Download App

हेयर ट्रांसप्लांट : महंगी तकनीक, मगर फायदेमंद

पूनम विवाह के लिए सजधज रही थी. होने वाले पति को ले कर मन में सुनहरे सपने उमड़घुमड़ रहे थे. बरात के आने की खबर मिली तो उस की धड़कन बढ़ गई. दिल मचलने लगा. कुछ खुमारी सी छाने लगी. मन में बुलबुले से फूटने लगे. तभी वरमाला की रस्म के लिए उस की सहेलियां उसे लेने के लिए कमरे में आईं.

सजीधजी पूनम मतवाले कदमों के साथ पायल की छमछम की मधुर आवाज लिए वरमाला के लिए बने स्टेज पर पहुंच गई. वरमाला की रस्म शुरू हुई. दूल्हे ने जब अपना मुकुट उतारा तो पूनम मानो गश खा कर गिर पड़ी. दूल्हा गंजा था. दूल्हा और दुलहन के परिवार वालों और रिश्तेदारों में हड़कंप मच गया.

पूनम ने विवाह करने से साफ इनकार कर दिया. काफी समझानेबुझाने के बाद वह विवाह के लिए तैयार हुई. विवाह के 15 सालों के बाद भी पूनम के मन में यह कसक बाकी है कि उस का पति गंजा है. वह कहती है कि उस के पति इंजीनियर हैं और उन की अच्छीखासी कमाई है, उसे किसी चीज की कमी नहीं है, लेकिन वह अपनी बेटी की शादी किसी भी सूरत में किसी गंजे लड़के से नहीं करेगी.

आज के जमाने में पूनम जैसे हालात अब लड़कियों को नहीं झेलने पड़ेंगे. आज हेयर ट्रांसप्लांट की तकनीक और उस के बढ़ते चलन ने गंजेपन की परेशानी और उस से पैदा होने वाली अजीब स्थिति को काफी हद तक खत्म कर दिया है. डर्मेटोलौजिस्ट डाक्टर सुधांशु कुमार बताते हैं कि गंजेपन की समस्या से भारत ही नहीं, समूची दुनिया के युवा परेशान रहे हैं. बाल उड़ने के बाद इंसान असल उम्र से करीब 10-15 साल ज्यादा का दिखने लगता है. सिर के बालों के जाने के बाद आदमी की पर्सनैलिटी ही बदल जाती है. आत्मविश्वास खत्म हो जाता है. गंजा आदमी भीड़, पार्टियों, इंटरव्यू आदि में खुद को असहज महसूस करने लगता है.

बाल उगाने के नाम पर ठगी भी काफी होती है. होम्योपैथ और आयुर्वेद के डाक्टरों ने तो गंजों के सिर पर बाल उगाने के नाम पर खूब रुपए ऐंठे. बौलीवुड ऐक्टर अनुपम खेर ने एक बार किसी इंटरव्यू में बताया था कि जब किसी आदमी के बाल उड़ने शुरू होते हैं तो उन्हें बचाने के लिए वह कुछ भी कर गुजरने को तैयार रहता है. किसी ने कोई सलाह दी नहीं कि उस पर तुरंत अमल कर डालता है.

उन्होंने आगे कहा कि जब उन के सिर के बाल उड़ने लगे तो उन्होंने भी तरहतरह के हथकंडे अपनाए, एक बार किसी सज्जन ने कह दिया कि ऊंट का मूत्र लगाने से बाल निकल आते हैं तो उन्होंने वह भी कर डाला. इस के बाद भी बाल नहीं आए.

हेयर ट्रांसप्लांट

कम उम्र में ही गंजे होने वालों के लिए राहत की बात यह है कि आजकल हेयर ट्रांसप्लांट का चलन और क्रेज काफी तेजी से बढ़ रहा है. सर्जरी के जरिए गंजे सिर पर बाल उगाना अब दूर की कौड़ी नहीं रह गई है. आज भारत में हेयर ट्रांसप्लांट के 483 रजिस्टर्ड क्लीनिक खुल गए हैं. इन में हेयर ट्रांसप्लांट करवा कर गंजे हो चुके युवाओं के सिर पर फिर से बाल आ सकते हैं.

पटना एम्स की प्लास्टिक सर्जरी विभाग की एचओडी डाक्टर वीणा कुमारी कहती हैं कि अब हेयर ट्रांसप्लांट की तकनीक काफी विकसित हो चुकी है. इस की सर्जरी की जटिलता काफी हद तक कम हो गई है. सिर की सर्जरी वाली जगह को इंजैक्शन के जरिए सुन्न कर दिया जाता है. उस के बाद सिर के पिछले और अगलबगल के हिस्से के बालों को निकाल कर सर्जरी के द्वारा सिर की खाली हो चुकी जगहों पर सैट कर दिया जाता है.

ज्यादा घने बाल लगाने हों तो ज्यादा समय लगता है, और अगर कम बाल लगाने हों तो 4 से 8 छोटी सर्जरी करनी होती हैं. 2-3 दिनों तक सिर की डै्रसिंग करनी होती है और दवा भी लेनी होती है. सर्जरी के 5-6 दिनों के बाद घाव भर जाता है. सर्जरी के 3 सप्ताह के बाद ट्रांसप्लांट किए गए बाल गिर जाते हैं और उस के बाद नए बाल निकलने शुरू हो जाते है. उस के बाद 6 से 9 महीनों के अंदर पूरी तरह से नए बाल निकल आते हैं और गंजापन पूरी तरह खत्म हो जाता है.

महिलाओं में गंजापन

डाक्टर राजीव पांडे कहते हैं कि औरतों में गंजेपन की शिकायतें मर्दों के मुकाबले काफी कम होती हैं, लेकिन आज की तनावभरी जिंदगी के बीच औरतों में भी बाल उड़ने की समस्याएं बढ़ने लगी है. औरतों में थायराइड प्रौब्लम की वजह से भी गंजापन आना शुरू हो जाता है. अगर डाक्टर की सलाह से टीएसएच, टी-3 और टी-4 की नियमित जांच करवा कर दवा ली जाए तो बालों का गिरना कम हो सकता है.

50 के दशक में अमेरिका में शुरू हुई हेयर ट्रांसप्लाट सर्जरी आज भारत में भी काफी मशहूर हो चुकी है और कई युवाओं को गंजेपन से छुटकारा दिला चुकी है. डाक्टरों का दावा है कि हेयर ट्रांसप्लांट सर्जरी 95 फीसदी कामयाब होती है. समूचे सिर में बाल उगाने के लिए काफी रकम खर्च करनी पड़ती है. अगर किसी के सिर से पूरी तरह बाल जा चुके हैं तो दोबारा बाल उगाने के लिए क्व5-6 लाख तक खर्च करने पड़ सकते हैं. सिर के साथसाथ सर्जरी के जरिए दाढ़ी, मूंछ और भौंहों के बालों को भी ट्रीटमैंट और ट्रांसप्लांट कराने का चलन बढ़ रहा है.

हेयर ऐंड ब्यूटी ऐक्सपर्ट पल्लवी सिन्हा

5 सालों से पटना में हेयर ट्रीटमैंट का काम कर रही हैं. वे कहती हैं, ‘‘आज गंजे सिर पर बाल उगाना मुमकिन हो गया है. कुछ साल पहले तक इसे पत्थरों पर घास उगाने की तरह माना जाता था. सही इलाज से खोए बालोें को दोबारा हासिल किया जा सकता है. पेश हैं, उन से हुई बातचीत के अंश:

किस आयुवर्ग के लोग आप के पास हेयर ट्रीटमैंट कराने के लिए आते हैं?

आजकल हारमोनल गड़बड़ी और खानपान में जंक फूड के ज्यादा इस्तेमाल तथा टैंशन आदि की वजह से हर आयुवर्ग के लोग बालों के उड़ने की समस्या से जूझ रहे हैं. कालेज में पढ़ने वाले युवकों के जब सिर से बाल कम होने लगते हैं तो निश्चित तौर पर उन की टैंशन बढ़ जाती है. बाल चेहरे की खूबसूरती में चार चांद जो लगाते हैं.

माना जाता है कि एक बार जिस के सिर से बाल गायब हुए तो दोबारा आने मुश्किल हैं?

आज से 6-7 साल पहले तक ऐसी स्थिति थी. बालों के दोबारा उगने की बात सोची भी नहीं जाती थी. आज हेयर ट्रीटमैंट और उस से भी आगे बढ़ कर हेयर ट्रांसप्लांट की सुविधा उपलब्ध है. ऐसे में अब गंजे सिर पर बाल उगाना नामुमकिन नहीं रहा. बस सही इलाज और ऐक्सपर्ट की जरूरत है.

बाल उगाने के नाम पर काफी ठगी का बाजार भी चलता रहा है?

हर गंजा आदमी चाहता है कि उस के सिर पर फिर से हरियाली आए. जब बाल उड़ना, झड़ना या टूटना शुरू होते हैं तो लोग उन्हें बचाने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाने के लिए तैयार रहते हैं. इसी सोच का फायदा उठाने के लिए बाजार में कई तरह की आयुर्वेदिक, होम्योपैथिक दवाएं और तेल बिक रहे हैं. कोई भी एक मिसाल ऐसी नहीं है कि ऐसे तेलों और दवाओं से किसी को फायदा हुआ हो. विज्ञान और तकनीक के जमाने में झोला छाप डाक्टरों और हकीमों पर भरोसा कर लोग अपना समय और पैसा दोनों ही बरबाद कर रहे हैं.

