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जय दलबदल

राज्यसभा के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी के चुनाव मैनेजरों ने कमाल दिखाते हुए हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश में एकएक सीट ज्यादा जीत ली. उन्होंने ‘रामभक्त’ विधायकों को ढूंढ़ा जो कांग्रेस या समाजवादी पार्टी के टिकट पर जीत कर विधायक बन कर आए थे और उन्हें भाजपा उम्मीदवार को वोट देने को राजी कर लिया.

सांसदों, विधायकों, पार्षदों का आयाराम गयाराम खेल एंटी डिफैक्शन एक्ट 1985 व 2003 के बावजूद आज भी चल रहा है और पिछले सालों में कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार आदि में सरकारें तक बदली हैं. भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा के मैनेजरों का कमाल है कि वे जनता के वोट पर उन के विरुद्ध जीत कर आए, चुने गए जनप्रतिनिधियों से बातचीत बंद नहीं करते और उन्हें भक्ति वाले खेमे में लाने के लिए लगातार कोशिशें करते रहते हैं.

दूसरी पार्टियों के पास आज धर्म की काट करने वाला कोई तर्क नहीं है. वोटर ने चाहे धर्म की राजनीति की जगह दूसरे मुद्दों पर वोट दिया हो, भाजपा मैनेजर चुप नहीं रहते और लगातार मेहनत करते रहते हैं कि धर्म की ‘तथाकथित रक्षा’ के लिए दलबदल का पाप करना गलत नहीं है. यह तो जाहिर ही है कि धर्म वाली पार्टी के साथ जाने पर परलोक सुधरने की ‘तथाकथित गारंटी’ होती है, हां, इहलोक फिलहाल जरूर सुधरता है.

धर्म के नाम पर जो लोग पार्टियां बदल लेते हैं उन्हें इहलोक में बहुत से दैत्यों के आक्रमणों से छुटकारा भी मिल जाता है. जब जातिगत श्रेष्ठता मिल रही हो, सुरक्षा मिल रही हो, तथाकथित स्वर्ग मरने से पहले मिल रहा हो व मरने के बाद भी मिलने की तथाकथित गारंटी हो तो ऐसे में आम जनता की कौन और क्यों चिंता करे, जय दलबदल.

बोझ नहीं रिश्ते दिल के: भाग 3

आखिरकार, सविता दीदी उस के सामने खुली किताब की तरह खुलती चली गयीन. जमाने के तीरों से लहूलुहान पर यत्न कर सहेज कर रखा दिल का दर्द उन की जबां पर आ ही गया. उस समय उन्होंने जो कहा उस का सारांश यह था कि उन का पति प्रतिष्ठित बिजनैसमैन परिवार का होने के बावजूद शराबी, जुआरी तथा दुराचारी था. उस के मातापिता को उस के ये अवगुण, अवगुण नहीं गुण नजर आते थे. उस ने अपने पति को समझाने की बहुत कोशिश की. पर वह नहीं माना. एक दिन शराब के नशे में उस ने उस के साथ संबंध बनाना चाहा तो मुंह से आती दुर्गंध ने उसे विरोध करने पर विवश कर दिया. फिर क्या था, उस ने उस पर हाथ उठा दिया. 

बहुत रोई थी वह उस दिन. अपने मातापिता से जब इस संबंध में बात की तो उन्होंने कहा, ‘सब्र कर बेटी, धीरेधीरे उस के सारे ऐब तेरे प्यार से समाप्त होते जाएंगें.’

पर ऐसा नहीं हो पाया. उस ने हर तरह से उस के साथ निभाने की कोशिश की. न चाहते हुए भी वह प्रैग्नैंट हो गई, पर उस के स्वभाव में कोई अंतर नहीं आ रहा था. गर्भावस्था के अंतिम दिनों में जब पत्नी को पति के सहारे की अत्यंत आवश्यकता होती है तब भी वह रातरातभर बाहर रहता था. यहां तक कि विपुल के जन्म के समय भी वह उस के पास नहीं था. किसी काम के कारण अगर वह न आ पाता तो कोई बात नहीं थी पर वह तो सुरासुंदरी में खोया रहता था. न जाने कैसी नफरत उस के दिल में समा गई थी कि उस ने उसी वक्त उसे छोड़ने का निर्णय ले लिया. आखिर कब तक वह जलालतभरी जिंदगी जीती. वह उसे छोड़ कर मायके चली आई.

उस के मातापिता ने उस के इस निर्णय का विरोध किया. ससुराल जा कर पैचअप कराने की कोशिश भी की पर उस के ससुराल वाले भी बेटे की तरह ही अक्खड़ निकले तथा बोले, ‘थोड़ा शराब पी कर मस्ती कर लेता है तो क्या बुराई है? यह तो अमीरजादों का लक्षण है. हमें क्या पता था कि आप लोग सोलहवीं सदी की मानसिकता वाले होंगे वरना हम अपने बेटे का विवाह आप के घर कभी न करते. वैसे भी दोष तो आप की लड़की का ही है जो उसे घर में बांध कर नहीं रख पाई.’

 मम्मीपापा अपना सा मुंह ले कर लौट आए तथा फिर से उस से अपने घर लौट कर स्थितियों को अपने अनुकूल बनाने का प्रयत्न करने के लिए कहने लगे पर इतना सब होने पर लौटना उसे अपने आत्मसम्मान के विरुद्ध लगा. उस ने सीधेसीधे कह दिया कि अगर आप भी नहीं रखना चाहते तो कोई बात नहीं, मैं कोई और ठिकाना ढूंढ़े लूंगी. उस समय उस के छोटे भाई सरल ने मम्मीपापा के विरुद्ध जा कर उस का साथ दिया था. उस ने उसे ढाढस बंधाते हुए कहा था, ‘दीदी, तुम कहीं नहीं जाओगी. वैसे भी जिसे मेरी बहन की परवा नहीं है, उस के साथ मेरी बहन नहीं रहेगी.’ यह कह कर सरल ने अपना फैसला सुना दिया.

अभी यह सब कह ले पर जब बीवी आ जाएगी तब मुंह पर ताले लग जाएंगे. बेकार उसे शह दे कर उस की जिंदगी बरबाद कर रहा है. थोड़ाबहुत तो सब जगह चलता है पर हमारे खानदान में आज तक ऐसा कहीं नहीं हुआ कि बेटी ससुराल छोड़ घर बैठ जाए,’ मां ने उसे फटकारते हुए कहा था.

अगर ऐसा कभी नहीं हुआ तो यह कोई आवश्यक तो नहीं कि कभी हो ही न. हर काल में परिस्थतियां भिन्नभिन्न होती हैं, उसी के अनुसार इंसान को निर्णय लेना पड़ता है. मेरी बहन अनाथ नहीं है जो ऐसी जलालतभरी जिंदगी जिए. तुम परेशान मत हो, मां. दीदी की जिम्मेदारी उठाने का अगर मैं ने वादा किया है तो पूरी जिंदगी उठाऊंगा. पर मैं उसे उस शराबी, जुआरी के साथ रहने को मजबूर नहीं करूंगा,’ सरल ने दृढ़ स्वर में कहा.

इस की गलत बात को समर्थन दे कर तू ठीक नहीं कर रहा है. भुगतेगा एक दिन. और फिर हमारा समाज क्या वह इसे चैन से जीने देगा,’ मां ने उसे धमकी दी थी.

कैसी मां हैं आप, जो अपनी ही बेटी के दर्द को महसूस नहीं कर पा रही हैं. समाजसमाज, कहां था समाज जब जीजा ने आप की बेटी को थप्पड़ मारा. आदमी का हर ऐब समाज के लिए ठीक है लेकिन जब एक स्त्री अपना सम्मान से जीने का अधिकार मांगती है तो वह गलत है,’ सरल ने आक्रोशित स्वर में कहा.      

मां सरल की बात सुन कर उस समय चुप हो गईं. सरल के सहयोग से उन्होंने तलाक की अर्जी दे दी. ससुराल वालों को भला क्या आपत्ति थी. आखिर दोष तो लड़कियों में होता है, लड़कों में नहीं. उन्हें फिर से अपने बेटे का दूसरा विवाह कर अपनी तिजोरी भरने का एक और मौका मिल गया था.  

मां के तथा सगेसंबंधियों के व्यवहार ने सविता मेम को मायके में भी चैन से रहने नहीं दिया. सो, विपुल के थोड़ा बड़ा होते ही उन्होंने नौकरी के लिए एप्लाई करना प्रारंभ कर दिया. नौकरी मिलते ही वे विपुल को ले कर यहां आ गईं. अगर वहां रहतीं तो शायद शांति से जी न पातीं. वही लोग, वही बातें. उन की चिंता से अधिक उन की लाचारी, बेबसी लोगों को परेशान करती. वे उस माहौल में उन लोगों के साथ रह कर बेबस और लाचार नहीं कहलाना चाहती थीं. औरों की तो छोड़िए, उन की अपनी मां उन की स्थिति के लिए जबतब आंसू बहा कर कभी उन्हें दोषी ठहरातीं तो कभी जमाने को कोसतीं. कभी तो यहां तक भी कह देतीं कि लड़कियों को ज्यादा पढ़ाना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना है.

पति से तलाक लेने के बाद सविता मेम के भाई ने फिर से विवाह करने के लिए उन्हें समझाने की बेहद कोशिश की. यह भी कहा कि कोई आवश्यक नहीं कि एक जगह नहीं बन पाई तो दूसरी जगह भी न बने यहां तक कि उन के भविष्य के लिए उस ने विपुल को अपने पास रखने की भी पेशकश कर डाली पर वे इतनी स्वार्थी कैसे हो सकती थीं कि अपने सुख के लिए अपने ही कोखजाए से मुंह मोड़ लेतीं या भाई पर सदा के लिए अपने बेटे का बोझ डाल देतीं. माना भाई को वह बोझ नहीं लगता लेकिन दूसरे घर से आई लड़की को वे कैसे मुंह दिखातीं. क्या वह उस के विपुल को स्वीकार कर पाती ? वैसे भी, एक विवाह कर के तो वे देख ही चुकी थीं. पतिरूपी पुरुष जाति से न जाने क्यों उसे नफरत हो गई थी. सो, मना कर दिया.

पिछले कुछ दिनों की घटनाओं ने उन की इस धारणा को पुख्ता कर दिया था कि आज की नारी में इतना दमखम है कि अगर वह चाहे तो अपना संसार स्वयं सजासंवार सकती है. आखिर वह क्यों एक ऐसे आदमी की दूसरी पत्नी बने जिस की आंखों में उस के लिए दया के अतिरिक्त कुछ न हो. जो उसे अपनी अर्धांगिनी नहीं, अपने बच्चों की मां बना कर लाए. उस से सदा कर्तव्यों की बात करता रहे पर अधिकार न दे यहां तक कि अगर दूसरी पत्नी के बच्चा हो तो उसे भी पितृत्व के साए से दूर रखने का प्रयत्न करे. हां, कुछ अपवाद अवश्य हो सकते हैं पर वे शायद उंगलियों में गिनने लायक ही होंगे.

सविता मेम की बातों ने अनुजा को बहुत प्रभावित किया था. सचमुच अपने आत्मसम्मान और आत्मगौरव की रक्षा करना आदमी का ही नहीं, औरत का भी हक है. उस ने उन से ही सीखा. बीचबीच में उन के मांपिताजी उन से मिलने आते, उन्हें तरहतरह की नसीहतें देते पर वे टस से मस न होतीं. वे मायूस हो कर चले जाते. केवल उन का भाई ही उन की हौसलाअफजाई करता रहता तथा जबतब आ कर उन की हर संभव मदद करने की कोशिश करता. उन के जाने के बाद वे कुछ दिन उदास रहतीं, फिर सहज हो जातीं. पता नहीं कब वे सविता मेम से उस के लिए दीदी बन गईं. 

 अड़ोसपड़ोस के लोगों में उन के प्रति धारणा बदलने के साथ, समय के साथ धीरेधीरे सविता दीदी के स्वभाव में भी परिवर्तन आने लगा. सदा धीरगंभीर रहने वाली दीदी अब हंसने भी लगी थीं. कोई घर बुलाता, तो चली भी जातीं.

 अनुजा के भाई अभिनव के आईआईटी में सिलैक्शन के उपलक्ष्य में मां ने छोटी सी पार्टी दी. उस पार्टी को जानदार और खुशनुमा बनाने के लिए उस ने ‘पासिंग द पार्सल गेमरखा था. गेम सब को खेलना था. अपनी चिट के अनुसार सब को गाना सुनाना था. सविता दीदी की गाने की चिट निकली. उन का गाना लोगों को इतना पसंद आया कि गेम के बाद उन से गाने की फरमाइश की जाने लगी. उन्होंने भी फरमाइश करने वालों का दिल रखा. इस के बाद कोई भी पार्टी उन के गाने के बिना पूरी ही नहीं होती थी. अंधकार के बाद सुबह होती है, वे इस का ज्वलंत उदाहरण थीं.

धीरेधीरे ममा के विचार भी उन के प्रति बदलने लगे. अब तीजत्योहारों पर उन्हें अपने घर यह कह कर बुलाने लगीं कि अकेले रह कर क्या त्योहार मनाओगी, यहीं आ जाया करो, हम सब को अच्छा लगेगा. परिवर्तन की इस बयार ने उन में एक अनोखी ऊर्जा का संचार कर दिया था. अब वे सब के साथ सहज हो चली थीं.   पहले उन से कतराने वाले सभी लोग अब उन की बुराई नहीं, प्रसंशा करते थे. यहां तक कि अब वे अपने बच्चों से संबंधित समस्याओं पर भी उन की राय लेने लगे और वे उन की उम्मीदों पर खरी उतर रही थीं. अड़ोसपड़ोस के बच्चे भी उन का मार्गदर्शन प्राप्त कर अपनीअपनी मंजिलों की ओर बढ़ रहे थे. अब वे केवल उस की ही नहीं, सब की दीदी बन गई थीं- जगत दीदी.

 

पति कौलगर्ल के साथ संबंध बनाते हैं, मैं क्या करूं?

सवाल

मैं 42 वर्षीय विवाहिता हूं. विवाह को 16 वर्ष हो चुके है, 2 बेटे हैं. सुखी व संपन्न दांपत्य है. 3 महीने पहले तक मैं अपने को एक सफल गृहिणी और पति की प्रेयसी समझती रही, पर अचानक एक दिन ज्ञात हुआ कि पति जब कईकई दिनों के लिए टूर पर जाते हैं तो वहां (मुंबई में) किसी कौलगर्ल से मन बहलाते हैं.

यह सचाई जानने के बाद से मेरी रातों की नींद उड़ गई है. मुझे अपनेआप से ग्लानि होने लगी है. जिस पति पर मैं आंख मूंद कर विश्वास करती रही उस ने मेरे साथ विश्वासघात किया. मैं ने उन से तो कोई बात जाहिर नहीं की पर अंदर ही अंदर घुलती जा रही हूं. समझ में नहीं आ रहा है कि  इस स्थिति को कैसे संभालूं. पति मेरा उखड़ा मूड़ और चिंतित चेहरा देख कर कई बार पूछ चुके हैं. मैं ने तबीयत ठीक न होने की बात कह कर टाल दिया है. कृपया बताएं कि मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब

आप का परेशान होना स्वाभाविक है, पर आप के चिंतित और तनावग्रस्त रहने से समस्या हल नहीं होगी. इस के लिए आप को खुद प्रयास करना होगा. पति को सामने बैठा कर उन से बात करें. उन्हें समझाएं कि इस तरह का आचरण अनुचित तो है ही उन के स्वयं के भी हित में नहीं है. कौलगर्ल्स के कईकई मर्दों के साथ संबंध रहते हैं और उन से संबंध बनाने से एड्स जैसी बीमारी होने का भी खतरा रहता है. इसलिए उन्हें इस व्यभिचार से तोबा करनी चाहिए. उन्हें प्यार से, गुस्से से जैसे भी हो समझाएं और यह भी कहें कि यदि वे इस अनाचार को नहीं छोड़ते हैं तो आप उन के साथ शारीरिक संबंध नहीं रखेंगी.

