Download App

मैं 55 वर्षीय महिला हूं, क्या इस उम्र में दोबारा शादी करना ठीक होगा ?

सवाल

मैं 55 वर्षीय महिला हूं. 2 साल पहले पति की मृत्यु पहले हो गई थी. 1 बेटी है जो अपने परिवार सहित विदेश में सैटल हो गई है. मैं यहीं रह कर बाकी की जिंदगी गुजारना चाहती हूं. घर के पास मेरी ही तरह एक और भी व्यक्ति है. हम दोनों ही अकेलेपन के शिकार हैं. वह व्यक्ति मुझ से शादी करने को तैयार है. मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब

अकेलेपन से मुक्ति के लिए हर किसी को एक अदद साथी की जरूरत होती है. अगर आप की बेटी विदेश में सैटल है और आप यहां अकेली जिंदगी काट रही हैं तो जाहिर है आप को अकेलापन काटने को दौड़ता होगा.

ऐसे में आप अगर उस व्यक्ति को नजदीक से जानती हैं और उस में कोई ऐब नहीं है तो शादी करने में बुराई नहीं. हां, आप अपनी बेटी से इस विषय पर सलाहमशवरा कर सकती हैं.

अगर आप की बेटी आधुनिक सोच वाली होगी तो उसे भी इस शादी से कोई ऐतराज नहीं होगा और अगर ऐतराज करे भी तो परवाह न करते हुए मन की सुनें और शादी कर लें, क्योंकि यह जीवन आप का है जिसे आप अपनी तरह जी सकती हैं. इस में किसी को दखलंदाजी करने का अधिकार नहीं है.

मोक्ष : ठकुराइन के देहावसान की खबर सुनते ही चौबेजी क्यों खुश हो उठे ?

चौबेजी पूजा से उठे ही थे, खबर मिली कि ठकुराइन अम्मा का देहावसान हो गया है. खबर सुनते ही अचानक उन के चमकते गालों की लालिमा और सुर्ख हो गई. होंठों पर मुसकान भी उभर आई. पत्नी पास ही खड़ी थी. मुसकराते हुए उस से पूछा, ‘‘अजी सुनती हो, ठकुराइन अम्मा नहीं रहीं, अच्छा मौका मिला है. तुम्हें जो चाहिए बता दो. फिर मत कहना कि कोई इच्छा अधूरी रह गई.’’

पत्नी खुशीखुशी कंगन, साड़ी जैसी अनगिनत मुरादें बताने लगी लेकिन चौबेजी को जल्दी थी इसलिए ठकुराइन की हवेली की तरफ दौड़ लिए. रास्ते में पूछताछ भी करते गए कि कब कैसे क्या हुआ है. जब वे हवेली पहुंचे तब तक वहां भारी भीड़ जमा हो चुकी थी. उन्हें अपनी लेटलतीफी पर गहरा अफसोस हुआ. वहां दर्जनभर पंडेपुजारी उन से पूर्व ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके थे. वैसे तो ठकुराइन उन्हीं की जजमान थीं, लेकिन अवसर कौन चूकता है. चील, कौए, गिद्ध जैसे शवों पर टूट पड़ते हैं ठीक वैसा ही नजारा इस समय हवेली में भी था.

ठकुराइन की उम्र लगभग 75-80 साल की रही होगी. भरापूरा परिवार, सम्मानित, धनाढ्य खानदान, खुद उन का समाज में खूब रुतबा था. खैर, बिना समय गंवाए चौबेजी ने मोरचा संभाला और ठकुराइन के बड़े बेटे केदार सिंह से मुखातिब हुए. कुरते की जेब से पंचांग निकाल कर, तुरुप का इक्का उछाला, ‘‘अम्माजी का देहांत कब हुआ है?’’

केदार सिंह ने सुबह का समय बताया तो चौबेजी चिहुंक कर बोले, ‘‘भला हो इस परिवार का,’’ उन के चेहरे पर चिंता और घबराहट के सधे हुए भाव स्पष्ट नजर आने लगे.

ठकुराइन का पूरा परिवार चौबेजी को विस्मयभरी नजरों से घूरने लगा. चौबेजी अपनी तरंग में बोलते चले गए, ‘‘बेटा, बुरा मत मानना लेकिन यह महाअपशकुन हुआ है तुम्हारे घर में. पंचक, अमावस और शनिवार के दिन ब्रह्ममुहूर्त में अचानक यों देह त्याग. यह शुभ संकेत नहीं है.’’

केदार सिंह ने डरते हुए पूछा, ‘‘क्या किया जाए, चौबेजी?’’

कुछ सोचते हुए गंभीर स्वर में चौबेजी बोले, ‘‘खर्चा होगा. दाहसंस्कार शास्त्रोक्त ढंग से कराना पड़ेगा, अन्यथा अनर्थ हो सकता है.’’

ठकुराइन का पूरा परिवार चौबेजी की हां में हां मिलाने लगा. अपना सिक्का जमता देख चौबेजी ने अपने आसपास खड़े अन्य पंडों पर नजर डाली. तुरंत सब ने उन की बात का समर्थन किया. कुछ पलों के लिए माहौल में भय और खामोशी छा गई. केदार सिंह ने फौरन सहमति देते हुए चौबेजी को दाहसंस्कार की पूरी जिम्मेदारी सौंप दी. पंडों की पूरी मंडली अब चौबेजी के नेतृत्व में क्रियाकर्म की तैयारी में जुट गई. वैकुंठी (अरथी), चंदन की लकड़ी, देशी घी, पूजन सामग्री के नाम पर पूरे 51 हजार रुपए ऐंठ लिए गए. जो चेले सामान लेने गए उन्हें चौबेजी ने पहले ही संकेत कर दिया कि 2 पीपे देशी घी के पहले ही उन के घर पहुंचा दिए जाएं. वहां सामान संभालने या गिनती करने की भला फुरसत किसे थी.

ठकुराइन के मृत शरीर को वैकुंठी पर रखने का समय आया तो उन के परिवार की महिलाएं उन के जेवरात हटाने लगीं. चौबेजी ने फौरन हस्तक्षेप करते हुए टोका, ‘‘अरे, आप अपने खानदान की परंपरा और रुतबे का कुछ तो खयाल रखो. ऐसे नंगीबूची विदा करोगे अपनी अम्मा को? शास्त्रों में विधान है कि बिना स्वर्णाभूषणों के तो दाहसंस्कार संभव ही नहीं. इस तरह उन्हें मोक्ष कैसे मिल पाएगा?’’

बड़ी बहू ने पूछा, ‘‘फिर इन आभूषणों का क्या होगा?’’

चौबेजी ने उचित समय पर गरम लोहे पर चोट मारते हुए कहा, ‘‘जजमान, ये जेवरात तो क्रियाकर्म कराने वाले पंडों को मिलते हैं. तभी तो अम्माजी का मोक्ष संभव होगा.’’

लेकिन महंगाई के जमाने में ठकुराइन का परिवार इतने कीमती जेवर छोड़ने को तैयार न था. तर्कवितर्क होते रहे और अंत में मोलतोल के बाद चैन, अंगूठी, टौप्स और पायजेब पर बात डन हो गई. चौबेजी की आंखें चमकने लगी थीं. मन प्रसन्न था. आखिर अब समय आया था जब उन का दांव लगा था.

दरअसल, पिछले कुछ सालों में इन्हीं ठकुराइन ने उन की दुकानदारी बंद करवा दी थी. एक छोटी सी घटना को ले कर पंडों का विवाद ठकुराइन से क्या हुआ कि महिला होते हुए भी उन्होंने बड़ा क्रांतिकारी प्रतिरोध किया. घर के दरवाजे पंडेपुजारियों के लिए बंद करवा दिए और पूजापाठ के नाम पर होने वाली लूट को उन्होंने सख्ती से रोक दिया था.

कितने बुरे दिन निकले थे इस जमात के. मिन्नतें करने, माफी मांगने पर भी ठकुराइन का दिल नहीं पसीजा था. लेकिन चौबेजी को लग रहा था कि अब संयोग से लक्ष्मी स्वयं छप्पर फाड़ कर उन के घर आने वाली है. अब यह विडंबना ही थी कि ठकुराइन का पूरा परिवार पंडेपुजारियों के आगे बेबस था. इस का कारण श्रद्धा से ज्यादा मौत के प्रति मानव मन का स्वाभाविक भय था.

बहरहाल, दाहसंस्कार का कार्य निबट गया. शहर के पंडेपुजारियों की खूब कमाई हो गई. मजे की बात यह रही

कि रोजरोज आपस में लड़ने वाले पंडेपुजारियों में इस घटना पर अस्थायी एकता स्थापित हो गई. वैसे भी सामूहिक स्वार्थ के लिए विरोधियों में एकता होना कोई नई बात भी नहीं थी. दाहसंस्कार के बाद तेरहवीं और सत्तरहवीं तक उन सब का जमघट हवेली पर लगा रहा. चौबेजी और उन की मंडली सुबह से शाम तक हवेली में अपनी सेवाएं देने लगी. प्रवचन, कीर्तन, शास्त्रपुराणों का वाचन दिनभर चलता. चौबेजी ने अपने प्रवचन से श्रोताओं को बड़े सुंदर ढंग से समझाने का पूरा प्रयास किया कि इस समयावधि में मृतक परिवार द्वारा ‘जीवात्मा’ के मोक्ष के लिए क्याक्या उपक्रम किए जाने चाहिए. इस आयोजन से मिल रही संतुष्टि से ठकुराइन का पूरा परिवार नतमस्तक था. उन के मन में अब कोई संशय नहीं रह गया था कि ठकुराइन को मोक्ष नहीं मिलेगा. हवेली की तिजोरियां खुल चुकी थीं और ऐसे लोगों में मलाई चाटने की होड़ लगी रही. तेरहवीं की तैयारी जोरों पर थी. साथ ही चौबेजी छमाही और बरसी की रस्म भी लगेहाथों निबटा देना चाहते थे. समझदारी इसी में होती है कि संवेदनाओं को उचित समय पर ही ‘कैश’ करवा लेना चाहिए. शायद चौबेजी की यही मंशा रही होगी.

रात का समय था. चौबेजी चारपाई पर लेटे थे. पास बैठी अर्द्धांगिनी उन्हें समझाते हुए कह रही थी, ‘‘सुनो जी, अगर पट जाए तो आप अपने लिए एक गरम कोट भी मांग लो. छोटे बेटे की बरात में आप भी कोट पहन कर खूब जमोगे. दूसरे, बबलू कब से बाइक लेने को कह रहा है, फिर मेरा भी…’’ ऐसी बातें सुन कर चौबेजी के मुख पर मुसकान और गहरी हो गई.

दूसरे दिन सुबह हवेली जाते ही चौबेजी ने तेरहवीं के दिन की पूजापाठ, दानदक्षिणा की सूची केदार सिंह को सौंप दी. चौबेजी की नजर में सूची संक्षिप्त थी लेकिन उस में काफी कुछ था. 51 ब्राह्मणों का भोज, वस्त्र, दक्षिणास्वरूप 1,100 रुपए प्रति ब्राह्मण के सुझाव के अलावा वस्त्राभूषण समेत घरगृहस्थी के तमाम सामान लिखे थे जैसे गद्दे, रजाई, पलंग, बरतन इत्यादि. लेकिन सूची में गरम कोट और बाइक की डिमांड देख केदार सिंह का माथा ठनका.