आहत : स्वार्थी पत्नी से धोखा खाए पति की दर्दभरी कहानी

story in hindi

पोलपट्टी : मिताली और गौरी के अनोखे रिश्ते की कहानी

आज अस्पताल में भरती नमन से मिलने जब भैयाभाभी आए तो अश्रुधारा ने तीनों की आंखों में चुपके से रास्ता बना लिया. कोई कुछ बोल नहीं रहा था. बस, सभी धीरे से अपनी आंखों के पोर पोंछते जा रहे थे. तभी नमन की पत्नी गौरी आ गई. सामने जेठजेठानी को अचानक खड़ा देख वह हैरान रह गई. झुक कर नमस्ते किया और बैठने का इशारा किया. फिर खुद को संभालते हुए पूछा, ‘‘आप कब आए? किस ने बताया कि ये…’’

‘‘तुम नहीं बताओगे तो क्या खून के रिश्ते खत्म हो जाएंगे?’’ जेठानी मिताली ने शिकायती सुर में कहा, ‘‘कब से तबीयत खराब है नमन भैया की?’’

‘‘क्या बताऊं, भाभी, ये तो कुछ महीनों से… इन्हें जो भी परहेज बताओ, ये किसी की सुनते ही नहीं,’’ कहते हुए गौरी की आंखें भीग गईं. इतने महीनों का दर्द उमड़ने लगा. देवरानीजेठानी कुछ देर साथ बैठ कर रो लीं. फिर गौरी के आंसू पोंछते हुए मिताली बोली, ‘‘अब हम आ गए हैं न, कोई बदपरहेजी नहीं करने देंगे भैया को. तुम बिलकुल चिंता मत करो. अभी कोई उम्र है अस्पताल में भरती होने की.’’

मिताली और रोहन की जिद पर नमन को अस्पताल से छुट्टी मिलने पर उन्हीं के घर ले जाया गया. बीमारी के कारण नमन ने दफ्तर से लंबी छुट्टी ले रखी थी. हिचकिचाहटभरे कदमों में नमनगौरी ने भैयाभाभी के घर में प्रवेश किया. जब से वे दोनों इस घर से अलग हुए थे, तब से आज पहली बार आए थे. मिताली ने उन के लिए कमरा तैयार कर रखा था. उस में जरूरत की सभी वस्तुओं का इंतजाम पहले से ही था.

‘‘आराम से बैठो,’’ कहते हुए मिताली उन्हें कमरे में छोड़ कर रसोई में चली गई.

रात का खाना सब ने एकसाथ खाया. सभी चुप थे. रिश्तों में लंबा गैप आ जाए तो कोई विषय ही नहीं मिलता बात करने को. खाने के बाद डाक्टर के अनुसार नमन को दवाइयां देने के बाद गौरी कुछ पल बालकनी में खड़ी हो गई. यह वही कमरा था जहां वह ब्याह कर आई थी. इसी कमरे के परदे की रौड पर उस ने अपने कलीरे टांगी थीं. नवविवाहिता गौरी इसी कमरे की डै्रसिंगटेबल के शीशे पर बिंदियों से अपना और नमन का नाम सजाती थी.

मिताली ने उस का पूरे प्यारमनुहार से अपने घर में स्वागत किया था. शुरू में वह उस से कोई काम नहीं करवाती, ‘यही दिन हैं, मौज करो,’ कहती रहती. शादीशुदा जीवन का आनंद गौरी को इसी घर में मिला. जब से अलग हुए, तब से नमन की तबीयत खराब रहने लगी. और आज हालत इतनी बिगड़ चुकी है कि नमन ठीक से चलफिर भी नहीं पाता है. यह सब सोचते हुए गौरी की आंखों से फिर एक धारा बह निकली. तभी कमरे के दरवाजे पर दस्तक हुई.

दरवाजे पर मिताली थी, ‘‘लो, दूध पी लो. तुम्हें सोने से पहले दूध पीने की आदत है न.’’‘‘आप को याद है, भाभी?’’

‘‘मुझे सब याद है, गौरी,’’ मिताली की आंखों में एक शिकायत उभरी जिसे उस ने जल्दी से काबू कर लिया. आखिर गौरी कई वर्षों बाद इस घर में लौटी थी और उस की मेहमान थी. वह कतई उसे शर्मिंदा नहीं करना चाहती थी.

अगले दिन से रोहन दफ्तर जाने लगे और मिताली घर संभालने लगी. गौरी अकसर नमन की देखरेख में लगी रहती. कुछ ही दिनों में नमन की हालत में आश्चर्यजनक सुधार होने लगा. शुरू से ही नमन इसी घर में रहा था. शादी के बाद दुखद कारणों से उसे अलग होना पड़ा था और इस का सीधा असर उस की सेहत पर पड़ने लगा था. अब फिर इसी घर में लौट कर वह खुश रहने लगा था. जब हम प्रसन्नचित्त रहते हैं तो बीमारी भी हम से दूर ही रहती है.

‘‘प्रणाम करती हूं बूआजी, कैसी हैं आप? कई दिनों में याद किया अब की बार कैसी रही आप की यात्रा?’’ मिताली फोन पर रोहन की बूआ से बात कर रही थी. बूआजी इस घर की सब से बड़ी थीं. उन का आनाजाना अकसर लगा रहता था. तभी गौरी का वहां आना हुआ और उस ने मिताली से कुछ पूछा.

‘‘पीछे यह गौरी की आवाज है न?’’ गौरी की आवाज बूआजी ने सुन ली.‘‘जी, बूआजी, वह नमन की तबीयत ठीक नहीं है, तो यहां ले आए हैं.’’

‘‘मिताली बेटा, ऐसा काम तू ही कर सकती है, तेरा ही दिल इतना बड़ा हो सकता है. मुझे तो अब भी गौरी की बात याद आती है तो दिल मुंह को आने लगता है. छी, मैं तुझ से बस इतना ही कहूंगी कि थोड़ा सावधान रहना,’’ बूआजी की बात सुन मिताली ने हामी भरी. उन की बात सुन कर पुरानी कड़वी बातें याद आते ही मिताली का मुंह कसैला हो गया. वह अपने कक्ष में चली गई और दरवाजा भिड़ा कर, आंखें मूंदे आरामकुरसी पर झूलने लगी.

गौरी को भी पता था कि बूआजी का फोन आया है. उस ने मिताली के चेहरे की उड़ती रंगत को भांप लिया था. वह पीछेपीछे मिताली के कमरे तक गई.‘‘अंदर आ जाऊं, भाभी?’’ कमरे का दरवाजा खटखटाते हुए गौरी ने पूछा.

‘‘हां,’’ संक्षिप्त सा उत्तर दिया मिताली ने. उस का मन अब भी पुराने गलियारों के अंधेरे कोनों से टकरा रहा था. जब कोई हमारा मन दुखाता है तो वह पीड़ा समय बीतने के साथ भी नहीं जाती. जब भी मन बीते दिन याद करता है, तो वही पीड़ा उतनी ही तीव्रता से सिर उठाती है.

‘‘भाभी, आज हम यहां हैं तो क्यों न अपने दिलों से बीते दिनों का मलाल साफ कर लें?’’ हिम्मत कर गौरी ने कह डाला. वह इस मौके को गंवाना नहीं चाहती थी.

‘‘जो बीत गई, सो बात गई. छोड़ो उन बातों को, गौरी,’’ पर शायद मिताली गिलेशिकवे दूर करने के पक्ष में नहीं थी. अपनी धारणा पर वह अडिग थी.

‘‘भाभी, प्लीज, बहुत हिम्मत कर आज मैं ने यह बात छेड़ी है. मुझे नहीं पता आप तक मेरी क्या बात, किस रूप में पहुंचाई गई. पर जो मैं ने आप के बारे में सुना, वह तो सुन लीजिए. आखिर हम एक ही परिवार की डोर से बंधे हैं. यदि हम एकदूसरे के हैं, तो इस संसार में कोईर् हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता. किंतु यदि हमारे रिश्ते में दरार रही तो इस से केवल दूसरों को फायदा होगा.’’

‘‘भाभी, मेरी डोली इसी घर में उतरी थी. सारे रिश्तेदार यहीं थे. शादी के तुरंत बाद से ही जब कभी मैं अकेली होती. बूआजी मुझे इशारों में सावधान करतीं कि मैं अपने पति का ध्यान रखूं. उन के पूरे काम करूं, और उन की आप पर निर्भरता कम करूं. आप समझ रही हैं न? मतलब, बूआजी का कहना था कि नमन को आप ने अपने मोहपाश में जकड़ रखा है ताकि… समझ रही हैं न आप मेरी बात?’’

गौरी के मुंह से अपने लिए चरित्रसंबंधी लांछन सुन मिताली की आंखें फटी रह गईं, ‘‘यह क्या कह रही हो तुम? बूआजी ऐसा नहीं कह सकतीं मेरे बारे में.’’

‘‘भाभी, हम चारों साथ होंगे तो हमारा परिवार पूरी रिश्तेदारी में अव्वल नंबर होगा, यह बात किसी से छिपी नहीं है. शादी के तुरंत बाद मैं इस परिवार के बारे में कुछ नहीं जानती थी. जब बूआजी जैसी बुजुर्ग महिला के मुंह से मैं ने ऐसी बातें सुनीं, तो मैं उन पर विश्वास करती चली गई. और इसीलिए मैं ने आप की तरफ शुष्क व्यवहार करना आरंभ कर दिया.

‘‘परंतु मेरी आंखें तब खुलीं जब चाचीजी की बेटी रानू दीदी की शादी में चाचीजी ने मुझे बताया कि इन बातों के पीछे बूआजी की मंशा क्या थी. बूआजी चाहती हैं कि जैसे पहले उनका इस घर में आनाजाना बना हुआ था जिस में आप छोटी बहू थीं और उन का एकाधिकार था, वैसे ही मेरी शादी के बाद भी रहे. यदि आप जेठानी की भूमिका अपना लेतीं तो आप में बड़प्पन की भावना घर करने लगती और यदि हमारा रिश्ता मजबूत होता तो हम एकदूसरे की पूरक बन जातीं. ऐसे में बूआजी की भूमिका धुंधली पड़ सकती थी. बूआजी ने मुझे इतना बरगलाया कि मैं ने नमन पर इस घर से अलग होने के लिए बेहद जोर डाला जिस के कारण वे बीमार रहने लगे. आज उन की यह स्थिति मेरे क्लेश का परिणाम है,’’ गौरी की आंखें पश्चात्ताप के आंसुओं से नम थीं.

