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Best Hindi Story : थोड़े से सुख की तलाश में – रिश्तों के बोझ की कहानी

Best Hindi Story : ‘‘खूबसूरत शब्दों का जामा पहना देने से अश्लील शील नहीं हो जाता. बुरा, अच्छा नहीं हो जाता है. अधर्म, धर्म नहीं हो जाता. द्रौपदी के 5 विवाह किसी भी कारण से हुए हों, किसी का वचन, देवताओं का श्राप और पांडवों के प्रति द्रौपदी की ईमानदारी, लेकिन अधर्म वह फिर भी था. उस काल में भी, इस काल में भी.

‘‘तुम स्त्री मुक्ति, अपमान का बदला या पति से बनी शारीरिक, मानसिक दूरी के अभाव में किसी परपुरुष के साथ बने संबंधों को उचित नहीं ठहरा सकतीं. फिर वापस पत्नी का कवच धारण कर के, उस गिरावट को कमजोर पल, भावुकता, भूल का नाम नहीं दे सकतीं. यदि तुम्हारा परपुरुष के साथ बिताया वह समय उचित था तो तुम उसी की क्यों न हो गईं. छोड़ देना था मुझे और अपना लेना था उसे, जिस की बांहों में तुम्हें मुझे भूलने की, मुझ से मिली कटुता से हृदय में उपजे विषाद को भुलाने की क्षमता मिली थी. अपनी चंचलता, चित्त की निम्न प्रवृत्ति को तुम जो भी नाम देना चाहो, स्वयं को अपराधमुक्त करने के लिए दे सकती हो किंतु उसे तुम उचित नहीं ठहरा सकतीं.

‘‘मैं तुम्हें कुलटा, पापिन, चरित्रहीन नहीं कह रहा हूं किंतु मैं तुम्हें अब उस दृष्टि से भी नहीं देख रहा हूं. मैं तुम्हारी गलती को अपनी किसी कमी के कारण तुम्हारा किसी और से जुड़ना तुम्हारी जरूरत मान कर स्वीकार कर लेता हूं क्योंकि कमी मुझ में है, लेकिन फिर भी तुम्हारी जरूरत जायज नहीं हो सकती. तुम्हारे इस सुख ने, सुकून ने, स्त्री की पूर्णता ने मेरे मन का सुखचैन सब छीन लिया.

‘‘मैं तो यही मानता हूं कि स्त्री वह धन है जिसे वह प्राप्त कर लेता है जिस में क्षमता होती है और मैं दीनहीन पति तुम्हारे निकृष्ट कर्म को न चाहते हुए भी लाचारी, मजबूरी में स्वीकार करता हूं. इस के अलावा और कोई रास्ता भी नहीं है मेरे पास. परिवार की समृद्धि के लिए मैं थकाहारा जल्दी सो गया, काम के सिलसिले में बाहर भटकता रहा. कभी तनाव में, गुस्से में कुछ भलाबुरा कह दिया तो तुम्हारे दिल में चुभ गया. तुम ने यह नहीं सोचा कि मैं आखिर इतनी मेहनत, इतनी परेशानियां, इतनी भागदौड़ करता किस के लिए हूं? अपने परिवार के लिए. लेकिन तुम ने ये सब नहीं सोचा और परपुरुष के आकर्षण में स्वयं को डुबो दिया और मेरी सारी मेहनत, कमाई, परिवार के प्रति समर्पण को गलत सिद्ध कर दिया.

‘‘मैं ने तुम्हें तुम नहीं, अपना समझा. अपना परिवार, अपने बच्चे, अपनी पत्नी…लेकिन तुम केवल एक स्त्री बन कर रह गईं. उन कमजोर पलों में तुम न पत्नी थीं, न मां थीं. थीं तो बस केवल एक स्त्री. अपनी अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति के लिए मर्यादा लांघती एक औरत.

‘‘तुम यह कहोगी कि मुझे ये सुखसुविधाएं, ऐशोआराम नहीं चाहिए था. मुझे बस तुम्हारा प्यार चाहिए था.

‘‘केवल प्यार से घर नहीं चलता. बहुत मिटना पड़ता है. बहुत घुटना और टूटना पड़ता है कमाने के लिए. आदमी को कमाने की मशीन बनना पड़ता है और मशीन बने आदमी के पास भी हृदय होता है. बस, वह बातबात पर आई लव यू जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर पाता. यदि अर्थव्यवस्था के बिना घरपरिवार चल सकता तो मैं क्यों मशीन बनता. मजनू बन कर तुम्हारे आगेपीछे न घूमता.

‘‘खैर, तुम्हें अपने अंदर का क्रोध निकालना था तो तुम ने परपुरुष में सुख ढूंढ़ कर खुद को हलका कर लिया. यदि गरीबी होती तो तुम किसी धनी व्यक्ति से इसलिए जुड़ जातीं क्योंकि तब तुम्हारे पास गरीबी का बहाना होता. तुम ने अपने मन की सुनी. मन की ही की. मेरी नजर में यह मनमानी है, दहलीज को लांघना है. लेकिन तुम्हारी दृष्टि में क्या था वह सब, स्त्री का पूर्णत्व. तनमन की शांति.

‘‘जीवन के इस मोड़ पर जबकि बच्चे बड़े हो रहे हैं, इस घर की तुम जरूरत बन चुकी हो. भले ही इस घर की बुनियाद तुम ने हिला कर रख दी है. मैं तुम्हें न छोड़ सकता हूं, न तलाक दे सकता हूं. बिना नींव के यह घर खड़ा रहे, यही बेहतर है इस मकान के लिए. बच्चों के लिए तो घर बना रहे. तुम मुझ से यह भी कह सकती हो कि तुम ने मुझ से कभी मेरी रातों का हिसाब नहीं मांगा. मैं कुछ रातों की बात से तुम्हें क्यों अपनी दृष्टि में गिरा रहा हूं.

‘‘जीवन के इस मोड़ पर वासना का नहीं, जिम्मेदारियों का महत्त्व होता है. प्यार तो होता ही है. कर्तव्य महत्त्वपूर्ण होते हैं. मैं पुरुष से पति, पिता बन गया लेकिन तुम स्त्री ही बनी रहीं. घर स्त्री से बनता है. पुरुष की गलती स्त्री भी दोहराए तो फिर घर, घर नहीं रहता. तुम इसे पुरुष की दोगली मानसिकता कह सकती हो.

‘‘पुरुष होने का यह नुकसान तो है कि वह स्वयं राम न हो लेकिन पत्नी में सीता तलाशता है. फर्क इतना है कि मुझे तुम्हारी उन बेवफा रातों का पता चल गया. तुम्हें नहीं चला. पता चलता तो शायद तुम्हारा मन भी टूटता, दरकता. तुम रोतीं, लड़तीझगड़तीं. अलग हो जातीं, तलाक ले लेतीं. मन का धागा बहुत नाजुक होता है. जोड़ने पर गांठ तो पड़ ही जाती है.

‘‘मैं तुम्हें इस परिवार के लिए माफ करता हूं क्योंकि इस परिवार के लिए तुम ने भी दिनरात एक किया है. इस घर को सजायासंवारा. सब का खयाल रखा. मुझे पिता बनने का सुख दिया. मुझे पारिवारिक, सामाजिक व्यक्ति बनाया. मुझे रिश्तों में बांधा. लेकिन मैं तुम्हें कोई ऊंचा दरजा नहीं दे सकता. तुम एक आम स्त्री हो. शादी के बाद पति न चाहते हुए भी अपनी पत्नी को उस हैसियत पर बिठा देता है जहां से वह अपनी पत्नी पर व्यंग्य भी नहीं सुन सकता. अपनी पत्नी के लिए वह अपने मातापिता से भी अलग हो जाता है.

‘‘मैं जब काम पर बाहर जाता और शरीर के साथ मन व मस्तिष्क से जीतोड़ काम लेता तब तुम लक्ष्मण रेखा लांघने को तैयार हो गईं बिना यह सोचे कि इस का परिणाम पूरे परिवार को तहसनहस कर सकता है.

‘‘तुम स्त्री ही रहीं और मैं पुरुष न बन सका. तो वे कसमें, वे रस्में? वे वादे, वे इरादे निभातेनिभाते मैं मिटा दूंगा खुद को और तुम सच्चे, गहरे प्यार की तलाश में फिर से जुट जाओगी और पा कर तृप्ति का अनुभव करोगी. ऐसी तृप्ति जो तुम्हें मुझ से न मिल सकी कभी. तो वह क्या था जो रातें हम ने गुजारी थीं साथसाथ? तुम्हारी इस नादान बेवफाई को क्या कहूं? क्या तुम मेरी पत्नी नहीं हो? क्या तुम हमारे बच्चों की मां नहीं हो? किस बात की कमी थी? फिर ऐसा क्यों किया तुम ने?’’

पत्नी जो इतना सबकुछ सुन कर चुपचाप खड़ी थी, बोली, ‘‘कुछ बातें धर्म और अधर्म, तर्क और वितर्क, ज्ञान और विज्ञान, नैतिक और अनैतिक, बुराई और अच्छाई से परे होती हैं. कुछ बातें कर्तव्य और जिम्मेदारी, समाज और उस के नियमों से परे होती हैं. इतनी देर से आप ही आरोप लगा रहे हैं, दोषी ठहरा रहे हैं, सजा सुना रहे हैं, आप ही प्रश्न कर रहे हैं, आप ही उत्तर दे रहे हैं. मैं स्त्री हूं, इसलिए मां हूं. मैं स्त्री हूं इसलिए पत्नी हूं. मैं स्त्री हूं, यही पहला और अंतिम सत्य है. पहले मैं स्त्री हूं. मैं स्त्री हूं इसलिए मेरी देह को आप पुरुष होने के नाते अपनी जागीर समझ कर मेरी देह पर नैतिक और अनैतिकता, चरित्रहीनता के आरोप लगा रहे हैं. पुरुष की नजर में स्त्री की देह पर ही सबकुछ तय होता है. नीति, न्याय, दोषारोपण, पापिन, कुलटा-सारे आरोप मेरी देह पर हैं. और मेरे मन का क्या? जो पुरुषों के आघात सहता रहता है. तन पर तुम्हारा अधिकार लेकिन मन पर तो किसी का जोर नहीं. मैं ने जो किया वह अच्छा था या बुरा, गलत था या सही, उसे इस तरह नहीं तोला जा सकता. स्त्री देह से परे जब तक न सोचोगे, स्त्रीपुरुष के संबंध आत्मिक नहीं हो सकते. और शरीर के रिश्ते एक न एक दिन सड़गल कर टूटते ही हैं. यदि यह देह तुम्हारी रही भी और मन और कहीं रहा तो इस शरीर का क्या करोगे? यह तो मात्र मांस रहेगा तुम्हारे लिए.

‘‘मैं ने जो किया, मुझ से जो हुआ, वह गलत था या सही. मैं नहीं जानती. हां, तुम्हारे पुरुषप्रधान समाज की सोच के हिसाब से पाप हो सकता है लेकिन स्त्रियां हिसाब लगा कर कुछ नहीं करतीं, प्यार तो हरगिज नहीं. तुम जख्म दोगे और स्त्रियां कहीं मरहम तलाशें तो मेरी दृष्टि में यह गलत नहीं. हां, यदि पुरुष जख्म ही न दे और यदि जख्म दे कर मरहम भी दे तो स्त्री सहन कर लेगी. लेकिन जख्म को सड़ने देना, यह तो आत्महत्या करना हुआ. यही पहला और अंतिम सत्य है कि मैं स्त्री हूं.’’

पुरुष चाह कर भी क्षमा न कर सका. क्योंकि वह स्त्रीमन को समझने को तैयार न था. एकदूसरे के पूरक होने के बाद भी स्त्रीपुरुष न चाहते हुए भी विरोधी बने रहे. रिश्तों के बीच एक दरार बनी रही जो ताउम्र खटकती रही लेकिन दुनिया को दिखाते हुए वे रिश्तों का बोझ उठाते रहे. थक कर चूर होते रहे, फिर भी खींचते रहे रिश्तों को मरते दम तक. और घावों से भरा मन भटकता रहा इधरउधर शीतल ठंडी छांव के लिए. थोड़ा सा सुख पाने की चाह में सारी उम्र स्वाहा होती रही कर्तव्यों के हवनकुंड में.

Love Story : प्यार का पहला खत – सौम्या के दिल में कैसे उतर गया आशीष ?

Love Story : मेरे हाथ में किताब थी और मैं इधरउधर देखे जा रही थी क्योंकि वह मेरे हाथ में किताब पकड़ा कर गायब हो चुका था या यों कहें वह कहीं छिप गया या वहां से दूर भाग चुका था. शायद मेरी मति मारी गई थी जो मैं ने उस से किताब ले ली थी. सच कहूं तो वह काफी समय से मुझे इंप्रैस करने में लगा हुआ था. हालांकि कभी कुछ कहा नहीं था और आज जब उसे पता चला कि मुझे इस सब्जैक्ट की किताब की जरूरत है तो न जाने कहां से फौरन उस किताब को अरेंज कर के मेरे हाथों में पकड़ा कर चला गया था.

मैं ने उस समय तो वह किताब पकड़ ली थी लेकिन अब उस के छिप जाने या गायब हो जाने से मेरा दिमाग बहुत परेशान हो रहा था. कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं. मैं इस तरह परेशान हाल ही उस पार्क में पड़ी हुई एक बैंच पर बैठ गई. वहां पर कुछ लोग जौगिंग कर रहे थे और वे मेरे आसपास ही घूम रहे थे. मुझे लगा कि शायद मेरी परेशान हालत देख कर वे सब मेरे और करीब आ रहे हैं. खैर, हर तरफ से मन हटा कर मैं ने किताब का पहला पन्ना खोला, सरसराता हुआ एक सफेद प्लेन पेपर मेरे हाथों के पास आ कर गिर पड़ा. न जाने क्यों मेरा मन एकदम से घबरा गया, समझ ही नहीं आया क्या होगा इस में. फिर भी झुक कर उसे उठाया और खोल कर चैक किया, कहीं कुछ भी नहीं लिखा था.

मैं खुद को ही गलत कहने लगी. वह तो एक समझदार लड़का है और मेरी हैल्प करना चाहता है, बस. मैं ने दूसरा पन्ना पलटा तो एक और सफेद प्लेन पन्ना सरक कर गिर पड़ा. इस समय मैं अनजाने में ही जोर से चीख पड़ी. पार्क में मौजूद आधे लोग पहले से ही मेरी तरफ देख रहे थे और बचेखुचे लोग भी अपनी सेहत पर ध्यान देने के बजाय मेरी ओर निहार रहे थे.

‘‘क्या हुआ सौम्या?’’ अचानक से आशीष दौड़ कर मेरे पास आ गया. वह मेरे चीखने की आवाज सुन कर काफी घबराया हुआ लग रहा था.

‘‘कुछ नहीं, बस इस घास के कीड़े से डर गई थी. यह मेरे पैर पर चढ़ने की कोशिश कर रहा था,’’ उस ने घास पर चल रहे हरे रंग के एक छोटे से कीड़े को दिखाते हुए कहा.

‘‘तुम बहुत डरती हो सौम्या. इस नन्हे से कीड़े से ही डर गईं. देखो, वह तुम्हारी जरा सी चीख से कैसे दुबक गया,’’ आशीष मुसकराते हुए बोला.

सौम्या भी थोड़ा झेंपते हुए मुसकरा दी.

‘‘तुम अभी तक कहां थे आशीष? मेरी एक चीख पर दौड़ते हुए अचानक कहां से आ गए?’’

‘‘अरे पागल, मैं तो यहीं पर था, जौगिंग कर रहा था.’’

‘‘ओह, तो क्या तुम यहां रोज आते हो?’’

‘‘हां और क्या. तुम्हें क्या लगा आज तुम्हारी वजह से पहली बार आया हूं?’’

‘‘नहींनहीं. ऐसा नहीं है, मैं ने यों ही पूछा.’’

‘‘चलो, अब मैं घर आ जा रहा हूं. तुम आराम से इस किताब को पढ़ कर वापस कर देना,’’ आशीष बिना कुछ कहे व रुके वहां से चला गया.

‘कितना बुरा है आशीष, बताओ उस ने एक बार भी यह नहीं पूछा कि तुम साथ चल रही हो?’ उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे वह किताब दे कर उस पर कोई एहसान कर के गया है.

मैं उदास होे घर की तरफ वापस चल पड़ी. मन में उस के लिए न जाने क्याक्या सोच रही थी और वह एकदम से उस का उलटा ही निकला.

घर आ कर भी बिलकुल मन नहीं लगा. कमरे में बैड पर लेट कर उस के बारे में ही सोचती रही, आखिर ऐसा क्यों होता है? क्या है यह सब? मन उस की तरफ से हट क्यों नहीं रहा? क्या वह भी मेरे बारे में सोच रहा होगा?

ओह, यह आज मेरे मन को क्या हो गया है. उस ने हलके से सिर को झटका दिया, पर दिमाग था कि उस की तरफ से हटने का नाम ही नहीं ले रहा था. चलो, थोड़ी देर मां के पास जा कर बैठती हूं. अब तो वे स्कूल से आ गई होंगी. थोड़ी देर उन से बातें करूंगी तो उधर से दिमाग हट जाएगा. वह मां के पास आ कर बैठ गई.

‘‘तुम आ गई सौम्या बेटा?’’

