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मुद्दा: उत्तर प्रदेश की राजनीति किसान तय करेंगे

किसान आंदोलन इस समय देश में कितने व्यापक स्तर पर मौजूद है, इस का अंदाजा लखीमपुर खीरी में किसानों के खिलाफ हुई हिंसक घटना से लगाया जा सकता है. यह आंदोलन के खिलाफ भाजपा की बौखलाहट ही है कि आंदोलन को कुचलने के लिए अब इस तरह के हथकंडे अपनाए जा रहे हैं. लखीमपुर खीरी में किसानों के साथ हुए हादसे के बाद कृषि कानूनों को ले कर चल रहे किसान आंदोलन और उत्तर प्रदेश की राजनीति दोनों में बदलाव आ गया है. दिल्ली की सीमा तक सिमटा यह आंदोलन अब पूरे उत्तर भारत तक पहुंच गया है. केंद्र और उत्तर प्रदेश की जो सरकारें किसानों के मुद्दों को खालिस्तान और देशद्रोह से जोड़ रही थीं, अब वे किसानों के संगठित हो रहे आंदोलन से डर रही हैं. राज्य में 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव के लिए किसान आंदोलन एजेंडा बन गया है.

रामचरित मानस में तुलसीदास ने लिखा- ‘जे सकाम नर सुनहिं जे गावहि, सुख संपत्ति नानाविधि पावहिं.’ इस का अर्थ है- ‘जो कथा के गाने और सुनने का काम करता है, उस को अलगअलग तरह से सुख व संपत्ति मिलती है.’ उत्तर प्रदेश और बिहार के ‘दोआबा क्षेत्र’ में रामचरित मानस को जोरशोर से गाया व सुना जाता है. अयोध्या और मिथिला इन प्रदेशों में ही बसे हैं. यहां के लोगों पर रामचरित मानस का पूरा प्रभाव है. यही वजह है कि गंगा और यमुना नदियों का उपजाऊ मैदान होने के बाद भी यहां की खेती किसानों को संपन्न नहीं बना पाई. यहां के रहने वाले अपनी खेती करने की जगह पंजाब और हरियाणा के खेतों में मजदूरी करने को तैयार रहते हैं. यहां के किसान बिना मेहनत के ‘सुख संपत्ति’ पाना चाहते हैं. मोदी सरकार द्वारा सुनाई जा रही किसानों की तरक्की की कहानियां सुन कर वे खुश हैं. ऐसे किसान 500 रुपए माह की किसान सम्मान निधि को ही ‘सुख संपत्ति’ समझ रहे हैं.

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वे मोदी सरकार के कृषि कानूनों के सच को समझने की जगह उन के गुणगान में लगे हैं. किसान आंदोलन को खालिस्तान और देशविरोधी साबित करने का पिछले एक साल से प्रयास हो रहा है. इस में सफलता नहीं मिली. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि पंजाब से आए किसानों ने जिस मेहनत से उत्तर प्रदेश में खेती को सम्मान से जोड़ दिया, उसे यहां की जनता और किसान दोनों देखसमझ रहे हैं. इन को देख कर उत्तर प्रदेश के किसान भी खेती को ले कर जागरूक हो रहे हैं और खेती करने के तरीके सीखने को इन के पास आते हैं. ऐसे प्रगतिशील किसानों की संख्या धीरेधीरे बढ़ रही है. ये लोग कृषि कानूनों के सच को समझने लगे हैं, जो भाजपाई सरकारों के लिए मुश्किल होता जा रहा है.

पिछड़ी जातियों के भरोसे उत्तर प्रदेश की खेती उत्तर प्रदेश में पंजाब से आए सिख किसानों के खेत और यहां के मूल किसानों के खेतों को देख लें. सिख किसानों के खेत सुंदर, व्यवस्थित और उपजाऊ दिखेंगे. बड़ी जोत होती है. उत्तर प्रदेश के किसानों में 90 फीसदी खेत उपेक्षित दिखते हैं. उत्तर प्रदेश में खेतिहर जातियों में सब से बड़ी संख्या पिछड़ी जातियों की है. पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाट सब से अधिक खेती करते हैं. मध्य उत्तर प्रदेश में कुर्मी और पटेल जातियों के लोग खेती करते हैं. यादव राजनीतिक रूप से मजबूत होने के बाद खेती से पीछे हट गए हैं. ब्राह्मण और बनिया बिरादरी के पास खेती की जमीन बहुत कम थी. ठाकुरों के पास जमीन होती है पर वे खुद खेती करने की जगह पर मजदूरों से खेती कराते हैं. इस वजह से उन का खेतों से लगाव नहीं होता.

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आजादी के बाद जब सिख किसानों का उत्तर प्रदेश आना हुआ तो खेती करने का सलीका और मेहनत लोगों को दिखी. सिख किसानों को अपने खेत से प्रेम होता है. वे उस का बंटवारा और बेचना कुबूल नहीं करते. उत्तर प्रदेश के किसान इस मौके की तलाश में रहते हैं कि कब खेत बेच कर पैसा मिल जाए. यहां के किसान खुद खेती नहीं करते, इन के खेत मजदूर ‘बंटाई’ पर ले कर खेती करते हैं. कृषि कानूनों का समर्थन करने वाले ये किसान सोच रहे हैं कि कौर्पोरेट खेती में कंपनियां बिना किसी मेहनत के पैसे देंगी. सिख किसान मानते हैं कि कौर्पोरेट खेती किसानों के हित में नहीं है. जो किसान मेहनत नहीं करना चाहते, वही कृषि कानूनों का समर्थन कर रहे हैं. खेत बन गए पहचान जिन जगहों पर सिख किसानों ने अपने खेत बनाए, वहां का नाम और पहचान दोनों बदल गए हैं.

लखनऊ जिले में कानपुर रोड और रायबरेली रोड के बीच बनी बंथरा नामक जगह पड़ती है. यह इलाका जंगल टाइप था. यहां अब ‘गनियार फार्म हाउस’ पहचान बन चुका है. किसान दिलराज सिंह बताते हैं, ‘‘1977 में हम अपने पिताजी के साथ यहां आए थे. उस समय हमारी उम्र एक साल थी. हमारे अलावा आसपास उस समय 7-8 फार्म बने थे. अब कुछ लोग वापस पंजाब चले गए हैं. 5-6 फार्म अभी भी हैं. हम लोग धान और गेहूं की खेती ज्यादा करते हैं. इस के साथ में ही सब्जियों की खेती भी करते हैं. हमारा फार्म करीब 50 बीघे का है. खेती से हमें प्यार है. हम खेत बांटने या बेचने के पक्ष में नहीं रहते. अपने खेतों पर हम मजदूर की तरह से काम करते हैं. मजदूरों से कम से कम काम लेते है.’’ मेमेरा फार्म सरोजनीनगर, लखनऊ की एक पहचान है. तेजवंत सिंह यहां शिमलामिर्च की खेती कर के मशहूर हो गए हैं. वे कहते हैं, ‘‘हम हर तरह की खेती बाजार के हिसाब से करते हैं.

खेती की मशीनों के साथ ही साथ ग्रीन हाउस, पौली हाउस बना कर खेती करते हैं. इस के लिए मुझे कईकई बार सम्मान मिल चुका है. खेती हमारे लिए मजबूरी नहीं, हमारी पहचान है.’’ मोहनलाल गंज के भौंदरी फार्म पर टमाटर की खेती करने वाली दलजीत कौर घरगृहस्थी के काम भी करती हैं. वे बताती हैं, ‘‘हमारे यहां केवल आदमी ही नहीं, औरतें भी खेती से प्यार करती हैं. वे खेतों में भी काम करती हैं.’’ खेती के कानूनों को समझें बक्शी का तालाब के रहने वाले किसान गुरमीत सिंह कहते हैं, ‘‘जिन किसानों के पास पैदावार ज्यादा नहीं होती, उन को एमएसपी का पता नहीं है. ऐसे किसान जो अपनी फसल को बेचने के लिए मंडी नहीं जाते, उन को इस का पता नहीं होता है. ज्यादातर किसान कृषि कानून के बारे में नहीं जानते हैं. हमें किसानों को इन कानूनों का सच बताना है.

आने वाले सालों में खेती पर इन का क्या प्रभाव पड़ेगा, यह समझाना भी है.’’ मोहनलालगंज के हरिखेड़ा गांव के रहने वाले किसान राजकुमार यादव कहते हैं, ‘‘जागरूक किसान केवल खेती को ले कर ही जागरूक नहीं होते, वे कृषि कानूनों और खेती पर पड़ने वाले प्रभावों को समझते भी हैं. हमें ऐसे किसानों का साथ देने की जरूरत है. आजादी की लड़ाई के समय में भी बहुत सारे लोग अंगरेजों के कानून और व्यवस्था को सही मान रहे थे. गांधीजी ने ऐसे लोगों को गुलामी और आजादी के बीच के अंतर को बताया था.’’ मोहनलालगंज के ही हुलासखखेड़ा के किसान संतराम रावत धान, गेहूं, सरसों और मेंथा की खेती करते हैं. उन का कहना है, ‘‘कृषि कानूनों की आड़ में केंद्र सरकार किसानों को प्राइवेट कंपनियों का गुलाम बनाना चाहती है. आने वाले समय में खेती सब से बड़ा बिजनैस होने वाला है. कौर्पोरेट कंपनियों के आने से किसान बेबस और लाचार हो जाएंगे. कृषि कानूनों को अब किसान समझ रहे हैं.