गौरी की बातें सुन मिताली को नेपथ्य में बूआजी द्वारा कही बातें याद आ रही थीं, ‘क्या हो गया है आजकल की लड़कियों को. सोने जैसी जेठानी को छोड़ गौरी को अकेले गृहस्थी बसाने का शौक चर्राया है, तो जाने दे उसे. जब अकेले सारी गृहस्थी का बोझा पड़ेगा सिर पे, तो अक्ल ठिकाने आ जाएगी. चार दिन ठोकर खाएगी, तो खुद आएगी तुझ से माफी मांगने. इस वक्त जाने दे उसे. और सुन, तू बड़ी है, तो अपना बड़प्पन भी रखना, कोई जरूरत नहीं है गौरी से उस के अलग होने की वजह पूछने की.’

‘‘भाभी, मुझे माफ कर दीजिए, मेरी गलती थी कि मैं ने बूआजी की कही बातों पर विश्वास कर लिया और तब आप को कुछ भी नहीं बताया.’’

‘‘नहीं, गौरी, गलती मेरी भी थी. मैं भी तो बूआजी की बातों पर उतना ही भरोसा कर बैठी. पर अब मैं तुम्हारा धन्यवाद करना चाहती हूं कि तुम ने आगे बढ़ कर इस गलतफहमी को दूर करने की पहल की,’’ यह कहते हुए मिताली ने अपनी बांहें खोल दीं और गौरी को आलिंगनबद्ध करते हुए सारी गलतफहमी समाप्त कर दी.

कुछ देर बाद मिताली के गले लगी गौरी बुदबुदाई, ‘‘भाभी, जी करता है कि बूआजी के मुंह पर बताऊं कि उन की पोलपट्टी खुल चुकी है. पर कैसे? घर की बड़ीबूढ़ी महिला को आईना दिखाएं तो कैसे, हमारे संस्कार आड़े आ जाते हैं.’’

‘‘तुम ठीक कहती हो, गौरी. परंतु बूआजी को सचाई ज्ञात कराने से भी महत्त्वपूर्ण एक और बात है. वह यह है कि हम आइंदा कभी भी गलतफहमियों का शिकार बन अपने अनमोल रिश्तों का मोल न भुला बैठें.’’

देवरानीजेठानी का आपसी सौहार्द न केवल उस घर की नींव ठोस कर रहा था बल्कि उस परिवार के लिए सुख व प्रगति की राह प्रशस्त भी कर रहा था.

सालते क्षण : सड़ेगले रिश्तों के पसोपेश की उधेड़बुन भरी कहानी

पुराने सालते क्षण जीवनभर के लिए रह जाते हैं, खासकर तब, जब ऐसे पारिवारिक रिश्ते हों जो उन क्षणों को घटाने की जगह एक ऐसा क्षण और जोड़ दें जो ताउम्र कचोटता रहे. ऐसे ही सड़ेगले रिश्तों के पसोपेश की उधेड़बुन है यह कहानी 5 वर्षों के निर्वासन के बाद मैं फिर यहां आया हूं. सोचा था, यहां कभी नहीं आऊंगा लेकिन प्राचीन सालते क्षणों को नए परिवेश में देखने के मोह का मैं संवरण न कर पाया था. जीवन के हर निर्वासित क्षण में भी इस मोह की स्मृति मेरे मन के भीतर बनी रही थी और मैं इसी के उतारचढ़ाव संग घटताबढ़ता रहा था. फिर भी आज तक मैं यह न जान पाया कि यह मोह क्यों और किस के प्रति है? हां, एक नन्ही सी अनुभूति मेरे मन के भीतर अवश्य है जो मु झे बारबार यहां आने के लिए बाध्य करती रही है. यह अनुभूति मां के प्रति भी हो सकती है और अमृतसर की इस धरती के प्रति भी जिस की मिट्टी में लोटपोट कर मैं बढ़ा हुआ.

इसे ले कर मैं कभी एक मन नहीं हो पाया था. यदि हो भी पाता तो भी मु झे बारबार यहां आना पड़ता. बस से मैं बड़ी बदहवासी में उतरा. बदहवासी यहां आने की कि वे क्षण जिन के लिए मैं यहां आया हूं, अपने परिवेश में यदि ज्यों के त्यों हुए तो जो निरर्थकता मन के भीतर आएगी, उस का सामना कैसे कर पाऊंगा? बाद में हाथ में पकड़े ब्रीफकेस में सहेज कर रखी नोटों की गड्डी से मु झे बल मिलता है. थोड़ी देर के लिए मैं इस एहसास से मुक्त हो जाता हूं कि अब मैं मां का निखट्टू पुत्र नहीं हूं. निखट्टू मेरा उपनाम है. इस के साथ ही मु झे याद हो आते हैं मेरे दूसरे उपनाम भी. सीधा और भोला होने के वश रखा गया ‘भलोल’ उपनाम. सदा नाक बहती रहने के वश रखा ‘दोमुंही’ उपनाम. इन उपनामों से बारबार चिढ़ाने से मेरा जो रुदन निकलता तो मां से ले कर छोटे भाई तक को गली में लड़ती कौशल्या की आवाज का आभास होता था. 9वीं में मेरे कौशल्या उपनाम की बड़ी चर्चा थी.

मेरे मन में यह प्रश्न उस समय भी था और आज भी है कि अगर मैं भलोल हूं या मेरी नाक बहती है तो इस में मैं कहां दोषी हूं? और यह भी कि, मेरी दुर्दशा करने वाले मेरे अपने कहां हुए? अब सोचता हूं मेरा इन के साथ केवल रोटीकपड़े तक का संबंध रहा है. वह भी इस घर में पैदा हुआ हूं शायद इसलिए. मु झे पता ही नहीं चला कि कब संगम सिनेमा से गुजर कर पिंगलबाड़े तक पहुंच गया था. पिंगलबाड़े से मुड़ने पर पहले तहसील आती है. छुट्टी के रोज भी यहां भीड़ रहती है. जमघट लगा रहता है. मुकदमे ही मुकदमे. मुकदमे अपनों पर जमीनों के लिए. कत्लों के मुकदमे. तारतार होते रिश्ते. बेहिसाब दुश्मनी, कोई अंत नहीं. मैं जल्दी से आगे बढ़ जाता हूं. आगे वह क्रिकेट ग्राउंड आता है जिस पर मैं बचपन में अपने साथियों संग क्रिकेट खेला करता था. मां कहती, क्रिकेट ने मेरी पढ़ाई ले ली.

मैं कैसे कहता कि बड़े भाई की नईनई शादी, एक ही कमरे में परदे लगा कर उन के सोने का बंदोबस्त, रातभर चारपाई की चरमराहट, परदे के पीछे के दृश्यों की परिकल्पनाओं ने मु झे पढ़ने नहीं दिया था. पढ़ने के लिए मैं मौडल टाउन चाचाजी के पास और चालीस कुओं पर भी जाता पर परदे के पीछे की परिकल्पनाएं मेरा पीछा नहीं छोड़ती थीं. धीरेधीरे मैं पढ़ने में खंडित होता गया था. परीक्षा परिणाम आया तो मैं फेल था. पढ़ने के लिए जब फिर दाखिला भरा तो बड़े भाई का मत बड़ा साफ था, ‘तुम्हें अब की बार याद रखना होगा. व्यक्ति कारखाने में पैसा तब लगाता है जब उसे लाभ दिखाई दे.’ विडंबना देखें, जब यही बात राजू भाई ने इन्हें कही थी तो सब के सम झाने और मनाने पर भी पढ़ाई छोड़ दी थी. राजू भाई केवल यही चाहते थे कि कुक्कु का चक्कर छोड़ कर अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे. आज वही शब्द कहने से वे बिलकुल नहीं हिचकचाए थे. राजू भाई ठीक कहते थे, जिस बात का विरोध आज हम अपनी जान दे कर करते हैं, कोई समय आता है हम परिस्थितियों द्वारा इतने असहाय होते हैं कि उसी बात को बिना शर्त स्वीकार कर लेते हैं. उस समय उन की यह बात सम झ में नहीं आई थी.

आज समझ में आती है. मैं ने भी पढ़ाई छोड़ दी थी. इसलिए नहीं कि मु झे उन की बात सम झ में आ गई थी, बल्कि इसलिए कि बड़े भाई के शब्द मु झ से सहन नहीं हुए थे. बड़े भाई को भी शायद राजू भाई के यही शब्द सहन नहीं हुए होंगे. हम दोनों एकदूसरे की बात सहन कर लेते तो शायद हालात दूसरे होते. देखता हूं क्रिकेट ग्राउंड भी अब वहां नहीं है. सोचा था, जब मैं वहां पहुंचूंगा तो बच्चे पहले की तरह खेलते मिलेंगे. उन को खेलते देख मैं अपने बचपन के दिनों को याद कर लूंगा. वहां एक सुंदर बंगला हुआ करता था. और भी कई सुंदर बंगले बन गए थे. मैं किसी को कुछ कह नहीं सकता था. बच्चों के उल्लास तो आएदिन खत्म किए जाते हैं. बड़े भारी मन से मैं अपनी गली की ओर बढ़ता हूं. गली के मोड़ तक आतेआते मेरे पांव ढीले पड़ जाते हैं. आगे बढ़ने की इच्छा नहीं होती. गली के लोग मु झे निखट्टू नाम से जानते हैं. मु झे देखते ही आग की तरह यह खबर फैल जाएगी. न जाने समय के कौन से क्षणों में मेरा नाम निखट्टू पड़ा.

