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विज्ञान कोना

मस्तिष्क का सुरक्षा कवच

आप अपनी लाइफस्टाइल में थोड़ेबहुत बदलाव कर अपने दिमाग को ज्यादा लंबे समय तक स्ट्रौंग बना सकते हैं. 5 बातें जान कर आप को शायद भूलने की बीमारी ही न हो या फिर ये आप को भूलने से बचाने में कारगर साबित होंगी. वे बातें हैं–आप धूम्रपान से दूरी बना लें, व्यायाम पर ज्यादा ध्यान दें, अपना वजन कम रखें, शराब का सेवन न करें और प्रोटीनयुक्त डाइट को खाने में प्राथमिकता दें.

ब्रिटेन की एडिनबरा यूनिवर्सिटी में हुई रिसर्च के मुताबिक, डिमैंशिया से निबटने या उसे दूर भगाने के तरीके नहीं हैं. हां, इस के खतरे को कम जरूर किया जा सकता है. रिसर्च के अनुसार, याददाश्त को अच्छा रखने के लिए जो नुस्खे बताए गए हैं वे पहले से ही हमारे शरीर के लिए अच्छे समझे जाते रहे हैं यानी देखा जाए तो इन बातों को मान लेने से आप का फायदा ही होगा, कोई नुकसान नहीं. रिसर्च के दौरान सामने आया कि अगर आप का शरीर मेहनत करेगा तो आप की याददाश्त ज्यादा दिनों तक अच्छी हालत में बनी रहेगी, साथ ही, जो शुरुआत से ही मेहनत से पीछे नहीं भागते उन लोगों के बूढ़ा होने पर अल्जाइमर रोग होने का खतरा भी कम ही रहेगा.

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प्रैग्नैंसी में गैजेट्स से बचें

अगर आप प्रैग्नैंट हैं तो आप को अपने मोबाइल फोन और माइक्रोवेव से खतरा हो सकता है. रिसर्च के मुताबिक, गर्भ में पल रहा बच्चा इन गैजेट्स से डरता है. फोन की रिंगटोन हो या उस में लगा वाइब्रेशन–ये दोनों ही बच्चे को डराते हैं और ऐसा होने से बारबार उस की नींद भी टूटती है. न्यूयौर्क के विकोफ हाइट्स मैडिकल सैंटर के शोध में यह बात सामने आई है. 6 से 9 माह का गर्भस्थ शिशु मोबाइल की रिंगटोन से एकदम चौंकता है. इस के लिए बेहतर है कि आप मोबाइल को अपने से दूर ही रखें और उस की आवाज को भी कम या साइलैंट मोड पर रखें. विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, भू्रण को माइक्रोवेव रेडिएशन का खतरा भी होता है क्योंकि शिशु की त्वचा की परत काफी पतली होती है. प्रैग्नैंसी के दौरान ऐसे उपकरणों से दूरी रखने से आप का बच्चा स्वस्थ बनेगा.

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ग्रीन टी भगाएगी कैंसर

रोजाना एक कप ग्रीन टी न सिर्फ आप की सेहत के लिए अच्छी है बल्कि यह मुंह के कैंसर से लड़ने में भी कारगर होती है. पेनसिल्वेनिया स्टेट यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने एक अध्ययन में पाया कि ग्रीन टी में पाया जाने वाला एक तत्त्व ऐसी प्रक्रिया को शुरू करने में सक्षम है जो स्वस्थ कोशिकाओं को छोड़ कर कैंसरग्रस्त कोशिकाओं को मारती है. ग्रीन टी में पाया जाने वाला एपिगैलोकेटचिन-3- गैलेट में कैंसरग्रस्त कोशिकाओं को मारने की क्षमता होती है.

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गंजे हैं तो नो प्रौब्लम

अगर आप गंजे हैं तो घबराने की या शर्मिंदा होने की जरूरत नहीं.  अमेरिका के सैनफोर्ड बर्नहम मैडिकल रिसर्च इंस्टिट्यूट में हुए शोध में पाया गया कि अब गंजे के सिर पर भी बाल उग सकेंगे. वैज्ञानिकों ने मानव स्टेम कोशिकाओं से बाल उगाने का एक नया तरीका ढूंढ़ निकाला है. बता दें कि यह उपाय आप के द्वारा अपनाए गए बाकी उपायों से कहीं ज्यादा बेहतर साबित हो सकेगा. अभी आप जो उपाय इस्तेमाल करते हैं, उस में हेयर फौलिकल को सिर पर एक जगह से दूसरी जगह प्रत्यारोपित किया जाता है. नए तरीके से आप अनगिनत संख्या में अपने सिर पर बाल उगा पाएंगे. स्टेम कोशिकाएं ही हैं जिन में शरीर के किसी भी अंग की कोशिका के रूप में विकसित होने की क्षमता होती है.            

ईरान-भारत रिश्तों की अहमियत

भारत में सुन्नी मुसलमानों की संख्या शिया मुसलमानों से कहीं ज्यादा है पर फिर भी भारत के लिए शिया बहुल ईरान, शिया बहुल इराक व अन्य शिया बहुल देशों से संबंध सुधारना ज्यादा अच्छा रहेगा, चाहे देश के सुन्नी नाराज रहें. कारण यह है कि पाकिस्तान लंबे समय से सुन्नी मुसलिम देशों का अभयदान पाता रहा है और उन से भारी आर्थिक सहायता लेता रहा है. भारत की विदेश नीति में शिया शासकों से दोस्ती को मजबूत करने को शामिल करना देश की शांति के लिए बहुत जरूरी है. अब तक शिया और सुन्नी मतभेद गौण थे पर जब से इराक का तख्ता पलटा है और सीरिया के शिया शासक व सुन्नी विद्रोहियों में जंग छिड़ी है, यह मामला अहम बनता जा रहा है. कांगे्रस सरकारें सुन्नी मतदाताओं को रिझाने के लिए शिया शासकों को दूसरे दरजे पर रखती रही हैं. जबकि दुनिया के सभी सुन्नी शासकों की पहली पसंद सुन्नी बहुल पाकिस्तान रहा है, भारत नहीं. भारतीय जनता पार्टी, जो सुन्नी मुसलमान वोटरों पर निर्भर नहीं है, इस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार शिया देशों का साथ देगी तो पाकिस्तान के साथ उस की सुन्नी देशों से प्रतिस्पर्धा कम हो जाएगी.

अमेरिका-ईरान समझौते से शिया बहुल देशों में एक नई आशा उमड़ी है. वे ईरानी, जिन्होंने 1 वर्ष से ज्यादा समय तक ईरान की राजधानी तेहरान में अमेरिकी दूतावास के कर्मचारियों को बंदी बना कर रखा था, इस समझौते पर नाराज होने के बदले खुश हैं तो इसलिए कि उन्हें सुन्नी ताकतों के बढ़ने व उन्हें कू्रर व बेरहम होते देख अमेरिकी साथ की जरूरत महसूस होने लगी है. साथ ही, सालों से ईरान पर लगे आर्थिक प्रतिबंधों के हटने से ईरानियों को आशा है कि वहां महंगाई कम होगी और ईरान को उस के तेल के अच्छे दाम मिलने लगेंगे. सुन्नी मुसलमान ही इस्लामिक स्टेट को चला रहे हैं जिन्होंने इराक, सीरिया, मिस्र में तहलका मचा रखा है और जो अलकायदा की जगह ले रहे हैं. अलकायदा आतंकवादी भी सुन्नी ही हैं. पाकिस्तान सरकार व सेना सुन्नी देशों को सैनिक तकनीक व परमाणु बम का संरक्षण दे रही है. पाकिस्तान के पड़ोसी ईरान को इस समय दोस्तों की जरूरत है और भारत एक अच्छा साथी साबित हो सकता है. ईरान से संबंधों को और मजबूती दे कर भारत पाकिस्तान को घेरने में भी सफल हो सकता है. वैसे यह मजेदार बात है, जैसे हमारे इतिहास में दस्युओ और देवताओं के बाद शैवों व वैष्णवों के मध्य भीषण युद्ध हुए, वैसे ही 21वीं सदी में शिया और सुन्नी दोनों इसलाम धर्म के मानने वाले मुसलमान होते हुए भी मारकाट व शहर जलाओ प्रतियोगिता में लगे हैं. स्पष्ट है कि धर्म शांति का जो संदेश देता है वह बातों का है. असल में तो धर्म हिंसा, मौत, लूट, बलात्कार का एजेंट है. धर्म का बिल्ला चाहे जो भी हो, फर्क नहीं पड़ता. अगर धर्मभक्त होंगे तो युद्ध झेलने होंगे ही.

सैनिकों को पैंशन

अवकाशप्राप्त सैनिकों की पैंशन का मामला सरकार के लिए गले की हड्डी बन गया है. देश की सेवा में लगे रहे जवानों व अफसरों को जीवनभर पैंशन दी जाए, यह तो माना जा सकता है पर कितनी, यह सरकार की जेब पर निर्भर करता है. देश सैनिक सेवा के दौरान दिए जाने वाले वेतनों, भत्तों और खर्चों को तो वहन कर सकता है पर जब सैनिक घर आ जाएं तो भी वे मोटा पैसा पाते रहें, यह कुछ अजीब है. सैनिक अवकाश प्राप्ति के बाद हाथ न फैलाएं, यह तो स्वीकार है पर उन का बोझ सरकार और जनता पर जब जरूरत से ज्यादा हो जाए तो खलेगा ही, खासतौर पर जब उन की संख्या बहुत ज्यादा हो, लंबे समय तक पैंशन पाने के अधिकारी हों और अन्य कार्य करते हुए कमाने का हक भी रखते हों. वित्त मंत्री अरुण जेटली के लिए यह मुद्दा बहुत भारी है.

समाचार

प्याज को ले कर मचा हाहाकार प्याज के दामों ने निकाला दम

नई दिल्ली : देश की सियासत को हिलाने की कूवत रखने वाले प्याज का रंग व महक पूरे आलम में आजकल छाई हुई है. ज्यादातर हिंदुस्तानी लोगों का खाना प्याज के बगैर अधूरा रहता है, इसीलिए करीबकरीब हर साल प्याज अपना वजूद जाहिर करने से नहीं चूकता. आमतौर पर 10 से 20 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से बिकने वाला प्याज जब 40-50 का दायरा पार कर लेता है, तो आम लोगों को तकलीफ होने लगती है. आजकल सब्जी मंडी का आलम कुछ वैसा ही है. घटिया प्याज 60 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से मिल रहा है, तो बेहतरीन प्याज 80 रुपए प्रति किलोग्राम की दर पर उपलब्ध है. तमाम दुकानदारों के मुताबिक आने वाले कुछ दिनों में प्याज के दाम 100 रुपए प्रति किलोग्राम भी हो सकते हैं. ऐसे में हाहाकार मचना लाजिम है. भारत की सब से बड़ी थोक मंडी नासिक के लासलगांव में पिछले दिनों प्याज का दाम 4900 रुपए प्रति  कवटल तक पहुंच गया था, जो पिछले 2 सालों का सब से ऊंचा स्तर है. इसी वजह से खुदरा स्तर पर दिल्ली में प्याज के दाम 80 रुपए प्रति किलोग्राम तक पहुंच गए.

नेशनल हार्टिकल्चर रिसर्च एंड डेवलपमेंट फाउंडेशन के निदेशक आरपी गुप्ता के मुताबिक गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश में खेतों से प्याज उखाड़ने में देरी होने की वजह से इस की आपूर्ति में कमी हुई है, नतीजतन कीमतों में इजाफा हुआ है. जल्दी ही इस मामले में राहत मिलने की खास उम्मीद नहीं है, क्योंकि आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र में बरसात कम होने की वजह से खरीफ वाले प्याज के उत्पादन में कमी होने का अंदाजा है. इधर देश में जमा किया गया प्याज का भंडार 28 लाख टन से घट कर आधा यानी करीब 14 लाख टन हो गया है और मौजूदा हालात में प्याज के इस भंडार के लगातार घटने के आसार हैं. केंद्र सरकार इस मामले में लगातार हाथपांव मार रही है. वह 10 हजार टन प्याज के आयात के लिए वैश्विक टेंडर जारी करने को कह चुकी है. पांजब के प्याज वितरक अफगानिस्तान से भी प्याज आयात कर रहे?हैं. केंद्र सरकार की कोशिशों का असर एशिया की प्याज की सब से बड़ी मंडी नासिक के लासलगांव (महाराष्ट्र) और देश की राजधानी दिल्ली की आजादपुर मंडी में कुछ हद तक दिखने लगा है, मगर फिलहाल हालात काबू में नहीं कहे जा सकते. वैसे सरकार ने प्याज की कीमतों पर लगाम लगाने की खातिर निर्यात कीमत को 425 अमेरिकी डालर प्रति टन से बढ़ा कर 700 अमेरिकी डालर प्रति टन कर दिया है. इस के अलावा केंद्र सरकार ने महाराष्ट्र सरकार से प्याज की जमाखोरी के खिलाफ सख्त कार्यवाही करने के लिए भी कहा है. दिल्ली और उस के आसपास के इलाके के लोगों को आंध्र प्रदेश व कर्नाटक से आने वाले प्याज से काफी राहत पहुंचने की उम्मीद है.                    