‘‘हां मा.’’

‘‘बेटा, एक कप चाय बना लाओ. आज मेरे सिर में बहुत दर्द हो रहा है. स्कूल में बच्चों की कौपियां चैक करना बहुत दिमाग का काम है. वह बिना कुछ बोले चुपचाप किचन में आ कर चाय बनाने लगी. 2 कप चाय बना कर वापस मां के पास आ कर बैठ गई.

लेकिन आज मां ने कोई बात नहीं की. उन्होंने चुपचाप चाय पी और आंखें बंद कर के लेट गईं. शायद वे आज बहुत थकी हुई थीं. सौम्या वहां से उठ कर अपने कमरे में आ गई. इसी तरह 10 दिन गुजर गए.

आज कालेज में फेयरवेल पार्टी थी. येलो कलर की साड़ी पहन कर वह कालेज पहुंची. वहां सब उसे ही देख रहे थे. उसे लगा आज तो पक्का आशीष उस से बात करेगा. लेकिन पूरी पार्टी निकल गई पर आशीष ने एक बार भी उस की तरफ नजर उठा कर नहीं देखा. अब सच में उसे बहुत गुस्सा आने लगा था.

गुस्से और रोने के समय अकसर सौम्या के चेहरे पर लालिमा आ जाती है जो उस की सुंदरता में इजाफा कर देती है. वह यों ही कालेज गेट से बाहर निकल कर आ गई. अचानक से लगा कि कोई उस के पीछे आ रहा है. कौन हो सकता है, मन में थोड़ी घबराहट का भाव आया और दिल तेजी से धड़कने लगा.

वह एकदम से सौम्या के सामने आ गया. ‘‘ओह आशीष तुम, मैं तो एकदम घबरा ही गई थी,’’ उस का दिल वाकई में घबराहट के कारण तेजी से धड़कने लगा था.

वह कुछ नहीं बोला, फिर थोड़ी देर ऐसे ही खड़े रहने के बाद एक खूबसूरत सा लिफाफा देते हुए कहा, ‘‘यह सर ने आप के लिए भिजवाया है.’’

‘‘क्या है इस में?’’

‘‘आप की ड्रैस के लिए शायद बैस्ट कौंप्लिमैंट्स हैं.’’

उस के चेहरे को पढ़ते हुए लगा कि वह सच ही कह रहा है, क्योंकि उस के चेहरे पर कोई भी भाव ऐसा नहीं था जिस से लगे कि वह मजाक कर रहा है. उस वक्त अचानक से उस के मन में यह खयाल आया कि यह अपने मुंह से नहीं कह पा रहा तो शायद लिख कर दिया हो.

‘‘सौम्या, अगर तुम कहो तो आज मैं तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ दूं? आज मैं अपने पापा की कार ले कर आया हूं,’’ आशीष ने उसे जाते देख कर कहा.

उस ने बिना देर किए फौरन सिर हिला दिया था क्योंकि वह आशीष के साथ थोड़ी सी देर का साथ भी गंवाना नहीं चाहती थी. ड्राइविंग सीट पर बैठे आशीष के चेहरे को सौम्या बराबर पढ़ती रही पर उस पर ऐसा कोई भाव नहीं था जिस से अनुमान भी लगाया जा सके कि उस के दिल में कोई कोमल भावना भी है.

सौम्या का घर आ गया था और वह उतर गई. उस ने आशीष से कहा, ‘‘आशीष घर के अंदर नहीं आओगे?’’

‘‘नहीं, आज नहीं फिर कभी. आज तो मुझे जल्दी घर पहुंचना है.’’

‘ओह, कितना खड़ूस है यह, इस की नजर में उस की कोई वैल्यू ही नहीं. मैं ही पागल हूं, जो इस से एकतरफा प्यार कर रही हूं. आज से इस के बारे में सोचना बिलकुल बंद.’ उस ने मन ही मन एक कठोर निर्णय लिया था. चाहे कैसे भी हो, मुझे अपने मन को समझाना ही पड़ेगा.

चलो, अब कभी उस का नाम ले कर उसे याद नहीं करूंगी. मैं मुसकराती गुनगुनाती अपने कमरे में आ गई. आईने के सामने खड़े हो कर खुद को निहारा. मन में उदासी का भाव आया. उस की वजह से ही तो इतना सजसंवर के गई थी. खैर, अब छोड़ो. उस ने हाथ में पकड़े लिफाफे को बैड पर रखा और कपड़े चेंज करने के लिए अलमारी से कपड़े निकालने लगी.

‘चलो, पहले इस लिफाफे को ही खोल कर देख लूं, सर ने न जाने क्या लिखा होगा?’ बेमन से उस को खोला. उस में से सफेद रंग का प्लेन पेपर निकल कर नीचे गिर पड़ा. ओह, यह तो आशीष की बदतमीजी है. आज उसे फोन कर के कह ही देती हूं कि उसे इस तरह का मजाक पसंद नहीं है. गुस्से में आ कर वह फोन मिला ही रही थी कि लिफाफे के अंदर रखे एक कागज पर नजर चली गई. वह निकाल कर पढ़ने के लिए खोला ही था कि मम्मी के कमरे में आने की आहट सी हुई.

मम्मी को भी अभी ही आना था.

‘‘बेटा, जरा मार्केट तक जा रही हूं, कुछ मंगाना तो नहीं है?’’

‘‘नहीं मम्मी, कुछ नहीं चाहिए.’’

‘‘चलो, ठीक है.’’

मम्मी के जाते ही उस ने उस पेपर को पढ़ना शुरू कर दिया, ‘प्रिय सौम्या, के संबोधन के साथ शुरू हुआ वह पत्र तुम्हारा आशीष के साथ खत्म हुआ. उस के बीच में जो लिखा था वह उसे खुशी से झुमाने के लिए काफी था. वह भी मुझे उतना ही प्यार करता था. वह भी मेरे लिए इतना ही बेचैन था. वह भी कुछ कहने को तरसता था. वह भी मेरा साथ पाना चाहता था. लेकिन मेरी ही तरह इस डर का शिकार था कि कहीं मैं मना न कर दूं. उस के प्यार को अस्वीकृत न कर दूं.

वाकई वह मुझे सच्चा प्यार करता है, तभी तो कभी उस ने मेरे हाथ तक को एक बार भी टच नहीं किया वरना कितने मौके आए थे. वह खुशी से झूम उठी. एक बार खुद को आईने में निहारा और अब वह खुद पर ही मोहित हो गई और उस के मुंह से निकल पड़ा, ‘‘आई लव यू, आशीष.’’

उस की आंखों के सामने आशीष का मुसकराता चेहरा था और अब वह शरमा के अपनी नजरें नीचे की तरफ कर के जमीन को देखने लगी थी. आखिर, उस के सच्चे मन की दुआ सफल जो हो गई थी.

Hindi Kahani : अस्तित्व – काम्या के गुजरे हुए कल की अनसुनी कहानी

Hindi Kahani : ‘नहीं आऊंगी, मैं कभी नहीं आऊंगी. जिस घर में मुझे और मेरे बच्चे को इज्जत नहीं मिल सकती, हक नहीं मिल सकता, वहां मैं कभी नहीं आऊंगी.’ ससुराल से निकलते समय कहे गए अपने शब्द काम्या आज भी भूली नहीं थी लेकिन पति के मुन्ने सहित लौट आने के अनुरोधपत्र और हालत के मद्देनजर उसे लौटना पड़ रहा था.मायके से ससुराल तक की यात्रा तय करने के बाद कश्मीरी गेट, दिल्ली के बसअड्डे पर बैठी काम्या गोद में मुन्ने को लिए पति की प्रतीक्षा कर रही थी.

गुजरा हुआ कल उसे वर्तमान से बारबार खींच अतीत में ले जा रहा था…‘हां, नहीं भूल सकती मैं उस रात को, जिस ने सजा बना दिया है मेरी जिंदगी को’, रो पड़ी थी वह कहते हुए.‘तो बारबार उस बात का जिक्र कर के घर की शांति क्यों भंग कर देती हो?’ पति शायद चिल्ला कर अपनी बात को सही करार देना चाहता था. उस की गुस्सैल लाल आंखें मानो मुझ से इस बात पर चुप्पी चाहती हों. मानो उस के मन में मेरे लिए अपवित्रता की ईर्ष्या ने जन्म ले लिया हो.‘इसलिए कि उस में मेरा कोई दोष नहीं था और वह जो भी था, आप के अपनों में से ही था’, वह आक्रोशित हो उठी थी. आंखों से आंसू मानो लुढ़कने को तैयार ही थे.मुन्ना के रोने से सहसा ही वह अतीत से उबर आई. मुन्ने को बहलाने के बाद उस ने घड़ी में समय देखा तो उसे कुछ चिंता सी होने लगी. समय अधिक हो गया था और बसअड्डे पर आवाजाही कम होने लगी थी. एक मन हुआ कि यहीं से कोई औटो या रिकशा करे और खुद ही घर पहुंच जाए, लेकिन कई महीनों बाद पति के बिना ससुराल की दहलीज पर पैर रखना उसे एकदम से सही नहीं लगा. कुछ उलझन से भरी काम्या की नजरें एक बार फिर से पति को देखने की चाह में इधरउधर घूमने लगीं.शायद मेरी बस ही समय से पहले आ गई थी या यह भी हो सकता है कि शिखर को ही आने में देर हो गई हो.

अपने मन को तस्सली दे कर वह फिर अपने अतीत में डूबने लगी थी.विवाह के कुछ ही महीने गुजरे थे जब ससुराल में एक पारिवारिक समारोह में उस के साथ धोखे से बेहोशी की हालत में दुराचार हुआ था. पति सहित ससुराल के दबाव में उन के मानसम्मान की खातिर उसे उस विष को पीना पड़ा. लेकिन जब विष का प्रभाव मुन्ना के रूप में सामने आया तो बहुत देर हो चुकी थी. घर की हालत ही नहीं, घरवालों के मन भी बदल गए थे.समाज के लिए वह बच्चा उन की संतान था लेकिन शिखर की नजरों में वह जायज नहीं था. बस, यहीं से शुरू हुआ था एक पति के विरोध का सिलसिला और मां के मातृत्व का संघर्ष, जिस की परिणति उस की मायके लौटने के रूप में हुई थी.‘हां, बस, बहुत हुआ यह हर दिन का जलना.’ इस बार वह अपना सामान बांधे मायके लौटने को तैयार हो गई थी. ‘नहीं रहना मुझे अब, बारबार की इस बेइज्जतीभरी जिंदगी में जहां मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है.’‘तो लौट कर भी मत आना इस दहलीज पर अगर इतने ही मानसम्मान की चिंता है तुम्हें.’ शिखर के कहे इन शब्दों में जैसे पूरी ससुराल की आवाज शामिल थी उस दिन.‘हां, नहीं आऊंगी…’ और उन्हीं शब्दों पर फिर आ अटकी थी काम्या सोचतेसोचते.‘‘क्या सोच रही हो, काम्या?’’

सामने आ खड़े हुए शिखर की आवाज ने जैसे उसे एक गहरी खाई में से वापस जमीन की सतह पर ला खड़ा किया हो.‘‘जी, कुछ नहीं,’’ उस ने सामान समेटते हुए शिखर को जवाब दिया,’’ ‘‘जेठजी के अचानक गुजर जाने का सुन कर बहुत दुख हुआ.’’ ‘‘मनुष्य के कर्म उस के आगेआगे चलते हैं, काम्या,’’ शिखर के स्वर में गंभीरता थी, ‘‘शायद, यही उन के कर्मों का फल था. चलो, घर चलें.’’ अपनी बात पूरी करते हुए पति ने काम्या के हाथ से मुन्ने को उठा गोद में ले लिया.इस अप्रत्याशित क्रिया से जहां काम्या के मन में खुशी की लहर उठी, वहीं वह अपनी हैरानी को भी दबा नहीं सकी थी, ‘‘आप ने मेरे मुन्ने को गोद में उठाया.’’‘‘हां काम्या, मैं ने इस के साथ बहुत अन्याय किया है. लेकिन मुझे क्या पता था कि यह हमारे ही वंश की एक बेल है.’’ कहते हुए पति का स्वर अनायास ही कांपने लगा था, ‘‘दरअसल काम्या, बड़े भैया ने अपने आखिरी समय में ही खुद बताया कि उस रात…’’‘‘क्या…?’’ शिखर की अनकही बात की तह में जाते ही काम्या का रोमरोम सुलग उठा. पलभर को लगा कि उस के पैरों के नीचे से जमीन और सिर के ऊपर से जैसे आसमान हटा दिया गया हो. एकाएक पत्थर हो गए कदमों ने आगे बढ़ने से इनकार कर दिया.‘‘रुक क्यों गईं, काम्या? चलो न, घर चलें,’’ शिखर ने कदम आगे बढ़ाते हुए कहा.‘‘घर, कौन से घर? किस के घर?’’ सहसा एक व्यंग्यभरी कंपकंपाती मुसकान काम्या के होंठों पर आ गई. ‘‘अपनी संतान के उस नीच पिता के घर, जिस ने मेरी देह को कलंकित किया और अब मरखप गया या फिर सात वचनों से बंधे उस पति के घर, जिस ने अपने कुल के सम्मुख सभी लिए गए वचनों को दरकिनार कर हमेशा अपनी पत्नी को एक देहमात्र ही समझा.’’‘‘देखो काम्या, हम घर चल कर भी बात कर सकते हैं न, अभी घर में भैया के बेटे का इंतजार हो रहा है ताकि…’’ शिखर ने काम्या को शांत करना चाहा.‘‘भैया का बेटा? हां, उस का बेटा… मेरा नहीं? अब मेरा है भी नहीं,’’ काम्या के चेहरे पर रोष झलक आया था, ‘‘अब मुझे चाहिए भी नहीं यह. हां, ले जाओ इसे,’’ यह कहते हुए काम्या पीछे की ओर लौट पड़ी.‘‘काम्या, काम्या,’’ शिखर उसे पुकार रहा था. लेकिन काम्या वापस पीछे लौटते हुए उसी बस में जा सवार हुई जिस से कुछ देर पहले ही वह अपने पति के शहर लौटी थी.बस का हौर्न अपनी तेज आवाज में बस के चलने की घोषणा कर रहा था.

Hindi Story : मैं जलती हूं तुम से – विपिन का कौन सा राज जानना चाहती थी नीरा ?

Hindi Story : विपिन और मैं डाइनिंगटेबल पर नाश्ता कर रहे थे. अचानक मेरा मोबाइल बजा. हमारी बाई लता का फोन था.

‘‘मैडम, आज नहीं आऊंगी. कुछ काम है.’’

मैं ने कहा, ‘‘ठीक है,’’ पर मेरा मूड खराब हो गया.

विपिन ने अंदाजा लगा लिया.

‘‘क्या हुआ? आज छुट्टी पर है?’’

मैं ने कहा, ‘‘हां.’’

‘‘कोई बात नहीं नीरा, टेक इट ईजी.’’

मैं ने ठंडी सांस लेते हुए कहा, ‘‘बड़ी परेशानी होती है… हर हफ्ते 1-2 छुट्टियां कर लेती है. 8 साल पुरानी मेड है… कुछ कहने का मन भी नहीं करता.’’

‘‘हां, तो ठीक है न परेशान मत हो. कुछ मत करना तुम.’’

‘‘अच्छा? तो कैसे काम चलेगा? बिना सफाई किए, बिना बरतन धोए काम चलेगा क्या?’’

‘‘क्यों नहीं चलेगा? तुम सचमुच कुछ मत करना नहीं तो तुम्हारा बैकपेन बढ़ जाएगा… जरूरत ही नहीं है कुछ करने की… लता कल आएगी तो सब साफ कर लेगी.’’

‘‘कैसे हो तुम? इतना आसान होता है क्या सब काम कल के लिए छोड़ कर बैठ जाना?’’

‘‘अरे, बहुत आसान होता है. देखो खाना बन चुका है. शैली कालेज जा चुकी है, मैं भी औफिस जा रहा हूं. शैली और मैं अब शाम को ही आएंगे. तुम अकेली ही हो पूरा दिन. घर साफ ही है. कोई छोटा बच्चा तो है नहीं घर में जो घर गंदा करेगा. बरतन की जरूरत हो तो और निकाल लेना. बस, आराम करो, खुश रहो, यह तो बहुत छोटी सी बात है. इस के लिए क्या सुबहसुबह मूड खराब करना.’’

मैं विपिन का शांत, सौम्य चेहरा देखती रह गई. 25 सालों का साथ है हमारा. आज भी मुझे उन पर, उन की सोच पर प्यार पहले दिन की ही तरह आ जाता है.

मैं उन्हें जिस तरह से देख रही थी, यह देख वे हंस पड़े. बोले, ‘‘क्या सोचने लगी?’’

मेरे मुंह से न जाने क्यों यही निकला, ‘‘तुम्हें पता है, मैं जलती हूं तुम से?’’

जोर का ठहाका लगा कर हंस पड़े विपिन, ‘‘सच? पर क्यों?’’

मैं भी हंस दी. वे बोले, ‘‘बताओ तो?’’

मैं ने न में सिर हिला दिया.

फिर उन्होंने घड़ी देखते हुए कहा, ‘‘अब चलता हूं, आज औफिस में भी इस बात पर हंसी आएगी कि मेरी पत्नी ही जलती है मुझ से. भई, वाह क्या बात कही. शाम को आऊंगा तो बताना.’’

