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ज्यादा आमदनी के लिए

जापानी बटेरपालन

भूमिहीन किसानों, बेरोजगार युवाओं और लघु व सीमांत किसानोें को बाजार की मांग के मुताबिक ऐसी गतिविधियां अपनानी होंगी, जो कम लागत में ज्यादा आमदनी दे सकें. वैसे ग्रामीण अपने गांवों में कृषि के साथसाथ आमदनी बढ़ाने के लिए मुरगीपालन, बतखपालन व टर्कीपालन वगैरह करने लगे हैं, पर बीमारियों, मौसम की मार और बाजार के उतारचढ़ाव के कारण इन में ज्यादा मुनाफा नहीं होता है. यदि इन की बजाय जापानी बटेरपालन का काम किया जाए तो वह ज्यादा फायदेमंद साबित होगा. जापानी बटेरपालन पर कुछ साल पहले उच्चतम न्यायालय ने रोक लगा दी थी, पर अब इसे हटा लिया गया है. जापानी बटेर को मांस व अंडों के लिए पाला जाता है. इस का मांस व अंडे स्वादिष्ठ होने के साथसाथ काफी पौष्टिक होते हैं. यही वजह है कि इन की बिक्री में कोई दिक्कत नहीं आती.

जापानी बटेरपालन के लिए चूजे मथुरा (उत्तर प्रदेश) के पंडित दीनदयाल उपाध्याय पशु चिकित्सा विश्वविद्यालय सहित देश के तमाम पशु चिकित्सा विश्वविद्यालयों द्वारा अनुदानित दरों पर मुहैया कराए जा रहे हैं. मथुरा का पशु चिकित्सा विश्वविद्यालय महज 9 रुपए में जापानी बटेर के चूजे मुहैया कराता है.

जापानी बटेर कबूतर के आकार का होता है, जिस का पालन मुरगीपालन की तरह जालीनुमा शेड में किया जाता है. जापानी बटेर उड़ने में तेज होता है, लिहाजा इस के शेड को बंद रखना पड़ता है. यदि शेड खुला रह जाएगा तो ये पक्षी उड़ कर गायब हो सकते हैं. जापानी बटेरपालन के लिए शुरू के 15 दिनों में तापमान पर खास ध्यान रखना पड़ता है. यदि तापमान 35 डिगरी सेल्सियस से अधिक होता है, तो कूलर लगा कर उसे कम करना पड़ता है. करीब 15 दिनों बाद इन चूजों का वजन तेजी से बढ़ना शुरू होता है और इन में रोगरोधक कूवत भी पैदा हो जाती है. जापानी बटेर के चूजों  में टीकाकरण या किसी दवा की जरूरत नहीं होती है. केवल शेड में फफूंदी या नमी का खास ध्यान रखना पड़ता है. मुरगियों के चूजों की तरह जापानी बटेर के चूजों को भी दाना खिलाना पड़ता है. करीब 5 हफ्ते तक 1 चूजे को करीब 1 किलोग्राम दाने की जरूरत होती है, जिस पर 35 से 40 रुपए का खर्च आता है. 5 हफ्ते के बाद चूजा बेचने लायक हो जाता है. इसे आसानी से 70 से 80 रुपए में बेचा जा सकता है. सर्दियों के मौसम में इन की काफी मांग बढ़ जाती है. जापानी बटेर के चूजे वजन से नहीं बेचे जाते. इन्हें प्रति चूजे की दर से बेचा जाता है. जापानी बटेर का मांस लोग काफी पसंद करते हैं. इस का पालन अंडों के लिए भी किया जाता है. मादा जापानी बटेर 2 महीने बाद रोजाना 1 अंडा देना शुरू कर देती है. यह साल भर अंडे देती है. मुरगियों की तरह मादा बटेर कभी कुड़क नहीं होती. जापानी बटेर में नर के मुकाबले मादा का वजन ज्यादा होता है. आमतौर पर बटेरपालन में 4 मादाओं के बीच 1 नर को रखा जाता है. कारोबारी तौर पर जापानी बटेरपालन कम से कम 500 जापानी बटेरों से शुरू करना बेहतर रहता है. राजस्थान के भरतपुर जिले में लुपिन फाउंडेशन संस्था द्वारा कुम्हेर पंचायत समिति के 2 गांवों में जापानी बटेरपालन शुरू कराया गया है. इन गांवों में बटेरपालन के अच्छे नतीजे मिले हैं, जिन्हें देख कर दूसरे गांवों में भी इसे शुरू कराया जा रहा ह . जापानी बटेरपालन शुरू कराने से पहले ग्रामीणों को प्रशिक्षण भी दिया जाता है. इस ट्रेनिंग में जापानी बटेरपालन के दौरान रखी जाने वाली सावधानियों, बीमारियों की रोकथाम और रखरखाव की जानकारी दी जाती है. 

जीतारम के जैविक बैगन

राजस्थान सूबे के जोधपुर जिले के पिचियाक गांव के 87 साला प्रगतिशील किसान जीताराम प्रजापत के पास 19 बीघे जमीन?है. वैसे तो वे सभी फसलों की बोआई करते?हैं, पर सब्जियों की खेती ज्यादा करते हैं. जीताराम बताते?हैं कि जैविक बैगन की खेती से ज्यादा कमाई होती?है, इसीलिए वे हर साल इस की खेती ही ज्यादा करते हैं. जीताराम को खेती की पुरानी जानकारी है. वे?ज्यादा पढ़ेलिखे नहीं?हैं, पर खेती में हमेशा नवाचार करते रहे हैं. वे पिछले 60 सालों से खेती के काम में लगे हुए हैं. जीताराम बताते हैं कि वे बैगन की बोआई जुलाई महीने में करते?हैं. वे 20 ग्राम बीज प्रति बीघे की दर से बोते?हैं. वे जोधपुर से उन्नत किस्म के बीज खरीद कर लाते हैं. उन्हें 10 ग्राम बीज 120 रुपए में मिलते?हैं.

वे सब से पहले नर्सरी लगाते हैं. वे खेत का चुनाव इस प्रकार करते हैं कि नर्सरी की जमीन कुछ उठी हुई हो, जहां पानी जमा नहीं होता हो. वे इस बात का भी खयाल रखते हैं कि चुने गए खेत में मिर्ची, टमाटर व बैगन की फसल जल्दी न ली गई हो. वे खेत की जुताई मईजून में करते हैं, ताकि सूर्य की गरमी से सूत्रकृमि व अन्य कीट और रोगों के बीजाणु खत्म हो जाएं. करीब 4 से 5 हफ्ते की नर्सरी होते ही वे पौधों की खेत में रोपाई कर देते हैं. इस से पहले वे खेत में गोबर की देशी खाद डालते हैं. वे ज्यादातर मींगनी की खाद 1 ट्रक प्रति बीघे के हिसाब से डालते हैं, जिस से बैगन की बढ़वार अच्छी होती है और उस में फलफूल खूब लगते है. मींगनी की 1 ट्रक खाद करीब 18 से 20 हजार रुपए में आती है. बैगन की रोपाई के 1 महीने बाद फलों की तोड़ाई शुरू हो जाती है. इस दौरान जीताराम देखते रहते हैं कि कोई पौधा रोगी तो नहीं है. वे रोगी पौधों को उखाड़ कर नष्ट कर देते हैं.जीताराम अपने खेत में कभी भी रासायनिक खाद (डीएपी व यूरिया) का इस्तेमाल नहीं करते है . उन का मानना है कि डीएपी व यूरिया के इस्तेमाल से जमीन बंधने लगती है और फिर कड़ी हो जाती है, जिस से फसल कमजोर होती है. इसीलिए वे हमेशा अपने खेतों में जैविक देशी खाद ही डालते हैं. जीताराम के खेत में कभी कीट यानी लट का प्रकाप होता है, तो वे जैविक नीम की दवा का छिड़काव करते हैं. वे कीटग्रस्त बैगनों को तोड़ कर गड्ढे में गाड़ देते हैं.

जीताराम बाजार से नीम की दवा एजेडिरेक्टीन खरीद कर लाते हैं और जरूरत के मुताबिक फसल पर छिड़काव करते हैं. जीताराम कहते हैं कि लट का प्रकोप अगस्तसितंबर में होता है. केवल उस समय ही दवा छिड़कने की जरूरत होती है. बाकी पूरे साल फसल स्वस्थ व भरपूर होती है. बैगन की तोड़ाई 1 दिन छोड़ कर करनी पड़ती है. जीताराम बताते हैं कि पहले वे साइकिल पर पास के गांवों बिलाड़ा, लांबा व बाला में जा कर बैगन बेच आते थे. आजकल काफी बैगन बाड़ी में ही बिक जाते हैं. जरूरत के मुताबिक वे जोधपुर मंडी जा कर भी अपने बैगन बेच देते हैं. बैगन के भावों में उतारचढ़ाव बहुत होता है. कभी 30 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बैगन बिकते हैं, तो कभीकभी 3 से 4 रुपए प्रति किलोग्राम तक बेचने पड़ते हैं. फिर भी बैगन से औसतन 1 लाख रुपए प्रति बीघे की कमाई होती है, जो दूसरी फसलों से नहीं होती. अब जीताराम ने जैविक खेती का ज्ञान अपने पोते जैराम को दिया है. जैराम ने एमए की पढ़ाई की है, पर वे भी जैविक बैगन की खेती में लगे हैं. वे पड़ोसी किसानों को सिखा भी रहे हैं और जैविक बैगन की खेती से खूब कमाई भी कर रहे हैं. ज्यादा जानकारी के लिए किसान लेखक के फोन नंबर 09414921262 या जीताराम प्रजापत के फोन नंबर 09928356960 पर संपर्क कर सकते हैं.

गन्ने की अंत:फसली खेती बढ़ाए आमदनी

गन्ना देश की एक खास नकदी फसल है. एक अनुमान के मुताबिक इस की खेती हर साल लगभग 30 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में की जाती है. देश के विभिन्न भागों में इस की 4 बार बोआई की जाती है. यह एक लंबी अवधि की फसल है, जिसे तैयार होने में कम से कम 1 साल का समय लग जाता है. इस लिहाज से केवल गन्ने के सहारे रहने वाले किसानों को एक ओर जहां अनेक रोजमर्रा की जरूरत वाली फसलों से वंचित होना पड़ता है, तो वहीं दूसरी ओर कई बार आपदा या कोई अन्य कारण होने से भारी नुकसान उठाना पड़ जाता है. किसी खेत में कई बार एक ही फसल लगातार उगाने से खेत की मिट्टी की उर्वरता व उत्पादकता की कूवत कम होने लगती है.