चौबेजी की कलाकारी की अब गहन परीक्षा होनी थी. ठकुराइन के परिवार को इस अटपटी बात पर संतुष्ट करने के लिए चौबेजी ने अपनी बात कुछ इस तरह रखी, ‘‘जजमानों के कल्याण और शुभत्व की रक्षा के लिए यह सब जरूरी है. आप बाइक की बात को गलत न समझें क्योंकि जीवात्मा द्वारा वैतरणी पार कर मोक्षगामी होना गाय की पूंछ पकड़ कर ही संभव है लेकिन आधुनिक जमाने में हम पंडे भी शहर में गाय कैसे पाल सकते हैं? उस के विकल्प के लिए बाइक सर्वोत्तम साधन है.

वह हमारे काम भी आएगी और पूरा सदुपयोग भी होगा. इसलिए ठकुराइन की आत्मा को मुक्ति मिल सकेगी. गरम कोट भी इसीलिए लिखा है. सर्दी, गरमी, वर्षा तीनों ऋतुओं का खयाल तो रखना पड़ता है न? जो भी हमें दोगे वह सीधा ठकुराइन अम्मा की आत्मा को प्राप्त होगा, फिर दानदक्षिणा में जजमान को ज्यादा तर्कवितर्क नहीं करना चाहिए वरना श्रद्धा विलुप्त हो जाती है.’’

ठकुराइन का परिवार कुछ विरोध करता उस से पूर्व ही मंडली के सदस्य चौबेजी की बात का समर्थन करने लग गए. 1,100 रुपए की दक्षिणा की तजवीज सुनते ही चौबेजी के चेलेचपाटे समवेत स्वर में ठकुराइन के परिवार को संतुष्ट करने में जुट गए.

तेरहवीं और सत्तरहवीं की रस्में पूरी हो गईं. लगेहाथों छमाही और बरसी का कार्यक्रम भी संपन्न हो गया. चौबेजी समेत सभी पंडेपुजारी ठकुराइन के परिवार को खूब आशीष दे रहे थे. इस आयोजन में सभी को यथायोग्य माल मिल चुका था. सब मस्त थे. कारण, जिस में जितनी योग्यता, कलाकारी या हुनर था उस ने उसी के अनुरूप पा लिया था. ठकुराइन का मोक्ष हुआ या नहीं, यह तो अलग बात है लेकिन मोक्ष दिलाने वालों की खूब चांदी हो गई. यह मोक्ष कितने लाख में मिला, यह चौबेजी ही जानें.

मंजिल तक : परदेस जाने को लेकर सोनिया की क्या इच्छा थी ?

story in hindi

नहले पे दहला : पूर्णिमा क्यों मनु को सबक सिखाना चाहती थी ?

पूर्णिमा तुझे मनु याद है?’’ मां ने खुशी से पूछा.

‘‘हां,’’ और फिर मन ही मन बोली कि अपने बचपन के उस इकलौते मित्र को कैसे भूल सकती हूं मां, जिस के जाने के बाद किसी और से दोस्ती करने को मन ही नहीं किया.

‘‘मनु वापस आ रहा है… किसी बड़ी कंपनी का मैनेजर बन कर…’’

‘‘मनु ही नहीं राघव और जया भाभी भी आ रहे हैं,’’ पापा ने उत्साह से मां की बात काटी.

‘‘मैं ने तो राघव से फोन पर कह दिया है कि जब तक आप का अपना घर पूरी तरह सुव्यवस्थित नहीं हो जाता तब तक रहना और खाना हमारे साथ ही होगा.’’

‘‘तो उन्होंने क्या कहा?’’

‘‘कहा कि इस में कहने की क्या जरूरत है? वह तो होगा ही. बिलकुल नहीं बदले दोनों मियांबीवी. और मनु भी पीछे से कह रहा था कि पूर्णिमा से पूछो कुछ लाना तो नहीं है. तब भाभी ने उसे डांट दिया कि पूछ कर कभी कुछ ले कर जाते हैं क्या? बिलकुल उसी तरह जैसे बचपन में डांटा करती थीं.’’

‘‘और मनु ने सुन लिया?’’ पूर्णिमा ने खिलखिला कर पूछा.

‘‘सुना ही होगा, तभी तो डांट रही थीं और इन सब संस्कारों की वजह से उस ने यहां की पोस्टिंग ली है वरना अमेरिका जा कर कौन वापस आता है,’’ पापा ने सराहना के स्वर में कहा. यह सुन कर पूर्णिमा खुशी से झूम उठी. बराबर के घर में रहने वाले परिवार से पूर्णिमा के परिवार का रातदिन का उठनाबैठना था. वह और मनु तो सिर्फ सोने के समय ही अलग होते थे वरना स्कूल जाने से ले कर खेलना, होमवर्क करना या घूमने जाना इकट्ठे ही होता था. आसपास और बच्चे भी थे, लेकिन ये दोनों उन के साथ नहीं खेलते थे. फिर अचानक राघव को अमेरिका जाने का मौका मिल गया. जाते हुए दुखी तो सभी थे, मगर कह रहे थे कि जल्दी लौट आएंगे पी.एचडी. पूरी होते ही. मौका लगा तो बीच में भी एक चक्कर लगा लेंगे.

लेकिन 20 बरसों में आज पहली बार लौटने की बात की थी. उस समय संपर्क साधन आज की तरह विकसित और सुलभ नहीं थे. शुरूशुरू में राघव फोन किया करते थे. नई जगह की मुश्किलें बताते थे यह भी बताते रहते कि जया और मनु लता भाभी और पूर्णिमा को बहुत याद करते हैं. लेकिन नए परिवेश को अपनाने के चक्कर में धीरेधीरे पुराने संबंध कमजोर हो गए. 10 बरस पहले का दुबलापतला मनु अब सजीलारोबीला जवान बन गया था. वह पूर्णिमा को एकटक देख रहा था.

‘‘ऐसे क्या देख रहा है? पूर्णिमा ही है यह,’’ लता बोलीं.

‘‘यही तो यकीन नहीं हो रहा आंटी. मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मुटल्ली पूर्णिमा इतनी पतली कैसे हो गई?’’

‘‘वह ऐसे कि तेरे साथ मैं हरदम खाती रहती थी. तेरे जाने के बाद उस गंदी आदत के छूटते ही मैं पतली हो गई,’’ पूर्णिमा चिढ़ कर बोली.

‘‘यानी मेरे जाने से तुझे फायदा हुआ.’’

‘‘सच कहूं मनु तो पूर्णिमा को वाकई फायदा हुआ,’’ महेश ने कहा, ‘‘तेरे जाने के बाद यह किसी और से दोस्ती नहीं कर सकी. किताबी कीड़ा बन गई, इसीलिए प्रथम प्रयास में आईआईएम अहमदाबाद में चुन ली गई और आज इन्फोटैक की सब से कम उम्र की वाइस प्रैजीडैंट है.’’

‘‘अरे वाह, शाबाश बेटा. वैसे महेश, फायदा मनु को भी हुआ. यह भी किसी से दोस्ती नहीं कर रहा था. भला हो सैंडी का… उस ने कभी इस की अवहेलना का बुरा नहीं माना और दोस्ती का हाथ बढ़ाए रखा. फिर उस के साथ यह भी सौफ्टवेयर इंजीनियर बन गया,’’ राघव बोले.

‘‘वरना इसे तो राघव अंकल की तरह काले कोट वाला वकील बनना था और मुझे भी वही बनाना था,’’ पूर्णिमा बोली. ‘‘अच्छा हुआ अंकल आप अमेरिका चले गए.’’ सब हंस पड़े. फिर लता बोलीं, ‘‘क्या अच्छा हुआ, यहां रहते तो तू आज तक कुंआरी नहीं होती.’’

‘‘वह तो है लता,’’ जया ने कहा, ‘‘खैर अब आ गए हैं तो हमारा पहला काम इसे दुलहन बनाने का होगा. क्यों मनु?’’

‘‘बिलकुल मम्मी, नेक काम में देर क्यों? चट मंगनी पट शादी रचवाओ ताकि भारतीय शादी देखने के लालच में सैंडी भी जल्दी आ जाए.’’

‘‘यही ठीक रहेगा. इसी बहाने सभी पुराने परिजनों से एकसाथ मिलना भी हो जाएगा,’’ राघव ने स्नेह से पूर्णिमा के सिर पर हाथ फेरा, ‘‘चल तैयार हो जा बिटिया, सूली पर झूलने को.’’

पूर्णिमा ने कहना तो चाहा कि सूली नहीं अंकल, मनु की बलिष्ठ बांहें कहिए. फिर धीरे से बोली, ‘‘अभी तो हम सब को इतने सालों की जमा पड़ी बातें करनी हैं अंकल… आप को यहां सुव्यवस्थित होना है, उस के बाद और कुछ करने की सोचेंगे.’’ ‘‘यह बात भी ठीक है, लेकिन बहू के आने से पहले उस की सुविधा और आराम की सही व्यवस्था भी तो होनी चाहिए यानी बहू के गृहप्रवेश से पहले घर भी तो ठीक हो. और भी बहुत काम हैं. तू नौकरी पर जाने से पहले मेरे कुछ काम करवा दे मनु,’’ जया ने कहा.

‘‘मुझे तो कल से ही नौकरी पर जाना है मम्मी पूर्णिमा से करवाओ जो करवाना है.’’

‘‘हां, पूर्णिमा तो बेकार बैठी है न. नौकरी पर तो बस मनु को ही जाना है,’’ पूर्णिमा ने मुंह बनाया, ‘‘मगर आप फिक्र मत करिए आंटी, आप को मैं कोई परेशानी नहीं होने दूंगी.’’

‘‘उस का तो सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि सब से बड़ी परेशानी तो पूर्णिमा आप स्वयं ही हैं,’’ मनु ने चिढ़ाया, ‘‘आप काम में लग जाइए, सारी परेशानी दूर हो जाएगी.’’

‘‘लो, हो गया शुरू मनु महाराज का अपने अधकचरे ज्ञान का बखान,’’ पूर्णिमा ने कृत्रिम हताशा से माथे पर हाथ मारा. यह देख सभी हंस पड़े.

‘‘इतने बरस एकदूसरे से लड़े बगैर दोनों ने खाना कैसे पचाया होगा? ’’ लता बोलीं.

‘‘सोचने की बात है, झगड़ता तो खैर सैंडी से भी हूं, लेकिन अंगरेजी में झगड़ कर वह मजा नहीं आता, जो अपनी भाषा में झगड़ कर आता है,’’ मनु कुछ सोचते हुए बोला.

पूर्णिमा को यह सुनना अच्छा लगा. मनु का लौटना ऐसा था जैसे पतझड़ और जाडे़ के बाद एकदम बहार का आ जाना और वह भी इतने बरसों के बाद. होस्टल में अपनी रूममैट को कई बार पढ़ते हुए भी गुनगुनाते सुन कर वह पूछा करती थी कि पढ़ाई के समय यह गानाबजाना कैसे सूझता है, सेजल? तो वह कहती थी कि जब तुम्हें किसी से प्यार हो जाएगा न तब तुम इस तरह गुनगुनाने लगोगी.