इस नाम से पीछा छुड़ाने के लिए मैंने मोटर मैकेनिकी, कुलीगीरी, रिक्शा चलाने से ले कर होटल में बरतन मांजने तक के काम किए. पर इस निखट्टू नाम से पीछा नहीं छूटा, चाहे तन के सुंदर कपड़े और नोटों से भरा ब्रीफकेस मु झे एहसास दिलाता है कि अब मैं मां का निखट्टू पुत्र नहीं रहा हूं. जानता हूं मैं मन की हीनभावना से छला गया हूं. यही भावना मु झे बल देती है. गली में झांक कर देखता हूं कि जिस बात की अपेक्षा थी वैसा कुछ नहीं था. गली में मु झे कोई दिखाई नहीं दिया था. सबकुछ बदल गया था. महाजनों का घर और बड़ा हो गया था. पहले हौजरी की एक मशीन हुआ करती थी, अब बहुत सी मशीनें लग गई हैं. गली भी पक्की हो गई है. मंसो की भैंसों के कारण जहां गंदगी फैली रहती थी, मु झे गली में कहीं भैंस दिखाई नहीं दी थी. घर के समीप पहुंचा तो मैं चकरा गया. हमारा घर कहां गया? उस की जगह खूबसूरत दोमंजिला मकान खड़ा था. मैं ने इधरउधर देखा कि कोई पहचान वाला मिले तो पूछूं कि दिनेश साहनी का घर यही है? एकाएक ऊपर लिखे ‘साहनी विला’ पर मेरी नजर पड़ी. दरवाजे पर एक ओर बड़े भाई के नाम की तख्ती भी दिखाई दे गई. भाई के नाम के नीचे लगी घंटी दबाने पर किसी अंजान महिला ने दरवाजा खोला. वह कपड़ों से नौकरानी लग रही थी. मु झे देख कर शायद वह यह पूछती कि आप को किस से मिलना है कि इतने में ‘‘कौन है?’’ कहती हुई मां दरवाजे तक चली आईं. मु झे देख कर आश्चर्य के भाव उन के चेहरे पर आए, फिर सामान्य हो गईं. मुख से निखट्टू निकलतेनिकलते रह गया पर निकला नहीं.

मां को देख कर नौकरानी सी लगने वाली भीतर चली गई. मां ने दरवाजा पूरा खोल दिया. मैं उस को प्रणाम करने के बाद बड़े अनमने भाव से भीतर चला आया. कदम रखते ही आंखें चुंधिया गईं. पूरे कमरे में ईरानी कालीन, एक ओर बड़ी सी डाइनिंग टेबल, दरवाजे के पास चमकदार फ्रिज, एक तरफ सोफा व बैड, गद्देदार कुरसियां और टीवी. टीवी के पीछे वाली दीवार पर मोतियों से बनाई गई एक औरत की आकृति फ्रेम की गई थी. मैं आगे नहीं बढ़ पाया. न ही मां ने मु झे बढ़ने के लिए कहा. बैठने के लिए भी नहीं कहा. मैं ने महसूस किया कि मु झे बैठाने से ज्यादा उस को यह बताने की चिंता है कि सारा सामान जिसे देख कर हैरान हूं, कहां से और कैसे आया है? मां बोली, ‘‘ये सारा सामान दिनेश ने फौरेन से मंगवाया है. यह ईरानी कालीन अभी पिछले महीने ही आया है. टीवी और फ्रिज बहुत पहले आ गया था.

पूरे 10 लाख रुपए लगे हैं.’’ मैं ने महसूस किया, मेरे ब्रीफकेस में पड़ी रकम एकदम छोटी है. जो रकम मां ने बताई थी, उस से दोगुनी छोटी. इन 5 वर्षों में जो क्षण मु झे सालते रहे हैं वे और बड़े हो गए हैं. जाने कहां से पीड़ा की एक तीखी अनुभूति भीतर से उठी और भीतर तक चीरती चली गई. पीड़ा इसलिए कि निखट्टू उपनाम से मुक्ति पाने की जो इच्छा ले कर यहां आया था, वह जाती रही. बैठक और ड्योढ़ी मिला कर ड्राइंगरूम में इतनी कीमत की चीजें हैं तो भीतर के कमरों में जाने क्याक्या देखने को मिले. मां ने बताया, ‘‘अपनी पत्नी के सारे गहने बेच कर जिस होटल में तुम बरतन मांजते थे उसी होटल को खरीद लिया था. यह उसी की करामात है कि हमें कोई कमी नहीं है.’’ ऐसे कहा जैसे अब भी उसी होटल में बरतन मांजता होऊं. ‘‘गांव की जमीन उस ने छेड़ी तक नहीं. कहता था जिस में सब हिस्सेदार हों उस में वह कुछ नहीं करेगा.’’ मां को भय हुआ कि कहीं मैं होटल में अपने हिस्से का दावा न करने लगूं. इसलिए साफ बात करना ठीक सम झी. मैं कहने को हुआ कि इस मकान में भी तो मेरा हिस्सा है, पर चुप रहा. बाद में मां ने महसूस किया कि उन्होंने मु झे बैठने को नहीं कहा. ‘‘बूट उतार कर सोफे पर बैठ जाओ.’’ यह सुन कर मैं संकुचित हो उठा कि उस का अपना बेटा, अपने भाई की ईरानी कालीन पर बूट पहन कर बैठ नहीं सकता.

कालीन पर तो बूट पहन कर ही बैठा जाता है. मैं ने यह भी महसूस किया कि घर छोड़ते समय जिस तरह मु झे ले कर मां भावशून्य थी उस में और वृद्धि हो गई है. न मैं बैठा और न ही मैं ने बूट उतारे. कहा, ‘‘चलूंगा मां. देखने आया था कि शायद तुम्हें मेरा अभाव खटकता हो. पर नहीं, यहां सबकुछ उलट है. तुम्हें मेरा अभाव नहीं था बल्कि मु झे तुम्हारा अभाव था. कितना विलक्षण है कि बेटे को मां का अभाव है पर मां को नहीं.’’ वहां से निकलने के बाद भी पीछे से मां की आवाज आती रही, ‘‘कुछ खातेपीते जाओ. भाई से नहीं मिलोगे? होटल नहीं देखोगे?’’ मु झे मां की आवाज किसी कुएं से आती सुनाई दी. मां, दिनेश भाई के साथ इसलिए है कि दोनों एक ही वृत्ति के हैं. बेईमान और धोखेबाज. मैं ने तो यह महसूस किया कि अब तक के सालते क्षणों में कुछ और क्षण समावेश कर गए हैं. और यह भी कि क्षण यदि खुद में बदल भी जाएं तो निरथर्कता और बढ़ जाती है जो आदमी को जीवनभर सालती है.

एक और कटौती : इंटरनेट से जुड़ते परिवार के माहौल की दिलचस्प कहानी

दिन में कईकई बार इंटरनैट कनैक्शन जब डाउन होने लगता, तो मुझे परदेस गए प्रीतम से भी ज्यादा इंटरनैट का बिछोह सताने लगता और सताता भी क्यों न, इंटरनैट के बिना पूरे घर की हर चीज ही बेकार है, जिंदगी भी बेकार हो जाती है.

मैं ने गैस पर दूध का भगोना रखा. डबलरोटी की 2 स्लाइस टोस्टर में डाली ही थीं कि व्हाट्सऐप चैट की घंटी बजने लगी और एकएक कर के हम 4 सहेलियों की बातें शुरू हो गईं. एक ने अपने रोमांस के नए किस्से को शुरू ही किया था.

मनपसंद गौसिप सुन कर मैं फौरन गैस बंद कर के सोफे पर जा बैठी और चारू, रमा, तिस्ता की बातों में डूबने लगी. अभी बात आधी भी खत्म नहीं हुई थी कि मेरा इंटरनैट कनैक्शन चला गया. स्क्रीन फ्रीज हो गई.

हाय रे, इंटरनैट चला गया. नैट के जाते ही हमारा उल्लास भी तिरोहित हो गया. काफी दिनों बाद तो ग्रुप चैट हो रही थी और उसे में पूरा सुनने की तमन्ना दिल में ही रह गई. अब वे चारों अपनीअपनी बातें कह रही होंगी और मैं घर में ही फिर रही थी.

पिछले महीने ओटीटी पर जो फिल्में आई थीं, पूरा परिवार अपनेअपने मोबाइलों पर घंटों देखता रहा था, सो, नैट का बैलेंस खत्म हो गया होगा. जिस समय हमारा मूड होता, तभी इंटरनैट बंद हो जाता. इंटरनैट वाले न दिन देखते, न रात, न घंटे, न मिनट. पैसा खत्म, बात आधीपूरीकटी.

पिछली गरमी की एकएक घड़ी याद दिलाती है. इंटरनैट चले जाने से व्हाट्सऐप भी बंद हो गया और मेल आने भी बंद हो गए. बाहर निकलना मुश्किल होता.

प्रीतम से भी ज्यादा इंटरनैट का बिछोह सताने लगा. प्रीतम विदेश गए हुए थे. वह पिछले दिन आंधी आई थी और न जाने कहांकहां के तार टूट गए थे. इंटरनैट चला गया था. फोन करने की हिम्मत नहीं रही थी क्योंकि इंटरनेशनल कौल तो बहुत महंगी होती है. बेटी गुस्से में गुसलखाने में नहाने घुस गई. मैं अपने रोज के कामकाज में लग गई थी.