ऐसे में गन्ने के साथ अंत:फसल लेना एक समझदारी भरा फैसला साबित होगा, क्योंकि इस से जहां एक ओर प्राकृतिक आपदाओं की मार से दूसरी फसल से कुछ न कुछ जरूर हासिल किया जा सकता है, तो वहीं दूसरी ओर एकसाथ एक ही खेत में अलगअलग फसलें को उगाने से एक फसल के हानिकारक असर, दूसरी फसलों द्वारा खत्म हो जाते हैं. इस प्रकार मिट्टी की उर्वरता व उत्पादकता ठीक रहती है. क्या है अंत:फसल : इस बारे में राजा दिनेश सिंह कृषि विज्ञान केंद्र प्रतापगढ़ के विषय वस्तु विशेषज्ञ (प्रसार) डा. जेबी सिंह कहते हैं, ‘जब 2 या 2 से अधिक फसलों को समान अनुपात में उगाया जाता है, तो इसे अंत:फसल कहते हैं या अलगअलग फसलों को एक ही खेत में, एक ही साथ कतारों में उगाना ही अंत:फसल कहलाता है. ‘गन्ने की बोआई के बाद उस की बढ़वार पहले 4-5 महीने तक काफी धीरेधीरे होती है. ऐसे में लाइनों के बीच खाली जगहों पर अंत:फसल उगाने के लिए पूरा मौका होता है. शरदकालीन गन्ने के साथ मटर, मसूर, आलू, गोभी, शलजम, मूली, प्याज, धनिया, गेहूं, राई व सरसों वगैरह की बोआई की जा सकती है.’

मिट्टी व खेत की तैयारी : लवणीय, क्षारीय एवं अम्लीय मिट्टियां गन्ने के लिए पूरी तरह से बेकार होती हैं. जल निकासी वाली दोमट मिट्टी इस के लिए सब से अच्छी होती है. गन्ने की खेती में हलकी जुताई से काम नहीं चलता, क्योंकि इस से जड़ों का विकास बेहतर तरीके से नहीं हो पाता है. लिहाजा उत्तर भारत में कम से कम 1 बार गहरी जुताई के बाद 2 बार हैरो से क्रास जुताई करें या 5-6 बार देसी हल से जुताई करें. इस के बाद खेत को समतल व चिकना बनाए रखने के लिए पाटा चलाया जाना चाहिए.

प्रजातियां : गन्ने में करीब 2 महीने तक अंकुरण अवस्था (जर्मिनेटिव फेज) होती है. उस के बाद फार्मेटिव फेज या वानस्पतिक वृद्धि शुरू हो जाती है. ऐसे में गन्ने के साथ उन्हीं फसलों व प्रजातियों का चुनाव करना चाहिए, जो गन्ने के साथ कम से कम प्रतियोगिता करें और उन्हें फैलाव के लिए कम से कम जगह की जरूरत पड़े.  इस के अलावा फसल के पकने का समय 100 से 110 दिनों से अधिक न हो और उन्हें ज्यादा खाद व उर्वरक की जरूरत न पड़े.

बीज की मात्रा : अंत:फसली खेती में गन्ने के बीज की मात्रा सामान्य खेती के बराबर होती है, यानी 50-60 क्विंटल प्रति हेक्टेयर होगी. वहीं अंत:फसल की बीज की मात्रा उस की लाइनों के मुताबिक होगी. मसलन गन्ने और आलू (2 लाइन गन्ने के बीच में 1 लाइन आलू की) की बोआई करने पर आलू की लाइनों की संख्या 50 फीसदी है. लिहाजा आलू के बीज की मात्रा गन्ने के बीज की मात्रा का 50 फीसदी होगी.

बोआई का तरीका : अंत:फसली खेती में फसलों की बोआई सामान्य खेती की तरह ही होती है. लेकिन मुख्य फसल की 2 लाइनों के बीच में दूसरी फसलों की कुछ लाइनों की बोआई करते हैं.

खाद एवं उर्वरक : बोआई से पहले 15-20 टन खूब सड़ी हुई गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर खेत में मिलाना चाहिए. गन्ने के साथ अंत:फसली खेती के लिए उर्वरक की मात्रा मुख्य फसल की सामान्य खेती के बराबर देते हैं. वहीं अंत:फसल में उर्वरकों की मात्रा उन की लाइनों के अनुपात के मुताबिक इस्तेमाल करते हैं, जैसे गन्ने व आलू में गन्ने की लाइनों की संख्या सामान्य खेती के बराबर होती है, मगर आलू की लाइनें 50 फीसदी होती हैं. लिहाजा उर्वरक की मात्रा 50 फीसदी ही रखते हैं. ध्यान रखने वाली बात यह है कि अंत:फसलों को सिर्फ नाइट्रोजन उर्वरक ही देते हैं. बाकी पोषक तत्त्वों को सामान्य खेती के मुताबिक ही इस्तेमाल करते हैं.

सिंचाई : सिंचाई मुख्य फसल गन्ने को ध्यान में रख कर करते हैं, मगर अंत:फसलों को फिर भी पानी की जरूरत पड़े तो अलग से लाइनों में पानी देते हैं.

खरपतवार नियंत्रण : यह जरूरी नहीं है कि गन्ने के साथ ली गई अंत:फसलें एक ही प्रकार की जड़ों व पत्तियों वाली हों. लिहाजा बेहतर यही है कि रासायनिक दवाओं से बचते हुए निराईगुड़ाई से ही खरपतवार नियंत्रण किया जाए. यदि दवाओं के बिना काम न चले तो कृषि वैज्ञानिकों से पूछ कर के ऐसी दवाएं इस्तेमाल करें, जो अंत:फसल या मुख्य फसल गन्ना को नुकसान न पहुंचाए.

कीट व रोग प्रबंधन : आमतौर पर गन्ने व अंत:फसल के कीट व रोग एकदूसरे से अलग होते हैं. ऐसी हालत में विशेषज्ञ की सलाह से ऐसे रसायनों का इस्तेमाल करें, जोकि किसी भी फलत को नुकसान न पहुंचाएं. बेहतर तो यही होगा कि बोआई के समय दोनों फसलों का भूमिशोधन व बीजशोधन जरूर करें.

कटाई : गन्ने की फसल विभिन्न प्रजातियों के मुताबिक अलगअलग समय पर काटी जाती है, मगर ली गई अंत:फसलें उन के तय समय के मुताबिक ही काटनी चाहिए. इस प्रकार ऊपर दी गई जानकारियों के मुताबिक बढ़ती हुई महंगाई व जनसंख्या और घटती हुई खेती लायक जमीन व घटती उत्पादकता से निबटने के लिए गन्ने के साथ अंत:फसलें उगा कर हालात का मुकाबला किया जा सकता है.      

अंत:फसल में लाइनों का हिसाब

फसल  लाइनों की संख्या

गन्ना आलू     2 लाइन गन्ने के बीच 1 लाइन आलू की 

गन्ना गेहूं      2 लाइन गन्ने के बीच 2 लाइन गेहूं की

गन्ना मक्का    2 लाइन गन्ने के बीच 1 लाइन मक्का की

गन्ना राई      2 लाइन गन्ने के बीच 2 लाइन राई की

गन्ना प्याज    2 लाइन गन्ने के बीच 2 लाइन प्याज की

गन्ना धनिया   2 लाइन गन्ने के बीच 2 लाइन धनिया की

गन्ना पालक    2 लाइन गन्ने के बीच 2 लाइन पालक की

फसल  प्रजातियां

गन्ना   कोसा 8432, कोसा 92422, कोसा 92423, कोसा 95429,

गेहूं    सिंचित व समय से बोआई के लिए : एचयूडब्ल्यू 510. असिंचित दशा में : के 8027 (इसे मगहर भी कहते हैं. यह कंडुआ व झुलसा अवरोधी है), एचडीआर 77, के 9351 (मंदाकिनी). देरी से बोआई की दशा में : के 9423 (उन्नत हलना), के 7903 (हलना)

मक्का  नवीन, श्वेता, शक्ति, कंचन, लक्ष्मी, प्रोटीना

आलू   कुफरी चंद्रमुखी, कुफरी चमत्कार, कुफरी अलंकार, कुफरी शीतमान, कुफरी किसान, कुफरी अशोका

प्याज   नसिक 53, हिसार, पूसा रतनार, पूसा लाल

धनिया  साधना, सिंधु, स्वाती

राई    वरुणा, वरदान, रोहिणी, वैभव, शिखर

तोरिया  पीटी 303, पीटी 30, टाइप 9, भवानी

मूली   पूसा हिमानी, पंजाब सफेद, कल्याणपुर नं.1, पूसा चेतकी, पूसा रेशमी

आधुनिक कृषि में हरी खाद की बढ़ती जरूरत

हरी खाद की खेती में बहुत ज्यादा अहमियत है. इस से उत्पादकता तो बढ़ती ही है, साथ ही यह जमीन के नुकसान को भी रोकती है. यह खेत को नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटैशियम, जस्ता, तांबा, मैगनीज, लोहा और मोलिब्डेनम वगैरह तत्त्व भी मुहैया कराती है. यह खेत में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा बढ़ा कर उस की भौतिक दशा में सुधार करती है. हरी खाद को अच्छी उत्पादक फसलों की तरह हर प्रकार की भूमि में जीवांश की मात्रा बढ़ाने में इस्तेमाल कर सकते हैं, जिस से भूमि की सेहत ठीक बनी रह सकेगी. हरी खाद मिट्टी की उर्वरता बनाए रखने के लिए उम्दा और सस्ती जीवांश खाद है. हरी खाद का अर्थ उन पत्तीदार फसलों से है, जिन की बढ़वार जल्दी व ज्यादा होती है. ऐसी फसलों को फलफल आने से पहले जोत कर मिट्टी में दबा दिया जाता है. यह सूक्ष्म जीवों द्वारा विच्छेदित हो कर पौधों के पोषक तत्त्वों में वृद्धि करती है. ऐसी फसलों का इस्तेमाल में आना ही हरी खाद देना कहलाता है.