विपिन औफिस चले गए. मैं ने घर में इधर, उधर घूम कर देखा. हां, ठीक ही तो कह रहे थे विपिन. घर साफ ही है पर मैं भी आदत से मजबूर हूं. किचन में सारा दिन जूठे बरतन तो नहीं देख सकती न. सोचा बरतन धो लेती हूं. बस फिर झाड़ू लगा लूंगी, पोंछा छोड़ दूंगी. काम करतेकरते अपनी ही कही बात मेरे जेहन में बारबार गूंज रही थी.

हां, यह सच है कभीकभी विपिन के सौम्य, केयरफ्री, मस्तमौला स्वभाव से जलन सी होने लगती है. वे हैं ही ऐसे. कई बार उन्हें कह चुकी हूं कि विपिन, तुम्हारे अंदर किसी संत का दिल है क्या, वरना तो क्या यह संभव है कि इंसान किसी भी विपरीत परिस्थिति में विचलित न हो? ऐसा भी नहीं कि कभी उन्होंने कोईर् परेशानी या दुख नहीं देखा. बहुत कुछ सहा है पर हर विपरीत परिस्थिति से यों निकल आते हैं जैसे बस कोई धूल भरा कपड़ा धो कर झटक कर तार पर डाल कर हाथ धो लिए हों. जब भी कभी मूड खराब होता है बस कुछ पल चुपचाप बैठते हैं और फिर स्वयं को सामान्य कर वही हलकीफुलकी बातें. कई बार उन्हें छेड़ चुकी हूं कि कोई गुरुमंत्र पढ़ लेते हो क्या मन में?

रात में सोने के समय अगर हम दोनों को कोई बात परेशान कर रही हो तो जहां मैं रात भर करवटें बदलती रहती हूं, वहीं वे लेटते ही चैन की नींद सो जाते हैं.

विपिन की सोने की आदत से कभीकभी मन में आता है कि काश, मैं भी विपिन की तरह होती तो कितनी आसान सी जिंदगी जी लेती पर नहीं, मुझे तो अगर एक बार परेशान कर रही है तो सुखचैन खत्म हो जाता है मेरा, जब तक कि उस का हल न निकल आए पर विपिन फिर सुबह चुस्तदुरुस्त सुबह की सैर पर जाने के लिए तैयार.

विदेश में पढ़ रहा हमारा बेटा पर्व. अगर सुबह से रात तक फोन न कर पाए तो मेरा तो मुंह लटक जाता है पर विपिन कहेंगे ‘‘अरे, बिजी होगा. वहां सब उसे अपनेआप मैनेज करना पड़ता है. जैसे ही फुरसत होगी कर लेगा फोन वरना तुम ही कर लेना. परेशान होने की क्या बात है? इतना मत सोचा करो.’’

मैं घूरती हूं तो हंस पड़ते हैं, ‘‘हां, अब यही कहोगी न कि तुम मां हो, मां का दिल वगैरहवगैरह. पर डियर, मैं भी तो उस का पिता हूं, पर परेशान होने से बात बनती नहीं, बिगड़ जाती है.’’

मैं चिढ़ कर कहती हूं, ‘‘अच्छा, गुरुदेव.’’

जब खाने की बात हो, मेरी हर दोस्त, मेरी मां, बच्चे सब हैरान रह जाते हैं कि खाने के मामले में विपिन जैसा सादा इंसान शायद ही कोई दूसरा हो.

कई सहेलियां तो अकसर कहती हैं, ‘‘नीरा, जलन होती है तुम से… कितना अच्छा पति मिला है तुम्हें… कोई नखरा नहीं.’’

हां, तो आज मैं यही तो सोच रही हूं कि जलन होती है विपिन से, जो खाना प्लेट में हो, इतने शौक से खाएंगे कि क्या कहा जाए. सिर्फ दालचावल भी इतना रस ले कर खाएंगे कि मैं उन का मुंह देखती रह जाती हूं कि क्या सचमुच उन्हें इतना मजा आ रहा होगा खाने में.

हम तीनों अगर कोई मूवी देखने जाएं और अगर मूवी खराब हुई तो शैली और मैं कार में मूवी की आलोचना करेंगे. अगर विपिन से पूछेंगे कि कैसी लगी तो कहेंगे कि अच्छी तो नहीं थी पर अब क्या मूड खराब करना. टाइमपास करने गए थे न, कर आए. हंसी आ जाती है इस फिलौसफी पर.

हद तो तब थी जब हमारे एक घनिष्ठ रिश्तेदार ने निरर्थक बात पर हमारे साथ दुर्व्यवहार किया. हमारे संबंध हमेशा के लिए खराब हो गए. जहां मैं कई दिनों तक दुख में डूबी रही, वहीं थोड़ी देर चुप बैठने के बाद उन्होंने मुझे प्यार भरे गंभीर स्वर में कुछ यों समझाया, ‘‘नीरा, बस भूल जाओ उन्हें. यही संतोष है कि हम ने तो कुछ बुरा नहीं कहा उन्हें और अगर किसी अपने से इतना दिल दुखे तो वह फिर अपना कहां हुआ. अपने से तो प्यार, सहयोग मिलना चाहिए न… जो इतने सालों से मानसिक कष्ट दे रहे थे, उन से दूर होने पर खुश होना चाहिए कि व्यर्थ के झूठे रिश्तों से मुक्ति मिली, ऐसे अपने किस काम के जो मन को अकारण आहत करते रहें.’’

विपिन के बारे में ही सोचतेसोचते मैं ने अपने सारे काम निबटा लिए थे. आज अपनी ही कही बात में मेरा ध्यान था. ऐसे अनगिनत उदाहरण

हैं जब मुझे लगता है काश, मैं विपिन की तरह होती. हर बात को उन की तरह सोच लेती. हां, उन के जीने के अंदाज से जलन होती है मुझे,

पर इस जलन में असीमित प्रेम है मेरा, सम्मान है, गर्व है, खुशी है. उन की सोच ने मुझे जीवन में कई बार मेरे भावुक मन को निराशाओं से उबारा है.

शाम को विपिन जब औफिस से लौटे तो सामान्य बातचीत के बाद उन्होंने किचन में झांका, तो हंस पड़े, ‘‘मैं जानता था तुम मानोगी नहीं. सारे काम कर लोगी… क्यों किया ये सब?’’

‘‘जब जानते हो मानूंगी नहीं तो यह भी पता होगा कि पूरा दिन गंदा घर मुझे अच्छा नहीं लगता.’’

‘‘अच्छा, ठीक है तबीयत तो ठीक है न?’’

‘‘हां,’’ वे जब तक फ्रैश हो कर आए, मैं ने चाय बना ली थी.

चाय पीतेपीते मुसकराए, ‘‘चलो, बताओ क्यों जलती हो मुझ से? सोचा था, औफिस से फोन पर पूछूंगा, पर काम बहुत था. अब बताओ.’’

‘‘यह जो हर स्थिति में तालमेल स्थापित कर लेते हो न तुम, इस से जलती हूं मैं. बहुत हो गया, आज गुरुमंत्र दे ही दो नहीं तो तुम्हारे जीने के अंदाज पर रोज ऐसे ही जलती रहूंगी मैं,’’ कह कर मैं हसी पड़ी.

विपिन ने मुझे गहरी नजरों देखते हुए कहा, ‘‘जीवन में जो हमारी इच्छानुसार न हो, उसे चुपचाप स्वीकार कर लो. जीवन जीने का यही एकमात्र उपाय है, ‘टेक लाइफ एज इट कम्स’.’’

मैं उन्हें अपलक देख रही थी. सादे से शब्द कितने गहरे थे. मैं तनमन से उन शब्दों को आत्मसात कर रही थी.

अचानक उन्होंने शरारत भरे स्वर में पूछा, ‘‘अब भी मुझ से जलन होगी?’’

मैं जोर से हंस पड़ी.

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हो गए होंगे. मैं ने तो सोचा भी नहीं था, इस तरह अचानक हमारा मिलना हो जाएगा.’’

‘‘सब के सामने आप यह कैसा सवाल पूछने लगी हैं, चंद्राजी. कहां के बच्चे… कैसे बच्चे…अभी तो हमारी उम्र खेलनेखाने की है.’’

चंद्रा के चेहरे की मुसकान फैलतेफैलते रुक गई. उस ने आगेपीछे देखा मानो जो सुना उसी पर अविश्वास करने के लिए किसी का समर्थन चाहती हो. उस ने गौर से मेरा चेहरा देखा और बोली, ‘‘अरे भई, बाल काले कर लेना कोई बड़ी बात नहीं. उम्र छिपा कर दिखाओ तो मानें. आंखों का बढ़ता नंबर और चाल में आए ठहराव को छिपाया नहीं जा सकता. हां, अगर अपना नाम ही बदल लो तो मैं मान लूंगी कि पहचानने में मैं ही भूल कर गई हूं. आप सोम नहीं हैं न?’’

चंद्रा के शब्दों का तर्क आज भी वही है जो बरसों पहले था. वह आज भी उतनी ही सौम्य है जितनी बरसों पहले थी. बल्कि उम्र के साथ पहले से भी कहीं ज्यादा गरिमामय लग रहा है चंद्रा का स्वरूप. मुसकरा पड़ा मैं. हाथ बढ़ा कर चंद्रा का सर थपथपा दिया.

‘‘याद है तुम मुझे क्या कहा करती थीं जब हम पीएच.डी. कर रहे थे. वह आदत आज भी बदली नहीं. निहायत निजी बातें तुम सब के सामने पूछने लगती हो…’’

‘‘पहचान लिया है मैं ने. आज भी मेरे पापा की तरह सर थपथपा रहे हो. तब भी तुम मुझे मेरे पापा जैसे लगते थे…आज भी वैसे ही हो…तुम जरा भी नहीं बदले हो, सोम.’’

20-22 साल पुरानी दोस्ती और सौहार्द्र आंखों में नमी बन कर तैरने लगा था. सुबह से सेमिनार में व्यस्त था. पहचान तो बहुत लोगों से थी लेकिन कोई अपना सा पा कर यों लगने लगा है जैसे बुझते दिए में किसी ने तेल डाल दिया हो.

‘‘तुम कहां ठहरी हो, चंद्रा?’’

‘‘यहीं होस्टल में ही हमारा इंतजाम किया गया है.’’

‘‘भूख नहीं लगी तुम्हें, 7 बज रहे हैं. आओ, चलो मेरे साथ…कुछ खा कर आते हैं.’’

मैं ने कहा तो साथ चल पड़ी चंद्रा. हम ने टैक्सी पकड़ी और 5-10 मिनट बाद ही हम उसी जगह पर खडे़ थे जहां अकसर 20-22 साल पहले हमारा गु्रप खानेपीने आया करता था.

‘‘क्या खाओगी, चंद्रा, बोलो?’’

‘‘कुछ भी हलकाफुलका मंगवा लो. भारी खाना मुझे पचता नहीं है.’’

‘‘मैं भी मीठा नहीं ले पाऊंगा, शुगर का मरीज हूं. इसीलिए भूख सह नहीं पाता. मुझे घबराहट होने लगती है.’’

डोसा और इडली मंगवा लिया चंद्रा ने. कुछ पेट में गया तो शरीर की झनझनाहट कम हुई.

‘‘तुम्हें खाने की कोई चीज पास रखनी चाहिए थी, सोम.’’

‘‘क्या पास रखनी चाहिए थी? यह देखो, है न पास में. अब क्या इन से पेट भर सकता है?’’

जेब से मीठीनमकीन टाफियां निकाल सामने रख दीं मैं ने. दोपहर में खाना खाया था. उस के बाद सेमिनार इतना लंबा ख्ंिच गया कि शाम के 7 बज गए. 6 घटे में क्या मेरी तबीयत खराब नहीं हो जाती.

मुसकरा पड़ी चंद्रा, ‘‘इस का मतलब है अब हम बूढे़ हो गए हैं. तुम्हें शुगर है, मेरा जिगर ठीक से काम नहीं करता. लगता है हमारी एक्सपायरी डेट पास आ रही है.’’

‘‘नहीं तो, ऐसा क्यों सोचती हो. हम बूढे़ नहीं हो रहे बडे़ हो रहे हैं, ऐसा सोचो. जीवन का सार हमारे सामने है. बीता कल अपना अनुभव लिए है जिस का उपयोग हम भविष्य को सुधारने में लगा सकते हैं.’’

पुरानी बातों का सिलसिला चला और खूब चला. चंद्रा के साथ विश्वविद्यालय के भव्य पार्क में हम रात 10 बजे तक बैठे रहे.

‘‘अच्छा समय था वह भी. बहुत याद आता है वह एकएक पल,’’ ठंडी सांस ली थी चंद्रा ने.

‘‘क्या बीता समय लौटाया नहीं जा सकता?’’

‘‘हमारे बच्चे हमारा बीता कल ही तो हैं, जो हमें नहीं मिला वह बच्चों को दिला कर हम अपनी इच्छा की पूर्ति कर सकते हैं. जीवन इसी का नाम है…पुराना गया नया आया.’’

मुझे होटल तक पहुंचतेपहुंचते साढ़े 10 बज गए. मैं थक गया हूं फिर भी मन प्रफुल्लित है. अपनी सहपाठी से जो मिला हूं इतने बरसों बाद. बहुत अच्छी दोस्ती थी मेरी चंद्रा के साथ. अच्छे इनसान अकसर कम होते हैं और इन्हीं कम लोगों में अकसर मैं चंद्रा की गिनती  किया करता था. कभीकभी हमारे बीच झगड़ा भी हो जाया करता था जिस की वजह हमारी निजी कमी नहीं होती थी. उसूलों की धनी थी चंद्रा और यही उसूल अकसर टकरा जाते थे.

मैं कभी चंद्रा को झकने को कह देता तो उस का जवाब होता था, ‘‘मैं केंचुआ बन कर नहीं जी सकती. प्रकृति ने मुझे रीढ़ की हड्डी दी है न. मैं वैसी ही हूं जैसी मुझ से प्रकृति उम्मीद करती है.’’

‘‘तुम्हारी फिलासफी मेरी समझ में नहीं आती.’’

‘‘तो मत समझे, तुम जैसे हो रहो न वैसे. मैं ने कब कहा मुझे समझे.’’

7-8 लड़केलड़कियों का गु्रप था हमारा जिस में हर स्वभाव का इंसान था… बस, चंद्रा ही थी जो अपनी सीमाओं, अपनी दलीलों में बंधी थी.

मैं चंद्रा की नसनस से वाकिफ था. उस के चरित्र और बातों में गजब की पारदर्शिता थी, न कहीं कोई लागलपट न हेरफेर. कभी कोई गोलमोल बात करने लगता तो वह झुंझला जाती.

‘‘यह जलेबी क्यों पका रहे हो? सीधी तरह मुद्दे की बात पर क्यों नहीं आते…साफसाफ कहो क्या कहना चाहते हो?’’

‘‘कोई भी बात कभीकभी इतनी सीधी सरल नहीं न होती चंद्रा जिसे हम झट से कह दें…कुछ बातें छिपानी भी पड़ती हैं.’’

‘‘तो छिपाओ उन्हें, आधीअधूरी भी क्यों बतानी. तुम्हें अगर लगता है बात छिपाने वाली है तो सब के सामने उस का उल्लेख भी क्यों करना. पूरी तरह छिपा लो न.’’

मुझे आज भी याद है जब हम आखिरी बार मिले थे तब भी झगड़ कर ही अलग हुए थे. वह दिल्ली लौट गई थी और मैं आगरा. उस के बाद कभी नहीं मिले थे. उस की शादी की खबर मिली थी जिस पर इक्कादुक्का मित्र ही पहुंच पाए थे.

दूसरे दिन विश्वविद्यालय पहुंचे तो नजरें चंद्रा को ही खोजती रहीं. कहने को तो ढेर सारी बातें कल हम ने की थीं लेकिन अपनी निजी एक भी बात हम नहीं कर पाए थे.

‘‘किसे खोज रहे हैं, वर्माजी? किसी का इंतजार है क्या?’’

मेरी नजरों को भांप गए थे मेरे एक सहयोगी.

‘‘हां, वह मेरी सहपाठी मिल गई थीं कल मुझे. आज भी उन्हीं को खोज रहा हूं.’’

‘‘लंचब्रेक में ढूंढ़ लीजिएगा. अभी जरा इन की बातें सुनिए. इन की बातों का मैं सदा ही कायल रहता हूं. मिसेज गोयल की फिलासफी कमाल की होती है. कभी इन के लेख नहीं पढे़ आप ने…कमाल की सोच है.’’

चंद्रा खड़ी थी सामने. तो क्या श्रीमती गोयल अपनी चंद्रा ही हैं जिस के लेख अकसर देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपते हैं?

‘‘जरा किस्मत देखो, पति शादी के 5 साल बाद अपने से आधी उम्र की लड़की के साथ भाग गया. औलाद कोई है नहीं. अफसोस होता है मुझे श्रीमती गोयल के लिए.’’

काटो तो रक्त नहीं रहा मेरी शिराओं में. आंखें फाड़फाड़ कर मैं अपने सहयोगी का चेहरा देखने लगा जो बड़बड़ा भी रहा था और बड़ी रुचि ले कर चंद्रा को सुन भी रहा था. इस सत्य का इतना बड़ा धक्का लगेगा मुझे मैं नहीं जानता था. ब्लड प्रेशर का मरीज तो हूं ही मैं, उसी का दबाव इतना बढ़ गया कि लंच बे्रेक तक पहुंच ही नहीं पाया मैं. तबीयत इतनी ज्यादा खराब हो गई कि अस्पताल में जा कर ही मेरी आंख खुली.

‘‘सोम, क्या हो गया तुम्हें? क्या सुबह कुछ परेशानी थी?’’

चंद्रा ही तो थी मेरे पास. इतने लोगों की भीड़ में बस चंद्रा. शायद 22 वर्ष पुरानी दोस्ती का ही नाता था जिस का प्रभाव चंद्रा की आंखों में था. माथे पर उस का हाथ और शब्दों में ढेर सारी चिंता.

‘‘अब कैसे हो, सोम?’’

50 के आसपास पहुंच चुका हूं मैं. वर्माजी, वर्मा साहब सुनसुन कर कान इतने पथरा गए हैं कि अपना नाम याद ही नहीं था मुझे. मांबाप अब जिंदा नहीं हैं और छोटी बहन भाई कह कर पुकारती है. बरसों बाद कोई नाम से पुकार रहा है. कल से यही आवाज है जो कानों में रस घोल रही है और आज भी यही आवाज है जो संजीवनी सी घुल रही है कानों में.

‘‘सोम, क्या हुआ? तुम्हारे घर में सब ठीक तो हैं न…क्या परेशानी है…मुझ से बात करो.’’

क्या बात करूं मैं चंद्रा से? समझ नहीं पा रहा हूं क्या कहूं. डाक्टर ने आ कर मेरी पूरी जांच की और बताया… अभी भी मैं पूरी तरह सामान्य नहीं हूं. सुबह तक यहीं रुकना होगा.

‘‘तुम्हारे घर से बुला लूं किसी को, तुम्हारी पत्नी को, बच्चों को, अपने घर का नंबर दो.’’

अधिकार के साथ आज भी चंद्रा ने मेरा सामान टटोला और मेरा कार्ड निकाल कर घर का नंबर मिलाया. एक बार 2 बार, 10 बार.

‘‘कोई फोन नहीं उठा रहा. घर पर कोई नहीं है क्या?’’

मैं ने इशारे से चंद्रा को पास बुलाया. बड़ी हिम्मत की मुसकराने में.

‘‘ऐसा कुछ नहीं है. सब ठीक है…’’

‘‘तो कोई फोन क्यों नहीं उठाता. तुम भी परेशान हो और मुझ से कुछ छिपा रहे हो?’’

‘‘हमारे पास छिपाने को है ही क्या, चंद्रा? तुम भी खाली हाथ हो और मैं भी. मेरे घर पर जब कोई है ही नहीं तो फोन का रिसीवर कौन उठाएगा.’’

‘‘क्या मतलब?’’

अब चौंकने की बारी चंद्रा की थी. हंसने लगा मैं. तभी हमारे कुछ सहयोगी मुझे देखने चले आए. मुझे हंसते देखा तो आंखें तरेरने लगे.

‘‘वर्माजी, यह क्या तमाशा है. हमें दौड़ादौड़ा कर मार दिया और आप यहां तमाशा करने में लगे हैं.’’

‘‘इन के परिवार का पता है क्या आप के पास? कृपया मुझे दीजिए. मैं इन की पत्नी को बुला लेना चाहती हूं. ऐसी हालत में उन का यहां होना बहुत जरूरी है.’’

पलट कर चंद्रा ने उन आने वालों से सारी बात करना उचित समझ. कुछ पल को चुप हो गए सब के सब. बारीबारी से एकदूसरे का चेहरा देखा और सहसा सब सच सुना दिया.

‘‘इन की तो शादी ही नहीं हुई… पत्नी का पता कहां से लाएंगे…वर्माजी, आप ने इन्हें बताया नहीं है क्या?’’

‘‘अपनी सहपाठी से इतने सालों बाद मिले, कल रात देर तक पुरानी बातें भी करते रहे तो क्या आप ने अपने बारे में इतना सा भी नहीं बताया?’’

‘‘इन्होंने पूछा ही नहीं, मैं बताता कैसे?’’

‘‘श्रीमती गोयल, आप वर्माजी के साथ पढ़ती थीं. ऐसी कौन लड़की थी जिस की वजह से वर्माजी ने शादी ही नहीं की. क्या आप को जानकारी है?’’

‘‘नहीं तो, ऐसी तो कोई नहीं थी. मुझे तो याद नहीं है…क्यों सोम? कौन थी वह?’’

‘‘सब के सामने क्यों पूछती हो. कुछ तो मेरी उम्र का खयाल करो. तुम्हारी यह आदत मुझे आज भी अच्छी नहीं लगती.’’

‘‘कौन थी वह, सोम? जिस का मुझे ही पता नहीं चला.’’

‘‘बस, हो गया न मजाक,’’ मैं जरा सा चिढ़ गया.

‘‘तुम जाओ चंद्रा. मैं अब ठीक हूं. यह लोग रहेंगे मेरे पास.’’

‘‘कोई बात नहीं. मैं भी रहूंगी यहां. कुछ मुझे भी तो पता चले, आखिर इस उच्च रक्तचाप का कारण क्या है. कोई चिंता नहीं, कोई तनाव नहीं, कल ठीक थे न तुम, आज सुबहसुबह ऐसा क्या हो गया कि सीधे यहीं आ पहुंचे.’’

मैं ने चंद्रा को बहुत समझना चाहा लेकिन वह गई नहीं. सच यह भी है कि मन से मैं भी नहीं चाहता था कि वह चली जाए. उथलपुथल का सैलाब जितना मेरे अंदर था शायद उस से भी कुछ ज्यादा अब उस के मन में होगा.

सब चले गए तो हम दोनों रह गए. वार्ड ब्वाय मेरा खाना दे गया तो उसे चंद्रा ने मेरे सामने परोस दिया.

‘‘आज सुबह ही मुझे तुम्हारे बारे में पता चला कि श्रीमती गोयल तुम हो…तुम्हारे साथ इतना सब बीत गया. उसी से दम इतना घुटने लगा था कि समझ ही नहीं पाया, क्या करूं.’’

अवाक् सी चंद्रा मेरा चेहरा देखने लगी.

‘‘तुम्हारे सुखी भविष्य की कल्पना की थी मैं ने. तुम मेरी एक अच्छी मित्र रही हो. जब भी तुम्हें याद किया सदा हंसती मुद्रा में नजर आती रही हो. तुम्हारे साथ जो हो गया तुम उस लायक नहीं थीं.

‘‘मैं तुम्हारा सिर थपथपाया करता था और तुम मुझे ‘पापा’ कह कर चिढ़ाती थीं. आज ऐसा ही लगा मुझे जैसे मेरे किसी बच्चे का जीवन नर्क हो गया और मैं जान ही नहीं पाया.’’

‘‘वे सब पुरानी बातें हैं, सोम, लगभग 17-18 साल पुरानी. इतनी पुरानी कि अब उन का मुझ पर कोई असर नहीं होता तो तुम ने उन्हें अपने दिल पर क्यों ले लिया? वह इनसान मेरे लायक नहीं था. इसीलिए वहीं चला गया जहां उस की जगह थी.’’

उबला दलिया अपने हाथों से खिलातेखिलाते गरदन टेढ़ी कर चंद्रा हंस दी.

‘‘तुम छोटे बच्चे हो क्या सोम, जो इतनी सी बात पर इतने परेशान हो गए. जीवन में कई बार गलत लोग मिल जाते हैं, कुछ देर साथ रह कर पता चलता है हम तो ठीक दिशा में नहीं जा रहे… सो रास्ता बदल लेने में क्या बुराई है.’’

‘‘रास्ता ही खो जाए तो?’’

‘‘तो वहीं खडे़ रहो, कोई सही इनसान आएगा… सही रास्ता दिखा देगा.’’

‘‘दुखी नहीं होती हो, चंद्रा.’’

‘‘कम से कम अपने लिए तो कभी नहीं होती. खुशनसीब हूं…मेरे पास कुछ तो है. दालरोटी मिल रही है…समाज में मानसम्मान है…ढेरों पत्र आते हैं जो मुझे अपने बच्चों जैसे प्यारे लगते हैं. इतने साल कट गए हैं सोम, आगे भी कट ही जाएंगे. जो होगा देख लेंगे.’’

‘‘बस चंद्रा, और खाया नहीं जाएगा,’’ पतला दलिया मेरे गले में सूखे कौर जैसा अटकने लगा था. उस का हाथ रोक लिया मैं ने.

‘‘शुगर के मरीज हो न, भूखे रहोगे तो शुगर कम हो जाएगी…अच्छा, एक और चीज है मेरे पास तुम्हारे लिए…सुबह होस्टल में ढोकला बना था तो मैं ने तुम्हारे लिए पैक करवा लिया था…सोचा, क्या पता आज फिर से सेमिनार लंबा ख्ंिच जाए और तुम भूख से परेशान हो कर कुछ खाने को बाहर भागो.’’

‘‘मेरी इतनी चिंता रही तुम्हें?’’

‘‘अब अपना है कौन जिस की चिंता करूं? कल बरसों बाद अपना नाम तुम्हारे होंठों से सुना तो ऐसा लगा जैसे कोई आज भी ऐसा है जो मुझे नाम से पुकार सकता है. कोई आज भी ऐसा है जो बिना किसी बनावट के बात शुरू भी कर सकता है और समाप्त भी. बहुत चैन मिला था कल तुम से मिल कर. सुबह नाश्ते में भी तुम्हारा खयाल आया.’’

चंद्रा रो पड़ी थी. मेरा प्याला तो पहले ही छलकने के कगार पर था. सच ही तो कह रही है चंद्रा…अब अपना है ही कौन जो चिंता करे. मेरी चिंता करने वाले मेरे मांबाप भी अब नहीं हैं और शायद चंद्रा के भी अब इस संसार में नहीं होंगे.

देर तक एकदूसरे के सामने बैठे हम अपने बीते कल और अकेले आज पर आंसू बहाते रहे, न उस ने मुझे चुप कराना चाहा और न मैं ने ही उसे रोका.

काफी समय बीत गया. जब लगा मन हलका हो गया तब हाथ उठा कर चंद्रा का सिर थपथपा दिया मैं ने.

‘‘बस करो, अब और कितना रोओगी?’’

रोतेरोते हंस पड़ी चंद्रा. आंखें पोंछ अपना पर्स खोला और मेरे लिए लाया ढोकला मुझे दिखाया.

‘‘जरा सा चखना चाहोगे, मुंह का स्वाद अच्छा हो जाएगा.’’

लगा, बरसों पीछे लौट गया हूं. आज भी हम जवान ही हैं…जब आंखों में हजारोंलाखों सपने थे. हर किसी की मुट्ठी बंद थी. कौन जाने हाथ की लकीरों में क्या होगा. अनजान थे हम अपने भविष्य को ले कर और अनजाने रहने में ही कितना सुख था. आज सबकुछ सामने है, कुछ भी ढकाछिपा नहीं. पीछे लौट जाना चाहते हैं हम.

‘‘मन नहीं हो रहा चंद्रा…भूख भी नहीं लग रही.’’

‘‘तो सो जाओ, रात के 9 बज गए हैं.’’

‘‘तुम होस्टल चली जातीं तो आराम से सो पातीं.’’

‘‘यहां क्या परेशानी है मुझे? पुराना साथी सामने है, पुरानी यादों का अपना ही मजा है, तुम क्या जानो.’’

‘‘मैं कैसे न जानूं, सारी समझदारी क्या आज भी तुम्हारी जेब में है?’’

मेरे शब्दों पर पुन: चौंक उठी चंद्रा. मुझे ठीक से लिटा कर मुझ पर लिहाफ ओढ़ातेओढ़ाते उस के हाथ रुक गए.

‘‘झगड़ा करना चाहते हो क्या?’’

‘‘इस में नया क्या है? बरसों पहले जब हम अलग हुए थे तब भी तो एक झगड़ा हुआ था न हमारे बीच.’’

‘‘याद है मुझे, तो क्या आज हारजीत का निर्णय करना चाहते हो?’’

‘‘हां, आखिर मैं एक पुरुष हूं. जाहिर सी बात है जीतना तो चाहूंगा ही.’’

‘‘मैं हार मानती हूं, तुम जीत गए.’’

‘‘चंद्रा, मेरी बात सुनो…’’ सामने बेंच की ओर बढ़ती चंद्रा का हाथ पकड़ लिया मैं ने. पहली बार ऐसा प्रयास किया है मैं ने और मेरा यह प्रयास एक अधिकार से ओतप्रोत है.

‘‘मेरे पास बैठो, यहां.’’

एक उलझन उभर आई है चंद्रा की आंखों में. शायद मेरा यह प्रयास मेरी अधिकार सीमा में नहीं आता.

‘‘सब के सामने तो तुम पूछती हो कि मेरा परिवार कहां है? मेरी पत्नी कहां है? अगर शादी नहीं की तो क्यों नहीं की? अकेले में क्यों नहीं पूछतीं? अभी हम अकेले हैं न. पूछो मुझ से कि मैं किस की चाह में अकेला रहा सारी उम्र?’’

मेरे हाथ से अपना हाथ नहीं छुड़ाया चंद्रा ने. मेरी बगल में चुपचाप बैठ गई.

‘‘बरसों पहले भी मैं तुम से हारना नहीं चाहता था. तब भी मेरे जीतने का मतलब अलग होता था और आज भी अलग है…

‘‘तुम्हें हरा कर जीतना मैं ने कभी नहीं चाहा. तब भी जब तुम सही प्रमाणित हो जाती थीं तो मुझे खुशी होती थी और आज भी तुम्हारी ही जीत में मेरी जीत है.

‘‘चंद्रा, तुम्हारे सुख की कामना में ही मेरा पूरा जीवन चला गया और आज पता चला मेरा चुप रह जाना किसी भी काम नहीं आया. मेरा तो जीनामरना सब बस, यों ही…

‘‘देखो चंद्रा, जो हो गया उस में तुम्हारा कोई दोष नहीं. वही हुआ जो होना था. स्वयं पर गुस्सा आ रहा है मुझे. जिस की चाह में अकेला रहा सारी उम्र, कम से कम कभी उस का हाल तो पूछ लेता. तुम जैसी किसी को खोजखोज कर थक गया. थक गया तो खोज समाप्त कर दी. तुम जैसी भला कोई और हो भी कैसे सकती थी. सच तो यह है कि तुम्हारी जगह कोई और न ले सकती थी और न ही मैं ने वह जगह किसी को दी.’’

डबडबाई आंखों से चंद्रा मुझे देखती रही.

‘‘मेरे दिल पर इसी सत्य ने प्रहार किया है कि मेरा चुप रह जाना आखिर किस के काम आया. न तुम्हारे न ही मेरे. एक घर जो कभी बस सकता था… बस ही नहीं पाया… किसी का भी भला नहीं हुआ. खाली हाथ तुम भी हो और मैं भी.’’

‘‘कल से तुम्हें महसूस कर रही हूं मैं सोम. 50 के आसपास तो मैं भी पहुंच चुकी हूं. तुम जानते हो न मेरी छटी इंद्री की सूचना कभी गलत नहीं होती…जिस इनसान से मेरी शादी हुई थी वह कभी मुझे अपना सा नहीं लगा था. और सच में वह मेरा कभी था भी नहीं…उस के बाद हिम्मत ही नहीं हुई किसी पर भरोसा कर पाऊं.’’

‘‘क्या मुझ पर भी भरोसा नहीं कर पाओगी?’’

‘‘तुम तो सदा से अपने ही थे सोम, पराए कभी लगे ही नहीं थे. आज इतने सालों बाद भी लगता नहीं कि इतना समय बीत गया. तुम पर भरोसा है तभी तो पास बैठी हूं…अच्छा, मैं पूछती हूं तुम से…

‘‘सोम, तुम ने शादी क्यों नहीं की?’’

‘‘मत पूछना, क्योंकि अपनी बरबादी का सारा जिम्मा मैं तुम्हीं पर डाल दूंगा जो शायद तुम्हें बुरा लगेगा. तुम्हारे बाद रास्ता ही खो गया. वहीं खड़ा रहा मैं…दाएंबाएं कभी नहीं देखा. तनमन से वैसा ही हूं जैसा तुम ने छोड़ा था.’’

‘‘तनमन से मैं तो वैसी नहीं हूं न. 2 संतानें मेरे गर्भ में आईं और चली गईं. पहले उन्हीं को याद कर के दुखी हो लेती थी फिर सोचा पागल हूं क्या मैं? जिंदा पति किसी बदनाम औरत का हाथ पकड़ गंदगी में समा गया. उसे नहीं बचा पाई तो उन बच्चों का क्या रोना जिन्हें कभी न देखा न सुना. कभीकभी तो लगता है पत्थर बन गई हूं जिस पर सुखदुख का कोई असर नहीं होता.’’

‘‘असर होता है. असर कैसे नहीं होता?’’ और इसी के साथ मैं ने चंद्रा को अपने पास खींच लिया. फिर सस्नेह उस का माथा सहला कर सिर थपथपा दिया.

‘‘असर होता है तुम पर चंद्रा. समय की मार से हम समझदार हो गए हैं, पत्थर तो नहीं बने. पत्थर बन जाते तो एकदूसरे के आरपार कभी नहीं देख पाते.’’

मेरे हाथों की ही सस्नेह ऊष्मा थी जिस ने दर्द की परतों को उघाड़ दिया.

‘‘यदि आज भी एकदूसरे का हम सहारा पा लें तो शायद 100 साल जी जाएं और उस हिसाब से तो अभी मध्यांतर भी नहीं हुआ.’’

नन्ही बच्ची की तरह रो पड़ी चंद्र्रा. बांहों में छिपा कर माथा चूम लिया मैं ने. छाती में जो हलकाफुलका दर्द सुबह शुरू हुआ था सहसा कहीं खो सा गया.

Best Hindi Story : सबक – क्या ब्रजेश को अपने उपहारों का मोल मिला?

Best Hindi Story : कौलबेल जोर से किरकिराई. शिप्रा उस समय बाथरूम में कपड़े धो रही थी. दरवाजे पर आ कर उस ने पूछा, ‘‘कौन?’’

बाहर डाकिया था. वह दरवाजे के नीचे से पत्र खिसका कर जा चुका था. पत्र ले कर शिप्रा अंदर कमरे में आ गई. प्रवीण का पत्र था. उस ने लिखा था कि वह जल्द ही विवाह करने वाला है. शिप्रा को यह जान कर खुशी हुई.

कपड़े साफ करने के बाद शिप्रा नहाधो कर शृंगार मेज के पास जा खड़ी हुई. कमल से खिले अपने रूप को देख कर वह खुद शरमा गई. फिर उस ने अलमारी से साड़ी और उसी से मेल खाता बालिश्त भर का ब्लाउज निकाल लिया. उस ने नाभि के नीचे साड़ी बांधी, फिर सिर के खुले बालों को जूड़े में समेट लिया.

सजधज कर शिप्रा अपनेआप को आईने में देखने लगी. उसे लगा कि मध्यकालीन नायिकाएं भी इसी प्रकार प्रिय से मिलन के लिए सजतीसंवरती होंगी.

शिप्रा को कालेज के दिनों की याद आ गई. जब डा. रमाकांत नायकनायिका भेद पढ़ाते समय खूब रस लिया करते थे और नायिकाओं के रसीले उदाहरण देते थकते नहीं थे.

ऐसे में शिप्रा को ब्रजेश की याद आने लगी. वह वही ब्रजेश था जो पहली ही मुलाकात में उस का दीवाना हो गया था. लेकिन अगले ही क्षण उस के जेहन से ब्रजेश की याद काफूर हो गई.

शिप्रा में संजनेसंवरने की यह आदत जी ब्लाक की ममता सरीन ने डाली है. एक दिन वह रस लेले कर बताने लगी कि किस प्रकार चूडि़यां पहनाते हुए एक मनिहार चुपचाप उस की कलाइयों के स्पर्श का सुख महसूस करता रहा था और वह भी उस के स्पर्श के सुख को लूटती रही थी.

उस रोज समाज केंद्र भवन में बस्ती की महिलाएं सिलाईकढ़ाई करती हुई आपस में गपशप कर रही थीं. तभी किसी ने प्यारमुहब्बत का प्रसंग छेड़ दिया था. ब्लाउज काटती हुई रेखा ने आंखें मटका कर कहा था, ‘अरी, हम आखिर किस के लिए सजतीसंवरती हैं? यही न कि कोई हमें देखे और अपना दिल थाम कर लंबीलंबी आहें भरे.’

शिप्रा पर धीरेधीरे उस सोहबत का असर पड़ने लगा था. उस दिन विवेक के काम पर जाने के बाद वह शीशे के सामने जा खड़ी हुई थी. सजनेसंवरने में शिप्रा ने पूरा एक घंटा लगा दिया था. अपने ही रूप को शीशे में बारबार देख कर तथा पूरी तरह आश्वस्त होने के बाद खरीदारी के लिए वह घर से बाजार चल दी थी. हाथ में पर्स लिए वह जिस ओर जाती, लोग दिल थाम कर रह जाते. वह जिस भी शोरूम के पास खड़ी होती, वहां का दुकानदार उसे देखता ही रह जाता.

‘आइए न मैडम,’ ब्रजेश ने शोरूम से बाहर आ कर उस का स्वागत किया था, ‘हमारे यहां आप का स्वागत है, पधारिए.’

‘जी,’ शिप्रा को भी उस का रूप और व्यवहार भा गया था.

‘आइए, अंदर तो आइए,’ कहता हुआ वह एक ओर हट गया था.

ब्रजेश के हटते ही वह अंदर चली आई थी. वह मुसकरा दिया था. उस के पिता ने चश्मे के ऊपर से उन दोनों की ओर देखा था.

‘कल ही तो हमारे यहां बेंगलुरु से बेहतरीन साडि़यां आई हैं,’ ब्रजेश ने उस के आगे ढेर सारी साडि़यां फैला दी थीं.

शिप्रा उन साडि़यों को देखती ही रह गई. साडि़यां एक से बढ़ कर एक सुंदर थीं. ब्रजेश की नजरें शिप्रा की जूतियों पर थीं, ‘कितनी सुंदर हैं.’

प्रशंसा के दो शब्द सुन कर शिप्रा का चेहरा खिल उठा था. उस का मन हुआ कि वह कहे, ‘पहनने वाली भी तो कम सुंदर नहीं है,’ लेकिन प्रकट में वह मुसकरा कर ही रह गई थी.

‘कहिए, कौन सी दूं?’ ब्रजेश ने शिप्रा से पूछा था.

तभी दुकान का नौकर 2 ठंडे पेय की बोतलें ले आया था. दोनों उसे पीने लगे. शिप्रा ने बोतल नीचे रख कर कहा था, ‘देखिए, मेरे पास पैसे कम हैं.’

‘आप पैसों की चिंता छोडि़ए,’ ब्रजेश उसे आश्वस्त करने लगा, ‘आप तो पसंद की बात कीजिए.’

ब्रजेश के पिता ने भी बेटे का ही समर्थन करते हुए कहा था, ‘रुपए अभी न सही, पहली को दे देना, बेटी. अपनी ही बस्ती में तो रहती हो.’

ब्रजेश उस की पसंद की गई साड़ी को पैक कर उसी के साथ दुकान से बाहर निकल आया था. उस के साथ चलते हुए उस ने कहा था, ‘आप चाहें तो साड़ी की चर्चा विवेकजी से न करें.’

‘वह क्यों?’ वह उस की बात नहीं समझ पाई थी. उसे आश्चर्य हुआ था कि उस के पति को यह कैसे जानता है. शिप्रा ने पूछा भी था, ‘आप…?’

‘मुझे ब्रजेश कहते हैं,’ उस ने अपना परिचय देते हुए बताया था, ‘हम दोनों ने बीकौम एकसाथ ही किया था.’

‘ओह,’ वह हंस दी थी, ‘तो आप दोनों क्लासफैलो रहे हैं?’

‘जी,’ आंखों में प्रेमभाव ला कर ब्रजेश ने कहा, ‘इस रिश्ते से आप मेरी भाभी लगती हैं.’

शिप्रा शर्मसार हो गई थी. चौराहे से ब्रजेश दुकान की ओर लौट गया था. वह भी अपनी बस्ती की ओर चल दी थी.

ब्रजेश के साथ इस मुलाकात के बाद ही शिप्रा में सजनेसंवरने की ललक ज्यादा बढ़ने लगी थी. एक दिन विवेक ने भी कहा था कि अनारकली बाजार में उस के मित्र ब्रजेश की कपड़े की दुकान है. लेकिन उस ने कभी भी पति से ब्रजेश की चर्चा नहीं की.

शिप्रा की शह पा कर ब्रजेश उस के जीवन में किसी घुसपैठिए की तरह घुसता चला गया. जब भी कभी वह उस के पास आता, उस के लिए कुछ न कुछ उपहार ले कर आता.

कल ही शिप्रा ने ब्रजेश से कहा था, ‘ब्रजेशजी, आप तो हमें कर्ज से गले तक लाद रहे हैं. हम लोग इतना कर्ज कहां से दे पाएंगे?’

‘वाह भाभी, तुम भी खूब हो,’ ब्रजेश ने हंसते हुए कहा था, ‘आखिर विवेक भाई किस के लिए कमाते हैं?’

‘फिर भी.’

‘अरे, हम आप से तगादा तो कर नहीं रहे,’ ब्रजेश बोला था, ‘विवेक भाई, हर पहली को कुछ रुपए चुकाते हैं. आप को चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है.’

इस पर शिप्रा चुप हो गई थी. ब्रजेश की बातों पर उसे विश्वास होने लगा था.

ब्रजेश घर से जातेजाते कह गया था, ‘भाभी, कल आप के लिए एक ऐसी साड़ी ले कर आऊंगा जो बनारस से आई है और बेशकीमती है.’

‘अच्छा,’ वह मुसकरा कर बोली थी.

शिप्रा बालकनी में खड़ी हुई कलाई पर बंधी घड़ी को देखने लगी. शाम के

4 बजने को थे. ब्रजेश आता ही होगा, यह सोच कर वह बस्ती की पतली सड़क की ओर देखने लगी. सामने से सचमुच ही ब्रजेश लंबेलंबे डग भरता हुआ उन्हीं के ब्लौक की ओर चला आ रहा था. शिप्रा ने फौरन रसोई में जा कर चाय के लिए पानी चढ़ा दिया.

कौलबेल बजते ही शिप्रा दरवाजे की ओर लपकी. मुसकरा कर उस ने ब्रजेश का स्वागत किया और बोली, ‘आप की बड़ी लंबी उम्र है. हम आप को याद ही कर रहे थे.’

ब्रजेश सोफे पर बैठा तो शिप्रा उस के लिए चाय ले आई. दोनों चाय पीने लगे. चाय के कप को एक ओर रख कर ब्रजेश ने हाथ का पैकेट मेज पर रख उसे खोलते हुए कहा, ‘आज तो मैं आप के लिए ऐसा तोहफा लाया हूं जो केवल आप के लिए ही है. इसे पहनने के बाद आप के रूप पर चारचांद लग जाएंगे.’

साड़ी को देख कर शिप्रा की आंखें फटी की फटी रह गईं. गुलाबी रंग की वह साड़ी सच में हजारों में एक थी. उस पर जड़े हुए सलमासितारे आंखों को चकाचौंध कर रहे थे.

उस साड़ी को हाथ में ले कर शिप्रा न जाने क्याक्या सोचने लगी.

‘लाओ भाभी, इस तोहफे को मैं अपने ही हाथों से पहना दूं.’

ब्रजेश के इस व्यवहार से शिप्रा घबराने लगी. उस ने सोचा, किसी अन्य पुरुष के हाथों वह साड़ी कैसे पहनेगी? पति के मित्र से उसे इस प्रकार के व्यवहार की आशा नहीं थी. वह सोफे से उठ गई. उसी के साथ ब्रजेश भी उठ गया. लेकिन ब्रजेश तो जैसे पहले से ही कुछ निश्चय कर के आया था. इस बार उस के हाथ शिप्रा की ओर बढ़ने लगे. वह किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में थी. ब्रजेश ने दुस्साहस कर के उस की कलाई पकड़ ली.

शिप्रा ने आव देखा न ताव, उस ने ब्रजेश के सिर पर पेपरवेट से प्रहार कर दिया, लेकिन ब्रजेश ने अपने को बचा लिया और वहशियों जैसा व्यवहार करते हुए बोला, ‘आज तो मैं तुम्हारे साथ अपने अरमान पूरे कर के ही रहूंगा.’

‘बदमाश,’ कमर पर दोनों हाथ रख शिप्रा बिफर उठी, ‘तू ने मुझे बाजारू औरत समझ रखा है क्या? तेरे घर में मांबहनें नहीं हैं. मुझे कमजोर औरत न समझना. चुपचाप यहां से चला जा अन्यथा वह दुर्गति करूंगी कि पूरा महल्ला तमाशा देखेगा.’

ब्रजेश को ऐसी उम्मीद न थी. वह गरदन लटकाए चुपचाप बाहर जाने लगा. तभी शिप्रा उस की लाई हुई साड़ी पीछे से फेंकती हुई बोली, ‘इस कफन को भी तो ले जा.’

ब्रजेश ने वह साड़ी उठा ली. शिप्रा ने उस की लाई हुई और भी साडि़यां उस की ओर फेंक दीं, जिन्हें वह जल्दी से समेट कर चला गया.

इस हादसे से शिप्रा की सांस तेज हो आई. वह अपनी उखड़ी सांस पर काबू पाने के लिए बैडरूम में जा कर लेट गई.

थोड़ी देर आराम करने तथा स्थिति सामान्य होने के बाद शिप्रा उठी और शृंगार मेज के सामने जा खड़ी हुई. अब उस का रूप ही उस की आंखों में चुभन पैदा करने लगा था. ऐसा रूप भी किस काम का जो दूसरों को अपनी ओर खींचे. वह शृंगार मेज के सामने से हट गई.

साड़ी उतार कर उस ने धुली हुई एक सादी धोती पहन ली और आईने के सामने जा खड़ी हुई. अब वह और भी अच्छी लग रही थी, पर इस बार देखने का नजरिया भिन्न था. रसोई में जा कर पति के लिए चाय, नाश्ता बनाने लगी क्योंकि उन के आने का समय हो रहा था. वह बालकनी में खड़ी हो कर विवेक का बेसब्री से इंतजार करने लगी. शिप्रा ने देखा, बस्ती की पतली सड़क पर ब्रजेश तेजी से बाजार की ओर जा रहा था. उसे देख कर शिप्रा को लगा कि उस धूर्त को आज उसे अच्छा सबक सिखा दिया है. भविष्य में सावधान रहने के लिए उस ने वहीं अपने दोनों कान पकड़ लिए.

लेखक : डा. शीतांशु भारद्वाज

Romantic Story : उम्मीद बाकी है – क्या प्रज्ञा प्यार के लिए तरसती रह गई ?

Romantic Story : 5-6 दिनों बाद बिगड़े मौसम के मिजाज ठीक हुए थे. आंधीबारिश थम गए थे और कुनकुनी धूप छितर आई थी. प्रज्ञा ने घर के सारे कपड़े बिस्तर पर ला कर धूप में पटक दिए थे और खुद भी पलंग पर जगह बना कर कुनकुनी धूप में पसर गई थी. आंखें मुंदने ही लगी थीं कि ठंडीठंडी हवा के झोंकों से सिहर कर उस ने आंखें खोल दीं. टपटप बूंदें बरसती देख उस के होश उड़ गए. वह बदहवास सी दोनों हाथों से कपड़े समेटने लगी, पर फुहार एकाएक बौछार में बदल गई थी. उस के हौसले पस्त हो गए. तभी एक सुदर्शन नवयुवक जाने कहां से प्रकट हो गया. दोनों बगलों में उस ने एकएक गद्दा दबाया, हाथों में तकिए… दो चक्करों में ही प्रज्ञा सब सामान सहित अंदर पहुंच गई थी. बौछार अब मूसलाधार में बदल गई थी.

प्रज्ञा ने राहत की सांस लेते हुए उस अजनबी को धन्यवाद देने के लिए गरदन घुमाई, तब तक वह सीढि़यां चढ़ कर फिर से ऊपर अपने फ्लैट में पहुंच चुका था.

प्रज्ञा को सबकुछ एक परीकथा की भांति लग रहा था. उस मोहक व्यक्तित्व वाले युवक का एक हीरो की तरह प्रकट होना, उस का बलिष्ठ शरीर, उस की फुरती… स्मरण करते हुए प्रज्ञा के होंठों पर एक लजीली मुसकान तैर गई. इस का मतलब वह नवयुवक ऊपर से उसे सोते हुए ताक रहा था… और आज ही क्यों, न जाने कब से ताक रहा हो? उसे कपड़े फैलाते, बाल सुखाते, पौधों में पानी देते… वह तो बिना दुपट्टे के ही, बल्कि कई बार तो नाइटी में ही… सोचते हुए प्रज्ञा लाज से दोहरी हो उठी थी.

वह सुदर्शन नवयुवक पहली ही मुलाकात में उस पर बेतरह छा गया था. तब से प्रज्ञा को हर वक्त एक जोड़ी आंखों द्वारा अपना पीछा किए जाने का एहसास रोमांचित किए रहता. वह अपने बनावसिंगार के प्रति अतिरिक्त रूप से सजग हो उठी थी, पर वह युवक उसे फिर नजर नहीं आया. कहते हैं, शिद्दत से किसी चीज की आरजू की जाए तो प्रकृति उस से मिलवा ही देती है.

अपनी साथी डाक्टर नेहा से मिलने प्रज्ञा उस के फ्लैट पर पहुंची, पर वहां ताला लगा देख बेहद निराश हो उठी. लौटते में कंपाउड से निकलते समय उसे ऐसा लगा कि उस के पास से गुजरने वाले युवक को उस ने कहीं देखा है.

‘‘सुनिए… आप… उस दिन बारिश में आप ने मेरी मदद की थी…’’

‘‘ओह हां, आप यहां क्या कर रही हैं?’’

‘‘मेरी सहेली डा. नेहा यहां रहती है, उस से मिलने आई थी, पर ताला लगा है. गलती मेरी है. मुझे इतनी दूर आने से पहले उसे फोन कर लेना चाहिए था,’’ प्रज्ञा के चेहरे पर परेशानी उभर आई थी.

‘‘तो आप मेरे यहां चलिए.’’

‘‘आप यहां रहते हैं? आप तो मेरे ऊपर वाले…’ प्रज्ञा आश्चर्यचकित थी.

‘‘अरे नहीं, आप को कोई गलतफहमी हो गई है. वहां तो मेरी दीदी रहती हैं. अब तो उन का भी तबादला हो गया है. घर खाली करने वाली हैं. उस दिन मैं उन्हीं से मिलने आया हुआ था. बालकनी में बैठा था कि बारिश शुरू हो गई. नीचे आप को बदहवास देखा तो मदद के लिए चला आया था.’’

‘‘ओह,’’ प्रज्ञा झेंप गई थी. वह भी कितनी बेवकूफ है, क्याक्या समझ कर क्याक्या ख्वाब संजोने लगी थी.

‘‘आइए, चलते हैं. आप को नीता से मिलवाता हूं.’’

‘‘न… नीता कौन?’’

‘‘मेरी पत्नी.’’

प्रज्ञा के बचेखुचे सपने भी बिखर गए थे. वह भारी कदमों से अरुण के संग हो ली थी. बातें करते, परिचय जुटाते वे घर पहुंच गए. नीता से मिल कर उस का मूड ठीक होने लगा था. वह बहुत बातूनी और बिंदास थी. दोनों एडवोकेट पतिपत्नी में अच्छी अंडरस्टैंडिग थी. चाय के साथसाथ उस ने पकौड़े भी बना डाले.

‘‘मेरा आजकल चटपटी चीजें खाने का बहुत मन करता है.’’

‘‘इस अवस्था में ऐसा स्वाभाविक है,’’ प्रज्ञा ने उस की गर्भावस्था को लक्ष्य कर के कहा.

‘‘तो तुम्हें पता चल गया?’’

‘‘हां, मैं पीजी गायनिक में कर रही हूं.’

‘‘ओह, फिर तो दाई से क्या पेट छिपाना,’’ नीता ने अपनी सेहत, स्वाद, रखरखाव संबंधी पचासों सवाल प्रज्ञा से कर डाले और प्रज्ञा ने बहुत इतमीनान से उस की सारी जिज्ञासाएं शांत कीं.

अरुण मंदमंद मुसकराते वार्त्तालाप में बिना हस्तक्षेप किए पकौड़ों का मजा उठाता रहा.

‘‘प्रज्ञा, इस से तगड़ी फीस वसूल लेना.’’

‘‘सच, बहुत सुकून मिल रहा है तुम से मिल कर. लेडी डाक्टर से इतना कुछ पूछ ही नहीं पाती. मैं सोनोग्राफी, चैकअप वगैरह के लिए भी आऊंगी, तब तुम से मदद लूंगी. कोई अपना जानकार साथ हो, तो विश्वास बना रहता है.’’

प्रज्ञा ने उसे आश्वस्त किया था. नीता और अरुण ने प्रज्ञा से दोस्ती की तो दिल से निबाही भी. वे अकसर उसे किसी न किसी बहाने घर बुलाते रहते, साथ में ताश खेलते, टीवी देखते, खातेपीते. ऐसे ही एक छुट्टी के दिन प्रज्ञा नीता से मिलने पहुंची तो उसे परेशान पाया.

‘‘अच्छा हुआ, तुम आ गईं. बहुत परेशान हूं मैं. समझ नहीं पा रही हूं कि क्या करूं? तुम्हें तो पता ही है कि आजकल मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती. मैं मां के पास जाना चाह रही थी, पर अरुण की चिंता थी. अब एक मेड की व्यवस्था हो गई है. अरुण भी राजी थे, पर एक नई समस्या उठ खड़ी हुई है. मेरे इंजीनियर देवर वरुण की पोस्टिंग यहां हो गई है. अरुण का मानना है कि जब वह हमारे साथ रहने आ रहा है तो मुझे यहीं रुकना चाहिए. इतनी मुश्किल से छुट्टी मैनेज की थी, मेड का प्रबंध किया था, सारी पैकिंग भी कर ली है और अब अरुण की यह जिद… कुछ समझ नहीं आ रहा कि क्या करूं?’’

प्रज्ञा को पतिपत्नी के मामले के बीच पड़ना ठीक नहीं लगा. वह भला कर भी क्या सकती थी? नीता के प्रति दिल में गहरी हमदर्दी समेटे वह लौट आई थी. इस के अगले ही दिन उस के पास अरुण का फोन आ गया था. वरुण का औफिस प्रज्ञा के घर के समीप था. इसलिए उसे उस लोकैलिटी में मकान चाहिए था. अरुण ने उस से आग्रह किया था कि वह पता करे कि उस की दीदी जो फ्लैट खाली कर गई थीं, वह अब तक खाली है क्या?

प्रज्ञा ने पता किया तो फ्लैट खाली मिल गया. प्रज्ञा ने तुरंत मकान मालिक से बात कर अरुण को सूचित कर दिया और धीरे से नीता के बारे में भी पूछ लिया.

‘‘उसे मैं आज ही उस के मायके छोड़ने जा रहा हूं. अब जब वरुण यहां रह ही नहीं रहा है तो उस बेचारी को रोकने की क्या तुक? तुम फ्लैट की चाबी ले कर रख लेना, वरुण कभी भी आ कर तुम से ले लेगा,’’ सुन कर प्रज्ञा खुश हो उठी थी.

छुट्टी का दिन था. प्रज्ञा नहा कर निकली ही थी. गीले बाल तौलिए में बंधे थे कि घंटी बजी. दरवाजा खोलते ही वह बुरी तरह चौंक कर दो कदम पीछे हट गई.

‘‘अरुण? आप तो नीता को छोड़ने गए थे न?’’

आगंतुक के चेहरे पर अपरिचित भाव देख उसे समझ आ गया कि उस से कोई गलती हो गई है.

‘‘मैं वरुण हूं. भैया ने आप से चाबी लेने को कहा था.’’

‘‘ओह, हां लाई, अं…आप अंदर आइए न?’’

‘‘नहीं बस, चाबी दे दीजिए,’’

हड़बड़ाई सी प्रज्ञा ने चाबी ला कर पकड़ा दी. आगंतुक धन्यवाद दे कर सीढि़यां भी चढ़ गया और प्रज्ञा बुत बनी उसे ताकती ही रह गई. हूबहू वही चेहरामोहरा… एक पल को उसे लगा कि वह सपना देख रही है, पर नहीं, यह सपना नहीं था. लेकिन आंखों में कुछ नए सपने जन्म लेने लगे थे. रोमांचित दिल एक बार फिर तेजी से धड़कने लगा था. प्रज्ञा पीछे दालान में बाल सुखाने लगी तो मन यह सोच कर रोमांचित होता रहा कि एक जोड़ी आंखें उसे चोरीचोरी निहार रही होंगी. न जाने उस चेहरे में क्या कशिश थी, प्रज्ञा उसे अब तक दिल से नहीं निकाल पाई थी. दबी हुई महत्त्वाकांक्षाएं फिर हिलोरें लेने लगीं. प्रज्ञा ने झटपट चायनाश्ता तैयार किया और वरुण को बुलाने चल दी. आभार प्रकट करते हुए वरुण ने प्रज्ञा के साथ चायनाश्ता लिया.

‘‘भैयाभाभी आप की तारीफों के पुल ऐसे ही नहीं बांधते. वाकई आप का स्वभाव बहुत अच्छा है.’’

जब तक वरुण पूरी तरह व्यवस्थित नहीं हो गया, प्रज्ञा ने स्वेच्छा से उस के खानेपीने की जिम्मेदारी अपने सिर ले ली. उम्मीदों के हिंडोले में ?ालता मन अपनी ही कल्पनाओं की उड़ान देख चकित था. वरुण सामने भी आ जाता तो मुंह से बोल फूटने से पहले चेहरा आरक्त हो उठता. प्रज्ञा जानने को लालायित थी कि चाहत के जिस रंग ने उसे सिर से पांव तक सराबोर कर रखा है, उस ने वरुण पर भी कुछ असर किया है या नहीं? पर कैसे? शीघ्र ही उसे जवाब मिल गया. जिंदगी में कुछ प्रश्नों के जवाब जितनी देरी से मिलें, उतना ही अच्छा होता है. असमंजस की ढलान निराशा के गर्त से ज्यादा सुकूनदायक होती है.

प्रज्ञा उस दिन बाहर धूप में कपड़े फैला रही थी. एक जोड़ी आंखों द्वारा पीछा किए जाने का एहसास हमेशा की तरह तनमन को रोमांचित किए हुए था. उसे लगा कि ऊपर से उसे देख कर कोई फुरती से अंदर चला गया है. कुतूहल से उस ने नजरें ऊपर उठाईं तो जी धक से रह गया. वहां कोई नहीं था, पर तार पर सूखते लेडीज कपड़े देख कर उस के सीने में शूल चुभने लगे. लहूलुहान दिल को संभालते वह अंदर भागी. दो गिलास ठंडा पानी पिया, तब कहीं जा कर उखड़ी सांसें संभलीं और दिमाग कुछ सोचनेविचारने की स्थिति में आया. हो सकता है कि कोई रिश्तेदार वगैरह मिलने आए हों. अवश्य ऐसा ही होगा. वह भी जाने क्याक्या सोच लेती है?

प्रज्ञा तैयार हो कर अस्पताल निकल गई, पर मूड सारे दिन उखड़ा ही रहा. कभी मरीजों के सवाल पर झल्ला उठती तो कभी नर्स को डांटने लगती. बारबार मन हो रहा था कि सीधे वरुण के सामने पहुंच जाए और उस से साफसाफ बात कर ले. लेकिन क्या बात…? सारे खयालीपुलाव तो वही पकाती आ रही है, वरुण ने तो कभी कुछ कहा ही नहीं.

ऊहापोह में घिरी प्रज्ञा शाम को घर लौटी तो अहाते में ही वरुण को एक स्मार्ट सी लड़की के साथ देख कर चौंक उठी. उसे देखते ही एक पल को दोनों ठिठक कर थोड़ा दूरदूर हो गए. फिर वरुण ने ही पहल की, ‘‘यह चैताली है. मेरी ही कंपनी में इंजीनियर है. हम दोनों यहां लिवइन में रह रहे हैं. अभी घर वालों को इस बारे में बताया नहीं है. इसीलिए भैयाभाभी के साथ न रह कर मैं यहां शिफ्ट हो गया था. अं…कुछ समय बाद उपयुक्त अवसर देख कर घर वालों को बता दूंगा. तब तक आप प्लीज…’’

‘‘मेरी ओर से आप निश्चिंत रहिए. मुझे किसी के फटे में टांग अड़ाने का शौक नहीं है,’’ न चाहते हुए भी प्रज्ञा का स्वर तिक्त और भारी हो उठा था. वह तीर की तरह अपने घर में घुसी और बिस्तर पर औंधी पड़ गई. रुलाई का दबा हुआ सोता सारे बांध तोड़ पूरे आवेग से बह निकला. घंटों वह बेसुध रोती रही. अंधेरा घिर आया तो उस ने उठ कर बत्ती जलाई, मुंह धोया, कौफी बनाई और बिस्तर पर आ कर बैठ गई. कितने साथी डाक्टर उस से रिश्ता जोड़ने के लिए लालायित हैं. वही पागल है, जो इस चेहरे की कशिश में इस तरह उलझ गई है कि निकल ही नहीं पा रही है. पहले अरुण में अटकी, सचाई जान लेने के बाद भी शायद यह उस चेहरे को ही बारबार देखने का आकर्षण था कि वह नीता से मिलने के बहाने बराबर वहां आतीजाती रही. फिर वही चेहरा वरुण के रूप में सामने आया तो वह वहां अटक गई, पर अब बस… अब वह यहां नहीं रहेगी. उसे इन सब से दूर जाना होगा, वरना वह पागल हो जाएगी.

यहां समय ने प्रज्ञा का साथ दिया. उस की पोस्टिंग दूसरी जगह हुई तो प्रज्ञा ने शिफ्ट होने में जरा भी देर न लगाई. मोह और आकर्षण के इस जाल से जितनी जल्दी निकल सके, अच्छा है. अरुण-नीता, वरुण-चैताली सभी ने भरेमन से उसे विदा किया. प्रज्ञा ने अल्पसमय में ही अपनी सहृदयता और सद्व्यवहार से सभी के दिलों में एक विशेष जगह बना ली थी.

नई जगह, नया काम और नए दोस्तों ने प्रज्ञा को सबकुछ भुलाने में बहुत मदद की. वह जितना सबकुछ भुलाने का प्रयास करती, अरुण, वरुण और नीता के फोन कौल्स उसे उतना ही सब फिर से याद दिलाते रहते. सभी अकसर उस से शिकायत करते कि वह उन्हें बिलकुल भूल गई है. कभी आगे से फोन नहीं करती. प्रज्ञा बेचारी निरुत्तर रह जाती.

फिर एक दिन प्रज्ञा को दो कार्ड और दो फोन कौल्स आए. वरुण और चैताली की शादी हो रही थी और नीता ने एक प्यारी सी गुडि़या को जन्म दिया था. उस का जन्मोत्सव था. नीता के पास उस की सास भी आई हुई थी. उन्होंने भी प्रज्ञा से बात की और दोनों अवसरों पर मौजूद रहने के लिए प्रज्ञा से बहुत अनुरोध किया. प्रज्ञा के पास इनकार की कोई वजह नहीं थी. उस ने सभी के लिए सुंदर उपहार खरीदे और नियत तिथि पर पहुंच गई. इतने समय बाद सभी को देख कर, मिल कर वह बहुत प्रसन्न हुई. अरुण, वरुण की मां तो उस का एहसान मानते नहीं थक रही थीं.

‘‘दोनों बेटाबहू तुम्हारी बहुत तारीफ करते हैं. तुम ने इन लोगों की बहुत मदद की, बहुत खयाल रखा. तुम हमेशा खुश रहो, तुम्हारी हर मुराद पूरी हो.’’

‘‘हैलो, जैसा सुना था, उस से बढ़ कर पाया… माइसैल्फ डाक्टर तरुण,’ मांजी के पीछे से निकलते हुए एक सुदर्शन नवयुवक ने प्रज्ञा की ओर हाथ बढ़ाया तो प्रज्ञा चित्रलिखित सी खड़ी रह गई. शक्लसूरत का इतना साम्य… उसे लगा कि वह एक बार फिर चक्कर खा कर गिर पड़ेगी. नहीं, अब वह नियति के किसी भी ?ांसे में आने वाली नहीं. हाथ मिलाए बिना ही वह मुड़ने को हुई तो मांजी ने आगे बढ़ कर परिचय करवाने की बागडोर संभाली, ‘यह अरुण, वरुण और उस का छोटा भाई तरुण, डाक्टर है…’’

‘‘आप के और भी कोई बेटा है या बस?’’ प्रज्ञा मानो नियति के इस खेल से उकता सी गई थी और उस में और सहने की शक्ति शेष नहीं रही थी.

‘‘बेटे तो बस ये 3 ही हैं. क्यों?’’ मां थोड़ा हैरानपरेशान थीं.

‘‘नहींनहीं, ऐसे ही पूछ रही थी,’’ अपने व्यवहार पर शर्मिंदा होते हुए प्रज्ञा चेहरे पर मुसकराहट ले आई. एक परिचित मरीज प्रज्ञा का अभिवादन कर उसे अपने भाई से मिलाने लगी. ‘‘ये हैं डा. प्रज्ञा, मैं तो उम्मीद खो चुकी थी, पर इन्होंने मेरा इलाज जारी रखा और इन के सद्प्रयासों से ही मैं मां बन पाई हूं.’’

‘‘उम्मीद का दामन हमेशा थामे रहो,’’ प्रज्ञा ने स्नेह से उस के कंधे थपथपा दिए.

मांजी दूसरे मेहमानों के साथ व्यस्त हो गईं तो तरुण उस के और पास आ गया, बोला, ‘‘मैं आप के साथ डांस कर सकता हूं?’’ मुसकराते हुए उस ने प्रज्ञा की ओर हाथ बढ़ाया. प्रज्ञा एक पल के लिए ठिठकी. फिर मुसकराते हुए गर्मजोशी से उस ने तरुण का बढ़ा हाथ थामा और डांसफ्लोर की ओर बढ़ ली.

लेखिका : शैली माथुर

Society : सनोज मिश्रा जैसे पुरुषों की मोहताज क्यों हैं महिलाएं

Society : ऐसी घटजाएं असल में यह भर साबित करती हैं कि समाज और देश के हर क्षेत्र में पुरुषों का दबदबा कायम है जिसे चुनौती देने की हर कोशिश धर्मपंथी विफल कर देते हैं क्योंकि सवाल उन की रोजीरोटी का होता है. सनोज मिश्रा दोषी है या नहीं यह अदालत तय करेगी लेकिन महिलाओं ने ऐसा कौन सा गुनाह किया है जो कदमकदम पर उन्हें मर्दों का मोहताज बनाता है. पड़ताल करती एक रिपोर्ट –

बीती 2 अप्रैल को एक वायरल होते वीडियो में मोनालिसा फूट फूट कर रोती नजर आई थी. रोने की वजह बताई गई थी उस के गोड फादर फिल्म डायरेक्टर सनोज मिश्रा की गिरफ्तारी क्योंकि एक पीड़िता रोजी (बदला नाम) ने उस के खिलाफ दुष्कर्म और अबार्शन की रिपोर्ट दर्ज कराइ थी. इस रिपोर्ट की बिना पर दिल्ली पुलिस ने सनोज को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया. चूंकि आरोप एक महिला के लगातार यौन शोषण का था इसलिए हाईकोर्ट से भी उसे कोई राहत नहीं मिली.

इस गिरफ्तारी पर तो मोनालिसा को खुश होना चाहिए था कि वह शोषण और कास्टिंग काउच के फंदे से बच गई. उसे तो मीडिया का शुक्रिया अदा करना चाहिए था जिन्होंने गजब की फुर्ती दिखाते सनोज की गिरफ्तारी की खबर उतनी ही तेजी से दिखाई और वायरल की जितनी फुर्ती चुस्ती से कुम्भ के मेले में उस की नीली आखों वाले वीडियो और खबर वायरल किए थे कि एक निहायत ही ख़ूबसूरत झील सी गहरी आखों वाली आदिवासी युवती कुम्भ के मेले में मालाएं बेच रही है.

कुम्भ की गंद, बेतरतीब भीड़ भक्तों की डुबकियों और साधु संन्यासियों की ऊटपटांग हरकतों से ऊबे मीडिया कर्मियों को मोनालिसा की मासूमियत और आंखें इतनी भायी कि वे उस के पीछे कोई 15 दिन पड़े रहे. हरेक छोटेबड़े न्यूज़ चैनल पर मोनालिसा को प्राइम टाइम में भी स्पेस दिया जा रहा था. उस के इंटरव्यू लेने पत्रकार टूटे पड़ रहे थे इस से घर घर में उस की चर्चा होने लगी थी.

देखते ही देखते मोनालिसा एक ऐसी सेलिब्रेटी बन गई थी जिसे कुछ आता जाता नहीं था. उस का अनपढ़ होना उस की काबिलियत बन गई थी उस का मुसकराना ब्रांड बन गया था और उस की आंखों का तो सचमुच में क्या कहना जिन की नीली आसमानी रंगत कहर ढाती हुई लगने लगी थी. उन दिनों लगने लगा था कि भले ही इन्दोर की मोनालिसा को गरीब आदिवासी परिवार का कहा जा रहा हो लेकिन उस के जैसी अमीरी और शोहरत तो किस्मत वालों को ही नसीब होते हैं.

बात कुम्भ के साथ ही आई गई हो जाती अगर एन वक्त पर फ़िल्मकार सनोज मिश्रा मोनालिसा के घर उसे हीरोइन बनाने की सुनहरी पेशकश ले कर न पहुंचे होते. सनोज कोई बड़ा जाना माना डायरेक्टर नहीं है फिर भी, जैसा भी है, है तो. लिहाजा एक बार फिर मोनालिसा सुर्ख़ियों में आ गई क्योंकि सनोज उस के गोड फादर बन कर उसे मुंबई ले गए थे. उन्होंने उसे फिल्मों में काम देने का वादा मीडिया के सामने किया था. मुंबई पहुंच कर सनोज ने मोनालिसा को अपने खर्चे पर ठहराया, रहने और खानेपीने की व्यवस्था की और उसे ऐक्ट्रैस बनने की ट्रेनिंग दी जाने लगी.

इधर सभ्य और बुद्धिजीवी समाज से ले कर झुग्गी झोपड़ी वालों तक ने मान लिया कि गई मोनालिसा काम से. सनोज मिश्रा उसे छोटामोटा रोल दिला कर जो फीस वसूलेगा वह फिल्म इंडस्ट्री में लड़कियां 50 के दशक से अपने गौड फादरों को अदा करती आ रहीं हैं. इस फीस के एवज में उन्हें क्याक्या समझौते नहीं करना पड़े यह हर कोई जानता समझता है.

हालाकि एक सच यह भी है कि कुछ युवतियों की वाकई में जिन्दगी बन गई और उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री में अपना नाम और आमद दर्ज कराते खूब दौलत और शोहरत का सुख लिया. अधिकतर लड़कियां एक्स्ट्रा बन कर रह गईं या फिर गुमनामी के अंधेरे में खो गईं जो महज अपने कसे बदन और सैक्सी फिगर के बूते पर कभी मधुबाला, नर्गिस, रेखा, हेमा और करिश्मा, करीना, माधुरी और श्रीदेवी से ले कर केटरीना, आलिया भट्ट बनने का ख्वाव पाल बैठीं थी. लेकिन कामयाब वही हुई जिन में एक्टिंग का हुनर था.

रोजी की मोहताजी

यही इच्छा झांसी निवासी 28 वर्षीय रोजी की भी थी. अपनी रिपोर्ट में उस ने लिखाया है कि मैं कोई 5 साल पहले सोशल मीडिया के जरिये सनोज मिश्रा के संपर्क में आई थी. 17 जून 2021 के दिन उन्होंने मुझे फिल्मों में काम दिलाने का झांसा दे कर झांसी रेलवे स्टेशन बुलाया और अगले दिन मुझे एक रिसोर्ट में ले गए. वहां उन्होंने मुझे नशीला पदार्थ खिला कर मेरे साथ दुष्कर्म किया और फिर हर कभी हर कहीं करने लगे. मेरे मना करने पर मेरे नग्न फोटो वायरल करने और जान से मारने धमकी व की धोंस देते थे. उन्होंने तीन बार मेरा अबार्शन भी करवाया.

बस इतना काफी था, लिहाजा सेंट्रल दिल्ली के नवी पुलिस थाने में एफआईआर दर्ज होते ही सनोज को हवालात और फिर जमानत न मिलने पर जेल भेज दिया गया. यह और बात है कि आम और खास लोगों ने रोजी की रिपोर्ट के मसौदे से पूरी तरह इत्तफाक नहीं रखा. यह भी और बात है इस घटना से मची सनसनी के बाद रोजी ने कथित रूप से कहा कि उस ने सनोज के सहयोगी रहे वसीम रिजवी के कहने पर सनोज के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराइ थी जो सनोज के साथ काम करते थे.

इन बातों के कोई खास माने नहीं हैं. रोजी जैसी हरेक पीड़िता की रिपोर्ट की भाषा लगभग एकसी ही होती है. बस नाम घटना स्थल और पेशा बदल जाता है. माने लाख टके के इस सवाल के हैं कि आखिर मोनालिसा और रोजी जैसी युवतियों को अपना कैरियर बनाने सनोज मिश्रा जैसे ही मर्द क्यों मिलते हैं. कोई महिला डायरेक्टर या ऐक्ट्रेस क्यों नहीं मिलती. ऐसा कार्पोरेट में भी होता है और पालिटिक्स में भी होता है. ऐसा छोटीमोटी दुकानों से ले कर बड़ेबड़े माल्स में भी होता है कि किसी महिला को जौब के लिए किसी पुरुष के ही आगे गिड़गिड़ाने मजबूर होना पड़ता है.

घर परिवार भी अछूते नहीं

हैरानी और अफ़सोस की बात यह भी है कि पुरुषों पर महिलाओं की निर्भरता यही दूसरी शक्ल में हर जगह है उन संभ्रांत अभिजात्य परिवारों में भी जहां बेटी पढ़ीलिखी है या नौकरीपेशा है. यही बेटी जब भोपाल से पुणे जौब ज्वाइन करने जाती है तो पहली बार पेरेंट्स साथ लटक लेते हैं या फिर बड़ा न हो तो छोटे भाई को ही लटका देते हैं. फिर भले ही वह पिद्दी अपनी हिफाजत का माद्दा न रखता हो. मकसद यह जताना रहता है कि समाज पुरुष प्रधान और पितृसत्तात्मक है. दुनिया के सामने हम भले ही फेमिनिज्म का दम भरें और सीना चौड़ा कर यह राग अलापते रहें कि हम तो लड़कालड़की में कोई फर्क ही नहीं करते आजकल तो दोनों बराबर हैं.

क्या खाक बराबर हैं, यह पूछने पर कि क्या वाकई लड़कियों को लड़कों जैसा ट्रीटमेंट दिया जाने लगा है, भोपाल की ही 22 वर्षीय श्लेषा भड़क कर कहती है, आज से 3 साल पहले जब इंजीनियरिंग कालेज में एडमिशन लिया था तब बड़ा भाई मुझे कालेज लेने और छोड़ने आता जाता था. जब वह जौब पर बेंगलुरु चला गया तो पापा ने यह जिम्मेदारी संभाल ली. मुझे समझ नहीं आता कि जब भाई अकेला फर्स्ट ईयर में खुद अकेले आताजाता था तो मेरे साथ यह भेदभाव क्यों.

हालांकि इस सवाल का जवाब तो कई तरह से मुझे होश संभालते ही मिल गया था कि लड़की होने के नाते मैं कमजोर हूं और कदम कदम पर मुझे किसी पुरुष के प्रोटेक्शन की जरूरत का एहसास करा दिया गया था, और हैरत की बात ये भी कि मुझे खतरा भी पुरुषों से ही था. मुझे लगता है कि मैं हाड मांस की पुतली नहीं बल्कि अपने खानदान की कोई प्रापर्टी हूं जिसे हिफाजत की दरकार है.

बकौल श्लेषा इन हरकतों से मुझ में रत्ती भर भी आत्मविश्वास नहीं रह गया है. भाई के बराबर की दर्जा मुझे मिला जरुर है लेकिन इतना भर कि पौकेट मनी मुझे जरूरत के मुताबिक दिया जाता है. मुझे होली खेलने की छूट है लेकिन कालोनी की लड़कियों के साथ भर के लिए. भाई दिन भर दोस्तों के साथ दुनिया भर में हुड़दंग करता फिरे, कुछ भी खाएपिए देर या आधी रात घर आए उस से कोई सवाल नहीं किया जाता. मैं अगर 9 बजे तक भी किसी सहेली के घर रुक जाऊं तो मम्मीपापा फोन घनघनाना शुरू कर देते हैं कि कहां हो, कब तक आओगी, रात बहुत हो रही है. इतनी रात को अकेले मत आओ, रुको हम ही लेने आ जाते हैं.

आजादी की हकदार नहीं औरत

यह सब तरहतरह से होता है कि स्त्री को आजाद मत छोड़ो उसे किसी न किसी पुरुष के अधीन रहना चाहिए. मनु स्मृति (अध्याय 5 श्लोक 147) में जो कहा गया है उस का पालन हमारा आधुनिक समाज आज तक बदले तौर तरीकों से कर रहा है.

पिता रक्षति कांमांरे भर्ता रक्षति यौवने. रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातंत्रयम्हार्ति अर्थात – बचपन में पिता उस की रक्षा करता है, पति युवावस्था में और पुत्र वृधावस्था में, एक स्त्री स्वन्त्रता की अधिकारी नहीं है.

लैंगिक समानता संविधान क़ानूनी किताबों और वामपंथी कह कर बदनाम कर दी गई सरिता व गृहशोभा जैसी मैग्जींस के पन्नों तक सिमट कर रह गई है. इन पत्रिकाओं का गुनाह इतना भर है कि ये युवतियों और महिलाओं को उन के वजूद का एहसास कराती हैं उन्हें जागरूक करने वाली रचनाएं प्रकाशित करती हैं जिस से जेंडर एक्विलिटी को प्रोत्साहन मिलता है. ये पत्रिकाएं इस या किसी भी मसले पर किसी भी स्तर पर दोहरापन नहीं दिखातीं.

धर्मपंथी लोग नहीं चाहते कि ऐसी सामग्री लोगों और खासतौर से महिलाओं तक पहुंचे जो हाथी के दिखाने और खाने वाले दांतों की तरह अलगअलग न हों. स्त्री स्वभाव से मूर्ख है कि तर्ज पर उसे मूर्ख नएनए आधुनिक तरीकों से बनाया जा रहा है. मैसेज यह भर देना रहता है कि समाज से धर्म द्वारा कायम किया गया मर्दों का दबदबा न पहले कभी टूटा था न आगे कभी टूटेगा.

इसे बनाए रखने इतने धूर्तता भरे धरमकरम किए जाते हैं कि कई बार तो लगता है कि इन से वैचारिक और तार्किक रूप से जो लड़े उस से बड़ा वेबकूफ़ दुनिया में कोई नहीं. लेकिन यह हताशा वाली बात कुछ देर ही जेंडर इक्विलिटी को मुहिम के तौर पर अंजाम दे रहे लोगों को विचलित कर पाती है. कुछ देर बाद वे नए तेवर और इरादों के साथ फिर अपने आन्दोलन में डूब जाते हैं क्योंकि उन से बेहतर कोई नहीं जानता समझता कि बराबरी का दर्जा अगर औरतों को मिला तो वाकई हम विश्व गुरु बन जाएंगे, हमारी जीडीपी की रफ्तार चार गुना ज्यादा होगी जिस के चलते हम अमेरिका जैसे ताकतवर देश को भी पीछे छोड़ सकते हैं. और इन से भी अहम बात गुलाम शूद्र और दासी करार दी गई औरत का शोषण बंद हो जाएगा.

राजनीति से चूंकि यह बात जल्द समझ आती है कि कैसेकैसे धर्मपंथी बराबरी की बात करने वाले नेताओं को मनोबल गिराते हैं इसलिए उस उदाहरण से भी समझा जाए. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 के वक्त कांग्रेस नेत्री प्रियंका गांधी ने एक नारा दिया था लड़की हूं लड़ सकती हूं.

शुरूआती दौर में इस मुहिम को खासा रिस्पांस भी मिला था. युवतियों और महिलाओं में जोश था कि बात सही तो है हम किसी से कमजोर नहीं, हमारी किसी से लड़ाई भी नहीं हम तो बराबरी चाहते हैं और बातबात पर पुरुष पर निर्भर नहीं रहना चाहते. तब भाजपा ने महंत योगी आदित्यानाथ को मुख्यमंत्री पेश किया था जो अपने धार्मिक होहल्ले के लिए मशहूर हैं. लिहाजा प्रियंका की यह मुहिम तब परवान नहीं चढ़ पाई थी. धर्मपंथियों ने जम कर धर्म का प्रचार करते जता दिया था कि महिलाएं शोभा और कलश यात्राओं में कलश ढ़ोते ही अच्छी लगती हैं और उन्हें इस काम में जोते रखा जाएगा. लड़ने का आत्मविश्वास उनमे पैदा ही नहीं होने दिया जाएगा.

लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में इस मुहिम का असर दिखा था. जब इंडिया गठबंधन को महिलाओं के 45 फीसदी वोट मिले थे इस के पहले विधानसभा चुनाव में सपा और कांग्रेस को महिलाओं के 37 फीसदी वोट मिले थे इन 8 फीसदी बढ़े वोटों ने भाजपा को हिला और रुला कर रख दिया था.

प्रियंका के साथ दिक्कत यह रही कि वे भी हताश हो गईं और मुहिम को मझधार में ही उन्होंने छोड़ दिया जबकि आज इस की ज्यादा जरूरत है. मोनालिसा और रोजी जैसी महिलाओं के बाबत चिंता सनोज मिश्रा नहीं बल्कि वह सामाजिक पारिवारिक आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था है जिस में वर्चस्व पुरुषों का है.

Box Office : सलमान की ‘सिकंदर’ ने किया निराश, रद्द करने पड़े शो

Box Office : बौलीवुड के भाईजान सलमान खान का दमखम भी काम न आया और इस बार भी बौलीवुड बौक्स औफिस पर कुछ खास कमाल नहीं कर पाया. क्या रहा ‘सिकंदर’ का हाल, जानिए.

मार्च माह के चौथे सप्ताह की शुरूआत 27 मार्च से हुई, जब पृथ्वीराज सुकुमारन निर्देशित, मोहनलाल और पृथ्वीराज के अभिनय से सजी मलयालम फिल्म ‘लूसी 2 इम्पूरन’ मलयालम के साथ ही हिंदी में भी डब हो कर रिलीज हुई. फिर 30 मार्च, गुड़ी परवा के दिन सलमान खान के अभिनय से सजी साजिद नाड़ियादवाला निर्मित और ए आर मुरूगादास निर्देशित फिल्म ‘सिकंदर’ रिलीज हुई. पर अफसोस इन दोनों ही फिल्मों को दर्शकों ने सिरे से नकार दिया.

सब से पहले बात हिंदी फिल्म ‘सिकंदर’ की. पिछले कुछ समय से बौलीवुड के अंदर एक डर सा बैठ गया है कि बिना दक्षिण की मदद के हिंदी फिल्म बनाने पर सफलता हासिल नहीं हो सकती. इसी वजह से पिछले लंबे समय से असफलता का दंश झेल रहे अभिनेता सलमान खान ने ‘किसी का भाई किसी की जान’ से सबक सीखते हुए दो साल बाद परदे पर वापसी करते हुए फिल्म ‘सिकंदर’ में दक्षिण के निर्देशक ए आर मुरूगादास के साथ ही फिल्म ‘पुष्पा 2’ फेम दक्षिण की अभिनेत्री रश्मिका मंदाना और विलेन के किरदार में दक्षिण के अभिनेता सत्यराज को जोड़ा. निर्देशक ए आर मुरूगादास ने अपनी 2018 की असफल तमिल फिल्म ‘सरकार’ की ही कहानी को कुछ बदलाव के साथ ‘सिकंदर’ में पेश कर दी. ए आर मुरुगादास ने कहानी में जो बदलाव किया, वह बदलाव करते हुए सलमान खान के इशारे पर अपनी ‘बीइंग ह्यूमन’ का ही प्रचार वाले दृश्य जोड़ दिए. यह काम सलमान खान ने फिल्म ‘भारत’ के अलावा ‘राधे’, ‘जय हो’, ‘किसी का भाई किसी की जान’ में भी कर चुके थे. पर इस बार फिल्म बहुत घटिया बनी. ट्रेलर लांच पर निर्माता ने फिल्म का बजट 400 करोड़ रुपए बताया था. हिंदू पर्व गुड़ी परवा और मुस्लिम के ईद का फायदा उठाने के मकसद से फिल्म को शुक्रवार की बजाय रविवार, 30 मार्च को एक साथ पूरे देश के 5500 सिनेमाघरों के 22 हजार शो के साथ रिलीज किया गया. पहले ही दिन मुंबई सहित कई शहरों में इस फिल्म के कुछ शो रद्द हो गए. क्योंकि दर्शक नहीं थे. 22 हजार शो यदि हाउस फुल होते तो पहले ही दिन करीबन 125 करोड़ रुपए का बौक्स औफिस कलेक्शन होना चाहिए था, पर पहले दिन बौक्स औफिस कलेक्शन बामुश्किल 26 करोड़ रुपए हुआ. दूसरे दिन 29 करेाड़ रुपए हुआ. इसी के साथ निर्माताओं ने ऐलान किया कि फिल्म का बजट 200 करोड़ रुपए है.

कहा जा रहा है कि इस में से 120 करोड़ रुपए की फीस सलमान खान और 5 करोड़ की फीस रश्मिका मंदाना ने ली. बाकी के बारे में कुछ नहीं कहा गया. बहरहाल, 7 दिन की बजाय रवीवार 30 मार्च से गुरूवार, 3 अप्रैल के इस 5 दिवस में सैकनिल के अनुसार ‘सिकंदर’ ने 90 करोड़ 25 लाख रुपए ही बौक्स औफिस पर एकत्र किए. इस में से निर्माता की जेब में सिर्फ 30 करोड़ रुपए ही जाएंगे. लेकिन बौक्स औफिस इंडिया के अनुसार 5 दिन में ‘सिकंदर ‘ केवल 83 करोड़ 75 लाख रुपए ही एकत्र कर सकी. यदि यह आंकड़ास ही है तब तो निर्माता की जेब में 27 करोड़ रुपए ही जाएंगे.

मार्च माह के तीसरे सप्ताह रिलीज हुई फिल्म ‘तुम को मेरी कसम’ ने पहले सप्ताह बौक्स औफिस पर केवल एक करोड़ रुपए ही कमा सकी थी. लेकिन बेचारे ‘इंदिरा आईवीएफ के डाक्टर अजय मूर्डिया तो उस दिन को रो रहे हैं, जब उन्होंने इस फिल्म के निर्देशन की जिम्मेदारी विक्रम भट्ट को दी थी. वास्तव में अजय मूर्डिया अपने द्वारा स्थापित ‘इंदिरा आईवीएफ’ का 3500 हजार करोड़ का पब्लिक इशू ले कर आने वाले थे. इसीलिए प्रचार के लिए उन्होंने फिल्म बनवाई. मगर एक तरफ फिल्म को दर्शक न मिलने की वजह से कमाई व प्रचार दोनों नहीं हुआ, उधर ‘सेबी’ इन के खिलाफ अलग से जांच शुरू कर दी है.

मार्च माह के चौथे सप्ताह में ही पृथ्वीराज सुकुमारन निर्देशित, मोहनलाल और पृथ्वीराज के अभिनय से सजी मलयालम फिल्म ‘लूसी 2 इम्पूरन’ मलयालम के साथ ही हिंदी में भी डब हो कर रिलीज हुई. मलयालम की यह पहली फिल्म थी, जिस में हिंदूमुसलिम अजेंडा चलाया गया, जिस की जम कर आलोचना हुई. और 3 दिन बाद मोहनलाल ने ऐलान कर दिया कि वह फिल्म से 17 सीन काट कर इसे रिलीज करेंगे. इस में से 3 मिनट का वह दृश्य भी काटा गया जिस में हिंदुओं को आहत किए जाने के आरोप लगे थे. मोहनलाल ने इस तरह सारा दोष निर्देशक पृथ्वीराज सुकुमारन पर थोप कर दोनों पक्षों के भले बन गए. यह बात पृथ्वीराज सुकुमारन के परिवार को पसंद नहीं आई और पृथ्वीराज की मां ने वीडियो जारी कर मोहनलाल पर आरोप लगा दिया. उन्होंने कहा कि यदि कुछ गलत हुआ तो उस के लिए निर्देशक व कलाकार दोनो ही दोषी हैं. क्योंकि जब फिल्म की शूटिंग हुई, तो क्या मोहनलाल को पता नहीं था कि वह क्या शूट कर रहे हैं. इस के बाद अब मलयालम फिल्म इंडस्ट्री में दो फाड़ की खबरें आ रही हैं.

बहरहाल, पूरे सप्ताह में इस फिल्म ने हिंदी क्षेत्रों में महज दो करोड़ रुपए ही कमाए. मगर मलयालम में इस ने 86 करोड़ रुपए कमा लिए.

इस फिल्म के लिए मोहनलाल और पृथ्वीराज ने कोई फीस नहीं ली है. फिल्म की कमाई में से दोनों अपना हिस्सा लेंगे.

Superstition : पूर्वजन्म के कर्म, सच या अंधविश्वास

Superstition : जो विश्वास तर्क पर आधारित नहीं, वह रेत पर बने घर के समान है, जो समय की कसौटी पर टिक नहीं सकता.

तीन मित्र- 2 महिलाएं और एक पुरुष-लोनावला के तुंगार्ली जंगल और बांध की सैर के बाद लौट रहे थे. संकरे और क्षतिग्रस्त रास्ते पर उखड़े हुए पत्थरों पर से उन की एसयूवी धीरेधीरे आगे बढ़ रही थी. रास्ते में स्कूल यूनिफौर्म पहने कुछ लड़कियां शायद तुंगार्ली बांध के आगे राजमाची गांव को लौट रही थीं. वहीं, बांध से रिसने वाले पानी का एक छोटा सा सोता फूट पड़ा था, जिस में से एक लड़की पीने के पानी की बोतल भर रही थी.

2 आदिवासी महिलाएं सिर पर लकड़ी के गट्ठर उठाए सड़क पार करने के लिए उन की गाड़ी के गुजरने का इंतजार कर रही थीं. उन के फटे हुए कपड़े, कृशकाय शरीर और धूप से जली गहरी त्वचा देख कर सैलानियों का दिल करुणा से भर आया.

पुरुष ने गाड़ी रोक कर उन्हें रास्ता पार करने का इशारा किया और अपने मित्रों से बोला, ‘‘यहां तो समय ठहर गया है. ये लोग जैसे पचास या सौ साल पहले की जिंदगी जी रहे हैं.’’

एक महिला ने दार्शनिक लहजे में कहा, ‘‘यह तो महज संयोग है कि उन्हें गरीबी में जन्म मिला और हमें खातेपीते घरों में. यह संभव है कि हम ‘वह’ होते और वे ‘हम’. इसलिए हमारा अपने जीवन पर गर्व करना बेकार है.’’

दूसरी महिला ने तुरंत जोड़ा, ‘‘यह पूर्वजन्म के कर्मों का फल है.’’ फिर इसी विषय पर तीनों में गंभीर चर्चा शुरू हो गई.

पहली महिला की व्याख्या- संयोग या गणितीय प्रायिकता (संभावना) वैज्ञानिक आधार दर्शाती है, भले ही जन्म और मृत्यु विज्ञान के लिए आज भी गूढ़ रहस्य बने हुए हैं. लेकिन ‘पूर्वजन्म के कर्म’ वाली व्याख्या अकसर धार्मिक चर्चाओं में सुनाई देती है. तीनों मित्रों को यह विचार बेमानी लगा कि सिर पर लकड़ी ढोती गरीब महिलाएं पिछले जन्म के पापों का फल भुगत रही हैं. न्याय की बात करें तो अपराध का विवरण सुने बिना दंड मिलना अनुचित है. क्या धर्म के पुरोहित इन गरीबों को उन के कथित अपराधों का विवरण दे सकते हैं?

यह सवाल विज्ञानवादी को अंधविश्वासी से अलग करता है. वैज्ञानिक जानते हैं कि विज्ञान के पास हर प्रश्न का उत्तर नहीं है. इसलिए विज्ञानवादी में एक बौद्धिक विनम्रता होती है. धर्म का भी एक दार्शनिक दृष्टिकोण होता है, जो आस्था और तर्क के बीच एक विचारशीलता का पुल बनाता है. लेकिन आडंबरवादी पुरोहित ब्रह्मांड और जीवनमृत्यु के हर प्रश्न का उत्तर धर्म के ‘विश्वास’ के सहारे दे सकते हैं, भले ही वह तार्किक हो या न. इन की ‘पूर्वजन्म के कर्म’ जैसी व्याख्याओं ने भारतीय समाज पर गहरी छाप छोड़ी है. दुखों को पूर्वजन्म से जोड़ने के बाद समाज और सरकार का दायित्व खत्म हो जाता है और व्यक्ति भी अपनी दशा को पूर्वजन्म का परिणाम मान कर निष्क्रिय हो जाता है.

सैलानियों की गाड़ी अब पक्की सड़क पर पहुंच गई थी. चर्चा को समेटते हुए एक मित्र ने कहा, ‘‘मन, बुद्धि और शरीर की दृष्टि से सारे मनुष्य लगभग समान ही होते हैं. फिर भी देश संपन्न या विपन्न होते हैं. अर्थात गरीबी के लिए गरीबों के पूर्वजन्म के कर्म नहीं, बल्कि समाज और समाज की चुनी हुई सरकारों के बुरे कर्म जिम्मेदार हैं.’’ सच ही है, भारतीय समाज में बदलाव की गति बहुत धीमी है.

आज 21वीं सदी में भी हम जातिवाद और चिंताजनक स्तर तक बड़ी आर्थिक असमानता से जूझ रहे हैं. ‘पूर्वजन्म के कर्म’ जैसी मान्यताएं इन समस्याओं को सहारा देती हैं.

पुर्नजन्म में कर्म का सिद्धांत : बेवकूफ बनाने का जरिया

यह सच है कि व्यक्ति के कर्म उस के वर्तमान और भविष्य को प्रभावित करते हैं. एक अच्छा बीज (अच्छे कर्म) ही एक स्वस्थ पौधा (अच्छा भविष्य) बनाएगा. लेकिन इस का यह अर्थ नहीं कि हम बिना किसी प्रमाण के पुनर्जन्म या पूर्वजन्म के कर्मों को स्वीकार कर लें. मूलतया धर्मों का कर्म सिद्धांत न नैतिकता और उत्तरदायित्व को प्रोत्साहित करता है और न ही व्यावहारिक है. इस का उद्देश्य केवल एक है और वह है धर्म के कल्पित भगवान के अस्तित्व को स्थापित करना.

धर्मों के भक्त जब अपने साथ हो रहे भेदभाव की शिकायत करते हैं कि भगवान यह भेदभाव कैसे स्वीकार करता है तो हिंदू धर्म के एजेंट कह देते हैं कि यह पिछले जन्मों का फल है जबकि ईसाई और मुसलिम मरने के बाद स्वर्ग में पुनर्जन्म होने की कहानी सुना देते हैं. धर्मों की इन बातों को निश्चित रूप से स्वीकार नहीं किया जा सकता पर आस्था के मामले में धर्म के एजेंटों की बात अंतिम मान ली जाती है.

नैतिकता अवश्य एक महत्त्वपूर्ण कौन्सैप्ट है जिस का एक अर्थ यह है कि व्यक्ति जो कार्य करे, उस का और उस के परिणामों का पूरा उत्तरदायित्व भी ले. आसान शब्दों में कहें तो राह जीवन की हो या शहर की, अगर किसी ने लालबत्ती को लांघा हो तो जुर्माना भी सिर उठा कर भरे. आखिर, हर गलती सीख भी तो दे जाती है. यह कर्म का सिद्धांत नहीं है, बल्कि कानून का और नैतिकता का है.

विज्ञान दुनिया की सब से खुली किताब है जिस में लिखने, पढ़ने व समझने और उस में प्रश्नचिह्न लगाने का अधिकार हर व्यक्ति को है.

आधीअधूरी जानकारी

कुछ शोधकर्ताओं (जैसे डा. वौल्टर सेमकिव) ने बच्चों द्वारा पूर्वजन्म की यादों के दावों का समर्थन किया है. उन के उद्देश्य पर तो संदेह नहीं लेकिन उन के निष्कर्ष वैज्ञानिक कसौटी पर खरे नहीं उतरते. अधिकतर वैज्ञानिक उन्हें मनोवैज्ञानिक स्थितियों, जैसे क्रिप्टोम्नेसिया (अवचेतन स्मृति) या सुझाव का परिणाम मानते हैं. दूसरी ओर, धर्म और पुरोहित ‘पूर्वजन्म’ की व्याख्या को बिना किसी तर्क के पवित्र ग्रंथों के आधार पर करते हैं. धार्मिक कथाओं की जटिल व्याख्या कई बार आम लोगों के लिए कठिन हो जाती है, जिस से वे अनजाने में अंधविश्वास का शिकार हो जाते हैं. जब तक ठोस प्रमाण न मिले, पुनर्जन्म और पूर्वजन्म के कर्मों पर विश्वास करना अंधविश्वास ही रहेगा.

हमारे सैलानियों की चर्चा का रुख अचानक पुनर्जन्म से भविष्य की ओर मुड़ गया था. वे लंच के लिए लोनावला के एक प्रसिद्ध होटल में पहुंचे थे. खाली टेबल का इंतजार करते हुए एक अखबार के ज्योतिष/भविष्य वाले पन्ने को देखते हुए एक महिला ने मुसकरा कर कहा, ‘‘देखें, आज हमारे 140 करोड़ देशवासियों का भविष्य क्या है?’’ तीनों मित्र हंस पड़े. यह उन अखबारों और ज्योतिषियों पर एक व्यंग्य था जो जन्मदिन के आधार पर रची गई 12 राशियों द्वारा दुनिया के 800 करोड़ लोगों का भाग्य रोज बताने का दावा करते हैं.

ज्योतिष एक रुढ़ि है और सभी ज्योतिषी रुढ़िवादी हैं. लेकिन अब उन की भाषा परिष्कृत हो गई है, जैसे आज आप का आशावाद आप को परेशानियों से दूर ले जाएगा. इस प्रत्यक्ष सत्य को जानने के लिए ज्योतिष विद्या जरूरी नहीं, यह जानते हुए भी शिक्षित लोग भविष्यफल वाले पन्ने की ओर आकृष्ट हो ही जाते हैं; हमारे शिक्षित सैलानी भी हुए. क्या आश्चर्य कि मुखपृष्ठ पर बड़े गर्व से ‘स्था:1838’ छापने वाला अखबार पिछले 186 वर्षों से हर रोज पाठकों को राशिफल से अनुग्रहीत करता है. मनुष्य हर दिन जन्म लेते हैं, अर्थात (हमारे ज्योतिषियों के अनुसार) एक ही राशि में जन्मे दुनिया के लगभग 67 करोड़ लोग (या 800 करोड़ का 12वां हिस्सा) हर रोज एक ही भाग्य साझा करेंगे?

दार्शनिक कहते हैं, मनुष्य का सारा जीवन ‘इस पल में’ यानी वर्तमान काल में समाया हुआ है. बीते हुए कल को बदला नहीं जा सकता और आने वाले कल की, बस, कल्पना की जा सकती है. हां, भूतकाल के अनुभवों (जिन में ‘पूर्वजन्म’ के अनुभव निश्चित ही शामिल नहीं हैं) से आने वाले कल को संवारा जा सकता है पर भविष्य की अनिश्चितता जीवन की एक सच्चाई है और जीने का प्रमुख आकर्षण, कुतूहल और रोमांच भी. बल्कि किसी ने कहा है कि सच्चाई कल्पना से भी ज्यादा विलक्षण होती है.

आखिर एक मेज खाली हुई और मित्रों का लंच शुरू हुआ. बातचीत अब गुजराती? व मराठी पाककला पर केंद्रित थी. खाने के बाद मीठा पान प्रस्तुत किया गया. बिल चुका कर तीनों यात्री महानगर की ओर चल दिए. तब तक शायद तुंगार्ली की लकड़ी ढोने वाली महिलाएं भी घर पहुंच कर भोजन कर चुकी होंगी. उन का भोजन बिलकुल अलग ढंग का होगा हालांकि कड़ी मेहनत के बाद स्वादिष्ठ जरूर लगा होगा. सब दिन एक से नहीं होते. आज नहीं तो कल देश की प्रगति में उन का न्यायपूर्ण हिस्सा उन्हें मिलेगा और कोई सुबह उन के जीवन में संपन्नता की बहार जरूर लाएगी.

गाड़ी अब एक्सप्रैसवे पर सरपट दौड़ रही थी. एफएम रेडियो पर नएपुराने गीत बज रहे थे. उन में यह सुप्रसिद्ध गीत भी था- ‘जिंदगी कैसी है पहेली, कभी तो हंसाए, कभी यह रुलाए…’ हम सामान्य लोग कुछ अधिक नहीं तो अपने कर्मों से किसी न किसी तरह दूसरों के जीवन को बेहतर जरूर बना सकते हैं. शायद, यही मानवीयता का सार है.

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