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जीभ जल जाए तो अपनाएं ये घरेलू उपाय

अक्सर कुछ गर्म खाना खाना खाने या गर्म पानी या चाय कौफी पीने से हमारी जीभ जल जाती है. इसके बाद हमारी जीभ का स्वाद खराब हो जाता है, हमेशा मुंह में कुछ अजीब सी एहसास रहती है.

ज्यादा गर्म खाना या पीना हमारे सेहत के लिए भी अच्छा नहीं होता, कोशिश करनी चाहिए कि हम अत्यधिक गर्म खाना या पेय ना लें.

जीभ जलने से जब आपके सामने ऐसी परेशानियां आएं तो घरेलू नुस्खों से इनका इलाज कैसे करें इसकी जानकारी हम आपको देंगे.

बेकिंग सोडा

जीभ के जलने में बेकिंग सोडा काफी कारगर उपाय है. क्षारिय प्रकृति का सोडा जीब के जलन में काफी आराम देता है. पानी में घोल कर इससे कुल्ला करना काफी कारगर होता है.

एलोवेरा जेल

जीभ जलने में एलो वेरा काफी फायदेमंद है. इसके जेल का इस्तेमाल जलन में काफी कारगर होता है. इसको आइस क्यूब में जमा कर भी जीभ पर लगाया जा सकता है.

दही है कारगर

जीभ के जलने में दही काफी फायदेमंद होती है. एक चम्मच में दही लें और उसे कुछ देर तक मुंह में रखें. इसकी ठंडक से आपको काफी आराम मिलेगा.

खाएं सादा खाना

जीभ के जलने की हालत में कोशिश करें कि आप कम मसाले वाले खाने खाए. सादा भोजन खाने से पेट ठंडा रहता है और आपकी जीभ जल्दी रिकवर करती है.

चीनी

जीभ के जले हिस्से पर एक चुटकी चीनी छिड़क लें और उसे कुछ देर तक उसे रखें. चीनी के घुलने तक उसे वैसे ही रखें. ऐसा करने से आपको जलन और दर्द में काफी आराम मिलेगा.

आइस क्यूब है फायदेमंद

फ्रिज से आइस क्यूब निकालें और इसको चूसें. ऐसा करना आपके लिए काफी राहत देगा. एक बात का ध्यान दें, कि बर्फ के इस्तेमाल से पहले आप उसे समान्य पानी से हल्का गीला कर लें. इससे बर्फ जीभ से चिपकेगी नहीं.

शहद का करें इस्तेमाल

जीभ जलने में शहद का इस्तेमाल काफी फायदेमंद होता है. ये एक प्राकृतिक आराम देने वाला पदार्थ है.

बोझ : अपनों का बोझ भी क्या बोझ होता है ?

मां ने फुसफुसाते हुए मेरे कान में कहा, ‘‘साफसाफ कह दो, मैं कोई बांदी नहीं हूं. या तो मैं रहूंगी या वे लोग. यह भी कोई जिंदगी है?’’

इस तरह की उलटीसीधी बातें मां 2 दिनों से लगतार मुझे समझा रही थी. मैं चुपचाप उस का मुख देखने लगी. मेरी दृष्टि में पता नहीं क्या था कि मां चिढ़ कर बोली, ‘‘तू मूर्ख ही रही. आजकल अपने परिवार का तो कोई करता नहीं, और तू है कि बेगानों…’’

मां का उपदेश अधूरा ही रह गया, क्योंकि अनु ने आ कर कहा, ‘‘नानीअम्मा, रिकशा आ गया.’’ अनु को देख कर मां का चेहरा कैसा रुक्ष हो गया, यह अनु से भी छिपा नहीं रहा.

मां ने क्रोध से उस पर दृष्टि डाली. उस का वश चलता तो वह अपनी दृष्टि से ही अनु, विनू और विजू को जला डालती. फिर कुछ रुक कर तनिक कठोर स्वर में बोली, ‘‘सामान रख दिया क्या?’’

‘‘हां, नानीअम्मा.’’

अनु के स्वर की मिठास मां को रिझा नहीं पाई. मां चली गई किंतु जातेजाते दृष्टि से ही मुझे जताती गई कि मैं बेवकूफ हूं.

मां विवाह में गई थी. लौटते हुए 2 दिन के लिए मेरे यहां आ गई. मां पहली बार मेरे घर आई थी. मेरी गृहस्थी देख कर वह क्षुब्ध हो गई. मां के मन में इंजीनियर की कल्पना एक धन्नासेठ के रूप में थी. मां के हिसाब से घर में दौलत का पहाड़ होना चाहिए था. हर भौतिक सुख, वैभव के साथसाथ सरकारी नौकरों की एक पूरी फौज होनी चाहिए थी. इन्हीं कल्पनाओं के कारण मां ने मेरे लिए इंजीनियर पति चुना था.

मां की इन कल्पनाओं के लिए मैं कभी मां को दोषी नहीं मानती. हमारे नानाजी साधारण क्लर्क थे, लेकिन वे तनमन दोनों से पूर्ण क्लर्क थे. वेतन से दसगुनी उन की ऊपर की आमदनी थी. पद उन का जरूर छोटा था किंतु वैभव की कोई कमी नहीं थी. हर सुविधा में पल कर बड़ी हुई मां ने उस वैभव को कभी नाजायज नहीं समझा. यही कारण था कि मेरे नितांत ईमानदार मास्टर पिता से मां का कभी तालमेल नहीं बैठा.

मुझे अब भी याद है कि मैं जब भी मायके जाती, मां खोदखोद कर इन की कमाई का हिसाब पूछती. घुमाफिरा कर नानाजी के सुखवैभव की कथा सुना कर उसी पथ पर चलने का आग्रह करती, किंतु हम सभी भाईबहनों की नसनस में पिता की शिक्षादीक्षा रचबस गई थी. विवाह भी हुआ तो पति पिता के मनोनुकूल थे.

मां के इन 2 दिनों के वास ने मेरी खुशहाल गृहस्थी में एक बड़ा कांटा चुभो दिया. आज जब सभी अपने काम पर चले गए तो रह गई हैं रचना और मां की बातों का जाल.

रचना को दूध पिला कर सुला देने के बाद मैं घर में बाकी काम निबटाने लगी. ज्यादातर काम तो अनु ही निबटा जाती है, फिर भी गृहस्थी के तो कई अनदेखे काम हैं. सब कामों से निबट कर जब मैं अकेली बैठी तो मां की बातें मुझे बींधने लगीं. ‘क्या हम ने गलत किया है? क्या मैं रचना और आशीष का हक छीन रही हूं? क्या उन की इच्छाओं को मैं पूर्ण कर पा रही हूं? मुझे अपने पति पर क्रोध आने लगा. सचमुच मैं मूढ़ हूं. कितनी लच्छेदार बातें बना कर मुझ से इतनी बड़ी जिम्मेदारी उठवा दी. मुझे अपनी स्थिति अत्यंत दयनीय नहीं, असह्य लगने लगी. मां के आने से पूर्व भी तो परिस्थितियां यही थीं. सब बच्चे अनु, विनू और विजू साथ रहे किंतु आज उन का रहना असह्य क्यों लग रहा है?’

मन बारबार अतीत में भटकने लगा है. 3 साल पहले की घटना मेरे मनमस्तिष्क पर भी स्पष्ट रूप से अंकित थी. रचना तब होने वाली थी. होली की छुट्टियां हो चुकी थीं. उसी दिन हमें अपनी बड़ी ननद  के यहां जाना था. किंतु वह जाना सुखद नहीं हुआ. उस दिन बिजली का धक्का लगने से उन्हें बचाते हुए जीजी और भाईसाहब दोनों मृत्यु के ग्रास बन गए. रह गए बिलखते, विलाप करते उन के बच्चे अनु, विनू और विजू, सबकुछ समाप्त हो गया. आज के युग में हर व्यक्ति अपने ही में इतना लिप्त है कि दूसरे की जिम्मेदारी का करुणक्रंदन मन को विचलित किए दे रहा था.

रात्रि के सूनेपन में मेरे पति ने मुझ से लगभग रोते हुए कहा, ‘आभा, क्या तुम इन बच्चों को संभाल सकोगी?’

मैं पलभर के लिए जड़ हो गई. कितनी जोड़तोड़ से तो अपनी गृहस्थी चला रही हूं और उस पर 3 बच्चों का बोझ.

