Download App

सोशल मीडिया को कंट्रोल ही नहीं, हाईजैक की प्लानिंग में भी भाजपा

10 मार्च, 2024 को प्रधानमंत्री मोदी ने अपने यूट्यूब चैनल ‘नरेंद्र मोदी’ पर एक विज्ञापन वीडियो पोस्ट किया, जिस का टाइटल उन्होंने ‘सेफ्टी एंड सिक्योरिटी औफ औल इंडियन एश्योर्ड ऐज दे आर मोदी का परिवार’. यह वीडियो उस श्रंखला में एक वीडियो था जिस में 3 मार्च को पटना के गांधी मैदान में ‘इंडिया अलायंस’ की पहली बड़ी रैली हुई.

इस रैली से एक दिन पहले यानी 2 मार्च को औरंगाबाद में एनडीए की रैली थी जिस में बिहार के मुख्यमंत्री और खुद प्रधानमंत्री मोदी मौजूद थे. एनडीए के मुकाबले भीड़, भाषण और चर्चाओं को ले कर ‘इंडिया’ अलायंस की रैली सफल और चर्चा में रही. यहीं से लालू प्रसाद यादव ने मोदी के ‘परिवारवाद’ के आरोपों का जवाब दिया. जिस के बाद भाजपा ने सोशल मीडिया पर ‘मोदी का परिवार’ कैंपेन चलाया.

इसी कैंपेन के तहत मोदी ने अपने यूट्यूब अकाउंट से विज्ञापन वीडियो पोस्ट की, जिस में एक लड़की जो विदेश में कहीं फंसी थी और एयरपोर्ट पर आ कर अपने पापा से कहती है कि ‘पापा, मोदी ने हमें बचा लिया.’ यह लाइन सोशल मीडिया पर मीमर और ट्रोलर के लिए पंच लाइन बन गई, जिस चलते आज जहांतहां सोशल मीडिया पर इस वीडियो का मजाक बनाया जा रहा है.

जाहिर है सोशल मीडिया अनोखी जगह है, जहां कभी भी कोई भी चीज उछल आती है. यह मेनस्ट्रीम मीडिया से हट कर एक ऐसा टूल बन कर उभरा है जिस पर आम लोगों का भी एक हद तक फिलहाल सीधा नियंत्रण बना हुआ है. और इस चलते ढेर सारा पैसा प्रचार में खर्च करने के बावजूद कभीकभी सोशल मीडिया पर पार्टियों द्वारा सरकाई कोई पोस्ट या वीडियो यूजर्स के लिए ऐसा मीम मैटीरियल बन जाता है कि चाह कर उस का डैमेज कंट्रोल नहीं हो पाता. ‘आलू से सोना बनाने वाली मशीन’ के जिस खेल में कभी भाजपा खेलती थी, सोशल मीडिया इतना अनियमित हो चला है कि जो भस्मासुर जैसा जो वरदान उसे कभी मिला था अब वह खुद भी इस में जलने लगी है, जैसा ‘पापा’ वाले वीडियो के साथ हो रहा है.

सोशल मडिया पर नियंत्रण

यही कारण भी है कि मेनस्ट्रीम मीडिया को अपने नियंत्रण में लेने के बाद अब भाजपा सरकार सोशल मीडिया के पीछे हाथ धो कर पड़ गई है. वह चाहती है कि इनफौर्मेशन के पूरे तंत्र पर सिर्फ उसी का नियंत्रण हो.

20 मार्च, 2024 को पीआईबी के अंतर्गत लाया गया फैक्ट चैक यूनिट उसी कड़ी में एक है, जिस पर अगले ही दिन यानी 21 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने लोग लगा दी है. फैक्ट चैक यूनिट दरअसल सरकार की तरफ से ऐसा विभाग होगा जो सोशल मीडिया (फेसबुक, इंस्टाग्राम, ट्विटर व अन्य माध्यमों) में किसी जानकारी को फेक या गलत बता सकती है. और यदि यह यूनिट किसी जानकारी को गलत बता देती है तो संबंधित प्लेटफौर्म को उस जानकारी को तुरंत हटाने के लिए बाध्य होना पड़ेगा.

इस के अनुसार इंटरनैट से उस का यूआरएल भी ब्लौक करने की बात कही गई है. पिछले साल अप्रैल में सरकार ने इस के नाम का ऐलान किया था. यह सूचना प्रौद्योगिकी नियम 2021 (इनफौर्मेशन एंड टैक्नोलौजी नियम 2021) में संशोधन के बाद लाया गया था. इस की स्थापना नवंबर 2019 में की गई थी.

अब सुप्रीम कोर्ट ने इस यूनिट पर रोक लगा दी है यह कहते हुए कि इस से अभिव्यक्ति की आजादी को ख़तरा है. सरकार के आईटी नियमों में बदलाव को ले कर सिविल सोसाइटीज, विपक्षी दलों और डिजिटल मीडिया संस्थानों ने पहले ही अपनी आपत्ति दर्ज कराई थी. उन का कहना था कि इस तरह के नियमों से सोशल मीडिया पर सरकार का हस्तक्षेप बढ़ेगा और अपनी बात कहने की आजादी में एक बड़ी रुकावट बनेगी.

सरकार ने भले इसे ले कर कहा कि वह इस यूनिट को विश्वसनीय तरीके से चलाएगी पर संशय इसी बात का है कि सरकार इस यूनिट का बेजा इस्तेमाल कर सकती है और अपने अनुसार इनफौर्मेशन को नियंत्रण कर सकती है. वह अपने खिलाफ उठ रही आवाजों, आलोचनाओं, सवालों को दबा सकती है.

संशोधनों का विरोध

आईटी नियमों में संशोधन के खिलाफ एडिटर्स गिल्ड औफ इंडिया, न्यूज ब्रौडकास्टर्स एंड डिजिटल एसोसिएशन और एसोसिएशन औफ इंडियन मैगजीन ने बौम्बे हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी, जिस में कहा गया था कि ये नियम असंवैधानिक और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं.

इसे ले कर तब इंटरनैट फ्रीडम फाउंडेशन, भारतीय डिजिटल स्वतंत्रता संगठन ने 2023 के संशोधन पर बयान जारी किया था जिस में इस की प्रासंगिकता पर चिंता जताई गई. उन्होंने कहा, “सरकार की किसी भी यूनिट को औनलाइन सामग्री की प्रामाणिकता निर्धारित करने के लिए इस तरह की मनमानी, व्यापक शक्तियां सौंपना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को दरकिनार करता है.

“इस प्रकार यह असंवैधानिक अभ्यास है. इन संशोधित नियमों की अधिसूचना भाषण और अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार, विशेषरूप से समाचार प्रकाशकों, पत्रकारों, गतिविधियों आदि पर द्रुतशीतन प्रभाव को मजबूत करती है.”