सेजल का कहना ठीक था, आज पूर्णिमा का मन गुनगुनाने को ही नहीं झूमझूम कर नाचने को भी कर रहा था. उस के बाद प्रत्यक्ष में तो किसी ने पूर्णिमा की शादी की बात नहीं की थी, लेकिन जबतब लता और महेश लौकर में रखे गहनों और एफडी वगैरह का लेखाजोखा करने लगे थे. राघव ने भी आर्किटैक्ट बुलाया था, छत की बरसाती तुड़वा कर बहूबेटे के लिए नए कमरे बनवाने को. मनु को नए परिवेश में काम संभालने में जो परेशानियां आ रही थीं, उन्हें मैनेजमैंट ऐक्सपर्ट पूर्णिमा बड़ी सहजता से हल कर देती थी. अब मनु हर छोटीबड़ी बात उस से पूछने लगा था. वह अपने काम के साथ ही मनु के काम की बातें भी इंटरनैट पर ढूंढ़ती रहती थी. एक शाम उस ने मनु को फोन किया कि उसे जो जानकारी चाहिए थी वह मिल गई है. अत: उस का विवरण सुन ले.

‘‘मैं औफिस से निकल चुका हूं पूर्णिमा, तुम भी आने वाली होंगी. अत: घर पर ही बात कर लेंगे,’’ मनु ने कहा.

‘‘मैं तो घंटे भर बाद निकलूंगी.’’

‘‘ठीक है, फिर मिलते हैं.’’

लेकिन जब वह 2 घंटे के बाद घर पहुंची तो मम्मीपापा और अंकलआंटी बातों में व्यस्त थे. मनु की गाड़ी कहीं नजर नहीं आ रही थी.

‘‘मनु कहां है?’’ पूर्णिमा ने पूछा.

‘‘अभी औफिस से नहीं आया,’’ सुनते ही पूर्णिमा चौंक पड़ी कि इतनी देर रास्ते में तो नहीं लग सकती, कहीं कोई दुर्घटना तो नहीं हो गई. मगर तभी मनु आ गया.

‘‘बड़ी देर कर दी आज आने में?’’ जया ने पूछा.

‘‘वह ऊपर के कमरों के ब्लू प्रिंट्स सैंडी को भेजे थे न… उस की टिप्पणी के साथ आर्किटैक्ट के पास गया था. वहीं देर लग गई. अब कल से काम शुरू हो जाएगा.’’

पूर्णिमा यह सुन कर हैरान हो गई कि जिसे उन कमरों में रहना है उसे तो ब्लू प्रिंट्स दिखाए नहीं और सैंडी को भेज दिए. फिर पूछा, ‘‘सैंडी आर्किटैक्ट है?’’

‘‘नहीं, मेरी ही तरह सौफ्टवेयर इंजीनियर है.’’

‘‘तो फिर उसे ब्लू प्रिंट्स क्यों भेजे?’’

‘‘क्योंकि उसे ही तो रहना है उन कमरों में.’’

‘‘उसे क्यों रहना है?’’ पूर्णिमा ने तुनक कर पूछा.

‘‘क्योंकि वही तो इस घर की बहू यानी मेरी बीवी है भई.’’

‘‘बीवी है तो साथ क्यों नहीं आई?’’ पूर्णिमा अभी भी इसे मनु का मजाक समझ रही थी.

‘‘क्योंकि वह जिस प्रोजैक्ट पर काम कर रही है उसे बीच में नही छोड़ सकती. काम पूरा होते ही आ जाएगी. तब तक ऊपर के कमरे भी बन जाएंगे और नए कमरों में बहू का गृहप्रवेश धूमधाम से करवाने की मम्मी की ख्वाहिश भी पूरी हो जाएगी.’’

पूर्णिमा को मनु के शब्द गरम सीसे की तरह जला गए. उस ने अपने मातापिता की तरफ देखा. वे भी हैरान थे. ‘‘कमाल है भाभी, सास बन गईं और हमें भनक भी नहीं लगी,’’ महेश ने उलहाने के स्वर में कहा.

‘‘यह कैसे हो सकता है महेश भैया…’’

‘‘हम अभी तक वर्षों पुरानी बातें करते रहे हैं,’’ राघव ने जया की बात काटी, ‘‘इस बीच खासकर अमेरिका में क्या हुआ, उस के बारे में हम ने बात ही नहीं की.’’

‘‘मगर मैं ने तो पहले दिन ही कहा था कि मुझे बहू के गृहप्रवेश से पहले घर ठीकठाक चाहिए.’’

‘‘हम ने समझा आप हमारी बेटी के लिए कह रही हैं,’’ लता ने मन ही मन बिसूरते हुए कहा.

‘‘विस्तार से इसलिए नहीं बताया कि बापबेटे ने मना किया था कि अमेरिका में क्या करते थे या क्या किया बता कर शान मत बघारना…’’

‘‘सफाईवफाई क्या देनी मम्मी, सब को अपनी शादी का वीडियो दिखा देता हूं लेकिन डिनर के बाद,’’ मनु ने बात काटी, ‘‘तू भी जल्दी से फ्रैश हो जा पूर्णिमा.’’

‘‘मुझे तो खाने के बाद कुछ जरूरी काम करना है. मम्मीपापा को दिखा दे. मुझे सीडी दे देना. फुरसत में देख लूंगी.’’

‘‘मेरी शादी की सीडी है पूर्णिमा तुम्हारे औफिस की फाइल नहीं, जिसे फुरसत में देख लोगी,’’ मनु ने चिढ़ कर कहा, ‘‘जब फुरसत हो आ जाना, दिखा दूंगा. चलो, मम्मी खाना लगाओ, भूख लग रही है.’’

पूर्णिमा के परिवार की तो भूख मर चुकी थी, लेकिन नौकर के कई बार कहने पर कि खाना तैयार है, सब जा कर डाइनिंग टेबल के पास बैठ गए.

तभी मनु आ गया, ‘‘ओह, आप खाना खा रहे हैं, मैं फिर आता हूं.’’

‘‘अब आया है तो बैठ जा, खाना हो चुका है,’’ पूर्णिमा बोली.

‘‘अभी किसी ने खाना शुरू नहीं किया और तू कह रही है कि हो चुका. खैर, खातेखाते जो सुनाना है सुना दे,’’ मनु पूर्णिमा की बगल की चेयर पर बैठ गया.

लता और महेश ने चौंक कर एकदूसरे की ओर देखा. ‘‘क्या सुनना चाहते हो?’’ लता स्वयं नहीं समझ सकीं कि उन के स्वर में व्यंग्य था या टीस.

‘‘वही जो सुनाने को पूर्णिमा ने मुझे फोन किया था.’’

‘‘ओह, राजसंस का फीडबैक? काफी दिलचस्प है और वह इसलिए कि उन्होंने अभी तक किसी राजनेता का संरक्षण लिए बगैर अपने दम पर इतनी तरक्की की है.’’

‘‘यानी उन के साथ काम किया जा सकता है?’’

‘‘उस के लिए उन लोगों के विवरण देखने होंगे जो उन के साथ काम कर रहे हैं. चल तुझे पूरी फाइल दिखा देती हूं,’’ पूर्णिमा ने प्लेट सरकाते हुए कहा.

‘‘पहले तू आराम से खाना खा. बगैर खाना खाए टेबल से नहीं उठते. वह फाइल मुझे मेल कर देना. अभी चलता हूं,’’ मनु ने उठते हुए कहा.

‘‘क्यों सैंडी को फोन करने की जल्दी है?’’ लता ने पूछा.

‘‘नहीं आंटी, सैंडी तो अभी औफिस में होगी. वह आजकल ज्यादातर समय औफिस में ही रहती है ताकि काम पूरा कर के जल्दी यहां आ सके. हमें भी ऊपर के कमरे बनवाने में जल्दी करनी चाहिए. पापा को अभी यही समझाने जा रहा हूं,’’ फिर सभी को गुडनाइट कह कर मनु चला गया.

‘‘यह तो ऐसे व्यवहार कर रहा है जैसे कुछ हुआ ही नहीं है,’’ लता ने मुंह बना कर कहा. ‘‘सच पूछो तो मनु या उस के परिवार के लिए तो कुछ भी नहीं हुआ है और हमारे साथ भी जो हुआ है वह हमारी अपनी सोच, खुशफहमी या गलतफहमी के कारण हुआ है,’’ महेश ने कहा, ‘‘राघव या जया भाभी ने तो प्रत्यक्ष में ऐसा कुछ नहीं कहा. मनु ने तुझ से अकेले में कभी ऐसा कुछ कहा पूर्णिमा?’’

पूर्णिमा ने इनकार में सिर हिलाया.

‘‘आप ठीक कह रहे हैं, गलतफहमी तो हमें ही हुई है. सैंडी को भी तो हम सब लड़का समझते रहे,’’ लता बुझे स्वर में बोलीं, ‘‘लेकिन अब क्या करें?’’

‘‘राघव के परिवार के साथ सामान्य व्यवहार और पूर्णिमा के लिए रिश्ते की बात,’’ महेश का स्वर नर्म होते हुए भी आदेशात्मक था.

पूर्णिमा सिहर उठी, ‘‘नहीं पापा…मेरा मतलब है बातवात मत करिए. मैं शादी नहीं करना चाहती.’’

‘‘साफ कह मनु के अलावा किसी और से नहीं और उस का अब सवाल ही नहीं उठता. मुझे तो लगता है कि न तो राघव और जया भाभी ने तुझे कभी अपनी बहू के रूप में देखा और न ही मनु ने भी तुझे एक हमजोली से ज्यादा कुछ समझा. क्यों लता गलत कह रहा हूं?’’

‘‘अब तो यही लगता है. मनु की असलियत तो पूर्णिमा को ही पता होगी,’’ लता बोलीं.

पूर्णिमा चिढ़ गई, ‘‘या तो हंसीमजाक करता है या फिर अपने काम से जुड़ी बातें. इस के अलावा और कोई बात नहीं करता है.’’

‘‘कभी यह नहीं बताया कि वहां जा कर उस ने तुझे कितना याद किया?’’

‘‘कभी नहीं, अगर ऐसा लगाव होता तो संपर्क ही क्यों टूटता? मनु वहां जा कर जरूर सब से अलगथलग रहा होगा, क्योंकि जितनी अंगरेजी उसे आती थी उस से न उसे किसी की बात समझ आती होगी न किसी को उस की. सैंडी को भी अमेरिकन चालू लड़कों से यह बेहतर लगा होगा, इसलिए दोस्ती कर ली,’’ पूर्णिमा कुछ सोचते हुए बोली.

‘‘यह तो तूने बड़ी समझदारी की बात कही पूर्णिमा,’’ महेश ने कहा, ‘‘अब थोड़ी समझदारी और दिखा. डा. शशिकांत की तुझ में दिलचस्पी किसी से छिपी नहीं है, लेकिन तू उन्हें घास नहीं डालती. हालात को देखते हुए मनु नाम की मृगमरीचिका के पीछे भागना छोड़ कर डा. शशिकांत से मेलजोल बढ़ा ताकि हम भी राघव और जया भाभी को यह कह कर सरप्राइज दे सकें कि हम ने तो पूर्णिमा के लिए बहुत पहले से लड़का देख रखा है, बस किसी को बताया नहीं है. अब आप की बहू आ जाए तो रिश्ता पक्का होने की रस्म पूरी कर दें.’’ ‘‘हां, यह होगा नहले पे दहला पापा,’’ पूर्णिमा के मुंह से निकला.

