story in hindi
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घर में मरघट सी चुप्पी थी. सबकुछ समाप्त हो चुका था. अभी कुछ पल पहले जो थी, अब वो नहीं थी. कुछ भी तो नहीं हुआ था, उसे. बस, जरा सा दिल घबराया और कहानी खत्म.
‘‘क्या हो गया बीना को?’’
‘‘अरे, अभी तो भलीचंगी थी?’’
सब के होंठों पर यही वाक्य थे.
जाने वाली मेरी प्यारी सखी थी और एक बहुत अच्छी इनसान भी. न कोई तकलीफ, न कोई बीमारी. कल शाम ही तो हम बाजार से लंबीचौड़ी खरीदारी कर के लौटे थे.
बीना के बच्चे मुझे देख दहाड़े मार कर रोने लगे. बस, गले से लगे बच्चों को मैं मात्र थपक ही रही थी, शब्द कहां थे मेरे पास. जो उन्होंने खो दिया था उस की भरपाई मेरे शब्द भला कैसे कर सकते थे?
इनसान कितना खोखला, कितना गरीब है कि जरूरत पड़ने पर शब्द भी हाथ छुड़ा लेते हैं. ऐसा नहीं कि सांत्वना देने वाले के पास सदा ही शब्दों का अभाव होता है, मगर यह भी सच है कि जहां रिश्ता ज्यादा गहरा हो वहां शब्द मौन ही रहते हैं, क्योंकि पीड़ा और व्यथा नापीतोली जो नहीं होती.
‘‘हाय री बीना, तू क्यों चली गई? तेरी जगह मुझे मौत आ जाती. मुझ बुढि़या की जरूरत नहीं थी यहां…मेरे बेटे का घर उजाड़ कर कहां चली गई री बीना…अरे, बेचारा न आगे का रहा न पीछे का. इस उम्र में इसे अब कौन लड़की देगा?’’
दोनों बच्चे अभीअभी आईं अपनी दादी का यह विलाप सुन कर स्तब्ध रह गए. कभी मेरा मुंह देखते और कभी अपने पिता का. छोटा भाई और उस की पत्नी भी साथ थे. वो भी क्या कहते. बच्चे चाचाचाची से मिल कर बिलखने लगे. शव को नहलाने का समय आ गया. सभी कमरे से बाहर चले गए. कपड़ा हटाया तो मेरी संपूर्ण चेतना हिल गई. बीना उन्हीं कपड़ों में थीं जो कल बाजार जाते हुए पहने थी.
‘अरे, इस नई साड़ी की बारी ही नहीं आ रही…आज चाहे बारिश आए या आंधी, अब तुम यह मत कह देना कि इतनी सुंदर साड़ी मत पहनो कहीं रिकशे में न फंस जाए…गाड़ी हमारे पास है नहीं और इन के साथ जाने का कहीं कोई प्रोग्राम नहीं बनता.
‘मेरे तो प्राण इस साड़ी में ही अटके हैं. आज मुझे यही पहननी है.’
हंस दी थी मैं. सिल्क की गुलाबी साड़ी पहन कर इतनी लंबीचौड़ी खरीदारी में उस के खराब होने के पूरेपूरे आसार थे.
‘भई, मरजी है तुम्हारी.’
‘नहीं पहनूं क्या?’ अगले पल बीना खुद ही बोली थी, ‘वैसे तो मुझे इसे नहीं पहनना चाहिए…चौड़े बाजार में तो कीचड़ भी बहुत होता है, कहीं कोई दाग लग गया तो…’
‘कोई सिंथेटिक साड़ी पहन लो न बाबा, क्यों इतनी सुंदर साड़ी का सत्यानास करने पर तुली हो…अगले हफ्ते मेरे घर किटी पार्टी है और उस में तुम मेहमान बन कर आने वाली हो, तब इसे पहन लेना.’
‘तब तो तुम्हारी रसोई मुझे संभालनी होगी, घीतेल का दाग लग गया तो.’
किस्सा यह कि गुलाबी साड़ी न पहन कर बीना ने वही साड़ी पहन ली थी जो अभी उस के शव पर थी. सच में गुलाबी साड़ी वह नहीं पहन पाई. दाहसंस्कार हो गया और धीरेधीरे चौथा और फिर तेरहवीं भी. मैं हर रोज वहां जाती रही. बीना द्वारा संजोया घर उस के बिना सूना और उदास था. ऐसा लगता जैसे कोई चुपचाप उठ कर चला गया है और उम्मीद सी लगती कि अभी रसोई से निकल कर बीना चली आएगी, बच्चों को चायनाश्ता पूछेगी, पढ़ने को कहेगी, टीवी बंद करने को कहेगी.
क्याक्या चिंता रहती थी बीना को, पल भर को भी अपना घर छोड़ना उसे कठिन लगता था. कहती कि मेरे बिना सब अस्तव्यस्त हो जाता है, और अब देखो, कितना समय हो गया, वहीं है वह घर और चल रहा है उस के बिना भी.
एक शाम बीना के पति हमारे घर चले आए. परेशान थे. कुछ रुपयों की जरूरत आ पड़ी थी उन्हें. बीना के मरने पर और उस के बाद आयागया इतना रहा कि पूरी तनख्वाह और कुछ उन के पास जो होगा सब समाप्त हो चुका था. अभी नई तनख्वाह आने में समय था.
मेरे पति ने मेरी तरफ देखा, सहसा मुझे याद आया कि अभी कुछ दिन पहले ही बीना ने मुझे बताया था कि उस के पास 20 हजार रुपए जमा हो चुके हैं जिन्हें वह बैंक में फिक्स डिपाजिट करना चाहती है. रो पड़ी मैं बीना की कही हुई बातों को याद कर, ‘मुझे किसी के आगे हाथ फैलाना अच्छा नहीं लगता. कम है तो कम खा लो न, सब्जी के पैसे नहीं हैं तो नमक से सूखी रोटी खा कर ऊपर से पानी पी लो. कितने लोग हैं जो रात में बिना रोटी खाए ही सो जाते हैं. कम से कम हमारी हालत उन से तो अच्छी है न.’
जमीन से जुड़ी थी बीना. मेरे लिए उस के पति की आंखों की पीड़ा असहनीय हो रही थी. घर कैसे चलता है उन्होंने कभी मुड़ कर भी नहींदेखा था.
‘‘क्या सोच रही हो निशा?’’ मेरे पति ने कंधे पर हथेली रख मुझे झकझोरा. आंखें पोंछ ली मैं ने.
‘‘रुपए हैं आप के घर में भाई साहब, पूरे 20 हजार रुपए बीना ने जमा कर रखे थे. वह कभी किसी से कुछ मांगना नहीं चाहती थी न. शायद इसीलिए सब पहले से जमा कर रखा था उस ने. आप उस की अलमारी में देखिए, वहीं होंगे 20 हजार रुपए.’’
बीना के पति चीखचीख कर रोने लगे थे. पूरे 25 साल साथ रह कर भी वह अपनी पत्नी को उतना नहीं जान पाए थे जितना मैं पराई हो कर जानती थी. मेरे पति ने उन्हें किसी तरह संभाला, किसी तरह पानी पिला कर गले का आवेग शांत किया.
‘‘अभी कुछ दिन पहले ही सारा सामान मुझे और बेटे को दिखा रही थी. मैं ने पूछा था कि तुम कहीं जा रही हो क्या जो हम दोनों को सब समझा रही हो तो कहने लगी कि क्या पता मर ही जाऊं. कोई यह तो न कहे कि मरने वाली कंगली ही मर गई.
‘‘तब मुझे क्या पता था कि उस के कहे शब्द सच ही हो जाएंगे. उस के मरने के बाद भी मुझे कहीं नहीं जाना पड़ा. अपने दाहसंस्कार और कफन तक का सामान भी संजो रखा था उस ने.’’
बीना के पति तो चले गए और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सी सोचती रही. जीवन कितना छोटा और क्षणिक है. अभी मैं हूंपर क्षण भर बाद भी रहूंगी या नहीं, कौन जाने. आज मेरी जबान चल रही है, आज मैं अच्छाबुरा, कड़वामीठा अपनी जीभ से टपका रही हूं, कौन जाने क्षण भर बाद मैं रहूं न रहूं. कौन जाने मेरे कौन से शब्द आखिरी शब्द हो जाने वाले हैं. मेरे द्वारा किया गया कौन सा कर्म आखिरी कर्म बन जाने वाला है, कौन जाने.
मौत एक शाश्वत सचाई है और इसे गाली जैसा न मान अगर कड़वे सत्य सा मान लूं तो हो सकता है मैं कोई भी अन्याय, कोई भी पाप करने से बच जाऊं. यही सच हर प्राणी पर लागू होता है. मैं आज हूं, कल रहूं न रहूं कौन जाने.
मेरे जीवन में भी ऐसी कुछ घटनाएं घटी हैं जिन्हें मैं कभी भूल नहीं पाती हूं. मेरे साथ चाहेअनचाहे जुड़े कुछ रिश्ते जो सदा कांटे से चुभते रहे हैं. कुछ ऐसे नाते जिन्होंने सदा अपमान ही किया है.
उन के शब्द मन में आक्रोश से उबलते रहते हैं, जिन से मिल कर सदा तनाव से भरती रही हूं. एकाएक सोचने लगी हूं कि मेरा जीवन इतना भी सस्ता नहीं है, जिसे तनाव और घृणा की भेंट चढ़ा दूं. कुदरत ने अच्छा पति, अच्छी संतान दी है जिस के लिए मैं उस की आभारी हूं.
इतना सब है तो थोड़ी सी कड़वाहट को झटक देना क्यों न श्रेयस्कर मान लूं.क्यों न हाथ झाड़ दूं तनाव से. क्यों न स्वयं को आक्रोश और तनाव से मुक्त कर लूं. जो मिला है उसी का सुख क्यों न मनाऊं, क्यों व्यर्थ पीड़ा में अपने सुखचैन का नाश करूं.
प्रकृति ने इतनी नेमतें प्रदान की हैंतो क्यों न जरा सी कड़वाहट भी सिरआंखों पर ले लूं, क्यों न क्षमा कर दूं उन्हें, जिन्होंने मुझ से कभी प्यार ही नहीं किया. और मैं ने उन्हें तत्काल क्षमा कर दिया, बिना एक भी क्षण गंवाए, क्योंकि जीवन क्षणिक है न. मैं अभी हूं, क्षण भर बाद रहूं न रहूं, ‘कौन जाने.’
इस साल अप्रैल में ऐक्ट्रैस सामंथा रुथ प्रभु की फिल्म ‘शकुंतलम’ रिलीज हुई थी. फिल्म में स्वर्ग की अप्सरा मेनका और विश्वामित्र से जन्मी शकुंतला की कहानी को दिखाया गया था. फिल्म की शुरुआत तपस्या कर रहे विश्वामित्र से शुरू हुई. इस तपस्या से डरे इंद्र स्वर्ग की अप्सरा मेनका को विश्वामित्र की तपस्या को भंग करने के लिए धरती पर भेजते हैं. पौराणिक कथाओं में अप्सराएं स्वर्ग की वे सुंदरियां हैं जो हर किसी को सैक्ससुख देती हैं. महाभारत में उर्वशी अर्जुन को उस के साथ इस कारण सैक्स न करने पर श्राप देती है कि, अर्जुन के अनुसार, वह इंद्र, उस के पिता के साथ सोती है. उर्वशी का कहना था कि, वह सभी दादाओं और पोतों को खुश करती रही है, अर्जुन यह कह कर उसका अपमान कर रहा है, वह उसे एक वर्ष तक के लिए किन्नर बन जाने का श्राप देती है.
एक ऋषि विश्वामित्र से संभोग के बाद शकुंतला जन्म लेती है जिसे मेनका धरती पर छोड़ क़र स्वर्ग लौट जाती है. जब महर्षि कण्व की नजर उस पर पड़ती है तो वह उसे अपने साथ आश्रम ले आते हैं. कुछ सालों बाद राजा दुष्यंत उस आश्रम में आते हैं और तब उन की मुलाकात शकुंतला से होती है. वे उस से गंधर्व विवाह कर लेते हैं. और वह गर्भवती हो जाती है. कुछ समय बाद वे अपने सैनिकों के साथ उसे लेने आएंगे, ऐसा वादा कर के वे अपने राज्य लौट जाते हैं. काफी समय तक जब राजा दुष्यंत उसे लेने नहीं आते तो गर्भवती शकुंतला उन के पास खुद चली जाती है. लेकिन राजा दुष्यंत उसे पहचाने से इनकार कर देते हैं.
गर्भवती शकुंतलाका क्या हुआ, राजा दुष्यंत ने उसे क्यों नहीं पहचाना, फिल्म ‘शकुंतलम’ यही कहानी बताती है. फिल्म देखने के बाद यह कहा जा सकता है कि यह फिल्म वही कहानी बताती है जो अब तक हम देखतेसुनते आए हैं. इस फिल्म ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि किसी की ऐसी हिम्मत नहीं जो धर्मग्रंथों की नैतिकता और असलियत पर सवाल उठाए. इस फिल्म ने भी वैदिक देवता इंद्र, पौराणिक ऋषि विश्वामित्र, मेनका, कण्व, राजा दुष्यंत के चित्रों को महान बनाकर प्रस्तुत किया है. जबकि, इन में से हरेक का चरित्र बेहद घटिया और विवादस्पद ही नहीं है, उस से आज भी आम जनता गलत सबक सीखती है और औरतों को वह इस्तेमाल करने की वस्तु मात्र मानती है.
शंकुतला और दुष्यंत की पौराणिक कहानी क्या वैसी ही है जैसी इस फिल्म में दिखाई गई या इस से पहले कई फिल्मों में दिखाई गईथी अथवा बच्चों और बड़ों को पढ़ाई जाती है या इस की सचाई कुछ और ही है. जो मूल कहानी में स्पष्ट है, क्या इस कहानी से हमें कोई ज्ञान और सही आदर्श मिलता है. यह बस धर्म का पालन करना सिखाती हुई पाखंडी व गलत बातों पर धार्मिक स्टैंप लगाती प्रतीत होती है जो हमारी अनैतिकता का कारण है.
हम से बारबार कहा जाता है कि देवताओं में कोई डर, कोई लालच नहीं होता. वे विश्व कल्याण के लिए ईश्वर की उत्पत्ति हैं. पर अगर देवता इंद्र में डर नहीं था तो वे ऋषि विश्वामित्र की तपस्या को भंग क्यों करना चाहते थे. क्यों वेअपनी सत्ता खोने से डर रहे थे. देवताओंके पास बहुत शक्ति होती है तो क्या देवता इंद्र शक्तिविहीन थे जो उन को षड्यंत्र की जरूरत पड़ गई. हमारे देवताओं का यह कौनसा रूप है. क्या हमें षड्यंत्र करने वाले देवताओं से सीख लेने की जरूरत है. एक ऐसे देवता जिसे अपनी कुरसी खोने का डर है, हमें उस से जिंदगी जीने के गुण सीखने चाहिए? दूसरी मुख्य बात यह है कि पौराणिक ग्रंथ कुछ नहीं बताते कि यह कैसी तपस्या है जिस से इंद्र का सिंहासन डोल सके. सिर्फ स्थिर बैठ कर, ध्यान लगाने से क्या इंद्र का स्थान जीता जा सकता है. यदि कुछ स्थान पाने के लिए सिर्फ बैठना है, तो देवताओं ने क्यों असुरों से युद्ध किए, क्यों अमृतमंथन किया?