इतनी देर में 6 वर्षीय चिंटू बड़बड़ करता हुआ मेरे पास आया, ‘‘मां, स्कूल टीचर ने सारा होमवर्क व्हाट्सऐप पर भेजा है पर नैट नहीं चल रहा. सो, कैसे देखूं.”

कोई चारा न देख कर पता किया कि उस के किस क्लासफ्रैंड के पास नैट होगा. अब उबर मंगा कर उस के घर जाना पड़ेगा, वहां से सारा होमवर्क पैनड्राइव में लेना होगा और रास्ते में साइबर कैफे से प्रिंट लेना होगा क्योंकि चिंटू जी का होमवर्क जो है. हालांकि मैं ने कहा भी कि शाम तक नैट चालू हो जाएगा लेकिन वह जिद करने लगा. फिर लंबी कवायद की.

8 बजने वाले थे रात को. तो फिर वही बात, ओटीटी पर तो कुछ देख ही नहीं सकते. मोबाइल में डेटा क्यों नहीं लिया, यह झुनझुनाते हुए एक किताब उठा कर पढऩे की कोशिश करने लगी.

अगले दिन बच्चों के स्कूल चले जाने के बाद मैं ने फ्रिज खोल कर देखा कि खाने में क्या है. सुबह 6 बजे के बाद बिग बास्केट शुरू होती थी और मैं उसी से ग्रौसरी खरीदती थी. अभी 9 बजने में भी 5 मिनट थे. अब मुझे औलाइन और्डर करना था या तो फोन करना था या फिर जा कर खरीदारी करनी थी, क्योंकि नैट नहीं चल रहा था.

लो, हो गई छुट्टी, अब क्या होगा. कल की ग्रौसरी तो सारी खत्म हो गई. अभी तो खाना बनाना है और पीने के लिए सारा दिन पानी चाहिए. लिहाजा, बास्केट लाई, स्टोर गई और 3 थैले भर कर गरमी में ढोतेढोते मैं हांफ गई और पसीनापसीना हो गई. पर क्या किया जा सकता था. क्या करूं समझ नहीं आ रहा.

रहरह कर खयाल आ रहा था कि किट्टी ग्रुप में क्याक्या बातें हो रही होंगी. एक को फोन किया तो उस ने काट दिया कि वह वीडियो चैट पर लगी है.

दोपहर करीब एक बजे खाना खाने के बाद बदन अलसाया सा हो रहा था. सोचा, थोड़ी देर लेट ही लूं. झपकी आ जाएगी तो ठीक रहेगा. पर अब नैट देखतेदेखते सोने की आदत हो गई है.

जैसे ही मैं ने बिस्तर छोड़ा कि दनदन करता हुआ पंखा चल पड़ा. ऐसा गुस्सा आया कि पंखे पर एक डंडा मार दूं. पर नुकसान तो अपना ही होगा, यह सोच कर रुक गई. यह भी भला कोई तुक हुई कि मेरा मूड बिगाड़ कर बिजली ने अपना मूड ठीक कर लिया. खैर, कई दिनों से अपनी जो कहानी अधूरी पड़ी थी, उसे ही पूरा करने बैठ गई.

शाम को 7 बजे सारे कामों से फ्री हो कर मैं ने दोनों बच्चों को पढऩे के लिए बैठाया. मेरे बैठे बिना तो बच्चे पढ़ते ही नहीं हैं और चूंकि परीक्षाएं चल रही थीं, इसलिए उन को पढ़ाना भी जरूरी था. मैं ने उन्हें पढ़ाना शुरू किया. अभी एक पाठ ही खत्म हुआ था कि दोनों तरहतरह के सवाल पूछने लगे. ‘‘ममी, भारत का लैंड मास कितना है?” ‘‘ममी, डीएनए का फुलफौर्म क्या है?’’ अब गूगल होता तो जवाब दे पाती. इंटरनैट नहीं, तो गूगल गुरु की छुट्टी पर पुरानी किताबों से ढूंढढांढ कर जवाब लिखाए.

मैं खीझ उठी थी और बच्चे पढ़ाई से छुट्टी मिल जाने से खुश हो कर चिल्लाने लगे, ‘‘मां, नैट गया. अब हम नहीं पढ़ सकते.’’ यह  कह कर दोनों उस बिस्तर पर चढ़ कर मस्ती करने लगे.

नैट न आने का क्रोध अब मैं ने शोर करते बच्चों पर निकाला, ‘‘इतनी देर से तुम किताब पढऩे क्यों नहीं बैठे. जब तक डांट नहीं पड़ती, सुनते ही नहीं हो. 2 दिन नैट के बिना नहीं रह सकते. परीक्षा के समय में भी तुम्हें अपनी पढ़ाई का ध्यान नहीं रहता.’’ और एकएक चपत मैं ने उन दोनों को लगा दी.

अब दोनों का बैंड पूरे स्वर में बज रहा था. दोनों चुप नहीं हो रहे थे. मैं ने ही फिर धैर्य का मुखौटा चढ़ाया और बच्चों को पुचकार कर स्टोर से निकाल कर किताबें पढऩे को बैठाया.

उसी शाम को 4 पड़ोसिनें आ गईं. आते ही उन्होंने वाईफाई का पासवर्ड मांगा.

मेरा मुंह उतर गया. “नैट चल नहीं रहा,’’ मैं ने धीरे से कहा यानी किसी का क्या कर दिया हो. अब स्वीगी से कुछ और्डर करना तो संभव ही था. गरमी में किचन में घुसना पड़ा, बैठेबैठे और्डर दे डाला, ‘‘सुम्मी, 4 गिलास ठंडी कौफी तो बना कर भेजना.’’

सुम्मी का जवाब आया, ‘‘मम्मी, दूध तो खत्म हो गया.’’ नौकर को मैं ने डेरी पर दूध लाने को भेज दिया था. आधा घंटा हो गया था, आता ही होगा, यह सोचते हुए मैं ने कोल्ड कौफी बना कर दी. पड़ोसिनें तो कोल्ड हो गईं पर मैं इंटरनैट न होने की वजह से हौट हो रही थी.

सब ने कौफी पी, किसी ने यह नहीं कहा कि कौफी कैसी बनी है. उन का चोरीछिपे मुंह बनाना मुझ से छिपा नहीं रहा. वे सोच रही होंगी कि कैसी फूहड़ है, जिस का इंटरनैट तक काम नहीं करता.

अब मुझे नौकर का ध्यान आया, जिसे बाजार गए एक घंटा हो गया था और अभी तक दूध ले कर नहीं लौटा था. बहुत देर बाद जब वह आया तो अपनी उतरी हुई सूरत ले कर. बड़ी भीड़भाड़ में धक्के खा कर आ रहा हूं. स्टोर में सिस्टम खराब था, इसलिए बिल्डिंग में लाइन बहुत लंबी थी. वे लोग मैनुअल बिल काट रहे थे और उस में बहुत समय लग रहा था. इस वजह से देरी हो गई.

रविवार का दिन था. उस दिन सब आराम से उठते हैं और आराम से ही नहाते हैं. पूरी सुबह व्हाट्सऐप मैसेजों को देखने में लगाई जाती है. अभी खोला ही था कि इंटरनैट गायब. लगता है, शहर में कहीं कोई घटना घट गई है और सरकार ने इंटरनैट पर पाबंदी लगा दी. फोन का सिग्नल भी कभी आता, कभी जाता. दोस्तों से मुलाकात तय थी पर अब कंफर्म कैसे किया जाए.

हम ने सुना था कि नैट पर एक अच्छा धारावाहिक आ रहा है. खाना बना कर उसे मेज पर रख  पूरा परिवार उसे देखने में उत्सुक था. फिल्म में कोई कामुक सीन आ रहा था और पतिदेव आंख गड़ाए देख रहे थे कि इंटरनैट गायब. बच्चों को तो पहले ही भगा दिया गया था. अब हम दोनों एकदूसरे का मुंह ताक रहे थे.

फोन करने पर पता चला कि आंधी के कारण कहींकहीं तार टूट गए हैं, 2-4 घंटे लग सकते थे.

एक दिन सुबह से ही इन्होंने कह दिया था, ‘‘मेरे दफ्तर के 4 अफसर दिल्ली से आए हैं, वे शाम को यहीं खाना खाएंगे. जरा खाना अच्छा बनाना और घर भी ठीक तरह संवार लेना.’’

मैं ने बड़े यत्न से 4 सब्जियां, दही की गुझिया, मूंग की दाल का हलवा और शाही पुलाव बनाया. मैं बनाती जा रही थी और सोचती जा रही थी कि आज खाने की बहुत तारीफ होगी. शाम को साढ़े 6 बजे तक सारे काम से फ्री हो कर मैं खुद भी तैयार हो गई. फिर नौकर के संग लग कर मेज भी बढिय़ा सजा दी.

7 बजे के करीब ये आ गए. तभी मेहमानों का फोन आया कि घर का पता दो और लोकेशन दो. इंटरनैट नहीं चल रहा था. मेहमान भटक रहे थे. पतिदेव उन्हें डायरैक्शन समझाने की काशिश में थे. पता चला कि वे कीर्तिनगर की जगह जानकीपुरम में हमारा घर ढूंढ रहे थे. 3 घंटे बाद मेहमान आए. सारा खाना ठंडा हो गया था. उसे फिर गरम किया गया पर अब वह स्वाद कहां.

खाना खातेखाते ही सब को नींद आने लगी थी. सारा इंप्रैशन जमाने का कार्यक्रम चौपट हो गया.

सब इस तरह खा रहे थे मानो फ्लाइट पकडऩी है. न कुछ गपशप और न हंसी के ठहाके ही गूंज रहे थे. सब इंटरनैट को ही कोस रहे थे. मेरे सोचे हुए इंद्रधनुषी रंग भी बिखर गए थे, खैर, जैसेतैसे खाना खत्म हुआ और मेहमान भागे.

