतियों और भूलों के कारण मैं ने तुम्हारा दिल दुखाया है उन सब के लिए माफी मांगने आई हूं मैं,’’ वंदना का गला रूंध गया.

सविता की आंखों में आंसू छलक आए, ‘‘हमारी इतनी अच्छी दोस्ती को न जाने किस की नजर लग गई. पिछले 2 सालों में हमारे दिलों के बीच कितनी दूरियां हो गईं.’’

‘‘वह जो तुम्हारा हार चोरी हो गया.’’

‘‘उसे चुराने का झठा इलजाम मैं ने गुस्से में आ कर तुम पर लगाया था, वंदना. उस दिन मैं अपने आपे में नहीं थी. उस गंदे झठ के लिए मुझे माफ कर दो.’’

‘‘लेकिन तुम्हारा आरोप सच था सविता. हार मैं ने ही चुराया था,’’ अपना पर्स खोल कर 2 साल पहले चोरी किया हार वंदना ने सविता को पकड़ा दिया.

‘‘लेकिन… उफ, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है. आखिर, तुम ने हार की चोरी क्यों की थी?’’ सविता गहरी उलझन का शिकार बन गई.

‘‘तुम्हें चोट पहुंचाने के लिए. तुम्हारा नुकसान करने के लिए.’’

‘‘तुम्हारे पति से मेरे गलत संबंध हैं, ऐसा सोच कर ही तुम ने मुझे चोट और नुकसान पहुंचाने की कोशिश की थी न.’’

‘‘हां.’’

‘‘लेकिन तुम्हारा वैसा सोचना गलत था,’’ सविता की आवाज में गहन पीड़ा के भाव उभरे, ‘‘तुम ने मुझे अरुण के गले से लगे हुए जरूर खिड़की से देखा होगा, लेकिन उस में मेरा दोष नहीं था.’’

‘‘मैं जानती हूं इस बात को,’’ गहरी सांस छोड़ते हुए वंदना बोली.

‘‘तुम जानती हो.’’ सविता हैरान हो उठी, ‘‘लेकिन उस दिन तो मुझे ही दोषी मान रही थीं.’’

‘‘गुस्से में आदमी कुछ का कुछ कह जाता है. मैं अरुण की दिलफेंक आदत से परिचित हूं. पता नहीं सुंदर औरतों के पीछे जीभ निकाल कर घूमने की उस की आदत कब और कैसे छूटेगी.’’

‘‘मेरे खुल कर उस के साथ हंसनेबोलने का अरुण ने गलत मतलब लगाया. शायद बहुत ज्यादा खुला व्यवहार कर के मैं ने ही उन्हें शह दी.’’

‘‘और मैं चाह कर भी तुम्हें आगाह नहीं कर सकी कि अरुण से कुछ दूरी बनाए रखना. अपने पति की कमजोरी बता कर तुम्हारे सामने मैं छोटी नहीं पड़ना चाहती थी. बस, तुम्हें उस के साथ खुल कर हंसनाबोलता देख कर मन ही मन किलसती रही. दोषी अरुण है, यह अच्छी तरह समझते हुए भी इसी कुढ़न के कारण तुम्हें चार औरतों के सामने बेकार की अपमानित कर गई,’’ वंदना अचानक ही हाथों में मुंह छिपा कर रोने लगी.

सविता वंदना के पास जा बैठी और उस की पीठ प्यार से थपथपाते हुए दुखी लहजे में बोली, ‘‘मुझे भी अपने खुले व्यवहार पर काबू रखना चाहिए था. तुम्हारे दिल की चिंता, तनाव और ईर्ष्या को पढ़ने की संवेदनशीलता मुझ में होनी चाहिए थी. अगर तुम मुझे जरा सा भी इशारा कर देती तो अरुणा को मैं किसी भ्रम का शिकार कभी न होने देती.’’

‘‘अपनी मूर्खता और नादानी के कारण मैं ने तुम्हारी जैसी अच्छी दोस्त को खो दिया,’’ कहतेकहते वंदना सविता के गले लग कर रोने लगी.

‘‘समझदार मैं भी नहीं निकली. अपनी दोस्ती की ढेर सारी अच्छी यादों को नजरअंदाज कर, बस, एक घटना के कारण तुम्हारे प्रति गुस्से और नफरत से भर कर कितनी दूर हो गई तुम से.’’

‘‘मुझे बहुत अफसोस है कि जैसे हम आज आमनेसामने बैठ कर अपने दिल की बातें एकदूसरे से कह रहे हैं, ऐसा हम ने पहले क्यों नहीं किया.’’

‘‘जिंदगी के पिछले 2 सालों में प्यार व दोस्ती का आनंद उठाने के बजाय नफरत और गुस्से की आग में सुलगते रहने का मुझे भी बेहद अफसोस है, वंदना,’’ वंदना को छाती से लगा सविता भी हिचकियां ले कर रोने लगी.

करीब घंटाभर और बैठ कर वंदना चली गईं. आपस में गले मिलते हुए दोनों ही बहुत उदास और थकीहारी सी नजर आ रही थीं.

कालोनी की औरतों को यह देख कर बेहद आश्चर्य हुआ कि एकदूसरे से पक्की दुश्मनी रखने वाली वंदना और सविता अंतिम विदाई के क्षणों में खूब रोईं. पिछले 2 सालों से नफरत उन की जीवनशक्ति को सक्रिय कर रही थी.

अब तबादले के कारण वह नफरत समाप्त हो गई. भीतर का खालीपन

और 2 साल तक प्यार व दोस्ती से वंचित रहने का अफसोस उन्हें इतना ज्यादा रुला रहा है, यह बात वहां उपस्थित कालोनी की औरतें नहीं समझ सकती थीं. Family Story In Hindi 

Hindi Love Stories : क्षतिपूर्ति – शरद बाबू को किस बात की चिंता सता रही थी

Hindi Love Stories : हरनाम सिंह की जलती हुई चिता देख कर शरद बाबू का कलेजा मुंह को आ रहा था. शरद बाबू को हरनाम के मरने का दुख इस बात से नहीं हो रहा था कि उन का प्यारा दोस्त अब इस दुनिया में नहीं था बल्कि इस बात की चिंता उन्हें खाए जा रही थी कि हरनाम को 2 लाख रुपए शरद बाबू ने अपने बैंक के खाते से निकाल कर दिए थे और जिस की भनक न तो शरद बाबू की पत्नी को थी और न ही हरनाम के घरपरिवार वालों को, उन रुपयों की वापसी के सारे दरवाजे अब बंद हो चुके थे.

हरनाम का एक ही बेटा था और वह भी 10-12 साल का. उस की आंखों से आंसू थम नहीं रहे थे, और प्रीतो भाभी, हरनाम की जवान पत्नी, वह तो गश खा कर मूर्छित पड़ी थी. शरद बाबू ने सोचा कि उन्हें तो अपने 2 लाख रुपयों की पड़ी है, इस बेचारी का तो सारा जहान ही लुट गया है.

मन ही मन शरद बाबू हिसाब लगाने लगे कि 2 लाख रुपयों की भरपाई कैसे कर पाएंगे. चोर खाते से साल में 30-40 हजार रुपए भी एक तरफ रख पाए तो भी कहीं 7-8 साल में 2 लाख रुपए वापस उसी खाते में जमा हो पाएंगे. हरनाम को अगर उन्होंने दुकान के खाते से रुपए दिए होते तो आज उन्हें इतना संताप न झेलना पड़ता. उस समय वे हरनाम की बातों में आ गए थे.

हरनाम ने कहा था कि बस, एकाध साल का चक्कर है. कारोबार तनिक डांवांडोल है. अगले साल तक यह ठीकठाक हो जाएगा. जब सरकार बदलेगी और अफसरों के हाथों में और पैसा खर्च करने के अधिकार आ जाएंगे तब नया माल भी उठेगा और साथ में पुराने डूबे हुए पैसे भी वसूल हो जाएंगे.