Saras Salil Cine Award: इस भोजपुरी एक्टर की होती है ‘अमिताभ बच्चन’ से तुलना

भोजपुरी सिनेमा के लिए दिया जाने वाला ‘5वां सरस सलिल भोजपुरी सिने अवार्ड’ हाल ही में अयोध्या में शानदार तरीके से हुआ था, जिस में भोजपुरी सिनेमा के दिग्गज कलाकारों ने शिरकत की थी. इस अवार्ड शो में दर्शक भोजपुरी के तमाम कलाकारों को अपने सामने पा कर दंग थे. वे कड़ाके की ठंड में भी भोजपुरी कलाकारों का दीदार कर रहे थे.

वैसे तो इस अवार्ड शो में दिनेशलाल यादव ‘निरहुआ’, आम्रपाली दुबे, अंजना सिंह, अनारा गुप्ता, पाखी हेगड़े, संजय पांडेय, देव सिंह सरीखे कई दिग्गज कलाकार मौजूद थे, लेकिन इन सब के बीच भोजपुरी सिनेमा के एक खास कलाकार की मौजूदगी ने दर्शकों का हौसला बढ़ा दिया था. वह नाम है भोजपुरी सिनेमा में तकरीबन 43 सालों से अपनी ऐक्टिंग का सिक्का जमाए कुणाल सिंह का.

कुणाल सिंह भोजपुरी सिनेमा के शुरुआती दौर के उन गिनेचुने कलाकारों में शामिल हैं, जिन्होंने भोजपुरी सिनेमा को बुलंदियों पर पहुंचाया और भोजपुरी फिल्म इंडस्ट्री को आगे बढ़ाया.

विधायक का बेटा मुंबई में हीरो बनने आया

साल 1977 में कुणाल सिंह जब मुंबई में फिल्मों में काम करने आए, तब उन के पिता बुद्धदेव सिंह एक चर्चित नेता के साथसाथ विधायक भी थे. वे काफी दिनों तक मंत्री भी रहे थे.

कुणाल सिंह ने बताया, “जब मैं मुंबई आया, तब पिताजी खर्च भेजते रहे. मैं ने हीरो बनने के लिए काफी हाथपैर मारे, लेकिन कामयाबी नहीं मिल पा रही थी. पर मैं ने तय कर लिया था कि हीरो ही बनना है. उधर, पिताजी ने उम्मीद के मुताबिक कामयाबी न मिलने पर कुछ दिन बाद पैसा भेजना बंद कर दिया. ऐसा नहीं था कि वे मुझे पसंद नहीं करते थे, बल्कि वे मुझ से बहुत ज्यादा प्यार करते थे. फिर भी उन्हें मेरे भविष्य की चिंता थी, लेकिन मैं कुछ और ही समझ बैठा. मुझे लगा कि मैं उन पर बोझ बन गया हूं, इसीलिए मैं ने भी कह दिया कि अब मैं नौकरी कर रहा हूं और अपना खर्च खुद चला लूंगा.”

हिंदी फिल्म से हुई शुरुआत

कुणाल सिंह ने बताया कि जब वे मुंबई में संघर्ष कर रहे थे, तभी उन्हें एक हिंदी फिल्म औफर हुई थी, जिस का नाम था ‘कल हमारा है’. इस फिल्म की कहानी बिहार के माहौल पर थी और इसीलिए उस में एक भोजपुरी बोलने वाले कलाकार की जरूरत थी. यह फिल्म जब रिलीज हुई, तो पटना में तकरीबन 37 हफ्ते तक चली थी.

इस फिल्म की कामयाबी ने न केवल कुणाल सिंह के लिए दूसरी फिल्मों में आने का रास्ता खोला, बल्कि इस फिल्म के जरीए मिले भोजपुरी किरदार ने उन्हें भोजपुरी फिल्मों का स्टार बना दिया.

फिल्मों की लगी लाइन

कुणाल सिंह ने बताया, “जब मेरी यह फिल्म हिट हुई, तो फिल्म निर्माताओं ने मुझ से फिल्मों में काम करने के औफर देने शुरू किए, जिन में से ज्यादातर फिल्म निर्माता भोजपुरी सिनेमा बनाने की इच्छा ले कर आ रहे थे. चूंकि मेरे पास उस समय काम नहीं था, इसलिए मैं ने भी फिल्में साइन करनी शुरू कर दीं. लेकिन यह जरूर खयाल रखा कि कभी ऐसी फिल्म न करूं, जिस से खुद की नजरों में ही गिर जाऊं. आज फिल्म इंडस्ट्री में मुझे काम करते हुए तकरीबन 43  साल हो गए हैं, लेकिन कोई मुझ पर सवाल नहीं उठा सकता. मुझे इस बात का गर्व भी है.”

इन फिल्मों ने मचाया धमाल

कुणाल सिंह बताते हैं, “जब मैं बतौर हीरो फिल्मों में काम कर रहा था, तब टीवी और यूट्यूब का जमाना नहीं था, इसलिए सभी फिल्में सिनेमाघरों में ही रिलीज होती थीं. ऐसे में जब मेरी फिल्में सिनेमाघरों में लगती थीं, तो हफ्तों तक सिनेमाघरों के आगे दर्शकों की लाइन लगी रहती थी.”

कुणाल सिंह ने बताया कि उन की फिल्में ‘धरती मईया’, ‘हमार भौजी’, ‘चुटकी भर सिंदूर’, ‘गंगा किनारे मोरा गांव’, ‘दूल्हा गंगा पार के’, ‘दगाबाज बलमा’, ‘हमार बेटवा’, ‘राम जइसन भइया हमार’, ‘बैरी कंगना’, ‘छोटकी बहू’, ‘घरअंगना’, ‘साथ हमारतोहार’ आज भी सब से हिट और ज्यादा चलने वाली फिल्मों में शामिल हैं.

इस फिल्म ने तोड़ा था रिकौर्ड

कुणाल सिंह ने साल 1983 में भोजपुरी फिल्म ‘गंगा किनारे मोरा गांव’ में बतौर लीड हीरो काम किया था. जब यह फिल्म सिनेमाघरों में रिलीज हुई, तो इस ने इतिहास ही रच दिया, क्योंकि यह फिल्म वाराणसी के एक थिएटर में लगातार 1 साल 4 महीने तक चली थी.

अमिताभ बच्चन से तुलना

कुणाल सिंह को भोजपुरिया बैल्ट में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की तरह भोजपुरी का महानायक कहा जाता है. कई लोग तो उन्हें ‘भोजपुरी का अमिताभ बच्चन’ कहते हैं. भोजपुरी और बौलीवुड के इन दोनों महानायकों ने भोजपुरी फिल्म ‘गंगोत्री’ में एकसाथ काम भी किया है.

Kunal Singh

चुनाव में भी आजमा चुके हैं हाथ

एक समय ऐसा भी आया था, जब कुणाल सिंह ने राजनीति में भी हाथ अजमाने का फैसला किया था और अपने पिता के नक्शेकदम पर चलते हुए राजनीति में भी कदम रखा था. उन्होंने कांग्रेस से टिकट ले कर पटना साहिब से शत्रुघ्न सिन्हा के खिलाफ चुनाव लड़ा था और दूसरे नंबर पर रहे थे.

कभी रेप सीन नहीं किया

कुणाल सिंह जब पौजिटिव रोल करतेकरते ऊब गए थे, तब उन्होंने कुछ फिल्में बतौर विलेन भी करने का फैसला किया, लेकिन उन्होंने फिल्म निर्माताओं के सामने एक शर्त रखी थी कि वे विलेन के रूप में कभी भी फिल्मों में रेप सीन नहीं करेंगे.

कुणाल सिंह ने बताया, “मैं ने भोजपुरी में बतौर विलेन महज 2-3 ऐसी फिल्में ही की हैं, लेकिन इस शर्त के साथ कि इस फिल्म में न तो मैं किसी औरत के साथ रेप करूंगा, न उसे टच करूंगा.”

लाइफटाइम अचीवमैंट अवार्ड

हाल ही में अयोध्या में हुए ‘सरस सलिल भोजपुरी सिने अवार्ड’ शो में कुणाल सिंह को भोजपुरी सिनेमा में योगदान के लिए लाइफटाइम अचीवमैंट अवार्ड से नवाजा गया. इस मौके पर उन्होंने कहा कि इस लाइफटाइम अवार्ड ने ऐक्टिंग के प्रति उन की जवाबदेही और भी बढ़ा दी है. इस दौरान उन्होंने अपनी दमदार संवाद अदायगी से दर्शकों का मनोरंजन भी किया.

राम मंदिर प्राणप्रतिष्ठा में नहीं जाएंगे कांग्रेस और इंडिया, क्या हैं इस के मायने

रामलला की प्राणप्रतिष्ठा को ले कर हिंदू धर्माचार्य ही दोतीन फाड़ हैं तो फिर राजनीतिक दलों से एकजुट होने की उम्मीद करना फुजूल की बात है. इस मेगा धार्मिक इवैंट के आमंत्रण को एकएक कर सभी विपक्षी दलों ने ठुकरा कर साफ कर दिया है कि वे एक बड़ा जोखिम उठाने को तैयार हैं लेकिन धर्म की राजनीति के सामने झुकने को तैयार नहीं. सब से बड़ा रिस्क कांग्रेस और सोनिया गांधी ने लिया है, जिन्हें थाल भरभर कर गालियां स्मृति ईरानी और शिवराज सिंह चौहान जैसे दूसरी पंक्ति के भाजपाई नेताओं सहित बाबा बागेश्वर सरीखे कथावाचक दे रहे हैं.

कांग्रेस ने निहायत ही एहतियात से काम लेते कहा है कि यह भाजपा और आरएसएस का पौलिटिकल प्रोजैक्ट है. यह ऐसा सच है जिसे देश का बच्चा भी समझने लगा है कि भाजपा सिर्फ मंदिर की राजनीति करती है और उस ने राममंदिर बनाने का अपना वादा पूरा कर दिया है, एवज में यानी दक्षिणा में अब वह हिंदुओं से वोट मांग रही है. दक्षिणपंथियों के इस काम से दक्षिणापंथी ज्यादा खुश हैं क्योंकि यह उन के पेट से जुड़ी बात और मुद्दा है.

लेकिन इस मामले ने यह सोचने को मजबूर कर दिया है कि राम पूरे देश के आदर्श और नायक नहीं हैं और भाजपा राष्ट्रीय पार्टी होते हुए भी सभी हिंदुओं की नहीं हो पाई है. खासतौर से दक्षिण भारत में जहां रामचरित मानस का प्रभाव उत्तर भारत के मुकाबले न के बराबर है.

लोकसभा चुनाव 2024 के मद्देनजर भाजपा वहां से बहुत ज्यादा उम्मीदें भी नहीं लगा रही है लेकिन जोर पूरा दे रही है. उस के निशाने पर हिंदीपट्टी ही है, बाकी जो इधरउधर से मिल जाए, वह उस के लिए बोनस ही होगा. ठीक इसी तर्ज पर कांग्रेस की कोशिश भी यही है कि उस की, तथाकथित ही सही, धर्मनिरपेक्ष इमेज बनी रहे.

