लेखक- शैलेंद्र सिंह
पुलिस का काम कानून का राज स्थापित कर जनता को भयमुक्त करना है. अपराध रोकने के नाम पर पुलिस जनता का उत्पीड़न कर रही है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के क्षेत्र गोरखपुर में पुलिस की हिरासत में व्यापारी मनीष की मौत और उस के बाद उस पर लीपापोती बताती है कि उत्तर प्रदेश पुलिस बदलने को तैयार नहीं है. 2018 में इसी तरह से लखनऊ में विवेक तिवारी की हत्या हुई थी. जांच के नाम पर नागरिकों के साथ ऐसी घटनाएं पुलिस को वरदी वाला गुंडा बनाती हैं. गोरखपुर में चंदन सैनी सिकरीगंज के महादेवा बाजार में रहते हैं.
वे बिजनैसमैन हैं. चंदन सैनी ने अपने कानुपर और गुरुग्राम में रहने वाले बिजनेसमैन दोस्तों को गोरखपुर घूमने के लिए बुलाया. वे यह दिखाना चाहते थे कि योगी के राज में गोरखपुर कितना बदल गया है. कानपुर के रहने वाले प्रौपर्टी डीलर 35 साल के मनीष गुप्ता अपने 2 साथियों के साथ गुरुग्राम से प्रदीप चौहान उम्र 32 साल और हरदीप सिंह चौहान उम्र 35 साल गोरखपुर आ गए. ये तीनों दोस्त गोरखपुर के थाना रामगढ़ क्षेत्र में एलआईसी बिल्ंिडग के पास कृष्णा पैलेस के कमरा नंबर 512 में रुक गए. 27 सितंबर की रात 12 बज कर 30 मिनट पर रामगढ़ पुलिस होटल चैकिंग करने पहुंची. इस में इंस्पैक्टर जे एन सिंह और अक्षय मिश्रा के अलावा थाने के कुछ सिपाही थे. पुलिस ने होटल चैकिंग के नाम पर कमरा खुलवा कर सोते लोगों को जगा कर उन से आईडी यानी परिचयपत्र दिखाने को कहा.
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मनीष के 2 दोस्तों ने अपनी आईडी दिखा दी. जब मनीष को अपनी आईडी दिखाने को कहा तो वह बोला, ‘‘रात में सोते हुए लोगों को जगा कर आईडी देखने का यह कौन सा समय है.’’ मनीष का इतना कहना वरदी के रोबधारी पुलिस को सहन नहीं हुआ. वह भड़क उठी. मनीष को कमरे के बाहर ले कर जाने लगी. इस दौरान मनीष ने कानपुर में रहने वाले अपने भांजे को फोन कर मदद करने की गुहार लगाते कहा, ‘‘पुलिस होटल के कमरे में चैकिंग करने के नाम पर उस के साथ अपराधियों सा व्यवहार कर रही है.’’ मनीष का भांजा कानपुर में भारतीय जनता पार्टी का नेता भी है. मनीष को उम्मीद थी कि वह कुछ मदद कर सकता है. इस के पहले कि भांजा कुछ प्रयास करता, पुलिस मनीष को अपराधी की तरह ट्रीट करने लगी. घायल हालत में पुलिस मनीष को अस्पताल ले गई जहां उस की मौत हो गई.
गोरखपुर पुलिस ने अपने आधिकारिक बयान में कहा, ‘‘पुलिस ने होटल के कमरे की जांच की. 3 लोग थे. 2 के पास आईडी थी. तीसरे के पास नहीं थी. पुलिस को देख कर तीसरा आदमी भागा और हड़बड़ा कर गिर गया. और उस की मौत हो गई कमरे के फोटो और मनीष की अपने भांजे से फोन पर कानपुर बात करने का सुबूत सामने आने के बाद यह साफ है कि मनीष हड़बड़ा कर भागा नहीं. उसे पुलिस कमरे से बाहर ले गई. बाद में उस के दोस्तों ने उसे खून से लथपथ देखा और पुलिस उस को अस्पताल ले गई.’’ इस दौरान पुलिस ने मनीष के परिजनों पर दबाव डाला कि वे मुकदमा कायम न कराएं. मामला तूल पकड़ गया, जिस के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की चारों तरफ आलोचना होने लगी.
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मनीष की पोस्टमार्टम रिपोर्ट आने के बाद पुलिस की कहानी में छेद ही छेद नजर आने लगे. पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मनीष के सिर में चोट के गहरे निशान एकदम बीचोंबीच हैं. ये केवल गिरने से नहीं आ सकते. चोट काफी गहरी है. दाहिने हाथ की कुहनी, कुहनी के ऊपर और कुहनी के नीचे चोट के निशान मिले हैं. बाईं आंख की पुतली के ऊपर भी चोट के निशान हैं. इस के अलावा पेट के अंदरूनी हिस्से में भी चोट के निशान हैं. ऐसे चोट के निशान केवल गिर कर चोट खाने से नहीं आ सकते.
गोरखपुर का मामला होने से विपक्ष भी हमलावर हो गया. बचाव की मुद्रा में आई योगी सरकार ने एक बार फिर से सरकारी सहायता दे कर पीडि़त की पत्नी को राहत देने का काम किया. मनीष की पत्नी मीनाक्षी को कानपुर में सरकारी नौकरी और 10 लाख रुपए मदद का भरोसा दिलाया. विपक्षी नेताओं के साथ ही साथ पीडि़त परिवार की मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात कराई गई. हो सकता है कि यह मामला ठंडा पड़ जाए पर क्या इस से प्रदेश की पुलिस बदलेगी? इस सवाल का उत्तर न में है. इस का कारण यह है कि पिछले 4 सालों में ऐसे तमाम मामले देखे गए हैं. 2019 में ऐसा ही एक मामला उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में घटित हुआ. एपल कंपनी के एरिया सेल्स मैनेजर विवेक तिवारी रात में औफिस के काम को खत्म कर के घर वापस जा रहे थे. गाड़ी में उन के साथ कंपनी की महिला अधिकारी भी थी. गोमतीनगर इलाके में पुलिस ने विवेक तिवारी को रुकने के लिए हाथ दिया.
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विवेक ने गाड़ी रोकने में कुछ पल की देरी कर दी. इतने में एक सिपाही ने अपनी बाइक गाड़ी के आगे खड़ी कर कार को रोक लिया और फिल्मी अंदाज में रिवौल्वर निकाल कर विवेक तिवारी के सीधे माथे पर गोली मार कर मार डाला. मनीष गुप्ता जैसा ही हंगामा मचा. योगी सरकार ने विवेक की पत्नी को नौकरी दे कर मामले को ठंडा कर दिया. सरकारी सहायता दे कर मामले भले ही ठंडे हो जाएं पर इस से पुलिस का चेहरा नहीं बदलने वाला. कानपुर का विकास दुबे कांड भी इस का उदाहरण है. जहां पुलिस ने विकास दुबे सहित उस के कई साथियों का एनकाउंटर किया. तमाम निर्दोष लोगों को जेल भेज रखा है.
विकास दुबे अपराधी था. उस ने भी पुलिस पर हमला कर कई पुलिस वालों को मार दिया था. पर पुलिस कमजोर लोगों पर भी अत्याचार करती है. वह पीडि़त के साथ कम, पीड़ा देने वाले के साथ अधिक रहती है. उन्नाव में भाजपा के विधायक कुलदीप सेंगर को रेप के मामले से बचाने के लिए पुलिस ने पीडि़त लड़की के परिवार पर जुल्म किए. शाहजहांपुर में भाजपा के पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वामी चिन्मयानंद द्वारा अपने ही कालेज की लड़की से मसाज कराने और उस का यौनशोषण करने का मसला सामने आया तो पुलिस ने पीडि़त का साथ न दे कर उस के खिलाफ ही ब्लैकमेल करने का मुकदमा दर्ज कराया. ऐसे मामलों की लंबी लिस्ट है जहां पुलिस के उत्पीड़न के मामले देखने को मिलते हैं. सामान्य मामलों में भी ऐसे बहुत से प्रमाण हैं. बस्ती जिले में दारोगा दीपक सिंह ने एक लड़की को अश्लील मैसेज भेजना शुरू किया.
जब लड़की ने इस बात की शिकायत अपने परिवार के लोगों से की तो दारोगा ने उस के घर वालों पर मुकदमे करा दिए. ऐसे मामले बहुत सारे हैं. नहीं बदल रही पुलिस की छवि उपन्यासकार वेद प्रकाश शर्मा का उपन्यास ‘वरदी वाला गुंडा’ 1993 में प्रकशित हुआ था. इस की तैयारी में उन को लंबा समय लगा था. वेद प्रकाश शर्मा ने 80 के दशक में पुलिस अत्याचार को देखा था. उसी को आधार ले कर उक्त उपन्यास को लिखा. 8 करोड़ प्रतियां इस की बिक चुकी हैं. इस को सफलतम उपन्यास माना जाता है. इस का मूल विषय वरदी पहन कर अपराध करने वाली पुलिस की कार्यशैली थी. जिस समय वेद प्रकाश शर्मा इस उपन्यास की भूमिका बना रहे थे, पुलिस एनकाउंटर करने में सब से आगे थी. इस का सब से बड़ा कारण यह था कि अपराधियों के एकाउंटर करने वाले पुलिसकर्मियों को ‘आउट औफ टर्न प्रमोशन’ मिलता था.
इस के लालच में तमाम फर्जी एनकाउंटर होने लगे थे. धीरेधीरे सरकार ने एनकाउंटर पर रोक लगाने के लिए इस की मजिस्ट्रेट जांच शुरू की. इस के अलावा ‘आउट औफ टर्न प्रमोशन’ को भी रोका गया. पिछले 20-25 सालों में पुलिस की कार्यशैली में सुधार के तमाम प्रयास किए गए. पुलिस को मित्र पुलिस बनाने, उस को प्रोफैशनल बनाने के तमाम काम किए गए. इस के बाद भी पुलिस अभी भी वरदी वाला गुंडा ही बनी हुई है. इस के एक नहीं, तमाम उदाहरण देखने को मिल सकते हैं. उत्तर प्रदेश में जब योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री के रूप में अपना कार्यभार संभाला तो उन्होंने पुलिस से कहा, ‘‘प्रदेश को अपराधमुक्त करना है. अपराधी या तो जेल में रहे या उत्तर प्रदेश के बाहर रहे.’’ इस के लिए पुलिस को ‘ठोक दो’ का हथियार भी दे दिया. मुख्यमंत्री की छूट का नतीजा यह हुआ कि पुलिस बेलगाम हो गई.
अपराध तो वह रोक नहीं सकी, लोगों के घर गिराने और एनकाउंटर करने के साथ ही साथ वह उन का पुलिसिया उत्पीड़न करने लगी. बड़ी संख्या में गुंडा एक्ट लोगों पर लगाया जाने लगा. मुख्यमंत्री ने अपराधियों के खिलाफ सख्ती करने का आदेश दिया था. पुलिस आम लोगों को परेशान करने लगी. इस की सब से ताजा मिसाल मुख्यमंत्री के ही गृहजनपद गोरखपुर में घट गई. पुलिस के काम करने की शैली मुख्यमंत्री की छवि खराब कर रही है. इस की सब से बड़ी वजह यह है कि पुलिस गृह विभाग के अंदर आती है जिस के प्रमुख मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद हैं. पुलिस को तमाम छूट और सुविधाएं देने के बाद पुलिस अपना तरीका बदलने को तैयार नहीं है.
आंकड़े बताते हैं कि योगी राज में 21 मार्च, 2017 से 15 फरवरी, 2021 के बीच प्रदेश में पुलिस और अपराधियों के बीच 7,500 मुठभेड़ हो चुकी हैं. 132 अपराधी मारे जा चुके हैं. 2,900 से अधिक घायल हो चुके हैं. विकास दुबे के द्वारा मारे गए पुलिस वालों की संख्या जोड़ने के बाद 14 पुलिस के लोग शहीद हुए और 1,100 घायल हो गए. पुलिस का काम कानून के राज को स्थापित करना है. लोगों को सजा देने का काम कानून का है. उत्तर प्रदेश में पुलिस ने सजा देने का काम भी अपने हाथों में ले लिया, जिस की वजह से सरकार की छवि खराब हो रही है. जिस का प्रभाव उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों पर पड़ सकता है.