मैं कुछ उत्तर नहीं दे पाई. अपना स्वार्थ बारबार मन पर हावी हो जाता. वे अतीत की गाथाएं गागा कर मेरे हृदय में सहानुभूति जगाना चाह रहे थे. अंत में उन्होंने कहा, ‘अपने लिए तो सभी जीते हैं, किंतु सार्थक जीवन उसी का है जो दूसरों के लिए जिए.’

अंततोगत्वा बच्चे हमारे साथ आ गए. घरबाहर सभी हमारी प्रशंसा करते. किंतु मेरा मन अपने स्वार्थ के लिए रहरह कर विचलित हो जाता. फिर धीरेधीरे सब कुछ सहज हो गया. इस में सर्वाधिक हाथ 17 वर्षीय अनु का था.

उन लोगों के आने के बाद हम पारिवारिक बजट बना रहे थे, तभी ‘मामी आ जाऊं?’ कहती हुई अनु आ गई थी. उस समय उस का आना अच्छा नहीं लगा था, किंतु कुछ कह नहीं पाई. ‘मामी,’ मेरी ओर देख कर उस ने कहा था, ‘आप को बजट बनाते देख कर चली आई हूं. अनावश्यक हस्तक्षेप कर रही हूं, बुरा नहीं मानिएगा.’

‘नहींनहीं बेटी, कहो, क्या कहना चाहती हो?’

‘आप रामलाल की छुट्टी कर दें. एक आदमी के खाने में कम से कम 2,000 रुपए तो खर्च हो ही जाते हैं.’

मेरे प्रतिरोध के बाद भी वह नहीं मानी और रामलाल की छुट्टी कर दी गई. अनु ने न केवल रामलाल का बल्कि मेरा भी कुछ काम संभाल लिया था.

उस के बाद रचना का जन्म हुआ. रचना के जन्म पर अनु ने मेरी जो सेवा की उस की क्या मैं कभी कीमत चुका पाऊंगी?

रचना के आने से खर्च का बोझ बढ़ गया. उसी दिन शाम को अनु ने आ कर कहा, ‘‘मम्मा, मेरी एक टीचर ने बच्चों के लिए एक कोचिंग सैंटर खोला है. प्रति घंटा 300 रुपए के हिसाब से वे अभी पढ़ाने के लिए देंगी. बहुत सी लड़कियां वहां जा रही हैं. मैं भी कल से जाऊंगी.’’

हम लोगों ने कितना समझाया पर वह नहीं मानी. अपनी बीए की पढ़ाई, घर का काम, ऊपर से यह मेहनत, किंतु वह दृढ़ रही. इन के हृदय में अनु के इस कार्य के लिए जो भाव रहा हो, पर मेरे हृदय में समाज का भय ही ज्यादा था. दुनिया मुझे क्या कहेगी? बड़े यत्न से अच्छाई का जो मुखौटा मैं ने ओढ़ रखा है, वह क्या लोगों की आलोचना सह सकेगा?

पर वह प्रतिमाह अपनी सारी कमाई मेरे हाथ पर रख देती. कितना कहने पर भी एक पैसा तक न लेती. यह देख कर मैं लज्जित हो उठती.

विनू भी पढ़ाई के साथसाथ पार्टटाइम ट्यूशन करता. इन्होंने बहुत मना किया, पर बच्चों का एक ही नारा था-  ‘मेहनत करते हैं, चोरी तो नहीं.’

3 साल देखतेदेखते बीत गए. आशीष और रचना दोनों की जिम्मेदारियों से मैं मुक्त थी. वह अपने अग्रजों के पदचिह्नों पर चल रहा था. कक्षा में वह कभी पीछे नहीं रहा. मेरी आंखों के सामने बारीबारी से अनु, विनू और विजू का चेहरा घूम जाता. उस के साथसाथ आशीष का भी. क्या इन बच्चों को घर से निकाल दूं?

मेरा बाह्य मन हां कहता. 3 का खर्च तो कम होगा. किंतु अंतर्मन मुझे धिक्कारता. कल अगर हम दोनों नहीं रहे तो आशीष और रचना भी इसी तरह फालतू हो जाएंगे. मैं फफकफफक कर रोने लगी.

‘‘क्या बात है, मामी, रो क्यों रही हैं?’’ अनु के कोमल स्वर से मेरी तंद्रा भंग हो गई. शाम हो चुकी थी.

मां ने कितना अत्याचार किया मात्र 2 दिनों में. आशीष और रचना को छिपा कर हर चीज खिलाना चाहती थी. बारबार बच्चों को उलटीसीधी बातें सिखाती.

मैं अनु की ओर देखने लगी. मुझे लगा अनु नहीं, मेरी रचना बड़ी हो गई है और हम दोनों के अभाव में मां की दी हुई मानसिक यातनाएं भोग रही है.

मैं ने अनु को हृदय से लगा लिया. ‘‘नहींनहीं, मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी.’’

‘‘मुझे आप से अलग कौन कर रहा है?’’ अनु ने हंस कर कहा.

‘‘किंतु इसे जाना तो होगा ही,’’ यह करुण स्वर मेरे पति का था. पता नहीं कब वे आ गए थे.

‘‘क्या?’’ मैं ने अपराधी भाव से पूछा.

‘‘अनु का विवाह पक्का हो गया है. मेरे अधीक्षक ने अपने पुत्र के लिए स्वयं आज इस का हाथ मांगा है. दहेज में कुछ नहीं देना पड़ेगा.’’

अनु सिर झुका कर रोने लगी. मेरे हृदय पर से एक बोझ हट गया. उसे हृदय से लगा कर मैं भी खुशी में रो पड़ी.

डैमोक्रेसी पर धर्म की चोट, डरना जरूरी है

होना तो यह चाहिए था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विपक्षी सांसदों से संसद की सुरक्षा के मुद्दे पर चर्चा करने के लिए उन्हें बुलाते लेकिन बजाय किसी सार्थक पहल के उन्होंने पौराणिक ऋषिमुनियों सरीखे विपक्ष को यह श्राप दे दिया कि यदि विपक्ष का यही रवैया रहा तो 2024 के चुनाव में वे और भी कम सीटों के साथ विपक्ष में ही बैठे रहेंगे, यह श्राप अधिनायकवाद का एक बेहतर उदाहरण है.यह बात भी किसी सबूत की मोहताज नहीं रह गई है कि नरेंद्र मोदी और उन की सरकार अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर पाते हैं.

संसद से लगभग पूरा विपक्ष इसीलिए निलंबित है कि सुरक्षा के मसले पर सरकार घिरने लगी थी. उस की कमजोरियां सामने आ रही थीं. इन्हें ढकने और इस स्थिति से बचने के लिए उम्मीद के मुताबिक किया वही गया जो आमतौर पर धार्मिक किस्म की सरकारें करती हैं. संसद उन के लिए मंदिर, चर्च और मस्जिद है जिस के दरवाजे पुरोहित, उलेमा या पौप जब चाहे बंद कर सकते हैं. वही ओ पी धनखड़ ने किया.

लेरी डायमंड अमेरिका की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के राजनीति शास्त्र के प्रोफैसर हैं जो पिछले 10 सालों से कहते रहे हैं कि जिस तरह के बदलाव दुनिया भर की राजनीति में हो रहे हैं उन से लोग परेशान हैं क्योंकि लोकतंत्र को एक रेडीमेड चश्मे से देखा जाता था. किसी भी देश में लोकतंत्र को एक खास पैमाने पर तौला जाता था इसलिए नए बदलावों को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया जा रहा है.

इस की वजह और उदाहरण भी हैं अमेरिकी संस्था प्यू की एक रिपोर्ट के मुताबिक 1958 में जहां 73 फीसदी लोग यह मानते थे कि उन की सरकार सही फैसले लेगी उन की संख्या इन दिनों सिमट कर 19 फीसदी रह गई है. भारत में अक्सर नरेंद्र मोदी को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया जाता है यह ठीक है कि यह आरोप लगाने वाले वही विपक्षी होते हैं जो संसद के बाहर खड़े हायहाय कर रहे हैं. लेकिन सच यह भी है कि आम लोगों से यह उम्मीद करना बेकार है कि वे भाजपा के इशारे पर चल रही संसद पर कुछ बोलेंगे.

