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Population : उत्तरी राज्य और दक्षिण राज्य

Population : उत्तरी राज्यों में जनसंख्या ज्यादा बढ़ने और दक्षिणी राज्यों में कम बढ़ने से लोकसभा की सीटों के लिए होने वाले परिसीमन से दक्षिण के राज्य चिंतित हैं क्योंकि उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में सीटें बढ़ जाएंगी जबकि तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तेलंगाना में उस तरह नहीं बढ़ेंगी. गृहमंत्री से यह तो कहलवाया गया है कि दक्षिणी राज्यों की सीटें कम नहीं होंगी लेकिन उत्तरी राज्यों में जरूरत से ज्यादा नहीं बढ़ेंगी, ऐसा आश्वासन नहीं दिलवाया गया है.

धर्मभीरुओं, गौभक्तों व आरएसएस के गढ़ उत्तरी राज्यों में जनसंख्या ज्यादा बढ़ रही है जबकि दक्षिणी राज्यों में आर्थिक उन्नति ज्यादा हो रही है. उत्तरी राज्य पैसा मंदिरों और धार्मिक कामों में गंवा रहे हैं. उत्तरी राज्यों में अभी भी हिंदूमुसलिम, दलितसवर्ण, यादवकुर्मी विवादों में सिर फोड़े जा रहे हैं और दक्षिणी राज्य फैक्ट्रियां लगा रहे हैं, बढि़या शिक्षा संस्थान खड़े कर रहे हैं, अस्पताल बनवा रहे हैं, अनुशासित हैं, ज्यादा सभ्य हैं.

उत्तर व दक्षिण की यह लड़ाई टेढ़ा मोड़ न ले ले, यह डर सताने लगा है. दक्षिण के नेताओं की अब केंद्र की राजनीति पर पकड़ बहुत कम रह गई है. केंद्र की शक्ति अब सिमट कर उत्तर प्रदेश और गुजरात जैसे 2 राज्यों के नेताओं के हाथों में रह गई है. दक्षिणी राज्यों पर उत्तरी राज्यों के नेताओं के फैसले थोपे जा रहे हैं चाहे मामला शिक्षा में भाषा का हो या जीएसटी और आय कर के बंटवारे का.

एक जमाना था जब भरभर के दक्षिणी राज्यों के मजदूर और शिक्षित लोग उत्तरी राज्यों में सरकारी व गैरसरकारी नौकरियां करने के लिए आते थे. अब तो दक्षिणी राज्यों में बिहारी और उत्तर प्रदेश के मजदूर जा रहे हैं क्योंकि जब उत्तर के राज्य मंदिर बनाने में लगे थे तब दक्षिण भारत के लोग अपने को स्वावलंबी और शिक्षित बनाने में लगे थे.

वहां भी ब्राह्मणवाद था, वहां भी जातिवाद था पर फिर भी वहां उदारता की लहर भी थी. सदियों तक वहां पिछड़े वर्गों के राजाओं के साम्राज्य पनपे थे जिन्होंने कभी कट्टरता को लागू किया तो कभी उदारता दर्शायी. वहां चेतना पहले जागी पर वह चेतना ब्राह्मणवादी नहीं, खुद को सुधारने की थी. नतीजा यह हुआ कि चेन्नई, बेंगलुरु, हैदराबाद, त्रिवेंद्रम जैसे छोटे शहर धीरेधीरे विशाल मैट्रो बन गए जिन का उत्तर के शहरों से ज्यादा अच्छा प्रबंध हो रहा था.

वहां जनसंख्या नियंत्रण हुआ, वहां रामचरितमानस की गंध नहीं फैली. आज दक्षिणी राज्यों की आर्थिक उन्नति से उत्तर भारत के राज्य जल रहे हैं और लोकसभा में उन का स्थान और महत्त्व कम करने का प्रयास कर रहे हैं. वे विघटन का बीज बो रहे हैं. हालांकि विघटन तो नहीं हो सकता लेकिन खटपट चलती रहेगी. भारत की समृद्धि अब दक्षिणी राज्यों पर निर्भर है और उन्हें विवादों में फंसा कर दिल्ली की केंद्र सरकार अपना उल्लू सीधा करना चाह रही है.

Emotional Story : इंसाफ की सीवन

Emotional Story : ‘बालात्कार की मारी युवती को कोर्ट के अहाते में चाय की दुकान चलाने वाली से कैसा सहारा मिला?

“यहां बैठ जाऊं, चाची?” रेखा ने चबूतरे पर चाय की दुकान सजाए एक बुजुर्ग औरत से कहा.

“चाय पीनी है?” बुढ़िया ने बिना उस की ओर देख सवाल किया.

“पैसे नहीं हैं मेरे पास.”

“फिर काहे मेरी दुकान की जगह घेरनी है?”

“ठीक है नहीं बैठती,” इतना कह कर रेखा वापस मुड़ गई.

बुढ़िया ने उस की ओर नजर उठाई.पीला सलवारकुरता पहने एक लड़की पीठ फेरे खड़ी थी. रोज कोर्ट में कई लोगों को आतेजाते देख उस की आंखों ने उन्हें तोला है, लेकिन यह लड़की कुछ अलग थी.

“रुक, बैठ जा,” बुढ़िया बोली.

रेखा ने अपना झोला चबूतरे पर रख दिया और पैर ऊपर कर बैठ गई.बुढ़िया की निगाहें उस का ऐक्सरे करने लगी. चौड़े माथे वाली दुबलीपतली गेहुंए रंग की यह लड़की कुंआरी है या शादीशुदा, पता नहीं चल रहा था. वह चुपचाप अपने में खोई कोर्ट में आतेजाते लोगों को देख रही थी.

“2 चाय बना दे हसीना,” अपना नाम सुन कर बुढ़िया की नजर ऊपर उठी.

“अदरक वाली या बिना अदरक वाली?”

“डाल दे अदरक भी. पैसे कौन सा अपनी जेब से लगने हैं.”

“हां, बेचारे गरीबों की जेब से निकालते हो तुम नाशपीटे काले कोट वाले,” हसीना ने मुंह बनाते हुए कहा.

“तेरी दुकानदारी भी तो इन से ही चल रही है चाची,” आदमी ने कहा.

“चलचल, अपनी चाय ले और बातें न बना,” हसीना ने मुंह बिचका कर कहा. आदमी हंसते हुए चुपचाप चाय ले कर वहां से चला गया.

रेखा का ध्यान हसीना की ओर चला गया जोकि चाय के भगोने से जमी हुई पत्ती खुरच रही थी. रेखा को अपनी ओर देखती हसीना के हाथ रुक गए. रेखा की आंखों में कुछ तो था जो उसे झिंझोड़ रहा था.

“मुझे क्यों घूर रही है बीवी? चाय पीने हैं तो बना दूं. मत देना पैसे,” हसीना ने कहा.

“नहीं, चाची रहने दो. मैं… बस…” कुछ झिझक के साथ रेखा बोलतेबोलते रुक गई.

“अरे बता दे…क्या पता कुछ मदद कर दूं. ये काले कोट वाले मानते हैं मुझे. वकील के लिए आई है क्या?” हसीना ने उसे कुरेदते हुए पूछा.

“चाची…मुझे कल फिर यहां आना है.. ठहरने के लिए कोई…” रेखा की आवाज में डर था.

“कहां रहती है तू?” हसीना ने पूछा.

“बलरामपुर.”

“अरे, इस समय तुम वापसी भी नहीं कर सकतीं. दूर बहुत है बलरामपुर. अकेले क्यों आई कोर्ट में. कोई है नहीं क्या?” हसीना ने रेखा से कुछ तेज आवाज में कहा. रेखा बिना कुछ बोले वहां से उठ गई.

“अरे, खड़ी क्यों हो गई? बैठ जा. मेरी बात बुरी लग रही है तो कुछ नहीं पूछूंगी. आज रात चाहे तो मेरे पास रुक जा,” हसीना बोली.

“न चाची, मैं कर लूंगी कुछ,” इतना कह कर रेखा आगे बढ़ गई. हसीना उसे जाते देखती रही. तभी एक ग्राहक चाय के लिए आया तो वह अपने काम में फिर से मसरूफ हो गई.

शाम का धुंधलका छाने लगा था. कोर्ट के बस्ते बंद होने लगे. हसीना भी अपनी दुकान को समेट कर एक बोरे में भरने लगी. हसीना को बारबार रेखा का खयाल आ रहा था. शाम की ओर देखती हसीना अनजान चिंता अपने दिल में बैठाए जा रही थी. बोरे को सिर पर उठाए हसीना कोर्ट के गेट के बाहर थी. 4 कदम ही चली थी कि सड़क पर बने चबूतरे पर गठरी बनी रेखा को देख चहक सी गई,”मुई, यहां क्या कर रही है? गई क्यों नहीं?” हसीना ने लगभग डांटते हुए पूछा. रेखा ने गरदन उठा कर हसीना की तरफ देखा. बिना जवाब दिए वापस घुटनों में सिर दे कर बैठ गई.

“तुझ से पूछ रही हूं, यहां क्यों बैठी है?” हसीना ने जोर दे कर कहा.

“मैं…बैठ गई,” रेखा ने गरदन उठा कर जवाब दिया.

“हां, दिख रही है कि बैठ गई लेकिन यहां क्यों बैठ गई? रात में इंसान के भेष में घूमते भेङिए तेरी देह नोंच खाएंगे. चल उठ, यह बोरा उठा कर चुपचाप पीछे आ,” हसीना ने सख्ती से आदेश देते हुए कहा.

एक पल को रेखा अचकचा गई लेकिन फिर उठ कर बोरे को अपने सिर पर रख ली. हसीना आगे बढ़ने लगी और रेखा उस के पीछे. 15-20 मिनट बाद वे लोग एक छोटे से घर के सामने खड़े थे. अपनी कुरती की जेब से चाबी निकाल हसीना ताला खोलने लगी और रेखा आसपास के माहौल को ताकने लगी.

“चल, आजा भीतर,” दरवाजे को धकेल अंदर घुसते हुए हसीना ने कहा. रेखा चुपचाप अंदर जा कर बोरा नीचे रख खड़ी हो गई.

10 मिनट बीते होंगे, हसीना हाथ में थाली पकड़े भीतर आई और रेखा के सामने कर के बोली, ले यही है, खा कर पेट को तसल्ली दे.”

“मुझे भूख नहीं है चाची,” रेखा ने प्यार से जवाब दिया.

“भूख नहीं है? बावली समझ रखा है क्या? सूखी रोटियां कैसे खाऊं, यही सोच रही है न?”

“नहीं चाची, मैं ऐसा नहीं सोच रही. जाने क्यों भूख नहीं लग रही.”

“चल समझ गई. तेरे मजहब की नहीं हूं न इसलिए नहीं खा रही,” हसीना कुछ अनमनी सी बोली.

“अरे, ऐसा क्यों सोच रही हो चाची? लाओ, खा लेती हूं लेकिन आप भी आओ,” रेखा ने थाली अपने हाथ में ले कर कहा और रोटी से टुकड़ा तोड़ कर हसीना की ओर बढ़ा दिया.

“अरी खा ले बावली, मैं खुद ले लूंगी.”

हसीना ने उस के कंधे पर धौल जमाते हुए कहा और चारपाई पर बैठ गई.
“भूख भी कैसी बीमारी है न चाची, इलाज ही नहीं है किसी के पास. दुख हो तो भी रोटी चाहिए और सुख हो तो भी.”

“सही कहती है रे. पेट की आग ऐसी ही है…चल बातें बाद में करना. यह थाली भीतर बावर्चीखाने में रख आ और पड़ जा. थक गई होगी काले कोट वालों के चक्कर काटते,” चारपाई पर लेटते हुए हसीना बोली.

“मुझे थकान नहीं होती. हो ही नहीं सकती,” रेखा उठ कर भीतर जाते हुए बोली.

“क्यों इस छटांक भर जिस्म में मशीन फिट कर दी किसी ने,” हसीना बोली. वापस आ कर रेखा चाची के पास जमीन पर ही बैठ गई.

“तू किसलिए कोरट के चक्कर काट रही है? तेरे घर में कौन है?” हसीना के सवाल पर रेखा ने ठंडी सांस भरी. वह चुपचाप हसीना को देखने लगी.

“क्या देख रही है मुई, इस चेहरे पर दुख के सिवा कुछ नहीं दिखेगा.”

“वही देख रही हूं चाची. जाने क्यों तुम्हारे चेहरे पर छाया दुख अपना दुख लगता है. बेलोस सा, नकटा सा,” रेखा ने कहा.

“दुख नहीं नासूर है मेरी जिंदगी का. रोज खरोंच देती हूं ताकि खुरंट न जमे. जम गया तो भूल न जाऊंगी इस दुख को,” हसीना ने सिरहाने रखी एक तसवीर को उठा कर सीने से लगा लिया. कमरे में गहरे कुएं सा सन्नाटा फैल गया. दोनों अपनी आंखों में सुई गाड़तीं जैसे कुछ कुरेद रही थीं.

“तू बता, जरा सी उम्र में क्यों कोरट के चक्कर में पड़ गई? घर में कौन है तेरे?” हसीना ने कुएं में जैसे पत्थर फेंका.

“कहने को सब हैं काकी. फिर भी कोई नहीं,” इतना कह कर रेखा हंस पड़ी.

” कोई नहीं होता…कौन होता है अपना…हा…हा…हा…अपना सब दे कर भी किसी को अपना नहीं बना सकते,” रेखा के बोलने और हंसने की रफ्तार बढ़ती जा रही थी. हसीना उस के चेहरे पर छाई मलीनता को देख सिहर सी गई. रेखा हंस रही थी लेकिन आंखों से पानी बह रहा था.

“होश में आ बीबी, क्यों हंस रही है? होश में आ,” हसीना ने उसे जोर से झिंझोड़ा. रेखा एकदम चुप हो हसीना को देखने लगी फिर जोर से रोना शुरू कर दी. हसीना उस के करीब आ कस कर अपने सीने में रेखा को भींच ली. कमरे में जलता बल्ब और खिड़की पर रेंगता परदा भी जैसे रेखा के रोने से बेचैन थे. वह हसीना के सीने से लगी रोती रही और हसीना उस की पीठ को सहलाती रही. कहने को 2 अनजान औरतें थीं लेकिन जैसे आंसू एक थे दोनों के. हसीना को रेखा के दिल में चलती धड़कनें भी टूटी लग रही थीं.

कहते हैं, औरत समुद्र बन जाती है क्योंकि दुनिया के दिए दुखों के तरल को पी कर वह जिंदा रहती है. अनुभव का खारापन और ठोकरों का लवण उस के समुद्र में जीवाश्म इकट्ठा करते हैं. यह जीवाश्म उस की यादों के हैं.

“मैं ठीक हूं चाची. आप सो जाओ…मैं ठीक हूं,” रेखा अपनी आंखों को साफ करती हसीना से कुछ दूर सरक गई.

“सो जाऊंगी. वैसे भी बुढ़ापे में नींद किसे आती है. तेरी आंखों में लिखी इबारत पढ़ने की कोशिश कर रही थी. हो सके तो बता दे मुई. हलका हो जाएगा मन,” हसीना ने रेखा के सिर पर हाथ फेर कर कहा.

“क्या बताऊं काकी, औरत के पास बताने के लिए है ही क्या? दुनिया उस के बारे में इतना बता चुकी होती है कि दुनिया के किस्से ही हमारी सचाई बन जाते हैं…क्या बताऊं बताओ…” रेखा दुखी हो कर बोली.

“दुनिया निगोड़ी को चूल्हे में डाल. मुझे देख, 20 साल से अपने बेटे के सम्मान के लिए लड़ रही हूं. रोज मरती हूं, रोज जीती हूं लेकिन हिम्मत नहीं हारी. इस दुनिया ने तो मेरे माथे पर लिख दिया आतंकवादी की मां, लेकिन मैं जानती हूं कि मेरा अकरम ऐसा नहीं कर सकता था. वह आतंकवादी नहीं था और यह मैं साबित कर के रहूंगी,” हसीना के शरीर में कंपन होने लगी. अकरम की तसवीर को सीने से लगाए बुदबुदाने लगी,’मुझे यकीन है अपनी कोख पर. मेरी औलाद गद्दार नहीं. नहीं है गद्दार. तू देख लेना अकरम, मैं तेरे माथे का कलंक हटा कर रहूंगी, हटा कर रहूंगी,’ हसीना की बड़बड़ाहट धीरेधीरे कम होने लगी और वह नींद में चली गई. रेखा हसीना के मासूम चेहरे को निहारने लगी. वह एक बच्ची सी लग रही थी.

रात आगे बढ़ रही थी. रेखा की पलकें बोझिल होने लगीं और वह जमीन पर ही लेट गई. अभी कुछ देर ही हुई थी कि किसी ने उसे जोर से झिंझोड़ा.

“उठउठ…सो गई क्या?” रेखा ने आंखों को खोल कर देखा तो हसीना उस के सिर के पास ही बैठी थी.

“क्या हुआ चाची, सुबह हो गई क्या?” रेखा ने चारों ओर देख कर कहा.

“नहीं, सुबह नहीं हुई. पहले यह बता तू है कौन और यहां कैसे आई?” हसीना के सवाल पर रेखा चौंक पड़ी.

“आप ही लाई थीं मुझे अपने साथ. कोर्ट से,” रेखा ने हसीना को बताया तो हसीना माथा पकड़ कर बैठ गई.

“अच्छा, याद आया लेकिन तू कोरट क्यों आई थी और तू है कौन?”

“बलरामपुर में रहती हूं. कोर्ट में अपने केस की तारीख पर आई थी,” रेखा ने कहा.

“तो अकेली आई थी? घर में कोई नहीं तेरे, मांग में तो सिंदूर भी नहीं दिख रहा है…” हसीना एकसाथ अनेक सवाल कर गई.

“अकेले की लड़ाई है. अकेली ही लडूंगी. मेरी इज्जत की लड़ाई. मेरे स्वाभिमान की लड़ाई,” रेखा हांफते हुए बोली.

“क्या बीता तेरे साथ. कुछ तो बता पगलिया,” हसीना उस के पास उकङूं बैठ गई.

“16 साल की थी जब ब्याह दिया था मुझे. 10 साल बड़ा था मेरा मरद. एक हाथ छोटा था उस का. टुंडा कहते थे सब उसे. मेरी जान जलती थी यह सुन कर लेकिन कुछ कह नहीं पाती थी,” रेखा की आंखें जुगनू से चमक उठे.

