‘‘खूबसूरत शब्दों का जामा पहना देने से अश्लील शील नहीं हो जाता. बुरा, अच्छा नहीं हो जाता है. अधर्म, धर्म नहीं हो जाता. द्रौपदी के 5 विवाह किसी भी कारण से हुए हों, किसी का वचन, देवताओं का श्राप और पांडवों के प्रति द्रौपदी की ईमानदारी, लेकिन अधर्म वह फिर भी था. उस काल में भी, इस काल में भी.

‘‘तुम स्त्री मुक्ति, अपमान का बदला या पति से बनी शारीरिक, मानसिक दूरी के अभाव में किसी परपुरुष के साथ बने संबंधों को उचित नहीं ठहरा सकतीं. फिर वापस पत्नी का कवच धारण कर के, उस गिरावट को कमजोर पल, भावुकता, भूल का नाम नहीं दे सकतीं. यदि तुम्हारा परपुरुष के साथ बिताया वह समय उचित था तो तुम उसी की क्यों न हो गईं. छोड़ देना था मुझे और अपना लेना था उसे, जिस की बांहों में तुम्हें मुझे भूलने की, मुझ से मिली कटुता से हृदय में उपजे विषाद को भुलाने की क्षमता मिली थी. अपनी चंचलता, चित्त की निम्न प्रवृत्ति को तुम जो भी नाम देना चाहो, स्वयं को अपराधमुक्त करने के लिए दे सकती हो किंतु उसे तुम उचित नहीं ठहरा सकतीं.

‘‘मैं तुम्हें कुलटा, पापिन, चरित्रहीन नहीं कह रहा हूं किंतु मैं तुम्हें अब उस दृष्टि से भी नहीं देख रहा हूं. मैं तुम्हारी गलती को अपनी किसी कमी के कारण तुम्हारा किसी और से जुड़ना तुम्हारी जरूरत मान कर स्वीकार कर लेता हूं क्योंकि कमी मुझ में है, लेकिन फिर भी तुम्हारी जरूरत जायज नहीं हो सकती. तुम्हारे इस सुख ने, सुकून ने, स्त्री की पूर्णता ने मेरे मन का सुखचैन सब छीन लिया.

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