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बिना जानकारी हर्बल दवा जान पर भारी

हर्बल औषधियों से जुड़ा ज्ञान दुनिया की हर मानवजाति, संस्कृति और सभ्यता का हिस्सा रहा है. कई जड़ीबूटियों को तो सोने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण माना गया है. अदरक, सेमल लहसुन, अश्वगंधा, हलदी, लौंग, धनिया, आंवला, अमरूद और ऐसी हजारों जड़ीबूटियों के प्रभावों की प्रामाणिकता आधुनिक विज्ञान साबित कर चुका है.

कई जड़ीबूटियों को आधुनिक औषधि विज्ञान ने बाकायदा दवाओं के तौर पर आधुनिक अमलीजामा पहनाया भी है. सिनकोना नामक पेड़ से प्राप्त होने वाली छाल से क्वीनोन नामक दवा तैयार की गई और इसे मलेरिया के लिए रामबाण माना गया.

दुनिया के तमाम देश शोधों और उन के परिणामों से प्रोत्साहित हो कर कई हर्बल दवाओं के वैज्ञानिक प्रमाण खोजने के प्रयास कर रहे थे. आज डंडेलियान नामक पौधे से कैंसर रोग के इलाज की दवा खोजी जा रही है, तो कहीं किसी देश में सदाबहार और कनेर जैसे पौधों से त्वचा पर होने वाले संक्रमण के इलाज पर अध्ययन हो रहा है.

परंपरागत ज्ञान का वैज्ञानिक प्रमाणन जरूरी है ताकि हम यह हकीकत समझ पाएं कि किस जड़ीबूटी से कौन सा रोग वाकई में ठीक होता है और ऐसा कैसे संभव हो पाता है. लेकिन मैं जड़ीबूटियों में खास रसायनों को अलग कर के औषधियों को कृत्रिम रूप से तैयार करने का पक्षधर नहीं.

पौधों में होते हैं रसायन

औषधीय पौधों में सिर्फ एक नहीं, हजारों रसायन और उन के समूह पाए जाते हैं. और कौन जाने, कौन सा रसायन प्रभावी गुणों वाला होता है. इसलिए मार्कर कंपाउंड (किसी जड़ीबूटी में पाए जाने वाला खास रसायन) शोध पर कई जानकार सवालिया निशान खड़े करते हैं. जड़ीबूटियों में से महत्त्वपूर्ण रसायनों को अलग कर के उन्हें कृत्रिम रूप से तैयार करने की कोशिश असरकारक न होगी. इस बात को साबित करने के लिए एस्पिरिन से बेहतर उदाहरण क्या होगा.

एस्पिरिन टेबलेट्स में मार्कर कंपाउंड के नाम पर सौलिसिलिक एसिड होता है जिसे सब से पहले व्हाइट विल्लो ट्री नामक पेड़ से प्राप्त किया गया. सौलिसिलिक एसिड को कृत्रिम तौर पर तैयार किया गया और एस्पिरिन नामक औषधि बाजार में लाई गई. दर्दनिवारक गुणों के लिए मशहूर इस दवा के सेवन के बाद कई रोगियों को पेट में गड़बड़ी और कइयों को पेट में छालों की समस्याओं से जूझना पड़ा. जबकि व्हाइट विल्लो ट्री की छाल का काढ़ा कई हर्बल जानकार दर्दनिवारण के लिए सदियों से देते आएं हैं और रोगियों को कभी किसी तरह की शिकायत नहीं हुई. क्या नतीजा निकालेंगे आप?

दरअसल, छाल के काढ़े में वे रसायन भी हैं जो छालों की रोकथाम के लिए कारगर माने गए हैं और कई रसायन ऐसे भी हैं जो पेटदर्द और दस्त रोकने आदि के लिए महत्त्वपूर्ण हैं. सब से बड़ा सवाल दवाओं या जड़ीबूटियों की गुणवत्ता को ले कर बनता है. अधिकांश वैद्य, जानकार और कई फार्मा कंपनियां भी दवाओं को तैयार करने वाली जड़ीबूटियों (कच्चे माल) को बाजार से खरीदते हैं. ऐसे में कच्चे माल की गुणवत्ता पर सवाल उठना लाजिमी है.

दूसरी सब से बड़ी चिंता की

बात झोलाछाप और गैरप्रामाणिक जानकारियों का इंटरनैट या सोशल साइट्स व ढोंगी बाबाओं की ओर से संचारित होना है. आधीअधूरी जानकारी पा कर लोग खुद चिकित्सक बन जाते हैं और घर पर ही इलाज कर बैठने की सोच लेते हैं सिर्फ यह मान कर कि हर्बल दवाएं हैं, कोई दुष्प्रभाव या साइडइफैक्ट तो होगा नहीं.

हर्बल दवाओं से नुकसान

कई बार हम जानेअनजाने किसी डाक्टर को अपनी समस्याएं बताए बगैर मैडिकल स्टोर से दवाएं खरीद लाते हैं और मुफ्त में समस्याएं भी घर ले आते हैं. हर्बल लैक्सेटिव्स (विरेचक औषधि) बाजार में ओवर द काउंटर यानी ओटीसी के रूप में कहीं भी मिल जाती हैं. हम में से ज्यादातर लोग ऐसे हैं जिन्हें इन से जुड़े दुष्प्रभावों की जानकारी तक नहीं. ये विरेचक औषधियां न सिर्फ शरीर में इलैक्ट्रोलाइट संतुलन को बिगाड़ सकती हैं बल्कि कई तरह के विटामिंस और वसीय पदार्थों का विघटन भी कर देती हैं.

मूत्र संबंधित विकारों के भी दुष्प्रभावों की भी बात करनी जरूरी है जिन की वजह से विटामिन बी-1, बी-6, विटामिन सी, सीओक्यू 10 और शरीर के इलैक्ट्रोलाइट्स कम होने लगते हैं. शरीर में कैफीन की मात्रा ज्यादा होने से विटामिन ए, विटामिन बी कौंप्लैक्स, लौह तत्त्वों और पोटैशियम जैसे पोषण तत्त्वों में कमी आने लगती है.

अकसर हर्बल दवाओं को दुष्प्रभावहीन बताया जाता है और इसी कारण लोग बगैर सोचेसमझे इन दवाओं को अपना लेते हैं. वे इस बात को भूल जाते हैं कि इन की असंतुलित मात्रा या किसी प्रशिक्षित चिकित्सक की सलाह लिए बगैर इन का उपयोग गलत असर भी डाल सकता है.

वैज्ञानिक एल्विन लेविस के शोध के अनुसार, एलोवेरा के जैल की अधिक मात्रा, जिसे अकसर लोग बगैर जानकारी के तमाम रोगोपचार के लिए इस्तेमाल करते हैं, शरीर के लिए नुकसानदायक भी हो सकती है. इस के चलते पेटदर्द, पेचिस जैसी आम समस्याओं के अलावा हृदय से संबंधित कई समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है. पेड़पौधों में जो रसायन पाए जाते हैं, उन का कई बार सीधा सेवन घातक साबित होता है.

फ्लेवेनौइड नामक रसायन की अधिकता होने से मानव शरीर में कई दुष्परिणाम देखे जा सकते हैं. अमेरिकन जर्नल औफ मैडिसिंस में वैज्ञानिक अर्नस्ट के रिव्यू लेख की मानी जाए तो फ्लेवेनौइड एनीमिया जैसी समस्याओं के अलावा आप की किडनी को भी क्षतिग्रस्त कर सकते हैं.

जरूरी है चिकित्सकीय सलाह

हर्बल दवाएं किसी प्रैस्क्रिप्शन के बिना आसानी से बाजार में मिल जाती हैं लेकिन मेरी समझ से आप को हर्बल दवाओं के सेवन के वक्त चिकित्सकीय सलाह (मैडिकल गाइडैंस) लेना जरूरी है, क्योंकि अकसर हर्बल दवाओं की उपयोगिता के बारे में सभी लोग बात करते हैं लेकिन किन्हीं दूसरी दवाओं के साथ होने वाले रिऐक्शन के बारे में ज्यादा लोगों को समझ नहीं है. यही बात उन डाइटीशियंस को भी समझनी चाहिए जो चिकित्सा विज्ञान की समझ के बगैर खानपान में खासे परिवर्तन जरूर करा देते हैं लेकिन किसी खास तत्त्व की अधिकता या कमी के दुष्परिणामों की फिक्र नहीं करते.

शरीर में किसी पोषक तत्त्व की कमी है तो पोषक तत्त्व की पूर्ति के लिए औषधियों की तरफ दौड़ लगाने के बजाय तत्वों की कमी होने के कारणों को खोजा जाए और इन कारणों का प्राकृतिक रूप से निवारण किया

जाए. यदि अनियंत्रित खाद्यशैली, भागदौड़ और तनावग्रस्त जीवन में हम अपने शरीर को ढाल लेते हैं तो शरीर बीमारियों की चपेट में आता है.

हर्बल ज्ञान को सब से बड़ा नुकसान पहुंचाया है इस के अंधाधुंध बाजारीकरण और झोलाछाप जानकारियों ने. कई जानकार जड़ीबूटियों के बारे में इतनी सारी बातें बोल जाते हैं कि ऐसा लगने लगता है कि मानो कुछ जड़ीबूटियां अमृत तो हैं. तथाकथित जानकार इस तरह की वनस्पतियों को हिमालय से ले कर सुदूर पूर्वी राज्यों के पहाड़ी इलाकों से लाने और फिर दवा बनाने का दावा करते हैं. दरअसल, हर वनस्पति की एक खासीयत होती है. हरेक वनस्पति असरदार है. इस बात को सही जानकार भी अच्छी तरह जानते हैं.

औषधियों का बाजार करोड़ों रुपयों का है किंतु प्राकृतिक रूप से शरीर स्वस्थ रखना लगभग मुफ्त है और इस मुफ्त इलाज के लिए किसी चिकित्सक की जरूरत भी नहीं, सिर्फ अपना जीवनयापन, खाद्यशैली, और रोजमर्रा की जिंदगी को सटीक कर लिया जाए तो शरीर खुद ही अपनी रक्षा कर सकता है. रोगों का उपचार बिलकुल संभव है, किंतु यह तभी होगा जब रोगों के कारणों को हम समझ पाएं और फिर कारणों के निवारणों पर अमल किया जाए.

ग्राम विकास प्राधिकरण

लखीमपुरखीरी, उत्तर प्रदेश के गांव डिहुआकलां में जश्न का माहौल था. बेरोजगारों के चेहरे खिले हुए थे. बूढे़ मांबाप की आंखों में आशा के दीए जगमगा उठे थे. दरअसल, 2 दिन पहले भारत सरकार के ग्राम विकास मंत्रालय की तरफ से प्रधानजी को एक पत्र मिला था. उसे पढ़ते ही पूरे गांव में खुशी की लहर दौड़ गईर् थी. पत्र में लिखा था,

‘प्रिय प्रधानजी,

‘जयहिंद.

‘आप को यह जान कर प्रसन्नता होगी कि भारत सरकार की योजनाओं का लाभ सीधे ग्रामवासियों को मिल सके, इसलिए सरकार ने ग्राम विकास प्राधिकरण का गठन किया है. यह प्राधिकरण ग्रामवासियों के सर्वांगीण विकास के लिए कार्य करेगा. प्राधिकरण का कार्य संचालित करने के लिए प्रत्येक ग्रामसभा में एक ग्राम विकास केंद्र की स्थापना की जाएगी. प्रत्येक केंद्र में 2 स्वास्थ्य सेवक, 2 स्वास्थ्य सेविकाएं, 2 स्वच्छता मित्र, 2 किसान मित्र और 2 जल संरक्षण सेवकों की तैनाती की जाएगी. इन में सभी पदों पर नियुक्तियां उसी ग्रामसभा के योग्य उम्मीदवारों की की जाएंगी. इन पदों पर चयन के लिए 3 सदस्यीय साक्षातकार समिति का गठन किया जाएगा, जिस में भारत सरकार के 2 अधिकारियों के साथसाथ संबंधित ग्रामप्रधान भी नामित किए जाएंगे.

‘इस पत्र के साथ संलग्न फौर्म भर कर इच्छुक उम्मीदवारों के प्रार्थनापत्र 15 दिन के भीतर रजिस्टर्ड डाक से प्राधिकरण के कार्यालय में भिजवाने की कृपा करें. सभी उम्मीदवारों को 500 रुपए का परीक्षा शुल्क देना होगा जोकि भारतीय स्टेट बैंक के खाता संख्या में जमा कर उस की रसीद प्रार्थनापत्र के साथ भेजनी अनिवार्य है. ‘कृपया इस पत्र का अपनी ग्रामसभा में व्यापक प्रचारप्रसार करें.

‘धन्यवाद.

‘सचिव, ग्राम विकास मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली.’

रमेश, कामता, राकेश, संगीता, सुमन और देवदत्त ने तो दूसरे ही दिन फौर्म भर कर बैंक में पैसे जमा कर दिए थे बाकी लोगों में जल्द से जल्द पैसा जमा करने की होड़ मची हुई थी. अपने ही गांव में केंद्र सरकार की नौकरी मिल जाए, इस से अच्छी बात और कोई हो ही नहीं सकती थी. ऐसा ही पत्र सभी ग्राम प्रधानों को प्राप्त हुआ था, क्योंकि चयन समिति में ग्राम प्रधानों को भी रखा गया था, इसलिए उन सब की इज्जत अचानक ही बढ़ गई थी. उन के दरवाजे पर दिन भर गांव वालों की भीड़ जमा रहती. सभी को उम्मीद थी कि प्रधानजी उन के  बच्चों को नौकरी जरूर दिलवा देंगे.

डिहुआकलां के प्रधान मोहनजी का बेटा विकास लखनऊ के एक इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ता था. कालेज में 3 दिन की छुट्टी थी तो वह अचानक गांव पहुंच गया. लोगों की भीड़ उस समय मोहनजी को घेरे हुए थी. ‘‘पिताजी, इतनी भीड़ क्यों जमा है? क्या कोई चुनाव होने वाले हैं?’’ विकास ने प्रधानजी के पैर छूते हुए पूछा.

