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विदेशी निवेश पर आंकड़ों की बाजीगरी नहीं चलेगी

देश के बहुमुखी आर्थिक विकास के लिए निवेश महत्त्वपूर्ण होता है. यही कारण है कि सरकार निवेश को महत्त्व देती है. यहां तक कि राज्य सरकारें भी अपने राज्यों में निवेश को बढ़ावा देने के लिए लालच दे कर उद्योगों को आमंत्रित करती हैं. इसी तरह विदेशी निवेश के लिए केंद्र सरकार भी निवेशकों को आकर्षित करने की तरहतरह की योजनाएं चलाती है. मोदी सरकार का इस के लिए ‘मेक इन इंडिया’ नारा है और यह कारगर साबित होता हुआ नजर भी आ रहा है, सरकार के आंकड़े तो यही दावा कर रहे हैं. सरकार का यह भी दावा है कि इस वर्ष अब तक उसे विदेशी निवेश के 170 प्रस्ताव मिले हैं, जबकि पिछले वर्ष कुल 150 प्रस्ताव मिले थे. इसी तरह से प्रवासी भारतीयों ने भी देश में निवेश करने में रुचि दिखाई है. आंकड़ों से लगता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राओं के दौरान एनआरआई को निवेश करने के लिए दिए जाने वाले निमंत्रण रंग लाते नजर आ रहे हैं. सरकार का दावा है कि केंद्र में नई सरकार आने के बाद से प्रवासी भारतीयों से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश 3 गुना बढ़ा है. विदेशी निवेश सर्वाधिक मौरीशस, सिंगापुर और नीदरलैंड से हुआ है. सर्वाधिक निवेश सेवा क्षेत्र में हुआ है जो कुल निवेश का करीब 13 फीसदी है. सेवा क्षेत्र में वित्त निवेश, बैंकिंग, गैरबैंकिंग तथा शोध क्षेत्र प्रमुख रहे हैं. आटोमोबाइल क्षेत्र दूसरे तथा सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में निवेश तीसरे स्थान पर है. यह तुलनात्मक आंकड़ा पिछले 3 वर्षों का है जबकि एनआरआई निवेश का सिर्फ एक साल का है.

सवाल यह है कि सिर्फ आंकड़े दिखा कर आर्थिक तरक्की की राह पर कामयाब नहीं हुआ जा सकता है. इस के लिए जमीनी हकीकत ज्यादा महत्त्वपूर्ण है. जमीनी हकीकत में मिसाल के तौर पर निवेश करने वाले देशों को देखा जा सकता है. यहां जिन देशों के नाम हैं उन्हें बहुत मजबूत अर्थव्यवस्था वाला देश नहीं कहा जा सकता. यह ठीक है कि सिंगापुर तथा नीदरलैंड की स्थिति अच्छी है लेकिन विकसित देशों से निवेश आकर्षित नहीं किया जा सका है. यहां ‘सौ सुनार की और एक लुहार की’ वाली कहावत को चरितार्थ करने की जरूरत है ताकि मोटी विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सके. ‘बूंदबूंद से घड़ा भरने’ वाली कहावत शीघ्र तरक्की की शैली नहीं है. यह पकाऊ व्यवस्था का हिस्सा है. जरूरत मोटे स्तर पर विदेशी निवेश को आकर्षित करने की है ताकि विश्व की मजबूत अर्थव्यवस्था में हमारे नाम का उल्लेख हो.

ब्याज दरें नहीं घटने से बाजार को झटका

बौंबे शेयर बाजार में जुलाई के आखिरी सप्ताह से ले कर अगस्त के पहले सप्ताह की शुरुआत तक लगातार 5 सत्र में तेजी रही. लेकिन इस के बाद संसद में चल रहे हंगामे के कारण मानसून सत्र में कोई कामकाज नहीं हो पाने और सत्ता पक्ष तथा विपक्ष के बीच बढ़ते तनाव ने बाजार के सैंटिमैंट को प्रभावित किया. उसी बीच, रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन की मौद्रिक समीक्षा नीति के दौरान ब्याज दरों में कटौती नहीं करने से कटौती की उम्मीद लगाए निवेशक निरुत्साहित हुए. नतीजतन, बाजार का रुख बदल गया और सूचकांक 28 हजार अंक के मनोवैज्ञानिक स्तर से नीचे उतर आया. जानकार इस की वजह एशियाई बाजारों में जारी गिरावट को भी मान रहे हैं. थोक मूल्य सूचकांक में पिछले वर्ष नवंबर से जारी गिरावट और विनिर्माण क्षेत्र के निर्यात के पिछले 6 माह के दौरान बढ़ने की खबर से भी ब्याज दरों में कटौती की उम्मीद की जा रही थी लेकिन सरकार का मानना है कि दरों में कटौती का आधार सिर्फ थोक मूल्य सूचकांक को ही नहीं माना जा सकता है.

विश्लेषकों का मानना है कि मानसून का मौसम अभी चल रहा है, कई क्षेत्रों में विकास दर पिछले साल से दोगुनी हुई है और खरीफ की फसल के बेहतर होने के अनुमान की वजह से सब की निगाह ब्याज दरों पर टिकी थी. उन का मानना है कि ब्याज दरों की कटौती नहीं करने की घोषणा सकारात्मक माहौल के कारण बाजार को ज्यादा दिन तक प्रभावित नहीं कर सकती है. इधर संसद में हुई अनुपूरक मांगों पर हुई चर्चा के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली के सभी रुकी विकास योजनाओं को शुरू करने और विकास दर 8 प्रतिशत तक पहुंचने के अनुमान जाहिर करने के बाद बाजार में अगले दिन ही सुधार हुआ और सूचकांक 2 सप्ताह के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया.

जो सब को भाए, वही ड्रैसकोड कहलाए

एक समय था जब कहा जाता था, ‘खाना मन भाया और कपड़ा जग भाया.’ लेकिन वक्त के साथ सब बदल गया. अब ‘खाना जग भाया’ हो गया. कुछ लोग जो खा रहे हैं, वही सभी लोग खाने लगे, अच्छा लगे या नहीं. एक भेड़चाल की सी स्थिति हो गई है. वहीं दूसरों की पसंद व नापसंद से पहना जाने वाला कपड़ा अब पूरी तरह ‘मन भाया’ हो गया, चाहे लोगों को अच्छा लगे, न लगे. लोग वही पहनने लगे हैं जो खुद उन्हें अच्छा लग रहा हो और इस मामले में सब से आगे हैं किशोर और किशोरियां.

जबजब, जहांजहां ड्रैसकोड की बात उठती है, लोग इसे ‘तालिबानी कल्चर’ कह कर इस का मजाक उड़ाते हैं. लेकिन अगर देखा जाए तो ड्रैसकोड और सभ्य समाज का आपस में गहरा संबंध है. बिना ड्रैसकोड का पालन किए हम सभ्यता या विकास की बात सोच भी नहीं सकते हैं. हर पेशे, हर कार्यालय एवं हर अवसर का अलगअलग ड्रैसकोड हुआ करता है. किसी को पसंद आए या न आए, चाहे कितनी असुविधा क्यों न हो, उस का पालन करना ही पड़ता है. और यह उचित भी होता है. इन दिनों तो पार्टियों में भी ‘थीम पार्टी’ के नाम पर एक प्रकार का ड्रैसकोड ही अपनाया जा रहा है. ड्रैसकोड मानने या कपड़ों पर लगी पाबंदी का सब से बड़ा विरोधी वर्ग है किशोरकिशोरियों का. कहने को तो यह उम्र ऐसी है, जब किसी तरह की रोकटोक पसंद नहीं आती, चाहे बात कपड़ों की ही क्यों न हो.

किशोरावस्था की उम्र में मन बिना बात के बगावत पर तुला होता है. सारा जहां दुश्मन एवं पिछड़े विचारों का लगता है. बस, एक आईना ही दोस्त होता है, जो समयसमय पर मन में उठते विचारों को हवा देता रहता है. ‘इस ड्रैस में फंकी लग रहे हो’, ‘क्या मस्त लग रहा है’, ‘यह तो गजब का मैच है.’ आईने एवं मन की आवाज सुनतेसुनते ड्रैस का ‘कंफर्ट’ एवं लोगों की पसंदनापसंद सब भुला दी जाती है. इस उम्र के बच्चों पर कपड़ों को ले कर ज्यादा बंदिशें नहीं लगाई जा सकती हैं लेकिन फिर भी उन्हें कुछ बातों की सीख दी जा सकती है.

कपड़े मौसम के अनुसार हों

बदन ढकने के बाद कपड़े का दूसरा सब से बड़ा उपयोग मौसम से बचाव करना होता है लेकिन जाने क्यों किशोरकिशोरियों को इस बात की ज्यादा परवा नहीं होती. उन्हें मौसम के विपरीत कपड़ों में भी देखा जा सकता है. कड़ाके की ठंड में भी बिना सिर ढके बिना कान ढके, हलकीफुलकी जैकेट में भी ये लोग नजर आ सकते हैं. ठंड से चाहे थरथरा रहे हों मगर गरम कपड़े पहनना या उन की भाषा में कहें तो लादना उन्हें पसंद नहीं. गरमी के मौसम में टाइट जींस एवं काले कपड़ों में नजर आना उन का शौक है. अब उन्हें कौन बताए कि फैशन के नाम पर वे मौसम की मार झेल रहे हैं.