हरी खाद देने की विधियां

पहली विधि : इस विधि में हरी खाद जिस खेत में देनी होती है, उसी खेत में हरी खाद की फसल पैदा की जाती है और उसी में सड़ाई जाती है. इस तरह की फसलें अकेली या किसी दूसरी मुख्य फसल के साथ मिश्रित रूप में बोई जाती हैं. जिन क्षेत्रों में बारिश अधिक होती है, वहां इस विधि को अपनाया जाता है.

दूसरी विधि : इस विधि में किसी अन्य खेत में उगाई गई हरी खाद की फसल को काट कर उस खेत में फैलाते हैं, जिस में हरी खाद देनी होती है. फैलाने के बाद हरी खाद वाली फसल को मिट्टी में दबा दिया जाता है. ऐसा खास हालात में किया जाता है. जब सघन कृषि प्रणाली के कारण हरी खाद वाली फसलों को उगा कर उन्हें पलटने का समय कम होता है तब और न्यूनतम वर्षा वाले क्षेत्रों में हरी खाद इसी विधि से दी जाती है.

हरी खाद के लिए मुनासिब फसलें : सनई, ढैंचा, लोबिया, मूंग व ग्वार वगैरह हरी खाद के लिहाज से उम्दा फसलें होती हैं. इन फसलों को उगाने व उन की अच्छी बढ़वार के लिए 30-40 डिगरी सेंटीगे्रड तापमान की जरूरत होती है. फसलों के लिए समय अंतराल करीब 45-60  दिनों का होता है. यहां कुछ फसल प्रणालियां बताई जा रही हैं, जिन में हरी खाद के लिए उगाई जाने वाली फसलें भी बताई जा रही हैं :

* धानगेहूं : ढैंचा, मूंग, सनई.

* आलूगेहूं : ढैंचा, लोबिया, सनई.

* सरसों : ढैंचा.

* गन्ना : मूंग, लोबिया गेहूं.

हरी खाद वाली फसलें कैसे उगाएं : हरी खाद की सफलता 2 बातों पर निर्भर करती है. पहली बात यह है  कि हरी खाद की मात्रा पर्याप्त व गुणवत्ता अच्छी होनी चाहिए. दूसरी बात के रूप में यह ध्यान रखना चाहिए कि हरी खाद को खेत में अपघटन के लिए मिलाने के बाद नाइट्रोजन का नुकसान कम से कम हो.

सनई की हरी खाद : सनई हरी खाद के लिए बेहद लोकप्रिय फसल है. यह उत्तर भारत में ज्यादा प्रचलित हरी खाद है. मगर ज्यादा बारिश वाले स्थानों में इस का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है.  इस की बिजाई अप्रैलमई के महीनों में की जाती है. यह जल्दी बढ़ने वाली फसल है. यह खरपतवारों की बढ़वार एकदम रोक देती है.

सनई की फसल 45-60 दिनों में मिट्टी में पलटने के लिए तैयार हो जाती है. इस से 20-30 टन हरी खाद प्रति हेक्टेयर प्राप्त की जा सकती है, साथ ही साथ 4-5 टन प्रति हेक्टेयर सूखा जीवांश भी प्राप्त किया जा सकता है.

सनई की फसल 45-60 दिनों में करीब 85-100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर नाइट्रोजन भी जमा करती है. उत्तर भारत में यह गेहूं और दक्षिण भारत में धान के लिए मुनासिब मानी जाती है. इस के अलावा आलू, बागबानी की फसलों और गन्ने की फसल के लिए भी यह उम्दा खाद मानी जाती है.

सनई की फसल में वायरस व विल्ट रोगों की समस्या को देखते हुए, राष्ट्रीय कृषि तकनीकी परियोजना के तहत कोटा एनडी 1 प्रजाति विकसित की गई है, जो वायरस व विल्ट रोगों की प्रतिरोधक है.

ढैंचा की हरी खाद : हरी खाद की फसलों में सनई के बाद ढैंचा भी बेहद खास है. यह भारी व जलमग्न मिट्टी की दशाओं के लिए मुनासिब है. लवणीय व क्षारीय जमीन को सुधारने में भी इस की खास अहमियत है. इस फसल की 2 प्रजातियां सैसबेनिया एक्यूलेटा व सैसबेनिया रोस्ट्रेटा होती हैं. इस की बिजाई अप्रैलमई के दौरान की जाती है.

इस के लिए आमतौर पर 60-80 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टेयर के हिसाब से इस्तेमाल किए जाते हैं. ढैंचा की बढ़वार 40 से 60 दिनों में 3-5 फुट तक होने के कारण 20-25 टन प्रति हेक्टेयर हरी खाद प्राप्त होती है. धानगेहूं फसल चक्र के इस्तेमाल से फसलों की उत्पादकता में 35 फीसदी तक की बढ़ोतरी पाई गई है. धान की फसल में हरी खाद देने के लिए इस का इस्तेमाल पूरे भारत में किया जाता है.

मूंग व लोबिया की हरी खाद : मूंग व लोबिया की फसलों को जायद में वैज्ञानिक तरीके से सही मात्रा में खाद व उर्वरक दे कर और कीट प्रबंधन कर के बोया जाता है. इन फसलों से 10-12 क्विंटल दाने और 20-25 क्विंटल फसल अवशेष की पैदावार प्रति हेक्टेयर ली जा सकती है. फसल अवशेष को खेत में मिला कर उन से हरी खाद भी बनाई जा सकती है. छोटे व मंझोले किसान जो हरी खाद के लिए अलग से जमीन उपलब्ध नहीं करा सकते वे गन्ने की बसंतकालीन फसल के साथ हरी खाद की खेती कर सकते हैं. बसंकालीन गन्ने में मूंग व लोबिया की फसलों को गन्ने की 2 लाइनों के बीच उगा कर उन्हें 45-60 दिनों की अवस्था पर जुताई के द्वारा खेत में पलट कर व तुरंत सिंचाई कर के हरी खाद का लाभ उठा सकते हैं.

ग्वार की हरी खाद : ग्वार खरीफ में बोई जाने वाली दलहनी मूसला जड़ वाली फसल है. यह भारत में उत्तरी और पश्चिमी भागों की कम वर्षा वाले शुष्क क्षेत्रों की फसल है, जो पर्याप्त मात्रा में सूखे को सहन कर सकती है. सिंचित क्षेत्रों में इस की बिजाई जून में करनी चाहिए ताकि सही समय पर इसे मिट्टी में दबाया जा सके. इस की बीज दर 20-25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर होती है.

हरी खाद की फसल पलटाई का समय : फसल की एक खास अवस्था पर पलटाई करने से मिट्टी को सब से अधिक नाइट्रोजन व जीवांश प्राप्त होते हैं. हरी खाद को जमीन में अपघटन के लिए मिलाने के बाद नाइट्रोजन का नुकसान कम मात्रा में हो, इस के लिए बेहतर होगा कि इन फसलों के 40-50 दिनों का होने पर इन को जमीन में अपघटन के लिए मिला दिया जाए. इस अवस्था में फसल में पुष्पन शुरू हो जाता है और रस युक्त कार्बनिक पदार्थों की मात्रा सब से अधिक होती है व अनुपात भी बहुत कम रहता है. ऐसी अवस्था में हरी खाद की फसल को मिट्टी में दबाने से विघटन तेजी से होता है, जिस से नाइट्रोजन और पौधे के अन्य पोषक तत्त्व ऐसी हालत में आ जाते हैं कि आने वाली फसलें उन से अधिक लाभ उठा सकती हैं. हरी खाद वाली फसलों को जमीन में मिलाने के बाद यह ध्यान रखना चाहिए कि जमीन में पर्याप्त नमी हो, क्योंकि फसलों के अपघटन के लिए पर्याप्त नमी व तापमान की जरूरत होती है.

हरी खाद में यंत्रीकरण : सब से पहले हरी खाद की खड़ी फसल को पाटा या ‘हरी खाद टै्रंपलर’ चला कर खेत में गिरा दें. फिर मिट्टी पलटने वाले हल (मोल्टा वोल्ट प्लाऊ) या वेडस्व प्लाऊ का इस्तेमाल किया जा सकता है. ये यंत्र मिट्टी को पूरी तरह पलट देते हैं, जिस से हरी खाद वाली फसलें मिट्टी में दब जाती हैं.

इन कृषि यंत्रों के बजाय रोटावेटर का इस्तेमाल ज्यादा अच्छी तरह से किया जा सकता है. यह यंत्र हरी खाद वाली फसलों को जमीन में मिलाने से पहले उन के छोटेछोटे टुकड़े कर देता है. हरी खाद वाली फसलों को जमीन में मिलाने के बाद खेत में 3-4 सेंटीमीटर पानी भर के कम से कम 3-4 दिनों तक के लिए छोड़ देना चाहिए, जिस से हरी खाद वाली फसलों के सभी हिस्से अच्छी तरह सड़ जाते हैं और खेत में सूक्ष्म जीवांश की मौजूदगी बढ़ जाती है.

रोटावेटर केवल 1 या 2 बार ही खेत में चलाने की जरूरत होती है, जिस से समय, ऊर्जा व धन की बचत होती है और पोषक तत्त्वों का नुकसान भी कम होता?है. सघन खेती में हरी खाद वाली फसलों के लिए रोटावेटर का इस्तेमाल ज्यादा फायदेमंद होता है.  

हरी खाद के लाभ

* इस से मिट्टी की संरचना अच्छी हो जाती है. और उस की पानी रखने की कूवत बढ़ जाती है.

* मिट्टी में नाइट्रोजन की बढ़ोतरी होती है.

* मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ की मात्रा में इजाफा होता है.

* मिट्टी का नुकसान कम हो जाता है, नतीजतन जमीन का ऊपरी भाग महफूज रहता है.

* खरपतवार की रोकथाम होती है.

* क्षारीय व लवणीय मिट्टी में सुधार होता है, क्योंकि हरी खाद के विघटन से कई अम्ल पैदा हो कर मिट्टी को उदासीन करते हैं.

* खेत को हरी खाद से पोषक तत्त्व देना दूसरी विधियों के मुकाबले सरल व सस्ता है.