‘‘ हां, चुनाव तो होने वाले हैं, लेकिन इस बार राजनीतिक नहीं बल्कि सामाजिक चुनाव होने वाले हैं,’’ प्रधानजी ने हंसते हुए कहा.

‘‘क्या मतलब?’’

‘‘बेटा, तुम इतना पढ़लिख कर गांव से बाहर कहीं दूर नौकरी करने चले जाओगे, लेकिन सरकार तुम्हारे कई साथियों को गांव में ही नौकरी देने जा रही है. इस से गांव और पूरे समाज का भरपूर विकास होगा,’’ प्रधानजी ने कहा और पूरी बात बताई. विकास को यह सब आश्चर्यजनक लगा. उन ने कहा, ‘‘पिताजी केंद्र सरकार की योजनाएं किसी एक प्रदेश में नहीं बल्कि पूरे देश में लागू होती हैं. पूरे देश में लाखों ग्रामसभाएं होंगी, अगर हर गांव के लोगों को नौकरी दी गई तो यह प्राधिकरण देश का सब से बड़ा संगठन बन जाएगा.’’

‘‘देश की 70% आबादी गांवों में रहती है. यदि  गांव का विकास करना है तो इस के लिए सब से बड़ा संगठन बनाना ही होगा. खुशी की बात है कि पहली बार यह बात सरकार की समझ में आईर् है.  ‘‘मैं तो किसी की सिफारिश नहीं सुनूंगा और अपने गांव के सब से योग्य उम्मीदवार को ही नौकरी दूंगा. देखना, उस के बाद गांव का विकास कितनी तेजी से होता है,’’ प्रधानजी ने कहा. ‘‘पिताजी, यह इतना आसान नहीं, जितना आप समझ रहे हैं,’’ विकास ने पिताजी से कहा. ‘‘तुम्हारी तो हर मामले में शक करने की आदत है. यह लो भारत सरकार का पत्र. खुद पढ़ लो,’’ प्रधानजी ने अपनी जेब से ग्राम विकास सचिव का पत्र निकाल कर विकास की ओर बढ़ाया. उन के चेहरे पर खिन्नता के भाव दिखाई दे रहे थे.

विकास ने उस पत्र को कई बार पढा़, लेकिन उस में उसे कोई कमी नजर नहीं आई. पत्र बाकायदा ग्राम विकास मंत्रालय के लैटरहैड पर लिखा गया था और सचिव के हस्ताक्षर के नीचे मुहर भी लगी हुई थी. पत्र पर प्राधिकरण के साउथ ब्लौक, नई दिल्ली का पता भी दिया हुआ था.

विकास को मालूम था कि केंद्र सरकार के ज्यादातर मंत्रालय साउथ ब्लौक में ही हैं. पत्र को देख कर शक की कोई गुंजाइश नहीं थी. फिर भी क्यों उसे किसी गड़बड़ी का आभास हो रहा था. कुछ सोच कर उस ने मोबाइल से लैटरहैड पर दिए गए फोन नंबर पर फोन किया. ‘‘हैलो, ग्राम विकास मंत्रालय प्लीज,’’ उधर से आवाज सुनाई पड़ी. ‘‘सर, क्या आप के मंत्रालय द्वारा किसी ग्राम विकास प्राधिकरण का गठन किया गया है?’’ विकास ने पूछा.

‘‘जी हां, प्रधानमंत्री की यह एक महत्त्वाकांक्षी योजना है. इस के संचालन के लिए प्रत्येक ग्रामसभा में कर्मचारियों की भरती भी शुरू हो गई है,’’ उधर से महत्त्वाकांक्षी आवाज सुनाई पड़ी. यह सुन कर विकास ने फोन काट दिया. प्रधानजी को भी उन की बातचीत सुनाई पड़ गई थी. उन्होंने विकास के कंधों को थपथपाते हुए कहा, ‘‘बेटा, केवल हमारे गांव में ही नहीं, बल्कि सभी ग्रामसभाओं में भरती हो रही है. बेकार में परेशान मत हो. थक गए होगे, अंदर चल कर नाश्तापानी करो. मुझे थोड़ी देर लग जाएगी.’’ विकास ने पल भर के लिए कुछ सोचा फिर बोला, ‘‘पिताजी, क्या मैं इस पत्र का एक फोटो खींच सकता हूं?’’

‘‘एक नहीं जितने मरजी फोटो खींचो,’’ प्रधानजी हंस पड़े.

विकास ने अपने स्मार्टफोन से उस पत्र का फोटो खींचा और उसे प्रधानजी को वापस कर दिया. वह घर पहुंचा तो मां उसे देखते ही खुशी से भर उठीं. उस का माथा चूम कर उन्होंने उसे जी भर कर आशीर्वाद दिया, फिर उस के लिए नाश्ता लगाने लगीं.

नाश्ता कर विकास अपने दोस्तों से मिलने चल दिया. सभी इन नौकरियों पर ही चर्चा कर रहे थे. वे सब इस के लिए काफी उत्साहित थे. सभी को विकास के पिता की ईमानदारी पर पूर्ण भरोसा था. ‘‘यार, मुझे तो कुछ गड़बड़ लग रही है. इस तरह एकसाथ लाखों की संख्या में भरतियां कैसे की जा सकती हैं.  इस के अलावा चयन समिति में ग्रामप्रधानों को रखने का क्या औचित्य है. क्या सरकार को मालूम नहीं है कि बहुत से प्रधान तो अशिक्षित हैं. वे साक्षात्कार कैसे ले सकते हैं?’’ विकास ने चिंता प्रकट की. ‘‘इस में भला गड़बड़ी क्या हो सकती है? नौकरी के बदले में कोई घूस तो मांगी नहीं जा रही है,’’ हेमंत बोला, ‘‘सरकार, सीधे गांव वालों से जुड़ना चाहती है, इसलिए वह गांवगांव में भरती करवा रही है.’’

‘‘गांव वालों के बारे में सब से अधिक जानकारी ग्रामप्रधान को ही होती है. इसीलिए सरकार ने चयन समिति में उन्हें रखा है. रही बात उन के अशिक्षित होने की तो सबकुछ प्रधान के हाथ में थोड़े होगा. उन की सहायता के लिए समिति में 20 सरकारी अधिकारी भी तो होंगे,’’ देवीदत्त ने समझाया. विकास के पास उन की बातों का कोई जवाब नहीं था, इसलिए वह चुप हो गया. किंतु उस के चेहरे पर छाई चिंता की रेखाओं को देख कामता ने कहा, ‘‘यार, हम तो कम पढ़ेलिखे लोग हैं, कंप्यूटर और इंटरनैट के बारे में ज्यादा नहीं जानते. मगर सुना है कि इंटरनैट पर सभी सरकारी कार्यालयों के बारे में जानकारी होती है. तुम तो इंजीनियरिंग पढ़ रहे हो, इंटरनैट चला लेते होगे. उस पर जा कर पता क्यों नहीं लगा लेते हो?’’

‘‘अरे, यह बात तो मेरे दिमाग में आई ही नहीं थी,’’ विकास के  चेहरे का तनाव तुरंत कम हो गया. उस ने अपने मोबाइल पर गूगल ओपन कर ग्राम विकास प्राधिकरण सर्च किया. अगले ही पल मोबाइल की स्क्रीन पर ‘ग्राम विकास प्राधिकरण’ की साइट खुल गई. उस पर एक तरफ भारत सरकार का लोगो अशोक स्तंभ बना था तो दूसरी तरफ ग्राम विकास मंत्री का फोटो लगा था. साइट पर सभी जरूरी सूचनाओं के साथ ग्रामसभा स्तर पर हो रही भरतियों का भी पूरा विवरण अंकित था.

अब तो शक की कोई गुंजाइश नहीं बची थी. सबकुछ सरकार की तरफ से ही हो रहा था. विकास के दोस्तों ने भी उसे समझाया कि वह बेकार में ज्यादा सोच कर परेशान न हो. दोस्तों के साथ घूमनेफिरने के बाद विकास घर लौट आया. उस रात उसे नींद नहीं आई. उस का मन यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि सरकार अचानक इस तरह इतने बड़े स्तर पर भरती कर सकती है. उसे लग रहा था कि जरूर इस के पीछे कोई बड़ा खेल है. सुबह जब वह उठा तो अचानक उस के दिमाग में एक योजना कौंध उठी और वह औफिस खुलने का इंतजार करने लगा. करीब 11 बजे उस ने एक बार फिर पत्र में लिखे नंबर पर फोन किया.

‘‘हैलो, ग्राम विकास मंत्रालय, प्लीज,’’ उधर से शिष्टता भरी आवाज सुनाई पड़ी.

‘‘सर, आप के  मंत्रालय के ‘ग्राम विकास प्राधिकरण’ हेतु जो भरती चल रही हैं, उस के लिए मैं ने आवेदन किया है, लेकिन….’’ विकास ने जानबूझ कर अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया.

‘‘लेकिन क्या?’’ उधर से पूछा गया.

‘‘हमारा ग्राम प्रधान बहुत बेईमान है. अपने आदमियों की भरती करने के लिए 1-1 लाख रुपए वसूल रहा है. हमारे और दोस्तों के घर वालों ने उसे वोट नहीं दिया था इसलिए वह हम लोगों को किसी भी कीमत पर भरती नहीं करेगा,’’ इतना कह कर विकास पल भर के लिए रुका फिर बोला,‘‘सर, हम 10 दोस्त हैं. आप हमारी भरती करवा दीजिए. हम लोग मिल कर 12 लाख रुपए देने के लिए तैयार हैं.’’ यह सुन कर उधर चंद पलों की चुप्पी छाई रही. फिर आवाज आई, ‘‘प्लीज एक मिनट होल्ड करिए. मैं अपने रिक्रूटमैंट अफसर से आप की बात करवा रहा हूं.’’

थोड़ी देर बाद उधर से किसी दूसरे आदमी की आवाज आई, ‘‘हैलो, मैं रिक्रूटमैंट अफसर बोल रहा हूं. बताइए क्या समस्या है?’’ ‘‘सर, पूरे देश में कई रिक्रूटमैंट अफसर बनाए गए होंगे. हमारे गांव की चयन समिति के जो अफसर हैं हमारी उन से बात करवाइए,’’ विकास ने कहा. ‘‘हूं, आप ठीक कह रहे हैं,’’ उधर पल भर की चुप्पी के बाद फिर आवाज आई. आप अपने गांव, तहसील, जिले और प्रदेश का नाम बताइए. मैं कंप्यूटर पर चैक कर के संबंधित अधिकारी से आप की बात करवाता हूं.

‘‘जी, मैं गांव डिहुआकलां, तहसील धौरहराकलां, जिला लखीमपुरखीरी, उत्तर प्रदेश से बोल रहा हूं,’’ विकास ने बताया.

उधर से थोड़ी देर तक कंप्यूटर के कीबोर्ड पर उंगलियां चलने की आवाज आती रही फिर एक मृदु आवाज सुनाई पड़ी, ‘‘हैलो, मैं आपके क्षेत्र का रिक्रूटमैंट अफसर बोल रहा हूं. बताइए मैं आप की क्या सेवा कर सकता हूं?’’ विकास ने उस से बात दोहराई. फिर बोला, ‘‘आप जिस बैंक अकाउंट में कहेंगे हम लोग उस में 25%  पैसा एडवांस में जमा करवा देंगे बाकी काम हो जाने के बाद मिल जाएगा.  मगर इस बात की गांरटी होनी चाहिए कि प्रधानजी के किसी आदमी की नियुक्ति नहीं होगी. सारी नियुक्तियां हम 10 लोगों की ही होनी चाहिए.’’

‘‘उस की चिंता आप न करें. सारी भरतियां आप लोगों की ही होंगी, लेकिन 25% नहीं एडवांस में 50% देना होगा,’’ पवन कुमार साहब ने कहा.‘‘ओके,’’ विकास ने हामी भरी. ‘‘ तो फिर हमारे बैंक अकाउंट का नंबर नोट करिए. उस में 6 लाख रुपए जमा करने के बाद सभी 10 लोगों के नाम हमें नोट करा देना.’’ ‘‘सर, इतने पैसे जमा करने के लिए हमें 2-3 दिन का समय दे दीजिए.’’ विकास ने अनुरोध किया.

‘‘ठीक है,’’ रमेश साहब ने सहमति दी. फिर बोले, ‘‘लेकिन 3 दिन से ज्यादा का समय नहीं मिलेगा, क्योंकि दूसरे आदमी भी हम से संपर्क कर रहे हैं.’’ विकास ने 3 दिन में रुपए जमा करने की हामी भरने के बाद फोन काट दिया. उस के बाद सीधे अपने पिता के पास पहुंचा. उस ने सारी बातचीत रिकौर्ड कर ली थी. रिकौर्डिंग सुन उन का चेहरा गंभीर हो गया. कुछ सोचने के बाद वे बोले,‘‘ बेटा, तुम ने यह तो साबित कर दिया है कि यह सारा गोरखधंधा फर्जी है, लेकिन इस से किसी को क्या फायदा होने वाला है?’’ ‘‘पिताजी, पूरे देश में लाखों बेरोजगार फौर्म भरने के लिए 5-5 सौ रुपए जमा करेंगे, इस से ही करोड़ोअरबों रुपए आ जाएंगे. इस के अलावा बहुत से अयोग्य लोग नौकरी पाने के लिए लाखों रुपए की रिश्वत देने के लिए भी तैयार हो जाएंगे, उस से जो कमाई होगी वह अलग. इस सब के पीछे कोई बहुत बड़ा गैंग काम कर रहा है, जिस ने इंटरनैट पर प्राधिकरण की फर्जी साइट तक बना रखी है. इन का जल्द से जल्द भंडाफोड़ करना जरूरी है वरना ये लोग लाखों बेरोजगारों को ठग लेंगे,’’ विकास ने कहा.