वायु देवता भी इंद्र के इस षंडयंत्र में शामिल थे. उन्होंने ही योजना के अनुसार मेनका के कपड़े शरीर से उड़ा दिए. क्या देवताओं को ऐसा करना शोभा देता है? देवता हमें ये सब क्या सिखा रहे हैं. यह स्त्री के सम्मान को ठेस पहुंचाने के समान है. धर्म के ठेकेदार तो हमें यह बताते हैं कि हमारे देवता सचरित्र थे. लेकिन यह कैसा सचरित्र है जो किसी स्त्री की मानमर्यादा का हनन कर रहा है. हम अपने देवताओं से ये सब सीखें और सीखकर क्या करें महिलाओं का शोषण. सब से बड़ी बात यह है कि स्वर्ग में मेनका, रंभा और उर्वशी जैसी कामसुख देने वाली स्त्रियां थीं ही क्यों. आज भी देश में लाखों वेश्यालयों को अप्सराओं की परंपरा को ढोना पड़ रहा है और उसे धर्म की मान्यता मिली हुई है.
दूसरे मुख्य पात्र हैं विश्वामित्र. उन्हें एक महान ऋषि कहा जाता है. वे कैसे अपनी कामुकता पर नियंत्रण नहीं रख पाए और देवताओं को कामुकसुख देने वाली अप्सरा मेनका से संभोग कर बैठे. जो व्यक्ति अपने काम पर नियंत्रण नहीं रख सकता वह महान ऋषि कैसे हुआ. क्या हमें ऐसे ऋषियों को अपना आदर्श मानना चाहिए. अगर किसी महिला के शरीर से उस के कपड़े हट जाएं तो क्या हमें उस के साथ संबंध बना लेने चाहिए. इस तरह से तो बलात्कार को बढ़ावा मिलेगा. तो क्या विश्वामित्र हमें बलात्कार करने की ओर प्रेरित कर रहे हैं. अगर मणिपुर में 2 कुकी औरतों के पहले कपड़े हटा दिए गए तो हटाने वाले क्या वायु देवता का काम कर रहे थे और बाद में अगर उस युवती के साथ मां के सामने बलात्कार हुआ तो क्या बलात्कारी ऋषि विश्वामित्र के दिखाए धर्मसम्मत काम को ही कर रहे थे.
मेनका के कपड़े उतरने के बाद विश्वामित्र ने उसे दूसरे कपड़े न दे कर उस स्थिति का फायदा उठाया. उस के कपड़े उतरने पर वे अपना मुंह भी तो फेर सकते थे न. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. क्या किसी नंगी लडक़ी को देख लेने से अपनी कामवासना को रोका नहीं जा सकता. क्या यह कठिन है. विश्वामित्र जैसे महान तेजस्वी ऋषि क्या हमें यही सिखा रहे हैं कि नंगी स्त्री को देखने पर उस के साथ संबंध बना लिए जाने चाहिए. कहने का मतलब यह है कि अगर कोई लडक़ी नंगी नहा रही है और उसे किसी पुरुष ने देख लिया तो उसे यह धार्मिक हक मिल गया कि वह उस लडक़ी के साथ सैक्स संबंध बना ले. क्या यह सच नहीं कि यही सब पढ़ पढ़ क़र हमारे समाज के पुरुष पथभ्रष्ट हो गए है और बलात्कार को पुरुषत्व ऋषित्व से जोड़ क़र देखने लगे हैं.
क्या हमारे ग्रंथ हमें यही पढ़ाते हैं. इस तरह से तो वे औरत को एक सामान की तरह पेश कर रहे हैं, जिस से समयसमय पर अपना काम निकलवाया जाए. क्या हमें ऐसे समाज की जरूरत है जहां षड्यंत्र हो, जहां महिलाओं के साथ बलात्कार किया जाए. इस का जवाब होगा- नहीं – लेकिन धर्मग्रंथ तो हमें यही बता रहे हैं कि देवताओं और ऋषियों ने ऐसा ही किया था. क्या इन देवताओं और ऋषियों ने गलतियां की हैं.
महर्षि वेदव्यास द्वारा लिखे महाभारत, जिसे गीताप्रेस गोरखपुर ने प्रकाशित किया है, के प्रथम खंड आदिपर्व और सभापर्व के 71वें अध्याय से 74वें अध्याय तक में शंकुतला और दुष्यंत की कहानी को वर्णित किया गया है. इस कहानी के माध्यम से हम यह भलीभांति जान सकते हैं कि हमारे धर्मग्रंथ ही हमें औरतों के साथ भेदभाव करना सिखाते हैं.
यह भेदभावआज भी हमारे अंतर्मन का हिस्सा है. शिक्षा के बावजूदयह भेदभाव कम नहीं हुआ है. जब राजा इलिल के पुत्र दुष्यंत महर्षि कण्व के आश्रम में गए तो वहां उन का सामना शकुंतला से हुआ. शंकुतला को देखकर राजा दुष्यंत उस की ओर आकर्षित हो गए और उस की सुंदरता का वर्णन करते हुए कहा-
सुव्रताभ्यागतं तं तु पूज्यं प्राप्तमथेश्वरम्,
रूपयौवन संपन्ना शीलाचारवती शुभा.
अर्थात, उत्तम व्रत का पालन करने वाली वह सुंदरी कन्या रूप, यौवन, शील और सदाचार से संपन्न थी. महाभारत के अनुसार, औरत की खूबसूरती उस के यौवन, रूप,अच्छे आचरण और व्यवहार से है. अगर कोई औरत इन मापदंडों पर खड़ी नहीं उतरती तो क्या वह औरत कहलाने के काबिल नहीं है. यदि औरत तेज आवाज में बात करे तो क्या वह औरत नहीं कहलाएगी.
गुस्सा अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का एक रूप है और अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का अधिकार हमारा संविधान हमें देता है. लेकिन अगर हम महाभारत में कही गई बातों को मानें तो यह हमारे संवैधानिक अधिकारों का हनन होगा. अकसर गुस्सा आने पर लोग तेज आवाज में बात करने लगते हैं. ऐसे में अगर औरत को गुस्सा आता है तो उस की आवाज भी तेज हो जाती है. लेकिन हमारे सब धर्मग्रंथों ने यह अधिकार भी औरतों से छीन लिया है. वे कैसा महसूस कर रही हैं, यहबताने का अधिकार भी उन को नहीं है. यह व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन नहीं तो और क्या है. जबकि, पुरुष अपने गुस्से को दिखा सकता है. वह तो गुस्से में युद्ध भी कर सकता है. लेकिन औरत तो ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि धर्मग्रंथ उसे ऐसा करने की इजाजत नहीं दे रहे.
* इस तरह से हमारे धर्मग्रंथ सदैव पुरुषों के हित में रहे हैं. एक औरत की पहचान केवल उस का रूपरंग होता है. क्या उस की सारी विशेषताएं उस के रूप में होती हैं. इस के अलावा क्या उस का कोई अस्तित्व नहीं. वेदव्यास के महाभारत के पृष्ठ 208 में वर्णित वैशम्पायन उवाच के श्लोक 10 और 11 से तो यही साबित होता है. इस तरह के श्लोकों का सहारा लेकर धर्म-पाखंडी हमेशा औरतों को दबाते रहे हैं और अपने तथ्यों को इन श्लोकों के माध्यम से सही कहते रहे हैं.
* महाभारत में स्त्री के जांघों की तुलना हाथी की सूंड से की गई है. क्या औरतों के लिए ऐसी भाषा का प्रयोग करना उचित है? क्या हमारे धर्मग्रंथ हमें यही सिखाते हैं. अगर महाभारत जैसा ग्रंथ हमें यह सिखा रहा है तो देश के घरघर में महाभारत पढ़ी जाती है या टीवी पर देखी जाती है और उस की दिखाईसिखाई बातें मान्य बन जाती हैं. इस का अर्थ तो यह हुआ कि औरतों का सम्मान न करना इन्हीं धर्मग्रंथों की उपज है. सडक़ पर चलते हुए जब औरतों को मनचलों की तरहतरह की बातों का सामना करना पड़ता है तो जितना दोष उन मनचलों का है उतना ही दोष धर्मग्रंथों का भी है क्योंकि ये सीख तो वे लोग हमारे धर्मग्रंथों से ले रहे हैं. महाभारत और अन्य पौराणिक ग्रंथों में लिखी ऐसी बातों की वजह से समाज में औरतों का शोषण होता आ रहा है.
स्त्री की विशेषताओं का वर्णन केवल उस की सुंदरता में किया गया है. इस के तहत उन के प्रति सुंदर भौहों वाली, हाथी के सूंड के समान जांघोंवाली जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है. मानो, स्त्री की विशेषता, बस, यही हो. इन में कहीं भी उसे साहसी और शक्तिशाली नहींबताया गया. क्या हम अपने समाज की स्त्रियों को यही संदेश देना चाहते हैं कि आप, बस, अपनी सुंदरता पर काम करें.
धर्मग्रंथ हमें संस्कार सिखाते हैं. औरत की जाघों की तुलना हाथी की सूंड से करना शरीर पर इस तरह की बात करना कौन से संस्कार सिखाते हैं. जो लोग ऐसे संस्कारों की बात करते हैं, वे दरअसल जाहिल हैं. अगर यही संस्कार हैं तो उखाड़ फेंक देना चाहिए ऐसे संस्कारों को जो औरतों का शोषण करना सिखाते हैं.
तीसरे मुख्य पात्र दुष्यंत ने जब ने जब कहा कि क्षत्रिय कन्या के सिवा दूसरी किसी स्त्री की ओर मेरा मन कभी नहीं जाता. अपने से भिन्न वर्ण की कुमारियों और स्त्रियों की ओर भी मेरे मन की गति नहीं होती. ऐसा कहने वाले दुष्यंत उन सभी स्त्रियों का अपमान कर रहे हैं जो क्षत्रिय नहीं हैं. उन के कहने का अर्थ है यह कि उन्हें केवल क्षत्रिय कन्या ही आकर्षित कर सकती है. इस कहानी को बारबार बच्चों और बड़ों को पढ़ा कर हमवर्णव्यवस्था को बढ़ावा दे रहे हैं जोकि एक आदर्श समाज के लिए खतरा है.
हमारे धर्मग्रंथ ही हमें इस तरह की बातें सिखा रहे हैं. इस का मतलब है कि समाज में होने वाला भेदभाव इन्हीं की देन है.स्त्रियों के शोषण के पीछे असली किरदार तो ये धर्मग्रंथ ही निभा रहे हैं.
पिता हि मे प्रभुर्नित्यं दैवतं परमं मतम्.
यस्य वा दास्यति पिता स मे भर्ता भविष्यति..
पिता रक्षति कौमारे भर्ता रक्षति यौवने.
पुत्रस्तु स्थविरे भावे न स्त्री स्वातन्त्रयमर्हति..
अमन्यमाना राजेन्द्र पितरं मे तपस्विनम्.
अधर्मेण हि धर्मिष्ठ कथं वरमुपास्महे..
* जब दुष्यंत शकुंतला से गंधर्व विवाह करने को कहते हैं तो शकुंतला कहती हैं कि मेरे पिता (ऋषि कण्व) ही मेरे प्रभु है. वे मुझे जिसे सौंपदेंगे, वही मेरा पति होगा. शकुंतला का ऐसा कहना एक स्त्री से उसके पति को चुनने के हक को खत्म कर देता है. कुमारावस्था में पिता, जवानी में पति और बुढ़ापे में बेटा रक्षा करता है. स्त्री को कभी स्वतंत्र नहीं रहना चाहिए. उन के ऐसा कहने के पीछे धर्म, पांखडिय़ों का मकसद स्त्रियों को पुरुषों के अधीन रखना है. ऐसा सीख देने वाला महाभारत एकस्त्री के अस्तिव पर प्रश्नचिह्न लगाता है. शंकुतला कहती है कि पिता की अवहेलना कर वह अधर्मपूर्वक किसी पति को अपना नहीं सकती. इस का मतलब तो यह हुआ कि गंधर्व विवाह करने वाली सभी लड़कियां अधर्म कर रही हैं.
* शंकुतला सेये सब बातें किस ने कहीं,इन पुरुषों ने ही. ये पुरुष भला क्यों चाहेंगे कि एक स्त्री अपने फैसले खुद ले. वे तो उसे हमेशा अपनी छत्रछाया में ही रखना चाहेंगे ताकि वह अपनेलिए आवाजन उठासके. वे उसे चारदीवारी से बाहर निकलने देना नहीं चाहते, इसलिए इन धर्मग्रंथों में लिखी स्त्रीविरोधी बातों का समर्थनलेकर वे स्त्रियों को दबाना चाहते हैं.
* हमारे धर्मग्रंथ ने स्त्री को अपना वर चुनने के अधिकार से वंचित रखा है. यही कारण है जो आज भी हमारे देश में प्रेमविवाह को नफरत की नजर से देखा जाता है. इन धर्मग्रंथों ने ही समाज को यह पट्टी पढ़ा रखी है कि स्त्रियों को हमेशा अपने वश में रखो, तभी तुम्हारा पौरुषत्व है और यह समाज अंधा हो कर इस बात का अनुसरण कर रहा है.
दुष्यंत कहते हैं कि गंधर्व विवाह धर्म का मार्ग है. इस बात को मानकर शकुंतला उन से शादी करने को राजी हो गई. शकुंतला के साथ एकांतवास बिताने के बाद उन के अनुराग से जन्मे पुत्र को राजकुमार बनाने और उन्हें यहां से ले जाने के वादे के साथ दुष्यंत अपने नगर चले गए. सवाल यह है कि दुष्यंत उसे अपने साथ उसी वक्त क्यों नहीं ले गए. जब वे शादी कर सकते हैं तो साथ क्यों नहीं ले जा सकते. एक शादीशुदा महिला अपने पति के स्नेह की हकदार होती है. ऐसे में अगर उसे दूर रहने की पीड़ासहन करनी पड़ रही है तो यह उस के साथ अन्याय है.
ततो धर्मिष्टतां वव्रे राज्याच्चास्खलनं तथा,
शकुंतला पौरवाणां दुष्यंतहितकाम्यया.
इस श्लोक में शकुंतला अपने लिए कुछ न मांग कर दुष्यंत के लिए वरदान मांगती है. वह कहती है कि धर्म में उन का विश्वास बना रहे और वे राज्य के प्रति अपने कतर्व्य से न हटें.
महिलाओं के दिमाग में धर्म के नाम पर इतना कुछ भर दिया गया है कि वे अपने लिए कुछ नमांग कर अपने पिता, पति, पुत्र के लिए ही वरदान मांगती हैं. करवाचौथ ऐसा ही एक व्रत है जो पति की लंबी उम्र के लिए पत्नियों द्वारा रखा जाता है. क्या पति नहीं चाहता कि उस की पत्नी की उम्र लंबी हो. क्या ऐसा भी कोई व्रत है जो पुरुषों द्वारा महिलाओं के लिए रखा जाता है. ऐसा ही एक व्रत अहोई का व्रत भी है जो माताएं अपनी संतान के लिए रखती हैं.
दिवारात्रमनिद्रैव स्नानभोजनवर्जिता,
राजप्रेषणिका विप्रा श्रतुरङगबलै: सहा.