ऐसा क्यों , इस सवाल का जवाब बेहद साफ है कि अधिकतर देशों की तरह भारत के लोग भी अपनी ही चुनी गई सरकार से डरे हुए हैं. यह डर धर्म का है और सांसदों के निलंबन का मामला भी कुछ ऐसा ही है जैसे पुजारी ने भक्तों को मंदिर से बाहर कर मुख्यद्वार बंद कर लिया हो.
मंदिरों में प्रवेश के नियम बहुत कड़े होते हैं मसलन जनेऊ की अनिवार्यता जो न भी हो तो भक्तों से अपेक्षा की जाती है कि वे पूजापाठ के विधिविधान के दौरान खामोश रहेंगे और मंत्रोच्चार के वक्त तो पुतले बने खड़े रहेंगे. ऐसा न करने पर पुजारी को पूरा हक रहता है कि वह भक्तों को नास्तिक और विधर्मी करार देते बाहर खदेड़ दे.

यही ओ पी धनखड़ ने किया लेकिन इस से भी परे असल बात लोगों का वह डर है जो उन्हें चुप रहने मजबूर करता है. यह डर सिर्फ भगवान और दैवीय प्रकोप का होता है. अव्वल तो लोकतंत्र अगर है तो किसी को डरने की जरूरत नहीं लेकिन जब धार्मिक लोकतंत्र हो तो डरना जरूरी हो जाता है. डराने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी माहिर हैं. काशी में अपने भाषण के दौरान उन्होंने महादेव के आशीर्वाद का जिक्र यों ही नहीं किया था.

अकेले वाराणसी में ही नहीं बल्कि हर जगह उन की वेशभूषा धार्मिक होती है. वे पुरोहितों जैसी पोशाक पहनते हैं, माथे पर त्रिपुंड लगाते हैं और हर भाषण में राम, शंकर, हनुमान और कृष्ण का नाम जरूर मौके और जगह के हिसाब से लेते हैं. उन की धार्मिक छवि ही उन्हें तथाकथित रूप से लोकप्रिय बनाती है और लोग ताली बजा कर उन का प्रवचननुमा भाषण आत्मसात कर लेते हैं.

पुराने दौर के राजामहाराजा भी इसी तरह भगवान के नाम पर ही जनता को नियंत्रित रखते थे. वह उन्हें भरोसा दिलाया करता था कि वह जनहित में जरूरी काम कर रहा है लेकिन कैसे, इस बाबत कोई आवाज नहीं उठनी चाहिए. इधर देश में जो जनहित के काम हो रहे हैं वे दरअसल में किस तरह बहुसंख्यकों को संतुष्ट करते हुए हैं, उन के बारे में देसी मीडिया से कोई उम्मीद करना बेकार है लेकिन विदेशी मीडिया खामोश नहीं रहता.

अमेरिकी विदेश नीतियों पर आधारित सब से पुरानी और लोकप्रिय मैगजीन ‘फौरेन अफेयर्स’ भारत में लोकतंत्र की हालत पर कहती है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी प्रैस की स्वतंत्रता अल्पसंख्यक अधिकारों और न्यायायिक स्वतंत्रता पर कुठाराघात कर रहे हैं.मोदी जी की यही अदा बहुसंख्यकों को भाती और लुभाती है. इस के लिए वे अपने व्यक्तित्व और पोशाक सहित भाषणों में धर्म का तड़का लगाते रहते हैं.

लेकिन 85 फीसदी लोग इस से मन ही मन असहमत होते हुए भी मज़बूरी में इसे स्वीकार लेते हैं क्योंकि वे मुख्यधारा में नहीं हैं. मुमकिन है इन में से मुट्ठी भर उन से सहमत होने लगे हों लेकिन वे अभी इतने नहीं हैं कि चुनावी बिसात पलट या उलट पाएं.

विपक्ष की मजबूरी

संसद की मौजूदा हालत पर कोई खास सुगबुगाहट देश में नहीं है क्योंकि इसे भी पूजापाठ में व्यवधान डालने जैसा प्रचारित कर दिया गया है. विपक्ष की मजबूरी यह है कि वह सरकार के धार्मिक चेहरे से नकाब नहीं उठा पा रहा है. धर्म को लोकतांत्रिक राजनीति से दूर क्यों रहना चाहिए इस के लिए उस के पास वे टोटके नहीं हैं जो भाजपा के पास इस बाबत हैं कि धार्मिक राजनीति लोकतंत्र में क्यों जरूरी है और विपक्ष अगर सत्ता में आया तो वह कैसे धर्म और हिंदुत्व को तहसनहस कर देगा.

ऐसी हालत में हालत बदलने की बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि विपक्ष भी खुद को धार्मिक दिखाने लगता है जबकि उसे सिर्फ स्वास्थ, शिक्षा और रोजगार पर जोर देना चाहिए वह भी इस तरह कि लोग उस से इस बात को ले कर भयभीत और शंकित न रहें कि ये हमारी धार्मिक पहचान छीन लेंगे. इन लोगों को भाजपा से धर्म रक्षा की गारंटी मिली हुई है और इस का रोजरोज रिनुअल कराया जाता रहता है.

लोकसभा चुनाव सिर पर हैं ऐसे में यह रोग अभी और बढ़ेगा. पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद का हल्ला है और इस के नाम पर वोट मांगे जा रहे हैं. यह डर 80 फीसदी काल्पनिक है लेकिन अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप खुलेआम कहने लगे हैं कि वे एक दिन का तानाशाह बन कर श्वेतों को देश का मालिक बना देना चाहते हैं. इस बात पर उन्हें अमेरिका के बहुसंख्यकों जो कम होते जा रहे हैं का समर्थन भी मिल रहा है क्योंकि ये लोग भी डर गए हैं कि उन का देश, जमीनजायदाद, धार्मिक पहचान, कारोबार वगैरह सब छीन लिए जाएंगे. अगर यह सब तानाशाही से बचता है तो सौदा घाटे का नहीं. दूसरी तरफ अश्वेत भी घबराए हुए हैं कि एक दफा ट्रंप के रहते तो श्वेत उन्हें शायद बख्श भी दें लेकिन जो बाइडेन शायद ही सरेआम होने वाली संभावित हिंसा से बचा पाए.

क्या विधेयक पास कराने के लिए ही विपक्ष को सदन से बाहर किया गया ?

संसद की सुरक्षा में सेंध मामले में मोदी सरकार पर आक्रामक विपक्ष के दो तिहाई सदस्यों को सदन से बाहर कर लोकसभा में भारतीय दंड संहिता, आपराधिक प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को बदलने वाले तीन विधेयक लोकसभा की पटल पर फिर से रख कर बिना किसी चर्चा के पास करवा लिए गए. इस से पहले इन बिलों को संशोधनों के साथ 11 अगस्त को लोकसभा में पेश किया गया था जहां से उन्हें स्थायी समिति को भेजा गया था.

गृहमंत्री अमित शाह ने लोकसभा में कहा कि विधेयकों की स्थायी समिति द्वारा जांच की गई थी और आधिकारिक संशोधनों के साथ आने के बजाय, नए विधेयकों को लाने का निर्णय किया गया. गृहमंत्री के मुताबिक भारतीय न्याय (द्वितीय) संहिता 2023, भारतीय नागरिक सुरक्षा (द्वितीय) संहिता 2023 और भारतीय साक्ष्य (द्वितीय) विधेयक 2023 का उद्देश्य आईपीसी, सीआरपीसी और साक्ष्य अधिनियम को प्रतिस्थापित करना है. चूंकि अब प्रौद्योगिकी और सूचना का युग है इसलिए विधेयक में कई प्रावधान डिजिटल रिकौर्ड, लैपटौप के उपयोग को बढ़ावा देने को सुनिश्चित करते हैं. नए प्रावधानों के तहत परीक्षण डिजिटल रूप से हो सकता है.

जम कर विरोध

सदन में विपक्ष की अनुपस्थिति में बिना किसी चर्चा के विधेयकों को पास करा लेने के सरकार के कदम की घोर निंदा और विरोध शुरू हो गया है. सदन के बाहर निलंबित सांसदों ने तख्तियां ले कर सरकार के विरुद्ध जैम कर नारेबाजी की. कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि ‘दमनकारी’ विधेयकों को चर्चा के बिना पारित कराने के लिए ही सदन से विपक्ष का सफाया किया गया है.