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किसानों को मिलेंगे 2100 करोड़ रुपए

लखनऊ : बेबस और परेशान गन्ना किसानों को गन्ना मूल्य भुगतान के मामले में अब बड़ी राहत मिलने वाली है. गन्ना मूल्य भुगतान की समस्या से जूझ रहे चीनी कारोबार पर आखिरकार सूबे की सरकार की मेहरबानी हो ही गई. अब उत्तर प्रदेश सूबे की सरकार 28.60 रुपए प्रति क्विंटल की दर से खुद गन्ना मूल्य का भुगतान करेगी. यह रकम कुल मिला कर 2100 करोड़ रुपए बैठती है. इस रकम को सीधे किसानों के खातों में डाला जाएगा. उच्च न्यायालय में गन्ना मूल्य भुगतान पर होने वाली सुनवाई से पहले ही सूबे की सरकार ने तमाम चीनी मिलों और गन्ना किसानों की भलाई के लिए यह अहम फैसला लिया है. गौरतलब है कि पेराई सत्र 2014-15 के लिए गन्ना मूल्य 280 रुपए प्रति क्विंटल तय किया गया था. इस मूल्य में से 240 रुपए का भुगतान गन्ना आपूर्ति के 14 दिनों तक और बाकी 40 रुपए का भुगतान पेराई सत्र खत्म होने के 3 महीने बाद करना तय किया गया?था. पेराई सीजन शुरू होने के वक्त सरकार ने चीनी मिलों को?टैक्स के रूप में 11.40 रुपए प्रति क्विंटल छूट दी थी और चीनी के दाम में गिरावट होने पर उस की भरपाई का वादा किया था.

इस काम के लिए मुख्य सचिव की अध्यक्षता में हाईपावर कमेटी गठित की गई थी. इस कमेटी ने चीनी के दाम में गिरावट होने पर शुगर मिलों को 20 रुपए प्रति क्विंटल की भरपाई करने का फैसला किया. 8.60 रुपए प्रति क्विंटल की नकद मदद का फैसला पहले ही लिया जा चुका है. दोनों फैसलों को मिला कर कुल 28.60 रुपए प्रति क्विंटल की मदद करने का अहम फैसला लिया गया. प्रमुख सचिव ने बताया कि गन्ना मूल्य भुगतान के लिए इतनी तगड़ी राहत राशि देश के किसा अन्य सूबे की सरकार ने नहीं दी, जितनी कि उत्तर प्रदेश सूबे की सरकार ने दी है. उत्तर प्रदेश में चीनी मिलों को?टैक्स में 11.40 रुपए प्रति क्विंटल की छूट दी जा रही?है और 28.60 रुपए प्रति क्विंटल की दर से गन्ना मूल्य सीधे किसानों को दिया जाने वाला?है. यानी इस तरह से कुल मिला कर उत्तर प्रदेश सूबे की सरकार ने चीनी मिलों को 40 रुपए (11.40+28.60) प्रति क्विंटल की राहत दी?है. सरकार के इस कदम को काबिलेतारीफ कहा जाएगा.     

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अब बनेगी किसान डायरेक्टरी

पटना : किसानों को खेती के गुर बताने और उन्हें ट्रेंड करने के लिए बिहार के प्रगतिशील किसानों की मदद ली जाएगी. इस में कृषि वैज्ञानिकों को भी शामिल किया जाएगा. इस के लिए सूबे के प्रगतिशील किसानों की डायरेक्टरी बनाई जा रही है, जिस में किसानों की उपलब्धियों के साथ उन के बारे में पूरी जानकारी मौजूद रहेगी. कृषि महकमे का दावा है कि खेती की ट्रेनिंग ट्रेंड किसानों के जरीए किसानों को देने से किसानों के साथसाथ खेती को भी काफी फायदा पहुंचेगा. किसानों को ट्रेनिंग देने के लिए साल भर का कलेंडर तैयार किया जा रहा है. इस के अलावा प्रगतिशील किसानों को दूसरे राज्यों में भेज कर वहां की खेती के तौरतरीकों से वाकिफ कराने की भी योजना है. किसानों को हर फसल के बेहतरीन उत्पादन के बेहतर तरीके सिखाने के लिए प्रगतिशील किसानों के खेतों तक भी ले जाया जाएगा.

इस के साथ ही हर प्रखंड में एक कृषि वैज्ञानिक को यह जिम्मेदारी दी जाएगी कि वे सरकारी योजनाओं को खेतों में उतारने से पहले अफसरों की मदद करें. वे अनाज उत्पादन से ले कर भंडारण तक के बारे में किसानों को जानकारी देंगे. इस के लिए जिला व प्रखंड स्तर पर वैज्ञानिकों, कृषि विभाग के अफसरों और दूसरे संबंधित विभागों के अफसरों की टीम बनाने पर काम चल रहा है.                    

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बवाल

गन्ने पर विधानसभा में टंटाफसाद

लखनऊ : किसानों को गन्ना दाम भुगतान के मुद्दे को ले कर तमाम विपक्षी दलों के सदस्यों ने विधानसभा में जम कर बवाल किया. उन्होंने खुल कर नारेबाजी की और धरना दिया. गन्ना मूल्य भुगतान की समय सीमा तय न किए जाने से बौखलाए रालोद और कांग्रेस के सदस्यों ने शाम को विधानसभा की कार्यवाही खत्म हो जाने के बाद भी संसद में धरना दिया. आखिरकार करीब 2 घंटे के धरने के बाद विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद ने दखल दे कर यह धरना खत्म कराया. गन्ना किसानों की दिक्कतों पर चर्चा करते हुए रालोद के सुदेश शर्मा ने कहा कि भुगतान न होने से किसान खुदकुशी करने पर मजबूर हो रहे हैं.

कांग्रेस के पंकज मलिक ने कहा कि 43 जिलों के गन्ना किसानों की दिक्कतों की तरफ सरकार का ध्यान ही नहीं?है. बसपा के लोकेश दीक्षित ने कहा कि बागपत के एक गन्ना किसान ने बहन का इलाज कराने में नाकाम रहने पर खुदकुशी कर ली थी. भाजपा के सुरेश राणा ने कहा कि गन्ने से 55 लाख किसान परिवारों के साढ़े 3 करोड़ लोग जुड़े हुए हैं. सूबे की सरकार की ओर से खेलकूद मंत्री रामकरन आर्य ने कहा कि सरकार किसानों को पाईपाई गन्ना मूल्य दिलाएगी.          

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हालात

टमाटर के भी बदलते तेवर

पुणे : इस साल टमाटर का बढि़या उत्पादन होने से थोक बाजार में इस की कीमत काफी नीचे रही, हालांकि बडे़ शहरों के कुछ खुदरा बाजारों में टमाटर की कीमतों में उतारचढ़ाव देखा गया. बता दें कि पिछले 2 सालों में टमाटर के दाम 70-80 रुपए प्रति किलोग्राम तक हो गए थे, पर इस साल थोक बाजार में टमाटर की कीमत कभी ऊपर, तो कभी नीचे रही. आजादपुर मंडी, दिल्ली में टोमैटो ट्रेडर्स एसोसिएशन के एक अफसर ने बताया कि उत्तर भारत के पहाड़ी इलाकों से सप्लाई अच्छी है, जबकि एक्सपोर्ट न के बराबर है. इस वजह से टमाटर की कीमत में उतारचढ़ाव देखा गया. ऐसोचैम की एक स्टडी में कहा गया था कि थोक मंडियों और रिटेल बाजारों की कीमतों में भारी फर्क है. इस वजह से गोभी, आलू, बैगन और टमाटर के दामों में तकरीबन 60.76 फीसदी तक का फर्क हो सकता है. पिछले 2 सालों में अच्छे दाम मिलने से किसानों ने इस बार टमाटर का रकबा बढ़ाया था, पर उम्मीद के मुताबिक टमाटर बिके नहीं. महाराष्ट्र के नासिक बाजार में टमाटर की सप्लाई सामान्य समय से 1 महीना पहले ही शुरू हो गई थी. इस वजह से टमाटर की कीमत काफी नीचे आ गई थी, पर अब फिर से टमाटर आंखें तरेरने लगा है.                     

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इंतहा

प्याज की खातिर इनसान की हत्या

पटना : बिहार के लोग दिल्लीमुंबई जैसे इलाकों में आ कर तो मजबूर व लाचार से नजर आते?हैं, मगर सूबे के अंदर अकसर वे खासे खतरनाक व खूंखार साबित होते?हैं. आजकल प्याज की बदहाली का असर देश के कई इलाकों में छाया हुआ?है. इसी वजह से बिहार के एक होटल मालिक को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. बात बेगूसराय की है. वहां कुछ ग्राहकों ने एक होटल के मालिक का कत्ल महज इसलिए कर दिया, क्योंकि उस ने खाने की थाली में प्याज नहीं परोसा था. हादसा एक रात का है. कुछ लोग खाना खाने के इरादे से बरौनी जंक्शन के पास के ललित नारायण बाजार स्थित सम्राट होटल गए थे. होटल के मालिक मधु कुमार ने जब खाना पेश किया तो उस में प्याज नहीं था. खाने की थाली में प्याज न पा कर ग्राहक बिदक गए और होटल मालिक से लड़ने लगे. जब बात ज्यादा ही बढ़ गई तो उन में से एक ग्राहक ने पिस्तौल निकाल कर मधु पर कई गोलिया चला दीं, नतजीतन आननफानन में मधु की मौत हो गई. महंगा प्याज किस कदर घातक हो सकता?है, इस का अंदाजा इस हादसे से लगाया जा सकता?है. क्या इनसान की जिंदगी इतनी मामूली और सस्ती हो गई है   

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फरमान

किसानों को मुआवजा देने का आदेश

इलाहाबाद : मथुरा के गोकुल बैराज में 11 गांवों के किसानों की जमीनें डूबने के बाद हाईकोर्ट ने उन को राहत पहुंचाने के लिए मुआवजा देने का फरमान सुनाया है. हाईकोर्ट ने आदेश दिया है कि अक्तूबर महीने से हर किसान को 10 हजार रुपए हर महीने मुआवजा दिया जाए. उत्तर प्रदेश सूबे की सरकार को इस मसले पर 29 सितंबर को जवाब देना होगा. जागरूक किसान हेतराम के साथ 4 अन्य किसानों ने इस मुद्दे पर याचिका दाखिल की थी, जिस पर न्यायमूर्ति राकेश तिवारी और मुख्तार अहमद की खंडपीठ ने सुनवाई की. तमाम किसानों का कहना था कि यमुना नदी पर गोकुल बैराज बनाने के लिए उन की जमीनें ली गई थीं. साल 2000 में यह बैराज बन कर तैयार हो गया. इस बैराज में 165 मीटर पानी भरा गया, जिस से आसपास के 11 गांवों की जमीनें डूब गईं. इस से किसानों को खासा नुकसान हुआ. इसी की भरपाई के लिए किसानों ने मुआवजे की मांग की थी, मगर सरकार ने उसे ठुकरा दिया. तब 2013 में चंद किसानों ने हाईकोर्ट में यचिका दाखिल की, जिस का नतीजा सामने है.      

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फैसला

मैगी विवाद सुलझते देख बच्चों में खुशी की लहर

मुंबई : मुंबई हाईकोर्ट का फैसला मैगी के पक्ष में जाते देख बच्चों में खुशी की लहर दौड़ गई. 2 मिनट में बनने वाली मैगी जब से बाजार से गायब हुई है, तब से बच्चों के चेहरे मायूस थे, क्योंकि दूसरी कंपनियों के नूडल्स बच्चों की जबान पर नहीं चढ़े हैं. सुबहसवेरे 2 मिनट में बनने वाली मैगी को बच्चे अपने लंच बौक्स का हिस्सा बनाने लगे थे. हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद मैगी अब जल्दी ही बाजार में दोबारा बिकने की उम्मीद है. हालांकि यह खबर चौंकाती जरूर है, क्योंकि पिछले कुछ दिनों से मैगी में जरूरत से ज्यादा लेड पाए जाने पर काफी बवाल मचा है. मैगी पर बैन लग जाने के बाद मैगी बनाने वाली कंपनी नेस्ले ने ठेके पर काम करने वाले मुलाजिमों को बाहर का रास्ता दिखा दिया था, पर भला हो बांबे हाईकोर्ट का जिस ने मैगी से बैन हटाने का फैसला लिया है. बैन हटाने से पहले बांबे हाईकोर्ट ने मैगी के नमूनों को हैदराबाद, मोहाली और जयपुर की लैबों से जांच कराने को कहा है. अगर मैगी के सारे सैंपल सही पाए जाते हैं, तभी मैगी बाजार में बेची जा सकेगी. साथ ही बांबे हाईकोर्ट ने नेस्ले कंपनी को हिदायत दी है कि वह बैन से पहले वाला स्टाक नहीं बेचेगी.