‘‘तुम सही कह रहे हो. यह किसी बहुत बड़े गिरोह का काम लगता है. जिलाधिकारी महोदय से हमारी जानपहचान है. हम सीधे उन के पास चलते हैं. वही कुछ करेंगे,’’ प्रधानजी ने कहा. दोनों मोटरसाइकिल से जिलाधीश से मिलने चल दिए. जिलाधीश ने रिकौर्डिंग सुनने के बाद विकास की पीठ थपथपाई, फिर बोले, ‘‘बेटा, तुम ने देश के बेरोजगारों को बहुत बड़ी धोखाधड़ी से बचा लिया है. मुझे तुम पर गर्व है. मैं सरकार से तुम्हें पुरस्कार देने की सिफारिश करूंगा.’’ इतना कह कर उन्होंने तुरंत दिल्ली फोन कर ग्राम विकास मंत्रालय और गृहमंत्रालय के अधिकारियों से बात की. वहां से भी स्पष्ट हो गया कि यह वैबसाइट पूरी तरह फर्जी है. गृहमंत्रालय के निर्देश पर बैंक ने उस अकाउंट में जमा रकम को जब्त कर लिया. जिन लोगों ने वह अकाउंट खुलवाया था उन के पते पर छापा मार कर पुलिस ने देर रात तक पूरे गिरोह को गिरफ्तार कर लिया. वे लोग पहले भी अलगअलग प्रदेशों में भरती के विज्ञापन निकाल कर बेरोजगारों को ठग चुके थे. इस बार उन्होंने पूरे देश में एकसाथ लाखों लोगों को ठगने की योजना बनाई थी, लेकिन विकास की बुद्घिमानी से वे पकड़े गए.

मेरा मेरे तलाकशुदा पति से अभी भी रिश्ता है, क्या हमें एक बार फिर एक हो जाना चाहिए ?

सवाल

मैं अपने पति से तलाक ले चुकी हूं मगर हमारे बीच अभी भी रिश्ता कायम है. आज भी उन के जीवन में कोई और महिला आती है तो मुझे बरदाश्त नहीं होता. इसी तरह मेरी जिंदगी में आने वाले शख्स के साथ वे भी बदसलूकी कर चुके हैं. मेरी मां हमारे रिश्ते से कभी खुश नहीं रही थीं. उन के कहने पर ही मैं ने तलाक लिया था. दरअसल, मेरे पति थोड़े दिलफेंक किस्म के इंसान हैं और मेरी मां इस बात पर उन से बेहद नाराज रहती थीं. हमारा एक 8 साल का बेटा है और वह मेरे साथ है. बेटा अकसर अपनी यह इच्छा जाहिर करता रहता है कि वह अपने मम्मीपापा को एकसाथ देखना चाहता है. कभीकभी मुझे भी लगता है कि हमें वापस एक हो जाना चाहिए. क्या यह ठीक रहेगा ?

जवाब

आप अपने पति से अलग रह कर खुश हैं या नहीं, इस का फैसला तो आप को ही करना पड़ेगा. वैसे, बच्चे के भविष्य की दृष्टि से सोचें, तो आप दोनों का साथ रहना ही बेहतर है. जैसा कि आप ने कहा कि तलाक लेने के बावजूद आप दोनों एकदूसरे का खयाल रखते हैं. जाहिर है कि आप दिल से अब भी एकदूसरे के साथ जुड़े हुए हैं.

दरअसल, दिल के रिश्ते होते ही ऐसे हैं. पति का दिलफेंक होना ज्यादा बड़ी बात नहीं. इस उम्र में अकसर पुरुषों की नजरें दूसरी महिलाओं की तरफ चली ही जाती हैं. इस का मतलब यह नहीं कि आप उन्हें खराब चरित्र वाला समझें. बच्चे की खातिर पति को एक और मौका दे कर देखें. संभव है कि आप की जिंदगी में खुशियां फिर से लौट आएं.

वक्त बदल रहा है : एक खबर से कैसे बदली लोगों की जिंदगी ?

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खेल को खेल रहने दें इसे जंग का मैदान न बनाएं

विश्वकप में भारत की पराजय हो गई है इसी बानगी पर हम दृष्टिपात करते हुए बता रहे हैं कि भारत की आम जनता हो या फिर विशेष वर्ग और साथ ही देश का मीडिया एक बार इन्होंने यह दिखा दिया है कि भारत जैसे महान देश की आज दृष्टि कितनी संकुचित हो गई है कि भारत के लोगों को अपने सिवा कुछ दिख ही नहीं देता.

विश्वकप के खुमार पर अभी हम जब पीछे पलट कर अवलोकन करते हैं तो देखते हैं कि किस तरह विश्वकप क्रिकेट के संपूर्ण माहौल को एक तरफ कर दिया गया. कोई ऐसी जगह नहीं थी जहां क्रिकेट पर चर्चा न हो रही हो और कोई यह मानने को तैयार ही नहीं था कि भारत यह मैच फाइनल में हार जाएगा. यही राज मीडिया फैला रहा था और लोग इस में नाच कर झूम रहे थे यहां तक कि देश की सत्ता भी क्रिकेट को भुनाने में लग गई.

आननफानन में अंतिम मैच को अहमदाबाद के स्टेडियम में शिफ्ट किया गया जो कि सभी जानते हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने अपने नाम पर रखवाया है. शायद सत्ता भी यही समझ रही थी कि क्रिकेट का यह फाइनल भारत जीत जाएगा और उस का सारा श्रेय हम लूट ले जाएंगे.

दरअसल, जब हम अपनी सोच को संकुचित कर लेते हैं तो सब से पहले हमारी स्वयं से हार हो जाती है. भारत को विश्व गुरु मानने वाले कितने लोग अपनी पीठ थपथपाते हैं अगर हमें सच्चे अर्थों में विश्व गुरु बनना है और कभी भी छोटी सोच दृष्टि नहीं रखनी चाहिए.

दरअसल, विश्वकप को ले कर के भारत में जैसा माहौल दिखाई दिया मानो भारत ही विजयी होगा. यह सभी कह रहे थे कि खेल भावना की कमी है हमारे देश में. हमें खेलों को खेल की तरह लेना चाहिए. यह सूत्र वाक्य भारत का आम से आम आदमी, खेल प्रेमी, राजनीतिज्ञ और पत्रकार भूल जाते हैं और अंधभक्त बन जाते हैं.

यही आज विश्वकप क्रिकेट के फाइनल मैच में दिखाई दिया जब भारत और आस्ट्रेलिया आमनेसामने आए. यह खेद का विषय है कि यही आजकल राजनीति में होता है. यही धर्म में हो रहा है और यही समाज में है. अगर हम निष्पक्ष भावना के साथ विवेचना करें तो पाते हैं कि यह दृष्टिकोण देश को पीछे ले जाएगा और समाज को पीछे ले जा रहा है.

राजनीति, समाज में भी अंधभक्त

विश्वकप क्रिकेट के परिपेक्ष्य में अगर हम आज देश की सोच दृष्टि और कार्य पद्धति पर विचार करें तो पाते हैं कि विगत कुछ वर्षों से भारत की राजनीति और समाज में एक बड़ा परिवर्तन आया है कि एक बड़ा तबका अंधभक्त की तरह व्यवहार करने लगा है.

दरअसल, यह समझ होनी चाहिए कि अगर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं तो उन्हें देश की सेवा करने का मौका मिला है. देश को ऊंचाइयों पर ले जाने का अवसर प्राप्त हुआ है. यह कोई लड़ाई, युद्ध से सत्ता प्राप्ति नहीं है. हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था है जिस के तहत चुनाव होते हैं और देश का बहुमत जिस पार्टी के साथ होता है, उसे सत्ता प्राप्त होती है.

यह एक सामान्य सी प्रक्रिया है जो लगभग 75 वर्षों से चली आ रही है. मगर आज देखा जा रहा है कि देश में नरेंद्र मोदी के हर एक काम को चाहे वह कितना ही गलत क्यों न हो बहुत सारे लोग आंख बंद कर के समर्थन करते हैं. हम ने नीर क्षीर विवेचना की शक्ति होनी चाहिए.

अगर ऐसा नहीं है तो फिर हम गदह पचीसी की उम्र में जी रहे हैं. नरेंद्र मोदी की अंधभक्ति का सब से बड़ा उदाहरण अगर हम यहां बताएं तो वह था करोना कल में ‘थाली और घंटी’ बजवाना. प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी ने जाने किस सोच में देश की जनता से आह्वान कर दिया की थाली और घंटी बजाने से करोना भाग जाएगा और सारे देश ने आंख बंद कर के उन का कहना मानना शुरू कर दिया और घंटियां और तालियां बजने लगीं. लोग फोटो शेयर करने लगे.

आज समय है जब हम यह विवेचना करें कि देश का बड़ा सा बड़ा आदमी भी अगर कोई बात कर रहा है तो हमें उस वैज्ञानिक दृष्टिकोण से आकलन करना चाहिए सिर्फ कोई हमारा अपना या जिसे हम पसंद करते हैं वह कुछ कह दे तो आंख बंद कर के उस पर चलना अपने साथसाथ देश को भी कमजोर बनाने जैसा है.

आज राजनीति में यह अपने चरम सीमाओं को छू रहा है और देश को पतन की ओर ले जाने का काम कर रहा है जिसे हमें रोकना चाहिए. राजनीति के साथसाथ अगर हम धर्म और समाज को भी देखें तो यहां भी अंधभक्तों की कमी नहीं है. धर्मगुरु अगर कुछ कह देते हैं तो हमें आंख बंद कर के उस का अनुसरण नहीं करना चाहिए बल्कि अपनी आंख कान खुले रख कर के वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उसे पर विचार कर के उस का समर्थन करना चाहिए या फिर खुल कर विरोध करना चाहिए ताकि समाज में जागृति पैदा हो.

यही हालत समाज में है. समाज के मुखिया अगर किसी गलत चीज को बढ़ावा दे रहे हैं तो उसे रोकने का दायित्व आप का है भले ही आप अकेले क्यों न हों, अकेली आवाज क्यों न हो और इस के लिए चाहे आप को कितना ही कष्ट क्यों न उठाना पड़े.

रिटायरमेंट : आत्मसम्मान के आड़ में रिश्तों को बौना समझते पिता की कहानी

‘‘तो पापा, कैसा लग रहा है आज? आप की गुलामी का आज अंतिम दिन है. कल से आप पिंजरे से आजाद पंछी की भांति आकाश में स्वच्छंद विचरण करने के लिए स्वतंत्र होंगे,’’ आरोह नाश्ते की मेज पर भी पिता को अखबार में डूबे देख कर बोला था.

‘‘कहां बेटे, जीवन भर पिंजरे में बंद रहे पंछी के पंखों में इतनी शक्ति कहां होती है कि वह स्वच्छंद विचरण करने की बात सोच सके,’’ अरविंद लाल मुसकरा दिए थे, ‘‘पिछले 35 साल से घर से सुबह खाने का डब्बा ले कर निकलने और शाम को लौटने की ऐसी आदत पड़ गई है कि ‘रिटायर’ शब्द से भी डर लगता है.’’

‘‘कोई बात नहीं पापा, एकदो दिन बाद आप अपने नए जीवन का आनंद लेने लगेंगे,’’ कह कर आरोह हंस दिया.

‘‘मैं तो नई नौकरी ढूंढ़ रहा हूं. कुछ जगहों पर साक्षात्कार भी दे चुका हूं. मुझे कोई पैंशन तो मिलेगी नहीं. नई नौकरी से हाथ में चार पैसे भी आएंगे और साथ ही समय भी कट जाएगा.’’

‘‘क्या कह रहे हैं, पापा, जीवन भर खटने के बाद क्या यह आप की नौकरी ढूंढ़ने की उम्र है. यह समय तो पोतेपोतियों के साथ खेलने और अपनी इच्छानुसार जीवन जीने का है,’’ आरोह ने बड़े लाड़ से कहा था.

‘‘मैं सब समझ गया बेटे, रिटायर होने के बाद तुम मुझे अपना सेवक बना कर रखना चाहते हो,’’ अरविंद लाल का स्वर अचानक तीखा हो गया था.

‘‘पापा, आप के लिए मैं ऐसा सोच भी कैसे सकता हूं.’’

‘‘बेटे, आज घरघर की यही कहानी है. बूढ़े मातापिता तो किसी गिनती में हैं ही नहीं. बच्चों को स्कूल से लाना ले जाना. सब्जीभाजी से ले कर सारी खरीदारी करना यही सब तो कर रहे हैं आजकल अधिकतर वृद्ध. सुबह की सैर के समय मेरे मित्र यही सब बताते हैं.’’

‘‘बताते होंगे, पर हर परिवार की परिस्थितियां अलगअलग होती हैं. आप को ऐसा कुछ करने की कतई जरूरत नहीं है. कल से आप अपनी इच्छा के मालिक होंगे. जब मन में आए सोइए, जब मन में आए उठिए, आप की दिनचर्या में कोई खलल नहीं डालेगा. मैं, यह आप को विश्वास दिलाता हूं. पर कृपया फिर से नई नौकरी ढूंढ़ने के चक्कर में मत पडि़ए,’’ आरोह ने विनती की.

अरविंदजी कोई उत्तर देते इस से पहले ही बहू मानिनी आ खड़ी हुई और अपने पति की ओर देख कर बोली, ‘‘चलें क्या? देर हो रही है.’’

‘‘हां, चलो, मुझे भी आज जल्दी पहुंचना है. अच्छा पापा, फिर शाम को मिलते हैं,’’ आरोह उठ खड़ा हुआ.

‘‘मानिनी, नाश्ता तो कर लो,’’ आरोह की मां वसुधाजी बोलीं.

‘‘मांजी, चाय पी ली है. नाश्ता अस्पताल पहुंच कर लूंगी. आज चारू को हलका बुखार था. परीक्षा थी इसलिए स्कूल गई है. रामदीन जल्दी ले आएगा. आप जरा संभाल लीजिएगा,’’ मानिनी जाते हुए बोली थी.

