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ट्रायल कोर्ट और विवेचकों को बनाया जवाबदेय

न्याय व्यवस्था में आमूलचूल सुधार की जरूरत है. संविधान ने कई मसलों पर स्पष्ट राय नहीं रखी पर जरूरत के हिसाब से संविधान संशोधन कर उन को अपनाया गया है. मुकदमों की बढ़ती संख्या और ऊपरी अदालतों के बढ़ते बोझ का कम करने के लिए ट्रायल कोर्ट और विवेचकों को जवाबदेय बनाना चाहिए. नेता जब कुरसी पर रहते हैं तो ऐसे कानून बनाते हैं जो राहत की जगह दंड देने वाले हों. ऐेसे में उम्मीद की आखिरी किरण न्याय पालिका ही है. उस के पास लोकसभा से अधिक ताकत दी है.

संविधान ने न्याय पालिका, कार्यपालिका और विधायिका को लोकतंत्र की रक्षा की जिम्मेदारी सौंपी थी. संविधान के यह तीनों ही स्तंभ अपनी जिम्मेदारी निभाने के बजाए जनता से ही उम्मीद करते हैं वह इन की कमियों को दूर करने के लिए आवाज उठाएं. जनता की आवाज के रूप में लोकतंत्र के जिस चौथे स्तंभ मीडिया की बात कही गई उस को संविधान ने न कोई ताकत दी न ही उस का आधारभूत ढांचा तैयार किया. जो आधीअधूरी ताकते हैं वह न्याय पालिका, कार्यपालिका और विधायिका के रहमोकरम पर है. संविधान केवल 3 स्तंभों पर ही टिकी है. चौथा स्तंभ 3 स्तंभों की कृपा पर निर्भर है. ऐसे में कृपा करने वाले के हिसाब से काम करना होता है.
संविधान से सब से अधिक महत्व न्याय पालिका को दिया है. कलीजिमय सिस्टम लागू होने के बाद न्याय पालिका लोकसभा और राष्ट्रपति से भी उपर हो गई है. करीब 40 साल इस व्यवस्था को लागू हुए हो गया है न्याय पालिका खुद में सुधार नहीं कर पाई है. सुप्रीम कोर्ट के जज पद से रिटायरमेंट लेने के बाद ही वह अपने हित के लिए राजनीतिक दलों से लाभ लेने लगता है. 2 साल का कूलिंग पीरियड रखने की बात कही गई थी पर वह भी नहीं हो पाया. 5 करोड़ से अधिक मुकदमे विचाराधीन हैं.

ट्रायल कोर्ट में हो जरूरी सुधार

न्यायिक व्यवस्था में पीड़ित सब से पहले ट्रायल कोर्ट जिन का निचली अदालते कहते हैं वहां न्याय की उम्मीद ले कर जाता है. वहां न्याय न मिलने पर पीडित हाईकोर्ट जाता है. इस के बाद सुप्रीम कोर्ट तक जाता है. देश में 5 करोड़ से अधिक मामले लंबित है. ऐसे में न्याय व्यवस्था में सुधार की आमूलचूल बदलाव करने होगे. इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ के जस्टिस सुभाष विद्यार्थी की पीठ ने अजय सिंह उर्फ गोलू की ओर से दाखिल एक याचिका को निस्तारित करते कहा कि ‘सभी विचारण न्यायलय और अपीलीय न्यायालय अपने आदेश को और्डर शीट पर स्पष्ट तरीके से लिखे. संक्षिप्त शब्दों का प्रयोग करने से बचें.’

न्याय व्यवस्था में छोटेबड़े हर तरह के सुधार की जरूरत है. हमारा कानून डायनेमिक है, जो समय के हिसाब से बदलते रहता है. उस की अलगअलग तरीके परिस्थिति के हिसाब से उस की व्याख्या की जाती है. कानून में बदलाव सामाजिक सच्चाई के हिसाब से होता है. अगर सामाजिक सचाई बदल गई है तो फिर कानून की सचाई को भी बदलना होगा. 21वीं सदी में परिस्थितियां बदल गई हैं तो बदली हुई परिस्थितियों के हिसाब से कानून में भी बदलाव होना चाहिए. इस से न्यायपालिका की स्वीकार्यता और भी मजबूत होगी और लोगों का भरोसा और बढ़ेगा.

‘कूलिंग पीरियड’ से परहेज क्यों ?

न्याय व्यवस्था दबाव मुक्त रहे इस के लिए एक बात बारबार उठ रही है कि रिटायर होने के 2 साल के अंदर जज कोई सरकारी पद न ले. बौम्बे लौयर्स एसोसिएशन ने एक जनहित याचिका याचिका दायर कर के मांग की थी कि सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट के किसी भी रिटायर्ड जज की राजनीतिक नियुक्ति को स्वीकार करने से पहले 2 साल की ‘कूलिंग औफ’ अवधि तय की जाए. अगर इस में हर तरह के जज शामिल हो तो और भी ठीक रहेगा.

इस मसले पर संविधान ने कोई राय नहीं दी है. शायद संविधान ने इस बारे में सोचा ही नहीं होगा. संविधान ने कलीजिएम को चर्चा के बाद खारिज किया था लेकिन बाद में इस को न्याय व्यवस्था का हिस्सा बना लिया गया. इसी तरह से कूलिंग पीरियड की बात को यह कह कर टाला जाना ठीक नहीं है कि इस बारे में संविधान ने कुछ नहीं कहा है. न्याय व्यवस्था सब से ऊपर है तो उस की जिम्मेदारी बनती है कि खुद में सुधार के लिए पीआईएल का इंतजार न करें. कानून में बदलाव सामाजिक सचाई के हिसाब से होता है. अगर सामाजिक सचाई बदल गई है तो फिर कानून की सचाई को भी बदलना होगा.

‘कूलिंग पीरियड’ की मांग जज की स्वतंत्रता को मजबूत करने के लिए जरूरी है. होना तो यह चाहिए कि यह कदम खुद जजों की तरफ से उठनी चाहिए. इस से उन के प्रति और अधिक सम्मान होगा. रिटायरमेंट के बाद, दो, तीन या चार साल जो भी उचित हो, उस का कूलिंग पीरियड होना चाहिए. जब कोई सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट का जज अपने पद पर होते हैं तो वे सरकार के खिलाफ और पक्ष में भी निर्णय देते हैं.

कायदे से कूलिंग पीरियड 5 साल होना चाहिए. क्योंकि 5 साल में सरकार बदल जाती है. अगर लोगों के बीच यह धारणा है कि कोई जजमेंट किसी खास सरकार के वक्त में उन के पक्ष में आया है तो सरकार फैसले देने वाले जज को रिटायरमेंट के बाद उस के एवज में कुछ देती है. इसलिए जरूरी है कि रिटायरमेंट के बाद कूलिंग औफ पीरियड जरूर होना चाहिए ताकि बीच में एक गैप आ जाए और जिस की वजह से न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनी रहे. ऐसा होने पर अगर किसी जज ने सरकार के पक्ष में कोई जजमेंट दिया तब ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि रिटायरमेंट के बाद जो पद मिला है, उस फैसले के एवज में मिला है.

लोगों का लगता है कि कोई फैसला अगर सरकार के पक्ष में आता है तो पोस्ट रिटायरमेंट कोई जौब या राजनीतिक नियुक्ति इस वजह से तो नहीं दी गई है. इस में बहुत सारे ट्रिब्यूनल हैं, कमीशन हैं. इन का पोस्ट रिटायरमेंट के बाद जजों को मिल जाता है तो लोगों को लगता है कि उसी वजह से मिला है. सचाई क्या है कोई नहीं जानता पर जो राय बनती है उस का समाधान होना चाहिए.

न्यायपालिका चुने हुए लोगों पर आधारित नहीं होती है. न्यायपालिका की जवाबदेही सीधे पब्लिक को ले कर नहीं होती है. यही कारण है कि न्यायपालिका स्वतंत्र है. जबकि कार्यपालिका यानी सरकार इसलिए स्वतंत्र नहीं होती है क्योंकि उन की जवाबदेही सीधे पब्लिक की होती है. न्यायपालिका का निर्णय कानून के आधार पर होता है. पब्लिक के मूड से न्यायपालिका के किसी फैसले का कोई संबंध या प्रभाव नहीं होता है. यह माग लंबे समय से चल रही है.

इस के अलावा भी मजिस्ट्रेट स्तर से ले कर बड़ी अदालतों तक में बहुत सुधार की जरूरत है. इस के कारण न्याय देर से मिल रहे और उस के लिए सभी अदालतों के चक्कर काटने पड़ते है. देश में रहने वाले बड़े वर्ग के पास न तो इतना पैसा होता है और न जानकारी ऐसे में कई बार गलत लोग इस का लाभ उठा लेते हैं.

राजनीतिक दलों पर जब शिकंजा कसता है तब उन को न्याय और कानून में खामी नजर आती है वैसे वह न्याय में सुधार पर आंख बंद कर काम करते हैं. अदालतों का सम्मान करते हैं. राहुल गांधी हो या अरविंद केजरीवाल खुद ही ऐसे कानून बनाते हैं जिन में जनता पिसती है. आयकर की नोटिस से जब जनता परेशान होती है तो इन की कानों पर जूं नहीं रेंगती. जब आयकर ने कांग्रेस के बैंक खाते फ्रीज किए तब उनका ‘विधवा विलाप’ शुरू हो गया. राजनीतिक दलों को कानून सविधा के अनुसार बनाना चाहिए दंड देने के हिसाब से नहीं.

कूलिंग पीरियड के पीछे की वजहें

कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस अभिजीत गंगोपाध्याय ने इस्तीफा दे कर पद छोड़ा और भाजपा में शामिल हो गए. यह कोई पहला मामला नहीं है, जब किसी न्यायाधीश ने सियासी राह चुनी हो. उन से पहले पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई, जस्टिस हिदायतुल्ला, जस्टिस रंगनाथ मिश्रा भी सियासी दलों से जुड़ चुके हैं. कलकत्ता हाईकोर्ट के जस्टिस अभिजीत गंगोपाध्याय ने पहले पद से इस्तीफा दिया. फिर 7 मार्च 2024 को भाजपा में शामिल हो गए.

पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस ने उन के भाजपा में शामिल होने को ले कर निशाना साधना शुरू कर दिया है. दोनों ही दलों का कहना है कि उन के इस कदम से उन के अब तक फैसलों पर सवाल उठना लाजिमी है. पूर्व सीजेआई रंजन गोगोई 17 नवंबर 2019 को अपना कार्यकाल पूरा होने के बाद 19 मार्च 2020 को ही राज्यसभा सांसद बन गए थे. उन के राज्यसभा सांसद बनने पर भी काफी हल्ला मचा था.

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस बहरुल इस्लाम आजादी के बाद से कांग्रेस नेता रहे. असम के बहरुल इस्लाम दो बार 1962 और 1968 में कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा सदस्य बने. उन्होंने बतौर राज्यसभा सदस्य दूसरा कार्यकाल पूरा होने से पहले ही इस्तीफा दे दिया और गुवाहाटी हाईकोर्ट में जस्टिस बन गए. फिर 1 मार्च 1980 को सेवानिवृत्त होने के बाद 4 दिसंबर 1980 को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार ने उन्हें सुप्रीम कोर्ट में जज बना दिया.

सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने 1982 में बिहार के अर्बन को-औपरेटिव घोटाले में कांग्रेस नेता जगन्नाथ मिश्रा को आरोपों से बरी कर दिया. इस पीठ में बहरुल इस्लाम भी थे. सुप्रीम कोर्ट से इस्तीफा देने के बाद 1983 में तीसरी बार राज्यसभा सांसद बनाए गए.

सिख दंगों में कांग्रेस को क्लीन चिट देने वाले पूर्व सीजेआई रंगनाथ मिश्र सेवानिवृत्ति के बाद कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा सदस्य बने. दरअसल, सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस मिश्र की नियुक्ति 1983 में हुई और वह 1990 में मुख्य न्यायाधीश बने. पूर्व पीएम इंदिरा गांधी की हत्या के बाद 1984 में सिख दंगे भड़के. दंगों की जांच के लिए पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने रंगनाथ मिश्र आयोग बनाया. आयोग ने 1986 में अपनी रिपोर्ट पेश की. इस में कांग्रेस को क्लीन चिट दी गई थी. बाद में कांगेस नेता सज्जन कुमार समेत कई नेताओं को दंगे भड़काने का दोषी मानते हुए सजा सुनाई गई थी. सेवानिवृत्ति के बाद रंगनाथ मिश्र कांग्रेस में शामिल हो गए और 1998 से 2004 तक राज्यसभा सदस्य रहे.

पूर्व सीजीआई रंजन गोगोई सुप्रीम कोर्ट से रिटायरमेंट के 6 महीने गुजरने से पहले ही राज्यसभा के सदस्य बन गए थे. इस पर विपक्षी दलों ने काफी हंगामा किया था. वहीं, उच्च सदन में दिए गए उन के भाषण पर भी काफी हल्ला हुआ था. दिल्ली सर्विस बिल पर दिए भाषण में उन्होंने कहा कि अगर पसंद का कानून न हो तो ये मनमाना नहीं माना जा सकता है. ऐसा कह कर उन्होंने बिल का विरोध कर रहे विपक्षी दलों के तर्क को खारिज कर दिया था. इस पर कांग्रेस महासचिव केसी वेणुगोपाल ने कहा था कि क्या देश के संविधान को पूरी तरह से खत्म करने के लिए यह भाजपा की साजिश थी. संविधान पर हमला करने के लिए वो एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश का सहारा ले रहे हैं.
पूर्व जस्टिस केएस हेगड़े का सार्वजनिक जीवन काफी दिलचस्प रहा है. वह 1947 से 1957 तक लोक अभियोजक रहे. इस के बाद वह कांग्रेस में शामिल हो गए. कांग्रेस ने 1952 में उन्हें राज्यसभा सदस्य बना दिया. राज्यसभा सदस्य रहते हुए ही उन्हें मैसूर हाईकोर्ट में जस्टिस नियुक्त किया गया. फिर उन्हें दिल्ली और हिमाचल प्रदेश हाईकोर्ट का मुख्य न्यायाधीश भी बनाया गया. उन्होंने 30 अप्रैल 1973 को पद से इस्तीफा दे दिया. वह फिर राजनीति में आए और जनता पार्टी के टिकट पर दक्षिण बेंगलुरु सीट से लोकसभा चुनाव लड़ा और जीता. वह 20 जुलाई 1977 तक सांसद रहे ओर 21 जुलाई 1997 को उन्हें लोकसभा अध्यक्ष चुना गया.

मोदी सरकार ने पूर्व सीजेआई पी. सदाशिवम को 2014 में केरल का राज्यपाल नियुक्त किया. इन के अलावा सुप्रीम कोर्ट में पहली महिला जज रहीं जस्टिस एम. फातिमा बीबी को रिटायरमेंट के बाद कांग्रेस सरकार ने तमिलनाडु का राज्यपाल नियुक्त किया था. वह तमिलनाडु की पूर्व सीएम जयललिता को भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे होने के बाद भी मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाने के कारण विवादों में घिर गई थीं.

यह तो कही हुई कहानियां हैं. बहुत सारी ऐसी कहानियां है जिन को कहना सरल नहीं है. राजनीतिक में जाने के अलावा तमाम तरह की सुविधाएं लेने के लिए अलगअलग नियुक्त्यिां होती हैं. ऐसे में न्याय व्यवस्था में सुधार की जरूरत है. केवल किसी मामले की सुनवाई करते समय सुधार की बात कहने से जनता का भला नहीं होगा.
न्यायपालिका को इतने अधिकार संविधान ने दिए हैं कि अगर उस के अंदर इच्छा शक्ति हो तो वह खुद में सुधार कर सकती है. यह पूरी दुनिया के सामने एक नजीर होगी. बात ट्रायल कोर्ट की ही नहीं विवेचना करने वाली पुलिस पर की भी जवाबदेही तय की जाए. अगर कोई फैसला उपरी अदालतों में जा कर पलट जाता है इन की जिम्मेदारी तय हो कि ऐसा क्यों हुआ ? जब तक जवाबदेही तय नहीं होगी सुधार संभव नहीं है.

बेरोजगारी की हालत में अंडरपैड काम करने को तैयार डिलीवरी पर्सन

मिंत्रा एक ईकौमर्स प्लेटफौर्म है. जहां से मनपंसद की खरीददारी की जाती है. खरीददारी करने के लिए अपने मोबाइल पर मिंत्रा का एक डाउनलोड करना होता है. इस और्डर को डिलीवरी ब्यौय 1 से 7 दिन में ग्राहक तक पहुंचाता है. डिलीवरी में कितना समय लगेगा इस की ट्रैकिंग की जा सकती है. एक पार्ट से दूसरी जगह पहुंचने पर ग्राहक को मैसेज आ जाता है कि आप का और्डर कहां पर है ? यह काम और्डर ट्रैकिंग टूल करता है. पैकेट पर जो बार कोड लगा होता है उस के जरीए ही यह होता है. हर और्डर को ट्रैक नहीं किया जा सकता है. और्डर ट्रैक करना चाहते हैं तो और्डर देते समय ही ‘ट्रैक और्डर’ औप्शन पर क्लिक करना होता है.

डिलीवरी करने वाली ज्यादातर कंपनियां अब अपने लौजिस्टिक्स पार्टनर रखते हैं. लौजिस्टिक्स पार्टनर चेन सिस्टम रखता है. यह अपनी सेवा शर्तों के हिसाब से काम लेते हैं. इससे कंपनी की जिम्मेदारी नहीं रहती है. मिंत्रा के लिए डिलीवरी करने वाले 30 साल के शूफियान खान से बात करने पर पता चलता है कि प्रति डिलीवरी शूफियान को 12 रूपए 50 पैसे मिलता है. डिलीवरी के लिए शूफियान ने स्कूटी रखी हुई है. उस में सामान रखना सरल होता है.

शूफियान लखनऊ के चैक इलाके में काम करता है. इन को 3 किलोमीटर के दायरे में डिलीवरी करनी होती है. प्रति दिन 20-25 डिलीवरी यह कर लेते हैं. महीने में 12 से 15 हजार के बीच मिल जाता है.

शूफियान कहते हैं ‘शुरूशुरू में अच्छा लगता है. काम आसानी से मिल जाता है. पैसा आने लगता है. धीरेधीरे इस काम में भी लोग बढ़ रहे हैं जिस से हमारी आय नहीं बढ़ रही है. 3 से 4 साल में इस काम से मन उबने लगता है. शरीर में दिक्कतें बढ़ जाती हैं. रीढ़ की हड्डी कमर और गरदन में दर्द बढ़ता है. जितनी मेहनत होती है उस हिसाब से पैसा नहीं है. मजबूरी में करते हैं. जिस दिन काम नहीं करते पैसा नहीं मिलता है.

मिंत्रा के लिए डिलीवरी करने से पहले शूफियान स्नैपडील के लिए काम करते थे. 2 साल वहां काम करने के बाद अब वह मिंत्रा के लिए काम कर रहे हैं. इन के मोबाइल में मिंत्रा का एप डाउनलोड है. इस में इन की अपनी एक आईडी बनी है. आईडी में शूफियान का पूरा विवरण दर्ज है. इन का नाम, पता, फोन नंबर, गाड़ी का नंबर और प्रकार, आधार कार्ड की कापी इस के अलावा इन का बैंक खाता. गाड़ी और फोन दोनों ही शूफियान के हैं. इन का किसी तरह का कोई चार्ज मिंत्रा नहीं देती है.