एडिटर्स गिल्ड औफ इंडिया ने यह भी इस पर आपत्ति जताई कि “फेक न्यूज तय करने की शक्तियां पूरी तरह से सरकार के हाथ में होना प्रैस की आजादी के विरोध में है.”

सुप्रीम कोर्ट की रोक

इसी मसले पर संबंधित विरोधी पक्षों ने कोर्ट में याचिका डाली. तब याचिका की सुनवाई में फैसला देते हुए जस्टिस जी एस पटेल ने संशोधन के विरोध में और जस्टिस नीला गोखले ने पक्ष में फैसला दिया था. जब मामला तीसरे जज जस्टिस चंदूरकर के पास गया तो उन्होंने संशोधन पर स्टे लगाने से मना कर दिया.

हालांकि पहले केंद्र सरकार ने कहा था कि मामले की सुनवाई पूरी होने तक वह फैक्ट चैक यूनिट की अधिसूचना जारी नहीं करेगी, लेकिन तीसरे जज के संशोधन पर रोक लगाने से मना करने के बाद कोर्ट ने सरकार को अधिसूचना लाने की इजाजत दे दी थी.

तब बौम्बे हाईकोर्ट के फैसले से नाखुश याचिकाकर्ताओं ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की और संशोधन पर रोक लगाने की मांग की. जिस के बाद 21 मार्च को सुप्रीट कोर्ट ने इस पर रोक लगाई.

थूथू कड़वा घपघप मीठा

हालांकि यह रोक देश में अभिव्यक्ति की आजादी चाहने वालों के लिए जरूर सुकून देने वाली है पर कितने दिनों यह सुकून रहेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता, क्योंकि सरकार के पास ऐसे तमाम हथकंडे हैं जिन से वह अपनी मनमरजी चला रही है. क्योंकि मामला यहां सिर्फ नियंत्रण का नहीं है, बल्कि पूरी मीडिया तंत्र को हाईजैक करने का है.

एक हाथ वह मुद्दों पर आधारित मीडिया हाउसों को नियंत्रण तो कर रही है तो दूसरे हाथ अपने भ्रामक विचारों और झूठे दावों का प्रचार कर रही है. यानी, यह सोचीसमझी रणनीति के तहत सूचना तंत्र को हाईजैक करना है. लोकनीति सैंटर फौर स्टडी सोसाइटी ने पिछले साल हुए मध्य प्रदेश, छतीसगढ़ और राजस्थान में चुनावी पार्टियों द्वारा फेसबुक और इंस्टाग्राम में किए सोशल मीडिया प्रचार पर हुए खर्चों के आंकड़े सामने रखे.

रिपोर्ट 90 दिनों के खर्चों का ब्योरा देती है, जिस में भाजपा और कांग्रेस में ढाई गुने का अंतर था. जहां कांग्रेस ने इन तीनों राज्यों में तकरीबन 99 लाख रुपए खर्च किए, वहीँ भाजपा ने 2 करोड़ 68 लाख रुपए खर्च किए.

इसी तरह ‘द हिंदू’ अखबार की रिपोर्ट बताती है कि फरवरी 2019 से ले कर फरवरी 2023 तक, यानी इन 5 सालों के बीच भारतीय जनता पार्टी ने कुल 33 करोड़ रुपए सोशल मीडिया में अपने प्रचारप्रसार के लिए खर्च किए. गौर करने वाली बात यह कि यह उस पूरे पैसे का लगभग 10 प्रतिशत है जो सभी विज्ञापनदाताओं ने (यानी हर तरह के) उस अवधि में भारत में फेसबुक विज्ञापन चलाने के लिए खर्च किया. फेसबुक को भारत से विज्ञापन के माध्यम से 360 रुपए की कमाई हुई.

फेसबुक पर अपनी उपलब्धियां बताने के साथसाथ बनाए गए ये पेज विपक्षी पार्टियों को बदनाम और भ्रमित करने वाली जानकारियों से भरे पड़े हैं. भारत में फेसबुक के शीर्ष 15 विज्ञापनदाताओं में से 6 भाजपा द्वारा संचालित पेज हैं. उन में से 2 आईएनसी द्वारा संचालित हैं.

इस सूची में ‘एक धोखा केजरीवाल ने’ भी शामिल है, जो सिर्फ एक बदनामी वाला पेज है जो नियमित रूप से दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को बदनाम करता है, जिन्हें ईडी ने गिरफ्तार कर लिया है. ‘ठग्स औफ झारखंड’ के नाम से बनाए एक अन्य पेज में सोरेन परिवार और विपक्ष को टारगेट करने के लिए बनाया गया है. इस पेज में आधे से ज्यादा कंटैंट भ्रमित करने वाला है.

ऐसे ही ‘द फ्रस्ट्रेटेड बंगाली’ पेज बनाया गया जिसे अब डाउन कर दिया गया है. इस पेज में लास्ट पोस्ट 26 मई, 2022 में डाली गई. यह पोस्ट भाजपाविरोधी दलों, खासकर ममता बनर्जी, को टारगेट करती है जिस पर साढ़े 6 लाख से अधिक फौलोअर्स हैं. यह सिर्फ विरोधी पार्टियों को टारगेट नहीं कर रहा, बल्कि एक विचारधारा के रूप में भी भ्रम फैलाया जा रहा है, जहां मीम के रूप में ढेरों फेक इनफौर्मेशन ठेली जा रही है, जैसे ‘भीमटा मुक्त भारत’ खासकर बहुजन व दलित विरोधी पेज के रूप में बनाया गया है. इस पेज में भीम राव आंबेडकर का मजाक बनाया जाता है, इस पेज के भाजपा से जुड़ने का तथ्य क्लियर नहीं पर इस पेज पर भाजपा समर्थित सामग्री डाली जाती हैं. ऐसे ढेरों पेज इस समय सोशल मीडिया पर संगठित रूप से काम कर रहे हैं.

मामला ज्यादा खतरनाक

इसे थोड़ा और बारीकी से समझने की जरूरत है. 8 मार्च को प्रधानमंत्री मोदी ने 5 हजार से ज्यादा सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स को देशभर से बुलाया और अवार्ड दिया. इसे ‘नेशनल क्रिएटर्स अवार्ड’ कहा गया. अल्लेपुछल्ले इन क्रिएटर्स के लाखों में फौलोअर्स और सब्सक्राइबर्स हैं.