हरी खाद में सावधानियां

* हरी खाद 45-60 दिनों में खेत जरूर मिला दें.

* खेत में हरी खाद वाली फसलों को पलटते समय भरपूर नमी बनाए रखें.

* हरी खाद की फसलों को हलकी बलुई मिट्टी में अधिक गहराई पर और भारी मिट्टी में कम गहराई पर दबाना चाहिए.

* हरी खाद वाली फसलों को सूखे मौसम में ज्यादा गहराई पर पर नम मौसम में कम गहराई पर दबाना चाहिए.

* हरी खाद वाली फसलों को खेत में मिलाने के लिए फूल आने से पहले की अवस्था सब से अच्छी होती है.

* स्थानीय जलवायु व हालात के मुताबिक हरी खाद की फसलों की बिजाई करनी चाहिए.                

रफी की याद में

बीते दिनों मोहम्मद रफी की 35वीं बरसी के मौके पर दिल्ली में उन को ट्रिब्यूट करता हुआ कार्यक्रम ‘म्यूजिकल ट्रिब्यूट टू मोहम्मद रफी साहब’ आयोजित किया गया. कार्यक्रम में राजीव खंडेलवाल, इस्माइल दरबार, वैष्णवी समेत कई बौलीवुड कलाकारों ने शिरकत की. मोहम्मद रफी फाउंडेशन द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम में संगीतकार आनंदजी ने वैष्णवी, झनक और गुल सक्सेना जैसे नए उभरते गायकों को म्यूजिक के गुर सिखाए. मोहम्मद रफी फाउंडेशन के सुरेश कुमार रहेजा रफी की याद में ऐसा आयोजन हर साल करवाते हैं जिस में स्थापित गायकों के बजाय नए उभरते गायकों को मौका मिलना अच्छी बात

मूडीज के आकलन के बाद बाजार में अस्थिरता

थोक मूल्य सूचकांक के लगातार 9वें माह गिरावट पर रहने, मुद्रास्फीति तथा रुपए के 2 साल के निचले स्तर पर पहुंचने, तेल की दरों में गिरावट के रुख के यथावत बने रहने और रिजर्व बैंक के ब्याज दरों में कटौती नहीं करने के फैसले जैसे कई घटनाक्रमों के बीच बौंबे स्टौक एक्सचेंज में निवेशकों की मिलीजुली प्रतिक्रिया देखने को मिली. स्वतंत्रता दिवस समारोह से एक दिन पहले परिस्थितियों के अनुकूल रहने तथा ब्याज दरों में कटौती की उम्मीद से सूचकांक 517 अंक छलांग लगा गया. इसी बीच, देश की विकास दर 2015 में 7 फीसदी रहने की वैश्विक संस्था मूडीज के आकलन के कारण बाजार का रुख बदला. बाजार पर उस का नकारात्मक असर पड़ा और सूचकांक अगले 2 दिन तक गिरावट पर रहा लेकिन अगले ही सत्र में कुछ अनुकूल माहौल के कारण बाजार में सुधार का रुख देखने को मिला.

उसी बीच, चीन की अर्थव्यवस्था में गिरावट संबंधी खबरों का बाजार पर जबरदस्त नकारात्मक असर पड़ा और सूचकांक एक दिन में 3 सप्ताह में सर्वाधिक गिरावट पर बंद हुआ. अमेरिका में ब्याज दरों में बढ़ोतरी करने की आशंका से बाजार में नकारात्मक रुख देखने को मिला. अमेरिकी फैडरल द्वारा ब्याज दरें बढ़ाने की खबर से बाजार में बिकवाली का माहौल रहा और सूचकांक में बड़ी गिरावट दर्ज की गई. इधर, बाजार का माहौल सुधारने के लिए रिजर्व बैंक पर ब्याज दरों में कटौती करने के लिए दबाव बनाने के लिए लौबिंग किए जाने की भी खबर है जिसे देखते हुए जल्द ही बाजार में स्थिरता का माहौल बन सकेगा. हालांकि ब्याज दरों में भारी बढ़ोतरी तथा रुपए में जबरदस्त गिरावट के कारण बाजार में उथलपुथल की स्थिति कुछ समय तक बरकरार रह सकती है.

कब तक पप्पू बने रहेंगे अभिषेक

बौलीवुड अभिनेता अभिषेक बच्चन की पहचान आज भी अमिताभ बच्चन का सुपुत्र होना ही है. यों तो वे बौलीवुड में एक दशक से ज्यादा समय से फिल्में कर रहे हैं लेकिन यादगार सिनेमा के नाम पर उन के पास दर्जनभर फिल्में भी नहीं हैं. फिल्म समीक्षकों ने इक्कादुक्का फिल्मों को छोड़ कर हमेशा उन के अभिनय की मौलिकता पर सवाल उठाए हैं. उन के कैरियर पर गौर फरमाएं तो हिट फिल्मों की फेहरिस्त बेहद छोटी है और ज्यादातर हिट फिल्मों में अभिषेक सोलो अभिनेता नहीं थे. मसलन, धूम सीरीज, दस, बोल बच्चन जैसी फिल्में सिर्फ अभिषेक की बदौलत हिट नहीं कही जा सकतीं. अपनी पहली फिल्म रिफ्यूजी से ही आलोचना के शिकार अभिषेक को ऐश्वर्या राय बच्चन व अमिताभ बच्चन की लोकप्रिय छवियों के नीचे ही देखा जाता है. सोशल मीडिया में तो उन्हें भी राहुल गांधी की तर्ज पर ‘पप्पू’ टैग से चुटकुलों का हिस्सा बनाया जाता है. कहीं उन पर सिनेमा का राहुल गांधी होने का मजाक किया जाता है तो कहीं पिता भरोसे चलते कैरियर का ताना भी मिलता है. यों तो उन्हें शांत स्वभाव का कलाकार माना गया है लेकिन कई मौकों पर वे भी सलमान खान की तरह मीडिया को तेवर दिखा चुके हैं. हालिया फिल्म औल इज वैल के प्रमोशन के दौरान एक फैन को, उन की फोटो खींचते समय, धमकाना हो या फिर बेटी को ले कर मीडिया से उन का नाराज होना रहा हो.

सुस्त गति में चलते उन के कैरियर ने उन्हें औसत दायरे के अभिनेता तक सीमित कर रखा है. शायद अभिषेक भी अपनी क्षमताओं और कैरियर के भविष्य से वाकिफ हैं, इसलिए व्यावहारिकता दिखाते हुए अपने पिता के साथ न सिर्फ फिल्में प्रोड्यूस कर रहे हैं बल्कि एक तरफ वे प्रो कबड्डी लीग की फ्रैंचाइजी ले कर पिंक पैंथर नामक कबड्डी टीम के मालिक बन चुके हैं तो दूसरी तरफ पिछले साल से फुटबाल खेल के प्रोत्साहन के लिए शुरू हुई इंडियन सुपर लीग की फ्रैंचाइजी ले कर वे चेन्नई टीम के सह मालिक हैं. बौलीवुड में अपने 15 साल के कैरियर में अभिषेक बच्चन ने कई पड़ाव पार किए हैं. अभिनय के क्षेत्र में सफलता व असफलता के हिचकोले झेलते हुए वे निरंतर अग्रसर हैं लेकिन उन की नई फिल्म आल इज वैल बुरी तरह से फ्लौप हो गई है. उन का मानना है कि वे जिस मुद्दे पर लंबे समय से आज के यूथ से बात करना चाह रहे थे उसी मुद्दे पर उन्हें फिल्म आल इज वैल ने बात करने का सुनहरा अवसर दे दिया. उन का कहना है, ‘‘यह फिल्म आज के समाज में पितापुत्र के बीच बढ़े कम्युनिकेशन गैप पर बात करती है. कुछ लोग इसे पीढि़यों का टकराव कहते हैं. पर कड़वा सच यह है कि पितापुत्र चाहे जितने समय तक एकदूसरे से झगड़ कर अलग रहें, कभी न कभी तो वे एकदूसरे की मदद के लिए आते ही हैं.’’

वे कहते हैं कि फिल्म के लेखक व निर्देशक उमेश शुक्ला जब उन्हें इस फिल्म की स्क्रिप्ट सुना रहे थे, तब उन्होंने एहसास किया कि आजकल रोजमर्रा की जिंदगी में लोग इस कदर व्यस्त हो गए हैं कि वे अपने मातापिता के बारे में सोचते ही नहीं हैं. हमारे जो जीवन मूल्य हैं, वे खत्म हो गए हैं. अभिषेक के शब्दों में, ‘‘स्क्रिप्ट सुनाते हुए उमेश शुक्ला ने मुझ से जब पूछा कि ऐसा कबकब हुआ है कि आप देर रात अपने काम से घर लौटे हैं और अपने मातापिता के कमरे में जा कर पता करने की कोशिश की हो कि वे ठीक हैं? तो मुझे लगा कि ऐसा तो मैं कभी नहीं करता. जब हम सुबह घर से निकलने लगते हैं तो मां कहती हैं कि बेटा, खाना ठीक से समय पर खा लेना? पर क्या हम कभी फोन कर के मां से पूछते हैं कि उन्होंने खाना खाया या नहीं. रात को मैं किसी मित्र के घर पर डिनर पर जा रहा हूं तो पिता कहते हैं कि बेटे, बहुत ज्यादा देर मत करना. यह उन का अपना प्यार होता है. हमारे प्रति उन की चिंता होती है. पर जब हम डिनर कर रहे होते हैं, उस वक्त हम फोन कर के अपने पिता से नहीं पूछते कि उन्होंने खाना खाया या नहीं. हम फोन कर के यह तक भी नहीं बताते कि पिताजी, हमें थोड़ी देर हो रही है, आप सो जाएं. आल इज वैल में यही सारे मुद्दे उठाए गए हैं. ये वही मुद्दे हैं जिन को ले कर मैं लंबे समय से यूथ से बात करना चाहता था.’’