कपड़े सेहत के अनुसार हों

सेहत 2 तरह की होती है. पहली, अंदरूनी सेहत और दूसरी, बाहरी डीलडौल. किसी की सेहत के हिसाब से कौन सी ड्रैस सही है, यह सिर्फ वही व्यक्ति, स्वयं ही जान सकता है. इस का एक अच्छा उदाहरण हैं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल. तमाम लोगों एवं मीडिया ने उन को ‘मफलर मैन’ कहा. इतनी आलोचना के बाद भी उन्होंने मफलर का त्याग नहीं किया क्योंकि उन्हें पता था कि उन की खांसी उन्हें सर्दी से एलर्जी होने के कारण है. और इस से बचने के लिए जरूरी है कि सिर, कान और गले को सर्दी से बचाया जाए. ऐसा करना मफलर के बिना मुमकिन नहीं था. प्रिंट मीडिया से ले कर इलैक्ट्रोनिक मीडिया तक इतनी आलोचना शायद ही किसी नेता की ड्रैस को ले कर हुई हो. मगर केजरीवाल विचलित नहीं हुए. ड्रैस के चुनाव में अपनी लंबाई, चौड़ाई, त्वचा के रंग आदि का भी ध्यान रखना चाहिए. नाटे कद की मोटी लड़की अगर पटियाला सूट पहने तो प्यारी लगेगी, लेकिन लेगिंस या टाइट शर्ट लोगों की नजर में उसे अनाकर्षक बना देगा.

इसी तरह कपड़ों के रंगों का चुनाव करते वक्त त्वचा के रंगों को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. त्वचा का रंग बदला नहीं जा सकता है, यह एक सचाई है लेकिन कपड़ों के रंगों का सही चुनाव कर के खूबसूरत दिखा जा सकता है. जैसे काली त्वचा वालों को पीला, सफेद, नेवी ब्लू जैसे रंगों से गुरेज करना चाहिए. ऐसी रंगत पर पिंक, क्रीम कलर खिलते हैं. ये सावधानियां लड़केलड़कियों दोनों के लिए हैं.

कपड़े बजट के अनुसार हों

किशोर बच्चों को कपड़े खरीदते समय ब्रैंडेड के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि उन्हें किसी बोर्ड मीटिंग या इंटरव्यू में तो जाना नहीं है, न ही खुद को प्रैजेंट करना है. उन्हें तो हर जगह बिंदास एवं मस्त लगना है, इसलिए 1 कीमती ड्रैस की जगह कम कीमत के 2-3 कपड़े भी बदलबदल कर पहनने के लिए अच्छे होते हैं. आजकल तो कई बड़ी फिल्मी हस्तियां भी स्ट्रीट शौपिंग कर रही हैं क्योंकि बहुत सी ऐसी अलग दिखने वाली चीजें बड़ेबड़े शोरूमों में नहीं मिलतीं. जबकि फुटपाथ की दुकानों में मिल जाती हैं. ड्रैस के अलावा घड़ी, पर्स, चेन, बे्रसलेट, स्टौल, स्कार्फ, अंगूठी, चश्मा जैसी चीजें भी थोड़ी हट कर हों तो लोगों की नजर आप पर टिक जाती है. दोस्तों के बीच शाइन करना है, बस, मकसद तो इतना ही है न.

हरदा रेल हादसा बेपटरी ट्रेनें बेमौत मरे मुसाफिर

राजकुमार सुंदरानी भोपाल के नजदीक सीहोर के बस स्टैंड से लगी सिंधी कालोनी का वाशिंदा है. 4 अगस्त को वह जलगांव से भोपाल आने वाली कामायनी ऐक्सप्रैस में सवार हुआ था. उसे एस-4 कोच में ऊपर की बर्थ मिली थी. अपने मामा की मौत पर दुख जताने के लिए जलगांव गया राजकुमार खुद अपनी मौत से रूबरू हो कर सलामत भोपाल तो आ गया पर हरदा रेल हादसे का चश्मदीद यह नौजवान गहरे सदमे में है. उसे खुद के जिंदा बच जाने पर यकीन नहीं हो रहा और जो मंजर उस ने देखा था उसे याद कर वह पसीनेपसीने हो उठता है. राजकुमार बताता है, हादसे की रात मैं अपनी बर्थ पर लेटा, जाग रहा था. रात में सवा 11 बजे मुझे जोरदार झटका लगा. इतना तो मैं समझ गया था कि कोई हादसा हुआ है. झटका इतनी जोर का था कि मैं 2 दफा गिरतेगिरते बचा और गिरने से बचने के लिए कोई सहारा ढूंढ़ने लगा. तभी मेरे हाथ में रेल रोकने वाली जंजीर आ गई और मैं ने उसे कस कर पकड़ लिया. लेकिन जो मुसाफिर नींद में थे वे गिर पड़े थे और डब्बे में शोरशराबे के साथ अफरातफरी व भगदड़ मच गई थी.

राजकुमार ने नीचे उतरने की कोशिश की, तभी किसी यात्री ने मोबाइल की टौर्च जलाई जिस की रोशनी में उस ने देखा कि कुछ मुसाफिर इमरजैंसी खिड़की से बाहर निकल रहे हैं. उसे भी उम्मीद बंधी. वह खिसक कर उस खिड़की पर पहुंच गया और आगे वाले यात्री के कूदते ही खुद उस ने भी बाहर की तरफ छलांग लगा दी. लेकिन उस की हालत आसमान से टपके खजूर में अटके जैसी हो गई थी. नीम अंधेरे में वह खिड़की के जरिए बाहर तो आ गया, जहां आ कर उसे समझ आया कि बाहर चारों तरफ पानी ही पानी है. आसमान से तो लगातार बारिश हो ही रही थी. राजकुमार को तैरना नहीं आता था, इसलिए उस ने मान लिया था कि अब तो मौत तय है. तभी दिमाग में एकाएक ही यह बात आई कि पानी ज्यादा गहरा नहीं है, कमर तक है लिहाजा उस ने पानी में भारी कदमों से चलना शुरू कर दिया.

पीछे क्या हुआ था और अब क्या हो रहा है, यह देखने में राजकुमार ने दिलचस्पी नहीं ली, न ही ऐसा करने की उस की हिम्मत पड़ रही थी. वह इस प्रलय से बचने के लिए चलता जा रहा था और तकरीबन आधे घंटे बाद उस ने खुद को पुल के किनारे खड़े पाया. चारों तरफ देख तसल्ली कर ली कि वह अब वाकई महफूज है. चारों तरफ हल्ला और भदगड़ मची थी. पुल के किनारे खड़े राजकुमार को कुछ नहीं सूझ रहा था. तभी कुछ अनजान मददगार आए और उसे अपना मोबाइल फोन दिया कि कहीं बात करनी हो तो कर लो. राजकुमार इतने सदमे में था कि उसे किसी का नंबर ही याद नहीं आया. कुछ देर बाद खुद को संभालने के बाद उसे अपने दोस्त रतन का नंबर याद आया और उस ने रतन से इतना ही कहा कि घर में बता देना कि मैं सलामत हूं और जल्द वापस आ रहा हूं. इस वक्त रात के साढ़े 12 बज चुके थे और जब वह पानी में चल रहा था उसी दौरान एक और ट्रेन पटरी से उतर कर जमीन में धंस चुकी थी.

ऐसे हुआ हादसा

मध्य प्रदेश के निमाड़ इलाके के शहर हरदा के नजदीक इस रेल हादसे में सभी राजकुमार जैसे नहीं थे. 50 से भी ज्यादा लोग इस में मारे गए और 500 के करीब घायल हुए. हादसे में कोई टक्कर नहीं हुई, न ही आग लगी थी. हादसे के बाद भोपाल आए रेलमंत्री सुरेश प्रभु इसे कुदरती आपदा बताने से नहीं चूके. जाहिर है वे अपने महकमे का नाकाम बचाव करने की कोशिश कर रहे थे. 4 अगस्त की रात साढ़े 11 बजे मुंबई से वाराणसी जा रही कामायनी ऐक्सप्रैस जब हरदा से 25 किलोमीटर दूर खिरकिया के नजदीक गांव मांदता में कालीमाचक नदी की पुलिया से हो कर गुजरी तो एकाएक ही ट्रेन के डब्बे पटरी में धंसने लगे. ट्रेन में बैठे मुसाफिरों ने जोरदार आवाज सुनी और उन्हें धक्का लगा. उस वक्त मूसलाधार बारिश हो रही थी और कालीमाचक नदी इतने उफान पर थी कि ट्रेन की पटरियों पर से भी पानी बह रहा था. कामायनी ऐक्सप्रैस के 11 डब्बे जमीन में धंसे इन में से 6 तो पूरी तरह जमींदोज हो गए.

बेपटरी हुई इस ट्रेन के मुसाफिर पूरी तरह कुछ समझ पाते और अपनी जान बचा पाते, इस से पहले ठीक 20 मिनट बाद ही पटना से मुंबई जा रही जनता ऐक्सप्रैस दूसरे ट्रैक से गुजरी और ठीक इसी जगह आ कर धंसने लगी. उस के कुछ डब्बे लुढ़क कर कामायनी ऐक्सप्रैस पर चढ़ गए. जनता ऐक्सप्रैस के इंजिन सहित 9 डब्बे जमीन में धंस कर रुक गए. रात हो जाने के चलते दोनों ट्रेनों के मुसाफिर नींद में थे. कुछ तो उठ ही नहीं पाए और जो उठे उन की हालत राजकुमार सरीखी थी कि बचने के लिए क्या करें. रेल की पटरियों यानी ट्रैक पर पानी भरा था और जिस पुल के पास ट्रेनें धंसी थीं वह अधर में झूलने लगा था. चारों तरफ नीम अंधेरा था और बाहर बह रहा पानी डब्बों में घुसने लगा था. हल्ला मचा तो देश जाग उठा और कुछ लोग हरदा की तरफ दौड़ पड़े लेकिन तब तक जो होना था वह हो चुका था.बचाव दल हादसे के लगभग 4 घंटे बाद पहुंचे और अपना काम शुरू किया.