जैसेजैसे भगवा गैंगों की हरकतें बढ़ रही थीं, इंटरनैट की कटौती ज्यादा होने लगी. वाईफाई भी नहीं चल रहा था. कितने ही स्मार्टफैन, लाइटें अब उठ कर खुद बंद करनी पड़ती थीं. एक दिन एक आदमी आया और उस ने कहा कि आप ने 80 जीवी का पैकेज लिया था पर यूज 120 जीवी कर लिया. एडीशनल पैसे दीजिए. क्या करती, अतिरिक्त पैसे देने पड़े.

एक दिन शाम को ये आए, एक पैकेट मुझे पकड़ा दिया. मैं ने पूछा, ‘‘क्या है इस में?’’

मुसकराते हुए ये बोले, ‘‘पोस्टकार्ड और लिफाफे. इंटरनैट का भरोसा नहीं, इसलिए अब फिर से पक्की बात पत्र लिख कर ही किया करो.’’
मैं ने सोचा, लो फिर आ गए 1980 के जमाने में.

जैसेजैसे गरमी बढ़ रही थी, बिजली की कटौती ज्यादा होती चली जा रही थी.

मिट्टी का तेल व फ्लिट बाजार में आसानी से मिलता नहीं था. हम मन में किसी तरह संतोष कर मिलने वाली रोशनी और पंखों का सदुपयोग कर रहे थे कि एक भरी दोपहर में बिजली विभाग की गाड़ी हमारे घर के दरवाजे पर आ कर रुकी.

उस में से 3 आदमी उतरे. उस दिन मेरे पति घर पर ही थे. एक आदमी ने कहा, ‘‘आप को 30 यूनिट का कोटा दिया गया था. पर आप ने इस महीने में 70 यूनिट बिजली खर्च की है. इसलिए हम कनैक्शन काट रहे हैं.’’

यह कहते हुए उन्होंने खच्च से हमें हमारे प्राणों से जुदा कर दिया. ये हक्केबक्के से देखते रहे. मैं घर में पड़ी एक बोतल मिट्टी के तेल को प्रश्नसूचक मुद्रा में देखने लगी. इतने में ये शर्ट पहन कर आए.

मैं ने पूछा, ‘‘कहां चल दिए?’’

हाथ में डब्बा ले मुसकराते हुए ये बोले, ‘‘मिट्टी का तेल लाने.’’

इन शब्दों के साथ ही उन गमगीन क्षणों में भी हम दोनों जोरों से हंस पड़े.

आश्रम : अधर्म और प्रताड़ना के अड्डे

हमारा देश प्रारंभ से ही धर्मभीरु रहा है. जहां तक धर्म के सकारात्मक ऊर्जा का सवाल है उस से परहेज नहीं, मगर धर्म की नकारात्मकता और उस के पीछे के प्रोपगंडे के कारण जाने कितने लोग जिंदगीभर दर्द और यातना सहते रहते हैं और जब यह पीड़ा असहनीय हो जाती है तो लोग आत्महत्या कर लेते हैं.

ऐसा ही वाकेआ उत्तर प्रदेश के आगरा जिले में घटित हुआ है जहां 2 सगी बहनों ने अंतर्राष्ट्रीय कह कर अपनी पीठ थपथपाने वाली ब्रह्माकुमारी संस्था के आश्रम में पंखे से लटक कर आत्महत्या कर ली और जो चिट्ठी लिखी, उससे कई चेहरे धीरेधीरे बेनकाब हो रहे हैं.

चिट्ठी को पढ़कर यह प्रतीत होता है कि लंबे समय से आर्थिक और मानसिक शोषण से परेशान होकर दोनों बहनों ने आत्महत्या कर ली. पहलेपहल उन्हें और परिवार को सब्जबाग दिखाए गए मगर जब सचाई सामने आई तो दोनों बहनों के सामने संभवतया आत्महत्या के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा था.

दरअसल, यह आश्रम पद्धति वर्तमान में हमारे देश में एक ऐसा नासूर सा बन गई है. आश्रम यातना और शोषण का अड्डा हो गए हैं. मगर, धर्म के नाम पर सबकुछ चलता रहता है और शासनप्रशासन कोई कार्रवाई नहीं करता या नहीं कर पाता.

आइए आज आपको उक्त सच्चे घटनाक्रम से रूबरू कराते हैं. उत्तर प्रदेश में आगरा के जगनेर थाना क्षेत्र स्थित ब्रह्माकुमारी आश्रम में रहने वाली 2 सगी बहनों के आत्महत्या करने और वहीं मिले उन के सुसाइड नोट के बाद आश्रम सवालों के घेरे में आ गया है.

आश्रम में रहने वाली 2 सगी बहनों एकता (37 वर्ष) और शिखा (34) ने 10 नवंबर, 2023, दिन शुक्रवार को फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली. उनके सुसाइड नोट ने आश्रम से जुड़ी एक महिला समेत 4 लोगों का कच्चाचिट्ठा खोला है.

बहनों ने आश्रम में पनपे इस आपराधिक रैकेट द्वारा आर्थिक गड़बड़झाले से लेकर अन्य अनैतिक गतिविधियों में संलग्न होने का खुलासा किया है. सुसाइड नोट में प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यानाथ को संबोधित करते हुए पत्र में उन दोनों बहनों ने लिखा कि आरोपियों को आसाराम बापू की तरह ही आजीवन कारावास दिया जाए. अब सुसाइड नोट के तथ्यों के आधार पर पुलिस मामले की जांच कर रही है.

एकता और शिखा ने आत्महत्या से पहले 4 पेज का सुसाइड नोट लिखा. शिखा ने एक पेज में ही अपनी पूरी बात लिख दीजबकि एकता ने 3 पेज का सुसाइड नोट लिखा.शिखा ने लिखा,“ ‘हम दोनों बहनें एक वर्ष से परेशान थीं. हमारी मौत के लिए नीरज सिंघल, धौलपुर के ताराचंद, नीरज के पिता और ग्वालियर आश्रम में रहने वाली एक महिला जिम्मेदार हैं.”’ शिखा ने अपने सुसाइड नोट में मौत के जिम्मेदारों पर कार्रवाई की मांग की है.

एकता ने सुसाइड नोट में पूरे मामले का परदाफाश किया है. इसमें उस ने लिखा है कि नीरज ने उनके साथ सैंटर में रहने का आश्वासन दिया था. सैंटर बनने के बाद उसने बात करना बंद कर दिया. एक साल से वे बहनें रोती रहीं, लेकिन उसने नहीं सुनी. उसका साथ उसके पिता, ग्वालियर आश्रम रहने वाली महिला और ताराचंद ने दिया. यही नहीं, 15 साल तक साथ रहने के बाद भी वह ग्वालियर वाली महिला से संबंध बनाता रहा. इन चारों ने उन के साथ गद्दारी की.

सुसाइड नोट में लिखा है कि उनके पिता ने 7 लाख रुपए प्लौट के लिए दिए थे. ये रुपए उन्होंने आश्रम से जुड़े व्यक्ति को दिए थे. इस घटना के बाद पुलिस अधिकारी सक्रिय हो गए हैं और पूछताछ करते हुए संदिग्धों की गिरफ्तारी की जा रही है. इस घटनाक्रम से यह सवाल एक बार फिर समाज के सामने है कि चाहे ब्रह्माकुमारी आश्रम हो या फिर बहुत सारे आश्रम, जो हमारे देश में बहुत ही तेजी से खुलते चले जा रहे हैं, सभी में भीतर ही भीतर क्या पकता रहता है.

शासन, प्रशासन और समाज का इन आंसुओं पर कोई अंकुश नहीं होने के कारण एकता और शिखा जैसी जाने कितनी लड़कियां, महिलाएं शोषण व अत्याचार की शिकार होती हैं. सिर्फ सफेद कपड़े या भगवा पहन लेने से ये लोग विशिष्ट हो जाते हैं और कानून से ऊपर होकर कानून व नैतिकता के खिलाफ काम करना अपना अधिकार समझ लेते हैं. आज समाज में जागरूकता की आवश्यकता है कि कोई भी आश्रम गैरजिम्मेदाराना व असामाजिक कार्य न कर पाए.

जिंदगी धूप, तुम घना साया : भाग 3

आखिरकार रिश्ते ने दम तोड़ दिया. किसी भी औरत को दूसरी औरत से रिश्ता कभी नहीं सुहाता है. तलाक तक बात पहुंची और हो भी गया. लव मैरिज का यह हश्र कई सारे बीज बो गया. अपनी बेटी को ले कर अनुराधा स्कूल के पास की कालोनी में रहने लगी. बलवंत महल्ले को छोड़ पास ही लगे पुश्तैनी गांव में चले गए और वहीं से अपडाउन प्रारंभ कर दिया. यह सब एक यौवन के शिखर पर पहुंचे पेड़ के कट जाने सा था.

पेड़ कट गया, ठूंठ बचा रह गया. जिंदगी धूप थी, घना साया दोनों के लिए हट गया था. यह सब तब महसूस होता है जब साया वास्तव में हटता है. जब तक दुख का एहसास ही न हो, सुख का कोई मूल्य नहीं जाना जा सकता. इसलिए सुख को ही कई बार दुख मानने की भारी भूल हो जाती है. साए में ही धूप महसूस करने वालों को समय परखता है और एक धोबीपछाड़ में ही नानी याद आ जाती है.

बिखराव के बाद अहं मन को संभालने लगता है और एहसास कराता रहता है सामने वाले की बुराई और समझाता है, अच्छा हुआ जो भी हुआ. रोजरोज की चिकचिक से तो बेहतर है. कोई भी काम करते हैं तो उस की कमियां सामने आती हैं और अहं और पुष्ट हो जाता है. अनुराधा और बलंवत के साथ यही कुछ हो रहा था. लगभग 2 साल साथ गुजारे और 4 वर्ष का कालेज का साथ, कुल मिला कर एक व्यकित के अंदर दूसरे के समा जाने का पूरा समय. अभी ऐसे समय में सिर्फ सामने वाले की कमियां, बुराइयां ही दिखाई देती हैं जैसा कि प्रेम के प्रारंभिक वर्षों में सामने वाले की सिर्फ अच्छाइयां दिखाई देती थीं. साथ रहने से कितनाकुछ बदल गया.

दोनों का स्कूल एक ही था, तो गाहेबगाहे नजरें टकरा जातीं और तुरंत एक ने दूसरे को नहीं देखा का आभास कराते. सहकर्मी भी अकसर उन से कहते कि “छोड़ो भई, यह इगो. तुम जोड़े में ही अच्छे लगते हो.” लेकिन दोनों टाल कर रह जाते. अनुराधा की खास सहेली कृष्णा ने उसे उदास देख कर कहा था, “अनु, तुम दोनों की वजह से तो प्यार जिंदा था इस शहर में. तुम ही अलग हो गए, तो प्यार ही बदनाम हो गया. कोई मांबाप अब तो इस के लिए कतई हामी नहीं भरेंगे.” उस ने आगे बोलना जारी रखा जैसे दिल के अरमान निकाल रही हो, “वैसे भी, कई लड़कियों ने हिम्मत ही नहीं की और जहां उन्हे बांध दिया वहां बंध गईं. चाहे उस में किसी के लिए अरमान हों तुम ने हिम्मत की और कईयों के लिए प्रेरणा बन गईं. लेकिन अब जैसे ही यह सब हुआ, तो… हमारे मांबाप वाली पीढ़ी बहुत खुश है. उन सब को कहने को हो गया.” अनुराधा ने उस समय कृष्णा की बात को हलके से लिया और अपनी कक्षा में चली गई. शाम को बेटी के साथ खेलतेखेलते उसे अचानक कृष्णा की बात याद आई और उस की बातें उसे किसी सयाने की सीख जैसी लगीं. वह सोचने लगी कि उस ने कभी इस तरह से सोचा ही नहीं, मैं, मेरा तक ही रही. कृष्णा ने उस की सोच को परिपक्व किया जबकि वह अविवाहित और उम्र में 4 साल छोटी थी. जिंदगी की कड़ी धूप हमें दुख तो देती है लेकिन सिखाती भी है. घना साया हमें सुख तो देता है लेकिन परिपक्व नहीं बनाता है.

बलवंत भी उतना ही अनमना था जितना अनुराधा. बलवंत के अंदर भी संवेदनशीलता थी और कुछ समय अकेले गुजारने के बाद उसे बेटी की याद सताती तो कभी किसी काम को करते हुए अनुराधा याद आ जाती. कभी किसी जोड़े को जाते हुए देखता तो उस के मन में भी कसक उठती, पेट में अजीब सा महसूस होता, तमाम पुरानी बातों को त्याग कर उसे अनुराधा का मासूम चेहरा याद आ जाता और ढ़ेर सारे अच्छे, रूमानी पल.

दोनों तरफ से अहं पिघलना शुरू हो चुका था और मन अब स्वतंत्र होने लगा था. यह शुरुआत थी. शुरुआत में अहं अपना पूरा जोर लगाता और फिर मन पर काबिज हो जाता है. लेकिन आखिरकार समय जख्मों को सिलता जाता है और उन्हें धुंधला करता जाता है. बलवंत, अनुराधा इसी दौर में थे जब उन के अहं पिघल रहे थे. उस दिन अनुराधा घरबाहर के काम और बेटी की देखरेख के कारण अतिकार्य की वजह से स्कूल में जाते हुए गिर पड़ी और बेहोश हो गई. साथियों द्वारा पास के अस्पताल ले जाया गया. बलवंत उस दिन देरी से आया था और जैसे ही पता चला, अस्पताल पहुंचा. तब तक अनुराधा होश में थी. दोनों की नजरें टकराईं और अनायास दोनों के मुंह से एकसाथ निकला, “सौरी.” आसपास खड़े सहकर्मियों के चेहरों पर मुसकान थी. पास ही खड़ी कृष्णा ने धीरे से गुनगुनाया, ‘जिंदगी धूप, तुम घना साया…’  बलवंत के हाथ में अनुराधा का हाथ था. कृष्णा के स्वर और सुरीले लग रहे थे.

कटा हुआ पेड़ का ठूंठ बरसात के बाद फिर से फूट पड़ा, किसलय थे शाखों पर. फिर से छाया देने के लिए तैयार हो रहा था पेड़. लेकिन इस बार गहरी और परिपक्व जड़ें उस की संगी थीं. आसपास उग रही खरपतवार को स्वीकार करते हुए उस ने ठाना था कि आगे बढ़ना ही जिंदगी है.

अचानक अनुराधा यादों से सजग हो उठी, उस के सामने से याद के रूप में उतारचढ़ाव गुजर गए. गोद में खेल रहे पोते को देखती जा रही थी, उस में बलवंत की छाया दिखाई दे रही थी.

मेरी खातिर : भाग 3

आज अनिका स्कूल गई थी. उस ने अपने सारे कागजात निकलवा कर उन की फोटोकौपी बनवानी थी. वहां जा कर उसे ध्यान आया वह अपनी 10वीं और 11वीं कक्षा की मार्कशीट्स घर पर ही भूल गई है. उस ने तुरंत मम्मी को फोन लगाया, ‘‘मम्मा, मेरी अलमारी में दाहिनी तरफ की दराज में आप को लाल रंग की एक फाइल दिखेगी, उस में से प्लीज मेरी 10वीं और 11वीं की मार्कशीट्स के फोटो भेज दो.’’

फोटो भेजने के बाद उस फाइल के नीचे दबी एक गुलाबी डायरी पर लिखे सुंदर शब्दों ने मम्मी का ध्यान अपनी ओर खींचा-

‘‘की थी कोशिश, पलभर में काफूर उन लमहों को पकड़ लेने की जो पलभर पहले हमारे घर के आंगन में बिखरे पड़े थे.’’

शायद मेरे चले जाने के बाद उन दोनों का अकेलापन उन्हें एकदूसरे के करीब ले आए. इसीलिए तो अपने दिल पर पत्थर रख उसे इतना कठोर फैसला लेना पड़ा था. पेज पर तारीख 15 जून अंकित थी यानी अनिका का जन्मदिन.

मम्मी के मस्तिष्क में उस रात हुई कलह के चित्र सजीव हो गए. एक मां हो कर मैं अपनी बच्ची की तकलीफ को नहीं समझ पाई. अपने अहम की तुष्टि के लिए वक्तबेवक्त वाक्युद्ध पर उतर जाते थे बिना यह सोचे कि उस बच्ची के दिल पर क्या गुजरती होगी.

उन की नजर एक अन्य पेज पर गई, ‘‘मुझे आज रात रोतेरोते नींद लग गई और मैं सोने से पहले बाथरूम जाना भूल गई और मेरा बिस्तर गीला हो गया. अब मैं मम्मा को क्या जवाब दूंगी.’’

पढ़कर निकिता अवाक रह गई थी. जगहजगह पर उस के आंसुओं ने शब्दों की स्याही को फैला दिया था, जो उस के कोमल मन की पीड़ा के गवाह थे. जिस उम्र में बच्चे नर्सरी राइम्ज पढ़ते हैं उस उम्र में उन की बच्ची की ये संवेदनशीलता और जिस किशोरवय में लड़कियां रोमांटिक काव्य में रुचि रखती हैं उस उम्र में यह गंभीरता. आज अगर यह डायरी उन के हाथ नहीं लगी होती तो वे तो अपनी बेटी के फैसले के पीछे का कठोर सच कभी जान ही नहीं पातीं.

‘‘आप आज अनिका के घर पहुंचने से पहले घर आ जाना, मुझे आप से बहुत जरूरी बात करनी है,’’ मम्मी ने तुरंत पापा को फोन मिलाया.

‘‘निक्की, मुझे ध्यान है नया फ्रिज खरीदना है पर मेरे पास अभी उस से भी महत्त्वपूर्ण काम है… और फिलहाल सब से जरूरी है अनिका का कालेज में एडमिशन.’’

‘‘और मैं कहूं बात उस के बारे में ही है.’’

‘‘मम्मी के इस संयमित लहजे के पापा आदी नहीं थे. अत: उन की अधीरता जायज थी,’’

‘‘सब ठीक तो है न?’’

‘‘आप घर आ जाइए, फिर शांति से बैठ कर बात करते हैं.’’

‘‘पहेलियां मत बुझाओ, साफसाफ क्यों नहीं कहती हो, जब बात अनिका से जुड़ी थी तो पापा कोई ढील नहीं छोड़ना चाहते थे. अत: काम छोड़ तुरंत घर के लिए निकल गए.’’

‘‘देखिए यह अनिका की डायरी.’’

पापा जैसेजैसे पन्ने पलटते गए, अनिका के दिल में घुटी भावनाएं परतदरपरत खुलने लगीं और पापा की आंखें अविरल बहने लगीं. मम्मी भी पहली बार पत्थर को पिघलते देख रही थी.

‘‘कितना गलत सोच रहे थे हम अपनी बेटी के बारे में इस तरह दुखी कर के तो हम उसे घर से हरगिज नहीं जाने दे सकते,’’ उन्होंने अपना फोन निकाल अनिका को मैसेज भेज दिया.

‘‘कोशिश को तेरी जाया न होने देंगे, उस कली को मुरझाने न देंगे,

जो 17 साल पहले हमारे आंगन में खिली थी.’’

‘‘शैतान का नाम लिया और शैतान हाजिर… वाह पापा आप का यह कवि रूप तो पहली बार दिखा,’’ कहती हुई अनिका घर में घुसी और मम्मीपापा को गले लगा लिया.