यह कोई छिपी, ढकी, मुंदी या रहस्यमयी बात नहीं है बल्कि उजागर सच है. लेकिन भारतीय समाज के लिहाज से इस के अपने अलग माने हैं. भाजपा ने किसी उम्मीद में यह आमंत्रण ममता बनर्जी, अखिलेश यादव या नीतीश कुमार सरीखों को नहीं भिजवाया था. उसे एहसास था कि इन में से कोई नहीं आने वाला क्योंकि बात धर्म की नहीं, राजनीति की है. उस का मकसद सिर्फ यही दिखाना था कि ये लोग विधर्मी, नास्तिक, सनातनविरोधी हैं, इसलिए ये वोट के हकदार नहीं. उलट इस के, हम शुद्ध धार्मिक और आस्तिक हैं, इसलिए सत्ता हमें ही मिलनी चाहिए. हम ही इसे पौराणिक तौरतरीकों से चला सकते हैं.

सियासी पंडितों का यह विश्लेषण भी बहुत सतही और उथला है कि कांग्रेस ने यह आमंत्रण मुसलिम वोटबैंक की सलामती के लिए ठुकराया. हकीकत यह है कि भगवा गैंग के प्रभाव के चलते अब मुसलमान के पास कांग्रेस के अलावा कोई विकल्प ही नहीं बचा है. 3 राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उस ने पूजापाठी राजनीति की तो उसे परंपरागत हिंदू वोट उम्मीद के मुताबिक नहीं मिले जबकि कर्नाटक और तेलंगाना में उस का यह वोट सलामत रहा.

ऐसे में अगर सोनिया गांधी अयोध्या के समारोह में बैठी दिखतीं तो संदेश यही जाता कि अब भाजपा और कांग्रेस में सैद्धांतिक व वैचारिक फर्क खत्म हो गया है. दलित, आदिवासी और कुछ पिछड़े भाजपा को 8-10 साल से अगर वोट कर रहे हैं तो इस की वजह यह नहीं है कि वे ऊंची जाति वाले हिंदुओं की तरह मुसलमानों को एक बड़े खतरे की शक्ल में देखते हैं, बल्कि यह है कि वे भी बड़े पैमाने पर पूजापाठी हो गए हैं.

वे यह जानतेसमझते हैं कि राम मंदिर उन के लिए नहीं बन रहा और न ही इस से उन की समस्याएं हल होने वाली हैं. वे एक प्रयोग के तौर पर भाजपा को वोट कर रहे हैं कि अगर वाकई समस्याएं राजशाही या ईश्वरवाद से हल होती हैं तो एक बार इसे भी आजमा लेने में हर्ज क्या है.
राजनीति का यह वह दौर है जिस में दुनियाभर में कट्टरपंथ हावी हो रहा है. हालिया एक ताजे सर्वे में डोनाल्ड ट्रंप बढ़त पर दिखाए गए हैं क्योंकि वे और उन की रिपब्लिकन पार्टी वहां दूसरे तरीके से वही कर रहे हैं जो भारत में भाजपा और नरेंद्र मोदी कर रहे हैं.

वामपंथ हर जगह हाशिए पर आ रहा है क्योंकि वह मोक्ष वगैरह की गारंटी नहीं लेता और न देता और न ही अपने सदियों पुराने सिलैबस में वक्त के मुताबिक फेरबदल करने को तैयार हो पा रहा है. वह स्थानीय लोगों को दक्षिणपंथियों की तरह डरा नहीं रहा.

राम मंदिर अधिसंख्य हिंदुओं के लिए आस्था का विषय है लेकिन रामपंथी मुश्किल से भी 12-15 करोड़ नहीं हैं. ऐसे में कांग्रेस ने भगवा गैंग की इस ढीली गेंद को बौलर की तरफ ही धकेल दिया है और दिमागीतौर पर इस बात के लिए तैयार भी है कि इस पर किस तरह का होहल्ला मचेगा. प्राणप्रतिष्ठा आयोजन का हिस्सा बन जाने से उस के वोट नहीं बढ़ जाते और न ही, न करने से कटने वाले हैं. हां, इतना जरुर हुआ है कि उस की विश्वसनीयता कायम रही है.

यहां बारीकी से गौर करने वाली बात यह भी है कि कांग्रेस को वोट सोनिया गांधी की वजह से नहीं मिलते, जबकि भाजपा को नरेंद्र मोदी की धार्मिक इमेज के चलते ही मिलते हैं. उन की गारंटियां ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’ की तर्ज पर प्रचारित की जा रही हैं. उन्हें एक सनातनी योद्धा के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है जो कि दक्षिणापंथियों की खासियत रही है कि अपने नायक की जीत का जितना प्रचार कर सकते हो, कर लो. उसी से समर्थन और सहमति मिलते हैं.

इस शोरशराबे और धूमधड़ाके में कोई यह नहीं सोच पाता कि हमें चाहिए क्या और हमें मिल क्या रहा है. सारी हिंदीपट्टी इन दिनों एक धार्मिक उन्माद में डूबी हुई है और लोकसभा चुनाव तक माहौल यही रहे, इस के इंतजाम भी भगवा गैंग ने कर रखे हैं. अयोध्या में भाजपा 2 महीने तक भंडारा करेगी. देशभर के लोगों को भाजपा वहां ढो कर ले जाएगी क्योंकि यही 10 साल की उस की उपलब्धि है जिस का हिस्सा बनने से कांग्रेस ने मना कर दिया तो बेकार का हंगामा खड़ा किया जा रहा है.

दो लड़कियां भी बन सकती हैं एकदूसरे की हमसफर

Same-Sex Marriage in India : उत्तर प्रदेश के देवरिया में 8 जनवरी को एक अलग तरह की शादी हुई. इस में दूल्हा और दुलहन दोनों ही लड़कियां थीं. और्केस्ट्रा में बतौर डांसर काम करने वाली इन 2 युवतियों ने मंदिर में शादी रचा ली. दोनों युवतियां पश्चिम बंगाल की रहने वाली हैं और 2 साल से पतिपत्नी की तरह साथ रह रही थीं.

दोनों ने अपनी शादी का पहले बाकायदा नोटरी शपथपत्र बनवाया. उस के बाद मंदिर में पूरे विधिविधान व मंत्रोच्चार के साथ शादी की. एकदूसरे को वरमालाएं भी डालीं. एक युवती ने दूसरी युवती के मांग में सिंदूर भरा. इतना ही नहीं, एक युवती वर के ड्रैस में यानी शेरवानी और सिर पर टोपी पहने हुए थी तो दूसरी युवती ने शादी का जोड़ा यानी साड़ी पहन रखी थी. अब यह समलैंगिक शादी पूरे क्षेत्र और सोशल मीडिया में चर्चा का विषय बना हुआ है.

दरअसल, देवरिया के एक और्केस्ट्रा में ये 2 युवतियां करीब 3 वर्षों से डांस करती आई हैं. डांस के दौरान दोनों में दोस्ती हो गई. यह दोस्ती कब प्यार में बदल गई, पता नहीं लगा. इस के बाद दोनों ने एकदूसरे के साथ जीनेमरने की कसमें खा लीं और समाज की चली आ रही रीति से विद्रोह करते हुए आपस में शादी करने का फैसला लिया. दोनों लड़कियां पश्चिम बंगाल की रहने वाली हैं. एक लड़की का नाम जयश्री राउल है जिस की उम्र 28 साल है. वहीं दूसरी लड़की का नाम राखी दास है जिस की उम्र 23 साल है.

30 दिसंबर को और्केस्ट्रा संचालक और उस के कुछ साथी दीर्घेश्वर नाथ मंदिर पहुंचे थे और दोनों युवतियों की शादी करने की बात कही. लेकिन मंदिर के महंत ने उच्च अधिकारियों की अनुमति न होने का हवाला देते हुए उन्हें वहां से लौटा दिया. उस के बाद मायूस हो कर सभी लोग वापस लौट गए और भाटपाररानी तहसील जा कर दोनों ने शादी के लिए स्टांपपेपर खरीदा. फिर दूसरे मंदिर में जा कर शादी रचा ली.
इश्क जब परवान चढ़ता है तो फिर वह किसी की भी नहीं सुनता, ऐसा ही कुछ यहां पर भी हुआ है.

कानून ने भले ही सेम सैक्स मैरिज को मान्यता न दी हो मगर इन्होंने दिल की सुन कर यह फैसला लिया. दोनों का कहना है कि भले ही जिंदगी के बंधन से ही मुक्त कर दो लेकिन रहेंगे तो हम साथ ही. वैसे, परिजनों की रजामंदी के बाद ही उन्होंने मंदिर में सात फेरे लिए. राखी खुद को पत्नी व जयश्री को पति मान रही है.

कोई भी हो सकता है हमसफर

हमसफर यानी कोई ऐसा शख्स जो जिंदगी के सफर में आप के साथ रहे, ताउम्र आप का साथ दे और आप की जिंदगी के सफर को खूबसूरत बनाए. आप एक लड़की हैं तो भी आप का हमसफर कोई लड़की भी हो सकती है. जरूरी नहीं कि आप का पार्टनर एक लड़का ही हो. बात दिल मिलने की है. अगर कोई लड़की पसंद आ रही है तो उस के साथ भी आप पूरी जिंदगी बिता सकती हैं.

खासकर 35-40 की उम्र तक शादी नहीं की है और जिंदगी अकेले बिताने में डर लग रहा है तो आप एक लड़की के साथ सैटल हो सकती हैं. वह आप की बीमारीहारी में आप का साथ तो देगी ही, साथ ही, उस के रूप में आप के पास अपने मन की बात शेयर करने के लिए भी कोई खास शख्स भी होगा.

वैसे भी, प्यार पर किसी का वश नहीं होता है. अगर प्यार दोतरफा हो तो इसे मंजिल मिल ही जाती है. इस से फर्क नहीं पड़ता कि प्यार समलिंगी के साथ हुआ या विषमलिंगी के साथ. अकसर 2 लड़कियों के बीच इतना गहरा रिश्ता बन जाता है कि उन्हें एकदूसरे की आदत हो जाती है. वे अलग हो कर जीने की कल्पना नहीं कर पातीं. 2 लड़कियां किसी घर में साथ रह रही हैं तो आसपास वाले उंगली भी नहीं उठाते. उन के लिए एकदूसरे के साथ एडजस्ट करना आसान होता है. साथ रहते हुए वे फिजिकल हों तो भी प्रैगनैंसी का डर नहीं रहता. वे आराम से साथ घूमनाफिरना, शौपिंग या मूवी देखना कर सकती हैं. इस में न तो सोसाइटी वालों को परेशानी होती है और न रिश्तेदारों को. इसे 2 सहेलियों का खूबसूरत बौंड माना जाता है.

मगर कभीकभी यह गहरा रिश्ता दोस्ती से बढ़ कर हो जाता है. तब दोनों एकदूसरे को हमसफर बनाने को आतुर हो उठती हैं. इस में उन्हें समाज और कानून की बंदिशों का सामना करना पड़ता है. लोग इस रिश्ते को कोई नाम देने की बात पर मजाक उड़ाने लगते हैं क्योंकि वे इस रिश्ते को दोस्ती के आगे देखने की बात सोच ही नहीं पाते. जब 2 लड़कियां रिश्ते को आगे बढ़ाने की सोचने लगतीं हैं तो उन्हें शुरू में कुछ व्यवधानों व लोगों की असहमति का सामना करना पड़ सकता है. मगर समय के साथ सब सही हो जाता है.

अगर 2 लड़कियां शादी करने की बात सोचती हैं तो उन्हें पता होना चाहिए कि कानून ने हमें इस की अनुमति नहीं दी है. यानी, कानून की नजर में सेम सेक्स मैरिज जायज नहीं है. फिर भी यदि 2 लड़कियां इस बंधन में बांधती हैं तो उन्हें कुछ मामलों में क्लियर रहना चाहिए और शादी के बाद इन बातों का खयाल रखना चाहिए.