अद्यश्र्वो वा परश्वोवासमायान्ततीति निश्चिता,
दिवसान् पक्षानृतून् मासानयनानि च सर्वश,
गण्यमानेषु सर्वेषु व्यतीयुस्त्रीणि भारत.
शंकुतला को न तो दिन में नींद आती, न ही रात में. उस का स्नान और खाना दोनों ही छूट गया. उसे यह विश्वास था कि राजा दुष्यंत के सिपाही आएंगे. लेकिन दिन, महीने और साल बीतते गए. 3 साल बाद भी कोई सिपाही न आया. किसी भी स्त्री को अपने पति की सब से ज्यादा जरूरत गर्भावस्था के समय होती है, ऐसे में उस के साथ न होना गलत है.
एक स्त्री का अपने पति पर इतना अडिग विश्वास होता कि वह उस का सालों इंतजार करती रहती है. उस को यह समझा रखा जाता कि वह अपने पति के पास खुद नहीं जाएगी, उसे इंतजार करना होगा चाहे यह इंतजार कितना ही लंबा क्यों न हो. ऐसी ही स्त्रियों का हवाला देकर आज भी महिलाओं से यह उम्मीद की जाती है कि वे अपने पतियों का सदियों तक इंतजार करें.
क्या कभी किसी महिला के पति ने उस का वर्षों तक इंतजार किया है? ऐसा कहीं देखनेसुनने को नहीं मिला तो महिला से ये उम्मीद क्यों की जाती है. इन दीमक लगे ग्रंथों का हवाला देकर आज के समय की स्त्री को चारदीवारी के अंदर कैद करने के सौ बहाने ढूंढे जाते हैं.
गर्भ सुषाव वामोरु: कुमारमममितौजसम्,
त्रिषु वर्षेषु पूर्णेषु दीप्तानलसमद्युतिम्,
रुपौदार्य गुणोपेतं दोषयन्तिं जनमेजय.
इस श्लोक में कहा गया है कि जब एक स्त्री शिशु को जन्म देती है तो वह 206 हड्डियों का दर्द सहन करती है. ऐसे में उन पलों का वर्णन नहीं किया जा सकता है. लेकिन महर्षि वेदव्यास के महाभारत के इस श्लोक में उन पलों को वर्णित करते हुए कहा गया है कि सुंदर जांघों वाली शकुंतला ने अपने गर्भ से एक कुमार को जन्म दिया, जो राजा दुष्यंत के वीर्य से जन्मा था. ऐसी महिला जो दर्द में है वहां उस की जांघों की खूबसूरती देखी जा रही है न कि उस की पीड़ा, उस का दर्द.
जब शकुंतला ने लडक़े को जन्म दिया तो आसमान से फूलों की बारिश होने लगी, देवताओं के बाजे बजने लगे, अप्सराएं नाचने लगीं. इन्हीं घटनाओं ने तो पुरुषों को स्त्री पर हावी होने का साहस दिया है. क्या लडक़ी के जन्म पर भी ऐसा ही होता है. लड़कियों के जन्म पर तो शोक मनाने की घटनाएं सामने आती रही है. जिस तरह उस समय के लड़कों के साथ व्यवहार होता था वैसा ही आज भी होता है और जिस तरह की उपेक्षा महिलाओं को पहले झेलनी पड़ती थी वहीउन्हें आज भी झेलनी पड़ती है.
यही वजह है कि लड़कियों के जन्म पर अधिक खुशियां नहीं मनाई जाती हैं. यह धार्मिक ग्रंथों की ही देन है जो लड़कियों को बचपन से ही भेदभाव का सामना करना पड़ता है.
पति के वियोग में शकुंतला कमजोर और गरीब दिखाई देने लगी. उस के कपड़े मैले दिखने लगतेहैं. पति के बिना पली की यही हालत होती है. उस का अपना कोई अस्तित्व नहीं. स्त्री की सुंदरता क्या उस के पति से ही है. जब शरीर स्त्री का है तो सुंदरता का भार पति पर क्यों है.
पतिशुश्रूणं पूर्वे मनोवाक्कायचेष्टितै,
अनुज्ञाता मया पूर्वे पूजचैतद् व्रतं तव,
एतेनैव व वृत्तेन विशिष्टां लप्स्यसे श्रियम्.
इस श्लोक में ऋषि कण्व, उस के पालने वाले पिता, शकुंतला को सती स्त्री के कर्तव्य बताते हुए कहते हैं कि वह मन, वाणी, शरीर और चेष्टाओं द्वारा पति की सेवा करती रहे. तुम पतिव्रता का पालन करती रहो. इसी से ही तुम अलग शोभा प्राप्त कर सकोगी.ऐसी ही धारणाओं नेस्त्री को जकड़ रखा है. इन्हीं ग्रंथों ने पुरुष को स्त्री का शोषण करने का अधिकार दिया है. इन्हीं के चलते आज भी पत्नियों से पतिव्रता होने की उम्मीद की जाती है जिन के पति उन को छोड़ चुके है उन के प्रति भी.
वहीं अगर पत्नी अपने पति से यह उम्मीद करें तो इस पितृसत्तात्मक समाज को यह मंजूर नहीं है. ऐसे ग्रंथों में पतियों से क्यों नहीं कहा गया कि पत्नी के लिए उनके क्या कर्तव्य और जिम्मेदारी है. क्या पति के लिए सिर्फ पत्नी के ही कर्तव्य होते हैं,पत्नी के लिए पति के नहीं. पत्नी उस पति के लिए पतिव्रता बनी रहे जो उसे सालों तक छोड़ क़र अपनी जिंदगी जीता रहा. उस की खोजखबर तक नहीं ली कि वह कैसी है. ऐसा पाठ पढ़ाने वाली कथा का बारबार मंचन किया जाता है, चित्र-कथाएं बना कर बच्चों को पढ़ाया जाता है, फिल्में बनाई जाती हैं, मूर्तियां स्थापित की जाती हैं.
काफी सालों तक जब दुष्यंत शकुंतला को लेने नहीं आते तो कण्व उस से खुद दुष्यंत के पास जाने को कहते हैं कि तुम मेरी इस आज्ञा के उलट कोई जवाब मत देना. ऐसा कहकर एक स्त्री से उस की अपने विचार वक्त करने की स्वतंत्रता छीनी जा रही है. अगर कोई महिला अपने पति के पास नहीं जाना चाहती तो यह उस का निजी विचार है. लेकिन पौराणिक ग्रंथों की अगर बात की जाए तो उन में भरभर के ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं जिन में स्त्रियों का शोषण किया गया हो न केवल पति द्वारा, अनजाने पुरुष द्वारा बल्कि पिता तक द्वारा भी. आज के समय में भी स्त्री से यही अपेक्षा की जाती है कि उस के घर के मर्द जो फैसला करेंगे उसे वही मानना होगा. न पिता न भाई उस का कोई साथ नहीं देता है.
कण्व कहते हैं कि पतिव्रताओं पर सभी वरों को देने वाले देवता लोग भी संतुष्ट रहते हैं. इस का अर्थ तो यह निकलता है कि जो स्त्रियां पतिव्रता नहीं हैं उन से देवता संतुष्ट नहीं होते हैं. मानो, एक स्त्री की पहचान, बस,पतिव्रता हो.पतिव्रतादेवियों को पति के प्रसाद से शुद्धता मिलती है, इसलिए तुम्हें अपने पति की आराधना करनी चाहिए. ऐसा कहने वाले कण्व समाज की स्त्रियों को यह बताना चाह रहे हैं कि स्त्रियों को अगर शुद्धता प्राप्त करनी है तो उन्हें अपने पतियों की सेवा करनी होगी. लेकिन उन्होंने पतियों के लिए ऐसा कुछ नहीं कहा, क्यों? क्या पति शुद्धता नहीं चाहते? राजा दुष्यंत क्या विवाहित नहीं थे और उन्होंने क्या अपनी पत्नी से छल नहीं किया?
नारीणां चिरवासो हिं बान्धवेषु न रोचते,
कीर्ति चारित्र धर्म घ्रस्त स्मात्रयत मा चिरम.
इस श्लोक में कण्व स्त्रियों को अपने भाईबंधुओं के यहां अधिक दिनों तक रहने की मनाही करते हैं. विवाह के बाद भी भाईबंधुओं के घर रहने वाली स्त्रियां पातिव्रत्य धर्म का नाश करती हैं. ऐसी स्त्रियों को बिना देर किए अपने पति के घर पहुंचा देना चाहिए. ऐसा कहना स्त्री के साथ भेदभाव करना है. यह उन केसाथकिएजाने वाला सब से बड़ा शोषण है.
पिता के घर में रहने का जितना हक बेटे का है उतना ही हक बेटी का भी है. यह हक हमारे देश का संविधान तो देता है पर पौराणिक ग्रंथों की सोच इस हक को छीन लेती है. लेकिन यह पुराण, पुरुषवादी समाज बेटियों को यह हक देना नहीं चाहता. वे स्त्रियां जो गलत शादी का शिकार हो गई हैं, जिन के पति उन्हें मारतेपीटते है या जिन का तलाक हो गया है, अगर वे स्त्रियां अपने पिता के घर में रह रही हैं तो, इस ग्रंथ के अनुसार,वे गलत हैं. उन का अपने ही घर में रहना कैसे गलत हो सकता है. इन्हीं ग्रंथों को आदर्श मानकर चलने वाले पथभ्रष्ट लोग स्त्रियों को ऐसी बातें बताकर उन से अपनी बात मनवाते हैं.
सा भार्या गृहे दक्षा सा भार्या या प्रजावती,
सा भार्या या पतिप्राणा सा भार्या या पतिव्रता.
महाभारत के इस श्लोक में बताया गया है कि सिर्फ वह ही अच्छी पत्नी है जो घर का कामकाज अच्छे से जानती हो, जिस के बच्चे हों,
जो अपने पति को अपने प्राणों के समान प्रेम करती हो और जो पतिव्रता हो. पत्नी की इसी परिभाषा ने आज के समय में भी पत्नियों का जीना दूभर किया हुआ है. ग्रंथों में लिखी ऐसी बातों ने ही इन पुरुषों का दिमाग खराब किया हुआ है. इन्हीं बातों को पढ़पढ़ क़र सास अपनी बहू से यह आशा करती है कि वह घर के सभी कामअच्छे से करे, उसे सभी तरह का खाना बनाना आता हो. इस के अलावा वह शादी के एक साल बाद ही पोते की मांग करने लगती है. क्या केवल पत्नी की परिभाषा यहीं तक सिमटी हुई है. अगर वह खाना बनाना नहीं जानती तो वह एक अच्छी पत्नी नहीं है. यह बात लोगों ने इन्हीं ग्रंथों से सीखी है.
पुत्रास्त्रो नरकाद् यस्मात् पितरं त्रायते सुत,
तस्मात् पुत्र इति प्रोक्त : स्वयमेव खयम्भुवा.
महाभारत में लिखे इस श्लोक में कहा गया है कि बेटा पिता की नरक से रक्षा करता है. इस की जगह यह भी कहा जा सकता था कि संतान नरक से पिता की रक्षा करता है. लेकिन ऐसा न कहकर सिर्फ बेटे की बात की गई है. क्या बेटी अपने पिता की रक्षा नहीं कर सकती. यहां सीधेसीधे बेटी की उपेक्षा की गई है.
महाभारत के एक श्लोक में पत्नी को पति का आधा अंग और पति का सब से अच्छा दोस्त कहा गया है. पर यह भ्रामक मात्र है क्योंकि तथ्य कुछ और हैं. अगर दुष्यंत शकुंतला को आधे अंग की संज्ञा देते तो वे उस से गंधर्व विवाह कर के अपने साथ ले जाते, न कि उसे विरह की आग में जलने देते.
लेकिन यह सच से कोसों दूर है. इस पथभ्रष्ट समाज के लोग आज भी पत्नी को आधा अंग तो दूर की बात,इंसानहोने का दर्जा भी नहीं देते. वे न सिर्फ सड़कों पर उस की बेइज्जती करते हैं बल्कि उस को मारतेपीटते भी हैं. कई बार तो उसे जान से भी मार दिया जाता है.सुप्रीम कोर्ट तक ऐसे मामले गए हैं जिन में पति छोड़ी गई पत्नी को गुजारे के लिए 5,000 रुपए भी नहीं देना चाहता.
इसी महाभारत के एक श्लोक में यह कहा गया है कि अगर साध्वी स्त्री पहले मर गई हो तो परलोक में जा कर वह पति का इंतजार करती है और अगर पति पहले मर गया हो तो सती स्त्री पीछे से उस का पालन करती है. अगर किसी स्त्री का पति मर गया है तो क्या उस के जीने का हक खत्म हो गया है. उस की जिंदगी उस की है, न कि किसी और की. इन्हीं विचारों के आधार पर देश के कई हिस्सों में आज भी सती प्रथा का प्रचलन है. ऐसे विचारों को अब बदलने की बहुत ज्यादा जरूरत है क्योंकि यह स्त्री से उस के जीने का हक छीन रहा है. काशी और वृंदावन के विधवा आश्रमों में आज भी युवा विधवाएं लाई जा रही हैं.
महाभारत के एक श्लोक में कहा गया है कि पति अपनी उस पत्नी को माता के समान माने जिस ने बेटे को जन्म दिया है. यहां सिर्फ बेटा पैदा करने वाली स्त्री की बात कही गई है, बेटी पैदा करने वाली स्त्री की नहीं. इसी श्लोक से लडक़ालडक़ी के भेदभाव को समझा जा सकता है कि किस तरह हमारे ग्रंथों में पुरुष को श्रेष्ठ दर्जा दिया गया है जबकि बच्चा पैदा करने का कष्ट तो स्त्री ही सहती है. आज विज्ञान ने साफ कर दिया है कि बेटेबेटी पैदा करने के गुण पुरुष में होते हैं, स्त्री में नहीं. अगर इन ग्रंथों में विज्ञान पहले से ही भरा है तो यह उलटी बात क्यों कहीं गई.
अंतरात्मैव सर्वस्य पुत्रनास्त्रोच्यते सदा,
गती रूपं च चेष्टा च आवर्ता लक्षणानि च,
पितृणां यानि दृश्यन्ते पुत्राणां सन्ति तानि च,
तेषां शीलाचारगुणास्तत्सम्पर्काच्छुमाशुभा.
इस श्लोक में कहा गया है कि एक पुत्र ही पिता की तरह चाल पाता है. एक पुत्र ही अपने पिता का रूपरंग पाता है. पुत्र में वैसी ही चाल और लक्षण होते हैं जैसे पिता के होते हैं. पिता से ही पुत्र में सारे गुण आते हैं. इस श्लोक में कहा गया है कि पिता के गुण बेटे में होते हैं, कहीं भी बेटी का जिक्र नहीं किया गया है. क्या बेटी पिता की संतान नहीं है. क्या उस के गुण पिता से नहीं मिल सकते. ऐसे ही जगहजगह पर बेटों को बेटियों से ज्यादा महत्त्व दिया गया है जो कि भेदभाव को दर्शाता है.
महिलाओं को पीछे करने में इस तरह की बातों ने सब से ज्यादा योगदान दिया है. यह समाज जोकि पितृसत्तामक सोच पर बना है, कभी नहीं चाहेगा कि स्त्रियां पुरुषों से आगे निकलें. वे उन्हें, बस, अपने पैरों में रखना चाहते हैं.