मौजूदा समय में पिता व पुत्र के बीच जो मतभेद हो रहे हैं, उस की वजह को ले कर उन की राय यों है, ‘‘मुझे लगता है कि सभी लोग अपने काम में उलझ कर रह गए हैं. विकास अच्छी चीज है, हर इंसान, हर समाज और हर देश को विकास करना चाहिए. पर मौडर्निटी या विकास की आड़ में हमें अपनी सभ्यता, संस्कृति को नहीं भूलना चाहिए. इसे खोना नहीं चाहिए. जो हमारी अपनी पहचान है, उसे हम खो दें, यह उचित नहीं.’’ कई मामलों में इन हालात के लिए मातापिता की परवरिश व संस्कारों को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है, इस बाबत अभिषेक बताते हैं, ‘‘यह तो बहुत निजी मसला है. मैं दूसरों के बारे में कुछ नहीं कह सकता. मेरी परवरिश में तो ऐसा कुछ नहीं रहा. पर बदली हुई परिस्थितियों में आम युवा सिर्फ यह सोचता है कि वह क्या करना चाहता है और कैसे करना चाहता है. वह यह भूल गया कि उस के पिता ने उस के साथ क्याक्या नहीं किया और आज भी क्याक्या कर रहे हैं. यानी कि हर इंसान अपने मातापिता के त्याग को नजरअंदाज कर स्वार्थी बना हुआ है.’’

आज के युवा को स्वार्थी कहने के बजाय कैरियर पर कुछ ज्यादा फोकस करने वाला कहा जाए तो शायद बेहतर है. आखिर उस की भी तो जिंदगी है. वह ताउम्र मातापिता की छाया में तो नहीं रह सकता. इस बात से सहमति जताते हुए वे कहते हैं, ‘‘मैं आप की बात से सहमत हूं कि आज का यूथ स्वार्थी होने के साथसाथ अपने कैरियर के बारे में जरूरत से ज्यादा सोचता है. अभिषेक ने आल इज वैल में पहली बार ऋषिकपूर के साथ अभिनय किया है. कलाकार के तौर पर ऋषि को ले कर उन का मानना है, ‘‘मैं चिंटू अंकल को बचपन से जानता हूं. वे हमारे पारिवारिक सदस्य हैं. मेरी बहन की शादी चिंटू अंकल की बहन के बेटे के साथ हुई है. उन के साथ काम करते हुए मैं ने महसूस किया कि चिंटू अंकल के अंदर काम को ले कर जो जोश है, वह कमाल का है.’’

प्रो कबड्डी लीग में पिंक पैंथर टीम के मालिक हैं तो वहीं आप एक फुटबाल टीम के सहमालिक हैं. जब आईपीएल की शुरुआत हुई थी तो लोगों ने बड़ी उम्मीदें बांधी थीं. तमाम क्रिकेटरों ने बड़े पैसे कमाए. पर अब उसी आईपीएल में कई तरह की बुराइयां नजर आने लगी हैं. भविष्य में प्रो कबड्डी लीग को ले कर ऐसा नहीं होगा, इस की क्या गारंटी है? इस पर अभिषेक अपना पक्ष रखते हुए कहते हैं कि जहां भी कमर्शियलाइजेशन होगा, वहां बुराइयों का आना स्वाभाविक है. पर मुझे नहीं लगता कि प्रो कबड्डी लीग के साथ ऐसा कुछ होगा. मैं उम्मीद करता हूं कि कबड्डी का खेल स्वस्थ तरीके से बढ़ता रहे. पर यह हमारे हाथ में नहीं है. इस से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा के लिए इन दोनों खेलों के लिए खिलाड़ी तैयार हो सकेंगे? इस सवाल पर उन्होंने कहा,  ‘‘प्रो कबड्डी लीग की शुरुआत से पहले कबड्डी को ले कर लोगों में कितनी जागरूकता थी और अब कितनी जागरूकता है, यह आप भी जानते हैं. अब जब मैं विदेश यात्रा पर जाता हूं तो वहां पर खिलाड़ी इन दोनों खेलों को ले कर मुझ से चर्चा करते हैं. वैसे भारत में क्रिकेट और फुटबाल को ले कर लोग काफी क्रेजी हैं. पिछले साल कबड्डी पर 2 बेहतरीन फिल्में बनीं. हौकी को ले कर ‘चक दे इंडिया’ जैसी बेहतरीन फिल्म बन चुकी है. मैं कबड्डी को कहानी के केंद्र में रख कर बड़े कलाकारों के संग फिल्म बनाने की सोच रहा हूं.’’

फिल्म युवा में अभिषेक बच्चन ने कबड्डी खेली है. नसीरुद्दीन शाह फिल्म हूतूतू में तथा अभिताभ बच्चन फिल्म गंगा की सौगंध में कबड्डी खेल चुके हैं. बतौर निर्माता उन्होंने कुछ समय पहले पीकू रिलीज की है. कुछ फिल्मों की स्क्रिप्ट पर काम चल रहा है. वे मराठी में एक फिल्म विहीर बना चुके हैं. इन दिनों बौलीवुड में कौर्पोरेट कंपनियां हावी होती जा रही हैं. ऐसे में इंडिविजुअल के लिए कितनी जगह बचती है. इस पर अभिषेक कहते हैं, ‘‘मेरी समझ में फिल्मों का निर्माण इंडिविजुअल प्रोड्यूसर व्यक्तिगत तौर पर ही कर रहे हैं. कौर्पोरेट कंपनियां तो ज्यादातर डिस्ट्रीब्यूशन के काम में ही लगी हुई हैं. इंडिविजुअल प्रोड्यूसर फिल्म बनाने के बाद फिल्म को कौर्पोरेट कंपनियों को बेच देते हैं. हमारे देश में इंडिविजुअल प्रोड्यूसर ज्यादा हैं. आप ने पिछले दिनों अंतर्राष्ट्रीय संगीतकार राघव के साथ एक रैंप सौंग गाया है. इस पर वे अनुभव साझा करते हुए कहते हैं कि राघव उन का दोस्त है. राघव से 2004 में वे तब मिले थे जब वे फिल्म बंटी और बबली की शूटिंग कर रहे थे. शूटिंग खत्म होने के बाद वे और शाद अली होटल में खाना खाने गए थे, वहीं पर राघव से मुलाकात हुई थी. उस वक्त राघव ने उन से कहा था कि वे दोनों कभी एकसाथ काम करेंगे. फिर पिछले साल दीवाली पर राघव उन के घर आए और कहा कि वे बहुत जल्द एकसाथ काम करेंगे. कुछ माह के बाद उन का ईमेल आया कि क्या वे इस गाने पर रैंप करना चाहेंगे? इस पर उन्होंने हामी भरी. अभिषेक आगे बताते हैं कि राघव इस अलबम के माध्यम से चैरिटी के लिए पैसा इकट्ठा कर रहे हैं. इस अलबम की बिक्री से जो भी मुनाफा होगा, उस से वे वहां सोलर  लैंप भेजेंगे जहां बिजली नहीं है. उन का यह मकसद उन्हें अच्छा लगा था.

आज अभिषेक बतौर निर्माता, अभिनेता और व्यवसायी खुद को भले ही कामयाब मानने की गलतफहमी में हों लेकिन यह बात उन्हें समझनी होगी कि पिता की छाया से निकल कर सामाजिक सरोकार से जुड़ी कुछ सशक्त फिल्में कर के ही वे अपने पिता की तरह स्थापित हो सकते हैं, वरना तो अब तक सैकड़ों कलाकार आए हैं और आते रहेंगे

पोंगापंथ का बोझ ढोते कांवरिये

9 अगस्त को तकरीबन 5 बजे देवघर के बेलाबगान इलाके के मंदिर के पास कतार में लगे कांवरिये अफरातफरी मचाने लगते हैं. जल्दी जल चढ़ाने की होड़ में पुलिस के घेरे और अनुशासन को तोड़ डालते हैं और उस के बाद शुरू हुई धक्कामुक्की भगदड़ में बदल जाती है. देखते ही देखते ‘बोल बम’ का जयकारा चीखपुकार में बदल जाता है. हर ओर से रोने और चिल्लाने की आवाजें आने लगती हैं. शिव को जल चढ़ाने के लिए 100 किलोमीटर से ज्यादा की दूरी पैदल तय कर के देवघर पहुंचे अंधभक्ति में डूबे कांवरियों की जान तथाकथित ईश्वर शिव भी नहीं बचा सके. धर्म के नाम पर लगने वाले मजमों में भगदड़ मचना अब नई बात नहीं रह गई है. सरकार और प्रशासन के खासे बंदोबस्त के बावजूद भगदड़ मचती है और बेतहाशा मौतें होती हैं. ऐसी भगदड़ों के पीछे पोंगापंथियों का उपद्रव ही होता है. भीड़ में होने की वजह से वे किसी की सुनते नहीं और अपनी मनमानी करते हैं.

हर साल सावन के महीने में बिहार के भागलपुर जिले के सुल्तानगंज कसबे से कांवर ले कर लोग पैदल झारखंड में देवघर शहर के शिवमंदिर तक जाते हैं. सुल्तानगंज में गंगा नदी उत्तरवाहिनी है. सुल्तानगंज में अजगैबीनाथ मंदिर में पूजा करने के बाद गंगा का पानी ले कर लोग 110 किलोमीटर पैदल चल कर देवघर के शिवमंदिर तक पहुंचते हैं. सुल्तानगंज से ले कर देवघर तक अंधविश्वास का खुला खेल चलता है. भगवा रंग के कपड़े पहने और कंधे पर कांवर उठाए ज्यादातर शिवभक्त खुद को किसी बादशाह से कम नहीं समझते हैं. रास्ते में कानून की धज्जियां उड़ाना और मनमानी करना उन का शगल होता है. कांवरियों की भीड़ में चलने वाले अधिकतर लोग पूजा के नाम पर पिकनिक का मजा लूटते हैं.

