साधना ने निगाहें अपनी और पति की तसवीर, जो ड्राइंगरूम में लगी थी, पर टिका टीं और कहा, ‘‘रज्जू.’’
‘‘हां, मां.’’
‘‘उन को,’’ संभल कर बोली साधना, ‘‘मेरा मतलब, अपने पापा को फोन तो किया. इस बार तो वह इधर दशहरा, दीवाली की छुट्टियों में भी नहीं आए. गरमी की छुट्टियों में भी नहीं आए. गरमी की छुट्टियां भी अब होने वाली हैं और तेरे पापा ने कई दिनों से फोन नहीं किया है. रज्जू, कहीं उन की तबीयत खराब न हो. मेरा दिल आजकल बहुत घबराने लगा है, बहुत… तुम मैसेज ही कर दो अपने पापा को…’’
रज्जू के देखने की मुद्रा से साधना एकाएक सकपका गई. लगा भी, बोलने से कहीं कोई गलती तो नहीं हो गई, मैसेज भेजने भर की बात कहनी थी, फालतू बकवास की जरूरत क्या थी? मन की यह कमजोरी कब जाएगी? जाएगी कहां और जाएगी तो संभवत: मृत्यु के साथ. नारी के पास प्यार, स्नेह, ममता, त्यागनुमा कमजोरी के सिवा है भी क्या? इसी कमजोरी के बूते पर तो वह कठोर मानस के इनसान को मोम बनाती है और उस को भावनाओं के सांचे में ढालढाल कर संसार का निर्माण करती है.
मां के मन की व्यथा 20-21 वर्ष के रज्जू ने भांप ली थी. वह उस की सौतेली मां है तो क्या, प्यार, स्नेह, ममता तो सगी से भी बढ़ कर दिया है. उस के सारे दोस्त उस की मां से बहुत प्यार करते हैं, अपनी मांओं से भी ज्यादा. उस का हृदय पसीज उठा. बहुत ही व्यस्त था वह. उस का एमएससी फाइनल था, प्रोफैसर के यहां भी जाना था और…
रज्जू हंस कर बोला, ‘‘मां, आप पापा की चिंता में दिनरात घुलती रहती हैं. पापा कोई बच्चे हैं? मुझे तो लगता है मां, पापा हमें याद तक नहीं करते होंगे. कभी तो फोन कर सकते हैं. और आप क्यों नहीं मोबाइल लेती अपना. हमेशा मेरा या पापा का ही इस्तेमाल क्यों करती हैं.’’
साधना जबरन मुसकराते हुए बोली, ‘‘ऐसा नहीं है रज्जू, तेरे पापा किसी को नहीं भूलते. देखते नहीं, हर माह 5-6 तारीख को नियमित बैंक में पैसा ट्रांसफर हो जाता है. और हर मैसेज में नहीं लिखा होता कि ‘रज्जू, अपना, भाईबहन का खयाल रखना?’’
‘‘यह मन को समझाने के लिए ठीक है, लेकिन वास्तविकता कुछ और ही है, मां,’’ रज्जू ने इस बार भावुकता से कहा, ‘‘और मैं आप का क्या खयाल रखूंगा, मां. आप ही तो हमें मरखप कर संभालती रहती हैं. सौतेली मां को गालियां देने वालों से, कभीकभार कहने का मन होता है, कि देखें यहां आ कर मेरी मां को, जो अपना सर्वस्व होम कर, मुझे यह अहसास तक नहीं होने दे रही हैं कि मेरी जन्म देने वाली मां बचपन में ही मर गई थी.’’
रज्जू का मार्मिक कथन साधना के अंतस्थल को छू गया. बेटे को श्रद्धा और उस के इतने ऊंचे विचार सुन कर उस की आंखें भीग गईं. संसार में उस सा सुखी कौन होगा, जिस का बेटा इतना समझदार है, श्रद्धालु है और युवा है.
साधना कब श्रीकृष्ण शर्मा की जिंदगी में आई थी, यह पूरी बात उस ने रज्जू को 2 साल पहले ही बताई थी. उस के बाद तो रज्जू का प्रेम और बढ़ गया था. पर पिता पर भी जान छिड़कने लगा था. रज्जू और उस के छोटे भाईबहन को छोड़ कर उस की मां वर्ष 2005 में चली गई थीं. रज्जू 4 साल का था, छाया 3 साल की और सुरेंद्र मात्र 6 माह का. गनीमत है कि साधना मौसी साथ रहती थीं, जिन्होंने मां की तरह पाला. उस के पिता कभी मौसी के साथ एक कमरे में नहीं सोए और बड़े होने के बाद उस ने पूछा भी था, पर उसे यही बताया गया कि उन की असली मां की बीमारी के दौरान मौसी बच्चों को संभालने आई थीं और तब से बच्चों के कमरे में ही सोती रहीं. मां के चले जाने के बाद एक दिन भी तीनों को मां के प्यार की कमी नहीं हुई. 2 साल पहले मौसी, जिसे वह वर्षों से मां ही कहता था, पूरी बात बताई थी.