अब तक रेल अफसरों ने साफ कह दिया था कि हादसा बारिश और पानी की वजह से हुआ. चूंकि बारिश तेज थी, इसलिए पटरियों के नीचे की मिट्टी बहाव में कट कर बह गई जिस से पटरियां ट्रेनों के वजन से धंसीं और यह भीषण हादसा हो गया. हादसे के 8 मिनट पहले ही 2 ट्रेनें यहां से गुजरी थीं लेकिन उन के ड्राइवरों या गार्ड ने किसी तरह का खतरा नहीं महसूस किया था. लेकिन 8 मिनट बाद ही नजारा यह था कि पूरा ट्रैक झूले सा झूल रहा था. इस के बाद बचाव और सरकारी खानापूर्तियां होती रहीं. मरने वालों और घायलों को मुआवजे के एलान की रस्म भी निभाई गई और घायलों को इलाज के लिए अस्पताल ले जाने का सिलसिला शुरू हो गया. कइयों को भोपाल भी लाया गया.

भयानक आपबीती

बनारस के रहने वाले राजमणि दुबे ने भी मौत का यह नजारा साफसाफ देखा. वे कामायनी ऐक्सप्रैस के जनरल कोच में सवार थे. अधिकांश मुसाफिर सो रहे थे. वे कहते हैं, ‘‘रात कोई साढ़े 11 बजे के करीब ऐसी जोरदार आवाज आई, मानो ट्रेन टकरा गई हो. इस से सभी लोग सहम गए और कुछ समझ या कर पाते, इस के पहले ही डब्बे पटरी से फिसल कर नीचे खाई में गिरने लगे. जो डब्बे नीचे उतरे उन में पानी भरने लगा था. संभलने पर मुसाफिरों ने नीचे कूदना शुरू कर दिया था. जो लोग तैरना जानते थे वे तो सलामत बच निकले पर जिन्हें तैरना नहीं आता था वे बह गए क्योंकि नीचे गहरा पानी था.’’ राजमणि बताते हैं कि कुछ देर बाद मैं भी कूद गया. पानी में एक अनजान शख्स ने सहारा दिया, इसलिए मैं बच गया. वे कहते हैं, ‘‘मेरे दोस्त संजीव कुमार का पता नहीं चला जो मेरी ही तरह नीचे कूदा था.’’ भोपाल के बृजलाल गोरी भी अपनी बीवी के साथ कामायनी ऐक्सप्रैस में सवार हुए थे. वे बताते हैं, ‘‘तेज बारिश हो रही थी. रात में मैं ने तेज टकराने जैसी आवाज सुनी और ट्रेन रुक गई. हम लोग इंजिन से पीछे तीसरे जनरल कोच में थे झांक कर बाहर देखा तो गार्ड के डब्बे की तरफ के 3-4 डब्बे खिलौने की तरह पानी में फिसलते दिखे. मैं ने तुरंत अपने मोबाइल फोन से 108 नंबर पर खबर की और जैसेतैसे मैं बाहर आ पाया.’’

राजकुमार, राजमणि और बृजलाल जैसे बचे लोग अपनी जान बचने पर खुश थे तो दूसरी तरफ अपनों को खो देने या रोने वालों की भी कमी नहीं थी. जबलपुर के नजदीक श्रीधाम के घनश्याम मालवीय अपने परिवार सहित शिरडी जा रहे थे. इस हादसे में उन के परिवार के 1-2 नहीं बल्कि 11 लोगों की मौत हो गई. उन्होंने बिलखते हुए कहा, ‘‘मेरी बीवी, बच्चों और भाईबहन का क्या कुसूर था. मैं तो मन्नत पूरी होने पर साईंबाबा के दर्शन करने जा रहा था.’’ इस भीषण हादसे में घनश्याम की बीवी, 2 बच्चों के अलावा बूआ, फूफा, नानी और भाईबहन मारे गए. इसी तरह जबलपुर के ही नजदीक गोटेगांव की प्रेमाबाई भी विलाप करती नजर आई. वह इलाज कर रहे डाक्टरों और नर्सों से रोतेरोते कह रही थी, ‘‘मुझे क्यों बचा लिया. अब मैं जी कर क्या करूंगी. मेरा इलाज बाद में करना, पहले मेरे बच्चों को बचा लाओ.’’ प्रेमाबाई गहरे सदमे में थी और कह रही थी कि उसे पानी के अलावा कुछ नहीं दिख रहा. जाहिर है इन मुसाफिरों के दिलोदिमाग पर लंबे वक्त तक हादसे का असर रहेगा.

इलाहाबाद के बुजुर्ग बाशिंदे मोहम्मद उमर ने जरूर कुछ संभलते बताया कि मौत सामने थी और हर कोई अपनी जान बचाने के लिए भाग रहा था. कामायनी ऐक्सप्रैस के मुसाफिर निकल कर जनता ऐक्सप्रैस में चढ़ने लगे थे. लेकिन पटरी बह जाने के कारण वह भी हिलने लगी थी. इस से घबराए लोग जनता ऐक्सप्रैस के डब्बों के ऊपर चढ़ कर भागने लगे थे. इन में से 3 हाईटैंशन लाइन की चपेट में आ गए, जिन में से 2 की करंट लग जाने से मौके पर ही मौत हो गई और एक बेहोश हो कर गिर गया. मोहम्मद उमर बताते हैं कि उन्हें भी चोटें आई थीं. वे एस-10 कोच का दरवाजा पकड़ कर लटक गए थे. इन आपबीतियों से जाहिर है लोग गलत तरीके से बचने की कोशिश में ज्यादा मरे. वे डब्बों में ही रहते तो महफूज रहते. लेकिन सच यह भी है कि जब मौत सामने खड़ी हो और कहीं से किसी इमदाद की उम्मीद न हो तो जिस को जो सूझता है वह वही करता है. साबित यह भी हुआ कि कोई भगवान या साईंबाबा अपने भक्तों को नहीं बचाता. दोनों ट्रेनों में सवार ज्यादातर मुसाफिर या तो रिश्तेदारी में जा रहे थे या फिर बारिश के मौसम का लुत्फ उठाते शिरडी दर्शन करने को जा रहे थे. जिन्होंने सब्र रखते हुए सूझबूझ से काम लिया और जिन्हें तैरना आता था, वे बच गए.

टाला जा सकता था

जिंदगीभर ये पीडि़त इस हादसे को याद कर कांपते रहेंगे, जिस की एक बड़ी जिम्मेदारी रेलवे की बनती है. ‘कुदरती कहर था, मिट्टी बह गई थी, इसलिए पटरियां धंस गई थीं’ जैसी बहानेबाजी और मन बहलाऊ बातें मजाक भर लगती हैं. वजह इस रूट पर मानसून पैट्रोलिंग यानी निगरानी नहीं हो रही थी. भोपाल के एक रेल अधिकारी ने बताया कि सूझबूझ से इस हादसे से बचा जा सकता था. मौसम महकमे ने भारी बारिश की चेतावनी दी थी तो दोनों ट्रेनों के ड्राइवरों को रफ्तार 40 किलोमीटर नहीं रखनी चाहिए थी. रेलवे का नियम यह है कि हर 6 किलोमीटर में एक टीम बारिश यानी मानसून के दौरान पैट्रोलिंग करती है जो इस रास्ते पर नहीं गई थी. 4 अगस्त को तो कतई नहीं गई थी. खुद रेलवे का रिकौर्ड इस बात की जानकारी देता है. लेकिन 7 अगस्त आतेआते सारे रिकौर्ड बदल गए और बचाव दलों को भी वापस बुला लिया गया जिस से सरकार और रेल महकमे की खासी छीछालेदर हुई. सारी वाहवाही मध्य प्रदेश के सीएम शिवराज सिंह लूट ले गए जो 5 अगस्त को बारिश में भीगते पीडि़तों के हालचाल लेते रहे थे. एक सच यह भी है कि रेलवे में मैदानी मुलाजिमों की भारी कमी है. लाखों ओहदे खाली पड़े हैं जिन पर भरतियां नहीं की जा रहीं. इस से पैसा तो बच रहा है पर बेकुसूर मुसाफिरों की जानें जा रही हैं. 

ऐसा भी होता है

हमारे पड़ोस में एक बुजुर्ग दंपती रहते थे. उन के एक ही बेटा था जो अमेरिका में रहता था. एक दिन पता चला कि उन बुजुर्ग व्यक्ति की पत्नी की मृत्यु हृदयगति रुकने से हो गई. बेटा, बहू अमेरिका से आए, तेरहवीं तक किसी तरह रुके. बेटे ने जाने से पहले अपने पिता से अमेरिका चलने के लिए कहा. लेकिन उन बुजुर्ग ने जाने से इनकार कर दिया. वे बोले कि यहां अपना मकान है, आसपास अच्छे लोग हैं, मुझे यहां अच्छा लगता है, मन लगा रहेगाबेटाबहू के जाने के बाद उन बुजुर्ग को बहुत खराब लगने लगा. उन का मन नहीं लगता था. दिन तो जैसेतैसे कट जाता पर रात काटना मुश्किल हो जाता. बच्चे मोबाइल पर हालचाल लेते रहते थे. पर जैसेजैसे समय बीतता गया, बच्चों के फोन आने कम हो गए. वे मोबाइल पर घंटी का इंतजार ही करते रहते. एक दिन मैं विद्यालय से लौट रही थी. उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और बोले, ‘‘बेटी, देखो मेरा मोबाइल तो ठीक है?’’ मैं ने मोबाइल देखा तो वह एकदम ठीक था. मोबाइल पर कौल की तो घंटी भी सुनाई पड़ी. मैं ने उन से कहा, ‘‘चाचाजी, आप का मोबाइल एकदम ठीक है.’’ कुछ देर शांत रहने के बाद वे धीरे से बोले, ‘‘फिर मेरे बच्चों का फोन क्यों नहीं आ रहा है?’’ प्रश्न सुन कर मैं निरुत्तर थी.

