5-6 दिनों बाद बिगड़े मौसम के मिजाज ठीक हुए थे. आंधीबारिश थम गए थे और कुनकुनी धूप छितर आई थी. प्रज्ञा ने घर के सारे कपड़े बिस्तर पर ला कर धूप में पटक दिए थे और खुद भी पलंग पर जगह बना कर कुनकुनी धूप में पसर गई थी. आंखें मुंदने ही लगी थीं कि ठंडीठंडी हवा के ?ांकों से सिहर कर उस ने आंखें खोल दीं. टपटप बूंदें बरसती देख उस के होश उड़ गए. वह बदहवास सी दोनों हाथों से कपड़े समेटने लगी, पर फुहार एकाएक बौछार में बदल गई थी. उस के हौसले पस्त हो गए. तभी एक सुदर्शन नवयुवक जाने कहां से प्रकट हो गया. दोनों बगलों में उस ने एकएक गद्दा दबाया, हाथों में तकिए... दो चक्करों में ही प्रज्ञा सब सामान सहित अंदर पहुंच गई थी. बौछार अब मूसलाधार में बदल गई थी.

प्रज्ञा ने राहत की सांस लेते हुए उस अजनबी को धन्यवाद देने के लिए गरदन घुमाई, तब तक वह सीढि़यां चढ़ कर फिर से ऊपर अपने फ्लैट में पहुंच चुका था.

प्रज्ञा को सबकुछ एक परीकथा की भांति लग रहा था. उस मोहक व्यक्तित्व वाले युवक का एक हीरो की तरह प्रकट होना, उस का बलिष्ठ शरीर, उस की फुरती... स्मरण करते हुए प्रज्ञा के होंठों पर एक लजीली मुसकान तैर गई. इस का मतलब वह नवयुवक ऊपर से उसे सोते हुए ताक रहा था... और आज ही क्यों, न जाने कब से ताक रहा हो? उसे कपड़े फैलाते, बाल सुखाते, पौधों में पानी देते... वह तो बिना दुपट्टे के ही, बल्कि कई बार तो नाइटी में ही... सोचते हुए प्रज्ञा लाज से दोहरी हो उठी थी.

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