पार्टनर को बनाएं नौमिनी

आप दोनों एकदूसरे की हमसफर हैं. समय के साथ आप की उम्र बढ़ेगी और हो सकता है कि किसी एक की मृत्यु पहले हो जाए. ऐसे में शादी के बाद अपने पार्टनर को फाइनैंशियली स्ट्रौंग बनाए रखने के लिए पहले से सोच कर रखिए. ऐसे रिश्तों में अकसर घरवाले नाराज रहते हैं या सपोर्ट नहीं करते. इसलिए अपने पार्टनर के भविष्य को सिक्योर करने के लिए आप उसे अपनी इनकम व बाकी वैल्थ के बारे में पूरी जानकारी दें. बैंक अकाउंट्स और जहां भी संभव हो, उसे ही अपना नौमिनी बनाएं. अपने बहन भाई के बच्चों के बजाय अपनी प्रौपर्टी का हकदार अपने पार्टनर को बनाएं.

हो सके तो बच्चा गोद लें

भले ही आप का फिजिकल रिश्ता खूबसूरत हो और आप अपनी जिंदगी से संतुष्ट हों मगर ऐसे रिश्तों में कहीं न कहीं एक कमी रह ही जाती है. और वह है पेरैंट्स न बन पाने की. आप को इस शादी से संतानसुख नहीं मिल सकता. ऐसे में बुढ़ापे में अकेलापन तकलीफ पहुंचा सकता है. इसलिए पहले से इस का भी समाधान ढूंढ कर रखें. कानूनी तौर पर एक अकेली लड़की भी बच्चा गोद ले सकती है. इसलिए शादी के पहले या बाद, आप में से कोई एक बच्चे को गोद ले ले. इस से आप का परिवार पूरा बन जाएगा. बच्चा आप दोनों को बड़ी मम्मी और छोटी मम्मी कह कर बुला सकता है. बच्चा आप के रिश्ते को और भी मजबूत करेगा.

एकदूसरे की पूरक बनें

आप दोनों में से एक जौब कर रही है और एक नहीं, तो आप दोनों पतिपत्नी की भूमिका निभा सकते हैं. जो जौब करती है वह पैसे कमाने पर ध्यान दें और दूसरी लड़की घर और बच्चे की साजसंभाल में समय लगा सकती है. एक परिवार को चलाने के लिए दोनों ही भूमिकाएं महत्त्वपूर्ण होती हैं. इसलिए अपने पार्टनर के पूरक की भूमिका निभाएं और दिल खोल कर जिंदगी का सुख लें.

बिलकिस की लड़ाई में शामिल रहीं कई महिलाएं

बिलकिस बानो केस में राधेश्याम शाही, जसवंत चतुरभाई नाई, केशुभाई वदानिया, बकाभाई वदानिया, राजीवभाई सोनी, रमेशभाई चौहान, शैलेशभाई भट्ट, बिपिन चंद्र जोशी, गोविंदभाई नाई, मितेश भट्ट और प्रदीप मोढिया वो 11 अपराधी हैं, जिन्होंने 2002 में हुए गुजरात दंगों के दौरान 5 माह की गर्भवती 21 वर्षीया बिलकिस बानो से सामूहिक बलात्कार किया, उस की आंख के सामने उस के परिवार के 7 लोगों का कत्ल किया और उस की 3 साल की मासूम बेटी को जमीन पर पटकपटक कर मार डाला.

इतनी जघन्यता करने वाले इन नरपिशाचों के अतिरिक्त 7 और लोग इस जघन्य कृत्य में शामिल थे, उन के खिलाफ भी एफआईआर हुई थी, मगर सुबूतों के अभाव में वे कानून के शिकंजे से बच निकले. 11 नरपिशाचों, जिन के खिलाफ पुख्ता सबूत हैं, को सजा तक पहुंचाने के लिए बिलकिस ने बहुत लंबी लड़ाई लड़ी है.

मानवता को शर्मसार करने वाले इन खूंखार कातिलों को तो उसी वक्त सरेआम फांसी पर चढ़ा दिया जाना चाहिए था, लेकिन भारतीय कानून ने इस बिना पर कि उकसावे में बहक कर उन्होंने ऐसा जघन्य कांड किया, उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी. लेकिन जिन अपराधियों के सिर पर गुजरात सरकार का वरदहस्त है, उन के लिए आजीवन कारावास तो पिकनिक मनाने जैसा रहा. सरकारी दामाद बन कर वे जेल में भी ऐश करते रहे और फिर गुजरात सरकार ने उन्हें ‘अच्छे चालचलन’ का तमगा दे कर समय पूर्व ही उन की जेल से रिहाई करवा दी.

अब भले ही सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें फिर वापस जेल भेजने का हुक्म सुनाया है मगर बिलकिस की लड़ाई का अभी अंत नहीं हुआ है. इस फैसले के बाद भी बिलकिस को न्याय मिलने का सवाल चर्चा में है. अपना फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को भले लताड़ा और कहा कि जिस राज्य में ट्रायल पूरा हुआ, जिस राज्य में उन को सजा सुनाई गई, अगर समय पूर्व रिहाई का फैसला करना था तो वही राज्य कर सकता था, गुजरात नहीं. ऐसा कह कर कोर्ट ने गेंद महाराष्ट्र के पाले में डाल दी है. महाराष्ट्र में भी बीजेपी की सरकार है, ऐसे में अपराधी कितने दिन जेल में रहेंगे, यह आने वाले समय में पता चलेगा?

8 जनवरी को जब सुप्रीम कोर्ट ने आज़ाद घूम रहे अपराधियों को फिर जेल भेजने का फैसला सुनाया तब वकील शोभा ग्रोवर के हवाले से बिलकिस का बयान आया- ‘मैं डेढ़ साल में पहली बार मुसकराई हूं…’ बिलकिस के इस छोटे से बयान से उस तनाव, डर और परेशानी को समझा जा सकता है जिस का सामना वह और उस का परिवार बीते 22 सालों से कर रहा है. न्याय पाने और अपराधियों को सजा दिलवाने की इस लड़ाई में बिलकिस और उस के परिवार को कभी सहज जीवन नहीं जीने दिया है. इस दौरान उस ने और उस के परिवार ने डर के कारण कई कई बार घर बदले. डर था कि कहीं उन की हत्याएं न हो जाएं. यह डर अभी भी कायम है.

खैर, बिलकिस को थोड़ी राहत तो मिली है. उस ने उन सभी महिलाओं को धन्यवाद दिया है जिन की मदद के बिना वह इस लड़ाई को आगे नहीं बढ़ा सकती थी. 2002 गुजरात दंगों में अनेक बिलकिस मारी गईं, उन का बलात्कार हुआ, उन की कोख उजाड़ दी गई, उन के परिवार को ख़त्म कर दिया गया मगर अदालत के दरवाजे तक सिर्फ एक ही बिलकिस पहुंची और उस को भी न्याय पाने के लिए 22 साल का लंबा वक़्त लगा. यह बिलकिस भी कभी अदालत न पहुंच पाती अगर देश की कुछ जागरूक महिलाओं ने उस की मदद न की होती.

गौरतलब है कि बिलकिस बानो को इंसाफ दिलाने में कुछ महिलाओं ने बेहद अहम रोल निभाया है, जिन में पहला नाम है एडवोकेट वृंदा ग्रोवर का. वरिष्ठ अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर सुप्रीम कोर्ट की वकील हैं. उन्होंने बिलकिस के लिए न सिर्फ कानूनी लड़ाई लड़ी बल्कि न्याय दिलाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी. ह्यूमन राइट से जुड़े आंदोलनों में सक्रिय रहने वाली वृंदा ग्रोवर सांप्रदायिक और टारगेट हिंसा जैसे मामलों के खिलाफ सख्त कानून बनाने की पक्षधर हैं.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर वृंदा ग्रोवर ने कहा- “यह एक बहुत अच्छा निर्णय है, जिस ने क़ानून के शासन और इस देश के लोगों, विशेष रूप से महिलाओं की कानूनी व्यवस्था और अदालतों में विश्वास को बरकरार रखा है और न्याय को सुनिश्चित किया है. गुजरात सरकार ने बिना अधिकार के दोषियों को सजा में छूट दे दी. सरकार का आदेश कानून के खिलाफ था.”

सामाजिक कार्यकर्ता सुभाषिनी अली बिलकिस बानो का गैंगरेप होने के 2 दिनों बाद गुजरात के एक राहत शिविर में उन से मिली थीं और बिलकिस के साथ हुए भयावह कृत्य को सुनने के बाद उन के रोंगटे खड़े हो गए थे. सुभाषिनी अली ने कोर्ट में बिलकिस को न्याय दिलाने के लिए याचिका दाखिल की थी.

सुभाषिनी अली कहती हैं कि जब उन्होंने गुजरात सरकार द्वारा दोषियों की रिहाई के फैसले को सुना तो लगा यह न्याय की समाप्ति जैसा है. मेरे लिए यह बिजली के शौक जैसा था. लेकिन हम ने फिर याचिका दाखिल की और कपिल सिब्बल, अपर्णा भट्ट व अन्य फेमस वकीलों ने इस मामले में हमारी मदद की.

सुभाषिनी अली कहती हैं, “हम सब ने देखा कि एक ओर प्रधानमंत्री लालकिले से भाषण दे रहे थे और दूसरी तरफ इन दोषियों की रिहाई का स्वागत माला पहना कर किया जा रहा था. इस घटना के बाद बिलकिस ने कहा था कि क्या यह न्याय का अंत है. उसी के बाद ऐसा लगा जैसे हमें बिजली छू गई हो. हम ने तभी सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने का फैसला किया. कई सालों में ऐसा फ़ैसला आया है जो किसी सरकार के खिलाफ है. मैं जजों की हिम्मत की दाद देती हूं. मगर यह भी सोचा जाना चाहिए कि कौन इतनी लंबी लड़ाई लड़ सकता है और कितने लोग सुप्रीम कोर्ट तक जा सकते हैं?”

बिलकिस मामले में पत्रकार रेवती लाल तीसरी याचिकाकर्ता थीं. रेवती कहती हैं, ”जब याचिका तैयार हुई तब 2 याचिकाकर्ता थे और एक तीसरे की जरूरत थी. तब उन्होंने मुझ से संपर्क किया तो मैं तुरंत इस के लिए तैयार हो गई. बिलकिस बानो के गैंगरेप के बाद जब मैं उन से मिली तो याचिकाकर्ता बनने के लिए बिना किसी इफ-बट के मैं ने हामी भर दी.”

मूलतया दिल्ली की रहने वाली रेवती लाल कहती हैं, “गुजरात दंगों के बाद मैं ने एक निजी चैनल के लिए वहां पर पत्रकार का काम किया और मेरे जेहन में यह मामला बैठा हुआ था. जब इस मामले में 11 लोगों को दोषी ठहराया गया तो मैं वहां थी और मैं बिलकिस की प्रैसवार्त्ता में भी मौजूद थी.” रेवती लाल गुजरात दंगों पर ‘द एनाटौमी औफ हेट’ नाम से किताब लिख चुकी हैं.