उपमा मिश्रा, लखनऊ (उ. प्र.)

*

मैं अपनी पहली तनख्वाह से अपने पिताजी के लिए सफारी सूट का कपड़ा ले कर घर लौट रही थी. मन में बहुत खुशी हो रही थी. खुशी में सोचतेसोचते बस से उतर कर घर पहुंची तो मां ने पूछा कि कपड़ा कहां है? मुझे जैसे तब होश आया. मैं याद करने लगी कि आखिर कपड़े का पैकेट कहां छूटा होगा. फिर मुझे लगा कि शायद बस में ही छूट गया होगा. यह सोच कर कि पता नहीं, अब वह कपड़ा मिलेगा भी कि नहीं, मुझे रुलाई आने लगी थी. लेकिन अपने को नियंत्रित कर जल्दीजल्दी बस स्टौप, जहां मैं उतरी थी, के विपरीत तरफ जा कर खड़ी हो गई. सोच रही थी कि शायद बस जब वापस इस रास्ते से लौटेगी तो बस कंडक्टर और ड्राइवर से पूछ लूंगी.

काफी देर बाद दूर से ही बस को आती देख हाथ दिखा कर बस में चढ़ गई. कंडक्टर से जब पूछा कि क्या उन लोगों को कोई पैकेट मिला है तो उन लोगों ने तुरंत मेरा पैकेट मुझे लौटा दिया. अपने पापा के लिए खरीदा कपड़ा सहीसलामत पाते ही मेरी आंखों से आंसू बहने लगे. बस कंडक्टर और ड्राइवर को धन्यवाद बोलते हुए बस से उतर गई. 15 साल बाद आज भी उस दिन की खुशी मुझे महसूस होती है.        

रेखा श्रीवास्तव, कोलकाता (प. बं.)

दीदी से मात खा गए भाजपा के चाणक्य

‘मैं हूं अमित शाह. दीदी सुनिए, आप की सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए मैं यहां आया हूं.’ 2014 के नवंबर के महीने में पश्चिम बंगाल में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष की यह हुंकार अब शायद कहीं दब सी गई लगती है. लोकसभा चुनाव में भाजपा की सफलता में जिस अमित शाह ने ममता बनर्जी पर सारदा चिटफंड घोटाले के आरोपियों को बचाने का आरोप लगाते हुए अगले विधानसभा चुनाव में ‘भ्रष्ट’ तृणमूल कांगे्रस को उखाड़ फेंकने का संकल्प लिया था, अब वही अमित शाह 2016 के विधानसभा चुनाव को छोड़ कर 2019 के लोकसभा चुनाव को जीतने की बात करने लगे हैं. पिछले 2 महीनों में बंगाल में अमित शाह की जितनी भी जनसभाएं हुईं, उन से अंदाजा लगने लगा कि भाजपा धीरेधीरे आगामी विधानसभा चुनाव से अपने पैर खींचने लगी है.

2014 के लोकसभा चुनाव में राज्य में 18 प्रतिशत मत प्राप्त करने के साथ भाजपा ने ममता बनर्जी के विधानसभा चुनाव क्षेत्र में भी बढ़त हासिल की थी, इस के बाद प्रदेश भाजपा का गुमान में मदमस्त होना लाजिम ही था. होता भी क्यों न, यही 18 प्रतिशत मत राज्य में भाजपा का अब तक का सब से बड़ा प्रदर्शन जो था. इस से पहले राज्य में भाजपा की हैसियत कभी ऐसी नहीं बन पाई कि इसे गंभीरता से लिया जाए. हां, कोलकाता नगरनिगम में गिनती की कुछ सीटें जरूर मिलती रही हैं. लेकिन 2014 में लोकसभा चुनाव में जब नरेंद्र मोदी की लहर पूरे देश में चलने का दावा किया जा रहा था, तब 18 अप्रैल, 2015 को हुए कोलकाता नगरनिगम चुनाव में भाजपा को महज 7 सीटें ही मिल पाईं. यही भाजपा का सब से अच्छा प्रदर्शन रहा है. तथाकथित मोदी लहर में पिछले कोलकाता नगरनिगम चुनाव में 3 सीटों से आगे जा कर भाजपा महज 7 सीटें निकाल पाई. यानी खास कोलकाता में, वह भी यहां के नगर निगम चुनाव में, भाजपा अतिरिक्त 4 सीटों तक ही पहुंच सकी. जाहिर है मोदी की भारी लहर में भी राज्य में भाजपा कोई खास करिश्मा नहीं दिखा सकी.

2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान राज्य में भाजपा को 18 प्रतिशत वोट मिलने के बाद 2015 में हुए 91 नगरनिगम और नगरपालिका चुनावों से भाजपा को बड़ी उम्मीद थी, जिस पर पानी फिर गया. इन 91 नगरपालिका चुनावों में तृणमूल के खाते में 69 नगरपालिकाएं आईं. वहीं, वाममोर्चा ने जंगीपुर, दिनहाटा, दाईहाट, सिलीगुड़ी और ताहेरपुर की 5 नगरपालिकाओं पर कब्जा किया. कांगे्रस ने भी मुर्शिदाबाद, कांदी, झालदा, कालियागंज और इस्लामपुर की 5 नगरपालिकाओं पर अपनी धाक जमा ली. जबकि भाजपा के हिस्से में एक भी नगरपालिका नहीं आई. शेष 12 नगरपालिकाओं में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला. अब अगर विधानसभा चुनाव की बात करें तो 1996 से ले कर 2011 तक के विधानसभा चुनावों में भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली. लोकसभा चुनाव 2014 में आसनसोल से बाबुल सुप्रियो और एस एस अहलुवालिया की जीत हुई.

इस के अलावा कोलकाता दक्षिण संसदीय सीट से भाजपा के तथागत राय को सुब्रत बक्शी के 4,31,715 वोट के मुकाबले महज 2,95,376 मत मिले और अब उन्हें त्रिपुरा का राज्यपाल बना दिया गया. बहरहाल, इस आधार पर तो कहा जा ही सकता है कि राज्य में भाजपा की हैसियत महानगर निगम जितनी भी नहीं है. राज्य के तमाम स्थानीय निकाय चुनावों में भी तृणमूल की आंधी में भाजपा के परखचे उड़ गए. हालांकि 2014 लोकसभा चुनाव के बाद राज्य के उपचुनाव में पहली बार भाजपा ने अकेले अपने दम पर बशीरहाट दक्षिण विधानसभा में जीत हासिल की. लेकिन भाजपा की उम्मीद के विपरीत अन्य सीटों पर वह दूसरे स्थान पर रही. जाहिर है बंगाल भाजपा का आधार बन ही नहीं पा रहा है. भाजपा और अमित शाह को इस धुर सत्य का आभास हो चुका है कि कम से कम 2016 में बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा अपने पांव कहीं रख नहीं पाएगी. इसीलिए भाजपा 2019 का लक्ष्य ले कर चलने का मन बना चुकी है.

राजनीति में जाति समीकरण

ऊपरी तौर पर बंगाल में देश के बाकी राज्यों की तरह जातिवाद समीकरण नजर नहीं आता पर राज्य की राजनीति में सवर्णों का ही दबदबा है. 34 सालों तक राज करने वाले वाममोरचा की बागडोर ज्यादातर सवर्णों के हाथों में ही रही है. ज्योति बसु अगर कायस्थ थे तो बुद्धदेब भट्टाचार्य ब्राह्मण. इस के अलावा वाममोरचा के घटक दलों में भी स्थिति ऐसी ही रही है. फिर वे चाहे मनोज भट्टाचार्य, कांति विश्वास, सीताराम येचुरी, अशोक बोस या क्षिति गोस्वामी हों. वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी ब्राह्मण परिवार से ही हैं. इन के अलावा सुब्रत मुखर्जी, दिनेश त्रिवेदी, पार्थ चटर्जी, सौगत राय चौधुरी उच्चवर्ण से ही हैं. अन्य पार्टियों की बात की जाए तो प्रदेश कांगे्रस में प्रदीप भट्टाचार्य, दीपा दासमुंशी, मानस भुंइया, अधीर चौधुरी से ले कर भाजपा में राहुल सिन्हा, शमीक भट्टाचार्य, असीम सोम सवर्ण ही हैं. लेकिन कुल मिला कर यहां की जमीनी राजनीति में न तो ब्राह्मणों का बोलबाला है और न कायस्थों का. शायद यह भी एक कारण है कि भाजपा की राजनीति यहां नहीं चल पा रही है.

भाजपा में नेतृत्व का अभाव

सब से पहले तो सांगठनिक तौर पर प्रदेश भाजपा कभी मजबूत नहीं रही है. यहां हमेशा से ही पुख्ता नेतृत्व का अभाव रहा है. पार्टी में अंतर्कलह, उठापटक भी एक बड़ी समस्या रही है. रहा सवाल भाजपा मुख्यालय से बंगाल के प्रभारी का, तो अब तक जितने भी बंगाल के प्रभारी हुए हैं, उन में से किसी को भी सफलता नहीं मिली है. जब नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करते हुए भाजपा ने लोकसभा का चुनाव लड़ा, तब अमित शाह को सेनापति मुकर्रर किया गया था. इसी समय मेनका गांधी के बेटे वरुण गांधी को भी बंगाल का प्रभारी नियुक्त किया गया. इस के बाद सिद्धार्थ नाथ सिंह को भेजा गया. लेकिन बंगाल की मिट्टीहवा में जाने क्या बात है कि सांप्रदायिक तमगे वाली भाजपा को राज्य में कोई भी प्रभारी स्वीकृति नहीं दिला पाया.