गौरतलब है कि एफएसएसएआई ने 5 जून, 2015 को मैगी में ज्यादा मात्रा में लेड की मिलावट पाए जाने की शिकायत के बाद उस पर बैन लगा दिया था. हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि बैन लगाने से पहले कंपनी को नोटिस जारी किया जाना चाहिए था. विवाद के बाद से मैगी देश में किसी भी दुकान पर नहीं बेची गई. कंपनी ने मैगी के सारे पैकेट मंगा लिए थे. साथ ही नेस्ले ने मैगी का काफी स्टाक जला दिया था. नेस्ले कंपनी ने भारत में बैन लगने के बाद वही सैंपल विदेश में जांच कराए थे, लेकिन वहां यही सैंपल सही पाए गए, जबकि भारत में उस में अलगअलग रिजल्ट आए. इस से कंपनी का कोर्ट में पक्ष मजबूत हुआ. वहीं नेस्ले कंपनी ने दावा किया है कि भारत में जांच प्रक्रिया ठीक नहीं है. मैगी में लेड और मर्करी की मात्रा मानक के अनुसार ही है. नेस्ले इंडिया की याचिका को मंजूर करते हुए बांबे हाईकोर्ट ने मैगी पर रोक के आदेश को रद्द कर दिया. साथ ही बांबे हाईकोर्ट ने एफएसएसएआई से जवाब भी मांगा है कि आखिर मैगी पर बैन क्यों लगाया गया? बांबे हाईकोर्ट ने अभी नेस्ले कंपनी को मैगी बेचने की अनुमति नहीं दी है. कोर्ट ने कहा है कि जब तक मैगी के सैंपल टेस्ट में पास नहीं हो जाते, तब तक कंपनी बाजार में मैगी नहीं बेच सकेगी. यानी बच्चों को अपनी मनपसंद लजीज मैगी का लुत्फ उठाने के लिए थोड़ा इंतजार करना होगा.                               

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मुहिम

सोलरपंप व सोलरप्लांट योजना

फायदे की योजना पर राजस्थान सरकार ने चलाई कैंची

जयपुर : किसानों के हित व कृषि क्षेत्र में फायदे के लिए चल रही कई तरह की योजनाएं सरकार की उदासीनता व बेरुखी के चलते दम तोड़ती नजर आ रही हैं. पिछली सरकार ने किसानों को खेतीबारी में फायदा पहुंचाने व कृषि क्षेत्र को आधुनिकता की ओर ले जाने के लिए सब्सिडी पर आधारित कई तरह की योजनाएं चलाई थीं, मगर उन के नतीजे उम्मीदों के मुताबिक नहीं कहे जा सकते. सरकार के कृषि व उद्यान महकमे ने साल 2011-12 में सौर उर्जा पर आधारित सोलरपंप योजना, खेततलाई योजना, ड्रिप इरीगेशन सिस्टम, ग्रीनहाउस व पौलीहाउस जैसी ढेरों योजनाएं चलाई थीं, लेकिन इस सत्र यानी साल 2014-15 में इन तमाम योजनाओं के संचालन के लिए किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी को कम कर दिए जाने से ये योजनाएं दम तोड़ती नजर आ रही हैं. इन्हीं योजनाओं में से एक योजना है, सोलरपंप परियोजना. इस योजना में किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी को घटा कर कम कर दिए जाने से उद्यान महकमे द्वारा साल 2014-15 में तय किए गए टारगेट के मुताबिक आवेदन तक नहीं आए हैं. इन में भी अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति वर्ग के तो नाममात्र ही आवेदन आए हैं.

विभागीय अफसरों द्वारा इस की मूल वजह यह बताई जा रही है कि संयंत्र पर कुल लागत में विभागीय अनुदान कम कर दिया गया है. इस में विभाग की ओर से सभी जिलों में वर्गवार लक्ष्य दिए गए हैं, लेकिन लक्ष्यों की पूर्ति नहीं हो पा रही है. गौरतलब है कि किसानों को स्वावलंबी बनाने के लिए उद्यान महकमे की ओर से पंप आधारित परियोजना की शुरुआत साल 2011-12 में की गई थी.  इस में 3 हार्सपावर व 5 हार्सपावर की मोटर के लिए सौर उर्जा प्लांट लगाने पर अनुदान देय था. इस के लिए लागत का कुल 86 फीसदी अनुदान उद्यान महकमे की ओर से दिया जाता रहा है. लेकिन इस साल से विभाग ने अनुदान कम कर दिया है. इस के चलते लक्ष्य के मुकाबले आधे से भी कम आवेदन आए हैं. जयपुर जिले में तो कुल 458 में से 16 ही आवेदन आए हैं.

साल 2014-15 के लिए विभाग ने अनुदान कम कर दिया है. इस में एससी व एसटी वर्ग के लोगों के लिए 2 से 5 एचपी मोटरपंप के लिए 45 हजार रुपए प्रति एचपी का अनुदान तय है, जबकि ओबीसी व सामान्य वर्ग के किसानों के लिए अनुदान 35 हजार रुपए प्रति एचपी के हिसाब से तय किया गया है. उद्यान विभाग की ओर से प्रदेश भर में कुल 5,200 सौर उर्जा आधारित मोटरपंपों का लक्ष्य रखा गया था. वहीं जयपुर जिले में 458 मोटरपंपों का लक्ष्य तय किया गया था, लेकिन लक्ष्य की पूर्ति के लिए आवेदन नहीं आने से लक्ष्य को लगभग दोगुना कर के आवेदन जमा कराने की आखिरी तारीख भी बढ़ा दी गई है. अब 30 नवंबर, 2015 तक आवेदन जमा कराए जा सकेंगे. यही हाल पूरे राज्य का रहा. प्रदेश भर से महज 200 आवेदन ही आए हैं.  

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इन का कहना है

इस साल लक्ष्य के मुकाबले कम आवेदन आए थे. इसे देखते हुए विभाग की ओर से फिर से आवेदन मांगे गए हैं. सब्सिडी घटानेबढ़ाने का फैसला सरकार का है. हम ने जिले में किसानों से फिर से आवेदन मांगे हैं. इस के लिए जिले के सभी कृषि अधिकारियों व पर्यवेक्षकों को निर्देश दिए गए हैं.

– दानवीर वर्मा, डिप्टी डायरेक्टर, कृषि एवं उद्यान विभाग, दुर्गापुरा, जयपुर.

किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी घटाए जाने से किसान सौर उर्जा आधारित पंप परियोजना में रुचि नहीं दिखा रहे हैं. यही हाल ड्रिप इरीगेशन सिस्टम का भी है. सरकार यदि पूर्व में दी जा रही सब्सिडी को जारी रखती तो किसानों के फायदे की ये योजनाएं कामयाब हो कर परवान चढ़तीं.

-वासुदेव शर्मा, कृषि पर्यवेक्षक, उद्यान विभाग जयपुर. 

प्रदेश में किसानों के फायदे की दर्जन भर योजनाएं चल रही हैं, लेकिन इन योजनाओं के संचालन के लिए किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी में कटौती कर के सरकार गलती कर रही है. पंरपरागत तरीके से खेती कर रहे किसानों का रुझान इन योजनाओं के जरीए आधुनिक व तकनीकी खेती की ओर बढ़ रहा है, लेकिन पहले दिए जा रहे अनुदान में कटौती करने का सरकार व विभाग का फैसला इस में भारी अड़चन बन रहा है. 

  -रामकिशन चौधरी, अध्यक्ष, किसान सेवा समिति चाकसू, जयपुर.

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मांग

नालंदा में विदेशी दलहन का जलवा

बिहारशरीफ : बिहार के नालंदा जिले की मंडियों में विदेशी किस्म की दालों और मटर की काफी मांग है. रोजाना करीब 20 क्विंटल दालों की खपत हो रही है. तुर्की की मसूरदाल और आस्ट्रेलिया के मटर को काफी पसंद किया जा रहा है. विदेशी मसूर और मटर की क्वालिटी देसी मूसर और मटर से काफी अच्छी है और खास बात यह है कि इन की कीमत भी कम है. लोकल मूसरदाल जहां होलसेल मंडी में 82 सौ रुपए प्रति पैकेट (50 किलोग्राम) की दर से मिल रही है, वहीं तुर्की की मूसरदाल के 1 पैकेट की कीमत 68 सौ रुपए है. खुदरा बाजार में इस की कीमत 72 रुपए प्रति किलोग्राम है. दाल के कारोबारी रामजी साहू कहते हैं कि पिछले मार्च के महीने में बारिश होने की वजह से नालंदा जिले में रबी की फसलों को बहुत नुकसान हुआ था. डिमांड के हिसाब से सप्लाई नहीं होने की वजह से लोकल दालों की कीमतें बढ़ गई.

इसी का फायदा बड़े कारोबारियों ने उठाया और जिले की मंडियों में तुर्की की मसूरदाल और कनाडा व आस्ट्रेलिया का हरामटर उतार दिया. स्वाद और खुशबू बेहतर होने और कीमत कम होने से लोग इन्हें खूब पसंद कर रहे हैं. देसी मटर की तुलना में विदेशी मटर जल्दी पकता भी है. सीधी सी बात है कि वाजिब दामों पर अगर उम्दा चीजें हासिल होंगी, तो आम जनता द्वारा उन का स्वागत किया ही जाएगा.       

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उतार

चाय एक्सपोर्ट में 90 लाख किलोग्राम की कमी

कोलकाता : इंडियन चाय एक्सपोर्टर्स को विदेशों में चाय की मांग के घटने से खासी परेशानी हो रही है. पिछले 5 महीने में पिछले साल के मुकाबले तकरीबन 90 लाख किलोग्राम चाय का एक्सपोर्ट कम हुआ है. पाकिस्तान और मिश्र दक्षिण भारत से ज्यादा चाय नहीं खरीद रहे हैं, जबकि यूरोप की तरफ  से दार्जिलिंग की चाय में केमिकल के होने की बात पर एतराज जताया गया है. चाय में केमिकल होने का मुद्दा उठने से चाय के एक्सपोर्ट में कमी आई है. दार्जिलिंग के 87 चाय बागानों में सालभर में तकरीबन 90 लाख किलोग्राम चाय पैदा होती है. इस से एक्सपोर्टर्स को अच्छाखासा मुनाफा होता है. इसी तरह पूरे दक्षिण भारत में 20 करोड़ किलोग्राम चाय होती है, जिस में से 10 लाख किलोग्राम चाय एक्सपोर्ट होती है.

यह बात इंडियन टी एसोसिएशन के वाइस चेयरमैन डायरेक्टर आजम मुनीम ने बताई. उन्होंने आगे कहा कि दुनिया के दूसरे देशों में असम की चाय की मांग काफी ज्यादा है. ब्रिटेन, पाकिस्तान और मिश्र में अच्छी क्वालिटी वाली असम की चाय की मांग काफी है. इंटरनेशनल मार्केट में केन्या की चाय की कीमत ़3.5 से 4.5 डालर प्रति किलोग्राम पड़ती है, जबकि अच्छी क्वालिटी वाली असम की चाय की कीमत ़3.5 डालर प्रति किलोग्राम पड़ रही है. पिछले दिनों भारी बारिश के चलते असम में चाय की फसल काफी प्रभावित हुई थी. इस वजह से असम में चाय का उत्पादन कम रहा.                 