“तुम्हें पता है चाची, प्रेम बहुत करता था मुझे. 2 साल तक मुझे छुआ भी नहीं. भला बहुत था वह,” रेखा अचानक चुप हो गई.

“था मतलब? अब भला नहीं रहा?” हसीना ने हैरानी से पूछा.

“जिंदा ही नहीं रहा तो भला कैसे रहेगा?” रेखा लड़खड़ाती जबान से बोली.

“कुछ समझ नहीं आ रहा था. ठीक से बता रे,” हसीना डपटते हुए बोली.

“मेरे पति का कत्ल हुआ था. मार डाला था उस के अपनों ने,” इतना कह रेखा जोरजोर से रोने लगी.

“हाय, यह क्या कह रही है तू. कौन अपने?” हसीना के कान गरम हो उठे.

रेखा अपनी गुजरी जिंदगी में लौट आई. संतोष था उस के पति का नाम. नाम के अनुरूप संतोषी. वरना कौन पागल अपनी पत्नी को 2 साल तक इसलिए हाथ न लगाए क्योंकि वह नाबालिग है. संयोग रेखा को एक सुंदर संसार में ले आई थी जहां वह थी, संतोष था और थे संतोष के सपने, रेखा को पढ़ाने के सपने. पिता के मरने के बाद संतोष घर का मुखिया बन बैठा. पढ़ाई को किनारे कर के खर्चों के लिए दिनरात खेत में जुट गया. एक हाथ कुछ छोटा था संतोष का लेकिन हिम्मत छोटी नहीं थी. परिवार के विरोध के बाद भी रेखा को हाईस्कूल का फौर्म भरवा पढ़ने को प्रेरित करता रहा. वह भी संतोष के दिखाए सपने को आंखों में सजा आगे बढ़ने लगी. प्रथम स्थान ले कर हाईस्कूल की परीक्षा पास कर संतोष के दिल में सपनों के पेड़ को रोंप आई.

सास की आंखों में रेखा का पढ़ना आवारागर्दी थी और इसलिए रातदिन उसे कोसती रहती. पर रेखा संतोष का साथ पा कर हंसती रहती. दोनों ननद की शादी और 12वीं की परीक्षा. हर काम को उत्साह से करती रेखा. 12वीं में भी अव्वल आई. संतोष का मन उसे स्नातक कराने का था लेकिन यह इतना सरल नहीं था. घर में महाभारत छिड़ गई. संतोष ने अपना चूल्हा अलग कर लिया. यहीं से शुरुआत हुई उस के जीवन में काले अंधेरे की. रेखा को दुश्मन मान सास और देवर उसे संतोष से दूर करने की कोशिशें करने लगे.

वह काली रात थी जब रेखा को पैर मुड़ने के कारण मोच आ गई और वह रसोई में नहीं जा पाई. संतोष ने जैसे ही रसोई में कदम रखा तेज बिजली के झटके से नीचे गिर पड़ा. उस की चीखें रेखा के कानों में अब भी सुनाई देती है. वह बच गई लेकिन संतोष चला गया.

“उसे मारा था.. मारा था…मुझे कभी पता नहीं चलता अगर उस रात वह…बबलू…वह बबूल…मुझ से जबरदस्ती न करता,” रेखा की आंखों के सामने बबलू का बीभत्स चेहरा चमकने लगा.

संतोष को गए 2 महीने ही हुए थे. उस रात बबलू उस के कमरे में आया और जबरन गले लग गया. अपने को बचातीभागती रेखा के कानों में लावा उतर गया जब बबलू ने करंट वाली बात कबूली.

“देख रेखा, चुपचाप मुझे खुश कर दे वरना तेरा हसर भी तेरे पति जैसा कर दूंगा,” बबलू ने दांत पीसते हुए कहा.

“मतलब, तू कहना क्या चाहता है? बोल कमीने,” रेखा उस के कौलर को खींच कर बोली.

“मतलब यह कि करंट तेरे लिए था लेकिन ले गया संतोष को. सब तेरी वजह से हुआ. मेरा भाई तेरी वजह से मरा,” इतना कह बबलू रेखा को दबोच कर चारपाई पर गिरा दिया और उस के मन और तन दोनों को तोड़ दिया.

अपनी अस्मिता को लुटता देख कर भी रेखा कुछ नहीं कर पाई. उस का दिमाग झुलसे संतोष के जिस्म के दर्द से करहाने लगा. वह पड़ी रही निष्क्रिय हो कर.

“मुझे गंदा कर दिया था उस ने. मेरा शरीर मेरे पति का था लेकिन बबलू…उस हरामी ने मुझ से मेरा सब छीन लिया,” हांफने लगी रेखा.

“तेरी सास कहां थी? उस ने क्यों नहीं रोका उस दरिंदे को,” हसीना की आत्मा तड़प उठी.

“सास नहीं है वह. राक्षसी है. बस, जीवन में एक अच्छा काम किया. मेरे पति को पैदा किया. वह चुप रही. अपनी औलाद को समर्थन देती रही. 3 दिन लगातार वह मुझे नोंचता रहा. उस रात जब वह आया मैं ने उस की मर्दानगी पर लात मार दी और निकल आई घर के बाहर.

“मैं चिल्ला रही थी. भीड़ भी लगी थी लेकिन मुझे कुलक्षिणी साबित कर दिया. मुझ पर बबूल पर झूठा आरोप लगाने का इलजाम डाल दिया उस औरत ने जो मेरी सास थी. मेरा पति छीन लिया, मेरी इज्जत छीन ली. अब तो अपनी लाश ढो रही हूं न्याय की उम्मीद लिए. कोई नहीं है मेरा. कोई नहीं,” रेखा की जबान से निकले शब्द लावे से बह कर हसीना के दिल को फूंकने लगे. वह देर तक रेखा के चेहरे को देखती रही. फिर उस के हाथों को अपने हथेलियों में ले कर बैठ गई. रेखा सुबक रही थी और हसीना उस के दुख में बह रही थी.

कमरे में रेखा की सिसकियों की आवाज और सड़क पर कुत्ते के रोने की आवाज अजीब सी स्थिति पैदा कर रही थी.

“अब थम जा. रोक ले इन आंसुओं को. लड़ने के लिए जान चाहिए शरीर में. और तू तो अपने को ही मारे जा रही है. चुप हो जा मेरी लाडो,” हसीना उसे समझाते हुए बोली.

“जीने की इच्छा नहीं है, चाची. बस, संतोष को न्याय दिला दूं. उस की मौत उस की पत्नी के इज्जत के लुटेरे को सलाखें दिलवा दूं, फिर चाहे मौत तुरंत ले जाए मुझे,” रेखा बोली.

“न्याय इतनी जल्दी नहीं मिलती मेरी बच्ची. मुझ बुढ़िया को देख. सालों से इंसाफ के लिए जी रही हूं. अपनी औलाद के माथे लगे कलंक को धोने के लिए न जाने कितनी रातें जाग कर गुजारी हैं लेकिन उम्मीद नहीं खोई. जीत मेरी होगी यकीन है और सुन, तू आज से अकेली नहीं है. मैं हूं तेरे साथ, तेरी चाची, तेरी मां,” इतना कह हसीना ने उस के माथे को चूम लिया.
अपनत्व के स्पर्श से रेखा के मन का विलाप तसल्ली पाने लगा. वह बच्ची की तरह हसीना की गोद में सिर रख कर लेट गई. हसीना उस के बालों को उंगलियों से सहलाने लगी.

“चाची, मैं गलत तो नहीं कर रही न? उन दरिंदों का संतोष के साथ खून का रिश्ता था. मेरा संतोष मुझ से नाराज तो नहीं होगा न?” रेखा धीरे से बोली.

“न पगली, अगर उन्हें माफी मिल गई तो तेरा संतोष मर कर भी खुश नहीं रहेगा. उस के कातिल हैं वे. इंसाफ दिला तू संतोष को. जीत कर दिखा,” हसीना बोली.

“हां, चाची मैं जीतूंगी…मैं संतोष को दुखी नहीं होने दूंगी. मैं जीतूंगी,” रेखा के स्वर की दृढ़ता बाहर उगते सूरज की तरह रौशनी लिए थी. उजाला हो रहा था मगर 2 दुखिया बैठी अपनेअपने दुख सी रही थी.

Best Hindi Story : मकान को घर बनाने वाली का कोना कौन सा ?

Best Hindi Story : “क्या सोनम, आजकल तुम बहुत देर करने लगी हो सोने में?” नवीन ने चिढ़ते हुए कहा.

सोनम बोली, “मैं फिल्म देख रही थी, लाइव शूटिंग, बगीचे में हीरोहीरोइन बैठे रोमांस कर रहे हैं… उम्र हमारी है. मजे ये ले रहे हैं, हा… हा… हा…”

“क…क…क…क्या मतलब है तुम्हारा? किस की बात कर रही हो?” नवीन किसी पड़ोसी को समझ कर हंसते हुए बोला.

“और कौन…? तुम्हारे मम्मीपापा आजकल सींग कटा कर बछड़ों में शामिल हो रहे हैं,” सोनम ने हंसी उड़ाते हुए कहा.

“आओ… चुपचाप चलो मेरे साथ गैलरी में, दबे पांव देखना. हद कर दी है, उम्र पचपन की दिल बचपन का,” सोनम बोली.

“अरे यार, उन को छोड़ो,
अपनी बात करो. वे दोनों तो सठिया गए हैं बुढ़ापे में, लैलामजनू बन रहे हैं,” नवीन ने उखड़े स्वर में कहा.

फिर औफिस बैग से एक बौक्स निकाल कर पूछा, “इस नेकलेस की डिजाइन कैसी लग रही है?”

“लवली,” सोनम अदा से बोली.

नवीन ने उस के गले में पहना कर हीरो राजकुमार के अंदाज में कहा, “आप के पैर बहुत खूबसूरत हैं, इन्हें जमीन पर मत रखिएगा,” और धीरे से उस के गालों पर एक जोरदार किस दे दिया.

तब तक अशोकजी ने नवीन को फोन लगाया.

“हुंह बजने दो,” सोनम मुंह बिचका कर बोली, “स्विच औफ कर दो.”

“अब इन लोगों के पैर बिना गाड़ी नहीं चलते, जब से घर में रहने लगे हैं, न किटी हो पाती है इधर और न ही कोई आता है. कहीं आओजाओ तो भी देर लगने का हिसाब दो…” सोनम उस के और करीब बैठ गई और दीवार पर लगी शादी की तसवीर को ध्यान से देखने लगी.

सोनम बोली, “नवीन, कौन कहेगा हमारे 2 बच्चे हैं. अब भी तुम पहले जैसे ही रोमांटिक हो…”

नवीन मुसकराते हुए बोला, “क्यों न हो, जिस की पत्नी इतनी सुंदर हो,” और नवीन ने एक बार फिर उसे अपनी बांहों के घेरे में ले लिया.

सोनम प्यार से देखते हुए बोली, “नवीन, यह नेकलेस काफी महंगा लग रहा है…?”

नवीन हंसते हुए बोला, “होने दो. तुम ने ये डिजाइन पसंद की थी, तो लाता कैसे न…”

“लेकिन, पापाजी ने कल घर के खर्च में सहयोग करने को कहा था, तो तुम ने तनख्वाह न मिलने का बहाना किया था… पर, अब क्या कहोगे, अगर इस हार के बारे में पूछा तो?” उस ने उलझन में पड़ते हुए कहा.

“तो… अब पापा रिटायर हैं. इतनी पैंशन है, कहां खर्च करेंगे इतनी रकम…?”

“यार, हम लोगों पर ही खर्च होगी. जैसे पहले चल रहा था, सब वैसे ही चलने दो…”

“क्या चलने दूं, जब से पापा रिटायर हुए हैं, तब से मम्मी ने घर के काम मे इंट्रैस्ट लेना कम कर दिया है…

“पहले मैं कितना घूम लेती थी, लेकिन अब तो रोज उन को साथ ले कर कहीं न कहीं घूमने चले जाते हैं, वरना दिनभर बगीचे में झूले पर बैठे रहेंगे.”

“चलो, मूड मत खराब करो. सो जाओ,” और जब अगले दिन उन की आंख खुली, तो कमरे के दरवाजे पर कोई तेज दस्तक दे रहा था…

“सुबह के साढ़े 8 बजे हैं… अब तक तो पीहू के स्कूल का टाइम हो जाता है…” सोनम ने बौखलाहट से कहा.

“अरे यार, मम्मीपापा को सुख लेने दो दादादादी बनने का,” नवीन चिढ़ कर बोला.

मगर, जब दस्तक बढ़ती गई, तो नवीन को दरवाजा खोलना ही पड़ा, सामने उस की बेटी पीहू खड़ी थी…

उस ने चौंक कर पूछा. “अरे, पापा की जान आज स्कूल नहीं गई…”

“नो पापा, आज दादी के पैर में चोट लग गई है,” दादू उन को दवा लगा रहे हैं, गार्डन में… उन्हें गाड़ी की चाभी चाहिए…”

नवीन हड़बड़ाहट में चाभी देने बाहर निकला, तो उस ने देखा कि उस के पिता अशोकजी बगीचे में लगे हुए झूले में बैठे हैं और अपनी पत्नी प्रभा के पैरों में दवा लगा रहे हैं…

वे बड़ी अदा से कह रहे थे, “आप के पांव देखे, बहुत खूबसूरत हैं जमीन पर मत रखिएगा. और वे शरमाई जा रही थीं…

उन दोनों को एकसाथ बैठे देख कर नवीन थोड़ा कुढ़ते हुए बोला, “पापा, आज पीहू स्कूल क्यों नहीं गई?”

अशोकजी ने उत्तर दिया, “क्योंकि वह तुम्हारी और बहू की जिम्मेदारी है, रातभर हम दोनों को कुशल (नवीन के बेटे) ने सोने नहीं दिया… कल गाड़ी की चाभी भी नहीं दी. फोन किया तो उठाया नहीं…

“बरखुरदार, अब तुम दोनों सिर्फ पतिपत्नी ही नहीं, मांबाप भी हो…”

नवीन उलटे पैर पटकते हुए अपने कमरे में गया और बोला, “सोनम, तुम सच कह रही थी… पापामम्मी हद किए रहते हैं आजकल… चाय लाओ…”

सोनम रसोईघर में गई तो देखा, वहां कुछ भी नहीं बना हुआ था. उस का मूड और खराब हो गया. वह अपने कमरे में लौट गई…

तभी सोनम की मां का फोन आ गया. वह बिफर कर बोली, “क्या बताऊं मम्मी, आजकल तो बासी कढ़ी में भी उबाल आया हुआ है. जब से पापाजी रिटायर हुए हैं, दोनों लोग फिल्मी हीरोहीरोइन की तरह दिनभर अपने बगीचे में ही झूले पर विराजमान रहते हैं… न अपने बालों की सफेदी का लिहाज है, न बहूबेटे का. इस उम्र में दोनों मेरी और नवीन की बराबरी कर रहे हैं…”

तब तक हाथों में चाय की केतली लिए हुए चाय पीने के लिए सोनम को पूछने आई प्रभाजी उस के कमरे की तरफ बढ़ीं, पर उदास मन से रसोई में दाखिल हुईं. उन्होंने सुन सब लिया था, पर नजरअंदाज करते हुए खामोशी से 2 कप में चाय ले गईं और सोनम को भी उसी के कमरे में दे दी.

उन्हें अशोकजी के लिए चाय ले जाते देख उन की बहू सोनम के चेहरे पर फिर से व्यंग्यात्मक मुसकान तैर गई. पर, वह नजरअंदाज कर सिर झुकाए निकल गईं. पति के रिटायर होने के बाद कुछ दिन से उन की यही दिनचर्या हो गई थी…

अशोकजी की इच्छानुसार अच्छे से तैयार हो कर अपने घर के सब से खूबसूरत हिस्से अपने पेड़पौधों के साथ बैठना, क्योंकि सारी उम्र तो उन की बच्चों के लिए जीने में निकल गई थी. उन का कहना था कि बच्चों को उन की जिम्मेदारी उठाने दो, बस वाजिब सहयोग करिए…

पांडेय विला… दोमंजिला कोठीनुमा घर अशोक और प्रभा का जीवनभर का सपना था, बड़ा खूबसूरत लगता देखने में, उस पर वातावरण भी बेहद सुरम्य…

20 बाई 20 गज की कच्ची जगह भी थी उस घर में बाहर, जहां था प्रभा के सपनों का बगीचा… बेला के पौधे, हरसिंगार का घनेरा पेड़, अंगारों सा दहकता गुड़हल का पेड़ और छोटा सा टैंक, जिस में कमल के फूल खिले रहते…

जाड़े में तो रंगबिरंगे फूल डहेलिया, गुलाब, पैंजी और तमाम किचन गार्डन की सब्जियां चार चांद लगा देतीं देखने वाले की आंखों में और रसोईघर में भी. ताजा धनिया, पोदीना, मेथी की बहार रहती…

हर मौसम में घर खुशबू और सकारात्मक ऊर्जा से सराबोर रहता. उस पर वहां पड़ा झूला. जो भी वहां बैठ जाता तो उठने की इच्छा ही न होती उस की…

जाड़ों में वहीं तसले में आग जलती और भुने आलू, शकरकंद के मजे लिए जाते तो बरसात में सुलगते कोयलों पर सिंकते भुट्टे स्वर्ग के आनंद की अनुभूति करवाते…

अशोकजी ने वह जगह छुड़वाई तो प्रभा और अपने लिए कमरे के लिए थी, लेकिन संयोग ऐसा बना कि जिम्मेदारी ने उन्हें उस जगह का इस्तेमाल ही न करने दिया…

ऐसे में प्रभा ने अपने खाली समय और उस खाली जगह का इस्तेमाल इस बुद्धिमत्ता से किया कि वह कोना घर की जान बन गया…

उन का पूरा खाली समय वहीं बीत जाता. अब उन्हें उस जगह उन का कमरा न बन पाने का मलाल भी न था… पर प्रभा का अरमान था कि घर में झूला हो तो अशोकजी ने उसे वहां जरूर लगवा दिया…

पेड़ों से लगाव कुछ ऐसा हो गया कि फिर दोनों में से किसी की इच्छा उन के स्थान पर कमरा बनवाने की हुई ही नहीं…

पर वह और अशोक कभी एकसाथ उस जगह कम ही बैठ पाते, कभी प्रभा अनमनी होतीं तो अशोक बड़े जिंदादिल शब्दों में कहते, “पार्टनर रिटायरमैंट के बाद दोनों इसी झूले पर साथ बैठेंगे और खाना भी साथ में ही खाएंगे… हर शिकायत दूर कर देंगे. फिलहाल तो हमें बच्चों के लिए जीना है…

बच्चों के कैरियर पर सबकुछ बलिदान हो गया. अब बेटा भी अच्छी नौकरी में था और बेटी भी अपने घर की हो चुकी थी…

रिटायरमेंट के बाद घर में थोड़ी रौनक रहने लगी थी. अशोकजी को भी घर में रहना अच्छा लग रहा था. वे बड़े पद पर थे, तो कभी उन के कदम घर में टिके ही नहीं…

गांव से आ कर शहर में बसेरा बनाना आसान न था, लेकिन किसी तरह 400 गज जमीन कर ली. सहधर्मिणी प्रभा भी सहयोगी महिला थीं, तो मंजिल और आसान हो गई…

अब दोनों पतिपत्नी आराम के इन पलों को संजो लेना चाहते थे… उन के घर में जरूरी सब सुविधाएं भी थीं, फिर भी बहू सोनम को न जाने क्यों वह कोना सब से ज्यादा खटकता था…

अशोकजी जब से घर में रहने लगे थे, प्रभाजी को उन के काम करने पड़ जाते थे…

सोनम को भी अब अपने हिस्से के बहुत सारे वो काम करने पड़ जाते थे, जिन्हें प्रभाजी कर देती थीं, क्योंकि कोई भी बंधन न होने पर भी अशोकजी के घर में रहने से उसे घर का काम बढ़ा महसूस होता, क्योंकि बेटी बनने की आड़ में उस ने अपनी बेटी और बेटे का काम भी सास पर डाल दिया था.