यही कारण है कि अब यह चुनावी मुद्दा बनने लगा है.’’ किसान आंदोलन बना चुनावी मुद्दा उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी जिले में 4 किसानों की कुचल कर हत्या करने और सिख किसानों को खालिस्तानी कहने के बाद भी किसान आंदोलन रुकने वाला नहीं है. उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार दोनों के लिए किसान आंदोलन ‘गुड़ भरा हसिया’ हो गया है. इस को खाना खतरनाक है व बाहर निकालना और भी ज्यादा खतरनाक सबित होगा. सरकार को लग रहा है कि किसान मुआवजा पा कर चुप हो गए हैं या अपने कदम पीछे खींच चुके हैं तो यह सरकार की गलतफहमी है. संयुक्त किसान मोरचा ने बड़ा ऐलान करते कहा कि तिकोनियां (खीरी) में शहीद किसानों की अस्थियां देशभर में जाएंगी. मोदी और शाह के पुतले फूंके जाएंगे.

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक महापंचायत होगी. किसानों के इस ऐलान के बाद सरकार के हाथपैर फूल रहे हैं. उत्तर प्रदेश सरकार ने किसानों के आंदोलन को संभालने के लिए पुलिस और प्रशासन के बहुत ही जिम्मेदार व काबिल अफसरों की टीम तैयार की. जो किसान आंदोलन को संभालने का काम कर रही है. पुलिस की छुट्टियां रद्द हो गईं. केवल लखीमपुर खीरी को संभालने के लिए 10 बड़े अफसर काम कर रहे हैं. किसानों को थार कार से कुचलने के आरोपी केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा के बेटे आशीष मिश्रा को जेल भेज दिया गया. अजय मिश्रा की आलोचना पार्टी संगठन के नेता भी करने लगे. भाजपा प्रदेश अध्यक्ष स्वंत्रत देव सिंह ने कहा,

‘‘किसी को लूटने या फौर्च्यूनर से कुचलने के लिए राजनीति नहीं करनी चाहिए.’’ अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा प्रदेश अध्यक्ष ने अजय मिश्रा मामले में उबल रहे गुस्से को कम करने के लिए यह बात कही. केंद्रीय मंत्री किसानों को उकसा कर, आंदोलन को हिंसक बना कर उस को कुचलने की योजना में थे. किसान नेता राकेश टिकैत ने बेहद समझदारी का परिचय देते हुए हिंसा की घटना पर दो कदम पीछे खींचे और किसान आंदोलन का दमन होने से बचा लिया. किसान का मुद्दा केवल उत्तर प्रदेश के नहीं, पंजाब और उत्तराखंड के चुनावों पर भी असर डालेगा. वरिष्ठ पत्रकार विमल पाठक कहते हैं, ‘‘लखीमपुर खीरी में किसानों के शहीद होने की घटना ने उत्तर प्रदेश के चुनाव का एजेंडा तय कर दिया है.

‘किसान आंदोलन’ चुनावी मुद्दा बन गया है. 10 अक्तूबर को वाराणसी में कांग्रेस की ‘किसान न्याय यात्रा’ में जिस तरह की भीड़ देखने को मिली, उस से यह साफ दिख रहा है कि किसानों का मुद्दा अब 2022 के विधानसभा चुनाव का मुख्य एजेंडा बन गया है. ‘‘बिहार के चंपारण से बनारस तक की ‘किसान सत्याग्रह यात्रा’ ने उत्तर प्रदेश सरकार की बेचैनी को बढ़ा दिया है. दिल्ली में किसान आंदोलन को भाजपा सरकार ने किसान सम्मान निधि और किसानों को ले कर दूसरी योजनाओं के जरिए कमजोर करने का काम किया था. जबकि, लखीमपुर खीरी की घटना ने आग में घी डालने का काम कर दिया है.’’ गांधी के सत्याग्रह की राह पर टिकैत 26 जनवरी को लालकिले की घटना और 3 अक्तूबर को लखीमपुर खीरी की घटना ने किसान आंदोलन को हिंसक बनाने का काम किया. वैसे देखा जाए तो शुरू से ही किसान आंदोलन गांधी के सत्याग्रह व अहिंसा के रास्ते पर बढ़ा है.

राकेश टिकैत ने लखीमपुर खीरी पर समझदारीभरा कदम उठाया. देश की आजादी की लड़ाई में भी ऐसे फैसले लिए गए थे. 4 फरवरी, 1922 को गोरखपुर जिले के चौरीचौरा नामक जगह पर आंदोलनकारियों ने पुलिस स्टेशन पर आग लगा दी थी. 22 पुलिस वाले मारे गए थे. देश की आजादी के लिए सत्याग्रह आंदोलन चलाने वाले महात्मा गांधी ने इस हिंसा के विरोध में असहयोग आंदोलन को रोक दिया था. कोई भी आंदोलन जब हिंसक हो जाता है तो उस पर नियंत्रण करना सरकार के लिए सरल हो जाता है. 26 जनवरी को दिल्ली में लालकिले की घटना से किसानों की लड़ाई कमजोर हुई. लखीमपुर में भी यही साबित करने का प्रयास किया जा रहा था कि पहल किसानों की तरफ से हुई है. घटना के तमाम वीडियो यह दिखाते हैं कि पहले किसानों को कार से कुचला गया.

उस के बाद किसान हिंसक हुए. किसान का यह रूप आगे न बढ़े, इस कारण किसान नेता राकेश टिकैत ने सरकार की बातें मान लीं. इस के बाद भी किसानों का शांतिपूर्ण आंदोलन और भी तेजी से चलता रहा. इस के अलावा कई तरह से किसानों के मुद्दे को रखने का काम हो रहा है. जैसेजैसे चुनाव करीब आएंगे, सरकार के लिए हालात चुनौतीपूर्ण होते जाएंगे. दिल्ली-पंजाब सीमा से बाहर पहुंचा आंदोलन किसान संयुक्त मोरचा के बैनर तले बिहार और उत्तर प्रदेश के 35 इलाकों से गुजरने वाली किसान सत्याग्रह यात्रा को भी जनता का समर्थन मिला. यह माना जा रहा है कि किसान सत्याग्रह यात्रा का वैसा ही प्रभाव उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा जैसा प्रभाव अंगरेजों के खिलाफ साल 1917 में चंपारण आंदोलन से पड़ा था.

2 अक्तूबर से 20 अक्तूबर के बीच चंपारण से वाराणसी तक की किसान सत्याग्रह यात्रा बहुत अहम है. 1917 में महात्मा गांधी ने बिहार के चंपारण में नील की खेती करने वालों के अधिकार के लिए एक आंदोलन चलाया था. किसान सत्याग्रह यात्रा मोदी सरकार के 3 कृषि कानूनों के खिलाफ निकली. किसानों ने पूछा कि तीनों कृषि कानून कब तक वापस होंगे? एमएसपी पर कानूनी गारंटी क्यों नहीं मिल रही? इस यात्रा में कोरोना, महंगाई, अपराध और बेरोजगारी के मुद्दे पर भी सवाल किए गए. इस सत्याग्रह मार्च का मकसद किसानों में जागरूकता पैदा करना था. सत्याग्रह करने वालों में किसानों के संयुक्त किसान मोरचा से जुड़े 42 संगठनों ने हिस्सा लिया. लखीमपुर खीरी में हुए किसानों के नरसंहार के विरोध में सत्याग्रह करने वालों ने अपनी बांहों पर काली पट्टी बांध कर विरोध प्रदर्शन किया.

किसान केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा को बरखास्त करने की मांग कर रहे थे. किसानों का मानना है कि 27 सितंबर के अभूतपूर्व ‘भारत बंद’ से डर कर मोदीयोगी सरकारों ने लखीमपुर खीरी में हिंसा कर के आंदोलन को खत्म करने का कुचक्र रचा था. किसान नेताओं की समझदारी से इस को टाल दिया गया. किसान नेता मानते हैं कि आजादी के बाद देश में यह सब से बड़ा आंदोलन है. किसान सालोंसाल इस लड़ाई को लड़ता रहेगा. जब तक तीनों कृषि कानून वापस नहीं होंगे, आंदोलन चलता रहेगा. अब यह आंदोलन दिल्ली और पंजाब से बाहर निकल चुका है. लखीमपुर खीरी की घटना ने किसान आंदोलन को और मजबूत कर दिया है.

पुलिस प्रशासन: उत्तर प्रदेश पुलिस खाकी का खौफनाक चेहरा

लेखक- शैलेंद्र सिंह

पुलिस का काम कानून का राज स्थापित कर जनता को भयमुक्त करना है. अपराध रोकने के नाम पर पुलिस जनता का उत्पीड़न कर रही है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के क्षेत्र गोरखपुर में पुलिस की हिरासत में व्यापारी मनीष की मौत और उस के बाद उस पर लीपापोती बताती है कि उत्तर प्रदेश पुलिस बदलने को तैयार नहीं है. 2018 में इसी तरह से लखनऊ में विवेक तिवारी की हत्या हुई थी. जांच के नाम पर नागरिकों के साथ ऐसी घटनाएं पुलिस को वरदी वाला गुंडा बनाती हैं. गोरखपुर में चंदन सैनी सिकरीगंज के महादेवा बाजार में रहते हैं.