शरद बाबू अच्छीभली लगीलगाई 10 साल की सरकारी नौकरी छोड़ कर पुस्तक प्रकाशन के इस संघर्षपूर्ण धंधे में कूद पड़े थे. उन की पत्नी का मायका काफी समृद्ध था. पत्नी के भाई मर्चेंट नेवी में कप्तान थे. बहुत मोटी तनख्वाह पाते थे. बस शरद बाबू आ गए अपनी पत्नी की बातों में. नौकरी छोड़ने के एवज में 10 लाख रुपए मिले और 5 लाख रुपए उन के सालेश्री ने दे दिए यह कह कर कि वे खुद कभी वापस नहीं मांगेंगे. अगर कभी 10-20 साल में शरद बाबू संपन्न हों तो लौटा दें, यह उन पर निर्भर करता है.

शरद बाबू को पुस्तक प्रकाशन का अच्छा अनुभव था. राज्य साहित्य अकादमी का उन का दफ्तर हर साल हजारों किताबें छापता था. जहां दूसरे लोग अपनी सीट पर बैठेबैठे ही लाखों रुपए की हेराफेरी कर लेते वहां शरद बाबू एकदम अनाड़ी थे. दूसरे लोग कागज की खरीद में घपला कर लेते तो कहीं दुकानों को कमीशन देने के मामले में हेरफेर कर लेते, कहीं किताबें लिखवाने के लिए ठेका देने के घालमेल में लंबा हाथ मार लेते. सौ तरीके थे दो नंबर का पैसा बनाने के, मगर शरद बाबू के बस में नहीं था कि किसी को रिश्वत के लिए हुक कर सकें. बकौल उन की पत्नी, शरद बाबू शुरू से ही मूर्ख रहे इस मामले में. पैसा बनाने के बजाय उन्होंने लोगों को अपना दुश्मन बना लिया था. वे अनजाने में ही दफ्तर के भ्रष्टाचार विरोधी खेमे के अगुआ बन बैठे और अब रिश्वत मिलने के सारे दरवाजे उन्होंने खुद ही बंद कर लिए थे.

मन ही मन शरद बाबू चाहते थे कि गुप्त तरीके से दो नंबर का पैसा उन्हें भी मिल जाए मगर सब के सामने उन्होंने अपनी साख ही ऐसी बना ली थी कि अब ठेकेदार व होलसेल वाले उन्हें कुछ औफर करते हुए डरते थे कि कहीं वे शरद बाबू को खुश करतेकरते रिश्वत देने के जुर्म में ही न धर लिए जाएं या आगे का धंधा ही चौपट कर बैठें.

पत्नी बिजनैस माइंडैड थी. शरद बाबू दफ्तर की हरेक बात उस से आ कर डिस्कस करते थे. पत्नी ने शरद बाबू को रिश्वत ऐंठने के हजार टोटके समझाए मगर शरद बाबू जब भी किसी से दो नंबर का पैसा मांगने के लिए मुंह खोलते, उन के अंदर का यूनियनिस्ट जाग उठता और वे इधरउधर की झक मारने लगते. अब यह सब छोड़ कर सलाह की गई कि शरद बाबू अपना धंधा खोलें. 10-12 लाख रुपए की पूंजी से उन दिनों कोई भी गधा आंखें मींच कर यह काम कर सकता था. 5 लाख रुपए उन की पत्नी ने भाई से दिलवा दिए. इन 5 लाख रुपयों को शरद बाबू ने बैंक में फिक्स्ड डिपौजिट करवा दिए. ब्याज दर ही इतनी ज्यादा थी कि 5 साल में रकम डबल हो जाती थी.

शरद बाबू के अनुभव और लगन से किताबें छापने का धंधा खूब चल निकला. हर जगह उन की ईमानदारी के झंडे तो पहले ही गड़े हुए थे. घर की आर्थिक हालत भी अच्छी थी. 5 सालों में ही शरद बाबू ने 10 लाख को 50 लाख में बदल दिया था. पूरे शहर में उन का नाम था. अब हर प्रकार की किताबें छापने लगे थे वे. प्रैस व राजनीतिक सर्कल में खूब नाम होने लगा था.

हरनाम शरद बाबू का लंगोटिया यार था. दरअसल, उसे भी इस धंधे में शरद बाबू ने ही घसीटा था. हरनाम की अच्छीभली मोटर पार्ट्स की दुकान थी. शरद बाबू की गिनती जब से शहर के इज्जतदार लोगों में होने लगी थी, बहुत से पुराने दोस्त, जो शरद बाबू की सरकारी नौकरी के वक्त उन से कन्नी काट गए थे, अब फिर से उन के हमनिवाला व हमखयाल बन गए थे.

हरनाम का मोटर पार्ट्स का धंधा डांवांडोल था. बिजनैस में आदमी एक ही काम से आजिज आ जाता है. दूर के ढोल उसे बहुत सुहावने लगते हैं. इधर, मोटर मार्केट में अनेक दुकानें खुल गई थीं, कंपीटिशन बढ़ गया था और लाभ का मार्जिन कम रह गया था. हरनाम के दिमाग में साहित्यिक कीड़ा हलचल करता रहता था. शरद बाबू से फिर मेलजोल बढ़ा तो इस नामुराद कीड़े ने अपनी हरकत और जोरों से करनी शुरू कर दी थी.

हरनाम ने अपनी मोटर पार्ट्स की दुकान औनेपौने दामों में अगलबगल की और अपनी रिहायशी कोठी में ही एक आधुनिक प्रैस लगवा ली. शुरू में शरद बाबू के कारण उसे काम अच्छा मिला मगर फिर धीरेधीरे उस की पूंजी उधारी में फंसने लगी. सरकारी अफसरों ने रिश्वत ले कर खूब मोटे और्डर तो दिला दिए मगर सरकारी दफ्तरों से बिलों का समय पर भुगतान न होने के कारण हरनाम मुश्किलों में फंसता चला गया.

हरनाम पिछले महीने शरद बाबू से क्लब में मिला तो उन से 2 लाख रुपयों की मांग कर बैठा. शरद बाबू ने कहा कि उन के पैसों का सारा हिसाबकिताब उन की पत्नी देखती है. हरनाम तो गिड़गिड़ाने लगा कि उसे कागज की बिल्टी छुड़ानी है वरना 50 हजार रुपए का और भी नुकसान हो जाएगा. खैर, किसी तरह शरद बाबू ने अपने व्यक्तिगत खाते से रकम निकाल कर दे दी.

किसे पता था कि हरनाम इतनी जल्दी इस दुनिया से चला जाएगा. सोएसोए ही चल बसा. शायद दिल का दौरा था या ब्रेन हैमरेज. आज श्मशान में खड़े लोग हरनाम की तारीफ कर रहे थे कि वह बहुत ही भला आदमी था. इतनी आसान और सुगम मौत तो कम ही लोगों को नसीब होती है.

शरद बाबू सोच रहे थे कि यह नेक बंदा तो अब नहीं रहा मगर उस के साथ नेकी कर के जो 2 लाख रुपए उन्होंने लगभग गंवा दिए हैं, उन की भरपाई कैसे होगी. हरनाम की विधवा तो पहले ही कर्ज के बोझ से दबी होगी.

हरनाम की चिता की लपटें अब और भी तेज हो गई थीं. जब सब लोगों के वहां से जाने का समय आया तो चिता के चारों तरफ चक्कर लगाने के लिए हरेक को एकएक चंदन की लकड़ी का टुकड़ा पकड़ा दिया गया. मंत्रों के उच्चारण के साथ सब को वह टुकड़ा चिता का चक्कर लगाते हुए जलती हुई अग्नि में फेंकना था. शरद बाबू जब चंदन की लकड़ी का टुकड़ा जलती हुई चिता में फेंकने के लिए आगे बढ़े तो एक अनोखा दृश्य उन के सामने आया.