साधना का असली नाम सादिया था. वे अहमदाबाद की गुलबर्गा सोसायटी में रहते थे. वर्ष 2002 में दंगों के दौरान श्रीकृष्ण शर्मा एक नौकरी के इंटरव्यू के सिलसिले में अहमदाबाद गए थे. जब वे गुलबर्गा सोसायटी के सामने से गुजर रहे थे तो उन्होंने देखा कि एक हिंदू भीड़ ने गुलबर्गा सोसायटी पर हमला कर दिया. घरों से आढ़तियों, औरतों को घसीट कर निकाला जा रहा था. घरों को आग लगा दी गई. पुलिस फोर्स खड़ी थी, पर कुछ करने का नाटक कर रही थी, कर नहीं रही थी, तभी छिपतेछिपाते एक लड़की उस मकान के पास आ खड़ी हुई, जहां श्रीकृष्ण शर्मा खड़े थे. वह कंपकंपा रही थी.
हिंदू भीड़ ने ललकार कर कहा था कि ‘किसी को बच कर जाने न देना.’ श्रीकृष्ण शर्मा को समझ आ गया कि क्या मामला है. उन्होंने उस लड़की का हाथ पकड़ लिया और कान में फुसफुसा दिया कि उस से सट कर खड़ी रहो. 4 घंटे तक वह लड़की उन के साथ खड़ी सामने जलते मकानों को देखती रही. लाशें अब निकाली जा रही थीं.
श्रीकृष्ण ने पूछा कि उस का मकान कौन सा है. वह खुद ‘जय श्रीराम’ के नारे लगाते उस मकान तक पहुंचा और उस का हाथ पकड़े वह लड़की. वहां उस ने देखा कि 4-5 लाशें जली हुई थीं. वह लड़की रोने लगी, तो कुछ हिंदू दंगाइयों ने डांट कर श्रीकृष्ण को कहा, ‘अबे, अपनी माशूका को यहां क्या तमाशा दिखाने लाया है, भाग जा. बेकार में कमजोर लड़की लाशें देख कर रोने लगी है. ज्यादा देखेगी, ज्यादा रोएगी.’
श्रीकृष्ण उसे ले कर होटल तक चले आए. उन्होंने उसे बाहर खड़ा किया और सामान ले कर स्टेशन जाने के लिए आटो पकड़ लिया. वह लड़की अब भी उन का हाथ पकड़े हुए थी. स्टेशन पर उन्होंने इंदौर का टिकट लिया, जबकि उन का घर भोपाल में था. प्लेटफार्म सूना था, शहर में कर्फ्यू लग चुका था.
अहमदाबाद से इंदौर के रास्ते में उस लड़की ने बताया कि उस का नाम सादिया है और वह अब्बा, अम्मी और 3 बड़े भाइयों और 1 छोटी बहन के साथ रहती है. दंगाइयों ने उसे ही सब से पहले घसीटा था.
श्रीकृष्ण ने उस का मुंह बंद करते हुए कहा, ‘आगे की बात कभी किसी को न बताना. तुम मेरे साथ चलो और जो भी पूछे साधना नाम बताना. मैं कभी सद्दू कह दिया तो नाराज न होना,’ सादिया समझ गई थी कि अब इस के अलावा उस के पास चारा नहीं है. वह पढ़ीलिखी थी, पर अब बेसहारा थी.
इंदौर में 2 रोज होटल में दोनों रहे, ताकि सादिया साधना नाम से पहचान बना सके. श्रीकृष्ण शर्मा ने अपने एक दोस्त से उसी उम्र की एक लड़की का बर्थ सर्टिफिकेट कंप्यूटर पर बनवाया और उस में फर्जी हिंदू पिता और माता के नाम डलवाए और फिर आईकार्ड भी बनवाया. मां ने बताया कि पिता के अलावा केवल प्रभात अंकल इस बारे में जानते हैं, तो उस दिन के बाद से कभी घर नहीं आए कि कहीं कोई पोल न खुल जाए.
भोपाल वाले घर ला कर श्रीकृष्ण ने साधना को प्रभात की चचेरी बहन बताया, जो भोपाल में बीए में दाखिला लेने आई है. सुषमा उन दिनों बेहद बीमार थी, कैंसर की शिकार थी और अंतिम दिन थे. उस में ज्यादा पूछताछ की हिम्मत भी नहीं थी. उसे लगा कि चलो कुछ दिन तो बच्चों को सहारा मिल जाएगा. साधना के आने के 2 माह बाद ही सुषमा चल बसी और बच्चे साधना की गोदी में पलने लगे. जब राजेंद्र यानी रज्जू को यह बात पता चली तो वह पिता के प्रति भी नतमस्तक हो चला था और साधना के प्रति भी. दोनों ने कैसे एकदूसरे के लिए त्याग किया था और उन तीनों बच्चों को बोनस में असली मां से बढ़ कर मां मिली.
‘‘मैं सब समझता हूं, मां,’’ रज्जू ही बोला, ‘‘पापा चाहें तो हमें अपने साथ दिल्ली आराम से रख सकते हैं. क्या वहां परिवार सहित और लोग नहीं रहते, लेकिन मैं उन को बचपन से जानता हूं कि…’’