समाज में फैली रूढ़िवादी सोच से ग्रसित लोगों को शादी के लिए कुंआरी लड़की ही चाहिए चाहे वह खुद कुंआरे न हों. इस रूढ़िवादी समाज से तो महिलाओं की दूसरी शादी भी पचाई नहीं जाती है.
महाभारत के सम्भवपर्व भाग के श्लोक 117 में दुष्यंत कहते हैं कि,“अगर मैं सिर्फ शकुंतला के कहने पर इसे अपना लेता तो सब लोग इस पर शक करते. वे इसे शुद्ध मानते.”वे कहते हैं,‘‘यह समाज समझता कि मैं अपनीकामवासना पर नियंत्रण नहीं रख सका.” ऐसा कहकर दुष्यंत शकुंतला की गरिमा को चोट पहुंचा रहे हैं. और अपनी निरर्थक सफाई दे रहे हैं जबकि दोषी वही हैं.लेकिन जब देवता और तपस्वी ऋषि शकुंतला को पतिव्रता बताते हुए फूलों की वर्षाकरते हैं तो दुष्यंत शकुंतला और अपने बेटे को अपनाने के लिए तैयार हो जाते हैं.
कृतो लोक परोक्षोऽयं संबंधो वै त्वया सह,
तस्मादेतन्मया देवि त्वच्छुद्धयर्थ विचारितम्.
इस श्लोक में दुष्यंत कहते हैं कि,“मैंने जो तुम से विवाह किया. वह लोगों के सामने नहीं किया. मैंने ये सब तुम्हारी शुद्धि के लिए किया.” अगर दुष्यंत और शकुंतला का विवाहसमाज के सामने होता तो शकुंतला को बच्चे के पिता का सुबूत देने की जरूरत न होती. दुष्यंत, जो लोकलाज के चक्कर में अपनी पत्नी का निरादर करते हैं, कैसे एक अच्छे राजा साबित हो सकते हैं. अगर उन्हें समाज की इतनी ही फ्रिक थी तो वे समाज के सामने शकुंतला से शादी करते. संबंध बनाते समय वे समाज को भूल गए और अपनाते समय उन्हेंसमाजका खयाल आ रहा है.
हमारे पौराणिक ग्रंथों को समाज को आदर्श समाज व्यवस्था देने वाला कहा जाता रहा है क्योंकि यहां शादी का चलन है. वहीं, पश्चिमी समाज को गलत कहा जाता है क्योंकि वहां अवैध संबंध होना सामान्य बात है. लेकिन शकुंतला तो असल में विश्वामित्र और मेनका के अवैध संबंधों से जन्मी संतान थी. इन की शादी नहीं हुई थी तो हमारा समाज आदर्श कैसे हुआ. दुष्यंत और शकुंतला का संबंध भी बिना विधिवत विवाह के हुआ तो वह कैसे आदर्श हुआ. जिस आदर्श समाजकीबात हमेंबताईगईहै वह इन धर्मग्रंथों से अलग है. हमारे समाज को अब नए मापदंडों की जरूरत है जिन पर चलकर हमारा देश विकास कर सके.
हमारा संविधान, आज के बनाए कानून, आज का सुप्रीम कोर्ट कानूनों की व्याख्या कर के जिस समाज को बना रहा है वह उस से कहीं अधिक श्रेष्ठ है जो पौराणिक ग्रंथों में वर्णित है और जिस के पात्रों को भगवान मान करउन्हें पूजा ही नहीं जाता बल्कि ‘महान’ नरसंहार तक उन के नाम पर कर दिए जाते हैं. विधर्मियों और दलितों-शूद्रों को तो छोडि़ए, राजाओं के घरों की स्त्रियों से ले कर आज की सवर्ण जातियों की स्त्रियां तक तकरीबन सभी इसी पौराणिक मान्यता की शिकार हैं.
दीवार से सिर टिका कर अंकिता शून्य में ताक रही थी. रोतेरोते उस की पलकें सूज गई थीं. अब भी कभीकभी एकाध आंसू पलकों पर आता और उस के गालों पर बह जाता. पास के कमरे में उस की भाभी दहाड़ें मारमार कर रो रही थीं. भाभी की बहन और भाभी उन्हें समझा रही थीं. भाभी के दोनों बच्चे ऋषी और रिनी सहमे हुए से मां के पास बैठे थे.
भाभी का रुदन कभी उसे सुनाई पड़ जाता. बूआ अंकिता के पास बैठी थीं और भी बहुत से रिश्तेदार घर में जगहजगह बैठे हुए थे. अंकिता का भाई और घर के बाकी दूसरे पुरुष अरथी के साथ श्मशान घाट अंतिम संस्कार करने जा चुके थे.
अंकिता की आंखों से फिर आंसू बह निकले. मां तो बहुत पहले ही उन्हें छोड़ कर चली गई थीं. पिता ने ही उन्हें मां और बाप दोनों का प्यार दे कर पाला. उन की उंगलियां पकड़ कर दोनों भाईबहन ने चलना सीखा, इस लायक बने कि जिंदगी की दौड़ में शामिल हो कर अपनी जगह बना सके और आज वही पिता अपने जीवन की दौड़ पूरी कर इस दुनिया से चले गए.
वह पिता की याद में फफक पड़ी. पास बैठी बूआ उसे दिलासा देते हुए खुद भी भाई की याद में बिलखने लगीं.
घड़ी ने साढ़े 5 बजाए तो रिश्ते की एकदो महिलाएं घर की औरतों के नहाने की व्यवस्था करने में जुट गईं. दाहसंस्कार से पुरुषों के लौटने से पहले घर की महिलाओं का स्नान हो जाना चाहिए. भाभी और बूआ के स्नान करने के बाद बेमन से उठ कर अंकिता ने भी स्नान किया.
‘कैसी अजीब रस्में हैं,’ अंकिता सोच रही थी, ‘व्यक्ति के मरते ही इस तरह से घर के लोग स्नान करते हैं जैसे कि कोई छूत की बीमारी थी, जिस के दूर हटते ही स्नान कर के लोग शुद्ध हो जाते हैं. धर्म और उस की रूढि़यां संस्कार हैं कि कुरीतियां. इनसान की भावनाओं का ध्यान नहीं है, बस, लोग आडंबर में फंस जाते हैं.
औरतों का नहाना हुआ ही था कि श्मशान घाट से घर के पुरुष वापस आ गए और घर के बाहर बैठ गए. घर की महिलाएं अब पुरुषों के नहाने की व्यवस्था करने लगीं. उसी शहर में रहने वाले कई रिश्तेदार और आसपड़ोस के लोग बाहर से ही अपनेअपने घरों को लौट गए. उन्हें विदा कर भैया भी नहाने चले गए. नहा कर अंकिता का भाई आनंद आ कर बहन के पास बैठ गया तो अंकिता भाई के कंधे पर सिर रख कर रो पड़ी. भाई की आंखें भी भीग गईं. वह छोटी बहन के सिर पर हाथ फेरने लगा.
‘‘रो मत, अंकिता. मैं तुम्हें कभी पिताजी की कमी महसूस नहीं होने दूंगा. तेरा यह घर हमेशा तेरे लिए वैसा ही रहेगा जैसा पिताजी के रहते था,’’ बड़े भाई ने कहा तो अंकिता के दुखी मन को काफी सहारा मिला.
‘‘जीजाजी, बाबूजी का बिस्तर और तकिया किसे देने हैं?’’ आनंद के छोटे साले ने आ कर पूछा.
‘‘अभी तो उन्हें यहीं रहने दे राज, यह सब बाद में करते रहना. इतनी जल्दी क्या है?’’ आनंद के बोलने से पहले ही बूआ बोल पड़ीं.
‘‘नहीं, बूआ, ये लोग हैं तो यह सब हो जाएगा, फिर मेहमानों के सोने के लिए जगह भी तो चाहिए न. राज, तुम पिताजी का बिस्तर और कपड़े वृद्धाश्रम में दे आओ, वहां किसी के काम आ जाएंगे,’’ आनंद ने तुरंत उठते हुए कहा.
‘‘लेकिन भैया, पिताजी की निशानियों को अपने से दूर करने की इतनी जल्दबाजी क्यों?’’ अंकिता ने एक कमजोर सा प्रतिवादन करना चाहा लेकिन तब तक आनंद राज के साथ पिताजी के कमरे की तरफ जा चुके थे.
लगभग 15 मिनट बाद भैया की आवाज आई, ‘‘अंकिता, जरा यहां आना.’’
अपने को संभालते हुए अंकिता पिताजी के कमरे में गई.
‘‘देख अंकिता, तुझे पिताजी की याद के तहत उन की कोई वस्तु चाहिए तो ले ले,’’ आनंद ने कहा.
भाभी को शायद कुछ भनक लग गई और वे तुरंत आ कर दरवाजे पर खड़ी हो गईं. अंकिता समझ गई कि भाभी यह देखना चाहती हैं कि वह क्या ले जा रही है. पिताजी की पढ़ने वाली मेज पर उन का और मां का शादी के बाद का फोटो रखा हुआ था. अंकिता ने जा कर वह फोटो उठा लिया. इस फोटो को संभाल कर रखेगी वह.
पिताजी की सोने की चेन और 2 अंगूठियां फोटो के पास ही एक छोटी टे्र में रखी थीं जिन्हें मां ने घर खर्चे के लिए मिले पैसों में बचाबचा कर अलगअलग अवसरों पर पिताजी के लिए बनाया था. चूंकि ये चेन और अंगूठियां मां की निशानियां थीं. इसलिए पिताजी इन्हें कभी अपने से अलग नहीं करते थे.
अंकिता ने फोटो को कस कर सीने से लगाया और तेजी से पिताजी के कमरे से बाहर चली गई. जातेजाते उस ने देख लिया कि भाभी की नजरें टे्र में रखी चीजों पर जमी हैं और चेहरे पर एक राहत का भाव है कि अंकिता ने उन्हें नहीं उठाया. उस के मन में एक वितृष्णा का भाव पैदा हुआ कि थोड़ी देर पहले भैया के दिलासा भरे शब्दों में कितना खोखलापन था, यह समझ में आ गया.
भैया के दोनों सालों ने मिल कर पिताजी के कपड़ों और बाकी सामान की गठरियां बनाईं और वृद्धाश्रम में पहुंचा आए. पिताजी का लोहे वाला पुराना फोल्ंिडग पलंग और स्टूल, कुरसी, मेज और बैंचें वहां से उठा कर सारा सामान छत पर डाल दिया कि बाद में बेच देंगे.
भाभी की बड़ी भाभी ने कमरे में फिनाइल का पोंछा लगा दिया. पिताजी उस कमरे में 50 वर्षों तक रहे लेकिन भैया ने 1 घंटे में ही उन 50 वर्षों की सारी निशानियों को धोपोंछ कर मिटा दिया. बस, उन की चेन और अंगूठियां भाभी ने झट से अपने सेफ में पहुंचा दीं.
रात को भाभी की भाभियों ने खाना बनाया. अंकिता का मन खाने को नहीं था लेकिन बूआ के समझाने पर उस ने नामचारे को खा लिया. सोते समय अंकिता और बूआ ने अपना बिस्तर पिताजी के कमरे में ही डलवाया. पलंग तो था नहीं, जमीन पर ही गद्दा डलवा कर दोनों लेट गईं. बूआ ने पूरे कमरे में नजर डाल कर एक गहरी आह भरी.
बूआ के लिए भी उन का मायका उन के भाई के कारण ही था. अब उन के लिए भी मायके के नाम पर कुछ नहीं रहा. रमेश बाबू ने अपने जीते जी न बहन को मायके की कमी खलने दी न बेटी को. कहते हैं मायका मां से होता है लेकिन यहां तो पिताजी ने ही हमेशा उन दोनों के लिए ही मां की भूमिका निभाई.
‘‘बेटा, अब तू भी असीम के पास सिंगापुर चली जाना. वैसे भी अब तेरे लिए यहां रखा ही क्या है. आनंद का रवैया तो तुझे पता ही है. जो अपने जन्मदाता की यादों को 1 घंटे भी संभाल कर नहीं रख पाया वह तुझे क्या पूछेगा,’’ बूआ ने उस की हथेली को थपथपा कर कहा. अनुभवी बूआ की नजरें उस के भाईभाभी के भाव पहले ही दिन ताड़ गईं.
‘‘हां बूआ, सच कहती हो. बस, पिताजी की तेरहवीं हो जाए तो चली जाऊंगी. उन्हीं के लिए तो इस देश में रुकी थी. अब जब वही नहीं रहे तो…’’ अंकिता के आगे के शब्द उस की रुलाई में दब गए.
बूआ देर तक उस का सिर सहलाती रहीं. पिताजी ने अंकिता के विवाह की एकएक रस्म इतनी अच्छी तरह पूरी की थी कि लोगों को तथा खुद उस को भी कभी मां की कमी महसूस नहीं हुई.
पिताजी ने 2 साल पहले उस की शादी असीम से की थी. साल भर पहले असीम को सिंगापुर में अच्छा जौब मिल गया. वह अंकिता को भी अपने साथ ले जाना चाहता था लेकिन पिताजी की नरमगरम तबीयत देख कर वह असीम के साथ सिंगापुर नहीं गई. असीम का घर इसी शहर में था और उस के मातापिता नहीं थे, अत: असीम के सिंगापुर जाने के बाद अंकिता अपनी नौकरानी को साथ ले कर रहती थी. असीम छुट्टियों में आ जाता था.
अंकिता ने बहुत चाहा कि पिताजी उस के पास रहें पर इस घर में बसी मां की यादों को छोड़ कर वे जाना नहीं चाहते थे इसलिए वही हर रोज दोपहर को पिताजी के पास चली आती थी. बूआ वडोदरा में रहती थीं. उन का भी बारबार आना संभव नहीं था और अब तो उन का भी इस शहर में क्या रह जाएगा.
पिताजी की तीसरे दिन की रस्म हो गई. शाम को अंकिता बूआ के साथ आंगन में बैठी थी. असीम के रोज फोन आते और उस से बात कर अंकिता के दिल को काफी तसल्ली मिलती थी. असीम और बूआ ही तो अब उस के अपने थे. बूआ के सिर में हलकाहलका दर्द हो रहा था.
‘‘मैं आप के लिए चाय बना कर लाती हूं, बूआ, आप को थोड़ा आराम मिलेगा,’’ कह कर अंकिता चाय बनाने के लिए रसोईघर की ओर चल दी.
रसोईघर का रास्ता भैया के कमरे के बगल से हो कर जाता था. अंदर भैयाभाभी, उन के बच्चे, भाभी के दोनों भाई बैठे बातें कर रहे थे. उन की बातचीत का कुछ अंश उस के कानों में पड़ा तो न चाहते हुए भी उस के कदम दरवाजे की ओट में रुक गए. वे लोग पिताजी के कमरे को बच्चों के कमरे में तबदील करने पर सलाहमशविरा कर रहे थे.
बच्चों के लिए फर्नीचर कैसा हो, कितना हो, दीवारों के परदे का रंग कैसा हो और एक अटैच बाथरूम भी बनवाने पर विचार हो रहा था. सब लोग उत्साह से अपनीअपनी राय दे रहे थे, बच्चे भी पुलक रहे थे.
अंकिता का मन खट्टा हो गया. इन बच्चों को पिताजी अपनी बांहों और पीठ पर लादलाद कर घूमे हैं. इन के बीमार हो जाने पर भैयाभाभी भले ही सो जाएं लेकिन पिताजी इन के सिरहाने बैठे रातरात भर जागते, अपनी तबीयत खराब होने पर भी बच्चों की इच्छा से चलते, उन्हें बाहर घुमाने ले जाते. और आज वे ही बच्चे 3 दिन में ही अपने दादाजी की मौत का गम भूल कर अपने कमरे के निर्माण को ले कर कितने उत्साहित हो रहे हैं.
खैर, ये तो फिर भी बच्चे हैं जब बड़ों को ही किसी बात का लेशमात्र ही रंज नहीं है तो इन्हें क्या कहना. सब के सब उस कमरे की सजावट को ले कर ऐसे बातें कर रहे हैं मानो पिताजी के जाने की राह देख रहे थे कि कब वे जाएं और कब ये लोग उन के कमरे को हथिया कर उसे अपने मन मुताबिक बच्चों के लिए बनवा लें. यह तो पिताजी की तगड़ी पैंशन का लालच था, नहीं तो ये लोग तो कब का उन्हें वृद्धाश्रम में भिजवा चुके होते.
अंकिता से और अधिक वहां पर खड़ा नहीं रहा गया. उस ने रसोईघर में जा कर चाय बनाई और बूआ के पास आ कर बैठ गई.
पिताजी की मौत के बाद दुख के 8 दिन 8 युगों के समान बीते. भैयाभाभी के कमरे से आती खिलखिलाहटों की दबीदबी आवाजों से घावों पर नमक छिड़कने का सा एहसास होता था पर बूआ के सहारे वे दिन भी निकल ही गए. 9वें दिन से आडंबर भरी रस्मों की शुरुआत हुई तो अंकिता और बूआ दोनों ही बिलख उठीं.
9वें दिन से रूढि़वादी रस्मों की शुरुआत के साथ श्राद्ध पूजा में पंडितों ने श्लोकों का उच्चारण शुरू किया तो बूआ और अंकिता दोनों की आंखों से आंसुओं की धाराएं बहने लगीं. हर श्लोक में पंडित अंकिता के पिता के नाम ‘रमेश’ के आगे प्रेत शब्द जोड़ कर विधि करवा रहे थे. हर श्लोक में ‘रमेश प्रेतस्य शांतिप्रीत्यर्थे श… प्रेतस्य…’ आदि.
व्यक्ति के नाम के आगे बारबार ‘प्रेत’ शब्द का उच्चारण इस प्रकार हो रहा था मानो वह कभी भी जीवित ही नहीं था, बल्कि प्रेत योनि में भटकता कोई भूत था. अपने प्रियजन के नाम के आगे ‘प्रेत’ शब्द सुनना उस की यादों के साथ कितना घृणित कार्य लग रहा था. अंकिता से वहां और बैठा नहीं गया. वह भाग कर पिताजी के कमरे में आ गई और उन की शर्ट को सीने से लगा कर फूटफूट कर रो दी.
कैसे हैं धार्मिक शास्त्र और कैसे थे उन के रचयिता? क्या उन्हें इनसानों की भावनाओं से कोई लेनादेना नहीं था? जीतेजागते इनसानों के मन पर कुल्हाड़ी चलाने वाली भावहीन रूढि़यों से भरे शास्त्र और उन की रस्में, जिन में मानवीय भावनाओं की कोई कद्र नहीं. आडंबर से युक्त रस्मों के खोखले कर्मकांड से भरे शास्त्र.
धार्मिक कर्मकांड समाप्त होने के बाद जब पंडित चले गए तब अंकिता अपने आप को संभाल कर बाहर आई. भैया और उन के बेटे का सिर मुंडा हुआ था. रस्मों के मुताबिक 9वें दिन पुत्र और पौत्र के बाल निकलवा देते हैं. उन के घुटे सिर को देख कर अंकिता का दुख और गहरा हो गया. कैसी होती हैं ये रस्में, जो पलपल इनसान को हादसे की याद दिलाती रहती हैं और उस का दुख बढ़ाती हैं.
असीम को आखिर छुट्टी मिल ही गई और पिताजी की तेरहवीं पर वह आ गया. उस के कंधे पर सिर रख कर पिताजी की याद में और भैयाभाभी के स्वार्थी पक्ष पर वह देर तक आंसू बहाती रही. अंकिता का बिलकुल मन नहीं था उस घर में रुकने का लेकिन पिताजी की यादों की खातिर वह रुक गई.
तेरहवीं की रस्म पर भैया ने दिल खोल कर खर्च किया. लोग भैया की तारीफें करते नहीं थके कि बेटा हो तो ऐसा. देखो, पिताजी की याद में उन की आत्मा की शांति के लिए कितना कुछ कर रहा है, दानपुण्य, अन्नदान. 2 दिन तक सैकड़ों लोगों का भोजन चलता रहा. लोगों ने छक कर खाया और भैयाभाभी को ढेरों आशीर्वाद दिए. अंकिता, असीम और बूआ तटस्थ रह कर यह तमाशा देखते रहे. वे जानते थे कि यह सब दिखावा है, इस में तनिक भी भावना या श्रद्धा नहीं है.
यह कैसा धर्म है जो व्यक्ति को इनसानियत का पाठ पढ़ाने के बजाय आडंबर और दिखावे का पाठ पढ़ाता है, ढोंग करना सिखाता है.
जीतेजी पिता को दवाइयों और खानेपीने के लिए तरसा दिया और मरने पर कोरे दिखावे के लिए झूठी रस्मों के नाम पर ब्राह्मणों और समाज के लोगों को भोजन करा रहे हैं. सैकड़ों लोगों के भोजन पर हजारों रुपए फूंक कर झूठी वाहवाही लूट रहे हैं जबकि पिताजी कई बार 2 बजे तक एक कप चाय के भरोसे पर भूखे रहते थे. अंकिता जब दोपहर में आती तो उन के लिए फल, दवाइयां और खाना ले कर आती और उन्हें खिलाती.
रात को कई बार भैया व भाभी को अगर शादी या पार्टी में जाना होता था तो भाभी सुबह की 2 रोटियां, एक कटोरी ठंडी दाल के साथ थाली में रख कर चली जातीं. तब पिताजी या तो वही खा लेते या उसे फोन कर देते. तब वह घर से गरम खाना ला कर उन्हें खिलाती.
अंकिता सोच रही थी कि श्राद्ध शब्द का वास्तविक अर्थ होता है, श्रद्धा से किया गया कर्म. लेकिन भैया जैसे कुपुत्रों और लालची पंडितों ने उस के अर्थ का अनर्थ कर डाला है.
जीतेजी पिताजी को भैया ने कभी कपड़े, शौल, स्वेटर के लिए नहीं पूछा. इस के उलट अपने खर्चों और महंगाई का रोना रो कर हर महीने उन की पैंशन हड़प लेते थे, लेकिन उन की तेरहवीं पर भैया ने खुले हाथों से पंडितों को कपड़े, बरतन आदि दान किए. अंकिता को याद है उस की शादी से पहले पिताजी के पलंग की फटी चादर और बदरंग तकिए का कवर. विवाह के बाद जब उस के हाथ में पैसा आया तो सब से पहले उस ने पिताजी के लिए चादरें और तकिए के कवर खरीदे थे.
जीवित पिता पर खर्च करने के लिए भैया के पास पैसा नहीं था, लेकिन मृत पिता के नाम पर आज समाज के सामने दिखावे के लिए अचानक ढेर सारा पैसा कहां से आ गया.
असीम ने 2 दिन बाद के अपने और अंकिता के लिए हवाई जहाज के 2 टिकट बुक करा दिए.
दूसरे दिन भैया ने कुछ कागज अंकिता के आगे रख दिए. दरअसल, पिताजी ने वह घर भैया और उस के नाम पर कर दिया था.
‘‘अब तुम तो असीम के साथ सिंगापुर जा रही हो और वैसे भी असीम का अपना खुद का भी मकान है तो…’’ भैया ने बात आधी छोड़ दी. पर अंकिता उन की मंशा समझ गई. भैया चाहते थे कि वह अपना हिस्सा अपनी इच्छा से उन के नाम कर दे ताकि भविष्य में कोई झंझट न रहे.
‘‘हां भैया, इस घर में आप के साथसाथ आधा हिस्सा मेरा भी है. इन कागजों की एक कापी मैं भी अपने पास रखूंगी ताकि मेरे पिता की यादें मेरे जीवित रहने तक बरकरार रहें,’’ कठोर स्वर में बोल कर अंकिता ने कागज भैया के हाथ से ले कर असीम को दे दिए ताकि उन की कापी करवा सकें, ‘‘और हां भाभी, मां के कंगन पिताजी ने तुम्हें दिए थे अब पिताजी की अंगूठी और चेन आप मुझे दे देना निकाल कर.’’
भैयाभाभी के मुंह लटक गए. दोपहर को असीम और अंकिता ने पिताजी का पलंग, कुरसी, टेबल और कपड़े वापस उन के कमरे में रख लिए. नया गद्दा पलंग पर डलवा दिया. पिताजी के कमरे और उस के साथ लगे अध्ययन कक्ष पर नजर डाल कर अंकिता बूआ से बोली, ‘‘मेरा और आप का मायका हमेशा यही रहेगा बूआ, क्योंकि पिताजी की यादें इसी जगह पर हैं. इस की एक चाबी आप अपने पास रखना. मैं जब भी यहां आऊंगी आप भी आ जाया करना. हम यहीं रहा करेंगे.’’
बूआ ने अंकिता और असीम को सीने से लगा लिया और तीनों पिताजी को याद कर के रो दिए.
अगर आप वर्किंग हैं और प्रेग्नेंट हैं तो आप को अपना खयाल रखना होगा, जो आप के साथसाथ उस गर्भस्थ शिशु के लिए भी फायदेमंद होगा, जो जल्दी आप के जीवन में ढेर सारी खुशियां ले कर आने वाला है. गर्भस्थ शिशु का सही विकास हो और आप की सेहत भी दुरुस्त रहे, इस के लिए आप को ये 5 हैल्दी टिप्स अपने डेली रूटीन में शामिल करने होंगे: ऐसे करें दिन की शुरुआत
सुबह उठते ही कमरे की खिड़कियां और दरवाजे खोल दें. सुबह की ताजा हवा आप के तनमन को तरोताजा कर देगी. रात भर की अशुद्ध हवा जो बंद कमरे में जमा हो जाती है, बाहर निकल जाएगी. आमतौर पर सुबह उठ कर दूध वाली चाय की आदत होती है. अत: इस की जगह ग्रीन टी पीना शुरू करें. ऐंटीऔक्सीडैंट से भरपूर ग्रीन टी आप को ऐनर्जी देगी. एक रिसर्च के अनुसार दूध वाली चाय हानिकारक होती है. यदि मौर्निंग वाक के लिए बाहर नहीं जा सकती हैं तो घर पर ही 5-10 मिनट चहलकदमी करें. चाहे कितनी ही देर से क्यों न जागें, व्यायाम जरूर करें. ज्यादा समय न हो तो 10 मिनट ही करें, लेकिन करें जरूर. इस के ढेर सारे फायदे हैं. यह आप को दिनभर तरोताजा रखेगा. इसे करने से थकान कम होगी और रक्तसंचार सही रहेगा.
हैल्दी डाइट कभी भी कहीं भी प्रैगनैंसी के समय बैलेंस्ड और हैल्दी डाइट की जरूरत ज्यादा होती है. कामकाजी गर्भवती दफ्तर के कामकाज और घर की भागदौड़ में संतुलित आहार नहीं ले पाती. उस की शिकायत होती है कि औफिस में जब जी चाहे खापी नहीं सकती. सहकर्मी क्या कहेंगे? ऐसी सोच से बाहर आएं.
सब को पता है कि ऐसे समय में आप को पोषण की ज्यादा जरूरत है. इसलिए बेझिझक खाएं. अपने लंच के अलावा सेब, केला, अन्य फल, मिक्स सलाद, सूखा मेवा, हलवा आदि के छोटेछोटे लंचपैक अलग से रखें. इन्हें काम के बीच में निकाल कर थोड़ाथोड़ा खाती रहें. यानी थोड़ेथोड़े अंतराल पर कुछ न कुछ हैल्दी डाइट लेती रहें. पेयपदार्थों से करें दोस्ती
कामकाजी गर्भवती को पेयपदार्थों से दोस्ती कर लेनी चाहिए. खूब पानी पीएं. इस के अतिरिक्त जूस, सूप, शेक, ग्रीन टी लेती रहें. औफिस में ग्रीन टी की व्यवस्था न हो तो घर से ग्रीन टी के पाउच और थर्मस में गरम पानी ले जाएं. रात में 1 गिलास दूध जरूर लें. दूध पसंद न हो तो पनीर खाएं. कम से कम 1 बार सूप जरूर पीएं. कामकाजी महिलाएं एक धारणा बना लेती हैं कि उन के पास समय का अभाव है.
आप को हर काम मैनेज करना सीखना होगा. जैसे आप कहती हैं कि आप के पास इतना वक्त नहीं है कि सूप बना सकें. यदि आप के घर में अन्य लोग हैं तो आप सूप बनवा कर फ्रिज में रख लें. यह 2-3 दिन आराम से चल जाता है. खुद बनाना हो तो किसी दिन दूसरे कामों में कटौती कर सूप बनाएं. सिचुएशन के मुताबिक मैनेज करना सीखें, कोई परेशानी नहीं होगी.
चुराएं आराम के पल जरूरत से ज्यादा भागदौड़ थका देती है. आप की सेहत पर इस का बुरा असर पड़ता है. औफिस में घंटों एक जगह बैठना, कंप्यूटर पर लगातार काम करना प्रैगनैंसी पीरियड में अच्छा नहीं होता. इस के अलावा आनेजाने में भी परेशानी होती है.
शहरों में जाम में फंसना भी कम बड़ी सजा नहीं है. धूल, धुआं और भागदौड़ गर्भस्थ शिशु के लिए खतरनाक तो है ही, आप के लिए भी हानिकारक है. रिसर्च बताती है कि ऐसी स्थितियों के कारण आजकल ब्लीडिंग की समस्या और प्रीमैच्योर बेबी की आशंका बढ़ रही है. अत: समझदारी इसी में है कि आप काम का ज्यादा बोझ अपने ऊपर न लादें. तीसरेचौथे महीने से वीकैंड के अलावा सप्ताह के बीच एक दिन की छुट्टी अवश्य लें. 7वें महीने से यह छुट्टी 1 दिन और बढ़ा सकती हैं.
रिसर्च बताती है कि कामकाजी महिलाओं में बारबार गर्भपात का खतरा बढ़ता जा रहा है. अन्य कारणों के अलावा इस की एक बड़ी वजह काम के दौरान आराम न करना भी है. आप ने बेबी की प्लानिंग की है तो उस के प्रति पूरी जिम्मेदारी निभाएं. उसे स्वस्थ तनमन के साथ स्वस्थ माहौल में बाहर लाने की जिम्मेदारी आप की है और इस के लिए आप को आराम के पल चुराने होंगे. भरपूर नींद है जरूरी
अच्छी और गहरी नींद हर किसी के लिए जरूरी है. लेकिन गर्भवती महिलाओं के लिए यह बेहद जरूरी है. चाहे जितना भी काम हो, कम से कम 8 घंटे की नींद जरूरी है. औफिस का कोई काम घर न लाएं. सोने का एक निश्चित समय निर्धारित करें. यह तय कर लें कि आप को 10 बजे तक सो जाना है. इस नियम का सख्ती से पालन करें. इस के लिए कोई काम अधूरा छोड़ना पड़े तो छोड़ दें. अधूरा काम दूसरे दिन या फिर कभी और पूरा हो जाएगा, लेकिन आप की नींद की भरपाई दूसरे दिन नहीं हो पाएगी, क्योंकि सुबह होते ही फिर से आप का रूटीन वर्क शुरू हो जाएगा. इसलिए नींद से कोई समझौता न करें.
इन सब बातों के साथसाथ एक बात जो सब से ज्यादा जरूरी है, वह है खुश रहें. इस का सीधा असर आने वाले बच्चे में दिखेगा.
सवाल
मैं 25 वर्षीय कामकाजी युवती हूं. 2 महीने बाद मेरी शादी होने वाली है. मुझे खाना बनाना नहीं आता. जबकि टीवी धारावाहिकों में मैं ने देखा है कि बहू को खाना बनाना नहीं आने पर ससुराल के लोग न सिर्फ उस का मजाक उड़ाते हैं वरन उसे प्रताडि़त भी करते हैं. बताएं मैं क्या करूं ?
जवाब
छोटे परदे पर प्रसारित ज्यादातर धारावाहिकों का वास्तविक जीवन से दूरदूर तक वास्ता नहीं होता. सासबहू टाइप के कुछ धारावाहिक तो इतने कपोलकल्पित होते हैं कि जागरूकता फैलाने के बजाय ये समाज में भ्रम और अंधविश्वास फैलाने का काम करते हैं. शायद ही कोई धारावाहिक हो जिस में सासबहू के रिश्ते को बेहतर तरीके से प्रस्तुत किया गया हो.
वास्तविक दुनिया धारावाहिकों की दुनिया से बिलकुल अलग है. आज की सासें समझदार और आधुनिक खयाल की हैं. उन्हें पता है कि एक कामकाजी बहू को किस तरह गृहस्थ जीवन में ढालना है.
फिर भी आप अपने मंगेतर से बात कर इस बारे में जानकारी दे दें. अभी विवाह में 2 महीने बाकी भी हैं, इसलिए खाना बनाने के लिए सीखना अभी से शुरू कर दें. खाना बनाना भी एक कला है, जिस में निपुण महिला को किसी और पर आश्रित नहीं होना पड़ता. साथ ही उसे पति व बच्चों सहित घर के सभी सदस्यों का भरपूर प्यार भी मिलता है.
story in hindi
लखनऊ छोड़े मुझे 20 साल हो गए. छोड़ना तो नहीं चाहती थी पर जब पराएपन की बू आने लगे तो रहना संभव नहीं होता. जबतक मेरी जेठानी का रवैया हमारे प्रति आत्मिक था, सब ठीक चलता रहा पर जैसे ही उन की सोच में दुराग्रह आया, मैं ने ही अलग रहना मुनासिब समझ.
आज वर्षों बाद जेठानी का खत आया. खत बेहद मार्मिक था. वे मेरे बेटे प्रखर को देखना चाहती थीं. 60 साल की जेठानी के प्रति अब मेरे मन में कोई मनमुटाव नहीं रहा. मनमुटाव पहले भी नहीं था, पर जब स्वार्थ बीच में आ जाए तो मनमुटाव आना स्वाभाविक था.
शादी के बाद जब ससुराल में मेरा पहला कदम पड़ा तब मेरी जेठानी खुश हो कर बोलीं, ‘‘चलो, एक से भले दो. वरना अकेला घर काटने को दौड़ता था.’’
वे निसंतान थीं. तब भी उन का इलाज चल रहा था पर सफलता कोसों दूर थी. प्रखर हुआ तो मुझ से ज्यादा खुशी उन्हें हुई. हालांकि दिल में अपनी औलाद न होने की कसक थी, जिसे उन्होंने जाहिर नहीं होने दिया. बच्चों की किलकारियों से भला कौन वंचित रहना चाहता है. प्रखर ने घर की मनहूसियत को तोड़ा.
जेठानी ने मुझ से कभी परायापन नहीं रखा. वे भरसक मेरी सहायता करतीं. मेरे पति की आय कम थी. इसलिए वक्तजरूरत रुपएपैसों से मदद करने में भी वे पीछे नहीं हटतीं. प्रखर के दूध का खर्च वही देती थीं. कपड़े आदि भी वही खरीदतीं. मैं ने भी उन्हें कभी शिकायत का मौका नहीं दिया. प्रखर को वे संभालतीं, तो घर का सारा काम मैं देखती. इस तरह मिलजुल कर हम हंसी- खुशी रह रहे थे.
हमारी खुशियों को ग्रहण तब लगा जब मुझे दूसरा बच्चा होने वाला था. नई तकनीक से गर्भधारण करने की जेठानी की कोशिश असफल हुई और डाक्टरों ने कह दिया कि इन की मां बनने की संभावना हमेशा के लिए खत्म हो गई, तो वे बुझबुझ सी, उदास रहने लगीं. न उन में पहले जैसी खुशी रही न उत्साह. उन के मां न बन पाने की मर्मांतक पीड़ा का मुझे एहसास था, क्योंकि मैं भी एक मां थी. इसलिए प्रखर को ज्यादातर उन्हीं के पास छोड़ देती. वह भी बड़ी मम्मी, बड़ी मम्मी कह कर उन्हीं से चिपका रहता. रात को उन्हीं के पास सोता. उन की भी आदत कुछ ऐसी बन गई थी कि बिना प्रखर के उन्हें नींद नहीं आती. मैं चाहती थी कि वे किसी तरह अपने दुखों को भूली रहें.
जब मुझे दूसरा बच्चा होने को था, पता नहीं मेरे जेठजेठानी ने क्या मशविरा किया. एक सुबह वे मुसकरा कर बोलीं, ‘‘बबली, इस बच्चे को तू मुझे दे दे,’’ मैं ने इसे मजाक समझ और उसी लहजे में बोली, ‘‘दीदी, आप दोनों ही रख लीजिए.’’
‘‘मैं मजाक नहीं कर रही,’’ वे थोड़ा गंभीर हुईं.
‘‘मैं चाहती हूं कि तुम इस बच्चे को कानूनन मुझे दे दो. मैं तुम्हें सोचने का मौका दूंगी.’’
जेठानी के कथन पर मैं संजीदा हो गई. मेरे चेहरे की हंसी एकाएक गुम हो गई. ‘कानूनन’ शब्द मेरे मस्तिष्क में शूल की भांति चुभने लगा.
शाम को मेरे पति औफिस से आए, तो मैं ने जेठानी का जिक्र किया.
‘‘दे दो, हर्ज ही क्या है. भैयाभाभी ही तो हैं,’’ ये बोले.
मैं बिफर पड़ी, ‘‘कैसे पिता हैं? आप को अपने बच्चे का जरा भी मोह नहीं. एक मां से पूछिए जो 9 महीने किन कष्टों से बच्चे को गर्भ में पालती है?’’
‘‘भैया हैं, कोई गैर नहीं.’’
‘‘मैं ने कब इनकार किया. फिर भी कैसे बरदाश्त कर पाऊंगी कि मेरा बच्चा किसी और की अमानत बने. मैं अपने जीतेजी ऐसा हर्गिज नहीं होने दूंगी.’’
‘‘मान लो लड़की हुई तो?’’
‘‘लड़का हो या लड़की. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.’’
‘‘मुझे पड़ता है. सीमित आमदनी के चलते कहां से लाएंगे दहेज के लिए लाखों रुपए. भैयाभाभी तो संपन्न हैं. वे उस की बेहतर परवरिश करेंगे.’’
‘‘परवरिश हम भी करेंगे. मैं कुछ भी करूंगी पर अपने कलेजे के टुकड़े को यों जाने नहीं दूंगी,’’ मैं ने आत्मविश्वास के साथ जोर दे कर कहा.
‘‘सोच लो. बाद में पछताना न पड़े.’’
‘‘हिसाबकिताब आप कीजिए. प्रखर मुझ से ज्यादा उन के पास रहता है. क्या मैं ने कभी एतराज किया? जो आएगा उसे भी वही पालें, पर मेरी आंखों के सामने. मुझे कोई ऐतराज नहीं होगा. उलटे मुझे खुशी होगी कि इसी बहाने खून की कशिश बनी रहेगी.’’
मेरे कथन से मेरे पति संतुष्ट न थे. फिर भी मैं ने मन बना लिया था कि लाख दबाव डालें मैं अपने बच्चे को उन्हें गोद लेने नहीं दूंगी. वैसे भी जेठानीजी को सोचना चाहिए कि क्या जरूरी है कि गोद लेने से बच्चा उन का हो जाएगा? बच्चा कोई सामान नहीं जो खरीदा और अपना हो गया. कल को बच्चा बड़ा होगा, तो क्या उसे पता नहीं चलेगा कि उस के असली मांबाप कौन हैं? वे क्या बच्चा ले कर अदृश्य हो जाएंगी. रहेगा तो वह हम सब के बीच ही.
मुझे जेठानी की सोच में क्षुद्रता नजर आई. उन्होंने हमें और हमारे बच्चों को गैर समझ, तभी तो कानूनी जामा पहनाने की कोशिश कर रही हैं. ताईताऊ, मांबाप से कम नहीं होते बशर्ते वे अपने भतीजों को वैसा स्नेह व अपनापन दें. क्या निसंतान ताईताऊ प्रखर की जिम्मेदारी नहीं होंगे?
15 दिन बाद उन्होंने मुझे पुन: याद दिलाया तो मैं ने साफ मना कर दिया, ‘‘दीदी, मुझे आप पर पूरा भरोसा है, पर मेरा जमीर गवारा नहीं करता कि मैं अपने नवजात शिशु को आप को सौंप दूं. मैं इसे अपनी सांसों तले पलताबढ़ता देखना चाहती हूं. वह मुझ से वंचित रहे, इस से बड़ा गुनाह मेरे लिए कोई नहीं. मैं अपराध बोध के साथ नहीं जी सकूंगी.’’
क्षणांश मैं भावुक हो उठी. आगे बोली, ‘‘ताईताऊ मांबाप से कम नहीं होते. मुझ पर यकीन कीजिए, मैं अपने बच्चों को सही संस्कार दूंगी.’’
मेरे कथन पर उन का मुंह बन गया. वे कुछ बोलीं नहीं पर पति (जेठजी) से देर तक खुसरपुसर करती रहीं. कुछ दिन बाद पता चला कि वे मायके के किसी बच्चे को गोद ले रही हैं. वैसे भी कानूनन गोद लेने की सलाह मायके वालों ने ही उन्हें दी थी. वरना रिश्तों के बीच कोर्टकचहरी की क्या अहमियत?
आहिस्ताआहिस्ता मैं ने महसूस किया कि अब जेठानी में प्रखर के प्रति वैसा लगाव नहीं रहा. दूध का पैसा इस बहाने से बंद कर दिया कि अब उन के लिए संभव नहीं. मुझे दुख भी हुआ, रंज भी. एक प्रखर था, जो दिनभर ‘बड़ीमम्मी’, ‘बड़ीमम्मी’ लगाए रखता था. मैं ने अपने बच्चों के मन में कोई दुर्भावना नहीं भरी. जब मैं ने बच्ची को जन्म दिया तो जेठानी ने सिर्फ औपचारिकता निभाई. जहां प्रखर के जन्म पर उन्होंने दिल खोल कर पार्टी दी थी, वहीं बच्ची के प्रति कृपणता मुझे खल गई. मैं ने भी साथ न रहने का मन बना लिया. घर जेठानी का था. उन्हीं के आग्रह पर रहती थी. जब स्वार्थों की गांठ पड़ गई, तो मुझे घुटन होने लगी. दिल्ली जाने लगी तो जेठ का दिल भर आया. प्रखर को गोद में उठा कर बोले, ‘‘बड़े पापा को भूलना मत,’’ मेरी भी आंखें भर गईं पर जेठानी उदासीन बनी रहीं.
20 साल गुजर गए. मैं एक बार लखनऊ तब आई थी जब जेठानी ने अपनी बहन के छोटे बेटे को गोद लिया था. इस अवसर पर सभी जुटे थे. उन के चेहरे पर अहंकार झलक रहा था, साथ में व्यंग्य भी. जितने दिन रही, उन्होंने हमारी उपेक्षा की. वहीं मायके वालों को सिरआंखों पर बिठाए रखा. इस उपेक्षा से आहत मैं दिल्ली लौटी तो इस निश्चय के साथ कि अब कभी उधर का रुख नहीं करूंगी.
आज 20 साल बाद भीगे मन से उन्होंने मुझे याद किया, तो मैं उन के प्रति सारे गिलेशिकवे भूल गई. उन्हें सहीगलत की पहचान तो हुई? यही बात उन्हें पहले समझ में आ जाती तो हमारे बीच की दूरियां न होतीं. 20 साल मैं ने भी असुरक्षा के माहौल में काटे. एकसाथ रहते तो दुखसुख में काम आते. वक्तजरूरत पर सहारे के लिए किसी को खोजना तो न पड़ता.
खत इस प्रकार था : ‘कागज पर लिख देने से न तो गैर अपना हो जाता है, न मिटा देने से अपना गैर. मैं ने खून से ज्यादा कागजों पर भरोसा किया. उसी का फल भुगत रही हूं. जिसे कलेजे से लगा कर रखा, पढ़ालिखा कर आदमी बनाया, वही ठेंगा दिखा कर चला गया. जो खून से बंधा था उसे कागज से बांधने की नादानी की. ऐसा करते मैं भूल गई थी कि कागज तो कभी भी फाड़ा जा सकता है. रिश्ते भावनाओं से बनते हैं. यहीं मैं चूक गई. मैं भी क्या करती. इस भय से एक बच्चे को गोद ले लिया कि इस पर किसी का कोई हक नहीं रह जाएगा. वह मेरा, सिर्फ मेरा रहेगा. मैं यह भूल गई थी कि 10 साल जिस बच्चे ने मां के आंचल में अपना बचपन गुजारा हो, वह मुझे मां क्यों मानेगा?
‘मैं भी स्वार्थ में अंधी हो गई थी कि वह मेरे बुढ़ापे का सहारा बनेगा. उस मां के बारे में नहीं सोचा जिस ने उसे पैदा किया कि क्या वह ऐसा चाहेगी? सिर्फ नाम का गोदनामा था, इस की आड़ में मेरी बहन का मुख्य मकसद मेरी धनसंपदा हथियाना था, जिस में वह सफल रही. मैं यह तो नहीं कहूंगी कि प्रखर को मेरे पास बुढ़ापे की सेवा के लिए भेज दो, क्योंकि यह हक मैं ने खो दिया है फिर भी उस गलती को सुधारना चाहती हूं जो मैं ने 20 साल पहले की थी.’
पत्र पढ़ने के बाद मैं तुरंत लखनऊ आई. मेरे जेठ को फालिज का अटैक था. हमें देखते ही उन की आंखें भर आईं. प्रखर ने पहले ताऊजी फिर ताईजी के पैर छुए, तो जेठानी की आंखें डबडबा गईं. सीने से लगा कर भरे गले से बोलीं, ‘‘बित्ते भर का था, जब तुझे पहली बार सीने से लगाया था. याद है, मेरे बगैर तुझे नींद नहीं आती थी. मां की मार से बचने के लिए मेरे ही आंचल में सिर छिपाता था.’’
‘‘बड़ी मम्मी,’’ प्रखर का इतना कहना भर था कि जेठानीजी अपने आवेग पर नियंत्रण न रख सकीं. फफक कर रो पड़ीं.
‘‘मैं तो अब भी आप की चर्चा करता हूं. मम्मी से कितनी बार कहा कि मुझे बड़ी मम्मी के पास ले चलो.’’
‘‘क्यों बबली, हम क्या इतने गैर हो गए थे. कम से कम अपने बेटे की बात तो रखी होती. बड़ों की गलती बच्चे ही सुधारते हैं,’’ जेठानीजी ने उलाहना दिया.
‘‘दीदी, मुझ से भूल हुई है,’’ मेरे चेहरे पर पश्चात्ताप की लकीरें खिंच गईं.
2 दिन हम वहां रहे. लौटने को हुई तो मैं ने महसूस किया कि जेठानीजी कुछ कहना चाह रही थीं. संकोच, लज्जा जो भी वजह हो पर मैं ने ही उन से कहा कि क्या हम फिर से एकसाथ नहीं रह सकते.
मैं ने जैसे उन के मन की बात छीन ली. प्रतिक्रियास्वरूप उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और बोलीं, ‘‘बबली, मुझे माफ कर दो.’’
जेठानी के अपनेपन की तपिश ने हमारे मन में जमी कड़वाहट को हमेशा के लिए पिघला दिया.
लखनऊ छोड़े मुझे 20 साल हो गए. छोड़ना तो नहीं चाहती थी पर जब पराएपन की बू आने लगे तो रहना संभव नहीं होता. जबतक मेरी जेठानी का रवैया हमारे प्रति आत्मिक था, सब ठीक चलता रहा पर जैसे ही उन की सोच में दुराग्रह आया, मैं ने ही अलग रहना मुनासिब समझ.
आज वर्षों बाद जेठानी का खत आया. खत बेहद मार्मिक था. वे मेरे बेटे प्रखर को देखना चाहती थीं. 60 साल की जेठानी के प्रति अब मेरे मन में कोई मनमुटाव नहीं रहा. मनमुटाव पहले भी नहीं था, पर जब स्वार्थ बीच में आ जाए तो मनमुटाव आना स्वाभाविक था.
शादी के बाद जब ससुराल में मेरा पहला कदम पड़ा तब मेरी जेठानी खुश हो कर बोलीं, ‘‘चलो, एक से भले दो. वरना अकेला घर काटने को दौड़ता था.’’
वे निसंतान थीं. तब भी उन का इलाज चल रहा था पर सफलता कोसों दूर थी. प्रखर हुआ तो मुझ से ज्यादा खुशी उन्हें हुई. हालांकि दिल में अपनी औलाद न होने की कसक थी, जिसे उन्होंने जाहिर नहीं होने दिया. बच्चों की किलकारियों से भला कौन वंचित रहना चाहता है. प्रखर ने घर की मनहूसियत को तोड़ा.
जेठानी ने मुझ से कभी परायापन नहीं रखा. वे भरसक मेरी सहायता करतीं. मेरे पति की आय कम थी. इसलिए वक्तजरूरत रुपएपैसों से मदद करने में भी वे पीछे नहीं हटतीं. प्रखर के दूध का खर्च वही देती थीं. कपड़े आदि भी वही खरीदतीं. मैं ने भी उन्हें कभी शिकायत का मौका नहीं दिया. प्रखर को वे संभालतीं, तो घर का सारा काम मैं देखती. इस तरह मिलजुल कर हम हंसी- खुशी रह रहे थे.
हमारी खुशियों को ग्रहण तब लगा जब मुझे दूसरा बच्चा होने वाला था. नई तकनीक से गर्भधारण करने की जेठानी की कोशिश असफल हुई और डाक्टरों ने कह दिया कि इन की मां बनने की संभावना हमेशा के लिए खत्म हो गई, तो वे बुझबुझ सी, उदास रहने लगीं. न उन में पहले जैसी खुशी रही न उत्साह. उन के मां न बन पाने की मर्मांतक पीड़ा का मुझे एहसास था, क्योंकि मैं भी एक मां थी. इसलिए प्रखर को ज्यादातर उन्हीं के पास छोड़ देती. वह भी बड़ी मम्मी, बड़ी मम्मी कह कर उन्हीं से चिपका रहता. रात को उन्हीं के पास सोता. उन की भी आदत कुछ ऐसी बन गई थी कि बिना प्रखर के उन्हें नींद नहीं आती. मैं चाहती थी कि वे किसी तरह अपने दुखों को भूली रहें.
जब मुझे दूसरा बच्चा होने को था, पता नहीं मेरे जेठजेठानी ने क्या मशविरा किया. एक सुबह वे मुसकरा कर बोलीं, ‘‘बबली, इस बच्चे को तू मुझे दे दे,’’ मैं ने इसे मजाक समझ और उसी लहजे में बोली, ‘‘दीदी, आप दोनों ही रख लीजिए.’’
‘‘मैं मजाक नहीं कर रही,’’ वे थोड़ा गंभीर हुईं.
‘‘मैं चाहती हूं कि तुम इस बच्चे को कानूनन मुझे दे दो. मैं तुम्हें सोचने का मौका दूंगी.’’
जेठानी के कथन पर मैं संजीदा हो गई. मेरे चेहरे की हंसी एकाएक गुम हो गई. ‘कानूनन’ शब्द मेरे मस्तिष्क में शूल की भांति चुभने लगा.
शाम को मेरे पति औफिस से आए, तो मैं ने जेठानी का जिक्र किया.
‘‘दे दो, हर्ज ही क्या है. भैयाभाभी ही तो हैं,’’ ये बोले.
मैं बिफर पड़ी, ‘‘कैसे पिता हैं? आप को अपने बच्चे का जरा भी मोह नहीं. एक मां से पूछिए जो 9 महीने किन कष्टों से बच्चे को गर्भ में पालती है?’’
‘‘भैया हैं, कोई गैर नहीं.’’
‘‘मैं ने कब इनकार किया. फिर भी कैसे बरदाश्त कर पाऊंगी कि मेरा बच्चा किसी और की अमानत बने. मैं अपने जीतेजी ऐसा हर्गिज नहीं होने दूंगी.’’
‘‘मान लो लड़की हुई तो?’’
‘‘लड़का हो या लड़की. मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.’’
‘‘मुझे पड़ता है. सीमित आमदनी के चलते कहां से लाएंगे दहेज के लिए लाखों रुपए. भैयाभाभी तो संपन्न हैं. वे उस की बेहतर परवरिश करेंगे.’’
‘‘परवरिश हम भी करेंगे. मैं कुछ भी करूंगी पर अपने कलेजे के टुकड़े को यों जाने नहीं दूंगी,’’ मैं ने आत्मविश्वास के साथ जोर दे कर कहा.
‘‘सोच लो. बाद में पछताना न पड़े.’’
‘‘हिसाबकिताब आप कीजिए. प्रखर मुझ से ज्यादा उन के पास रहता है. क्या मैं ने कभी एतराज किया? जो आएगा उसे भी वही पालें, पर मेरी आंखों के सामने. मुझे कोई ऐतराज नहीं होगा. उलटे मुझे खुशी होगी कि इसी बहाने खून की कशिश बनी रहेगी.’’
मेरे कथन से मेरे पति संतुष्ट न थे. फिर भी मैं ने मन बना लिया था कि लाख दबाव डालें मैं अपने बच्चे को उन्हें गोद लेने नहीं दूंगी. वैसे भी जेठानीजी को सोचना चाहिए कि क्या जरूरी है कि गोद लेने से बच्चा उन का हो जाएगा? बच्चा कोई सामान नहीं जो खरीदा और अपना हो गया. कल को बच्चा बड़ा होगा, तो क्या उसे पता नहीं चलेगा कि उस के असली मांबाप कौन हैं? वे क्या बच्चा ले कर अदृश्य हो जाएंगी. रहेगा तो वह हम सब के बीच ही.
मुझे जेठानी की सोच में क्षुद्रता नजर आई. उन्होंने हमें और हमारे बच्चों को गैर समझ, तभी तो कानूनी जामा पहनाने की कोशिश कर रही हैं. ताईताऊ, मांबाप से कम नहीं होते बशर्ते वे अपने भतीजों को वैसा स्नेह व अपनापन दें. क्या निसंतान ताईताऊ प्रखर की जिम्मेदारी नहीं होंगे?
15 दिन बाद उन्होंने मुझे पुन: याद दिलाया तो मैं ने साफ मना कर दिया, ‘‘दीदी, मुझे आप पर पूरा भरोसा है, पर मेरा जमीर गवारा नहीं करता कि मैं अपने नवजात शिशु को आप को सौंप दूं. मैं इसे अपनी सांसों तले पलताबढ़ता देखना चाहती हूं. वह मुझ से वंचित रहे, इस से बड़ा गुनाह मेरे लिए कोई नहीं. मैं अपराध बोध के साथ नहीं जी सकूंगी.’’
क्षणांश मैं भावुक हो उठी. आगे बोली, ‘‘ताईताऊ मांबाप से कम नहीं होते. मुझ पर यकीन कीजिए, मैं अपने बच्चों को सही संस्कार दूंगी.’’
मेरे कथन पर उन का मुंह बन गया. वे कुछ बोलीं नहीं पर पति (जेठजी) से देर तक खुसरपुसर करती रहीं. कुछ दिन बाद पता चला कि वे मायके के किसी बच्चे को गोद ले रही हैं. वैसे भी कानूनन गोद लेने की सलाह मायके वालों ने ही उन्हें दी थी. वरना रिश्तों के बीच कोर्टकचहरी की क्या अहमियत?
आहिस्ताआहिस्ता मैं ने महसूस किया कि अब जेठानी में प्रखर के प्रति वैसा लगाव नहीं रहा. दूध का पैसा इस बहाने से बंद कर दिया कि अब उन के लिए संभव नहीं. मुझे दुख भी हुआ, रंज भी. एक प्रखर था, जो दिनभर ‘बड़ीमम्मी’, ‘बड़ीमम्मी’ लगाए रखता था. मैं ने अपने बच्चों के मन में कोई दुर्भावना नहीं भरी. जब मैं ने बच्ची को जन्म दिया तो जेठानी ने सिर्फ औपचारिकता निभाई. जहां प्रखर के जन्म पर उन्होंने दिल खोल कर पार्टी दी थी, वहीं बच्ची के प्रति कृपणता मुझे खल गई. मैं ने भी साथ न रहने का मन बना लिया. घर जेठानी का था. उन्हीं के आग्रह पर रहती थी. जब स्वार्थों की गांठ पड़ गई, तो मुझे घुटन होने लगी. दिल्ली जाने लगी तो जेठ का दिल भर आया. प्रखर को गोद में उठा कर बोले, ‘‘बड़े पापा को भूलना मत,’’ मेरी भी आंखें भर गईं पर जेठानी उदासीन बनी रहीं.
20 साल गुजर गए. मैं एक बार लखनऊ तब आई थी जब जेठानी ने अपनी बहन के छोटे बेटे को गोद लिया था. इस अवसर पर सभी जुटे थे. उन के चेहरे पर अहंकार झलक रहा था, साथ में व्यंग्य भी. जितने दिन रही, उन्होंने हमारी उपेक्षा की. वहीं मायके वालों को सिरआंखों पर बिठाए रखा. इस उपेक्षा से आहत मैं दिल्ली लौटी तो इस निश्चय के साथ कि अब कभी उधर का रुख नहीं करूंगी.
आज 20 साल बाद भीगे मन से उन्होंने मुझे याद किया, तो मैं उन के प्रति सारे गिलेशिकवे भूल गई. उन्हें सहीगलत की पहचान तो हुई? यही बात उन्हें पहले समझ में आ जाती तो हमारे बीच की दूरियां न होतीं. 20 साल मैं ने भी असुरक्षा के माहौल में काटे. एकसाथ रहते तो दुखसुख में काम आते. वक्तजरूरत पर सहारे के लिए किसी को खोजना तो न पड़ता.
खत इस प्रकार था : ‘कागज पर लिख देने से न तो गैर अपना हो जाता है, न मिटा देने से अपना गैर. मैं ने खून से ज्यादा कागजों पर भरोसा किया. उसी का फल भुगत रही हूं. जिसे कलेजे से लगा कर रखा, पढ़ालिखा कर आदमी बनाया, वही ठेंगा दिखा कर चला गया. जो खून से बंधा था उसे कागज से बांधने की नादानी की. ऐसा करते मैं भूल गई थी कि कागज तो कभी भी फाड़ा जा सकता है. रिश्ते भावनाओं से बनते हैं. यहीं मैं चूक गई. मैं भी क्या करती. इस भय से एक बच्चे को गोद ले लिया कि इस पर किसी का कोई हक नहीं रह जाएगा. वह मेरा, सिर्फ मेरा रहेगा. मैं यह भूल गई थी कि 10 साल जिस बच्चे ने मां के आंचल में अपना बचपन गुजारा हो, वह मुझे मां क्यों मानेगा?
‘मैं भी स्वार्थ में अंधी हो गई थी कि वह मेरे बुढ़ापे का सहारा बनेगा. उस मां के बारे में नहीं सोचा जिस ने उसे पैदा किया कि क्या वह ऐसा चाहेगी? सिर्फ नाम का गोदनामा था, इस की आड़ में मेरी बहन का मुख्य मकसद मेरी धनसंपदा हथियाना था, जिस में वह सफल रही. मैं यह तो नहीं कहूंगी कि प्रखर को मेरे पास बुढ़ापे की सेवा के लिए भेज दो, क्योंकि यह हक मैं ने खो दिया है फिर भी उस गलती को सुधारना चाहती हूं जो मैं ने 20 साल पहले की थी.’
पत्र पढ़ने के बाद मैं तुरंत लखनऊ आई. मेरे जेठ को फालिज का अटैक था. हमें देखते ही उन की आंखें भर आईं. प्रखर ने पहले ताऊजी फिर ताईजी के पैर छुए, तो जेठानी की आंखें डबडबा गईं. सीने से लगा कर भरे गले से बोलीं, ‘‘बित्ते भर का था, जब तुझे पहली बार सीने से लगाया था. याद है, मेरे बगैर तुझे नींद नहीं आती थी. मां की मार से बचने के लिए मेरे ही आंचल में सिर छिपाता था.’’
‘‘बड़ी मम्मी,’’ प्रखर का इतना कहना भर था कि जेठानीजी अपने आवेग पर नियंत्रण न रख सकीं. फफक कर रो पड़ीं.
‘‘मैं तो अब भी आप की चर्चा करता हूं. मम्मी से कितनी बार कहा कि मुझे बड़ी मम्मी के पास ले चलो.’’
‘‘क्यों बबली, हम क्या इतने गैर हो गए थे. कम से कम अपने बेटे की बात तो रखी होती. बड़ों की गलती बच्चे ही सुधारते हैं,’’ जेठानीजी ने उलाहना दिया.
‘‘दीदी, मुझ से भूल हुई है,’’ मेरे चेहरे पर पश्चात्ताप की लकीरें खिंच गईं.
2 दिन हम वहां रहे. लौटने को हुई तो मैं ने महसूस किया कि जेठानीजी कुछ कहना चाह रही थीं. संकोच, लज्जा जो भी वजह हो पर मैं ने ही उन से कहा कि क्या हम फिर से एकसाथ नहीं रह सकते.