तृणमूल भाजपा का समझौता

बंगाल के मामले में भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व दोराहे पर आ कर खड़ा हो गया है. गौरतलब है कि तृणमूल कांगे्रस वाजपेयी सरकार में एनडीए का हिस्सा रही थी. लेकिन यह वह समय था जब तृणमूल कांगे्रस राज्य में अपने वजूद के लिए संघर्ष कर रही थी. अब ममता राज्य की मुख्यमंत्री हैं और वे मुसलिम तुष्टिकरण की नीति पर चल रही हैं. ऐसे में सांप्रदायिक भाजपा से हाथ मिलाना पार्टी के राजनीतिक ग्राफ के लिए कतई अच्छा नहीं होगा. 2014 के लोकसभा चुनाव में बंगाल की 42 सीटों में से तृणमूल की 34 सीटें हैं और राज्यसभा की कुल 245 सीटों में तृणमूल के खाते में 12 सीटें. फिलहाल राज्यसभा में भाजपा का बहुमत नहीं है. भाजपा की 48 सीटों समेत एनडीए की कुल 64 सीटें ही हैं. बाकी 163 सीटों में कांगे्रस की 68 सीटों के साथ यूपीए की 70 सीटें, जनता परिवार की 30 सीटें हैं और अन्य विभिन्न पार्टियों की 51 सीटें हैं जो किसी भी गठबंधन के साथ नहीं हैं. इस में भी तृणमूल 12 सीटों के साथ सब से बड़ी पार्टी है. यहां यह बात भी महत्त्वपूर्ण है कि जमीन अधिग्रहण बिल का ममता बनर्जी समर्थन नहीं कर रही हैं, इस का तो वे विरोध ही करती रहेंगी. प्रदेश कांगे्रस और वाममोरचा में यह कयास लगाया जा रहा है कि हो न हो, तृणमूल और भाजपा के बीच कहीं कोई समझौता हो गया है. इसीलिए न सिर्फ सारदा चिटफंड का मामला ठंडा पड़ गया है बल्कि मदन मित्र की गिरफ्तारी के बाद और कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है. हाल ही में सीबीआई ने अदालत में दाखिल चार्जशीट में जिन लोगों के नाम हैं, उन की जिम्मेदारी राज्य पुलिस को दे दिए जाने की बात कही है. माना जा रहा है कि सारदा चिटफंड मामले में केंद्र के इशारे पर सीबीआई द्वारा ढील दे दी गई है. वहीं, केंद्र से राज्य को आर्थिक मदद के मद्देनजर तृणमूल के साथ भाजपा का कोई समझौता हो गया हो, जिस के तहत कुछ मुद्दों पर तृणमूल भाजपा का सहयोग कर भी सकती है. यही कारण है कि अमित शाह भी 2016 विधानसभा चुनाव के प्रति नरम रवैया अपना रहे हैं.

क्या हम गृहयुद्ध की ओर बढ़ रहे हैं?

विश्व के कई देशों में गृहयुद्ध छिड़ा हुआ है. भारत गृहयुद्ध की आग में तो नहीं जल रहा लेकिन देश के तकरीबन हर हिस्से में अकसर हिंसा हो जाती है. इस हिंसा के भिन्नभिन्न कारण होते हैं. इन में धर्म, जाति, भेदभाव की भूमिकाएं ज्यादा शामिल रहती हैं. हिंसा के बाद सरकारी रवैया ऐसा उभरता है कि जिस के चलते माहौल में तनाव और भी ज्यादा हो जाता है. देशविदेश के कुछ ऐसे ही हालात पर यहां एक सरसरी नजर डालते हैं. हरियाणा के फरीदाबाद जिले के अटाली गांव में मसजिद निर्माण को ले कर जाटों और मुसलमानों के मध्य हुए झगड़े में कई लोग घायल हो गए. गांव की मसजिद, दुकानों, घरों में तोड़फोड़ की गई. सैकड़ों लोगों को गांव से पलायन करना पड़ा.अटाली की आग ठंडी होने को थी कि पलवल में आगजनी, तोड़फोड़, पत्थरबाजी और हिंसा शुरू हो गई. इसी बीच महाराष्ट्र के नासिक के निकट हरसुल में आदिवासियों और मुसलमानों के बीच हुई लड़ाई में 2 लोग मारे गए और कई जख्मी हुए. 20 दुकानें जला दी गईं और कई घरों को लूट लिया गया.

जमशेदपुर के मानगो क्षेत्र में छेड़छाड़ की एक घटना ने तोड़फोड़, बंद, जुलूस, कर्फ्यू का रूप अख्तियार कर लिया. शहर के लोगों को 2 हफ्ते तक तनाव व दहशत में रहना पड़ा.जूनजुलाई महीनों में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में पिछड़े वर्ग की एक लड़की द्वारा दलित युवक से प्रेमविवाह करने पर गांव में दोनों वर्गों के बीच झगड़ा फैल गया. पिछले साल मुजफ्फरनगर, मेरठ जिलों में जाटों और मुसलमानों के बीच हुए झगड़े में 47 लोग मारे गए थे. 10 हजार लोग गांवघर छोड़ कर अन्यत्र चले गए. हजारों लोगों को महीनों तक शरणार्थी कैंपों में रहना पड़ा. इन इलाकों में महीनों तक सुरक्षा बलों को तैनात रहना पड़ा.देश के 18 राज्यों में नक्सली फैले हुए हैं. आएदिन हिंसक वारदातें हो रही हैं. आरक्षण को ले कर देश के कई हिस्सों में तनाव बरकरार है. गुजरात में पटेल (पाटीदार) पिछड़े वर्ग में शामिल होने के लिए सड़कों पर हैं तो हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश में जाट ओबीसी का दरजा हासिल करने के लिए रेल, सड़क रोकने के लिए आमादा हैं. पहले से जो जातियां ओबीसी में हैं उन जातियों का जाटों और पटेलों से टकराव चल रहा है. राजस्थान में गुर्जर और मीणा जातियों का आरक्षण के लिए टकराव बना हुआ है. यह टकराव पिछले 7 सालों की देन है जब गुर्जरों ने खुद को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने की मांग पर आंदोलन शुरू कर दिया था. मीणा जाति वाले नहीं चाहते कि उन के हक का आरक्षण बंटे. अपने ही देश में, अपने ही लोगों से पुलिस व अन्य सुरक्षा बलों को निबटना पड़ता ही है, कई जगहों पर तो सेना को लगाना पड़ा है.

पिछले ढाईतीन दशक से देश में इस तरह की जातीय, धार्मिक हिंसा की वारदातों में वृद्धि हुई है. अब आएदिन इस तरह की घटनाएं आम हो गई हैं. आंकड़े बताते हैं कि देश के भीतर हर साल जातीय, धार्मिक घटनाओं में हजारों लोग मारे जाते हैं, हजारों घायल होते हैं, सैकड़ों के घरबार छूट जाते हैं, वे दरबदर होने पर मजबूर हो जाते हैं. और इन सब से अरबों की संपत्ति नष्ट हो रही है. ताजा सर्वे बताता है कि भारत में पिछले 2 सालों से धार्मिक हिंसा के मामले तेजी से बढे़ हैं. पिछले साल की तुलना में 24 प्रतिशत घटनाएं बढ़ी हैं और 65 प्रतिशत मौतों में वृद्धि हुई है. केंद्रीय गृहमंत्रालय द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार, जनवरी से मई तक 43 मामले केवल सांप्रदायिकता से जुड़े हैं. इन में 961 लोग जख्मी हुए जबकि मई 2014 में ऐसी घटनाएं 26 थीं और घायलों की संख्या 701 थी. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र और हरियाणा में ज्यादा घटनाएं हुईं. एक ही धर्म में होने वाले मामले इस में शामिल नहीं हैं. इस के आंकड़े ज्यादा मिलेंगे. देश की शिक्षण संस्थाओं पर धार्मिक, जातीय भेदभाव, विचारधाराओं को संरक्षण देने के आरोप लगते रहते हैं. पहले आईआईटी दिल्ली और अब पुणे स्थित भारतीय फिल्म एवं टीवी प्रशिक्षण संस्थान पर भगवाकरण के आरोप हैं. भारतीय इतिहास अनुसंधान संस्थान तो हमेशा निशाने पर रहा है.

हिंसा और नस्लभेद

यह हालत गृहयुद्ध जैसी है जो अभी पनप रही है. भारत में ही नहीं, ऐसी स्थिति दुनियाभर में है. अमेरिका में आएदिन नस्लीय हिंसा की वारदातें सामने आ रही हैं. ताजा घटनाक्रम में दक्षिण कैरोलिना के चार्ल्सटन शहर में अश्वेतों के पुराने चर्च में डायलन रूफ नाम का एक श्वेत युवक घुस गया और उस ने गोलियां बरसा कर 9 लोगों को मार डाला. पिछले साल फर्ग्युसन शहर में अश्वेत युवक माइकल ब्राउन की पुलिस द्वारा हत्या और फिर ग्रै्रंड ज्यूरी के आए फैसले के मद्देनजर कई शहरों में आग भड़क उठी थी. अमेरिकी अदालतों पर नस्लीय मानसिकता से ग्रस्त हो कर फैसले सुनाने के आरोप लगने लगे थे. शायद  इसीलिए बराक ओबामा को कहना पड़ा था कि अश्वेत अमेरिकियों और न्यायिक प्रक्रिया के बीच अभी और सुधारों की जरूरत है पर इस दिशा में कोई पहल नहीं की गई है.

