Lok Sabha Election 2024: पूरे दक्षिण भारत की तरह तमिलनाडु में भी वोट मांगने के लिए भाजपा के पास कोई मुद्दा या खास उपलब्धि नहीं है इसलिए वह वहां हिंदुत्व का नकारा जा चुका कार्ड खेल रही है. तमिलनाडु की राजनीति की बुनियाद ही दलित हितों पर रखी गई है जिस पर मुट्ठीभर ब्राह्मणों के अलावा किसी को कोई एतराज नहीं लेकिन क्या वे उस की नैया पार लगा पाएंगे?

आम चुनावों के ठीक पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन के मंत्री बेटे उदयनिधि स्टालिन के सनातन उर्फ हिंदू धर्म विरोधी बयानों पर वही लोग हैरान थे जिन्हें तमिलनाडु की न केवल राजनीति बल्कि समाज, संस्कृति और संस्कारों का त भी नहीं मालूम. हिंदीभाषी राज्यों के युवाओं को तो यह समझ ही नहीं आया कि आखिर कोई नेता चुनाव के वक्त कैसे इतना बड़ा रिस्क उठा सकता है जबकि यहां तो देश के हिंदू राष्ट्र और विश्वगुरु बनने का स्वागत शुरू हो गया है. हालांकि ऐसा समझने वालों को यह अंदाजा तो है कि भाजपा और भगवा गैंग के अश्वमेघ यज्ञ का घोड़ा दक्षिण जा कर लड़खड़ाने लगता है और तमिलनाडु पहुंचतेपहुंचते तो वह गिर ही पड़ता है.

उदयनिधि ने कोई नई बात नहीं कही थी बल्कि अपने राजनीतिक पूर्वजों से सुनासुनाया दोहराया था जिस का सार पेरियार के बहुत से कथनों के साथ इस कथन से स्पष्ट होता है कि-

-मैं कहता हूं कि हिंदुत्व एक बड़ा धोखा है. हम मूर्खों की तरह हिंदुत्व के साथ अब नहीं रह सकते. यह पहले ही हमारा काफी नुकसान कर चुका है. इस ने हमारी मेघा को नष्ट कर दिया है. इस ने हमारे मर्म को खा लिया है. इस ने हमें हजारों वर्गों में बांट दिया है. क्या धर्म की आवश्यकता ऊंचनीच पैदा करने के लिए होती है. हमें ऐसा धर्म नहीं चाहिए जो हमारे बीच शत्रुता, बुराई और नफरत पैदा करे.

ई बी रामास्वामी पेरियार दक्षिण भारत की दलित चेतना, जो बाद में एक क्रांति में तबदील हो गई, के जनक थे. वे एक धनगर (गडरिया) परिवार में जन्मे थे. इस जाति की गिनती शूद्रों यानी दलितों में होती है. उन की कहानी बहुत दिलचस्प और एक हद तक एक विकलांग पौराणिक पात्र अष्टावक्र से काफी मिलतीजुलती है जो यह मानता था कि सत्य शास्त्रों में नहीं लिखा है. रूढ़िवादी और धार्मिक परिवार व पिता से इस तर्कशील युवा की पटरी नहीं बैठी तो वह ईश्वरीय सत्ता की खोज में काशी चला गया, जहां उसे वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो गया कि यह ईश्वर-फीश्वर कुछ नहीं है बल्कि खुराफाती ब्राह्मणों के दिमाग की उपज है तो वह घर वापस लौट गया लेकिन खामोश नहीं बैठा.

तब तमिलनाडु मद्रास प्रांत हुआ करता था. जहां दलितों पर अत्याचार, शोषण, भेदभाव, हिंसा और छुआछूत रोजमर्रा की बात थे. वहां के गुरुकुलों में गैरब्राह्मण बच्चों के साथ भेदभाव होता देख पेरियार ने इस के खिलाफ आवाज उठाई और कांग्रेस से सहयोग मांगा क्योंकि वे कांग्रेस से जुड़ चुके थे.
कांग्रेस आलाकमान ने उन की बातों पर कान नहीं दिया तो 1925 में वे कांग्रेस से अलग हो गए. इस के अगले ही साल उन्होंने ब्राह्मणत्व को चुनौती देता आत्मसम्मान आंदोलन छेड़ दिया. तब पूरे देश की तरह मद्रास प्रांत में भी धर्म के अलावा प्रशासन और राजनीति में ब्राह्मणों का दबदबा था जो तादाद में पूरे देश की तरह तमिलनाडु में भी लगभग 3 फीसदी थे. दूसरे समकालीन दलित नेताओं की तरह पेरियार का भी यही मानना था कि समाजवाद से पहले देश को सामाजिक मुक्ति की जरूरत है.

उदयनिधि के मुंह से पेरियार उवाच

लगभग 100 साल पहले कही गई इस बात के बाद कावेरी नदी का बहुत पानी बह चुका है लेकिन हकीकत उस के साथ नहीं बही जो पिछले साल 2 सितंबर को उदयनिधि स्टालिन के मुंह से इन शब्दों में बयां हुई थी कि कुछ चीजें हैं जिन्हें हमें उखाड़ फेंकना होगा और हम सिर्फ उन का विरोध नहीं कर सकते.
डेंगू, मलेरिया और कोरोना ऐसी ही चीजें हैं जिन का हम विरोध नहीं कर सकते. हमें इन्हें उखाड़ फेंकना होगा. सनातन भी ऐसा ही है, विरोध नहीं इसे जड़ से खत्म करना हमारा पहला काम होना चाहिए.

बस, इतना सुनना था कि भगवा गैंग ने लावलश्कर ले कर उन पर चढ़ाई कर दी लेकिन उदयनिधि, पेरियार की तरह नहीं झुके और उन्होंने साफ कर दिया कि वे अपनी बात पर अडिग हैं और सनातन का विरोध करते रहेंगे. इस बाबत उन्हें कोर्टकचहरी से भी कोई परहेज नहीं, बाद में उन की पार्टी डीएमके के कई और दिग्गजों ने भी यही बात अलगअलग तरीकों से कही जो, हालांकि, पहले पेरियार कह चुके थे. और इसी सूत्र पर तमिलनाडु की राजनीति आज भी चलती है.

इस से कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस फलसफे को अपना लेने वाला कौन है. एम जी रामचंद्रन से ले कर उदयनिधि के दादा करुणानिधि से होते जयललिता तक इसी फार्मूले पर राजनीति होती रही है. कभी सत्ता के सारे सूत्र चाबी की तरह अपने जनेऊ में लटकाए रखने वाले ब्राह्मण एक सदी से हाशिए पर हैं.

आंकड़े भी कम हैरतअंगेज नहीं

हिंदू राष्ट्र और ब्राह्मणवादी राजनीति का समीकरण दक्षिण में पलट जाता है तो इस की वजहें राजनीतिक कम, सामाजिक और धार्मिक ज्यादा हैं. 19 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तमिलनाडु में थे. इसी दिन भाजपा और पीएमके के बीच एक समझौता हुआ जिस के तहत भाजपा राज्य की 39 लोकसभा सीटों में से 29 पर अपने उम्मीदवार खड़े करेगी और पीएमके यानी पट्टाली मक्कल पार्टी 10 सीटों पर लड़ेगी.
पीएमके तमिलनाडु की एक क्षेत्रीय पार्टी है जिस के 215 सीटों वाली राज्य विधानसभा में कुल 5 विधायक हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में इस पार्टी को महज 3 फीसदी वोट मिले थे. पीएमके ने 2019 का लोकसभा चुनाव भी भाजपा के सहयोगी एआईएडीएमके से गठबंधन के साथ लड़ा था लेकिन उस के 7 उम्मीदवारों में से जीत कोई नहीं पाया था. तब उसे 5.36 फीसदी वोट मिले थे.

इस चुनाव में पीएमके ही नहीं बल्कि यह पूरा गठबंधन ही औंधेमुंह लुढ़का था. जिसे 39 में से केवल एक सीट ही नसीब हुई थी. अपने दौर के 2 पूर्व दिग्गज मुख्यमंत्रियों करुणानिधि और जयललिता के बगैर पहली बार हुए उस लोकसभा चुनाव में एआईडीएमके को एक सीट 19.39 वोटों के साथ मिली थी.
यह वह वक्त था जब देशभर में मोदी लहर चल रही थी लेकिन तमिलनाडु इस से बिलकुल अछूता था. भाजपा को केवल 3.66 फीसदी वोट मिले थे. जाहिर है, एआईएएमके और भाजपा की कुंडली नहीं मिली थी जिस की वजह वही हिंदुत्व था जिस से तमिलनाडु की जनता नाकभौं सिकोड़ती है.
डीएमके और कांग्रेस गठबंधन ने शानदार प्रदर्शन करते हुए 53.15 फीसदी वोट हासिल किए थे. डीएमके को 24 सीटें व 33.52 फीसदी वोट और कांग्रेस को 8 सीटें व 12.61 फीसदी वोट मिले थे. इस एलायंस के सहयोगियों भाकपा और सीपीआईएम को भी 2-2 सीटें लगभग 5 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. मुसलिम लीग और वीसीके को भी एकएक सीट मिली थीं.

लेकिन 2014 के नतीजे पूरी तरह एआईएएमके के पक्ष में थे. उसे 37 सीटें 44.92 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. डीएमके और कांग्रेस दोनों का ही खाता भी नहीं खुल पाया था जिन्हें क्रमश 23.91 और 4.37 फीसदी वोट मिले थे. भाजपा को एक सीट 5.56 फीसदी वोटों के साथ मिल गई थी. एक सीट पीएमके को भी 4.51 फीसदी वोटों के साथ मिली थी. 2014 में भी मोदी लहर तमिलनाडु के तटों को भी छू नहीं पाई थी और जादू जयललिता का ही चला था.

लोकसभा के बाद 2021 के विधानसभा चुनाव में भी डीएमके के नए मुखिया मुख्यमंत्री एम के स्टालिन हीरो बन कर उभरे थे. जयललिता के बाद एआईएएमके टूटफूट और कलह का शिकार हो कर रह गई थी. जयललिता के उत्तराधिकारियों में जम कर जंग हुई थी जिस के चलते पहले ओ पनीरसेल्वम मुख्यमंत्री बने और उन के बाद के पलानीस्वामी ने यह कुरसी संभाली लेकिन वे खुद भी नहीं संभल पाए. चुनावों में वोटर उन से बेरुखी से ही पेश आया जिस ने 2021 के विधानसभा की 234 में से 159 सीटें डीएमके गठबंधन की झोली में 43.38 फीसदी वोटों के साथ डाल दी थीं.
डीएमके को 133 सीटें 37.70 फीसदी वोटों के साथ और कांग्रेस को 18 सीटें 4.27 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. भाकपा और वीसीके को क्रमश 2 और 4 सीटें कोई 1.85 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. मुसलिम लीग को 3 सीटें और 0.48 फीसदी वोट मिले थे. एआईएडीएमके को 66 सीटें 33.29 फीसदी वोटों के साथ हासिल हुई थीं. पीएमके को 5 सीटें 3.80 फीसदी वोटों के साथ और भाजपा को 4 सीटें 2.62 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं.

अभी भी सनातन ही है मुद्दा

एआईएडीएमके का साथ भाजपा को नहीं फलाफूला और यह गठबंधन पिछले साल ही टूट भी गया जिस की घोषित वजह यह थी कि प्रदेश के भाजपा नेता एआईएडीएमके के दिग्गज नेताओं, खासतौर से जयललिता, के बारे में बेसिरपैर की टिप्पणियां करने लगे थे. जो नेता तो नेता, जनता को भी रास नहीं आ रही थीं. प्रदेश भाजपा के मुखिया के अन्नामलाई ने कहा था कि दिग्गज तमिल नेता सी एन अन्नादुरइ ने साल 1956 में मदुरे में हिंदू धर्म का अपमान किया था जिस के चलते उन्हें छिपना पड़ा था और हिंदुओं से माफी मांगने के बाद ही वे मदुरै से आगे जा पाए थे.
अन्नामलाई दरअसल बड़ी ही धूर्तताभरी मासूमियत से तमिलनाडु के ब्राह्मणों की सहानुभूति और समर्थन टटोलना चाह रहे थे. ठीक वैसे ही जैसे 19 मार्च को ही नरेंद्र मोदी उदयनिधि स्टालिन के सनातन संबंधी बयानों को ढाल बना कर यह कह रहे थे कि इंडिया गठबंधन के नेता हिंदू धर्म के बारे में जानबूझ कर अनर्गल कमैंट करते रहते हैं.

उन का इशारा राहुल गांधी के शक्ति वाले बयान की तरफ भी था. अब भगवा गैंग के इन नेताओं की खुशफहमी शायद ही कोई दूर कर पाए कि द्रविड़ हिंदू धर्म का मतलब उत्तर भारत के दक्षिणापंथियों से लगाता है जिन्हें भाजपा पहले एआईएडीएमके की तो अब पीएमके की पीठ पर बैठा कर तमिलनाडु की बादशाहत तोहफे में दे देना चाहती है.
पीएमके मुखिया एस रामदास हालांकि पिछड़े वन्नियार समुदाय के हैं लेकिन दलितों के धुरविरोधी हैं जो कुछकुछ नहीं, बल्कि बहुतकुछ ब्राह्मणों सरीखा खुद को प्रदर्शित करते रहे हैं. साल 2010 में उन का दिया यह बयान काफी विवादों में रहा था कि जींस, टीशर्ट और गौगल पहनने वाले दलित पुरुष हमारी महिलाओं को ऐसी शादियों में फंसाते हैं जो सफल नहीं होतीं. ‘ऊंची जाति की औरतें दलित पुरुषों के लिए आसान टारगेट होती हैं’ जैसा कुंठित बयान भी देने वाले रामदास भाजपाइयों के बराबर से बैठ कर ही खुद के समय को सराह रहे हैं मानो कोई ब्राह्मण देवता उन की देहरी पर आ कर जन्म सफल कर रहा हो. यही हाल बिहार में चिराग पासवान का है.

एआईएडीएमके-भाजपा गठबंधन के टूटने की घोषित वजह यह थी कि भाजपा के राष्ट्रवाद से घबराए वोटरों ने एआईएडीएमके से भी किनारा करना शुरू कर दिया था जिसे समझ आ गया कि भाजपा को वोट देने का मतलब द्रविड़ अस्मिता और तेलुगू भाषा से मनचाहा खिलवाड़ करने का लाइसैंस जारी करना है. यही वजह है कि पिछले 2 चुनावों से वह डीएमके और कांग्रेस की जोड़ी को इफरात से वोट और सीटें दे रहा है. अब तो भाजपा और पीएमके का हाल एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा वाली कहावत को चरितार्थ कर रहा है.

 

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