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा, “वे (बीजेपी) जानबूझ कर सबको निलंबित कर रहे हैं. उन की मंशा है कि वे (बीजेपी) आपराधिक प्रक्रिया को लेकर जो तीन कानून ला रहे हैं उस पर कोई विरोध न हो. सब को बाहर निकाल कर वे तानाशाही करने की कोशिश कर रहे हैं. लोकतंत्र में ऐसा नहीं हो सकता, आज नहीं तो कल उन पर यह भारी पड़ेगा.”

मल्लिकार्जुन खड़गे ने सीधे प्रधानमंत्री मोदी पर निशाना साधते हुए कहा कि प्रधानमंत्री और बीजेपी देश में ‘एकल पार्टी शासन’ स्थापित करना चाहते हैं और संसद से सांसदों का निलंबन उसी के लिए किया जा रहा है. निरंकुश भाजपा इस देश में लोकतंत्र को ध्वस्त करना चाहती है. संसद से 141 विपक्षी सांसदों का निलंबन हमारे इस आरोप को पुष्ट करता है.

खड़गे ने कहा कि जाहिर तौर पर घुसपैठिए महीनों से संसद में घुसने की योजना बना रहे थे और वे अपनी साजिश में कामयाब भी हो गए. हम ने जब पूछा कि इतनी बड़ी खुफिया विफलता के लिए कौन जिम्मेदार है, तो सरकार के पास जवाब नहीं है. मुझे आश्चर्य है कि संसद की बहुस्तरीय सुरक्षा के बीच भी दो घुसपैठिए अपने जूतों में पीले गैस कनस्तरों को छिपा कर इमारत में प्रवेश कर गए और भारत के लोकतंत्र के गर्भगृह तक पहुंचने में कामयाब हो गए? क्या विपक्ष इस पर सवाल भी न उठाएं? इस शर्मनाक सुरक्षा चूक के लिए उच्च पदों पर बैठे लोगों को दंडित करने के बजाय, सांसदों के लोकतांत्रिक अधिकारों को छीना जा रहा है, जिस से वे जवाबदेही से बच जाएं.यह निंदनीय है. लोकतंत्र की नीतियों के खिलाफ है.

संसद की सिक्योरिटी का उल्लंघन एक बड़ा मुद्दा है. अगर सांसद और विपक्ष इस मुद्दे को नहीं उठाते हैं तो फिर उन के संसद में रहने का औचित्य ही क्या है ? उन को जनता ने चुन कर भेजा ही है ऐसे मुद्दे उठाने के लिए. ये दुर्भाग्यपूर्ण है. संसद में हल्लागुल्ला तो बीजेपी भी खूब करती थी. विपक्ष तो हमेशा ही हल्ला मचाता है लेकिन जिस संसद में घुसपैठ के जिस विषय पर विपक्ष गृह मंत्री से जवाब चाह रहा था वह बहुत गंभीर और अहम विषय था. ऐसे में अगर सांसदों का व्यवहार विघ्न डालने वाला भी था तो भी ये मुद्दा ऐसा था कि सरकार को कड़वा घूंट पी ही जाना चाहिए था. उन की बातें सुननी चाहिए थी और चाहते तो कुछ घंटों के लिए सस्पेंड भी कर देते, लेकिन उन्हें पूरी तरह सस्पेंड कर देना सवाल पैदा करता है.

माहेला जयवर्धने ने अपने चहेते ‘रो’ से मुंबई इंडियंस की कप्तानी क्यों छीन ली

फिलहाल रोहित शर्मा दक्षिण अफ्रीका में टैस्ट मैच खेलने गए हुए हैं, पर एक दूसरी खबर यह भी है कि अब उन से आईपीएल की मुंबई इंडियंस टीम की कप्तानी छीन ली गई है. मुंबई इंडियंस को 5 बार आईपीएल का खिताब दिला चुके ‘मुंबईकर’ रोहित शर्मा की जगह हार्दिक पंड्या को इस टीम की कप्तानी सौंपी गई है, जिस से रोहित शर्मा के फैन बड़े गुस्से में दिखाई दे रहे हैं. याद रहे कि ये वही रोहित शर्मा हैं, जिन्होंने हालिया वनडे वर्ल्ड कप में भारतीय टीम को लगातार 10 मैच जितवाए थे. हालांकि, हम फाइनल मुकाबले में आस्ट्रेलियाई टीम से हार गए थे.

अब यह मुद्दा बड़ा गरम हो चुका है कि रोहित शर्मा के साथ ऐसा क्यों किया गया है? तो इस सवाल का जवाब दिया माहेला जयवर्धने ने, जो मुंबई इंडियंस टीम के ग्लोबल डायरैक्टर हैं और रोहित को ‘रो’ कह कर बुलाते हैं. ‘जियो सिनेमा’ के साथ एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा, “यह एक मुश्किल फैसला था. ईमानदारी से कहूं तो यह इमोशनल डिसीजन था. हम क्रिकेट प्रेमियों की भावनाओं का कद्र करते हैं. मुझे लगता है कि हर कोई भावुक है और हमें इस का भी सम्मान करना होगा. लेकिन, साथ ही एक फ्रैंचाइजी के रूप में आप को ऐसे फैसले लेने होते हैं. युवा पीढ़ी को गाइड करने के लिए ‘रो’ (रोहित शर्मा) का औन ऐंड औफ फील्ड हमारे साथ जुड़े रहना काफी खास है.”

माहेला जयवर्धने कोई भी दलील दें, पर रोहित शर्मा के फैन सोशल मीडिया पर इस फैसले को सही नहीं मान रहे हैं. पूर्व क्रिकेटर इरफान पठान ने सोशल मीडिया पर इस बारे में बेबाक बोल कर सनसनी मचा दी है.

उन्होंने कहा, “रोहित शर्मा का जो कद मुंबई इंडियंस में है, वह उसी तरह का है जो सीएसके में धोनी का है. रोहित ने मुंबई टीम को बतौर कप्तान बनाया है. टीम को बनाने में रोहित ने काफी मेहनत की है. वे टीम मीटिंग में जाते हैं और अपनी बात रखते हैं, रणनीति बनाते हैं. मैं रोहित को गेंदबाज का कप्तान मानता हूं, जो सालोंसाल टीम को आगे ले कर आए हैं. पिछले साल जो टीम थी कितने लोगों ने माना होगा कि यह टीम क्वालिफाई करेगी. बतौर कप्तान रोहित ने टीम को क्वालिफाई करवाया. जो गेंदबाजी थी मुंबई की हलकी थी. जोफ्रा आर्चर नहीं खेल रहे थे. बुमराह भी टीम में नहीं थे, इस के बाद भी रोहित ने टीम को क्वालिफाई करवाया.”

हार्दिक पंड्या को कप्तानी सौंपने को ले कर इरफान पठान ने कहा, “मुझे लगता है कि मुंबई इंडियंस के पास सूर्यकुमार यादव मौजूद थे. बुमराह भी टीम में मौजूद थे. अब यहां हार्दिक पंड्या के लिए सब से बड़ा चलैंज यह रहेगा कि इन सब के साथ, रोहित के साथ, सूर्या के साथ, बुमराह के साथ, जो अपनेआप में एक लीडर हैं… बुमराह ने भी कप्तानी की है… बतौर कप्तान हार्दिक के सामने सब से बड़ा चैलेंज इन सब को साथ में ले कर चलने का होगा. मैं बता रहा हूं कि हार्दिक के लिए मुंबई की कप्तानी करना आसान नहीं होगा.”

इरफान पठान की बात में दम है क्योंकि अगर रोहित शर्मा इस फैसले से थोड़े भी खफा हैं, वे इस कि झलक आईपीएल मैचों में जरूर दिखा देंगे.

मेरे पति का अफेयर चल रहा है पर फिर भी वो मुझे तलाक नहीं दे रहे हैं, बताएं कि मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं 25 वर्षीय विवाहित महिला हूं. विवाह को 2 वर्ष हो गए हैं. लेकिन अब मुझे अपने पति के बारे में जो बातें पता चल रही हैं, अगर मुझे पहले पता होती तो मैं उन से शादी कभी न करती. मेरी केवल बहनें हैं कोई भाई नहीं है और पति का कहना है कि उन्होंने मेरे पिता के कहने पर मुझ से इसलिए विवाह किया ताकि मेरे गांव और शहर दोनों की संपत्ति उन के नाम हो जाए.