इन में से कुछ ऐसे क्रिएटर्स थे जिन की जीहुजूरी वाले पोडकास्ट में बड़ेबड़े केंद्रीय मंत्रियों के इंटरव्यू भरे पड़े हैं और कुछ ऐसे थे जिन के कंटैंट से भाजपा को राजनीतिक और वैचारिक रूप से कोई समस्या नहीं. देशभर के इन्फ्लुएंसर्स को एक मंच पर बुलाना कोई सामान्य घटना नहीं थी. इसे विकेंद्रित नव सूचना केंद्रों पर मोदी और भाजपा की पकड़ बनने के बढ़ते कदम के रूप में देखा जाना चाहिए.

मेनस्ट्रीम न्यूज चैनलों में आम जनता के मुद्दे गायब हैं. वहां इतना समझा जा चुका है कि ये चैनल सरकारपरस्त जानकारी ही परोस रहे हैं, एकजैसी खबरें, प्रोपगंडा खबरें आदि. सारा दिन मोदी की तारीफ देख कर लोगों का मोहभंग हो रहा है और वे यूट्यूब या सोशल मीडिया का सहारा ले रहे हैं.

आज न्यूजफीड यूट्यूब चैनलों को देखें तो सब से ज्यादा उन यूट्यूब चैनलों को देखा जा रहा है जो एंटीएस्टेब्लिशमैंट खबरें दे रहे हैं. हाल ही में ध्रुव राठी के ‘द डिक्टेटर’ वीडियो को पहले 24 घंटे में 1 करोड़ से अधिक लोगों ने देखा जो अपनेआप में किसी पौलिटिकल कंटैंट वाली वीडियो का एक बड़ा रिकौर्ड था. तेजस्वी, राहुल और अखिलेश के भाषण ज्यादा वायरल हो रहे हैं.

यह बात भाजपा जानती है कि मेनस्ट्रीम चैनलों में जनता के मुद्दों के लिए घटते स्पेस से लोग अपने दुखों को बताने के लिए यूट्यूब चैनलों और वैबसाइट्स का सहारा ले रहे हैं, नहीं तो अपना समय रील्स और अधकचरे एक्स्प्लैनर को देखते हुए काट रहे हैं. भाजपा की कोशिश यह है कि- एक, उन क्रिएटर्स के साथ कोलैब कर अपने पाले में कर लिया जाए जिन के फौलोअर्स हैं, दूसरे, जो पाले में नहीं आ रहे उन्हें स्ट्राइक डाउन जैसे नियमों के तहत बांध दिया जाए. उन के कंटैंट पर रोक लगा दी जाए. यानी, सूचना का सिर्फ एक ही माध्यम बने और वह सिर्फ सत्ता पक्ष का ही हो.

इस खेल में भाजपा अभी भी इसलिए आगे है क्योंकि इलैक्टोरल बौंड जैसी स्कीम से उस के पास अथाह पैसा आ चुका है. जजों व नेताओं को धमकाने व खरीदने का काम वह काफी पहले से करना शुरू कर चुकी है. उस के पास मीडिया तो पहले से थी ही, अब सोशल मीडिया पर भी पूरी तरह नियंत्रण जमा लेना चाहती है.

यहां जानें, मनोरोग के क्या है शुरुआती लक्षण

लेखक : डा. अवनीश चंद्र

भारत में हर छठा व्यक्ति मनोरोगी है. उसे उपचार की आवश्यकता है. कर्नाटक राज्य में 8 फीसदी व्यक्ति इस रोग से ग्रस्त हैं. आंकड़े बताते हैं कि आमतौर से 30 से 49 वर्ष की आयु के व्यक्तियों में मनोरोग के लक्षण होते हैं. गांवों की अपेक्षा शहरों में मानसिक रोगी अधिक पाए जाते हैं. अधिकतर इस का कारण गरीबी होता है.

वैसे तो 30 से 49 वर्ष की आयु के बीच रोगियों में मनोरोगों का पाया जाना सामान्य बात है परंतु इन के लक्षण किसी भी आयु के व्यक्ति में हो सकते हैं. डाक्टरी उपचार का मकसद रोगी को समाज व कार्यालय में पुनर्स्थापित करना होता है. दवाएं जीवनभर चलती हैं. दवा के सेवन में कोताही नहीं बरतनी चाहिए. उपचार को बंद करने से रोग की पुनरावृत्ति हो जाती है. दवाएं मनोरोग विशेषज्ञ की सलाह से ही घटानी अथवा बढ़ानी चाहिए.

विशेषज्ञों की मानें तो अधिकतर मामलों में रोगी के परिजन उसे तभी अस्पताल लाते हैं जब पानी सिर के ऊपर से गुजर जाता है. आखिर हम मानसिक परेशानियों को नकारने की कोशिश क्यों करते हैं? क्या दिमाग हमारे शरीर का हिस्सा नहीं है? यदि रोगियों को शुरुआती दौर में लक्षण पहचान कर अस्पताल लाया जाए तो कम तीव्रता वाली सस्ती दवाओं से ही गुजारा संभव होता है. इस से मरीज पर दवाओं के कम साइड इफैक्ट्स पड़ते हैं.

मानसिक रोगियों के परिजनों का सुखचैन, खानापीना सब हराम हो जाता है. अगर बीमारियां गंभीर हैं, मसलन किसी को अजीबोगरीब आवाजें सुनाई पड़ रही हैं, व्यक्ति कुछ ऐसा देख या सुन रहा है जो दूसरे नहीं या अगर वह खुद को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रहा है तो ऐसे में परिवार और दोस्तों की जिम्मेदारी है कि वे उसे डाक्टर के पास ले जाएं क्योंकि ऐसी हालत में मरीज कभी खुद स्वीकार नहीं करेगा कि वह बीमार है.

उस का इलाज सिर्फ थेरैपी या काउंसलिंग से या फिर दवाइयों की जरूरत भी पड़ेगी, इस का फैसला डाक्टर करेगा. ऐसे में सलाह है कि परिवार में घटित घटनाओं के घटने पर उत्पीडि़त व्यक्ति की रोजाना की जिंदगी पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दें. इसे यहां एक तालिका के जरिए दर्शाया जा रहा है.

मनोरोग विशेषज्ञ को सर्वप्रथम रोगी की सामाजिक व आर्थिक स्थिति से वाकिफ होना आवश्यक है. वह समाज के किस खंड का है, उस की शिक्षा व योग्यताएं क्या हैं वगैरह. इस के अलावा यदि उसे यह भी ज्ञात हो कि वह किन लोगों के संपर्क में रहा है व कौनकौन सी भाषाएं जानता है, तो विशेषज्ञ को, रोगी द्वारा अपना हालचाल बताते समय उस ने कौन से शब्द किस प्रकार से कहे हैं, रोग को जांचने में अधिक दिक्कत नहीं होगी.