शूफियान का कहना है कि उसे आपसी संपर्क से यह जानकारी मिली कि मिंत्रा के लिए काम कर सकते हैं. संपर्क करने पर शोभित शर्मा मैनेजर मिले. शूफियान के फोन पर एप डाउनलोड किया. उस में औनलाइन एक फार्म भरा जिस में नाम, पता, फोन आधार का विवरण दिया. एक ओटीपी आती है उस को लिखते ही औनलाइन फार्म पूरा भर कर जमा हो गया. उस की कोई कौपी शूफियान के पास नहीं है. इस पेशे में गरीब और कमजोर वर्ग के युवा ज्यादा आते हैं जो कंपनी से झगड़ा नहीं करते.

जब डिलीवरी मैन का काम शुरू हुया था तब हालात थोड़े बेहतर थे अब यहां भी लौजिस्टिक्स पार्टनर के रूप में बिचैलिए आ गए हैं जिन की वजह से काम ज्यादा खराब हो गया है. बेरोजगारी है तो सब सहन करना पड़ता है. यह सोच कर काम करते हैं कि बेरोजगार खाली बैठने से अच्छा है कि डिलीवरी मैन बन कर ही काम करें. इन का बड़ा समूह हो गया है. एकदूसरे को यह जानकारी देते रहते हैं कि कहां कितने लोगों की जगह खाली है. परेशान होने के बाद भी थकहार कर उसी काम को करने लगते हैं.

मार्च माह का तीसरा सप्ताह, कैसा रहा बौलीवुड का कारोबार

मार्च माह के दूसरे सप्ताह में फिल्म ‘शैतान’ की वजह से बौलीवुड से जुड़े लोगों को थोड़ा सा मुसकराने का अवसर मिला था, मगर अफसोस तीसरे सप्ताह में घोर मायूसी छा गई. तीसरा सप्ताह हर फिल्मकार के लिए एक सबक है कि काठ की हांडी बारबार नहीं चलती. तीसरे सप्ताह यानी कि 15 मार्च को ‘द केरला फाइल्स’ के निर्माता विपुल अमृतलाल शाह, निर्देशक सुदीप्तो सेन और हीरोईन अदा शर्मा की तिकड़ी एक बार फिर अजेंडे वाली फिल्म ‘बस्तर : द नक्सल स्टोरी’ ले कर आए. तो वहीं करण जोहर निर्मित और सागर आंबे्र व पुस्कर ओझा निर्देशित तथा सिद्धार्थ मल्होत्रा के अभिनय से सजी फिल्म ‘योद्धा’ भी प्रदर्शित हुई. यह दोनों फिल्में शूटिंग के दौरान दिनभर के चाय का खर्च भी बौक्स औफिस पर इकट्ठा नहीं कर सकीं.

गत वर्ष विपुल अमृतलाल शाह, सुदीप्तो सेन और अदा शर्मा की तिकड़ी अजेंडे वाली फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ ले कर आई थी, जिसे सरकार का भी अपरोक्ष समर्थन था मगर सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म निर्माता और निर्देशक को फिल्म में गलत ढंग से आंकड़े पेश करने के लिए फटकार लगाई थी.
फिल्म ठीकठाक चल गई थी. उस के बाद आननफानन में इस तिकड़ी ने छत्तीसगढ़ राज्य की पृष्ठभूमि पर फिल्म ‘बस्तर : द नक्सल स्टोरी’ बना कर चुनाव से पहले रिलीज कर दी. यह फिल्म भी अजेंडे वाली फिल्म है, जिस में बहुत कुछ गलत ढंग से पेश किया गया है.

आईपीएस नीरजा (अदा शर्मा) खुलेआम माओवादियों को गोलियों से उड़ाने की बात करती है. इस फिल्म में फिल्मकार ने आदिवासियों की समस्या, लोग नक्सली क्यों बन रहे हैं आदि पर कोई बात न करते हुए सभी नक्सलियों को देशद्रोही बताया है. फिल्म अति घटिया बनी है. आईपीएस के किरदार में अदा शर्मा फिट नहीं बैठती है. निर्माता के अनुसार फिल्म की लागत 15 करोड़ रूपए है. मगर यह फिल्म बौक्स औफिस पर पूरे सप्ताह में 35 लाख रूपए ही कमा पाई. निर्माता की जेब में तो 10 लाख भी नहीं आएंगे. यानी कि शूटिंग के दौरान जो चाय पर खर्च किया गया था, वह भी वसूल नहीं हो पाया.

मजेदार बात यह है कि इस फिल्म के सह लेखक अमरनाथ झा कभी घोर कम्युनिस्ट / माओवादी हुआ करते थे और जेल भी जा चुके हैं. मगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वजह से उन का अचानक कम्युनिस्ट विचारधारा से मोहभंग हुआ और उन्होने ‘बस्तर : द नक्सल स्टोरी’ की कहानी लिखते हुए माओवादियों को गोली से उड़ाने की बात की है.

पिछले 3 वर्ष से प्रदर्शन का इंतजार कर रही करण जोहर निर्मित तथा सागर आंबे्र व पुष्कर ओझा निर्देशित फिल्म ‘योद्धा’ अंततः 15 मार्च को प्रदर्शित हो गई. देशभक्ति की बात करने वाली यह भी एजेंडे व सरकारपरस्त प्रोपगेंडा वाली फिल्म से इतर कुछ नहीं है. फिल्म में आर्मी औफिसर अरूण कात्याल के किरदार में सिद्धार्थ मल्होत्रा हैं जो कि ‘योद्धा टौस्क फोर्स’ के मुखिया हैं. इस फिल्म की सब से बड़ी कमजोर कड़ी अभिनेता सिद्धार्थ मल्होत्रा हैं. सिद्धार्थ मल्होत्रा को अभिनय की एबीसीडी नहीं आती, मगर वह करण जोहर के प्रिय अभिनेता हैं.

फिल्म के पीआर की सलाह पर इस फिल्म का ट्रेलर हवा में यानी कि उड़ते हुए प्लेन के अंदर चंद चुनिंदा पत्रकारों के बीच रिलीज किया गया था और प्लेन के अंदर पत्रकारों को ‘टैब’ बांटे गए थे कि वह फिल्म को चार से पांच स्टार देंगे. पर फिल्म ने बौक्स औफिस पर पानी तक नहीं मांगा. 55 करोड़ की लागत में बनी यह फिल्म बौक्स औफिस पर महज 18 करोड़ ही कमा सकी. इस में से निर्माता की जेब सिर्फ 6 करोड़ ही आने हैं. ‘बस्तर द नक्सल स्टोरी’ और ‘योद्धा’ जैसी घटिया फिल्मों का फायदा दूसरे सप्ताह में ‘शैतान’ ने उठाया. कहा जा रहा है कि यह फिल्म सफल फिल्म है.

शोभा करंदलाजे के बम बाले बयान पर बवाल, कहीं भाजपा के गले की हड्डी न बन जाए

अपने नजदीकियों में प्यार से शोभाक्का नाम से पुकारी जाने वाली वे घोषित तौर पर साध्वी नहीं हैं और न ही गेरुए कपड़े पहनती हैं लेकिन विचारों और हरकतों से वे किसी उमा भारती या प्रज्ञा सिंह ठाकुर से उन्नीस नहीं हैं. केंद्रीय राज्य मंत्री शोभा करंदलाजे कर्नाटक की फायर ब्रांड भाजपा नेत्री हैं जिन्हें हलाल मीट पर भी एतराज रहता है, हिजाब पर भी और लव जिहाद जैसे मुद्दों पर भी वे ताबड़तोड़ बोलती हैं. ऐसे मुद्दों पर हालांकि अकसर वे आलाकमान और शीर्ष नेताओं के बयानों को ही कौपी पेस्ट करती हैं लेकिन तब कट्टरवादी शैली उन की लैंग्वेज और बौडी लैंग्वेज दोनों में होती है.

अविवाहित, 57 वर्षीय, सुंदर, आकर्षक हिंदुत्व की राजनीति में दक्ष शोभा पर्याप्त शिक्षित भी हैं. उन के पास 2 मास्टर्स डिग्री हैं. कौलेज की पढ़ाई के दौरान ही वे आरएसएस से जुड़ गईं थीं और तभी उन्होंने प्रण ले लिया था कि आजीवन शादी नहीं करेंगी और हिंदुत्व के लिए ही समर्पित रहेंगी. इन दोनों कसमों पर वे आज तक कायम हैं और दिनरात हिंदुत्व के विचारों में ही वे विचरण करती हैं. इसी हिंदुत्व ने उन्हें केन्द्रीय मंत्रीमंडल तक पहुंचाया और अभी और भी आसमान अभी बाकी हैं.

शोभा ने बम वाला जो बयान दिया वह अब उन के ही गले पड़ता नजर आ रहा है. हालांकि मौसम चुनाव का है और कर्नाटक भाजपा के लिए अब पिछले चुनाव सरीखा आसान नहीं है, यह बात शोभा भी जानती हैं इसलिए उन्होंने कहा, “तमिलनाडु का व्यक्ति आता है और वह बेंगलुरु में ट्रेनिंग ले कर रामेश्वरम में बम रखता है.”

गौरतलब है कि एक मार्च को बेंगलुरु के रामेश्वरम केफे में बम विस्फोट हुआ था जिस की पुलिस जांच अभी चल रही है. लेकिन जादू के जोर से शोभा को पता चल गया कि आरोपी कहां से आए थे. अच्छा तो यह होता अगर वे उन के नाम पते भी बता देतीं तो कोई झंझट ही नहीं रह जाता.

लेकिन शोभा की मंशा असल में झंझट खड़ी कर मीडिया का ध्यान अपनी तरफ खींचने की थी जिस से पब्लिसिटी मिले इस में वे कामयाब भी रहीं. क्या यह या ऐसा बयान देना फौरीतौर पर उन की मजबूरी हो गया था? तो इस का जबाब हां में ही निकलता है क्योंकि उन का उबके ही संसदीय क्षेत्र उडड्पी चिकमंगलूर में काफी विरोध हो रहा था जो उन की ही पार्टी के लोग कर रहे थे.

बहुत ज्यादा नहीं बल्कि बीती 10 मार्च को ही उडड्पी चिकमंगलूर में भाजपा कार्यालय में भाजपा कार्यकर्ताओं ने ही उन की उम्मीदवारी का विरोध करते गो बैक के नारे लगाए थे. मीडिया के सामने कुछ आक्रोशित कार्यकर्ताओं ने कहा था कि शोभा करंदलाजे जो पिछले 10 सालों से चिकमंगलूर का प्रतिनिधित्व कर रही हैं उन का पार्टी के ब्लौक समिति नेताओं से कोई परिचय नहीं है.

ये छोटे नेता शोभा की संभावित उम्मीदवारी को ले कर इतने भड़के हुए थे कि किसी की बात सुनने तैयार नहीं थे. यह पहला मौका नहीं था जब चिकमंगलूर के भाजपा कार्यकर्ताओं ने शोभा का विरोध किया हो. उन्होंने 10 फरवरी को भी नरेंद्र मोदी, अमित शाह और अध्यक्ष जेपी नड्डा को पत्र लिखते कहा था कि शोभा को टिकट न दिया जाए बल्कि किसी नए चेहरे को उतारा जाए. इन कार्यकर्ताओं ने शोभा पर उदासीनता का आरोप लगाया था. इन्हीं दिनों में मछुआरों की उन से नाराजगी की बात भी उजागर हुई थी.

लेकिन शोभा के गौड फादर पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा उन के नाम पर अड़ गए थे इसलिए आलाकमान ने बीच का रास्ता निकालते शोभा को बेंगलुरु उत्तर से टिकट दे दिया जहां से पूर्व मुख्यमंत्री सदानंद गोडा फिर से लड़ना चाह रहे थे. अब उन के भाजपा छोड़ने और कांग्रेस से लड़ने की अटकलें लग रही हैं. तो बेंगलुरु में बवंडर मचाने की गरज से शोभा ने जो बयान दिया वह अब उन्ही के गले की हड्डी बनता जा रहा है.

बयान को कोई सरपैर नहीं था और था भी तो बस इतना कि बेंगलुरु उत्तर के लोग जान लें कि अब यहां से दक्षिण की साध्वी चुनाव मैदान में है जिस का इकलौता एजेंडा सांप्रदायिक बैर फैलाने का रहता है. इस विवादित बयान के 2 दिन पहले ही बेंगलुरु में एक हिंदू दुकानदार की ठुकाई कुछ मुसलिम युवकों ने इसलिए कर डाली थी कि वह नमाज के दौरान स्पीकर पर तेज आवाज में हनुमान चालीसा बजा रहा था. इस पर हजारों भाजपा कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन किया था जिस की अगुवाई शोभा करंदलाजे कर रहीं थीं. क्योंकि वे अब वहां से उम्मीदवार हैं और जीतने के लिए हिंदूमुसलिम वाला अपना प्रिय टोटका आजमा रहीं हैं. इसी झक में वे कन्नड़ और तमिलों में भी नफरत फैलाने की चूक कर बैठी. आदत से मजबूर जो हैं.

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने तुरंत शोभा को घेर लिया. उन्होंने कहा भाजपा की केंद्रीय मंत्री शोभा के बेतुके बयान की मैं कड़ी निंदा करता हूं. इस तरह के दावे करने के लिए या तो एनआईए का अधिकारी होना चाहिए या फिर रामेश्वरम केफे ब्लास्ट से करीबी तौर पर जुड़ा होना चाहिए.

स्पष्ट तौर पर उन के पास इस तरह के दावे करने का कोई अधिकार नहीं है तमिल और कन्नड़ के लोग समान रूप से भाजपा की इस विभाजनकारी बयानबाजी को खारिज कर देंगे. बात यहीं खत्म हो जाती तो और बात थी लेकिन बात तब और बिगड़ी जब मैदुरे सिटी में उन की टिप्पणी पर साइबर क्राइम पुलिस ने एक डीएमके कार्यकर्ता की शिकायत पर एफआईआर दर्ज की. शिकायत चुनाव आयोग तक भी पहुंची जिस ने आदर्श आचार संहिता के उल्लघन करने पर नोटिस देते शोभा को जवाब देने के लिए 48 घंटों का वक्त दिया है.

अब जो भी हो जल्द सामने आ जाना है मगर बवंडर मचते देख शोभा ने तमिल भाईबहनों से माफी मांग ली है. लेकिन यह टिप्पणी उन्हें और भाजपा दोनों को महंगी पड़ सकती है क्योंकि तमिलनाडु में तो भाजपा की हालत खस्ता है ही लेकिन कर्नाटक में भी अंदरूनी कलह के चलते सब कुछ ठीकठाक नहीं है.

अगर चुनाव आयोग ने सख्ती बरती तो शोभा को लेने के देने भी पड़ सकते हैं. न जाने क्यों केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन और कांग्रेस इस टिप्पणी पर खामोश हैं. आम आदमी पार्टी की खामोशी तो समझ आती है क्योंकि उन के मुखिया अरविंद केजरीवाल पर गिरफ़्तारी की तलवार लटक रही थी जो आखिरकार गिर भी गई.

दरअसल में कर्नाटक की कथित रूप से बिगड़ती कानून व्यवस्था पर शोभा ने इतना भर नहीं कहा था कि तमिलनाडु से आए लोग बम लगाते हैं बल्कि उन्होंने आगे यह भी जोड़ा था कि दिल्ली से आए लोग पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाते हैं और केरल से आने वाले तेजाबी हमले करते हैं.

यह भी पहला मौका नहीं है जब कोई भाजपाई नेता अपने ही बयान पर घिर रहा हो बल्कि कई बार ऐसा हो चुका है. आलू से सोना बनाने की बात असल में कही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने थी जिस का हवाला एक मीटिंग में राहुल गांधी ने दिया था लेकिन भगवाईयों ने वीडियो एडिट कर उसे राहुल गांधी का ही बना कर वायरल कर दिया.
नरेंद्र मोदी का वह वीडियो भी अकसर वायरल होता रहता है जिस में वे एक चाय वाले का जिक्र करते हुए कह रहे हैं कि वह नाले की गैस का इस्तेमाल गैस सिलेंडर में कर लेता है.

क्या है प्रोस्थेटिक मेकअप और परफौरमिंग आर्ट्स जिसे फिल्म में हीरो हीरोइन यूज करते हैं

फिल्मों, टेलीविजन, थिएटर और अन्य प्रदर्शन कलाओं के लिए चेहरे और शरीर पर कृत्रिम मेकअप के द्वारा लुक को चेंज करने के लिए आजकल जो तकनीक बौलीवुड और हौलीवुड में इस्‍तेमाल किया जाता है, वह है प्रोस्थेटिक मेकअप. अकसर लोग जानना चाहते हैं कि प्रोस्थेटिक है क्या और यह कैसे प्रयोग में लाई जाती है.

दरअसल ऐसा मेकअप करना आसान नहीं होता, घंटों समय लगता है, इसलिए किसी भी फिल्म में प्रोस्थेटिक का प्रयोग करने के लिए कलाकार को घंटों पहले आ कर इसे लगाना पड़ता है. फिल्म ‘साड़ की आंख’ में अभिनेत्री तापसी पन्नू ने कहा कि उन्हें वयस्क की भूमिका निभाते हुए काफी समय तक प्रोस्थेटिक मेकअप लेना पड़ा, जिस से कई प्रकार की त्वचा की समस्या का उन्हें सामना करना पड़ा.

अपने अनुभव शेयर करते हुए वह कहती हैं कि “प्रकाशी तोमर के किरदार के लिए चेहरे पर लगाई गई प्रोस्थेटिक को हटाने के बाद उन की स्किन को नौर्मल होने में 1 घंटे का समय लगता था. इस के बाद भी लाइन्स, परतें दिखती थीं और ये स्किन पूरी तरह से नौर्मल होने तक दिखती थी.

“कई बार तो मैं डर जाती थी कि स्किन नौर्मल होगी या नहीं. इस के लिए मैं ने डाक्टर से भी संपर्क किया था. हालांकि, भविष्य में ऐसा एक दिन अवश्य आएगा, जब मैं वयस्क हो जाऊंगी और स्किन पर झुर्रियां आएंगी, लेकिन अभी के लिए स्किन का नौर्मल होना, मेरे लिए राहत की सांस लेने जैसा रहा.”

प्रोस्थेटिक मेकअप है उपयोगी
प्रोस्थेटिक मेकअप में चिन, कान, ब्रेस्‍ट आदि का अधिकतर मेकओवर किया जाता है. फि‍ल्‍म ठाकरे में नवाजुद्दीन सिद्दीकी को बाला साहब ठाकरे की तरह दिखाने के लिए इस प्रक्रिया का इस्‍तेमाल किया गया था. हर बार ऐसे मैकअप के लिए उन्हें कम से कम डेढ़ से दो घंटे लगते थे. इस के अलावा दबंग, गजनी, ब्‍लैक, ठाकरे, थलाइवी, मैं अटल हूं’ आदि ऐसी फि‍ल्‍में हैं जिन के लिए कलाकारों ने खूब मेहनत की है. फि‍ल्‍म थलाइवी मे कंगना रनौत के लुक को चेंज करने के लिए प्रोस्थेटिक का सहारा लिया गया था.

फिल्मों में प्रोस्थेटिक

प्रोस्थेटिक असल में खराब हुए या क्षतिग्रस्‍त अंगों की जगह कृत्रिम अंग लगाने की प्रक्रिया है. हालांकि यह एक लंबी, खर्चीली और धैर्य वाली प्रक्रिया है. पर इस का फायदा यह है कि इस के जरिए शरीर के किसी भी अंग को रिप्‍लेस किया जा सकता है. कान, नाक, चिन, गर्दन यहां तक कि स्‍तन, आदि को भी प्रोस्थेटिक के माध्‍यम से मनचाहा आकार दिया जा सकता है.

प्रोस्थेटिक मेकअप का प्रयोग इन दिनों धीरेधीरे बढ़ रहा है. इस से पहले अमिताभ बच्‍चन की फिल्‍म ‘पा’, ऋतिक की ‘धूम-2’, शाहरूख की ‘फैन’, ‘चाची 420’ और रणबीर कपूर अभिनीत ‘बर्फी’ आदि फिल्‍मों में उम्रदराज और अलगअलग लुक देने के लिए प्रोस्‍थेटिक मेकअप का सहारा लिया जा चुका है.

फिल्‍म ‘भारत’ में कटरीना कैफ काफी उम्रदराज दिखाई दी, जिस के लिए उन के फेस पर काफी मेहनत की गई थी. दरअसल, उन का लुक बदलने के लिए प्रोस्‍थेटिक मेकअप का सहारा लिया गया था. इस मेकअप की मदद अभिनेत्री दीपिका ने भी फिल्‍म ‘छपाक’ में भी लिया था, जिस में दीपिका ने एसिड अटैक सर्वाइवर लक्ष्‍मी की भूमिका निभाई है. इस लुक के लिए उन्होंने प्रोस्‍थेटिक मेकअप का प्रयोग किया था.

क्या है प्रोस्थेटिक मेकअप

प्रोस्थेटिक मेकअप एक ऐसी तकनीक है, जिस के सहारे कौस्मेटिक इफैक्ट दिया जाता है. इस में काफी मात्रा में सिलिकौन रबर का प्रयोग किया जाता है.

इस के अलावा कृत्रिम सामग्री फोम लेटैक्स, जिलेटिन, सिलिकौन आदि सामग्री का प्रयोग किया जाता है. मौडलिंग क्ले – एक तेल आधारित प्लास्टिसिन क्ले होता है, जिसे प्रोस्थेटिक के आकार में ढाला जा सकता है. इस से नैगेटिव मोल्ड बनाए जाते हैं, जिन्हें लेटैक्स, सिलिकौन या इस तरह से भर कर व्यक्ति का अंतिम प्रोस्थेटिक्स बनाया जाता है, जिस की मदद से मेकअप होता है.

इस मेकअप का इस्‍तेमाल किसी भी किरदार को छोटे और बड़े उम्र या फिर अलग दिखाने के लिए किया जाता है.

प्रोस्‍थेटिक मेकअप करने में करीब 6 से 10 घंटे का समय लगता है. हालांकि, इस मेकअप को निकालने में भी कम से कम 1 घंटे का समय लगता है. इस मेकअप को करने वाले आर्टिस्‍ट सामान्‍य मेकअप करने वालों से अलग होते हैं. इस तकनीक की वजह से रियल लुक दिया जाता है और किसी भी एक्टर को तब पहचानना भी मुश्किल हो जाता है.

प्रोस्थेटिक के लाभ

• प्रोस्थेटिक मेकअप में रियल लुक का विस्तृत रूप होता है, इसलिए साधारण मेकअप के साथ यह नहीं चल पाता.

• पारंपरिक मेकअप की तुलना में प्रोस्थेटिक्स अधिक टिकाऊ होते हैं, जो फिल्मांकन और लंबे शूटिंग दिनों मांग को पूरा कर सकते हैं.

• प्रोस्थेटिक का उपयोग मामूली चोटों से ले कर पूरे शरीर में परिवर्तन तक, विभिन्न प्रकार के प्रभाव पैदा करने के लिए भी किया जा सकता है.

• प्रोस्थेटिक का उपयोग कई बार किया जा सकता है, जिस से लंबे समय में पैसा और समय बचाया जा सकता है.

प्रोस्थेटिक के नुकसान

• प्रोस्थेटिक्स बनाना अधिकतर एक समय लेने वाली प्रक्रिया होती है, इसे बनाने और प्रयोग में लाने के लिए कौशल और विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है.

• प्रोस्थेटिक्स को बनाना और बनाए रखना महंगा होता है.

• प्रोस्थेटिक्स को लंबे समय तक पहनने में असुविधा होती है.

• प्रोस्थेटिक्स कलाकार की गति को प्रतिबंधित करता है, जिस से उन के लिए कुछ कार्य करना या भावनाओं को व्यक्त करना मुश्किल होता है.

• प्रोस्थेटिक्स को हटाना एक कठिन और समय लेने वाली प्रक्रिया होती है, जिस से त्वचा में जलन भी हो सकती है.

कर्नाटक में जातियां तय करती हैं पार्टियों का भविष्य

2024 के आम चुनाव में जिन राज्यों में दिलचस्प और कांटे का मुकाबला हो रहा है कर्नाटक उन में से एक है. 28 लोकसभा सीटों वाले इस राज्य में जातियों का रोल अहम रहता है जिन में से अधिकतर किसी एक पार्टी से बंधी नहीं रहतीं. पिछले साल मई में हुए विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव नतीजे हैरान कर देने बाले रहे थे. जिन्होंने अच्छेअच्छे सियासी पंडितों के गुणा भाग उलट दिए थे. इस बार भी नतीजे इसी पैटर्न पर आएं तो बात कतई हैरानी की नहीं होगी.

मई 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने एक तरह से क्लीन स्वीप ही कर दिया था. उस ने 224 में से 135 सीटें जीतते हुए 42.88 फीसदी वोट हासिल किए थे. जबकि भाजपा 36 फीसदी वोटों के साथ 66 सीटें ही ले जा पाई थी. जनता दल एस को महज 19 सीट 8.48 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं.

पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा को 38 और जनता दल एस को 18 सीटों का नुकसान हुआ था जो सीधेसीधे कांग्रेस के खाते में दर्ज हो गईं थीं. यह चुनाव भाजपा ने पूरी तरह नरेंद्र मोदी के नाम और चेहरे पर लड़ा था और अपने क्षेत्रीय दिग्गज येदियुरप्पा को दरकिनार कर दिया था.

यह प्रयोग या भूल कुछ भी कह लें की कीमत उसे सत्ता गंवा कर चुकानी पड़ी थी. हालांकि आखिरी दिनों में उस ने गलती सुधारने की कोशिश की भी थी लेकिन तब तक तीर कमान से निकल चुका था और यह साबित हो गया था कि नरेंद्र मोदी के नाम पर वह हिंदी भाषी राज्यों में ही मनमाने ढंग से चुनावी प्रयोग कर सकती है. जहां उन्हें चुनौती देने वाला कोई क्षत्रप नहीं और जो क्षत्रप होने लगते हैं उन्हें जनादेश की आड़ ले कर हाशिये पर ढकेल दिया जाता है जैसे कि शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे सिंधिया और डाक्टर रमन सिंह वगैरह, जिस से कोई पीएम बनने की दावेदारी न करे.

अब येदियुरप्पा को फिर भाव दिया जा रहा है जिस से परंपरागत लिंगायत वोटों को फिर से साधा जा सके जो पहले सा आसान काम नहीं रह गया है. पिछले लोकसभा चुनाव में कर्नाटक में मोदी लहर नहीं थी बल्कि कांग्रेस की गलतियों का फायदा उसे मिला था, जो वह 28 में से रिकौर्ड 25 सीटें 51.75 फीसदी वोटों के साथ ले गई थी.

इस चुनाव में पहली बार कांग्रेस एतिहासिक दुर्गति का शिकार हुई थी. उसे महज एक सीट 32.11 फीसदी वोटों के साथ मिली थी.
इस चुनाव में उस का गठबंधन जनता दल एस के साथ था उसे भी एक ही सीट 9.74 फीसदी वोटों के साथ मिली थी. 2014 का लोकसभा चुनाव भाजपा ने येदियुरप्पा को आगे कर ही लड़ा था तब उसे 17 सीटें 43 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. कांग्रेस ने 40.80 फीसदी वोटों के साथ 9 सीटें और जनता दल एस ने 2 सीटें 11 फीसदी वोटों के साथ जीती थीं.

2009 के चुनाव के मुकाबले भाजपा को 2 और जनता दल एस को एक सीट का नुकसान हुआ था. इन दोनों का वोट शेयर भी क्रमश 1.37 और 2.57 घटा था जबकि कांग्रेस का 3.15 फीसदी बढ़ा था. 2018 का विधानसभा चुनाव परिणाम त्रिशंकु था जिस में भाजपा ने जबरजस्त प्रदर्शन करते हुए 104 सीटें 36.2 फीसदी वोटों के साथ हासिल की थीं. कांग्रेस को उस से वोट लगभग 2 फीसदी तो ज्यादा मिले थे लेकिन वह 78 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. जनता दल एस ने 18.3 फीसदी वोटों के साथ 37 सीटें जीती थीं. तब उस ने कांग्रेस के सहयोग से सरकार बनाई थी और उस के मुखिया एचडी कुमार स्वामी मुख्यमंत्री बने थे.

फिर शुरू हुआ खरीद फरोख्त और आयाराम गयाराम का खेल जिस में भाजपा जीत गई और येदियुरप्पा सीएम बन गए. लेकिन बहुमत वह भी साबित नहीं कर पाए. कुमारस्वामी फिर से मुख्यमंत्री बने लेकिन 14 महीनों के अंदर ही भाजपा ने तोड़फोड़ कर डाली और येदियुरप्पा मुख्यमंत्री बन गए.

2 साल बाद ही भाजपा ने सभी को चौंकाते येदियुरप्पा को हटा कर बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बना दिया था जिन्हें जनता ने 2023 के चुनाव में नकार दिया.

जातियों से निकलती है जीत

सिद्धारमैया के मुख्यमंत्री बनने के बाद लोकसभा चुनाव को ले कर कांग्रेस थोड़े सुकून में है क्योंकि वे जमीनी और काबिल नेता हैं. येदियुरुप्पा केवल लिंगायत समुदाय में लोकप्रिय हैं लेकिन सिद्धारमैया दलित, आदिवासी, मुसलिम और इसाई सहित पिछड़ों में भी लोकप्रिय हैं. कर्नाटक की राजनीति बिना अहिंद शब्द के पूरी नहीं होती. जिस का मतलब होता है अल्पसंख्यातारु, हिंदुलिदावरु ( कर्नाटक में पिछड़ों के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द ) और दलितातारु, इन तीनों शब्दों के पहले अक्षरों से अहिंद मौडल बना है जो अपने दौर के दिग्गज कांग्रेसी नेता और पूर्व मुख्यमंत्री देवराज अर्स की देन है.अर्स ने कर्नाटक की राजनीति से लिंगायतों और वोकलिंगाओं का दबदबा खत्म करने में अहम रोल निभाया था. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव का पीडीए अहिंद की ही कौपी या नौर्थ एडिशन कुछ भी कह लें है.

सिद्धारमैया को मुख्यमंत्री बनाने के पीछे कांग्रेस की रणनीति अहिंद को ही साधने की है जिस से लोकसभा की ज्यादा से ज्यादा सीटें जीती जा सकें. गौरतलब है कि मुख्यमंत्री रहते सिद्धारमैया ने साल 2014 – 15 में जातिगत जनगणना करवाई थी जिस पर कोई 150 करोड़ रु खर्च हुए थे. इस की रिपोर्ट आधिकारिक तौर पर सार्वजनिक नहीं हो पाई थी लेकिन इस की प्रतियां गलीगली में बोर्ड इम्तिहान के पर्चों की तरह बिकी थीं.

इस रिपोर्ट से न केवल लिंगायत बल्कि वोक्लिंगा समुदाय के लोग भी खासे खफा हुए थे क्योंकि इस में उन की आबादी बेहद कम बताई गई थी यानी दबदबे वाली जातियों की सांख्यकीय हकीकत उजागर हो गई थी. जिस का खामियाजा कांग्रेस को 2018 के विधानसभा और 2019 के लोकसभा चुनाव में भुगतना भी पड़ा था. लेकिन 2023 के विधानसभा चुनाव में बाजी इसी रिपोर्ट के आंकड़ों के अहिंद तक पहुंच जाने से पलटी भी थी.

वोटिंग का यही ट्रेंड कायम रहा तो भाजपा का 400 प्लस का सपना कर्नाटक से टूट भी सकता है.
इस चर्चित रिपोर्ट के मुताबिक कर्नाटक में दलितों की आबादी सब से ज्यादा 19.5 फीसदी है और मुसलिमों की 16 फीसदी है. ओबीसी भी 16 फीसदी हैं. जबकि लिंगायतों की आबादी 14 और वोक्लिंगाओं की महज 11 फीसदी है.

आदिवासी 5 फीसदी तो इसाई 3 और जैन बौद्ध 2 फीसदी हैं.अन्य धर्मों की आबादी 4 फीसदी है जिन में ब्राहण केवल 2 फीसदी ही हैं. ओबीसी में भी सब से बड़ा हिस्सा कुरुबा समुदाय का 7 फीसदी है जिस से सिद्धारमैया आते हैं.

मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष बनाने का फायदा कांग्रेस को अगर लोकसभा चुनाव में भी मिला तो भाजपा को दहाई का आंकड़ा छूने में भी पसीने आ जाने हैं. क्योंकि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को दलितों के कोई 63 फीसदी वोट मिले थे और मुसलमानों के लगभग 75 फीसदी, जो बाजी पलट देने काफी हैं. आदिवासियों और ईसाईयों का झुकाव भी कांग्रेस की तरफ है जबकि लिंगायतों और वोक्लिंगाओ के वोट आधे आधे बंटने लगे हैं. इसी समीकरण को साधे रखने सिद्धारमैया ने लिंगायत समुदाय के 8 और वोक्लिंगा समुदाय के 6 मंत्री बनाए हैं.

उधर भाजपा की मुश्किलें अब येदियुरप्पा के चलते ही बढ़ने लगी हैं. विधानसभा चुनाव की हार के बाद मोदीशाह ने उन के सामने पूरी तरह हथियार डाल दिए हैं. अपनी चहेती शोभा कलंद्लाजे को टिकट दिलवाने वे अड़ गए तो बेंगलुरु उत्तर से दिग्गज सदानंद गौड़ा का टिकट कट गया.

शोभा पिछले 2 बार से उद्दुपी चिकमंगलूर से सांसद हैं लेकिन उन का विरोध वहां कार्यकर्ता ही कर रहे थे. शोभा की बयानबाजी भी भाजपा को महंगी पड़ सकती है जो उन्होंने रामेश्वरम केफे बम विस्फोट को ले कर तमिलनाडु और केरल के लोगों पर की थी. इन दोनों समुदायों के शहरी इलाको में खासे वोट हैं.

टिकट बंटबारे को ले कर भाजपा घिरती जा रही है. हावेरी लोकसभा सीट से पूर्व उपमुख्यमंत्री इश्वरप्पा अपने बेटे केई कंटेश के लिए टिकट मांग रहे थे लेकिन पार्टी ने वहां से बसवराज बोम्मई को टिकट दे दिया. इस से खफा ईश्वरप्पा ने शिवमोगा से निर्दलीय लड़ने का एलान कर दिया है जहां से सिद्धारमैया के बेटे वीवाई विजयेन्द्र को पार्टी ने उम्मीदवार बनाया है. इश्वरप्पा का यह बयान काफी चर्चित हो रहा है कि मोदीजी कहते हैं कि कांग्रेस पार्टी एक परिवार के हाथ में है लेकिन कर्नाटक भाजपा में भी यही स्थिति है. उस पर एक ही परिवार का कब्जा है हमें उस का विरोध करना होगा. टिकट न मिलने से जो कई और भाजपाई दुखी और नाराज हैं उन में प्रमुख जेसी मधुस्वामी कराडी और संगन्ना के नाम भी शामिल हैं. वजूद खोते जनता दल एस से हाथ मिला कर भी भाजपा की साख पर बट्टा लगा है. हालांकि वह उसे 2 – 3 से ज्यादा सीटें देने तैयार नहीं. लेकिन लगता ऐसा है कि भाजपा आलाकमान हर किसी से गठबंधन कर रहा है इस से उस का डर और असुरक्षा ही उजागर हो रहे हैं.

अब होगा यह कि जनता दल के हिस्से के वोट कांग्रेस को बैठे बिठाए मिल जाएंगे जिस से भाजपा का ही नुकसान होगा. कोढ़ में खाज वाली कहावत येदियुरप्पा पर पूरी तरह लागू हो रही है, जिन पर एक नाबालिग लड़की ने यौन शोषण का आरोप लगाया है. उन के खिलाफ बेंगलुरु के सदाशिवनगर थाने में पास्को एक्ट व धारा 354 ( ए ) के तहत मामला दर्ज हुआ है. इस 17 वर्षीय पीड़िता के मुताबिक वह बीती 2 फरवरी को अपनी मां के साथ येदियुरप्पा के पास मदद मांगने गई थी वह मामला भी इत्तफाक से यौन उत्पीड़न का ही था. येदियुरप्पा ने लड़की का हाथ पकड़ कर कमरे में खींच लिया और …

जांच अब आला पुलिस अफसर कर रहे हैं जो जब पूरी होगी तब होगी लेकिन 80 वर्षीय येदियुरप्पा के खिलाफ इस तरह का मामला दर्ज होना भाजपा के लिए चुनाव के लिहाज से शुभ तो कतई नहीं है अब. सब कुछ उस के हक में नहीं रह गया है सिवाय इस के कि 8 – 10 फीसदी ऊंची जाति वाले पूरी तरह उस के हक में हैं.

बेंगलुरु में रह रहे कोई 5 लाख उत्तर भारतीयों में से अधिकतर का समर्थन भी उसे मिलता रहा है पर इन के वोट एक लाख भी नहीं हैं. मुसलमान वोट अब उस के सहयोगी जनता दल एस को भी नहीं मिलने वाले क्योंकि कर्नाटक में भाजपा का हिंदू मुसलिम करना हर किसी को दहशत में डाले हुए है. अलावा इस के भाजपा की बड़ी दिक्कत हिंदुत्व, धर्म, अयोध्या, काशी, मथुरा और नरेंद्र मोदी का जादू न चलना है. जो इस चुनाव में मारे डर के न रामराम कर पा रहे न विधानसभा चुनाव की तरह बजरंगबली की जय बोल पा रहे.

प्यार का सूरज: भाग 3

मैं पलंग पर जा लेटी और सोचने लगी, सुधा ठीक कह रही थी कि अकेली स्त्री को यह समाज चैन से जीने नहीं देता. एक दिन मैं अपने डिपार्टमैंट में अकेली थी, तभी वहां मेरा सीनियर प्रोफैसर आया. मु?ो अकेली देख उस ने मेरा हाथ पकड़ने की कोशिश की. मेरे फटकारने पर वह बेहयाई से बोला था, ‘मैं ने सुना है, आप की अपने पति से कुछ अनबन है. मेरे साथ सहयोग करेंगी तो आप को बहुत जल्द रीडर बनवा दूंगा.’ मैं ने प्रिंसिपल से उस की शिकायत करने की धमकी दी थी तब कहीं वह माना था.

मैं ने अपनी आंखें बंद कर लीं. बंद पलकों की कोरों में अतीत के कई दृश्य उभरे. रवि की शराफत, उस की सज्जनता, मेरे मायके के प्रति उस का लगाव, विवाह के बाद के सुनहरे दिन, सभी कुछ मु?ो याद आ रहा था. मैं ने रवि से बात करने का निश्चय किया. दीपक के घर से मेरे लौटने पर रवि को बेहद तकलीफ हुई थी. निराशा के आलम में सारी रात आंखों में ही कट गई थी. उन की जरा सी भूल ने उन के वैवाहिक जीवन को एक मजाक बना डाला था. अपनी मां और बहनों के कहने में आ कर उन्होंने मु?ो स्वयं से दूर तो कर डाला किंतु शांति उन्हें फिर भी न मिली.

जयपुर जाते हुए जिस कातर दृष्टि से मैं ने उन्हें देखा था, मेरी वे निगाहें हर पल उन का पीछा करती थीं. रात्रि के सन्नाटे में जब सब लोग चैन की नींद सो रहे होते, वह बिस्तर पर करवटें बदलते. हर पल उन्हें यही प्रश्न बेचैन किए रहता, आखिर क्यों उन्होंने मु?ो स्वयं से दूर किया? क्या कुसूर था मेरा? यही न कि मैं ने उन के घर वालों के साथ सामंजस्य बिठाने की भरपूर कोशिश की थी और बदले में उन्होंने मु?ो क्या दिया? घर वालों की इच्छा पूरी कर के उन्होंने अपनी और मेरी, दोनों की जिंदगी बरबाद कर डाली, फिर भी घर वाले उन से खुश नहीं हुए.

मेरे जाने के कुछ दिनों बाद उन की बहनें मायके आ गई थीं. औफिस से लौट कर वे देखते, मां बेटियों की खातिरदारी में लगी रहतीं. उन्हें तरहतरह के व्यंजन बना कर खिलातीं. उस समय उन्हें खयाल आता, मेरे बीमार होने पर भी वे रसोई में नहीं जाती थीं. यह सब देख उन का मन ग्लानि से भर उठता. एक रविवार बड़ी बहन आगरा आई हुई थी. रवि के सिर में तेज दर्द था. फ्रिज से पानी पीने के लिए ज्यों ही वे बरामदे में गए, उन्होंने दीदी को कहते सुना, ‘मां, तुम रवि से बंटी की बात कर लो. रवि के पास पैसे की कमी तो है नहीं. यदि वह बंटी की जिम्मेदारी उठा ले तो बहुत अच्छा रहेगा. यों भी उस की अपनी तो कोई औलाद है नहीं. बंटी यहां रहेगा तो रवि का दिल भी लगा रहेगा.’

यह सुन रवि तड़प उठे. तुरंत उन दोनों के सामने जा खड़े हुए और बोले, ‘दीदी, आज अगर मेरी औलाद नहीं है तो आप लोगों के ही कारण ऐसी नौबत आई है.’ यह सुन कर मां आगबबूला हो गई थीं, ‘क्या बोल रहा है? होश में तो है न?’

‘मां, मैं पूरी तरह होश में हूं, बल्कि यों कहो, होश में आया ही अब हूं. सब लोग अपना स्वार्थ पूरा करने में लगे हैं. यह नहीं सोच रहे कि मेरी जिंदगी का क्या होगा? आप सब की बातों में आ कर बेवजह मैं ने स्वाति को यहां से भेज दिया,’ कहते हुए रवि तेजी से कमरे से बाहर चले गए थे. उन के मुंह से सच्चाई सुन कर मां और दीदी उन से कटेकटे रहने लगे थे.

कुछ दिनों बाद वे जयपुर गए थे. उन के आने की खबर पा कर मैं पहले ही सुधा के साथ उदयपुर चली गई थी. उन्होंने दीपक को भी मेरे पास भेजा किंतु मैं ने उस से भी कोई बात नहीं की. संयोगवश इन दिनों मैं अपनी छात्रओं के साथ आगरा आई हुई थी. पिछली रात मैं दीपक के घर आई भी किंतु रवि को देख वापस लौट गई. रवि ने निश्चय किया, वे स्वयं मेरे पास आ कर मु?ा से क्षमा मांगेंगे और मु?ो वापस अपनी जिंदगी में ले आएंगे.

शाम को रवि और दीपक मेरे पास आए. उस समय मैं अपनी पैकिंग में व्यस्त थी. रवि को मेरे पास छोड़ दीपक और सुधा कमरे से बाहर चले गए. ‘‘बैठिए,’’ मैं ने कुरसी की ओर संकेत किया. इतने दिनों बाद रवि को अपने करीब पा कर मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गई थीं. हाथों में हलका सा कंपन महसूस हो रहा था. मैं नजरें ?ाका कर उन के सामने बैठ गई.

‘‘मैं तुम्हें घर ले जाने आया हूं, स्वाति.’’

‘‘मेरा कोई घर नहीं,’’ मेरी आंखें डबडबा आईं.’’

‘‘ऐसा मत कहो, स्वाति. मैं अपने व्यवहार के लिए बेहद शर्मिंदा हूं, मु?ो माफ कर दो और घर लौट चलो,’’ कहते हुए रवि फूटफूट कर रो पड़े.

रवि को इस तरह बिलखता देख मेरी आंखों से भी आंसू बह निकले. मन किया, उन की सारी व्यथा अपने सीने में समेट लूं किंतु मैं ने अपनी भावनाओं पर काबू रखा और बोली, ‘‘जानते हो रवि, 2 अजनबी भी जब विवाह बंधन में बंधते हैं तो फेरे पड़ते ही लड़की को वह पुरुष नितांत अपना लगने लगता है. उसे लगता है, ससुराल में अजनबियों के बीच वही उस की सुखसुविधा का खयाल रखेगा. फिर मैं ने तो तुम से प्रेमविवाह किया था.

‘‘मेरा तुम पर कितना अटूट विश्वास था, किंतु तुम ने उस विश्वास को छलनी कर दिया. मु?ो तुम्हारे घर वालों से कोई शिकायत नहीं है क्योंकि वे तो इस विवाह के लिए राजी ही नहीं थे. वे तो मु?ो तभी स्नेह, इज्जत देते जब तुम मु?ो स्नेह, इज्जत देते.’’

‘‘शायद तुम्हें पता नहीं, स्वाति, मम्मी अब आगरा में नहीं हैं. पंकज उन्हें हैदराबाद ले गया है, इसलिए हम दोनों के बीच अब कोई नहीं आएगा.’’

‘‘रवि, मेरी मम्मी कहा करती हैं, बुजुर्ग लोग घर के आंगन में लगे उस वृक्ष के समान होते हैं जो भले ही फल न दे, अपनी छाया अवश्य देता है. मैं नहीं चाहती, तुम्हारी मम्मी हमारे साथ न रहें. मैं ने कभी यह न चाहा कि तुम अपने घर वालों का खयाल न रखो, किंतु रवि, हर रिश्ते की अपनी अहमियत होती है, अपनी जगह होती है.

‘‘जिस तरह विवाह के बाद पत्नी के लिए उस के जीवन में सब से पहले पति का स्थान होता है उसी तरह पति के लिए भी सब से पहले उस की पत्नी होनी चाहिए, बाद में दूसरे लोग,’’ कहते हुए स्वाति ने अपनी भावनाएं प्रकट कीं.

‘‘तुम्हारे विचार कितने अच्छे हैं स्वाति,’’ कहते हुए भावावेश में रवि ने मेरे दोनों हाथ पकड़ लिए, ‘‘मैं ने समय रहते तुम्हारी कद्र नहीं की. मु?ो क्षमा कर दो. बस, एक मौका और दो ताकि अवसाद के जिस अंधेरे में मैं ने तुम्हें धकेला है उस में खुशियों का उजाला भर सकूं. प्रायश्चित्त का एक मौका दो, स्वाति,’’ रवि की आवाज भर्रा गई. वे उठ कर मेरे करीब आए और अपनी बांहों का सहारा दे कर मु?ो अपने करीब खींच लिया.

रवि के सीने में मैं ने अपना चेहरा छिपा लिया. मु?ो लगा, प्यार का सूरज हालात के काले बादलों से ढक कर नजरों से ओ?ाल भले ही हो जाए पर एकदम खो नहीं सकता. काले बादलों के छंटते ही आकाश स्वच्छ हुआ नहीं कि प्यार का सूरज अपनी पूरी आब के साथ फिर चमकने लगता है.

आरोही : भाग -3 अविरल की बेरुखी की क्या वजह थी?

उन दोनों के बीच की दूरियां बढ़ती जा रही थीं. उसे देररात तक पढ़ने का शौक था और उस के प्रोफैशन के लिए भी पढ़ना जरूरी था. अविरल के लिए उस की अंकशायिनी बनने का मन ही नहीं होता था. इसलिए भी अविरल का फ्रस्ट्रैशन बढ़ता जा रहा था. समय बीतने के साथ वह मांजी और अविरल के स्वभाव व खानपान को अच्छी तरह से समझ चुकी थी. वह मांजी की दवा वगैरह का पूरा खयाल रखती और उस ने एक फुलटाइम मेड रख दी थी. सुबहशाम मांजी के पास थोड़ी देर बैठ कर उन का हालचाल पूछती. अब मांजी उस से बहुत खुश रहतीं. वह कोशिश करती कि अविरल की पसंद का खाना बनवाए. संभव होता तो वह डाइनिंग टेबल पर उसे खाना भी सर्व कर देती. लेकिन वह महसूस करती थी कि अविरल की अपेक्षाएं बढ़ती ही जा रही हैं. उस का पुरुषोचित अहं बढ़ता ही जा रहा था. वह उस पर अधिकार जमा कर उस पर शासन करने की कोशिश करने लगा था. बातबेबात क्रोधित हो कर चीखनाचिल्लाना शुरू कर दिया था. शादी उस के कैरियर में बाधा बनती जा रही है.

शुरू के दिनों में तो वह उस की बातों पर ध्यान देती और उस की पसंद को ध्यान में रख कर काम करने की कोशिश करती पर जब उस के हर काम में टोकाटाकी और ज्यादा दखलंदाजी होने लगी तो उस ने चुप रह प्रतिकार करना शुरू कर दिया था. अपने मन के कपड़े पहनती, अपने मन का खाती. मांबेटे दोनों को उस ने नौकरों के जिम्मे कर दिया था. यदि अविरल कोई शिकायत करते तो साफ शब्दों में कह देती, ‘मेरे पास इन कामों के लिए फुरसत नहीं है.’

वह मन ही मन सोचती कि पति बनते ही सारे पुरुष एकजैसे बन जाते हैं. स्त्री के प्रति उन का नजरिया नहीं बदलता है. वह स्त्री पर अपना अधिकार समझ कर उस पर एकछत्र शासन करना चाहता है. पत्नी के लिए लकीर खींचने का हक पति को क्यों दिया जाए? आखिर पत्नी के लिए सीमाएं तय करने वाले ये पति कौन होते हैं? दोनों समान रूप से शिक्षित और परिपक्व होते हैं, इसलिए पत्नी के लिए कोई भी फैसला लेने का अधिकार पति का कैसे हो सकता है?

इन्हीं खयालों में डूबी हुई वह अपनी दुनिया में आगे बढ़ती जा रही थी. उस की व्यस्तता बढ़ती जा रही थी. परी भी बड़ी होती जा रही थी. वह स्कूल जाने लगी थी. वह कोशिश कर के अपनी शाम खाली रखती. उस समय बेटी के साथ हंसतीखिलखिलाती, उसे प्यार से पढ़ाती. वह अपनी दुनिया में मस्त रहने लगी थी. चूंकि वह सर्जन थी, उस का डायग्नोसिस और सर्जरी में हाथ बहुत सधा हुआ था. वह औनलाइन भी मरीजों को सलाह देती. अब वह मुंबई की अच्छी डाक्टरों में गिनी जाने लगी थी.

उसे अकसर कौन्फ्रैंस में लैक्चर के लिए बुलाया जाता. उसे कई बार कौन्फ्रैंस के लिए विदेश भी जाना पड़ता और अन्य शहरों में भी अकसर जानाआना लगा रहता था. डा. निर्झर कालेज में उस से जूनियर था. वह सर्जरी में कई बार उस के साथ रहता था. मस्त स्वभाव का था. अकसर उन लोगों के साथ खाना खाने भी बैठ जाया करता था. वे देररात तक काम के सिलसिले में बैठे रहते और साथ ज्यादातर दौरों पर भी जाया करते. डाक्टर निर्झर उसी की तरह हंसोड़ और मस्त स्वभाव का था. वह उस के संग रहती तो लगता कि उस के सपनों को पंख लग गए हैं. निर्झर के साथ बात कर के उस का मूड फ्रैश हो जाता और उस के मन को खुशी व मानसिक संतुष्टि मिलती.

डा. निर्झर की बातों की कशिश के आकर्षण में वह बहती जा रही थी. वह भी उस के हंसमुख व सरल स्वभाव और सादगी के कारण आकर्षण महसूस कर रहा था. दोनों के बीच में दोस्ती के साथ आत्मिक रिश्ता पनप उठा था. दोनों काम की बात करतेकरते अपने जीवन के पन्ने भी एकदूसरे के साथ खोलने लगे थे. निर्झर से नजदीकियां बढ़ती हुई अंतरंग रिश्तों में बदल गई थीं. यही कारण था कि अविरल और उस के रिश्ते के बीच दूरियां बढ़ती जा रही थीं.

निर्झर का साथ पा कर उसे ऐसा महसूस होने लगा जैसे उस के जीवन से पतझड़ बीत गया हो और वसंत के आगमन से दोबारा खुशीरूपी कलियों ने प्रस्फुटित हो कर उस के जीवन को फिर गुलजार कर दिया हो. वह दिनभर निर्झर के खयालों में खोई रहती. वह उस से मिलने के मौके तलाशती हुई उस के केबिन में पहुंच जाती.

निर्झर उस से उम्र में छोटा था. अब वह फिर से पार्लर जा कर कभी हेयर सैट करवाती तो कभी कलर करवाती. उस की वार्डरोब में नई ड्रैसेज जगह बनाने लगी थीं. यहां तक कि उस की बेटी भी उस की ओर अजीब निगाहों से देखती कि मम्मी को क्या हो गया है. अविरल शांत भाव से उस के सारे क्रियाकलापों को देखता रहता पर मुंह से कुछ न कहता. वह अपनी दुनिया में ही खोई रहती. घर नौकरों के जिम्मे हो गया था. उस के पास बस एक ही बहाना रहता कि काम बहुत है. बेटी परी के लिए भी अब उस के पास फुरसत नहीं रहती थी. समय चक्र तो गतिमान रहता ही है.  लड़तेझगड़ते 10 साल बीत गए थे. वह अपनी दुनिया में खोई हुई थी. उस ने ध्यान ही नहीं दिया था कि अविरल कब से उस की पसंद का नाश्ता खाने लगा था. अपना पसंदीदा औमलेट खाना छोड़ दिया था.

सुबहसवेरे उठते ही उस का मनपसंद म्यूजिक बजा देता और कोशिश करता कि उसे किसी तरह से टैंशन न हो. कई बार उस के लिए खुद ही कौफी बना कर बैडरूम में ले आता क्योंकि वह हमेशा से रात में कौफी पीना पसंद करती थी. अविरल की आंखों में उस के लिए प्यार और प्रशंसा का भाव दिखाई पड़ता.

एक कौन्फ्रैंस के सिलसिले में उसे 4 दिनों के लिए चैन्नई जाना था. वह बहुत उत्साहित थी. वहां के लिए उस ने खूब शौपिंग भी की थी. वह बैग तैयार करने के बाद यों ही मेल चैक करने लगी. निर्झर की मेल थी. उस ने यूएस की जौब के लिए अप्लाई किया था. उस ने बताया कि वह अपने वीजा इंटरव्यू के लिए दिल्ली जा रहा है. आरोही को बाद में पता लगा कि निर्झर यहां पहले ही रिजाइन कर चुका था.

‘उफ, कितना छिपा रुस्तम निकला, जब तक चाहा उस को यूज करता रहा और टाइमपास करता रहा और चुपचाप नौदोग्यारह हो गया. वह निराशा में डूब गई थी. उदास मन से बैड पर लेट गई थी. उस ने मन ही मन निश्चय कर लिया था कि वह बीमारी का बहाना कर के उन लोगों से अपने न आ पाने के लिए माफी मांग लेगी लेकिन पसोपेश भी था कि वह भी नहीं जाएगी और निर्झर तो पहले ही नहीं गया होगा, इस से वहां परेशानी हो जाएगी. वह बुझेमन से गुमसुम, मायूस हो कर बैड पर लेट गई थी. उसे झपकी लग गई थी. जब आंख खुली तो कमरे में घुप्प अंधेरा छाया हुआ था.

अविरल औफिस से आया तो उसे लेटा देख परेशान हो उठा, ‘‘डार्लिंग, ऐवरीथिंग इज ओके न?’’ यह आवाज सुन वह विचारों के विचरण से लौट आई और जवाब भी नहीं दे पाई थी कि उस ने देखा कि अविरल उस के सामने कौफी का प्याला ले कर खड़ा था.

वह तेजी से उठी और बोली, ‘‘अरे, तुम मेरे लिए कौफी.’’

‘‘तो क्या हुआ डार्लिंग, इट्स ओके.’’

वह अपने मन को कौन्फ्रैंस के लिए तैयार कर ही रही थी कि तभी कमरे में परी आ गई थी. बैग देख कर बोली, ‘‘मौम, कहीं जा रही हो क्या?’’

वह गुमसुम सी थी, कुछ समझ नहीं पा रही थी कि क्या कहे.

‘‘पापा बता रहे थे कि आप चेन्नई, एक कौन्फ्रैंस में जा रही हैं.’’

वह चौंक पड़ी थी, अविरल से तो उस की कोई बात नहीं हुई. उन्हें उस के प्रोग्राम के बारे में कैसे पता है?

‘‘मौम, मेरी छुट्टियां हैं. पापा भी फ्री हैं. चलिए न, फैमिली ट्रिप पर चलते हैं. आप को पूरे समय कौन्फ्रैंस में थोड़े ही रहना होता है. मौम प्लीज, हां कर दीजिए, हम लोग कब से साथ में किसी फैमिली ट्रिप पर नहीं गए हैं,’’ वह उस से लिपट गई थी. अविरल भी आशाभरी निगाहों से उस की ओर देख कर उस की हां का इंतजार कर रहा था. परी झटपट उस के बैग के सामान को उलटपुलट कर देखने लगी, वह मना करती, उस के पहले ही उस ने मां की सैक्सी सी पिंक नाइटी निकाल ली थी. वह शर्म से डूब गई थी कि अब क्या कहे.

‘‘पापा, मौम ने तो पहले से आप के साथ ही जाने का प्रोग्राम बना रखा है.’’

उस की अपनी बेटी ने आज उसे इस अजीब सी स्थिति से उबार लिया था.

कहीं दूर पर गाना बज रहा था, ‘मेरे दिल में आज क्या है, तू कहे तो मैं बता दूं…’

एक अरसे बाद उस ने आगे बढ़ कर अविरल और परी दोनों को अपनी आगोश में भर लिया था. दोनों की आंखों में खुशी के आंसू आ गए थे.

‘‘आरोही, हम लोग इस बार महाबलीपुरम भी चलेंगे,’’ अविरल खुश हो कर बोला और उसे अपनी आगोश में ले लिया था. आज अविरल के प्यारभरे चुंबन ने उस के दिल को तरंगित कर दिया था. परी तेजी से उन से अलग हो कर भागती हुई अपनी फ्रैंड्स को अपनी चेन्नई ट्रिप के बारे में बताने में मशगूल हो गई थी.

 

मेरी 10 वर्षीय बेटी के ऊपरी होंठ पर बहुत बाल हैं, कृपया उन्हें हटाने के उपाय बताएं?

सवाल

मेरी 10 वर्षीय बेटी के ऊपरी होंठ पर बहुत बाल हैं. कृपया उन्हें हटाने के उपाय बताएं?

जवाब

हलदी का गाढ़ा पेस्ट बनाएं और उसे ऊपरी होंठ पर लगा कर आधे घंटे के लिए छोड़ दें. जब पेस्ट सूख जाए तो धो लें. ऐसा लगातार 4-5 हफ्तों तक करें. धीरेधीरे बालों की ग्रोथ में कभी आएगी. इस के अतिरिक्त आप नीबू व चीनी को मिला कर ऊपरी होंठ पर लगाएं और 15-20 मिनट लगा रहने दें. सूखने पर धो लें. इसी तरह आटा, दूध व हलदी का पेस्ट बना कर भी ऊपरी होंठ पर लगा सकती हैं. ये सभी उपाय ऊपरी होंठ के बालों की ग्रोथ को कम करने में सहायक होंगे.

 

 

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