भारतीयों के साथ भी लगातार नस्लभेद की घटनाएं सामने आ रही हैं. 2 साल पहले विस्कोंसिन गुरुद्वारे (अमेरिका) पर हुए हमले में खून बहा था. इस तरह की बढ़ती घटनाओं के बाद ओबामा ने देश में बंदूक रखने के अधिकार पर सवाल उठाया. अमेरिका में इन घटनाओं के बाद एक अमेरिकी थिंक टैंक का कहना है कि अमेरिका में आतंकवाद से ज्यादा नस्लभेद में लोग मारे जा रहे हैं. हैरानी यह है कि अपने ही धर्म के लोग आपस में ऊंचनीच के भेद के चलते भी एकदूसरे को मार रहे हैं. बराक ओबामा दूसरी बार जब अमेरिका के राष्ट्रपति चुने गए थे तब धारणा बनी थी कि गोरों और कालों के बीच नस्लभेद खत्म हो जाएगा पर ऐसा नहीं हुआ. ओबामा को मूल अमेरिकियों के मात्र 20 फीसदी वोट मिले थे. इस के विपरीत 39 प्रतिशत वोट गैर गोरे अमेरिकियों के मिले थे. उन में अफ्रीकी और एशियाई लोगों के थे. बावजूद इस के, नस्लीय वारदातों में बढ़ोतरी हुई है.

अमेरिका में हुए एक सर्वे के अनुसार वोटों के हिसाब से आशंका पैदा हुई थी कि वहां रंगभेद की खाई निरंतर चौड़ी हो रही है. रंगभेद वहां नई बात नहीं है. पिछले 125 से अधिक सालों से अमेरिका नस्लवाद का दंश झेल रहा है. 1965 से पहले तक अश्वेतों को नागरिक अधिकारों से वंचित रखा गया. इस साल पहली बार उन्हें मताधिकार दिया गया. कालों के साथ बुरा बरताव बरता जाता रहा है. दोनों के बीच सामाजिक, आर्थिक असमानता बनी हुई है. वहां गरीबी रेखा से नीचे गुजरबसर करने वाले 80 प्रतिशत लोग अश्वेत हैं. वहां की जेलों में अपराधियों की कुल तादाद में करीब आधे काले लोग हैं, इसीलिए भेदभाव, गैरबराबरी को ले कर आएदिन आपस में हिंसा होती रहती है. भारत में भी यही हाल है. यहां मृत्युदंड पाए तीनचौथाई कैदी पिछले वर्ग और धार्मिक अल्पसंख्यक हैं. जेलों में बंद 75 प्रतिशत आर्थिक तौर पर कमजोर और 93.50 प्रतिशत सजायाफ्ता दलित व अल्पसंख्यक ही हैं. अमेरिका की तरह भारत के लीगल सिस्टम में भी जाति, धर्म, अमीर, गरीब का भेदभाव है.

ओबामा को देश के सर्वोच्च पद पर बैठाने के बावजूद गोरों को श्रेष्ठ ठहराने का संगठित आंदोलन चल रहा है. यहां ‘एंड एपैथी’ जैसे श्वेतों के कट्टर संगठन नफरत, हिंसा फैलाने में लगे हैं. कहा जा रहा है कि ऐसे संगठनों को दक्षिणपंथी बंदूक लौबी का समर्थन मिल रहा है. लिहाजा, अमेरिका में उग्रवादी श्वेतों के निशाने पर अफ्रीकी, हिंदू, सिख और मुसलिम आ रहे हैं. नस्लभेद की खाई कम होने के बजाय, और चौड़ी हो रही है. सामाजिक विज्ञानियों का मानना है कि इस नफरत के पीछे गैरअमेरिकियों यानी अफ्रीकी और एशियाईर् देशों से वहां जा बसे लोगों का वहां के बौद्धिक क्षेत्र में लगातार कब्जा करते जाना है. इन गैरअमेरिकी लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है. जाहिर है नस्लभेद की सोच से अमेरिका मुक्त नहीं हो पा रहा है. यूएस डिपार्टमैंट औफ जस्टिस के तहत ब्यूरो औफ स्टैटिस्टिक्स, 2010 के अनुसार, 62,593 काले लोग गोरों की हिंसा से पीडि़त हुए थे.

विश्व के सब से पुराने लोकतंत्र में नस्लभेद की यह सब से बदरंग तसवीर है. इस तरह के हालात देख कर राष्ट्रपति ओबामा को कहना पड़ा था कि अमेरिका में काफी तरक्की के बाद भी नस्लभेद हमारे डीएनए में बना हुआ है. यह अमेरिका के विघटन का कारण बन सकता है. नेपाल में हिंदू राष्ट्र की मांग उठ रही है. वहां सभी राजनीतिक पार्टियों के नेता हिंदू हैं. वे संविधान से ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द हटाना चाहते हैं. वहां निचली और पिछड़ी जातियों के बीच खूनी घटनाएं हो रही हैं. नेपाल में माओवाद ऊंचनीच से उत्पन्न हुआ है. वहां 2 दशकों में सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं. यूक्रेन बहुसांस्कृतिक देश है. वहां यहूदी, रशियन और रोमनी समुदायों के बीच गृहयुद्ध के हालात हैं. यहां ईसाई समुदाय के 2 गुटों में हिंसा इसलिए हो रही है कि दोनों अलगअलग चर्चों को मानने वाले हैं. पूर्वी यूरोप में स्थित यूक्रेन की सीमा एक तरफ पूर्व में रूस की तरफ लगती है. अरसे पहले रूस से यहां जा बसे लोग और पश्चिम में रहने वाले नागरिक दोनों अलगअलग चर्चों को मानते हैं. इस कारण उन के बीच हिंसा चल रही है. रब्बी और यहूदी छात्रों के बीच झगड़ा है. दोनों के अलगअलग चर्च और कब्रिस्तान हैं और एकदूसरे के सांस्कृतिक केंद्रों को तोड़फोड़ रहे हैं.

स्कौटलैंड में 2009-10 में नस्लीय हिंसा के 5 हजार मामले दर्ज हुए थे और अब ये बढ़ रहे हैं. फ्रांस में जातीय, नस्लीय भेदभाव की घटनाएं हो रही हैं. अरब देशों में मुसलमानों में शिया और सुन्नी के बीच पुरानी खूनी रंजिश चली आ रही है. सीरिया, सूडान, मिस्र, इराक, लीबिया में एक ही धर्म के लोग आपस में लड़ रहे हैं.

धर्मजनित खूनी संघर्ष

इराक शिया और सुन्नी में बंटा हुआ है. इराक में कर्बला और नजफ शियाओं के 2 पवित्र नगर माने जाते हैं. प्रथम विश्व युद्ध के बाद शिया बाहुल्य वाले इराक पर सुन्नियों का शासन था. इराक पर अमेरिकी हमले में सद्दाम हुसैन के खात्मे के बाद अमेरिका ने यहां शियाओं का शासन कायम करा दिया. इस के बाद इन दोनों के बीच खूनी संघर्ष चल रहा है. सीरिया में अल्पसंख्यक शियाओं की सरकार है. शिया खुद को इसलामिक स्टेट का विरोधी कहते हैं. वहां आईएस जैसे संगठन दूसरे धर्म के अनुयायियों को तो मार ही रहे हैं, अपने धर्म के दूसरे पंथ वालों को भी खत्म कर रहे हैं. नाइजीरिया में 1990 से 2007 तक 20 हजार लोग धर्म के नाम पर मरमिटे. मुसलिम और ईसाई तथा आपस के एक ही धर्म की 2 संस्कृतियों के बीच झगड़ा आम है.

इसराईल, लेबनान, जोर्डन इसलामिक स्टेट की खूनी गिरफ्त में हैं. श्रीलंका में 1983 से सिंहली और अल्पसंख्यक तमिलों के बीच युद्ध चल रहा है. हजारों लोग मारे जा चुके हैं. पाकिस्तान में आतंकवादियों के निशाने पर हर कोई है. शिया और सुन्नी का संघर्ष जारी है ही. पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष जनरल अशफाक परवेज कियानी को कहना पड़ा कि आतंकवाद से लड़ें, नहीं तो गृहयुद्ध की स्थिति हो सकती है. आस्ट्रेलिया में जुलाई में नस्लभेद का मामला सुर्खियों में रहा. 3 साल की समारा अपनी मां रसेल मुई के साथ डिज्नी की थीम पर आधारित एक प्रतियोगिता में महारानी एल्सा बनी पहुंची थी. वह कतार में खड़ी हो कर जजों के बुलावे का इंतजार कर रही थी. तभी एक महिला आई और उस से बदसलूकी करने लगी. बच्ची को झिंझोड़ते हुए कहा कि तुम ने महारानी एल्सा का वेश क्यों धारण किया. एल्सा तो तुम्हारी तरह अश्वेत नहीं थीं. बच्ची की मां रसेल ने जब महिला का विरोध किया तो उस की बेटियां आगे आ गईं और समारा की ओर उंगली दिखाते हुए बोलीं कि तुम अश्वेत हो और अश्वेत लोग बदसूरत होते हैं. महिला और उस की बेटियों का सलूक देख कर बच्ची रोने लगी और प्रतियोगिता में हिस्सा लेने से मना कर दिया. मामला मीडिया में खूब उछला और दुनियाभर में नफरत व नस्लभेद की इस घटना की खूब आलोचना की गई.

ईसाइयों में कैथोलिक और प्रोटैस्टैंट के बीच ही नहीं, इन के भीतर और्थोडौक्स, इवैंजल चर्चों के बीच भी हिंसा व्याप्त है.

श्रेष्ठता की होड़

भारत के हिंदुओं में लगभग 60 हजार जातियां, उपजातियां हैं. पिछड़ी, निचली जातियों में कई भेद हैं और ये आपस में खुद को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ में लगी रहती हैं. धर्मों में हिंदू के अलावा मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी, जैन में एकदूसरे के बीच नहीं, एक ही धर्म में कई पंथ हैं और ये एकदूसरे के कुप्रचार, आपसी मारपीट में लगे रहते हैं. बौद्धों में हीनयान, महायान, जैनियों में श्वेतांबर और दिगंबर भारतभूमि में शैव और वैष्णवों के बीच हिंसा का इतिहास रहा है. रामायण में ब्राह्मण परशुराम द्वारा 21 बार पृथ्वी को क्षत्रियों से मुक्त करने की बात कही गई है. 1947 में भारत विभाजन के वक्त हजारों का कत्लेआम गृहकलह का नतीजा था. 1980 के दशक में खालिस्तान आंदोलन में हजारों लोग मारे गए थे. बाद में इंदिरा गांधी की हत्या से उपजे आक्रोश में 10 हजार से ज्यादा लोगों की हत्या हुई.