मसलन, यदि हिंदीभाषी व्यक्ति ऐसा शब्द इस्तेमाल करता है जो किसी दक्षिण भारतीय राज्य की भाषा में भी हो और उस में उस का अर्थ एकदम खास हो तो रोग के प्रकार का निदान भलीभांति हो सकता है.

विशेषज्ञ यह भी तय करें कि मरीज किस हद तक असफलता का कारण दूसरों के सिर मढ़ता है. कुछ मरीज ऐसे भी होते हैं जो अपनी असफलता के लिए स्वयं को इतना अधिक जिम्मेदार मानते हैं कि स्वयं को माफ नहीं करते. एक गलत धारणा यह भी है कि डिप्रैशन या दिमागी तकलीफ सिर्फ उसे ही होती है, जिस की जिंदगी में कोई बहुत बड़ा हादसा हुआ हो या जिस के  पास दुखी होने की बड़ी वजहें हों.

डिप्रैशन के दौरान इंसान के शरीर में खुशी देने वाले हार्मोन जैसे कि औक्सिटोसिन का बनना कम हो जाता है. यही वजह है कि डिप्रैशन में व्यक्ति चाह कर भी खुश नहीं रह पाता. इसे दवाइयों, थेरैपी और लाइफस्टाइल में बदलाव ला कर बेहतर किया जा सकता है.

कोई भी व्यक्ति स्वयं में संपूर्ण नहीं है. स्वयं से प्रतिकार करना ठीक नहीं है. जीवन को पूरा जिएं और परिवार के दायित्वों को भी निभाएं, इसी में खुशियां निहित हैं. संतुलित आहार, नियमित व्यायाम, जानबू झ कर गलत कार्य न करना, नशे व तंबाकू से दूर रहना आदि प्रसन्न रहने के गुर हैं.

दिस इज़ टू मच : हंसते- खेलते घर को किसकी नजर लग गई थी

लेखिका– वीना उदयमो

 ‘दिस इज़ टू मच’ यह शब्द शूल की तरह मेरे हृदय को भेद रहे हैं. मानो मेरे कानों में कोई पिघला शीशा उड़ेल रहा हो. मेरा घर भी अखबारों की सुर्खियां बनेगा यह तो मैंने स्वप्न में भी ना सोचा था. हमारे हंसते खेलते घर को न जाने किसकी बुरी नजर लग गई. हम चार जनों का छोटा सा खुशहाल परिवार – बेटा बी0टेक0 थर्ड ईयर का छात्र और बेटी बी0टेक0 फर्स्ट ईयर की.

कोरोन संक्रमण के फैलाव को रोकने के लिए जब सभी कॉलेजों और स्कूलों से विद्यार्थियों को घर वापस भेजा जाने लगा और मेरा भी विद्यालय बंद हो गया तो मैं प्रसन्न हो गई कि बरसों बाद अपने बच्चों के साथ मुझे समय बिताने का मौका मिलेगा.

कानपुर आईआईटी में पढ़ने वाला मेरा बेटा और बीबीडी इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने वाली मेरी बेटी जब घर आए तो मेरा घर गुलज़ार होगया. नरेंद्र अपनी पुलिस की ड्यूटी निभाने में व्यस्त रहते थे और मैं क्वेश्चन पेपर बनाने, वर्कशीट बनाने और लिखने पढ़ने में. बस यही व्यस्त दिनचर्या रह गई थी हमारी.

जब बच्चे घर आए तो उनसे बातें करते, मिलजुल कर घर के काम करते, और साथ बैठकर टीवी देखते तथा मज़े करते दिन कैसे बीत जाता पता ही नहीं चलता.

पर मेरी यह खुशी ज्यादा दिन नटिक पाई. सौरभ और सुरभि ने कुछ दिनों तो मेरे साथ खुशी-खुशी समय बिताया, फिर बोर होने लगे, बातों का खज़ाना खाली हो गया और घर का काम बोझ लगने लगा, उमंग और उल्लास का स्रोत सूखने लगा. दोनों अपने-अपने कमरों में अपने-अपने मोबाइल और लैपटॉप के साथ अपनी ही दुनिया में मगन रहते.

मैं 5:00 बजे उठकर सोचती कि 5:00 बजे ना सही, कम से कम 6:00-7:00 बजे तक ही उठकर दोनों मेरे साथ एरोबिक्स अथवा योगा करें. हम साथ-साथ मिलकर काम करें और साथ-साथ बैठकर मूवी देखें और समय बिताएं. मैं उनकी पसंद का नाश्ता बना कर उनके उठने का इंतजार करती. पहले उन्हें प्यार से उठाती फिर चिल्लाती. पर उन दोनों के कानों पर तो जूँ तक ना रेंगती.

बेटी को उठाती तो वह कहती, “आप मेरे ही पीछे पड़ी रहती हो, पहले भैया को उठाओ जाकर.” और भाई को कहती तो वह कहता, “माँ दिस इस टू मच. चैन से सोने भी नहीं देती हो. अब मैं कोई छोटा बच्चा नहीं हूँ.” मैं अपना सा मुँह लेकर रह जाती.

भागते भागते 21 बरस कैसे बीत गए पता ही ना चला. लगता है जैसे कल की ही बात हो, जब मेरा अन्नू अपनी शरारतों से हम सबके बीच आकर्षण का केंद्र बना रहता था. उससे 2 साल छोटी तनु जब ठुमक ठुमक कर चलती थी तो मानो साक्षात मोहिनी ने अवतार ले लिया हो. उन्हें देखकर हम फूले नहीं समाते थे.

नरेंद्र मंत्रमुग्ध हो कहते, “मैं अपने बेटे को पुलिस कमिश्नर बनाऊँगा और बेटी को जज.” ऐसे ही ना जाने कितने सपने सजाए हम दिलोजान से उन्हें अच्छी परवरिश देने में लगे थे.

मैं सुबह 5:00 बजे उठकर सबका नाश्ता तैयार करती. नरेंद्र यदि घर पर होते तो बच्चों को तैयार करने में मेरी सहायता करते. बच्चों को बस स्टॉप पर छोड़ कर अपने स्कूल के लिए भागती. बच्चों की छुट्टी 2:00 बजे हो जाती थी इसलिए वह स्कूल से सीधे नानी के घर चले जाते थे.

मैं जब 3:30 बजे लौटती तो उन्हें अपने साथ घर वापस ले आती. घर आकर उन दोनों को रेस्ट करने के लिए कहती और खुद भी थोड़ी देर आराम करती. 5:00 बजे उन्हें उठाकर होमवर्क करवाने बैठाती और साथ ही घर के काम भी निपटाती जाती.