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इंतजाम

पाकिस्तानी प्याज पोंछेगा आम लोगों के आंसू

नई दिल्ली : प्याज के दाम सुन कर अच्छेभले भी अब नाकभौं सिकोड़ने लगे हैं. कुछ तो प्याज के दाम सुने बिना ही आगे बढ़ जाते हैं, तो कुछ मोलभाव करने लगते हैं. महंगा प्याज अब आम आदमी की पहुंच से दूर होता जा रहा है. दिल्ली में बढ़ते प्याज के दामों को रोकने के लिए पाकिस्तान सहित दुनिया के दूसरे देशों से भी प्याज मंगाए जाने की तैयारी की जा रही है. प्याज के दाम न बढ़ें, इस के लिए नेशनल एग्रीकल्चरल कोआपरेटिव मार्केटिंग फेडरेशन यानी नेफेड ने पाकिस्तान से 10 हजार मीट्रिक टन प्याज मंगाने के लिए ग्लोबल टेंडर जारी किया है. चूंकि पाकिस्तान और चीन से प्याज लाना सब से आसान है, लिहाजा इस टेंडर में इन दोनों देशों के जरीए प्याज आने की उम्मीद है. उम्मीद तो यह भी है कि प्याज की यह खेप आने के बाद इस की बढ़ती कीमतों को काबू किया जा सकेगा. खुदरा बाजार में प्याज की कीमत तकरीबन 60 रुपए प्रति किलोग्राम तक पहुंच गई है, जबकि थोक में प्याज की कीमत 50 रुपए प्रति किलोग्राम तक है. नेफेड के अधिकारियों के मुताबिक अभी उन का मकसद राजधानी दिल्ली सहित दूसरे इलाकों में प्याज पहुंचाना है.               

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गन्ना समितियों के कमीशन में कटौती

लखनऊ : चीनी के कारखानों और गन्ना किसानों के दर्मियान पुल का काम करने वाली सहकारी गन्ना विकास समितियों को करारा झटका लग सकता?है. चीनी के कारखानों को राहत पहुंचाने के इरादे से प्रदेश सरकार गन्ना समितियों के कमीशन में कमी कर सकती है. प्रमुख सचिव ‘चीनी उद्योग एवं गन्ना विकास’ राहुल भटनागर और गन्ना आयुक्त सुभाष चंद्र शर्मा ने तमाम गन्ना समितियों के अध्यक्षों को इस बात के संकेत दिए?हैं. आमतौर पर गन्ने की आपूर्ति के लिए तमाम चीनी मिलें अपने इलाके की गन्ना समितियों से करार करती?हैं. करार के बाद समितियों के सदस्य बेसिक कोटे के हिसाब से चीनी मिलों को गन्ना मुहैया कराते?हैं. इलाके के किसानों को बीज, खाद और कृषि मशीनें वगैरह मुहैया कराने के अलावा समितियों का अहम काम गन्ने का सर्वे करना और तोल के लिए पर्ची जारी करना?है. इस काम के बदले चीनी मिलें इन गन्ना समितियों को केंद्र सरकार द्वारा घोषित उचित व लाभकारी मूल्य पर 3 फीसदी कमीशन देती हैं. मगर मिलों के हित में सरकार कमीशन घटाने पर विचार कर रही?है.               

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खोज

बाढ़ को मात देगी राजेंद्र मसूरी

पटना : बाढ़ से ग्रस्त सभी राज्यों के लिए चावल की नई वेराइटी ‘राजेंद्र मसूरी’ काफी मुफीद साबित होगी. भयंकर बाढ़ के बीच भी इस किस्म के पौधे सीना तान कर खेतों में खड़े रहेंगे और नहीं गलेंगे. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के वैज्ञानिकों का दावा है कि राजेंद्र मसूरी के पौधे 20 से 25 दिनों तक बाढ़ के पानी में डूबे रहने के बाद भी न सड़ेंगे और न ही गलेंगे. चावल की इस नईनवेली किस्म पर पिछले 5 सालों से लगातार रिसर्च चल रही थी. परिषद अगले 2 सालों में इस किस्म को किसानों को मुहैया कराएगी. बाढ़ के असर वाले इलाकों के किसानों के लिए यह किस्म भरपूर मुनाफा देने वाली साबित होगी. यह किस्म किसानों को प्रति एकड़ 50 क्विंटल धान की उम्दा फसल देगी. इस किस्म की सब से बड़ी खासीयत यह है कि बाढ़ के पानी में डूबने पर इस के पौधे काम करना बंद कर देते हैं यानी पूरी तरह से नींद में चले जाते हैं. पानी उतरने के बाद वे फिर से काम करना शुरू कर देते हैं. चावल की बाकी किस्में पानी में डूबने के 8-10 दिनों बाद ही सड़ जाती हैं. बिहार के बाढ़ग्रस्त जिलों मुजफ्फरपुर, मधुबनी, दरभंगा, सुपौल, सहरसा, समस्तीपुर, छपरा, गोपालगंज, पूर्वी चंपारण व पश्चिमी चंपारण में चावल की राजेंद्र मसूरी किस्म किसानों की मेहनत और पूंजी को डूबने नहीं देगी.         

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मुद्दा

 

राजधानी में हो किसान स्मारक

नई दिल्ली : 10 अगस्त, 2015 की सुबह हजारों किसान जंतरमंतर पर थे. स्वराज अभियान के संयोजक योगेंद्र यादव ने किसानों की आवाज बुलंद करते हुए उन्हें भविष्य की कृषि का सपना दिखाया. सुबह होते ही जंतरमंतर पर दूरदूर से बसों और दूसरे साधनों से किसानों के जत्थे पहुंचने लगे. 10 बजने तक भारी तादाद में किसान पहुंच गए थे. खेती करने वाले लोगों के हुजूम में सिर्फ  पुरुष किसान ही नहीं, बल्कि महिलाएं भी थीं. इस रैली में जुटी महिलाओं का जोश देखते ही बनता था. मंच के सामने एक पाइप से सैकड़ों मिट्टी के कलश टांगे गए थे. इन कलशों में देश के तमाम इलाकों से गांवों के खेतों की मिट्टी यहां भेजी गई थी. प्रोफेसर आनंद कुमार ने दिल्ली के रेसकोर्स की जमीन को किसानों की जमीन बताते हुए वहां पर यादगार किसान स्मारक बनाने की मांग की. दिन की चिपचिपाहट भरी गरमी में चारों तरफ  लाउडस्पीकरों के शोर में हजारों किसान सड़क पर बैठ कर अपने नेताओं की बातों को पूरे ध्यान से सुन रहे थे.  किसानों की मुख्य मांगें इस प्रकार थीं:

भूमि अधिग्रहण कानून का 2015 में लाया गया बिल वापस लिया जाए.

हर किसान परिवार को 15 हजार रुपए हर महीने आमदनी की गारंटी मिले.

हर भूमिहीन परिवार को 2 एकड़ जमीन मिले.

कुदरती आपदा के दौरान फसल के नुकसान की हर हाल में भरपाई हो.

रेसकोर्स की जमीन किसानों की है, उस जमीन पर किसान स्मारक बने.                ठ्ठ

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हूलियत

मोबाइल पर मिलेगी राशन की खबर

चंडीगढ़ : हरियाणा में अब राशन लेने के लिए दुकानों पर लंबीलंबी लाइनों में नहीं लगना पडे़गा. अब यह जानकारी मोबाइल फोन में आ जाएगी. हरियाणा में अब पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम यानी पीडीएस के जरीए राशन लेने वाले उपभोक्ताओं को राशन आने की जानकारी उन के मोबाइल फोन पर मिलेगी. इस के लिए पीडीएस सिस्टम को माहिरों द्वारा पूरी तरह डिजिटल किया जाएगा. यह जानकारी खाद्य व आपूर्ति मंत्री कर्णदेव कांबोज ने एक बैठक में दी. उन्होंने कहा कि पीडीएस सिस्टम के तहत गांवों में बांटे जाने वाले आटा, दाल, चावल, चीनी, तेल और दूसरी चीजों की सूचना अब उपभोक्ताओं को उन के मोबाइल फोन पर दी जाएगी. इस के लिए पंचकूला में 20 डिपो होल्डर्स को चुन लिया गया है. उन का यह भी कहना है कि भ्रष्टाचार पर शिकंजा कसने और किसानों को उन की फसल की वाजिब कीमत दिलाने के लिए एक नई व्यवस्था लागू की जाएगी. इस के तहत किसानों की ओर से बेची गई फसल का पूरा भुगतान चेक से किया जाएगा. इस से किसानों को बिचौलियों से नजात मिलेगी.  

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मुहिम

खेती को बचाने के लिए सरकार हर मुमकिन कोशिश करेगी : बादल

संगरूर : खेती करने में आ रही परेशानियों को दूर करने और किसानों द्वारा की जा रही खुदकुशी को रोकने की खातिर तुरंत कदम उठाए जाने की सख्त जरूरत है. मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने खेती को फायदेमंद बनाने के लिए तुरंत एक कमेटी बनाने व उस के सुझाव प्राप्त कर उन्हें जल्द से जल्द लागू करने का ऐलान किया है. उन्होंने कहा कि देश में खेतीबारी इस समय गंभीर संकट के दौर से गुजर रही है, जो हमारा सब से अहम काम है.  उन्होंने केंद्र की मौजूदा सरकार व पिछली सरकारों से कई बार बात की और फसलों की कीमतें स्वामीनाथन कमेटी के अनुसार तय किए जाने की मांग की, पर नतीजा कुछ नहीं निकला. उन का कहना है कि इस बारे में अगर तुरंत कारगर कदम न उठाए गए, तो पूरी खेती तबाह हो सकती है. वहीं मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने माना कि आज भी शहीदों द्वारा देश को ले कर देखे गए सपने अधूरे हैं. देश में लोग गरीब हैं, अनपढ़ हैं. साथ ही बुनियादी सुविधाओं की कमी है और लोग रोजगार की समस्या से जूझ रहे हैं. पंजाब सरकार लोगों को तालीम देगी, सेहत की सुविधाएं मुहैया कराएगी और बुनियादी सुविधाएं देने की कोशिश करेगी. उन्होंने इस बात की उम्मीद जताई की जल्द ही हालात बेहतर होंगे.          

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फुजूल

बेकार साबित हो रही कृषक दुर्घटना बीमा योजना

लखनऊ : कृषक दुर्घटना बीमा योजना आड़े वक्त में किसानों की मदद के लिए बनाई गई थी, मगर किसानों को इस का पूरा फायदा नहीं मिल पा रहा है. बजट की तंगी ने इस योजना का वजूद ही बिगाड़ दिया है. तमाम किसानों को जबतब मदद की दरकार रहती है, लेकिन जरूरत पड़ने पर यह योजना उन्हें धता बता देती है. ऐसी बातों से ही किसानों का सरकारी योजनाओं से यकीन उठ जाता है और वे खुद को लाचार समझ बैठते हैं, जो कि हकीकत है. सरकार ने पिछले दिनों 200 करोड़ रुपए के बजट का इंतजाम किया था, लेकिन वह जरूरत के मुताबिक बेहद कम था. 5 हजार से ज्यादा किसानों की पैसे की किल्लत इस से दूर होने वाली नहीं. उत्तर प्रदेश सूबे के ढाई करोड़ खातेदार, सहखातेदार किसानों के लिए कृषक दुर्घटना बीमा योजना लागू है. इस में बाढ़ आने, आग लगने, बिजली गिरने, मकान गिरने, वाहन ऐक्सीडेंट होने, डकैती पड़ने, आतंकवादी हादसा होने, फसाद या मारपीट होने और नदीतालाब वगैरह में डूबने जैसी वजहों या किसी अन्य हादसे में मरने पर 5-5 लाख रुपए की मदद की जाती?है. स्थायी अपंगता या ज्यादा जिस्मानी नुकसान होने पर 50-25 फीसदी तक खर्च में मदद दी जाती है.

मगर आलम यह है कि सूबे के किसानों की ओर से मदद की अर्जियां लगातार आने के बावजूद जिलों को पैसे नहीं मुहैया हो पाते. मुख्य सचिव आलोक रंजन द्वारा कृषक दुर्घटना बीमा योजना की समीक्षा किए जाने के बाद इन हकीकतों का खुलासा हुआ. दरअसल कृषक दुर्घटना बीमा योजना का संचालन किसी बीमा कंपनी के जरीए होना चाहिए, जिस के लिए सरकार की तरफ से कंपनी को प्रीमियम देने का इंतजाम है. लेकिन पिछले कई सालों से किसी न किसी वजह से ऐसा नहीं हो पा रहा, लिहाजा सरकार कलेक्टरों के जरीए किसानों के दावों का भुगतान कराती है. फिलहाल इस योजना के लिए 500 करोड़ रुपए से ज्यादा की दरकार है.                     