8 अगस्त को सुल्तानगंज में कांवरियों की टोली में शामिल होने के बाद मुझे यह स्पष्ट हो गया कि ज्यादातर कांवरियों को पूजापाठ से कोईर् मतलब नहीं होता है. वे तो भीड़ में शामिल हो कर मजे लूटते हैं और डीजे के कानफाड़ू संगीत में लड़कियों व औरतों पर फब्तियां कसते हैं. धर्म और अंधविश्वास के सागर में सिर तक डूबे कांवरिये ‘बोल बम’ का नारा लगाते हुए शरारती कांवरियों की बदमाशियों को यह कह कर अनदेखा कर देते हैं कि लफंगों की करतूतों को भगवान देख रहा है, वही सबक सिखाएगा . कांवर यात्रा के दौरान तारपुर के पास मिले पटना सिविल कोर्ट के वकील प्रवीण कुमार बताते हैं कि कांवरियों की भीड़ में कई लुच्चेलफंगे शामिल रहते हैं, जिन का मकसद छींटाकशी और छेड़खानी करना ही होता है. ऐसे ही लोगों की वजह से उपद्रव और भगदड़ का माहौल पैदा हो जाता है. कांवरिये यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि वे भगवान के भक्त हैं और गंगा का पवित्र जल ले कर शिवलिंग पर चढ़ाने जा रहे हैं. लेकिन टोली में ज्यादातर लोग भांग, गांजा और खैनी के नशे में रहते हैं. जहांतहां रुक कर गांजा और भांग पी कर ये कांवरिये नशे में बौराते दिख जाते हैं.

पूर्णियां के भट्ठा बाजार महल्ले में रहने वाले प्रौपर्टी डैवलपर उमेशराज सिंह बताते हैं कि वे पिछले 12 सालों से हर साल कांवर ले कर देवघर जाते हैं और हर साल कांवरियों की मनमौजी व नशा करने की लत को देखते रहे हैं. किसी कांवरिये को जब गांजा और भांग आदि पीने से मना किया जाता है तो वह एक ही जबाब देता है कि शिव के भक्त नशा नहीं करेंगे तो शिव प्रसन्न ही नहीं होंगे. कांवरियों की कांवर यात्रा के बीच इस बात का भी खुलासा हुआ है कि कांवर के नाम पर धर्म की दुकान चलाने वालों के कारोबार व मुनाफे  में कंपनी, होलसैलर, दुकानदार से ले कर पंडों तक की हिस्सेदारी होती है. कांवरिया अपने साथ टौर्च, 2 जोड़ी कपड़े, गमछा, तौलिया, चादर, मोमबत्ती, माचिस, गिलास, लोटा, कांवर आदि ले कर चलता है. यात्रा के लिए ये सभी चीजें नई ही खरीदी जाती हैं. पुराने कपड़ों या गिलास आदि का उपयोग नहीं किया जाता है.

एक कांवरिये को कम से कम 2 हजार रुपए का सामान खरीदना पड़ता है. एक महीने में करीब 60 लाख कांवरिये देवघर जाते हैं. इस लिहाज से हिसाब करें तो कांवरिये करीब 1,200 करोड़ रुपए की खरीदारी एक महीने के अंदर ही करते हैं. इस के अलावा चूड़ा, इलायचीदाना, बद्धी (सूत की माला) आदि को खरीदने पर एक कांवरिया कम से कम 500 रुपए खर्च करता है. इस के बाजार का आकलन करें तो यह 3 हजार करोड़ रुपए का होता है. इस के अलावा कांवर के बगैर भी देवघर पहुंच कर शिवलिंग पर जल चढ़ाने वालों का अलग ही आंकड़ा है. पोंगापंथ के नाम पर लोग 20 हजार करोड़ रुपए लुटा देते हैं. कांवरयात्रा के साथ जब जलेबिया इलाके में पहुंचे तो वहां लूट और ठगी का अलग ही नजारा देखने को मिला. सड़कों के किनारे खाली पड़ी सरकारी जमीनों पर जहांतहां शामियाने डाल कर स्थानीय दबंग कांवरियों को सोने के लिए जगह बेचते हैं. शामियाने के अंदर सोने के लिए जमीन देने के नाम पर हर कांवरिये से 50 रुपए वसूले जाते हैं. एक गिलास शरबत की कीमत 20 से 25 रुपए तक वसूली जाती है. धर्म के नाम पर आंखें बंद कर अपनी मेहनत की कमाई को लुटा कर कांवरिये इसी भ्रम में रहते हैं कि उन की तपस्या से खुश हो कर भगवान उन की हर कामना को पूरा कर देंगे, उन के घर पर धनदौलत की बारिश होगी और घरपरिवार में कोई समस्या नहीं रहेगी.

जलेबिया से 8 किलोमीटर आगे चलने के बाद तागेश्वर इलाका आता है. वहां पर सड़क के किनारे कांवर रखने के लिए बांस का स्टैंड बना हुआ है. पोंगापंथियों का मानना है कि कांवर में गंगा नदी के पानी से भरा लोटा या डब्बा लटका होता है, इसलिए कांवर को जमीन पर नहीं रखना चाहिए, इस से गंगा का पानी अपवित्र हो जाता है. पंडेपुजारी ही धर्म की किताबों व प्रवचनों में ढोल पीटते रहे हैं कि गंगा का पानी हर अपवित्र चीज को पवित्र कर देता है. गंगा का पानी समाज की हर गंदगी को बहा ले जाता है. ऐसे में गंगा के पानी से भरे डब्बे को जमीन पर केवल रखने मात्र से वह पानी अपवित्र कैसे हो जाता है? मुजफ्फरपुर के कांटी इलाके की कांवरिया रुक्मिणी शर्मा से जब इस बारे में पूछा तो वे कहती हैं कि गंगा का पानी जमीन पर रखने से अपवित्र न हो, इसलिए कांवर को जहांतहां नहीं रख देना चाहिए. देवघर के शिवमंदिर में गंगाजल चढ़ाने के लिए 8-10 किलोमीटर लंबी कतार लग जाती है. 337 वर्गमीटर में फैले करीब ढाई लाख की आबादी वाले देवघर शहर में सावन महीने में हर दिन 2 लाख से ज्यादा कांवरिये पहुंचते हैं. ऐसे में प्रशासन के लिए कांवरियों की भीड़ को कंट्रोल करना बहुत बड़ी मुसीबत होती है. सावन में कांवर यात्रा के दौरान दुकानदारों, फुटपाथी दुकानदारों, होटलों और ढाबों को चलाने वालों की तो मानो लौटरी निकल पड़ती है.

देवघर के घंटाघर के पास छोटा सा ढाबा चलाने वाला एक व्यक्ति कहता है कि सावन के महीने का इंतजार तो देवघर के कारोबारी पूरे साल करते हैं. बाकी महीनों में जहां 20 से 30 हजार रुपए की आमदनी हर महीने होती है, वहीं केवल सावन में ढाई से 3 लाख रुपए की कमाई हो जाती है. 200 रुपए के कमरे के लिए लोग हजार रुपए तक देने में नानुकुर नहीं करते. क्योंकि उस दौरान किसी भी होटल में आसानी से जगह नहीं मिल पाती है. एक घंटे के लिए फ्रैश होने के लिए लोग 400 से 500 रुपए आसानी से दे देते हैं. वहीं दूसरी ओर, शहरवासियों के लिए पूरा महीना फजीहत से भरा होता है. देवघर में हर सड़क, गली, चौराहे पर जाम का नजारा रहता है. देवघर के रहने वाले राजीव पांडे कहते हैं कि सावन के महीने में कांवरियों की भीड़ की वजह से सड़कों पर चलना मुहाल हो जाता है. दफ्तर, स्कूल, मार्केट, अस्पताल आदि जाने में पसीने छूट जाते हैं. कंधे पर कांवर ले कर पता नहीं लोग खुद को क्या समझ लेते हैं, कोई गाड़ी कितना भी हौर्न बजाए, कांवरिये रास्ता नहीं छोड़ते हैं.

‘बोल बम’, ‘बोल बम का नारा है, बाबा एक सहारा है’, ‘बोल बम, बढ़े कदम’, ‘बाबा की नगरिया दूर है, जाना जरूर है’ जैसे नारों से हल्ला मचाते लोग कांवर लिए पैदल चलते हैं. कांवर का वजन करीब 10 किलो होता है. कांवरिये कंधे पर वजनी कांवर और नंगे पैर ही 110 किलोमीटर का सफर तय करते हैं. इस दौरान उन के पैरों में छाले और फफोले निकल आते हैं. चलने में दिक्कत होने के बाद भी कांवरिये अंधभक्ति में लीन चलते रहते हैं. कांवर ले कर निकले पटना के दिलीप सिंह दावा करते हैं कि भगवान की कृपा से ही कांवरियों को ताकत मिलती है और वे लंबे सफर को पैदल आसानी से पूरा कर लेते हैं. 

पीढ़ी-दर-पीढ़ी पंडों का जाल

देवघर में पहुंचते ही लोगों को पंडे घेर लेते हैं. नाम, पता, पिता का नाम, दादा का नाम, परदादा का नाम, छरदादा का नाम, गोत्र, खास घर आदि पूछने लगते हैं. जैसे ही कोई अपने बारे में पूरी जानकारी देता है तो पंडा कहता है कि आप के दादा देवघर आए थे तो उन्होंने मेरे दादा से ही पूजा करवाई थी. कई पंडे तो पुराने रिश्ते निकाल कर उन्हें अपने घर ले जाते हैं और रहने व खाने का भी इंतजाम कर देते हैं. इस के एवज में लोग रुपया दे ही देते हैं. यानी पूजा की दानदक्षिणा वसूलने के साथ पंडे होटल और रैस्टोरेंट का भी धंधा कर लेते हैं. हर पंडे का घर सावन के महीने में होटल में बदल जाता है.