दिनभर उस के साथ लगी रहने वाली प्रभा का अब थोड़ा समय अपने पति को देना उसे अखरने लगा था…

अकसर वह नवीन को उस के मातापिता के लिए ताने देने का कोई मौका न छोड़ती… ऊपर से सुविधाभोगी आदत पड़ गई थी तो उसे अशोकजी का उन की ही कार ले जाना खटका करता…

उस ने उस कोने से छुटकारा पाने के लिए नवीन को बांहों के घेरे में लेते हुए एक रास्ता सुझाते हुए कहा, “क्यों न हम बड़ी कार खरीद लें… नवीन.”

“वह कार तो लव बर्ड्स की ही हो गई है, टैक्सी महंगी पड़ती है…”

“आइडिया तो अच्छा है, पर रखेंगे कहां. एक कार रखने की ही तो जगह है घर में,” नवीन थोड़ा चिंतित स्वर में बोला.

“जगह तो है न, वह गार्डन तुम्हारा.. जहां आजकल दोनों लव बर्ड्स बैठते हैं,” सोनम थोड़े तीखे स्वर में बोली.

तब तक दूर से आते हुए अशोकजी को देख कर उस ने पैंतरा बदला.

“थोड़ा तमीज से बात करो,” नवीन क्रोध से बोला जरूर, पर उस ने भी अशोकजी से बात करने का मन बना लिया था.

अगले दिन वह कुछ कार की तसवीरों के साथ शाम को अपने पिता के पास गया और बोला, “पापा, मैं और सोनम एक बड़ी गाड़ी खरीदना चाहते हैं…”

“पर बेटा, बड़ी गाड़ी तो घर में पहले से ही है, फिर उसे रखेंगे कहां?” अशोकजी ने प्रश्न किया.

“यह जो बगीचा है, यहीं गैराज बनवा लेंगे. वैसे भी सोनम से तो इन की देखभाल होने से रही और मम्मी कब तक करेंगी?”

“इन पेड़ों को कटवाना ही ठीक रहेगा. वैसे भी ये सब जड़ें मजबूत कर घर की दीवारें कमजोर कर रहे हैं…”

प्रभा तो वहीं कुरसी पर सीना पकड़ कर बैठ गईं. अशोकजी ने क्रोध को काबू में करते हुए कहा, “मुझे तुम्हारी मां से भी बात कर के थोड़ा सोचने का मौका दो.”

“क्या पापा… मम्मी से क्या पूछना. वैसे भी इस जगह का इस्तेमाल भी क्या है?” नवीन थोड़ा गुस्सा होते हुए बोला.

“आप दोनों दिनभर इस जगह बगैर कुछ सोचेसमझे, चार लोगों का लिहाज किए बगैर साथ बैठे रहते हैं…

“कोई बच्चे तो हैं नहीं आप दोनों के. और अब घर में सोनम भी है, छोटे बच्चे भी हैं…

“पर, आप दोनों ने दिनभर झूले पर साथ बैठे रहने का रिवाज बना लिया है. और ये भी नहीं सोचते कि चार लोग क्या कहेंगे…

“इस उम्र में मम्मी के साथ बैठने के बजाय अपनी उम्र के लोगों में उठाबैठे करेंगे, तो वह ज्यादा अच्छा लगेगा, न कि यह सब,” कह कर वह दनदनाते हुए अंदर चला गया.

अंदर सोनम की बड़बड़ाहट भी जारी थी. अशोकजी भी एहसास कर रहे थे प्रभा के साथ अपनी ज्यादती का…

जब कभी पत्नी ने अपने मन की कही तो उन्होंने उन्हें ही सामंजस्य बिठाने की सीख दी… पर, आज की बात से तो उन के साथ प्रभाजी भी सन्न रह गईं, अपने बेटे के मुंह से ऐसी बातें सुन कर…

रिटायरमैंट को अभी कुछ ही समय हुआ था उन के, जिंदगी तो भागमभाग में ही निकल गई थी बच्चों के लिए सुखसाधन जुटाने में…

नवीन और सोनम ने उस शाम आदत के अनुसार खाना बाहर से और्डर कर दिया. पर, प्रभा से न खाना खाया गया और न उन्हें नींद आई…

नींद तो अशोकजी को भी नहीं आ रही थी और वो प्रभा की मनोस्थिति भी समझ रहे थे… किसी ट्रैफिक सिगनल पर खड़े सिपाही जैसी, जिस से हर रिश्ता बस अपनी ही तवज्जुह चाह रहा था. पर सोचतेसोचते सुबह, कुछ सोच कर उन के होंठों पर मुसकान तैर गई…

अगले दिन जब सो कर वह उठे तो देखा प्रभाजी सो रही थीं, पर बेचैनी चेहरे पर दिख रही थी… वह रसोई में गए और खुद चाय बनाई. कमरे में आ कर पहला कप प्रभा को उठा कर पकड़ाया और दूसरा खुद पीने लगे…

“आप ने क्या सोचा?” प्रभा ने रोआंसी आवाज में पूछा.

“मैं सब ठीक कर दूंगा. बस, तुम धीरज रखो,” अशोक बोले.

पर हद से ज्यादा निराश प्रभा उस दिन पौधों में पानी देने भी न निकलीं और न ही किसी से कोई बात की.

दिनभर सब सामान्य रहा, लेकिन शाम को अपने घर के बाहर ‘टूलेट’ यानी किराए के लिए का बोर्ड टंगा देख नवीन ने भौंचक्के स्वर में अशोकजी से प्रश्न किया, “पापा, माना कि घर बड़ा है, पर ये ‘टूलेट’ का बोर्ड किसलिए?”

“अगले महीने मेरे स्टाफ के मिस्टर गुप्ता रिटायर हो रहे हैं, तो अब वे इसी घर में रहेंगे,” उन्होंने शांत लहजे में उत्तर दिया.

हैरानपरेशान नवीन बोला, “पर कहां…?”

“तुम्हारे पोर्शन में,” अशोकजी ने सामान्य स्वर में उत्तर दिया.

नवीन का स्वर अब हकलाने लगा था, “और हम लोग…?”

“तुम्हे इस लायक बना दिया है. 2-3 महीने में कोई फ्लैट देख लेना या कंपनी के फ्लैट में रह लेना, अपनी उम्र के लोगों के साथ, वरना मुझे कानून का सहारा लेना पड़ेगा,” अशोकजी एकएक शब्द चबाते हुए बोले.

“हम दोनों भी अपनी उम्र के लोगों में उठेंगेबैठेंगे, सारी उम्र तुम्हारी मां की सब का लिहाज करने में निकल गई. कभी बुजुर्ग, तो कभी बच्चे. अब लिहाज की सीख तुम सब से लेना बाकी रह गया था.”

“पापा, मेरा वह मतलब नहीं था,” नवीन सिर झुका कर बोला.

“नहीं बेटा, तुम्हारी पीढ़ी ने हमें भी प्रैक्टिकल बनने का सबक दे दिया. जब हमतुम दोनों को साथ देख कर खुश हो सकते हैं, तो तुम लोगों को हम लोगों से दिक्कत क्यों है…?”

नवीन समझ गया कि उन दोनों की बातें उन के कानों में पड़ चुकी हैं.

“इस मकान को घर तुम्हारी मां ने बनाया, ये पेड़ और इन के फूल तुम्हारे लिए मांगी गई न जाने कितनी मनौतियों के साक्षी हैं, तो उस का कोना मैं किसी को छीनने का अधिकार नहीं दूंगा…”

“पापा, आप तो सीरियस हो गए,” नवीन का स्वर अब नरम हो चला था.

“न बेटा… तुम्हारी मां ने जाने कितने कष्ट सह कर, कितने त्याग कर के मेरा साथ दिया. आज इसी के सहयोग से मेरे सिर पर कोई कर्ज नहीं है… इसलिए सिर्फ ये कोना ही नहीं पूरा घर तुम्हारी मां का ऋणी है…

“घर तुम दोनों से पहले उस का है, क्योंकि जीभ पहले आती है, न कि दांत…

“औलाद होने का हम से लाभ उठाओ, पर तुम्हें मांबाप साथ में बुरे क्यों लगते हैं?”

“जिंदगी हमें भी तो एक ही बार मिली है… हम तुम्हें प्यार से रहते देख खुश होते हैं, तो तुम्हें हम क्यों खटकते हैं…”

“तकलीफ मुझे बहू से ज्यादा तुम से हुई. तुम्हें भी मेरी तरह अपनी पत्नी की ख्वाहिशों को पूरा करना चाहिए,” कह कर अशोकजी प्रभा के पास जा कर खड़े हो गए.

अशोकजी के इस कठोर फैसले ने सोनम और नवीन दोनों के होश उड़ा दिए.

वह मुंह लटका कर अंदर गया और सोनम को पापा के फैसले से अवगत कराया. उन के इस फैसले ने सोनम की नींद उड़ा दी. उस ने सब से पहले अपने मायके फोन कर के वस्तुस्थिति की जानकारी दी.

सोनम रोते हुए बोली, “हैलो मम्मी, पापाजी ने हमें घर खाली करने को कह दिया है.”

“ऐं, ऐसे कैसे… बेटा, समझाओबुझाओ, इतनी जल्दी तो हम भी कुछ नहीं कर सकते, यहां अपने घर का हाल तुम जानती तो हो… यहां तुम्हारी भाभी हमें ही परेशान किए हुए है,” उस की मम्मी ने कहा.

उधर नवीन ने भी तनावग्रस्त हो कर माथा पकड़ लिया.

सोनम बोली, “नवीन, क्यों न अपनी बुआ और चाचा को सब हाल बता कर उन्हें पापा को समझाने के लिए मनाओ न… अभी तो एकाउंट खाली है. इतनी जल्दी सब कैसे होगा?”

नवीन ने उस के इस सुझाव पर उसे गले लगा लिया.

अगले ही दिन उस ने छुट्टी ले कर अपनी बुआ और चाचा दोनों से मिलने का समय ले लिया.

“अरे नवीन, आज चाचा की याद कैसे आ गई?” विवेक ने अनुभवी नजरों से परखते हुए सवाल दाग दिया.

नवीन सिर झुकाए बोला, “चाचाजी, पापा ने घर खाली करने को कहा है. बताइए अच्छा लगता है कि घर होते हुए अपना ही बेटा उसी शहर में किराए पर रहे…?”

“देखो बेटा, यह परिवार का मामला है. किराए पर रहने के लिए कहा है भैया ने, तो सोचसमझ कर ही कहा होगा,” विवेक ने कहा, “मैं भैया के फैसले के खिलाफ नहीं जा सकता और न ही तुम्हें अपने घर में रहने को कह सकता हूं. यहां भी सीमित जगह है,” विवेक ने अपना पक्ष साफ कर दिया.

अब नवीन का एकमात्र सहारा थीं उस की बुआ. उस ने कहा, “बुआ, पापा ने 3 महीने का अल्टीमेटम दे दिया है… आप समझाओ न उन्हें.”

वे तपाक से बोलीं, “सही कर रहे हैं भैया. तुम ने और तुम्हारी पत्नी ने कौन सी कसर छोड़ दी थी, जो हम तुम्हारी तरफ से उन से बात करें…”

“हमारे घर मे भी तुम्हें रखने की जगह नहीं है, 2-4 दिन के लिए रहना अलग बात है और रोज के लिए रखना अलग.

“तुम अपने दोस्तों से बात क्यों नहीं करते? मैं मायके से रिश्ता क्यों बिगाड़ लूं?”

नवीन ने अपने दोस्तों अमन और पवन से इस आकस्मिक मुसीबत से निबटने का रास्ता मांगा, तो अमन भी घबरा कर बोला, “यार, पैसा तेरे पास होता तो तू आराम से कहीं भी रह लेता…”

पवन यह भी बोला, “फिर हमारे घर में जगह भी नहीं है और कहीं हमारे मम्मीपापा को अंकल के इस निर्णय के बारे में पता चला, तो हम लोगों के साथ भी यही कहानी न दोहरा दी जाए…

“भाई, तू थोड़े दिन दूर ही रह. आजकल ये बुजुर्ग भी इमोशनल न रहे सब अपने लिए सोचने लगे हैं… फिर अच्छाभला रह रहा था तो क्या जरूरत थी तुम दोनों को अपने मांबाप का अपमान करने की… कोई हम ने कहा था ऐसा करने को?”

नवीन और सोनम को बच्चों के साथ मकान के लिए सुबहशाम भटकतेभटकते, लोगों के असली चेहरे और अपनी गलती सब समझ में आने लगी थी.

शाम को घर जा कर वो उन के पैरों में गिर कर फफक कर रो पड़ा, “पापा, प्लीज मुझे माफ कर दीजिए.”

“एक शर्त पर,” उन की धीरगंभीर आवाज गूंजी, “आप अपने खर्च खुद उठाएंगे और किराया भी देंगे, ताकि यह सनद रहे कि घर है किस का…?”

और सोनम की भी गज भर लंबी जबान वास्तविकता झेल कर तालू से चिपक चुकी थी. उसे रिश्तों के लिहाज और सम्मान का अच्छा सबक मिल चुका था.

Family Story : पतझड़ का अंत : सुषमा के जीवन का अंत कैसे हुआ?

Family Story : सुहाग सेज पर बैठी सुषमा कितनीसुंदर लग रही थी. लाल जोड़े में सजी हुई वह बड़ी बेताबी से अपने पति समीर का इंतजार कर रही थी. एकाएक दरवाजा खुला और समीर मुसकराता हुआ कमरे में दाखिल हुआ. सुषमा समीर को देखते ही रोमांचित हो उठी. समीर ने अंदर आ कर धीरे से दरवाजा बंद किया. पलंग पर बिलकुल पास आ कर वह बैठ गया. फिर सुषमा का घूंघट उठा कर उसे आत्मविभोर हो देखने लगा.

सुषमा उसे इस तरह गौर से देखने पर बोली, ‘‘क्या देख रहे हो?’’

‘‘तुम्हें, जो आज के पहले मेरी नहीं थी. पता है सुसु, पहली बार मैं ने जब तुम्हें देखा था तभी मुझे लगा कि तुम्हीं मेरे जीवन की पतवार हो और अगर तुम मुझे नहीं मिलतीं तो शायद मेरा जीवन अधूरा ही रहता,’’ फिर समीर ने अपने दोनों हाथ फैला दिए और सुषमा पता  नहीं कब उस के आगोश में समा गई.

उस रात सुषमा के जीवन के पतझड़ का अंत हो गया था. शायद  40 साल के कठिन संघर्ष का अंत हुआ था.

सुषमा और समीर दोनों खुश थे, बहुत खुश. एकदूसरे को पा  कर उन्हें दुनिया की तमाम खुशियां नसीब हो गई थीं.

प्यार और खुशी में दिन कितनी जल्दी बीत जाते हैं पता ही नहीं चलता. देखते ही देखते 1 साल बीत गया और आज सुषमा की शादी की पहली सालगिरह थी. दोनों के दोस्तों के साथ उन के घर वाले भी शादी की सालगिरह पर आए थे.

घर में अच्छीखासी रौनक थी. घरआंगन बिजली की रोशनी से ऐसा सजा था जैसे  घर में शादी हो.

सुषमा के घर वालों ने जब यह साजोसिंगार देखा तो उन का मुंह खुला का खुला रह गया और छोटी बहन जया अपनी मां से बोली, ‘‘मां, दीदी को इतना सबकुछ करने की क्या जरूरत थी. अरे, शादी की सालगिरह है, कोई दीदी की  शादी तो नहीं.’’

सुषमा की मां बोलीं, ‘‘हमें क्या, पैसा उन दोनों का है, जैसे चाहें खर्च करें.’’

शादी की पहली सालगिरह बड़ी धूमधाम से मनी. जब सभी लोग चले गए तब सुषमा ने अपनी मां से आ कर पूछा, ‘‘मां, तुम खुश तो हो न, अपनी बेटी का यह सुख देख कर?’’

‘‘हां, खुश तो हूं बेटी. तेरा जीवन तो सुखमय हो गया, पर प्रिया और सचिन के बारे में सोच कर रोना आता है. उन दोनों बिन बाप के बच्चों का क्या होगा?’’

‘‘मां, तुम ऐसा क्यों सोचती हो. मैं हूं न, उन दोनों को देखने वाली. तुम्हारे दामादजी भी बहुत अच्छे हैं. मैं जैसा कहती हूं वह वैसा ही करते हैं. जब मैं ने एक बहन की शादी कर दी तो दूसरी की भी कर दूंगी. और हां, सचिन की भी तो अब इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी हो गई है.’’