जीवन की आपाधापी में समय कब पंख लगा कर उड़ गया पता ही ना चला. नरेंद्र की 24 घंटे की पुलिस की नौकरी और हजारों तरह की कठिनाइयों के बाद भी वह मुझे और बच्चों को समय देने और हमारा ध्यान रखने की पूरी कोशिश करते. उन्हें अपने दोनों बच्चों पर बड़ा गर्व था.

सौरभ का जब आईआईटी में सिलेक्शन हो गया तब उन्होंने अपने पूरे स्टाफ को मिठाई बाँटी और रिश्तेदारों को पार्टी दी. सौरभ के हॉस्टल जाने के बाद मैं कितना रोई थी. उसके सेलेक्ट होने की खुशी तो थी पर घर से जाने का गम भी बहुत ज्यादा था. कुछ भी बनाती तो उसकी याद आती. डाइनिंग टेबल पर उसकी खाली कुर्सी देख कर मैं रो पड़ती कि मेरा बेटा हॉस्टल का रुखा-सूखा खाना खा रहा होगा.

उसके 2 साल बाद ही तनु को भी एक अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन मिल गया और वह भी बाहर चली गई. उसके जाने के बाद ऐसा लगा जैसे घर से खुशियां ही चली गई हो.

धीरे धीरे इस सन्नाटे की हमें आदत हो गई. आज 10 दिन के लिए बच्चे हवा के झोंकों की तरह घर आते और चले जाते. कोरोना के कहर ने सारे संसार को आतंकित कर रखा है. मैं कोरोना से भयभीत तो थी पर मुझे खुशी थी कि जीवन की इस आपाधापी में मुझे बरसों बाद अपने बच्चों के साथ समय बिताने को मिलेगा.

मैं 28 साल की युवती हूं, मुझे पीरियड्स नहीं होते, क्या मैं कभी प्रैगनैंट हो सकूंगी ?

सवाल
मैं 28 साल की युवती हूं. मुझे पीरियड्स नहीं होते. पिछले दिनों डाक्टर की सलाह से मैं ने अपना पैल्विक अल्ट्रासाउंड कराया था. इस रिपोर्ट के अनुसार मेरे यूटरस का साइज 29 मिलीमीटर 18 मिलीमीटर 13 मिलीमीटर है. क्या मैं कभी प्रैगनैंट हो सकूंगी? मुझे क्या करना चाहिए? कृपया उचित सलाह दें.

जवाब
अच्छा होता कि आप हमें अपने अल्ट्रासाउंड की पूरी रिपोर्ट भेजतीं, जिस से यूटरस के साथसाथ ओवरीज के बारे में भी जानकारी मिल पाती. जहां तक यूटरस का सवाल है, उस के साइज से यह स्पष्ट है कि यूटरस छोटा है और उस का ठीक से विकास नहीं हो सका है. इसे हाइपोप्लास्टिक यूटरस का दरजा दिया जाता है. यह विकार कई कारणों से होता है, जिस की तह में जाने के लिए विस्तार से डाक्टरी छानबीन करना जरूरी होगा.

कुछ स्त्रियों में यूटरस शुरू से ही छोटा रह जाता है और यह स्थिति एक बड़े सिंड्रोम का हिस्सा होती है जिस में न सिर्फ यूटरस बल्कि वैजाइना का भी समुचित विकास नहीं होता.

कुछ स्त्रियों में यूटरस का छोटा होना उस बड़े क्रोमोजोमल विकार का अंग होता है, जिसे टर्नर सिंड्रोम का नाम दिया गया है और जिस में किसी बड़ी सुधार की गुंजाइश नहीं होती.

किसीकिसी बच्ची में यह यौनअंगीय विकास उस सूरत में भी आधाअधूरा रह जाता है जब बच्ची के गर्भ में होते हुए मां सिंथैटिक इस्टरोजेन यानी डाईइथाइलस्टील्बेस्ट्रो ले लेती है.

कई मामलों में समूची समस्या हारमोनल स्तर पर होती है. किशोर उम्र के समय जब शरीर प्यूबर्टि के साथ होने वाले हारमोनल परिवर्तनों के देखरेख में अपने को वयस्क उम्र के लिए तैयार करता है और अन्य सैक्सुअल गुणों के साथसाथ यौन अंग भी सयाने हो कर मातृत्व की जिम्मेदारी संभालने के लिए विकसित होते हैं, उस समय आंतरिक हारमोनल गड़बड़ होने से यूटरस का विकास बीच में ही आधाअधूरा रह जाता है. यह विकारमय स्थिति प्राय: पिट्यूटरी ग्लैंड में बनने वाले प्रोलैक्टिन हारमोन की अधिकता से उत्पन्न होती है.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

जेएनयू छात्रसंघ चुनाव: जेएनयू में लहराया लाल परचम

छात्र राजनीति का गढ़ माने जाने वाले दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) में 4 वर्षों बाद एक बार फिर वामपंथियों का लाल परचम लहरा रहा है. प्रैसिडैंट, वाइस प्रैसिडैंट और जौइंट सैक्रेटरी सीटों पर लेफ्ट प्रत्याशियों की जीत ने आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र भाजपा की रीढ़ में सिहरन पैदा कर दी है.

वोटों की गिनती के दौरान अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) में भारी उत्साह और कौन्फिडेंस देखा जा रहा था. हर तरफ शोर उठ रहा था कि भारतीय जनता पार्टी और आरएसएस की छात्र इकाई एबीवीपी के सिर जीत का सेहरा बस बंधने ही वाला है. सोशल मीडिया प्लेटफौर्म पर बधाइयों का सिलसिला चालू था. भाजपा के तमाम नेताओं के आईटी सेल बढ़ चढ़ कर उत्साह बढ़ाने और बधाइयां बांटने में लगे थे. कई भाजपाई विधायक तो एबीवीपी के फेवर में अपने ट्वीट्स को लाइक और शेयर करवाने के लिए खुद सारा दिन लोगों को फ़ोन करते रहे. गोदी मीडिया भी एबीवीपी की जीत लगभग सुनिश्चित कर चुका था कि तभी लाल झंडा उठना शुरू हुआ और विश्वविद्यालय के फलक पर छा गया. रविवार 24 मार्च को घोषित नतीजों में 4 सीटों में से 3 सीटों पर लेफ्ट पैनल और एक सीट पर लेफ्ट समर्थित बाप्सा संगठन की प्रत्याशी ने जीत दर्ज की.