मंदिर में घुसाने के लिए रिश्वत 

पटना के रहने वाले एक सरकारी अफसर अपनी आपबीती सुनाते हुए कहते हैं कि देवघर के शिवमंदिर के सामने जब वे पहुंचे तो वहां उमड़ी भीड़ को देख कर मंदिर के अंदर जाने की उन की हिम्मत नहीं हुई. वे बताते हैं, ‘‘कुछ मिनटों के बाद मैं वापस लौटने का मन बना ही रहा था कि स्कूल के दिनों का एक पुराना दोस्त मिल गया. उस ने मुझे देखते ही पूछा कि जल चढ़ा दिया. मैं ने कहा कि इतनी भीड़ देख कर भीतर जाने का साहस नहीं हो रहा है. इतनी भीड़ में तो आदमी दब के मर सकता है. उस ने आगे छूटते ही कहा कि क्यों डर रहे हो? उस ने कहा कि रुको, अभी सैटिंग करता हूं. वह मंदिर के पास गया और थोड़ी देर के बाद वापस लौटा. उस के साथ एक हट्टाकट्टा आदमी था. दोस्त ने कहा कि उसे 200 रुपए दो और वह पलक झपकते ही मंदिर के अंदर घुसा देगा और शिवलिंग के दर्शन करवा देगा.’’ वे आगे बताते हैं, ‘‘उस लठैत टाइप आदमी ने मुझे साथ चलने को कहा. मैं ने उसे 200 रुपए थमा दिए. मंदिर के दरवाजे के पास पहुंचने पर उस पहलवान ने अपने एक और साथी को बुला लिया. दोनों पहलवानों ने आमनेसामने खड़े हो कर अपने दोनों हाथों को कस कर पकड़ा. उस के बाद उस ने मुझे, मेरी बीवी समेत और 2 लोगों को बीच में आने को कहा. उन 2 पहलवानों के हाथों की पकड़ के बीच हम 4 लोग समा गए. उस के बाद उस ने भीड़ के बीच हमें खींचना शुरू किया और धीरेधीरे खींचते हुए 5 मिनट में ही मंदिर के भीतर पहुंचा दिया. वहां पंडों ने दक्षिणा की मांग की. मेरी बीवी ने कहा कि पैसे तो पास में नहीं हैं तो पंडे ने कहा कि पैसे नहीं हैं तो भागो.’’

यह है पंडों का असली चेहरा. पैसों के अलावा उन का और कोई मकसद ही नहीं होता है. वीआईपी पूजा से मचता बावेला देवघर समेत ज्यादातर बड़े मंदिरों में वीआईपी पूजा की व्यवस्था होती है. जो पैसा दे कर वीआईपी टिकट खरीदता है उसे मंदिर में स्पैशल ट्रीटमैंट दिया जाता है. इस के लिए अलग से पूजा का इंतजाम किया जाता है. देवघर में सुबह 3 से 4 बजे तक वीआईपी पूजा होती है. उस के बाद ही आम कांवरियों को मंदिर में घुसने दिया जाता है. एक वीआईपी टिकट के लिए 500 रुपए और एक सेमी वीआईपी टिकट के लिए 300 रुपए वसूले जाते हैं. इस के अलावा मंत्री, अफसरों समेत कोई भी वीआईपी किसी भी समय पूजा के लिए आता है तो उस दौरान भी कुछ देर के लिए आम कांवरियों का मंदिर में घुसना रोक दिया जाता है. पिछले 10 अगस्त की सुबह वीआईपी लोगों की पूजा में देरी होने से ही कांवरियों का धैर्य टूट गया और वे हल्ला मचाने लगे. उस के बाद ही मची अफरातफरी में 11 लोगों की मौत हो गई.

ब्रैंड बनता बस्तर का दशहरा

वर्ष 2015 का गणतंत्र दिवस कई मानों में खास था. पहला, एनडीए सरकार के मुखिया नरेंद्र मोदी की अगुआई में मनाया गया, दूसरा, अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा गणतंत्र परेड में बहैसियत मुख्य अतिथि शामिल हुए और तीसरे, राजपथ पर बस्तर के दशहरे की झांकी का प्रदर्शन किया गया. बस्तर और वहां के आदिवासी सभी के लिए हमेशा ही जिज्ञासा का विषय रहे हैं. वजह, उन का मुख्यधारा से कटे होना है. मुख्यधारा, रोशनी और विकास सहित तमाम सामयिक विषयों व प्रसंगों से मुंह मोड़े बस्तर के आदिवासी आज भी अपनी जीवनशैली, तीजत्योहारों और परंपराओं में बंधे हैं. जिसे लोग आधुनिकता कहते हैं वह बस्तर की सीमाएं छू कर वहीं ठहर सी जाती है.

बस्तर के आदिवासियों की एक खूबी यह भी है कि न तो वे बाहर की दुनिया में झांकते हैं न ही किसी बाहरी को अपनी दुनिया में जरूरत से ज्यादा झांकने देते हैं. लेकिन बीते 5-10 सालों से उन की यह जिद खत्म हो रही है. इस के लिए एक खूबसूरत बहाना बस्तर का दशहरा है जिस का राज्य सरकार और छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल खासा प्रचार करते हैं.

क्या है खास

बस्तर के दशहरे को ले कर आम लोगों की उत्सुकता बेवजह नहीं है. बस्तर का दशहरा वाकई खास और शेष देश के दशहरों से अलग होता है. यह पर्व एक, दो या तीन दिन नहीं, बल्कि पूरे 75 दिन मनाया जाता है. तय है कि यह दुनिया का सब से ज्यादा अवधि तक मनाया जाने वाला त्योहार है जिस की शुरुआत सावन के महीने की हरियाली अमावस से होती है. बस्तर के दशहरे की दूसरी खासीयत यह है कि बस्तर में गैर पौराणिक देवी की पूजा होती है. आदिवासी लोग शक्ति के उपासक होते हैं. सच जो भी हो, इन विरोधाभासों से परे बस्तर के आदिवासी हरियाली अमावस के दिन लकडि़यां ढो कर लाते हैं और बस्तर में तयशुदा जगह पर इकट्ठा करते हैं. इसे स्थानीय लोग पाट यात्रा कहते हैं. बस्तर कभी घने जंगलों के लिए जाना जाता था, आज भी उस की यह पहचान कायम है और सागौन व टीक जैसी कीमती लकडि़यों की यहां इतनी भरमार है कि हर एक आदिवासी को करोड़पति कहने में हर्ज नहीं. इस त्योहार पर 8 पहियों वाला रथ आकर्षण का केंद्र होता है.

75 दिन रुकरुक कर दर्जनभर क्रियाकलापों के बाद दशहरे के दिन आदिवासियों की भीड़ पूरे बस्तर को गुलजार कर देती है. इस दिन आदिवासी अपने पूरे रंग में रंगे, नाचते, गाते और मस्ती करते हैं. वे तमाम वर्जनाओं से दूर रहते हैं. उन्हें देख समझ में आता है कि आदिवासियों को क्यों सरल व सहज कहा जाता है. त्योहार के अवसर पर यहां 11 बकरों की बलि देने और शराब खरीदने के लिए भी पैसा जमा होता है. मदिरा सेवन के अलावा इस दिन मांस, मछली, अंडा, मुरगा वगैरह खाया जाना आम है. दूरदराज से आए आदिवासी अपने साथ नारियल जरूर लाते हैं. दशहरे के आकर्षण के कारण इस दिन पूरे जगदलपुर में आदिवासी ही दिखते हैं और शाम होते ही वे परंपरागत तरीके से नाचगाने और मेले की खरीदारी में व्यस्त हो जाते हैं.

इसलिए हो रहा मशहूर

आदिवासी जीवन में दिलचस्पी रखने वाले लोग यों तो सालभर बस्तर आते रहते हैं पर उन में ज्यादातर संख्या इतिहास के छात्रों और शोधार्थियों की होती है. लेकिन बीते 3-4 सालों से आमलोग पर्यटक के रूप में यहां आने लगे हैं. बस्तर के दशहरे की खासीयत को रूबरू देखने का मौका न चूकने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है तो इस का एक बड़ा श्रेय छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल को जाता है जिस ने बस्तर के दशहरे को एक ब्रैंड सा बना दिया है. बस्तर आ कर ही पता चलता है कि प्रकृति की मेहरबानी सब से ज्यादा यहीं बरसी है. चारों तरफ सीना ताने झूमते घने जंगल, तरहतरह के पशुपक्षी, जगहजगह झरते छोटेबड़े झरने और चट्टानें देख लोग भूल जाते हैं कि बाहर हर कहीं भीड़ है, इमारतें और वाहन हैं कि चलना और सांस लेना तक दूभर हो जाता है. यहां आ कर जो ताजगी मिलती है वह वाकई अनमोल व दुर्लभ है.

बस्तर जाने के लिए अब रायपुर से लग्जरी बसें भी चलने लगी हैं और टैक्सियां भी आसानी से मिल जाती हैं. उत्सव के दिनों में पर्यटकों की आवाजाही बढ़ने से यहां पर्यटन एक नए रूप में विकसित हो रहा है. वैसे भी, पर्यटन का यह वह दौर है जिस में पर्यटक कुछ नया चाहते हैं, रोमांच चाहते हैं और ठहरने के लिए सुविधाजनक होटल भी, जो छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल ने यहां बना रखा है. दशहरा उत्सव के दौरान यानी अक्तूबरनवंबर में बस्तर का मौसम अनुकूल होता है. अप्रैलमई की भीषण गरमी तो यहां बस गए बाहरी और नौकरीपेशा लोग भी बरदाश्त नहीं कर पाते. इसलिए भी दशहरा देखने के लिए भीड़ उमड़ती है. दशहरे के बहाने पूरे छत्तीसगढ़ राज्य के आदिवासी जनजीवन, रीतिरिवाजों, रहनसहन और संस्कृति से बखूबी परिचय भी होता है.

नजरअंदाजी नजर की

दो प्यारी सी आंखें, जिन में बड़े ही यत्न से लगाया गया आईलाइनर यानी कि काजल, उस के ऊपर आई कलर व आईशैडो, तराशी हुई भवें और बड़ी ही सफाई से लगाया गया मस्कारा ताकि देखने वाले को ऐसा भ्रम हो कि कुछ कृत्रिम नहीं, सब प्राकृतिक खूबसूरती है. इतने रंगरोगन लगाए जाने के कारण श्रीमतीजी की आंखें इतनी कजरारी व खूबसूरत बन गई थीं कि मुझ जैसा कवि कल्पनाओं से दूर रहने वाला प्राणी भी उन नयनों के चक्कर में चकराने लगा. जैसे ही मैं ने उन के नयन सागर में गोते लगाने की सोची, तभी मेरे कानों में चिरपरिचित सी आवाज आई, ‘‘गोलू के पापा, पढि़ए न क्या लिखा है?’’ श्रीमतीजी टीवी में एक नई फिल्म के ट्रेलर में आ रहे कलाकारों के नामों के बारे में जानने को उत्सुक थीं. नाम बड़ी जल्दीजल्दी आजा रहे थे.