उन्होंने देखा कि चिता में जलती हुई एक मोटी सी लकड़ी के अंतिम सिरे पर सैकड़ों मोटीमोटी काली चींटियां अपनी जान बचाने के लिए प्रयासरत थीं और चिता की प्रचंड आग से बाहर आने के लिए भागमभाग वाली स्थिति में थीं.

एक ठंडी आह शरद बाबू के सीने से निकली. क्या उन के दोस्त हरनाम ने इतने अधिक पाप किए थे कि चिता जलाने के लिए घुन लगी लकड़ी ही नसीब हुई. उन्होंने सोचा कि शायद वह आदमी ही खोटा था जो मरतेमरते उन्हें भी 2 लाख रुपए का चूना लगा गया.

घर आ कर सारी रात सो नहीं पाए शरद बाबू. सुबह अपनी दुकान पर न जा कर वे टिंबर बाजार पहुंच गए. वहां से 3 क्ंिवटल सूखी चंदन की लकड़ी तुलवा कर उन्होंने दुकान के बेसमैंट में रखवा दी और वसीयत करवा दी कि उन के मरने के बाद उन्हें इन्हीं लकडि़यों की चिता दी जाए.

शरद बाबू की पत्नी ने यह सब सुना तो आपे से बाहर हो गईं कि मरें आप के दुश्मन. और ये 3 लाख रुपए की चंदन की लकड़ी खरीदने का हक उन्हें किस ने दिया. शरद बाबू ने हरनाम की चिता में जलती लकड़ी से लिपटती चींटियों का सारा किस्सा पत्नी को सुना दिया और हरनाम द्वारा लिया गया उधार भी बता दिया. पत्नी थोड़ी नाराज हुईं मगर अब क्या किया जा सकता है.

हरनाम को मरे 5 साल हो गए. शरद बाबू अब शहर के मेयर हो गए थे. प्रकाशन का धंधा बहुत अच्छा चल रहा था. स्टोर में रखी चंदन की लकड़ी कब की भूल चुके थे. अब तो उन की नजर सांसद के चुनावों पर थी. एमपी की सीट के लिए पार्टी का टिकट मिलना लगभग तय हो चुका था. होता भी कैसे न, टिकट खरीदने के लिए 2 करोड़ रुपए की राशि पार्टी कार्यालय में पहुंच चुकी थी. कोई दूसरा इतनी बड़ी रकम देने वाला नहीं था.

चुनाव प्रचार के दौरान शरद बाबू एक शाम अपने चुनाव क्षेत्र से लौट रहे थे कि उन का मोबाइल बज उठा. पत्नी का फोन था.

पत्नी ने बताया कि सुबह ही नगर के बड़े सेठ घनश्याम दास की मौत हो गई है. टिंबर बाजार से रामा वुड्स कंपनी का फोन आया था कि सेठ के अंतिम संस्कार के लिए चंदन की लकड़ी कम पड़ रही है. वैसे भी जब से चंदन की तस्करी पर प्रतिबंध लगा है तब से यह महंगी और दुर्लभ होती जा रही है.

शरद बाबू की पत्नी ने उन्हें बताया कि मैं ने दुकान के स्टोर में पड़ी चंदन की लकड़ी बहुत अच्छे दामों में निकाल दी है.

पहले तो शरद बाबू को याद ही नहीं आया कि गोदाम में चंदन की लकड़ी पड़ी है. फिर उन्हें अपने दोस्त हरनाम की मौत याद आ गई और उन की चिता की लकड़ी पर रेंगती चींटियां देख कर भावुक हो कर अपने लिए चंदन की लकड़ी खरीदने का सारा मामला याद आ गया.

उधर, शरद बाबू की पत्नी कह रही थीं, ‘‘10 लाख का मुनाफा दे गई है यह चंदन की लकड़ी. यह समझ लो कि आप के दोस्त हरनाम ने अपने सारे पैसे सूद समेत लौटा दिए हैं.’’

शरद बाबू की आंखें पहली बार अपने दोस्त हरनाम की याद में छलछला उठीं. Hindi Love Stories 

Social Story In Hindi : पनौती – स्टूडैंट मास्टर की दिलचस्प कहानी

Social Story In Hindi : ‘‘ओए पप्पू, क्लास की पिकनिक पर चल रहे हो?’’

‘‘जी, मास्टरजी. मेरा नाम तो अभिषेक है. आप बारबार भूल जाते हैं?’’

‘‘भूलता नहीं हूं, पप्पू. तू मुझे बिलकुल पप्पू लगता है.’’ सारी क्लास हंसने लगी. 8वीं क्लास के इस पीरियड में ये रोज चलने वाली बातें थीं. सब को रट सी गई थीं.

‘‘पता है न, पिकनिक की तैयारी कैसी होनी चाहिए?’’

‘‘जी, मास्टरजी. पिछले साल भी तो गए थे.’’

‘‘वाह, पप्पू तो हर साल पिकनिक पर जाता है.’’

अभिषेक का चेहरा गुस्से से लाल हो गया. पर मास्टरजी का क्या बिगाड़ लेता. उसे समझ न आता कि ये इतिहास पढ़ाने वाले सोमेश सर उस से इतना चिढ़ते क्यों हैं. अभिषेक क्लास का होशियार स्टूडैंट है, कभी फर्स्ट आता है, कभी सैकंड. पर सोमेशजी आते ही उसे घूरते हैं, उस की जाति का घुमाफिरा कर अपमान भी कर देते हैं. कम से कम किसी टीचर को अपनी क्लास में इस बात से दूर रहना चाहिए. उन की नजर में सब बच्चों को बराबर होना चाहिए. पर जब से स्कूल के माली विनोद ने अपने बेटे अभिषेक का एडमिशन इस स्कूल में करवाया है, सोमेशजी ने उस की नाक में दम कर रखा है.

आजकल तो वे अभिषेक को खुल कर पनौती भी कहने लगे हैं, अभिषेक चुप रहता है. अपने मातापिता की बात का आदर करते हुए चुपचाप पढ़ाई पर वह ध्यान दे रहा है. यह एक छोटे से शहर जौनपुर का हिंदी मीडियम बौयज स्कूल है. अब कल पिकनिक पर बच्चों को बनारस ले जाया जा रहा है. बच्चे मंदिर, घाट देखेंगे, सारनाथ जाएंगे. स्पोर्ट टीचर अनिल सर सब व्यवस्था देख रहे हैं, उन की हैल्प कर रहे हैं, सोमेश सर.

‘‘कल तुम लोगों को सारनाथ दिखाएंगे, इतिहास में बुद्ध से जुड़ी यह काफी महत्वपूर्ण जगह है. बहुत से विदेशी भी वहां आते हैं. कल हमारा पप्पू भी सारनाथ देखेगा.’’

बच्चे हंसने लगे. अभिषेक फिर अपमान का घूंट पी कर रह गया. उस के बाद सोमेशजी ने कुछ सारनाथ के बारे में ही बताया, बुद्ध के उपदेशों के बारे में बात की. अगले पीरियड की घंटी बजी तो अभिषेक की जान में जान आई. अब उस के दोस्त रमेश, सोहन और अमित उस के पास आ कर बैठे. रमेश ने कहा, ‘‘यार, सोमेश सर क्या पकाते हैं. अभिषेक के तो पीछे ही पड़ गए हैं. पप्पूपप्पू कर के दिमाग की ऐसीतैसी कर दी है. इन का करें क्या?’’

‘‘छोड़ यार, इसी साल की बात है. अगले साल मैं इतिहास विषय तो लूंगा नहीं. झेल लेंगे इस साल.’’

रोज की तरह स्कूल का टाइम बीता. अगले दिन सब बच्चे पूरी तैयारी के साथ चले पिकनिक. बस में बैठने से पहले लाइन में लगे हुए बच्चों को देखते हुए सोमेश सर ने कहा, ‘‘अरे, पप्पू पनौती कहां है?’’ बच्चों ने लाइन में खड़े अभिषेक की तरफ इशारा कर दिया.

