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Motivation : बुरे दौर से निकलने के लिए फ्रेश स्‍टार्ट करें, टोटके नहीं

Motivation : सब कुछ समय पर छोड़ कर, हाथ पर हाथ रख कर बैठने से कुछ सही नहीं होगा. चीजें और ज्यादा खराब ही होंगी. अपनी समस्यों से भागे नहीं बल्कि उन का सामना करते हुए कोशिश करते रहें और सब कुछ खुद से ही ठीक करने की कोशिश करें.

इसे ऐसे समझें

अगर कोई दूसरी कक्षा का छात्र शिकायत करे कि उस से दसवीं कक्षा के सवाल नहीं हल हो रहे, तो उसे आप समझदार कहेंगे या उस की बात पर हंस देंगे? दसवीं कक्षा के सवाल हल करने की कोशिश आठवींनौवीं में आ कर करना, अभी जो सामने है उस को समझें और उचित कदम उठाएं. कुछ लोग हर बात में कह देते हैं कि वक्त के साथ सब ठीक हो जाता है. अरे भईया, अगर आप की टांग टूटी है और आप डाक्टर के पास नहीं गए, आप ने प्लास्टर नहीं करवाया. तो बेशक आप की टांग ठीक हो जाएगी. लेकिन आप जिंदगी भर लंगड़ाते रहोगे.

क्यूंकि जिस तरीके वो टूटी है न वो वैसे ही वह उलटी सीधी जुड़ जाएगी. लेकिन अगर उसे सही जगह जुड़वाना है तो वह खुद नहीं जुड़ेगी बल्कि डाक्टर की मदद से सही जगह जोड़नी पड़ेगी. वक्त पर छोड़ कर हाथ पर हाथ रख कर बैठने से सिर्फ नुकसान ही होगा, चीजें और उलझ सकती हैं आप को ठीक करना पड़ता है. इसी तरह वक्त के साथ सब ठीक नहीं होता. इसलिए प्रोफेशनल गाइडेंस ले, अपने आसपास के लोगों से मदद लें.

ये मत समझिए कि वो तो वीक लोगों का काम है. अगर आप को अपने को पूरी तरह से ठीक करना है तो ये तो करना ही पड़ेगा. अपनी समस्याओं का हल भी निकालना पड़ेगा और उन्हें ठीक भी करना पड़ेगा. जो ये सोचते हैं ठीक हो जाएगा उन के अपने घर में कमजोरी है. वो अपनी कमजोरी पर ध्यान नहीं दे रहें और सोचते हैं कि सब अपने आप ठीक हो जाएगा.

अगर लड़का पढ़ा नहीं, तो पिता का खुद का मध्यम वर्ग है, मां पढ़ीलिखी तो है पर नौकरी नहीं करती, वो जो 40 -50 हजार की आमदनी है उसी में खुश है. लड़के को पढ़ाने में उन्होंने कोई रूचि नहीं दिखाई, लड़के ने कोई स्किल भी सीखने की कोशिश नहीं की. क्यूंकि उसे लाइफ में कुछ करने, आगे बढ़ने की प्रेरणा कहीं से मिली ही नहीं, वह भी मां की तरह जो जैसा है उसी में खुश है. उसे भी लाइफ में आगे बढ़ कर कुछ नया करने की सोच या इच्छा नहीं है. फिर सब सोचते हैं सब ठीक हो जाएगा. अरे, ठीक कहां से होगा जब सारे इनपुट खराब है.

ये वही परिवार हैं जो चमत्कारों के भरोसे बैठे हैं. और बड़ाबड़ा चढ़ावा पंडितों को देते हैं, वो भी इन की कुंडली देख कर बेतुके हल बताते हैं कि अपने आप सब ठीक हो जाएगा. अभी ग्रह नक्षत्र की दिशा कुछ सही नहीं है, समय सही नहीं चल रहा, कुछ समय बाद अपने आप सब ठीक हो जाएगा.
अपनी जमीनी हकीकत को देखों चीजें अपने आप नहीं ठीक होती हैं.
आप बगैर इट, सीमेंट लाए पक्का मकान नहीं बना सकते. कच्चा मकान घासफूस से बना भी लिया तो इस तरह पहली बारिश में वो ढह जाएगा. इसलिए पहले अपने घर की नींव मजबूत करें. अपने घर की समस्याएं हल करें.

इस के लिए किसी की मदद लें सही करने के लिए हाथपैर मारें और इन पंडितों के जाल से बाहर निकल कर हकीकत की दुनिया में कदम रखें और वक्त के साथ सब सही नहीं होता बल्कि वक्त के साथ कदम से कदम मिला कर चलें और सब सही करने की कोशिश में खुद जुट जाएं. आइए जाने कुछ ऐसे ही सिचुएशन के बारे में जिन का हल खुद नहीं निकलता बल्कि निकालना पड़ता है.

सिचुएशन-1 लड़का कमाता नहीं, तो कोई नहीं शादी करा दो जिम्मेवारी आ जाएगी

कई घरों में देख ने में आता है कि अगर लड़का घर पर बेकार बैठा है, वो कुछ कमाता नहीं है, उसे किसी भी चीज कि कोई जिम्मेवारी नहीं है, तो अक्सर मातापिता को लगता है या रिश्तेदार ऐसा कहते हैं कि कोई नहीं अब इस की शादी करा देते हैं जिम्मेवारी पड़ेगी बीवी आएगी तो कमाना सीख ही लेगा. जब सर पर पड़ती है तो सब आ ही जाता है, समय के साथ सब ठीक हो जाएगा.

हल क्या है- अपने निकम्मे लड़के की शादी करा देने से वह जिम्मेवार हो जाएगा यह सोच ही अपने आप में गलत है. बल्कि उस के बाद तो आप दोदो लोगों की जिम्मेवारी झेलेंगे. इस से तो अच्छा है अपने घर को ठीक करें, पहले जाने की बेटा पढ़ा क्यूं नहीं? क्या उस की रूचि किसी और चीज में है? उसे कोई प्रोफेशनल हेल्प दिलाएं, उस की समस्याओं का पहले हल निकाले, उसे किसी और स्किल में तैयार करें, किसी के साथ कोई बिजनेस कराएं और अगर वह चल पड़े तब शादी का सोचें.
किसी पंडित के कहने में आ कर कि शादी के बाद बेटा कमाने लगेगा यह बात ठीक नहीं है. शादी के बाद कोई चमत्कार नहीं होने वाला. बल्कि ऐसा कर के आप लड़की की जिंदगी भी खराब कर रहे हैं. जब तक बेटा कमाने लायक ना हो जाएं तब तक उस की शादी करना ठीक नहीं.

सिचुएशन 2-शादी में कुछ ठीक नहीं चल रहा कोई नहीं बच्चा कर लो सब ठीक हो जाएगा

कई बार देखने में आता है कि शादी में अगर पतिपत्नी की आपस में बन नहीं रही हो. दोनों के बीच झगड़े बढ़ते ही जा रहे हो, दोनों को एकदूसरे की शकल तक पसंद नहीं, बात इतनी बढ़ती जा रही है कि घरवालों तक पहुंच गए. बस फिर क्या था उन्होंने निकाल लिया एक हल कि बच्चा कर लो सब ठीक हो जाएगा. अब यहां यह बात समझ नहीं आई कि लड़ाई पतिपत्नी की है उस में बच्चे का क्या रोल.
उलटे बच्चे के आने से दोनों का रिश्ता और ज्यादा खराब हो जाएगा, बच्चे की जिम्मेवारी को ले कर झगड़े और बढ़ेंगे. तब तो हालत यह हो जाएगी कि न छोड़ते बनेगा और न ही साथ रहते. इसलिए सब ठीक करने का यह तरीका बहुत गलत है. कई बार पतिपत्नी बच्चे के चलते अपनी टोक्सिक शादी को निभाने के लिए मजबूर हो जाते हैं और फिर आधी जिंदगी लड़तेमरते बीत जाने पर बच्चों के बड़ा होने पर अलग होने का कोई फैसला करते है इस में ताउम्र बच्चे भी पिसते है.

हल क्या है- पतिपत्नी में अनबन है तो समय के साथ बच्चा होने पर कुछ भी ठीक नहीं होगा बल्कि अब 2 नहीं 3 लोग इस शादी में पीसेंगे इसलिए अगर नहीं बन रही है तो साथ बैठ कर बातचीत के जरिए अपने मसलों को सुलझाएं.
अगर फिर भी बात नहीं बन रही और लग रहा है गलत साथी का चुनाव हो गया है तो बच्चा लाने की तो सोचिए भी मत बल्कि इस टोक्सिक शादी से बाहर कैसे निकला जाए इस पर विचार करें ऐसे शादी में बच्चा समस्या का हल नहीं बल्कि खुद एक बड़ी समस्या बन कर पतिपत्नी के सामने आ जाता है.

सिचुएशन 3- पढ़ाई में मन नहीं है तो भी कौमर्स दिला दो, एडमिशन हो जाएगा तो पास भी हो ही जाएगा

अगर टीनएजर का मन नहीं है पढ़ाई में और उस ने स्कूल भी बहुत रो रो कर पास किया है, तो फिर ऐसे में यह सोचना कि कोई नहीं कालेज में एडमिशन तो लेना ही पड़ेगा, जब एडमिशन हो जाएगा तो पढ़ भी लेगा ही. ये सोच गलत है. ऐसे में वह और भी फ़्रस्टेटिड हो जाएगा. उसे पता ही नहीं चलेगा कि उसे लाइफ में करना क्या है. पढ़ाई वह कर नहीं पा रहा बिजनेस की उसे समझ नहीं. इसलिए कुछ सालों बाद न उसे जौब मिलेगी न ही कोई और स्किल उस के पास होंगे.

हल क्या है- अगर टीनएजर की पढ़ने में रूचि कम है तो उस के साथ बैठे उस की समस्याओं को समझें कि आखिर क्या वजह है जो वह पढ़ नहीं पा रहा. उसे कोई गाइडेंस चाहिए तो वो दें. उस का इंट्रेस्ट पढ़ाई में नहीं है और वो डांस, सिंगिंग या किसी और लाइन में कुछ करना चाहता है तो उसे वह कराएं. कई बार टीनएजर अपने मन के काम के ज्यादा सफल हो सकते हैं. पढ़ाई तो प्राइवेट भी पूरी कराई जा सकती है.

सिचुएशन 4- सासबहू की नहीं बन रही हो भी साथ में रहो समय लगेगा सब ठीक हो जाएगा

अगर सासबहू की नहीं बन रही, उन की पटरी साथ में नहीं जम रही, दोनों एकदूसरे को टार्चर करने और नीचे देख ने का एक भी मौका नहीं छोड़ रहीं तो भी साथ में रहों क्यूंकि सब ठीक जो करना है. भले ही इस ठीक करने के चक्कर में सासबहू के साथसाथ और भी रिश्ते दांव पर क्यूं न लग जाए, पतिपत्नी का रिश्ता तलाक तक क्यूं न पहुंच जाएं? पर साथ में रहना जरुरी है. क्या ये सही है?

हल क्या है – अगर सासबहू की नहीं बन रही, तो ये किस किताब में लिखा है कि दोनों को पूरा जीवन लड़तेमरते एक ही घर में रहना जरुरी है? क्यूं बहू अलग घर में नहीं रह सकती? जब कि अगर नहीं बन रही और अलगअलग रहना शुरू कर दें तो एक संभावना है कि रिश्ते आगे जा कर इतने तो रही जाएंगे कि दोनों कभीकभार खुशी या गम के मौके पर एक साथ खड़े हो जाएं लेकिन अगर साथ रहें तो कुछ सालों बाद एकदूसरे की शकल भी बर्दाश नहीं करेंगे. इसलिए ये सब अपने आप ठीक नहीं होगा बल्कि दोनों को उन की जिंदगी अपनेअपने ढंग से जीने दें तभी दोनों एकदूसरे की थोड़े इज्जत कर पाएंगी.

सिचुएशन 5- जौब में सही नहीं चल रहा, तो भी उसी में टिके रहो कुछ समय में सब ठीक हो जाएगा

अभी हाल ही में पुणे की कंपनी की एक सीए लड़की की मौत की खबरें खूब पढ़ने में आई जो अपने ज्यादा काम के बोझ की वजह से परेशां थी और इसलिए उसे अटैक आ गया क्यूंकि उस ने भी सोचा होगा सब ठीक हो जाएगा. लेकिन जब जौब का वर्कप्रेशर वो नहीं झेल पा रही थी, तो जौब छोड़ने का फैसला उस ने क्यूं नहीं लिया? परेशां होते रहना लेकिन फिर भी अपनी समस्या का हल न निकालना और उसे वक्त पर छोड़ देना कहां की समझदारी है.

हल क्या है –अगर आप की कंपनी में आप के साथ कोई पोलटिक्स हो रही है, वर्कप्रेशर ज्यादा है, वहां काम करना अच्छा नहीं लग रहा, तो ये चीजें अपने आप ठीक नहीं होंगी. आप को ठीक करनी पड़ेगी. जो चीज पसंद नहीं या जिस के साथ एडजस्ट नहीं कर पा रहें उसे बताना पड़ेगा. अपने लिए खुद ही माहौल सही करना पड़ेगा, ज्यादा काम के लिए न बोलना पड़ेगा. लेकिन ऐसा कुछ करने के बजाए आप सोचें की कुछ समय में ये सब खुद ही ठीक हो जाएगा तो ये खुद कभी ठीक नहीं होगा. ठीक करने के लिए आप को मेहनत करनी होगी. आवाज उठानी होगी, और फिर भी अगर सही नहीं होता तो खुद ही ये जौब छोड़ कर दूसरी लेनी होगी.

 

जब समय ठीक न चल रहा हो, तो ये काम करने से मदद मिल सकती है:

सकारात्मक सोच रखें- क्यूंकि आप की सोच ही है जो आप को मुश्किल समय से निकाल सकती है.
परिवार का सहारा लें- परिवार की एकता में बहुत शक्ति होती है अपनों के साथ के भरोसे बड़ी से बड़ी कठिनाई को पार किया जा सकता है.
खुद को खुश रखें- जब आप हर हाल में खुश होंगे तभी तो आगे बढ़ने के बारे में रिलैक्स माइंड से कुछ सोच पाएंगे.
बारबार कोशिश करते रहें- अगर किसी काम में सफलता नहीं मिल रही तो भी कोशिश करते रहें. हिम्मत न हारे. एक दिन सफलता जरूर मिलेगी.
अपनी असफलता के कारणों का विश्लेषण करें- यह करना बहुत जरुरी है ताकि पता चल सके कि आप का मनचाहा आखिर हो क्यूं नहीं रहा. उन कारणों को ढूंढें और उन्हें खुद ही दूर करने का प्रयास करें.
अपनी कार्यशैली में बदलाव करें- हो सकता है जो काम आप कर रहे थे वह सही न हो. जिस तरह से कर रहे थे वह तरीका ही गलत हो. इसलिए पहले अपनी कार्यशैली में बदलाव लाएं.
किसी भरोसेमंद व्यक्ति से सलाह लें- अगर खुद कुछ समझ नहीं आ रहा तो किसी की मदद लें और अपनी समस्याओं को समझाने की कोशिश करें नाकि उन से भागें.
फिजिकल एक्टिविटीज करें- जी हां, डेली एक्सरसाइज, योग करने से मन शांत होता है और नएनए आईडिया आते हैं जिस से काम में मदद मिलती है.
काउंसलर से मिलें- काउंसलर से मिलने को कोई हौवा न बनाए वो आप की मदद के लिए ही हैं. उन से बात कर के बहुत सी ऐसी बातें आप के बारें में जान लेंगे जिन के बारे में आप को खुद भी पता नहीं होगा. फिर समस्या का हल भी बताएंगे.
अच्छे समय खुद नहीं आता – जीवन में हमें कभी किसी भी खास समय का इंतजार नहीं करना चाहिए, बल्कि अपने हर समय को खास बनाने की पूरी कोशिश करनी चाहिए. धैर्य बनाए रखें बारबार कोशिश करते रहें और हार न मानें. जब जीवन में कुछ भी सही नहीं होता है, तो हमें अपने मन को बदलने के लिए क्या करना चाहिए?

जब जीवन में कुछ भी सही नहीं हो रहा है, तो आप सब से पहले अपने मन को शांत करने की कोशिश करें, आप भी जानते हैं कि जीवन में कुछ भी स्थाई नहीं होता है. इसलिए सब्र रखिए मित्र ये समय भी ‌‌‌‌‌‌‌निकल जाएगा, इस दौरान अपने परिवार, मित्रों के साथ समय बिताएं, उस से बात करें.
मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखें- ध्यान, योग, या अन्य विश्राम तकनीकों का इस्तेमाल करें.
थोड़ी देर के लिए आराम करें- इस से ताजगी महसूस होती है और बेहतर फैसले लिए जा सकते हैं.
पौजिटिव गाने सुनें: इस से शरीर में एंडोफिन हार्मोन रिलीज होता है और बेहतर महसूस होता है.
विश्वास बनाए रखें: यह याद रखें कि कुछ भी हमेशा के लिए नहीं रहता. जीवन में उतारचढ़ाव आते रहते हैं.
इसलिए ऐसा हो सकता है कि रौशनी कम है और आप को मंजिल तक का पूरा रास्ता साफ नहीं दिख रहा, पर फिर भी दो कदम चलने लायक रौशनी है, तो आप का दायित्व है कि आप दो कदम चलें, आप जैसे ही थोड़ा आगे पहुंचेंगे आप को फिर कुछ कदम लेने लायक रौशनी मिल जाएगी, बस यह मांग मत रखिए कि आप को आखिरी कदम तक सब एक बार में क्यों नहीं दिख रहा.

 

Home Buying Tips : घर खरीदने से पहले बेहद जरूरी है जानना

Home Buying Tips :अपना घर अपना ही होता है भले छोटा ही हो. कई बार हम घर खरीदते समय ऐसी लापरवाहियां कर बैठते हैं जो बाद में दिक्कत देती हैं. आज के समय में घर खरीदते समय सावधानियां बरतना बहुत जरूरी होता है.

विवाह के बाद आजकल सब से पहले युवा दंपत्ती घर खरीदने के बारे में सोचते हैं, पर घर एक ऐसी खरीदारी है जिस के लिए एक लंबी प्लानिंग और जांचपड़ताल की जरूरत होती है. अपना घर होना सब का एक सपना होता है और यह किसी भी आम आदमी के जीवन की सब से बड़ी खरीदारी होती है.

आजकल युवा दंपत्ती बहुत जल्दी से अपना फ्लैट खरीदने के बारे में फैसला ले लेते हैं या कोई प्लौट खरीदना चाहते हैं. फ्लैट्स ज्यादा खरीदे जा रहे हैं, शहरों में इसी स्पीड से नईनई सोसाइटी देखतेदेखते ही खड़ी हो जाती हैं. इस का एक कारण यह भी हो सकता है कि गांव से अधिकतर लोग शहरों में आ कर बसने लगे हैं. घर बनाने से पहले कुछ जरूरी बातें जान लेनी चाहिए जिन से मेहनत से बनाया आशियाना सुरक्षित रह सके. कई शहरों में जीवन भर की जमा पूंजी से या होम लोन ले कर खुद की छत बसाने वालों की आंखों में कुछ गलतियों के कारण आंसू आ जाते हैं.

शहर में बिल्डर या प्रौपर्टी ब्रोकर चमकदार, स्टाइलिश ब्रोशर और कई तरह की स्कीम दिखा कर प्रौपर्टी बेच देते हैं. मुनाफे के लालच में अवैध निर्माण भी कर दिया जाता है जिसे आम आदमी समझ नहीं पाता. अकसर रजिस्ट्री हो जाने के बाद हम बेफिक्र हो जाते हैं पर इस के बावजूद कई ऐसे दस्तावेज हैं जिन्हें पहले ही देख लें तो बाद में मुश्किलें नहीं आएंगीं.