फरवरी 1981 में फूलन देवी ने उत्तर प्रदेश के बेहमई गांव के 22 ठाकुरों को गोलियों से भून दिया था. बाद में दलित फूलन समर्थकों और ठाकुरों के बीच वर्षों बदले की भावना में कई खून हुए. आखिर एक ठाकुर युवक ने सांसद बन चुकी फूलन की गोली मार कर हत्या कर दी. बिहार में सालों से ऊंची जाति के भूमिहारों के संगठन रणवीर सेना की दलितों के साथ खूनी रंजिश चलती रही है. जुलाई 1996 में रणवीर सेना ने 21 दलितों को भोजपुर के बढ़ानी टोला में मार दिया था. 1997 में बाथेपुर और संकरबीघा में अगड़ों की इस सेना ने 81 दलितों को मार डाला था. इस से पहले निचली जातियों के नक्सलियों ने ऊंची जाति के भूमिहार व अन्य जातियों के 500 लोगों की जानें ले ली थीं. महाराष्ट्र में मुंबई की रमाबाई दलित कालोनी में अंबेडकर की प्रतिमा तोड़ने पर पुलिस फायरिंग में 10 लोग मारे गए और 26 घायल हो गए थे. अगड़ी और निचली जातियों के बीच प्रदेश में आएदिन झगड़े की वारदातें होती रहती हैं. सितंबर, 1996 में महाराष्ट्र की बहुचर्चित खैरलांजी घटना में पिछड़ी कुनबी जाति के लोगों ने 4 महार दलितों की नृशंस हत्या कर दी थी. भंडारा जिले में खैरलांजी गांव में दलित महिलाओं को नंगा कर गांव में घुमाया गया था. दोनों जातियों के बीच तनाव कायम रहा.

पंजाब में सिखों में ही जटसिख और रामदासिया के बीच खूनखराबा जारी है. दोनों के अलगअलग गुरुद्वारे बने हुए हैं. 2011 में हरियाणा के मिर्चपुर में जाटों की भीड़ ने 2 दलितों को जिंदा जला दिया था. दर्जनों घरों में आग लगा दी गई और लूटपाट की गई. गांव के दलित आज तक वापस लौटने की हिम्मत नहीं कर पाए हैं. राजस्थान में 1999 से 2002 के बीच दलितों पर अत्याचार के औसत 5024 मामले सामने आए. इन में 44 हत्याएं और 138 बलात्कार की घटनाएं थीं. गुजरात में 2002 के दंगों में एक हजार लोग मारे गए थे. इन में ज्यादातर मुसलिम थे. इस से पहले गोधरा में 50 हिंदू मारे गए. बाबरी मसजिद विध्वंस के बाद मुंबई में हुए बम विस्फोटों में 200 से अधिक लोग मारे गए.

कब लेंगे सबक

दक्षिण भारत में भी निचली और पिछड़ी जातियों के बीच संघर्ष चला आ रहा है. यह सब धर्म की सीख के प्रचारप्रसार के बावजूद हो रहा है. हर धर्म में हजारों नए धर्मगुरु पैदा हो गए हैं जो अपने अनुयायियों को धर्म के रास्ते पर चलने की सीख देते रहते हैं. यह धर्म का रास्ता कैसा है जहां आपस में प्रेम, शांति, भाईचारे की जगह परस्पर एकदूसरे की जानें ली जा रही हैं. साफ है जातीय, धार्मिक, नस्लभेद दुनिया की कड़वी सचाईर् है. धर्म ने मानवता को अलगअलग ही नहीं किया, खत्म भी किया. भारत में गृहयुद्ध जैसी यह स्थिति मुगलों और अंगरेजों के समय भी थी लेकिन उन शासकों ने गृहयुद्ध को थामे रखा. जाट, मराठा शासकों ने कुछ नहीं किया. मराठा तो ब्राह्मणों के पिछलग्गू बने रहे. हिंदू शासक खुद बंटे रहे और अपनाअपना साम्राज्य विस्तार तथा एकदूसरे को लूटने में जुटे रहे. आजादी के बाद आई सरकारों ने जाति, धर्म की हिंसा से कोई सबक नहीं लिया जबकि वोटों के लिए जातिवाद को प्रश्रय दिया. जातीय, धार्मिक संगठन खड़े हो गए. हिंदुओं में आजादी से पहले की हिंदू महासभा, मुसलिम लीग, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बाद में विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, जमात-ए-इस्लाम के साथसाथ अन्य कई जातियों के संगठन बने और मजबूत होते गए. इन के नेता बेखौफ हो कर एकदूसरे के खिलाफ आग उगलने लगे.

दलितों और पिछड़ों को लीडरशिप तो मिल गई पर वे खुद को ब्राह्मण समझने लगे और अपनी ही जातियों के अंदर एक नई वर्णव्यवस्था कायम कर ली. दलितों में जो थोड़ा ऊपर उठ गए वे सवर्ण बन बैठे, पिछड़ों में जिन के पास पद, पैसा आ गया, वे ब्राह्मण बन गए. वे अपनी जाति के गरीबों पर अत्याचार करने में जुट गए. असल में यह हिंसा इसलिए बढ़ रही है क्योंकि अब समाज में विचारकों की कमी हो गई है. जो बचे हैं उन की आवाज दबी पड़ी है. आगे बढ़ने की अंधी होड़ में हम अपने को श्रेष्ठ साबित करना चाहते हैं. दूसरा, सरकारों ने निचली जातियों की परवा करनी छोड़ दी है. अब सरकारें अमीरों, कौर्पोरेटों के साथ हो गई हैं. हिंसा करने वाली जातियां और संप्रदायों को रोकना अब मुश्किल है. 18 फीसदी मुसलिमों को रोकना आसान नहीं है, पिछड़ों में ताकतवर जाटों, यादवों, ऊंचे पद और पैसा पा गए दलितों को दबाना अब मुश्किल हो गया है. जातियों की आपसी हिंसा पैसा और राजनीतिक ताकत के बल पर बढ़ रही है. क्या अब देश में गृहयुद्ध के हालात को रोका जा सकेगा?

बदलाव की दरकार

हर देश में धार्मिक, जातीय, सांप्रदायिक संगठन मजबूत हो रहे हैं. इन्हें सरकारों और राजनीतिक दलों का भरपूर समर्थन मिल रहा है. लोग धर्र्म परिवर्तन कर लेते हैं पर वे अपनी सोच नहीं बदलते. एक ही धर्म होने के बावजूद अलगअलग जातियों का अलगअलग आंगन, मैदान, कुआं, नल, तालाब, पूजा का स्थान होगा. यह हर धर्म में है. मजे की बात यह है कि मजहब, जाति, हिंसा की प्राचीनतम मानसिकता, विचारों को नए वैज्ञानिक युग की आधुनिक विचारधारा भी नहीं तोड़ पाईर् है. ऐसे में भारत सहित दुनिया में चल रहे गृहयुद्ध के हालात कैसे खत्म होंगे, यह सवाल बना हुआ है. गृहयुद्ध की स्थिति से उबरने के लिए देश को जातियों, धर्मों के बीच व्याप्त असंतोष को खत्म करना होगा. हर व्यक्ति को, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म, वर्ग से ताल्लुक रखता हो, बराबरी का हक मिले. समानता का व्यवहार मिले लेकिन धर्म, जाति का स्वभाव इस के विपरीत गैर बराबरी वाला है. इस व्यवहार में बदलाव से ही शांति, तरक्की कायम हो सकती है.                     

जनता का भगवापन

याकूब मेमन को फांसी देने पर विवाद उठाने वालों के खिलाफ जिस तरह से भारत की भगवारंगी जनता बौखलाई और फांसी का विरोध करने वालों को देशद्रोही व न जाने और क्याक्या कहने लगी, वह यह दर्शाता है कि भारत की तथाकथित प्रबुद्ध जनता को केवल धर्म का रंगीन चश्मा पहनने की आदत है और वह भारत की विश्व की प्रगति की रेस में पिछड़ने, गरीबों की बढ़ती गिनती, चीन की छलांगों, शासन की दुर्व्यवस्था के प्रति उतना चिंतित नहीं हैं जितना धार्मिक मामलों में भारत विश्व के मुकाबले हर निशान पर पीछे नहीं, कहीं पीछे है और जो देश, 20-30 साल पहले भारत से पीछे थे, आज तेजी से आगे दौड़ रहे हैं. हमारी गति तेज हुई है पर जो हम से आगे हैं, उन की गति इतनी है कि हमारी तेजी के बावजूद हमारा अंतर बढ़ रहा है.