मैं ने जैसे उन के मन की बात छीन ली. प्रतिक्रियास्वरूप उन्होंने मुझे गले से लगा लिया और बोलीं, ‘‘बबली, मुझे माफ कर दो.’’
जेठानी के अपनेपन की तपिश ने हमारे मन में जमी कड़वाहट को हमेशा के लिए पिघला दिया.
किसी सरकारी कार्यालय में कार्यालय अध्यक्ष का आदेश हो और कोई न माने यह तो हो ही नहीं सकता. कार्यालय अध्यक्ष के ई-मेल पर ऊपर से निर्देश मिला कि कार्यालय में गांधी जयंती के दिन स्वच्छता अभियान के चरण को शुरू करते हुए सुबह 10 बजे स्वच्छता शपथ ली जाए और साथ ही कार्यालय में सफाई व श्रमदान का आयोजन भी किया जाए.
कार्यालय अध्यक्ष महोदय जिन्हें कार्यालय का प्रत्येक कर्मचारी बड़े प्यार से ’बड़े साहब‘ कह कर संबोधित करते थे, उन्होंने अपने कार्यालय में तत्काल आदेश जारी किया-
’’कार्यालय के समस्त अधिकारियों एवं कर्मचारियों को सूचित किया जाता है कि स्वच्छता अभियान के चरण को आरंभ करते हुए गांधी जयंती के दिन सुबह 10 बजे स्वच्छता शपथ और सफाई व श्रमदान का आयोजन किया जाएगा. इस अवसर पर कार्यालय के समस्त अधिकारियों एवं कर्मचारियों से अनुरोध किया जाता है कि वे सभी इस आयोजन में शामिल हो कर अपने अंदर स्वच्छता के प्रति स्वच्छ भावना का स्वस्थ समावेश करें.
“स्वच्छता के नव संकल्प को जीवनभर अपने जीवन में उतारें. मैं खुद अपने उच्चाधिकारीपन को छोड़ कर, अपने दिलोदिमाग में स्वच्छता को बैठा कर, कार्यालय के इस सफाई अभियान में आप के साथ सफाई करूंगा. -धन्यवाद”
वैसे उक्त आदेश को देख कर सभी कर्मचारियों ने मन में भारी भाव रखते हुए मन को अधिक दुखी होने से बचाया और चुप रहे. कुछ ने मन ही मन दुखी होते हुए कहा, ’’यार, यह सरकार भी न जब देखो तब हमारी छुट्टियों का सत्यानाश कर देती है. वैसे भी साल में पूरे 12 माह काम लेती है और तनख्वाह देती है 8 माह की. 4 महीने की तनख्वाह तो हम सरकारी लोग यों ही इनकम टैक्स के रूप में सरकार को वापस दे देते हैं.‘’
कुछ ने कहा, ’’बेचारे, सफाई कर्मचारी तो जम कर सफाई करते हैं. करना है तो स्टोर में जमा तमाम अनावश्यक सामानों की सफाई करवाई जाए. वहां सालों का जमावड़ा जमा है. कार्यालय में सुबह 8 बजे ही हो चुकी सफाई के ऊपर फिर 10 बजे सफाई करने से क्या बात बनेगी?‘‘
तो कोई बोला, ’’हमारी सरकार भी न, कभी घंटीथाली, झुनझुना बजाने का आदेश देती है, तो कभी स्वच्छता के नाम पर बड़ेबड़ों से सफाई करवाने का जिन्होंने कभी अपने घर में झाङूपोंछा नहीं किया वे सरकारी उच्चाधिकारी भी अब अपनेअपने कार्यालयों में झाड़ू लगाएंगे और कूड़ा उठाएंगे. अब मजा आ जाएगा.‘’
खैर साहब, सरकारी आदेश था तो लागू होना ही था. ठीक 10 बजे आयोजन आरंभ हुआ. पहले गांधीजी की फोटो पर फूलमालाएं चढ़ाई गईं. फिर ’जाई विद राखे सरकार, ताई विद रहिए‘ की तर्ज पर ली गई स्वच्छता शपथ-
“मैं शपथ लेता हूं कि मैं स्वयं स्वच्छता के प्रति सजग रहूंगा/रहूंगी और उस के लिए समय दूंगा. हर साल 100 घंटे यानी हर सप्ताह 2 घंटे श्रमदान कर के स्वच्छता के इस संकल्प को चरितार्थ करूंगा. मैं न गंदगी करूंगा, न किसी और को करने दूंगा. सब से पहले मैं स्वयं से, मेरे परिवार से, मेरे मोहल्ले से, मेरे गांव से एवं मेरे कार्यस्थल से शुरुआत करूंगा…”
और फिर छोटी झाड़ू, बड़ी झाड़ू, बड़ेबड़े डंडों में लगी झाड़ू, पोंछा, काले प्लास्टिक बैग्स, स्टैंड वाइपर और डस्टबिन के साथ शुरू हुआ स्वच्छता सफाई अभियान. बड़े साहब ने भी जागरूकता दिखाई और अपने दोनों हाथों में ग्लव्स और मुंह पर मास्क लगा कर जुट गए बड़े डंडे में लगी झाड़ू का ले कर. इन सब के साथ ही स्टोरकीपर साहब ने भी बड़े साहब के लिए भरपूर सैनिटाइजर अपने हाथों में ले रखा था. मौका लगते ही वह बड़े साहब के ग्लव्स चढ़े हाथों में बारबार छिड़कने से बाज नहीं आ रहे थे.
’चमचे की चम्मच में मक्खन‘ वाली बात यहां लागू होते दिखाई दे रही थी. रिकौर्डिंग कैमरे के सामने सफाई अभियान में सभी ने अपनाअपना सफाई दायित्व निभाते हुए बेहतर रोल निभाने का प्रयास किया. सोशल मीडिया के जमाने में हर बात की रिकौर्डिंग न हो तो बात बनती नहीं, इसलिए मोबाइल रिकौर्डिंग श्रमकर्म भी जारी था.
ज्यों ही सफाईदल कार्यालय परिसर में आगे बढ़ा तो एकाएक पेड़ पर बैठे हुए कबूतरों ने टपाटप बीट करना शुरू कर दिया. बीट का गुरुत्वाकर्षण इतना अधिक तेज था कि वह सीधे बड़े साहब की गंजी चांद यानी गंजे सिर पर आकर्षणयुक्त हो कर पच्च…पच्च… से जा टिकी. बड़े साहब की गंजी चांद का सौंदर्य ऐसा बिगड़ा मानो चंद्रमा पर पहुंचे हुए चंद्रयान ने वहां की मटमैली मिट्टी का धरती पर नमूना भेजा हो. बड़े साहब को ज्यों ही अपनी गंजी चांद पर पच्च…पच्च… की आवाज सुनते हुए कुछ गीलागीला सा लगा तो स्वाभाविक क्रियावश उन्होंने अपनी झाड़ू एक तरफ रखते हुए अपनी चांद पर हाथ लगाया तो उन की चांद पर कबूतरों की बीट के ऐसे गड्ढे बन गए जैसे विक्रम लैंडर पर लगे कैमरे ने चंद्रमा की सतह पर घूमते प्रज्ञान रोवर के साथ तसवीरें ली थीं.
तभी बड़े साहब की आंखों की घूर्णन प्रक्रिया को शीघ्र समझते हुए स्टोरकीपर साहब ने तुरंत ही अपनी जेब में रखे रूमाल से उन की बीटयुक्त चांद की सफाई की. तब जा कर बड़े साहब की गंजी चांद का सौंदर्य यथावत वापस आया और फिर कैमरा औन और कार्यालय सफाई अभियान फिर से चालू हुआ.
सफाईदल आगे बढ़ा तो दल के सामने एक तरफ बहुत सारे टूटेफूटे मिट्टी के गमले और बहुत सारी मिट्टी का ढेर और सूखी पत्तियां पड़ी थीं. माली ने तत्परता दिखाई और बड़े साहब के कान में आ कर कहा, ’’सर, आप तो बस ये सूखी पत्तियों के ढेर के आसपास झाड़ू चला दीजिए. बाकी मैं सब समेट लूंगा.‘‘
साहब ने भी लगे हाथों वहां पड़े तमाम टूटेफूटे गमलों के संबंध में पूछताछ की तो बेचारे माली ने कहा, ’’सर, मैं क्या करूं, मैं ने कई बार स्टोरकीपर साहब को बड़ेबड़े व नए आधुनिक डिजाइन वाले आकर्षक प्लास्टिक के गमलों की खरीद के संबंध में अपना मांगपत्र भर कर दिया. मगर वे हमेशा ही कच्ची मिट्टी के गमले ही मंगवाते हैं. पूछने पर कहते हैं कि तुम्हें गमलों से मतलब होगा चाहिए. मैं बारबार जैसे भी गमले मंगवा कर देता हूं, तुम्हें हमेशा उसी से काम चलाना चाहिए. सर, आज गांधी जयंती के अवसर पर सच कहूं तो स्टोरकीपर साहब को एक बार बेहतरीन और टिकाऊ खरीद में विश्वास नहीं है. इन्हें हर चीज बारबार खरीदने में पता नहीं क्या मिलता है. आप इन्हीं से पूछ कर देखिएगा.‘‘
स्टोरकीपर साहब और बड़े साहब यदि ’चोरचोर मौसेरे भाई‘ न होते तो उन्हें समझने में देर लगती इसलिए बड़े साहब अहिस्ता से मुसकराए और अपनी बड़े डंड़े में लगी झाड़ू को ले कर सड़क साफ करते हुए अपने दल के साथ आगे चल दिए.
अब जैसेतैसे सब को मिल कर अपने कार्यालय के सफाई अभियान को पूरा तो करना ही था. स्टोरकीपर साहब ने बड़े साहब के कान में खुसरफुसर करते हुए कहा, ’’सर, बस आप को अब अपने कार्यालय के मुख्यद्वार तक और जाना है. मैं ने वहां पहले से ही कुछ कूड़ाकरकट डलवाया हुआ है. वहां पहुंच कर बस आप भी हम सब के साथ अपनी बड़े डंडे में लगी झाड़ू को एक तरफ रख कर उस कूड़े को अपने हाथों से उठाउठा कर डस्टबिन में डाल दें.‘’
बड़े साहब उत्साह लिए फिर से आगे बढ़े और अपना काम पूरा करने लगे. लेकिन यह क्या, तमाम सारे बाहरी कुत्ते उन पर झपटे. मुख्यद्वार के पास खड़े सुरक्षा संतरी ने ज्यों ही कुत्तों को साहब पर झपटते हुए देखा तो उस ने अपने पास पड़े एक डंडे को कुत्तों पर फेंक कर उन्हें भगाने का प्रयास किया ही था कि खौकिया कर एक कुत्ते ने बड़े साहब की टांग पकड़नी चाही. वह तो भला हो उन के अच्छे कालसमय का कि उन की टांग बच गई, बस पैंट ही कुत्ते के दांतों में आ कर फटी. वरना बेचारे सफाई अभियान के चक्कर में अस्पताल और अगले 2-4 दिन तक उस घातक कुत्ते के जीवित या मृत होने की खोजबीन ही करते घूमते.
सफाई अभियान की समाप्ति के बाद पार्टी तो होनी ही थी. कार्यालय की तरफ से सभी के लिए चाय, कौफी, समोसा, पनीरपकौड़ा, चटनी और रसगुल्ले के साथ नाश्ते का इंतजाम किया गया. सामूहिक पार्टी हुई. उस के बाद जब सब चले गए तो पक्के सफाई कर्मचारियों ने कार्यालय प्रांगण में पार्टी हेतु लगाई गई कुरसीमेजों और सोफों आदि को हटाया तो वहां प्रत्येक कोने में स्वच्छता श्रमदान के बाद उतरे हुए ग्लाव्स और मास्क, श्रमदान के नशे को कारगर बनाए रखने के लिए कर्मचारियों द्वारा खाए हुए गुटखे के खाली रैपर, ऐनर्जी ड्रिंक की खाली छोटी बोतलें, कार्यालय में गुपचुप पी गई बीड़ीसिगरेट के कुछ बुझे हुए टुकड़े. चायकौफी के जूठे कप, मीठी चटनी, प्लेट और नाश्ते के खाली डब्बे आदि पड़े दुखी हो रहे थे और अपने बड़े साहब को रहरह कर याद कर रहे थे कि काश… बड़े साहब की सफाई चिंता दृष्टि हम पर भी पड़ जाती तो हम भी आज गांधी जयंती के दिन ही सही, मगर एक दिन धन्य तो हो जाते.
इधर निदेशालय की साइट पर उक्त कार्यालय के सफाई अभियान का विडियो अपलोड हुआ तो महानिदेशक महोदय बेहद खुश हुए और उन्होंने अगले दिन ही उस कार्यालय का औचक दौरा कर डाला तो पाया कि उक्त कार्यालय के सामने तो सबकुछ ठीकठाक यानी स्वच्छ था मगर कार्यालय के पीछे की अस्वच्छ स्थिति को देख कर वह बेहद दुखी हुए. उन्होंने तुरंत ही बड़े साहब व स्टोरकीपर साहब को सुदूर क्षेत्र स्थानांतरण की सजा देनी चाही मगर यह क्या, इस से पहले कि वे कुछ बोलते उन के सामने उक्त कार्यालय के बड़े साहब और स्टोरकीपर साहब अपनेअपने हाथों में ग्लाव्स और मुंह पर मास्क लगाए हुए बड़े डंडे में लगी झाड़ू और डस्टबिन ले कर स्वच्छता अभियान के दूसरे पार्ट को सफल बनाने में जुट गए.
यह देख कर महानिदेशक महोदय ने भी अपनी आंख से नाक पर उतरे गुस्सेयुक्त चश्मे को यथावत ठीक किया और मुसकरा दिए. तब जा कर बड़े साहब और स्टोरकीपर साहब की जान में जान वापस आई.
सवाल
मैं 42 वर्षीय पुरुष हूं और अपने बीवीबच्चों के साथ रहता हूं. मेरे घर में मेरी पत्नी हमेशा ही मुझसे चिढ़ी हुई रहती है. उस की मुझ से हमेशा यह शिकायत रहती है कि मैं उस के लिए उतने महंगे कपड़े नहीं खरीदता या गहने नहीं खरीदता जैसे उस की किटी पार्टी की सहेलियों के पास हैं. अब आप ही बताएं जब बच्चों की पढ़ाई, घरखर्च और अन्य खर्चों में ही मेरी पूरी तनख्वाह उड़ जाएगी तो बीवी के खर्चे भला कैसे पूरे करूं?
जवाब
आप को अपनी पत्नी को समझाना चाहिए कि आप की आय में घरपरिवार के खर्चे ही पूरे नहीं बैठ रहे तो उन के शौक कैसे पूरे होंगे. हालांकि, औरतों को एकदूसरे की होड़ करने का शौक हमेशा से रहा है और इस में तो आप कुछ नहीं कर सकते.
हो यह सकता है कि आप अपनी पत्नी को महीने का पूरा घरखर्च हाथ में दें और उन से कह दें कि इस में से जो भी बचता है वह अपने लिए रख लें. इस से होगा यह कि वे जमीनी हकीकत से वाकिफ होंगी और उन्हें समझ आएगा कि व्यक्ति के सिर पर जब जिम्मेदारी पड़ती है तो क्या हालत होती है.