अमित सर ने टोका, ‘‘क्या सोमेशजी, क्यों बच्चे को परेशान करते हैं? इतना अच्छा, शांत बच्चा है.’’

‘‘अरे, पनौती है, पनौती. सुबह उसे देख लेता हूं, तो मेरा पूरा दिन खराब जाता है.’’

बच्चे बस में एकएक कर के चढ़ते गए, अभिषेक अपने दोस्तों के साथ बैठ गया. सोमेशजी ने कहा, ‘‘चलो ड्राइवर, मैं एक शौर्टकट बताता हूं.’’

ड्राइवर ने पूछा, ‘‘कौन सा?’’

‘‘तुम चलो तो सही,’’ कुछ बच्चे बैठते ही घर से लाया सामान खाने लगे तो सोमेशजी ने डांट लगाई, ‘‘अरे, बस तो चलने दो. चलो, ड्राइवर, सीधे चलो, अब दाएं से, अब सीधे, अब नीचे से ले लो, अब बाएं से,’’ इसी तरह से दिशानिर्देश देते हुए सोमेशजी ड्राइवर के बराबर वाली सीट पर ही बैठ गए. गरदन अकड़ा कर वे बोले, ‘‘यह रास्ता तो आंख बंद कर के भी बता सकता हूं,’’ एक घंटे तक सोमेशजी खुद बोलते रहे, ड्राइवर ने जब भी बोलने की कोशिश की, डांट कर उसे चुप करा दिया. अनिल सर ने कहा, ‘‘सोमेशजी, यह रास्ता पक्का शौर्टकट है? मैं तो अभी इस एरिया में नया हूं.’’

‘‘आप चिंता न करें, अनिलजी. आज मैं ने पिकनिक की पूरी जिम्मेदारी ली हुई है. देखना, सब कितना एंजौय करेंगे,’’ कहतेकहते सोमेशजी की आवाज अचानक धीरे हुई, सब चौंके, अमित ने अभिषेक के कान में कहा, ‘‘देखना, पक्का यह गलत रास्ते पर ले आए हैं. आवाज का कौन्फिडैंस कुछ हिला हुआ नहीं है?’’

तीनों दोस्त हंस दिए, थोड़ी तेज आवाज में. ऐसे मौके अभिषेक ग्रुप को जरा कम ही मिलते थे. यह भी पता था, आज पिकनिक है, ज्यादा टोकाटाकी नहीं की जाएगी. और अनिल सर भले इंसान हैं, ये भी सब को पता था. सोमेशजी की आवाज आई, ‘‘पता नहीं, बस में कौन पनौती बैठा है,’’ कहतेकहते उन्होंने अभिषेक को देखा, हंसे, कहा, ‘‘हां, भाई ड्राइवर, शायद गलत शौर्टकट पकड़ लिया, अब तुम्हें जो रास्ता ठीक लगे, वही ले लो.’’

ड्राइवर को गुस्सा तो बहुत आया, कहा, ‘‘मास्टरजी, आप तो बोलने ही नहीं दे रहे थे.’’

‘‘हां, तो चलो, अब बोल लो,’’ सोमेशजी ने ढीठता से कहा. ड्राइवर मुंह में ही बहुत देर तक बुदबुदाया कि डेढ़ घंटे का रास्ता 4 घंटे में पूरा हुआ. अब तक एक बज रहा था, बच्चों को भूख लग आई थी. बस सारनाथ पहुंची. सोमेशजी ने कहा, ‘‘चलो, पहले तुम लोगों को लंच करवाते हैं, गरीबदास हलवाई के यहां से खाना पैक करवाया है, 4 तरह की सब्जियां हैं. चलो, सब लाइन लगा कर उतरो, फ्रैश हो कर ग्राउंड पर गोल घेरा बना कर बैठो. आओ, अनिलजी, हम तब तक यहां के मैनेजर से मिल लेते हैं.’’

स्कूल के 2 कर्मचारी विमल और अजीत भी साथ आए थे, वे सब बच्चों को ले कर आगे बढ़ गए. बड़ा सा गोल घेरा बन गया, विमल और अजीत खाने के बैग में से सामान निकालने लगे, डिस्पोजेबल प्लेट्स और गिलास हर बच्चे को दिए गए, फिर सब की प्लेट में सब्जियां डाल दी गईं, सब्जियों की खुशबू से सब की भूख और तेज हो गई.

एक तरफ सोमेश और अनिल भी बैठ गए. इतने में विमल की घबराई आवाज आई, ‘‘सरजी, रोटी कहां हैं?’’

‘‘अरे, सब्जियों के साथ ही होगी. मैं थोड़े ही हाथ में ले कर बैठा हूं.’’

‘‘सरजी, रोटी नहीं हैं.’’

‘‘क्या?’’ अमित और सोमेश तुरंत उठ खड़े हुए, थैले उलटेपुलटे गए. रोटियां नहीं थीं. सोमेश ने तुरंत गरीबदास की दुकान पर फोन लगाया, कुछ बातें करते रहे, हां, ओह, अरे, की आवाज आती रही. फोन रख कर वे बोले, ‘‘हलवाई कह रहा है, मैं ने सिर्फ सब्जियां ही बोली थीं, मैं रोटी का और्डर देना ही भूल गया था.’’

सोमेश के चेहरे पर शर्मिंदगी थी, बच्चों के चेहरे लटक गए थे. अनिल ने कहा, ‘‘विमल, अजीत बाहर बहुत से ढाबे हैं, जल्दी से उन से रोटियां ले आओ. बच्चों, थोड़ा टाइम लगेगा, तब तक कुछ अपना खाना चाहो तो खा लेना.’’

सोमेश की नजरें फिर मुसकराते हुए अभिषेक और उस के दोस्तों पर पड़ीं, तो वे चिढ़ गए, अभिषेक को देखते हुए जोर से कहा, ‘‘पता नहीं, आज पिकनिक में कौन पनौती आया है.’’

अभिषेक भी हंस दिया, ‘‘सर, हम भी यही सोच रहे थे.’’

और बच्चे भी अभिषेक और सोमेश सर के बीच चल रहे इस संवाद का मतलब खूब समझते थे, वे सब भी हंस दिए. सोमेशजी का मूड और खराब हो गया. बाहर से रोटियां आईं, बच्चे खाने पर टूट पड़े. पिकनिक का फुल माहौल बना. खानापीना, गाना हुआ. फिर सारनाथ घूमा गया. अच्छी शांत जगह थी. सब खुश थे. अब साढ़े 3 बज रहे थे. बच्चों ने कहा, ‘‘थोड़ा गेम खेलें, सर?’’

‘‘चलो, विमल, रस्सी ले आओ बस से,’’ अनिल सर ने कहा, तो बच्चे खुश हो गए.

रस्सी के एक कोने को अनिल सर और कुछ बच्चों ने पकड़ा, दूसरा सिरा सोमेश और बाकी बच्चों ने. सोमेशजी ने पहले ही कह दिया था, ‘‘अभिषेक, तुम अनिलजी की तरफ जाओ, मैं अपनी साइड कोई पनौती नहीं लूंगा.’’

अनिल सर को उन की इस बात पर बहुत गुस्सा आता था, पर सोमेश उन से बहुत सीनियर थे, वे अभी ही स्कूल में आए थे तो कोई बहस नहीं करना चाहते थे. अभिषेक उन्हें प्रिय था, उन्होंने उस से कहा, ‘‘आओ, जीतना है.’’

रस्साकशी शुरू हो गई, जिस तरफ सोमेशजी थे, वह टीम हार गई, अभिषेक जोरजोर से हंसा. सोमेशजी का मन किया कि उसे एक चांटा रसीद कर दें, पर किस बात पर करते. अभिषेक ने किया क्या था. चुप ही रह गए. घाट, मंदिर घूमफिर कर सब वापस लौट आए, पिकनिक बढि़या रही थी.