प्रैसिडैंट सीट पर लेफ्ट के प्रत्याशी धनञ्जय को 2,598 मत हासिल हुए. उल्लेखनीय है कि धनञ्जय एक दलित छात्र हैं. वहीं इस सीट पर एबीवीपी के प्रत्याशी उमेश चंद्र अजमीरा को 1,676 वोट ही मिले. वाइस प्रैसिडैंट के लिए लेफ्ट के प्रत्याशी अविजीत घोष को 2,409 मत मिले जबकि इसी सीट के लिए एवीबीपी की प्रत्याशी दीपिका शर्मा को कड़ी टक्कर के बाद हार का मुंह देखना पड़ा. जनरल सैक्रेटरी सीट पर लेफ्ट समर्थित बाप्सा प्रत्याशी प्रियांशी आर्य ने 2,887 वोट हासिल कर जीत का परचम लहराया तो एबीवीपी के अजरुल आनंद को 1,961 वोट ही मिले. जौइंट सैक्रेटरी सीट पर भी लेफ्ट प्रत्याशी मोहम्मद साजिद 2,574 मत ले कर सब से आगे रहे.

गौरतलब है कि जेएनयू में इस बार के छात्रसंघ चुनाव में मणिपुर में हिंसा और वहां की महिलाओं के साथ अमानुषी हरकतें, किसानों का विरोध और देश में धार्मिक ध्रुवीकरण व भाजपा की नफरती राजनीति जैसे मुद्दों के चलते छात्रों का पूरा समर्थन लेफ्ट पैनल को मिला. महिलाओं, किसानों और गरीबों से जुड़े इन तमाम गंभीर मुद्दों से एबीवीपी बिलकुल दूर रही. वह बस नक्सलवाद, फैलोशिप, छात्रावास की हालत और जल संकट पर ही भाषणबाजी करती रही, लेकिन यह जुमलेबाजी एबीवीपी के कतई काम नहीं आई.

जेएनयू छात्रसंघ के नतीजों से एक बात साफ़ है कि मोदी सरकार को युवाओं ने नकारा है. यह नतीजा लोकसभा चुनाव को ले कर एक जनमत है. जिस प्रकार मोदी सरकार ने शिक्षा और रोजगार के सवाल पर दस वर्षों में सिर्फ जुमलेबाजी की है, उस जुमलेबाजी के खिलाफ छात्रों ने वोट किया है. उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा नीति और फीस बढ़ोतरी के खिलाफ वोट किया है. चुनावी बौंड बौंड नहीं, एक घोटाला है और इस घोटाले के खिलाफ छात्रों ने वोट किया है. जेएनयू के छात्रों ने नफरत और हिंसा की राजनीति को खारिज किया है. एक बात और ध्यान आकर्षित करने वाली है कि जेएनयू छात्र संघ चुनाव में इस बार 73 फीसदी मतदान हुआ है, जो पिछले 12 सालों में सब से ज्यादा है.

गौरतलब है कि जेएनयू छात्र राजनीति का गढ़ है. जेएनयू में अनेक ऐसी शख्सियतों ने शिक्षा पाई है जिन्होंने आगे जा कर देश का नाम रोशन किया है या ऊंचेऊंचे ओहदों पर बैठे हैं. आमतौर पर जेएनयू को वामपंथ का गढ़ माना जाता है लेकिन ऐसा कई बार हुआ है कि यहां लेफ्ट के अलावा निर्दलीय, फ्रीथिंकर, समाजवादी और दक्षिणपंथी विचारधारा से जुड़े लोग भी छात्रसंघ में चुने गए हैं. यहां से पढ़े छात्र लेफ्ट पार्टियों में भी हैं और भाजपा में भी. सरकार में भी हैं, विपक्ष में भी. दूसरे देशों में डिप्लोमैट भी हैं, बड़े अधिकारी भी और राजनेता भी.

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अभिजीत बनर्जी जेएनयू में पढ़े हैं. केंद्र सरकार में सब से बड़ा महिला चेहरा निर्मला सीतारमण जेएनयू की उपज हैं. वे देश की रक्षा मंत्री भी रह चुकी हैं. इस समय वित्त मंत्री हैं. उन्होंने जेएनयू से इकोनौमिक्स में एमए किया है. विदेश मंत्री एस जयशंकर ने जेएनयू से इंटरनैशनल रिलेशन में पीएचडी किया है. मोदी सरकार-1 में मंत्री रहीं और वर्तमान में बीजेपी सांसद मेनका गांधी ने जेएनयू से जरमन भाषा की पढ़ाई की है. राज्यसभा सांसद रहे एनसीपी के महासचिव डी पी त्रिपाठी जेएनयू स्टूडैंट यूनियन के अध्यक्ष रहे हैं. वामपंथी नेता सीताराम येचुरी ने यहां से इकोनौमिक्स में एमए किया है. प्रकाश करात यहां से पढ़े हुए हैं. बसपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता सुधींद्र भदौरिया ने भी यहीं पढ़ाई की. दलित नेता उदित राज और अशोक तंवर भी यहां पढ़ चुके हैं. स्वराज इंडिया के प्रमुख और चुनाव शास्त्री योगेंद्र यादव भी यहां पढ़ चुके हैं.

नीति आयोग के सीईओ व सीनियर आईएएस अधिकारी अमिताभ कांत ने जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से एमए किया है. रौ के पूर्व चीफ आलोक जोशी ने यहां पढ़ाई की है. आईबी चीफ रहे सैयद आसिफ इब्राहिम भी जेएनयू से एमए हैं. बोडो उग्रवादियों की नाक में दम करने वाली आईपीएस संजुक्ता पराशर ने जेएनयू से इंटरनैशनल रिलेशन में मास्टर डिग्री ली है. किसी राज्य के मुख्यमंत्री की पहली महिला सुरक्षा अधिकारी सुभाषिनी शंकर ने भी यहीं पढ़ाई की है. आजकल यह महिला आईपीएस असम के मुख्यमंत्री की सुरक्षा अधिकारी हैं.

सोशल मीडिया में छाए रहने वाले आईएएस दीपक रावत ने जेएनयू से ही इतिहास में एमए किया है. वे इस समय उत्तराखंड में तैनात हैं. बिहार के आईपीएस अधिकारी मनु महाराज ने जेएनयू से एनवायर्नमैंटल साइंस में पोस्टग्रेजुएशन किया है. नीदरलैंड के राजदूत वेणु राजमणि ने यहां से इंटरनैशनल रिलेशन में एमए किया है. यही नहीं, विवेकानंद इंटरनैशनल फाउंडेशन के डायरैक्टर अरविंद गुप्ता ने जेएनयू के स्कूल औफ इंटरनैशनल स्टडीज से पीएचडी की है.