संजोग: मां-बाप के मतभेद के कारण विवेक ने क्या किया?

लेखिका- मीनू त्रिपाठी

जीवन में कुछ परिवर्तन अचानक होते हैं जो जिंदगी में खुद के दृष्टिकोण पर एक प्रश्नचिह्न लगा जाते हैं. पुराना दृष्टिकोण किसी पूर्वाग्रह से घिरा हुआ गलत साबित होता है और नया दृष्टिकोण वर्षा की पहली सोंधी फुहारों सा तनमन को सहला जाता है. सबकुछ नयानया सा लगता है.

कुछ ऐसा ही हुआ विवेक के साथ. कौसानी आने से पहले मां से कितनी जिरह हुई थी उस की. विषय वही पुराना, विवाह न करने का विवेक का अडि़यल रवैया. कितना समझाया था मां ने, ‘‘विवेक शादी कर ले, अब तो तेरे सभी दोस्त घरपरिवार वाले हो गए हैं. अगर तेरे मन में कोई और है तो बता दे, मैं बिना कोई सवाल पूछे उस के साथ तेरा विवाह रचा दूंगी.’’

विवेक का शादी न करने का फैसला मां को बेचैन कर देता. पापा कुछ नहीं कहते, लेकिन मां की बातों से मूक सहमति जताते पापा की मंशा भी विवेक पर जाहिर हो जाती, पर वह भी क्या करे, कैसे बोल दे कि शादी न करने का निर्णय उस ने अपने मम्मीपापा के कारण ही लिया है. पतिपत्नी के रूप में मम्मीपापा के वैचारिक मतभेद उसे अकसर बेचैन कर देते. एकदूसरे की बातों को काटती टिप्पणियां, अलगअलग दिशाओं में बढ़ते उन के कदम, गृहस्थ जीवन को चलाती गाड़ी के 2 पहिए तो उन्हें कम से कम नहीं कहा जा सकता था.

छोटीबड़ी बातों में उन के टकराव को झेलता संवेदनशील विवेक जब बड़ा हुआ तो शादी जैसी संस्था के प्रति पाले पूर्वाग्रहों से ग्रसित होने के कारण वह विवाह न करने का ऐलान कर बैठा. मम्मीपापा ने शुरू में तो इसे उस का लड़कपन समझा, धीरेधीरे उस की गंभीरता को देख वे सचेत हो गए.

पापा अब मम्मी की बातों का समर्थन करने लगे थे. वे अकसर विवेक को प्यार से समझाते कि सही निर्णय के लिए एक सीमा तक वैचारिक मतभेद जरूरी है. यह जरूर है कि नासमझी में आपसी सवालजवाब सीमा पार कर लेने पर टकराव का रूप ले लेते हैं, पर सिक्के का एक दूसरा पहलू भी है. समझदारी व आपसी सामंजस्य से विषम परिस्थितियों में भी तालमेल बिठाया जा सकता है.

विवाह जैसी संस्था की जड़ें बहुत गहरी व मजबूत होती हैं. छोटीमोटी बातें वृक्ष को हिला तो सकती हैं, पर उसे उखाड़ फेंकने का माद्दा नहीं रखतीं. उन की ये दलीलें विवेक को संतुष्ट न कर पातीं, लेकिन कौसानी आने पर अचानक ऐसा क्या हुआ कि दिल के जिस कोमल हिस्से को जानबूझ कर उस ने सख्त बना दिया था. उस के द्वारा बंद किए उस के दिल के दरवाजे पर कोई यों अचानक दस्तक दे प्रवेश कर जाएगा, किसी ने कहां सोचा था.

कौसानी में होटल के रिसैप्शन पर रजिस्टर साइन करते समय डा. विद्या के नाम पर उस की नजर पड़ी थी. उस शाम कैफेटेरिया में एक युवती ने बरबस ही उस का ध्यान खींचा.

सांवली सी, बड़ीबड़ी हिरनी सी बोलती आंखें, कमर तक लहराते केश, हलके नीले रंग की शिफान की साड़ी पहने वह सौम्यता की मूर्ति लग रही थी.

विवेक अपनी दृष्टि उस पर से हटा न पाया और बेखयाली में ही एक कुर्सी पर बैठ गया. तभी किसी ने आ कर कहा, ‘‘ऐक्सक्यूज मी, यह टेबल रिजर्व है…’’ उस ने झुक कर देखा तो नीचे लिखा था, डा. विद्या. वह जल्दी से खड़ा हो गया, तभी मैनेजर ने दूसरी टेबल की तरफ इशारा किया और वह उस तरफ जा कर चुपचाप बैठ गया.

‘डा. विद्या’ कितनी देर तक यह नाम उस के जेहन में डूबताउतराता रहा था. वह युवती डा. विद्या की जगह पर बैठ गई. कुछ ही देर में 2 अनजान मेहमान आए और वह उन से कुछ चर्चा करती रही. विवेक की नजरें घूमफिर कर उस पर टिक जातीं. उस के बाद तो यह सिलसिला सा बन गया था.

डा. विद्या के आने से पहले ही उस की महक फिजा में घुल कर उस के आने का संकेत दे देती. विवेक की बेचैन नजरें बढ़ी हुई धड़कन के साथ उसे खोजती रहतीं. उस पर नजर पड़ते ही उस का गला सूखने लगता और जीभ तालु से लग जाती.

वह सोचता कि यह क्या हो रहा है. ऐसा तो आज तक नहीं हुआ. सांवली सी, चंचलचितवन वाली इस लड़की ने जाने कौन सा जादू कर दिया, जिस ने उस का चैन छीन लिया है. कौसानी के ये 4-5 दिन तो जैसे पंख लगा कर उड़ गए. समय बीतने का एहसास तक नहीं हुआ.

कल विवेक के सेमिनार का अंतिम दिन था. उस दिन उस के दोस्त ध्रुव का फोन आया, वह काफी समय से विवेक को कौसानी बुला रहा था. इत्तेफाक से विवेक का सेमिनार कौसानी में आयोजित होने से उसे वहां जाने का मौका मिल गया, लेकिन अचानक ध्रुव को कुछ काम से दिल्ली जाना पड़ा.

इस होटल में ध्रुव ने ही विवेक की बुकिंग करवाई थी. ध्रुव दिल्ली में था, वरना तो वह अपने परम मित्र को कभी भी होटल में नहीं रहने देता. उस की नईनई शादी हुई थी, तो विवेक ने भी ध्रुव की अनुपस्थिति में उस के घर रहना ठीक नहीं समझा.

‘‘हैलो, धु्रव… कहां है यार, मुझे बुला कर तो तू गायब ही हो गया.’’

‘‘माफ कर दे यार, मुझे खुद इतना बुरा लग रहा है कि क्या बताऊं? मैं परसों तक कौसानी पहुंच जाऊंगा. ईशा भी तुझ से मिलना चाहती है. मैं ने उसे अपने बचपन के खूब किस्से सुनाए हैं. तब तक तुम अपना सेमिनार निबटा लो, फिर हम खूब मस्ती करेंगे,’’ ध्रुव ने फोन पर कहा.

दूसरे दिन विवेक का सेमिनार था. होटल आतेआते उसे शाम हो गई थी. वह थक गया था. फ्रैश हो कर वह कैफेटेरिया की तरफ गया. प्रवेश करते ही उस का सामना फिर डा. विद्या से हुआ. वह नाश्ता कर रही थी. हलके गीले बाल, जींस के ऊपर चिकन की कुरती पहने, वह ताजी हवा की मानिंद विवेक के दिल को छू गई.

वह असहज हो गया था. उस के दिल की धड़कनें बढ़ गई थीं. जाने क्यों, उसे ऐसा लगा कि पाले के उस पार बैठी उस युवती के हृदय में भी कुछ ऐसा बवंडर उठा है. क्या वह भी अपने परिचय का दायरा विस्तृत करना चाहती है? वे दोनों ही अनजान बने बैठे थे. उन की नजरें जबतब इधरउधर भटक कर एकदूसरे पर पड़ जातीं. तभी वेटर ने आ कर पूछा, ‘‘आप कुछ लेंगे,’’ तो विवेक को मन मार कर उठना पड़ा. वह समझ गया कि यों अंधेरे में तीर चलाने का कोई फायदा नहीं है.

कमरे में आते ही उस ने अपना लैपटौप निकाला. अपना ईमेल अकाउंट खोला, तो उस में फेसबुक की तरफ से मां का मैसेज देखा. उस लिंक पर जाने पर मां की फ्रैंड्स लिस्ट में एक चेहरे पर उस की नजर पड़ी जिसे देख कर वह चौंक उठा, ‘‘ओ माई गौड, यह यहां कैसे?’’

मां की फ्रैंड्स लिस्ट में डा. विद्या की तसवीर देख उस की आंखें विस्मय से फैल गईं. शायद धोखा हुआ है, परंतु नाम देख कर तो विश्वास करना ही पड़ा. मां कैसे जानती हैं इसे. उस ने पहले तो कभी इस चेहरे पर ध्यान ही नहीं दिया.

विवेक चकरा गया था. शायद मां की मैडिकल एडवाइजर हों. उस ने तुरंत मां को फोन कर के डा. विद्या के बारे में पूछा, तो उन्होंने सहजता से बताया, ‘‘यह तो मेरी डाक्टर है. तुम्हारे दोस्त ध्रुव ने ही तो इस के बारे में बताया था. यह धु्रव की दोस्त है और काफी नामी डाक्टर है यहां की.’’

विवेक की जिज्ञासा चरम पर पहुंचने लगी. उस ने तुरंत फ्रैंड्स लिस्ट के माध्यम से विवेक का फेसबुक अकाउंट खोला, तो उस में भी उस युवती की तसवीर थी. ध्रुव के वालपोस्ट को चैक करने पर उस के द्वारा विद्या को दिया गया मैसेज देखा, जिस में ध्रुव ने विद्या को विवेक के कौसानी आने के बारे में बताया था.

विवेक ने डा. विद्या वाली उलझी गुत्थी को सुलझाने के लिए ध्रुव को फोन लगाया तो लगातार उस का फोन स्विच औफ आता रहा. ईशा भाभी से पूछना कुछ ठीक नहीं लगा. क्यों न हिम्मत कर डा. विद्या से ही बात करूं कि यह माजरा क्या है? पर अब रात बहुत हो चुकी थी. अभी जाना ठीक नहीं है. पूरी रात उस की करवटें बदलते बीती. सुबहसुबह ही उस ने रिसैप्शन से डा. विद्या के बारे में पता किया, तो पता चला मैडम सुबहसुबह ही कहीं निकल गई हैं.

ध्रुव का मोबाइल अभी भी स्विच औफ आता रहा. उस की बेचैनी व उत्कंठा बढ़ती ही जा रही थी. वह रिसैप्शन में ही डेरा डाल कर बैठ गया. अचानक ध्रुव ने प्रवेश किया, वह जैसे ही उस की ओर बढ़ता ईशा से बतियाती डा. विद्या भी साथ आती दिखी. विवेक के कदम वहीं थम गए. उसे पसोपेश में पड़ा देख ध्रुव शरारत से मुसकराया. विद्या एक औपचारिक ‘हैलो’ करती हुई बोली, ‘‘मैं अभी फ्रैश हो कर आती हूं, आज का डिनर तुम दोस्तों को मेरी तरफ से,’’ कह कर वह चली गई.

विवेक को चक्कर में पड़ा देख ध्रुव को हंसी आ गई.

‘‘तुम जानते हो इसे,’’ विवेक ने पूछा तो कंधे उचाकते हुए ध्रुव बोला, ‘‘हां, दोस्त है मेरी, मतलब हमारी पुरानी स्कूल की दोस्ती है.’’

‘‘ऐसी कौन सी दोस्त है तुम्हारी, जिसे मैं नहीं जानता,’’ विवेक बोला.

‘‘तुम नहीं जानते? क्या बात कर रहे हो.’’

‘‘ध्रुव, प्लीज साफसाफ बताओ कौन है ये? तुम ने इसे ईमेल के जरिए यह क्यों बताया कि मैं कौसानी आ रहा हूं.’’

‘‘कमाल है यार, एक दोस्त दूसरे दोस्त के बारे में पूछे तो क्यों न बताऊं,’’ ध्रुव ने कहा.

‘‘ओफ, ध्रुव, अब बस भी करो,’’ विवेक के चेहरे पर झुंझलाहट और उस की विचित्र मनोदशा का आनंद लेता हुआ ध्रुव आराम से सोफे पर बैठ गया और उस की आंखों को देखता हुआ बोला, ‘‘विवेक, तुझे अपनी क्लास टैंथ याद है. सहारनपुर से आई वह झल्ली सी लड़की, जिस के कक्षा में प्रवेश करते ही हम सब को हंसी आ गई थी. जिस से तेरा फ्रैंडशिप बैंड बंधवाना चर्चा का विषय बन गया था. सब ने कितनी खिल्ली उड़ाई थी तेरी.’’

विवेक के चेहरे का रंग बदलता गया और अचानक वह बोला, ‘‘ओ माई गौड, यह वह विद्या है, जिस के तेल से तर बाल चर्चा का विषय थे.

‘‘कितनी हंसती थी सारी लड़कियां. मीरा मैम ने जब डौली को घर से तेल लगा कर आने को कहा तो कैसे हंस कर वह बोली, ‘हम सब के हिस्से का तेल तो विद्या लगाती है न मैम…’ उस की इस बात पर सब कैसे ठहाका लगा कर हंस पड़े थे.’’

विद्या लगभग बीच सैशन में आई थी. मैम ने जब सब से कहा कि विद्या का काम पूरा करने के लिए सब उसे सहयोग करें. उस का काम पूरा करने के लिए अपने नोट्स उसे दे दें, तो विद्या कैसी मासूमियत से ध्रुव की ओर इशारा कर के बोली थी, ‘मैम, ये भैया, अपनी कौपी मुझे नहीं दे रहे हैं.’ उस के भैया शब्द पर पूरी क्लास ठहाकों से गूंज उठी थी. खुद मीरा मैम भी अपनी हंसी दबा नहीं पाई थीं. छोटे शहर की मानसिकता किसी से भी हजम नहीं होती. लड़कियों का तो वह सदा ही निशाना रहती थी.

विद्या पढ़ने में तो तेज थी, लेकिन अंगरेजी उस की सब से बड़ी प्रौब्लम थी. अंगरेजी माध्यम से पढ़ते हुए उसे खासी दिक्कत पेश आई थी. फिर उसे ‘फ्रैंडशिप डे’ का वह दिन याद आया, जब सभी एकदूसरे को फ्रैंडशिप बैंड बांध रहे थे, तो किसी ने विद्या पर कमेंट किया, ‘विद्या तुम से तो हम सब राखी बंधवाएंगे.’ उस की आंखों में आंसू आ गए. बेचारगी से उस ने अपनी मुट्ठी में रखे बैंड छिपा लिए थे.

विवेक को उस बेचारी सी लड़की पर बड़ा तरस आया. सब के जाने के बाद विवेक और धु्रव ने उस से फ्रैंडशिप बैंड बंधवाया, पर यह दोस्ती ज्यादा दिन तक नहीं चल पाई थी.

एक साल बाद ही विद्या कोटा चली गई. ध्रुव ने बताया कि जुझारू विद्या का मैडिकल में चयन हो गया था.

विवेक मानो स्वप्न से जागा हो. जब उस ने आत्मविश्वास से भरी, मुसकराती हुई डा. विद्या को आते देखा. कोई इतना कैसे बदल सकता है. विद्या ने आते ही विवेक की आंखों में झांक कर पूछा, ‘‘अभी भी नहीं पहचाना तुम ने, मैं ने तो तुम्हें फेसबुक पर कब का ढूंढ़ लिया था, लेकिन तुम्हारी अतीत की स्मृति में बसी विद्या के रूप से डरती थी.’’

ध्रुव ने खुलासा किया कि हम सब ने विद्या को विस्मृत कर दिया था, लेकिन यह तुम्हें कभी भुला न पाई.

विद्या लरजते स्वर में बोली, ‘‘विवेक, तुम्हें तो मालूम भी नहीं होगा कि उम्र के उस नाजुक दौर में मैं अपना दिल तुम्हें दे बैठी थी. मुझे नहीं पता कि कच्ची उम्र में तुम्हारे प्रति मेरा वह एकतरफा तथाकथित प्यार था या महज आकर्षण, पर यह सच है कि स्वयं को तुम्हारे काबिल बनाने की होड़ व जनून ने ही मुझे कुछ कर दिखाने की प्रेरणा व हिम्मत दी. मुझे सफलता के इस मुकाम तक पहुंचाने का एक अप्रत्यक्ष जरिया तुम बने. किस ने सोचा था कि कभी तुम से यों मुलाकात भी होगी.’’

‘‘वह भी इतने नाटकीय तरीके से,’’ कहता हुआ ध्रुव हंस पड़ा, ‘‘पिछले 6 महीने से विद्या के साथ तुम्हारे बारे में ही बातें होती रहीं. तुम्हारी शादी न करने की बेवजह जिद से परेशान हो कर आंटी ने जब मैट्रीमोनियल साइट पर तुम्हारा बायोडाटा डाल दिया था तब आंटी को मैं ने ही विश्वास में ले कर विद्या के बारे में बताया. अब मुसीबत यह थी कि तुम्हारी आशा के अनुरूप तो कोई उतर ही नहीं रहा था. तो हम सब ने यह नाटक रचा.

‘‘तुम कौसानी आए, तो मैं ने झूठ बोला कि मैं दिल्ली जा रहा हूं, ताकि तुम होटल में रुको. विद्या तुम से मिलना चाहती थी, पर बिना किसी पूर्वाग्रह के, हालांकि हमें संदेह था कि कोई यों आसानी से तुम्हारे हृदय में अधिकार जमा भी पाएगी. शायद नियति को भी यह संजोग मंजूर था.’’

‘‘पर तुम मुझे एक बार बताते तो सही,’’ विवेक हैरानी से बोला.

ध्रुव बोल पड़ा, ‘‘ताकि तुम अपनी जिद के कारण अपने दिल के दरवाजे को स्वयं बंद कर देते.’’

तभी मां का फोन आया. उन के कुछ पूछने से पहले ही विवेक बोल उठा, ‘‘मां, तुम्हारी खोज पूरी हो गई है. जल्दी ही मैं एक डाक्टर बहू घर ले कर आ रहा हूं. आप पापा के साथ मिल कर शादी की पूरी तैयारी कर लेना.’’

मां भावुक हो उठी थीं, ‘‘विवेक समस्याएं तो हर एक के जीवन में आती हैं, पर उन से डर कर रिश्ते के बीजों को कभी बोया ही न जाए, यह सही नहीं है. हम ने नासमझी की, पर मेरा बेटा समझदार है और विद्या भी बहुत सुलझी हुई लड़की है. मुझे पूरा विश्वास है कि तुम दोनों

तभी पीछे से ईशा ने विवेक को छेड़ते हुए कहा, ‘‘क्यों विवेक भैया, एक बार फिर एक विश्वामित्र की तपस्या टूट ही गई.’’

विवेक और ध्रुव उस की बात पर जोर से हंस पड़े. विवेक ने विद्या के हाथों को ज्यों ही अपने हाथों में थामा, उस की नारी सुलभ लज्जा व गरिमा ने उस के सौंदर्य को अपरिमित कर दिया.

Holi 2024: क्या अपने आप को बचा पाई सुलेखा

सुलेखा की हाल ही में शादी हुई थी. होली के मौके पर वह पहली बार अपनी ससुराल में थी. होली को ले कर उस के मन में बहुत उमंगें थीं. वैसे तो वह गांव की रहने वाली थी, मगर शादी से पहले वह बहुत दिनों तक शहर में भी रह चुकी थी. होली के दिन सुबह से ही पूरा गांव होली के रंग में डूबा हुआ था. होली के रंग में प्यार का रंग मिला कर सुलेखा भी अपने पति दिनेश के साथ होली खेलने लगी.

दिनेश ने सुलेखा को रंगों से सराबोर कर दिया. नीलेपीले रंगों में लिपीपुती सुलेखा बंदरिया लग रही थी. इस तरह हंसीठिठोली के बीच दोनों ने होली मनाई. ‘‘मैं अपने दोस्तों के साथ होली खेलने जा रहा हूं. अगर मैं उन के साथ नहीं गया, तो वे मुझे जोरू का गुलाम कहेंगे. थोड़ी देर बाद आऊंगा,’’ यह कह कर दिनेश घर से निकल गया.

सुलेखा मुसकराते हुए पति को जाते हुए देखती रही. दरवाजा बंद कर के वह जैसे ही मुड़ी, तभी उस की नजर एक कोने में चुपचाप खड़े अपने देवर महेश पर पड़ी. ‘‘क्यों देवरजी, तुम इतनी दूर क्यों खड़े हो? क्या मुझ से होली खेलने से डरते हो? आओ मेरे पास और खेलो मुझ से होली…’’

‘‘तुम तो पहले से ही रंगों से लिपीपुती हो भाभी. इस पर मेरा रंग कहां चढ़ेगा…’’ महेश शरारत से बोला. ‘‘क्यों नहीं चढ़ेगा. क्या तुम्हारे मन में कोई ‘चोर’ है…’’ सुलेखा मुसकराते हुए बोली. ‘‘नहीं तो…’’ इतना कह कर महेश झेंप गया.

‘‘तो फिर होली खेलो. देवर से होली खेलने के लिए मैं बेकरार हूं…’’ कह कर सुलेखा ने महेश को रंग लगा दिया और फिर खिलखिलाते हुए बोली, ‘‘तुम तो बंदर लग रहे हो देवरजी.’’ महेश ने भी ‘होली है…’ कह कर सुलेखा के गालों पर गुलाल मल दिया.

भाभी से होली खेल कर महेश खुश हो गया. होली की खुशियां लूटने के बाद सुलेखा घर के कामों में जुट गई. थोड़ी देर बाद ही दिनेश अपने दोस्तों के साथ लौट आया और उन्हें आंगन में बैठा कर सुलेखा से बोला, ‘‘मेरे दोस्त तुम से होली खेलने आए हैं. तुम उन के साथ होली खेल लो.’’

‘‘मैं उन के साथ होली नहीं खेलूंगी.’’ ‘‘कैसी बातें करती हो? वे मेरे दोस्त हैं. थोड़ा सा रंग डालेंगे और चले जाएंगे. अगर तुम नहीं जाओगी, तो वे बुरा मान जाएंगे.’’

‘‘अच्छा, ठीक है…’’ सुलेखा उठ कर आंगन में चली आई. दिनेश के दोस्त नईनवेली खूबसूरत भाभी से होली खेलने के एहसास से ही रोमांचित हो रहे थे.

सुलेखा को देखते ही उन की आंखों में चमक आ गई. वे नशे में तो थे ही, उन्होंने आव देखा न ताव, सुलेखा पर टूट पड़े. कोई उस के गालों पर रंग मलने लगा, तो कोई चोली भिगोने लगा. कोई तो रंग लगाने के बहाने उस का बदन सहलाने लगा. दिनेश कोने में खड़ा हो कर यह तमाशा देख रहा था. उसे यह सब अच्छा तो नहीं लग रहा था, मगर वह दोस्तों को क्या कह कर मना करता. वह भी तो उन सब की बीवियों के साथ ऐसी ही होली खेल कर आ रहा था.

‘‘हटो, दूर हटो… रंग डालना है, तो दूर से डालो…’’ तभी सुलेखा उन्हें परे करते हुए दहाड़ कर बोली, ‘‘अरे, देवर तो भाई जैसे होते हैं. क्या वे भाभी के साथ इस तरह से होली खेलते हैं? कैसे इनसान हो तुम लोग? क्या तुम्हारे गांव में ऐसी ही होली खेली जाती है? अगर कोई लाजशर्म नहीं है, तो मैं नंगी हो जाती हूं, फिर जितना चाहे, मेरे बदन से होली खेल लेना…’’ सुलेखा के तेवर देख कर सभी पीछे हट गए. किसी अपराधी की तरह उन सब के सिर शर्म से झुक गए. किसी में भी सुलेखा से आंख मिलाने की हिम्मत न थी. उन का सारा नशा काफूर हो चुका था. थोड़ी देर में सारे दोस्त अपना सा मुंह ले कर चुपचाप चले गए. बीवी के इस रूप को दिनेश हैरानी से देखता रह गया.

‘‘यह क्या किया तुम ने…’’ दोस्तों के जाते ही दिनेश बोला. ‘‘मैं ने उन्हें होली का पाठ पढ़ाया और बिलकुल ठीक किया. आप भी अजीब आदमी हैं. दोस्तों की इतनी परवाह है, लेकिन मेरी नहीं…’’ सुलेखा ने कहा.

‘‘ऐसा क्यों कहती हो. मैं तो तुम से बहुत प्यार करता हूं.’’ ‘‘क्या यही है आप का प्यार… कोई आप की आंखों के सामने आप की बीवी के साथ छेड़खानी करे और आप चुपचाप खड़े हो कर तमाशा देखते रहें. कैसे पति हैं आप…

‘‘अब खड़ेखड़े मेरा मुंह क्या देख रहे हैं. जल्दी से 2 बालटी पानी लाइए, मैं नहाऊंगी.’’ दिनेश ने चुपचाप पानी ला कर रख दिया और सुलेखा कपड़े ले कर बाथरूम में घुस गई.

दरवाजा बंद करने से पहले जब सुलेखा ने दिनेश की तरफ मुसकरा कर देखा तो बीवी की इस अदा पर वह ठगा सा रह गया. ‘‘अंगअंग धो लूं जरा मलमल के बाण चलाऊंगी नैनन के… हर अंग का रंग निखार लूं कि सजना है मुझे सजना के लिए…’’ बाथरूम में नहाते हुए सुलेखा मस्ती में गुनगुनाने लगी. बाहर खड़े दिनेश को अपनी बीवी पर नाज हो रहा था.

Holi 2024: क्या करें जब आंख, कान या मुंह में चला जाए रंग?

रंगों का त्योहार अब ज्यादा दूर नहीं रहा. होली के हफ्ते पहले से इसका नशा लोगों पर छाने लगता है. इसका जोश, उल्लास लोगों पर इस कदर छाता है कि दिन हो या रात कभी भी रंग की बौछार होने लगती है. ऐसे में आंख, कान और नाक का खासा ख्याल रखने की जरूरत है.

लोग अचानक से चेहरे पर रंग लगा देते हैं. अधिकतर समय हम इसके लिए तैयार नहीं होते और रंग हमारी आंखों में, नाक और कान में चले जाते हैं. इन अंगों समेत त्वचा पर भी इसका बुरा असर होता है. ऐसे में जरूरी है कि हम सावधान रहें और कुछ खास बातों को हमेशा ध्यान में रखें, जिससे आपकी मौज मस्ती फीकी ना पड़े और आप इस त्योहार को अच्छे से एंजौय कर सकें.

तो आइए शुरू करें

जब आंख में चला जाए रंग

शरीर के संवेदनशील अंगों में, खास कर के आंख, और कान में रंगों के जाने से परेशानी हो सकती है. आंख में रंग जाने से जलन होती है, इसके असर को कम करने के लिए आंख को अच्छे से पानी से धोएं. इसके बाद आंख में गुवाबजल डालें. इससे आपको ठंडक मिलेगी.

इससे बचने के लिए कोशिश करें कि गौगल लगा कर होली खेलें. इससे आपकी लुक जंचेगी

जब कान में चला जाए रंग 

जिस कान में रमग जाए उस ओर से लेट जाएं. ऐसा करने से पूरा रंग धीरे धीरे बाहर आ जाएगा. इसके बाद कान के बाहरी हिस्से को अच्छे से धो लें.

जब मुंह में चला जाए रंग

मुंह में रंग जाने से जीभ का स्वाद खराब होता है और उल्टी होती है. ऐसी स्थिति में अच्छे से कुल्ला करें और जब रंगों की कड़वाहट कम हो तो कुछ मीठा खाएं. इससे आपको अच्छा लगेगा.

हर्बल रंगों का करें प्रयोग

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हर्बल रंगों का ही प्रयोग करें. बाजार में ज्यादातर जगहों पर सिंथेटिक कलर मिलते हैं, त्वचा के लिए और हमारे अंगों के लिए ये हानिकारक होते हैं. ये सस्ते और खतरनाक रसायन से बने होते हैं. ऐसे में इनके प्रयोग से बचें और लोगों को भी जागरुक करें.

खूब लगाएं तेल

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रंग खेलने से पहले त्वचा पर खूब तेल लगा लें. इससे रंगों में पाए जाने वाले रसायनों से हम सुरक्षित रहते हैं और रंग आसानी से छूट भी जाते हैं. तेल की जगह आप पेट्रोलियम जेली का भी इस्तेमाल कर सकते हैं.

ना खेलें गुब्बारे वाली होली

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गुब्बारे वाली होली से बचें. ये त्वचा के लिए और आंखों के लिए खतरनाक होता है. गुब्बारे में रंग डाल कर फेंकने से त्वचा पर चोट लगती है. कई बार गुब्बारे से आंख में गंभीर चोट लग जाती है. ऐसे में सतर्क रहें और संभल कर होली खेलें.

आंख, कान और नाक बेहद संवेदनशील अंग होते हैं. लापरवाही से बचें, स्वस्थ और सुरक्षित होली खेलें.

Holi 2024: जब बहू चुनने में हुई सरला से गलती

किचन में खड़ा हो कर खाना बनातेबनाते सरला की कमर दुखने लगी पर वे क्या करें, इतने मेहमान जो आ रहे हैं. बहू की पहली दीवाली है. कल तक उसे उपहार ले कर मायके जाना था पर अचानक बहू की मां का फोन आ गया कि अमेरिका से उन का छोटा भाई और भाभी आए हुए हैं. वे शादी पर नहीं आ सके थे इसलिए वे आप सब से मिलना चाहते हैं. उन्हीं के साथ बहू के तीनों भाई व भाभियां भी अपने बच्चों के साथ आ रहे हैं.

कुकर की सीटी बजते ही सरला ने गैस बंद कर दी और ड्राइंगरूम में आ गईं. बहू आराम से बैठ कर गिफ्ट पैक कर रही थी.

‘‘अरे, मम्मी देखो न, मैं अपने भाईभाभियों के लिए गिफ्ट लाई हूं. बस, पैक कर रही हूं…आप को दिखाना चाहती थी पर जल्दी है, वे लोग आने वाले हैं इसलिए पैक कर दिए,’’ बहू ने कुछ पैक किए गिफ्ट की तरफ इशारा करते हुए कहा. तभी सरलाजी का बेटा घर में दाखिल हुआ और अपनी पत्नी से बोला, ‘‘सिमी, एक कप चाय बना लाओ. आज आफिस में काफी थक गया हूं.’’

‘‘अरे, आप देख नहीं रहे हैं कि मैं गिफ्ट पैक कर रही हूं. मां, आप ही बना दीजिए न चाय. मुझे अभी तैयार भी होना है. मेरी छोटी भाभी बहुत फैशनेबल हैं. मुझे उन की टक्कर का तैयार होना है,’’ इतना कह कर सिमी अपने गिफ्ट पैक करने में लग गई.

शाम को सरलाजी के ड्राइंगरूम में करीब 10-12 लोग बैठे हुए थे. उन में बहू के तीनों भाई, उन की बीवियां, बहू के मम्मीपापा, भाई के बच्चे और उन सब के बीच मेहमानों की तरह उन की बहू सिमी बैठी थी. सरला ने इशारे से बहू को बुलाया और रसोईघर में ले जा कर कहा, ‘‘सिमी, सब के लिए चाय बना दे तब तक मैं पकौड़े तल लेती हूं.’’

‘‘क्या मम्मी, मायके से परिवार के सारे लोग आए हैं और आप कह रही हैं कि मैं उन के साथ न बैठ कर यहां रसोई में काम करूं? मैं तो कब से कह रही हूं कि आप एक नौकर रख लो पर आप हैं कि बस…अब मुझ से कुछ मत करने को कहिए. मेरे घर वाले मुझ से मिलने आए हैं, अगर मैं यहां किचन में लगी रहूंगी तो उन के आने का क्या फायदा,’’ इतना कह कर सिमी किचन से बाहर निकल गई और सरला किचन में अकेली रह गईं. उन्होंने शांत रह कर काम करना ही उचित समझा.

सरलाजी ने जैसेतैसे चाय और पकौड़े बना कर बाहर रख दिए और वापस रसोई में खाना गरम करने चली गईं. बाहर से ठहाकों की आवाजें जबजब उन के कानों में पड़तीं उन का मन जल जाता. सरला के पति एकदो बार किचन में आए सिर्फ यह कहने के लिए कि कुछ रोटियों पर घी मत लगाना, सिमी की भाभी नहीं खाती और खिलाने में जल्दी करो, बच्चों को भूख लगी है.

सरलाजी का खून तब और जल गया जब जातेजाते सिमी की मम्मी ने उन से यह कहा, ‘‘क्या बहनजी, आप तो हमारे साथ जरा भी नहीं बैठीं. कोई नाराजगी है क्या?’’

सब के जाने के बाद सिमी तो तुरंत सोने चली गई और वे रसोई संभालने में लग गईं.

अगले दिन सरलाजी का मन हुआ कि वे पति और बेटे से बीती शाम की स्थिति पर चर्चा करें पर दोनों ही जल्दी आफिस चले गए. 2 दिन बाद फिर सिमी की एक भाभी घर आ गई और उस को अपने साथ शौपिंग पर ले गई. शादी के बाद से यह सिलसिला अनवरत चल रहा था. कभी किसी का जन्मदिन, कभी किसी की शादी की सालगिरह, कभी कुछ तो कभी कुछ…सिमी के घर वालों का काफी आनाजाना था, जिस से वे तंग आ चुकी थीं.

एक दिन मौका पा कर उन्होंने अपने पति से इस बारे में बात की, ‘‘सुनो जी, सिमी न तो अपने घर की जिम्मेदारी संभालती है और न ही समीर का खयाल रखती है. मैं चाहती हूं कि उस का अपने मायके आनाजाना कुछ कम हो. शादी को साल होने जा रहा है और बहू आज भी महीने में 7 दिन अपने मायके में रहती है और बाकी के दिन उस के घर का कोई न कोई यहां आ जाता है. सारासारा दिन फोन पर कभी अपनी मम्मी से, कभी भाभी तो कभी किसी सहेली से बात करती रहती है.’’

‘‘देखो सरला, तुम को ही शौक था कि तुम्हारी बहू भरेपूरे परिवार की हो, दिखने में ऐश्वर्या राय हो. तुम ने खुद ही तो सिमी को पसंद किया था. कितनी लड़कियां नापसंद करने के बाद अब तुम घर के मामले में हम मर्दों को न ही डालो तो अच्छा है.’’

सरलाजी सोचने लगीं कि इन की बात भी सही है, मैं ने कम से कम 25 लड़कियों को देखने के बाद अपने बेटे के लिए सिमी को चुना था. तभी पति की बातों से सरला की तंद्रा टूटी. वे कह रहे थे, ‘‘सरला, तुम कितने दिनों से कहीं बाहर नहीं गई. ऐसा करो, तुम अपनी बहन के घर हो आओ. तुम्हारा मन अच्छा हो जाएगा.’’

अपनी बहन से मिल कर अपना दिल हलका करने की सोच से ही सरला खुश हो गईं. अगले दिन ही वे तैयार हो कर अपनी बहन से मिलने चली गईं, जो पास में ही रहती थीं. पर बहन के घर पर ताला लगा देख कर उन का मन बुझ गया. तभी बहन की एक पड़ोसिन ने उन्हें पहचान लिया और बोलीं, ‘‘अरे, आप सरलाजी हैं न विभाजी की बहन.’’

‘‘जी हां, आप को पता है विभा कहां गई है?’’

‘‘विभाजी पास के बाजार तक गई हैं. आप आइए न.’’

‘‘नहींनहीं, मैं यहीं बैठ कर इंतजार कर लेती हूं,’’ सरला ने संकोच से कहा.

‘‘अरे, नहीं, सरलाजी आप अंदर आ कर इंतजार कर लीजिए. वे आती ही होंगी,’’ उन के बहुत आग्रह पर सरलाजी उन के घर चली गईं.

‘‘आप की तसवीर मैं ने विभाजी के घर पर देखी थी…आइए न, शिखा जरा पानी ले आना,’’ उन्होंने आवाज लगाई.

अंदर से एक बहुत ही प्यारी सी लड़की बाहर आई.

‘‘बेटा, देखो, यह सरलाजी हैं, विभाजी की बहन,’’ इतना सुनते ही उस लड़की ने उन के पैर छू लिए.

सरला ने उसे मन से आशीर्वाद दिया तो विभा की पड़ोसिन बोलीं, ‘‘यह मेरी बहू है, सरलाजी.’’

‘‘बहुत प्यारी बच्ची है.’’

‘‘मम्मीजी, मैं चाय रखती हूं,’’ इतना कह कर वह अंदर चली गई. सरला ने एक नजर घुमाई. इतने सलीके से हर चीज रखी हुई थी कि देख कर उन का मन खुश हो गया. कितनी संस्कारी बहू है इन की और एक सिमी है.

‘‘बहनजी, विभा दीदी आप की बहुत तारीफ करती हैं,’’ मेरा ध्यान विभा की पड़ोसिन पर चला गया. इतने में उन की बहू चायबिस्कुट के साथ पकौड़े भी बना कर ले आई और बोली, ‘‘लीजिए आंटीजी.’’

‘‘हां, बेटा…’’ तभी फोन की घंटी बज गई. पड़ोसिन की बहू ने फोन उठाया और बात करने के बाद अपनी सास से बोली, ‘‘मम्मी, पूनम दीदी का फोन था. शाम को हम सब को खाने पर बुलाया है पर मैं ने कह दिया कि आप सब यहां बहुत दिनों से नहीं आए हैं, आप और जीजाजी आज शाम खाने पर आ जाओ. ठीक कहा न.’’

‘‘हां, बेटा, बिलकुल ठीक कहा,’’ बहू किचन में चली गई तो विभा की पड़ोसिन मुझ से बोलीं, ‘‘पूनम मेरी बेटी है. शिखा और उस में बहुत प्यार है.’’

‘‘अच्छा है बहनजी, नहीं तो आजकल की लड़कियां बस, अपने रिश्तेदारों को ही पूछती हैं,’’ सरला ने यह कह कर अपने मन को थोड़ा सा हलका करना चाहा.

‘‘बिलकुल ठीक कहा बहनजी, पर मेरी बहू अपने मातापिता की अकेली संतान है. एकदम सरल और समझदार. इस ने यहां के ही रिश्तों को अपना बना लिया है. अभी शादी को 5 महीने ही हुए हैं पर पूरा घर संभाल लिया है,’’ वे गर्व से बोलीं.

‘‘बहुत अच्छा है बहनजी,’’ सरला ने थोड़ा सहज हो कर कहा, ‘‘अकेली लड़की है तो अपने मातापिता के घर भी बहुत जाती होगी. वे अकेले जो हैं.’’

‘‘नहीं जी, बहू तो शादी के बाद सिर्फ एक बार ही मायके गई है. वह भी कुछ घंटे के लिए.’’

हम बात कर ही रहे थे कि बाहर से विभा की आवाज आई, ‘‘शिखा…बेटा, घर की चाबी दे देना.’’

विभा की आवाज सुन कर शिखा किचन से निकली और उन को अंदर ले आई. शिखा ने खाने के लिए रुकने की बहुत जिद की पर दोनों बहनें रुकी नहीं. अगले ही पल सरलाजी बहन के घर आ गईं. विभा के दोनों बच्चे अमेरिका में रहते थे. वह और उस के पति अकेले ही रहते थे.

‘‘दीदी, आज मेरी याद कैसे आ गई?’’ विभा ने मेज पर सामान रखते हुए कहा.

‘‘बस, यों ही. तू बता कैसी है?’’

‘‘मैं तो ठीक हूं दीदी पर आप को क्या हुआ कि कमजोर होती जा रही हो,’’ विभा ने कहा. शायद सरला की परेशानियां उस के चेहरे पर भी झलकने लगी थीं.

‘‘आंटीजी, आज मैं ने राजमा बनाया है. आप को राजमा बहुत पसंद है न. आप तो खाने के लिए रुकी नहीं इसलिए मैं ले आई और इन्हें किचन में रख रही हूं,’’ अचानक शिखा दरवाजे से अंदर आई, किचन में राजमा रख कर मुसकराते हुए चली गई.

‘‘बहुत प्यारी लड़की है,’’ सरला के मुंह से अचानक निकल गया.

‘‘अरे, दीदी, यही वह लड़की है जिस की बात मैं ने समीर के लिए चलाई थी. याद है न आप को इन के आफिस के एक साथी की बेटी…दीदी आप को याद नहीं आया क्या…’’ विभा ने सरला की याददाश्त पर जोर डालने को कहा.

‘‘अरे, दीदी, जिस की फोटो भी मैं ने मंगवा ली थी, पर इस का कोई भाई नहीं था, अकेली बेटी थी इसलिए आप ने फोटो तक नहीं देखी थी.’’

विभा की बात से सरला को ध्यान आया कि विभा ने उन से इस लड़की के बारे में कहा था पर उन्होंने कहा था कि जिस घर में बेटा नहीं उस घर की लड़की नहीं आएगी मेरे घर में, क्योंकि मातापिता कब तक रहेंगे, भाइयों से ही तो मायका होता है. तीजत्योहार पर भाई ही तो आता है. यही कह कर उन्होंने फोटो तक नहीं देखी थी.

‘‘दीदी, इस लड़की की फोटो हमारे घर पर पड़ी थी. श्रीमती वर्मा ने देखी तो उन को लड़की पसंद आ गई और आज वह उन की बहू है. बहुत गुणी है शिखा. अपने घर के साथसाथ हम पतिपत्नी का भी खूब ध्यान रखती है. आओ, चलो दीदी, हम खाना खा लेते हैं.’’

राजमा के स्वाद में शिखा का एक और गुण झलक रहा था. घर वापस आते समय सरलाजी को अपनी गलती का एहसास हो रहा था कि लड़की के गुणों को अनदेखा कर के उन्होंने भाई न होने के दकियानूसी विचार को आधार बना कर शिखा की फोटो तक देखना पसंद नहीं किया. इस एक चूक की सजा अब उन्हें ताउम्र भुगतनी होगी.

Holi 2024: इस साल होली पर बनाएं गोल गुझिया

गुझिया के सामान्य आकार से अलग गोल आकार की गुझिया अब लोगों को पसंद आने लगी है. गोल गुझिया बनाने के लिए अच्छे किस्म के गेहूं के मैदे का प्रयोग किया जाता है. उत्तर प्रदेश के सभी छोटेबड़े जिलों में यह मिठाई खूब बिकती है. गुझिया पूरे साल बाजार में मौजूद रहती है.

त्योहारों पर बंगाली मिठाइयों के साथ इस का सीधा मुकाबला होता है. अपने रसीले स्वाद के चलते इस की बहुत मांग रहती है. यह कई दिनों ताक खराब नहीं होती है. इस कारण लोग इसे ज्यादा मात्रा में खरीद कर घर लाते हैं और इसे गरम कर के भी खाते हैं.

गोल गुझिया बनाने के लिए किसी बड़े कारीगर की जरूरत नहीं होती. यह बेहद आसानी से बनाई जा सकती है. गोल गुझिया बनाने में सब से मेहनत का काम इसे सही आकार देने का होता है. यह लंबे समय तक रखी जा सकती है.

कैसे बनाएं गोल गुझिया

सामग्री :

200 ग्राम मैदा,

250 ग्राम खोया,

1 किलोग्राम चीनी,

20 ग्राम मिश्री,

10 बादाम,

20 पिस्ते,

5 छोटी इलायची,

आधा चम्मच केसर,

2 चांदी के वर्क,

तलने के लिए जरूरत के हिसाब से तेल या घी.

विधि :

  • गोल गुझिया तैयार करने के लिए पहले बादाम और पिस्ते छील कर महीन काट लें.
  • इलायची छील कर महीन कूट लें.
  • मिश्री के दाने चने की दाल के आकार में तोड़ लें.
  • खोया कस लें और उस में मेवा, मिश्री, इलायची और केसर मिला लें.
  • इस मिश्रण के 8 हिस्से कर दें. 
  • मैदे में घी डाल कर कड़ा गूंध लें.
  • इस की समान आकार की 16 लोइयां बना लें. हर लोई को 3 इंच गोल बेल लें.
  • एक पूरी पर एक हिस्सा मसाला रख कर दूसरी पूरी से ढक दें.
  • इस के बाद इस के किनारों को हाथ की उंगलियों के सहारे गूथ दें. ऊपर और नीचे की पूरियों को एकदूसरे से मिला दें. 
  • गुझिया के किनारे देखने में गोल रस्सी जैसे लगेंगे. यही काम थोड़ा कठिन होता है.
  • इस के बाद चीनी की 1 तार की चाशनी बना लें.
  • घी गरम कर के मध्यम आंच पर गुझियों को गुलाबी होने तक तलें.
  • इस के बाद उन्हें कड़ाही से निकाल कर तुरंत गरम चाशनी में डाल दें.
  • गुझियों को 15 से 20 मिनट तक चाशनी में पलटते रहें.
  • इस के बाद उन को बाहर निकाल लें और उन पर चांदी का वर्क लगा दें.

अलग स्वाद देती है गरमगरम गुझिया

  • गोल आकार वाली गुझिया काफी पसंद की जाने वाली मिठाई है. इस के अंदर मेवे वाला मसाला भरा होता है, जिस से खाने का अलग स्वाद आता है. इसे गरम खाने में ज्यादा मजा आता है.
  • जिन लोगों के पास ओवन है, वे इस का मजा गरम खा कर ले सकते हैं. इस के अलावा जो लोग ऐसे ही खाना चाहते हैं, उन को भी इस का स्वाद पसंद आता है. मिठाई की दुकान से यह गरम ही दी जाती है.
  • जो लोग इसे अपने शहर से दूर ले जाना चाहते हैं, उन के लिए यह सुविधाजनक होती है. इस का रस अंदर भरा रहता है. ऐसे में यह खराब नहीं होती है. यह सभी उम्र के लोगों को पसंद आती है.
  • जिन लोगों को ज्यादा चीनी वाली मिठाई खाने से परहेज होता है, उन के लिए शुगरफ्री गुझिया भी कई मिठाई की दुकानों में मिलने लगी है. 

जरूरी है सही आकार

  • गोल गुझिया बनाने में खास ध्यान रखने वाली बात यह होती है कि यह कहीं से खुले नहीं.
  • अगर यह खुल जाएगी तो अंदर भरा हुआ मेवा बाहर निकल आएगा और यह देखने में अच्छी नहीं लगेगी.
  • साथ ही साथ जिस तेल में  तली जाएगी वह भी खराब हो जाएगा.
  • इस का आकार भी सही होना चाहिए. इसे पूरी तरह गोल आकार में बनाना चाहिए. ऊपर और नीचे की दोनों गोल आकार वाली पूरियों को ऐसे मिलाना चाहिए, जिस से यह देखने में अच्छी लगे.
  • मोड़े हिस्से पर चाशनी रुक जाती है, जिस से गोल गुझिया रसीली दिखती है.
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