वे बिजनैसमैन हैं. चंदन सैनी ने अपने कानुपर और गुरुग्राम में रहने वाले बिजनेसमैन दोस्तों को गोरखपुर घूमने के लिए बुलाया. वे यह दिखाना चाहते थे कि योगी के राज में गोरखपुर कितना बदल गया है. कानपुर के रहने वाले प्रौपर्टी डीलर 35 साल के मनीष गुप्ता अपने 2 साथियों के साथ गुरुग्राम से प्रदीप चौहान उम्र 32 साल और हरदीप सिंह चौहान उम्र 35 साल गोरखपुर आ गए. ये तीनों दोस्त गोरखपुर के थाना रामगढ़ क्षेत्र में एलआईसी बिल्ंिडग के पास कृष्णा पैलेस के कमरा नंबर 512 में रुक गए. 27 सितंबर की रात 12 बज कर 30 मिनट पर रामगढ़ पुलिस होटल चैकिंग करने पहुंची. इस में इंस्पैक्टर जे एन सिंह और अक्षय मिश्रा के अलावा थाने के कुछ सिपाही थे. पुलिस ने होटल चैकिंग के नाम पर कमरा खुलवा कर सोते लोगों को जगा कर उन से आईडी यानी परिचयपत्र दिखाने को कहा.

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मनीष के 2 दोस्तों ने अपनी आईडी दिखा दी. जब मनीष को अपनी आईडी दिखाने को कहा तो वह बोला, ‘‘रात में सोते हुए लोगों को जगा कर आईडी देखने का यह कौन सा समय है.’’ मनीष का इतना कहना वरदी के रोबधारी पुलिस को सहन नहीं हुआ. वह भड़क उठी. मनीष को कमरे के बाहर ले कर जाने लगी. इस दौरान मनीष ने कानपुर में रहने वाले अपने भांजे को फोन कर मदद करने की गुहार लगाते कहा, ‘‘पुलिस होटल के कमरे में चैकिंग करने के नाम पर उस के साथ अपराधियों सा व्यवहार कर रही है.’’ मनीष का भांजा कानपुर में भारतीय जनता पार्टी का नेता भी है. मनीष को उम्मीद थी कि वह कुछ मदद कर सकता है. इस के पहले कि भांजा कुछ प्रयास करता, पुलिस मनीष को अपराधी की तरह ट्रीट करने लगी. घायल हालत में पुलिस मनीष को अस्पताल ले गई जहां उस की मौत हो गई.

गोरखपुर पुलिस ने अपने आधिकारिक बयान में कहा, ‘‘पुलिस ने होटल के कमरे की जांच की. 3 लोग थे. 2 के पास आईडी थी. तीसरे के पास नहीं थी. पुलिस को देख कर तीसरा आदमी भागा और हड़बड़ा कर गिर गया. और उस की मौत हो गई कमरे के फोटो और मनीष की अपने भांजे से फोन पर कानपुर बात करने का सुबूत सामने आने के बाद यह साफ है कि मनीष हड़बड़ा कर भागा नहीं. उसे पुलिस कमरे से बाहर ले गई. बाद में उस के दोस्तों ने उसे खून से लथपथ देखा और पुलिस उस को अस्पताल ले गई.’’ इस दौरान पुलिस ने मनीष के परिजनों पर दबाव डाला कि वे मुकदमा कायम न कराएं. मामला तूल पकड़ गया, जिस के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की चारों तरफ आलोचना होने लगी.

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मनीष की पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने के बाद पुलिस की कहानी में छेद ही छेद नजर आने लगे. पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मनीष के सिर में चोट के गहरे निशान एकदम बीचोंबीच हैं. ये केवल गिरने से नहीं आ सकते. चोट काफी गहरी है. दाहिने हाथ की कुहनी, कुहनी के ऊपर और कुहनी के नीचे चोट के निशान मिले हैं. बाईं आंख की पुतली के ऊपर भी चोट के निशान हैं. इस के अलावा पेट के अंदरूनी हिस्से में भी चोट के निशान हैं. ऐसे चोट के निशान केवल गिर कर चोट खाने से नहीं आ सकते.

गोरखपुर का मामला होने से विपक्ष भी हमलावर हो गया. बचाव की मुद्रा में आई योगी सरकार ने एक बार फिर से सरकारी सहायता दे कर पीडि़त की पत्नी को राहत देने का काम किया. मनीष की पत्नी मीनाक्षी को कानपुर में सरकारी नौकरी और 10 लाख रुपए मदद का भरोसा दिलाया. विपक्षी नेताओं के साथ ही साथ पीडि़त परिवार की मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात कराई गई. हो सकता है कि यह मामला ठंडा पड़ जाए पर क्या इस से प्रदेश की पुलिस बदलेगी? इस सवाल का उत्तर न में है. इस का कारण यह है कि पिछले 4 सालों में ऐसे तमाम मामले देखे गए हैं. 2019 में ऐसा ही एक मामला उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में घटित हुआ. एपल कंपनी के एरिया सेल्स मैनेजर विवेक तिवारी रात में औफिस के काम को खत्म कर के घर वापस जा रहे थे. गाड़ी में उन के साथ कंपनी की महिला अधिकारी भी थी. गोमतीनगर इलाके में पुलिस ने विवेक तिवारी को रुकने के लिए हाथ दिया.

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विवेक ने गाड़ी रोकने में कुछ पल की देरी कर दी. इतने में एक सिपाही ने अपनी बाइक गाड़ी के आगे खड़ी कर कार को रोक लिया और फिल्मी अंदाज में रिवौल्वर निकाल कर विवेक तिवारी के सीधे माथे पर गोली मार कर मार डाला. मनीष गुप्ता जैसा ही हंगामा मचा. योगी सरकार ने विवेक की पत्नी को नौकरी दे कर मामले को ठंडा कर दिया. सरकारी सहायता दे कर मामले भले ही ठंडे हो जाएं पर इस से पुलिस का चेहरा नहीं बदलने वाला. कानपुर का विकास दुबे कांड भी इस का उदाहरण है. जहां पुलिस ने विकास दुबे सहित उस के कई साथियों का एनकाउंटर किया. तमाम निर्दोष लोगों को जेल भेज रखा है.

विकास दुबे अपराधी था. उस ने भी पुलिस पर हमला कर कई पुलिस वालों को मार दिया था. पर पुलिस कमजोर लोगों पर भी अत्याचार करती है. वह पीडि़त के साथ कम, पीड़ा देने वाले के साथ अधिक रहती है. उन्नाव में भाजपा के विधायक कुलदीप सेंगर को रेप के मामले से बचाने के लिए पुलिस ने पीडि़त लड़की के परिवार पर जुल्म किए. शाहजहांपुर में भाजपा के पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वामी चिन्मयानंद द्वारा अपने ही कालेज की लड़की से मसाज कराने और उस का यौनशोषण करने का मसला सामने आया तो पुलिस ने पीडि़त का साथ न दे कर उस के खिलाफ ही ब्लैकमेल करने का मुकदमा दर्ज कराया. ऐसे मामलों की लंबी लिस्ट है जहां पुलिस के उत्पीड़न के मामले देखने को मिलते हैं. सामान्य मामलों में भी ऐसे बहुत से प्रमाण हैं. बस्ती जिले में दारोगा दीपक सिंह ने एक लड़की को अश्लील मैसेज भेजना शुरू किया.

जब लड़की ने इस बात की शिकायत अपने परिवार के लोगों से की तो दारोगा ने उस के घर वालों पर मुकदमे करा दिए. ऐसे मामले बहुत सारे हैं. नहीं बदल रही पुलिस की छवि उपन्यासकार वेद प्रकाश शर्मा का उपन्यास ‘वरदी वाला गुंडा’ 1993 में प्रकशित हुआ था. इस की तैयारी में उन को लंबा समय लगा था. वेद प्रकाश शर्मा ने 80 के दशक में पुलिस अत्याचार को देखा था. उसी को आधार ले कर उक्त उपन्यास को लिखा. 8 करोड़ प्रतियां इस की बिक चुकी हैं. इस को सफलतम उपन्यास माना जाता है. इस का मूल विषय वरदी पहन कर अपराध करने वाली पुलिस की कार्यशैली थी. जिस समय वेद प्रकाश शर्मा इस उपन्यास की भूमिका बना रहे थे, पुलिस एनकाउंटर करने में सब से आगे थी. इस का सब से बड़ा कारण यह था कि अपराधियों के एकाउंटर करने वाले पुलिसकर्मियों को ‘आउट औफ टर्न प्रमोशन’ मिलता था.