जेएनयू कैंपस विदेशी छात्रों से भी गुलजार रहा है. नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टाराई ने यहां पर पढ़ाई की है. उन्होंने पीएचडी की है. उन्होंने अपनी बेटी का भी यहां दाखिला करवाया है. लीबिया के पूर्व प्रधानमंत्री अली जेदान भी यहां के पढ़े हुए हैं. अफगानिस्तान के मिनिस्टर औफ इकोनौमी अब्दुल सत्तार मुराद भी यहां पढ़ाई कर चुके हैं. एतिहाद एयरवेज के चेयरमैन अहमद बिन सैफ अल नहयान भी यहां पढ़ चुके हैं.

स्पष्ट है कि जेएनयू में देशविदेश से अच्छे छात्र एडमिशन पाते हैं. जेएनयू का छात्र देश के हालात और देश की राजनीति पर पूरी नज़र रखने वाला होता है. उस के भीतर अपनी एक सोच होती है, उस की अपनी दृष्टि है और वह बहुत मुखर है. यहां छात्र ग्रेजुएशन कंपलीट कर के उच्च शिक्षा के लिए आते हैं. 21 से 26 साल की उम्र के छात्रों की सोच और फैसलों को बाहरी तत्त्व आसानी से प्रभावित नहीं कर पाते हैं. जबकि इस के विपरीत बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी या अलीगढ़ यूनिवर्सिटी जैसे संस्थानों में चूंकि छात्र ग्रेजुएशन लैवल के होते हैं, उम्र में कम होते हैं और छोटे शहर के वातावरण का भी उन पर प्रभाव काफी होता है, लिहाजा दक्षिणपंथी विचारधारा के लोगों के उकसावे में वे आसानी से आ जाते हैं. वे ध्रुवीकरण की लपटों से खुद को बचा नहीं पाते. उन की अपनी दृष्टि और सोच उभरने के बजाय कुंद हो जाती है.

जेएनयू की स्थापना और प्रतिष्ठा

दिल्ली का जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय वर्ष 1969 में अपने पिता की याद में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बनवाया था. कांग्रेस के नेता की याद में एक कांग्रेसी द्वारा स्थापित इस विश्वविद्यालय ने चंद वर्षों में ही अपने छात्रों की मेधा, क्षमता और आधुनिक सोच के कारण देश ही नहीं, बल्कि दुनिया में एक प्रतिष्ठा कायम की. कैंपस का माहौल बेहद लोकतांत्रिक और समावेशी माना जाता रहा है. छात्र संघ चुनावों की आचार संहिता के सुझाव बनाते हुए लिंगदोह कमेटी ने जेएनयू को आदर्श कैंपस कहा था और देश के छात्र संघों को इस का अनुसरण करने की सलाह दी थी. संभवतया यही वजह है कि देश का हर मेधावी, जो उच्च शिक्षा की चाहत रखता है, चाहता है कि उस का भी प्रवेश जेएनयू में हो जाए. 8 हजार से ज्यादा छात्रों और करीब 400 शिक्षकों वाला यह संस्थान भारत के टौप संस्थानों में तो है ही, इस का नाम दुनियाभर के अच्छे विश्वविद्यालयों में भी शुमार किया जाता है.

जेएनयू को साफतौर पर वामपंथी माना जाता है. सवाल जेएनयू के लेफ्ट-राइट का नहीं है, बल्कि उस की वैचारिक सृजन परंपरा का है, जिस में संघ की संकीर्ण सोच समा नहीं पाती है. यहां उपेक्षित, वंचित सभी को बराबरी मिलती है और यही इस संस्थान की ताकत है. यहां सामान्य आरक्षण के अलावा गरीबी, पिछड़ापन और महिला होने के आधार पर भी प्राथमिकता दी जाती है. देशभर से तमाम ऐसे मेधावी छात्र यहां आते हैं जो बेहद गरीब, वंचित घरों और पिछड़े इलाकों से हैं. अपनी स्थापना के बाद जेएनयू पर कांग्रेस की विचारधारा का प्रभाव रहा मगर 80 का दशक बीततेबीतते जेएनयू विचार, तार्किकता और आधुनिकता के एक ऐसे केंद्र के रूप में उभरा जिस की पैरोकारी का साहस सिर्फ मार्क्सवाद ही कर सकता था. यही वजह है कि वामपंथी विचारधारा यहां एक परंपरा की तरह बस गई. यहां संघ टिक नहीं सकता क्योंकि उसे खाने, पहनने, जाति, धर्म, आरक्षण, आधुनिकता आदि कई मसलों पर काफी समस्याएं हैं. लिहाजा, कम्युनिस्ट सरकार न होते हुए भी यहां लेफ्ट का बोलबाला रहता है.

एक आंध्रप्रदेश- 2 चुनाव, 3 देवता और 4 जून का सस्पैंस

कमोबेश राष्ट्रीय मुद्दों से दूर आंध्रप्रदेश देश का पहला राज्य है जहां दोनों राष्ट्रीय दलों- भाजपा और कांग्रेस- की भागीदारी एकएक फीसदी भी नहीं है, इस बार होगी, ऐसा कहना भी जोखिम वाला काम होगा क्योंकि सीधी टक्कर टीडीपी यानी तेलुगूदेशम पार्टी और वाईएसआर कांग्रेस के बीच है. एक बार फिर तेलुगूदेशम और भाजपा ने गठबंधन कर लिया है और साथ में जन सेना पार्टी यानी जेएसपी को भी ले लिया है जिस के मुखिया अभिनेता पवन कल्याण हैं जबकि तेलुगूदेशम चंद्रबाबू नायडू की पार्टी है. वाईएसआर सुप्रीमो मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी हैं.

80 के दशक तक आंध्रप्रदेश पर कांग्रेस का कब्जा पट्टे की शक्ल में हुआ करता था जिस के दबदबे को पहली बार चुनौती 1983 में टीडीपी ने दी थी जिस के संस्थापक चमत्कारी छवि वाले फिल्म अभिनेता नंदामुरी तारक रामाराव यानी एनटीआर थे. आंध्रप्रदेश के लोग उन्हें बहुत मानते थे. एनटीआर रहते और लगते भी कुछकुछ देवताओं की तरह ही थे जिन्होंने कोई 3 दर्जन फिल्मों में भगवान का रोल अदा किया था. दक्षिण की राजनीति से फिल्म अभिनेताओं को पूजे जाने का दौर, धीरेधीरे ही सही, खत्म हो रहा है. अब वहां नएनए सियासी भगवान पैदा हो रहे हैं जिन के आगे राष्ट्रीय भगवान पानी भरते नजर आते हैं और अपना खाली कमंडल ले कर दिल्ली वापस लौट जाते हैं. भाजपा और कांग्रेस चुनावी मैदान में रस्मअदायगी भर के लिए हैं. इस का यह मतलब नहीं कि आंध्रप्रदेश के चुनाव उबाऊ हैं बल्कि वहां तो डबल दिलचस्पी, रोमांच और सनसनी है क्योंकि विधानसभा चुनाव भी लोकसभा के साथ ही हो रहे हैं.

