अफ़सोस तो इस बात का भी होना चाहिए कि देश में खबरों के माने और दायरा बहुत समेट कर रख दिए गए हैं. उस से भी बड़ा अफ़सोस यह कि खुद को बुद्धिजीवी समझने का दावा करने वाले अधिकतर लोगों ने मान लिया है कि खबर का मतलब होता है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण, इंडिया गठबंधन की उठापटक, देश में कितनी जाति के मुख्यमंत्री और नेता हैं, इस के बाद अपराध, क्रिकेट और फ़िल्में. और ज्यादा हुआ तो यह कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने यह या वह फैसला दिया.

ऐसी खबरों से न तो तर्कक्षमता निखरती है और न ही ज्ञान में कोई बढ़ोतरी होती है. सरकार का प्रचार ही जब मीडिया का मकसद रह जाए तो कहा जा सकता है कि हम दिमागी तौर पर गुलाम बना कर रख दिए गए हैं और इस पर कोई एतराज भी किसी को नहीं है. ज्यादा नहीं कोई 2 महीने पहले एक खबर आ कर दम तोड़ गई थी कि केंद्र सरकार 9 वर्षों की अपनी उपलब्धियों का प्रचार करने के लिए आईएएस अधिकारियों को रथ प्रभारी के तौर पर तैनात करने की तयारी में हैं. वित्त मंत्रालय द्वारा जारी किए गए इस पत्र का मसौदा काफी लंबाचौड़ा है जिस पर कोई खास प्रतिक्रिया नहीं हुई थी.

कांग्रेस के प्रवक्ता पवन खेड़ा ने सोशल मीडिया एक्स पर यह कहते अपनी जिम्मेदारी पूरी हुई मान ली थी कि सिविल सर्वैन्ट्स को चुनाव में जाने वाली सरकार के लिए राजनीतिक प्रचार करने का आदेश कैसे दिया जा सकता है. भाजपा अध्यक्ष जे पी नड्डा ने इस पर सरकार का बचाव किया था. लेकिन वह तर्क आधारित और संवैधानिक न हो कर कांग्रेस की आलोचना तक सिमट कर रह गया था.

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