इस के लालच में तमाम फर्जी एनकाउंटर होने लगे थे. धीरेधीरे सरकार ने एनकाउंटर पर रोक लगाने के लिए इस की मजिस्ट्रेट जांच शुरू की. इस के अलावा ‘आउट औफ टर्न प्रमोशन’ को भी रोका गया. पिछले 20-25 सालों में पुलिस की कार्यशैली में सुधार के तमाम प्रयास किए गए. पुलिस को मित्र पुलिस बनाने, उस को प्रोफैशनल बनाने के तमाम काम किए गए. इस के बाद भी पुलिस अभी भी वरदी वाला गुंडा ही बनी हुई है. इस के एक नहीं, तमाम उदाहरण देखने को मिल सकते हैं. उत्तर प्रदेश में जब योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री के रूप में अपना कार्यभार संभाला तो उन्होंने पुलिस से कहा, ‘‘प्रदेश को अपराधमुक्त करना है. अपराधी या तो जेल में रहे या उत्तर प्रदेश के बाहर रहे.’’ इस के लिए पुलिस को ‘ठोक दो’ का हथियार भी दे दिया. मुख्यमंत्री की छूट का नतीजा यह हुआ कि पुलिस बेलगाम हो गई.

अपराध तो वह रोक नहीं सकी, लोगों के घर गिराने और एनकाउंटर करने के साथ ही साथ वह उन का पुलिसिया उत्पीड़न करने लगी. बड़ी संख्या में गुंडा एक्ट लोगों पर लगाया जाने लगा. मुख्यमंत्री ने अपराधियों के खिलाफ सख्ती करने का आदेश दिया था. पुलिस आम लोगों को परेशान करने लगी. इस की सब से ताजा मिसाल मुख्यमंत्री के ही गृहजनपद गोरखपुर में घट गई. पुलिस के काम करने की शैली मुख्यमंत्री की छवि खराब कर रही है. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि पुलिस गृह विभाग के अंदर आती है जिस के प्रमुख मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद हैं. पुलिस को तमाम छूट और सुविधाएं देने के बाद पुलिस अपना तरीका बदलने को तैयार नहीं है.

आंकड़े बताते हैं कि योगी राज में 21 मार्च, 2017 से 15 फरवरी, 2021 के बीच प्रदेश में पुलिस और अपराधियों के बीच 7,500 मुठभेड़ हो चुकी हैं. 132 अपराधी मारे जा चुके हैं. 2,900 से अधिक घायल हो चुके हैं. विकास दुबे के द्वारा मारे गए पुलिस वालों की संख्या जोड़ने के बाद 14 पुलिस के लोग शहीद हुए और 1,100 घायल हो गए. पुलिस का काम कानून के राज को स्थापित करना है. लोगों को सजा देने का काम कानून का है. उत्तर प्रदेश में पुलिस ने सजा देने का काम भी अपने हाथों में ले लिया, जिस की वजह से सरकार की छवि खराब हो रही है. जिस का प्रभाव उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों पर पड़ सकता है.

काशी में गंगा में चलेंगी सीएनजी आधारित बोट

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी  ने पिछली देव दीपावली पर काशी में जब क्रूज़ से गंगा की सैर की थी तभी उन्होंने डीजल से चलने वाली बोट के ज़हरीले धुएं और शोर से गंगा को मुक्ति दिलाने के लिए तयकर लिया था. उत्तर प्रदेश  के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसका बखूबी जिम्मा लिया.

वाराणसी में गंगा में चलने वाली करीब 500 मोटर बोट को 19 नवंबर देव दीपावली तक सीएनजी से चलाने का लक्ष्य है. आने वाले समय में गंगा में शत प्रतिशत बोट सीएनजी से चलाने की योजना है. मोक्षदायिनी गंगा दुनिया की पहली नदी होगी, जहां इतने बड़े पैमाने पर सीएनजी आधारित बोट चलेंगी.

धर्म नगरी काशी में आने वाले पर्यटक गंगा में बोटिंग करके अर्धचंद्राकार घाटों के किनारे सदियों से खड़ी इमारतों, मंदिर-मठों को देखते हैं. अब यहाँ आने वाले पर्यटकों को गंगा में बोटिंग करते समय ज़हरीले धुएं और बोट की तेज आवाज से मुक्ति मिलने वाली है. सभी डीज़ल आधारित बोटों को देव दीपावली तक सीएनजी आधारित  करने का लक्ष्य है . वाराणसी दुनिया का पहला शहर होगा, जहां इतने बड़े पैमाने पर सीएनजी से नावों का संचालन होगा. गंगा में फ्लोटिंग सीएनजी स्टेशन की भी योजना है. इससे गंगा के बीच में भी सीएनजी भरी जा सकेगी.

स्मार्ट सिटी के जीएम डी वसुदेवम ने बताया कि गंगा में क़रीब 1700 छोटी-बड़ी नावें चलती हैं. इनमे से करीब 500 बोट डीज़ल इंजन से चलने वाली है. लगभग 177 बोट में सीएनजी इंजन लगा चुका है. बचे हुए मोटर बोट को देव दीपावली तक सीएनजी इंजन से चला देने का लक्ष्य है. ये काम गेल इण्डिया कोर्पोरेट सोशल रिस्पांसबिल्टी के तहत करा रही है. करीब 29 करोड़ के बजट से 1700 छोटी और बड़ी नाव में सीएनजी इंजन लगया जा रहा है. इसमें छोटी नाव पर करीब 1.5 लाख का खर्च आ रहा है, जबकि बड़ी नाव और बज़रा पर लगभग 2.5 लाख का ख़र्च है . नाविकों के नाव में सीएनजी किट मुफ़्त लगाया जा रहा है. स्मार्ट सिटी के प्रोजेक्ट मैनेजर सुमन कुमार राय ने बताया कि जिस नाव पर सीएनजी आधारित इंजन लगेगा, उस नाविक से डीज़ल इंजन वापस ले लिया जाएगा. घाट पर ही डाटर स्टेशन हैं. जेटी पर डिस्पेंसर भी लग गया है. नाविकों का कहना है कि सीएनजी इंजन से आधे खर्चे में दुगनी दूरी तय  कर रहे हैं. धुआँ और तेज आवाज नहीं होने से पर्यटकों को भी अच्छा लग रहा है.

सीएनजी से प्रदूषण भी होगा कम

सीएनजी आधारित इंजन डीज़ल और पेट्रोल इंजन के मुक़ाबले 7 से 11 प्रतिशत  ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम करता है, वहीं सल्फर डाइऑक्सइड जैसी गैसों के न निकलने से भी प्रदूषण कम होता है. डीजल इंजन से नाव चलाने पर जहरीला धुआं निकलता है जो आसपास रहने वाले लोगों के लिए बहुत हानिकारक है, जबकि सीएनजी के साथ ऐसा नहीं है. डीजल इंजन की तेज आवाज़ से कंपन होता है, जिससे इंसान के साथ ही जलीय जीव-जन्तुओं पर बुरा असर पड़ता है और इको सिस्टम भी खराब होता है. इसके साथ ही घाट के किनारे हज़ारों सालों से खड़े  ऐतिहासिक धरोहरों को भी नुकसान पहुंच रहा था. डीजल की अपेक्षा सीएनजी कम ज्वलनशील होती है अतः इससे चालित नौकाओं से आपदाओं की आशंका कम होगी.

गरम लोहा – भाग 1: बबीता ने क्यों ली पति व बच्चों के साथ कहीं न जाने की प्रतिज्ञा?

अपूर्व और बच्चों को मेरी टांग खींचने का अच्छा मौका मिल गया था. सब से पहले छोटे बेटे ऋतिक ने मोबाइल हाथ में लेते हुए कहा, ‘‘लाओ मम्मा, मैं नानी को फोन कर के बता देता हूं कि आप मामा की शादी में नहीं आ पाएंगी, क्योंकि आप ने भीष्म प्रतिज्ञा की है कि आप हम लोगों के साथ अब कहीं नहीं जाओगी.’’

ऋतिक की बात पूरी होते ही अपूर्व ने उस के हाथ से फोन लेते हुए कहा, ‘‘अरे बेटा, मेरे होते हुए तुम नानी से बात करो यह मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है. लाओ फोन मुझे दो. मैं नानी को ठीक से समझा देता हूं कि वे साले साहब की शादी की सारी तैयारी अकेले ही कर लें, क्योंकि उन की लाडली ने कहीं भी न जाने की प्रतिज्ञा कर ली है.’’

मेरे दिमाग के गरम पारे पर मां के फोन से पानी की जो ठंडी फुहार पड़ी थी वह पुन: इन लोगों की चुहलबाजी से ज्वलंत होने लगी.

हुआ यों था कि शिमला में 1 सप्ताह तक छुट्टियां बिता कर हम बस घंटा भर पहले ही घर आए थे. घर में घुसते ही अपूर्व और बच्चे एसी और टीवी औन कर के बैठ गए और फिर 1-1 कर के फरमाइशें शुरू कर दीं, ‘‘बबीता, फटाफट 1 कप चाय पिलाओ… होटल की चाय पी कर मन खराब हुआ पड़ा है.’’

‘‘मम्मा, प्लीज साथ में प्याज के पकौड़े भी बना देना. रास्ते में कहीं पकौड़े बन रहे थे. उन की महक मेरी नाक में ऐसी समाई कि मैं ने वहीं तय कर लिया था कि घर पहुंच कर सब से पहले मम्मा से पकौड़े बनवाऊंगा, बड़े बेटे गौरव ने अपनी इच्छा जताई.’’