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कदम

18 लाख क्विंटल चीनी पर कब्जा

सीतापुर : एक ओर उत्तर प्रदेश सूबे की सरकार चीनी मिलों को अपनी तरफ से हर मुमकिन मदद दे रही है, तो दूसरी ओर मजबूरन कुछ सख्ती भी बरतनी पड़ रही है. कुल मिला कर सरकार का मकसद भुगतान के झमेले को निबटाना ही है. इसी के तहत जिला प्रशासन ने जिले की 4 चीनी मिलों की करीब 18 लाख क्विंटल चीनी अपने कब्जे में ले ली है. जाहिर है कि यह कदम मिलों द्वारा किसानों को गन्ने का बकाया मूल्य भुगतान न करने पर उठाया गया ह . अब प्रशासन यह चीनी बेच कर किसानों को भुगतान करेगा. कब्जे में ली गई इस चीनी का बाजार मूल्य करीब 4 अरब 61 करोड़ रुपए है. इस कार्यवाही से किसानों को अपना बकाया मिलने की उम्मीद जगी है. जिले की इन चीनी मिलों पर किसानों का 35849.29 लाख रुपए का बकाया है. भुगतान करने के लिए उच्च न्यायालय के निर्देशों के बाद प्रशासन की तरफ से सब से ज्यादा बकाए वाली हरगांव चीनी मिल पर केस दर्ज कराते हुए वसूली को ले कर आरसी भी जारी की जा चुकी?है, लेकिन इस के बाद भी भुगतान के मामले में चीनी मिलें सजग नहीं हुईं. मजबूरन डीएम सूर्यपाल गंगवार ने निजी क्षेत्र की हरगांव, जवाहरपुर, रामगढ़ व बिसवां चीनी मिलों की चीनी को ज्वाइंट कस्टडी में ले लिया. जिला प्रशासन द्वारा मजबूरी में उठाए गए इस कदम से तमाम मिलों को सचेत हो जाना चाहिए कि अगर वे गन्ना मूल्य भुगतान में गड़बड़ी करेंगी तो अंजाम अच्छा नहीं होगा.    

   

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सवाल किसानों के

सवाल : मेरे टमाटर के पौधों में फल आ तो खूब रहे हैं, मगर कुछ फलों का आकार टेढ़ा सा हो रहा है. कुछ फलों में छेद भी नजर आ रहे हैं. कृपया वजह व इलाज बताएं?

-रत्नेश, बरेली, उत्तर प्रदेश

जवाब : ऐसा फलबेधक कीट के कारण हो रहा है, इस कीड़े की झल्लियां हरे फलों में घुस जाती हैं और फलों को प्रभावित करती हैं. रोकथाम के लिए फ्लूबेंडामाइड या साइनोसैड की 75 मिलीलीटर दवा को 250 लीटर पानी में घोल कर 1 एकड़ खेत में छिड़काव करें या कार्बोसिल्फान की 250 ग्राम दवा को 250 लीटर पानी में घोल कर 1 एकड़ में छिड़काव करें.

सवाल : आजकल बाजार में जो अदरक आ रहा है, वह बहुत जल्दी खराब हो जाता है. ऐसा किस वजह से है?

-कुच्चन, झांसी, उत्तर प्रदेश

जवाब : आजकल जो अदरक बाजार में आ रहा?है, उस के खराब होने की वजह यह है कि उस की समय से पहले ही कच्ची खुदाई की गई?है.

सवाल : मुझे फलफूल व सब्जियां वगैरह उगाने का बहुत शौक?है. मेहरबानी कर के बताएं कि सितंबरअक्तूबर के दौरान कौनकौन से फूलों व सब्जियों के पौधे लगाने चाहिए?

-संध्या श्रीवास्तव, कर्वी, मध्य प्रदेश

जवाब : सितंबरअक्तूबर में लगाए जाने वाले फूल हैं:

गेंदा, गुलदाउदी, डहेलिया, कोसमोस, कारनेश, केंडीटफ्ट, हालीहोक, फ्लोक्स, कार्नफ्लोवर व पोपी वगैरह. 

सितंबरअक्तूबर में लगाई जाने वाली सब्जियां निम्नलिखित हैं: गाजर, पालक, मिर्च, फूलगोभी, पत्तागोभी, चाइना कैबेज, ब्रोकोली व मटर वगैरह.

सवाल : बकरी का दूध बहुत फायदेमंद व महंगा बताया जाता है. क्या बकरी पालना फायदे का काम हैइस बारे में पूरी जानकारी दें?

-बबलू, सोनिया विहार, दिल्ली

जवाब : बकरीपालन एक लाभकारी व्यवासय है. बकरी का दूध छोटे बच्चों के लिए बहुत फायदेमंद होता?है. यह डेंगू के मरीज के लिए भी बहुत फायदेमंद होता है. बकरी का दूध हमारे शरीर के अंदर प्लेटलेट्स की मात्रा बढ़ाता है, इसीलिए यह काफी महंगा बिकता है. बकरीपालन फायदे का सौदा है. इस के लिए बकरी की उन्नत नस्लों की जानकारी होना बहुत जरूरी है. बकरी की कुछ अच्छी नस्लें निम्न हैं:

जमुनापारी : यह उत्तर प्रदेश के इटावा जिले के चकरनगर क्षेत्र और उस के आसपास के क्षेत्र में पाई जाने वाली नस्ल है.

बरबरी : यह उत्तर प्रदेश के आगरा, मथुरा, हाथरस व एटा जिलों में पाई जाती है.

बीटल : इस नस्ल की बकरियां पंजाब के गुरदासपुर, अमृतसर व फिरोजपुर में पाई जाती हैं.

जखराना व सिरोही : ये बकरियां राजस्थान के अलवर व सिरोही जिलों में मिलती हैं.      

डा. अनंत कुमार व डा. प्रमोद मडके
कृषि विज्ञान केंद्र, मुरादनगर, गाजियाबाद

पथरीली जमीन में पैदा होगी लीची

झारखंड की पथरीली जमीन पर लीची पैदा करने की कवायद शुरू की गई है. फिलहाल राज्य के कुछ हिस्सों में ही लीची की पैदावार होती है. लीची की मांग बढ़ने की वजह से अब नएनए इलाकों में लीची के उत्पादन की कोशिशें शुरू की गई हैं. झारखंड जैसे पहाड़ी राज्य में वैज्ञानिक तरीके से लीची की खेती की शुरुआत की गई है. लीची के लिए सामान्य पीएच मान वाली गहरी बलुई दोमट मिट्टी मुनासिब होती है. जहां मिट्टी की पानी रखने की कूवत ज्यादा होती है, वहां लीची की बेहतर पैदावार होती है. अब हलकी अम्लीय और लेटराइट मिट्टी में भी लीची की खेती होने लगी है  झारखंड के कृषि वैज्ञानिक डाक्टर मथुरा राय बताते हैं कि झारखंड के बागबानी एवं कृषि वानिकी शोध कार्यक्रम ने लीची की स्वर्ण रूपा किस्म को झारखंड के लिए मुनासिब करार दिया है. यह छोटा नागपुर के पठारी इलाके के लिए बहुत ही मुनासिब है. इस किस्म की लीची के फल चटखन की समस्या से मुक्त होते हैं. इस के फलों का रंग गुलाबी होता है और आकार छोटा होता है. इस के फल काफी मीठे होते हैं.

लीची की 3 खास किस्में हैं शाही, चाइना और स्वर्ण रूपा. शाही लीची की सब से ज्यादा पसंद की जाने वाली किस्म है. इस के फल गोल और गहरे लाल रंग के होते हैं और फल में गूदे की मात्रा काफी ज्यादा होती है. इस किस्म के 15 से 20 साल के पेड़ से 80 से 100 किलोग्राम लीची के फल मिलते हैं. चाइना किस्म की लीची देर से पकती है और इस के पेड़ बौने होते हैं. इस के भी फल लाल और ज्यादा गूदे वाले होते हैं. इस का पूरी तरह से तैयार पेड़ 60 से 80 किलोग्राम लीची देता है. लीची के पेड़ को पूरी तरह से तैयार होने में 15-16 साल लग जाते हैं. शुरुआती दिनों में लीची के पौधों के बीच खाली पड़ी जमीन में दलहनी फसलें और सब्जियां लगा कर किसान अच्छी कमाई कर सकते हैं. इस से मिट्टी की उर्वरा शक्ति का भी विकास हो जाता है. कृषि वैज्ञानिक डाक्टर विशाल नाथ बताते हैं कि नए शोधों से पता चला है कि लीची के बागों में पूरक पौधों के रूप में अमरूद, शरीफा और पपीते जैसे फलदार पेड़ भी लगाए जा सकते हैं. इन पौधों को लीची के 2 पौधों के बीच में 5×5 मीटर की दूरी पर लगा सकते हैं. 1 हेक्टेयर खेत में लीची के 100 पौधे और 300 पूरक पौधे लगाए जा सकते हैं. लीची अपनी मिठास और स्वाद की वजह भारत ही नहीं विदेशों में भी काफी मशहूर है. चीन के बाद लीची उत्पादन में भारत का ही नंबर है. इस की खेती के लिए खास जलवायु और मिट्टी की जरूरत होती है, इसलिए हर जगह इस की खेती नहीं हो सकती है. उत्तरी बिहार, देहरादून की घाटी, उत्तर प्रदेश के तराई इलाकों और पश्चिम बंगाल, हरियाणा व पंजाब के कुछ इलाकों में भी इस की खेती की जा रही है. झारखंड के रांची और पूर्वी सिंहभूम में लीची की पैदावार तेजी से बढ़ रही है. लीची के जैम, और स्क्वैश की इंटरनेशनल मार्केट में खासी मांग है.                              

पथरीले इलाकों में

ऐसे पैदा करें लीची

* मंजर आने के 3 महीने पहले पौधों में सिंचाई न करें और उस के आसपास दूसरी फसलें न लगाएं.

* मंजर आने के 30 दिनों पहले पौधों पर जिंक सल्फेट (2 ग्राम प्रति लीटर पानी में मिला कर) डालें और 15 दिनों बाद दूसरा छिड़काव करें. इस से मंजर और फूल अच्छे आते हैं.

* फल आते समय कीटनाशी दवाओं का छिड़काव न करें.

* लीची के बगीचे में मधुमक्खी के छत्ते रखने से लीची का शहद भी हासिल किया जा सकता है.

* फल लगने के 1 हफ्ते बाद प्लैनोफिक्स (2 मिली लीटर प्रति 4.8 लीटर) या एनएए (20 मिलीग्राम प्रति लीटर) का छिड़काव करने से फलों को झड़ने से बचाया जा सकता है.

फल लगने के 15 दिनों के बाद 15-15 दिनों के अंतराल पर बोरिक एसिड (4 ग्राम प्रति लीटर पानी) या बोरेक्स (5 ग्राम प्रति लीटर पानी) का छिड़काव करने से फल कम झड़ते हैं और फलों की मिठास भी बढ़ती है.      

मिलावटी खाद : किसानों की फसल और पैसा दोनों बरबाद

फल, सब्जी व अनाज की पैदावार बढ़ाने में रासायनिक खादों का इस्तेमाल बहुत मददगार साबित हुआ है, लेकिन अब महंगी खादों की आड़ में किसानों की जेबें कट रही हैं. ऊपर से खाद अब 100 फीसदी खालिस मिलनी मुश्किल हो रही है, लिहाजा खेत में डाली खाद का असर आधाअधूरा दिखता है.दरअसल खरीफ की फसलों के लिए अप्रैल से सितंबर तक व रबी के लिए अक्तूबर से मार्च तक मांग बढ़ने से खादों की किल्लत मची रहती है. ऐसे में खादों की कालाबाजारी होती है. साथ ही मिलावटखोरों की पौ बारह हो जाती है. इस खेल से नफा  चालबाजों का व नुकसान किसानों व उन की फसलों का होता है.

खादों में मिलावट के 3 तरीके हैं. पहला तरीका है खाद की नकली बोराबंदी यानी बोरे पर किसी नामी कंपनी का नामनिशान छपा होता है, पर उस के अंदर घटिया खाद भरी होती है. इस के लिए मशहूर कंपनियों की खादों के खाली बोरे खरीद कर उन में नकली खादें भर दी जाती हैं.दूसरे तरीके के तहत महंगी खादों में सस्ती खादें मिलाई जाती हैं और तीसरे तरीके में खाद में नमक व रेत वगैरह मिलाया जाता है. यूरिया में नमक, सिंगल सुपर फास्फेट में बालू व राख, कापर सल्फेट, फेरस सल्फेट व म्यूरेट आफ पोटाश में रेत व नमक मिलाया जाता है. डीएपी में दानेदार सिंगल सुपर फास्फेट व राक फास्फेट, एनपीके में सिंगल सुपर फास्फेट या राक फास्फेट, जिंक सल्फेट में मैगनीशियम सल्फेट मिला दिया जाता है.