प्रोफैसर रूपरेखा वर्मा भी बिलकिस मामले में अहम याचिकाकर्ता हैं. लखनऊ विश्वविद्यालय में पिछले 40 वर्षों से अध्यापन कार्य से जुड़ीं 80 वर्षीय प्रोफैसर रूपरेखा कहती हैं कि गुजरात सरकार के फैसले से मानवाधिकार कार्यकर्ता काफी अधिक आहत थे. इस बारे में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दाखिल करने की योजना बन रही थी. मुझ से संपर्क किया गया तो मैं सहज तैयार हो गई. मैं गुजरात सरकार के फैसले से काफी हर्ट थी. किसी महिला के साथ ऐसा भयानक व्यवहार हुआ था और उस के अपराधियों को सरकार ने आजाद कर दिया, इस से शर्मनाक बात कोई नहीं हो सकती.

प्रोफैसर रूपरेखा वर्मा कहती हैं, “न्याय को ले कर हमारी पूरी उम्मीदें ख़त्म हो चुकी थीं लेकिन अब वो जगी हैं और निराशा का बादल थोड़ा सा छंट गया है.”

प्रोफैसर रूपरेखा वर्मा लखनऊ यूनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र पढ़ाती थीं और लंबे समय से सामाजिक और जैंडर मुद्दों पर काम करती रही हैं. हालांकि, प्रोफैसर रूपरेखा वर्मा ने कभी बिलकिस बानो से मुलाकात नहीं की क्योंकि वे उन्हें परेशान नहीं करना चाहती थीं. अब प्रोफैसर रूपरेखा वर्मा सुप्रीम कोर्ट के फैसले से खुश हैं.

वे मानती हैं कि कोर्ट के फैसले से न केवल दोषियों की बदनामी हुई है बल्कि उन्हें एक सबक भी मिला है क्योंकि उन्होंने झूठ बोल कर छूट ली थी. लेकिन अभी डर है क्योंकि महाराष्ट्र में बीजेपी की सरकार है. मगर महिलाओं को हिम्मत नहीं हारनी चाहिए. आज बहुत से संगठन हैं जो उन की मदद करने के लिए तैयार हैं. उन्हें अपने खिलाफ हुए अन्याय पर मुंह सील कर नहीं बैठना चाहिए, बल्कि आगे बढ़ कर दोषियों को सबक सिखाना चाहिए.

विवादों में क्यों होता है विधानसभा स्पीकर ?

Shiv Sena vs Shiv Sena Verdict : महाराष्ट्र में शिवसेना के 16 विधायकों की अयोग्यता मामले में फैसला सुनाते हुए विधानसभा स्पीकर राहुल नार्वेकर ने शिंदे गुट को सही ठहराया. जिस के बाद शिवसेना सुप्रीमो उद्धव ठाकरे ने स्पीकर पर तंज कसा और कहा कि आज लोकतंत्र की हत्या हुई है. महाराष्ट्र में असली शिवसेना कौन है, इसे ले कर पिछले डेढ़ साल से चल रही दावेदारी की लड़ाई में एक बड़ा मोड़ तब सामने आया जब महाराष्ट्र के विधानसभा स्पीकर राहुल नार्वेकर ने सुप्रीम कोर्ट की बारबार की फटकार के बाद दी गई मोहलत के आखिरी दिन यानी 10 जनवरी को अपना फैसला सुनाया.

स्पीकर राहुल नार्वेकर ने चुनाव आयोग का हवाला देते हुए एकनाथ शिंदे गुट को राहत दी है. नार्वेकर ने अपने फैसले में कहा कि असली शिवसेना शिंदे गुट की है और उद्धव ठाकरे गुट ने नियमों को ताक पर रख कर विधायकों को सस्पैंड किया था.
स्पीकर के फैसले पर पूर्व सीएम उद्धव ठाकरे ने कहा कि हम जनता को साथ ले कर लड़ेंगे और जनता के बीच जाएंगे. स्पीकर का आज जो आदेश आया है, वह लोकतंत्र की हत्या है और सुप्रीम कोर्ट के फैसले का भी अपमान है.

सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा था कि राज्यपाल ने अपने पद का दुरुपयोग किया है और गलत किया है. अब हम इस लड़ाई को आगे भी लड़ेंगे और हमें सुप्रीम कोर्ट पर पूरा भरोसा है. सुप्रीम कोर्ट जनता और शिवसेना को पूरा न्याय दिए बिना नहीं रुकेगा.

शिवसेना के राज्यसभा सांसद संजय राउत ने स्पीकर के फैसले पर सवाल उठाते हुए बीजेपी पर शडयंत्र करने का आरोप लगाया है. शिवसेना के पास यही विकल्प भी बचा है क्योंकि इस से पहले चुनाव आयोग भी शिंदे गुट के पक्ष में ही फैसला सुना चुका है.

न्याय मिलना सरल नहीं

महाराष्ट्र विधानसभा के स्पीकर राहुल नार्वेकर के फैसले से शिवसेना संतुष्ट नहीं है. इस के खिलाफ वह सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी में है. संवैधानिक संस्थाओं को इसलिए बनाया गया था कि वे ज्यादा प्रभावी फैसला कर सकती हैं. हाल के कुछ सालों में संवैधानिक संस्थाओं ने ऐसे फैसले दिए जो विवादित रहे हैं.

महाराष्ट्र के इस मसले में चुनाव आयोग और विधानसभा स्पीकर दोनों के फैसलों से शिवसेना उद्धव गुट संतुष्ट नहीं रहा. यह पहली बार नहीं है कि विधानसभा स्पीकर के फैसले पर सवाल उठे हों. जब भी राजनीतिक दलों में दलबदल या तोड़तोड़ होती है, विधानसभा स्पीकर का फैसला मान्य होता है.

लोकसभा और राज्यसभा से ले कर विधानसभाओं तक एकजैसा ही दस्तूर चल निकला है. लोकसभा में अभी 142 सांसदों को निलंबित किया गया. वहां भी सवाल खड़े हो रहे हैं. उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ काफी चर्चा में रहे हैं. अब सदन में सत्ता और विपक्ष के बीच संतुलन रखना सरल नहीं रह गया है. फैसले के लिए सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खटखटाना सरल हो गया है. संवैधानिक संस्थाओं के फैसले जिस तरह से विवादों में फंस रहे हैं उस से न्याय में देरी होगी और अब ये फैसले सरल नहीं होंगे.

क्यों खास है विधानसभा स्पीकर ?

विधानसभा के अध्यक्ष किसी भी राज्य में राजनीतिक उठापटक को देखते हुए साल 1985 में पास किए गए दलबदल कानून का सहारा ले सकते हैं. इस कानून के तहत सदन के अध्यक्ष कई हालात में फैसला ले सकता है. अगर कोई विधायक खुद ही अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ देता है, अगर कोई निर्वाचित विधायक पार्टी लाइन के खिलाफ जाता है, अगर कोई विधायक पार्टी व्हिप के बावजूद मतदान नहीं करता है, अगर कोई विधायक विधानसभा में अपनी पार्टी के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करता है, तो संविधान की 10वीं अनुसूची में निहित शक्तियों के तहत विधान सभा अध्यक्ष फैसला ले सकता है.

बदलबदल कानून के तहत विधायकों की सदस्यता रद्द करने पर विधानसभा अध्यक्ष का फैसला आखिरी हुआ करता था. 1991 में सुप्रीम कोर्ट ने 10वीं सूची के 7वें पैराग्राफ को अवैध करार दिया. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि स्पीकर के फैसले की कानूनी समीक्षा हो सकती है.

विधानसभा स्पीकर को ले कर होते थे समझौते

सरकार चलाने में विधानसभा स्पीकर की भूमिका बहुत प्रभावी होती है. ऐसे में गठबंधन की सरकार चलाने में दल यह चाहते थे कि स्पीकर उन का हो. उत्तर प्रदेश में 1995 से 2004 तक गठबंधन की सरकारों का दौर चल रहा था. बसपा और भाजपा का गठबंधन होता था. जिस में यह तय होता था कि पहले 6 माह बसपा नेता मायावती मुख्यमंत्री रहेंगी, उस के बाद भाजपा नेता कल्याण सिंह मुख्यमंत्री होंगे. मायावती पहले मुख्यमंत्री बनीं. जब कल्याण सिंह का नंबर आया तो मायावती ने विधानसभा भंग करने का फैसला किया. उधर भाजपा ने मायावती के पैतरें का जवाब देने के लिए बहुजन समाज पार्टी में दलबदल करा दिया. यहां पर विधानसभा अध्यक्ष की भूमिका खास हो जाती थी.

भाजपा ने उस दौर में केसरीनाथ त्रिपाठी को अपना विधानसभा स्पीकर बनवाया था. केसरीनाथ त्रिपाठी अच्छे वकील थे. उन के फैसले ऐेसे होने लगे जिन का लाभ भाजपा को मिलता था. वे जो फैसला देते थे उस की काट कोर्ट में भी नहीं हो पाती थी. इस के बाद यह परिपाटी शुरू हो गई कि गठबंधन सरकार में मुख्यमंत्री एक गुट का होता था तो विधानसभा स्पीकर दूसरे गुट का. इस से यह पता चलता है कि गठबंधन सरकारों में विधानसभा स्पीकर का महत्त्व कितना और क्यों होता है ?

साल 2011 में कर्नाटक में भी इसी तरह का मामला सामने आया था. तब कर्नाटक विधानसभा अध्यक्ष ने बीजेपी के 11 विधायकों की सदस्यता रद्द कर दी थी. जब यह मामला हाईकोर्ट पहुंचा तो विधायकों की सदस्यता रद्द किए जाने के पक्ष में फैसला आया. लेकिन जब यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर की अध्यक्षता वाली पीठ ने विधायकों की सदस्यता रद्द नहीं करने का फैसला सुनाया.

साल 1992 में एक विधायक की सदस्यता रद्द किए जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट और मणिपुर के विधानसभा अध्यक्ष एच बोडोबाबू के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो गई थी. कई बार ऐसे मौके आए, जब विधानसभा अध्यक्षों की भूमिका और उन के अधिकारों को ले कर अदालतों में बहस हुई हैं. संविधान ने जिस तरह से विधानसभा अध्यक्ष और चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं को अधिकार दिए थे, अब ये उस तरह से फैसले नहीं कर रहे.

इस वजह से इन संस्थाओं के भरोसे पर सवाल उठाने लगे हैं. न्याय कठिन हो गया है. हर व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट से ही राहत की उम्मीद करने लगा है. वहां तक पहुंचना सरल नहीं रह गया है. खर्च वाला काम है. संवैधानिक संस्थाओं के फैसले लोगों को संतुष्ट नहीं कर पा रहे हैं.

वैडिंग लोन से ही सही, युवा खुद उठा रहे अपनी शादी का खर्च

लड़कियों को पेट में ही मार डालने या पैदा होने के तुरंत बाद मार डालने का रिवाज पूरी तरह खत्म भले ही न हुआ हो लेकिन काफी हद तक नियंत्रित जरूर हुआ है. शिक्षा और जागरूकता सहित इस की एक बड़ी वजह यह भी है कि अब बेटी के पैदा होते ही मांबाप को उस की शादी और दहेज की चिंता इतना नहीं सताती कि उन्हें 60 से ले कर 80 तक के दशक के फिल्मों की तरह गहनों की पोटली या जमीनजायदाद के कागजात ले कर सूदखोर लाला के पास भारीभरकम ब्याज पर कर्ज लेने जाना पड़ता हो.