संयोगवश मैं उसी समय औफिस से आ कर घर में घुसा ही था और आदतन चश्मा मेरी आंखों पर चढ़ा था. जब तक वे गोलू को आवाज देतीं, तब तक नाम चला जाता और ऐसे मौकों पर बेटी आस्था पहले से ही गायब हो जाती. वैसे भी, बच्चों को अपने कंप्यूटर के आगे हिंदी फिल्मों में कोई रुचि नहीं. ऐसे में बलि का बकरा मैं ही बनता.

‘‘श्रीमतीजी, कितनी बार कहा कि डाक्टर के पास जा कर अपनी आंखों का चैकअप करवा लो पर तुम्हारी समझ में बात कहां आती है? छोटेछोटे अक्षर तुम से अब पढ़े नहीं जाते. ऐसे में तुम्हें परेशानी हो सकती है.’’ हमेशा की तरह इस बार भी वे मेरी बात को एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकालते हुए बोलीं, ‘‘अरे, पहले नाम पढ़ कर बताओ कि कौनकौन इस फिल्म में हैं? आजकल अच्छी फिल्में बनती कहां हैं?’’

वे अपनी ही रौ में बोले जा रही थीं. जैसे ही ट्रेलर समाप्त हुआ, मैं ने उन का हाथ पकड़ कर बिठाते हुए कहा, ‘‘पूरे घर का तुम खयाल रखती हो, हम सब की छोटी से छोटी बातें भी ध्यान में रखती हो पर अपना खयाल क्यों नहीं रखतीं?’’ मुझ से इतने प्यारभरे शब्दों की अपेक्षा वे नहीं रखतीं. सो, बड़े आश्चर्य से देखते हुए बोलीं, ‘‘आप को दाल में नमक की जगह चीनी और चाय में चीनी की जगह नमक मिला क्या? नहीं न, तो क्यों बारबार मेरी आंखों के चैकअप के पीछे पड़े हो? अरे, थोड़ा दूर का ही नहीं दिखता, बस. नजदीक का सब ठीक है न. अब इतनी सी बात के लिए क्या डाक्टर के पास जाऊं? वह आंखों में आंखें डाल कर ऐसे देखता है कि लोग उस की बातों में आ जाते हैं और अच्छेभले लोगों को भी चश्मा चढ़ा कर अपने पैसे बनाता है. उस के जैसे लोगों का काम ही है कि आंखों में प्रौब्लम बताना.’’ ऐसा बोलती हुई मेरी बोलती बंद कर वे कार में बैठने चल दीं. हमें स्वीटी के बेटे की बर्थडे पार्टी में जाना था, इसीलिए वे इतने रंगरोगन लगा कर तैयार हुई थीं. चूंकि कार भी मुझे ही चलानी थी, सो माहौल न गरम हो, इसी से मैं भी चुपचाप कार में जा कर बैठ गया.

दरअसल, अंदर की बात मुझे अच्छी तरह से पता थी कि किसी भी हालत में वे इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रही थीं कि उम्र के प्रभाव ने आंखों पर भी अपना असर दिखाना शुरू कर दिया है और वे चश्मा लगा कर उम्रदराजों में शामिल नहीं होना चाहतीं. कौन्टैक्ट लैंस का झंझट भी उन से नहीं होगा, यह भी मुझे पता था. अब कौन उन्हें समझाए कि आजकल छोटेछोटे बच्चों को भी चश्मा लग जाता है. इस पर भी उन का यह तर्क कि बच्चे चश्मा लगा कर बुद्धिमान दिखते हैं और बड़े चश्मा लगा कर बूढ़े. 5 तरह के मेकअप आंखों में लगाएंगी लेकिन चश्मा नहीं. आईशैडो, आईलाइनर जैसे सौंदर्य प्रसाधनों पर दिल खोल कर चर्चा करेंगी पर आंखों की सेहत पर नहीं. अब उन्हें कौन बताए कि जब ठीक से दिखेगा ही नहीं तो आंखों की खूबसूरती भी किस काम की?

खैर, मैं हमेशा से ही उन्हें समझाता रहा और वे हमेशा की तरह मेरी बात अनसुनी करती रहीं. कल जब मैं औफिस से घर आया तो श्रीमतीजी आराम से अपनी पड़ोसिन से फोन पर बात कर रही थीं. मैं ने पूछा, ‘‘क्या आज आस्था के गेम के लिए जाना है?’’ बात करतेकरते ही उन्होंने मुझे घड़ी दिखा दी. मुझे कुछ समझ में नहीं आया. मैं ने फिर टोका तो फोन पटकते हुए बोलीं, ‘‘अरे, अभी कहां टाइम हुआ है? मुझे 7 बजे जाना है और अभी सवा 6 बजे हैं. आप ही आज लगता है औफिस से जल्दी आ गए.’’ मैं ने उन्हें पकड़ कर नजदीक से घड़ी दिखाई, ‘‘देखो, सवा 7 हो रहे हैं.’’ सकपकाते हुए वे जल्दीजल्दी आस्था को ले कर 45 मिनट देरी से पहुंचीं. कोच ने गुस्सा दिखाया क्योंकि उस ने 2 हफ्ते पहले से सभी को समय से 10 मिनट पहले आने को बोल रखा था. घर वापस आने पर बड़ी ही मासूमियत से बोलने लगीं, ‘‘मैं ने ड्राइंगरूम के साथसाथ किचन की भी घड़ी देखी थी. मुझे लगा अभी टाइम नहीं हुआ है.’’ इस पर भी क्या मजाल कि चश्मे का टौपिक उठ जाए.

परसों मेरे साथ शौपिंग करने गईं, कपड़े की शौप में इन्हें जाना था और शोकेस बंद था. उस का पारदर्शी शीशा श्रीमतीजी को समझ में नहीं आया और वे खुला समझ कर जा कर टकरा गईं. उस पर वहां खड़े लोगों का व्यंग्य कि अरे आंटी, शोकेस बंद है. लगता है आप अपना चश्मा घर में भूल आई हैं. लो भला, जिस वजह से वे चश्मा नहीं लगाना चाहती थीं वही बात हो गई. लोगों ने आंटी बोल कर इन्हें एक झटके में उम्रदराज बना दिया. जब तक मैं कुछ बोलता, श्रीमतीजी तो वहां खड़े लोगों से जा कर भिड़ गईं, एकदम वीरांगना की भांति, ‘अरे, चश्मा लगाए तेरी बीवी और तेरी मांबहन, मुझे क्या जरूरत है?’ और भी जाने क्याक्या सुना दिया.

अब तो मैं ने भी कहना छोड़ दिया. घर की शांति के लिए चश्मे की बात होनी बंद हो गई. शर्मनाक स्थिति तो तब आ गई जब हम लोग अपने दोस्त की वैन में उन के साथ बैठ कर कहीं बाहर जा रहे थे. रास्ते में विंडो का शीशा खुला समझ कर इन्होंने च्युंगम बाहर की ओर मुंह कर के थूक दी. यह तो गनीमत थी कि किसी के देखने से पहले सफाई से उन्होंने उसे पोंछ दिया. मेरे पिताजी का भी यही हाल था. यद्यपि वे चश्मा लगाते थे किंतु कार में बैठ कर बातों में इतना मशगूल हो जाते थे कि कार का शीशा खुला समझ के मुंह का पान थूक देते थे और फिर बातों में खो जाते थे. मम्मीजी खूब नाराज हुआ करती थीं पर पिताजी को कोई फर्क नहीं पड़ता था. यहां बात चश्मे की नहीं थी, बेचारे पिताजी तो कभीकभी चश्मा लगा कर ही सो जाया करते थे.

आखिरकार, वही हुआ जिस का मुझे डर था. एक दिन श्रीमतीजी कार ले कर बाजार गईं. बरसात के कारण सड़क पर एक छोटा सा गड्ढा बन गया था. पहले इन्हें गड्ढा समझ में नहीं आया, फिर सामने देख एकाएक जोर से ब्रेक लगा दिया. पीछे वाली कार ने इन की कार को जोर से ठोंका और इन्होंने अपनी कार से बाजू में खड़े रिकशे को ठोंक दिया. कार की डिग्गी तो पिचकी ही, साथ में इन्हें भी काफी चोट आ गई. मैं औफिस की जरूरी मीटिंग में व्यस्त था कि इन की एक सहेली का फोन आया कि श्रीमतीजी का ऐक्सिडैंट हो गया है. मैं घबराया भागा घर आया. तब तक इन के सिर और पैर में पट्टी बंध चुकी थी. यह तो अच्छा हुआ कि इन्हें ज्यादा चोट नहीं आई. मैं ने भी अब प्रण कर लिया कि इन्हें आंख के डाक्टर के पास ले जा कर ही रहूंगा. सो, मैं ने चुपचाप समय ले लिया और एक हफ्ते बाद मैं सीधा आंख के डाक्टर के पास इन्हें ले गया. आश्चर्य की बात कि मेरी प्यारी बीवी ने कोई विरोध नहीं किया. शायद, उन्हें पता था कि इस बार मैं उन की नहीं सुनने वाला. डाक्टर ने पूरा चैकअप कर के अच्छी पावर वाला चश्मा इन्हें चढ़ा दिया, जिस की इन्हें बहुत दिनों से सख्त जरूरत थी.

घर आतेआते इन का चेहरा उतर चुका था. मैं ने भी कोई बात नहीं की. दूसरे दिन भी मैं ने इन्हें गुमसुम सा ही देखा तो मैं ने इन का हाथ पकड़ कर सीधे आईने के सामने खड़ा कर दिया और बोला, ‘‘देखो, अपनेआप को, इस चश्मे में कितनी गरिमामयी लग रही हो. अरे, हमारे पास किशोर होता बेटा है तो क्यों कम उम्र का दिखना? यह तो हमारे लिए गर्व की बात है कि हम उम्रदराज व परिपक्व हैं और इस से समाज में हमारा सम्मान ही बढ़ता है.’’ शायद मेरी बात इन्हें पहली बार सही लगी. इन के चेहरे पर मैं ने वही पहले वाली मुसकान देखी, मन ही मन शांति मिली कि चलो, अब इन के साथसाथ कार व बच्चे भी सुरक्षित रहेंगे और चश्मा लगा चेहरा देख अपनेआप मेरा मन गा उठा, ‘ओ मेरी जोहरा जबीं, तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हंसी और मैं जवां…’

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