अगर कुछ अच्छा होता दिख रहा है तो केवल यही कि हमारे यहां के अमीर गरीबों का पैसा और ज्यादा सफाई से टैक्सों, मुनाफों, मनोरंजन के साधनों, शराब, लौटरी आदि के जरिए लूट पा रहे हैं और एक विशिष्ट समाज बना पा रहे हैं जो काफी बड़ा है और जिसे दिखा कर विश्व में भारत की धाक जमाई जा सकती है. वरना कहीं भी देख लें, हम पीछे हैं. कृषि उत्पादन को लें. चीन एक हेक्टेअर से 6.5 टन चावल और 4.7 टन गेहूं पैदा करता है, हमारा किसान क्रमश: 3.1 टन और 2.9 टन. इसे पैदा करने के लिए चीन प्रति हेक्टेअर 92 किलो खाद इस्तेमाल करता है तो भारतीय किसान 138.6 किलो. जाहिर है भारतीय किसान की तकनीकी जानकारी और जेब में पूंजी कहीं कम है. किसान ही नहीं, व्यापारी भी पीछे हैं. व्यापार करने की सहूलियतों में भारत का स्थान 189 देशों में 142 है जो पिछले 1 साल में 2 स्थान नीचे और गिर गया. चीन ने पिछले 10-12 सालों में 13 करोड़ नई नौकरियां पैदा कीं पर भारत में पिछले 8 सालों में कोई नौकरी नहीं पैदा हुई. हमारे यहां जो नौकरी पर हैं उन की उत्पादकता कम है, वे झगड़ालू हैं, नया सीखना नहीं चाहते. इन मुद्दों पर हम भारतीयों का खून नहीं खौलता. हिंदूमुसलिम मुद्दे पर हमारा सोशल मीडिया भरा पड़ा है. आप को एक पोस्ट नजर नहीं आएगी कि जो काम करो ढंग से करो, पूरा करो, लग कर करो. एक जन भी सलाह नहीं देगा कि 24 घंटों में 10 घंटे तो काम करो. एक जना यह नहीं बताएगा कि मशीनों से काम ज्यादा कैसे लें. पेड़ों से फल ज्यादा कैसे लें, खेती की उपज कैसे बढ़ाएं. बस, सस्ते चुटकुले सुनवा लो, विधर्मी को गाली दिलवा लो. आजकल भगवारंगी कुछ ज्यादा ही मुखर हो रहे हैं पर इस से बनना नहीं है, सिर्फ बिगड़ना है.

मेमन को फांसी

मुंबई में 1993 में हुए सीरियल बम धमाकों के लिए साधन जुटाने के जुर्म में याकूब मेमन को फांसी दे कर सरकार ने कानून का चाहे अक्षरश: सम्मान किया हो, लेकिन इस के साथ उस ने सामाजिक खाई को और चौड़ा करने का काम भी कर डाला है. आमतौर पर देश में फांसी की सजा देने पर कोई उंगली नहीं उठाता पर इस बार यह मामला तूल पकड़ गया और बहुतों को लगने लगा कि कहीं कुछ गलत हो रहा है जबकि फांसी से कुछ घंटे पहले तक सुप्रीम कोर्ट ने रात 3 बजे विशेष अदालत लगा कर पक्षों को सुना. एक व्यक्ति की मौत की सजा पर इतना विवाद खड़ा नहीं होता चाहे अन्याय ही क्यों न हो रहा हो पर यह मामला इसलिए विशेष हो गया क्योंकि राममंदिर बनाने के आंदोलन को ले कर जो हजारों मौतें हुई हैं उन में अब तक केवल याकूब मेमन को पहली और शायद आखिरी मौत की सजा हुई है.

राममंदिर आंदोलन ने देश के समाज को 2 हिस्सों में ऐसा बांट दिया जो शायद 1947 के विभाजन ने भी नहीं बांटा था. 1947 के विभाजन से पहले देश में छिटपुट धार्मिक दंगे हुए थे पर विभाजन के बाद जिस ने जिस देश में रहना सही समझा, रहता रहा. हिंदू व मुसलमान दोस्त तो न बने पर एकदूसरे को आराम से झेलते रहे. राममंदिर को अयोध्या में बाबरी मसजिद के स्थान पर बनाने की जिद की वजह से पुराने जख्म फिर हरे हो गए और अब तक रिस रहे हैं. हर थोड़े दिन बाद कोई ऐसी घटना हो जाती है जिस के चलते राममंदिर के तेजाब के छींटे किसी पर आ गिरते हैं. याकूब मेमन के प्रति किसी तरह की दया या सहानुभूति दिखाने की वैसे जरूरत नहीं है क्योंकि अगर धार्मिक दंगों को कराने और निर्दोषों की जान लेने जैसा कोई काम किया गया है तो सजा देना गलत नहीं है पर यह सरकार कैसी है जो हजारों हत्याओं के लिए केवल 1 को पकड़ पाई? यह कानून व्यवस्था कैसी, जो बीसियों सालों में हुए धार्मिक दंगों और उन में होने वाली हत्याओं के लिए केवल 1 को सजा दिला पाती है?

यह नहीं भूलना चाहिए कि चाहें या न चाहें हिंदुओं और मुसलमानों को साथसाथ तो रहना ही पड़ेगा. दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं, जहां अल्पसंख्यकों को निकाला जा सका हो. हिटलर ने लाखों यहूदियों को मरवाया और फाइनल सौल्यूशन के नाम पर उन्हें गैस चैंबरों में ठूंसा पर फिर भी वह पूरी तरह उन का सफाया न कर सका, खुद समाप्त हो गया. कम्युनिस्टों ने अमीरों का नामोनिशान मिटाने की कोशिश की पर हरेक को मारना या भगाना उन के लिए भी संभव न हुआ. उन्हें अमीरों को फिर जगह देनी पड़ी. समय तो आया है जब धर्म की कपोल कल्पित श्रेष्ठता का पीछा छोड़ कर हम अपने भौतिक सुखों के लिए काम करें पर लगता है कि सरकार, पार्टियों और बुद्धिजीवियों सब को धर्म से जुड़े बदबूदार घावों को कुरेदने में ज्यादा संतोष मिलता है. भारत ही नहीं, विश्व के कितने ही हिस्से इस बेमतलब के झगड़ों में गले तक डूबे हैं. याकूब मेमन को मौत की सजा उस कीचड़ की एक बूंद भर भी नहीं है विवाद उठाने वालों के खिलाफ जिस में पूरा विश्व लिपटा है.

फिर वही पैंतरे

लोकसभा में बहस के बाद लगता है कि सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चौहान को अपने पदों से फिलहाल तो इस्तीफे नहीं देने होंगे क्योंकि कांग्रेस का दूसरे विपक्षी साथी दलों ने साथ नहीं दिया. पर इस का अर्थ यह नहीं कि यह मामला सुलझ गया है. इन तीनों पर लगे आरोपों को कांग्रेस लोगों के मन पर बैठाने में कामयाब हो गई है. उधर, इस्तीफे न दिलवा कर भारतीय जनता पार्टी ने साबित कर दिया है कि राजनीति के खेल में वह वही पैंतरे अपनाएगी जो कांग्रेस की सरकारें अपनाती रही हैं. भ्रष्टाचार या गलती के लिए चुने हुए नेता त्यागपत्र नहीं देते क्योंकि वे जानते हैं कि चुनाव जीतना और मंत्री पद पाना आसान काम नहीं होता और इस स्थिति तक पहुंचने में उन्हें 15-20 साल लगते हैं. आई शक्ति को सत्ता के सिद्धांतों और आरोपों के नाम पर तो छोड़ने का सवाल ही पैदा नहीं होता. आज राजनीति में जो शामिल है वह देश या समाज सेवा के लिए नहीं है. यह तो धंधा है, व्यवसाय है, पैसा कमाने का जरिया है. इस में पूरे घर का पैसा लगता है और समय भी. अगर आप राजनीति में हैं तो अब और कुछ नहीं कर सकते और जाहिर है कि आप को घर चलाने के लिए, शानोशौकत के लिए, बुरे दिनों को काटने के लिए, चुनाव लड़ने के लिए, आनेजाने के लिए, बच्चों को सैटल करने के लिए पैसा तो चाहिए ही.

ललित मोदी को बचाने व व्यापमं स्कैंडल को छिपाने के लिए भाजपा नेताओं ने जो किया वह अनूठा नहीं था. जो इस गुमान में रहते हैं कि भारतीय जनता पार्टी के नेता किसी और मिट्टी के बने हैं, क्योंकि वे मंदिरों के चक्कर लगाते हैं, हवन करते हैं, स्वामियों के चरण छूते हैं, तिलक लगाए राज चलाते हैं, इसलिए शरीफ हैं, सरासर गलत है. न गांधी टोपी किसी को शुद्ध करती है न भगवा दुपट्टा और न मफलर. ये तो दिखावे हैं. आरोपों के नाम पर इस्तीफे देने का अर्थ है कि दुकान या व्यवसाय बंद कर देना. यह कोई भी नहीं करेगा. सहीगलत की बात बाद में आएगी. हां, जिस दिन आप से ऊपर वाले को लगेगा कि आप उस पर बोझ बन रहे हैं उस दिन आप का जाना तय है. सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे व शिवराज सिंह चौहान को अभी निकालने का अर्थ है विपक्ष और कांग्रेस के हाथ को मजबूत करना और नरेंद्र मोदी यह नहीं करना चाहेंगे.

कांग्रेस के साथ दिक्कत यह है कि वह जब दूसरों पर आरोप लगाती है तो दूसरे गड़े मुरदे उखाड़ लाते हैं और बहस का मुद्दा बन जाता है कि कौन बड़ा बेईमान है. जनता बेचारी तो ठगी रह जाती है. वह तो दोनों तरफ के नेताओं की ज्यादतियों की मारी हो गई है और उस के पास विकल्प न के बराबर हैं. कांग्रेस ने इस बार फिर भी खासी हिम्मत दिखाई. चुनावों में भारी पराजय मिलने के बाद उस ने उसी तरह हिम्मत नहीं हारी जैसे भारतीय जनता पार्टी ने 1984 में नहीं हारी थी जब लोकसभा में उस के केवल 2 सांसद रह गए थे. राजनीति में बने रहना ही कला है. और ये दोनों पार्टियां अब इस में माहिर हैं. राजनीति सुधरेगी, यह उम्मीद जनता अब छोड़ दे क्योंकि वोटिंग मशीनों से एक ही तरह का सड़ा सामान बनेगा.

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