‘‘हां, पूरी हो तो गई है, लेकिन कहीं नौकरी लगे तब न.’’

‘‘मां, तुम घबराओ नहीं, हम कोशिश करेंगे कि उस की नौकरी जल्दी लग जाए.’’

‘‘सुषमा, हमें तो बस, एक तेरा ही सहारा है बेटी. जब तू हमें छोड़ कर चली आई तो हम अपने को अनाथ समझने लगे हैं.’’

अभी सुषमा और मां बातें कर ही रहे थे कि समीर आ गया. वह हंसते हुए बोला, ‘‘क्यों सुसु, आज मां आ गईं तो मुझे भूल गईं. मैं कब से तुम्हारा खाने पर इंतजार कर रहा हूं.’’

मां की ओर देख कर सुषमा बोली, ‘‘मां, अब तुम सो जाओ. रात काफी बीत गई है. हम भी खाना खा कर सोएंगे. सुबह हमें कालिज जाना है.’’

सुषमा जब कमरे में आई तो समीर थाली सजाए उस का इंतजार कर रहा था, ‘‘सुसु, कितनी देर लगा दी आने में. यहां मैं तुम्हारे इंतजार में बैठा पागल हो रहा था. थोड़ी देर तुम और नहीं आतीं तो मेरा तो दम ही निकल जाता.’’

‘‘समीर, आज के दिन ऐसी अशुभ बातें तो न कहो.’’

‘‘ठीक है, अब हम शुभशुभ ही बातें करेंगे. पहले तुम आओ तो मेरे पास.’’

‘‘समीर, हमारी शादी को 1 साल बीत गया है लेकिन तुम्हारा प्यार थोड़ा भी कम नहीं हुआ, बल्कि पहले से और बढ़ गया है.’’

‘‘फिर तुम मेरे इस बढ़े हुए प्यार का आज के दिन कुछ तो इनाम दोगी.’’

‘‘बिलकुल नहीं, अब आप सो जाइए. सुबह मुझे कालिज जल्दी जाना है.’’

‘‘सुसु, अभी मैं सोने के मूड में नहीं हूं. अभी तो पूरी रात बाकी है,’’ वह मुसकराता हुआ बोला.

सुबह सुषमा जल्दी तैयार हो गई और कालिज जाते समय मां से बोली, ‘‘मां, मैं दोपहर में आऊंगी, तब तुम जाना.’’

‘‘नहीं, सुषमा, मैं भी अभी निकलूंगी. पर तुझ से एक बात कहनी थी.’’

‘‘हां मां, बोलो.’’

‘‘प्रिया का एम.ए. में दाखिला करवाना है. अगर 5 हजार रुपए दे देतीं तो बेटी, उस का दाखिला हो जाता.’’

‘‘ठीक है मां, मैं किसी से पैसे भिजवा दूंगी.’’

‘‘सुषमा, एक तेरा ही सहारा है बेटी, मैं  तुझ से एक बात और कहना चाहती हूं कि ज्यादा  फुजूलखर्ची मत किया कर.’’

‘‘मां, तुम्हें तो पता है कि मैं ने बचपन से ले कर 1 साल पहले तक कितना संघर्ष किया है. जब पिताजी का साया हमारे सिर से उठ गया था तब से ही मैं ने घर चलाने, खुद पढ़ने और भाईबहनों को पढ़ाने के लिए क्याक्या नहीं किया. अब क्या मैं अपनी खुशी के लिए इतना भी नहीं कर सकती?’’

‘‘मैं ऐसा तो नहीं कह रही हूं. फिर भी पैसे बचा कर चल. हमें भी तो देखने वाला कोई नहीं है.’’

आज सुबह ही जया का फोन आया कि दीदी, आज मंटू का जन्मदिन है. तुम और जीजाजी जरूर आना.

‘‘ हां, आऊंगी.’’

‘‘और हां, दीदी, एक बात तुम से कहनी थी. तुम ने अपनी फ्रेंड की शादी में जो साड़ी पहनी थी वह बहुत सुंदर लग रही थी. दीदी, मेरे लिए भी एक वैसी ही साड़ी लेती आना, प्लीज.’’

‘‘ठीक है, बाजार जाऊंगी तो देखूंगी.’’

‘‘दीदी, बुरा न मानो तो एक बात कहूं?’’

‘‘हां, बोलो.’’

‘‘तुम अपनी वाली साड़ी ही मुझे दे दो.’’

‘‘जया, वह तुम्हारे जीजाजी की पसंद की साड़ी है.’’

‘‘तो क्या हुआ. अब तुम्हारी उम्र तो वैसी चमकदमक वाली साड़ी पहनने की नहीं है.’’

‘‘जया, मेरी उम्र को क्या हुआ है. मैं तुम से 5 साल ही तो बड़ी हूं.’’

यह सुनते ही जया ने गुस्से में फोन रख दिया और सुषमा फोन का रिसीवर हाथ में लिए सोचने लगी थी.

दुनिया कितनी स्वार्थी है. सब अपने बारे में ही सोचते हैं. चाहे वह मेरी अपनी मां, भाईबहन ही क्यों न हों. मैं ने सभी के लिए कितना कुछ किया है और आज भी जिसे जो जरूरत होती है पूरी कर रही हूं. फिर भी किसी को मेरी खुशी सुहाती नहीं. जब मैं ने शादी का फैसला किया था तब भी घर वालों ने कितना विरोध किया था. कोई नहीं चाहता था कि मैं अपना घर बसाऊं. वह तो बस, समीर थे जिन्होंने मुझे अपने प्यार में इतना बांध लिया कि मैंउन के बगैर रहने की सोच भी नहीं सकती थी.

सुषमा की आंखों में आंसू झिल- मिलाने लगे थे. समीर पीछे से आ कर बोले, ‘‘जानेमन, इतनी देर से आखिर किस से बातें हो रही थीं.’’

‘‘जया का फोन था. समीर, आज उस के बेटे का जन्मदिन है.’’

‘‘तो ठीक है, शाम को चलेंगे दावत खाने…और हां, तुम वह नीली वाली साड़ी शाम को पार्टी में  पहनना. उस दिन जब तुम ने वह साड़ी पहनी थी तो बहुत सुंदर लग रही थीं. बिलकुल फिल्म की हीरोइन की तरह.’’

‘‘समीर, लेकिन वह साड़ी तो जया मांग रही है.’’

‘‘क्या?’’

‘‘हां, वैसे मैं ने उस से कहा है कि वह आप की पसंद की साड़ी है.’’

‘‘तुम पार्टी में जाने के लिए कोई दूसरी साड़ी पहन लेना और वह साड़ी उसे दे देना, आखिर वह तुम्हारी बहन है.’’

‘‘समीर, तुम कितने अच्छे हो.’’

‘‘हां, वह तो मैं हूं, लेकिन इतना भी अच्छा नहीं कि नाश्ते के बगैर कालिज जाने की सोचूं.’’

सुषमा और समीर एकदूसरे को पा कर बेहद खुश थे. दोनों के विचार एक थे. भावनाएं एक थीं.

एक दिन सुषमा का भाई सचिन आया और बोला, ‘‘दीदी, मुझे कुछ रुपए चाहिए.’’

‘‘किसलिए?’’

‘‘शहर से बाहर एकदो जगह नौकरी के लिए साक्षात्कार देने जाना है.’’

‘‘कितने रुपए  लगेंगे?’’

‘‘10 हजार रुपए दे दो.’’

‘‘इतने रुपए का क्या करोगे सचिन?’’

‘‘दीदी,  इंटरव्यू देने के लिए अच्छे कपड़े, जूते भी तो चाहिए. मेरे पास अच्छे कपड़े नहीं हैं.’’

‘‘सचिन, अभी मैं इतने रुपए तुम्हें नहीं दे सकती. तुम्हारे जीजाजी की बहुत इच्छा है कि हम शिमला जाएं. शादी के बाद हम कहीं गए नहीं थे न.’’

‘‘दीदी,  तुम्हारी  शादी हो गई वही बहुत है. अब इस उम्र में घूमना, टहलना ये सब बेकार के चोचले हैं. मुझे पैसे की जरूरत है, वह तो तुम दे नहीं सकतीं और यह फालतू का खर्च करने को तैयार हो.’’

‘‘सचिन, क्या हम अपनी खुशी के लिए कुछ नहीं कर सकते. अरे, इतने दिनों से तो मैं तुम लोगों के लिए ही करती आई हूं और जब अपनी खुशी के लिए अब करना चाहती हूं तो बातबात पर तुम लोग मुझे मेरी उम्र का एहसास दिलाते हो.

‘‘सचिन, प्यार की कोई उम्र नहीं होती. वह तो हर उम्र में हो सकता है. जब मैं खुश हूं, समीर खुश हैं तो तुम लोग क्यों दुखी हो?’’

समीर उस दिन अचानक जिद कर बैठे कि सुसु, आज मैं अपने ससुराल जाना चाहता हूं.

‘‘क्यों जी, क्या बात है?’’

‘‘अरे, आज छुट्टी है. तुम्हारे घर के सभी लोग घर पर ही होंगे. फिर जया भी तो आई होगी. और हां, नए मेहमान के आने की खुशखबरी अपने घर वालों को नहीं सुनाओगी?’’

‘‘ठीक है, अगर तुम्हारी इच्छा है तो चलते हैं, तुम्हारे ससुराल,’’ सुषमा मुसकरा दी थी.

सुषमा आज काफी सजधज कर मायके आई थी. लाल रंग की साड़ी से मेल खाता ब्लाउज और उसी रंग की बड़ी सी बिंदी अपने माथे पर  लगा रखी थी. उस ने सोने के गहनों से अपने को सजा लिया था.

मां उसे देख कर मुसकरा दीं, ‘‘क्या बात है, आज तू बड़ी सज कर आई है.’’

अभी सुषमा कुछ कहना चाह रही थी कि प्रिया बोली, ‘‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम.’’

प्रिया की बातें सुन कर सुषमा का खून खौल उठा पर वह कुछ बोली नहीं.

मां ने आदर के साथ बेटी को बिठाया और दामादजी से हाल समाचार पूछे.

सुषमा बोली, ‘‘मां, खुशखबरी है. तुम नानी बनने वाली हो.’’

मां यह सुन कर बोलीं, ‘‘चलो, ठीक है. एक बच्चा हो जाए. फिर अपना दुखड़ा रोने लगीं कि सचिन की नौकरी के लिए 50 हजार रुपए चाहिए. बेटी, अगर तुम दे देतीं तो…’’

सुषमा बौखला उठी. मां की बात बीच में काट कर बोली, ‘‘मां, अब और नहीं, अब बहुत हो गया. मुझे जितना करना था कर दिया. अब सब बड़े हो गए हैं और वे अपनी जिम्मेदारी खुद उठा सकते हैं. मैं आखिर कब तक इस घर को देखती रहूंगी.

‘‘मैं  जब 12 साल की थी तब से ही तुम लोगों की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ढो रही हूं. रातरात भर जाग कर मैं एकएक पैसे के लिए काम करती थी. फिर सभी को इस योग्य बना दिया कि वे अपनी जिम्मेदारियां खुद उठा सकें.

‘‘अब मेरा भी अपना परिवार है. पति हैं, और अब घर में एक और सदस्य भी आने वाला है. मैं अब तुम सब के लिए करतेकरते थक गई हूं मां. अब मैं जीना चाहती हूं, अपने लिए, अपने परिवार के लिए और अपनी खुशी के लिए.

‘‘जिंदगी की  खूबसूरत 40 बहारें मैं ने यों ही गंवा दीं, अब और नहीं. मेरे जीवन के पतझड़ का अंत हो गया है. अब मैं खुश हूं, बहुत खुश.’’

Love Story : एयरपोर्ट पर एक रात – गोवा जाने वाली फ्लाइट क्यों कैंसिल हो गई?

Love Story : मुंबई से गोवा की रात 10 बजे की फ्लाइट बुक करवाते हुए ही मुझे अंदाजा तो हो ही गया था कि आज तो सोने की छुट्टी. पर, दिनभर औफिस की जरूरी मीटिंग्स थीं तो इस से पहले की फ्लाइट बुक करवाने में भी समझदारी नहीं थी.

अब फ्लाइट एक घंटे लेट होने की जैसे ही घोषणा हुई, दिमाग घूम गया. अभी तक तो फोन में टाइम पास कर लिया था, अब क्या करूं. सामने की चेयर्स पर बैठे लोगों पर नजर डाली, एक जोड़ा सुंदर आंखें मुझे निहार रही थीं, सीरियसली? यह सलोनी सी सूरत मुझे देख रही है और मैं फोन में चिपका हूं.

मैं ने फौरन अपनी टीशर्ट और जींस पर उड़ती सी नजर डाली, हां, मम्मी कहती हैं कि मैं इस ब्लू टीशर्ट में अच्छा लगता हूं. मैं ने उस के आसपास की दो और आंटी टाइप महिलाओं पर नजर डाली, हां, ये इस के साथ ही हैं.

लड़की ने अब मेरी तरफ देखना बंद कर दिया था, समझ गई थी कि मैं ने उस की चोरी पकड़ ली है. इतने में वो लड़की यों ही उठ कर थोड़ा इधरउधर टहलने लगी, तो मैं ने उसे भरपूर नजरों से देखा. उस ने घुटनों तक की एक ड्रैस पहनी हुई थी, बाल खुले, लंबे थे, स्टाइलिश से शूज थे. अच्छी लग रही थी वह. इतने में उस की साथी महिला ने कहा, “कहां जा रही है, शन्नो?”

उस के नाम से मुझे निराशा हुई, शन्नो… सीरियसली? इस लड़की का नाम शन्नो क्यों है? जरूर नाम बिगाड़ा जा रहा है. मुझे गाना याद आ गया, ‘मेले में लड़की, लड़की अकेली, शन्नो, नाम उस का’.

शन्नो तो तब का नाम है, अब क्यों? मैं ने देखा, उस ने नोट किया कि मैं ने उस का नाम ध्यान से सुना है, उस ने पक्का जानबूझ कर जोर से कहा, “मम्मी, मौसी को समझा दो कि मेरा नाम शनाया है, ये शन्नोबन्नो न कहा करें.”

मैं मुसकरा दिया, उस ने देखा. हां, अब ठीक है, शनाया. लगा कि इस का नाम शनाया ही होना चाहिए. मतलब क्या है इस के नाम का. चलो, खाली ही तो बैठा हूं, शनाया नाम का मतलब गूगल करता हूं. मैं ने गूगल पर शनाया टाइप किया, प्रख्यात, प्रतिष्ठित, पहले सूरज की किरण. सही है. मुझे अचानक लगा कि यह मैं कितना फालतू काम कर रहा हूं, न अतापता, न कोई मतलब. एक अनजान लड़की के नाम का मतलब गूगल कर रहा हूं.

मैं भी उठ कर इधरउधर टहलने लगा, जब दोबारा यह घोषणा हुई कि फ्लाइट फिर एक घंटे लेट है. इस फ्लाइट के यात्रियों की गुस्से से भरी आवाजें आनी शुरू हो गईं, गेट पर भीड़ बढ़ती जा रही थी. अब बहुत शोरगुल था. छोटे बच्चों वाली महिलाएं, बुजुर्ग तो परेशान हो ही चुके थे, मेरे जैसे अकेले लोग क्या करते. कभी बैठते, कभी जा कर काउंटर पर पूछते कि हुआ क्या है. पता चला कि फ्लाइट में कुछ रिपेयरिंग हो रही है, बस ठीक होने ही वाली है.

मैं बोरीवली में रहता हूं, अंधेरी में औफिस है, मैं तो अपना बैग सुबह ही औफिस ले आया था, बस एयरपोर्ट आने से पहले दिन के कपड़े वहीं अपने औफिस की ड्राअर में छोड़ आया हूं और ये कपड़े बदल कर आया हूं. फ्लाइट में मुझे इन्हीं कपड़ों में आराम मिलता है.

शनाया मुझे बीचबीच में देख लेती है, उस की मम्मी और मौसी बातें कर रही हैं, मैं जानबूझ कर उन के पीछे खड़ा हो गया, जिस से इन की बातें सुनूं, शनाया के बारे में और जान सकूं.

मैं ने देखा कि जब शनाया ने मुझे उन दोनों के पीछे खड़ा देखा, वह झेंपी क्योंकि वह तो अपने मम्मी और मौसी के सारे गुण जानती होगी न.

उस की मम्मी कह रही हैं, “अच्छा हुआ, मुंबई डौली की बेटी की शादी में आ गए, नहीं तो दिल्ली से मुंबई कोई ऐसे तो आने न देता. शनाया के पापा तो अपने औफिस के काम से सारे इंडिया में घूमते रहते हैं, मैं ही घर में बैठी रहती हूं.

“मैं ने एक बार कहा था कि चलो, मुंबई घूम आएं. तो कहते हैं कि वहां है क्या. लो बताओ, लोग पागल हैं क्या कि मुंबई घूमने आते हैं, कितना मजा आया बीच पर, एलिफैंटा केव, गेट वे औफ इंडिया, जहां निकल जाओ, मजा आता है. है न. दिल्ली जा कर तो फिर वही घर के काम. और ये शनाया तो कहीं भी दोस्तों के साथ घूमने चली जाती है, दीदी.”

“हां, पम्मी, मजा तो गोवा में देखना, वहां के बीच बहुत साफ हैं. यहां मुझे इतना मजा नहीं आया. मैं तो तेरे जीजाजी के साथ कई बार गोवा आ चुकी हूं.”

मेरी नजरें शनाया से मिलीं, वह झेंपी, मैं मुसकरा दिया, कम से कम एयरपोर्ट पर एक लड़की तो अपनी पसंद की दिख रही है, मन अब उतना नहीं ऊब रहा.

इतने में फिर अनाउंसमैंट हुआ कि फ्लाइट चली गई है. सब काउंटर पर जैसे चढ़ गए, वहां की महिला कर्मचारियों को भीड़ का सामना करने के लिए छोड़ दिया गया था, वे समझा रही थीं कि फ्लाइट फुल हो गई थी तो चली गई. किसी को कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हुआ.

‘सौरी’ बोल कर वे सब इधरउधर होने की कोशिश करती रहीं. पर लोगों ने बहुत ज्यादा शोर मचाया, वीडियो बनने लगे, कोई रतन टाटा को टैग कर के ट्वीट करने की धमकी देने लगा, कोई कहने लगा कि भूखे बैठे हैं, हमें खाना खिलाओ.

मैं सब सुन रहा था. बहुत गड़बड़ हो चुकी थी, सारी परेशानी एक तरफ, मुझे कुछ और सूझा, सब वीडियो बना ही रहे थे, लगे हाथ मैं ने भी एक कोने में उदास, परेशान, थकी सी शनाया का कुछ सैकंड्स का वीडियो बना लिया. अपने पास रखने के लिए.

शनाया अपनी मम्मी और मौसी को एक जगह छोड़ लोगों के पास जा कर सुनने की कोशिश कर रही थी कि अब क्या किया जा सकता है. वहां के कर्मचारी लोगों को दूसरी फ्लाइट बुक करने की सलाह दे कर चलते बने थे.

इतने में आवाज आई, “शन्नो, इन से कह कि हमारे खाने का इंतजाम करना इन की ड्यूटी है.”

शनाया और मेरी नजरें मिलीं, मैं ने अंदाजा लगा लिया कि शन्नो अब मेरी उपस्थिति की फिक्र कर के सजग हो रही है. अगर मेरी मम्मी भी इस समय ऐसे कहती कि ‘बिल्लू, इन से कह कि मेरे खाने का इंतजाम करें.’ तो मुझे भी ऐसी ही शर्मिंदगी होती जैसी अभी शनाया को हो रही थी.

एक तो ये मातापिता न बिलकुल नहीं सोचते कि इन के जवान बच्चों की भी कोई इज्जत होती है, कहीं भी शुरू हो जाते हैं, शन्नो, बिल्लू. अरे, वाह, शन्नो, बिल्लू साथ बोलने में तो बहुत फनी लग रहा है.

शनाया की मौसी ने आ कर कहा, “शन्नो, फंस गए, बेटा. कहा था, थोड़े परांठे, अचार रख लें, पर तू ने रखने ही नहीं दिए. अब बारबार पूरी रात बर्गर खाते रहेंगे क्या? और यह बता कि वापस घर चलें या गोवा जाना ही है?”

“मौसी, आप मम्मी के पास जा कर बैठो, मैं सब पता कर के आती हूं. मम्मी का गोवा का मन है, उन्हें ले ही जाती हूं.”

लोग बहुत परेशान हो गए थे, इस समय 12 बज रहे थे, एयरपोर्ट पर बैठेबैठे ही घंटों हो गए थे. सब से बुरा हाल छोटे बच्चों और व्हीलचेयर पर बैठे बुजुर्गों का था. महिलाएं भी अब थक कर बोले जा रही थीं. यह तो गोवा पहुंचने का टाइम था और सब यहीं लटके हुए थे.

पता चला कि 4 बजे दूसरे टर्मिनल से एक फ्लाइट है, उस से जा सकते हैं. मैं ने शनाया से अचानक पूछ लिया, “आप लोग भी इस फ्लाइट से जा रहे हैं?” जैसे दिल से दिल को राहत हुई हो, उस ने धीरे से कहा, “हां, अभी टिकट्स बुक कर लेती हूं, ये वाले पैसे तो रिफंड हो ही जाएंगे.”

मैं ने भी उसी समय अपने फोन से अपना टिकट बुक कर लिया और कहा, “दूसरा टर्मिनल थोड़ा दूर है, आप अकेली तो जा भी सकती थी, पर आप के साथ भी हैं.”

“हां, मेरी मम्मी, मौसी हैं.”

“जानता हूं,” मैं हंस पड़ा, तो वह भी अब मुसकरा दी.

मैं ने कहा, “चलो, टैक्सी करें?”

“हां, आप हमारे साथ ही आ जाओ.”

मैं उस के साथसाथ चलने लगा और उस की मम्मी के पास जा कर कहा, “आंटी, आ जाओ, साथ ही चलते हैं, टैक्सी करनी पड़ेगी.”

इस बार दो जोड़ी आंखों ने मुझे ऊपर से नीचे तक कई बार देखा, मन ही मन ओके किया, एक ने कहा, “तुम कौन, बेटा?”

“आंटी, गोवा ही जा रहा हूं, यहां तो बड़ी मुश्किल है, अब दूसरे टर्मिनल जाना है.”

आंटी लोगों ने सोचा होगा कि उन का सामान उठाने में उन की हैल्प कर देगा और कोई इस तरह खुद ही औफर कर रहा है तो क्या बुरा है. हम टैक्सी से दूसरे टर्मिनल गए, फिर वही सब चैकिंग. काउंटर बंद था, यह और मुश्किल थी, अब सामान के साथ फिर वहीं रखी चेयर पर बैठ गए. अब की बार मैं उन सब से कुछ दूर बैठा, कहीं किसी को यह न लगे कि पीछे ही पड़ गया हूं. हां, ऐसी जगह जरूर बैठा, जहां से शनाया साफसाफ दिखती रहे.

चेयर पर अपने पैर फैला कर मैं अधलेटा सा हो गया, तीनों बेचारी औरतें कभी टहल रही थीं, कभी बैठतीं, कभी एकदूसरे की गोद में सिर रख कर लेट जातीं. अब तक उस फ्लाइट के बाकी लोग भी यहीं आ गए थे और कोई जमीन पर अखबार फैला कर लेट गया था, कोई जमीन पर यों ही लेट गया था.

इस तरह की स्थिति में हर इनसान को परेशानी होती है, न बैठते बनता है, न लेटते, पूरी रात एयरपोर्ट पर बैठेबैठे बिताना किसी के लिए भी आसान नहीं.

मैं ने शनाया पर नजर डाली, बेचारी कभी पास की चेयर पर बैठी अपनी मम्मी के कंधे पर सिर रखती, कभी यों ही खड़ी हो जाती. कभी मेरी उस से नजरें मिलतीं, मैं कहीं और देखने लगता. थोड़ा कौंशियस हो गया था कि कहीं मुझे पीछे पड़ जाने वाला लड़का न समझ ले.

खैर, काउंटर खुले, चैकइन किया, अभी फ्लाइट में 2 घंटे थे, मैं ने सोचा कि लाउंज में जा कर थोड़ा ठीक से उठबैठ सकता हूं, कुछ चायकौफी भी पी लूंगा. पर शनाया, क्या अब इस से बात नहीं हो पाएगी. क्या करूं?

इतने में उस की मौसी की आवाज आई, “शन्नो, लाउंज चलें? कुछ खा कर थोड़ा कमर सीधे कर लें?”

मुझे मन ही मन हंसी आ गई, मौसी को शायद खाने का शौक था, मैं इन्हें एयरपोर्ट पर कम से कम 3-4 बार कुछ खाते देख चुका था, पर मौसी मुझे इस समय दुनिया की सब से समझदार महिला लगी, जो लाउंज में जाने की सोच रही थी.

मैं अब चुपचाप लाउंज की तरफ चल दिया, वहां टिकट दिखाया, और आराम से अंदर जा कर एक कोने वाले सोफे पर पसर गया.

लाउंज जैसे दूसरी ही दुनिया का हिस्सा लग रहा था, कुछ लोग गहरी नींद में सोए हुए थे, बहुत शांति थी, एकाध लोग ही बैठ कर कुछ खा रहे थे.

इस शांति को भंग किया शनाया की मम्मी और उस की मौसी ने. शनाया अंदर आई, मुझ से कुछ ही दूर रखे सोफे पर उस ने अपना शोल्डर बैग रखा, फिर मुझे देख कर बड़ी प्यारी स्माइल दी.

उस ने अपनी मम्मी से कहा, “मैं यहां बैठी हूं, आप लोगों को जो खाना हो, खा कर आ जाओ. फिर मैं थोड़ी देर में एक कप कौफी ले लूंगी, बस.”

उस की मम्मी ने मुझे देखा, “बेटा, आप भी यहां आ गए?”

“जी, आंटी.”

“चल, शन्नो. सामान ये देख लेंगे. है न बेटा. जरा देख लेना, आज तो एयरपोर्ट वालों ने भूखे मार दिया.”

पर, उन की शन्नो को कुछ खानेपीने से ज्यादा मुझ में इंटरैस्ट था, बोली, “नहीं, आप दोनों जाओ, मुझे बस थोड़ी देर आराम करना है.”

वे दोनों यह कहती हुई मिनमिन करती चली गई कि इस लड़की को कुछ कहना बेकार है, हमेशा अपने मन की करती है. कुछ खाना नहीं, सूखती जा रही है. रात के 3 बजे उन की इन बातों से बाकी सोए हुए लोग डिस्टर्ब हो रहे थे, शनाया कुछ शर्मिंदा सी हुई, तो मैं ने बहुत धीरे से कहा, “कोई बात नहीं, ये तो हर घर वाले कहते हैं.”

वह हंस पड़ी, मैं ने पूछा, “गोवा कितने दिन हो?”

“3 दिन. आप?”

“वहां बैंगलुरू से आए 3 दोस्त इंतजार कर रहे हैं. वे आज दिन में पहुंच गए हैं, मैं परसों वापस आ जाऊंगा.”

“दिल्ली रहती हो न?”

“आप को कैसे पता?”

मैं ने उस की मम्मी और मौसी की तरफ इशारा किया. वह हंस पड़ी, फिर मैं ने उसे अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर दिया, जिसे उस ने फौरन लपक लिया, पढ़ा, “मलय शर्मा. ओह्ह, वाह… सीए हो? लगते तो नहीं.”

“मतलब…?”

“सुना है, थोड़े बोरिंग होते हैं,” उस ने मुझे छेड़ा.

मैं मुसकरा दिया, कहा, “इस में मेरा फोन नंबर है, बात करना चाहोगी?”

“करनी है?”

“हां.”

“करूंगी.”

हम बहुत धीरे बात कर रहे थे. इतने में उस की मम्मी और मौसी आ गईं, शनाया ने मेरा कार्ड अपने बैग में रख लिया था. मैं आंखें बंद कर लेट गया. वे तीनों भी शायद सोने की कोशिश करने लगीं.

मैं ने आंखें जरूर बंद की थीं, पर एक चेहरा जो अब खास हो गया था, मेरी बंद आंखों के आगे डटा रहा. मैं ने आंखें खोल कर गरदन घुमाई तो वह मुझे ही देख रही थी. एकदम से उस ने गरदन दूसरी तरफ घुमा ली. उस की मम्मी और मौसी के खर्राटों में कोई कंपीटिशन चल रहा था. मुझे अब नींद आ रही थी, मैं इतना जान चुका था कि अब से कुछ ही घंटों में भले ही एयरपोर्टसे हम चले जाएंगे, पर यह रात कोई आम रात नहीं है, इस रात में इस एयरपोर्ट पर जो सफर शुरू हुआ है, उस की मंजिल बहुत खूबसूरत है, इस सफर का अंत यकीनन शानदार होगा. गोवा पहुंचने पर शनाया मुझे कब फोन करेगी, देखना था, इंतजार रहेगा मुझे.

Hindi Story : नचनिया – क्या उस रात अपनी प्यास बुझा पाया वह रईसजादा

Hindi Story : ‘‘कितना ही कीमती हो… कितना भी खूबसूरत हो… बाजार के सामान से घर सजाया जाता है, घर नहीं बसाया जाता. मौजमस्ती करो… बड़े बाप की औलाद हो… पैसा खर्च करो, मनोरंजन करो और घर आ जाओ.

‘‘मैं ने भी जवानी देखी है, इसलिए नहीं पूछता कि इतनी रात गए घर क्यों आते हो? लेकिन बाजार को घर में लाने की भूल मत करना. धर्म, समाज, जाति, अपने खानदान की इज्जत का ध्यान रखना,’’ ये शब्द एक अरबपति पिता के थे… अपने जवान बेटे के लिए. नसीहत थी. चेतावनी थी.

लेकिन पिछले एक हफ्ते से वह लगातार बाजार की उस नचनिया का नाच देखतेदेखते उस का दीवाना हो चुका था.

वह जानता था कि उस के नाच पर लोग सीटियां बजाते थे, गंदे इशारे करते थे. वह अपनी अदाओं से महफिल की रौनक बढ़ा देती थी. लोग दिल खोल कर पैसे लुटाते थे उस के नाच पर. उस के हावभाव में वह कसक थी, वह लचक थी कि लोग ‘हायहाय’ करते उस के आसपास मंडराते, नाचतेगाते और पैसे फेंकते थे.

वह अच्छी तरह से जानता था कि जवानी से भरपूर उस नचनिया का नाचनागाना पेशा था. लोग मौजमस्ती करते और लौट जाते. लौटा वह भी, लेकिन उस के दिलोदिमाग पर उस नचनिया का जादू चढ़ चुका था. वह लौटा, लेकिन अपने मन में उसे साथ ले कर.

उफ, बला की खूबसूरती उस की गजब की अदाएं. लहराती जुल्फें, मस्ती भरी आंखें. गुलाब जैसे होंठ. वह बलखाती कमर, वह बाली उमर. वह दूधिया गोरापन, वह मचलती कमर. हंसती तो लगता चांद निकल आया  हो. वह नशीला, कातिलाना संगमरमर सा तराशा जिस्म. वह चाल, वह ढाल, वह बनावट. खरा सोना भी लगे फीका. मोतियों से दांत, हीरे सी नाक. कमल से कान, वे उभार और गहराइयां. जैसे अंगूठी में नगीने जड़े हों.

अगले दिन उस ने पूछा, ‘‘कीमत क्या है तुम्हारी?’’

नचनिया ने कहा, ‘‘कीमत मेरे नाच की है. जिस्म की है. तुम महंगे खरीदार लगते हो. खरीद सकते हो मेरी रातें, मेरी जवानी. लेकिन प्यार करने लायक तुम्हारे पास दिल नहीं. और मेरे प्यार के लायक तुम नहीं. जिस्म की कीमत है, मेरे मन की नहीं. कहो, कितने समय के लिए? कितनी रातों के लिए? जब तक मन न भर जाए, रुपए फेंकते रहो और खरीदते रहो.’’

उस ने कहा, ‘‘अकेले तन का मैं क्या करूंगा? मन बेच सकती हो? चंद रातों के लिए नहीं, हमेशा के लिए?’’

नचनिया जोर से हंसते हुए बोली, ‘‘दीवाने लगते हो. घर जाओ. नशा उतर जाए, तो कल फिर आ जाना महफिल सजने पर. ज्यादा पागलपन ठीक नहीं. समाज को, धर्म के ठेकेदारों को मत उकसाओ कि हमारी रोजीरोटी बंद हो जाए. यह महफिल उजाड़ दी जाए. जाओ यहां से मजनू, मैं लैला नहीं नचनिया हूं.’’

पिता को बेटे के पागलपन का पता लगा, तो उन्होंने फिर कहा, ‘‘बेटे, मेले में सैकड़ों दुकानें हैं. वहां एक से बढ़ कर एक खूबसूरत परियां हैं. तुम तो एक ही दुकान में उलझ गए. आगे बढ़ो. और भी रंगीनियां हैं. बहारें ही बहारें हैं. बाजार जाओ. जो पसंद आए खरीदो. लेकिन बाजार में लुटना बेवकूफों का काम है.

‘‘अभी तो तुम ने दुनिया देखनी शुरू की है मेरे बेटे. एक दिल होता है हर आदमी के पास. इसे संभाल कर रखो किसी ऊंचे घराने की लड़की के लिए.’’

लेकिन बेटा क्या करे. नाम ही प्रेम था. प्रेम कर बैठा. वह नचनिया की कातिल निगाहों का शिकार हो चुका था. उस की आंखों की गहराई में प्रेम का दिल डूब चुका था. अगर दिल एक है, तो जान भी तो एक ही है और उस की जान नचनिया के दिल में कैद हो चुकी थी. पिता ने अपने दीवान से कहा, ‘‘जाओ, उस नचनिया की कुछ रातें खरीद कर उसे मेरे बेटे को सौंप दो. जिस्म की गरमी उतरते ही खिंचाव खत्म हो जाएगा. दीवानगी का काला साया उतर जाएगा.’’

नचनिया सेठ के फार्महाउस पर थी और प्रेम के सामने थी. तन पर एक भी कपड़ा नहीं था. प्रेम ने उसे सिर से पैर तक देखा.

नचनिया उस के सीने से लग कर बोली, ‘‘रईसजादे, बुझा लो अपनी प्यास. जब तक मन न भर जाए इस खिलौने से, खेलते रहो.’’

प्रेम के जिस्म की गरमी उफान न मार सकी. नचनिया को देख कर उस की रगों का खून ठंडा पड़ चुका था.

उस ने कहा, ‘‘हे नाचने वाली, तुम ने तन को बेपरदा कर दिया है, अब रूह का भी परदा हटा दो. यह जिस्म तो रूह ने ओढ़ा हुआ है… इस जिस्म को हटा दो, ताकि उस रूह को देख सकूं.’’

नचनिया बोली, ‘‘यह पागलपन… यह दीवानगी है. तन का सौदा था, लेकिन तुम्हारा प्यार देख कर मन ही मन, मन से मन को सौसौ सलाम.

‘‘पर खता माफ सरकार, दासी अपनी औकात जानती है. आप भी हद में रहें, तो अच्छा है.’’

प्रेम ने कहा, ‘‘एक रात के लिए जिस्म पाने का नहीं है जुनून. तुम सदासदा के लिए हो सको मेरी ऐसा कोई मोल हो तो कहो?’’

नचनिया ने कहा, ‘‘मेरे शहजादे, यह इश्क मौत है. आग का दरिया पार भी कर जाते, जल कर मर जाते या बच भी जाते. पर मेरे मातापिता, जाति के लोग, सब का खाना खराब होगा. तुम्हारी दीवानगी से जीना हराम होगा.’’

प्रेम ने कहा, ‘‘क्या बाधा है प्रेम में, तुम को पाने में? तुम में खो जाने में? मैं सबकुछ छोड़ने को राजी हूं. अपनी जाति, अपना धर्म, अपना खानदान और दौलत. तुम हां तो कहो. दुनिया बहुत बड़ी है. कहीं भी बसर कर लेंगे.’’