‘‘बहू, तुम चिंता मत करो. मैं हूं न. सब संभाल लूंगी,’’ वसुधाजी ने मानिनी को आश्वस्त किया.

‘‘चिंता करने की जरूरत भी कहां है, यहां स्थायी नौकरानी जो बैठी है दिन भर हुकम बजा लाने को,’’ अरविंद लाल कटु स्वर में बोले.

‘‘अपने घर के काम करने से कोई छोटा नहीं हो जाता पर यह बात आप की समझ से बाहर है. चलो, नहाधो कर तैयार हो जाओ. आज तो आफिस जाना है. कल से घर बैठ कर अपनी गाथा सुनाना.’’

‘‘मेरी समझ का तो छोड़ो अपनी समझ की बात करो. दिन भर घर में लगी रहती हो. मानिनी तो नाम की मां है. चारू और चिरायु को तो तुम्हीं ने पाल कर बड़ा किया है. सुधांशु की पत्नी इसी काम के लिए आया को 7 हजार रुपए देती है.’’

‘‘आप के विचार से आया और दादी में कोई अंतर नहीं होता. मैं ने तो आरोह और उस की दोनों बहनों को भी बड़ा किया है. तब तो आप ने यह प्रश्न कभी नहीं उठाया.’’

‘‘भैंस के आगे बीन बजाने का कोई लाभ नहीं है. मैं आगे तुम से कुछ भी नहीं कहूंगा, पर इतना साफ कहे देता हूं कि मैं अपने ही बेटे के घर पर घरेलू नौकर बन कर नहीं रहूंगा. मेरे लिए मेरा आत्मसम्मान सर्वोपरि है.’’

‘‘क्या कह रहे हो, कुछ तो सोचसमझ कर बोला करो. घर में नौकरचाकर क्या सोचेंगे…अच्छा हुआ कि आरोह, मानिनी और बच्चे घर पर नहीं हैं. नहीं तो ऐसी बेसिरपैर की बातें सुन कर न जाने क्या सोचते.’’

‘‘मैं किसी से नहीं डरता. और जो कुछ तुम से कह रहा हूं उन से भी कह सकता हूं,’’ अरविंद लाल शान से बोले.

‘‘क्यों अपने पैरों आप कुल्हाड़ी मारने पर तुले हो. याद करो वह दिन जब हम पैसेपैसे को तरसते थे. तब एक दिन आप ने बड़ी शान से कहा था कि चाहे आप को कुछ भी करना पड़े आप आरोह को क्लर्की नहीं करने देंगे. उसे आप डाक्टर बनाएंगे.’’

‘‘हां, तो क्या बनाया नहीं उसे डाक्टर? उन दिनों हम ने कितनी तंगी में दिन गुजारे यह क्या तुम नहीं जानतीं?’’

‘‘जानती हूं. मैं सब जानती हूं. पर कई बार मातापिता लाख प्रयत्न करें तब भी संतान कुछ नहीं करती लेकिन अपना आरोह तो लाखों में एक है. अपने पैरों पर खड़े होते ही उस ने आप की जिम्मेदारियों का भार अपने कंधों पर ले लिया. नीना और निधि के विवाह में उस ने कर्ज ले कर आप की सहायता की वरना उन दोनों के लिए अच्छे घरवर जुटा पाना आप के वश की बात न थी,’’ वसुधाजी धाराप्रवाह बोले जा रही थीं.

‘‘तुम्हें तो पुत्रमोह ने अंधा बना दिया है. अपनी बहनों के प्रति उस का कुछ कर्तव्य था या नहीं? उन के विवाह में सहायता कर के उस ने अपने कर्तव्य का पालन किया है और कुछ नहीं. परिवार के सदस्य एकदूसरे के लिए इतना भी न करें तो एकसाथ रहने का अर्थ क्या है? आरोह ने जब इस कोठी को खरीदने की इच्छा जाहिर की थी तो हम चुपचाप अपना 2 कमरों का मकान बेच कर उस के साथ रहने आ गए थे.’’

‘‘वह भी तब जब उस ने आधी कोठी आप के नाम करवा दी थी.’’

‘‘वह सब मैं ने अपने लिए नहीं तुम्हारे लिए किया था. आजकल की संतान का क्या भरोसा. कब कह दे कि हमारे घर से बाहर निकल जाओ,’’ अरविंदजी अब अपनी अकड़ में थे.

‘‘समझ में नहीं आ रहा कि आप को कैसे समझऊं. पता नहीं इतनी कड़वाहट कहां से आ गई है आप के मन में.’’

‘‘कड़वाहट? यह कड़वाहट नहीं है आत्मसम्मान की लड़ाई है. माना तुम्हारा आरोह बहुत प्रसिद्ध डाक्टर हो गया है. दोनों पतिपत्नी मिल कर खूब पैसा कमा रहे हैं, पर वे मुझे नीचा दिखाएं या अपने रुतबे का रौब दिखाएं तो मैं यह सह नहीं पाऊंगा.’’

‘‘कौन आप को नीचा दिखा रहा है? पता नहीं आप ने अपने दिमाग में यह कैसी कुंठा पाल ली है और दिन भर न जाने क्याक्या सोचते रहते हैं,’’ वसुधा का स्वर अनचाहे भर्रा गया था.

‘‘चलो, बहस छोड़ो और मेरा सूट ले आओ. आज मेरा विदाई समारोह है. सूट पहन कर जाऊंगा.’’

अरविंद लाल तैयार हो कर दफ्तर चले गए. पर वसुधा को सोच में डूबा छोड़ गए. कुछ दिनों से अपने पति अरविंद लाल का हाल देख कर वसुधा का दिल बैठा जा रहा था. जितनी देर वे घर में रहते एक ही राग अलापते कि अपने आत्मसम्मान की रक्षा के लिए अपनी जान की बाजी लगा देंगे.

फूलमालाओं और उपहारों से लदे अरविंदजी को दफ्तर की गाड़ी छोड़ गई थी. उन के अफसरों ने भी उन की प्रशंसा के पुल बांध दिए थे.

घर आते ही उन्होंने चारू और चिरायु के गले में फूलमालाएं डाल दी थीं और प्रसन्नता से झमते हुए देर तक वसुधा को विदाई समारोह का हाल सुनाते रहे थे.

‘‘दादाजी, घूमने चलो न, आइसक्रीम खाएंगे,’’ उन्हें अच्छे मूड में देख कर बच्चे जिद करने लगे थे.

‘‘कहीं नहीं जाना है. चारू को बुखार है, वैसे भी आइसक्रीम खाने के लिए कहीं जाने की आवश्यकता नहीं है. फ्रिज में ढेरों आइसक्रीम पड़ी है,’’ वसुधाजी ने दोनों बच्चों को समझया था.

‘‘ठीक कहती हो,’’ अरविंदजी बोले, ‘‘बच्चो, कल घूमने चलेंगे. आज मैं बहुत थक गया हूं. वसुधा, एक प्याली चाय पिला दो फिर कुछ देर आराम करूंगा. कल नई पारी की शुरुआत जो करनी है.’’

वसुधा के मन में सैकड़ों प्रश्न बादल की तरह उमड़घुमड़ रहे थे कि वे किस दूसरी पारी की बात कर रहे हैं, कुछ पूछ कर फिर से वे घर की शांति को भंग नहीं करना चाहतीं. इसलिए चुपचाप चाय बना कर ले आईं.

अगले दिन अरविंदजी रोज की तरह तैयार हो कर घर से चले तो वसुधा स्वयं को रोक नहीं सकीं.

‘‘टोकना आवश्यक था? शुभ कार्य के लिए जा रहा था… अब तो काम शायद ही बने,’’ अरविंदजी झंझला गए थे.

‘‘मुझे लगा कि आज आप घर पर ही विश्राम करेंगे. आप 2 मिनट रुकिए अभी आप के लिए टिफिन तैयार करती हूं.’’

‘‘जाने दो, मैं फल आदि खा कर काम चला लूंगा. मुझे देर हो रही है,’’ अरविंदजी अपनी ही धुन में थे.

‘‘पापा कहां गए?’’ नाश्ते की मेज पर आरोह पूछ बैठा था.

‘‘वे तो रोज की तरह ही घर से निकल गए. कह रहे थे कि किसी आवश्यक कार्य से जाना है,’’ वसुधा ने बताया.

‘‘मां, आप उन्हें समझती क्यों नहीं कि उन्हें फिर से काम ढूंढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है. 35 वर्ष तक उन्होंने कार्य किया है. अब जब कुछ आराम करने का समय आया तो फिर से काम ढूंढ़ने निकल पड़े.’’

‘‘क्या कहूं, बेटे. मैं तो उन्हें समझसमझ कर थक गई हूं. सुबह की सैर पर साथ जाने वाले मित्रों ने इन के मन में यह बात अच्छी तरह बिठा दी है कि अब घर में उन को कोई नहीं पूछेगा. बातबात में यही कहते हैं कि अपने आत्मसम्मान पर आंच नहीं आने देंगे.’’

‘‘उन के आत्मसम्मान पर चोट करने का प्रश्न ही कहां है, मां. घर में आराम से रहें, अपनी इच्छानुसार जीवन जिएं.’’

‘‘इस विषय पर बहुत कहासुनी हो चुकी है. मैं ने तो अब किसी प्रकार की बहस न करने का निर्णय लिया है, पर मन ही मन मैं बुरी तरह डर गई हूं.’’

‘‘इस में डरने की क्या बात है, मां.’’

‘‘इसी तरह तनाव में रहे तो अपनी सेहत चौपट कर लेंगे,’’ वसुधाजी रो पड़ी थीं.

‘‘चिंता मत करो, मां, सेवानिवृत्ति के समय कई लोग इस तरह के तनाव के शिकार हो जाते हैं,’’ आरोह ने मां को समझया.

अरविंदजी दोपहर को घर आए तो देखा, आरोह खाने की मेज पर अपनी मां से कुछ बातें कर रहा था.

‘‘मांबेटे के बीच क्या कानाफूसी हो रही है? मेरे विरुद्ध कोई साजिश तो नहीं हो रही?’’ वे थके होने पर भी मुसकराए थे.

‘‘हो तो रही है, हम सब को आप से बड़ी शिकायत है,’’ आरोह मुसकराया था.

‘‘ऐसा क्या कर दिया मैं ने?’’

‘‘कल आप का विदाई समारोह था. आप सपरिवार आमंत्रित थे पर आप अकेले ही चले गए. मां तक को नहीं ले गए. हम से पूछा तक नहीं.’’

‘‘क्या कह रहे हो, आरोह? इन्हें सपरिवार बुलाया गया था?’’ वसुधा चौंकी थीं.

‘‘पूछ लो न, पापा सामने ही तो बैठे हैं. मुझे तो इन के सहकर्मी मनोज ने आज सुबह अस्पताल आने पर बताया.’’

‘‘इन्हें हमारी भावनाओं की चिंता ही कहां है,’’ वसुधा नाराज हो उठी थीं.

‘‘बात यह नहीं है. मुझे लगा आरोह और मानिनी इतने नामीगिरामी चिकित्सक हैं. वे मुझ जैसे मामूली क्लर्क के विदाई समारोह में क्यों आएंगे. वसुधा सदा पूजापाठ और चारू व चिरायु के साथ व्यस्त रहती है, इसीलिए मैं किसी से कुछ कहेसुने बिना अकेले ही चला गया था. यद्यपि हमारे यहां विदाई समारोह में सपरिवार जाने की परंपरा है,’’ अरविंदजी क्षमायाचनापूर्ण स्वर में बोले थे.

‘‘आप की समस्या यह है पापा कि आप सबकुछ अपने ही दृष्टिकोण से देखते हैं. खुद को बारबार साधारण क्लर्क कह कर आप केवल स्वयं को नहीं, मेरे पिता को अपमानित करते हैं जिन्होंने इसी नौकरी के बलबूते पर मेहनत और ईमानदारी से अपने परिवार का पालनपोषण किया. साथ ही आप उन हजारों लोगों का अपमान भी करते हैं जो इस तरह की नौकरियों से अपनी जीविका कमाते हैं.’’

आरोह का आरोप सुन कर कुछ क्षणों के लिए अरविंदजी ठगे से रह गए थे. कोई उन के बारे में इस तरह भी सोच सकता है यह उन के लिए एक नई बात थी. उन की आंखों से आंसू टपकने लगे.

‘‘क्या हुआ, पापा? आप रो क्यों रहे हैं?’’ तभी नीना और निधि आ खड़ी हुई थीं.

‘‘मैं क्या बताऊं, पापा से ही पूछ लो न,’’ आरोह हंसा था. पर अरविंदजी ने चटपट आंसू पोंछ लिए थे.

‘‘तुम दोनों कब आईं?’’ उन्होंने नीना और निधि से अचरज से पूछा था.

‘‘ये दोनों अकेली नहीं सपरिवार आई हैं, वह भी मेरे निमंत्रण पर. कल कुछ और अतिथि भी आ रहे हैं.’’

‘‘क्या कह रहे हो…मेरी समझ में तो कुछ नहीं आ रहा है…कल कौन सा पर्व है?’’

‘‘कल हम अपने पापा के रिटायर होने का फंक्शन मना रहे हैं.’’

‘‘यह सब क्या है. हमारे परिवार में इस तरह के किसी आयोजन की कोई परंपरा नहीं है.’’

‘‘परंपराएं बदली भी जा सकती हैं. हम ने कल की पार्टी में आप के सभी सहकर्मियों को भी आमंत्रित किया है. नीनानिधि, इन के हाथोें से यह फाइल ले लो. पूछो आज दोपहर तक कहां भटकते रहे,’’ आरोह ने अरविंदजी की फाइल की ओर इशारा किया.

नीना ने पिता के हाथ से फाइल ले ली.

‘‘इस में तो डिगरियां और पापा का बायोडाटा है. यह क्या पापा? आप फिर से नौकरी ढूंढ़ रहे हैं?’’ नीना और निधि आश्चर्यचकित पास आ खड़ी हुई थीं.