हालांकि हर दौर की तरह शादी आज भी मकान के बाद दूसरा बड़ा खर्च है बल्कि शादियां अब पहले से ज्यादा खर्चीली हो चली हैं लेकिन इतनी कतई नहीं कि बाप को पगड़ी किसी के पांवों में रख कर इज्जत की दुहाई देते गिड़गिड़ाना पड़े या दोस्तों व रिश्तेदारों से पैसा उधार मांगना पड़े. इस की वजह, दोटूक कहें तो, अधिकतर युवा अपनी शादी का खर्च खुद उठाने लगे हैं. आंकड़ों में दाखिल होने से पहले इसे कुछ उदाहरणों से बेहतर समझा जा सकता है.

भोपाल का 29 वर्षीय आदित्य पुणे की एक सौफ्टवेयर कंपनी में 18 लाख रुपए सालाना के पैकेज पर जौब करता है. 5 साल की नौकरी में उस ने कोई 15 लाख रुपए इकट्ठा कर लिए हैं. कुछ एफडी की शक्ल में तो कुछ यहांवहां इन्वैस्ट कर के उस ने पैसा बढ़ाया ही है. पिता भी सरकारी कर्मचारी हैं और अब रिटायरमैंट कि कगार पर हैं.

रिश्ते की बात चली तो उन्हें खर्च की भी चिंता सताने लगी, जिसे आदित्य ने यह कहते आधा कर दिया कि आप तो चिल करो, पैसों का टैंशन मत लो. मेरे पास 20 लाख रुपए तक का इंतजाम हो जाएगा. इतने से ज्यादा लगा, तो फिर आप देख लेना.

उस के पापा, जो जीपीएफ से पैसा निकालने के लिए दफ्तर से फौर्म तक ले आए थे, यह सुनते ही निश्चिंत हो गए क्योंकि 8-10 लाख रुपए का इंतजाम तो उन्होंने भी कर रखा था. 30 लाख रुपए बहुत हैं आजकल धूमधाम और शान से शादी करने के लिए. सो, उन्होंने आदित्य को अपनी पसंद की लड़की दिखाई जो उसे भा गई तो तुरंत एंगेजमैंट भी हो गई. अब इस साल आदित्य रश्मि के साथ शादी के बंधन में बंध जाएगा जो खुद 12 लाख रुपए के पैकेज पर जौब मुंबई की एक नामी कंपनी में करती है.

लड़कियां भी पीछे नहीं

27 वर्षीया तपस्या एक राष्ट्रीयकृत बैंक में अधिकारी है. घर भोपाल में ही है, लिहाजा 90 हजार रुपए महीने की सैलरी में से बमुश्किल 25-30 हजार रुपए ही खर्च होते थे. घरखर्च में हाथ बंटाने की पहल करती थी तो पापा यह कहते टाल जाते थे कि हम लड़कियों की कमाई नहीं लेते, हालांकि, ऐसी कोई कसम भी नहीं खाई है. अगर जरूरत पड़ी तो तुम्हें बेटा समझ कर ले भी लेंगे. अभी तुम ये पैसे अपने पास ही रखो और जैसे चाहे इस्तेमाल करो. तुम तो बैंक में हो, सो, इस बारे में ज्यादा जानती हो.

तपस्या के पास 20 लाख रुपए इकट्ठा हो गए हैं. जैसे ही खुद उस ने अपनी पसंद का लड़का बताया तो मम्मीपापा पुरानी हिंदी फिल्मों के सोहराब मोदी या नासिर हुसैन जैसे किलपने के बजाय खुश हो उठे और खुद रिश्ता ले कर स्वप्निल के यहां जा पहुंचे. शादी हुए एक साल हो गया है लेकिन इस में तपस्या के पापा का महज 8 लाख रुपए ही खर्च हुआ. वह भी उन्होंने जबरन कर दिया नहीं तो वह और उस की कुलीग स्वप्निल सबकुछ तय कर चुके थे. दोनों ने अपनी ही कमाई और बचत से 40 लाख रुपए शादी पर खर्च किए और दोनों पक्षों में से किसी को भी किसी से धेला भर भी बतौर कर्ज या उधार नहीं लेना पड़ा.

यह एक नहीं, बल्कि हजारोंलाखों तपस्याओं की कहानी है जो अपनी शादी का खर्च खुद उठा रही हैं. पूरा न सही तो आधा और अकसर उस से भी ज्यादा. इस बात का खुलासा करते भोपाल के सरकारी कालेज की एक प्रोफैसर सोना शुक्ला बताती हैं, “असल में परिवार अब छोटे हो चले हैं. संयुक्त परिवारों में संतानें 4 या ज्यादा होती थीं, लिहाजा पिता की कमाई उन की परवरिश और पढ़ाईलिखाई में ही खर्च हो जाती थी. ऐसे में शादी के लिए फंड जुटाने की समस्या चुनौती की शक्ल में पेश आती थी. पहले के लोग किफायती होते थे और दूरदर्शी भी, इसलिए कोई अड़चन नहीं आती थी.

वे जाने कैसे शादी के खर्च का इंतजाम कर ही लेते थे. सरकारी नौकरी में हों तो भविष्यनिधि उन का बहुत बड़ा सहारा होती थी और अगर व्यापारी हुए तो वे अच्छी कमाई के दिनों में सोने और जमीनों में पैसा लगा देते थे. शादी का वक्त आतेआते उसे बेचने पर खासा अमाउंट मिल जाता था. अगर फिर भी कम पड़ता था तो बाजार से ब्याज और उठा लेते थे और धीरेधीरे चुकाते रहते थे.

शादी और लोन का गणित

युवा अपनी शादी का खर्च खुद उठा सकें, इस के लिए अब बैंक और दूसरी कई एजेंसियां भी वेडिंग लोन देने लगी हैं. एक नामी औनलाइन कंपनी इंडिया लेंड्स ने हाल ही में जारी की अपनी एक सर्वे रिपोर्ट में बताया है कि आज के युवा अपनी शादी के खर्च का बोझ पेरैंट्स पर न डाल कर उसे खुद उठाना चाहते हैं. इस सर्वे के मुताबिक, 42 फीसदी युवा यह खर्च खुद उठाना चाहते हैं. इस में भी दिलचस्प बात यह है कि 60 फीसदी युवतियां अपनी शादी का खर्च खुद जुटा रही हैं जबकि ऐसा करने वाले युवकों की तादाद 52 फीसदी है.

जरूरी नहीं कि सभी युवाओं के पास एकमुश्त इतना पैसा हो कि वे 25-30 लाख रुपए शादी में खर्च कर सकें. इस परेशानी को देखते अब वैडिंग लोन लेने वाले युवाओं की संख्या बढ़ रही है. इस सर्वे की मानें तो 26.3 फीसदी युवा वैडिंग लोन को प्राथमिकता दे रहे हैं जबकि 42.1 फीसदी युवाओं ने शादी के लिए फंड इकट्ठा कर रखा है. यह लोन भी कोई भारीभरकम नहीं है बल्कि 67.7 फीसदी युवा महज एक से ले कर 5 लाख रुपए तक का लोन लेना पसंद कर रहे हैं.

युवाओं के नजरिए में आते बदलाव पर एक नजर डालें तो सर्वे में शामिल 70 फीसदी युवाओं ने कम खर्चीली शादी की बात कही, जिस का बजट 10 लाख रुपए से ज्यादा का न हो. 21.6 फीसदी युवा 25 लाख रुपए तक शादी पर खर्चना चाहते हैं तो महज 8.4 फीसदी युवा ही 25 लाख रुपए से ज्यादा शादी पर खर्च करने की बात सोचते हैं. सर्वे यह भी बताता है कि एक औसत शादी का खर्च इन दिनों 20 – 25 लाख रुपए है.

सहूलियत से मिलता है

वैकडिंग लोन अब लगभग सभी बैंक दे रहे हैं लेकिन देश का सब से बड़ा एसबीआई इन में अग्रणी है. क्या है और किसे मिल सकता है वैडिंग लोन, यह जानने से पहले यह समझ लेना जरूरी है कि वैडिंग लोन, दरअसल, एक तरह का पर्सनल लोन ही है. ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए कुछ औफर्स के साथ इसे वैडिंग लोन नाम दे दिया गया है. बड़ा फर्क यह है कि वैडिंग लोन जल्द मिल जाता है. इसे ‘मेरी नाऊ पे लेटर’ नाम से भी जाना जाने लगा है लेकिन हकीकत में दोनों में थोड़ा फर्क है.

अपनी आमदनी के मुताबिक कोई भी नौकरीपेशा 40 लाख रुपए तक का वैडिंग लोन जितनी जरूरत हो, ले सकता है लेकिन इस के लिए सभी खानापूर्तियां करना जरूरी होता है जो किसी भी लोन में की जाती हैं, मसलन एड्रेस प्रूफ, पैनकार्ड, आईटीआर फौर्म-16 और इनकम प्रूफ वगैरह. सिविल स्कोर का ठीक यानी 750 से ज्यादा होना भी जरूरी होता है. अलगअलग बैंकों की ब्याज दरों में मामूली अंतर वैडिंग लोन में होता है. आमतौर पर यह 11 से 20 फीसदी तक होता है. वैडिंग लोन 5 साल तक मासिक किस्तों में चुकाना होता है, हालांकि, बड़े बैंक 7 साल तक की सहूलियत देते हैं.

वैडिंग लोन के लिए न्यूनतम मासिक आय 15 हजार रुपए होना जरूरी होता है और आवेदक की उम्र 21 से 60 साल के बीच होनी चाहिए. यह लोन चाहने वाले औफ या औनलाइन भी आवेदन कर सकते हैं.

हर्ज नहीं बशर्ते

अपनी मरजी की शादी करने के लिए वैकडिंग या मैरिज लोन लेना हर्ज की बात नहीं लेकिन दूसरे किसी भी लोन की तरह चुकाने की क्षमता होनी जरूरी है. गृहस्थ जीवन में प्रवेश के पहले इस की मासिक किस्तों को बजट में शामिल करना बाद की परेशानियों से बचाता है. आमतौर पर युवा 5 से 10 लाख तक का वैडिंग लोन कपड़ों, गहनों और हनीमून सहित दूसरे व्यक्तिगत खर्चों के लिए ज्यादा लेते हैं. हालांकि, आप लोन का इस्तेमाल कैसे और कहां करते हैं, इस पर बैंक की कोई बंदिश नहीं रहती है.

भोपाल के ही एक इंजीनियर अभिषेक श्रीवास्तव की मानें तो शादी एक बार होती है जिस में युवाओं की कई ख्वाहिशें और इच्छाएं ऐसी होती हैं जिन्हें वे पेरैंट्स के सामने व्यक्त करने में हिचकते हैं. ऐसे में वैडिंग लोन एक अच्छा विकल्प है.

आखिर अधिकतर युवा व्हीकल लोन भी तो लेते हैं और किस्तें वक्त पर चुकाते रहते हैं. अलावा इस के, अगर युवा पेरैंट्स का हाथ बंटा पाएं तो इस में हर्ज क्या है. हां, शादी में फुजूलखर्ची और दिखावे से बचना चाहिए लेकिन अपनी इच्छाओं की हत्या भी थोड़े से पैसों के पीछे करना जिंदगीभर सालता रहता है. इसलिए, 5-7 साल तक का वैडिंग लोन लेना हर्ज की बात नहीं.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें