'बालात्कार की मारी युवती को कोर्ट के अहाते में चाय की दुकान चलाने वाली से कैसा सहारा मिला?

ऐसी कहानियां सिर्फ सरिता में.'

 

"यहां बैठ जाऊं, चाची?" रेखा ने चबूतरे पर चाय की दुकान सजाए एक बुजुर्ग औरत से कहा.

"चाय पीनी है?" बुढ़िया ने बिना उस की ओर देख सवाल किया.

"पैसे नहीं हैं मेरे पास."

"फिर काहे मेरी दुकान की जगह घेरनी है?"

"ठीक है नहीं बैठती," इतना कह कर रेखा वापस मुड़ गई.

बुढ़िया ने उस की ओर नजर उठाई.पीला सलवारकुरता पहने एक लड़की पीठ फेरे खड़ी थी. रोज कोर्ट में कई लोगों को आतेजाते देख उस की आंखों ने उन्हें तोला है, लेकिन यह लड़की कुछ अलग थी.

"रुक, बैठ जा," बुढ़िया बोली.

रेखा ने अपना झोला चबूतरे पर रख दिया और पैर ऊपर कर बैठ गई.बुढ़िया की निगाहें उस का ऐक्सरे करने लगी. चौड़े माथे वाली दुबलीपतली गेहुंए रंग की यह लड़की कुंआरी है या शादीशुदा, पता नहीं चल रहा था. वह चुपचाप अपने में खोई कोर्ट में आतेजाते लोगों को देख रही थी.

"2 चाय बना दे हसीना," अपना नाम सुन कर बुढ़िया की नजर ऊपर उठी.

"अदरक वाली या बिना अदरक वाली?"

"डाल दे अदरक भी. पैसे कौन सा अपनी जेब से लगने हैं."

"हां, बेचारे गरीबों की जेब से निकालते हो तुम नाशपीटे काले कोट वाले," हसीना ने मुंह बनाते हुए कहा.

"तेरी दुकानदारी भी तो इन से ही चल रही है चाची," आदमी ने कहा.

"चलचल, अपनी चाय ले और बातें न बना," हसीना ने मुंह बिचका कर कहा. आदमी हंसते हुए चुपचाप चाय ले कर वहां से चला गया.

रेखा का ध्यान हसीना की ओर चला गया जोकि चाय के भगोने से जमी हुई पत्ती खुरच रही थी. रेखा को अपनी ओर देखती हसीना के हाथ रुक गए. रेखा की आंखों में कुछ तो था जो उसे झिंझोड़ रहा था.

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