‘‘चलो, चायनाश्ता लग गया है,’’ तभी मानिनी ने आ कर सब का ध्यान बटाया.

‘‘लाओ, यह फाइल मुझे दो. मैं इसे ताले में रखूंगा,’’ आरोह उठते हुए बोला.

‘‘चलो उठो, मुंहहाथ धो लो. सब चाय पर प्रतीक्षा कर रहे हैं,’’ वसुधाजी ने भरे गले से कहा.

‘‘इतना सब हो गया और तुम ने मुझे हवा भी नहीं लगने दी,’’ अरविंदजी ने उलाहना देते हुए पत्नी से कहा.

‘‘मुझे भी कहां पता था. मुझे तो कोई भी कुछ बताता ही नहीं. न तुम न तुम्हारे बच्चे. पर मेरे आत्मसम्मान की चिंता किसे है भला,’’ वसुधा नाटकीय अंदाज में बोली थीं.

अरविंद बाबू सोचते रह गए थे. वसुधा शायद ठीक ही कहती है. परिवार की धुरी है वह पर कभी किसी बात का रोना नहीं रोया. ये तो केवल वही थे जो आत्मसम्मान के नाम पर इतने आत्मकेंद्रित हो गए थे कि कोई दूसरा नजर ही नहीं आता था. न जाने मन में कैसी कुंठाएं पाल ली थीं उन्होंने.

प्रतिदान : मातापिता की अधूरी ख्वाहिश की कहानी

बाबू साहब, यानी बाबू जगदीश नारायण श्रीवास्तव…रिटायर्ड जिला जज, अब गांव की सब से बड़ी हवेली के एक बड़े कमरे में चारपाई पर असहाय पड़े हुए थे. उन की आंखों के कोरों में आंसू के कतरे झलक रहे थे. वे वहीं अटके रहते हैं. हर रोज ऐसा होता है, जब रामचंद्र उन्हें नहलाधुला कर, साफ कपड़े पहना कर अपने हाथों से उन्हें खाना खिला कर अपने घर के काम निबटाने चला जाता है.

आज बाबू साहब के आंसू पोंछने वाला उन का अपना कोई आसपास नहीं है, लेकिन जब वे सेवा में थे, तो उन के पास सबकुछ था. संपन्नता, वैभव, सफल दांपत्यजीवन, सुखी और व्यवस्थित बच्चे. उन के 2 लड़के हैं. बड़ा लड़का उन की तरह ही प्रादेशिक न्यायिक सेवा में भरती हो कर मजिस्ट्रेट हो गया और आजकल मिर्जापुर में तैनात है. छोटे लड़के ने सिविल सेवा की तैयारी की और भारतीय राजस्व विभाग सेवा में नियुक्त हो कर आजकल मुंबई में सीमा शुल्क विभाग में बतौर डिप्टी कलेक्टर लगा हुआ है. दोनों के बीवीबच्चे उन के साथ ही रहते हैं.

बलिया से जब बाबू जगदीश नारायण रिटायर हुए तो दोनों बच्चों ने कहा जरूर था कि वे बारीबारी से उन के साथ रहें, पर उन का दिल न माना. दोनों लड़कों के बीच में बंट कर कैसे रहते? इसलिए इधरउधर दौड़ने के बजाय उन्होंने गांव में एकांत जीवन जीना पसंद किया और अपने पुश्तैनी गांव चले आए, जो अब कसबे का रूप धारण कर चुका था. चारों तरफ पक्की सड़कें बन चुकी थीं. घरों में बिजली लग चुकी थी. गांव का पुराना स्वरूप कहीं देखने को नहीं मिलता था.

बाबू जगदीश नारायण ने नौकरी में रहते हुए ही अपने पुराने कच्चे मकान को ध्वस्त कर हवेलीनुमा मकान बनवा लिया था. तब पत्नी जीवित थीं. वे खुद सशक्त और अपने पैरों पर चलनेफिरने लायक थे. सुबहशाम खेतों की तरफ जा कर काम देखते थे. पिता के जमाने से घर में काम कर रहे रामचंद्र को अपने पास रख लिया था. बाहर का ज्यादातर काम वही देखता था. मजदूर अलग से थे, जो खेतों में काम करते थे. घर में घीदूध की कमी न रहे इसलिए 2 भैंसें भी पाल ली थीं.

पतिपत्नी गांव में सुख से रहते थे. जीवन में गम क्या होता है, तब बाबू साहब को शायद पता भी नहीं था. छुट्टियों में दोनों लड़के आ जाते थे. घर में उल्लास छा जाता. दोनों बेटों के भी 2-2 बच्चे हो गए थे. वे सब आते, तो लगता उन से ज्यादा सुखी और संपन्न व्यक्ति दुनिया में और कोई नहीं है.

5 साल पहले पत्नी का देहांत हो गया. बेटे आए. तेरहवीं तक रहे. जब चलने लगे तो बेमन से कहा कि गांव में अकेले कैसे रहेंगे? बारीबारी से उन के पास रहें. गांव की जमीनजायदाद बेच दें. यहां उस का क्या मूल्य है? लेकिन उन्होंने देख लिया था कि बहुएं अपनेअपने पतियों से इशारा कर रही थीं कि पिताजी को अपने साथ रखने की कोई जरूरत नहीं है.

वैसे भी अपनी बहुओं की सारी हकीकत उन्हें ज्ञात थी. वे ठीक से उन से बात तक नहीं करती थीं. करतीं तो क्या वे स्वयं नहीं कह सकती थीं कि बाबूजी, चल कर आप हमारे साथ रहें. पर दिल से वे नहीं चाहती थीं कि बूढ़े को जिंदगी भर ढोएं और महानगर की अपनी चमकदार दुनिया को बेरंग कर दें.

बेटों को बाबू साहब ने साफ मना कर दिया कि वे उन में से किसी के साथ नहीं रहेंगे क्योंकि गांव से, खासकर अपनी कमाई से बनाई संपत्ति से उन्हें खासा लगाव हो गया था. बच्चे चले गए. एक बार मना करने के बाद दोबारा बच्चों ने चलने के लिए नहीं कहा. वे स्वाभिमानी व्यक्ति थे. जीवन में किसी के सामने झकना नहीं सीखा था. कभी किसी के दबाव में नहीं आए थे. आज बेटों के सामने क्यों झकते?

घर में वे और रामचंद्र रह गए. रामचंद्र की बीवी आ कर खाना बना जाती. जब तक वे बिस्तर पर न जाते, रामचंद्र अपने घर न जाता. पूर्ण निष्ठा के साथ वह देर रात तक उन की सेवा में जुटा रहता. दिन भर खेतों मेें मजदूरों के साथ काम करता, फिर आ कर घर के काम निबटाता. भैंसों को चारापानी देता. हालांकि उस की बीवी घर के कामों में उस की मदद करती थी, उस का ज्यादातर काम रसोई तक ही सीमित रहता था.

बाबू साहब को मधुमेह की बीमारी थी. जिस की दवाइयां वे लेते रहते थे. अचानक न जाने क्या हुआ कि उन के हाथपांवों में दर्द रहने लगा. घुटनों तक पैर जकड़ जाते और हाथों की उंगलियां कड़ी हो जातीं. मुट्ठी तक न बांध पाते. सुबह नींद खुलने पर बिस्तर से तुरंत नहीं उठ पाते थे. सारा शरीर जकड़ सा जाता.

पहले बाबू साहब ने आसपास ही इलाज करवाया. कोई फायदा नहीं हुआ तो जिला अस्पताल जा कर चेकअप करवाया. डाक्टरों ने बताया कि नसों के टिशूज मरते जा रहे हैं. नियमित टहलना, व्यायाम करना, कुछ चीजों से परहेज करना और नियमित दवाइयां खाने से फायदा हो सकता है. कोई गारंटी नहीं थी. फिर भी डाक्टरों का कहना तो मानना ही था.

जब वे अस्पताल में भरती थे तो दोनों बेटे एकएक कर के आए थे. डाक्टरों से परामर्श कर के और रामंचद्र को हिदायतें दे कर चले गए. किसी ने छुट्टी ले कर उन के पास रहना जरूरी नहीं समझ. उन की बीवियां तो आई भी नहीं. उन्हें यह सोच कर धक्का सा लगा था कि क्या बुढ़ापे में अपने सगे ऐसे हो जाते हैं. अंदर से उन्हें तकलीफ बहुत हुई थी लेकिन सबकुछ समय पर छोड़ दिया.

कुछ दिन अस्पताल में भरती रह कर बाबू साहब गांव आ गए. इलाज चल रहा था. पर कोई फायदा होता नजर नहीं आ रहा था. उन के पैर धीरेधीरे सुन्न और अशक्त होते जा रहे थे. रामचंद्र उन्हें पकड़ कर उठाता, तभी वे उठ कर बैठ पाते. चलनाफिरना दूभर होने लगा. उन्होंने बड़े बेटे को लिखा कि वह आ कर उन को लखनऊ के के.जी.एम.सी. या संजय गांधी इंस्टीट्यूट में दिखा दे.

बड़ा लड़का आया तो जरूर और उन्हें के.जी.एम.सी. में भरती करवा गया. पर इस के बाद कुछ नहीं. भरती कराने के बाद रामचंद्र से बोल गया कि जब तक इलाज चले, वह बाबूजी के साथ रहे. उस की बीवी को भी लखनऊ में छोड़ दिया.

रामचंद्र अपनी बीवी के साथ तनमन से बाबू साहब की सेवा में लगा रहा. धन तो बाबू साहब लगा ही रहे थे. उस की कमी उन के पास नहीं थी. पर न जाने उन के मन में कैसी निराशा घर कर गई थी कि किसी दवा का उन पर असर ही नहीं हो रहा था. अपनों के होते हुए भी उन का अपने पास न होने का एहसास उन्हें अंदर तक साल रहा था. डाक्टरों की लाख कोशिश के बावजूद वे ठीक न हो सके और लखनऊ से अपाहिज हो कर ही गांव लौटे.

अब स्थिति यह हो गई थी कि बाबू साहब चारपाई से उठने में भी अशक्त हो गए थे. रामचंद्र अधेड़ था पर उस के शरीर में जान थी. अपने बूते पर उन्हें उठा कर बिठा देता था तो वे तकियों के सहारे बिस्तर पर पैर लटका कर बैठे रहते थे.

एक दिन नौबत यह आ गई कि वे खुद मलमूत्र त्यागने में भी अशक्त हो गए. उन्हें बिस्तर से उतार कर चारपाई पर डालना पड़ा. चारपाई के बीच एक गोल हिस्सा काट दिया गया. नीचे एक बड़ा बरतन रख दिया गया, ताकि बाबू साहब उस पर मलमूत्र त्याग कर सकें.

रामचंद्र भी जीवट का आदमी था. न कोई घिन न अनिच्छा. पूरी लगन, निष्ठा और निस्वार्थ भाव से उन का मलमूत्र उठा कर फेंकने जाता. बाबू साहब ने उसे कई बार कहा कि वह कोई मेहतर बुला लिया करे. सुबहशाम आ कर गंदगी साफ कर दिया करेगा, पर रामचंद्र ने बाबू साहब की बातों को अनसुना कर दिया और खुद ही उन का मलमूत्र साफ करता रहा. उन्हें नहलाताधुलाता और साफसुथरे कपड़े पहनाता. उस की बीवी उन के गंदे कपड़े धोती, उन के लिए खाना बनाती. रामचंद्र खुद स्नान करने के बाद उन्हें अपने हाथों से खाना खिलाता. अपने सगे बहूबेटे क्या उन की इस तरह सेवा करते? शायद नहीं…कर भी नहीं सकते थे. बाबू साहब मन ही मन सोचते.

बाबू साहब उदास मन लेटेलेटे जीवन की सार्थकता पर विचार करते. मनुष्य क्यों लंबे जीवन की आकांक्षा करता है, क्यों वह केवल बेटों की कामना करता है? बेटे क्या सचमुच मनुष्य को कोई सुख प्रदान करते हैं? उन के अपने बेटे अपने जीवन में व्यस्त और सुखी हैं. अपने जन्मदाता की तरफ से निर्लिप्त हो कर अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं, जैसे अपने पिता से उन्हें कुछ लेनादेना नहीं है.

और एक तरफ रामचंद्र है, उस की बीवी है. इन दोनों से उन का क्या रिश्ता है? उन्हें नौकर के तौर पर ही तो रखा था. परंतु क्या वे नौकर से बढ़ कर नहीं हैं? वे तो उन के अपने सगे बेटों से भी बढ़ कर हैं. बेटेबहू अगर साथ होते, तब भी उन का मलमूत्र नहीं छूते.

जब से वे पूरी तरह अशक्त हुए हैं, रामचंद्र अपने घर नहीं जाता. अपनी बीवी के साथ बाबू साहब के मकान में ही रहता है. उन्होंने ही उस से कहा था कि रात को पता नहीं कब क्या जरूरत पड़ जाए? वह भी मान गया. घर में उस के बच्चे अपनी दादी के साथ रहते थे. दोनों पतिपत्नी दिनरात बाबू साहब की सेवा में लगे रहते थे.

खेतों में कितना गल्लाअनाज पैदा हुआ, कितना बिका और कितना घर में बचा है, इस का पूरापूरा हिसाब भी रामचंद्र रखता था. पैसे भी वही तिजोरी में रखता था. बाबू साहब बस पूछ लेते कि कितना क्या हुआ? बाकी मोहमाया से वह भी अब छुटकारा पाना चाहते थे. इसलिए उस की तरफ ज्यादा ध्यान न देते. रामचंद्र को बोल देते कि उसे जो करना हो, करता रहे. रुपएपैसे खर्च करने के लिए भी उसे मना नहीं करते थे. तो भी रामचंद्र उन का कहना कम ही मानता था. बाबू साहब का पैसा अपने घर में खर्च करते समय उस का मन कचोटता था. हाथ खींच कर खर्च करता. ज्यादातर पैसा उन की दवाइयों पर ही खर्च होता था. उस का वह पूरापूरा हिसाब रखता था.

रात को जगदीश नारायण को जब नींद नहीं आती तो पास में जमीन पर बैठे रामचंद्र से कहते, ‘‘रमुआ, हम सभी मिथ्या भ्रम में जीते हैं. कहते हैं कि यह हमारा है, धनसंपदा, बीवीबच्चे, भाई- बहन, बेटीदामाद, नातीपोते…क्या सचमुच ये सब आप के अपने हैं? नहीं रे, रमुआ, कोई किसी का नहीं होता. सब अपनेअपने स्वार्थ के लिए जीते हैं और मिथ्या भ्रम में पड़ कर खुश हो लेते हैं कि ये सब हमारा है,’’ और वे एक आह भर कर चुप हो जाते.

रामचंद्र मनुहार भरे स्वर में कहता, ‘‘मालिक, आप मन में इतना दुख मत पाला कीजिए. हम तो आप के साथ हैं, आप के चाकर. हम आप की सेवा मरते दम तक करेंगे और करते रहेंगे. आप को कोई कष्टतकलीफ नहीं होने देंगे.’’

‘‘हां रे, रमुआ, एक तेरा ही तो आसरा रह गया है, वरना तो कब का इस संसार से कूच कर गया होता. इस लाचार, बेकार और अपाहिज शरीर के साथ कितने दिन जीता. यह सब तेरी सेवा का फल है कि अभी तक संसार से मोह खत्म नहीं हुआ है. अब तुम्हारे सिवा मेरा है ही कौन?

‘‘मुझे अपने बेटों से कोई आशा या उम्मीद नहीं है. एक तेरे ऊपर ही मुझे विश्वास है कि जीवन के अंतिम समय तक तू मेरा साथ देगा, मुझे धोखा नहीं देगा. अब तक निस्वार्थ भाव से मेरी सेवा करता आ रहा है. बंधीबंधाई मजदूरी के सिवा और क्या दिया है मैं ने?’’

‘‘मालिक, आप की दयादृष्टि बनी रहे और मुझे क्या चाहिए? 2 बेटे हैं, बड़े हो चुके हैं, कहीं भी कमाखा लेंगे. एक बेटी है, उस की शादी कर दूंगा. वह भी अपने घर की हो जाएगी. रहा मैं और पत्नी, तो अभी आप की छत्रछाया में गुजरबसर हो रहा है. आप के न रहने पर आवंटन में जो 2 बीघा बंजर मिला है, उसी पर मेहनत करूंगा, उसे उपजाऊंगा और पेट के लिए कुछ न कुछ तो पैदा कर ही लूंगा.’’

एक तरफ था रामचंद्र…उन का पुश्तैनी नौकर, सेवक, दास या जो भी चाहे कह लीजिए. दूसरी तरफ उन के अपने सगे बेटेबहू. उन के साथ खून के रिश्ते के अलावा और कोई रिश्ता नहीं था जुड़ने के लिए. मन के तार उन से न जुड़ सके थे. दूसरी तरफ रामचंद्र ने उन के संपूर्ण अस्तित्व पर कब्जा कर लिया था, अपने सेवा भाव से. उस की कोई चाहत नहीं थी. वह जो भी कर रहा था, कर्तव्य भावना के साथ कर रहा था. वह इतना जानता था कि बाबू साहब उस के मालिक हैं, वह उन का चाकर है. उन की सेवा करना उस का धर्म है और वह अपना धर्म निभा रहा था.

बाबू साहब के पास उन के अपने नाम कुल 30 बीघे पक्की जमीन थी. 20 बीघे पुश्तैनी और 10 बीघे उन्होंने स्वयं खरीदी थी. घर अपनी बचत के पैसे से बनवाया था. उन्होेंने मन ही मन तय कर लिया था कि संपत्ति का बंटवारा किस तरह करना है.

उन के अपने कई दोस्त वकील थे. उन्होंने अपने एक विश्वस्त मित्र को रामचंद्र के माध्यम से घर पर बुलवाया और चुपचाप वसीयत कर दी. वकील को हिदायत दी कि उस की मृत्यु पर अंतिम संस्कार से पहले उन की वसीयत खोल कर पढ़ी जाए. उसी के मुताबिक उन का अंतिम संस्कार किया जाए. उस के बाद ही संपत्ति का बंटवारा हो.

फिर उन्होंने एक दिन तहसील से लेखपाल तथा एक अन्य वकील को बुलवाया और अपनी कमाई से खरीदी 10 बीघे जमीन का बैनामा रामचंद्र के नाम कर दिया. साथ ही यह भी सुनिश्चित कर दिया कि उन की मृत्यु के बाद इस जमीन पर उन के बेटों द्वारा कोई दावामुकदमा दायर न किया जाए. इस तरह का एक हलफनामा तहसील में दाखिल कर दिया.

यह सब होने के बाद रामचंद्र और उस की बीवी उन के चरणों पर गिर पड़े. वे जारजार रो रहे थे, ‘‘मालिक, यह क्या किया आप ने? यह आप के बेटों का हक था. हम तो गरीब आप के सेवक. जैसे आप की सेवा कर रहे थे, आप के बेटों की भी करते. आप ने हमें जमीन से उठा कर आसमान का चमकता तारा बना दिया.’’

वे धीरे से मुसकराए और रामचंद्र के सिर पर हाथ फेर कर बोले, ‘‘रमुआ, अब क्या तू मुझे बताएगा कि किस का क्या हक है. तू मेरे अंश से नहीं जन्मा है, तो क्या हुआ? मैं इतना जानता हूं कि मनुष्य के अंतिम समय में उस को एक अच्छा साथी मिल जाए तो उस का जीवन सफल हो जाता है. तू मेरे लिए पुत्र समान ही नहीं, सच्चा दोस्त भी है. क्या मैं तेरे लिए मरते समय इतना भी नहीं कर सकता?

‘‘मैं अपने किसी भी पुत्र को चाहे कितनी भी दौलत दे देता, फिर भी वह मेरा इस तरह मलमूत्र नहीं उठाता. उस की बीवी तो कदापि नहीं. हां, मेरी देखभाल के लिए वह कोई नौकर रख देता, लेकिन वह नौकर भी मेरी इतनी सेवा न करता, जितनी तू ने की है. मैं तुझे कोई प्रतिदान नहीं दे रहा. तेरी सेवा तो अमूल्य है. इस का मूल्य तो आंका ही नहीं जा सकता. बस तेरे परिवार के भविष्य के लिए कुछ कर के मरते वक्त मुझे मानसिक शांति प्राप्त हो सकेगी,’’ बाबू साहब आंखें बंद कर के चुप हो गए.

मनुष्य का अंत समय आता है तो बचपन से ले कर जवानी और बुढ़ापे तक के सुखमय चित्र उस के दिलोदिमाग में छा जाते हैं और वह एकएक कर बाइस्कोप की तरह गुजर जाते हैं. वह उन में खो जाता है और कुछ क्षणों तक असंभावी मृत्यु की पीड़ा से मुक्ति पा लेता है.

बुढ़ापे की अपंगता को छोड़ कर बाबू साहब को नहीं लगता कि कभी किसी दुख से उन का आमनासामना हुआ हो. पिता संपन्न किसान थे. साथ ही उस जमाने के पटवारी भी थे. 2 बहनों के बीच अकेले भाई थे. लाड़प्यार से पालन- पोषण हुआ था. किसी चीज का अभाव नहीं था, पर वे बिगड़ैल नहीं निकले क्योंकि मां समझदार थीं. अच्छे संस्कार डाले उन में. बुद्धि के तेज थे. स्कूल में हमेशा अव्वल आते. 5वीं के बाद उन्हें पढ़ने के लिए कसबे के इंटर कालेज में भेज दिया गया. वहां भी प्राध्यापकों के चहेते रहे. इंटर के बाद उच्च शिक्षा के लिए वे इलाहाबाद गए. वहां होस्टल में रह कर पढ़ाई की. अच्छे अंकों से बी.एससी. उत्तीर्ण की. तभी उन का मन साइंस से उचट गया.

बातोंबातों में एक दिन उन के एक मित्र ने कह दिया, ‘यार जगदीश, तू क्यों साइंस के फार्मूलों में उलझ हुआ है. तेरी तो तर्कवितर्क की शक्ति बड़ी पैनी है. बहस जोरदार कर लेता है. एलएल.बी. कर के वकालत क्यों नहीं करता?’

कहां तो वे आई.ए.एस. बनने का सपना देख रहे थे, कहां उन के मित्र ने उन की दिशा बदल दी. बात उन को जम गई. बी.एससी. कर चुके थे. तुरंत ला कालेज में दाखिला ले लिया. पढ़ने में जहीन थे ही. कोई दिक्कत नहीं हुई. 3 साल में वकालत पास कर ली और इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक बड़े वकील के साथ प्रैक्टिस करने लगे. साथ ही साथ न्यायिक परीक्षा की तैयारी भी. पहली बार बैठे और पास हो गए. न्यायिक मजिस्ट्रेट बन कर पहली बार उन्नाव गए. तब से 35 साल की नौकरी में प्रदेश के कई जिलों में विभिन्न पदों पर तैनात रहे. अंत में बलिया से जिला जज के पद से रिटायर हुए. न्यायिक सेवा में अपनी कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी से नाम कमाया तो आलोचनाओं के भी शिकार हुए. पर उन्हें जो सच लगा, उसी का पक्ष लिया. जानबूझ कर अंतर्मन से किसी का पक्षपात नहीं किया.

कहते हैं न कि जीवन अपना हिसाबकिताब बराबर रखता है. ज्यादातर जीवन में अगर उन्हें सुख ही सुख नसीब हुआ था, तो अब अंत समय में दुख की बारी थी. इसे भी उन्हें इसी जीवन में भुगतना था, वरना जीवन का खाता असंतुलित रह जाएगा. आय और व्यय का पूरा विवरण आना ही चाहिए. सुख अगर आय है तो दुख व्यय.

उन का शरीर दिन ब दिन क्षीण होता जा रहा था. मानसिक संताप से वे उबर नहीं पा रहे थे. बेटे बिना नागा फोन पर उन की कुशलता की जानकारी हासिल कर रहे थे. पर क्या जीवन के अंतिम क्षणों में बच्चों की कुशलक्षेम पूछने भर से उन का कष्ट और संताप कम हो सकता था.

फोन पर ही बेटों को उन्होंने बता दिया था कि पुश्तैनी जमीनजायदाद और खुद की कमाई संपत्ति की उन्होंने वसीयत कर दी है. उस को पंजीकृत भी करवा दिया है. वसीयत वकील अमरनाथ वर्मा के पास रखी है. जीतेजी देखने तो क्या आओगे? मेरी मृत्यु पर ही तुम लोग आओगे, पर अंतिम संस्कार करने से पहले वसीयत पढ़ लेना. उस के बाद ही मेरा अंतिम संस्कार करना.

और वह दिन भी आ पहुंचा. हवेली के विशाल आंगन में उन का पार्थिव शरीर रखा था. एक तरफ परिजन बैठे थे, उन के बीच सफेद कुरतेपायजामे में बाबू साहब के दोनों बेटे बैठे थे. महिलाएं अंदर थीं. वकील साहब को खबर कर दी गई थी. बस पहुंचने ही वाले थे.

वकील साहब के पहुंचते ही सब की नजरें उन के चेहरे पर टिक गईं. उन्होंने बारीबारी से सब को देखा. एक कोने में दीनहीन रामचंद्र बैठा था. केवल उस की आंखों में आंसू थे, पर वह रो नहीं सकता था, क्योंकि वहां सभी धीरगंभीर मुद्रा अपनाए थे.

वकील साहब ने अपने ब्रीफकेस से एक फाइल निकाली और उसे खोल कर पहले बाबू साहब के दोनों बेटों की तरफ देखा, फिर रामचंद्र को अपने पास बुला लिया. गंभीर वाणी में बोले, ‘‘मैं वसीयत पढ़ने जा रहा हूं. आप तीनों ध्यान से सुनना क्योंकि यह केवल आप ही 3 लोगों से संबंधित है,’’ फिर उन्होंने वसीयत पढ़नी प्रारंभ की :

‘‘मैं जगदीश नारायण श्रीवास्तव, निवासी ग्राम व पोस्ट हरचंदरपुर, जिला रायबरेली अपने पूरे होशोहवास और संज्ञान में शपथपूर्वक अपनी संपत्ति की निम्नलिखित वसीयत करता हूं :

‘‘भोरवा खेड़ा स्थित 20 बीघा पुश्तैनी जमीन, जो अलगअलग 4 चकों में है, मेरे दोनों पुत्रों के बीच बराबरबराबर बांट दी जाए. इसी तरह बैंक में जमा धनराशि के भी वे बराबर के हिस्सेदार होंगे. सोनेचांदी के जेवरात इन की बहुओं को बराबरबराबर सुनार की मध्यस्थता में उन की कीमत आंक कर बांट दिए जाएं.

‘‘रही 10 बीघा जमीन, जो मैं ने अपनी बचत और मेहनत की कमाई से खरीदी थी, उस का बैनामा मैं पहले ही अपने पुत्रसमान सेवक रामचंद्र के नाम कर चुका हूं. वह मेरा सगा बेटा नहीं है, पर मैं उस को अपने बेटों से भी बढ़ कर मानता हूं. संतान सुख क्या होता है वह मैं ने अपने दोनों पुत्रों के पालनपोषण से प्राप्त कर लिया है, परंतु जीवन के अंतिम समय में संतान एक पिता को क्या सुख देती है, यह मुझे अपने पुत्रों से प्राप्त नहीं हो सका. वह सुख मुझे मिला तो केवल रामचंद्र से, उस की पत्नी और बच्चों से.

‘‘मेरी सेवा करते समय उन के मन में कभी यह लालसा न रही होगी कि मजदूरी के अलावा उन्हें कुछ और प्राप्त हो. बचपन में हम अपने बच्चों का मलमूत्र साफ करते हैं. हमें उस से घृणा नहीं होती क्योंकि बच्चों को हम अपना अंश समझते हैं और यह समझते हैं कि वे हमारे बुढ़ापे की लाठी हैं, परंतु क्या सचमुच…

‘‘रामचंद्र के शरीर में मेरा खून नहीं है. वह मेरे घरपरिवार का भी नहीं है. है तो बस मात्र एक नौकर, परंतु उस की सेवा में नौकरभाव नहीं है. इस से कहीं कुछ ज्यादा है. वह मेरा मलमूत्र ऐसे उठाता है जैसे अपने अबोध बच्चे का उठा रहा हो. कोई घृणा नहीं उपजती है उस के मन में. उसी पितृभाव से मुझे नहलाताधुलाता है. मुझे साफ कपडे़ पहना कर अपने हाथों से खाना खिलाता है. मेरी सेवा करने में उस की पत्नी ने भी कभी कोताही नहीं बरती. कभी थकान या ऊब का भाव नहीं दिखाया. यह सब करते हुए क्या उन के मन में किसी प्रतिदान की आकांक्षा या लालसा रही होगी…कभी नहीं. इन दोनों ने मुझ से पूछे बिना कोई चीज इधर से उधर नहीं रखी.

‘‘ऐसे स्वामीभक्त रामचंद्र को मैं इस से ज्यादा दे भी क्या सकता था कि उस के बच्चों का भविष्य सुनिश्चित कर दूं. 10 बीघे जमीन में मेहनत से खेती करेंगे तो उन्हें कभी रोटी के लिए दूसरे के आगे हाथ नहीं पसारना पड़ेगा. मेरे बेटे सुखी- संपन्न और नौकरीपेशा वाले हैं. आशा है, मेरे इस निर्णय से उन के दिल को चोट नहीं पहुंची होगी.’’

वकील साहब थोड़ी देर के लिए रुके. सब लोग मंत्रमुग्ध थे. वकील साहब ने आगे पढ़ा :

‘‘इस के बाद यह मकान बचता है. इसे भी मैं ने अपने खूनपसीने की कमाई से बनवाया है. मैं जानता हूं, मेरे बेटेपोते मेरी मृत्यु के बाद गांव का रुख नहीं करेंगे. इस मकान को औनेपौने दाम में किसी बनिए को बेच देंगे. अत: यह मकान भी मैं रामचंद्र को दान करता हूं. मेरी मृत्यु के बाद वह सपरिवार इस मकान को अपने रहने के लिए उपयोग करे. दोनों भैंसें भी उसी की होंगी.’’

लाखों की संपत्ति बाबू साहब एक नौकर को दे कर चले गए. क्या उन के बेटे इस वसीयत को मानेंगे और यों ही चुप बैठे रह जाएंगे? सब की नजरें उन के बेटों की तरफ उठीं और एकटक उन्हें ही ताकने लगीं. वे क्या प्रतिक्रिया करेंगे? परिचित तथा परिजनों को विश्वास था कि अंतिम संस्कार से पहले ही कोई न कोई हंगामा खड़ा हो जाएगा.

उधर रामचंद्र जारजार रो रहा था.

दोनों बेटों ने एकदूसरे की तरफ देखा. चंद क्षणों तक एकदूसरे से कानाफूसी की और बड़े बेटे ने खड़े हो कर कहा, ‘‘हमें पिताजी पर गर्व है. उन्होंने जो कुछ किया, बहुत अच्छा किया. हमें उन से कोई शिकायत नहीं है. सच तो यही है कि हम उन के पुत्र होते हुए भी उन की कोई सेवा न कर सके. उन्हें अकेला छोड़ कर हम अपने बीवीबच्चों में मस्त रहे. वृद्धावस्था का अकेलापन और अपनों के पास न होने का बाबूजी का गम हम महसूस न कर सके. उन्हें अकेला मरने के लिए छोड़ दिया. पर हम रामचंद्र को अपना बड़ा भाई मानते हुए अपनेअपने हिस्से की जमीन को भी बोनेजोतने का अधिकार देते हैं और साथ ही यह अधिकार भी देते हैं कि बाबूजी का अंतिम संस्कार भी उसी के हाथों से संपन्न हो. इन्हीं हाथों ने बाबूजी की अंतिम दिनों में सेवा की है. यही उन का असली पुत्र है और उसे यह अधिकार मिलना चाहिए.’’

सब की नजरों में रामचंद्र के लिए अथाह आदर और सम्मान था.

सिद्धार्थ मल्होत्रा के कैरियर पर लगा सवालिया निशान

60 व 70 के दशक से एक मिथ बना हुआ है कि एक सफल मौडल कभी भी सफल अभिनेता नहीं बन सकता. अतीत में दीपक पाराशर सहित कई कलाकारों ने इस मिथ को तोड़ने का असफल प्रयास किया. तो क्या इसी वजह से मौडल से अभिनेता बने सिद्धार्थ मल्होत्रा को सफलता नसीब नहीं हो रही है या उनकी अपनी कमियां हैं. सिद्धार्थ मल्होत्रा अपने अभिनय की कमियों को सुधारने की बनिस्पत रोमांस की खबरों से लेकर अभिमानभरी बातोंतक सुर्खियों में रहते हैं.

38 वर्षीय अभिनेता सिद्धार्थ मल्होत्रा की परवरिश मर्चेंट नेवी में कैप्टन रहे पिता सुनील मल्होत्रा के यहां हुई.18 साल की उम्र में ही मौडलिंग करने लगे थे ये.27 वर्ष की उम्र में बतौर अभिनेता उनकी पहली फिल्म ‘स्टूडैंटऔफ द ईयर’ प्रदर्शित हुई थी. जी हां, मौडलिंग छोड़कर एकदो टीवी सीरियलों में अभिनय करने के बाद सिद्धार्थ मलहोत्रा ने 2012 में करण जौहर की फिल्म ‘स्टूडैंटऔफ द ईयर’ से अभिनय कैरियर की शुरुआत की थी.

2012 से अब तक वे कुल 15 फिल्मों में अभिनय कर चुके हैं. सिद्धार्थ मल्होत्रा के कैरियर की 15वीं फिल्म ‘योद्धा’ पिछले डेढ़ सालों से सिनेमाघरों में पहुंचनेके लिए संघर्ष कर रही है,मगर बारबार इसके प्रदर्शन की तारीख बदलती जा रही है,जबकि फिल्म ‘योद्धा’ का निर्माण करण जौहर की ही कंपनी ‘धर्मा प्रोडक्शन’ ने किया है.

सागर आम्ब्रे व पुष्कर ओझा निर्देशित फिल्म ‘योद्धा’में सिद्धार्थ मल्होत्रा के साथ दिशा पाटनी,राशि खन्ना व सुनील शेट्टी भी हैं.इस फिल्म के पूरी हो जाने पर इसे देखकर करण जौहर ने अपना माथा पीट लिया.करण जौहर को यकीन ही नहीं हो रहा है कि सिद्धार्थ मल्होत्रा अभी भी इस कदर घटिया अभिनय कर सकते हैं.यही वजह है कि वे इसे प्रदर्शित करने की योजना बारबार टालते जा रहे हैं.

पहले यह फिल्म दिसंबर 2022 में प्रदर्शित होनी थी पर फिल्म ‘थैंक गौड’ के बौक्सऔफिस पर अपनी लागत वसूल न कर पाने के चलते इसका प्रदर्शन टाल कर इसे 7 जुलाई, 2023 को प्रदर्शित करने की घोषणा की गई.लेकिन नैटफ्लिक्स पर 20 जनवरी, 2023 से स्ट्रीम हो रही सिद्धार्थ मल्होत्रा की फिल्म ‘मिशन मजनू’ को दर्शक न मिलते देख करण जौहर ने एक बार फिर ‘योद्धा’ का प्रदर्शन टालते हुए इसे 15 सितंबर, 2023 को प्रदर्शित करने का ऐलान किया थापर फिल्म प्रदर्शितनहीं हो पाई.

बहरहाल, ‘योद्धा’ 22 दिसंबर को प्रदर्शित होनी थीलेकिन करण जौहर ने ऐलान कर दिया है कि दिसंबर माह में कई बड़ी फिल्में प्रदर्शित हो रही हैं,इसलिए अब वे अपनी फिल्म ‘योद्धा’ को 15 मार्च, 2024 को सिनेमाघरों में लेकर आएंगे.हम यहां याद दिला दें कि सिद्धार्थ मल्होत्रा ‘योद्धा’ की शूटिंग खत्म होने के बाद से घर पर आराम फरमाने या पत्नी कियारा आडवाणी संग समय बिताने के अलावा कोई काम नहीं कर रहे हैं.उन्हें कोई भी फिल्मकार अपनी फिल्म का हिस्सा नहीं बनाना चाहता.सभी की शिकायत है कि सिद्धार्थ मल्होत्रा अभिनय के मामले में शून्य हैं.

माना कि सिद्धार्थ मल्होत्रा चिकनेचुपड़े चेहरे के मालिक हैं,मगर आज का दर्शक कलाकार का चेहरा नहीं देखना चाहता.वह तो उसके अभिनय में विविधता देखना चाहता है.इसी वजह से करण जौहर को छोड़कर ज्यादातर फिल्मकार सिद्धार्थ मल्होत्रा के नाम से ही नाकभौं सिकोड़ने लगते हैं.

इसका सुबूत यही है कि सिद्धार्थ मल्होत्रा ने अब तक जिन 15 फिल्मों में अभिनय किया है,उन में से ‘स्टूडैंटऔफ द ईयर’,‘हंसी तो फंसी’,‘ब्रदर्स’,‘कपूर एंड संस’,‘बारबार देखो’, ‘शेरशाह’ और ‘योद्धा’ सहित 7 फिल्मों का निर्माण करण जौहर की ही कंपनी धर्मा प्रोडक्शन ने किया है.इन 7 फिल्मों में से एक भी फिल्म को सफल नहीं कहा जा सकता.इसके बावजूद करण जौहर की सिद्धार्थ मल्होत्रा पर मेहरबान होने की वजह समझ से परे है.

यदि सिद्धार्थ मल्होत्रा के पूरे 11साल के कैरियर पर नजर दौड़ाई जाएतो 2012 में प्रदर्शित उनकी पहली फिल्म ‘स्टूडैंट आफ द ईयर’ का निर्माण 60 करोड़ रुपए में हुआ था और इसने बौक्सऔफिस पर सिर्फ 97 करोड़ रुपए कमाए थे.यानी, निर्माता की जेब में तो महज 20 करोड़ रुपए ही आए थे.इसके बावजूद करण जौहर ने परिणीति चोपड़ा व सिद्धार्थ मल्होत्रा को लेकर दूसरी फिल्म ‘हंसी तो फंसी’ बनाई.इसने भी निर्माता को डुबोया.

इसके बाद एकता कपूर निर्मित फिल्म ‘एक विलेन’ प्रदर्शित हुई, जिसमें सिद्धार्थ मल्होत्रा के संग रितेश देशमुख,श्रृद्धा कपूर,आमना शरीफ,रेमो फर्नांडिस थे.लगभग 40 करोड़ में निर्मित इस फिल्म ने 170 करोड़ रुपए कमा कर सफलता के रिकौर्ड स्थापित किए थेलेकिन फिल्म की सफलता का सारा श्रेय रितेश देशमुख ले गए थे.

इतना ही नहीं, एकता कपूर और सिद्धार्थ मल्होत्रा के बीच क्या घटा कि उसके बाद एकता कपूर ने सिद्धार्थ मल्होत्रा के साथ फिल्म बनाने से तोबा कर लिया था.यह अलग बात है कि 5 वर्षों बाद एकता कपूर ने सिद्धार्थ मलहोत्रा के अभिनय वाली फिल्म ‘जबरिया जोड़ी’ की थी,जिसने निर्माताओं को बरबाद करने में कोई कसर नहीं रखी थी.

यहां तक कि लेखक व निर्देशक मिलाप झवेरी ने जब रितेश देशमुख व सिद्धार्थ मल्होत्रा को लेकर ‘एक विलेन’ का सीक्वल बनाना चाहातो एकता कपूर ने हाथ खींच लिया.तब उस कहानी में थोड़ा सा फेरबदल कर उसे ‘एक विलेन’ के सीक्वल के बजाय नया नाम देकर ‘मरजावां’ के नाम से 15 नवंबर, 2019 को प्रदर्शित किया.फिल्म में रितेश देशमुख,सिद्धार्थ मल्होत्रा,तारा सुतारिया, रकुल प्रीत सिंह,नासर,रवि किशन व अनंत जोग जैसे कलाकार थे.मगर फिल्म उम्मीद के मुताबिक सफलता दर्ज नहीं करा पाई.

उधर, ‘एक विलेन’ के बंपर कमाई करने के बावजूद 14 अगस्त, 2014 को प्रदर्शित ‘ब्रदर्स’ ने निराश किया.उसके बाद 18 मार्च, 2016 को करण जौहर निर्मित मल्टीस्टारर फिल्म ‘कपूर एंड संस’ प्रदर्शित हुई थी, जिसने बौक्सऔफिस पर अच्छी कमाई थी.लेकिन इसमें सिद्धार्थ मल्होत्रा के अभिनय की खास प्रशंसा नहीं हुई.इस फिल्म में रिषी कपूर,फवाद खान,आलिया भट्ट सहित सितारों की लंबीचौड़ी फौज थी.

फिर 9 सितंबर, 2016 को 55 करोड़ की लागत में बनी फिल्म ‘बारबार देखो’ प्रदर्शित हुई, जिस में कैटरीना कैफ भी थी.फिल्म लागत वसूल नहीं कर पाई.इसके बाद 25 अगस्त, 2017 को फिल्म ‘अ जेंटलमैन’ प्रदर्शित हुई. इस ऐक्शन कौमेडी फिल्म में सुनील शेट्टी, दर्शन कुमार,जैकलीन फर्नांडिस सहित कई कलाकार थे.पर बौक्सऔफिस पर इसकी दुर्गति होने से कोई नहीं बचा सका.