मेरे पति मुझ पर मायके से पैसा लाने के लिए दबाव डालते हैं और नशे में मुझे मारतेपीटते भी हैं. उन के खुद के अन्य महिलाओं से अफेयर हैं पर वे मुझ पर शक करते हैं जबकि मेरा ऐसा कोई संबंध नहीं है. वे मुझ पर हमेशा नजर रखते हैं और घर से बाहर नहीं जाने देते. कहते हैं, ‘‘मैं तुम्हें तलाक कभी नहीं दूंगा. तुम्हें ऐसे ही रहना होगा.’’ मैं बीए कर चुकी हूं और एमए कर रही हूं. मैं इतनी सक्षम हूं कि अकेले रह सकती हूं लेकिन मेरे पति मुझे तलाक नहीं देना चाहते. मैं बहुत परेशान हूं. मैं ऐसे इंसान के साथ और नहीं रह सकती. मैं अकेले रहना चाहती हूं. क्या करूं सलाह दें.

जवाब

आप की सारी बातों से पता चल रहा है कि आप के पति ने संपत्ति के लालच में आप से विवाह किया है और उन्हें आप से कोई लगाव या प्यार नहीं है. उन का मकसद सिर्फ आप को परेशान करना है. अगर आप सचमुच उन से छुटकारा पाना चाहती हैं तो या तो आप बिना तलाक के भी पति से अलग रह सकती हैं. इस के अलावा आप का इस तरह उन से अलग रहना कानूनन तलाक का आधार नहीं माना जाएगा. इस के अलावा अगर आप चाहें तो पति के क्रूरतापूर्ण व्यवहार के आधार पर न्यायिक पृथक्करण करवा सकती हैं या तलाक ले सकती हैं. अगर आप तलाक के लिए कोर्ट में अर्जी देती हैं तो कोर्ट एक खास समय के लिए कानूनी अलगाव की मंजूरी देता है ताकि पतिपत्नी अपने रिश्ते के बारे में पूर्ण विचार कर सकें. इस अवधि में आप दोनों कानूनन विवाहित रहेंगे. लेकिन इस अवधि के बाद भी आप का निर्णय अलग होने का होगा तो कानून के अंतर्गत आप की तलाक की याचिका पर सुनवाई होगी.

दिल को स्वस्थ और मजबूत रखने के लिए अपनाएं ये टिप्स

हैल्दी डाइट के सामने कौनकौन सी समस्याएं हैं, यह आम प्रश्न है. इस का जवाब ढूंढ़ा जाना चाहिए. आज हृदय रोग, कैंसर, डायबिटीज, उच्च रक्तचाप, किडनी की बीमारियां बहुत तेजी से फैल रही हैं और ये सभी किसी न किसी रूप में डाइट यानी खानपान से जुड़ी हैं.

दरअसल, आजकल लोग क्राइसिस मैनेजर हो गए हैं क्योंकि लोग तब तक अपने अच्छे स्वास्थ्य के लिए कठोर कदम नहीं उठा पाते जब तक कि पानी सिर के ऊपर से न गुजर जाए. बाजार में इन दिनों अच्छे तथा संतुलित आहार प्राप्त करना आसान नहीं है जबकि स्नैक्स, प्रोसैस्ड फूड आसानी से बाजारों में सर्वसुलभ हैं. फल तथा सब्जियों को रखने व बनाने की समस्या है. इस के लिए रेफ्रिजरेटर की जरूरत पड़ती है. यही कारण है कि बदलती फूड हैबिट, खानपान में अनियमितता, भागमभाग की जिंदगी, समय का अभाव, मानसिक दबाव एवं तनाव के कारण युवा पीढ़ी तरहतरह की मानसिक व शारीरिक बीमारियों का शिकार हो रही है. इन में हृदय रोग भी एक है. पहले उम्रदराज लोगों और अधेड़ावस्था में ही हृदय रोग के होने की शिकायत मिलती थी किंतु अब तो 20-25 साल के युवकयुवतियों में भी यह रोग तेजी से फैल रहा है. यदि खानपान, रहनसहन और चालचलन पर ध्यान दिया जाए तो यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं कि हृदय रोग के होने की संभावना घट तो जाएगी साथ ही, हृदय रोगियों को दीर्घायु होने से कोई रोक नहीं सकता.

चिकित्सा विज्ञान ने हृदय रोगियों के लिए रेशेदार फल तथा खाद्य पदार्थों के साथसाथ दूसरी चीजें निर्धारित की हैं जो हृदय को निरोग तथा स्वस्थ रखने में सहायक होती हैं. इन में एंटीऔक्सीडैंट पर विशेष जोर दिया जा रहा है ताकि हृदय रोग खतरनाक स्थिति न ले ले और सर्जरी कराने की जरूरत न पड़े. इन डाइट्स में हाई फाइबर डाइट, लो फैट डाइट, ऐंटीऔक्सीडैंट, हर्बल प्रोडक्ट, लो कार्बोहाइड्रेट और लो प्रोटीन डाइट शामिल हैं.

वजन प्रबंधन

हृदय रोगियों के लिए वजन को नियंत्रित करना जरूरी है. अगर वजन अधिक है और मोटापे के शिकार हैं तो वजन कम करने वाली डाइट लेनी होगी. इस के लिए किसी अच्छे डाइटीशियन से डाइट चार्ट बनवा कर अनुशासनपूर्वक उस का पालन करना जरूरी है.

प्रोटीन और कार्बोहाइड्रेट

वजन कम करने के लिए खानपान में अधिक प्रोटीन तथा कम कार्बोहाइड्रेट का प्रचलन लोकप्रिय हो रहा है. इस से वजन कम होता है. ऐसे खाद्य पदार्थों में वसा को नियंत्रित किया जाता है क्योंकि इस से कैलोरी प्राप्त होती है. आजकल वजन कम करने के लिए फास्ट एनर्जी फूड की भी वकालत की जा रही है. कार्बोहाइड्रेट का सेवन तब किया जाना चाहिए जब अधिक ऊर्जा की जरूरत होती है, जैसे सुबह या जब ऐक्सरसाइज कर रहे हों. रात में कम ऊर्जा की जरूरत पड़ती है, इसलिए डिनर में कार्बोहाइड्रेट से परहेज किया जाना चाहिए. इस तरह की डाइट के पीछे यह सिद्धांत काम करता है कि प्रोटीन तथा वसा से ऊर्जा धीरेधीरे प्राप्त होती है, इस कारण इस से वजन बढ़ने की संभावना काफी कम होती है. इतना ही नहीं, प्रोटीन का पाचन धीरेधीरे तथा देरी से होता है और कार्बोहाइड्रेट का पाचन अपेक्षाकृत तेजी से होता है, जिस से पेट जल्दी खाली हो जाता है.

कम वसा का सेवन

हृदय रोगियों के लिए कम वसा का सेवन फायदेमंद होता है. इस से एक तो वजन नियंत्रित रहता है, दूसरे, रक्तनलियों में वसा का जमाव नहीं हो पाता. फलस्वरूप हृदय रोगियों को इस से काफी राहत मिलती है. चूंकि वसा से अधिक मात्रा में कैलोरी मिलती है तथा इस का जमाव शरीर के विभिन्न भागों में कार्बोहाइड्रेट तथा प्रोटीन की अपेक्षा ज्यादा होता है इसलिए इस की मात्रा कम कर दी जाए तो अधिक ऊर्जा की बचत हो जाती है. उदाहरण के रूप में यदि वसा की मात्रा 10 ग्राम कर दी जाए तो 900 कैलोरी ऊर्जा की कमी होती है. वजन कम करने के दौरान कार्बोहाइड्रेट तथा प्रोटीन की मात्रा ज्यादा नहीं बढ़ानी चाहिए. बहरहाल, भोजन में वसा की कमी के पीछे मुख्य उद्देश्य रक्त में कोलैस्ट्रौल की मात्रा को कम करना होता है.