नचनिया ने अपने कपड़े पहनते हुए कहा, ‘‘ये दौलत वाले कहीं भी तलाश कर लेंगे. मैं तन से, मन से तुम्हारी हूं, लेकिन कोई रिश्ता, कोई संबंध हम पर भारी है. मैं लैला तुम मजनू, लेकिन शादी ही क्यों? क्या लाचारी है? यह बगावत होगी. इस की शिकायत होगी. और सजा बेरहम हमारी होगी. क्यों चैनसुकून खोते हो अपना. हकीकत नहीं होता हर सपना. यह कैसी तुम्हारी खुमारी है. भूल जाओ तुम्हें कसम हमारी है.’’

अरबपति पिता को पता चला, तो उन्होंने एकांत में नचनिया को बुलवा कर कहा, ‘‘वह नादान है. नासमझ है. पर तुम तो बाजारू हो. उसे धिक्कारो. समझाओ. न माने तो बेवफाई बेहयाई दिखाओ. कीमत बोलो और अपना बाजार किसी अनजान शहर में लगाओ. अभी दाम दे रहा हूं. मान जाओ.

‘‘दौलत और ताकत से उलझने की कोशिश करोगी, तो न तुम्हारा बाजार सजेगा, न तुम्हारा घर बचेगा… क्या तुम्हें अपने मातापिता, भाईबहन और अपने समुदाय के लोगों की जिंदगी प्यारी नहीं? क्या तुम्हें उस की जान प्यारी नहीं? कोई कानून की जंजीरों में जकड़ा होगा. कैद में रहेगा जिंदगीभर. कोई पुलिस की मुठभेड़ में मारा जाएगा. कोई गुंडेबदमाशों के कहर का शिकार होगा. क्यों बरबादी की ओर कदम बढ़ा रही हो? तुम्हारा प्रेम सत्ता और दौलत की ताकत से बड़ा तो नहीं है.

‘‘मेरा एक ही बेटा है. उस की एक खता उस की जिंदगी पर कलंक लगा देगी. अगर तुम्हें सच में उस से प्रेम है, तो उस की जिंदगी की कसम… तुम ही कोई उपाय करो. उसे अपनेआप से दूर हटाओ. मैं जिंदगीभर तुम्हारा कर्जदार रहूंगा.’’

नचनिया ने उदास लहजे में कहा, ‘‘एकांत में यौवन से भरे जिस्म को जिस के कदमों में डाला, उस ने न पीया शबाब का प्याला. उसे तन नहीं मन चाहिए. उसे बाजार नहीं घर चाहिए.

उसे हसीन जिस्म के अंदर छिपा मन  का मंदिर चाहिए. उपाय आप करें. मैं खुद रोगी हूं. मैं आप के साथ हूं प्रेम को संवारने के लिए,’’ यह कह कर नचनिया वहां से चली गई.

दौलतमंद पिता ने अपने दीवान से कहा, ‘‘बताओ कुछ ऐसा उपाय, जिस का कोई तोड़ न हो. उफनती नदी पर बांध बनाना है. एक ही झटके में दिल की डोर टूट जाए. कोई और रास्ता न बचे उस नचनिया तक पहुंचने का. उसे बेवफा, दौलत की दीवानी समझ कर वह भूल जाए प्रेमराग और नफरत के बीज उग आए प्रेम की जमीन पर.’’

दीवान ने कहा, ‘‘नौकर हूं आप का. बाकी सारे उपाय नाकाम हो सकते हैं, प्रेम की धार बहुत कंटीली होती है. सब से बड़ा पाप कर रहा हूं बता कर. नमक का हक अदा कर रहा हूं. आप उसे अपनी दासी बना लें. आप की दौलत से आप की रखैल बन कर ही प्रेम उस से मुंह मोड़ सकता है.

‘‘फिर अमीरों का रखैल रखना तो शौक रहा है. कहां किस को पता चलना है. जो चल भी जाए पता, तो आप की अमीरी में चार चांद ही लगेंगे.’’

नचनिया को बुला कर बताया गया. प्रस्ताव सुन कर उसे दौलत भरे दिमाग की नीचता पर गुस्सा भी आया. लेकिन यदि प्रेम को बचाने की यही एक शर्त है, तो उसे सब के हित के लिए स्वीकारना था. उस ने रोरो कर खुद को बारबार चुप कराया. तो वह बन गई अपने दीवाने की नाजायज मां.

प्रेम तक यह खबर पहुंची कि बाजारू थी बिक गई दौलत के लालच में. जिसे तुम्हारी प्रेमिका से पत्नी बनना था, वह रुपए की हवस में तुम्हारे पिता की रखैल बन गई.

प्रेम ने सुना, तो पहली चोट से रो पड़ा वह. पिंजरे में बंद पंछी की तरह फड़फड़ाया, लड़खड़ाया, लड़खड़ा कर गिरा और ऐसा गिरा कि संभल न सका. वह किस से क्या कहता? क्या पिता से कहता कि मेरी प्रेमिका तुम्हारी हो गई? क्या जमाने से कहता कि पिता ने मेरे प्रेम को अपना प्रेम बना लिया? क्या समझाता खुद को कि अब वह मेरी प्रेमिका नहीं मेरी नाजायज सौतेली मां है.

वह बोल न सका, तो बोलना बंद कर दिया उस ने. हमेशाहमेशा के लिए खुद को गूंगा बना लिया उस ने.

पिता यह सोच कर हैरान था कि जिंदगीभर पैसा कमाया औलाद की खुशी के लिए. उसी औलाद की जान छीन ली दौलत की धमक से. क्या पता दीवानगी. क्या जाने दिल की दुनिया. प्यार की अहमियत. वह दौलत को ही सबकुछ समझता रहा. अब दौलत की कैद में वह अरबपति पिता भटक रहा है अपने पापों का प्रायश्चित्त करते हुए हर रोज.

Romantic Story : उपहार – कौन थी क्षमा जिस ने रविकांत के जीवन में बहार ला दी   

Romantic Story : अपने पहले एकतरफा प्रेम का प्रतिकार रविकांत केवल ‘न’ मेें ही पा सका. उस की कांती तो मां-बाप के ढूंढ़े हुए लड़के आशुतोष के साथ विवाह कर जरमनी चली गई. वह बिखर गया. विवाह न करने की ठान ली. मांबाप अपने बेटे को कहते समझाते 4 साल के अंदर दिवंगत हो गए.

कांती के साथ कौलेज में बिताए हुए दिनों की यादें भुलाए नहीं भूलती थीं. यह जानते हुए भी कि वह निर्मोही किसी और की हो कर दूर चली गई है वह अपने मन को उस से दूर नहीं कर पा रहा था. कालिज की 4 सालों की दोस्ती मेें वह उसे अपना दिल दे बैठा था. कई बार कोशिश करने के बाद रविकांत ने बड़ी कठिनाई से सकुचाते झिझकते एक दिन कांती से कहा था, ‘मैं तुम से प्रेम करने लगा हूं और तुम्हें अपनी जीवनसंगिनी के रूप में पा कर अपने को धन्य समझूंगा.’

जवाब में कांती ने कहा था, ‘रवि, मैं तुम्हें एक अच्छा दोस्त मानती हूं और इसी नाते से मैं तुम से मिलती जुलती रही. मैं तुम से उस तरह का प्रेम नहीं करती हूं कि मैं तुम्हारी जीवनसंगिनी बनूं. रही विवाह की बात, तो मैं तुम्हें यह भी बता देती हूं कि मैं शादी तो अपने मां-बाप की मर्जी और उन के ढूंढ़े हुए लड़के से ही करूंगी. अब चूंकि तुम्हारे विचार मेरे प्रति दोस्ती से बढ़ कर दूसरा रुख ले रहे हैं, इसलिए मेरा अनुरोध है कि तुम भविष्य में मुझ से मिलना-जुलना छोड़ दो और हम दोनों की दोस्ती को यहीं खत्म समझो.’

उस के बाद कांती फिर कभी रविकांत से नहीं मिली. रविकांत भी यह साहस नहीं कर सका कि उस के मातापिता से मिल कर कांती का हाथ उन से मांगता क्योेंकि उस आखिरी मुलाकात  के दिन उसे कांती की आंखों में प्यार तो दूर सहानुभूति तक नजर नहीं आई थी.

रविकांत ने खुद को प्रेम में असफल समझ कर जिंदगी को बेमानी, बेकार और बेरौनक मान लिया. ऐसे में अधिकतर लोग कठिनाइयों और असफलताओं से घबरा कर खुद को कमजोर समझ अपना आत्मविश्वास और उत्साह खो बैठते हैं.

रविकांत अब 50 पार कर चुके हैं. उन के कनपटी के बाल सफेद हो चुके हैं. आंखों पर चश्मा लग गया  है. इतने सालों तक एक ही कंपनी की सेवा में पूरी निष्ठा से लगे रहे तो अब वह जनरल मैनेजर बन गए हैं.

कंपनी से मिले हुए उन के फ्लैट के सामने वाले फ्लैट में कुछ दिन पहले ही शोभना नाम की एक महिला अपनी 24 साल की बेटी क्षमा के साथ किराए पर रहने के लिए आई.

क्षमा अपनी मां की ही तरह अत्यंत सुंदर और हंसमुख लड़की थी. वह जब भी रविकांत के सामने पड़ती ‘अंकल नमस्ते’ कहना और उन्हें एक मुसकराहट देना कभी नहीं भूलती. रविकांत भी ‘हैलो, कैसी हो बेटी’ कहते और उस के उत्तर में वह ‘थैंक यू’ कहती. क्षमा एम.एससी. कर के 2 वर्ष का कंप्यूटर कोर्स कर रही थी. इधर कई दिनों से रविकांत को न देख कर उस ने उन के नौकर से पूछा तो पता चला कि वह तो कई दिनों से बीमार हैं और नर्सिंग होम में भरती हैं. नौकर से नर्सिंग होम का पता पूछ कर क्षमा उसी शाम उन से मिलने नर्सिंग होम पहुंची.

क्षमा को देख कर रविकांत बेहद खुश हुए पर क्षमा ने पहले तो इस बात का गुस्सा दिखाया कि इतने दिनों से बीमार होने पर भी उन्होंने उसे खबर क्यों नहीं दी. वह तो हमेशा की तरह यही सोचती रही कि आप कहीं ‘टूर’ पर गए होंगे. क्षमा की झिड़की वह चुपचाप सुनते रहे. मन में उन्हें अच्छा लगा. क्षमा काफी देर तक उन के पास बैठी उन का हालचाल पूछती रही.

रविकांत ने जब बताया कि अब वह ठीक हैं और कुछ ही दिनों में उन्हें नर्सिंग होम से छुट्टी मिल जाएगी तभी उस की प्रश्नावली रुकी. घर वापस लौटते समय वह उन्हें जल्दी से अच्छे होने की शुभकामना देना नहीं भूली.

क्षमा अब रोज शाम को रविकांत को देखने नर्सिंग होम जाती. रविकांत का भी मन बहल जाता था. वह बड़ी बेसब्री से उस के आने की प्रतीक्षा करते. उस के आने पर वे दोनों विभिन्न विषयों पर बहस करते और हंसते हुए बातचीत करते रहते. 2 घंटे कितनी जल्दी गुजर जाते पता ही नहीं लगता.

जिस दिन रविकांत को नर्सिंग होम से छुट्टी मिली, क्षमा उन्हें अपने साथ ले कर उन के फ्लैट पर आई. अगले दिन रविकांत अपनी ड्यूटी पर जाने लगे तो क्षमा ने यह कह कर जाने नहीं दिया कि आप आज आराम करें और फिर कल तरोताजा हो कर काम पर जाएं.

अगले दिन शाम को जब रविकांत देर से वापस लौटे तो उन के आने की आहट सुन उस ने दरवाजा खोला. नमस्ते की. साथ ही देर करने का उलाहना भी दिया.

सप्ताह में 1-2 बार क्षमा उन के बुलाने पर या खुद ही उन के फ्लैट में जा कर घंटे डेढ़ घंटे गप लड़ाती, नौकर थोड़ी देर में चाय दे जाता. चाय की चुस्कियां लेते हुए वह अपनी बातें चालू रखते जो अकसर अन्य विषयों से सिमट कर अब कालिज, आफिस, घरेलू और निजी बातों पर आ जाती थीं.

क्षमा ने एक दिन पूछ ही लिया, ‘‘अंकल, आप अकेले क्यों हैं? आप ने शादी क्यों नहीं की? आप को साथी की कमी महसूस नहीं होती क्या? आप को अकेले घर काटने को नहीं दौड़ता? नौकर के हाथ का खाना खातेखाते आप का जी नहीं ऊबता?’’

रविकांत ने अपने पिछले प्रेम का जिक्र करते हुए कहा, ‘‘क्षमा, हम सब नियति के हाथों की कठपुतली हैं जिसे वह जैसा चाहती है नचाती है. अकेलापन तो मुझे भी बहुत काटता है पर मैं अपने आप को आफिस के काम में व्यस्त रख उसे भगाए रहता हूं. मुझे खुशी है कि अब मेरा कुछ समय तुम्हारे साथ हंसते-बोलते कट जाता है. तुम्हारे साथ बिताए ये क्षण मुझे अब भाने लगे हैं.’’

रविकांत की बीमारी को धीरे-धीरे 1 वर्ष हो गया. इस बीच क्षमा ने अपनी मां से पूछ रविकांत को करीब-करीब हर माह 1-2 बार खाने पर बुलाया. रविकांत शोभनाजी से मिलने पर क्षमा की बड़ी प्रशंसा करते. उन की थोड़ीबहुत औपचारिक बातें भी होतीं. जिस दिन रविकांत खाने पर आने को होते उस दिन क्षमा बड़े उत्साह से घर ठीक करने और खाना बनाने में मां के साथ लग जाती. वह अकसर मां से रविकांत के गुणों और विशेषताओं पर चर्चा करती रहती. वे हांहूं कर उस की बातें सुनती रहतीं.

बेटी और पड़ोसी रविकांत की बढ़ती दोस्ती और मिलनाजुलना कुछ महीनों से शोभना के लिए चिंता का विषय बनता जा रहा था. क्षमा से इस बारे में कुछ न कह उन्होंने उस के विवाह के लिए प्रयत्न जोरों से शुरू कर दिए. उन की सहेली रमा का बेटा रौनक इन दिनों आस्ट्रेलिया से कुछ दिनों के लिए भारत आया हुआ था. क्षमा भी उस से बपचन से परिचित थी. शोभना ने रमा को क्षमा और रौनक के विवाह का सुझाव दिया तो वह अगले दिन शाम को अपने पति देवनाथ और बेटे रौनक के साथ मिलने आ गईं. शोभना और रमा के बीच कोई औपचारिकता तो थी नहीं सो उस ने उन्हें खाने के लिए रोक लिया.

भोजन के समय रमा ने सब के सामने क्षमा से सीधा प्रश्न कर दिया, ‘‘क्षमा बेटी, मेरा बेटा रौनक तुम्हें बचपन से पसंद करता है. यदि तुम्हें भी रौनक पसंद है तो तुम दोनों के विवाह से तुम्हारी मां और हमें बहुत खुशी होगी.’’

क्षमा पहले तो चुप रही पर रमा के बारबार आग्रह पर उस ने कहा, ‘‘आंटी, आप लोग हमारे बड़े हैं. मां जैसा कहेंगी मुझे मान्य होगा.’’

शोभना ने कहा, ‘‘क्षमा, रौनक सब प्रकार से तुम्हारे लिए उपयुक्त वर है. हमारे परिवारों के बीच संबंध भी मधुर हैं, इसलिए मैं चाहूंगी कि तुम और रौनक दोनों खाना खत्म करने के बाद बाहर लान में एकसाथ बैठ कर आपस में सलाह कर लो.’’

आपस में बातें कर के जब वे लौटे तो दोनों को खुश देख कर शोभना ने क्षमा को अंदर कमरे में ले जा कर उस से कहा, ‘‘तो फिर मैं बात पक्की कर दूं?’’

क्षमा के सकुचाते हुए स्वीकृति में सिर हिलाते ही उन्होंने उस के माथे को चूम कर उसे आशीर्वाद दिया. वे दोनों मांबेटी तब डाइंगरूम में आ गईं. शगुन के रूप में शोभना ने 1 हजार रुपए रौनक के हाथ में रख दोनों को आशीर्वाद दिया और रमा से लिपट उसे और उस के पति को बधाई दी. रौनक के आस्ट्रेलिया लौटने से पहले ही विवाह संपन्न करने की बात भी अभिभावकों के बीच हो गई.

क्षमा, शोभना और उस के पति का पासपोर्ट जापान, हांगकांग और आस्ट्रेलिया घूमने जाने के लिए पहले से ही बना हुआ था पर 3 वर्ष पहले क्षमा के पिता की अचानक मृत्यु हो जाने से वह प्रोग्राम कैंसिल हो गया था. यदि इस बीच क्षमा का वीसा बन गया तो वह भी रौनक के साथ आस्ट्रेलिया चली जाएगी नहीं तो रौनक 6 महीने बाद आ कर उसे ले जाएगा.

अगली शाम रविकांत से मिलने पर क्षमा ने उन्हें अपनी शादी के बारे में जब बताया तो उन्हें चुप और गंभीर देख वह बोली, ‘‘ऐसा लगता है अंकल कि आप को मेरे विवाह की बात सुन कर खुशी नहीं हुई.’’

रविकांत बोले, ‘‘तुम चली जाओगी तो मैं फिर अकेला हो जाऊंगा. मैं तो इन कुछ महीनों में ही तुम्हें अपने बहुत नजदीक समझने लगा था. पर यह तो मेरा स्वार्थ ही होगा, यदि मैं तुम्हारे विवाह से खुश न होऊं. मैं तो वर्षों से अकेले रहने का आदी हो गया हूं. मेरी बधाई स्वीकार करो.’’

क्षमा इठलाते हुए बोली, ‘‘ऐसे नहीं, मैं तो आप से बहुत बड़ा उपहार भी लूंगी, तभी आप की बधाई स्वीकार करूंगी.’’ रविकांत ने कहा, ‘‘तुम जो भी चाहोगी, मैं तुम्हें दूंगा. तुम कहो तो, तुम क्या लेना चाहोगी. अपनी इतनी अच्छी प्रिय दोस्त के लिए क्या मैं इतना भी नहीं कर सकूंगा.’’

‘‘पहले वादा कीजिए कि आप मना नहीं करेंगे.’’

‘‘अरे, मना क्योें करूंगा. लो, वादा भी करता हूं.’’