कुछ दिन स्कूल में आम दिनों से ही बीते. हां, सोमेशजी का पप्पूपप्पू का गाना चलता रहा था. फिर टीचर्स, स्टूडैंट्स एनुअल फंक्शन की तैयारियों में व्यस्त हो गए. सोमेशजी ने जानबूझ कर अभिषेक को एनुअल फंक्शन के एक भी प्रोग्राम में नहीं लिया. और हद तो यह कि अभिषेक के पास से निकलते हुए वे गाना गुनगुनाने लगते कि ‘पप्पू कांट डांस साला.’ अभिषेक घर जा कर अपने पेरैंट्स को बताता भी तो क्या. उन्हें दिनभर मेहनत करते देखता, दोनों कुछ न कुछ काम करते ही रहते. उसे पढ़ालिखा कर बड़ा आदमी बनाने का ही सपना देखते थे. वह अपना दुख अपने मन में ही रख कर मुसकराता रहता. अब यही सोचता कि अगले साल इतिहास का सब्जैक्ट रहेगा ही नहीं, तो परेशानी नहीं होगी.

एनुअल फंक्शन के दिन सुबह से ही स्कूल में बड़ी रौनक थी. स्टेज पर प्रोग्राम चल रहे थे. सबकुछ बहुत अच्छा चल रहा था. पर सोमेशजी का कुछ अतापता नहीं था. प्रिंसिपल और बाकी टीचर्स हैरान थे, सब हैं, यह सोमेशजी का कुछ पता नहीं चल रहा है. एक टीचर ने बताया कि आजकल वे अकेले ही हैं, उन का परिवार किसी शादी में बाहर गया हुआ है. अचानक दोपहर में सोमेशजी प्रकट हुए, प्रिंसिपल ने उन्हें गुर्रा कर क्याक्या कहा, सब बच्चों ने सुना. सोमेशजी मिमिया रहे थे, ‘‘पता नहीं, कैसे देर तक सोता रह गया. घर में कोई है नहीं, आंख ही नहीं खुली.’’

अभिषेक ने यह बात सुनी तो वह जोर से हंस दिया. एक तो बच्चों के सामने अपमान, दूसरे अभिषेक की हंसी. सोमेशजी का पारा चढ़ गया, बोले, ‘‘पप्पू पनौती, तेरे आसपास होने से ही सब काम बिगड़ते हैं. तुझे मैं बताता हूं, देखना.’’

उन्होंने अपने प्रिय शिष्य, क्लास के मौनिटर अभिजीत शुक्ला को बुलाया, आदेश दिया, ‘‘इस पनौती को मेरी क्लास में मत आने देना. मैं इसे पनिशमैंट दे रहा हूं, यह 4 दिन क्लास के बाहर खड़ा रहेगा. बाहर खड़ा हो कर जितना हंसना हो, हंस लेगा.’’

प्रिंसिपल अब तक सोमेशजी पर गुर्रा कर जा चुके थे. अभिजीत ने अपनेआप को हीरो समझते हुए स्टाइल से कहा, ‘‘यस सर.’’ किसी भी क्लास में टीचर के प्रिय स्टूडैंट का जोश अलग ही रहता है.

सोमेशजी का मूड अगले कुछ दिन बहुत खराब रहा. 4 दिन तो उन्होंने अभिषेक को अपनी क्लास के बाहर ही खड़ा रखा. वह भी चुपचाप बाहर ही खड़ा हो कर अपनी किताबों में से कुछ पढ़ता ही रहा. उस के पास सारे अपमान का एक ही जवाब था, मेहनत, अच्छे नंबर लाना. परीक्षाएं हुईं, फिर रिजल्ट आने तक स्कूल की छुट्टियां हो गईं. अभिषेक ने हमेशा की तरह रातदिन मेहनत की थी. वह बहुत खुश था कि अब सोमेश सर से उस का पीछा छूट जाएगा. पर उसे एक डर भी था कि कहीं उसे जानबूझ कर कम नंबर दे कर सोमेश सर उस का रिजल्ट न खराब कर दें.

एनुअल फंक्शन के बाद से उन्होंने उस से कोई बात नहीं की थी, सिर्फ बुरी तरह घूरा था. रिजल्ट का दिन आया. सोमेश सर एकएक बच्चे का नाम पढ़ कर नंबर बताते और उसे उस की आंसरशीट देने लगे. बच्चों के दिल की धड़कन बढ़ी हुई थी. पिनड्रौप साइलैंस था. उन्होंने इस बार अभिषेक को जानबूझ कर बहुत कम नंबर दिए थे, यह सच था. उस की आंसरशीट में अपनी तरफ से कितनी ही जगह लाललाल गोले बना दिए थे. उन्होंने आवाज दी, ‘‘अभिजीत, 50 नंबर.’’

अभिजीत पढ़ाई में अभिषेक से कम न था. वह हैरान सा बोला, ‘‘सर, मेरा पेपर तो बहुत अच्छा हुआ था. इतने कम मार्क्स.’’ सोमेशजी ने फौरन अभिषेक की आंसरशीट निकाली, ‘‘अभिषेक, 80 नंबर,’’ कह कर उन्होंने अपना सिर पकड़ लिया. उन्होंने तो अपनी तरफ से अभिजीत को सब से ज्यादा नंबर दिए थे, ओह! नाम एक से हैं, कन्फ्यूजन हो गया शायद. अभिजीत उन्हें गुस्से से घूर रहा था. सोमेशजी ने कहा, ‘‘ओह, इस पप्पू के नंबर सब से ज्यादा आ गए, यह सचमुच पनौती है.’’

‘‘सर, मुझे तो कोई और ही पनौती लग रहा है, इतने दिन से सब देख रहे हैं, काम कौन बिगाड़ता है.’’

उन्मुक्त हंसी की एक लहर पूरी क्लास को भिगो गई.

अचानक ‘‘पनौती कोई और नहीं, आप हैं, आप हैं, आप हैं,’’ कह कर अभिजीत फूटफूट कर रोने लगा. क्लास का यह सन्नाटा सब को उदास कर गया था. अभिषेक के मन में अभिजीत के लिए दुख था, पर मास्टरजी अब उसे कभी पनौती नहीं कहेंगे, इस बात पर खुशी भी थी. वह लगातार सोमेशजी को भोली मगर शरारती मुसकान के साथ देख रहा था, वे कहीं और देख रहे थे. Social Story In Hindi 

Family Story : नया जीवन – परिवार को जोड़ने वाली कहानी

Family Story : मौसी मजबूरी में अंतरा के पास रहने तो आ गईं पर इस अनजान घर में उन्हें बड़ा अजीब व अटपटा सा लग रहा था. वे चारपाई पर लेटी हुई रातभर करवटें बदलती रहीं, पता नहीं कब सुबह होगी.

रोज की तरह सुबह अंतरा जल्दी उठ गई और किचन में जा कर चाय बनाने लगी. वह सोच रही थी, अब तो मौसी भी घर में हैं, उन का पहला दिन है, नाश्ता भी ढंग का होना चाहिए. उस ने आलू उबलने रख दिए. सोचा, पूरी के साथ आलू की सब्जी और अचार ठीक रहेगा, बाकी फिर माहौल के हिसाब से देखा जाएगा.

खटरपटर सुन कर मौसी उठ कर किचन में आ गईं और बोलीं, ‘‘क्या कर रही हो, बहू.’’

‘‘आप के लिए चाय बना रही हूं, आप नाश्ते में क्या लेंगी? आप तो शाकाहारी हैं न?’’ अंतरा ने हंस कर पूछा.

‘‘हूं तो पूरी शाकाहारी लेकिन मेरे लिए कुछ खास बनाने की जरूरत नहीं है. जो सब खाते हैं वही खा लूंगी,’’ मौसी ने मुसकरा कर कहा, ‘‘अगर तुम लोग मांसमछली खाते हो तो मेरी चिंता मत करना, मैं छूआछूत नहीं मानती.’’