ऐंटीऔक्सीडैंट

औक्सीडैंट या फ्री रेडिकल से कई तरह के रोग होते हैं, जैसे कैंसर, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, एथेरो स्कलोरोसिस, मोतियाबिंद, स्ट्रोक, दमा, पैंक्रियाटाइटिस, पार्किंसन डिजीज तथा पेट की बीमारियां. फ्री रेडिकल के शरीर में आने के मुख्य स्रोत तंबाकू, बीड़ी, सिगरेट, वायु प्रदूषण, एनेस्थेटिक्स, पैस्टिसाइड्स तथा कुछ दवाएं व रेडिएशन हैं. इस के प्रभाव को खत्म करने के लिए ऐसे लोगों को ऐंटीऔक्सीडैंट के सेवन की सलाह दी जाती है. ये विटामिंस हैं जो लवणों तथा दूसरे एजेंट के साथ मिल कर फ्री रेडिकल या औक्सीडैंट के प्रभाव को समाप्त कर देते हैं. शरीर के अंदर इन का निर्माण नहीं होता है. ये हमारे द्वारा खाए गए भोज्य हैं. जब विटामिंस तथा लवण का सेवन ऐंटीऔक्सीडैंट की तरह करते हैं तो ये हृदय व दूसरे शारीरिक अंगों को क्षतिग्रस्त होने से बचाते हैं. सो हर हृदय रोगी को इस का सेवन करना चाहिए. हालांकि हम जानते हैं कि एलडीएल कोलैस्ट्रौल बैड कोलैस्ट्रौल माना जाता है जिस के कारण हृदय रोग होता है. अभी हाल में अनुसंधान से पता चला है कि यह और कुछ नहीं एलडीएल का औक्सीडाइज्ड रूप है जो हृदय की नलियों में जमा हो कर एथरोजेनेसस नामक बीमारी का कारण बनता है. यहां बता दें कि सामान्यतया अनऔक्सीडाइज्ड एलडीएल हृदय रोग पैदा करने में सक्षम नहीं होता है. इसलिए हृदय रोगों को रोकने के लिए 2 बातें मुख्य हैं : एलडीएल कोलैस्ट्रौल की मात्रा को नियंत्रित करना और एलडीएल कोलैस्ट्रौल को औक्सीडाइज होने से बचाना. इस के लिए हृदय रोगियों को विटामिन तथा लवण के साथ ऐंटीऔक्सीडैंट का भी सेवन करना जरूरी है. इस से एलडीएल के औक्सीडाइज होने की संभावना कम होती है.

लवण का सेवन

कुछ ऐसे लवण हैं जो शरीर को सक्रिय, मैटाबोलिज्म तथा हृदय को स्वस्थ रखने के लिए जरूरी हैं. इन में प्रमुख हैं : क्रोमियम, मैग्नीशियम तथा कैल्शियम. इन की कमी से कई तरह की बीमारियों के होने की संभावना होती है, जैसे क्रोमियम की कमी से इंसुलिन रेजिस्टेंट, हाइपर इंसुलिनेमिया, इंपेयर ग्लूकोज रालटेस तथा हाइपर लिपिडेनिया होने की संभावना होती है. इस की उचित मात्रा का सेवन करने से ये परेशानियां दूर हो जाती हैं. मैग्नीशियम की कमी से कोरोनरी आर्टेरियो, स्कलोरेसिस नामक रक्तनलियों की बीमारियां होती हैं और कैल्शियम की कमी से आट्रेरियो स्कलोरेसिस तथा उच्च रक्तचाप नामक बीमारियां होती हैं. अत: हृदय रोग विशेषज्ञ हृदयरोगियों को कुछ विटामिन जैसे विटामिन-ई, विटामिन-सी के साथ कैल्शियम, सेलेमियम तथा क्रोमियम का सेवन नियमित रूप से करने की सलाह देते हैं.

ऐसे कम करें रिस्क फैक्टर

अधिक मछली खाएं. मछली प्रोटीन तथा दूसरे पोषक तत्त्वों का अच्छा स्रोत है. इस में प्रचुर मात्रा में ओमेगा-3 फैटी एसिड होता है जो हृदय रोग की संभावना तथा स्ट्रोक को कम करने में सहायक होता है. हरी रेशेदार सब्जियां, फल, जूस तथा मोटे अनाज का सेवन करें. मौसमी फल, हरी सब्जियां, मोटे अनाज आसानी से सुलभ हैं. ये खाने में स्वादिष्ठ तो लगते ही हैं, हृदय रोग से लड़ने में सहायक भी होते हैं.

  1. नियंत्रित वसा का चुनाव करें.
  2. कम वसा का सेवन करें.
  3. सैचुरेटेड फैट का त्याग करें.
  4. अनसैचुरेटेड फैट का चुनाव करें.
  5. प्रोटीन में विविधता लाएं.
  6. कोलैस्ट्रौल का सेवन कम करें.
  7. थोड़ाथोड़ा खाएं.
  8. खानपान पर ध्यान

हार्ट को हैल्दी रखने के लिए इस बात पर ध्यान देने की जरूरत होती है कि आप क्या खा रहे हैं. ऐसा करने पर हार्ट की आर्टरीज में रक्त के क्लौट बनने से रोका जा सकता है. यदि किसी आर्टरी में क्लौट का जमाव होना शुरू हो भी गया हो तो उस के बढ़ने की संभावना कम हो जाती है. इस से टोटल तथा एलडीएल कोलैस्ट्रौल कम होता है जिस से रक्तचाप नियंत्रित रहता है. ऐसे मरीजों के लिए डाइटीशियन जब डायरी प्लान बना रहे होते हैं तो वे इस बात का ध्यान रखते हैं कि मरीज को क्या खाना चाहिए और क्या नहीं. हकीकत यह है कि हार्ट की सुरक्षा के लिए एक ओर जहां कुछ खाद्य पदार्थों को डाइट चार्ट में जोड़ा जाता है वहीं कुछ खाद्य पदार्थों को हटाया भी जाता है. जिस खाद्य पदार्थ को आप खा रहे हैं, उस को एंजौय करें. खुशीखुशी खाएं, न कि नाकभौं सिकोड़ कर. अपनी जिंदगी के बारे में पौजिटिव थिंकिंग रखते हुए उस का आनंद लें ताकि आप अपने में सहजता का अनुभव करें. इस बात को बोनस के रूप में मानें कि आप को कम खाने की जरूरत पड़ रही है. इस से एक ओर जहां आप का वजन कम होता है वहीं दूसरी ओर इस से रक्त में कोलैस्ट्रौल की मात्रा भी कम होती है.

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सांसदों का निलबंन : एक पार्टी के राज की तरफ बढ़ता देश

13 दिसंबर को संसद में हुई सुरक्षा में चूक के मसले पर लोकसभा और राज्यसभा के सांसद सदन में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के बयान की मांग कर रहे थे. सांसदों का कहना था कि गृहमंत्री टीवी पर बयान दे सकते हैं तो सदन में क्यों नहीं? सांसदों का यह विरोध सरकार को पंसद नहीं आया और उस ने लोकसभा व राज्यसभा से कुल 78 सांसदों को निलंबित कर दिया है. निलंबित सांसदों में कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी, तृणमल कांग्रेस के सौगत राय, डीएमके के टी आर बालू, दयानिधि मारन समेत लोकसभा के कुल 33 सांसद हैं. वहीं राज्यसभा से जयराम रमेश, प्रमोद तिवारी, के सी वेणुगोपाल, इमरान प्रतापगढ़ी, रणदीप सिंह सुरजेवाला, मोहम्मद नदीमुल हक समेत 45 सांसद शामिल हैं.
2001 के संसद हमले के दिन 13 दिसंबर को 2 लोगो ने लोकसभा के अंदर और 2 ने बाहर प्रदर्शन किया था. उस के बाद से विपक्ष लगातार सुरक्षा में हुई उस चूक को ले कर सरकार से जवाब मांग रहा था. इस को ले कर 14 दिसंबर को लोकसभा से कुल 13 सांसद निलंबित किए गए थे. संसद के शीतकालीन सत्र में अब तक कुल मिला कर 92 सांसदों को निलंबित किया जा चुका है. विपक्षी सांसदों ने यह आरोप भी लगाया कि जब जब संसद की सुरक्षा से खिलवाड़ होता है, सत्ता में भाजपा सरकार ही होती है. 2001 में अटल सरकार थी, 2023 में मोदी सरकार है.

एक पार्टी शासन की तरफ बढ़ रहा देश

विपक्ष के कुल सांसदों में से आधे के करीब निलंबित किए जा चुके है. इसे मोदी सरकार का संसद और लोकतंत्र पर हमला माना जा रहा है. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का कहना है, ‘निरंकुश मोदी सरकार सासंदों को निलंबित कर के सभी लोकतांत्रिक मानदंडों को कूड़ेदान में फेंक रही है. विपक्ष रहित संसद के साथ मोदी सरकार लोकतंत्र की आवाज को दबा रही है. देश  को एक पार्टी राज की तरफ ले जाया जा रहा है.’
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी ने कहा है, ‘भाजपा के पास सदन चलाने का नैतिक अधिकार नहीं है. अगर मोदी सरकार सभी सांसदों को निलंबित कर देगी तो सांसद अपनी आवाज कैसे उठाएंगे? वो 3 महत्त्वपूर्ण विधेयक पास कर रहे हैं. विधेयक पर विपक्ष के सांसद बहस करें, यह लोकतंत्र में एक व्यवस्था होती है. भाजपा इस व्यवस्था को खत्म करना चाहती है. विपक्ष को पूरी तरह निलंबित करने के बाद भाजपा के पास सदन चलाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है.’

सरकार की जिम्मेदारी है सदन चलाना

सही बात तो यह है कि देश स्तर पर नीतियां अब नहीं बनती हैं. नीतियों को बनाने में विधायक और सांसदों की भूमिका खत्म हो गई है. नीतियों को बनाने में ब्यूरोक्रेसी हावी हो गई है जिस ने हर जगह पर पीएमओ बना लिए हैं. ऐसे में सांसद या विधायक सदन में रहें या न रहें, इन पर कोई फर्क नहीं पड़ता है. सत्ता में बैठे लोग यह भूल जाते हैं कि विपक्ष का महत्त्व भी सरकार जैसा ही होता है. संविधान में यह अधिकार विपक्ष को अधिकार दिया गया है कि वह अपनी असहमति दर्ज करा सके. विधयेक बिना सदन में चर्चा के पारित न हो. जब सदन से सारे सांसद निलंबित कर दिए जाएंगे तो इन विधेयक पर चर्चा कैसे होगी?
सरकार की यह जिम्मेदारी है कि सदन चले. विपक्ष बहस में हिस्सा ले. विधेयक बिना चर्चा के पारित न हों. इसीलिये वह विपक्ष के साथ बातचीत कर के उन को सदन में हिस्सा लेने वाला महौल बनाती थी. अटल सरकार में यह जिम्मेदारी मनोहर जोशी निभाते थे. 2014 से 2019 तक सुमित्रा महाजन ने इस जिम्मेदारी को उठाया. लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला इस तरह का माहौल बनाने में सफल नहीं हो रहे हैं. इस की वजह यह है कि सरकार के कामकाज और व्यवहार पर पीएमओ हावी है. वह जिस तरह के निर्देश देता है, उसी के मुताबिक काम होता है.

पीएमओ के रूप में ब्यूरोक्रेसी हावी

ब्यूरोक्रेसी के इस तरह से दखल देने से सत्ता और विपक्ष के बीच राजनीति व्यवहार खत्म हो जाता है. वह सत्ता और विपक्ष की जगह पर एकदूसरे के दुश्मन जैसे बन कर एकदूसरे के सामने खड़े हो जाते हैं. यहां एक पार्टी सत्ता चलाने का मतलब पीएमओ द्वारा सत्ता चलाना हो गया है. अब भाजपा में सुषमा स्वराज जैसी नेताओं की कमी है जो हाईकमान के सामने गलत कामों का विरोध कर सकें. एक तरह से सरकार मोदी सरकार नहीं चला रही, ब्यूरोक्रेसी सरकार चला रही है, जो पूरी तरह से निष्ठुर हो कर काम कर रही है. उस के लिए विपक्ष के चुने गए प्रतिनिधियों का कोई मतलब नहीं रह गया है.

ब्यूरोक्रेसी सरकार की छवि को पूरी तरह से खराब कर देती है. नेता यह भूल जाते हैं कि वोट मांगने ब्यूरोक्रेसी जनता के पास नहीं जाती. ऐसे में जब नेता वोट मांगने जाएंगे, जनता उन से सवाल पूछ सकती है. ब्यूरोक्रेसी इस तरह से काम करती है कि वह जिस लकीर पर चले, नेता उसी पर चले. जैसे, चीटिंया एक लाइन में चलती हैं. चींटिंयो की अगुआई रानी चींटी करती है. ब्यूरोक्रेसी के पीछे जो लाइन चलती है उस में कोई रानी चींटी यानी उन का कोई अगुआ नहीं होता है. ऐसे में असफलता की जिम्मेदारी सभी नेताओं की होती है.

मोदी सरकार ने जब अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए अदालत के आदेशानुसार ट्रस्ट बनाया तो नृपेंद्र मिश्रा को इस का चेयरमैन बना दिया. नृपेंद्र मिश्रा रिटायर सीनियर आईएएस अफसर हैं. 2014 से 2019 तक वे मोदी सरकार के प्रमुख सचिव थे. उन को पदमभूषण सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है. वही अब राम मंदिर निर्माण के सारे फैसले ले रहे हैं. मंदिर निर्माण आंदोलन में शामिल रहे बाकी नेता उन के आदेश को मानने का बाध्य हैं.

रिटायर होने के बाद भी उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव का कार्यकाल लगातार बढ़ाया जाता रहा है. दुर्गा शंकर मिश्रा का कार्यकाल मुख्य सचिव के रूप में रिटायर होने के बाद भी 2021 और 2022 में बढ़ाया जा चुका है. 31 दिसंबर, 2023 को यह कार्यकाल खत्म हो रहा है. लोग कयास लगा रहे हैं कि तीसरी बार यह कार्यकाल बढ़ेगा या नहीं. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य को रिटायर अफसर चला रहे हैं. इस तरह से सरकार ब्यूरोक्रेसी पर निर्भर है. ब्यूरोक्रेसी के फैसले चुने गए जनप्रतिनिधियों के फैसलों से अलग होते हैं.

सरकार के कदम से मजबूत हो रहा विपक्ष

संसद की सुरक्षा में चूक हुई है. गृहमंत्री अमित शाह की नाकामियों को छिपाने के लिए विपक्षी सांसदों को निलंबित किया जा रहा है. विपक्ष के सांसदों का कहना है कि जब उन की बात सुनी नहीं जा रही है तो उन के पास सदन में नारेबाजी करने और तख्तियां दिखाने के अलावा रास्ता नहीं बचता है. निलंबित होने वाले सांसदों में किसी एक पार्टी के ही सांसद नहीं हैं. इन में अधिकतर इंडिया ब्लौक के सदस्य हैं. 3 राज्यों में चुनावी हार के बाद भी इन की अगुआई कांग्रेस ही कर रही है.
संसद में इस तरह से विरोध करना कोई नई बात नहीं है. जब गैरभाजपा की सरकार होती थी तो इसी तरह से भाजपा के सांसद शोरशराबा करते थे. तब इस तरह से सांसदों को निलंबित नहीं किया जाता था. संसद की सुरक्षा में चूक एक बहुत बड़ा मुद्दा है. विपक्ष के सांसदों की यह जिम्मेदारी है कि वे इस मुददे पर सरकार को बात रखने पर मजबूर करें. सांसदों का निलंबन तानाशाही की तरफ बढता हुआ कदम है.

अयोध्या मंदिर मामला: बहुत साफ हैं आडवाणी और जोशी की अनदेखी के माने

अफ़सोस तो इस बात का भी होना चाहिए कि देश में खबरों के माने और दायरा बहुत समेट कर रख दिए गए हैं. उस से भी बड़ा अफ़सोस यह कि खुद को बुद्धिजीवी समझने का दावा करने वाले अधिकतर लोगों ने मान लिया है कि खबर का मतलब होता है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण, इंडिया गठबंधन की उठापटक, देश में कितनी जाति के मुख्यमंत्री और नेता हैं, इस के बाद अपराध, क्रिकेट और फ़िल्में. और ज्यादा हुआ तो यह कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने यह या वह फैसला दिया.

ऐसी खबरों से न तो तर्कक्षमता निखरती है और न ही ज्ञान में कोई बढ़ोतरी होती है. सरकार का प्रचार ही जब मीडिया का मकसद रह जाए तो कहा जा सकता है कि हम दिमागी तौर पर गुलाम बना कर रख दिए गए हैं और इस पर कोई एतराज भी किसी को नहीं है. ज्यादा नहीं कोई 2 महीने पहले एक खबर आ कर दम तोड़ गई थी कि केंद्र सरकार 9 वर्षों की अपनी उपलब्धियों का प्रचार करने के लिए आईएएस अधिकारियों को रथ प्रभारी के तौर पर तैनात करने की तयारी में हैं. वित्त मंत्रालय द्वारा जारी किए गए इस पत्र का मसौदा काफी लंबाचौड़ा है जिस पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं हुई थी.