जब मैगी के मामले में सरकार कड़े कदम उठा सकती है, तो किसानों के काम आने वाली महंगी खाद में मिलावट का मसला हमारे ओहदेदारों को अंदर तक आखिर क्यों नहीं झकझोरता? दरअसल किसानों की परवाह महज चुनावों के पहले की जाती है और खेती को बढ़ावा देने जैसी बातें फकत वोटों के लिए होती हैं.

ढीली लगाम

खाद में मिलावट रोकने, नमूने लेने व जांचपरख का सरकारी इंतजाम व कायदेकानून हैं, लेकिन सरकारी घोड़े कागजों पर ही ज्यादा दौड़ते हैं. इसीलिए खाद में हो रही मिलावट रोके नहीं रुकती. इस का बड़ा कारण सरकारी मुलाजिमों की मिलीभगत, उन का निकम्मापन व नीचे से ऊपर तक पसरा भ्रष्टाचार है. बीते 5 सालों में भरे गए खाद के कुल 6,44,983 नमूनों में से 32,283 नमूने फेल हो गए थे.गौरतलब है कि बीते 5 सालों में खादों के जितने सैंपल भरे गए, उन में फेल सैंपलों की गिनती 5 फीसदी के आसपास बनी रही. लैब के भ्रष्ट मुलाजिमों की घूसखोरी व मिलीभगत से जांच रिपोर्टें बदल दी जाती हैं और दिखावे के लिए 5 फीसदी मिलावट की रस्म अदायगी हो जाती है.मिलावटी खादों पर नकेल कसने के इंतजाम आधेअधूरे हैं, लिहाजा मिलावटखोर जल्दी नहीं पकड़े जाते. जो पकड़े जाते हैं, उन पर सख्त कार्यवाही नहीं होती है. इतने बड़े कृषि प्रधान देश में साल 2009 तक खाद की क्वालिटी जांचने के लिए सिर्फ 74 लैबें ही थीं, जिन की सालाना कूवत 1,32965 नमूने जांचने की थी.साल 2014 तक खाद प्रयोगशालाओं की गिनती बढ़ कर 78 हुई व नमूने जांचने की कूवत 1,52,470 हो गई, लेकिन दिल्ली, गोवा, त्रिपुरा, नागालैंड, मणीपुर, मेघालय, सिक्किम, अरुणांचल प्रदेश व पांडिचेरी के अलावा संघ शासित राज्यों में खाद जांचने की कोई क्वालिटी कंट्रोल लैब नहीं है.

गांवगांव घूम कर खादों का सही इस्तेमाल सिखाने व मिट्टी की जांच कराने के लिए देश में 123 घुमंतू लैबों की मोबाइल वैनें चल रही हैं, लेकिन किसान नहीं जानते कि वे न जाने कहां, कब घूमती हैं? यदि महीने में 1 बार वे सभी कृषि विज्ञान केंद्रों पर आ जाएं तो मिलावटी खादों की दिक्कतें कम हो सकती हैं.फर्टीलाइजर कंट्रोल आर्डर 1985 के तहत सरकारी लिस्ट में कुल 29 तरह की खादें हैं, उन में से सिर्फ 14 को ही खास बढ़ावा दिया जाता है. अब देश में नीम लेपित खाद ही बनेगी. पिछले दिनों 6 सरकारी खाद कारखानों को आगे लाया व बढ़ाया गया ताकि उन का उत्पादन बढ़े व जरूरत के मुताबिक खाद अपने देश में ही बने.उत्तर भारत के ज्यादातर इलाकों में खादों में मिलावट के मामले ज्यादा मिलते हैं. इस की वजह यह भी है कि इधर ज्यादातर किसान अब हरी, कंपोस्ट व गोबर की खादें बनाने को झंझट व अंगरेजी खादें डालने को आसान समझते हैं. ऐसे में अंगरेजी खादों का इस्तेमाल इतना ज्यादा है कि उन का आयात होता है.साल 2012-13 में 49,460 करोड़ रुपए की व साल 2013-14 में 39,261 करोड़ रुपए की अंगरेजी खादों का आयात किया गया था.

बढ़ती मांग

खादों में मिलावट की वजह कीमतों व मांग में बढ़ोतरी भी है. साल 2011-12 में यूरिया की खपत 295 लाख टन, 2012-13 में 300 लाख टन व साल 2013-14 में 306 लाख टन हुई थी. इस दौरान डीएपी की खपत क्रमश: 101, 91 व 73 लाख तथा एनपीके की खपत क्रमश: 277, 255 व 244 लाख टन थी. जाहिर है कि देश में यूरिया की खपत सब से ज्यादा होती है और इस में लगातार इजाफा हो रहा है.अंगरेजी खाद की सब से ज्यादा खपत पंजाब में प्रति हेक्टेयर 250 किलोग्राम, बिहार में 212 किलोग्राम व हरियाणा में 207 किलोग्राम है. उड़ीसा में अंगरेजी खाद की प्रति हेक्टेयर खपत 90 किलोग्राम, राजस्थान में 51 किलोग्राम व हिमाचल प्रदेश में 50 किलोग्राम है. खाद की सब से कम खपत पूर्वोत्तर राज्यों में सिर्फ 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर से भी कम है. उधर के किसान देसी खादों पर ज्यादा भरोसा करते हैं. वे बिना खाद व दवा की फसलें उगा कर ज्यादा दाम पाते हैं.

खादों की किल्लत क्यों

किसानों को वक्त पर खादें मुहैया कराने के लिए केंद्र सरकार का खेती महकमा हर सीजन में खादों की मांग का अंदाजा लगाता है. इस में उर्वरक मंत्रालय, राज्य सरकारों व संबंधित एजेंसियों से राय ली जाती है. इस के अलावा फसलों के रकबे, सिंचाई, पिछले सीजन की खपत व माहिरों की सिफारिशों को भी ध्यान में रखा जाता है. इस के बावजूद हर बार सारे आंकड़े, अनुमान व प्रोग्राम फेल हो जाते हैं, क्योंकि सरकारी दफ्तरों में फाइलें कछुए की चाल से आगे बढ़ती हैं. इस के बाद खादें ढोने के लिए रेल वैगनों की जरूरत होती है. तमाम वजहों से खादें वक्त पर पूरी मात्रा में नहीं मिलतीं. ऐसे में खादों में मिलावट करने वालों का धंधा तेजी से चल निकलता है.

उपाय

हालांकि आम किसानों के लिए मिलावटी खादें पकड़ना आसान नहीं हैं, फिर भी खुली खादें कभी न खरीदें. किसान इफको व कृभको की खादें कोआपरेटिव सोसायटी से लें या फिर किसी नामी कंपनी की खाद भरोसे की दुकान से खरीदें. खाद लेते वक्त रसीद व बोरे की सिलाई अच्छी तरह से देख लें. यदि जरा सा भी शक हो तो सुबूत सहित खेती महकमे के अफसरों से उस की शिकायत जरूर करें. भारत सरकार के खेती मंत्रालय ने रासायनिक उर्वरकों की क्वालिटी कंट्रोल के लिए एक संस्था बना रखी है, जिस का नाम है केंद्रीय उर्वरक गुण नियंत्रण एवं प्रशिक्षण संस्थान. इस संस्था ने खादों में मिलावट की जानकारी देने के लिए फोल्डर व मिलावट जांचने के लिए किट बनाया है. इन के जरीए किसान खुद खाद में मिलावट की जांच कर सकते हैं. इस के अलावा खाद खरीदते वक्त दुकानदार से मिली रसीद की फोटो कापी के साथ खाद का नमूना इस संस्थान को जांचने के लिए भेज सकते हैं.

ज्यादा जानकारी के लिए संस्थान का पता है : निदेशक, केंद्रीय उर्वरक गुण नियंत्रण एवं प्रशिक्षण संस्थान, एनएच 4, फरीदाबाद, हरियाणा.                         

खाद के फेल नमूने

साल   कुल भरे गए    फेल हुए

       नमूने   नमूने

2009-10     118312      5925

2010-11     121868      6099

2011-12     131970      6592

2012-13     133872      6700

2013-14     138961      6972

जितना खेत उतनी खाद

रासायनिक खादों का अंधाधुंधा इस्तेमाल, जमाखोरी व कालाबाजारी रोकने के लिए उत्तर प्रदेश में जितना खेत उतनी खाद स्कीम लागू होगी. पहले इसे सरकारी व सहकारी खाद गोदामों पर व बाद में निजी दुकानों पर लागू किया जाएगा. इस स्कीम में किसानों को उतनी खाद मिलेगी जितनी उन्हें जरूरत है. जमीन की खतौनी के आधार पर एग्री क्लीनिकों की सलाह से खाद की जरूरत तय होगी. गौरतलब है कि ‘फार्म एन फूड’ के 1 मार्च, 2015 अंक में छपे लेख ‘धड़ल्ले से जारी खाद की कालाबाजारी’ में बताई गई हकीकतों को उजागर करने के इरादे से पत्रिका की वह प्रति उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को भेजी गई थी.

हुआ असर : खाद की दुकानों पर पड़े छापे

बीती 31 जुलाई, 2015 को उत्तर प्रदेश में खाद की दुकानों व गोदामों पर ताबड़तोड़ छापे डाले गए. जिलाधिकारियों की अध्यक्षता में पड़े 2937 छापों में अफसरों की टीम को बड़े पैमाने पर स्टाक में कमी व बोरों की रीपैकिंग वगैरह की गड़बडि़यां मिलीं. कई जगह खाद के बोरों की सिलाई तयशुदा मानकों के मुताबिक नहीं थी. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की हिदायत पर हुई इस छापेमारी में खाद के 1200 नमूने लिए गए, जिन्हें जांच के लिए भेजा गया है.

मछली की उन्नत प्रजातियों का पालन

भारत की बढ़ती जनसंख्या और घटती खेती की जमीनें खाद्यान्न संकट की ओर इशारा कर रही हैं. ऐसे में बेरोजगारी व भुखमरी बढ़ने के आसार हैं. ऐसे में मछलीपालन न केवल रोजगार का अच्छा साधन साबित हो सकता है, बल्कि खाद्यान्न समस्या के पूरक के तौर पर भी अच्छा साबित हो सकता है. देश में दिनोंदिन मछली खाने वालों की तादाद में इजाफा हो रहा है, इसलिए मछली की मांग में तेजी से उछाल आया है.ऐसे में अगर बेरोजगार नौजवान और किसान मछलीपालन का काम वैज्ञानिक तरीके से करें तो कम लागत में अधिक मुनाफा हो सकता है.

तालाब का चयन : मछली पालन के लिए सब से पहले तालाब का चयन करना पड़ता है. इस के लिए ग्रामपंचायतों नगरपालिकाओं द्वारा संरक्षित तालाबों को पट्टे पर ले कर यह काम शुरू किया जा सकता है. जिन के पास 1 बीधे से 2 हेक्टेयर तक जमीन है, वे तालाब की खुदाई करा कर मछलीपालन का काम शुरू कर सकते हैं. तालाब का चयन करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि तालाब में साल भर 1-2 मीटर पानी जरूर भरा रहे. इस के लिए तालाब में पानी भरने का इंतजाम रखना चाहिए. तालाब में मछली के बच्चे डालने से पहले यह जान लेना जरूरी होता है कि तालाब बाढ़ प्रभावित न हो और उस के किनारे कटेफटे न हों.मछलीपालन से पहले यह जांच लेना चाहिए कि तालाब का समतलीकरण हो चुका हो. इस के अलावा तालाब में पानी आनेजाने की जगह पर जाली लगी होनी चाहिए, ताकि जलीय जीवजंतु तालाब में न आने पाएं. तालाब के सुधार का काम जून तक जरूर पूरा कर लेना चाहिए.

तालाब की सफाई : मछलीपालन करने से पहले ही तालाब की सफाई जांच लेनी चाहिए. जलकुंभी, लेमना, अजोला, पिस्टिया, कमल, हाईड्रिला या नजाज को तालाब से निकाल देना चाहिए, क्योंकि ये पौधे तालाब के ज्यादातर भाग को घेरे रहते हैं, जिस से मछलियों की पैदावार प्रभावित होती है. तालाब में खरपतवार नियंत्रण के लिए रसायन का इस्तेमाल न करें, क्योंकि इस से पानी जहरीला हो कर मछलियों के लिए घातक साबित हो सकता है.

तालाब से फालतू मछलियों की सफाई भी जरूरी होती है. ये मछलियां उन्नतशील मछलियों को प्रभावित करती हैं. इस के लिए मत्स्यबीज को तालाब में छोड़ने से पहले तालाब में महुए की खली डाल देनी चाहिए, जिस के असर से पढि़न, मांगुर, सौर, सिंधि जैसी मछलियां मर कर ऊपर आ जाती हैं, जिन्हें जाल से छान कर बाहर निकाल देना चाहिए. इस के 15 से 20 दिनों बाद ही तालाब में मत्स्य बीज डालना सही होता है, क्योंकि तब तक तालाब से महुए की खली के जहर का असर खत्म हो जाता है.

मछलियों की अच्छी बढ़वार के लिए मत्स्यपालन विभाग की प्रयोगशाला में तालाब की मिट्टी की जांच जरूर कराएं, ताकि तालाब में कार्बनिक व रासायनिक खादों के इस्तेमाल को तय किया जा सके.

चूने व उर्वरक का इस्तेमाल : मछलीपालन वाले तालाब में चूने का इस्तेमाल पानी की क्षारीयता में इजाफा करता है और अम्लीयता को सही करता है. चूना तालाब में मछलियों को दूसरे जलीय जीवों से भी बचाता है. इस के लिए 250 किलोग्राम बुझा हुआ चूना प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए. तालाब में कार्बनिक संतुलन के लिए 10 टन गोबर प्रति हेक्टयर की दर से 1 साल में इस्तेमाल करें. यह मात्रा 10 महीने की समान मासिक किस्तों में डालीन चाहिए. गोबर की खाद डालने के 15 दिनों बाद रासायनिक खादों का इस्तेमाल करना चाहिए, जिस में यूरिया 200 किलोग्राम, सिंगल सुपर फास्फेट 250 किलोग्राम व म्यूरिक आफ पोटाश 40 किलोग्राम प्रति हेक्टयर होना चाहिए.

प्रजातियों का चयन

मछलीपालन के लिए कभी भी एक तालाब में अकेली एक प्रजाति की मछली का चयन नहीं करना चाहिए, बल्कि उच्च उत्पादकता वाली 2 से 6 प्रजातियों का चयन करना चाहिए, जिस से मछलियों की बढ़वार अच्छी होती है और उत्पादन भी अच्छी मात्रा में होता है.

कतला : यह भारतीय मछली जिसे भाकुर भी कहा जाता है, बहुत तेजी से बढ़ती है. इस मछली में भोजन को मांस में बदलने में अच्छी कूवत पाई जाती है, इसलिए इस का बाजार भाव हमेशा अच्छा रहा है. यह मछली के शौकीनों की पसंदीदा मछली मानी जाती है.

इस मछली का सिर बड़ा होता है. इस की मूछें नहीं होती हैं. यह पानी की ऊपरी सतह पर तैरने वाले प्लवकों को भोजन के रूप में खाती है. यह मछली ज्यादातर तालाब के भोजन को खाती है, लेकिन कृत्रिम भोजन भी इसे पसंद होता है. इसी वजह से तालाब में कृत्रिम भोजन का छिड़काव भी किया जा सकता है.

कतला पहले साल में ही 12-14 इंच की लंबाई में बढ़ती है. इस का वजन 1.0 किलोग्राम से ले कर 1.25 किलोग्राम तक होता है. एक कतला मछली 1 साल में 1.2 किलोग्राम तक के वजन पर 15 रुपए की लागत लेती है, जबकि इस का बाजार भाव 100 से 150 रुपए प्रति किलोग्राम होता है. इस प्रकार इस से 85 से 135 रुपए तक का लाभ लिया जा सकता है.

सिल्वर कार्प : यह मछली रूस व चीन में पाई जाती है. इस का पालन भारतीय किसानों की अच्छी आमदनी का साधन है. सिल्वर कार्प लंबी व चपटे शरीर वाली मछली है. इस का सिर नुकीला व थूथन गोल होता है. यह तालाब के शैवाल व सड़ेगले पदार्थों को खाती है. इसे अलग से मछलियों का चारा खिलाया जाना भी अच्छा होता है. सिल्वर कार्प तालाब में तेजी से बढ़ती है और 12 से 14 इंच लंबी हो जाती है. 1 साल में इस का वजन 1.5 किलोग्राम से 1.8 किलोग्राम तक हो जाता है. इस मछली को पालने में प्रति मछली मात्र 15 रुपए की लागत आती है.

रोहू : इस मछली का वैज्ञानिक नाम लेबियो रोहिता है. यह भारतीय प्रजाति की सब से तेज बढ़ने वाली मछलियों में गिनी जाती है. इस प्रजाति की मछलियां सब से स्वादिष्ठ मानी जाती हैं. खाने वाले इसे सब से ज्यादा पसंद करते हैं. यह मछली तालाब के अंदर के शैवाल व जलीय पौधों की पत्तियों को खाती है. रोहू की वृद्धि दर कतला से थोड़ी कम है. यह अपने जीवनकाल में 3 फुट की लंबाई तक बढ़ सकती है, जिस का वजन 1 किलोग्राम तक पाया जाता है.

इन तमाम मछलियों के पालन के लिए 1 हेक्टेयर तालाब में 5 हजार मत्स्यबीज या अंगुलिकाएं डालने की जरूरत पड़ती है, इन के साथ तालिका में बताई जा रही अन्य प्रजातियों की मछलियों को पालना भी जरूरी होता है.

मछलियों का आहार व देखभाल : मछलियों के विकास के लिए मूंगफली, सरसों या तिल की खली को चावल की कनकी या गेहूं की चोकर के साथ बराबर मात्रा में मिला कर मछलियों के भार के 1 से 2 फीसदी की दर से देना चाहिए. अगर ग्रास कार्प मछली का पालन किया गया है, तो पानी की वनस्पतियों जैसे लेमना, हाइड्रिला, नाजाज, सिरेटो फाइलम या स्थलीय वनस्पतियों जैसे नैपियर, बरसीम या मक्के के पत्ते वगैरह जितना खाएं उतनी मात्रा में रोजाना देना चाहिए.

मछलियों के बीज तालाब में डालने के बाद हर महीने तालाब में जाल डाल कर उन के स्वास्थ्य व वृद्धि की जांच करते रहना चाहिए. अगर मछलियां परजीवी से प्रभावित हों, तो उन्हें पोटैशियम परमैगनेट यानी लाल दवा या नमक के घोल में डुबो कर तालाब में छोड़ें. मछलियों में लाल चकत्ते या घाव दिखाई दें तो अपने नजदीकी मत्स्य विभाग से जरूर संपर्क करें.

मछलियों की निकासी व बिक्री : मछलियों की उम्र जब 12-16 महीने की हो जाए और उन का वजन 1-2 किलोग्राम हो, तो उन्हें तालाब से निकाल कर स्थानीय मंडी या बाजार में बेचा जा सकता है, जिस से मत्स्यपालक अच्छा लाभ कमा सकते हैं.      

साथसाथ पाली जाने वाली प्रजातियां

मछली की      6 प्रजातियों के लिए     4 प्रजातियों के लिए     3 प्रजातियों के लिए

प्रजाति  तालाब में फीसदी       तालाब में फीसदी       तालाब में फीसदी

कतला 10    30    40

रोहू    30    25    30

नैन    15    20    30

सिल्वर कार्प    20    –     –

ग्रास कार्प      10    –     –

कामन  15    25    –

मालपुआ- दूध, सूजी, मैदा और चीनी का कमाल

गांवों में शादी और दूसरे अवसरों पर मालपुआ काफी पसंद किया जाता है. इसे तैयार करना आसान होता है. जाडे़ के दिनों में अब यह शहरी मिठाई की दुकानों पर खूब बनने लगा है. मालपुआ की अच्छी बात यह होती है कि यह अनाज, दूध और चीनी से मिल कर तैयार होता है. इस में खराब होने वाला कुछ नहीं होता है. उत्तर भारत की सभी मिठाई की दुकानों में मालपुआ मिल जाता है. इसे घर पर भी तैयार किया जाता है. अच्छा मालपुआ बनाने के लिए दूध, सूजी और मैदे की क्वालिटी अच्छी होनी चाहिए. देशी घी में तले मालपुए ज्यादा ही स्वादिष्ठ होते हैं. मुरादाबाद की रहने वाली पकवान विशेषज्ञ आरती तरुण गुप्ता कहती हैं, ‘मालपुआ अपनेआप में बहुत ही स्वादिष्ठ और पसंद किया जाने वाला पकवान है. यह साधारण पुओं से एकदम अलग होता है.’ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यह खूब बिकता है. सब से अच्छी बात यह है कि गांवों से ले कर शहरों तक हर जगह मालपुआ मिल जाता है. सभी जगहों पर इसे पसंद किया जाता है.

मालपुआ के लिए सामग्री : 4 कप फुल क्रीम दूध, 1 बड़ा चम्मच सूजी, 4 बड़े चम्मच मैदा, 1 बड़ा चम्मच चीनी, 2 इलायची और तलने के लिए पर्याप्त घी.

चाशनी के लिए सामग्री : 1 कप चीनी, आधा कप पानी, 6 से 8 केसर के धागे, 1 बड़ा चम्मच इलायची. मालपुओं को सजाने के लिए कुछ पिस्ते व बादाम.

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मालपुआ बनाने की विधि : सब से पहले कड़ाही में दूध डाल कर उबालें. पहले उबाल के बाद आंच को धीमा कर दें. दूध को गाढ़ा होने दें. जब दूध गाढ़ा हो जाए तो आंच बंद कर दें. गाढ़े दूध को ठंडा होने दें. चाशनी बनाने से पहले केसर के धागों को दूध में भिगो कर अलग रख दें और इलायची छील कर बारीक पीस लें.

इस के बाद पानी और चीनी को मिला कर चाशनी बनाने के लिए आंच पर चढ़ा दें. चाशनी को गाढ़ा होने तक पकाएं मालपुए के लिए

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1 तार की चाशनी अच्छी  रहती है. चाशनी में केसर, दूध और इलायची पाउडर डाल कर अलग रख दें.

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इस के बाद मालपुए बनाने की शुरुआत करें. गाढ़े किए दूध में चीनी, सूजी और मैदा अच्छी तरह मिलाएं. यह घोल पकौड़े के घोल जैसा बनना चाहिए. मिश्रण को आधे घंटे के लिए रख दें.

कड़ाही में घी गरम कर के उस में चम्मच से मिश्रण को गोलगोल आकार में डालें. इन का साइज छोटी पूरी जैसा होना चाहिए. इन को पकने दें. जब ये ब्राउन कलर के हो कर ठीक से पक जाएं तो इन्हें तैयार चाशनी में डालें. 15 मिनट बाद मालपुओं को बाहर निकालें और कटे हुए पिस्तेबादाम से सजा कर खाने वालों को दें और खुद भी खाएं.

खेती व खुदकुशी : मजबूरी तेरे अंजाम पर रोना आया

लोगों की जिंदगी खेती पर टिकी हुई है, क्योंकि खेती से ही खाना पैदा होता है और खाने के बगैर जीवन मुमकिन नहीं है. लेकिन खेती करने वाले किसानों की जिंदगी एक मजाक बन कर रह गई है. हालात से हार कर किसान मौत को गले लगा रहे हैं.

‘चाहे जेठ हो या हो पूस किसानों को आराम नहीं है.

छूटे कभी संग बैलों का

ऐसा कोई याम नहीं है.  

मुंह में जीभ,

शक्ति भुजा में,

 जीवन में सुख का नाम नहीं है. 

वसन कहां सूखी रोटी भी मिलती सुबहशाम नहीं है.’

किसानों की बदहाली पर रामधारी सिंह दिनकर की यह कविता बरसों पुरानी है, लेकिन आज भी सच है. हाड़तोड़ मेहनत के बाद भरपेट रोटी न मिले तो इनसान क्या करे? पेट की आग जब गरीब की हिम्मत तोड़ देती है तो रूह का परिंदा अचानक पिंजरा तोड़ कर उड़ जाता है. हालांकि मौत को गले लगाना आसान नहीं है, फिर भी लोग खुदकुशी करते हैं. अपना वजूद खत्म करने की वजह माली मजबूरी, दिमागी परेशानी या सामाजिक मामला हो, लेकिन खुदकुशी से मुश्किलें हल नहीं होतीं. नेशनल क्राइम ब्यूरो खुदकुशी करने वालों के सालाना आंकड़े जमा करता है. इस ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक साल 2014 के दौरान देश में कुल 1,31,666 लोगों ने खुदकुशी की. इन में करीब 4 फीसदी यानी 5650 किसान थे. इन में 5178 आदमी व 472 औरतें थीं. खुदकुशी करने वाले किसानों में सब से ज्यादा 44 फीसदी किसान 2 हेक्टेयर से कम जोत वाले थे, 27 फीसदी किसान 1 हेक्टेयर से कम जोत वाले थे और 29 फीसदी किसान 10 हेक्टेयर से कम जोत वाले थे. राज्य सरकारों के मुताबिक करीब 1400 किसानों ने खुदकुशी की और उन में 63 उत्तर प्रदेश के थे.

गड़बड़झाला

खुदकुशी कम होने की बातें गले से नहीं उतरतीं. नवदान्य संस्था के मुताबिक पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ही 199 किसानों ने जान गंवाई थी. उन में मेरठ के 35, बागपत के 23, मुजफ्फरनगर के 25, बुलंदशहर व आगरा के 34-34, अलीगढ़ के 33 व हाथरस के 15 किसान शामिल थे. खुदकुशी के ये सरकारी आंकड़े सही नहीं लगते हैं. साल 2004 में 18,241, साल 2012 में 13,754 व साल 2013 में 11,301 किसानों ने खुदकुशी की थी. इन आंकड़ों से लगता है कि गिनती घट रही है, लेकिन सरकारी मशीनरी आंकड़े बदलने में माहिर है. थानों में रिपोर्ट जल्दी से दर्ज नहीं होती, ताकि जुर्म की गिनती कम रहे.देश आजाद होने से पहले भी किसान खुदकुशी करते थे, लेकिन तब बादशाहों, जमींदारों व अंगरेजों के जोरजुल्म थे. भारी कर, लगान व सेठसाहूकारों के चंगुल में फंसे किसान दूसरों का पेट भरते थे, तन ढकते थे, लेकिन खुद खाली पेट व अधनंगे रह कर अपनी जान गंवा देते थे. बरसों बीत गए, लेकिन किसानों की दशा नहीं बदली. आज भी ऐसे तमाम गरीब किसान हैं जिन्हें मदद की दरकार है, लेकिन सरकार से उन्हें कभी कोई इमदाद नहीं मिली. हालात ने उन्हें खुदकुशी के कगार तक पहुंचा दिया. मानसून पर टिकी खेती बुरे दौर से गुजर रही है और घाटे का सौदा साबित हो रही है. छोटे किसानों की बदहाली उन्हें पहले ही अधमरा कर देती है. ऐसे में किसानों का खुदकुशी करना भी जायज लगने लगता है.अपनी बेहिसाब मुश्किलों में घिरे किसान जब अपना पेट पालने लायक भी नहीं रहते, तो तंग आ कर आखिर में खुदकुशी कर लेते हैं. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक साल 2014 में खुदकुशी करने वाले किसान महाराष्ट्र में सब से ज्यादा 2568 व असम में सब से कम सिर्फ 2 थे. जरूरत उस माहौल को सुधारने की है जिस में किसानों के सामने खुदकुशी करने की नौबत आती है.

खेती करे सो मरे

दरअसल दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूर भी शाम को एक तय रकम पा जाते हैं, लेकिन किसान बोआई के बाद कटाई तक सिर्फ इंतजार करते हैं कि उन्हें मेहनत का क्या फल मिलेगा? बीज, मौसम व आढ़ती में से कौन कब क्या व कितना दगा देगा? इस तरह कदमकदम पर छोटे किसानों की जिंदगी में अंधेरा बढ़ने लगता है.किसानों के लिए खेती करना, तार पर चल कर नदी पार करने जैसा जोखिम भरा है. जरा सा चूके कि गए काम से. किसानों को एक ओर मुश्किलों के पहाड़ व दूसरी ओर गहरी खाई दिखाई देती है. उन की दुश्वारियां उन्हें जीने नहीं देतीं. लिहाजा ज्यादातर किसान खेती से जुड़े बुरे हालात से तंग आ कर खुदकुशी कर लेते हैं.आंकड़े गवाह हैं कि ज्यादातर किसान कर्ज के चक्कर में खुदकुशी करते हैं. दरअसल वे इतनी बुरी तरह फंस जाते हैं कि उन्हें अपने जीते जी उस कर्ज के बोझ से छुटकारा मिलना मुमकिन नहीं लगता. आमदनी कम होने से उन की जिम्मेदारियां वक्त से पूरी नहीं होतीं. खुदकुशी करने वालों में 30 से 60 साल तक की उम्र वाले किसान ज्यादा रहते हैं.किसान मेहनती होते हैं. वे जल्दी से हिम्मत नहीं हारते और पूरे हौसले से आखिरी दम तक अपनी बेहिसाब परेशानियों, मुश्किलों व मसलों से लड़ते रहते हैं, लेकिन कई बार इन डूबते हुओं को तिनके का सहारा तक नसीब नहीं होता. उन की कहीं सुनवाई नहीं होती. ऐसे में जब उन्हें कोई सहारा नहीं दिखता तो उन को जिंदगी बोझ लगने लगती है. इनसानी इरादे फौलादी हो सकते हैं, लेकिन जिंदगी की डोर कमजोर होती है. खिंचाव हद से ज्यादा हो तो लोहे के तार भी टूट जाते हैं. कहने का मकसद यह है कि किसानों की खुदकुशी को सही ठहराना हरगिज सही नहीं है, लेकिन गरीबी व लाचारी झेलने की भी एक हद होती है. उस हद से आगे इनसान टूट जाता है और दुनिया से उस का नाता टूट जाता है.

बयानबाजी

कृषि प्रधान देश के किसान खुदकुशी करने पर मजबूर हों, यह बहुत शर्म की बात है. एक ओर किसानों को अन्नदाता व देश की रीढ़ कहा जाता है. दूसरी ओर उन के जख्मों पर मरहम लगाने की जगह नमक छिड़का जाता है. किसानों की खुदकुशी की वजहें गिनाते हुए पिछले दिनों कृषि मंत्री ने राज्यसभा में इतना बेतुका बयान दिया था कि उसे यहां फिर से दोहराना भी किसानों की तौहीन होगी. कृषि मंत्री के उस बयान पर सरकार की खूब फजीहत हुई. अगले दिन वित्त मंत्री ने अपने साथी मंत्री के बचाव में सफाई दी कि किसानों के मरने की ऐसी वजहें तो उन से पहली सरकार द्वारा भी गिनाई जाती रही हैं. अमीर मुल्कों में 1 नागरिक मरने पर भी बवाल मच जाता है, लेकिन अपने देश में हजारों किसानों की खुदकुशी को भी नजरअंदाज कर दिया जाता है. खुदकुशी के असल कारण खोजने व उन्हें रोकने के लिए कारगर कदम उठाने की जगह इस मसले को हलके में लिया जाता रहा है.

मजबूरी

इतिहास बताता है कि जब कमजोर तबके के लोगों को जीने के बुनियादी हकों से बेदखल किया जाता है, तो उन में अलगाव व असंतोष की चिनगारी सुलगती है. नाराजगी जब ज्यादा बढ़ जाती है तो मरतेखपते लोग बागी हो कर मरनेमारने पर उतर आते हैं. खेती से आमदनी पर कर नहीं लगता है, लिहाजा काले घन को सफेद करने व ऐशोआराम के लिए बहुत से रईस शहरों के नजदीक खेत खरीद कर आलीशान फार्महाउस बनवा लेते हैं. आजकल ऐसे लोगों का बोलबाला बढ़ रहा है, जो दिखावे के लिए मजदूरों से थोड़ी खेती कराते हैं और खेती की आड़ में मलाई खाते हैं.

उपाय

खेती के नाम पर चालाक लोग मौज कर रहे हैं. छप्परों व खपरैलों के झोंपड़ों में रहने व खुद खेत जोतने वाले किसान अपने हालात से तंग आ कर खुदकुशी की कगार पर हैं. जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं, तो इनसान गलत रास्ता अपना लेता है. ऐसे में सब से पहले उन कारणों की पहचान जरूरी है, जिन से हालात इतने खराब हो जाते हैं कि किसान खुदकुशी करने पर मजबूर हो जाते हैं. तंगहाल किसानों को समझाने व बचाने के लिए सिंगल विंडो सिस्टम होना चाहिए ताकि उन्हें सारी सहूलियतें एक ही जगह पर मिलें.

किसानों को चाहिए कि वे नाउम्मीदी के भवंर से उबरें और खुद पर व जमीन पर यकीन रखें. जिंदगी कीमती है, लिहाजा खुदकुशी हरगिज न करें. माहिरों, तजरबेकारों व सरकारी महकमों से तालमेल बनाएं. उन की सलाह लें. उन की मदद से नई तकनीक अपनाएं. स्वयं सहायता समूह बनाएं, अपनी जानकारी बढ़ाएं व मिल कर मसलों को हल करें. पुरानी लीक को छोड़ें व खेती को नए दौर में हो रहे बदलावों से जोड़ें. ऐसा करने से आमदनी बढ़ेगी और हालात बेहतर होंगे.                    ठ्ठ

खुदकुशी करने वाले किसानों की उम्र

उम्र    मर्द    औरतें  कुल

18 साल से कम 35    24    59

18 से 30 साल तक    1131  169   1300

30 से 60 साल तक    3480  232   3712

60 साल से ऊपर       532   47    579

कुल    5178  472   5650  

खाद व्यवसायी और दलाल मालामाल किसान बेहाल

अच्छी फसल होने और उपज बढ़ने से ही किसानों की माली हालत सुधरती है और वे संपन्न होते हैं. अच्छी फसल के लिए अनुकूल मौसम और किसानों की मेहनत के साथ खेतों में खाद डालना भी जरूरी होता है. यही वजह है कि किसानों द्वारा रासायनिक खाद भारी मात्रा में खरीदी जाती है. किसानों की इसी मजबूरी का फायदा उठा कर खाद व्यापारी खाद की मनमानी कीमतें वसूलते हैं. पूर्वोत्तर राज्य असम में किसान अच्छी उपज की आशा में महंगे दामों पर खाद खरीद कर खेती तो करते हैं, मगर उन के उत्पाद की कीमत लागत से भी काफी कम मिलती है. ज्यादा कीमत पर खाद खरीद कर एक ओर तो किसान बेहाल हो रहे हैं, तो दूसरी ओर खाद विक्रेता किसानों से खाद का मनमाना दाम वसूल कर मालामाल हो रहे हैं. सूबे के बरपेटा शहर में रासायनिक खाद बेचने वाले व्यापारी 50 किलोग्राम यूरिया की कीमत किसानों से 5 सौ रुपए वसूलते हैं, जबकि सरकारी रेट 284 रुपए है. इसी प्रकार खाद व्यापारी 50 किलोग्राम डीएपी रासायनिक खाद किसानों को  2 हजार रुपए में बेच रहे हैं, जबकि इस का सरकारी रेट 12 सौ रुपए है. इसी तरह 50 किलोग्राम पोटाश का सरकारी रेट 240 रुपए है, लेकिन व्यापारी इसे किसानों को 280 रुपए में बेचते हैं. गौरतलब है कि बरपेटा में एक बहुत बड़ी सब्जी मंडी है, यहां के किसान अपनी तमाम सब्जियां इस मंडी में ला कर बेचते हैं. बरपेटा  और उस के आसपास के अंचलों के किसानों द्वारा पैदा की गई तमाम तरह की सब्जियां बरपेटा की सब्जी मंडी में बिकने आती हैं. इस के अलावा यहां की सब्जियां गुवाहाटी और उस के आसपास की सब्जी मंडियों में बेची जाती हैं. बरपेटा जिले की सब्जी मंडी में थोक भाव से सब्जी बेचने वाले बड़ेबड़े आढ़त हैं. बाजार में भारी मात्रा में सब्जी आने के कारण सब्जियों के रेट काफी कम हो जाते हैं. सब्जी दलालों की मनमानी भी मंडी का माहौल बिगाड़ देती है. हरी सब्जियों की खरीद का भाव मंडी में मौजूद सब्जी दलाल ही तय करते हैं. बाजार में इन दलालों का दबदबा रहता है. मजबूरन किसानों को अपने उत्पाद बेहद कम दामों पर इन दलालों को बेचने पड़ते हैं.

ऐसी बात नहीं है कि बाजार में थोक रेट पर हरी सब्जियां खरीदने वाले व्यापारियों की कमी है. स्थानीय खुदरा व्यापारी तो बाजार में होते ही हैं, साथ ही साथ ट्रकों पर लोड कर के यहां से तमाम सब्जियां कई अन्य जिलों की सब्जी मंडियों में भेजी जाती हैं. यहां की सब्जियां गुवाहाटी के अलावा पड़ोसी राज्य शिलांग में भी भेजी जाती?हैं. इन के अलावा करीमगंज, मिजोरम, हरियाणा, पंजाब और दिल्ली तक यहां की सब्जियां जाती हैं. इस धंधे में बिचौलियों व दलालों के साथसाथ सब्जी मंडी के थोक व्यापारी भी भारी मुनाफा कमाते हैं.  

 

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