‘‘यह बड़ी अच्छी बात है, मौसी. हमारी तो जब बूआजी आती हैं तो सारे बरतन अलग रखवा देती हैं. नए बरतन निकालने पड़ते हैं,’’ अंतरा ने सिर हिलाते हुए कहा.

‘‘अब मौसी, आप की तरह तो हर आदमी समझदार नहीं होता,’’ अंतरा ने थोड़ा मुंह बना कर मौसी को चाय पकड़ाते हुए कहा, ‘‘अब हमारे पिताजी को ही लो, बड़े तुनकमिजाज हैं. कभी कुछ चाहिए तो कभी कुछ. यह भी नहीं देखते कि मुझे दफ्तर जाने में देरी हो रही है. कभीकभी तो मैं बड़ी परेशान हो जाती हूं.’’

‘‘अब बुजुर्ग हैं,’’ मौसी ने समझते हुए कहा, ‘‘समझने में तो समय लगता ही है. अब पत्नी के जाने के बाद उन का तुम लोग खयाल नहीं रखोगे तो कौन रखेगा.’’

अंतरा को हंसी आ गई. मौसी के सारे नखरे रानी ने पहले ही बता दिए थे.

‘‘आप का कहना सच है, मौसी. अपनी तरफ से तो हम कोई कसर नहीं छोड़ते,’’ अंतरा बोली, ‘‘बस, कभीकभी सहना मुश्किल हो जाता है. तनावभरा जीवन है न.’’

‘‘सो तो है, मैं क्या जानती नहीं,’’ मौसी ने कहा, ‘‘मेरे लिए कोई काम हो तो जरूर बता देना. दिनभर बैठीबैठी करूंगी भी क्या.’’

‘‘जरूर बता दूंगी, मौसी. अभी तो जा कर आप आराम करिए,’’ अंतरा ने मुसकरा कर कहा.

मौसी को सुन कर अच्छा लगा.

नाश्ते के समय मौसी की मौजूदगी का खयाल कर के अंतरा के ससुर निहालचंद ने खुद पर काबू रखा और जो कुछ सामने रखा था, चुपचाप खा लिया.

अंतरा तो डर रही थी कि पिताजी कुछ कह कर बदमजगी न पैदा कर दें. मौसी क्या सोचेंगी.

औफिस जाते समय अंतरा ने रोज की तरह कहा, ‘‘पिताजी, आप का और मौसी का खाना बना कर हौटकेस में रख दिया है. आज मैं ने सूजी का हलवा भी बना दिया है. फ्रिज में रखा है. हां, दही भी है. जाऊं.’’

अंतरा के ससुर निहालचंद आदत के अनुसार ताना देतेदेते रुक गए. कहना चाहते थे जैसे हलवा रोज बना खिलाती है. क्या दिखावा कर रही है पर मौसी को देख कर चुप हो गए. अंतरा ने गहरी सांस ली.

जब 11 बजे तो निहालचंद को चाय की तलब लगी. यह उन की रोज की आदत थी. थोड़ा ?िझके पर कुछ सोच कर उठे और चाय बनाने लगे. किचन में आवाज सुन मौसी आ गईं.

‘‘अरे हटिए, मैं चाय बना देती हूं.’’ मौसी ने अधिकार से कहा.

‘‘नहींनहीं, मौसी,’’ निहालचंद के मुंह से निकला, ‘‘मैं तो रोज ही बनाता हूं और अच्छी भी.’’

‘‘देखिए, भाईसाहब,’’ मौसी ने मुंह सिकोड़ कर कहा, ‘‘मैं आप की मौसी नहीं हूं.’’

‘‘यह तो सच है, शतप्रतिशत सच है,’’ निहालचंद ने चिढ़ कर कहा, ‘‘लेकिन मैं भी आप का भाईसाहब नहीं हूं.’’

मौसी को हंसी आ गई, ‘‘चलिए, दोनों का हिसाब बराबर हो गया. अगर मैं बच्चों की मौसी हूं तो आप इस रिश्ते से मेरे जीजा हो गए.’’

‘‘और आप मेरी साली,’’ निहालचंद खुल कर हंस पड़े, ‘‘लीजिए, इसी बात पर मेरे हाथ की स्वादिष्ठ चाय

हाजिर है. दार्जिलिंग की शुद्ध पत्ती मंगवाता हूं.’’

‘‘दार्जिलिंग तो बहुत दूर है, मैं तो अपने आंगन की तुलसी की चाय बनाती हूं, खुशबूदार और गुणसंपन्न,’’ मौसी ने चाय का घूंट ले कर कहा, ‘‘सचमुच, बहुत अच्छी है. क्या कहूं, इस घर में न तो बहू इस समय चाय बनाती है और

न ही बनाने देती है. मन मार कर रह जाती हूं.’’

‘‘अब जब तक आप यहां पर हमारी मेहमान हैं, रोज मैं आप को चाय पिलाऊंगा. मन मान कर नहीं मन भर कर पीजिए,’’ हंसते हुए निहालचंद उठे और जूठे प्याले उठाने लगे.

‘‘अरेअरे,’’ मौसी ने प्याला पकड़ते हुए कहा, ‘‘अब कुछ मेरे लिए भी तो छोडि़ए.’’

निहालचंद मुसकरा कर रह गए. दरअसल वे जूठे बरतन रोजाना ऐसे ही छोड़ देते थे. जब अंतरा आती थी तो उठाती थी और उसे उन की इस आदत से बेहद चिढ़ होती थी. वह सोचती थी कि पिताजी जानबूझ कर उसे चिढ़ाने के लिए ऐसा करते हैं.

2 दिनों बाद मौसी ने कहा, ‘‘बहू, तुम्हें सुबह बहुत काम रहते हैं. तुम अपना नाश्तापानी कर लिया करो. मैं खाली बैठी रहती हूं. बाकी का काम मैं संभाल लूंगी. ऐसे मेहमानों की तरह कब तक बैठी रहूंगी.’’

‘‘नहीं, मौसी,’’ अंतरा ने विरोध किया, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है. आप थोड़े दिनों के लिए तो आई हैं. आप चिंता मत करिए. मुझे काम करने की आदत है.’’

‘‘बहू, मुझे अच्छा नहीं लगता. बस, मैं ने कह दिया, अब मुझे कुछ न कुछ तो करना ही है,’’ मौसी ने लगभग डांटते हुए कहा.

अंतरा को मालूम था कि अपने घर में अगर उन से कोई काम करने को कह दे तो मौसी अपनी बहू रानी की मुसीबत कर देती थीं. यहां तक कि मां भी दुखी हो जाती थीं.

‘‘ओह, नहीं न मौसी, आप को कुछ नहीं करना है. रानी मुझ से झगड़ा करेगी,’’ अंतरा ने हठ किया.

‘‘कौन होती है, रानी,’’ मौसी ने गुस्से से कहा, ‘‘मैं जानती हूं, उस ने मेरी बड़ी बुराई की होगी. दरअसल वह मेरी लाचारी का फायदा उठाती है. कभीकभी तो सोचती हूं, मेरे सोनूमोनू की बहुएं ही क्या बुरी थीं.’’

‘‘अरे, क्या आप की अपनी बहुएं आप की सेवा नहीं करतीं,’’ अंतरा ने ऊपरी सहानुभूति जताते हुए कहा, ‘‘सच, कितने अरमानों से लोग बहू घर में लाते हैं.’’

मौसी की अपनी बहुओं से बिलकुल नहीं बनती थी, यह सब जानते थे लेकिन दूसरे के मुंह से उन की बुराई सुनना मौसी को अच्छा नहीं लगा.

‘‘अरे नहीं, बहू, आजकल की हवा ही खराब है. वे इतनी बुरी भी नहीं हैं,’’ मौसी ने मक्खी उड़ाते हुए कहा, ‘‘अब तुम भी तो काम करती हो. इस बुढ़ापे में ससुर की पूरी सेवा करती हो. देख कर अच्छा लगता है. अगले जनम में अच्छा ही फल मिलेगा.’’

‘‘मौसी, अगला जनम किस ने देखा है. मैं तो पूरी स्वार्थी हूं. सारे फल इसी जनम में चाहती हूं,’’ अंतरा ने मुसकरा कर कहा.

मौसी को भी हंसी आ गई, ‘‘तू कितनी अच्छी बातें करती है. खैर, असल मुद्दा यह है कि जब तक मैं यहां हूं, तू घर की चिंता मत कर, मैं सब संभाल लूंगी. तेरे दफ्तर जाने से मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.’’

अंतरा को डर लगा कि कहीं उस के ज्यादा मना करने से मौसी बुरा न मान जाएं. जल्दी से उन की बात मान ली. संतोष की गहरी और ठंडी सांस ली. इस चक्कर में अपने ससुर के चेहरे पर ढीली पड़ती शिकन दिखाई नहीं दी.

रसोई का काम हाथ में आते ही मौसी के ढीले शरीर में चुस्ती आ गई. अब वे बेरोकटोक मनपसंद खाना बना सकती थीं और निहालचंद के मुंह से अपनी तारीफ भी सुन सकती थीं. वे कभीकभी निहालचंद की पसंद के नएनए व्यंजन बनातीं. निहालचंद भी बस उन पर निहाल हो गए. उन का चिड़चिड़ापन छूमंतर हो गया. खुशमिजाजी लौट आई. सब से बड़ी बात यह थी कि उन का साथ देने वाला कोई मिल गया था जो उन की बातें पूरी सहानुभूति से सुनता भी था.

अकसर वे दोनों अपने सुखदुख की बातें कर लेते थे. उन्हें बहुत शांति मिलती थी. नजदीकी बढ़ने से एकदूसरे को जीजासाली कह कर थोड़ी छेड़खानी भी कर लेते थे. जीवन सुखमय हो रहा था.

दोपहर का समय काटने के लिए निहालचंद ने टांड़ पर से कैरम बोर्ड उतार लिया था. ताश भी ले आए थे. खेलना तो खास आता नहीं था. एकदूसरे के अनाड़ीपन पर हंस भी लेते थे.

देखतेदेखते एक महीना कैसे गुजर गया, पता ही नहीं लगा. मौसी के जाने का समय आ गया.

पड़ोसियों को भी मसाला मिल गया था. कानाफूसी करते थे कि बुड्ढेबुढि़या का कोई चक्कर चल रहा है. चलतेफिरते कभीकभी हलकेफुलके ताने भी कानों में पड़ जाते थे. नजरअंदाज करने के अलावा कोई चारा नहीं था.

दरअसल मौसी किसी की भी सगी मौसी नहीं थीं. बस, सब के लिए मुसीबत बनी हुई थीं. अंतरा और मनु के घर रहने आने के पीछे एक लंबी कहानी थी. यह एक निष्कपट प्रयोग था.

सपन अंतरा के पति मनु का सहयोगी, सहकर्मी व मित्र सबकुछ था. एक दिन सपन को बहुत दुखी देख मनु ने पूछ लिया कि आखिर बात क्या है.

‘यार, मेरी दूर के रिश्ते की एक मौसी है. मौसाजी की मृत्यु के बाद उसे कुछ ऐसा लगने लगा कि उस के दोनों बेटे और बहुएं उस की उपेक्षा करते हैं. मौसाजी ने एक गलती यह की थी कि मकान अपनी पत्नी के नाम नहीं किया था. एक दिन रोधो कर मां के पास अपनी कहानी सुनाने आ गई,’ यह कह कर सपन गिलास उठा कर जैसे ही पानी पीने लगा, मनु बोला, ‘मैं समझ रहा हूं, तू आगे क्या कहने वाला है.’

‘क्या.’

‘पहले तू अपनी बात पूरी कर ले, फिर मेरी सुनना,’ मनु बोला.

‘तरस खा कर मां ने उसे कुछ समय अपने पास आने व रहने का निमंत्रण दे दिया. वह तो मानो आने को तैयार बैठी थी, सो, कुछ दिनों बाद ही अपनी गठरी ले कर आ गई,’ सपन ने सिर हिलाते हुए गहरी सांस ली.

‘तो इस में बुरा क्या हुआ?’ मनु ने पूछा.

‘अरे, अब वह जाने का नाम नहीं लेती. मां ने कहा भी कि जाओ बेटों के पास, तो कहती है, ‘मुझे जहर ला कर दे दो. किसी घर में भी नौकरानी की तरह रह लूंगी, पर वहां नहीं जाऊंगी,’ सपन ने दुखी हो कर कहा.

‘यार, तू कुछ समझ नहीं. इतनी सी बात होती तो दुखड़ा क्यों रोता,’ सपन ने कहा, ‘दरअसल मौसी बड़े टेढ़े स्वभाव की है. मां से तो कुछ कहती नहीं, रानी से झगड़ती रहती है कि यह ऐसे क्यों कर दिया, तुझे सलीका नहीं है, तुझे ढंग का खाना बनाना नहीं आता और न जाने क्याक्या. अब हम समझ गए हैं कि क्यों मौसी की अपनी बहुओं से नहीं बनती थी. सब रानी झेल रही है.’

‘है तो यह विकट समस्या,’ मनु ने स्वीकारा, ‘पर यार, हम भी कम नहीं झेल रहे हैं. मेरी समस्या कुछ हट कर है. लेकिन है कुछ तेरी जैसी ही.’

‘तू भी अपनी कहानी कह डाल,’

सपन ने मुसकरा कर कहा,

‘कहते हैं न कि बांटने से दुख कम होता है और सुख बढ़ता है.’

मनु के पिता निहालचंद अच्छे इंसान थे. अंतरा से कभी कोई शिकायत नहीं थी. उस के नौकरी करने पर भी कोई आपत्ति नहीं थी. अपनी पत्नी के देहांत के बाद अकेलापन खलने लगा था. उदास भी रहते थे. धीरेधीरे उन की आदतें बदलने लगीं. जो कुछ घर के कामों में हाथ बंटाते थे, अब हाथ खींच लिया. खाली दिमाग तो होता ही शैतान का घर है. अंतरा के काम पर जाने से उन्हें बुरा लगने लगा. सुनासुना कर कहते थे, घर में अकेले रहते हैं, कोई उन का खयाल नहीं रखता. अगर सुबह का नाश्ता जल्दी बना दिया तो शिकायत, नहीं बना पाई तो वह भी मुसीबत. चाय बना कर सामने रख दी तो अखबार पढ़ने लगे और फिर चाय ठंडी हो गई तो डांट लगा दी. एक दिन तो हद ही कर दी.

अंतरा ने अंडाटोस्ट बना कर व गरम दूध सामने रखते हुए कहा था, ‘पिताजी, नाश्ता रख दिया है. मैं दफ्तर के लिए तैयार होने जा रही हूं.’

निहालचंद ने सुन तो लिया पर अखबर सामने से नहीं हटाया.

काफी देर बाद ऊंची आवाज में बोले, ‘बहू, यह ठंडा नाश्ता क्या मेरे लिए था.’

‘पर पिताजी, मैं ने तो गरम बना कर रखा था और आप को बोल कर भी आई थी,’ अंतरा ने शालीनता से ही कहा था.

तभी मनु सामने आ कर बोला, ‘मैं ने खुद सुना था. अंतरा ने आप को बता कर गरम नाश्ता रखा था. अब

आप देर तक न खाएं तो उस का क्या कुसूर है.’

‘तू चुप रह,’ निहालचंद ने डांट कर कहा, ‘क्या मैं झठ बोल रहा हूं.’

अंतरा से न रहा गया. वह बोली, ‘आप क्यों झठ बोलेंगे, हम ही झठ कह रहे हैं.’

‘कुछ कहा तुम ने?’ निहालचंद ने अखबार नीचे फेंकते हुए कहा.

‘जी नहीं, मैं ने कुछ नहीं बोला,’ अंतरा दूध का गिलास उठाती हुई बोली, ‘अभी गरम कर के लाती हूं. टोस्ट भी और बना देती हूं.’

‘रहने दो बहू, तुम्हें दफ्तर पहुंचने में देर हो जाएगी. देर होगी तो तुम्हारा बौस तुम्हें डांटेगा. तुम्हारा बौस तुम्हें डांटेगा तो तुम रोतेरोते मेरी बुराई करोगी,’ निहालचंद ने कटुता से पूछा, ‘मैं ने ठीक कहा न?’

मनु ने अंतरा को खींचते हुए कहा, ‘हम जा रहे हैं, पिताजी. देर हो रही है. जब काली आए तो उसी से गरम करवा लेना. वैसे, आप भी इतना तो कर ही सकते हैं.’

दुखी हो कर मनु अंतरा से कह रहा था. ‘क्या करूं समझ नहीं आता. अचानक पिताजी को क्या हो जाता

है. सारी झंझलाहट तुम्हारे ऊपर ही उतारते हैं.’

‘चिंता मत करो,’ अंतरा ने मुसकरा कर कहा, ‘झेलने के मामले में मैं इतनी कमजोर नहीं हूं.’

‘ऐसा क्यों नहीं करतीं,’ मनु ने सुझव दिया, ‘कुछ दिनों की छुट्टी ले कर घर पर पिताजी की सेवा करो. शायद खुश हो जाएं.’

‘न बाबा,’ अंतरा ने सिहर कर कहा, ‘यह तो मेरे लिए बड़ी सजा होती. मैं नौकरी नहीं छोड़ूंगी.’

मनु और सपन बहुत देर तक अपनीअपनी समस्याओं का विश्लेषण करते रहे और एकदूसरे के प्रति सहानुभूति भी दिखाते रहे. बहुत दूर तक कोई हल नहीं सूझ रहा था.

‘‘तो पिताजी की समस्या है अकेलापन,’’ सपन ने बहुत सोच कर कहा, ‘‘अगर कोई साथी उन्हें मिल जाए तो शायद बात बन जाए.’’

‘‘पर साथी कहां से लाऊं?’’ मनु ने निरुत्साह से कहा, ‘‘क्या सौतेली मां ले आऊं?’’

‘‘अरे नहीं, इतनी दूर सोचने की जरूरत नहीं है,’’ सपन ने कुटिल मुसकान से कहा, ‘‘मुझे एक प्रयोग सूझ है. एक तीर से दो निशाने. बस, तीर निशाने पर बैठना चाहिए.’’

‘‘अब कुछ बक भी,’’ मनु ने झंझला कर कहा.

‘‘ध्यान से सुन. तू हमारी मौसी को एक महीने के लिए अपने घर में रख ले. मौसी की आबोहवा बदल जाएगी और तेरे पिताजी को संगसाथ मिल जाएगा,’’ सपन ने कहा, ‘‘हां, अगर तू भी परेशान हो जाए तो मेरा सिक्का पहले भी वापस कर सकता है.’’

मनु बहुत देर तक सोचता रहा और फिर गहरी सांस ले कर बोला, ‘‘बात में दम तो है पर अंतरा से पूछना पड़ेगा.’’

‘‘ठीक है, हम चारों मिल कर कल एक मीटिंग रख लेते हैं.’’

चारों ने मिल कर यह प्रयोग करने का निर्णय किया. मौसी को बस इतना बताना था कि सपन, रानी और मां को ले कर एक महीने के लिए छुट्टी ले कर बाहर जा रहा है. तब तक मौसी का अपने एक मित्र के यहां रहने का बंदोबस्त कर दिया है.

यह सुन कर पहले तो मौसी बहुत उखड़ीं पर उन के पास कोई चारा न था. अकेले घर में रह नहीं सकती थीं और बेटों के पास जाने का प्रश्न ही नहीं उठता था.

योजना के अनुसार एक महीना पूरा हो गया था. मनु व सपन सोचसोच कर घबरा रहे थे कि मौसी और पिताजी की क्या प्रतिक्रिया होगी. रानी डर रही थी कि कहीं मौसी पुराने ढर्रे पर न आ जाएं. अब की तो वह उन का पूरा विरोध करेगी. अंतरा सोच रही थी कि मौसी के जाने के बाद अगर पिताजी फिर से नखरे दिखाने लगे तो वह क्या करेगी.

‘‘चलो मौसी,’’ सपन ने कहा, ‘‘हम आप को लेने आए हैं. जल्दी से तैयार हो जाइए. हां, सोनूमोनू भी आप को याद कर रहे थे. वे आप को ले जाना चाहते हैं.’’

‘‘सच,’’ मौसी की आंखों में चमक आ गई, वे बोलीं, ‘‘नहीं, तू झठ कह रहा है. मैं बहुओं को जानती हूं.’’

‘‘मैं क्यों झठ बोलूंगा,’’ सपन ने हंस कर कहा, ‘‘वे तो शिकायत कर रहे थे कि मैं ने आप को अगवा कर लिया है.’’

निहालचंद हंस पड़े, ‘‘दरअसल तुम्हारी मौसी को तो मैं अगवा करना चाहता हूं. बहुत अच्छी हैं. बड़ा मन लग गया है इन से.’’

यह सुनते ही सब हंस पड़े. निहालचंद और मौसी झेंप गए.

‘‘क्या बात है, पिताजी, चलाएं कुछ चक्कर,’’ मनु ने छेड़ा.

‘‘तुम लोग बड़े शरारती हो,’’ मौसी के गाल सुर्ख हो गए.

‘‘मौसी, आप चली जाएंगी तो पिताजी आप को बहुत याद करेंगे,’’ अंतरा बोली, ‘‘आप के बनाए कढ़ी, बैगन का भुरता, लौकी के कोफ्ते, मूंग की दाल का हलवा और सभी चीजों की इतनी तारीफ करते हैं कि बस, पूछो ही मत. काश, मैं आप से सीख पाती.’’

अपनी तारीफ सुन कर मौसी का चेहरा खिल गया, ‘‘अरे, बस. ऐसे ही थोड़ाबहुत बना लेती हूं. वैसे, तुम नौकरी पर जाती हो, इतनी फुरसत कहां.’’

रानी ने मौसी के कमरे में झंकते हुए कहा, ‘‘अरे मौसी, आप का सामान सब वैसा का वैसा ही पड़ा है. क्या अभी चलने का इरादा नहीं है.’’

‘‘चलना तो है पर सोच रही हूं कि चलूं या नहीं,’’ मौसी ने हिचकते हुए कहा.

‘‘क्यों?’’ रानी और सपन चौंक पड़े.

‘‘बात यह है बहू कि अंतरा के पैर भारी हैं. अब उस की देखभाल करने वाला भी तो कोई घर में होना चाहिए न,’’ मौसी ने गंभीरता से कहा.

‘‘अरे, और हमें पता भी नहीं,’’ सब एकसाथ बोल पड़े.

रानी ने अंतरा का हाथ अपने हाथों में ले कर बड़ी आत्मीयता से कहा, ‘‘तुम तो बड़ी छिपी रुस्तम निकलीं. मुबारक हो और मनु भैया आप को भी,’’ तो मनु मुसकरा कर रह गया.

रात में मनु अंतरा के पैर उठाउठा कर देख रहा था.

‘‘यह क्या कर रहे हो?’’ अंतरा ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘देख रहा हूं कितने भारी हैं,’’ मनु ने शरारत से कहा.

‘‘छि : बेशर्म कहीं के,’’ अंतरा ने पैर खींच लिए.

‘‘सुनो,’’ मनु ने गंभीरता से कहा, ‘‘अब मौसी को दुनिया के सामने झठला तो नहीं सकते. उन की बात

का मान तो रखना ही पड़ेगा. क्या

कहती हो?’’

बाहर किसी बात पर मौसी और निहालचंद खिलखिला कर हंस रहे थे, बिलकुल बच्चों की तरह.

शायद यह एक नए जीवन की शुरुआत थी.  Family Story 

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