कांग्रेस के प्रवक्ता पवन खेड़ा ने सोशल मीडिया एक्स पर यह कहते अपनी जिम्मेदारी पूरी हुई मान ली थी कि सिविल सर्वैन्ट्स को चुनाव में जाने वाली सरकार के लिए राजनीतिक प्रचार करने का आदेश कैसे दिया जा सकता है. भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा ने इस पर सरकार का बचाव किया था. लेकिन वह तर्क आधारित और संवैधानिक न हो कर कांग्रेस की आलोचना तक सिमट कर रह गया था.

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड्गे ने जरूर तुक की बात कही थी कि सरकार की रथ प्रभारी बनाने की योजना केंद्रीय सिविल सेवा (आचरण) नियम 1964 का स्पष्ट उल्लंघन है जो निर्देश देता है कि कोई भी सरकारी कर्मचारी किसी भी राजनीतिक गतिविधि में हिस्सा नहीं लेगा. खड़गे ने आगाह करते हुए यह भी कहा था कि अगर विभागों के वरिष्ठ अधिकारियों को वर्तमान सरकार की मार्केटिंग गतिविधियों के लिए नियुक्त किया जा रहा है तो हमारे देश का शासन अगले 6 महीनों के लिए ठप हो जाएगा. लोकतंत्र की धज्जियां कैसे खुलेआम उड़ाई जा रही हैं, इसे समझने के लिए भाजपा आईटी सैल के प्रमुख अमित मालवीय का सोशल मीडिया पर यह कहना पर्याप्त था कि नौकरशाहों का कर्तव्य है कि वे लोगों की सेवा करें, जैसा निर्वाचित सरकार उचित समझे.

 

कलियुगी श्रवण कुमार

मामला गंभीर था जिस से यह साबित हुआ था कि सरकार की मंशा ब्यूरोक्रेट्स को खुद से सहमत करने की और अपनी विचारधारा के लिहाज से हांकने की भी है और इस में वह अब तक कामयाब भी रही है. क्योंकि कोई चैनल इस पर डिबेट नहीं करता, दैनिक स्तंभ लिखने वाले नैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक ज्ञान का रायता लुढ़का रहे हैं. वे अब खुशवंत सिंह होने के बजाय शिव खेड़ा होने लगे हैं. वे इस बात का जिक्र करने से भी परहेज करते हैं कि केंद्र तो केंद्र, भाजपाशासित राज्य सरकारों पर तक पीएमओ के आईएएस अधिकारियों का शिकंजा कसता जा रहा है.

ऐसे में क्या आप यह उम्मीद करते हैं कि पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी और पूर्व केंद्रीय मंत्री मुरली मनोहर जोशी को 22 जनवरी को अयोध्या आने से रोका जाना महज एक राजनीतिक फैसला है. राम मंदिर ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय ने एक पत्रकार वार्त्ता आयोजित कर कहा कि भाजपा के इन दोनों वरिष्ठ नेताओं से मैं ने कहा कि आप दोनों बुजुर्ग हैं, इसलिए स्वास्थ्य व उम्र को देखते राम मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा में न आएं. बकौल चंपत राय, दोनों ने इसे मान भी लिया.

थोड़ीबहुत नानुकुर मुरली मनोहर जोशी ने की लेकिन चंपत राय ने उन से कहा, ‘गुरुजी मत आइए. आप की उम्र और सर्दी… आप ने अभी घुटने भी बदलवाए हैं.’ चंपत राय ने एक तथाकथित दिलचस्प किस्सा सुनाते हुए यह भी बताया कि कैसे 5 अगस्त को राम मंदिर आंदोलन के सहनायकों में से एक कल्याण सिंह शिलान्यस के दिन आने के लिए अड़ गए थे और उन्हें चालाकी दिखाते ऐन वक्त पर आने से रोक दिया गया. घर के बुजुर्गों को इसी तरह रोका जाता है.

 

फैसला और इमेज  

आडवाणी और जोशी की यह त्रासदी ही है कि उन्हें आज से कोई 30-32 साल पहले भी अयोध्या जाने से रोकने की कोशिश या साजिश हुई थी. तब उन का रास्ता रोकने वाले लालू और मुलायम यादव जैसे लोग थे लेकिन आज तो अपने वाले ही नहीं चाह रहे कि वे अपने लगाए पेड़ का फल चखें. उस दौर में भी रास्ता आईएएस अफसरों की सलाह पर ही रोका गया था और आज भी ऐसा ही लग रहा है क्योंकि चंपत राय कोई इतनी बड़ी हस्ती नहीं हैं कि बिना मोदी आज्ञा और पीएमओ के फरमान के यह अहम फैसला ले पाएं. यह स्क्रिप्ट किस ने लिखी, यह शायद ही कभी पता चले पर क्यों लिखी, यह हर कोई समझ रहा है.

प्रेमचंद की चर्चित कहानी ‘बूढ़ी काकी’ की तर्ज पर इन दोनों की बेरहम अनदेखी और उन्हें  आने से रोकने का इकलौता मकसद यह है कि सिर्फ नरेंद्र मोदी ही दिखें. लालकृष्ण आडवाणी न होते तो आज भी राम मंदिर एक सपना बन कर ही रह जाता. उन्होंने जो किया उसे देश जानता है.

आज जो हो रहा है उसे भी देश समझ रहा है कि सवाल नरेंद्र मोदी की इमेज का है. अगर आडवाणी और जोशी आए तो मंदिर आंदोलन के अगुआ होने के नाते मीडिया और देश के हिंदुओं का ध्यान उन्हीं की तरफ रहेगा. तब लोग यह भी पूछ और सोच सकते हैं कि मुख्य यजमान आडवाणी जी क्यों नहीं जबकि सारा कियाधरा तो उन्हीं का है.

अगर भाजपा एक परिवार है तो उस में बुजुर्गो की इतनी उपेक्षा क्यों कि उन्हें एक अति शुभ कार्य का साक्षी भी नहीं बनने दिया जा रहा जबकि सनातनी संस्कार तो यह कहते हैं कि घर के बुजुर्ग ही सर्वेसर्वा होते हैं, वे तो प्रभुतुल्य होते हैं. यह और बात है कि चंपत राय ने  4 दिनों पहले ही नरेंद्र मोदी को विष्णु अवतार माना है. रही बात अस्वस्थता और उम्र की, तो वह किसी के गले नहीं उतर रही. इन दोनों ने ही इस बाबत अपने से कोई सार्वजनिक बयान नहीं दिया है. ऐसे में चंपत राय, जो मुद्दत से इन की खैरखबर लेने नहीं गए, को कैसे जादू के जोर से पता चल गया कि ये आने की स्थिति में नहीं.

90 के दौर के किशोर और युवा हिंदू जो जान जोखिम में डाल कर अयोध्या गए थे वे इस पर  क्या सोचते हैं, यह कहना भी मुश्किल है. उन्होंने भाजपा के बहुत मुश्किल और चुनौतीपूर्ण दिनों में आडवाणी का जलवा देखा है जो उन्होंने खुद हासिल किया था. वही पीढ़ी नरेंद्र मोदी युग भी देख रही है जिस में इन की कोई प्रत्यक्ष या परोक्ष भागीदारी नहीं. ये लोग सोशल मीडिया पर हिंदुत्व से ताल्लुक रखती सच्चीझूठी पोस्ट फौरवर्ड करने के आसान काम करने भर को रह गए हैं. ये कुछ बोल भी नहीं सकते क्योंकि जब सुनी नींव रखने वालों की नहीं जा रही तो इन की हैसियत क्या.

सुनी सिर्फ उन आईएएस अधिकारियों की जा रही है जो सरकार की दिशा और दशा तय कर रहे हैं, जो विकसित भारत संकल्प यात्रा के रथी बना दिए गए हैं. दौर हमेशा से अर्जुनों का रहा है. ये एकलव्य तो अंगूठा दान करने को जन्मे हैं. दौर नृपेंद्र मिश्रा जैसे आईएएस अधिकारियों का है जो राम मंदिर निर्माण समिति के अध्यक्ष की हैसियत से अयोध्या के नए ऋषिमुनि बन बैठे हैं जिन्होंने 92 के आंदोलन में अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया वे परचून और भजिये की दुकान पर बैठे या दूसरे छोटेमोटे कामों से गुजर करते उस दौर के संस्मरण सुना रहे हैं.

ज्यादती कईयों के साथ हो रही है और यही क्रूरता ही धर्म का सच है.

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