‘‘मम्मा, आप ने मुझ से वादा किया था कि घर पहुंचते ही मुझे नूडल्स खिलाओगी. अब मुझ से सब्र नहीं हो रहा है. फटाफट अपना वादा पूरा करो,’’ छोटे बेटे ऋतिक ने भी उन दोनों के सुर में सुर मिलाया.

मेरे कानों में उन तीनों की बातें पड़ तो रही थीं पर ध्यान घर में बिखरे काम पर था.

बालकनी में सप्ताह भर के पेपर्स के बंडल बिखरे पड़े थे, जिन्हें हमारी गैरमौजूदगी में भी पेपर वाला डालता गया था, क्योंकि उसे हम मना करना भूल गए थे. उन्हें उठा कर खोल कर अलमारी में रखना था. सामने और पीछे दोनों तरफ की बालकनियों के गमलों के पौधे 1 सप्ताह में पानी के अभाव में झुलस से गए थे. उन में पानी डालना था. घर में इतनी धूल दिखने लगी थी कि फर्श पर चप्पलों के निशान बन रहे थे. कामवाली तो कल सुबह ही आएगी. अत: झाड़ूपोंछा भी करना ही पड़ेगा. सारे कमरों की बैडशीटें बदलनी हैं. किचन समेत पूरे घर की डस्टिंग करनी पड़ेगी. सूटकेस और बैग्स को खाली कर के धूप दिखा कर ऊपर की अलमारी में रखना है. सब से बढ़ कर तो गंदे कपड़ों के अंबार से निबटना है. कपड़े मशीन में धुलने डालने हैं. धुलने के बाद सूखने डालना और फिर सूखने के बाद उठा कर अंदर लाने हैं.

इस सब के अलावा सप्ताह भर बाहर का खाना खा कर ऊब चुके अपूर्व और बच्चों की दिली तमन्ना कि आज घर का बना स्वादिष्ठ खाना खाने को मिलेगा, बिना कहे ही मैं समझ रही थी.

2-4 दिन के लिए भी घर छोड़ कर कहीं चले जाओ तो आने के बाद काम का अंबार देख कर मन इतना घबरा जाता है कि यह सोचने लग जाती हूं कि गई ही क्यों? अपूर्व और बच्चे तो बस सूटकेस और बैग्स को घर के अंदर पहुंचा कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेते हैं. उन्हें किसी और काम से मतलब नहीं रह जाता. मैं अकेली सारे काम निबटातेनिबटाते अधमरी हो जाती हूं.

अपूर्व और बच्चे तो अपनीअपनी फरमाइशें मुझे सुना कर टीवी के सामने बैठ गए और मैं किचन में खड़ी सोचने लगी कि कहां से काम शुरू करूं.

मुझे पता था कि जब तक तीनों की खानेपीने की फरमाइशें पूरी नहीं कर दूंगी तब तक ये शोर मचाते रहेंगे और मैं कोई भी काम ढंग से नहीं कर पाऊंगी. हालांकि लंबे सफर से आने के बाद नहाए बिना कुछ करने का मन नहीं कर रहा था, पर नहाने का इरादा त्याग कर जल्दीजल्दी प्याज काटने में जुट गई. गैस पर एक तरफ 2 कप चाय चढ़ा दी और दूसरी तरफ भगौने में नूडल्स बनने रख दी. तीसरे आंच पर कड़ाही में तेल गरम होते ही फटाफट पकौड़े तल कर सारा सामान ट्रे में लगा कर उन के पास पहुंच गई.

सब के साथ खुद भी सफर की थकान कम करने के इरादे से बैठ कर मैं ने भी चाय पी और उस के बाद पल्लू कमर में ठूंस कर काम निबटाने उठ गई.

सोचा सब से पहले कपड़ों को मशीन में डाल दूं. मशीन में कपड़े अपनेआप धुलते रहेंगे और मैं उस दौरान दूसरे काम करती रहूंगी.

मशीन लगाने के नाम पर मुझे पानी का खयाल आया कि पता नहीं टंकी में कितना पानी है? पर जब मैं ने ऋतिक से कहा कि जा कर देख कर आ कि टंकी में कितना पानी है ताकि मैं अपना काम उसी हिसाब से शुरू करूं तो वह मुंह तक चादर ओढ़ कर सो गया और अपने बड़े भाई की ओर इशारा कर के मुझे सलाह दे डाली कि इसे भेज दो.

उस की हरकत पर गुस्सा तो बहुत आया पर मैं बिना कुछ कहे चुपचाप वहां से बाहर निकल आई.

गौरव ने शायद मेरी नाराजगी को महसूस कर लिया. अत: उस ने बिना मेरे कुछ कहे ही उठते हुए कहा, ‘‘मम्मा, मैं देख कर आता हूं.’’

‘शुक्र है, किसी को तो दया आई मुझ पर,’ सोचते हुए मैं ने सूटकेस और बैग खाली करना शुरू कर दिए.

‘‘मम्मा, टंकी पूरी भरी हुई है… अब प्लीज कम से कम 1 घंटे तक आप मुझ से कोई काम करने को मत कहिएगा,’’ कहते हुए वह फिर से टीवी के सामने बैठ गया.

मैं अकेली इतने सारे कामों को ले कर परेशान हो रही हूं पर मेरे पति और बच्चों को इस की कोई परवाह नहीं है. कोई झूठमूठ भी मदद के लिए नहीं उठ रहा है. कहीं जाने का प्रोग्राम बनाने में तो तीनों ही बहुत तेज रहते हैं पर जाने से पहले की तैयारी में न कोई हाथ बंटाने को तैयार होता है और न ही वापस आने के बाद फैले कामों को समेटने में.

‘बस अब बहुत हो गया. ये सब मेरे सीधेपन का ही नतीजा है. मैं तो हरेक की सुविधा के लिए खटती रहती हूं पर इन्हें मेरी रत्ती भर भी परवाह नहीं रहती. अब तो इन्हें इन की गलती का और घर के प्रति जिम्मेदारियों का एहसास कराना ही पड़ेगा,’ यह सोचते हुए मैं कमरे में पहुंच गई.

‘‘मैं भी तुम सब के साथ ही लंबा सफर कर के आई हूं. मैं भी इनसान हूं, इसलिए थकान मुझे भी होती है, पर तुम लोगों के हिसाब से आराम करने का हक मुझे नहीं है. तुम लोगों की सोच यह है कि बाहर बिखरे सारे काम निबटाना मुझ अकेली की जिम्मेदारी है. इसलिए मैं ने भी अब तय कर लिया है कि अब आगे से मैं तुम लोगों के साथ कहीं भी आनेजाने का प्रोग्राम नहीं बनाऊंगी. प्रोग्राम बनाने में तो तुम तीनों आगे रहते हो पर जाने के समय की तैयारी में न कोई हाथ बंटाने को तैयार होता है और न ही आने के बाद बिखरे कामों को समेटने में. जाते वक्त अपने कपड़े तक छांट कर नहीं देते हो तुम सब कि कौनकौन से रखूं. ऊपर से वहां पहुंच कर नखरे दिखाते हो कि मम्मा, यह शर्ट क्यों रख ली. यह तो मुझे बिलकुल पसंद नहीं, यह जींस क्यों रख ली यह तो टाइट होती है. वापस आने के बाद इस समय कितने काम हैं करने को, जिन में तुम लोग मेरी मदद कर सकते हो पर तुम में से किसी के कान पर जूं नहीं रेंग रही है. तुम सब को आराम चाहिए. तुम सब को एसी चाहिए पर क्या मुझे जरूरत महसूस नहीं हो रही इन चीजों की?’’

 

जानें गेहूं की 5 खास किस्मों के बारे में

गेहूं की खेती में अगर उन्नत किस्मों का चयन किया जाए, तो किसान ज्यादा उत्पादन के साथसाथ ज्यादा मुनाफा भी कमा सकते हैं. किसान इन किस्मों का चयन समय और उत्पादन को ध्यान में रखते हुए कर सकते हैं. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद यानी आईसीएआर-भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान यानी आईआईडब्ल्यूबीआर, करनाल की मानें, तो गेहूं की ये 5 किस्में सब से नई हैं और इन से उत्पादन भी बंपर होता है. करण नरेंद्र यह गेहूं की नई किस्मों में से एक है.

इसे डीबीडब्ल्यू-222 भी कहते हैं. गेहूं की यह किस्म बाजार में साल 2019 में आई थी और 25 अक्तूबर से 25 नवंबर के बीच इस की बोवनी कर सकते हैं. इस की रोटी की गुणवत्ता अच्छी मानी जाती है. दूसरी किस्मों के लिए जहां 5 से 6 बार सिंचाई की जरूरत पड़ती है, पर इस में 4 सिंचाई की ही जरूरत पड़ती है. यह किस्म 143 दिनों में काटने लायक हो जाती है और प्रति हेक्टेयर 65.1 से 82.1 क्विंटल तक पैदावार होती है. करन वंदना इस किस्म की सब से खास बात यह होती है कि इस में पीला रतुआ और ब्लास्ट जैसी बीमारियां लगने की संभावना बहुत कम होती है.

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इस किस्म को डीबीडब्ल्यू-187 भी कहा जाता है. गेहूं की यह किस्म गंगातटीय इलाकों के लिए अच्छी मानी जाती है. फसल तकरीबन 120 दिनों में पक कर तैयार हो जाती है. इस किस्म से प्रति हेक्टेयर तकरीबन 75 क्विंटल गेहूं पैदा होता है. पूसा यशस्वी गेहूं की इस किस्म की खेती कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के लिए सब से सही मानी जाती है. यह फफूंदी और गलन रोग प्रतिरोधक होती है. इस की बोआई का सही समय 5 नवंबर से 25 नवंबर तक ही माना जाता है. इस किस्म से प्रति हेक्टेयर 57.5 से 79.60 क्विंटल तक पैदावार होती है.

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करण श्रिया गेहूं की यह किस्म जून, 2021 में आई थी. इस की खेती के लिए उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल जैसे राज्य ठीक माने जा रहे हैं. तकरीबन 127 दिनों में पकने वाली किस्म को मात्र एक सिंचाई की जरूरत पड़ती है. प्रति हेक्टेयर अधिकतम पैदावार 55 क्विंटल है. डीडीडब्ल्यू-47 गेहूं की इस किस्म में प्रोटीन की मात्रा सब से ज्यादा तकरीबन 12.69 फीसदी होती है. इस के पौधे कई तरह के रोगों से लड़ने में सक्षम होते हैं. कीट और रोगों से खुद की सुरक्षा करने में यह किस्म सक्षम है. प्रति हेक्टेयर उत्पादन तकरीबन 74 क्विंटल है.

अभिनेत्री: जीवन का किरदार जिसे प्रेम के छलावे से दोचार होना पड़ा

सैकड़ों आंखें उसे एकटक निहार रही थीं. उन सभी आंखों से छलकते खारे पानी को वह अपनी आंखों में महसूस कर रही थी. रुलाई फूटने से पहले उस का गला भर आया. वह बोलना चाह रही थी पर शब्द उस के गले में बर्फ की तरह जम गए थे. जमे हुए वे शब्द ही तरल हो कर जब आंखों की राह बहने लगे तो फिर उन्हें थामना मुश्किल हो गया.

अपने आंसुओं को रोकने के लिए उस ने पूरी ताकत लगा दी. वह चाह रही थी कि अपना आखिरी संवाद पूरा कहे. अक्षर उस के मस्तिष्क में पालतू कबूतरों के झुंड की तरह उड़ रहे थे. उसे महसूस हो रहा था कि वह उन्हें पकड़ सकती है पर वह बोल क्यों नहीं पा रही? बस 5-7 पंक्तियां ही तो हैं. उसे बोलना ही होगा, यह बहुत जरूरी है.

अभिनेत्री ने पूरी शिद्दत से अपनी रुलाई रोकी. एक बार जो शब्दों को हवा में उछालना शुरू किया तो फिर वह बोलती ही गई. वह समझ नहीं पा रही थी कि जो संवाद उस के लिए तय थे, वही बोल रही है या दूसरे. बस, वह बोले जा रही थी.

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अपनी भूमिका समाप्त होते ही वह चित्रवत खड़ी हो गई. धीरेधीरे प्रकाश उस पर कम से कमतर होता चला गया और पूरी रंगशाला में अंधकार छा गया. वह मंच से भागी. अब वह जी भर कर रोना चाह रही थी, सचमुच रोना. दौड़ कर वह रंगमंच के पिछले हिस्से में चली गई. दरवाजा अंदर से बंद कर लिया.

कुछ पल के बाद उसे लगा कि तालियों की गूंज से सारी रंगशाला हिल उठी हो. वहां बेतहाशा शोर मच रहा था और रंगमंच के परदे के पीछे की एक कोने में बैठी अभिनेत्री की आंखों का पानी रुक नहीं पा रहा था.

अचानक दरवाजे पर थापें पड़ने लगीं, ‘‘प्रीताजी…प्रीताजी बाहर आइए, दर्शक आप से मिलने को बेताब हैं.’’

वह उठना नहीं चाह रही थी. दरवाजा लगातार भड़भड़ाए जाने से झुंझला सी गई. जोर से चीखी, ‘‘क्या है, मैं पोशाक तो बदल लूं.’’

‘‘बस, कुछ देर की ही बात है, कृपया आप जल्द बाहर आइए.’’

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हार कर उसे दरवाजा खोलना पड़ा और अचानक उस छोटे से कमरे में भीड़ का सैलाब उमड़ आया. लोग उसे बधाइयां देने लगे, ‘‘क्या बात है, कैसा स्वाभाविक अभिनय था! आप ने तो सभी को रुला ही दिया.’’

‘‘क्या आप नाटक में सचमुच रोती हैं?’’ एक बच्चे ने जब उस से पूछा तो उस ने मुसकरा कर बच्चे का गाल थपथपा दिया.

‘कैसी अजीब जिंदगी है, उस का मन तो अब भी रोना चाह रहा है पर उसे जबरन मुसकराना पड़ रहा है,’ वह सोच रही थी.

‘रोना और हंसना तो अभिनय के बड़े स्थूल रूप हैं. सूक्ष्म मनोभावों को सहजता से चेहरे पर लाना उतना ही मुश्किल है जितना आंधी में उड़ते हुए पत्तों को बटोरना.’ इसी तरह की बहुत सारी बातें रविशेखर उस से किया करता था. उसे याद आया कि कितना तनावग्रस्त रहता था वह हर समय. रिहर्सल, पटकथा, पोस्टर, लाल रंग, सौंदर्यशास्त्र, वेशभूषा और न जाने क्याक्या? बस, हमेशा नाटक के बारे में ही सोचता रहता था.

घनी दाढ़ी, खादी का कुरता, अधघिसी जींस, गले में रुद्राक्ष की माला, कंधे पर खादी का थैला यानी विचित्र सा स्वरूप था रविशेखर का. बोलता तो बोलता ही जाता और चुप रहता तो घंटों ‘हूंहां’ ही करता रहता. अपनेआप को कुछ अधिक समझने की आदत तो थी ही उसे.

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प्रीता नाटकों में अभिनय करेगी, यह तो उस ने कभी सोचा भी न था. सब कुछ अचानक ही हुआ.

उसे याद आया, एक दिन सांझ को रविशेखर उस की मां के सामने आ खड़ा हुआ था. कहने लगा, ‘चाचीजी, आप के पास बड़ी उम्मीदों से आया हूं. 4 दिन बाद हमारे नाटक का मंचन होना है. जो लड़की उस की हीरोइन थी, परसों उसे लड़के वाले देखने आए. जब उन्हें पता चला कि लड़की नाटकों में हिस्सा लेती है तो कहने लगे कि हम नहीं चाहेंगे कि हमारी होने वाली बहू नाटकवाटक करे. बस, उस के घर वालों ने उसी वक्त से उस के थिएटर आने पर रोक लगा दी. 2 दिन जब वह रिहर्सल में नहीं आई तब मुझे पता लगा. अब आप के पास आया हूं. मेरे जीवन का यह महत्त्वपूर्ण नाटक है. निमंत्रणपत्र बंट चुके हैं. अब सबकुछ आप के हाथों में है. अगर प्रीताजी को आप आज्ञा दे दें तो मैं आप का एहसान जिंदगी भर नहीं भूलूंगा,’ कहतेकहते वह भावुक हो उठा था.

प्रीता जब चाय बना कर लाई तब यही बातें चल रही थीं. रविशेखर का प्रस्ताव सुन कर वह एकदम ठंडी पड़ गई. ठीक है, कालेज में वह गाना गाती रही है, पर नाटक. गाने और अभिनय करने में तो बेहद फर्क है.

मां ने तो यह कह कर पल्लू झाड़ लिया कि अगर प्रीता चाहे तो मुझे कोई एतराज नहीं. उस ने भी रविशेखर से साफ कह दिया था कि न तो उस ने कभी अभिनय किया है और न ही वह कर सकती है. तब कैसा रोंआसा हो गया था वह. कहने लगा, ‘यह सब आप मेरे ऊपर छोड़ दीजिए.’

उस के बाद बचे 4 दिनों में 5-5, 6-6 घंटे रिहर्सल चलती रही. एक से संवादों को बारबार बोलतेबोलते वह तो उकता सी गई.

शुरूशुरू में तो वह समझ ही नहीं पाई कि नाटक के प्रदर्शन के बाद जो तालियां बजी थीं उन में से आधी उसी के लिए थीं. लोग लगातार उसे मुबारकबाद दे रहे थे. रविशेखर की आंखों में सफलता के आंसू चमक रहे थे. परंतु प्रीता स्वयं समझ नहीं पा रही थी कि आखिर उस ने किया क्या है? नाटक ही कुछ ऐसा था जो उस की जिंदगी से बेहद मेल खाता था.

इस नाटक में एक ऐसी युवती की कहानी थी जो अपने पिता और मां के अहं के टकराव में ‘शटलकौक’ बनी हुई थी. इस पाले से उस पाले में उसे फेंका जा रहा था. कुछ तमाशबीन उस खेल को देख रहे थे और एक निर्णायक उस तमाशे का फैसला दे रहा था. जिंदगी के असली नाटक में शटलकौक प्रीता स्वयं थी और दर्शक के रूप में उस के रिश्तेदार व मातापिता के पारिवारिक मित्र थे.

अंतर सिर्फ यह था कि मंच पर खेले गए नाटक का अंत सुखद था. जिस युवती का अभिनय उस ने किया था वह अपने प्रयासों से अपने मातापिता को मिला देती है. पर वास्तविक जिंदगी में कितनी ही कोशिशों के बाद प्रीता अपने मातापिता को एक नहीं कर पाई थी.

कभीकभी वह सोचती कि ये लेखक यथार्थ पर नाटक लिखते हैं तो फिर उस का अपना यथार्थ और उस नाटक का अंत इतना उलट क्यों? कहां खुशी के आंसू और कहां जीवन भर का अवसाद. कभी प्रीता को लगता कि यह जीवन रंगमंच ही तो है. इतने सारे पात्र, हरेक पात्र की अपनी पीड़ा, हरेक पीड़ा की अपनी कहानी, हर कहानी का अपना अंत और हर अंत के अपने परिणाम.

पर कितना खुदगर्ज निकला रविशेखर. जब तक उसे प्रीता की जरूरत थी, कैसा भावुक बना रहा. रिहर्सल में वह अकसर पहले आ जाती थी क्योंकि उस का रोल हमेशा बड़ा रहता था. वह उस के दोनों हाथों को अपनी हथेलियों में भर कर थरथराते स्वर में कहता, ‘प्रीता, तुम्हारा संग रहा तो हम राष्ट्रीय स्तर पर जा पहुंचेंगे.’

उस नितांत भावुक व्यक्ति की बातें शुरूशुरू में तो प्रीता को बेहद सतही लगतीं पर धीरेधीरे ये संवाद उसे भले लगने लगे. रवि के संग प्रीता ने कई नाटक किए. वह निर्देशक रहता और प्रीता नायिका. बूढ़ी, ब्याहता, पागल युवती, विधवा, अभिसारिका, तनावग्रस्त प्रौढ़ा, हंसोड़, बिंदास आदि न जाने कितनेकितने चरित्रों को उस ने मंच पर जिया.

एक दिन रविशेखर खुशी में झूमता हुआ मिठाई का बड़ा सा डब्बा ले कर उन के घर आया और बोला कि उसे फाउंडेशन की छात्रवृत्ति मिल गई है. फिर वह उस बेमुरव्वत हवाईजहाज की तरह अमेरिका उड़ गया, जिसे ‘रनवे’ पर लगी उन बत्तियों से कोई सरोकार ही नहीं होता,  जिन की मदद से वह आसमान में परवान चढ़ता है.

रविशेखर के अमेरिका जाने के बाद उसे सहारा देने को कई हाथ बढ़े. पर तब तक प्रीता तरहतरह की भूमिकाएं और विभिन्न कलाकारों के संग रिहर्सल और शो करतेकरते जान चुकी थी कि हाथों की थरथराहट का मतलब क्या होता है. उंगलियों के दबाव और हथेली की उष्णता के विभिन्न अर्थ उस की समझ में आ चुके थे. एक कुशल अदाकारा की तरह मंच पर हीर बन कर प्रेमरस में डूबी नायिका रहती तो नेपथ्य में उसी रांझा को न पहचानने का अभ्यास भी उसे हो गया था.

पर बारबार उसे लगता कि उसे पुरुष की जरूरत है. ऐसे पुरुष की जो उस के मस्तिष्क में उमड़ते विचारों को बांध सके, ऐसे पुरुष की जो उस की अभिव्यक्ति के सैलाब को सही दिशा दे सके. वह बिजली बन कर उस पुरुष के आकाश में चमकना चाहती थी. वह चाहती थी कि एक ऐसा संपूर्ण पुरुष जो उसे नारीत्व की गरिमा प्रदान कर सके.

उन्हीं दिनों सुकांत आया. अचानक धूमकेतु की तरह मंच पर वह प्रकट हुआ. सुदर्शन, चमकीली आंखें, लंबी नाक, खिला हुआ रंग. बोलता तो बोलता ही चला जाता, फ्रायड से राधाकृष्णन तक, यूजीन ओ नील से अब्दुल बिस्मिल्लाह तक और अंडे की सब्जी से अरहर की दाल तक. पर इस का अर्थ यह नहीं कि उसे इन सब बातों के बारे में जानकारी थी.

शुरूशुरू में जब इतने सारे भारीभारी नाम सुकांत ने उस के सामने बोलने शुरू किए तो वह सहम सी गई. इतना पढ़ालिखा, इतना प्रखर. पर धीरेधीरे वह जान गई कि जैसे कुछ लोगों को दुनिया के सारे देशों की राजधानियों के नाम रटे होते हैं, पर उन से पूछा जाए कि एफिल टावर कहां है तो जवाब नहीं बनता, सुकांत भी कुछकुछ इसी किस्म का था. पर वह उसे अच्छा लगने लगा. शायद इसलिए कि सुकांत की बातों से उसे एहसास होता कि वह बहुत भोला है.

रविशेखर प्रतिभाशाली था, पर उतना ही खुदगर्ज. कभीकभी वह रविशेखर और सुकांत की तुलना करने लगती तो सुकांत उसे भोला, सुंदर और थोड़ाथोड़ा मूर्ख लगता. अभिनय का शौक सुकांत को भी था, पर वह फिल्मी दुनिया में जाने को उतावला था. उस के मनोहर रूप और लंबेचौड़े व्यक्तित्व से उसे लगने लगा कि सुकांत जरूर हीरो बनेगा.

एक दिन नवंबर की एक शाम की हलकीहलकी ठंड में सुकांत ने उस के दोनों हाथों को अपनी गरम हथेलियों में भर के विवाह का प्रस्ताव रख ही दिया तो वह इनकार न कर सकी.

दूर के ढोल सुहावने होते हैं. सुकांत की जो बेवकूफियां विवाह से पहले उसे हंसातीं और गुदगुदाती थीं, अब वही असहनीय होने लगीं. बातबात में वह उस से अपनी तुलना करने लगता. सुकांत को मंच पर नाटक करने में कोई रुचि नहीं थी. वह थिएटर का इस्तेमाल सीढ़ी की तरह करना चाहता था.

उस के बहुत कहने पर एक बार उन दोनों ने एक नाटक में अभिनय किया. सुकांत ने उस नाटक में अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ अभिनय किया, पर बधाई देने वाले प्रीता के इर्दगिर्द ही ज्यादा थे. उस दिन से सुकांत कुछ अधिक ही उखड़ाउखड़ा रहने लगा. उस के बाद वह जानबूझ कर उन अवसरों को टालने लगी, जब उसे और सुकांत को एकसाथ अभिनय करना होता.

एक बार थिएटर में उस के नए नाटक का प्रदर्शन था. एक गूंगी लड़की की भूमिका उसे करनी थी. उस के हिस्से में संवाद नहीं थे, पर इतने दिनों के अनुभव से वह जान गई थी कि आंखों और चेहरे की भावभंगिमा से कैसे मन की बात कही जाती है. संयोग ही था कि यह सब उस ने एक गूंगी लड़की से ही सीखा था. उस की पड़ोसन रजनी की एक ननद सुनबोल नहीं पाती थी. कितनी प्यारी लड़की थी वह. उस के संग वह घंटों बातें करती रहती, पर बात जबान से नहीं, आंखों और हाथों से होती थी.

गूंगी लड़की के अद्भुत किरदार को निभाने के बाद तो वह मंच की रानी ही बन गई. कितनी सारी तालियां, कितना सम्मान, कितना स्नेह उसे एकसाथ मिल गया था. उस ने सोचा, सुकांत आज बेहद खुश होगा, पर नेपथ्यशाला से निकल कर वह बाहर आई तो सुकांत उसे कहीं नहीं दिखा. हार कर नाटक के निर्देशक विनय उसे स्कूटर से घर छोड़ने आए थे.

घर में अंधेरा था. घंटी बजाने पर सुकांत ने दरवाजा खोला. चढ़ी आंखें, बिखरे बाल.

‘‘क्या तुम्हारी तबीयत खराब है, सुकांत?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘तुम ने नाटक देखा?’’

‘‘हां, आधा.’’

‘‘पूरा क्यों नहीं?’’

‘‘प्रीता, मैं तुम से कुछ कहना चाहता हूं.’’

सुकांत की आवाज सुन कर वह सहम गई. वह कुछ बोल नहीं पाई.

‘‘प्रीता, क्या तुम थिएटर छोड़ नहीं सकतीं?’’

वह हतप्रभ रह गई कि सुकांत उस से कह क्या रहा है. उसे अपने कानों पर अविश्वास हो रहा था कि क्या सुकांत ने जो शब्द कहे वे उस ने सही सुने थे. वह फटीफटी आंखों से सुकांत को देख रही थी. उसे लगा कि सुकांत की आंखों में भी वही भाव हैं जो तब रविशेखर की आंखों में रहे थे, जब उस ने छात्रवृत्ति मिलने पर अमेरिका जाने की खबर सुनाई थी.

जानते हुए भी कि सुकांत का उत्तर क्या होगा, वह उस से पूछना चाह रही थी कि क्यों, आखिर क्यों? पर शब्द उस के कंठ में फंस गए. वह न उन्हें उगल सकती थी और न निगल सकती थी. एक दर्द का गोला उस के दिल से उठा और चेतना पर छाता चला गया.

बंद कमरे में फंसी, खुले आकाश में उड़ने को छटपटाती, तेज घूमते पंखे से टकराई चिडि़या सी वह धड़ाम से फर्श पर गिर कर तड़पने लगी.

 

क्रिकेट में मात

टी-20 क्रिकेट वर्ल्डकप के 2 मैचों में लगातार हार के बाद ‘मोदी ही क्रिकेट में जिताएंगे’ कहने वालों और ‘मोहम्मद शमी की वजह से पाकिस्तान से हारे’ का नारा लगाने वालों के मुंह में गोबर भर गया है. पाकिस्तान से 10 विकेट की और न्यूजीलैंड से 8 विकेट की हार ने बता दिया है कि भारतीय क्रिकेट के शायद भारतीय हौकी वाले दिन आ गए हैं. नारों और जुमलों पर जीने वाली टीम क्रिकेट क्राफ्ट वैसे ही भूल चुकी है जैसे क्रिकेट के अंधभक्त, जिन में ज्यादातर धर्मभीरु अंधभक्त ही हैं, भाजपा सरकार के गवर्नैंस के स्टेट क्राफ्ट को पकड़ नहीं पाए.

भारत में क्रिकेट और क्रिकेटर तब भी ऊंची जमातों के लिए आदर्श रहे जब भारत 8-10 खेलने वाले देशों में से आखिरी पायदान पर हुआ करता था और देश अमरनाथ व मांजरेकर के गुण गाया करता था. हौकी में जीतते थे पर उसे तब भी और आज भी नीचे, दलितों, बैंकवार्डों, गरीबों का खेल समझा जाता है.

जब 5 दिनों के टैस्ट मैच होते थे, लोग सारे दिन ट्रांजिस्टर कान पर लगाए अपने क्रिकेटरों को 5-10 रन बना कर स्टेडियम में लौटते हुए और अपने बौलरों की गेंदों पर छक्केचौके लगते सुनते थे. आज क्रिकेट चतुर लोगों की वजह से अरबपति खेल बन गया है और 300 करोड़ से ज्यादा का वेतन क्रिकेटरों को मिलता है. सट्टेबाज क्या किसे देते हैं, यह राज कभी खुलेगा नहीं क्योंकि सरकार, पुलिस सब क्रिकेटरों के साथ हैं.

पाकिस्तान के साथ खेलते हुए 10 विकेट से हारने को एक घटना माना गया था पर उस के तुरंत बाद न्यूजीलैंड से 8 विकेट से हारना साबित कर गया है कि हमारे आकाओं के लिए क्रिकेट सिर्फ पैसा फेंको, तमाशा देखो वाला मामला है. अगर बीच के सालों में भारतीय टीम जीतती रही तो इस का एक कारण यह भी था कि दुनियाभर के क्रिकेटरों को पैसा भारतीय दर्शक और भारतीय सट्टेबाज ही देते रहे हैं. इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड में इस खेल का बहुत ज्यादा महत्त्व नहीं है.

यह खेल सिर्फ कोलोनियों का है और अब जो नए देश जुड़ रहे हैं उन में भी वे देश ज्यादा हैं जो बिटिश राज के गुलाम रहे हैं. यह खेल साहबों का है जिस में एक समय में 1 या 2 हिलतेडुलते हैं. फुटबौल, हौकी, बास्केटबौल की तरह नहीं जिन में 90 मिनट या ज्यादा समय तक हर खिलाड़ी भागता रहता है. ये भारतीयों के वश का ही नहीं है.

क्रिकेट की हार कुछ दिनों के लिए भारत को खेलों में अपनी औकात दिखाएंगी. हमारे खेल तो हरियाणा के बांसों के खेतों में पनपते हैं, साहबों के क्रिकेट क्लब में नहीं जहां खिलाड़ी करोड़ों की गाडिय़ों में आते हैं.

गरम लोहा

गरम लोहा – भाग 3 : बबीता ने क्यों ली पति व बच्चों के साथ कहीं न जाने की प्रतिज्ञा?

‘‘क्या बात है बबीता आयूष की शादी के नाम पर तुम इतनी चुपचाप बैठी हो… अभी तक तुम ने कोई तैयारी भी शुरू नहीं की… सब कुछ ठीक तो है न?’’ ‘‘हां ठीक है,’’ मैं ने जानबूझ कर संक्षिप्त जवाब दिया पर यह जवाब उन के कान खड़े करने के लिए पर्याप्त था.

‘‘कोई परेशानी है?’’ मेरी खामोशी से अपूर्व विचलित नजर आए. तीर निशाने पर लगता देख मैं अपने प्लान की कामयाबी के प्रति आश्वस्त होते हुए गंभीर मुद्रा बना कर बोली, ‘‘मैं नहीं जा रही शादी में.’’

‘‘क्यों? क्या हो गया?’’ तीनों बुरी तरह चौंके.‘‘भूल गए मेरी भीष्म प्रतिज्ञा?’’ मैं ने ऋतिक की तरफ देखते हुए कहा.‘‘अरे मम्मा, मामा की शादी हो जाने दो, फिर ले लेना प्रतिज्ञा,’’ नटखट ऋतिक अपनी शैतानी से बाज नहीं आ रहा था. पर मैं ने अपनी हंसी पर पूर्ण नियंत्रण रखा था.

‘‘मैं सीरियस हूं. मेरी बात को कौमेडी बनाने की जरूरत नहीं है,’’ कह कर मैं जल्दीजल्दी अपना खाना खत्म कर प्लेट सिंक में रख बैडरूम में चली गई.‘‘पापा, लगता है मम्मा नाराज हैं हम लोगों से,’’ गौरव की फुसफुसाती आवाज सुनाई दी मुझे.‘‘तुम लोग चिंता न करो, अगर वह नाराज होगी तो मैं संभाल लूंगा,’’ अपूर्व ने बच्चों से कहा.

दूसरे ही दिन दोपहर में औफिस से अपूर्व का फोन आया. मेरे हैलो बोलते ही कहने लगे, ‘‘बबीता, आज सोच रहा हूं शाम को घर जल्दी आ जाऊं. आयूष की शादी की शौपिंग कर लेते हैं. मेरी भी सारी पैंटशर्ट्स पुरानी हो गई हैं.2-4 जोड़ी कपड़े नए ही ले लेता हूं और तुम भी अपने लिए नईनई साडि़यां ले लो. आखिर इकलौते भाई की शादी है, पुरानी साडि़यां थोड़े ही जंचेंगी तुम पर.’’

बड़ी मुश्किल से अपनी हंसी पर काबू रख पाई थी मैं अपूर्व से बात करते समय. सोचने लगी जब तक प्यार से मिन्नतें करती थी कि अपनेअपने कपड़ों की खरीदारी में तो कम से कम मेरा साथ दिया करो तुम सब तब तक किसी के ऊपर मेरी बात का असर नहीं हुआ पर जरा सी टेढ़ी हुई नहीं कि एक झटके में जिम्मेदारी का एहसास हो गया जनाब को.

उधर कालेज से आते ही गौरव ने कहा, ‘‘मम्मा, कल रात मैं ने नैट पर सर्च किया. औनलाइन बड़ी अच्छीअच्छी शर्ट्स मिल रही हैं. सोच रहा हूं मामा की शादी के लिए इस बार औनलाइन ही कपड़े मंगवा लूं. ख्वाहमख्वाह ही तुम्हें हम लोगों के कपड़ों के लिए बाजार के कई चक्कर लगाने पड़ते हैं.’’

मेरा तीर निशाने पर लगा था. अपूर्व और बच्चे दोनों ही अपनेअपने कपड़ों के इंतजाम में जुट गए तो मुझे भी लगा कि अपना रुख थोड़ा ढीला कर देना चाहिए.

एक दिन जब अपूर्व ने सूटकेस निकाल कर उस में कपड़े डालते हुए कपड़े पैक करने की पहल की तो मुझ से रहा नहीं गया. मैं हंसते हुए बोली, ‘‘अब बस रहने दो. यह सब काम तुम्हारे वश का नहीं है. तुम लोगों ने अपने कपड़े अपनी पसंद के खरीद लिए और यह तय कर लिया कि किस अवसर पर क्या पहनोगे यही मेरे लिए बहुत है. कहीं जाने की तैयारी के लिए इस से अधिक की अपेक्षा नहीं करती मैं तुम लोगों से.’’

‘सच लोहा जब गरम हो तब वार करने पर वस्तु को मनपसंद आकार दिया जा सकता है. कहने को उसके पास सब कुछ है अच्छी नौकरी, दिल्ली जैसे शहर में अपना घर, एक लाइफ पार्टनर, लेकिन फिर भी वह अकेली है पास बैठे पति से बात करने के बजाय वह सोशल साइट्स पर ऐसा कोई ढूँढती रहती है जिससे अपनी फीलिंग्स शेयर कर सके.

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