खैर,3 नवंबर, 2017 को प्रदर्शित रहस्यरोमांच प्रधान ‘इत्तफाक’ में सिद्धार्थ मल्होत्रा के साथ अक्षय खन्ना,सोनाक्षी सिन्हा,मंदिरा बेदी भी थीं.यह फिल्म यश चोपड़ा की सर्वाधिक सफल फिल्म ’इत्तफाक’ का ही रीमेक थी और फिल्म को दर्शकों ने सिरे से नकार दिया.इस फिल्म में सिर्फ अक्षय खन्ना के अभिनय की ही प्रशंसा हुई थी.सबसे बड़ी समस्या यह नजर आ रही थी कि सिद्धार्थ मल्होत्रा के सिर पर करण जौहर का हाथ होने की वजह से उन्हें फिल्में मिल रही थीं,मगर उनके अभिनय में कोई सुधार नहीं हो रहा था.

‘इत्तफाक’ के प्रदर्शन से महज साढ़े 3महीने बाद ही 16 फरवरी, 2018 को 65 करोड़ की लागत में बनी ऐक्शन प्रधान रोमांचक फिल्म ‘अय्यारी’ आई थी,जिसमें सिद्धार्थ के साथ मनोज बाजपेयी, रकुल प्रीत सिंह,पूजा चोपड़ा, आदिल हुसेन,नसीरुद्दीन शाह जैसे कलाकार थे.जिसने बौक्सऔफिस पर कुल 30 करोड़ रुपए ही कमाए थे.

सारा खर्च निकालने के बाद निर्माता की जेब में बामुश्किल5 करोड़ ही आए थे.लगभग डेढ़ साल बाद स्वतंत्रता दिवस से महज एक सप्ताह पहले प्रदर्शित ‘जबरिया जोड़ी’ ने सिद्धार्थ मल्होत्रा के साथ ही परिणीति चोपड़ा के अभिनय कैरियर पर सबसे बड़ा सवालिया निशान लगा दिया था.लोगों को लगा था कि अब सिद्धार्थ मल्होत्रा का कुछ नहीं हो सकता.मगर एक बार फिर सिद्धार्थ के गौड फादर बनकर करण जौहर मैदान में कूद पड़े.

करण जौहर ने फिल्म ‘शेरशाह’ बनाई लेकिन इस फिल्म को वे सिनेमाघरों में प्रदर्शित नहीं कर पाए.पहले 3 जुलाई, 2020,फिर 20 फरवरी, 2021 तथा 2 जुलाई, 2021 को सिनेमाघरों में प्रदर्शित करने की तारीखें घोषित की गईंपर ‘शेरशाह’ आज तक सिनेमाघर नहींपहुंची.तब उन्होंने इस फिल्म को प्राइम वीडियो को बेच दिया था.12 अगस्त, 2021 से अमेजन प्राइम पर स्ट्रीम हुई ‘शेरशाह’ कारगिल योद्धा बिक्रम बत्रा की ‘वार बायोपिक’ फिल्म थी.इस फिल्म को स्पैशल जूरी का राष्ट्रीय पुरस्कार सहित कुछ अन्य पुरस्कार मिले,मगर इससे सिद्धार्थ मल्होत्रा के कैरियर को कोई फायदा नहीं हुआ. हालांकि,निजी जिंदगी में जरूर उन्होंने बाजी मार ली.

‘शेरशाह’ की शूटिंग के दौरान फिल्म की अभिनेत्री कियारा आडवाणी संग उनका रोमांस हो गया,जिनके संग 7 फरवरी, 2023 को उन्होंने विवाह रचा लिया.वैसे, सिद्धार्थ मल्होत्रा का पहला रोमांस 2010 में अभिनेत्री आलिया भट्ट से हुआ था.कहा जाता है कि आलिया के ही कहने पर आलिया के साथ ही सिद्धार्थ मल्होत्रा को भी करण जौहर ने फिल्म ‘स्टूडैंटऔफ द ईयर’ में अभिनय करने का अवसर दिया था.बाद में यह रिश्ता टूटा,मगर 2019 में सिद्धार्थ मल्होत्रा ने पहली बार कुबूल किया था कि वे लंबे समय तक आलिया भट्ट के साथ रिश्ते में रहे हैं.

अमेजन पर ‘शेरशाह’ के स्ट्रीम होने के एक साल बाद 25 अक्टूबर, 2022 को दीपावली के मौके पर ‘थैंक गौड’ सिनेमाघर पहुंची और लोगों ने अपनी दीवाली खराब करने के लिए सिद्धार्थ मल्होत्रा के साथ ही अजय देवगन व रकुल प्रीत सिंह को भी जमकर कोसा.फिल्म बहुत खराब थी.फिल्म अपनी लागत का कुछ प्रतिशत ही वसूल कर पाई.‘थैंक गौड’ से पहले ही सिद्धार्थ मल्होत्रा की फिल्म ‘योद्धा’ बनकर तैयार हो गई थी.पर करण जौहर इस फिल्म को सिनेमाघरों में प्रदर्शित नहीं कर पा रहे हैं,उधर कोई भी ओटीटी प्लेटफौर्म इस फिल्म को नहीं लेना चाहता, क्योंकि 20 जनवरी, 2023 से नेटफ्लिक्स’ पर स्ट्रीम हो रही सिद्धार्थ की फिल्म ‘मिशन मजनू’ घिसट ही रही है.

पाकिस्तानी अभिनेता अदनान सिद्दीकी ने फिल्म ‘मिशन मजनू’ में पाकिस्तान को गलत ढंग से दिखाने के लिए सिद्धार्थ मल्होत्रा की सोशल मीडिया पर कटु आलोचना भी की.तो वहीं सिद्धार्थ मल्होत्रा के पास अब कोई फिल्म नहीं है.

बतौर अभिनेता पहली फिल्म के प्रदर्शन के बाद 2013 में वे ‘पेटा’ संग जुड़ गए. फिर उत्तराखंड बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए आलिया भट्ट व कई अन्य कलाकारों के संग चैरिटी शो का भी हिस्सा बने थे.फिर करण जौहर के नेतृत्व में ‘ड्रीम टीम 2016’ के लिए 2016 में अमेरिका के कई शहरों में स्टेज पर परफौर्म किया था. फिलहाल वे पेपे जींस, ब्रायल क्रीम,ओप्पो, मैट्रोशूज,‘कोका कोला’ और मोवादो के ब्रैंडएंबेसडर के रूप में धन कमा रहे हैं.

बॉडी के बैड बैक्टीरिया को करें बाय, इम्यून सिस्टम बनाएं बेहतर

नेहा को अचानक कफकोल्ड ने घेर लिया. शुरू में सब यही मानते रहे कि ये सब मौसम में बदलाव के कारण हुआ है, लेकिन जब यह लगातार बना रहा तो घरवालों को चिंता हुई और वे उसे डाक्टर के पास ले गए.

तब डाक्टर ने बताया कि नेहा का इम्यून सिस्टम काफी कमजोर हो गया है, जिस की वजह से उस के शरीर में बीमारियों से लड़ने की ताकत नहीं रही है. इम्यून सिस्टम के कमजोर होने की वजह नेहा का खानपान व लाइफस्टाइल का सही न होना है.

इस बारे में फिजिशियन डा. सुबोध गुप्ता ने बताया कि इम्यून सिस्टम हमारे शरीर को कीटाणुओं और विषाणुओं से बचा कर हमें तंदुरूस्त रखता है. जब इस में गड़बड़ी आती है तभी हमारा शरीर बीमारियों से नहीं लड़ पाता है. इसलिए फिट रहने के लिए इम्यून सिस्टम का स्ट्रौंग होना बहुत जरूरी है.

इन टिप्स पर गौर कर आप फिट रह सकती हैं:

पूरी नींद लें और तनाव से रहें दूर

हर व्यक्ति के लिए 7-8 घंटे सोना जरूरी है, मगर आजकल के व्यस्त जीवन और नाइट शिफ्ट जौब के कारण यह मुमकिन नहीं हो पाता. इस के अलावा कंपीटिशन के कारण तनाव भी बढ़ रहा है, जिस की वजह से कौर्टिसोल लैवल बढ़ जाता है, जो इम्यून सिस्टम को कमजोर बनाने का काम करता है. ऐसे में जरूरी है कि आप खुद की सेहत की अनदेखी न करें.

स्मोकिंग से बनाएं दूरी

आज स्मोकिंग ट्रैंड बन गया है. पुरुष ही नहीं, बल्कि महिलाएं भी सिगरेट पीने में पीछे नहीं हैं. स्मोकिंग उन की सेहत के लिए घातक साबित हो रही है. औलाद न होने की बढ़ती परेशानी का यह सब से बड़ा कारण है. स्मोकिंग करने से कई प्रकार के कैंसर होने का खतरा भी बढ़ जाता है. इसलिए स्मोकिंग से दूरी बनाएं.

शराब दे मौत को न्यौता

स्मोकिंग की ही तरह शराब पीना भी आजकल आम बात हो गई है. शराब पीने वाले भले इसे अपनी शान समझें, लेकिन यह लिवर को डैमेज कर देती है. इसलिए अगर आप जीना चाहते हैं, तो तुरंत शराब पीना छोड़ दें.

पानी और हरी सब्जियां

पानी जहां शरीर से जहरीले पदार्थों को बाहर निकालने का काम करता है वहीं सब्जियों में भरपूर मात्रा में कैल्सियम, फाइबर, विटामिन व खनिज होते हैं जो न सिर्फ शरीर की काम की ताकत बढ़ाते हैं, बल्कि रोगों से लड़ने की ताकत भी बढ़ाते हैं.

प्रोबायोटिक्स हैं फायदेमंद

हमारे शरीर में गुड और बैड दोनों तरह के बैक्टीरिया होते हैं. जब शरीर में बैड बैक्टीरिया ज्यादा बढ़ जाते हैं, तब हम जल्दीजल्दी बीमार होने लगते हैं. इसलिए दही को अपने खाने का हिस्सा जरूर बनाएं. यह आप की इम्यूनिटी को बढ़ाएगा.

सन ऐक्सपोजर जरूर लें

शरीर को विटामिन डी की जरूरत होती है, जिसे धूप से लिया जा सकता है. इस से हमारा इम्यून सिस्टम मजबूत बनता है.

ऐक्सरसाइज को न करें इग्नोर

अगर आप फिट रहना चाहती हैं, तो भले ही आप कितनी भी बिजी क्यों न हों, सुबह 15-20 मिनट कसरत के लिए निकालना न भूलें. कसरत से ब्लड प्रैशर कंट्रोल में रहने के साथसाथ वजन भी नहीं बढ़ता है और शरीर की रोगों से लड़ने की ताकत भी बढ़ती है.

ड्राईफ्रूट्स भी हैं लाभकारी

ड्राईफ्रूट्स ज्यादातर लोग इसलिए नहीं खाते कि कहीं मोटे न हो जाएं. हकीकत में यह उन के मन का वहम होता है, क्योंकि ड्राईफ्रूट्स में विटामिंस, मिनरल्स, फाइबर आदि काफी मात्रा में होने के कारण ये इम्यूनिटी बढ़ाते हैं.

मेरी पत्नी मुझे छोटी-छोटी बातों पर नीचा दिखाती है, बताएं मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं 27 वर्षीय पुरुष हूं, पत्नी के साथ 2 कमरे के फ्लैट में रहता हूं. पत्नी पोस्टग्रेजुएट है, एसएससी की तैयारी कर रही है. उस की उम्र 23 वर्ष है. मैं ग्रेजुएट हूं, इलस्ट्रेटर के तौर पर एक अखबार में नौकरी कर रहा हूं. मुझे अपनी बीवी से बहुत प्यार है और मैं उस की इच्छाओं का खयाल रखता हूं. लेकिन, मुझे ऐसा लगता है जैसे वह मुझे नीचा दिखाने की कोशिश करती है. वह हर छोटीछोटी बात पर लड़ने को तैयार रहती है. कभीकभी मुझे लगता है कि वह एसएससी में सफल होती है तो कहीं मुझ से अलग ही न हो जाए.

हालांकि, वह मुझ से प्यार भी करती है और हमारे बीच सबकुछ ठीक भी है पर मुझे डर है कि कहीं उस का गुस्सा और हर बात पर टोकाटाकी हमारे रिश्ते को खत्म ही न कर दे. मेरे दोस्त भी इस बात पर मुझे चिढ़ाते और मजाक उड़ाते हैं. मुझे समझ नहीं आता कि मैं क्या करूं?

जवाब

जो कुछ भी आप ने बताया उस के हिसाब से मुझे नहीं लगता कि इस में आप की पत्नी की कोई भी गलती है. वह आप से ज्यादा पढ़ीलिखी है जिस में कोई बुराई नहीं है. आप को लगता है कि वह आप को नीचा दिखाने की कोशिश करती है जबकि हो यह सकता है कि उस का व्यवहार सामान्य ही हो परंतु आप उसे गलत नजरिए से देख रहे हों. हमारा समाज और आसपास का वातावरण ही ऐसा है कि पुरुष को यह एहसास कराया जाता है कि उस की बीवी कितनी ही अच्छी नौकरी करे लेकिन पति से ज्यादा अच्छी न कर पाए.

पढ़ीलिखी बीवी सभी को चाहिए, लेकिन खुद से ज्यादा नहीं. खुद को अपनी पत्नी की जगह रख कर सोचिए और फिर परिस्थिति को देखिए. आप को समझ आएगा कि रिश्ते को खराब आप की पत्नी के व्यवहार से ज्यादा आप की सोच कर रही है. और रही बात आप के दोस्तों की, तो यह समाज की सोच है, इस पर ध्यान न दें. आप का रिश्ता आप के हाथ है, अपनी पत्नी को समझने की कोशिश कीजिए, उस का सपना पूरा करने में उस का साथ दीजिए बजाय खुद को निरर्थक छोटा समझने के.

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