क्षमा बोली, ‘‘अंकल, मेरे सामने एक बड़ी समस्या है मेरी मां, जिन्होंने मेरे लिए इतना कुछ किया है, मैं उन्हें अकेली छोड़ विदेश चली जाऊं, ऐसा मेरा मन नहीं मानता. मैं चाहती हूं कि आप और मेरी मां, जो खुद भी एकाकी जीवन जी रही हैं, विवाह कर लें. आप दोनों को साथी मिल जाएगा. मैं मां को मना लूंगी. बस, आप हां कर दें.’’

रविकांत चुप रहे. कुछ देर के बाद क्षमा ने फिर कहा, ‘‘ठीक है, यदि आप तैयार नहीं हैं तो मैं अपने विवाह के लिए मना कर देती हूं. देखिए, मेरा विवाह अभी तय हुआ है, हुआ तो नहीं. मैं ने गलत सोचा था कि आप मेरे बहुत निकट हैं और मेरी भलाई के लिए मेरी भावनाओं को समझते हुए आप अपना दिया हुआ वादा निभाएंगे,’’ कहतेकहते क्षमा का गला रुंध गया.

रविकांत अपनी जगह से उठे. उन्होंने क्षमा के सिर पर हाथ रखा और उस के आंसू पोंछते हुए बोले, ‘‘मैं अपनी बेटी की खुशी के लिए सबकुछ करूंगा. मैं तुम्हारे सुझाव से सहमत हूं.’’

क्षमा खुशी से उछल पड़ी और उन के गले से लिपट गई. क्षमा ने अपनी शादी से पहले उन दोनों के विवाह कर लेने की जिद पकड़ ली ताकि वे दोनों संयुक्त रूप से उस का कन्यादान कर सकें.

अगले सप्ताह ही रविकांत और शोभना का विवाह बड़े सादे ढंग से संपन्न हुआ और उस के 5 दिन बाद रौनक और क्षमा की शादी बड़ी धूमधाम से हुई.

Religion : यह कैसा धर्म सम्मान कहीं फ्री तो कहीं बंद

Religion : यह कैसा धर्म संकट है जिसे समझ पाना सोच से परे है. एक तरफ सरकार मुसलमानों को ईद पर सौगात दे रही है तो दूसरी तरफ नवरात्रि पर मीट की दुकानों पर ताला लगाने की बात करती है. ईद पर बीजेपी 32 लाख मुसलमानों के घर मोदी की सौगात ले कर जा रही है. उन्हें यह दिखाना चाहती है की हमसब एक हैं लेकिन दूसरी तरफ उन की तौहीन करने पर जुटी हुई है. अगर बीजेपी के नेता दिनरात मुसलमानों के खिलाफ बयान देना बंद नहीं करते हैं तो फिर ऐसी सौगात का क्या मतलब.

एक तरफ ईद के मौके पर मीट की दुकानों पर ताला लगाया जा रहा है उन की रोजीरोटी को बंद किया जा रहा है तो कहीं सौगात बाटी जा रही है. बड़ी असमंजस की बात है कि आखिर मोदी सरकार कर क्या रही है. यह तो साफ है कि अपने देश के मुसलमानों को तो खुश करने का विचार इस में प्रतीत नहीं होता है लेकिन लगता है अरब देशों को वो दिखाना चाहते हैं कि भारत में कितना भाईचारा है. बड़ा ही दुविधाभरा विचार लग रहा है बीजेपी सरकार का मानो उन्हें खुद ही नहीं पता कि गले लगाएं या उन्हें समाज से अलग बनाएं.

उत्तर प्रदेश सरकार में राज्य मंत्री कपिलदेव अग्रवाल ने हापुड़ क्षेत्र में नवरात्रि के दौरान मीट की दुकानों को बंद रखने के आदेश दिए हैं, उन का कहना है कि नवरात्रि के 9 दिनों में मीट की दुकानों को खोलना गलत है और इस से हिंदुओं की आस्था का अपमान होता है, वहीं उत्तर प्रदेश में रमजान के पूरे महीने में शराब की दुकानें खुली रहीं और साथ ही इन्हीं दिनों में ही शराब के ठेकों पर एक के साथ एक शराब फ्री बाटी जा रही है. क्या इस से इसलाम का अपमान नहीं हो रहा, जहां इसलाम में मदिरापन को सख्त वर्जित बताया गया है लेकिन मुसलमानों ने तो शराब की दुकानों को बंद करने की मांग नहीं की. क्या ये नवरात्रों में शराब का फ्री बांटना सनातन धर्म का अपमान नहीं? और क्या बीजेपी बड़ेबड़े होटलों में भी इन 9 दिनों में मीट का बनना बंद कर सकेगी या यह सिर्फ रेहड़ी या छोटे ढाबों वालों के पेट पर लात मारने का एक तरीका अपना रही है? क्यों शिवरात्रि या नवरात्रि पर ही इस तरह के फरमान जारी करने पर जोर दिया जाता है?

Bihar Assembly Elections : वक्फ संशोधन से नीतीश पर आंच, बिहार चुनाव में इस का क्या असर पड़ेगा?

Bihar Assembly Elections : वक्फ विधेयक बिहार की राजनीति में एक नए और महत्वपूर्ण टकराव का बिंदु बन गया है. इस कानून को ले कर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और जनता दल (यूनाइटेड) के बीच तीखी बयानबाजी और आरोपप्रत्यारोप का दौर जारी है. यह देखना दिलचस्प होगा कि इस टकराव का बिहार की राजनीति पर क्या प्रभाव पड़ता है.

भारतीय जनता पार्टी की सहयोगी पार्टी के प्रमुख नीतीश कुमार के साथसाथ राष्ट्रीय लोकदल के चौधरी जयंत सिंह की मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं, पार्टी में विरोध मुखर होता चला जा रहा है. इस आंधीतूफान में कितने नेता धराशाई हो जाएंगे यह तो समय बताएगा मगर बिहार की राजनीति में इन दिनों वक्फ (संशोधन) विधेयक, जिसे हाल ही में संसद द्वारा पारित किया गया है, एक ज्वलंत मुद्दा बन गया है.

इस कानून को ले कर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) और जनता दल (यूनाइटेड) के बीच तीखी बयानबाजी और आरोपप्रत्यारोप का दौर जारी है. राजद के प्रमुख नेता और बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने जिस दृढ़ता के साथ इस विधेयक को निरस्त कराने का संकल्प लिया है, उस ने राज्य के राजनीतिक तापमान को एकाएक बढ़ा दिया है. उन की पार्टी ने न केवल बिहार में सत्ता में आने पर इस कानून को पलटने की घोषणा की है, बल्कि इसे चुनौती देते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया है.

यह घटनाक्रम बिहार के राजनीतिक परिदृश्य में एक नए और संभावित रूप से बड़े टकराव का संकेत देता है. तेजस्वी यादव ने एक संवाददाता सम्मेलन में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जद(यू) पर जम कर निशाना साधा.

उन्होंने आरोप लगाया, जद(यू) यह साबित करने की नाकाम कोशिश कर रही है कि यह विधेयक मुसलमानों के हितों की रक्षा करता है. राजद नेता ने जद(यू) द्वारा हाल ही में आयोजित एक संवाददाता सम्मेलन का उल्लेख करते हुए कटाक्ष किया, जिस में पार्टी के कई मुसलिम नेताओं को शामिल किया गया था.

तेजस्वी यादव ने सवाल उठाया कि यदि जद(यू) वास्तव में इस विधेयक को मुसलमानों के लिए फायदेमंद मानती है, तो पार्टी के किसी भी वरिष्ठ नेता ने स्वयं मीडिया को संबोधित क्यों नहीं किया. उन्होंने यह भी कहा, “प्रेसवार्ता समाप्त होने के तुरंत बाद सभी नेता पत्रकारों के सवालों से बचते हुए चले गए, जो दर्शाता है कि पार्टी के भीतर इस मुद्दे पर गहरी असहजता और संभवतः मतभेद मौजूद हैं.”

राजद का मुख्य तर्क यह है वक्फ (संशोधन) विधेयक भारतीय संविधान के अनुच्छेद 26 का उल्लंघन करता है, जो सभी धार्मिक समूहों को अपने धार्मिक मामलों का प्रबंधन करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है.

तेजस्वी यादव ने स्पष्ट रूप से कहा कि उन की पार्टी के सांसदों ने संसद के दोनों सदनों में इस विधेयक का पुरजोर विरोध किया था, क्योंकि उन का मानना है कि यह कानून धार्मिक संस्थाओं की स्वायत्तता पर अतिक्रमण करता है.

सर्वोच्च न्यायालय में इस विधेयक को चुनौती देने का राजद का निर्णय इस मुद्दे को केवल राजनीतिक दायरे से बाहर निकाल कर कानूनी लड़ाई के मैदान में ले जाता है. अब यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि देश की शीर्ष अदालत इस मामले पर क्या रुख अपनाती है और क्या यह विधेयक संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप पाया जाता है.

यह घटनाक्रम जद(यू) के लिए एक बड़ी चुनौती पेश कर रहा है. एक तरफ, उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर अपनी गठबंधन सहयोगी भारतीय जनता पार्टी के रुख का समर्थन करना पड़ रहा है, जिस ने इस विधेयक को पारित कराया है. वहीं, दूसरी तरफ उन्हें बिहार में अपने अल्पसंख्यक समुदाय के वोट बैंक को भी साध कर रखना है, जो इस कानून को ले कर आशंकाएं व्यक्त कर रहा है. जद(यू) के मुस्लिम नेताओं की असहजता और वरिष्ठ नेताओं का मीडिया से दूरी बनाए रखना इस दुविधा को स्पष्ट रूप से दर्शाता है.

तेजस्वी यादव ने इस स्थिति का लाभ उठाते हुए व्यंग्यात्मक लहजे में यह तक कह दिया, “ऐसा प्रतीत होता है कि जद(यू) के कार्यालयों में जल्द ही नीतीश कुमार की तस्वीरों की जगह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीरें लग जाएंगी.” उन का यह बयान जद(यू) पर भाजपा के बढ़ते प्रभाव और राज्य की राजनीति में संभावित ध्रुवीकरण की ओर इशारा करता है.

तेजस्वी यादव ने यह भविष्यवाणी भी की है कि चुनाव समाप्त होने के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का राजनीतिक भविष्य क्या होगा, यह एक बच्चा भी जानता है. यह बयान न केवल जद(यू) पर दबाव बनाने की रणनीति है, बल्कि यह बिहार की बदलती राजनीतिक समीकरणों और राजद की बढ़ती हुई आत्मविश्वास को भी दर्शाता है. पिछले कुछ समय से राजद ने लगातार विभिन्न मुद्दों पर सरकार को घेरने की कोशिश की है और वक्फ विधेयक का मुद्दा उन्हें एक और महत्वपूर्ण हथियार मिल गया है.

वक्फ विधेयक वास्तव में है क्या? मोटे तौर पर, यह विधेयक वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन और प्रशासन से संबंधित नियमों में कुछ बदलाव करता है. सरकार का तर्क है, इन संशोधनों से वक्फ संपत्तियों का बेहतर प्रबंधन हो सकेगा और उन में व्याप्त भ्रष्टाचार को कम किया जा सकेगा. हालांकि, विपक्षी दलों और कुछ मुस्लिम संगठनों का मानना है कि यह विधेयक केंद्र सरकार को वक्फ बोर्डों के कामकाज में अनुचित हस्तक्षेप करने की शक्ति प्रदान करता है और यह अल्पसंख्यक समुदाय की धार्मिक स्वतंत्रता पर अतिक्रमण है.

बिहार की राजनीति में वक्फ बोर्ड हमेशा से एक संवेदनशील मुद्दा रहा है. वक्फ संपत्तियों का प्रबंधन और उन का उपयोग अकसर विवादों में घिरा रहता है. ऐसे में, इस नए कानून को ले कर राजनीतिक दलों का अलगअलग रुख स्वाभाविक है. राजद इस मुद्दे को उठा कर न केवल अल्पसंख्यक समुदाय के बीच अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश कर रहा है, बल्कि वह जद(यू) को भी एक मुश्किल स्थिति में धकेलना चाहता है.

आने वाले दिनों में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि जद(यू) इस चुनौती का किस प्रकार सामना करती है. क्या पार्टी अपने अल्पसंख्यक नेताओं को विश्वास में ले कर कोई प्रभावी रणनीति बना पाती है? या फिर राजद इस मुद्दे को और जोरशोर से उठा कर राजनीतिक माहौल को अपने पक्ष में करने में सफल होता है? सर्वोच्च न्यायालय का इस मामले पर क्या फैसला आता है, यह भी बिहार की राजनीति के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकता है.

कुल जमा वक्फ विधेयक बिहार की राजनीति में एक नए और महत्वपूर्ण टकराव का बिंदु बन गया है, तेजस्वी यादव के नेतृत्व में राजद का इस कानून के खिलाफ मोर्चा खोलना और इसे कानूनी चुनौती देना राज्य के राजनीतिक समीकरणों को प्रभावित कर सकता है.

यह देखना दिलचस्प होगा कि इस टकराव का बिहार की राजनीति पर क्या दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है और क्या वास्तव में यह मुद्दा आगामी चुनावों में एक निर्णायक भूमिका निभाता है. यह स्पष्ट है कि बिहार की राजनीति में आने वाले दिन काफी गहमागहमी भरे रहने वाले हैं.

Bihar Elections : बिहार में क्या गुल खिलाएगी कांग्रेस

Bihar Elections : बिहार के चुनाव पर देशभर की नजर लगी है. कांग्रेस लालू प्रसाद के साथ तालमेल करेगी या फिर उन के साथ केजरीवाल जैसा व्यवहार करेगी?

बिहार विधानसभा के लिए चुनाव होने वाले हैं. लोकसभा चुनाव 2029 के दृष्टिकोण से ये चुनाव देश की राजनीति को बदलने वाले साबित हो सकते हैं. सेहत और राजनीति दोनों हिसाब से नीतीश कुमार अपने सब से कमजोर दौर में हैं. कांग्रेस दिल्ली जैसा फैसला बिहार में लेने की दिशा में आगे बढ़ रही है. पार्टी को मजबूत करने के लिए कांग्रेस ने कर्नाटक के कृष्णा अल्लावुरु को बिहार कांग्रेस का प्रभारी बनाया है. दो दशक से बिहार कांग्रेस लालू प्रसाद यादव के अनुसार चली है. ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या कृष्णा अल्लावुरु लालू प्रसाद यादव के साथ तालमेल बैठा पाएंगे?

बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव 2020 में हुए थे. उस में जदयू और भाजपा व अन्य दलों का गठबंधन था. वह गठबंधन 243 सीटों पर चुनाव लड़ा. उन में से जदयू 115 सीटों पर लड़ा और

43 सीटें जीतीं, भाजपा 110 पर लड़ी जिन में 74 जीतीं, वीआईपी और हम ने मिला कर 18 सीटों पर चुनाव लड़े और वे 8 सीटें जीते.

कुल 243 में से 128 सीटें जीत कर एनडीए ने सरकार बनाई. नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने. उसी चुनाव में कांग्रेस और राजद ने कुल 110 सीटें जीतीं. राजद 144 पर लड़ा और 75 सीटें जीता, कांग्रेस 70 पर लड़ी मगर 19 सीटें ही जीत सकी. राजद खेमे का कहना है कि अगर कांग्रेस बेहतर लड़ी होती तो नतीजे अलग होते. इस नजर से राजद और कांग्रेस के फैसले पर 2025 का विधानसभा चुनाव टिका है.

बिहार से पलटती है राजनीति

देश की राजनीति में उत्तर प्रदेश के बाद सब से प्रमुख चुनाव बिहार के होते हैं. उस से देश की राजनीति का अंदाजा लगाना स्वाभाविक हो जाता है. एक दौर में राजनीतिक और सामाजिक क्रांति बिहार से ही शुरू होती थी. कांग्रेस की सब से मजबूत प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का किला ध्वस्त करने का काम जेपी आंदोलन से ही हुआ था, जो बिहार से शुरू हुआ था. 1990 में बिहार ने एससी और ओबीसी की ताकत को एकजुट कर के सामंतशाही को उखाड़ फेंका था. इस के बाद ऊंची जातियों ने ओबीसी और एससी को अलगथलग कर के वापस अपनी सत्ता बना ली.

20 साल से बिहार पर नीतीश कुमार का राज है. शराबबंदी के अलावा उन की कोई उपलब्धि नहीं है. नीतीश के जरिए सत्ता भाजपा के हाथ है. कांग्रेस और राजद वहां एकसाथ हैं. राहुल गांधी की मजबूरी है कि उन के पास ओबीसी के लोग तो हैं पर ओबीसी के बड़े नेता उन के साथ नहीं हैं. जब तक कांग्रेस ओबीसी नेताओं को आगे नहीं लाएगी तब तक वह बिहार में केवल राजद को ही नुकसान करेगी. 2020 के चुनाव में कांग्रेस को गठबंधन की ज्यादा सीटें दी गई थीं जिस के कारण राजद बहुमत के आंकड़ों तक नहीं पहुंच पाई थी.

कांग्रेस में ऊंची जाति के नेता चाहते हैं कि कांग्रेस बिहार में भी दिल्ली की तर्ज पर अपने बल पर चुनाव लड़े, जिस का प्रभाव लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद पर पड़ेगा, वह सत्ता से दूर रह जाएगी. बड़ी संख्या में पिछड़े नेता भाजपा के साथ खड़े हैं. पिछड़ों को देख एससी नेता चिराग पासवान को लगता है कि जब ओबीसी भाजपा से नहीं लड़ पा रहे तो एससी कैसे लड़ेंगे? एससी में जो जागरूकता रामविलास पासवान ने जगाई थी, वह अब खत्म हो गई है.

सामंतशाही के खिलाफ जो लड़ाई लालू प्रसाद यादव ने लड़ी वह नीतीश कुमार ने भाजपा के साथ मिल कर खत्म कर दी है. कांग्रेस को बहुत समझदारी से अपना फैसला करना होगा, जहां पूरे देश के राज्य आगे बढ़ रहे हैं वहां बिहार अपनी पहचान खोता जा रहा है. पहले बिहार की जो बौद्धिक छवि बनी थी, पिछले 20 सालों में अब वह बदल चुकी है. आज बिहारी के नाम पर लोग उस से बचना चाहते हैं. बिहारी शब्द गरीबी और गुरबत की पहचान बन कर रह गया है. जो सामाजिक बदलाव 1990 से शुरू हुआ वह नीतीश कुमार की पौराणिक नीतियों का शिकार हो कर खत्म हो गया.

बिहार की राजनीति में अगड़ों की ताकत

बिहार की राजनीति में पिछड़ी जातियों की भूमिका को देखने के लिए इस के 2 हिस्से करने होंगे. पहला हिस्सा 1947 से ले कर 1989 तक और दूसरा हिस्सा 1990 से आज तक का है. बिहार में पहले हिस्से की राजनीति में ऊंची जातियों का दबदबा रहा है. बिहार विधानसभा का पहला चुनाव 1952 में हुआ था. श्रीकृष्ण सिंह बिहार के पहले मुख्यमंत्री बने. उस समय बिहार में राजनीति की रणनीति ऊंची जातियों द्वारा तय की जाती थी. उस समय मुख्यमंत्री पद के लिए श्रीकृष्ण सिंह और अनुग्रह नारायण सिन्हा दो प्रबल दावेदार थे. तब कायस्थ लौबी ने श्रीकृष्ण सिंह का साथ दिया जिस से वे मुख्यमंत्री बन गए.

1957 में द्वितीय विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद के लिए अनुग्रह नारायण सिन्हा ने अपनी दावेदारी पेश की. वोटिंग द्वारा मुख्यमंत्री पद के लिए चुनाव हुआ और श्रीकृष्ण सिंह दोबारा मुख्यमंत्री चुन लिए गए. श्रीकृष्ण सिंह भूमिहार जाति से आते थे. इस के बाद राजपूत जाति से दीप नारायण सिंह, ब्राह्मण जाति के विनोदानंद ?ा, कायस्थ जाति के कृष्ण वल्लभ सहाय, महामाया प्रसाद सिन्हा, कुशवाहा जाति के सतीश प्रसाद सिंह, यादव जाति के विंदेश्वरी प्रसाद मंडल, एससी से भोला पासवान शास्त्री, राजपूत जाति के सरदार हरिहर सिंह, यादव जाति के दरोगा प्रसाद राय, नाई जाति के कर्पूरी ठाकुर, ब्राह्मण जाति के केदार पांडेय, मुसलिम समुदाय से अब्दुल गफूर, ब्राह्मण जग्गनाथ मिश्रा, एससी रामसुंदर दास, राजपूत जाति के चंद्रशेखर सिंह, ब्राह्मण जाति के विंदेश्वरी दूबे, भागवत झा आजाद और राजपूत सत्येंद्र नारायण सिंह बिहार के मुख्यमंत्री बने.

1952 से 1989 तक 14 बार उच्च जाति, 5 बार ओबीसी और 4 बार एससी और 1 बार मुसलिम जाति के नेता बिहार के मुख्यमंत्री बने. ऊंची जातियों के कई नेता 2 से

3 बार मुख्यमंत्री रहे हैं. भले ही 10 बार ओबीसी, एससी और मुसलिम मुख्यमंत्री रहे हों पर बिहार की राजनीति में ऊंची जातियों का वर्चस्व कायम रहा है. ऊंची जातियों के नेता ही बिहार की राजनीति की बागडोर अपने हाथों में रखे रहे.

इस दौर में एससी और ओबीसी जातियों के नेता भी मुख्यमंत्री बने लेकिन न तो वे अपने जाति के लोगों को संगठित कर सके, न ही जातिगत वर्चस्व स्थापित कर सके और न ही बिहार स्तर पर अपनी छवि को उभार सके. वे ऊंची जातियों के नेताओं की कठपुतली बन कर ही रह गए. इस का मुख्य कारण था कि उस समय ओबीसी व एससी जातियों की सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक हालत बेहद पिछड़ी थी.

पिछड़े वर्ग की प्रमुख जातियों में यादव, कोइरी और कुर्मी थे, जो पूरी तरह से खेती पर निर्भर थे. जिस के कारण पिछड़ी जातियां चाह कर भी उभर नहीं पाईं. बिहार में पहली बार पिछड़ी कुशवाहा जाति के सतीश प्रसाद सिंह कार्यकारी मुख्यमंत्री बने थे. उस के बाद 1968 में पिछड़ी जाति के विंदेश्वरी प्रसाद मंडल मुख्यमंत्री बने. वे भी कम समय के लिए ही बने. उस के बाद 1970 में यादव जाति के दरोगा प्रसाद राय मुख्यमंत्री बने. वे 16 फरवरी, 1970 से 22 दिसंबर, 1970 तक मुख्यमंत्री रहे.

कर्पूरी ठाकुर ने जगाई ओबीसी राजनीति

1970 में नाई जाति के कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने. वे 22 दिसंबर, 1970 से 2 जून, 1971 तथा 24 जून 1977 से 21 अप्रैल, 1979 तक 2 बार मुख्यमंत्री रहे. बिहार में एससी जाति से सब से पहले मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री बने. वे 23 मार्च, 1968 से 29 जून, 1968 तक, 22 जून, 1969 से 4 जुलाई, 1969 तक तथा 2 जून, 1971 से 9 जनवरी, 1972 तक 3 बार मुख्यमंत्री और कार्यकारी मुख्यमंत्री रहे. उस के बाद एससी जाति से रामसुंदर दास मुख्यमंत्री बने. वे अप्रैल 1979 से 17 फरवरी, 1980 तक मुख्यमंत्री रहे.

बिहार की राजनीति उथलपुथल से भरी रही. श्रीकृष्ण सिंह के बाद 1989 तक कोई भी मुख्यमंत्री अपना 5 साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया. उस कालखंड में बिहार की राजनीति को देखें तो एससी और ओबीसी मुख्यमंत्रियों का कार्यकाल बेहद कम रहा है. उन को कभी अपना कार्यकाल पूरा ही नहीं करने दिया गया. इस के उलट, ऊंची जातियों के मुख्यमंत्रियों श्रीकृष्ण सिंह, दीप नारायण सिंह, विनोदानंद झा, कृष्ण वल्लभ सहाय, महामाया प्रसाद सिंह, सरदार हरिहर सिंह, केदार पांडेय, जग्गनाथ मिश्र, चंद्रशेखर सिंह, विंदेश्वरी दूबे, भागवत झा आजाद, सत्येंद्र नारायण सिंह में से कई नेताओं को जितना समय मिला था, उसे पूरा किया था.

बिहार में वर्ष 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी. जनता पार्टी के विधायक दल के नेता कर्पूरी ठाकुर चुने गए. वे बिहार के मुख्यमंत्री बने.

1978 में केंद्र सरकार ने पिछड़ी जातियों के आरक्षण के लिए बिहार के ही बीपी मंडल की अध्यक्षता में मंडल कमीशन की नियुक्ति की. इस समय तक बिहार में जयप्रकाश नारायण ने जाति छोड़ो अभियान शुरू कर दिया था. अब ऊंची जातियों को खतरा महसूस होने लगा था. 1980 में मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट दी तब तक केंद्र में सरकार बदल चुकी थी. 1980 में कांग्रेस केंद्र में सरकार बना चुकी थी. मंडल कमीशन की रिपोर्ट को 1990 तक ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. 1989 में जनता दल की सरकार बनी तब प्रधानमंत्री बने विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू किया.

लालू प्रसाद यादव ने तोड़ा सामंती ढांचा

कर्पूरी ठाकुर ने पिछड़ी जातियों को आगे बढ़ाने का काम किया था. 1990 के दशक से बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव का प्रभाव बढ़ना शुरू हुआ. नीतीश कुमार ने लालू के साथ ही अपनी राजनीति शुरू की थी. लालू यादव और नीतीश कुमार दोनों ही जेपी आंदोलन की उपज हैं. दोनों छात्र राजनीति से चुनावी राजनीति में आए. 1990 से ले कर आज तक बिहार की राजनीति इन्हीं दोनों के ही इर्दगिर्द घूम रही है. 1990 में लालू प्रसाद यादव बिहार के मुख्यमंत्री बन गए. इस में भी अगड़ेपिछड़ों का संघर्ष देखने को मिला.

बिहार में कांग्रेस की राजनीति को चुनौती जेपी आंदोलन से ही मिली थी और इसी आंदोलन ने लालू प्रसाद यादव को बड़ा नेता भी बनाया. लालू यादव 1977 में लोकसभा सांसद का चुनाव जीत गए थे. 1989 में बिहार के भागलुपर में दंगों के बाद बिहार से कांग्रेस की सत्ता का अंत हुआ.

1990 में लालू यादव जनता दल से बिहार के मुख्यमंत्री बने. वे कोई डमी मुख्यमंत्री नहीं थे. लालू राज से ही बिहार में ऊंची जातियों का वर्चस्व खत्म होने लगा. लालू यादव केवल बिहार ही नहीं, देश की राजनीति में भी अपना प्रभाव बढ़ा चुके थे. इंदर कुमार गुजराल और देवगौड़ा को प्रधानमंत्री बनाने में सब से बड़ा योगदान लालू प्रसाद का था.

यह बात कांग्रेस को हजम नहीं हो रही थी. इस के बाद लालू प्रसाद यादव को चारा घोटाला और दूसरे कई आरोपों में घेर दिया गया. उन के पीछे सीबीआई लगा दी गई. लालू को जेल जाना पड़ा. तब लालू प्रसाद यादव ने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया. लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार अच्छे साथी थे.

नीतीश कुमार लालू यादव की तरक्की में ही अपनी तरक्की सम?ाते थे. पुराने समाजवादी नेता लालू और नीतीश को जगह देने के लिए तैयार नहीं थे. नीतीश कुमार जिस कुर्मी जाति के हैं उस की तादाद बिहार में कम है जबकि यादव 18 फीसदी हैं. नीतीश कुमार को लगता था कि उन्होंने लालू को सीएम बनाने में जिस तरह की मदद की, उस के बाद लालू उन की हर बात सुनेंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ और दोनों की राह अलग हो गई. नीतीश कुमार पहली बार विधानसभा का चुनाव 1985 में जीते. लालू नीतीश से बड़े नेता बन चुके थे.

नीतीश कुमार अपनी अलग राह देखने लगे थे. दूसरी तरफ ऊंची जातियां लालू और नीतीश को अलग करना चाहती थीं. 1994 में नीतीश कुमार ने जौर्ज फर्नांडिस के साथ मिल कर समता पार्टी बनाई और 1995 के बिहार विधानसभा चुनाव में लालू यादव और नीतीश कुमार अलग हो गए. इस चुनाव में नीतीश कुमार कुछ खास नहीं कर पाए. समता पार्टी केवल 7 सीटों तक ही सीमित रही. लालू यादव एक बार फिर राज्य के मुख्यमंत्री बने.

अगड़ों के पैरोकार बने नीतीश कुमार

1995 के विधानसभा चुनाव में हार के बाद नीतीश कुमार को लगा कि वे बिहार में लालू यादव से अकेले नहीं लड़ सकते जिस के कारण 1996 के लोकसभा चुनाव में नीतीश ने भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया. वे उसी पार्टी के साथ आ गए जिसे कभी वे मंदिर आंदोलन के दौरान आड़े हाथों लेते थे और सांप्रदायिक पार्टी बताते थे.

2000 के विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार और बीजेपी को 121 सीटों पर कामयाबी मिली. नीतीश कुमार बिना बहुमत के मुख्यमंत्री बने. अक्तूबर 2005 में हुए विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 55 और जनता दल यूनाइटेड को 88 सीटों पर जीत मिली और पूर्ण बहुमत के साथ गठबंधन की सरकार बनी. इस के बाद से नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री हैं.

2010 और 2015 के विधानसभा चुनाव में भी नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने. इस बीच नीतीश कुमार ने भाजपा का साथ छोड़ा. फिर वे लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद के सहयोग से मुख्यमंत्री बने. इस के बाद राजद का साथ छोड़ कर वापस भाजपा के साथ आए. अब 2025 में नीतीश कुमार क्या पलटी मारेंगे, यह पता नहीं है.

1990 के बाद बिहार में राजनीति की बागडोर पिछड़ी जाति के नेताओं के हाथों में रही है. नीतीश कुमार ने भाजपा से हाथ मिला कर बिहार में ऊंची जातियों के वर्चस्व को वापस ला दिया. नीतीश कुमार ने सब से लंबे समय तक बिहार में मुख्यमंत्री बनने का रिकौर्ड बनाया. इस के बाद भी बिहार के लिए वे कुछ खास कर नहीं पाए. 20 साल से बिहार के मुख्यमंत्री होने के बाद भी वे बिहार को कुछ नहीं दे पाए. नीतीश कुमार के चलते ही बिहार में सामंती राजनीति ने अपना प्रभाव वापस स्थापित कर लिया है.

बिहार में क्या करेगी कांग्रेस

सत्ता हासिल करने के लिए क्षेत्रीय दलों और कांग्रेस को मिलजुल कर चलना होगा, जैसे कांग्रेस से लड़ने के लिए भारतीय जनता पार्टी ने 13 दलों को मिला कर एनडीए तैयार किया था. दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के आमनेसामने चुनाव लड़ने से भाजपा को 27 साल के बाद सरकार बनाने का मौका मिला. कांग्रेस में एक गुट यह कहता है कि पार्टी को अपने बलबूते प्रदेशों में चुनाव लड़ना चाहिए. क्षेत्रीय दलों की बैसाखी छोड़ देनी चाहिए. दूसरे गुट का कहना है कि भाजपा को रोकने के लिए क्षेत्रीय दलों को साथ लेना जरूरी है नहीं तो भाजपा ताकतवर हो जाएगी.

गुजरात में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा कि आधी गुजरात कांग्रेस वैचारिक रूप से भाजपाई मानसिकता की हो गई है. असल में यह बात पूरे देश पर लागू होती है. यह केवल आज की बात नहीं है. कांग्रेस अपने जन्म के समय से ही 2 तरह के विचारों से घिरी रही है. राहुल की कांग्रेस भी इस का अपवाद नहीं है. कांग्रेस के ‘थिंक टैंक’ के लोग कभी राहुल गांधी को मंदिरमंदिर भटकने के लिए तैयार करते हैं तो कभी उन को कुंभ स्नान करने और राममंदिर जाने से रोकते हैं. परेशानी इस बात की है कि राहुल गांधी अपनी खुद की स्पष्ट सोच नहीं बना पा रहे.

अब राहुल गांधी को तय करना है कि वे क्षेत्रीय दलों के साथ चलेंगे या अलग. राहुल गांधी के फैसले चुनाव के समय आते हैं. उस से पार्टी को लाभ नहीं होता है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस लोकसभा चुनाव में साथ थे. विधानसभा उपचुनाव में अलगअलग हो गए. बिहार में कांग्रेस ने अपना नया ढांचा तैयार करना शुरू किया है. इस से कांग्रेस के सहयोगी राजद को दिक्कत है. बिहार में 2025 के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. कांग्रेस और राजद के बीच अभी कोई रणनीति तैयार नहीं की गई.

राहुल गांधी ने कृष्णा अल्लावुरु को बिहार कांग्रेस का नया प्रभारी बनाया है. अभी तक कांग्रेस का जो भी बड़ा पदाधिकारी बिहार में बनता था वह राजद नेता लालू यादव से मिलने जाता था. कृष्णा अल्लावुरु के मामले में ऐसा नहीं हुआ. कर्नाटक के रहने वाले कृष्णा अल्लावुरु बिहार को कितना समझते हैं, यह समय आने पर पता चलेगा.

कृष्णा अल्लावुरु के लालू यादव से कैसे संबंध रहते हैं, इस बात पर कांग्रेस और राजद का चुनावी गठबंधन निर्भर करेगा. अभी बिहार विधानसभा के चुनाव होने में 6 माह का समय बाकी है. ऐसे में दोनों दलों के बीच की रणनीति साफ होनी चाहिए. कृष्णा अल्लावुरु के सामने कांग्रेस को एकजुट करने की बड़ी चुनौती है. कांग्रेस के कई नेता राजद, लालू और तेजस्वी के समर्थक माने जाते हैं. पिछले 20 सालों से आलाकमान ने बिहार कांग्रेस की कमान लगभग राजद के हाथों में ही छोड़ रखी है.

दिल्ली चुनाव के बाद राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे नई रणनीति पर काम कर रहे हैं. नए नेताओं को पार्टी की कमान सौंपी जा रही है. कृष्णा अल्लावुरु, अलका लांबा और कन्हैया कुमार जैसे नेता बिहार विधानसभा चुनाव को ले कर पार्टी की संभावनाओं को देख रहे हैं. वे पार्टी कार्यकर्ताओं से मिल रहे हैं. अल्लावुरु नेताओं को यह समझना चाहते हैं कि सभी नेता पार्टीलाइन पर चलें और एकजुट हो कर काम करें.

पिछले दो दशकों में बिहार कांग्रेस में महासचिव और प्रदेश अध्यक्ष पद के लिए लालू प्रसाद यादव की सहमति जरूरी होती थी. यहां तक कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव के टिकट भी राजद के इशारे पर ही बंटते थे. पप्पू यादव और कन्हैया कुमार इस का बड़ा उदाहरण हैं. लालू के विरोध को दरकिनार कर कांग्रेस चाह कर भी पप्पू यादव को पूर्णिया और कन्हैया कुमार को बेगूसराय से चुनाव नहीं लड़ा पाई थी.

दिल्ली चुनाव के नतीजों के बाद कांग्रेस नई रणनीति पर चल रही है. जैसेजैसे विधानसभा चुनाव करीब आएंगे, टिकट के बंटवारे होंगे, वैसेवैसे साफ होगा कि कांग्रेस क्या करती है. कृष्णा अल्लावुरु राहुल गांधी के करीबी हैं और युवा कांग्रेस के प्रभारी भी हैं. वे बिहार कांग्रेस के इंचार्ज भी हैं. कृष्णा अल्लावुरु अपने तरीके से काम करते हैं. उन की नियुक्ति को कांग्रेस का बड़ा दावं माना जा रहा है. इस से पार्टी कार्यकर्ताओं को संदेश गया है कि कांग्रेस युवाओं को आगे बढ़ाना चाहती है. कांग्रेस को उम्मीद है कि कृष्णा अल्लावुरु बिहार में पार्टी को मजबूत करेंगे. बिहार में कांग्रेस की स्थिति कमजोर है. ऐसे में कृष्णा अल्लावुरु के सामने बड़ी चुनौती है. वे इस चुनौती से कैसे निबटते हैं, यह बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे बताएंगे.

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