‘‘हमें माफ कर दे बेटा.’’

‘‘अरे, माफी तो आप लोगों से मुझे मांगनी चाहिए, मैं ने आप लोगों को बुद्धू जो बनाया.’’

‘‘मतलब?’’ मम्मीपापा आश्चर्य के साथ बोले.

‘‘मतलब यह कि घी जब सीधी उंगली से नहीं निकलता है तो उंगली टेढ़ी करनी पड़ती है. इतनी आसानी से आप लोगों का पीछा थोड़े छोड़ने वाली हूं. हां, बस यह अफसोस है कि

मुझे अपनी डायरी आप लोगों से शेयर करनी पड़ी. पर कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है न?’’

‘‘अच्छा तो यह बाहर जा कर पढ़ने का फैसला सिर्फ नाटक था…’’

‘‘सौरी मम्मीपापा आप लोगों को करीब लाने का मुझे बस यही तरीका सूझा,’’ अनिका अपने कान पकड़ते हुए बोली.

‘‘नहीं बेटे, कान तुम्हें नहीं, हमें पकड़ने चाहिए.’’

‘‘हां, और मुझे इस ऐतिहासिक पल को कैमरे में कैद कर लेना चाहिए,’’ कह वह तीनों की सैल्फी लेने लगी.

मुक्तिद्वार : भाग 3

उधर, माधुरी के बेटेबहू को बेहद आश्चर्य हुआ जब न तो माधुरी का फ़ोन आया और न ही वह आई. वहीं, कुमुद के भतीजे भी बूआ को याद कर रहे थे. बूआ हर छुट्टी में उन का घूमने का ट्रिप तो कम से कम स्पौंसर करा देती थीं. इंद्रवेश और जयति के घरवाले भी समझ नहीं पा रहे थे कि वे आए क्यों नहीं हैं?

बहुत ही सोचविचार के साथ धनौल्टी में एक मकान फाइनल कर दिया गया था. पेशगी के तौर पर विजय ने 2 लाख रुपए दे दिए थे. मकान की सब से खास बात यह थी कि उस में कुल मिला कर 6 कमरे थे और अगर चाहें तो हर कमरे में छोटी सा किचन और बाथरूम बना सकते हैं. कुल मिला कर हर सदस्य को 11 लाख रुपए का इंतज़ाम करना था. विजय और विनोद के लिए यह मुश्किल न था पर बाकी सदस्यों के लिए यह थोड़ा मुश्किल था. इंद्रवेश और जयति की समस्या होम लोन के कारण हल हो गई थी. जयति बेहद खुश थी क्योंकि अब वह फ़ालतू में पैसे नहीं उड़ाएगी. इंद्रवेश को भी लगा कि शायद अब उसे भी निक्कमे, नकारापन से मुक्ति मिल जाए.

मगर माधुरी और कुमुद की समस्या का कोई हल नहीं दिख रहा था. एक तो उन की उम्र के कारण लोन नहीं मिल पा रहा था और दूसरा, उन के पास कोई ऐसी मोटी बचत भी न थी. कुमुद और माधुरी की समस्या प्रौविडैंट फंड ने सुलझा दी थी. दोनों ने ही प्रौविडैंट फंड से एडवांस ले लिया था. एक बार विनोद ने कहा भी कि प्रौविडैंट फंड का पैसा हमारे बुढापे की लाठी होता है. कुमुद ने कहा, “विनोद सर, तभी तो अपने लिए इस लाठी से एक छोटे से घर का इंतज़ाम कर रही हूं.” माधुरी के कहा, “पहली बार अपनी मुक्ति के लिए कुछ कर रही हूं, थोड़ा रिस्क तो लेना ही पड़ेगा.”

अब पूरे ग्रुप को अपने काम से दुगना प्यार हो गया था. ये ही काम तो हैं जिन के कारण आज वे यह हासिल कर पाएंगे. प्रिंसिपल या किसी और की बात पर अब उन लोगों को कुछ फ़र्क नहीं पड़ता था. उन सब को पता था कि उन की मुक्ति नजदीक ही है. सितंबर माह तक वकील ने ऐसी रूपरेखा तैयार करी कि मकान के मालिकाना हक में सब के नाम पर हर कमरे की रजिस्टरी अलग होगी, मतलब एक ही मकान में 6 अलग छोटेछोटे घर होंगे. रजिस्टरी के बाद शुरू हो गई थी हर कमरे को आशियाना बनाने की प्रक्रिया. ख़र्च जितना सोचा था उस से कुछ अधिक हो गया था, लेकिन फिर भी सबकुछ मैनेज हो गया था. इस बार की दीवाली की छुट्टियां पूरे ग्रुप के लिए नई रोशनी बन कर आई थीं. पहले दीवाली की छुट्टियों में कुमुद बेहद निराश हो जाती थी. घर पर जाना मजबूरी होती थी लेकिन दीवाली पर कुमुद की इच्छा का कुछ भी नहीं हो पाता था. पकवान भाइयों की पसंद के, सजावट भाभी की पसंद की और आतिशबाजी बच्चों की पसंद की. यही हाल माधुरी का भी था. बेटे के घर में वह, बस, बाहरी मेहमान की तरह बनी रहती थी. इंद्रवेश को पूरे घर में लाइट लगाने का काम मिलता था. उस के परिवार के हिसाब से कम से कम इंद्रवेश इसी काम मे उन की मदद करता है. जयति और विजय तो दीवाली की छुट्टियों में भी होस्टल में ही बने रहते थे. विनोद का तो घर जा कर भी एकांतवास ही बना रहता था.

विनोद ने दीवाली से पहले ही कह दिया था कि सब के लिए इस बार दीवाली पर नए कपड़े मैं ही खरीदूंगा. जयति ने रंगोली की ज़िम्मेदारी ली तो इंद्रवेश ने पूरे घर की लाइटिंग की कमान संभाल ली थी. कुमुद और माधुरी ने पकवान बनाने की ज़िम्मेदारी ले ली थी. विजय ने 2 दिन पहले जा कर सब के कमरों में जरूरत का समान जुटा दिया था. प्रिंसिपल महोदय हर वर्ष की भांति इस वर्ष भी सोच रहे थे कि जो दोचार होस्टलर्स बचे हैं उन्हें जयति और विनोद संभाल लेंगे. मगर जब उन्होंने देखा कि जयति और विनोद का भी सामान बंध गया है तो मजबूरन उन्हें रुकना पड़ा. जब टैक्सी से माधुरी उतरी तो अपने आशियाने पर लगी नेमप्लेट देख कर उस के चेहरे पर मुसकराहट आ गई. नेमप्लेट पर लिखा हुआ था ‘मुक्तिद्वार’.

कुमुद विजय से बोली, “विजय, तुम ने बड़ी समझदारी के साथ इस घर का नाम चुना है.” जयति बोली, “हां, आप सही कह रही हैं कुमुद मेम. यह घर ही तो हमारा मुक्तिद्वार है, हमारे अकेलेपन से, इस समाज से.” विनोद बोले, “न जयति, अब कभी मत कहना कि हम लोग अकेले हैं. इस घर में हम एक परिवार की तरह ही तो हैं. हां, सब की प्राइवेसी को देखते हुए मैं ने और विजय ने हर कमरे को एक छोटे से आशियाने का रूप भी दे दिया है.”

आज दीवाली पर पूरा मुक्तिद्वार सकारात्मकता की रोशनी से जगमगा रहा था. पूरे घर में पकवानों की मीठी महक आ रही थी. आतिशबाजियों के साथसाथ मुक्तिद्वार का हर कोना आज हंसी से गुलज़ार था.

मैं एक लड़के से प्यार करती हूं लेकिन वो नहीं करता, आप ही बताएं मैं कैसे उसका दिल जीतू ?

सवाल

मैं 16 वर्ष की युवती एक युवक से प्यार करती हूं. वह 19 वर्ष का है. मुझ से पहले वह किसी अन्य युवती से प्यार करता था, जिस की अब शादी हो गई है लेकिन वह अब भी उसे प्यार करता है. मैं उस से बहुत प्यार करती हूं पर वह मुझ से प्यार नहीं करता. प्लीज, मुझे बताएं कि मुझे क्या करना चाहिए ?

जवाब

कमाल की बात है कि आप ऐसे युवक से प्यार करती हैं जो आप से प्यार नहीं करता बल्कि किसी और से प्यार करता है. भले ही उस युवती की शादी हो चुकी है पर उस का रुझान तो उसी तरफ है.

आप के केस में आप का उस के प्रति प्यार एकतरफा है, दूसरी ओर उस युवक का भी एक शादीशुदा से प्यार करना ठीक नहीं. इस से जहां वह अपना जीवन नीरस बना रहा है वहीं उस की शादीशुदा जिंदगी में जहर घोल रहा है. इस से उन दोनों के घर समस्या पैदा होगी, तिस पर आप उसे चाहती हैं तो आप भी परेशान रहेंगी.

अगर आप उस से सच्चा प्यार करती हैं तो पहले अपने एकतरफा प्यार को दोतरफा कर लें यानी उस के मन में अपने प्रति प्यार जगाएं. जब वह भी आप से प्रेम करने लगेगा तो आप धीरेधीरे उसे उस की पुरानी यादों व प्रेम से निकालें, जिस का अब उस लड़की की शादी हो जाने के बाद कोई अर्थ भी नहीं रह गया है.

जब वह आप से प्यार करने लगेगा, उस  शादीशुदा से ध्यान हटाएगा, तो वह शादीशुदा युवती भी अपने पति व परिवार की ओर ध्यान दे पाएगी. इस तरह न केवल आप का प्यार परवान चढ़ेगा बल्कि तीनों परिवारों की परेशानी भी हल हो जाएगी.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें