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दीदी की तारीफ सुनसुन कर मुझे बड़ी ईर्ष्या होती है, क्या करूं?

सवाल

मैं दीदी से कहीं ज्यादा सुंदर हूं और यह बात नहीं कि मैं पढ़ाईलिखाई में पीछे हूं, हां, दीदी जितनी होशियार नहीं. ऐसी बात नहीं कि मम्मीपापा मु?ो प्यार नहीं करते लेकिन दीदी की तारीफ सुनसुन कर मु?ो ईर्ष्या होती है. दूसरे कई कामों में मैं दीदी से आगे हूं. लेकिन पता नहीं क्यों जो पढ़ाई में तेज होता है, लोग उसी की तारीफ करते हैं. अब आप ही बताइए, मु?ो गुस्सा नहीं आएगा. क्या करूं कि सब की नजरों में चढ़ जाऊं?

जवाब

आप को ऐसा क्यों लगता है कि जो पढ़ाई में होशियार होता है लोग उसी की तारीफ करते हैं. आप खुद लिख रही हैं कि आप भी पढ़ाई में ठीकठाक हैं और कई चीजों में अपनी दीदी से आगे हैं, फिर आप अपनेआप को दीदी से कम क्यों आंकती हैं. आप के लिए अच्छा है कि आप अपनी और खूबियों को निखारने में ज्यादा ध्यान लगाएं बजाय अपनी दीदी से ईर्ष्या करने में.

आप अपनी दीदी से ज्यादा सुंदर हैं लेकिन दीदी तो आप से नहीं जलतीं. यदि ऐसा होता तो आप हमें यह बात जरूर लिखतीं. इस का मतलब साफ है कि दीदी आप से प्यार करती हैं. वे अपनी पढ़ाईलिखाई में बिजी रहती होंगी, इसलिए शायद वे अपना प्यार आप पर जाहिर नहीं करती होंगी और न ही आप ने महसूस करने की कोशिश की होगी. आप दोनों शायद एकदूसरे के साथ टाइम ज्यादा स्पैंड नहीं करतीं.

याद रखिए, 2 बहनों का रिश्ता बहुत खास होता है. आज के समय में वैसे भी ज्यादा भाईबहन नहीं होते. यदि बहन से आप का रिश्ता खराब हो जाएगा तो आप के मन में जो खालीपन रह जाएगा वह कभी भर नहीं सकता. क्योंकि, बहन की जगह कभी भी दोस्त या रिलेटिव नहीं ले सकता. इसलिए रिश्ते में पनपी इस प्रतिस्पर्धा को कभी भी इतना तूल न दें कि वह रिश्ते पर चोट करे.

प्रतिस्पर्धा को सकारात्मक रूप में लीजिए. जहां तक आप की समस्या है, उस में तो प्रतिस्पर्धा सिर्फ आप की ओर से दिखती है. अरे भई, उन्हें अपनी राह पर चलने दीजिए, आप अपनी अलग राह चुनिए. आप खुद कह रही हैं कि आप कई कामों में उन से आगे हैं तो अपनेआप की वे खूबियां और निखारें. फिर देखिए, लोग कैसे आप की तारीफ करेंगे. अपने व्यक्तित्व को निखारिए, लोगों की नजरों में आप अपनेआप चढ़ जाएंगी.

आप भी अपनी समस्या भेजे

पता : कंचन, सरिता ई-8, झंडेवाला एस्टेट, नई दिल्ली-55. समस्या हमें एसएमएस या व्हाट्सऐप के जरिए मैसेज/औडियो भी कर सकते हैं., 08588843415

 

लोग क्या कहेंगे: भाग 3

राजेश और गीता कुछ बोलने लगे, इतने में मनोरमा के कमरे का दरवाजा खुला. सभी लोग बोलतेबोलते चुप हो गए. ‘‘राजेश, इधर मेरे कमरे में आओ. तुम सब यहीं बैठो और हमारा इंतजार करो,’’ मनोरमा ने बहुत पहले की कड़क आवाज में जब यह कहा तो किसी के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला.

करीब 15 मिनट बाद मनोरमा राजेश के साथ बाहर निकलीं और आ कर सब के साथ सोफे पर बैठ गईं. राजेश के चेहरे पर कोई भाव नहीं था. गीता, सुलोचना और मनोहर लाल एकटक मनोरमा की ओर देख रहे थे.

मनोरमा ने कहा, ‘‘राजेश की शादी सीमा के साथ ही होगी. मु?ो यह जान कर बहुत खुशी है कि राजेश ने अपने लिए बिलकुल उपयुक्त पत्नी खोज ली है जो हम सब मिल कर भी कभी न कर पाते.’’

‘‘मां, आप क्या कह रही हो,’’ मनोहर लाल बोले, ‘‘आप को पता है, सीमा एक विधवा है? हम एक विधवा को बहू बना कर लाएं, यह कैसे हो सकता है? लोग क्या कहेंगे? आप दुनिया की बातें, शगुनअपशगुन, रीतिरिवाज का कुछ तो खयाल करो.’’

मांबेटे के विरोधी विचार देख सुलोचना और गीता को चुप रहने में ही भलाई लगी. मनोहर लाल की बात सुन कर मनोरमा 2 मिनट बिलकुल शांत रहीं. इस के बाद उन्होंने जो कहा, वह घर के सभी सदस्यों के लिए राजेश की बातों से भी ज्यादा चौंकाने वाला था. ‘‘बेटा मनोहर, तू भी एक विधवा मां की संतान है.’’ मां की बात सुन कर मनोहर लाल को लगा कि मनोरमा अपने खुद के बारे में बोल रही हैं. ‘‘मां, पिताजी का 72 वर्ष की उम्र में निधन हो गया तो वह बिलकुल अलग बात है.’’

‘‘नहीं बेटा, मैं यह नहीं कह रही. मैं आज तु?ा से जो कहने वाली हूं, वह सचाई मैं तु?ो अपने जीतेजी नहीं बताने वाली थी पर आज मु?ो बोलने पर मजबूर होना पड़ा वरना तो तुम बहुत बड़ा अनर्थ कर बैठते.’’

‘‘कैसा अनर्थ, कैसी सचाई? मां, तुम क्या कह रही हो, मु?ो तो कुछ सम?ा में नहीं आ रहा,’’ गीता के मुंह से बरबस निकल पड़ा.

मनोरमा ने कहा, ‘‘तुम सब विमला चाची के बारे में क्या जानते हो?’’

विमला मनोरमा की देवरानी थी और उन का घर में अकसर आनाजाना लगा रहता था. बचपन से ही मनोहर लाल और गीता ने उन को स्नेह की प्रतिमूर्ति के रूप में जाना था. मनोरमा के दोनों बच्चों से वह उतना ही स्नेह करती थी जितना अपने बच्चों से.

‘‘बेटा, तुम्हारी चाची बनने से पहले विमला का एक विवाह और हुआ था और सीमा की ही तरह शादी के कुछ दिनों बाद उस का पहला पति बीमार हो कर गुजर गया. यह बात आज से 55 वर्ष पहले की है. विमला तुम्हारे दादाजी के घनिष्ठ मित्र की पुत्री थी और उस का दुख देख कर उन्होंने तुम्हारे चाचाजी से उस का पुनर्विवाह करने का निर्णय लिया.

‘‘घर के सदस्यों ने जब उन का विरोध किया तब उन्होंने भूख हड़ताल कर दी और 3 दिनों तक अन्न का एक दाना भी मुंह में नहीं लिया. आखिरकार घरवालों को उन की बात माननी पड़ी और विमला तुम्हारी चाची बन कर हमारे घर आ गई. ‘‘बहुत थोड़े ही समय में विमला ने अपने अच्छे व्यवहार से घर में सभी को अपना बना लिया और हमारा परिवार बहुत अच्छे से चलने लगा. हमारी चिंता के विपरीत 1- 2 सालों में ही लोगों ने इस बात को आयागया कर दिया.

‘‘विमला को मु?ा से थोड़ा ज्यादा ही लगाव था क्योंकि जब तुम्हारे दादाजी ने इस रिश्ते का प्रस्ताव किया था तब पूरे घर में सिर्फ मैं ने इस का समर्थन किया था और तुम्हारे चाचा को भी इस के लिए प्रेरित किया था. शादी के 2 वर्षों बाद विमला ने तुम्हें जन्म दिया.

‘‘मेरी गोद तब तक सूनी ही थी हालांकि मेरी शादी को 5 वर्ष हो चुके थे. अस्पताल से घर आने के बाद विमला सीधे मेरे पास आई और तुम्हें मेरी गोद में डाल दिया. मैं चकित हो कर उस की तरफ देखने लगी. बहुत मना भी किया पर विमला ने मेरी एक न मानी. उस के बाद विमला की 2 संतानें और हुईं और मैं ने भी गीता के रूप में संतानसुख प्राप्त किया. तो बेटा, अब यह बताओ, तुम्हें विमला चाची में क्याक्या खामियां, दोष और गलतियां दिखाई पड़ती हैं? तुम तो उन्हें बचपन से देखते आ रहे हो. क्या तुम्हें कभी यह लगा कि विमला की वजह से तुम्हारे चाचा पर या तुम बच्चों पर किसी किस्म की आंच आई है?

‘‘तुम्हें तो पता है कि तुम्हारा ब्लड ग्रुप इतना रेयर है कि लाखों में एक इंसान ही तुम्हें खून दे सकता है. जब तुम्हें कालेज में चोट लगी थी तब विमला ने 4 बोतल खून दे कर तुम्हारी जान बचाई थी. नहीं तो पूरे मध्य प्रदेश में डोनर खोजतेखोजते बहुत देर हो जाती. क्या तुम ने कभी सोचा कि उन का खून तुम से इतनी आसानीपूर्वक कैसे मैच कर गया?’’

मनोहर लाल, गीता और सुलोचना के मुंह से कोई शब्द न निकला. राजेश सोफे से उठ कर अपनी दादी के पांवों के पास बैठ गया और तीनों की तरफ देखने लगा. मनोहर लाल उठे और अपने कान पकड़ते हुए बोले, ‘‘मां, आज आप ने मु?ो बहुत बड़ी गलती करने से बचा लिया. आप जो कह रही हैं, वही होगा. दुनिया की मु?ो कुछ नहीं पड़ी, जिसे जो कहना है, कहता रहे. सीमा ही इस घर में बहू बन कर आएगी. हमें उस के जीवन में घटी दुखद घटना के बारे में उसे एक शब्द भी नहीं कहना है.’’

मनोरमा ने कहा, ‘‘एक और बात बेटा, अभी जो कुछ मैं ने तुम्हें बताया वह राज हमारे बीच में ही रहे. तुम में से कोई इस का जिक्र विमला से कभी न करना और न ही विमला के प्रति तुम्हारे व्यवहार में कोई परिवर्तन आए.’’ मनोहर लाल जोरजोर से सिर हिला कर सहमति जता रहे थे क्योंकि शब्द उन के गले में अटक गए थे. गीता और सुलोचना की आंखों से जारजार आंसू बह रहे थे पर ये आने वाली खुशियों के स्वागत के आंसू थे.

Holi 2024: इस बार मनाएं हेल्दी होली

होली का त्योहार उत्साह, उमंग और उल्लास का त्योहार है. इस दिन रंग-गुलाल उड़ा कर और मिठाइयां खा व खिला कर खुशियां बांटी जाती हैं. लेकिन कई बार जरा सी लापरवाही के चलते इस खूबसूरत त्योहार में रंग में भंग पड़ जाता है और खुशियों व उमंगों वाला यह त्योहार सेहत के साथ खिलवाड़ बन जाता है.

1 बनाएं हैल्दी पकवान :

होली में जहां एक ओर रंगों की फुहार का लोग मजा लेते हैं वहीं दूसरी तरफ बिना मिठाइयों के होली अधूरी लगती है. वहीं, कई बार बाजार की मिलावटी मिठाइयों और गलत खानपान के चलते सेहत की अनदेखी हो जाती है. एशियन इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंसैज की डाइटीशियन शिल्पा ठाकुर  के अनुसार, ‘‘होली का सही माने में मजा लेना है तो स्वाद और सेहत दोनों को ध्यान में रखते हुए होली के व्यंजन घर पर ही बनाएं. होली पर घर में बनी ठंडाई, शरबत, गुझिया, कांजी वडा, पापड़ खाएं और इस त्योहार का मजा उठाएं. अगर आप अपने बढ़ते वजन को ले कर परेशान हैं लेकिन साथ ही होली का मजा भी लेना चाहती हैं तो हर चीज खाएं लेकिन सीमित मात्रा में.

‘‘दरअसल, यह बदलता मौसम होता है जब ठंडक जा रही होती है और गरमी का आगमन हो रहा होता है. ऐसे में ठंडा खाने का मन करता है. इस समय होली खेलने के दौरान व होली के समय अपने शरीर को स्वस्थ रखने के लिए तलाभुना व ज्यादा मीठा खाने की जगह फलों का अधिक से अधिक प्रयोग करें. फ्रूटचाट बनाएं और खुद खाएं व मेहमानों को भी खिलाएं.’’

2 पेट का रखें ध्यान :

मिलावटी मिठाइयों का सेवन आप को अस्पताल पहुंचा सकता है. इसलिए कोशिश यही होनी चाहिए कि बाजार की मिलावटी मिठाई खाने से बचें क्योंकि मिलावटी दूध, पनीर व घी से बनी मिठाई खाने से लिवर को नुकसान हो सकता है और आंतों में सूजन, फूड पौइजनिंग, उलटी, दस्त, सिरदर्द, पेटदर्द व त्वचा रोग जैसी स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हो सकती हैं. रौकलैंड अस्पताल के गैस्ट्रोलौजिस्ट डा. एम पी शर्मा कहते हैं, ‘‘होली में अकसर लोग रंगगुलाल लगे हाथों से खाना खा लेते हैं. गंदे हाथों से खाना खाने से इन्फैक्शन होता है. इन्फैक्शन की वजह से डायरिया, उलटी, दस्त आदि होने लगते हैं.

‘‘होली के दिन कई तरह के तेलों में फ्राइड पकौड़े वगैरा खाने से पेट में गैस बनने लगती है या फिर पेट फूलने लगता है. इसलिए होली के दिन घर से जब भी निकलें तो खाना खा कर निकलें या फिर हाथों में रंग लगाने से पहले खाना खा लें. भांग व शराब का सेवन कतई न करें क्योंकि भांग के रिऐक्शन कई तरह से होते हैं. इसलिए मादक पदार्थों से दूर रहें. होली को मस्ती से मनाएं. पेट को कबाड़ न समझें और खानपान को ठीक रखें.’’

3 रंग में न हो भंग :

अब रंगों का रूप बदल गया है. जहां पहले अबीर, गुलाल, टेसू, केसर आदि रंगों से होली खेली जाती थी, वहीं आज पेंट मिले पक्के रंगों से खेली जाती है. ये रंग शरीर को नुकसान पहुंचाते हैं.

होली खेलने से पहले पूरे शरीर पर वैसलीन या कोल्डक्रीम लगा लें. इस से आप की त्वचा पर रंगों का सीधा प्रभाव नहीं पड़ेगा. बालों पर रंगों का दुष्प्रभाव न पड़े, इस के लिए रात को ही बालों में कोई तेल लगा लें. रंगों से नाखूनों को भी जरूर बचाएं. नाखूनों पर रंग न चढ़े, इसलिए पहले से ही कोई नेलपौलिश नाखूनों पर लगा लें. इस से रंग नाखूनों पर न चढ़ कर नेलपौलिश पर ही चढ़ेगा. यदि रंग नाखूनों के अंदर या आसपास की त्वचा पर चढ़ जाए तो उसे साबुन से रगड़ने के बजाय 2-3 बारी नीबू से रगडें़. होली खेलने के बाद सब से बड़ी परेशानी जिद्दी रंग को साफ करने की होती है. जिद्दी रंग को साफ करने के लिए साबुन के बजाय कच्चे दूध का उपयोग कर त्वचा की धीरेधीरे मसाज करें या मौइश्चराइजिंग क्रीम का उपयोग कर रंग को साफ करने की कोशिश करें. त्वचा में अगर जलन हो रही हो तो जलन को खत्म करने के लिए आप खीरे के रस का प्रयोग करें. बेसन के साथ कच्चे दूध से बना पेस्ट आप के चेहरे के रंग को दूर करने का सब से आसान तरीका है. अगर आंखों में रंग जाने की वजह से आंखों पर जलन महसूस हो रही हो तो खीरे को काट कर थोड़ी देर के लिए पलकों के ऊपर रख लें. इस से आंखों को ठंडक मिलेगी और जलन से भी काफी रहत मिलेगी.

4 गर्भवती महिलाएं ध्यान दें :

यों तो कैमिकलयुक्त रंग और मिलावटी मिठाइयां किसी के लिए भी खतरनाक हो सकती हैं पर गर्भवती महिलाओं को खास खयाल रखने की सलाह दी जाती है. कैमिकलयुक्त रंग और मिलावटी मिठाइयां गर्भवती महिला और उस के गर्भ में पल रहे बच्चे, दोनों ही के लिए नुकसानदेह साबित हो सकती हैं.

एशियन इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंसैज की गाइनीकोलौजिस्ट डा. पूजा ठकुराल के अनुसार, ‘‘गर्भावस्था में महिलाओं की रोगप्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है. ऐसे में, होली के समय गर्भावस्था में कैमिकल आधारित रंगों का प्रयोग स्वास्थ्य की दृष्टि से खतरनाक हो सकता है. इन से गर्भवती महिला के रिप्रोडक्टिव सिस्टम को नुकसान पहुंच सकता है और उसे समयपूर्व प्रसव व बच्चे के विकास से जुड़ी समस्याएं हो सकती हैं. अगर गर्भवती महिला को होली पर रंग खेलना ही है तो वह गीले रंगों के बजाय सूखे हर्बल रंगों का इस्तेमाल करे. जहां तक होली के समय मिठाइयों के सेवन की बात है, गर्भवती महिलाएं घर की बनी मिठाइयां, नमकीन आदि खा सकती हैं, साथ ही नारियल पानी वगैरा ले सकती हैं.’’

5 दिल के रोगी रखें खयाल :

इंडियन मैडिकल एशोसिएशन के अध्यक्ष व जानेमाने कार्डियोलौजिस्ट डा. के के अग्रवाल कहते हैं, ‘‘दिल के मरीजों को हमेशा चीनी, चावल व मैदा से दूर रहना चाहिए. मिठाइयों का सीमित मात्रा में सेवन करें क्योंकि इन में अत्यधिक मीठा और ट्रांस फैट होता है. साथ ही, उन्हें डीप फ्राइड चीजें और नमक के अधिक सेवन से भी परहेज करना चाहिए. दिल के रोगी होली खेलते समय ज्यादा दौड़भाग न करें व नशे से दूर रहें. नशा करने से दिल की धड़कन बढ़ने, रक्तचाप बढ़ने और कार्डियक अरेस्ट जैसी समस्याएं हो सकती हैं, जो दिल के रोगियों के लिए जानलेवा भी साबित हो सकती हैं.

‘‘इस के अलावा विशेष रूप से ध्यान देने की जरूरत यह है कि जो रंग या गुलाल ज्यादा चमकदार होगा उस में ज्यादा कैमिकल मौजूद होते हैं. इसलिए ऐसे रंगों से बचें. अब तो रंगों व गुलाल को चमकीला बनाने के लिए उन में घटिया अरारोट या अबरक पीस कर मिला दिया जाता है. बाजार में घटिया क्वालिटी के जो रंग बेचे जाते हैं वे ज्यादातर औक्सीडाइज्ड मैटल होते हैं. हरा रंग कौपर सल्फेट, काला रंग लेड औक्साइड से तैयार किया जाता है. ये रंग बहुत ही खतरनाक होते हैं. आंखों को हरे रंग से बचाना बहुत ही जरूरी है. बेहतर यही है कि हर्बल रंगों से होली का लुत्फ उठाएं.’’

 

सुधरा संबंध: निलेश और उस की पत्नी क्यों अलग हो गए?

शादी की वर्षगांठ की पूर्वसंध्या पर हम दोनों पतिपत्नी साथ बैठे चाय की चुसकियां ले रहे थे. संसार की दृष्टि में हम आदर्श युगल थे. प्रेम भी बहुत है अब हम दोनों में. लेकिन कुछ समय पहले या कहिए कुछ साल पहले ऐसा नहीं था. उस समय तो ऐसा प्रतीत होता था कि संबंधों पर समय की धूल जम रही है.

मुकदमा 2 साल तक चला था तब. आखिर पतिपत्नी के तलाक का मुकदमा था. तलाक के केस की वजह बहुत ही मामूली बातें थीं. इन मामूली सी बातों को बढ़ाचढ़ा कर बड़ी घटना में ननद ने बदल दिया. निलेश ने आव देखा न ताव जड़ दिए 2 थप्पड़ मेरे गाल पर. मुझ से यह अपमान नहीं सहा गया. यह मेरे आत्मसम्मान के खिलाफ था. वैसे भी शादी के बाद से ही हमारा रिश्ता सिर्फ पतिपत्नी का ही था. उस घर की मैं सिर्फ जरूरत थी, सास को मेरे आने से अपनी सत्ता हिलती लगी थी, इसलिए रोज एक नया बखेड़ा. निलेश को मुझ से ज्यादा अपने परिवार पर विश्वास था और उन का परिवार उन की मां तथा एक बहन थीं. मौका मिलते ही मैं अपने बेटे को ले कर अपने घर चली गई. मुझे इस तरह आया देख कर मातापिता सकते में आ गए. बहुत समझाने की कोशिश की मुझे पर मैं ने तो अलग होने का मन बना लिया था. अत: मेरी जिद के आगे घुटने टेक दिए.

दोनों ओर से अदालत में केस दर्ज कर दिए गए. चाहते तो मामले को रफादफा भी किया जा सकता था, पर निलेश ने इसे अपनी तौहीन समझा. रिश्तेदारों ने मामले को और पेचीदा बना दिया. न सिर्फ पेचीदा, बल्कि संगीन भी. सब रिश्तेदारों ने इसे खानदान की नाक कटना कहा. यह भी कहा कि ऐसी औरत न वफादार होती है न पतिव्रता. इसे घर में रखना, अपने शरीर में मियादी बुखार पालते रहने जैसा है.

बुरी बातें चक्रवृत्ति ब्याज की तरह बढ़ती हैं. अत: दोनों तरफ से खूब आरोप उछाले गए. ऐसा लगता था जैसे दोनों पक्षों के लोग आरोपों की कबड्डी खेल रहे हैं. निलेश ने मेरे लिए कई असुविधाजनक बातें कहीं. निलेश ने मुझ पर चरित्रहीनता का तो हम ने दहेज उत्पीड़न का मामला दर्ज कराया. 6 साल तक शादीशुदा जीवन बिताने और 1 बच्चे के मातापिता होने के बाद आज दोनों तलाक के लिए लड़ रहे थे. हम दोनों पतिपत्नी के हाथों में तलाक के लिए अर्जी के कागजों की प्रति थी. दोनों चुप थे, दोनों शांत, दोनों निर्विकार.

मुकदमा 2 साल तक चला था. 2 साल हम पतिपत्नी अलग रहे थे और इन 2 सालों में बहुत कुछ झेला था. मैं ने नौकरी ढूंढ़ ली थी. बेटे का दाखिला एक अच्छे स्कूल में करा दिया था. सब से बड़ी बात हम दोनों में से ही किसी ने भी अपने बच्चे की मनोस्थिति नहीं पढ़ी.

बेटा हमारे अलग होने के फैसले से खुश नहीं था, पर सब कुछ उस की आंखों के सामने हुआ था तो वह चुप था. मुकदमे की सुनवाई पर दोनों को आना होता. दोनों एकदूसरे को देखते जैसे चकमक पत्थर आपस में रगड़ खा गए हों. दोनों गुस्से में होते. दोनों में बदले की भावना का आवेश होता. दोनों के साथ रिश्तेदार होते जिन

की हमदर्दियों में जराजरा विस्फोटक पदार्थ भी छिपा होता. जब हम पतिपत्नी कोर्ट में दाखिल होते तो एकदूसरे को देख कर मुंह फेर लेते. वकील और रिश्तेदार दोनों के साथ होते. दोनों पक्ष के वकीलों द्वारा अच्छाखासा सबक सिखाया जाता कि हमें क्या कहना है. हम दोनों वही कहते. कई बार दोनों के वक्तव्य बदलने लगते तो फिर संभल जाते.

अंत में वही हुआ जो हम सब चाहते थे यानी तलाक की मंजूरी. पहले उन के साथ रिश्तेदारों की फौज होती थी, धीरेधीरे यह संख्या घटने लगी. निलेश की तरफ के रिश्तेदार खुश थे, दोनों के वकील खुश थे, पर मेरे मातापिता दुखी थे. अपनीअपनी फाइलों के साथ मैं चुप थी. निलेश भी खामोश.

यह महज इत्तफाक ही था. उस दिन की अदालत की फाइनल कार्रवाई थोड़ी देर से थी. अदालत के बाहर तेज धूप से बचने के लिए हम दोनों एक ही टी स्टौल में बैठे थे. यह भी महज इत्तफाक ही था कि हम पतिपत्नी एक ही मेज के आमनेसामने थे.

मैं ने कटाक्ष किया, ‘‘मुबारक हो… अब तुम जो चाहते हो वही होने को है.’’

‘‘तुम्हें भी बधाई… तुम भी तो यही चाह रही थीं. मुझ से अलग हो कर अब जीत जाओगी,’ निलेश बोला. मुझ से रहा नहीं गया. बोली, ‘‘तलाक का फैसला क्या जीत का प्रतीक

होता है?’’

निलेश बोले, ‘‘तुम बताओ?’’

मैं ने जवाब नहीं दिया, चुपचाप बैठी रही, फिर बोली, ‘‘तुम ने मुझे चरित्रहीन कहा था… अच्छा हुआ अब तुम्हारा चरित्रहीन स्त्री से पीछा छूटा.’’

‘‘वह मेरी गलती थी, मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था.’’

‘‘मैं ने बहुत मानसिक तनाव झेला,’’ मेरी आवाज सपाट थी. न दुख, न गुस्सा, निलेश ने कहा, ‘‘जानता हूं पुरुष इसी हथियार से स्त्री पर वार करता है, जो स्त्री के मन को लहूलुहान कर देता है… तुम बहुत उज्ज्वल हो. मुझे तुम्हारे बारे में ऐसी गंदी बात नहीं कहनी चाहिए थी. मुझे बेहद अफसोस है.’’

मैं चुप रही, निलेश को एक बार देखा. कुछ पल चुप रहने के बाद उन्होंने गहरी सांस ली और फिर कहा, ‘‘तुम ने भी तो मुझे दहेज का लोभी कहा था…’’

‘‘गलत कहा था,’’ मैं निलेश की ओर देखते हुए बोली.

कुछ देर और चुप रही. फिर बोली, ‘‘मैं कोई और आरोप लगाती, लेकिन मैं नहीं…’’

तभी चाय आ गई. मैं ने चाय उठाई. चाय जरा सी छलकी. गरम चाय मेरे हाथ पर गिरी तो सीसी की आवाज निकली.

निलेश के मुंह से उसी क्षण उफ की आवाज निकली. हम दोनों ने एकदूसरे को देखा.

‘‘तुम्हारा कमर दर्द कैसा है?’’ निलेश का पूछना थोड़ा अजीब लगा.

‘‘ऐसा ही है,’’ और बात खत्म करनी चाही.

‘‘तुम्हारे हार्ट की क्या कंडीशन है? फिर अटैक तो नहीं पड़ा, मैं ने पूछा.’’

‘‘हार्ट…डाक्टर ने स्ट्रेन…मैंटल स्ट्रैस कम करने को कहा है,’’ निलेश ने जानकारी दी.

एकदूसरे को देखा, देखते रहे एकटक जैसे एकदूसरे के चेहरे पर छपे तनाव को पढ़ रहे हों.

‘‘दवा तो लेते रहते हो न?’’ मैं ने निलेश के चेहरे से नजरें हटा पूछा.

‘‘हां, लेता रहता हूं. आज लाना याद नहीं रहा,’’ निलेश ने कहा.

‘‘तभी आज तुम्हारी सांसें उखड़ीउखड़ी सी हैं,’’ बरबस ही हमदर्द लहजे में कहा.

‘‘हां, कुछ इस वजह से और कुछ…’’ कहतेकहते वे रुक गए.

‘‘कुछ…कुछ तनाव के कारण,’’ मैं ने बात पूरी की.

वे कुछ सोचते रहे, फिर बोले,  ‘‘तुम्हें 15 लाख रुपए देने हैं और 20 हजार रुपए महीना भी.’’

‘‘हां, फिर?’’ मैं ने पूछा.

‘‘नोएडा में फ्लैट है… तुम्हें तो पता है. मैं उसे तुम्हारे नाम कर देता हूं. 15 लाख फिलहाल मेरे पास नहीं हैं,’’ निलेश ने अपने मन की बात कही.

नोएडा वाले फ्लैट की कीमत तो 30 लाख होगी?

मुझे सिर्फ 15 लाख चाहिए… मैं ने अपनी बात स्पष्ट की.

‘‘बेटा बड़ा होगा… सौ खर्च होते हैं,’’ वे बोले.

‘‘वह तो तुम 20 हजार महीना मुझे देते रहोगे,’’ मैं बोली.

‘‘हां जरूर दूंगा.’’

‘‘15 लाख अगर तुम्हारे पास नहीं हैं तो मुझे मत देना,’’ मेरी आवाज में पुराने संबंधों की गर्द थी.

वे मेरा चेहरा देखते रहे.

मैं निलेश को देख रही थी और सोच रही थी कि कितना सरल स्वभाव है इन का… जो कभी मेरे थे. कितने अच्छे हैं… मैं ही खोट निकालती रही…

शायद निलेश भी यही सोच रहे थे. दूसरों की बीमारी की कौन परवाह करता है? यह करती थी परवाह. कभी जाहिर भी नहीं होने देती थी. काश, मैं इस के जज्बे को समझ पाता.

हम दोनों चुप थे, बेहद चुप. दुनिया भर की आवाजों से मुक्त हो कर खामोश.

दोनों भीगी आंखों से एकदूसरे को देखते रहे.

‘‘मुझे एक बात कहनी है,’’ निलेश की आवाज में झिझक थी.

‘‘कहो,’’ मैं ने सजल आंखों से उन्हें देखा.

‘‘डरता हूं,’’ निलेश ने कहा.

‘‘डरो मत. हो सकता है तुम्हारी बात मेरे मन की बात हो.’’

‘‘तुम्हारी बहुत याद आती रही,’’ वे बोले.

‘‘तुम भी,’’ मैं एकदम बोली.

‘‘मैं तुम्हें अब भी प्रेम करता हूं.’’

‘‘मैं भी,’’ तुरंत मैं ने भी कहा.

दोनों की आंखें कुछ ज्यादा ही सजल हो गई थीं. दोनों की आवाज जज्बाती और चेहरे मासूम.

‘‘क्या हम दोनों जीवन को नया मोड़ नहीं दे सकते?’’ निलेश ने पूछा.

‘‘कौन सा मोड़?’’ पूछ ही बैठी.

‘‘हम फिर से साथसाथ रहने लगें… एकसाथ… पतिपत्नी बन कर… बहुत अच्छे दोस्त बन कर?’’

‘‘ये पेपर, यह अर्जी?’’ मैं ने पूछा.

‘‘फाड़ देते हैं. निलेश ने कहा और अपनेअपने हाथ से तलाक के कागजात फाड़ दिए. फिर हम दोनों उठ खड़े हुए. एकदूसरे के हाथ में हाथ डाल कर मुसकराए.’’

दोनों पक्षों के वकील हैरानपरेशान थे. दोनों पतिपत्नी हाथ में हाथ डाले घर की तरफ चल दिए. सब से पहले हम दोनों मेरे घर आए. मातापिता से आशीर्वाद लिया. आज उन के चेहरे पर संतुष्टि थी. 2 साल बाद मांपापा को इतना खुश देखा था. फिर हम बेटे के साथ इन के घर, हमारे घर, जो सिर्फ और सिर्फ पतिपत्नी का था. 2 दोस्तों का था, चल दिए.

वक्त बदल गया और हालात भी. कल भी हम थे और आज भी हम ही पर अब किसी कड़वाहट की जगह नहीं. यह सुधरा संबंध है. पतिपत्नी के रिश्ते से भी कुछ ज्यादा खास.

Holi 2024: रंगों में छिपा अंधविश्वास

कार्यालय में सुबहसुबह बवाल मच गया. सब ने कारण जानना चाहा, तो पता चला कि मैडम सीमाजी ने राकेशजी के खिलाफ उच्च अधिकारियों से शिकायत कर दी है. जब सीमाजी से कर्मचारियों ने पूछा कि उन्होंने राकेशजी की कौन सी शिकायत की है, तो पता चला कि उन्होंने अधिकारियों से शिकायत करते हुए कहा,

‘‘सर, जिस दिन मैं जिस रंग की साड़ी या सलवारसूट पहन कर आती हूं, उस दिन राकेशजी भी उसी रंग के कपड़े पहन कर औफिस आते हैं और मुझ से कहते हैं, ‘देखा, आज हम दोनों ने मैचिंग कपड़े पहने हैं.’’ दरअसल, यह सुन कर सीमाजी को गुस्सा आ जाता. इस बात को ले कर सीमा मैडम ने राकेशजी की शिकायत कर दी.

सीमाजी अपनी सहेलियों से कहती हैं, ‘मुझे समझ में नहीं आता कि राकेशजी को कैसे समझ में आ जाता है कि आज मैं किस कलर की साड़ी या सलवारसूट पहनने वाली हूं.’ जैसाकि कुछ न्यूज चैनल वाले किसी वायरल वीडियो के सच या झूठ होने की पड़ताल करते हैं वैसे ही सीमाजी की शिकायत का सच जानने निकले अधिकारियों ने जब दोनों से अलगअलग बात की तो इस बात का खुलासा हुआ कि दोनों अंधविश्वासी हैं और ज्योतिषियों के चक्कर लगाते रहते हैं.

सीमाजी के और राकेशजी के ज्योतिषियों ने उन दोनों को बताया कि सोमवार को सफेद, मंगलवार को लाल, बुधवार को हरे, गुरुवार को पीले, शुक्रवार को नीले, शनिवार को काले और रविवार को कत्थे कलर के कपड़े पहनने चाहिए ताकि सभी कार्यों में सफलता मिले. सो, किस दिन किस रंग के कपड़े पहनने चाहिए उस रंग के कपड़े वे दोनों पहनने लगे. यही उस शिकायत की जड़ है.

ज्योतिषियों का चक्कर

इस में दोनों की कोई गलती नहीं, क्योंकि ज्योतिषियों ने उन्हें किस दिन किस रंग के कपड़े पहनने से सफलता मिलेगी का मंत्र जो दे दिया था. ज्योतिषियों ने उन्हें सफलता के माने बताते हुए कहा कि औफिस में भी अधिकारियों से अच्छा सामंजस्य बना रहता है. काम करो या न करो, कोई कुछ नहीं बोलने वाला क्योंकि आप ने दिन के हिसाब से जिस रंग के कपड़े पहनने चाहिए वे पहन रखे हैं.

रेडीमेड कपड़ों के विक्रेताओं की दुकानों में भी दिन के हिसाब से शोरूम में उस रंग के कपड़ों का डिसप्ले किया जाता है. दिन के हिसाब से इन रंगों के कपड़े पहनने का अंधविश्वास यदि शहर के सब नागरिक फौलो कर लेते हैं तो कल्पना कीजिए उस शहर का नजारा कुछ और ही होगा. यह तो रहा साप्ताहिक रंगों का अंधविश्वास.

कुछ रंगों को ले कर यह भी कयास लगाया जाता है कि किसी शुभ काम में काले रंग के कपड़ों को पहनना वर्जित है. किसी को कोई वस्तु, कपड़े भेंट किए जाएं तो उन का रंग काला नहीं होना चाहिए. ऐसे में काले रंग के साथ तो सरासर अन्याय हो रहा है, क्या ऐसा नहीं है. फिल्मी हस्तियां जब आम जनता के बीच जाती हैं, तो वे अकसर काले रंग के कपड़ों में ही नजर आती हैं.

अब आप कहोगे कि ये फिल्मी कलाकार काले कपड़े इसलिए पहनते हैं क्योंकि उन्हें कहीं नजर न लग जाए. बहुत से राजनीतिज्ञ भी किस रंग के कपड़े, कब पहनना चाहिए, इस का पालन करते हैं, जिस से उन्हें बड़ी सफलता मिलती है, ऐसा भ्रम उन्होंने पाल रखा है, जबकि यह सब अंधविश्वास का चक्कर है.

दूसरी तरफ अमेरिका में शिशु के जन्म के बाद उसे जो कपड़े पहनाए जाते हैं उन में यदि बेटी हुई तो पिंक कलर और बेटा हुआ तो आसमानी नीले कलर के कपड़े पहनाए जाते हैं. बिछाने और ओढ़ने में भी इन्हीं रंगों का इस्तेमाल कियाजाता है. यह वहां पर अंधविश्वास के कारण नहीं, बल्कि इसलिए है कि शिशु के कपड़ों के रंगों को देख कर उस के मातापिता से आप को यह नहीं पूछना पड़ता कि बाबा है या बेबी?

तुर्कमेनिस्तान में सफेद रंग का अंधविश्वास

कपड़े ही नहीं, कुछ और बातों को ले कर भी रंगों का वर्चस्व बना हुआ है. एक ऐसा देश भी है जहां कारों का रंग केवल सफेद ही होना चाहिए. तुर्कमेनिस्तान की राजधानी अश्गाबत में आने वाली सफेद कारों को छोड़ कर शेष सभी रंगों की कारों पर पाबंदी लगा दी गई है. वहां के राष्ट्रपति गुर्बांगुली बेर्दिमुहम्मेदेव अंधविश्वास पर बहुत विश्वास करते हैं और सफेद कार को लकी मानते हैं. वहां पर काली कार पर पूरी तरह पाबंदी है. वहां के नागरिकों को अपनी रंगीन कारों को तुरंत सफेद रंग चढ़ाना पड़ा. ऐसे समय में कारों को सफेद रंग करने वाली कंपनियों ने कार मालिकों से अनापशनाप दाम वसूल किए.

तुर्क की राजधानी अश्गाबात को सिटी औफ व्हाइट मार्बल के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि राष्ट्रपति के आदेशानुसार वहां की सभी सरकारी इमारतों को सफेद रंग से रंगा जा चुका है. देखा, अंधविश्वास का इतना बड़ा प्रमाण आप को कहीं और नहीं मिलेगा.

हमारे देश में दीपावली के समय अकसर घरों में रंगरोगन किया जाता है. इस में भी अंधविश्वास हावी हो रहा है. घर के ड्राइंगरूम में फलां रंग लगाने से शुभ फल मिलेंगे, डाइनिंगरूम में फलां रंग लगाने से ताजगी और ऊर्जा का संचार होगा, किचन में फलां रंग लगाने से सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, बैडरूम में फलां रंग लगाने से रिश्तों में मधुरता आएगी और लेटबाथ में फलां रंग लगाने से ताजगी व आंतरिक खुशी मिलेगी.

पढ़ेलिखे लोग भी इसका शिकार

इन सब बातों का पालन करने वाले मूर्ख हैं या अंधविश्वासी? आप ही निर्णय कर सकते हैं. आप को लगता होगा अनपढ़, गंवार ही इस अंधविश्वास का शिकार होते होंगे, पर ऐसा नहीं है. पढ़ेलिखे लोग भी इस का शिकार होते हैं. इसलिए बच्चों को अभी से वैज्ञानिक नजरिए से सोचने के लिए प्रेरित करना होगा, ताकि वे भविष्य में अंधविश्वास के चक्कर में न पड़ें.

लेखक- विनोद विट्ठता खंडालकर

Holi 2024: जाएं तो जाएं कहां

हमारे एक बुजुर्ग थे. वे अकसर हमें समझाया करते थे कि जीवन में किसी न किसी नियम का पालन इंसान को अवश्य करना चाहिए. कोई भी नियम, कोई भी उसूल, जैसे कि मैं झूठ नहीं बोलता, मैं हर किसी से हिलमिल नहीं सकता या मैं हर किसी से हिलमिल जाता हूं, हर चीज का हिसाबकिताब रखना चाहिए या हर चीज का हिसाबकिताब नहीं रखना चाहिए.

नियम का अर्थ कि कोई ऐसा काम जिसे आप अवश्य करना चाहें, जिसे किए बिना आप को लगे कुछ कमी रह गई है. मैं अकसर आसपास देखता हूं और कभीकभार महसूस भी होता है कि पक्का नियम जिसे हम जीतेमरते निभाते हैं वह हमें बड़ी मुसीबत से बचा भी लेता है. हमारे एक मित्र हैं जिन की पत्नी पिछले 10 साल से सुबह सैर करने जाती थीं. 2-3 पड़ोसिनें भी कभी साथ होती थीं और कभी नहीं भी होती थीं.

‘‘देखा न कुसुम, भाभी रोज सुबह सैर करने जाती हैं तुम भी साथ जाया करो. जरा तो अपनी सेहत का खयाल रखो.’’

‘‘सुबह सैर करने जाना मुझे अच्छा नहीं लगता. सफाई कर्मचारी सफाई करते हैं तो सड़क की सारी मिट्टी गले में लगती है. जगहजगह कूड़े के ढेरों को आग लगाते हैं…गली में सभी सीवर भर जाते हैं. सुबह ही सुबह कितनी बदबू होती है.’’  बात शुरू कर के मैं तो पत्नी का मुंह ही देखता रह गया. सुबह की सैर के लाभ तो बचपन से सुनता आया था पर नुकसान पहली बार समझा रही थी पत्नी.

‘‘ताजी हवा तब शुरू होती है जब आबादी खत्म हो जाती है और वहां तक पहुंचतेपहुंचते सन्नाटा शुरू हो जाता है. खेतों की तरफ निकल जाओ तो न आदमी न आदमजात. इतने अंधेरे में अकेले डर नहीं लगता क्या कुसुम भाभी को.’’

‘‘इस में डरना क्या है. 6 बजे तक वापस आतेआते दिन निकल आता है. अपना ही इलाका है, डर कैसा.’’

‘‘नहीं, शाम की सैर ठीक रहती है. न बच्चों को स्कूल भेजने की चिंता और न ही अंधेरे का डर. भई, अपनेअपने नियम हैं,’’ पत्नी ने अपना नियम मुझे बताया और वह क्यों सही है उसे प्रमाणित करने के कारण भी मुझे समझा दिए. सोचा जाए तो अपनेअपने स्थान पर हर इंसान सही है. पुरानी पीढ़ी के पास नई पीढ़ी को कोसने के हजार तर्क हैं और नई पीढ़ी के पास पुरानी को नकारने के लाख बहाने. इसी मतभेद को दिल से लगा कर अकसर हम अपने अच्छे से अच्छे रिश्ते से हाथ धो लेते हैं.

मेरी बड़ी बहन, जो आगरा में रहती हैं, का एक नियम बड़ा सख्त है. कभी किसी का गहना या कपड़ा मांग कर नहीं पहनना चाहिए. कपड़ा तो कभी मजबूरी में पहनना भी पड़ सकता है क्योंकि तन ढकना तो जरूरत है, लेकिन गहनों के बिना प्राण तो नहीं निकल जाएंगे.

हम किसी शादी में जाने वाले थे. दीदी भी उन दिनों हमारे पास आई हुई थीं. जाहिर है, भारी गहने साथ ले कर नहीं आई थीं. मेरी पत्नी ने अनुरोध किया कि वे उस के गहने ले लें, तो दीदी ने साफ मना कर दिया. मेरी पत्नी को बुरा लगा.

‘‘दीदी ने ऐसा क्यों कहा कि वे कभी किसी के गहने नहीं पहनतीं. मैं कोई पराई हूं क्या? कह रही हैं अपनेअपने उसूल हैं, ऐसे भी क्या उसूल…’’

दीदी शादी में गईं पर उन्हीं हल्केफुल्के गहनों में जिन्हें पहन कर वे आगरा से आई थीं. घर आ कर भी मेरी पत्नी अनमनी सी रही जिसे दीदी भांप गई थीं.

‘‘बुरा मत मानना भाभी और तुम भी अपने जीवन में यह नियम अवश्य बना लो. यदि तुम्हारे पास गहना नहीं है तो मात्र दिखावे के लिए कभी किसी का गहना मांग कर मत पहनो. अगर तुम से वह गहना खो जाए तो पूरी उम्र एक कलंक माथे पर लगा रहता है कि फलां ने मेरा हजारों का नुकसान कर दिया था. जिस की चीज खो जाती है वह भूल तो नहीं पाता न.’’

‘‘अगर मुझ से ही खो जाए तो?’’

‘‘तुम चाहे अपने हाथ से जितना बड़ा नुकसान कर लो…चीज भी तुम्हारी, गंवाई भी तुम ने, अपना किया बड़े से बड़ा नुकसान इंसान भूल जाता है पर दूसरे द्वारा किया सदा याद रहता है.

‘‘मुझे याद है 10वीं कक्षा में हमारी अंगरेजी की किताब में एक कहानी थी ‘द नैकलेस’ जिस में नायिका मैगी मात्र अपनी एक अमीर सखी के घर पार्टी पर जाने के लिए दूसरी अमीर सखी का हीरों का हार उधार मांग कर ले जाती है. हार खो जाता है. पतिपत्नी नया हार खरीदते हैं और लौटा देते हैं. और फिर पूरी उम्र उस कर्ज को उतारते रहते हैं जो उन्होंने लाखों का हार चुकाने को लिया था.

‘‘लगभग 15 साल बाद बहुत गरीबी में दिन गुजार चुकी मैगी को वही सखी बाजार में मिल जाती है. दोनों एकदूसरे का हालचाल पूछती हैं और अमीर सखी उस की गिरी सेहत और बुरी हालत का कारण पूछती है. नायिका सच बताती है और अमीर सखी अपना सिर पीट लेती है, क्योंकि उस ने जो हार उधार दिया था वह तो नकली था.

‘‘नकली ले कर असली चुकाया और पूरा जीवन तबाह कर लिया. क्या पाया उस ने भाभी? इसी कहानी की वजह से मैं कई दिन रोती रही थी.’’

दीदी ने प्रश्न किया तो मुझे भी वह कहानी याद आई. सच है, दीदी अकसर किस्सेकहानियों को बड़ी गंभीरता से लेती थीं. यही एक कहानी गहरी उतर गई होगी मन में.

‘‘दोस्ती हमेशा अपने बराबर वालों से करो, जिन के साथ उठबैठ कर आप स्वयं को मखमल में टाट की तरह न महसूस करो. क्या जरूरत है जेब फाड़ कर तमाशा दिखाने की. अपनी औकात के अनुसार ही जिओ तो जीवन आसान रहता है. मेरा नियम है भाभी कि जब तक जीवनमरण का प्रश्न न बन जाए, सगे भाईबहन से भी कुछ मत मांगो.’’

चुप रहे हम पतिपत्नी. क्या उत्तर देते, अपनेअपने नियम हैं. उन्हें कभी भी नहीं तोड़ना चाहिए. अप्रत्यक्ष में दीदी ने हमें भी समझा दिया था कि हम भी इसी नियम पर चलें. ऐसे नियमों से जीवन आसान हो जाता है, यह सच है क्योंकि हम पूरा का पूरा वजन अपने उस नियम पर डाल देते हैं जिसे सामने वाला चाहेअनचाहे मान भी लेता है. भई, क्या करें नियम जो है.

‘‘रवि साहब, किसी का जूठा नहीं खाते, क्या करें भई, नियम है न इन का. वैसे एक घूंट मेरे गिलास से पी लेते तो हमारा मन रह जाता.’’

‘‘अब कोई इन से पूछे कि जूठा पानी अगर रवि साहब पी लेते तो इन का मन क्यों रह जाता. इन का मन हर किसी के नियम तोड़ने को बेचैन भी क्यों है. इन का जूठा अमृत है क्या, जिसे रविजी जरूर पिएं. संभव है इन्हें खांसी हो, जुकाम हो या कोई मुंह का संक्रमण. रविजी इन का मन रखने के लिए मौत के मुंह में क्यों जाएं? सत्य है, रविजी का नियम उन्हें बीमार होने से तो बचा ही गया न.’’

मेरे एक अन्य मित्र हैं. एक दिन हम ने साथसाथ कुछ खर्च किया. उन्होंने झट से 20 रुपए लौटा दिए.

‘‘20 रुपए हों या 20 लाख रुपए मेरे लिए दोनों की कीमत एक ही है. सिर पर कर्ज नहीं रखता मैं और दोस्ती में तो बिलकुल भी नहीं. दोस्त के साथ रिश्ते साफसुथरे रहें, उस के लिए जब हिसाब करो तो पैसेपैसे का करो. अपना नियम है भई, उपहार चाहे हजारों का दो और लो, कर्ज एक पैसे का भी नहीं. यही पैसा दोस्ती में जहर घोलता है.’’

चुप रहा मैं क्योंकि उन का यह पक्का नियम मुझे भी तोड़ना नहीं चाहिए. सत्य भी यही है कि अपनी जेब से बिना वजह लुटाना भी कौन चाहता है. हमारी एक मौसी बड़ी हिसाब- किताब वाली थीं. वे रोज शाम को खर्च की डायरी लिखती थीं. बच्चे अकसर हंसने लगते. वे भी हंस देती थीं. घर में एक ही तनख्वाह आती थी. कंजूसी भी नहीं करती थीं और फुजूल- खर्ची भी नहीं. रिश्तेदारी में भी अच्छा लेनदेन करतीं. कभी बात चलती तो वे यही कहती थीं :

‘‘अपनी चादर में रहो तो क्या मजाल कि मुश्किल आए. रोना तभी पड़ता है जब इंसान नियम से न चले. जीवन में नियम का होना बहुत आवश्यक है.’’

हमारे एक बहनोई हैं. हम से दूर रहते हैं इसलिए कभीकभार ही मिलना होता है. एक बार शादी में मिले, गपशप में दीदी ने उलाहना सा दे दिया.

‘‘सब से मिलना इन्हें अच्छा ही नहीं लगता,’’ दीदी बोलीं, ‘‘गिनेचुने लोगों से ही मिलते हैं. कहते हैं कि हर कोई इस लायक नहीं जिस से मेलजोल बढ़ाया जाए.’’

‘‘ठीक ही तो कहता हूं सोम भाई, अब आप ही बताइए, बिना किसी को जांचेपरखे दोस्त बनाओगे तो वही हाल होगा न जो संजय दत्त का हुआ. दोस्तीयारी में फंस गया बेचारा. अब किसी के माथे पर लिखा है क्या कि वह चोरउचक्का है या आतंकवादी.

‘‘अपना तो नियम है भाई, हाथ सब से मिलाते चलो लेकिन दिल मिलाने से पहले हजार बार सोचो.’’

आज शाम मैं घर आया तो विचित्र ही खबर मिली. ‘‘आप ने सुना नहीं, आज सुबह कुसुम भाभी को किसी ने सराय के बाहर जख्मी कर दिया. उन के साथ 2 पड़ोसिनें और थीं. कानों के टौप्स खींच कर धक्का दे दिया. सिर फट गए. तीनों अस्पताल मेें पड़ी हैं. मैं ने कहा था न कि इतनी सुबह सैर को नहीं जाना चाहिए.’’

‘‘क्या सच?’’ अवाक् रह गया मैं.

‘‘और नहीं तो क्या. सोना ही दुश्मन बन गया. नशेड़ी होंगे कोई. गंड़ासा दिखाया और अंगूठियां उतरवा लीं. तीनों से टौप्स उतारने को कहा. तभी दूर से कोई गाड़ी आती देखी तो कानों से खींच कर ही ले गए…आप कहते थे न, अपना ही इलाका है, तुम भी जाया करो.’’

निरुत्तर हो गया मैं. मेरी नजर पत्नी के कानों पर पड़ी. सुंदर नग चमक रहे थे. उंगली में अंगूठी भी 10 हजार की तो होगी ही. अगर इस ने अपना नियम तोड़ कर मेरा कहा मान लिया होता तो इस वक्त शायद यह भी कुसुम भाभी के साथ अस्पताल में होती.

आज के परिवेश में क्या गलत और क्या सही. सुबह की सैर का नियम जहां कुसुम भाभी को मार गया, वहीं शाम की सैर का नियम मेरी पत्नी को बचा भी गया. सोना इतना महंगा हो गया है कि जानलेवा होने लगा है. सोच रहा हूं कि एक नियम मैं भी बना लूं. चाहे जो भी हो जाए पत्नी को गहने पहन कर घर से बाहर नहीं जाने दूंगा. परेशान हो गई थी पत्नी.

‘‘नकली गहने पहने तो कौन सा जान बच गई. कुसुम भाभी के टौप्स तो नकली थे. अंगूठी भी सोने की नहीं थी. उन्होंने कहा भी कि भैया, सोना नहीं पहना है.’’

‘‘तो क्या कहा उन्होंने?’’

‘‘बोले, यह देखने का हमारा काम है. ज्यादा नानुकर मत करो.’’

क्या जवाब दूं मैं. आज हम जिस हाल में जी रहे हैं उस हाल में जीना वास्तव में बहुत तंग हो गया है. खुल कर सांस कहां ले पा रहे हैं हम. जी पाएं, उस के लिए इतने नियमों का निर्माण करना पड़ेगा कि हम कहीं के रहेंगे ही नहीं. सिर्फ नियम ही होंगे जो हमें चलाएंगे, उठाएंगे और बिठाएंगे.

रात में हम दोनों पतिपत्नी अस्पताल गए. कुसुम भाभी के सिर की चोट गहरी थी. दोनों कान कटे पड़े थे. होश नहीं आया था. उन के पति परेशान थे, सीधासादा जीवन जीतेजीते यह कैसी परेशानी चली आई थी.

‘‘यह बेचारी तो सोना पहनती ही नहीं थी. पीतल भी पहनना भारी पड़ गया. अब इन हालात में इंसान जिए तो कैसे जिए, सोम भाई. कभी किसी का बुरा नहीं किया इस ने. इसी के साथ ऐसा क्यों?’’

वे मेरे गले से लग कर रोने लगे थे. मैं उन का कंधा थपथपा रहा था. उत्तर तो मेरे पास भी नहीं है. कैसे जिएं हम. जाएं तो जाएं कहां. कितना भी संभल कर चलो, कुछ न कुछ ऐसा हो ही जाता है कि सब धरा का धरा रह जाता है.

Lok Sabha Election 2024: तमिलनाडु में भाजपा के हाथ निल बट्टे सन्नाटा, हिंदुत्व नहीं लगा पाएगा बेड़ा पार

Lok Sabha Election 2024: पूरे दक्षिण भारत की तरह तमिलनाडु में भी वोट मांगने के लिए भाजपा के पास कोई मुद्दा या खास उपलब्धि नहीं है इसलिए वह वहां हिंदुत्व का नकारा जा चुका कार्ड खेल रही है. तमिलनाडु की राजनीति की बुनियाद ही दलित हितों पर रखी गई है जिस पर मुट्ठीभर ब्राह्मणों के अलावा किसी को कोई एतराज नहीं लेकिन क्या वे उस की नैया पार लगा पाएंगे?

आम चुनावों के ठीक पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन के मंत्री बेटे उदयनिधि स्टालिन के सनातन उर्फ हिंदू धर्म विरोधी बयानों पर वही लोग हैरान थे जिन्हें तमिलनाडु की न केवल राजनीति बल्कि समाज, संस्कृति और संस्कारों का त भी नहीं मालूम. हिंदीभाषी राज्यों के युवाओं को तो यह समझ ही नहीं आया कि आखिर कोई नेता चुनाव के वक्त कैसे इतना बड़ा रिस्क उठा सकता है जबकि यहां तो देश के हिंदू राष्ट्र और विश्वगुरु बनने का स्वागत शुरू हो गया है. हालांकि ऐसा समझने वालों को यह अंदाजा तो है कि भाजपा और भगवा गैंग के अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा दक्षिण जा कर लड़खड़ाने लगता है और तमिलनाडु पहुंचतेपहुंचते तो वह गिर ही पड़ता है.

उदयनिधि ने कोई नई बात नहीं कही थी बल्कि अपने राजनीतिक पूर्वजों से सुनासुनाया दोहराया था जिस का सार पेरियार के बहुत से कथनों के साथ इस कथन से स्पष्ट होता है कि-

-मैं कहता हूं कि हिंदुत्व एक बड़ा धोखा है. हम मूर्खों की तरह हिंदुत्व के साथ अब नहीं रह सकते. यह पहले ही हमारा काफी नुकसान कर चुका है. इस ने हमारी मेघा को नष्ट कर दिया है. इस ने हमारे मर्म को खा लिया है. इस ने हमें हजारों वर्गों में बांट दिया है. क्या धर्म की आवश्यकता ऊंचनीच पैदा करने के लिए होती है. हमें ऐसा धर्म नहीं चाहिए जो हमारे बीच शत्रुता, बुराई और नफरत पैदा करे.

ई बी रामास्वामी पेरियार दक्षिण भारत की दलित चेतना, जो बाद में एक क्रांति में तबदील हो गई, के जनक थे. वे एक धनगर (गडरिया) परिवार में जन्मे थे. इस जाति की गिनती शूद्रों यानी दलितों में होती है. उन की कहानी बहुत दिलचस्प और एक हद तक एक विकलांग पौराणिक पात्र अष्टावक्र से काफी मिलतीजुलती है जो यह मानता था कि सत्य शास्त्रों में नहीं लिखा है. रूढ़िवादी और धार्मिक परिवार व पिता से इस तर्कशील युवा की पटरी नहीं बैठी तो वह ईश्वरीय सत्ता की खोज में काशी चला गया, जहां उसे वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो गया कि यह ईश्वर-फीश्वर कुछ नहीं है बल्कि खुराफाती ब्राह्मणों के दिमाग की उपज है तो वह घर वापस लौट गया लेकिन खामोश नहीं बैठा.

तब तमिलनाडु मद्रास प्रांत हुआ करता था. जहां दलितों पर अत्याचार, शोषण, भेदभाव, हिंसा और छुआछूत रोजमर्रा की बात थे. वहां के गुरुकुलों में गैरब्राह्मण बच्चों के साथ भेदभाव होता देख पेरियार ने इस के खिलाफ आवाज उठाई और कांग्रेस से सहयोग मांगा क्योंकि वे कांग्रेस से जुड़ चुके थे.
कांग्रेस आलाकमान ने उन की बातों पर कान नहीं दिया तो 1925 में वे कांग्रेस से अलग हो गए. इस के अगले ही साल उन्होंने ब्राह्मणत्व को चुनौती देता आत्मसम्मान आंदोलन छेड़ दिया. तब पूरे देश की तरह मद्रास प्रांत में भी धर्म के अलावा प्रशासन और राजनीति में ब्राह्मणों का दबदबा था जो तादाद में पूरे देश की तरह तमिलनाडु में भी लगभग 3 फीसदी थे. दूसरे समकालीन दलित नेताओं की तरह पेरियार का भी यही मानना था कि समाजवाद से पहले देश को सामाजिक मुक्ति की जरूरत है.

उदयनिधि के मुंह से पेरियार उवाच

लगभग 100 साल पहले कही गई इस बात के बाद कावेरी नदी का बहुत पानी बह चुका है लेकिन हकीकत उस के साथ नहीं बही जो पिछले साल 2 सितंबर को उदयनिधि स्टालिन के मुंह से इन शब्दों में बयां हुई थी कि कुछ चीजें हैं जिन्हें हमें उखाड़ फेंकना होगा और हम सिर्फ उन का विरोध नहीं कर सकते.
डेंगू, मलेरिया और कोरोना ऐसी ही चीजें हैं जिन का हम विरोध नहीं कर सकते. हमें इन्हें उखाड़ फेंकना होगा. सनातन भी ऐसा ही है, विरोध नहीं इसे जड़ से खत्म करना हमारा पहला काम होना चाहिए.

बस, इतना सुनना था कि भगवा गैंग ने लावलश्कर ले कर उन पर चढ़ाई कर दी लेकिन उदयनिधि, पेरियार की तरह नहीं झुके और उन्होंने साफ कर दिया कि वे अपनी बात पर अडिग हैं और सनातन का विरोध करते रहेंगे. इस बाबत उन्हें कोर्टकचहरी से भी कोई परहेज नहीं, बाद में उन की पार्टी डीएमके के कई और दिग्गजों ने भी यही बात अलगअलग तरीकों से कही जो, हालांकि, पहले पेरियार कह चुके थे. और इसी सूत्र पर तमिलनाडु की राजनीति आज भी चलती है.

इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस फलसफे को अपना लेने वाला कौन है. एम जी रामचंद्रन से ले कर उदयनिधि के दादा करुणानिधि से होते जयललिता तक इसी फार्मूले पर राजनीति होती रही है. कभी सत्ता के सारे सूत्र चाबी की तरह अपने जनेऊ में लटकाए रखने वाले ब्राह्मण एक सदी से हाशिए पर हैं.

आंकड़े भी कम हैरतअंगेज नहीं

हिंदू राष्ट्र और ब्राह्मणवादी राजनीति का समीकरण दक्षिण में पलट जाता है तो इस की वजहें राजनीतिक कम, सामाजिक और धार्मिक ज्यादा हैं. 19 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तमिलनाडु में थे. इसी दिन भाजपा और पीएमके के बीच एक समझौता हुआ जिस के तहत भाजपा राज्य की 39 लोकसभा सीटों में से 29 पर अपने उम्मीदवार खड़े करेगी और पीएमके यानी पट्टाली मक्कल पार्टी 10 सीटों पर लड़ेगी.
पीएमके तमिलनाडु की एक क्षेत्रीय पार्टी है जिस के 215 सीटों वाली राज्य विधानसभा में कुल 5 विधायक हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में इस पार्टी को महज 3 फीसदी वोट मिले थे. पीएमके ने 2019 का लोकसभा चुनाव भी भाजपा के सहयोगी एआईएडीएमके से गठबंधन के साथ लड़ा था लेकिन उस के 7 उम्मीदवारों में से जीत कोई नहीं पाया था. तब उसे 5.36 फीसदी वोट मिले थे.

इस चुनाव में पीएमके ही नहीं बल्कि यह पूरा गठबंधन ही औंधेमुंह लुढ़का था. जिसे 39 में से केवल एक सीट ही नसीब हुई थी. अपने दौर के 2 पूर्व दिग्गज मुख्यमंत्रियों करुणानिधि और जयललिता के बगैर पहली बार हुए उस लोकसभा चुनाव में एआईडीएमके को एक सीट 19.39 वोटों के साथ मिली थी.
यह वह वक्त था जब देशभर में मोदी लहर चल रही थी लेकिन तमिलनाडु इस से बिलकुल अछूता था. भाजपा को केवल 3.66 फीसदी वोट मिले थे. जाहिर है, एआईएएमके और भाजपा की कुंडली नहीं मिली थी जिस की वजह वही हिंदुत्व था जिस से तमिलनाडु की जनता नाकभौं सिकोड़ती है.
डीएमके और कांग्रेस गठबंधन ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 53.15 फीसदी वोट हासिल किए थे. डीएमके को 24 सीटें व 33.52 फीसदी वोट और कांग्रेस को 8 सीटें व 12.61 फीसदी वोट मिले थे. इस एलायंस के सहयोगियों भाकपा और सीपीआईएम को भी 2-2 सीटें लगभग 5 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. मुसलिम लीग और वीसीके को भी एकएक सीट मिली थीं.

लेकिन 2014 के नतीजे पूरी तरह एआईएएमके के पक्ष में थे. उसे 37 सीटें 44.92 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. डीएमके और कांग्रेस दोनों का ही खाता भी नहीं खुल पाया था जिन्हें क्रमश 23.91 और 4.37 फीसदी वोट मिले थे. भाजपा को एक सीट 5.56 फीसदी वोटों के साथ मिल गई थी. एक सीट पीएमके को भी 4.51 फीसदी वोटों के साथ मिली थी. 2014 में भी मोदी लहर तमिलनाडु के तटों को भी छू नहीं पाई थी और जादू जयललिता का ही चला था.

लोकसभा के बाद 2021 के विधानसभा चुनाव में भी डीएमके के नए मुखिया मुख्यमंत्री एम के स्टालिन हीरो बन कर उभरे थे. जयललिता के बाद एआईएएमके टूटफूट और कलह का शिकार हो कर रह गई थी. जयललिता के उत्तराधिकारियों में जम कर जंग हुई थी जिस के चलते पहले ओ पनीरसेल्वम मुख्यमंत्री बने और उन के बाद के पलानीस्वामी ने यह कुरसी संभाली लेकिन वे खुद भी नहीं संभल पाए. चुनावों में वोटर उन से बेरुखी से ही पेश आया जिस ने 2021 के विधानसभा की 234 में से 159 सीटें डीएमके गठबंधन की झोली में 43.38 फीसदी वोटों के साथ डाल दी थीं.
डीएमके को 133 सीटें 37.70 फीसदी वोटों के साथ और कांग्रेस को 18 सीटें 4.27 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. भाकपा और वीसीके को क्रमश 2 और 4 सीटें कोई 1.85 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. मुसलिम लीग को 3 सीटें और 0.48 फीसदी वोट मिले थे. एआईएडीएमके को 66 सीटें 33.29 फीसदी वोटों के साथ हासिल हुई थीं. पीएमके को 5 सीटें 3.80 फीसदी वोटों के साथ और भाजपा को 4 सीटें 2.62 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं.

अभी भी सनातन ही है मुद्दा

एआईएडीएमके का साथ भाजपा को नहीं फलाफूला और यह गठबंधन पिछले साल ही टूट भी गया जिस की घोषित वजह यह थी कि प्रदेश के भाजपा नेता एआईएडीएमके के दिग्गज नेताओं, खासतौर से जयललिता, के बारे में बेसिरपैर की टिप्पणियां करने लगे थे. जो नेता तो नेता, जनता को भी रास नहीं आ रही थीं. प्रदेश भाजपा के मुखिया के अन्नामलाई ने कहा था कि दिग्गज तमिल नेता सी एन अन्नादुरइ ने साल 1956 में मदुरे में हिंदू धर्म का अपमान किया था जिस के चलते उन्हें छिपना पड़ा था और हिंदुओं से माफी मांगने के बाद ही वे मदुरै से आगे जा पाए थे.
अन्नामलाई दरअसल बड़ी ही धूर्तताभरी मासूमियत से तमिलनाडु के ब्राह्मणों की सहानुभूति और समर्थन टटोलना चाह रहे थे. ठीक वैसे ही जैसे 19 मार्च को ही नरेंद्र मोदी उदयनिधि स्टालिन के सनातन संबंधी बयानों को ढाल बना कर यह कह रहे थे कि इंडिया गठबंधन के नेता हिंदू धर्म के बारे में जानबूझ कर अनर्गल कमैंट करते रहते हैं.

उन का इशारा राहुल गांधी के शक्ति वाले बयान की तरफ भी था. अब भगवा गैंग के इन नेताओं की खुशफहमी शायद ही कोई दूर कर पाए कि द्रविड़ हिंदू धर्म का मतलब उत्तर भारत के दक्षिणापंथियों से लगाता है जिन्हें भाजपा पहले एआईएडीएमके की तो अब पीएमके की पीठ पर बैठा कर तमिलनाडु की बादशाहत तोहफे में दे देना चाहती है.
पीएमके मुखिया एस रामदास हालांकि पिछड़े वन्नियार समुदाय के हैं लेकिन दलितों के धुरविरोधी हैं जो कुछकुछ नहीं, बल्कि बहुतकुछ ब्राह्मणों सरीखा खुद को प्रदर्शित करते रहे हैं. साल 2010 में उन का दिया यह बयान काफी विवादों में रहा था कि जींस, टीशर्ट और गौगल पहनने वाले दलित पुरुष हमारी महिलाओं को ऐसी शादियों में फंसाते हैं जो सफल नहीं होतीं. ‘ऊंची जाति की औरतें दलित पुरुषों के लिए आसान टारगेट होती हैं’ जैसा कुंठित बयान भी देने वाले रामदास भाजपाइयों के बराबर से बैठ कर ही खुद के समय को सराह रहे हैं मानो कोई ब्राह्मण देवता उन की देहरी पर आ कर जन्म सफल कर रहा हो. यही हाल बिहार में चिराग पासवान का है.

एआईएडीएमके-भाजपा गठबंधन के टूटने की घोषित वजह यह थी कि भाजपा के राष्ट्रवाद से घबराए वोटरों ने एआईएडीएमके से भी किनारा करना शुरू कर दिया था जिसे समझ आ गया कि भाजपा को वोट देने का मतलब द्रविड़ अस्मिता और तेलुगू भाषा से मनचाहा खिलवाड़ करने का लाइसैंस जारी करना है. यही वजह है कि पिछले 2 चुनावों से वह डीएमके और कांग्रेस की जोड़ी को इफरात से वोट और सीटें दे रहा है. अब तो भाजपा और पीएमके का हाल एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा वाली कहावत को चरितार्थ कर रहा है.

 

जनता को कैसे मिलेगा हिस्सेदारी न्याय?

लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस ने ‘भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ के 5 स्तंभों- किसान न्याय, युवा न्याय, नारी न्याय, श्रमिक न्याय और हिस्सेदारी न्याय को अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल किया है. हर वर्ग में 5 गारंटियां हैं. इस तरह से कांग्रेस पार्टी ने कुल 25 गारंटियां दी हैं. बता दें कि वर्ष 1926 से ही देश के राजनीतिक इतिहास में कांग्रेस घोषणापत्र को ‘विश्वास और प्रतिबद्धता का दस्तावेज’ माना जाता है. कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का कहना है कि देश बदलाव चाहता है. मौजूदा मोदी सरकार की गारंटियों का वही हश्र होने जा रहा है जो 2004 में भाजपा के ‘इंडिया शाइनिंग’ नारे का हुआ था. इस के लिए हमारे हर गांव और हर शहर के कार्यकर्ताओं को उठ खड़ा होना होगा. उन्हें घरघर पार्टी के घोषणापत्र को पहुंचाना होगा.

हिस्सेदारी न्याय में गिनती करो तो जातीय गणना का मुददा पहला है. दूसरा मुद्दा आरक्षण का हक है जिस के तहत कहा गया है कि आरक्षण पर 50 फीसदी की सीमारेखा हटा दी जाएगी. जनसंख्या हिस्सेदारी के अनुसार एससी और एसटी को बजट में हिस्सा दिया जाएगा. वन अधिकार के तहत जल, जंगल और जमीन का कानूनी हक दिया जाएगा. अपनी धरती अपना राज्य के तहत जहां एसटी सब से ज्यादा हैं वहां उन को हक दिया जाएगा. वे क्षेत्र एसटी घोषित होंगे.

साधारणतया देखें तो यह दिखता है कि हिस्सेदारी की इस गारंटी में ओबीसी का नाम नहीं है. जिस ओबीसी को ले कर राहुल गांधी भाजपा और मोदी से सवाल कर रहे थे वह पूरी तरह से गायब है. देश पर सब से अधिक समय तक कांग्रेस की हुकूमत रही है. उस ने कभी धर्म और जाति के मसले को हल करने की कोशिश नहीं की. ऐसे में जनता कांग्रेस की इन गारंटियों पर कितना भरोसा करेगी, यह अहम सवाल है.
जब जाति और उस के अधिकार की बात आती है तो समझ आता है कि अंगेरजों के समय जो कांग्रेस थी उस की सोच सवर्णवादी थी. पंडित जवाहर लाल नेहरू के नाम में पंडित न होता तो कांग्रेस में वे होते ही नहीं. लोकमान्य तिलक से ले कर सरदार वल्लभभाई पटेल तक हिंदूवादी मानसिकता के थे. मुगल काल के दौरान देश में जाति व्यवस्था नहीं थी. अंगरेजों ने जनगणना के माध्यम से जाति व्यवस्था को मजबूत करने का काम किया. उन का सोचना था कि वे भारत में राज करने के लिए आए हैं, समाज सुधार करने नहीं. आर्य समाज जैसे संगठनों ने जाति सुधार की बात कही पर उस से धर्म-जाति व्यवस्था खत्म नहीं हुई, उलटे, देश में धर्म का प्रभाव बढ़ा जिस के फलस्वरूप देश आजादी के समय 2 अलगअलग देशों में बंट गया.

अंगरेजों ने जाति व्यवस्था को स्वीकार किया

समाज में आज जो जाति व्यवस्था देखने को मिल रही वह मुगल काल के पतन और भारत में अंगरेजी हुकूमत की शुरुआत के समय आगे बढी. 1860 और 1920 के बीच अंगरेजों ने भारतीय जाति व्यवस्था को अपनी सरकार चलाने का हिस्सा बना लिया था. प्रशासनिक नौकरियां और वरिष्ठ नियुक्तियां केवल ईसाइयों और कुछ जातियों के लोगों को दी गईं. 1920 के दशक के दौरान सामाजिक अशांति के कारण इस नीति में बदलाव आया. 1948 में जाति के आधार पर नकारात्मक भेदभाव को कानून द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया और 1950 में इसे भारतीय संविधान में शामिल किया गया. भारत में 3,000 जातियां और 25,000 उपजातियां हैं.
जाति शब्द पुर्तगाली शब्द कास्टा से लिया गया है जिस का अर्थ है नस्ल, वंश और मूलरूप से शुद्ध हो. यह भारतीय शब्द नहीं है. अब यह अंगरेजी और भारतीय भाषाओं में व्यापक रूप से उपयोग किया जाता है. ऋग्वेद के समय (1500-1200 ईसा पूर्व) में 2 वर्ण- आर्य वर्ण और दास वर्ण थे. यह भेद मूलतया जनजातीय विभाजनों से पैदा हुआ. वैदिक जनजातियां खुद को आर्य मानती थीं और प्रतिद्वंद्वी जनजातियों को दास, दस्यु और पणि कहा जाता था. दास आर्य जनजातियों के लगातार सहयोगी थे. इन को आर्य समाज में शामिल कर लिया गया, जिस से वर्गभेद को जन्म मिला.

वर्ण से बनी जातियां

अथर्ववेद काल के अंत में नए वर्गभेद सामने आए. पहले दासों का नाम बदल कर शूद्र कर दिया गया. आर्यों का नाम बदल कर वैश्य कर दिया गया. ब्राह्मणों और क्षत्रियों के नए कुलीन वर्गों को नए वर्ण के रूप में देखा जाने लगा. शूद्र न केवल तत्कालीन दास थे बल्कि इस में वे आदिवासी जनजातियां भी शामिल थीं जो गंगा की बस्तियों में विस्तार के साथ आर्य समाज में शामिल हो गईं.
उत्तर वैदिक काल में प्रारंभिक उपनिषद में शूद्र को पूसन या पोषणकर्ता कहा गया. इस का अर्थ शूद्र मिट्टी को जोतने वाले थे. अधिकांश कारीगरों को भी शूद्रों के वर्ग में खड़ा कर दिया गया. ब्राह्मणों और क्षत्रियों को अनुष्ठानों में विशेष स्थान दिया गया है जो उन्हें वैश्यों और शूद्रों दोनों से अलग करता है. ब्राह्मणवादी ग्रंथ 4 तरह की वर्णव्यवस्था की बात करते हैं. बौद्ध ग्रंथों में ब्राह्मण और क्षत्रिय को वर्ण के बजाय जाति के रूप में वर्णित किया गया है. शूद्रों का उल्लेख चांडाल, बांस बुनकर, शिकारी, रथनिर्माता और सफाईकर्मी जैसे व्यावसायिक वर्गों के रूप में किया गया था.

महाभारत में वर्णव्यवस्था का जिक्र मिलता है. भृगु के माध्यम से यह बताया गया कि ब्राह्मणों का वर्ण सफेद, क्षत्रियों का लाल, वैश्यों का पीला और शूद्रों का काला था. इन वर्गो के कामों के आधार पर भी विभाजन किया गया. सुख और साहस के इच्छुक को क्षत्रिय वर्ण कहा गया. जो लोग पशुपालन में रुचि रखते थे और हल चला कर जीवनयापन करते थे उन्हें वैश्य वर्ण में रखा गया. जो लोग हिंसा, लोभ और अपवित्रता के शौकीन थे उन्हें शूद्र वर्ण कहा गया. ब्राह्मण वर्ग को सत्य, तपस्या और शुद्ध आचरण के प्रति समर्पित मनुष्य के रूप में दर्शाया गया.

मुसलिम इतिहासकारों हाशिमी और कुरेशी ने 1927 और 1962 में प्रकाशित पुस्तक में यह प्रमाणित किया कि भारत में जातिव्यवस्था इसलाम के आगमन से पहले स्थापित हो गई थी. उत्तरपश्चिम भारतीय उपमहाद्वीप में खानाबदोश जंगली जीवनशैली इस का प्रमुख कारण था. जब अरब मुसलिम सेनाओं ने इस क्षेत्र पर आक्रमण किया तो बड़े पैमाने पर निचली जातियों ने धर्मांतरण किया. इसलाम में जातिव्यवस्था नहीं थी. इस कारण से मुगल काल में जातिव्यवस्था को बढ़ावा नहीं मिला. इतिहास के प्रोफैसर रिचर्ड ईटन का दावा है कि भारत में इसलामिक युग से पहले हिंदू जातिव्यवस्था थी.

मुगलों के दौर में नहीं थी जातिव्यवस्था

प्रोफैसर पीटर जैक्सन लिखते हैं कि मध्ययुगीन दिल्ली सल्तनत काल (1200 से 1500) के दौरान हिंदू राज्यों में जातिव्यवस्था के लिए हिंदू धर्म जिम्मेदार है. जैक्सन का कहना है कि जाति के सैद्धांतिक मौडल के विपरीत, जहां केवल क्षत्रिय ही योद्धा और सैनिक हो सकते हैं, ऐतिहासिक साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते हैं कि मध्ययुगीन युग के दौरान हिंदू योद्धाओं और सैनिकों में वैश्य और शूद्र जैसी अन्य जातियां भी शामिल थीं. जैक्सन लिखते हैं, इस बात का कोई सबूत नहीं है कि 12वीं शताब्दी के अंत में निचली जाति के हिंदुओं द्वारा व्यापक रूप से इसलाम में धर्म परिवर्तन किया गया था.
ब्रिटिश शासन के दौरान 1881 की जनगणना में लोगों की गिनती जाति के रूप में की गई. 1891 की जनगणना में 60 उप समूह शामिल थे, जिन में से प्रत्येक को 6 और व्यावसायिक नस्ल की श्रेणियों में विभाजित किया गया था. बाद की जनगणनाओं में यह संख्या बढ़ गई. 1860 और 1920 के बीच अंगरेजों ने अपनी शासन प्रणाली में जातिव्यवस्था को शामिल कर लिया, प्रशासनिक नौकरियां और वरिष्ठ नियुक्तियां केवल उच्च जातियों को दी गईं, जनजातियों में अपराधी किस्म के लोगों को रखा गया.

ब्रिटिश सरकार ने 1871 का आपराधिक जनजाति अधिनियम लागू किया. इस कानून ने घोषित किया कि कुछ जातियों के सभी लोग आपराधिक प्रवृत्ति के साथ पैदा हुए थे. इतिहास के प्रोफैसर रामनारायण रावत कहते हैं कि इस अधिनियम के तहत जन्म से अपराधी जातियों में अहीर, गुर्जर और जाट शामिल थे. बाद में इस में अधिकांश शूद्र और अछूत, जैसे चमार और साथ ही संन्यासी व पहाड़ी जनजातियां शामिल हो गईं.

1900 से 1930 के दशक के दौरान पश्चिम और दक्षिण भारत में आपराधिक जातियों की संख्या बढ़ी. सैकड़ों हिंदू समुदायों को आपराधिक जनजाति अधिनियम के तहत लाया गया. 1931 में अकेले मद्रास प्रैसिडैंसी में 237 आपराधिक जातियों और जनजातियों को इस अधिनियम के तहत शामिल किया गया. इस तरह से देश जाति में बंटा और धर्म उस के उपर हावी हो गया. हिंदू धर्म को बढ़ावा देने वालों में दक्षिणापंथी लोग तो थे ही, कांग्रेस में भी बड़े पैमाने पर इस विचारधारा के लोग हावी रहे. जिन से मतभेद के कारण जवाहर लाल नेहरू समाज में वह सुधार नहीं कर पाए जिस के बारे में वे सोचते थे.

राहुल कैसे न्याय दिला पाएंगे

कांग्रेस नेता राहुल गांधी हिस्सेदारी न्याय कैसे दिला पाएंगे क्योकि जो जातीय व्यवस्था बनी है उस को अन्याय परोसने के लिए ही बनाया गया है. इस व्यवस्था का लाभ नेता, अफसर, पंडे और साहूकार सब मिल कर उठा रहे है. संविधान कहता है कि लोकतंत्र में जाति और धर्म का कोई स्थान नहीं होता है. चुनाव में जाति और धर्म की बात नहीं करनी चाहिए. इस के बाद भी चुनावों पर जाति और धर्म दोनों हावी हैं.

अगर जातीय गणना की जाए तो ब्राहमण 7 से 8 फीसदी ही होगा. इस के बाद भी वह 18 से 20 फीसदी तक का दावा करता है. यह दावा इसलिए है ताकि वह सत्ता की चाबी अपने पास रख सके, अपने हिसाब से देश और कानून को चला सके. जातीय जनगणना में 85 बनाम 15 का दावा किया जाता रहा है. 15 फीसदी अगड़ी जातियां और 85 फीसदी में बाकी सब जातियां हैं. 15 में ब्राहमण अकेले कैसे 18 से 20 फीसदी हो सकता है, यह सोचने वाली बात है.

ब्राहमण अपनी संख्या इसलिए ज्यादा बताता है जिस से उस की भागीदारी अधिक से अधिक रहे. वह पूजापाठी व्यवस्था को बनाए रखना चाहता है. वह हर क्षेत्र में अपनी पकड़ मजबूत रखना चाहता है. वह खुद तो पढनालिखना चाहता है पर दूसरों को पढने से मना करता है. दक्षिणापंथी मानसिकता धर्म को बढावा देती है. इस के लिए मंदिर बनाएं जा रहे हैं ताकि जिन के जरिए चंदा वसूल किया जा सके. रोजगार खत्म किए जा रहे ताकि युवा मंदिरों पर आश्रित रहे.

राहुल गांधी ने जब ‘शक्ति’ से लड़ने की बात की, तो पूरा दक्षिणापंथी समाज उन के ऊपर टूट पडा. ऐसे में समाज को हिस्सेदारी कैसे दी जा सकती है? हिस्सेदारी न्याय में गिनती करो यानी जातीय गणना, आरक्षण, हिस्सेदारी के अनुसार एससी और एसटी को बजट और वन अधिकार, अपनी धरती अपना राज्य जैसे मुददे शमिल किए गए हैं, जिन का विरोध दक्षिणापंथी लोग करते हैं. ऐसे में राहुल गांधी कैसे इस मकड़जाल से समाज को निकाल पाएंगे, यह सोचने वाली बात है.

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