रामलला की प्राणप्रतिष्ठा को ले कर हिंदू धर्माचार्य ही दोतीन फाड़ हैं तो फिर राजनीतिक दलों से एकजुट होने की उम्मीद करना फुजूल की बात है. इस मेगा धार्मिक इवैंट के आमंत्रण को एकएक कर सभी विपक्षी दलों ने ठुकरा कर साफ कर दिया है कि वे एक बड़ा जोखिम उठाने को तैयार हैं लेकिन धर्म की राजनीति के सामने झुकने को तैयार नहीं. सब से बड़ा रिस्क कांग्रेस और सोनिया गांधी ने लिया है, जिन्हें थाल भरभर कर गालियां स्मृति ईरानी और शिवराज सिंह चौहान जैसे दूसरी पंक्ति के भाजपाई नेताओं सहित बाबा बागेश्वर सरीखे कथावाचक दे रहे हैं.

कांग्रेस ने निहायत ही एहतियात से काम लेते कहा है कि यह भाजपा और आरएसएस का पौलिटिकल प्रोजैक्ट है. यह ऐसा सच है जिसे देश का बच्चा भी समझने लगा है कि भाजपा सिर्फ मंदिर की राजनीति करती है और उस ने राममंदिर बनाने का अपना वादा पूरा कर दिया है, एवज में यानी दक्षिणा में अब वह हिंदुओं से वोट मांग रही है. दक्षिणपंथियों के इस काम से दक्षिणापंथी ज्यादा खुश हैं क्योंकि यह उन के पेट से जुड़ी बात और मुद्दा है.

लेकिन इस मामले ने यह सोचने को मजबूर कर दिया है कि राम पूरे देश के आदर्श और नायक नहीं हैं और भाजपा राष्ट्रीय पार्टी होते हुए भी सभी हिंदुओं की नहीं हो पाई है. खासतौर से दक्षिण भारत में जहां रामचरित मानस का प्रभाव उत्तर भारत के मुकाबले न के बराबर है.

लोकसभा चुनाव 2024 के मद्देनजर भाजपा वहां से बहुत ज्यादा उम्मीदें भी नहीं लगा रही है लेकिन जोर पूरा दे रही है. उस के निशाने पर हिंदीपट्टी ही है, बाकी जो इधरउधर से मिल जाए, वह उस के लिए बोनस ही होगा. ठीक इसी तर्ज पर कांग्रेस की कोशिश भी यही है कि उस की, तथाकथित ही सही, धर्मनिरपेक्ष इमेज बनी रहे.

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