वे जरूरी बातें हैं

  •  जहां बिल्डिंग बनी है, उस का नक्शा विक्रेता से मांगें.
  • यदि बिल्डिंग या भवन निगम सीमा में है तो संबंधित जोनल औफिस या निगम औफिस से उस की जांच करवाएं.
  • निर्माण जिस भूखंड पर है, उस का नक्शा पास है या नहीं.
  • प्लौट का भूमि उपयोग क्या है?
  • प्लौट जिस नक्शे पर बना है वह कब पास हुआ और सही प्रक्रिया से पास है या नहीं.
  • जिस प्लौट पर बिल्डिंग बनी है, उस का उपयोग आवासीय है या कमर्शियल. कई जगह दोनों उपयोग भी नक्शे में होते हैं.
  • आप का फ्लैट किस श्रेणी में आ रहा है, यह नक्शे में दर्शाया होता है.
  •  कमर्शियल प्लौट की अनुमति टाउन एंड कंट्री प्लानिंग से मिलती है.
  • फ्लैट के लिए प्रकोष्ठ पात्र मांगें. यह वह दस्तावेज है जिस से आप का उस बिल्डिंग में कितने हिस्से पर अधिकार है और बिल्डिंग के टूटने, गिरने या किसी अन्य तरह की घटना में जमींदोज होने पर आप के पास क्या बचेगा का प्रमाण होता है. यदि नई बिल्डिंग है तो यह दस्तावेज बिल्डर से मांगें. यदि आप फ्लैट पहले खरीद चुके हैं और प्रकोष्ठ पत्र नहीं लिया है तो निगम में रजिस्ट्री दिखा कर आवेदन करें.
  • बिल्डिंग या मकान जिस प्लौट पर है, उस प्लौट पर और जो फ्लैट या मकान खरीद रहे हैं, उस पर लोन तो नहीं है?
  •  यदि फ्लैट नया है तो पानी के कनेक्शन की स्थिति देख लें. यदि सामूहिक बोरिंग है तो उस में आप को कितना भुगतान करना होगा, यह भी देख लें. बिजली बिल में दर्ज रीडिंग का मीटर से मिलान कर लें. देख लें मीटर खराब या बिल बकाया तो नहीं?
  • पुराने फ्लैट में बिजली, पानी के पुराने बिल जरूर मांगें. बिल्डिंग के सामूहिक बिजली बिल और मेंटेनेंस की जानकारी भी ले लें.
    फ्लैट खरीदने से पहले उस की लोकैलिटी, अपना बजट, बिजली पानी की सुविधा जैसी बेसिक चीजें देख लेनी चाहिए. इस से फ्लैट की रीसेल वैल्यू भी अच्छी बनी रहती है. आजकल लोग इंडिपैंडेंट मकान की बजाए फ्लैट्स या अपार्टमेंट्स को ज्यादा महत्त्व दे रहे हैं. फ्लैट का कारपेट एरिया, लैंड रिकौर्ड, प्रौपर्टी की कानूनी जानकारी, पजेशन की डेट, लोन देने वाले बैंक, बिल्डर बायर एग्रीमेंट, फ्लैट का लोकेशन सब की अच्छी जानकारी पूरी तरह से ले लें.

अनबन हो जाए और तलाक हो जाए

कई बार ऐसी स्थिति भी बन जाती है कि पतिपत्नी में कुछ अनबन हो जाए और तलाक हो जाए, और होम लोन लिया हुआ हो तो इस से जुड़ी भी कुछ बातें जान लेनी चाहिए जैसे- तलाक के बाद होम लोन की स्थिति कई चीजों पर निर्भर करती है जैसे कि लोन किस के नाम पर लिया गया है, कितने सह आवेदक हैं और कोर्ट के आदेश क्या कहते हैं. इसे ऐसे समझा जा सकता है

  • यदि होम लोन केवल एक व्यक्ति के नाम पर है तो लोन की जिम्मेदारी उसी व्यक्ति की होगी.
  • यदि लोन दोनों के नाम पर है तो लोन चुकाने की जिम्मेदारी दोनों की है भले ही तलाक हो गया हो.
  • यदि संपत्ति तलाक के बाद किसी एक व्यक्ति को दे दी जाती है तो कोर्ट के आदेश के अनुसार वह व्यक्ति लोन चुकाने का जिम्मेदार हो सकता है.
  • संपत्ति का स्वामित्व और लोन भुगतान अलग हो सकते हैं. यह बैंक और कोर्ट के फैसले पर निर्भर करता है.
  • बैंक के लिए लोन चुकाने वाले व्यक्ति की प्राथमिकता होती है, न कि तलाक से जुड़े मामले.
  • यदि दोनों पक्ष सहमत हैं तो बैंक से लोन ट्रांसफर या सह आवेदक को हटाने की बात की जा सकती है. लेकिन बैंक सह आवेदक को तभी हटाता है जब लोन पूरी तरह से एक व्यक्ति संभाल सके.
  • तलाक के बाद दोनों पक्षों को बैंक के साथ एक नया समझौता करना पड़ सकता है ताकि लोन का भुगतान और संपत्ति का मालिकाना स्पष्ट हो.

ऐसे में क्या कर सकते हैं?

1- बैंक से सलाह लें. अपने बैंक से मिल कर लोन की स्थिति और समाधान के बारे में बात करें.
2- तलाक और संपत्ति के बंटवारे के लिए एक वकील की हेल्प लें.
3- दोनों पक्ष आपस में बात कर के इस का हल निकालें.
4- यदि एक व्यक्ति पूरी तरह से लोन का भुगतान करने के लिए तैयार है तो लोन को रीफाइनैंस करने का विकल्प हो सकता है.

बढ़ती महंगाई के साथ अपना घर लेना बड़ी बात है, होम लोन सिर पर हो तो और भी प्रैशर रहता है. खूब छानबीन के बाद फ्लैट फाइनल करें. जो परिचित फ्लैट ले चुके हैं, उन से भी सलाह जरूर ले लें. अपनी सैलरी, अपने खर्चे अच्छी तरह से देख कर फ्लैट लेने की सोचें. दिखावे के चक्कर में न पड़ें. ईएमआई कितनी दे सकते हैं, यह भी सोच लें.
आर्थिक परेशानियों के दबाब के चलते आपस में मनमुटाव की नौबत न आए, इस बात का भी ध्यान रखें. उस के बाद भी आजकल अच्छा कमाने वालों का लाइफस्टाइल भी काफी खर्चीला हो गया है, और बहुत से खर्चें होते हैं, उन सब को ध्यान में रखते हुए घर लें. जितनी चादर हो, उतने ही पैर पसारें, यह कहावत हर जमाने में फिट बैठती आई है. कुछ महीने कम खर्चों में गुजारें, एक बार लोन की किस्तों के साथ कुछ समय एडजस्ट कर लें तो इंटीरियर कराएं. एक साथ सब काम न करवाएं. धीरेधीरे जेब और बचत देख कर काम करवाते रहें.

पंडों व वास्तुशास्त्रियों के लफड़ों में न पड़ें

सुमित पुजारी और गीता पुजारी दोनों वर्किंग हैं. शादी के दो साल वे सुमित के पेरैंट्स के साथ रहे, फिर उन्होंने उसी सोसाइटी में अपना फ्लैट होम लोन पर ले लिया. पेरैंट्स आतेजाते रहते हैं. दोनों अपने इस घर में बहुत खुश हैं. धीरेधीरे उन्होंने अपने फ्लैट का इंटीरियर करवाया, एकसाथ सब कुछ नहीं किया. मुंबई जैसे शहर में एक अपना सुंदर फ्लैट होना उन्हें बहुत खुशी देता है, इसे वे अपनी बड़ी उपलब्धि मानते हैं.

फ्लैट में धूप और हवा का आनाजाना देखें, हो सके तो तर्क बुद्धि के साथ फ्लैट खरीदें, किसी पंडित को ले कर फ्लैट का शुभलाभ न दिखवाते फिरें. यहां मीरा के उदाहरण से यह बात समझी जा सकती है.

कई साल पहले मीरा नईनई मुंबई आई थी, वह अपने पति और परिचित दंपत्ती के साथ कई फ्लैट्स देखने गई. मित्र खुद को वास्तु शास्त्र के विद्वान् बताते थे, जो फ्लैट्स मीरा और उस के पति को पसंद आ रहे थे, परिचित वास्तु के हिसाब से उस फ्लैट को सिरे से नकार देते थे. कई महीने ऐसे ही निकल गए. फिर मीरा और उस के पति खुद ही एक फ्लैट देखने गए जो उन्हें खुली जगह, धूप, हवा की दृष्टि से सही लगा और उन्होंने 15 दिन में ही उसे फाइनल कर लिया. आज उन्हें उस फ्लैट में रहते हुए 20 साल हो गए हैं और वे खुश हैं.

घर खरीदने के समय पैसा हो भी तो फालतू की पार्टीज में उसे खर्च न करें क्योंकि शुरू में ईएमआई का भी एक खर्चा सेट होने में टाइम लगता है. घर को खुशियों का आशियाना बनाने के लिए बहुत सोचसमझ कर चलना होता है, अपना घर होना एंजोए करें, कोनाकोना अपना होना बहुत सुखद होता है.

lending money : उधार देने से पहले जान लें ये जरूरी Tips

lending money :  उधार देना बुरा नहीं है लेकिन बिना सोचेसमझे उधार देना गलत है. उधार देने से पहले आप को पता होना चाहिए कि सामने वाले को उधार क्यूं चाहिए. अगर वह वजह आप को सही लगे, उधार देने लायक लगे, तो जरूरतमंद की मदद करना बुरा भी नहीं है. 

“उधार न देना अच्छा, न लेना अच्छा; उधार स्नेह की कैंची है,” अंग्रेज नाटककार विलियम शेक्सपियर ने लिखा था. उन्होंने सदियों पुरानी बुद्धिमानी की बात दोहराई. यह तो पक्का है कि पैसा उधार लेनादेना बहुत ही नाजुक मामला है और इस से रिश्‍ते तक टूट जाते हैं. चाहे कितनी भी अच्छी योजना क्यों न बनाई गई हो और कितने भी नेक इरादे क्यों न रहे हों, कब स्थिति बदल जाए हम नहीं जानते.

क्या पता ऐसी स्थिति हो जाए कि उधार लेने वाले के लिए अपना कर्ज चुकाना मुश्‍किल या असंभव हो जाए. या ऐसा भी हो सकता है कि उधार देनेवाले को अचानक उस पैसे की जरूरत आन पड़े जो उस ने उधार दिया है. जब ऐसी बातें होती हैं, तो जैसा शेक्सपियर ने कहा, दोस्ती और रिश्‍तों में दरार पड़ सकती है.

जरूरतमंद की मदद घाटे का सौदा नहीं

कई बार व्यक्ति इतना मजबूर हो जाता है कि उस के पास उधार लेने के अलावा कोई रास्ता नहीं होता. भूखे मरने तक की नौबत आ जाती है या फिर अपने किसी की जान पर बन आए तो वह उधार मांगेगा ही, नौकरी छूट गई है और घर का किराया देना है, नहीं तो सामान बाहर फेंक दिया जाएगा. ऐसी स्थति में अगर आप से उधार मांगा गया है, तो मना करने से पहले एक बार विचार कर लें.

उधार देना गलत बात नहीं है यह गलत तब हो जाता है जब सामने वाला उसे सही समय आने पर भी वापस न दें. लेकिन अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप उधार देते समय कितनी सतर्कता बरतते हैं. उधार देने से पहले उधार लेने की वजह पूछें. अगर आप को लगता है उधार का लिया जाना इतना जरुरी है कि अगर वापस भी न मिला तो कोई गम नहीं, कम से कम मन में सुकून होगा कि किसी जरूरतमंद की मदद की है, तो ऐसे में उधार देना घाटे का सौदा नहीं होगा.

 

दोस्त और रिश्तेदारों के मुसीबत में काम नहीं आएंगे, तो कब काम आएंगे

एक परिवार के पास मकान तो है लेकिन आमदनी का जरिया बिलकुल बंद हो गया है. मकान तो है लेकिन जब तक वो बिकेगा नहीं हाथ में कैश नहीं है. अगर ऐसे में शक हो तो कैश उधार न दे कर चेक से पेमैंट करें.

 

अगर इलाज के लिए पैसा दे रहें हैं, तो जरूर दें

बीमारी या दुर्घटना कह कर नहीं आती मगर महंगे इलाज के लिए रकम जुटाना किसी के लिए भी मुश्किल हो सकता है. कोई दोस्त या रिश्तेदार इलाज के लिए मदद करने को कहें तो इस के लिए कभी मना न करें. भले ही उस व्यक्ति का रिकार्ड अच्छा न हो, यह पता हो कि उस को दिया पैसा वापस आना मुश्किल है लेकिन अगर आप देख रहें हैं कि उसे इलाज के लिए सच में पैसों की जरूरत है, तो मना न करें भले ही आप का पैसा वापस मिले न मिले.

अगर फिर भी इलाज अपनी हैसियत से बाहर जा रहा हो, तो मेडिकल इमरजेंसी के लिए कर्ज लिया जा सकता है, जो झटपट मिल भी जाता है. मेडिकल इमरजेंसी लोन भी असल में पर्सनल लोन ही होता है मगर इलाज पर होने वाले खर्च के लिए ही दिया जाता है. ऐसे कर्ज को मंजूरी चटपट मिल जाती है, पात्रता की शर्तें भी आसान होती हैं और कई बार ब्याज दर भी आम पर्सनल लोन की ब्याज दर से कम होती है.

इस में मिली रकम का इस्तेमाल अस्पताल में भर्ती होने पर बिल चुकाने में, औपरेशन में, जरूरी और महंगी दवाएं खरीदने में और औपरेशन के बाद होने वाले खर्च में किया जा सकता है. ये सब करने में भी रिश्तेदार की मदद करें.

घर बनाने के लिए पैसे न दें

सुनील ने अपनी बहन को फोन किया और कहा कि मैं अपने घर में काम करा रहा हूं और थोड़े पैसे कम पड़ रहें हैं. क्या तुम थोड़ी मदद कर दोगी. यह सुनकर राशि को न हां करते बना और न ही मना करते बना. उस ने कहा शाम को मैं तुम्हारे जीजाजी से पूछ कर बताती हूं.

राशि को पता था एक बार पैसे दिए तो जल्दी से वापस नहीं आने वाले लेकिन मना करते हुए भी नहीं बन रहा था. इसलिए बीच का रास्ता निकाल राशि ने भाई से कहा 1 हफ्ता पहले पैसे मांगते तो हम दे देते लेकिन अभी दो दिन पहले ही हमने म्यूच्यल फंड में सारा पैसा लगा दिया.

सच तो यह था कि राशि को घर बनाने के लिए पैसा उधार देना सही नहीं लगा. वह अपनी जगह सही भी थी. पैसा तब दिया जाता है जब सामने वाला मजबूरी की हालत में हो नाकि वह अपने ऐशो आराम पर खर्च कर रहा हो.

 

गाड़ी मोटरसाइकल के लिए पैसे न दें

अगर कोई गाड़ी मोटरसाइकल खरीद ने के लिए पैसा मांगे फिर चाहे वो करीबी दोस्त ही क्यूं न हो. उसे साफ मना कर दें. बल्कि सलाह दें कि हर महीने कुछ बचत कर के भी वह अपनी यह जरूरत पूरी कर सकता है. अगर नहीं कर सकता तो पब्लिक ट्रांसपोर्ट में हजारों लोग सफर करते हैं उस से आएं जाएं.

 

तीर्थ यात्रा के लिए पैसे न दें

घरों में देखने में आता है कि घर के बड़े बुजुर्ग कहते हैं कि हमे तीर्थ यात्रा पर जाना है पैसों का इंतजाम कर दें. लेकिन तीर्थ यात्रा पर जाना भी कोई सस्ता सौदा नहीं है. वहां पर भी लाखों रुपया खर्चा हो जाता है. ऐसे में कई बार बेटा मना नहीं कर पाता और पर्सनल लोन ले कर या अपने किसी सबंधी से पैसा उधार मांगता है. अगर कोई आप से ऐसी मांग करें तो आप तुरंत मना कर सकते हैं. ये कोई इतना जरूरी काम नहीं है जिस के लिए आप उधार दे कर अपने पैसे फंसाएं.

 

कोर्ट कचहरी के लिए पैसे दे देने चाहिए

अगर कोई मित्र कोर्ट कचहरी के किसी केस में गलत तरीके से फंस गया है तो उस की मदद जरूर करें. कोर्ट कचहरी में बहुत ज्यादा पैसा लग जाता है. लोगों की जमीन जायजाद तक बिक जाती है. अगर दोस्त मुसीबत में है और मदद मांग रहा है तो उस की मदद करें. लेकिन उस से बात कर लें कि जब वह इन चक्करों से निकल जाएगा तो पैसा वापस कर देगा.

 

पढ़ाई के लिए भी पैसे दे देने चाहिए

अगर कोई बच्चा होनहार है और आगे पढ़ना चाहता है लेकिन फीस देने में सक्षम नहीं है तो उस की हेल्प करें. फिर वो बच्चा चाहे मेड का हो, दोस्त का हो या फिर कोई अन्य गरीब हो. अगर यह लग रहा है कि दिए हुए पैसे का वापस आना मुश्लिल है तो भी अगर आप करने लायक हैं तो मदद करें इस से आप उस की पूरी जिंदगी बना देंगे.

 

जरूरतमंद को उधार देने के फायदें

  • जब आप जरूरतमंद होंगे तब आप को भी मदद मिलेगी.
  • रिलेटिव की गुड़ बुक्स में रहेंगे आप.
  • अपने मन को संतुष्टि मिलेगी की हम किसी के काम आएं.
  • उधार देने के बहाने रिश्ते संजों रहें हैं आप.

 

 

Hindi Satire : यही है बाप होना

Hindi Satire :  खास बात है, बाप होना. बनने और होने के भेद में वर्षों की साधना है. यह हुनर का काम है. कारीगरी का कमाल है. इनसान वर्षों प्रयास करता है तब कहीं जा कर बाप बन पाता है.

बाप बनता है. बाप होता है. जो बाप बनता है सो एक ही कारण से बनता है. कारण, बड़ा मासूम सा है. इधर एक मासूम पैदा हुआ, उधर दूसरा जो अब तक मासूम था, बाप बन गया.

बाप बनना एक साधारण घटना है. बाप बनाना उस से भी साधारण, यानी जिस से गरज पड़ी उसी को बाप बना लिया और मुहावरा हो गया ‘गधे को बाप बनाना.’ यह बात अलग है कि बिना गधा बने इनसान बाप नहीं बन सकता क्योंकि बाप बनने की एक जरूरी शर्त शादी करना  है. अत: साबित यही होता है कि बिना गधा हुए कोई शादी नहीं कर सकता और बिना शादी किए कोई बाप नहीं बन सकता.

जैसे सब नियमों में अपवाद की आशंका होती है वैसे ही इस में भी अपवाद की आशंका होती है.

गधों का बाप बनना या गधों को बाप बनाना कमोबेश बड़ी ही साधारण घटना है. हर खास और आम के जीवन में यह घटना घट जाती है. एक बार, कईकई बार और बारबार. कोईकोई अपनी एक ही भूल को बारबार दोहराते रहते हैं.

खास बात है, बाप होना. बनने और होने के भेद में वर्षों की साधना है. यह हुनर का काम है. कारीगरी का कमाल है. इनसान वर्षों तपस्या करता है तब कहीं जा कर बाप हो पाता है. यह गहन साधना का काम है. वर्षों नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है या कहें ‘रंग लाती है हिना पत्थर पर घिस जाने के बाद’ और इनसान जब, जिस के कारण बाप बना होता है वह बेल फैल जाती है. बेल बालिका है, बाप विनम्रता की काया व दीनता की मूर्ति. बालिका को जन्म देना उस का अपराध, जिस की सजा उसे भुगतनी ही है. यानी एक बाप हाथ बांधे दूसरे बाप के सामने जीहुजूरी में खड़ा है.

हुजूर जो हैं सो बेटे के बाप हैं. ऐसेवैसे बेटे के नहीं बल्कि विवाह योग्य बेटे के. चाल में तिरछा बांकपन, आवाज में खनक. कौन कहता है कि राजामहाराजा समाप्त हो गए या उन का प्रिवीपर्स बंद कर दिया गया. सरकार ने बंद किया और बेटी वालों के यहां खुल गया. नाम अलग हैं, नजराना, शुकराना, जुर्माना, जबराना. कारण एक है, बेटी.

विनम्रतापूर्वक खुद दिया तो नजराना, अर्जी स्वीकार करने पर दिया तो शुकराना, कह कर तय किया तो जुर्माना और जबर्दस्ती वसूल किया तो जबराना. कई दुष्टों की गाड़ी जबराने के बेरिकेटर पर भी नहीं रुकती.

इस के आगे लाललाल आग दहकती है, कभी लकडि़यों की, कभी देह की. जब आग नहीं दहकती तो राख सुलगती है. इस की चिंगारी पहचानने वाले शुरू में ही भांप जाते हैं. बाप नवाब की अदा से मसनद का सहारा लिए अधलेटा पड़ा है-‘हूं.’ वह ठकुरसुहाती सुन रहा है. उस के ‘हूं’ के विस्तार पर होने वाले रिश्ते का फैसला टिका है.

कई अपने सुत को श्रवणकुमार बताते हुए कहते हैं कि वह मेरी मर्जी के बगैर कुछ नहीं करता है. मां अभिमान के इस गोवर्धन में लाठी लगाती है, ‘‘उस ने तो कह दिया कि सब्जी क्या मुझ से पूछ कर लाती हो, जैसी चाहिए वैसी बहू ले आओ.’’ आज्ञाकारी सुत बुलाने पर आता है और झलक दिखा कर चला जाता है.

बाप की निगाहों में सवाल है. जवाब में बेटी के अपराधी बाप को अपनी सामर्थ्य का अंदाज लगा कर एक बोली उचारनी है. यह एक ऐसा अकेला बाजार है जिस में बेचने वाला मनमर्जी का दाम ले कर भी सामान की डिलीवरी नहीं देता. दाम गल्ले में, सामान भी पल्ले में. इस के साथ ही अपनी तमाम पूंजी भी उसी की गांठ में बांध खाली हाथ रखता है. वह भी खुले नहीं, जुड़े. इस के बाद भी रिकरिंग एक्सपेंडीचर यानी ब्याह के बाद भी. यह सावन, वह सनूना, तीजत्योहार, होलीदीवाली, सकटसंक्रांति तमाम कुलखानदान के जन्मदिन और वर्षदिवस, कहां जाओगे. जन्मजन्मांतर तक यही करो.

इस में लेने वाला धन्यवाद आदि की औपचारिकता निभाने के झमेले में नहीं पड़ता. उस की अदा पिंडारियों जैसी है. चौथ वसूल करनी है, करते रहनी है. हक का मामला है.

दोनों पक्ष निमित्त मात्र होने की भंगिमा बना लेते हैं. एक वकोध्यानम्के साथ कि बड़ी मछली को ताड़ ले और झट से दबोच ले और दूसरा कबूतर की तरह आंख मूंद ले कि आ बिल्ली, मुझे खा. बगुले और कबूतर में नियति का ही भेद है. कबूतर सफेद हो तो शांति के नाम उड़ा दिया जाए या खेल के नाम पर. बगुले के तमाम उजलेपन के बावजूद कोई न उसे फांसता है न उड़ाता है. करम की गति न्यारी.

न्यारी तो वह चाल भी है कि आप को बताते हैं. बताना क्या है, भांपना है, टटोलना है. यह सिद्धि वर्षों में प्राप्त की है. किश्ती नैप्पी बदलबदल कर इस हैप्पी तट तक आई है. अब मछेरा जाल डाले बैठा है. वह जो गणित के सवाल कल नहीं हल कर पाता था, आज हुंडी हो गया है. बाप अपनी हुंडी की असलियत जानता है. यह नौबत 10 दिन बजनी है फिर न यह पुर हैं, न पाटन, न गैल न गली. उस के बाद चमन उजड़ कर सहरा हो जाना है जिस में कईकई उच्छ्वासों में एक उच्छ्वास और मिलना है, ‘पूत पड़ोसी हो गए.’

उच्छ्वास बाहर तब निकलती है जब पहले सीने फूले हुए हों, इतने फूले रहें और इतनी देर फूले रहें कि काया से हवा का बोझ न सहा जाए. हवा नहीं गुब्बारा पिचके और बस्स… यही है बाप होना.

Short Stories in Hindi : मेरी बहू पल्‍लवी

Short Stories in Hindi :  ‘‘हमारा जीवन कोई जंग नहीं है मीना कि हर पल हाथ में हथियार ही ले कर चला जाए. सामने वाले के नहले पर दहला मारना ही क्या हमारे जीवन का उद्देश्य रह गया है?’’ मैं ने समझाने के उद्देश्य से कहा, ‘‘अब अपनी उम्र को भी देख लिया करो.’’

‘‘क्या हो गया है मेरी उम्र को?’’ मीना बोली, ‘‘छोटाबड़ा जैसे चाहे मुझ से बात करे, क्या उन्हें तमीज न सिखाऊं?’’

‘‘तुम छोटेबड़े, सब के हर काम में अपनी टांग क्यों फंसाती हो, छोटे के साथ बराबर का बोलना क्या तुम्हें अच्छा लगता है?’’

‘‘तुम मेरे सगे हो या विजय के? मैं जानती हूं तुम अपने ही खून का साथ दोगे. मैं ने अपनी पूरी उम्र तुम्हारे साथ गुजार दी मगर आज भी तुम मेरे नहीं अपने परिवार के ही सगे हो.’’

मैं ने अपना सिर पीट लिया. क्या करूं मैं इस औरत का. दम घुटने लगता है मेरा अपनी ही पत्नी मीना के साथ. तुम ने खाना मुझ से क्यों न मांगा, पल्लवी से क्यों मांग लिया. सिरदर्द की दवा पल्लवी तुम्हें क्यों खिला रही थी? बाजार से लौट कर तुम ने फल, सब्जी पल्लवी को क्यों पकड़ा दी, मुझे क्यों नहीं बुला लिया. मीना अपनी ही बहू पल्लवी से अपना मुकाबला करे तो बुरा लगना स्वाभाविक है.

उम्र के साथ मीना परिपक्व नहीं हुई उस का अफसोस मुझे होता है और अपने स्नेह का विस्तार नहीं किया इस पर भी पीड़ा होती है क्योंकि जब मीना ब्याह कर मेरे जीवन में आई थी तब मेरी मां, मेरी बहन के साथ मुझे बांटना उसे सख्त नागवार गुजरता था. और अब अपनी ही बहू इसे अच्छी नहीं लगती. कैसी मानसिकता है मीना की?

मुझे मेरी मां ने आजाद छोड़ दिया था ताकि मैं खुल कर सांस ले सकूं. मेरी बहन ने भी शादी के बाद ज्यादा रिश्ता नहीं रखा. बस, राखी का धागा ही साल भर बाद याद दिला जाता था कि मैं भी किसी का भाई हूं वरना मीना के साथ शादी के बाद मैं एक ऐसा अनाथ पति बन कर रह गया जिस का हर कोई था फिर भी पत्नी के सिवा कोई नहीं था. मैं ने मीना के साथ निभा लिया क्योंकि मैं पलायन में नहीं, निभाने में विश्वास रखता हूं, लेकिन अब उम्र के इस पड़ाव पर जब मैं सब का प्यार चाहता हूं, सब के साथ मिल कर रहना चाहता हूं तो सहसा महसूस होता है कि मैं तो सब से कटता जा रहा हूं, यहां तक कि अपने बेटेबहू से भी.

मीना के अधिकार का पंजा शादी- शुदा बेटे के कपड़ों से ले कर उस के खाने की प्लेट तक है. अपना हाथ उस ने खींचा ही नहीं है और मुझे लगता है बेटा भी अपना दम घुटता सा महसूस करने लगा है.

‘‘कोई जरूरत नहीं है बहू से ज्यादा घुलनेमिलने की. पराया खून पराया ही रहता है,’’ मीना ने सदा की तरह एकतरफा फैसला सुनाया तो बरसों से दबा लावा मेरी जबान से फूट निकला.

‘‘मेरी मां, बहन और मेरा भाई विजय तो अपना खून थे पर तुम ने तो मुझे उन से भी अलग कर दिया. मेरा अपना आखिर है कौन, समझा सकती हो मुझे? बस, वही मेरा अपना है जिसे तुम अपना कहो…तुम्हारे अपने भी बदलते रहते हैं… कब तक मैं रिश्तों को तुम्हारी ही आंखों से देखता रहूंगा.’’

कहतेकहते रो पड़ा मैं, क्या हो गया है मेरा जीवन. मेरी सगी बहन, मेरा सगा भाई मेरे पास से निकल जाते हैं और मैं उन्हें बुलाता ही नहीं…नजरें मिलती हैं तो उन में परायापन छलकता है जिसे देख कर मुझे तकलीफ होती है. हम 3 भाई, बहन जवान हो कर भी जरा सी बात न छिपाते थे और आज वर्षों बीत गए हैैं उन से बात किए हुए.

आज जब जीवन की शाम है, मेरी बहू पल्लवी जिस पर मैं अपना ममत्व अपना दुलार लुटाना चाहता हूं, वह भी मीना को नहीं सुहाता. कभीकभी सोचता हूं क्या नपुंसक हूं मैं? मेरी शराफत और मेरी निभा लेने की क्षमता ही क्या मेरी कमजोरी है? तरस आता है मुझे कभीकभी खुद पर.

क्या वास्तव में जीवन इसी जीतहार का नाम है? मीना मुझे जीत कर अलग ले गई होगी, उस का अहं संतुष्ट हो गया होगा लेकिन मेरी तो सदा हार ही रही न. पहले मां को हारा, फिर बहन को हारा. और उस के बाद भाई को भी हार गया.

‘‘विजय चाचा की बेटी का  रिश्ता पक्का हो गया है, पापा. लड़का फौज में कैप्टन है,’’ मेरे बेटे दीपक ने खाने की मेज पर बताया.

‘‘अच्छा, तुझे बड़ी खबर है चाचा की बेटी की. वह तो कभी यहां झांकने भी नहीं आया कि हम मर गए या जिंदा हैं.’’

‘‘हम मर गए होते तो वह जरूर आता, मीना, अभी हम मरे कहां हैं?’’

मेरा यह उत्तर सुन हक्काबक्का रह गया दीपक. पल्लवी भी रोटी परोसती परोसती रुक गई.

‘‘और फिर ऐसा कोई भी धागा हम ने भी कहां जोड़े रखा है जिस की दुहाई तुम सदा देती रहती हो. लोग तो पराई बेटी का भी कन्यादान अपनी बेटी की तरह ही करते हैं, विजय तो फिर भी अपना खून है. उस लड़की ने ऐसा क्या किया है जो तुम उस के साथ दुश्मनी निभा रही हो.

खाना पटक दिया मीना ने. अपनेपराए खून की दुहाई देने लगी.

‘‘बस, मीना, मैं इस बहस में नहीं पड़ना चाहता कि कल क्या हुआ था. जो भी हुआ उस का इस से बुरा परिणाम और क्या होगा कि इतने सालों से हम दोनों भाइयों ने एकदूसरे की शक्ल तक नहीं देखी… आज अगर पता चला है कि उस की बच्ची की शादी है तो उस पर भी तुम ताना कसने लगीं.’’

‘‘उस की शादी का तो मुझे 15 दिन से पता है. क्या वह आप को बताने आया?’’

‘‘अच्छा, 15 दिन से पता है तो क्या तुम बधाई देने गईं? सदा दूसरों से ही उम्मीद करती हो, कभी यह भी सोचा है कि अपना भी कोई फर्ज होता है. कोई भी रिश्ता एकतरफा नहीं चलता. सामने वाले को भी तो पता चले कि आप को उस की परवा है.’’

‘‘क्या वह दीपक की शादी में आया था?’’ अभी मीना इतना ही कह पाई थी कि मैं खाना छोड़ कर उठ खड़ा हुआ.

मीना का व्यवहार असहनीय होता जा रहा है. यह सोच कर मैं सिहर उठता कि एक दिन पल्लवी भी दीपक को ले कर अलग रहने चली जाएगी. मेरी उम्र भर की साध मेरा बेटा भी जब साथ नहीं रहेगा तो हमारा क्या होगा? शायद इतनी दूर तक मीना सोच नहीं सकती है.

सहसा माली ने अपनी समस्या से चौंका दिया, ‘‘अगले माह भतीजी का ब्याह है. आप की थोड़ी मदद चाहिए होगी साहब, ज्यादा नहीं तो एक जेवर देना तो मेरा फर्ज बनता ही है न. आखिर मेरे छोटे भाई की बेटी है.’’

ऐसा लगा  जैसे किसी ने मुझे आसमान से जमीन पर फेंका हो. कुछ नहीं है माली के पास फिर भी वह अपनी भतीजी को कुछ देना चाहता है. बावजूद इस के कि उस की भी अपने भाई से अनबन है. और एक मैं हूं जो सर्वसंपन्न होते हुए भी अपनी भतीजी को कुछ भी उपहार देने की भावना और स्नेह से शून्य हूं. माली तो मुझ से कहीं ज्यादा धनवान है.

पुश्तैनी जायदाद के बंटवारे से ले कर मां के मरने और कार दुर्घटना में अपने शरीर पर आए निशानों के झंझावात में फंसा मैं कितनी देर तक बैठा सोचता रहा, समय का पता ही नहीं चला. चौंका तो तब जब पल्लवी ने आ कर पूछा, ‘‘क्या बात है, पापा…आप इतनी रात गए यहां बैठे हैं?’’ धीमे स्वर में पल्लवी बोली, ‘‘आप कुछ दिन से ढंग से खापी नहीं रहे हैं, आप परेशान हैं न पापा, मुझ से बात करें पापा, क्या हुआ…?’’

जरा सी बच्ची को मेरी पीड़ा की चिंता है यही मेरे लिए एक सुखद एहसास था. अपनी ही उम्र भर की कुछ समस्याएं हैं जिन्हें समय पर मैं सुलझा नहीं पाया था और अब बुढ़ापे में कोई आसान रास्ता चाह रहा था कि चुटकी बजाते ही सब सुलझ जाए. संबंधों में इतनी उलझनें चली आई हैं कि सिरा ढूंढ़ने जाऊं तो सिरा ही न मिले. कहां से शुरू करूं जिस का भविष्य में अंत भी सुखद हो? खुद से सवाल कर खुद ही खामोश हो लिया.

‘‘बेटा, वह…विजय को ले कर परेशान हूं.’’

‘‘क्यों, पापा, चाचाजी की वजह से क्या परेशानी है?’’

‘‘उस ने हमें शादी में बुलाया तक नहीं.’’

‘‘बरसों से आप एकदूसरे से मिले ही नहीं, बात भी नहीं की, फिर वह आप को क्यों बुलाते?’’ इतना कहने के बाद पल्लवी एक पल को रुकी फिर बोली, ‘‘आप बड़े हैं पापा, आप ही पहल क्यों नहीं करते…मैं और दीपक आप के साथ हैं. हम चाचाजी के घर की चौखट पार कर जाएंगे तो वह भी खुश ही होंगे…और फिर अपनों के बीच कैसा मानअपमान, उन्होंने कड़वे बोल बोल कर अगर झगड़ा बढ़ाया होगा तो आप ने भी तो जरूर बराबरी की होगी…दोनों ने ही आग में घी डाला होगा न, क्या अब उसी आग को पानी की छींट डाल कर बुझा नहीं सकते?…अब तो झगड़े की वजह भी नहीं रही, न आप की मां की संपत्ति रही और न ही वह रुपयापैसा रहा.’’

पल्लवी के कहे शब्दों पर मैं हैरान रह गया. कैसी गहरी खोज की है. फिर सोचा, मीना उठतीबैठती विजय के परिवार को कोसती रहती है शायद उसी से एक निष्पक्ष धारणा बना ली होगी.

‘‘बेटी, वहां जाने के लिए मैं तैयार हूं…’’

‘‘तो चलिए सुबह चाचाजी के घर,’’ इतना कह कर पल्लवी अपने कमरे में चली गई और जब लौटी तो उस के हाथ में एक लाल रंग का डब्बा था.

‘‘आप मेरी ननद को उपहार में यह दे देना.’’

‘‘यह तो तुम्हारा हार है, पल्लवी?’’

‘‘आप ने ही दिया था न पापा, समय नहीं है न नया हार बनवाने का. मेरे लिए तो बाद में भी बन सकता है. अभी तो आप यह ले लीजिए.’’

कितनी आसानी से पल्लवी ने सब सुलझा दिया. सच है एक औरत ही अपनी सूझबूझ से घर को सुचारु रूप से चला सकती है. यह सोच कर मैं रो पड़ा. मैं ने स्नेह से पल्लवी का माथा सहला दिया.

‘‘जीती रहो बेटी.’’

अगले दिन पहले से तय कार्यक्रम के अनुसार पल्लवी और मैं अलगअलग घर से निकले और जौहरी की दुकान पर पहुंच गए, दीपक भी अपने आफिस से वहीं आ गया. हम ने एक सुंदर हार खरीदा और उसे ले कर विजय के घर की ओर चल पड़े. रास्ते में चलते समय लगा मानो समस्त आशाएं उसी में समाहित हो गईं.

‘‘आप कुछ मत कहना, पापा,’’ पल्लवी बोली, ‘‘बस, प्यार से यह हार मेरी ननद को थमा देना. चाचा नाराज होंगे तो भी हंस कर टाल देना…बिगड़े रिश्तों को संवारने में कई बार अनचाहा भी सहना पड़े तो सह लेना चाहिए.’’

मैं सोचने लगा, दीपक कितना भाग्यवान है कि उसे पल्लवी जैसी पत्नी मिली है जिसे जोड़ने का सलीका आता है.

विजय के घर की दहलीज पार की तो ऐसा लगा मानो मेरा हलक आवेग से अटक गया है. पूरा परिवार बरामदे में बैठा शादी का सामान सहेज रहा था. शादी वाली लड़की चाय टे्र में सजा कर रसोई से बाहर आ रही थी. उस ने मुझे देखा तो उस के पैर दहलीज से ही चिपक गए. मेरे हाथ अपनेआप ही फैल गए. हैरान थी मुन्नी हमें देख कर.

‘‘आ जा मुन्नी,’’ मेरे कहे इस शब्द के साथ मानो सारी दूरियां मिट गईं.

मुन्नी ने हाथ की टे्र पास की मेज पर रखी और भाग कर मेरी बांहों में आ समाई.

एक पल में ही सबकुछ बदल गया. निशा ने लपक कर मेरे पैर छुए और विजय मिठाई के डब्बे छोड़ पास सिमट आया. बरसों बाद भाई गले से मिला तो सारी जलन जाती रही. पल्लवी ने सुंदर हार मुन्नी के गले में पहना दिया.

किसी ने भी मेरे इस प्रयास का विरोध नहीं किया.

‘‘भाभी नहीं आईं,’’ विजय बोला, ‘‘लगता है मेरी भाभी को मनाने की  जरूरत पड़ेगी…कोई बात नहीं. चलो निशा, भाभी को बुला लाएं.’’

‘‘रुको, विजय,’’ मैं ने विजय को यह कह कर रोक दिया कि मीना नहीं जानती कि हम यहां आए हैं. बेहतर होगा तुम कुछ देर बाद घर आओ. शादी का निमंत्रण देना. हम मीना के सामने अनजान होेने का बहाना करेंगे. उस के बाद हम मान जाएंगे. मेरे इस प्रयास से हो सकता है मीना भी आ जाए.’’

‘‘चाचा, मैं तो बस आप से यह कहने आया हूं कि हम सब आप के साथ हैं. बस, एक बार बुलाने चले आइए, हम आ जाएंगे,’’ इतना कह कर दीपक ने मुन्नी का माथा चूम लिया था.

‘‘अगर भाभी न मानी तो? मैं जानती हूं वह बहुत जिद्दी हैं…’’ निशा ने संदेह जाहिर किया.

‘‘न मानी तो न सही,’’ मैं ने विद्रोही स्वर में कहा, ‘‘घर पर रहेगी, हम तीनों आ जाएंगे.’’

‘‘इस उम्र में क्या आप भाभी का मन दुखाएंगे,’’ विजय बोला, ‘‘30 साल से आप उन की हर जिद मानते चले आ रहे हैं…आज एक झटके से सब नकार देना उचित नहीं होगा. इस उम्र में तो पति को पत्नी की ज्यादा जरूरत होती है… वह कितना गलत सोचती हैं यह उन्हें पहले ही दिन समझाया होता, इस उम्र में वह क्या बदलेंगी…और मैं नहीं चाहता वह टूट जाएं.’’

विजय के शब्दों पर मेरा मन भीगभीग गया.

‘‘हम ताईजी से पहले मिल तो लें. यह हार भी मैं उन से ही लूंगी,’’ मुन्नी ने सुझाव दिया.

‘‘एक रास्ता है, पापा,’’ पल्लवी ने धीरे से कहा, ‘‘यह हार यहीं रहेगा. अगर मम्मीजी यहां आ गईं तो मैं चुपके से यह हार ला कर आप को थमा दूंगी और आप दोनों मिल कर दीदी को पहना देना. अगर मम्मीजी न आईं तो यह हार तो दीदी के पास है ही.’’

इस तरह सबकुछ तय हो गया. हम अलगअलग घर वापस चले आए. दीपक अपने आफिस चला गया.

मीना ने जैसे ही पल्लवी को देखा सहसा उबल पड़ी,  ‘‘सुबहसुबह ही कौन सी जरूरी खरीदारी करनी थी जो सारा काम छोड़ कर घर से निकल गई थी. पता है न दीपक ने कहा था कि उस की नीली कमीज धो देना.’’

‘‘दीपक उस का पति है. तुम से ज्यादा उसे अपने पति की चिंता है. क्या तुम्हें मेरी चिंता नहीं?’’

‘‘आप चुप रहिए,’’ मीना ने लगभग डांटते हुए कहा.

‘‘अपना दायरा समेटो, मीना, बस तुम ही तुम होना चाहती हो सब के जीवन में. मेरी मां का जीवन भी तुम ने समेट लिया था और अब बहू का भी तुम ही जिओगी…कितनी स्वार्थी हो तुम.’’

‘‘आजकल आप बहुत बोलने लगे हैं…प्रतिउत्तर में मैं कुछ बोलता उस से पहले ही पल्लवी ने इशारे से मुझे रोक दिया. संभवत: विजय के आने से पहले वह सब शांत रखना चाहती थी.

निशा और विजय ने अचानक आ कर मीना के पैर छुए तब सांस रुक गई मेरी. पल्लवी दरवाजे की ओट से देखने लगी.

‘‘भाभी, आप की मुन्नी की शादी है,’’ विजय विनम्र स्वर में बोला, ‘‘कृपया, आप सपरिवार आ कर उसे आशीर्वाद दें. पल्लवी हमारे घर की बहू है, उसे भी साथ ले कर आइए.’’

‘‘आज सुध आई भाभी की, सारे शहर में न्योता बांट दिया और हमारी याद अब आई…’’

मैं ने मीना की बात को बीच में काटते हुए कहा, ‘‘तुम से डरता जो है विजय, इसीलिए हिम्मत नहीं पड़ी होगी… आओ विजय, कैसी हो निशा?’’

विजय के हाथ से मैँ ने मिठाई का डब्बा और कार्ड ले लिया. पल्लवी को पुकारा. वह भी भागी चली आई और दोनों को प्रणाम किया.

‘‘जीती रहो, बेटी,’’ निशा ने पल्लवी का माथा चूमा और अपने गले से माला उतार कर पल्लवी को पहना दी.

मीना ने मना किया तो निशा ने यह कहते हुए टोक दिया कि पहली बार देखा है इसे दीदी, क्या अपनी बहू को खाली हाथ देखूंगी.

मूक रह गई मीना. दीपक भी योजना के अनुसार कुछ फल और मिठाई ले कर घर चला आया, बहाना बना दिया कि किसी मित्र ने मंगाई है और वह उस के घर उत्सव पर जाने के लिए कपड़े बदलने आया है.

‘‘अब मित्र का उत्सव रहने दो बेटा,’’ विजय बोला, ‘‘चलो चाचा के घर और बहन की डोली सजाओ.’’

दीपक चाचा से लिपट फूटफूट कर रो पड़ा. एक बहन की कमी सदा खलती थी दीपक को. मुन्नी के प्रति सहज स्नेह बरसों से उस ने भी दबा रखा था. दीपक का माथा चूम लिया निशा ने.

क्याक्या दबा रखा था सब ने अपने अंदर. ढेर सारा स्नेह, ढेर सारा प्यार, मात्र मीना की जिद का फल था जिसे सब ने इतने साल भोगा था.

‘‘बहन की शादी के काम में हाथ बंटाएगा न दीपक?’’

निशा के प्रश्न पर फट पड़ी मीना, ‘‘आज जरूरत पड़ी तो मेरा बेटा और मेरा पति याद आ गए तुझे…कोई नहीं आएगा तेरे घर पर.’’

अवाक् रह गए सब. पल्लवी और दीपक आंखें फाड़फाड़ कर मेरा मुंह देखने लगे. विजय और निशा भी पत्थर से जड़ हो गए.

‘‘तुम्हारा पति और तुम्हारा बेटा क्या तुम्हारे ही सबकुछ हैं किसी और के कुछ नहीं लगते. और तुम क्या सोचती हो हम नहीं जाएंगे तो विजय का काम रुक जाएगा? भुलावे में मत रहो, मीना, जो हो गया उसे हम ने सह लिया. बस, हमारी सहनशीलता इतनी ही थी. मेरा भाई चल कर मेरे घर आया है इसलिए तुम्हें उस का सम्मान करना होगा. अगर नहीं तो अपने भाई के घर चली जाओ जिन की तुम धौंस सारी उम्र्र मुझ पर जमाती रही हो.’’

‘‘भैया, आप भाभी को ऐसा मत कहें.’’

विजय ने मुझे टोका तब न जाने कैसे मेरे भीतर का सारा लावा निकल पड़ा.

‘‘क्या मैं पेड़ पर उगा था और मीना ने मुझे तोड़ लिया था जो मेरामेरा करती रही सारी उम्र. कोई भी इनसान सिर्फ किसी एक का ही कैसे हो सकता है. क्या पल्लवी ने कभी कहा कि दीपक सिर्फ उस का है, तुम्हारा कुछ नहीं लगता? यह निशा कैसे विजय का हाथ पकड़ कर हमें बुलाने चली आई? क्या इस ने सोचा, विजय सिर्फ इस का पति है, मेरा भाई नहीं लगता.’’

मीना ने क्रोध में मुंह खोला मगर मैं ने टोक दिया, ‘‘बस, मीना, मेरे भाई और मेरी भाभी का अपमान मेरे घर पर मत करना, समझीं. मेरी भतीजी की शादी है और मेरा बेटा, मेरी बहू उस में अवश्य शामिल होंगे, सुना तुम ने. तुम राजीखुशी चलोगी तो हम सभी को खुशी होगी, अगर नहीं तो तुम्हारी इच्छा…तुम रहना अकेली, समझीं न.’’

चीखचीख कर रोने लगी मीना. सभी अवाक् थे. यह उस का सदा का नाटक था. मैं ने उसे सुनाने के लिए जोर से कहा, ‘‘विजय, तुम खुशीखुशी जाओ और शादी के काम करो. दीपक 3 दिन की छुट्टी ले लेगा. हम तुम्हारे साथ हैं. यहां की चिंता मत करना.’’

‘‘लेकिन भाभी?’’

‘‘भाभी नहीं होगी तो क्या हमें भी नहीं आने दोगे?’’

चुप था विजय. निशा के साथ चुपचाप लौट गया. शाम तक पल्लवी भी वहां चली गई. मैं भी 3-4 चक्कर लगा आया. शादी का दिन भी आ गया और दूल्हादुलहन आशीर्वाद पाने के लिए अपनीअपनी कुरसी पर भी सज गए.

मीना अपने कोपभवन से बाहर नहीं आई. पल्लवी, दीपक और मैं विदाई तक उस का रास्ता देखते रहे. आधीअधूरी ही सही मुझे बेटी के ब्याह की खुशी तो मिली. विजय बेटी की विदाई के बाद बेहाल सा हो गया. इकलौती संतान की विदाई के बाद उभरा खालीपन आंखों से टपकने लगा. तब दीपक ने यह कह कर उबार लिया, ‘‘चाचा, आंसू पोंछ लें. मुन्नी को तो जाना ही था अपने घर… हम हैं न आप के पास, यह पल्लवी है न.’’

मैं विजय की चौखट पर बैठा सोचता रहा कि मुझ से तो दीपक ही अच्छा है जिसे अपने को अपना बनाना आता है. कितने अधिकार से उस ने चाचा से कह दिया था, ‘हम हैं न आप के पास.’ और बरसों से जमी बर्फ पिघल गई थी. बस, एक ही शिला थी जिस तक अभी स्नेह की ऊष्मा नहीं पहुंच पाई थी. आधीअधूरी ही सही, एक आस है मन में, शायद एक दिन वह भी पिघल जाए.

Love Story : बस वाली विदेसन

Love Story : मेसी मुझे जयपुर से पुष्कर जाने वाली टूरिस्ट बस में मिला था. मैं अकेला ही सीट पर बैठा था. उस वक्त वे तीनों बस में प्रविष्ट हुए. एक सुंदर विदेशी लड़की और 2 नवयुवक अंगरेज. लड़की और उस का एक साथी तो दूसरी सीट पर जा कर बैठे, वह आ कर मेरे बाजू वाली सीट पर बैठ गया. मैं ने उस की तरफ मुसकरा कर देखा तो उस ने भी जबरदस्ती मुसकराने की कोशिश करते हुए देखा.

‘‘यू आर फ्रौम?’’ मैं ने सवाल किया.

‘‘स्पेन,’’ उस ने उत्तर दिया, ‘‘मेरा नाम क्रिस्टियानो मेसी है. वह लड़की मेरे साथ स्पेन से आई है. उस का नाम ग्रेटा अजीबला है और उस के साथ जो लड़का बैठा है वह अमेरिकी है, रोजर फीडर.’’

लड़की उस के साथ स्पेन से आई थी और अब अमेरिकी के साथ बैठी थी. इस बात ने मुझे चौंका दिया. मैं ने गौर से उस का चेहरा देखा. उस का चेहरा सपाट था और वह सामने देख रहा था. मैं ने लड़की की तरफ नजर डाली तो रोजर ने उसे बांहों में ले रखा था और वह उस के कंधे पर सिर रखे अपनी जीभ उस के कान पर फेर रही थी.

 विदेशी लोगों के लिए इस तरह की हरकतें सामान्य होती हैं. अब हम भारतीयों को भी इस तरह की हरकतों में कोई आकर्षण अनुभव नहीं होता है बल्कि हमारे नवयुवक तो आजकल उन से भी चार कदम आगे हैं.

रोजर और गे्रटा आपस में हंसीमजाक कर रहे थे. मजाक करतेकरते वे एकदूसरे को चूम लेते थे. उन की ये हरकतें बस के दूसरे मुसाफिरों के ध्यान का केंद्र बन रही थीं. लेकिन मेसी को उन की इन हरकतों की कोई परवा नहीं थी.

वह निरंतर उन की तरफ से बेखबर सामने शून्य में घूरे जा रहा था. या तो वह जानबूझ कर उन की तरफ नहीं देख रहा था या फिर वह उन्हें, उन की हरकतों को देखना नहीं चाहता था. मेसी का चेहरा सपाट था मगर चेहरे पर एक अजीब तरह की उदासी थी.

‘‘तुम ने कहा, गे्रटा तुम्हारे साथ स्पेन से आई है?’’

‘‘हां, हम दोनों एकसाथ एक औफिस में काम करते हैं. हम ने छुट्टियों में इंडिया की सैर करने की योजना बनाई थी और हम 4 साल से हर महीने इस के लिए पैसा बचाया करते थे. जब हमें महसूस हुआ, काफी पैसे जमा हो गए हैं तो हम ने दफ्तर से 1 महीने की छुट्टी ली और इंडिया आ गए.’’

उस की इस बात ने मुझे और उलझन में डाल दिया था. दोनों स्पेन से साथ आए थे और इंडिया की सैर के लिए बरसों से एकसाथ पैसा जमा कर रहे थे. इस से स्पष्ट प्रकट होता है कि उस के और ग्रेटा के क्या संबंध हैं. ग्रेटा उस वक्त रोजर के साथ थी जबकि उसे मेसी के साथ होना चाहिए था. मगर वह जिस तरह की हरकतें रोजर के साथ कर रही थी इस से तो ऐसा प्रकट हो रहा था जैसे वे बरसों से एकदूसरे को जानते हैं, एकदूसरे को बेइंतिहा प्यार करते हैं या फिर एकदूसरे से गहरा प्यार करने वाले पतिपत्नी हैं.

‘‘क्या ग्रेटा और रोजर एकदूसरे को पहले से जानते हैं?’’ मैं ने उस से पूछा.

‘‘नहीं,’’ मेसी ने उत्तर दिया, ‘‘ग्रेटा को रोजर 8 दिन पूर्व मिला. वह उसी होटल में ठहरा था जिस में हम ठहरे थे. दोनों की पहचान हो गई और हम लोग साथसाथ घूमने लगे…और एकदूसरे के इतना समीप आ गए…’’ उस ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी.

मैं एकटक उसे देखता रहा.

‘‘ये पुष्कर क्या कोई धार्मिक पवित्र स्थान है?’’ मेसी ने विषय बदल कर मुझ से पूछा.

‘‘पता नहीं, मुझे ज्यादा जानकारी नहीं. मैं मुंबई से हूं. अमृतसर से आते हुए 2 दिन के लिए यहां रुक गया था. एक दिन जयपुर की सैर की. आज पुष्कर जा रहा हूं. साथ ही ये बस अजमेर भी जाएगी,’’ मैं ने उत्तर दिया.

‘‘हम लोग दिल्ली, आगरा में 8 दिन रहे. जयपुर में 8 दिन रहेंगे. वहां से मुंबई जाएंगे. वहां 3-4 दिन रहने के बाद गोआ जाएंगे और फिर गोआ से स्पेन वापस,’’ मेसी ने अपनी सारी भविष्य की यात्रा की योजना सुना दी और आगे कहा, ‘‘सुना है पुष्कर एक पवित्र स्थान है, जहां मंदिर में विदेशी पर्यटक हिंदू रीतिरिवाज से शादी करते हैं. हम लोग इसीलिए पुष्कर जा रहे हैं. वहां ग्रेटा और रोजर हिंदू रीतिरिवाज से शादी करेंगे?’’ मेसी ने बताया.

‘‘लेकिन शादी तो गे्रटा को तुम से करनी चाहिए थी. तुम ने बताया कि तुम ने यहां आने के लिए एकसाथ 4 सालों तक पैसे जमा किए हैं और तुम दोनों एकसाथ काम करते हो.’’

‘‘ये सच है कि इस साल हम शादी करने वाले थे,’’ मेसी ने ठंडी सांस भर कर बताया, ‘‘इसलिए साथसाथ भारत की सैर की योजना बनाई थी. हम बरसों से पतिपत्नी की तरह रह रहे हैं मगर…’’

‘‘मगर क्या?’’ मैं ने प्रश्नभरी नजरों से मेसी की ओर देखा.

‘‘अब ग्रेटा को रोजर पसंद आ गया है,’’ उस ने एक ठंडी सांस ली, ‘‘तो कोई बात नहीं, ग्रेटा की इच्छा, मेरे लिए दुनिया में उस की खुशी से बढ़ कर कोई चीज नहीं है.’’

मेसी की इस बात पर मैं उस की आंखों में झांकने लगा. उस की आंखों से एक पीड़ा झलक रही थी. मैं ने उसे नीचे से ऊपर तक देखा. वह 28-30 साल का एक मजबूत कदकाठी वाला युवक था. लेकिन जिस तरह बातें कर रहा था और उस के चेहरे के जो भाव थे, आंखों में जो पीड़ा थी मुझे तो वह कोई असफल भारतीय प्रेमी महसूस हो रहा था.

उस की प्रेमिका एक पराए पुरुष के साथ मस्ती कर रही है लेकिन वह फिर भी चुपचाप तमाशा देख रहा है, पे्रमिका की खुशी के लिए…इस बारे में सोचते हुए मेरे होंठों पर एक मुसकराहट रेंग गई. यह प्रेम की भावना है. जो भावना भारतीय प्रेमियों के दिल में होती है वही भावना मौडर्न कहलाने वाले यूरोपवासी के दिल में भी होती है. दिल के रिश्ते हर जगह एक से होते हैं. सच्चा और गहरा प्यार हर इंसान की धरोहर है, उसे न तो सीमा में कैद किया जा सकता है और न देशों में बांटा जा सकता है.

जब मेसी ये सारी बातें बता रहा था तो वह एक असफल प्रेमी तो लग ही रहा था, अपनी प्रेमिका से कितना प्यार करता है, उस की बातों से स्पष्ट झलक रहा था साथ ही उस की भावनाओं से एक सच्चे प्रेमी, आशिक का त्याग भी टपक रहा था. बस चल पड़ी. इस के बाद हमारे बीच कोई बात नहीं हो सकी. मगर वह कभीकभी अपनी स्पेनी भाषा में कुछ बड़बड़ाता था जो मेरी समझ में नहीं आता था लेकिन जब मैं ने एक बार उस की आंखों में आंसू देखे तो मैं चौंक पड़ा और मुझे इन आंसुओं का और उस की बड़बड़ाहट का मतलब भी अच्छी तरह समझ में आ गया. आंसू प्रेमिका की बेवफाई के गम में उस की आंखों में आ रहे थे और जो वह बड़बड़ा रहा था, मुझे विश्वास था उस की अपनी बेवफा प्रेमिका से शिकायत के शब्द होंगे. ग्रेटा और रोजर की मस्तियां कुछ ज्यादा ही बढ़ गई थीं.

मैं तो पूरे ध्यान से उन की मस्तियां देख रहा था. वह भी कभीकभी मुड़ कर दोनों को देख लेता था लेकिन जैसे ही वह ग्रेटा और रोजर को किसी आपत्तिजनक स्थिति में पाता था, झटके से अपनी गरदन दूसरी ओर कर लेता था. जबकि मैं उन की आपत्तिजनक स्थिति से न सिर्फ पूरी तरह आनंदित हो रहा था बल्कि पहलू बदलबदल कर उन की हरकतों को भी देख रहा था.

पुष्कर आने से पूर्व हम ने एकदूसरे से थोड़ी बातचीत की. एकदूसरे के मोबाइल नंबर और ईमेल लिए, इस के बाद वे तीनों पुष्कर में मुझ से जुदा हो गए क्योंकि पुष्कर में बस 2-3 घंटे रुकने वाली थी. पुष्कर में एक बड़ा सा स्टेडियम है जहां पर हर साल प्रसिद्ध पुष्कर मेला लगता है. इस में ऊंटों की दौड़ भी होती है.

वहां मैं ने कई विदेशी जोड़ों को देखा, जिन के माथे पर टीका लगा हुआ था और गले में फूलों का हार था. पुष्कर घूमने के लिए आने वाले विदेशी पर्यटक बड़े शौक से हिंदू परंपरा के अनुसार विवाह करते हैं. उन का वहां हिंदू परंपरा अनुसार विवाह कराया जाता है फिर चाहे वह विवाहित हों या कुंवारे हों.

वापसी में भी वे हमारे साथ थे. मेसी मेरे बाजू में आ बैठा और ग्रेटा और रोजर अपनी सीट पर. तीनों के माथे पर बड़ा सा टीका लगा हुआ था और गले में गेंदे के फूलों का हार था जो इस बात की गवाही दे रहा था कि रोजर और ग्रेटा ने वहां पर हिंदू परंपरा के अनुसार शादी कर ली है. वापसी में बस अजमेर रुकी. मेसी भी मेरे साथ आया. जब वह उस स्थान के बारे में पूछने लगा तो मैं ने संक्षिप्त में ख्वाजा गरीब नवाज के बारे में बताया.

लौट कर बोला, ‘‘यहां बहुत लोग कह रहे थे कि कुछ इच्छा है तो मांग लो, शायद पूरी हो जाए.’’

‘‘तुम ने कुछ मांगा?’’ मैं ने मुसकरा कर पूछा.

‘‘हां,’’ उस का चेहरा गंभीर था.

‘‘क्या?’’

‘‘हम ने अपना प्यार मांगा?’’

‘‘प्यार? कौन?’’

‘‘ग्रेटा.’’

एक शब्द में उस ने सारी कहानी कह दी थी. और उस की इस बात से यह साफ प्रकट हो रहा था कि वह गे्रटा को कितना प्यार करता है. वही गे्रटा जो कुछ दिन पूर्व तक तो उस से प्यार करती थी, इस से शादी भी करना चाहती थी…लेकिन यहां उसे रोजर मिल गया. रोजर उसे पसंद आ गया तो अब वह रोजर के साथ है. यह भी भूल गई है कि मेसी उसे कितना प्यार करता है. वे एकदूसरे को सालों से जानते हैं. सालों से एकदूसरे से प्यार करते हैं और शादी भी करने वाले थे. लेकिन पता नहीं उसे रोजर में ऐसा क्या दिखाई दिया या रोजर ने उस पर क्या जादू किया, अब वह रोजर के साथ है. रोजर से प्यार करती है. मेसी के प्यार को भूल गई है. यह भूल गई है कि वह मेसी के साथ भारत की सैर करने के लिए आई है. वह मेसी, जिसे वह चाहती है और जो उसे दीवानगी की हद तक चाहता है. सुना है कि विदेशों में प्यार नाम की कोई चीज ही नहीं होती है. प्यार के नाम पर सिर्फ जरूरत पूरी की जाती है. जरूरत पूरी हो जाने के बाद सारे रिश्ते खत्म हो जाते हैं.

शायद गे्रटा भी मेसी से अभी तक अपनी जरूरत पूरी कर रही थी. जब उस का दिल मेसी से भर गया तो वह अपनी जरूरत रोजर से पूरी कर रही है. लेकिन मेसी तो इस के प्यार में दीवाना है. बस वाले हमारा ही इंतजार कर रहे थे. हम बस में आए और बस चल पड़ी. 

रोजर और ग्रेटा एकदूसरे की बांहों में समाते हुए एकदूसरे का चुंबन ले रहे थे. वह पश्चिम का एक सुशिक्षित युवक दिल के हाथों कितना विवश हो गया है और अपने दिल के हाथों मजबूर हो कर स्वयं को धोखा देने वाली की बातें करने लगा है. गंडेतावीज भी पहनने लगा है जो अजमेर की दरगाह पर थोक के भाव में मिलते हैं.

जयपुर में वे अपने होटल के पास उतर गए, मैं अपने होटल पर. उस ने मेरा फोन नंबर व ईमेल आईडी ले लिया और कहा कि वह मुझे फोन करता रहेगा. मैं रात में ही मुंबई के लिए रवाना हो गया और उस को लगभग भूल ही गया. 8 दिन बाद अचानक उस का फोन आया.

‘‘हम लोग मुंबई में हैं और कल गोआ जा रहे हैं.’’

‘‘अरे तो पहले मुझ से क्यों नहीं कहा. मैं तुम से मिलता. आज या कल तुम से मिलूं?’’

‘‘आज हम एलीफैंटा गुफा देखने जाएंगे और कल गोआ के लिए रवाना होना है. इस से कल भी मुलाकात संभव नहीं.’’

‘‘गे्रटा कैसी है?’’ मैं ने पूछा.

‘‘रोजर के साथ बहुत खुश है,’’ उस का स्वर उदास था.

इस के बाद उस का गोआ से एक बार फोन आया, ‘‘हम गोआ में हैं. बहुत अच्छी जगह है. इतना अच्छा समुद्री तट मैं ने आज तक नहीं देखा. मुझे ऐसा महसूस हो रहा है मानो मैं अपने देश या यूरोप के किसी देश में हूं. 4 दिन के बाद मैं स्पेन चला जाऊंगा. गे्रटा भी मेरे साथ स्पेन जाएगी. लेकिन वह दूसरे दिन न्यूयार्क के लिए रवाना हो जाएगी. वहां रोजर उस का इंतजार कर रहा होगा. वह हमेशा के लिए स्पेन छोड़ देगी. अब वे दोनों वहां के रीतिरिवाज के अनुसार शादी करने वाले हैं.’’ उस की बात सुन कर मैं ने ठंडी सांस ली, ‘‘कोई बात नहीं मेसी, गे्रटा को भूल जाओ, कोई और गे्रटा तुम्हें मिल जाएगी. तुम गे्रटा को प्यार करते हो न. तुम्हारे लिए तो गे्रटा की खुशी से बढ़ कर कोई चीज नहीं है. गे्रटा की खुशी ही तुम्हारी खुशी है,’’ मैं ने समझाया.

‘‘हां,अनवर यह बात तो है,’’ उस ने मरे स्वर में उत्तर दिया. इस के बाद उस से कोई संपर्क नहीं हो सका. एक महीने के बाद जब एक दिन मैं ईमेल चैक कर रहा था तो अचानक उस का ईमेल मिला : ‘गे्रटा अमेरिका नहीं जा सकी. रोजर ने उस से शादी करने से इनकार कर दिया. वह कई दिनों तक बहुत डिस्टर्ब  रही. अब वह नौर्मल हो रही है.

‘हम लोग अगले माह शादी करने वाले हैं. अगर आ सकते हो तो हमारी शादी में शामिल होने जरूर आओ. मैं सारे प्रबंध करा दूंगा.’ उस का ईमेल पढ़ कर मेरे होंठों पर एक मुसकराहट रेंग गई. और मैं उत्तर में उसे मुबारकबाद और शादी में शामिल न हो सकने का ईमेल टाइप करने लगा.

Hindi Stories : दादी का यार

 Hindi Stories :  दादी अकसर दादाजी से कहा करती थीं कि जिंदगी में एक यार तो होना ही चाहिए. सुनते ही दादाजी बिदक जाया करते थे. “किसलिए?” वे चिढ़ कर पूछते. “अपने सुखदुख साझा करने के लिए,” दादी का जवाब होता, जिसे सुन कर दादाजी और भी अधिक भड़क जाते.“क्यों? घरपरिवार, मातापिता, भाईबहन, पतिसहेलियां काफी नहीं हैं जो यार की कमी खल रही है.
भले घरों की औरतें इस तरह की बातें करती कभी देखी नहीं. हुंह, यार होना चाहिए,” दादाजी देर तक बड़बड़ाते रहते. यह अलग बात थी कि दादी को उस बड़बड़ाहट से कोई खास फर्क नहीं पड़ता था. वे मंदमंद मुसकराती रहती थीं.मैं अकसर सोचा करती थी कि हमेशा सखीसहेलियों और देवरानीजेठानी से घिरी रहने वाली दादी का ऐसा कौनसा सुखदुख होता होगा जिसे साझा करने के लिए उन्हें किसी यार की जरूरत महसूस होती है.

“दादी, आप की तो इतनी सारी सहेलियां हैं, यार क्या इन से अलग होता है?” एक दिन मैं ने दादी से पूछा तो दादी अपनी आदत के अनुसार हंस दीं. फिर मुझे एक कहानी सुनाने लगीं.

“मान ले, तुझे कुछ पैसों की जरूरत है. तू ने अपने बहुत से दोस्तों से मदद मांगी. कुछ ने सुनते ही बहाना बना कर तुझे टाल दिया. ऐसे लोगों को जानपहचान वाला कहते हैं. कुछ ने बहुत सोचा और हिसाब लगा कर देखा कि कहीं उधार की रकम डूब तो नहीं जाएगी.
आश्वस्त होने के बाद तुझे समयसीमा में बांध कर मांगी गई रकम का कुछ हिस्सा दे कर तेरी मदद के लिए जो तैयार हो जाते हैं उन्हें मित्र कहते हैं. और जो दोस्त बिना एक भी सवाल किए चुपचाप तेरे हाथ में रकम धर दे, उसे ही यार कहते हैं. कुछ समझीं?” दादी ने कहा.

“जी समझी यही कि जो दोस्त आप से सवालजवाब न करे, आप को व्यर्थ सलाहमशवरा न दे और हर समय आप के साथ खड़ा रहे वही आप का यार है. है न?” मैं ने अपनी समझ से कहा.

“बिलकुल सही. लेकिन तेरे दादाजी को ये तीनों एक ही लगते हैं,” कहते हुए दादी की आंखों में उदासी उतर आई. यार न होने की टीस उन्हें सालने लगी.

“मैं बचपन से ही अपने दादादादी के साथ रहती हूं, क्योंकि मेरे मम्मीपापा दोनों नौकरी करते हैं. चूंकि दादाजी भी सरकारी सेवा में थे, इसलिए दादी न तो उन्हें अकेला छोड़ सकती थीं और न ही वे चाहती थीं कि उन की पोती आया और नौकरों के हाथों में पले. इसलिए, सब ने मिल कर तय किया कि मैं अपनी दादी के पास ही रहूंगी. बस, इसीलिए मेरा और दादी का दोस्तियाप्पा बना हुआ है.

जब से हमारे सामने वाले घर में सीमा आंटी रहने के लिए आई हैं तब से हमारे घर में भी रौनक बढ़ गई है. सीमा आंटी हैं ही इतनी मस्तमौला. जिधर से निकलती हैं, हंसी के अनार फोड़ती जाती हैं. चूंकि हमारे घर आमनेसामने हैं, इसलिए इन अनारों की रोशनी सब से ज्यादा हमारे घर पर ही होती है.

सीमा आंटी शायद कहीं नौकरी करती हैं. आंटी को गपें मारने का बहुत शौक है. औफिस से आने के बाद वे शाम ढलने तक दादीदादाजी के साथ गपें मारती रहती हैं. दादी कहीं इधरउधर गईं भी हों तो भी उन्हें कोई खास फर्क नहीं पड़ता. चायकौफी के दौर में डूबी वे दादाजी के साथ ही देर तक गपियाती रहती हैं.

मैं ने कई बार नोटिस किया है कि जब दादाजी अकेले होते हैं तब सीमा आंटी के ठहाकों में गूंज अधिक होती है. उस समय दादाजी के चहरे पर भी ललाई बढ़ जाती है. पिछले कुछ दिनों से तो तीनों का बाहर आनाजाना भी साथ ही होने लगा है.

जब से सीमा आंटी हमारी जिंदगी का हिस्सा बनी हैं तब से दादाजी दादी के प्रति जरा नरम हो गए हैं. आजकल वे दादी के इस तर्क पर बहस नहीं करते कि जिंदगी में यार होना चाहिए कि नहीं. लेकिन हां, खुल कर इस की वकालत तो वे अब भी नहीं करते.

“आप को नहीं लगता कि सीमा आंटी दादाजी में ज्यादा ही इंटरैस्ट लेने लगी हैं,” एक दिन मैं ने दादी को छेड़ा. दादी हंस दीं और बोलीं, “शायद इसी से उन्हें जिंदगी में यार की अहमियत समझ में आ जाए.”

दादी की सहजता मुझे आश्चर्य में डाल रही थी. “आप को जलन नहीं होती?” मैं ने पूछा.

“किस बात की जलन?” अब आश्चर्यचकित होने की बारी दादी की थी.

“अरे, आप उन की पत्नी हो. आप के पति के साथ कोई और समय बिता रहा है. आप को इसी बात की जलन होनी चाहिए और क्या?” मैं ने अपनी बात साफ की.

“तो क्या हुआ, यार कहां पति या पत्नी के अधिकारों का अतिक्रमण करता है?” दादी ने उसी सहजता से कहा. मैं उन की सरलता पर हंस दी.

आज दादी हमारे बीच नहीं हैं. अचानक उन्हें दिल का दौरा पड़ा और वे हम सब को हतप्रभ सा छोड़ कर अनंत यात्रा पर चल दीं. 15 दिनों बाद मम्मीपापा सामाजिक औपचारिकताएं निभा कर वापस चले गए. वे तो मुझे और दादाजी को भी अपने साथ ले जाने की जिद कर रहे थे लेकिन दादाजी किसी सूरत में इस घर को छोड़ कर जाने को तैयार नहीं हुए. मैं उन की देखभाल करने के लिए उन के पास रुक गई. वैसे भी, मेरी स्नातक की पढ़ाई अभी चल ही रही थी.

एक दोपहर दादी की अलमारी सहेजते समय मुझे उन के पुराने पर्स के अंदर एक छोटी सी चाबी मिली. सभी ताले टटोल लिए, लेकिन उस चाबी का कोई ताला मुझे नहीं मिला. बात आईगई हो गई. फिर एक दिन जब मैं ने दादी का पुराना बक्सा खोल कर देखा तो उस में एक छोटी सी कलात्मक मंजूषा मुझे दिखाई दी. उस पर लगा छोटा सा ताला मुझे उस छोटी चाबी की याद दिला गया. लगा कर देखा तो ताला खुल गया.

मंजूषा के भीतर मुझे एक पुरानी पीले पड़ते पन्नों वाली छोटी सी डायरी मिली. ताले का रहस्य जानने के लिए मैं दादाजी को बिना बताए उसे छिपा कर अपने साथ ले आई. रात को दादाजी के सोने के बाद मैं ने वह डायरी निकाल कर पढ़ना शुरू किया.

पन्नादरपन्ना दादी खुलती जा रही थीं. डायरी में जगहजगह किसी धरम का जिक्र था. डायरी में लिखी बातों के अनुसार मैं ने सहज अनुमान लगाया कि धरम दादी की प्रेम कहानी का नायक नहीं था, वह उन का यार था. जब भी वे परेशान होतीं तो सिर्फ धरम से बात करती थीं.

मुझे याद आया कि दादी अकसर छत पर जा कर फोन पर किसी से बात किया करती थीं. दादाजी के आते ही तुरंत नीचे दौड़ आती थीं. जब वे वापस नीचे आती थीं तो एकदम हवा सी हलकी होती थी. मैं अंदाजा लगा रही हूं कि शायद वे धरम से ही बात करती होंगी.

दादी की डायरी क्या थी, दुखों का दस्तावेज़ थी. हरदम मुसकराती दादी अपनी हंसी के पीछे कितने दर्द छिपाए थीं, यह मुझे आज पता चल रहा है. पता नहीं क्यों दादाजी एक खलनायक की छवि में ढलते जा रहे हैं.

दादी और दादाजी का विवाह उन के समय के चलन के अनुसार घर के बड़ों का तय किया हुआ रिश्ता था. धरम उन दोनों के उन के बचपन का यार था. हालांकि, दुनियाजहान की बातेंशिकायतें दादी दादाजी से ही करती थीं लेकिन दादाजी का जिक्र या उन के प्रति उपजी नाराजगी को जताने के लिए भी तो कोई अंतरंग साथी होना चाहिए न. भावनाओं के मटके जहां छलकते थे, वह पनघट था धरम. यह बात दादाजी भी जानते थे लेकिन वे कभी भी स्त्रीपुरुष के याराने के समर्थक नहीं थे.

धीरेधीरे प्यार को अधिकार ढकने लगा और धरम दादाजी की आंखों में रेत सा अड़ने लगा. दादाजी को धरम के साथ दादी की निकटता डराने लगी. खोने का डर उन्हें अपराध करने के लिए उकसाने लगा. उन्होंने अपने प्यार का वास्ता दे कर दादी को उन के यार से दूर करने की साजिश की. दादाजी की खुशी और परिवार की सुखशांति बनाए रखने के लिए दादी ने धरम से दूरियां बना ली. वे अब दादाजी के सामने धरम का जिक्र नहीं करती थीं. दादाजी को लगा कि वे अपने षड्यंत्र में कामयाब हो गए, लेकिन वे दादी को धरम से दूर कहां कर पाए.

डायरी इस बात की गवाह है कि दादी अपने आखिरी समय तक धरम से जुड़ी हुई थीं. और मैं इस बात की गवाही पूरे होशोहवास में दे सकती हूं कि दादी की जिंदगी धरम को कलंकरहित यार का दर्जा दिलवाने की आस में ही पूरी हो गई.

आखिरी पन्ना पढ़ कर डायरी बंद करने लगी तो पाया कि मेरा चेहरा आंसुओं से तर था. दादी ने अपनी अंतिम पंक्तियों में लिखा था- “हमारे समाज में सिर्फ व्यक्ति ही नहीं, बल्कि कुछ शब्द भी लैंगिक भेदभाव का दंश झेलते हैं. स्त्री और पुरुष के संदर्भ में उन की परिभाषा अगल होती है. उन्हीं अभागे शब्दों में से एक शब्द है ‘यार’. उस का सामान्य अर्थ बहुत जिगरी होने से लगाया जाता है लेकिन जब यही शब्द कोई महिला किसी पुरुष के लिए इस्तेमाल करे तो उस के चरित्र की चादर पर काले धब्बे टांक दिए जाते हैं.”

पता नहीं दादी द्वारा लिखा गया यही पन्ना आखिरी था या इस के बाद दादी का कभी डायरी लिखने का मन ही नहीं हुआ, क्योंकि दादी ने किसी भी पन्ने पर कोई तारीख अंकित नहीं की थी. लेकिन इतना तो तय था कि दादी के याराने को न्याय नहीं मिला. काश, कोई जिंदगी में यार की अहमियत समझ सकता. काश, समाज याराने को स्त्रीपुरुष की सीमाओं से बाहर स्वीकार कर पाता.

दादी के न रहने पर दादाजी एकदम चुप सा हो गए थे. कितने ही दिन तो घर से बाहर ही नहीं निकले. सीमा आंटी के आने पर जरूर उन का अबोला टूटता था. सीमा आंटी भी उन्हें अकेलेपन के खोल से बाहर लाने की पूरी कोशिश कर रही थीं. कोशिश थी, आखिर तो कामयाब होनी ही थी. दादाजी फिर से हंसनेबोलने लगे. रोज शाम सीमा आंटी का इंतज़ार करने लगे. जब भी कभी परेशान या दादी की याद में उदास होते, सब से पहला फोन सीमा आंटी को ही जाता.

आंटी भी अपने सारे जरूरी काम छोड़ कर उन का फोन अटेंड करतीं. मैं कई बार देखती कि जब दादाजी बोल रहे होते तब आंटी चुपचाप उन्हें सुनतीं.  न वे अपनी तरफ से कोई सलाह देतीं और न ही कभी किसी काम में दादाजी की गलती निकाल कर उन्हें कठघरे में खड़ा करतीं. क्या वे दादाजी की यार थीं?

सीमा आंटी दादाजी के लिए उस दीवार जैसी हो गई थीं जिस के सहारे इंसान अपनी पीठ टिका कर बैठ जाता है और मौन आंसू बहा कर अपना दिल भी हलका कर लेता है, यह जानते हुए भी कि यह दीवार उस की किसी भी मुश्किल का हल नहीं है. लेकिन हाँ, दुखी होने पर रोने के लिए हर समय हाजिर जरूर है.

दादी को गए साल होने को आया. 2 दिनों बाद उन की बरसी है. दादाजी पूरी श्रद्धा के साथ आयोजन में जुटे हैं. सीमा आंटी उन की हरसंभव सहायता कर रही हैं. मेरे मम्मीपापा भी आ चुके हैं. घर में एक उदासी सी तारी है. लग रहा है जैसे दादाजी के भीतर कोई मंथन चल रहा है.

“मिन्नी, आज शाम मेरा एक दोस्त धरम आने वाला है,” दादाजी ने कहा. सुनते ही मैं चौंक गई.  ‘धरम यानी दादी का यार… तो क्या दादाजी सब जान गए? क्या दादी की डायरी उन के हाथ लग गई?’ मैं ने लपक कर अपनी अलमारी संभाली. दादी की डायरी तो जस की तस रखी थी. धरम अंकल के आने का कारण मेरी समझ में नहीं आ रहा था. मैं ने टोह लेने के लिए दादाजी को टटोला.

“धरम अंकल कौन हैं, पहले तो कभी नहीं आए हमारे घर?” मैं ने पूछा.

“धरम तेरी दादी का जिगरी था. वह बेचारी इस रिश्ते को मान्यता दिलाने के लिए जिंदगीभर संघर्ष करती रही. लेकिन मैं ने कभी स्वीकार नहीं किया. आज जब अपने मन के पेंच खोलने के लिए किसी चाबी की जरूरत महसूस करता हूं तो उस का दर्द समझ में आता है,” दादाजी की आंखों में आंसू थे.

दादी की बरसी पर धरम अंकल आए. पता नहीं दादाजी ने उन से क्या कहा कि दोनों देर तक एकदूसरे से लिपटे रोते रहे. सीमा आंटी भी उन के पास ही खड़ी थीं. थोड़ा सहज हुए दादाजी ने सीमा आंटी की तरफ इशारा करते हुए धरम अंकल से उन का परिचय करवाया- “ये सीमा है. हमारी पड़ोसिन… मेरी यार.” और तीनों मुसकरा उठे.

मैं भी खुश थी. आज दादी के याराने को मान्यता मिल गई थी.

Storytelling : गलत फैसला

Storytelling :  जयश्री को गुजरे एक महीना भी नहीं हुआ था कि उस के मम्मीपापा उस के ससुराल आ धमके. लगभग धमकीभरे लहजे में अपने दामाद प्रशांत से बोले, ‘‘राजन मेरे पास रहेगा.’’

‘‘क्यों आप के पास रहेगा? उस का बाप जिंदा है,’’ प्रशांत ने भी उसी लहजे में जवाब दिया.

‘‘उस की परवरिश करना तुम्हारे वश में नहीं,’’ वे बोले.

‘‘बड़े होने के नाते मैं आप की इज्जत करता हूं लेकिन यह हमारा निजी मामला है.’’

‘‘निजी कैसे हो गया? राजन मेरी बेटी का पुत्र है. उस की उम्र अभी मात्र 6 महीने है. तुम नौकरी करोगे कि बेटा पालोगे,’’ प्रशांत के ससुर रामानंद बोले.

‘‘आशा दीदी के हाथों वह सुरक्षित है,’’ प्रशांत ने सफाई दी.

‘‘तो भी यह बच्चा तुम्हें मुझे देना ही होगा,’’ रामानंद ‘देना’ शब्द पर जोर दे कर बोले.

‘‘रवि, तू अंदर जा कर बच्चा ले आ,’’ रवि उन का इकलौता बेटा था. भले ही उम्र के 40वें पायदान पर था तथापि स्वभाव से उद्दंडता गई न थी. आशा दौड़ कर कमरे में गई और राजन को सीने से लगा कर शोर मचाने लगी. प्रशांत ने भरसक प्रतिरोध किया लेकिन रवि ने उसे झटक दिया. रवि की उद्दंडता से नाराज प्रशांत, रवि को थप्पड़ मारने ही जा रहा था कि रामानंद बीच में आ गए. तब तक आसपड़ोस की भीड़ इकट्ठी हो गई. भीड़ के भय से रामानंद ने अपने पांव पीछे खींच लिए. उस रोज वे खाली हाथ लौट गए जिस का उन्हें मलाल था. प्रसंगवश, यह बता देना आवश्यक है कि प्रशांत और जयश्री का अतीत क्या था.

प्रशांत की जयश्री से शादी हुए 16 साल हो चुके थे. इन सालों में जब जयश्री गर्भवती नहीं हुई तो उन दोनों ने टैस्टट्यूब बेबी का सहारा लिया. इस तरह जयश्री की गोद भर गई. जब तक जयश्री मां न बन सकी थी तब तक प्रशांत ने उसे सरकारी नौकरी में जाने की पूरी छूट दे रखी थी. इसी का परिणाम था कि वह एक सरकारी स्कूल में अध्यापिका बन गई. नौकरी मिलते ही जयश्री के मांबाप, भाईबहन सब उस के इर्दगिर्द मंडराने लगे. जयश्री का मायका मोह अब भी नहीं छूटा था. कहने के लिए वह प्रशांत की बीवी थी पर रायमशवरा वह मायके से ही लेती. एक दिन रामानंद जयश्री से बोले, ‘बेटी, तुम्हारे पास रुपयों की कोई कमी न रही. तुम दोनों सरकारी नौकरी में हो.’ जयश्री चुपचाप उन की बात सुनती रही.

 

वे आगे बोले, ‘तुम्हारी छोटी बहन लता जमीन खरीदना चाहती है. हो सके तो तुम उस की मदद कर दो.’

रामानंद व उन की बीवी दोनों बड़े चापलूस और मक्कार किस्म के थे. उन का बेटा रवि भी उन्हीं के नक्शेकदम पर चलता. शादी के बाद भी वे लोग जयश्री पर छाए रहे. जयश्री कभी भी पूर्णतया ससुराल की हो कर न रह पाई थी. छोटीछोटी समस्याओं के लिए अपने मम्मीपापा और भाई रवि पर निर्भर रहती. उन की राय के बिना एक कदम न बढ़ाती. यहां तक कि लता को 2 लाख रुपए उस ने चोरी से लोन ले कर दे दिए. यह बात प्रशांत तक को पता न थी. लोन के पैसे वेतन से कटते. जयश्री ने अपने सारे गहने मायके में रख छोड़े थे. प्रशांत ने आपत्ति की तो उस ने यह कह कर उन्हें शांत कर दिया कि वहां लौकर में सुरक्षित हैं. मांबाप कहीं बेटी का हक थोड़े ही मारते हैं. इस के पीछे उसे डर अपनी बड़ी ननद आशा को ले कर था. वे अकसर आती रहतीं. प्रशांत उन से कुछ ज्यादा घुलामिला था. आशा की जयश्री से कभी नहीं पटी.

आशा सोचती कि प्रशांत के मांबाप नहीं रहे, इसलिए उसी ने उस की शादी का जिम्मा लिया तो प्रशांत की तरह जयश्री भी उस से दब कर रहे. जयश्री सोचती, आशा प्रशांत की बहन है, वे चाहे उस से जैसे भी पेश आएं, मैं क्यों उन के तलवे चाटूं. इन्हीं सब बातों को ले कर दोनों में तनातनी रहती. जयश्री को अपने मायके से जुड़ाव का एक बहुत बड़ा कारण यह भी था. जयश्री की इसी कमजोरी का फायदा उस के मांबाप, भाईबहनों ने उठाया. वे कोई न कोई बहाना बना कर उस से रुपए ऐंठते रहते. उस दोपहर अचानक जयश्री की तबीयत बिगड़ी. प्रशांत ने नजदीक के एक प्राइवेट अस्पताल में उसे भरती कराया. 2 दिन इलाज चला. तीसरे दिन अचानक उसे बेचैनी महसूस हुई. डाक्टरों ने भरसक कोशिश की परंतु उसे बचा न सके.

जयश्री की मृत्यु की खबर सुन कर उस के मायके के लोग भागेभागे आए. आते ही प्रशांत को कोसने लगे, ‘तुम ने मेरी बेटी का ठीक से इलाज नहीं करवाया.’ गनीमत थी कि वह प्राइवेट अस्पताल में मरी. अगर घर में मरती तो निश्चय ही वे कोई न कोई आरोप लगा कर प्रशांत को जेल भिजवा देते.

 

‘ये आप क्या कह रहे हैं, बाबूजी. वह मेरी पत्नी थी. मैं भला उस के इलाज में कोताही क्यों बरतूंगा,’ प्रशांत बोला.

‘बरतोगे,’ व्यंग्य के भाव उन के चेहरे पर तिर गए, ‘16 साल के वैवाहिक जीवन में वह एक दिन भी खुश नहीं रही.’

‘यह आप कैसे कह सकते हैं?’

‘क्यों नहीं कहूंगा? तुम्हें फिट आते थे. क्या तुम ने शादी के पहले इस का जिक्र किया था?’

‘गड़े मुर्दे उखाड़ने से क्या फायदा?’ प्रशांत बात टालने की नीयत से बोला.

‘इसीलिए कह रहा हूं, अगर फायदा होता तो नहीं उखाड़ता.’

‘दोष तो आप की बेटी में भी था.’

‘दोष? तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया है.’

‘16 साल इलाज किया, लाखों रुपए खर्च हुए, तब भी वह मां न बन सकी. जानते हैं क्यों? क्योंकि उस के बच्चेदानी में टीबी थी, जो शादी के पहले से थी. अगर समय रहते आप लोगों ने उस की समुचित चिकित्सा की होती तो यह दिन न देखना पड़ता.’ ‘बेकार की बातें मत करो,’ रामानंद का स्वर किंचित तेज था, ‘जो भी खामी आई वह सब तुम्हारे माहौल का दोष है. मेरे यहां तो वह भलीचंगी थी.’

 

‘झूठ मत बोलिए, आप 5 बेटियों के पिता हैं. आप भला क्यों इलाज कराएंगे. आप तो चाहेंगे कि वह मरमरा जाए तो अच्छा है.’ प्रशांत की बात उन्हें कड़वी लगी, तथापि संयत रहे.

‘जबान को लगाम दीजिए, जीजाजी,’ रवि उखड़ा.

‘सत्य बात हमेशा कड़वी लगती है.’

‘तब आप ने उस सच को उजागर क्यों नहीं किया?’

‘कौन सा सच?’

‘आप के फिट आने का,’ रवि बोला.

‘फिट कोई लाइलाज बीमारी नहीं. मुख्य बात यह है कि मुझे बीमारी से कोई शिकायत नहीं. मैं अपने पैरों पर खड़ा हूं. बिना मदद के अपने औफिस जाता हूं. अच्छीखासी तनख्वाह पाता हूं. अपने परिवार का भरणपोषण करने में सक्षम हूं और क्या चाहिए एक पुरुष से?’

‘मेरी बहन हमेशा आप की बीमारी को ले कर चिंतित रहती थी. इसी ने उस की जान ली,’ रवि बोला.

‘और शादी के 16 साल बाप न बनने की जो चिंता मुझे हुई, क्या उस चिंता ने मुझे चैन से जीने दिया? आप के पिता ने एक पुत्र के लिए 5 बेटियां जनीं. मुझे तो सिर्फ 1 पुत्री की आस थी. वह भी जयश्री के बीमारी के चलते पूरी न हो सकी. हार कर मुझे टैस्टट्यूब बेबी का सहारा लेना पड़ा,’ प्रशांत भावुक हो उठा.

‘जैसे भी हो, आप बाप बन गए न,’ रवि बोला.

‘‘इस बच्चे के बारे में क्या सोचा है?’’ रामानंद का स्वर सुन कर प्रशांत अपनी सोच से बाहर आ गया, ‘‘सोचना क्या है, बच्चा मेरे पास रहेगा.’’

कुछ सोच कर रामानंद बोले, ‘ठीक है. तुम्हारे पास ही रहेगा लेकिन इस शर्त पर कि बीचबीच में मैं इसे देखने आता रहूंगा. फोन से भी इस की खबर लेता रहूंगा. अगर इस की परवरिश में लापरवाही हुई तो बच्चा तुम्हें देना पड़ेगा,’ वे अपनी बात पर थोड़ा जोर दे कर बोले. प्रशांत को यह नागवार लगा. उस रोज सब चले गए. तेरहवीं के रोज जब आए तो वही बात दोहराई, ‘‘बच्चा मुझे दे दो. तुम्हारे वश में संभालना संभव नहीं,’’ प्रशांत की सास बोलीं.

‘‘मम्मीजी, आप बारबार बच्चा लेने की बात क्यों करती हैं. बच्चा मेरा है, मैं उस की बेहतर परवरिश कर सकता हूं.’’

‘‘किस के भरोसे?’’

‘‘अभी तो आशा दीदी हैं, बाद का बाद में देखा जाएगा.’’

‘‘आशा दीदी क्या पालेंगी? बांझ को बच्चा पालने का क्या अनुभव?’’ प्रशांत की सास मुंह बना कर बोलीं.

प्रशांत चाहता तो उन्हें धक्के मार कर निकाल सकता था पर चुप रहा. अब हर दूसरे दिन कभी रवि तो कभी रामानंद का फोन बच्चे के हालचाल के लिए आता. फोन पर अकसर वे बच्चे की आड़ में अनापशनाप बकते. मसलन, ‘कहां थी अब तक, कब से फोन लगा रहा हूं. बच्चा नहीं संभलता तो हमें दे दीजिए,’ रवि तीखे स्वर में आशा से कहता. आशा लाख कहती कि उस ने फोन उठाने में देरी नहीं की, फिर भी रवि उसे अनापशनाप बोलता रहता. उस की हरकतों से आजिज आ कर प्रशांत ने वकील से सलाह ली.

‘‘देखिए, जब तक आप की शादी नहीं हो जाती तब तक बच्चे पर हक नानानानी का ही बनता है. आप के मांबाप हैं नहीं,’’ वकील ने कानूनी पक्ष सामने रखा.

‘‘तो क्या किया जाए?’’

‘‘अतिशीघ्र शादी. तब तक उन से कोई बैर मोल मत लीजिए. जितनी सहूलियत से बोलबतिया सकते हैं बतियाइए वरना…’’

‘‘वरना क्या?’’

‘‘कानूनन वे कुछ भी कर सकते हैं. यहां तक कि बच्चा भी ले सकते हैं. जब तक कि आप शादी नहीं कर लेते हैं.’’

प्रशांत को सारा माजरा अब समझ में आया कि वे लोग क्यों इतने ताव से बातें करते हैं. जयश्री के मरने के 1 महीने के अंदर ही जब उन सब ने बच्चा उठाने की नीयत से उस के घर पर धावा बोला था तब भी इसी कानून का सुरक्षा कवच उन के पास था. वह तो महल्ले वालों के भय से वे अपने मिशन में कामयाब न हो सके वरना…

उस रोज के एक हफ्ते बाद सबकुछ शांत था. प्रशांत के लिए जोरशोर से लड़की देखी जाने लगी. विवाह की बात थी. हड़बड़ी दिखाना, वह भी 6 महीने के 1 बच्चे की परवरिश के लिए किसी को भी ब्याह कर के लाना उचित न था. प्रशांत खूब सोचसमझ कर किसी लड़की से शादी करना चाहता था ताकि बच्चे को ले कर कोई टकराव की स्थिति न बने. इधर, रामानंद ने जो सोचा था वह न हो पाने के कारण बेचैन वे थे.

वे चाहते थे कि किसी तरह बच्चा उन के पास आ जाए ताकि प्रशांत को वे उंगलियों पर नचा सकें. उंगलियों पर नचाने का भी उन का अपना मकसद था. जब तक जयश्री जिंदा थी, अपनी कमाई का ज्यादातर हिस्सा मायके पर खर्च करती थी. अब एकाएक वह चली गई तो वह स्रोत बंद हो गया. लालची किस्म के रामानंद को यह बात सीने पर नश्तर की तरह चुभती. वे बच्चे के बहाने प्रशांत से और भी कुछ ऐंठना चाहते थे, जैसे पीएफ व बीमे के रुपए जिन्हें वे अपनी बेटी का मानते थे.

प्रशांत उन की बदनीयती से कुछकुछ वाकिफ हो चुका था. जयश्री के मरने के बाद जब प्रशांत उस के औफिस बकाया पीएफ व बीमे के लिए गया तो पता चला कि 2 लाख रुपए का उस पर कर्जा है जो उस के वेतन से कटता है.

अब सरकार तो छोड़ेगी नहीं, जो भी फंड जयश्री के नाम होगा उसी से भरपाई करेगी. उसी समय प्रशांत को भान हो गया था कि जयश्री के मांबाप किस प्रवृत्ति के हैं व उस से क्या चाहते हैं. बच्चे से प्रेम महज बहाना था. जिसे अपनी बेटी से प्रेम नहीं वह भला अपनी बेटी के पुत्र से स्नेह क्यों रखने लगा?

एक रोज रवि सपत्नी आया, ‘‘पापा ने राजन को देखने के लिए लखनऊ बुलाया है.’’

‘‘इतने छोटे से बच्चे को कौन ले जाएगा? वे खुद नहीं आ सकते?’’ प्रशांत बोला.

‘‘वे बीमार हैं,’’ रवि का जवाब था.

‘‘ठीक हो जाएं तब आ कर देख जाएं.’’

‘‘नहीं, उन्होंने अभी देखने की इच्छा जाहिर की है.’’

‘‘यह कैसे संभव है?’’ प्रशांत लाचार स्वर में बोला.

‘‘मैं ले जाऊंगा,’’ रवि का यह कथन प्रशांत को अच्छा न लगा.

‘‘यह असंभव है.’’

‘‘कुछ भी असंभव नहीं. आप राजन को मुझे दे दीजिए. मैं सकुशल उसे पापा से मिलवा कर आप के पास पहुंचा दूंगा.’’

प्रशांत कुछ देर शांत था. फिर एकाएक उबल पड़ा, ‘‘आप लोग झूठ बोल रहे हैं. किसी को राजन से प्रेम नहीं है. साफसाफ बताइए, आप लोग चाहते क्या हैं?’’

रवि के चेहरे पर एक कुटिल मुसकान तैर गई. वह धीरे से बोला, ‘‘दीदी के पीएफ और बीमे के रुपए.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘क्योंकि वे मेरी बहन की कमाई के थे.’’

‘‘वह मेरी कुछ नहीं थी?’’

‘‘तो ठीक है, राजन को हमें दे दीजिए.’’

प्रशांत की आंखें भर आईं. ‘‘क्या रुपयापैसा खून के रिश्ते से ज्यादा अहमियत रखने लगे हैं? क्या रिश्तेनाते, संस्कार गौण हो गए हैं?’’ किसी तरह उस ने अपने जज्बातों पर नियंत्रण रखा. 5 लाख रुपए बीमे की रकम व 3 लाख रुपए का पीएफ. यही कुल जमापूंजी जयश्री की थी. गनीमत थी कि रामानंद ने नवनिर्मित मकान में हिस्सेदारी का सवाल नहीं खड़ा किया.

‘‘2 लाख रुपए उस ने लोन लिए थे,’’ प्रशांत ने कहा.

‘‘लोन?’’ रवि चिहुंका.

‘‘चिहुंकने की कोई जरूरत नहीं. आप अच्छी तरह जानते हैं कि वे लोन के रुपए किस के काम आए,’’ प्रशांत के कथन पर वह बगलें झांकने लगा, फिर बोला, ‘‘गहने?’’

‘‘वे सब आप के पास हैं.’’

‘‘फिर भी कुछ तो होंगे ही?’’

प्रशांत ने जयश्री के कान के टौप्स, चूड़ी, एक सिकड़ी ला कर दे दी जो जयश्री के बदन पर मरते समय थे. 8 लाख रुपए का चैक काट कर प्रशांत ने अपने बेटे का सौदा कर लिया. उस रोज के बाद रामानंद ने भूले से भी कभी अपने नाती राजन का हाल नहीं लिया.

Lapata Ladies : औस्‍कर से लापता होने के पीछे ‘घूंघट के पट खोल’ कनेक्‍शन तो नहीं

 Lapata Ladies : आमिर खान की फिल्म ‘लापता लैडीज’ औस्कर से बाहर हो गई है. फिल्म औस्कर में भेजे जाने को ले कर पहले ही विवादों में थी. इस ने इंडस्ट्री में फेवरिज्म की बहस छेड़ी थी.

औस्कर की दौड़ से आमिर खान निर्मित और आमिर खान की पूर्व पत्नी किरण राव द्वारा निर्देशित फिल्म ‘लापता लैडीज’ ( Lapata Ladies) के बाहर होते ही एक बार फिर नई बहस छिड़ गई है. एक वर्ग सवाल उठा रहा है कि आखिर ‘फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया’ हर साल क्यों गलत फिल्म ‘औस्कर’ यानी कि ‘अकादमी औफ मोशन पिक्चर आर्ट्स एंड साइंसेज’ में सर्वश्रेष्ठ अंतर्राष्ट्रीय फीचर श्रेणी के लिए भारत की तरफ से आधिकारिक प्रविष्टि के रूप में भेजने की गलती कर भारतीय सिनेमा को वैश्विक स्तर पर पहचान नहीं बनाने देना चाहता?

यह सवाल काफी गंभीर और चुनौतीपूर्ण होने के साथ ही इस बार की चयन समिति के अध्यक्ष व असमिया फिल्मकार जाहनु बारूआ को भी कटघरे में खड़ा करता है. आरोप तो यह भी लग रहा है कि इस बार ‘फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया’ के अध्यक्ष व औस्कर के लिए भारतीय फिल्म की चयन समिति के अध्यक्ष जाहनु बरूआ सरकार के हाथ की कठपुतली बने होने के साथसाथ मिस्टर परफैक्शनिस्ट के रूप में मशहूर अति दंभी कलाकार व निर्माता आमिर खान के दबाव में थे.

अन्यथा वह ऐसी फिल्म यानी कि लापता लैडीज ( Lapata Ladies)  का चयन ही न करते जिस पर चोरी का आरोप लगने के साथ ही जिसे उन अंग्रेजीदां लोगों द्वारा बनाया गया हो, जिन्होंने कभी भारत के गांव देखे ही नहीं हैं.

औस्कर के लिए फिल्म के चयन की प्रक्रिया

औस्कर के लिए भारतीय फिल्म उद्योग की तरफ से फिल्म को भेजने का काम ‘फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया’ की एक चयन समिति करती है. हर साल नई समिति का गठन एक अध्यक्ष के साथ किया जाता है. इस बार इस समिति के अध्यक्ष असमिया फिल्मकार जाहनु बरूआ थे. जिन फिल्मकारों को अपनी फिल्म औस्कर में भेजना होता है, उन्हें फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया की इसी समिति के सामने आवेदन करना होता है.
उन में से एक फिल्म का चयन यह समिति करती है. हर साल इस समिति के कार्यकलापों पर उंगली उठती ही रहती हैं. इस बार समित के पास भारत में अवार्ड लेने से दूरी बना कर रखने वाले अति महत्वाकांक्षी व घमंडी आमिर खान लगभग हर साल अपनी फिल्म भेजने की प्रयास करते रहे हैं.

2001 में उन की फिल्म ‘लगान’ गई थी, जो कि बुरी तरह से मात खा गई थी. तो इस बार आमिर खान की फिल्म ‘लापता लैडीज’ के साथ ही कांस में पुरस्कृत पायल कपाड़िया की फिल्म ‘आल वी इमेजिन एज लाइट’, दक्षिण की फिल्म ‘महाराजा’ सहित 29 फिल्में थी.

इन में से सभी को उम्मीद थी कि इस बार भारत की तरफ से पायल कपाड़िया की फिल्म ‘आल वी इमेजिन एज लाइट’ को ही भेजा जाना चाहिए. लेकिन पिछले 40 साल से फिल्म पत्रकारिता करते हुए मेरे अपने जो अनुभव रहे हैं, उस आधार पर मुझे पता था कि पायल कपाड़िया की फिल्म औस्कर के लिए भारतीय प्रविष्टि नहीं बन सकती, हुआ भी वही. आमिर खान की फिल्म ‘लापता लैडीज’ को ही भेजा गया और जिस दिन फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया की तरफ से यह ऐलान किया गया था, उसी दिन हम ने मान लिया था कि इस बार भी हम औस्कर से खाली हाथ ही लौटेंगे और वही हुआ.

आल वी इमेजिन एज लाइट को न चुनने के पीछे की वजहें

‘औस्कर’ के लिए भारतीय प्रविष्टि के रूप में पायल कपाड़िया की फिल्म ‘आल वी इमेजिन एज लाइट’ को न चुनने को ले कर कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं. लोगों का मानना है कि यह सरकार के दबाव में लिया गया निर्णय रहा. हम देखते रहे हैं कि देश का कोई भी खिलाड़ी जरा सी सफलता हासिल करता है या कोई दूसरा शख्स कोई छोटा सा अवार्ड जीतता है, तो देश के प्रधानमंत्री तुरंत उसे बधाई देते हैं.
लेकिन जब पायल कपाड़िया की फिल्म ‘आल वी इमेजन एज लाइट’ को कांस इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल में पुरस्कृत किया गया, तो देश की सरकार को सांप सूंघ गया. सब चुप रहे. इस की मूल वजह 2015 में पायल कपाड़िया द्वारा सरकार के विरोध में खड़ा होना रहा. वास्तव में 2014 में केंद्र में भाजपा की सरकार बनते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने धीरेधीरे हर संस्थान में नई नियुक्ति करनी शुरू कर दी.
9 जून 2015 में जब अभिनेता और भाजपा के सक्रिय सदस्य गजेंद्र चौहाण को ‘पुणे फिल्म संस्थान’ का अध्यक्ष चुना गया, तो कुछ दिन बाद ही छात्र संघ की तरफ से इस का विरोध शुरू हो गया.उस वक्त यह विरोध काफी लंबा चला था और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय तक बना गया था.
यहां तक कि ‘पुणे फिल्म संस्थान’ के अध्यक्ष के नाते गजेंद्र चौहाण की तरफ से उस वक्त ‘पुणे फिल्म संस्थान’ में पढ़ रहे 73 छात्रछात्राओं के खिलाफ पुलिस में एफआईआर भी दर्ज कराई गई थी.
इन 73 में दूसरा नाम पायल कपाड़िया का था. इस घटनाक्रम के बाद पायल कपाड़िया को ‘पुणे फिल्म संस्थान’ से मिलने वाली कई सुविधाओं से भी हाथ धोना पड़ा था. तो लोगों का मानना है कि ऐसे छात्र की उपलब्धि को सरकार कैसे मान लें.

क्यों औस्कर ने ‘लापता लैडीज’ के लौटा दिया

सब से पहले हम आमिर खान की फिल्म ‘लापता लैडीज’ की चर्चा करते हैं. इसे औस्कर की सर्वश्रेष्ठ विदेशी भाषा की 15 फिल्मों में भी नोमीनेट न होने की कई वजहें रही हैं. जिन से हर सिनेप्रेमी इस फिल्म के रिलीज होने के दिन से ही वाकिफ रहा है.
2024 में रिलीज फिल्म ‘लापता लैडीज’ पुरूष सत्तात्मक व पितृ सत्तातमक सोच की वकालत करने के साथ ही एक फेमनिस्ट फिल्म है, जिस की अंग्रेजीदां फिल्म क्रिटिक्स ने खूब प्रशंसा की थी, अन्यथा इस ने बौक्स औफिस पर कोई कमाई नहीं की और ओटीटी पर कितने दर्शक फिल्म देखते हैं, यह तो हमेशा रहस्य ही रहेगा.
इस फिल्म में जिस तरह की कहानी पेश की गई है, वह उन अंग्रेजीदां लोगों ने पेश की है जिन्होंने अपनी जिंदगी में कभी गांव ही नहीं देखा, इस वजह से इस फिल्म के साथ भारतीय रिलेट ही नहीं कर पाए, तो भला औस्कर की ज्यूरी कैसे रिलेट कर पाती? इस के अलावा ‘औस्कर’ हमेशा मौलिक कथानक वाली फिल्म को ही स्वीकार करता है, चोरी वाली फिल्मों को पसंद नहीं करता.
पर कटु सत्य यह है कि फिल्म ‘लापता लैडीज’ के रिलीज होते ही अभिनेता व फिल्म निर्देशक अनंत महादेवन ने आरोप लगाया था कि, ‘लापता लैडीज’ तो उन के द्वारा निर्देशित फिल्म ‘घूंघट के पट खोल’ की नकल है. जो कि लगभग 10 साल पहले दूरदर्शन पर आई थी और यह फिल्म यूट्यूब पर अभी भी मौजूद है.
जब अनंत ने यह आरोप लगाया तब उन की यह फिल्म यूट्यूब पर भी मौजूद थी, मगर अनंत के आरोप लगाते ही इस फिल्म को यूट्यूब से गायब कर दिया गया. पर आज तक अनंत महादेवन के इस आरोप पर आमिर खान या किरण राव ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है.
अनंत महादेवन ने बाकायदा सोशल मीडिया पर वीडियो जारी कर आरोप लगाया था. तब भारतीय मीडिया में यह बात काफी उछली थी. ऐसे में आमिर खान और ‘फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया’ ने यह कैसे मान लिया था कि चोरी के आरोप की भनक ‘औस्कर’ की कमेटी तक नहीं पहुंची होगी?

ऐसे में आप यदि उम्मीद कर रहे थे कि आप ‘औस्कर’ की ज्यूरी की आंखों मे धूल झोंक कर औस्कर ले आएंगे, तो आप को क्या कहा जाए. आमिर खान खुद ही इस का जवाब दे दें. हमें लगता है कि आमिर खान ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी भद्द पिटवा ली. इस से भी बड़ा दोषी तो ‘फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया’ और ज्यूरी अध्यक्ष जाहनु बरूआ हैं, जिन्होंने इस बात को नजरंदाज कर दिया कि ‘लापता लैडीज’ पर चोरी का आरोप लगा है.

‘फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया’ के अध्यक्ष रवि कोट्टाराकारा हमें याद दिलाते हैं कि औस्कर के लिए मानदंड अलगअलग हैं और ‘लापता लैडीज’ तदनुसार फिट बैठती है. क्योंकि यह भारतीय सभ्यता व संस्कृति से ओतप्रोत फेमनिस्ट फिल्म है.
कोट्टाराकारा ने कहा था, ‘’आप पश्चिमी लोगों को घूंघट पहने हुए नहीं पाते हैं. ऐसा दक्षिण भारत में नहीं, बल्कि उत्तर भारत में है. यह कितना अच्छा है कि एक छोटा सा घूंघट दो विवाहित जोड़ों की जिंदगी बदल सकता है. और यही भारत की संस्कृति है. आखिरी बात, वह, जया/पुष्पा रानी (प्रतिभा रांता), पढ़ाई करना पसंद करती है और एक निश्चित तरीके से अपना जीवन जीना चाहती है.’’

माना कि इस में नारी उत्थान का मुद्दा है. फिल्म में लड़कियों की शिक्षा का भी मुद्दा है. मगर यह फिल्म एक पाखंड के अलावा कुछ नहीं है. पहली बात तो फिल्म की कहानी 2001 की है, उस वक्त मोबाइल फोन नहीं थे. दूसरी बात एक जोड़ा शादी से पहले एक साथ घूमता रहा है और उस के पास मोबाइल है, तो उस वक्त उस ने सेल्फी क्यों नहीं खींची थी. अगर खींची होती तो उस के मोबाइल में उस की पत्नी की बिना घूंघट वाली फोटो होती.

तब उसे पुलिस इंस्पेक्टर को अपने मोबाइल पर घूंघट वाली तस्वीर दिखा कर उस की तलाश करने की याचना नहीं करनी पड़ती. ‘लापता लैडीज’ में जिस तरह का गांव दिखाया गया है, उस तरह के गांव अब कहीं नजर नहीं आते. यही वजह है कि भारतीय दर्शकों ने इस फिल्म को सिरे से खारिज कर दिया था. सिर्फ फिल्म आलोचकों ने ही इसे सराहा था.

आमिर खान को क्यों है विदेशी अवार्ड का मोह

देखिए, लगभग 23 साल पहले आमिर खान की फिल्म ‘लगान’ को भी औस्कर में भेजा गया था, तब भी आमिर खान मुंह के बल गिरे थे. लेकिन उस नाकामी से आमिर खान ने कुछ नहीं सीखा था. वास्तव में आमिर खान जैसे कलाकार हमेशा किसी से कुछ सीखने की बनिस्बत अपने आप से से ही मंत्रमुग्ध रहते हैं.

अगर पिछली नाकामी से आमिर खान ने कुछ सीखा होता तो वह ‘लापता लैडीज’ को औस्कर में भेजने के लिए ‘फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया’ के समक्ष आवेदन ही न करते और जैसा कि अब आरोप लगाया जा रहा है, और अगर यह आरोप सच है कि आमिर खान ने इसे चयन करने के लिए फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया’ की ज्यूरी पर अपने प्रभुत्व का उपयोग न करते.

आमिर खान इस बात को ‘लगान’ के समय ही समझ गए थे कि वह अपने महान कलाकार और परफैक्शनिस्ट कलाकार का बनावटी हौव्वा सिर्फ भारत के भोलेभाले लोगों पर ही थोप सकते हैं, विदेश में उन का हौव्वा चलने से रहा.

आमिर खान ने ‘लापता लैडीज’ के मसले को जिस तरह से संभाला उस से वह पूरी तरह से अपरिपक्व इंसान और अपरिपक्व कलाकार के रूप में ही उभर कर आते हैं. यूं भी आमिर खान प्रपोगंडा करने में माहिर हैं.

एक तरफ वह भारत में बंटने वाले पुरस्कारों से दूरी बनाते हुए यह जाहिर करते हैं कि उन्हें पुरस्कार की लालसा नहीं है, जब कि औस्कर के लिए वह कई बार असफल प्रयास कर चुके हैं, इस से पहले हौव्वा खड़ा किया था कि वह 2000 करोड़ की लागत में फिल्म ‘महाभारत’ बना रहे हैं, जिस में वह अभिनय करेंगे. यह फिल्म पांच भाग में होगी. हर भाग दोदो साल बाद आएगा, पर फिर सब कुछ गायब हो गया.

आमोल पालेकर के रूदन का अर्थ

आमिर खान की फिल्म ‘लापता लैडीज’ के औस्कर से बैरंग वापसी के बाद अब मशहूर अभिनेता व निर्देशक अमोल पालेकर ने भी एक वीडियो जारी कर 2015 की घटना का उल्लेख करते हुए अपरोक्ष रूप से आमिर खान पर ‘फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया’ पर दबाव बनाने का आरोप लगाया है.

अमोल पालेकर ने जो वीडियो जारी किया है, उस में उन्होंने कहा है कि 2015 में वह औस्कर में भारत की तरफ से भेजे जाने वाली फिल्म का चयन करने वाली ज्यूरी में थे, तब बौलीवुड के एक बहुत बड़े व महान अभिनेता ने अपनी फिल्म को ले कर बहुत दबाव बनाया था, पर बतौर ज्यूरी अध्यक्ष वह किसी दबाव में नहीं आए थे. यहां याद दिलाना जरुरी है कि 2015 में आमिर खान की फिल्म ‘पीके’ भी औस्कर के लिए भेजे जाने के लिए आवेदित हुई थी, पर ज्यूरी ने रिजैक्ट कर दिया था.
अमोल पालेकर के इस वीडियो के आने के बाद बौलीवुड के कुछ दिग्गज फिल्मकारों ने औफ द रिकौर्ड बात करते हुए अहम सवाल उठाया है. सभी का कहना है कि भारत में यह आम बात है. हर प्रभावशाली इंसान हर निर्णय में अपना ‘वीटो’ लगाता है, इस में कोई दो राय नहीं. ऐसा सिर्फ बौलीवुड ही नहीं हर क्षेत्र में होता आया है. और आज भी हो रहा है. लेकिन अमोल पालेकर आज जिस तरह का आरोप लगा रहे हैं, 2015 में ही उन्होंने यह बात क्यों नहीं कही थी?

दूसरी बात वह 2005 को ले कर खामोश क्यों रहते हैं. यह तो वही बात हुई कि ‘मीठामीठा गप्प, कड़वाकड़वा थू.’ यह रवैया तो किसी को भी नहीं अपनाना चाहिए और उस वक्त तो कभी नहीं जब आप दूसरों पर उंगली उठा रहे हों. यहां याद दिला दें कि 2005 में अमोल पालेकर ने फिल्म ‘पहेली’ का निर्देशन किया था.

फिल्म ‘पहेली’ का निर्माण करने के साथसाथ इस में महान कलाकार शाहरुख खान ने रानी मुखर्जी, अमिताभ बच्चन व नसीरूद्दीन शाह के साथ अभिनय किया था. अफसोस अमोल पालेकर की फिल्म ‘पहेली’ भी औस्कर नहीं ला पाई थी. पर यह सवाल जरूर उठ गया है कि क्या शाहरुख खान ने भी ‘पहेली’ को औस्कर में भिजवाने के लिए उस वक्त की फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया की ज्यूरी पर दबाव तो नहीं बनाया था? 2005 में अमोल पालेकर अपनेआप में महान व दिग्गज कलाकार थे.

जाहनु बरूआ की भी पिटी भद्द

लोगों की राय में औस्कर के लिए भारत की तरफ से फिल्मकार पायल कपाड़िया की फिल्म ‘आल वी इमेजिन इन द लाइट’ को भेजा जाना चाहिए था. जिसे ज्यूरी ने रिजैक्ट कर ‘लापता लैडीज’ को चुना था. ‘लापता लैडीज’ को जब औस्कर की कमेटी ने पहले दौर की छंटनी में ही वापस कर दिया, तो अब जाहनू बरूआ ने जो बयान दिया है, वह अपनेआप में हास्यास्पद होने के साथ ही बतौर फिल्मकार उन की अपनी महत्ता व प्रतिभा पर भी सवालिया निशान लगाता है.

ज्यूरी के अध्यक्ष बरूआ ने कहा है, “पायल कपाड़िया की फिल्म ‘औल वी इमेजिन इन द लाइट’ तकनीकी रूप से कमजोर फिल्म है, इसलिए उसे नहीं भेजा था.” उन के इस बयान के बाद सवाल उठ रहा है कि क्या कांस इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल की ज्यूरी नासमझ है, जिस ने मई 2024 में ही पायल कपाड़िया की इसी फिल्म को ‘कांस पाल्मे डि ओर’ पुरस्कार से नवाजा.

अथवा अब ‘गोल्डन ग्लोब’ की कमेटी नासमझ है, जिस ने पायल कपाड़िया की इस फिल्म को फिलहाल नोमीनेट किया है. अब तो यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि कहीं भारत में ही कोई लौबी तो नहीं है जो भारतीय सिनेमा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समाप्त करने के प्रयासों में लगी हो. फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया के साथ ही व चयन समिति के अध्यक्ष जाहनु बरूआ पर अब कई फिल्मकार तंज कस रहे हैं.

इस बीच फिल्म निर्माता हंसल मेहता और संगीतकार रिक्की केज जैसी नामचीन हस्तियों ने फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया (एफएफआई) की निर्णय लेने की प्रक्रिया पर खुल कर सवाल उठाए हैं. हंसल मेहता ने ट्वीट कर के फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया की कार्यशैली पर कटाक्ष करते हुए कहा कि, “समझ में नहीं आता कि इन का स्ट्राइक रेट इतना कम क्यों है? फिल्म फेडरेशन औफ इंडिया हर बार गलतियां करता है और असफल होता रहता है.”

पायल कपाड़िया की ‘आल वी इमेजिन एज लाइट’ जीत सकती है औस्कर

पायल कपाड़िया की पहली फीचर फिल्म ‘‘आल वी इमजिन एज लाइट’ मलयालम, हिंदी और मराठी में बनी एक अंतर्राष्ट्रीय सहउत्पादन फिल्म है. इस के निर्माण के साथ फ्रांस, भारत, नीदरलैंड, लक्जमबर्ग और इटली की फिल्म प्रौडक्शन कंपनियां जुड़ी हुई हैं. जबकि निर्देशक पायल कपाड़िया के साथ इस फिल्म में कनी कुश्रुति, दिव्यप्रभा व छाया कदम जैसे पुरस्कृत कलाकार भारतीय ही हैं. इस फिल्म ने इस साल कान्स में स्पैशल जूरी पुरस्कार भी जीता.
हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं कि किस दबाव में भारत की तरफ से पायल कपाड़िया की इस फिल्म को भारतीय प्रतिनिधि फिल्म के रूप में औस्कर में नहीं भेजा गया. मगर हर देश की सरकार को याद रखना चाहिए कि कला व सिनेमा कभी किसी भाषा या भौगोलिक सीमा की बंदिश में नहीं रहता.
जब भारत की तरफ से इस फिल्म को औस्कर में नहीं भेजा गया, तो इस फिल्म को यूके ने एक अन्य श्रेणी में औस्कर के लिए भेजा है. |
लोग उम्मीद कर रहे हैं कि यह फिल्म विजेता बनेगी. जब कांस इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल में पायल कपाड़िया को पुरस्कार दिया जा रहा था, तब पुरस्कार दिए जाने से पहले कहा गया ‘‘क्रिएटीविटी सुरक्षित जगहों से नहीं आती. कला सुरक्षित जगह से नहीं आती.’’

क्या है ‘आल वी इमेजिन एज लाइट’

‘‘लापता लैडीज’ की ही तरह फिल्म ‘आल वी इमेजिन एज लाइट’ भी एक फेमनिस्ट फिल्म है और इस की कहानी के केंद्र में भी गांव है. यह फिल्म मलयाली भाषी नर्सों के इर्दगिर्द घूमती है. फिल्म में विस्थापन, अकेलापन, दोस्ती व लव जिहाद के मुद्दों पर बात की गई है. मुंबई की भीड़भाड़ में कैसे फिल्म की 3 महिला किरदार मिलते हैं और छाया कदम अन्य दो को ले कर कैसे गांव जाती हैं. फिर कैसे उन की सोचसमझ व उन के आपसी रिश्ते बदलने शुरू होते हैं, उसी की कहानी है.
दो महिलाओं में से एक विवाहित है, जिस का पति जरमनी जा चुका है, पर इस महिला का अपने पति से कोई संपर्क नहीं है. दोनों लड़कियां एकदूसरे के हित की सोचती हैं. जब कि दोनों अपने आप में किसी न किसी मुद्दे से जूझ रही हैं. मसलन, अविवाहित लड़की कनी कुश्रुति का किरदार केरला से है और वह हिंदू है, पर उस का प्रेमी मुसलिम है, जिसे वह सभी के सामने जाहिर नहीं कर सकती.

हिंदी भाषा की फिल्म ‘संतोष’ भी है अभी तक औस्कर में

दिलचस्प बात यह है कि भारत की तरफ से न सही पर यूके द्वारा भेजी गई संध्या सूरी निर्देशित हिंदी शहाना गोस्वामी और सुनीता राजवार अभिनीत संतोष नामक हिंदी फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ अंतर्राष्ट्रीय फीचर श्रेणी के तहत 15 फिल्मों की सूची में जगह बनाने में सफल रही है. इस का निर्माण व निर्देशन लंदन में रह रही मूलतः भारतीय मगर इंग्लैंड की नागरिक संध्या सूरी ने किया है, जिसे औस्कर में यूके की आधिकारिक प्रविष्टि के रूप में भेजा गया है.

यह फिल्म हिंदी में भारतीय कलाकारों के साथ लखनउ में फिल्माई गई है. जी हां! ‘अकादमी औफ मोशन पिक्चर आर्ट्स एंड साइंसेज (औस्कर) ने जिन फिल्मों के नामों का खुलासा किया, जो औस्कर 2025 की दौड़ के लिए पात्र हैं, उन में ग्रामीण उत्तर भारत में सेट हिंदी भाषा की अंतर्राष्ट्रीय सहनिर्माण फिल्म ‘संतोष’ को ‘सर्वश्रेष्ठ अंतर्राष्ट्रीय फीचर फिल्म’ श्रेणी में जगह मिली है.

अफसोस की बात इतनी है कि इस फिल्म को यूनाइटेड किंगडम द्वारा अकादमी पुरस्कार 2025 के लिए उन की आधिकारिक प्रस्तुति के रूप में भेजी गई थी. इस फिल्म का प्रीमियर मई 2024 में 77वें कान फिल्म समारोह में भी हुआ था और इसे आलोचकों द्वारा खूब सराहा गया था.

फिल्म ‘संतोष’ में संतोष का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री शाहना गोस्वामी ने इंस्टाग्राम पर अपनी खुशी व्यक्त करते हुए लिखा, ‘’हमारी फिल्म संतोष को मिली इस छोटी सी उपलब्धि के लिए टीम के लिए बहुत खुश हूं, खास कर हमारी लेखिकानिर्देशक संध्या सूरी के लिए! 85 फिल्मों में से शौर्टलिस्ट होना कितना अविश्वसनीय है. इसे पसंद करने वाले, इस का समर्थन करने वाले और इस के लिए वोट करने वाले सभी लोगों का धन्यवाद.’’

संध्या सूरी द्वारा निर्देशित इस फिल्म में शहाना गोस्वामी एक युवा विधवा की भूमिका में हैं. उस का पति पुलिस विभाग में कार्यरत होता है, पर भीड़ द्वारा मार दिया जाता है, तब उसे उस के पति की जगह पर पुलिस विभाग में कांस्टेबल की नौकरी मिल जाती है. जब कि वह खुद को संस्थागत भ्रष्टाचार में फंसी हुई पाती है. वह निचली जाति की दलित समुदाय की एक किशोरी लड़की से जुड़े क्रूर हत्या के मामले में कठोर अनुभवी पुलिस इंस्पेक्टर शर्मा (सुनीता राजवार) के साथ काम करने के लिए उत्साहित होती है.

फिल्म में ग्रामीण भारत के सामाजिक तानेबाने पर एक सम्मोहक रूपक नजर आता है. फिल्म में एक महत्वपूर्ण दृश्य है. जिस में संतोष की वरिष्ठ गीता शर्मा (सुनीता राजवार) कड़वी सच्चाई का खुलासा करते हुए कहती हैं, ‘‘इस देश में, दो प्रकार के अछूत हैं, एक जिन्हें कोई नहीं छूना चाहता और दूसरे वह जिन्हें कोई छू नहीं सकता.’’

फिल्म में भारत की कुछ कमजोरियों को भी उजागर किया गया है, जिन से तथाकथित राष्ट्रवादी आगबबूला हो सकते हैं. यह फिल्म जातिवर्ग और जातीय विभाजन की भी पड़ताल करती है, कुछ क्षेत्रों में महिलाओं की सुरक्षा और लिंग पूर्वाग्रह पर वैध चिंताओं को संबोधित करती है, लेकिन सूरी ने इसे सामान्यीकरण नहीं किया है. फिर चाहे मामला रिश्ते में धोखा देने का हो या घूस का. फिल्म में लैगिक पूर्वाग्रहों का भी चित्रण है.

कुल मिला कर किसी भी साजिश के तहत भले ही आमिर खान की फिल्म ‘लापता लैडीज’ अनुपयुक्त होते हुए भी भेजा गया हो, जिस के चलते वह ‘औस्कर’ से पहली छंटनी में ही बैरंग वापस आ गई हो, पर अभी उम्मीदें हैं कि औस्कर में भारत का परचम लहरा सकता है. आखिर ‘कांस’ में कुछ माह पहले ही कहा गया था कि ‘कला और क्रिएटिविटी सुरक्षित जगह से नहीं आती.’

Film Review : देह व्‍यापार पर बनी उबाऊ मूवी है वरुण धवन की ‘Baby John’

Film Review :  25 दिसंबर को सिनेमाघरों में रिलीज हुई वरूण धवन की फिल्म ‘बेबी जौन’ देख थिएटर से बाहर निकल रहे दर्शक गुनगुना रहे हैं- ‘‘दिल के अरमां आंसुओं में बह गए’’. वास्तव में भारतीय दर्शक दीवाली, होली, ईद या क्रिसमस के मौके पर एक बेहतरीन मनोरंजक फिल्म देखने के अरमा अपने सीने में पाल कर रखता है.

इसी तरह इस बार भी क्रिसमस पर एक बेहतरीन फिल्म देख कर मनोरंजन पाने के अरमा ले कर जब दर्शक सिनेमाघर पहुंचे तो उसे मनोरंजन की बजाए सिरदर्द और ऐसी यातना मिली कि वह सिनेमाघर से बाहर निकलते हुए गुनगुना रहें हैं, ‘दिल के…’

वास्तव में पिछले कुछ वर्षों से बौलीवुड के कलाकार और फिल्म सर्जक अपनी फिल्म के कथानक आदि पर मेहनत करने की बजाए इस कदर सरकार परस्ती का तमगा लेने पर उतारू हैं कि वह अपनी ‘कला’ का ही सत्यानाश करने पर आमादा हैं.

राजनीतिक दिग्गजों की प्रशंसा करना, यहां तक कि नेताओं को ‘हनुमान’ बताना बौलीवुड से जुड़े लोगों का एकमात्र मकसद बन गया है. लेकिन यही सितारे तब चुप रहते हैं, जब बिलकिस बानो के बलात्कारियों और उस के परिवार के हत्यारों की सजा जल्दी कम कर दी जाती है और रिहाई पर उन्हें माला पहनाई जाती है. ऐसे कलाकार व फिल्मकार जब अपने सिनेमा में महिलाओं की सुरक्षा का ढिंढोरा पीटते हुए फिल्म के नायक से बलात्कारी को सजा दिलाते हैं, तो यह सब हर आम भारतीय को खोखला नजर आता है.

हमारी वर्तमान सरकार भी ‘नारी उत्थान’ के नाम पर कई तरह की मुहिम चला रही हैं. सरकारें महिलाओं को सशक्त करने के नाम पर उन्हें 1500 या 2000 रूपए की रेवड़ी भी बांट रही हैं. फिल्मकार ‘नारी सम्मान’ की बात करने वाली या बलात्कारियों को सजा देने वाली फिल्में भी बना रहे हैं, इस के बावजूद आएदिन छोटी लड़कियों के संग बलात्कार करने व उन की हत्यांए करने की घटनाएं सामने आती रहती हैं.

वरूण धवन के अभिनय से सजी फिल्म ‘बेबी जौन’ में भी नारी सम्मान, नारी सुरक्षा व बलात्कारी को सजा का मुद्दा ही उठाया गया है, मगर बहुत ही घटिया तरीके से.

अपनी इसी घटिया फिल्म को सफल बनाने के लिए अभिनेता वरूण धवन कुछ दिन पहले ही देश के गृहमंत्री अमित शाह से मिलने गए थे और वरूण धवन ने अमित शाह को ‘हनुमान’ बताया है, तो वहीं फिल्म ‘बेबी जौन’ में वरूण धवन की अति घटिया परफार्मेंस ने हर किसी को रूला दिया.
2016 में विजय जोसफ की एटली के निर्देशन में बनी ऐक्शन व रोमांचक तमिल फिल्म ‘थेरी’ ने बौक्स औफिस पर धमाल मचा दिया था, जिसे हिंदी में डब कर भी रिलीज किया गया था. इसी का हिंदी रीमेक ‘बेबी जौन’ अब 25 दिसंबर को रिलीज हुई है, जिस में वरूण धवन की मुख्य भूमिका है.

वैसे फिल्म के रिलीज से पहले वरूण धवन ने फिल्म ‘बेबी जौन’ को ‘थेरी’ का रीमेक कहे जाने पर एतराज जताया था. वैसे हालांकि यह याद रखना चाहिए कि थेरी स्वयं तमिल फिल्म चत्रियन (1990) और हौलीवुड फिल्म होमफ्रंट (2013) से काफी हद तक प्रेरित थी. यहां याद दिलाना जरुरी है कि करीब 10 करोड़ के आसपास व्यूज ‘थेरी’ के हिंदी में डब संस्करण को यूट्यूब पर ही मिल चुके हैं.

फिल्म की कहानी केरला में तब शुरू होती है, जब जौन उर्फ डीसीपी सत्या वर्मा (वरुण धवन) अपने अतीत को छिपा कर जौन के नाम से केरला में अपनी बेटी खुशी (जियाना), कुत्ते टाइगर व राम सेवक (राज पाल यादव) के साथ खुशनुमा जिंदगी जी रहा है. केरला में जौन एक बेकरी चलाता है, उसे उस की बेटी खुशी बेबी के नाम से पुकारती है. फिर जौन का अतीत सामने आता है.

पता चलता है कि लुंगी पहनने वाला बेबी जौन अतीत में मुंबई में एक पुलिसकर्मी सत्या वर्मा हुआ करता था, उस की प्रेमिका से पत्नी बन चुकी डाक्टर मीरा (कीर्ति सुरेश) और मां (शीबा चड्ढा) थी. उस वक्त डीसीपी सत्या वर्मा के साथ हवलदार रामसेवक (राज पाल यादव) था. लेकिन लड़कियों के देह व्यापार के सरगना बब्बर शेर उर्फ नानाजी की साजिश में फंस कर डीसीपी सत्या वर्मा को मां तथा मीरा को खोना पड़ता है.

पर बेटी खुशी को ले कर मीरा को दिए गए वादे के कारण सत्या वर्मा चुपचाप केरला आ कर नाम व बाल बड़े कर के रहने लगते हैं. लेकिन इसी बीच जौन की पिछली जिंदगी एक बार फिर उस के वर्तमान पर हावी होने लगती है, जब खतरनाक विलेन नानाजी (जैकी श्रौफ) के गुर्गों के चंगुल से मासूम बच्चियों को बचाने में कामयाब हो जाता है. कैसे नाना के खतरनाक मंसूबों से जौन खुद को और अपनी बेटी को बचा पाता है, फिल्म की कहानी इसी के इर्दगिर्द घूमती है.

फिल्म ‘बेबी जौन’ की सब से बड़ी कमजोर कड़ी इस की पटकथा और इस के स्तरहीन संवाद हैं. ऐसा लगता है जैसे कि कैमरामैन किरण कौशिक ने 40-50 दृश्य अच्छी लोकेशन पर फिल्माएं और निर्देशक कालीस ने उन दृश्यों को एडिटिंग टेबल पर जोड़ दिया. हैरानी की बात यह है कि इतनी घटिया फिल्म के साथ ‘जवान’ फेम निर्देशक एटली ने बतौर निर्माता बौलीवुड में अपने कैरियर की शुरूआत की है.

फिल्म में भावनाओं, रोमांस और मनोरंजन का घोर अभाव है. एक्शन सीक्वेंस पुराने, बहुत लंबे, थकाऊ और देखने में उबाऊ हैं. एक्शन दृश्यों में फिल्मकार ने बंदूकों, तलवारों, मुक्कों, या वह चीजें जिन्हें हथिायार में बदल सकते हैं का उपयोग कुछ भी फिल्माया है.

फिल्म के ज्यादातर एक्शन दृश्य व डीसीपी सत्या वर्मा की कार्यप्रणाली यथार्थ से परे है. फिल्म में मनोरंजन की बजाए टौर्चर ही टौर्चर है. काश फिल्मकार, लेखक व वरूण धवन ने बलात्कार पीड़ितों या उन के परिवारों के साथ बातचीत की होती.

क्लाइमैक्स में खुशी फिल्म के विलेन नानाजी के पास जा कर उन्हें दादू कह कर उन से कहती है कि उसे पता है कि उस की मां और उस की दादी को उन्होंने ही मारा था, अब वह सौरी बोल दें तो उस के पापा उन्हें माफ कर देंगे. जब कि यह कांड तब हुआ था, जब खुशी महज एक साल की थी और वह बाथ टब के अंदर थी, उस ने देखा ही नहीं था कि कौन किसे मार रहा है?

पर फिल्म में यह दृश्य देख कर फिल्मकार व लेखक की सोच पर तरस आता है. इसी तरह एक दृश्य में, सत्या अपनी मां (शीबा चड्ढा) को अपनी सरकारी कार में चेंबूर छोड़ने से नैतिकता का हवाला दे कर मना कर देता है. लेकिन कुछ ही देर में वह उन नैतिकताओं को पूरी तरह से त्यागते हुए, खुशीखुशी अपनी प्रेमिका मीरा (कीर्ति सुरेश) को उसी पुलिस वैन में छोड़ देता है. यह कैसी नैतिकता है?

फिल्मकार कालीस का डीएसपी कहीं भी पहुंच जाता है. मुंबई का डीएसपी खेतखलिहानों में जा कर वह विलेन के बेटे को अकेले ही मार दे रहा है? मजेदार बात यह है कि डीसीपी सत्या वर्मा जहां भी जाते हैं, हवलदार राम सेवक भी वहां उन के साथ मौजूद रहता है. यह कैसे संभव है? क्या इस बात की जरुरत समझ में नहीं आती है कि पुलिस की कार्यशैली पर बनने वाली फिल्मों के लेखकों को सब से पहले ‘भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता’ को पढ़ना चाहिए.
इसी तरह से फिल्म में एक चौंकाने वाला दृश्य है. जिस में कंस्ट्रक्शन वर्क की जगह पर इमारत की छत से कुछ गरीब मजदूर मर जाते हैं. मृतकों में से एक महिला अपने पीछे 6 साल का बेटा छोड़ गई है. क्रूर भवन निर्माता व नाना का ही गुर्गा उस बच्चे को ‘नार्थ ईस्ट’ का बच्चा बताते हुए रूपयों का बंडल दिखा कर उस का मजाक उड़ाता है, फिर उसे चौकलेट के लिए केवल 10 रुपए देता है.

उसी शाम उसी क्रूर भवन निर्माता का अंत हो जाता है. इमारत से जब वह नीचे गिरता है, तब वही नार्थ ईस्ट का बालक हाथ में चौकलेट लिए हुए प्रकट होता है और मृत व्यक्ति को देख कर मुसकराता है. पहली बात तो सेंसर बोर्ड को इस पर औब्जेक्शन क्यों नहीं हुआ? फिल्म में जिस तरह ‘नार्थ ईस्ट’ का बालक कह कर उस का मजाक उड़ाया गया है, वह अक्षम्य है.

यह तो फिल्मकार की असंवेदनशीलता है. अब जिस फिल्म में इसी तरह के अवास्तविक व अविश्वसनीय दृश्य होंगे, वह फिल्म दर्शकों को मनोरंजन देने की बजाए रुलाने का ही काम करेगी.

फिल्म का क्लाइमैक्स तो बहुत ही घटिया है. इस फिल्म में बलात्कारी व लड़कियों की तस्करी से जुड़े इंसान को सजा दी गई या नहीं, यह स्पष्ट नहीं है.
जहां तक अभिनय का सवाल है तो डीसीपी सत्या वर्मा उर्फ बेबी जौन के किरदार में वरुण धवन ने एक बार फिर बुरी तरह से निराश किया है.
वरुण धवन कहीं से भी एक्शन स्टार या पुलिस अफसर नजर नहीं आते. हर दृश्य में वह कालेज छात्र की तरह दिखते हैं. जब कि उन्हें 6 साल की बच्ची के पिता के रूप में परिपक्व नजर आना चाहिए. पिछले कुछ साल से वरूण धवन अपने अभिनय पर ध्यान देने की बजाए इंस्टाग्राम रील्स बनाने से ले कर उटपटांग बयानबाजी करने में ही अपनी सारी एनर्जी लगा रहे हैं.

तभी तो वह कलंक, बवाल, अक्टूबर, स्ट्रीट डासंर थ्री डी, सुई धागा, जुगजुग जीयो, दिलवाले, ढिशुम, भेड़िया जैसी असफल फिल्में दे कर अपने दर्शकों को निराश करते आए हैं. राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता कीर्ति सुरेश ने अपनी पहली हिंदी फिल्म में खुद को बरबाद ही किया है.
हिंदी में कीर्ति की शुरुआत भूलने योग्य है. अभिनय में उन का कोई योगदान नहीं है. केरला में तारा नामक शिक्षिका के छोटे किरदार में वामिका गाबी अपना प्रभाव छोड़ जाती हैं. वह खराब लिखी गई भूमिका या स्क्रिप्ट को अपने ऊपर हावी नहीं होने देतीं.

राज पाल यादव ने वरूण धवन के चक्कर में अपनी अभिनय प्रतिभा पर कुल्हाड़ी मार ली है. पिछले चार दशकों में जैकी श्रौफ ने अपने अभिनय की अमिट छाप छोड़ी है. इतना ही नहीं दक्षिण भारत की 2010 में रिलीज हुई फिल्म ‘अरण्य कांडम’ में बतौर विलेन जैकी श्रौफ ने जो परफार्मेंस दी थी, उस के मुकाबले बेबी जौन में वह 10 प्रतिशत भी नहीं दे पाए. फिल्मकार ने उन्हें नानाजी के किरदार में अजीब सा मेकअप दे दिया है.

घनी मूंछें और हल्दी का लेप से तो वह विलेन की बजाए अघोरी ज्यादा नजर आते हैं. 6 साल की खुशी के किरदार में जियाना जरुर ध्यान खींचने में सफल रही हैं. सान्या मल्होत्रा ने भी निराश किया. इस फिल्म में सलमान खान ने अनावश्यक कैमियो क्यों किया, यह समझ से परे है.

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