70 के दशक के जय आंध्र आंदोलन की चर्चा देशभर में रही थी. लोगों की प्रमुख मांग यह थी कि आंध्र राज्य को हैदराबाद से अलग किया जाए. राज्य के युवाओं का गुस्सा सड़कों पर इस बात को ले कर फूटा था कि विकास केवल हैदराबाद में ही क्यों होता है. तटीय इलाकों में क्यों नहीं होता और युवाओं को अपने ही राज्य में नौकरी क्यों नही मिलती. 110 दिनों तक चले इस हिंसक आंदोलन में कोई 400 लोग मारे गए थे. लोगों का गुस्सा तत्कालीन मुख्यमंत्री नरसिम्हाराव और उन की सरकार पर भी फूटा था जिस के चलते वहां 1973 में राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा था. आख़िरकार मुल्की नियम यानी निजाम हैदराबाद के बनाए कानूनों को हटाने की जनता की सुनी गई और एक 6 सूत्रीय फार्मूला लागू किया गया. मुल्की कानूनों से ताल्लुक रखता मुकदमा सुप्रीम कोर्ट तक गया था जिस ने हाईकोर्ट के इन कानूनों को रद्द करने का फैसला पलट दिया था यानी मुल्की कानून बरक़रार रखे थे. बाद में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान में संशोधन करते राज्य के लोगों की मांगें पूरी की थीं.

इस के बाद एक दशक लगभग शांति से गुजरा. लेकिन लोगों में कांग्रेस के लिए गुस्सा भरने लगा था जिस की एक नहीं बल्कि कई वजहें थीं. 1983 में तेलुगूदेशम सत्ता में आई और पहली बार एनटीआर मुख्यमंत्री बने. वे आंध्रप्रदेश के पहले गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री थे. इस के बाद के चुनावों में कांग्रेस और टीडीपी के बीच सत्ता बंटती रही. 1994 में एनटीआर फिर मुख्यमंत्री बने लेकिन अगले ही साल उन के दामाद चंद्रबाबू नायडू ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया और खुद मुख्यमंत्री बन बैठे. इस सदमे को एनटीआर बरदाश्त नहीं कर पाए और जनवरी 1996 में उन की मौत हो गई. चंद्रबाबू नायडू पहले कांग्रेसी थे लेकिन बाद में उन्होंने अपने ससुर की पार्टी जौइन कर ली थी. टीडीपी में वे लगभग फर्श उठाने वाले सरीखे बहुत निचले दर्जे की हैसियत के नेता थे. लेकिन उन्होंने न केवल पार्टी बल्कि अपनी ससुराल भी इतने गुपचुप तरीके से दोफाड़ कर डाली थी कि एनटीआर को इस की हवा भी न लगी थी.

साल 2004 में एक बार फिर कांग्रेस की वापसी हुई. इस बार मुख्यमंत्री चुने गए वाईएसआर के नाम से मशहूर बेहद जमीनी और लोकप्रिय नेता वाई एस चंद्रशेखर रेड्डी जिन के बेटे जगन मोहन रेड्डी इन दिनों मुख्यमंत्री हैं. उन्होंने कांग्रेस से अलग हो कर अपने पिता के नाम पर उन की मौत के बाद 2011 में पार्टी वाईएसआर कांग्रेस बना ली थी.
महज 13 साल पुरानी इसी वाईएसआर नें 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में वो कारनामा कर दिखाया था जिस की उम्मीद अच्छेअच्छे सियासी पंडितों को सपने में भी नहीं थी. वाईएसआर ने विधानसभा की 175 में से 151 सीटें 49.95 फीसदी वोटों के साथ जीती थीं. सत्तारूढ़ टीडीपी को वोट हालांकि 39.17 फीसदी मिल गए थे लेकिन वह महज 23 सीटों पर सिमट कर रह गई थी. अभिनेता पवन कल्याण की जेएसपी को गिरतेपड़ते एक सीट मिल गई थी लेकिन वोट उसे 5.53 फीसदी मिल गए थे. भाजपा को इस चुनाव में 0.84 फीसदी और कांग्रेस को 1.17 फीसदी वोट मिले थे

पिछले यानी 2014 के विधानसभा चुनाव में टीडीपी को 102 सीटें मिली थीं. उस की सहयोगी रही भाजपा को 4 सीटें मिली थीं. इस चुनाव में वाईएसआर को 67 सीटें हासिल हुई थीं जबकि कांग्रेस की झोली तब भी खाली रही थी. यह वही कांग्रेस थी जिस ने महज 5 वर्षों पहले वाई एस राजशेखर रेड्डी के नेतृत्व में अविभाजित आंध्रप्रदेश की 294 सीटों में से 156 पर परचम लहराया था. जाहिर है, कांग्रेस से अलग हो कर नई पार्टी बनाने वाले जगन मोहन रेड्डी को कोई नुकसान नहीं हुआ था, उलटे, फायदा ही हुआ था. एक तरह देखा जाए तो वाईएसआर ही गुजरे कल की कांग्रेस है. हाथ के पंजे वाली कांग्रेस तो आंध्रप्रदेश में कहनेभर की रह गई है.

मोदी लहर और हिंदू राष्ट्र सहित राममंदिर निर्माण संकल्प को को हिंदीभाषी राज्यों में समेटते 2019 के लोकसभा चुनाव नतीजे भी चौंकाने वाले थे. वाईएसआर को लोकसभा की 25 में से 22 सीटें 49.89 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं जबकि टीडीपी महज 3 सीटें 40.19 फीसदी वोटों के साथ जीती थी. साफ़ दिख रहा है कि दोनों पार्टियों को जो वोट विधानसभा में मिले वही लोकसभा में भी मिले थे. भाजपा और कांग्रेस दोनों दल अपने दम पर सभी सीटों पर लड़े थे लेकिन उन के सभी उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी. 2014 के लोकसभा चुनाव में टीडीपी को 15 सीटें 40.80 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं जबकि वाईएसआर को 8 सीटें 45.67 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. भाजपा के हिस्से में 2 सीटें 7.22 फीसदी वोटों के साथ आई थीं. जाहिर है, भाजपा को टीडीपी के साथ लड़ने से अस्थाई फायदा हुआ था.

अब 4 जून को क्या होगा, यह देखना कम दिलचस्प नहीं होगा क्योंकि टीडीपी और भाजपा फिर साथ हो लिए हैं. उन के साथ जेएसपी भी है. भाजपा के पास वहां न खोने को कुछ है और न ही ज्यादा पाने की उम्मीद उसे. वह, बस, नाम के लिए है. कांग्रेस इस चुनाव को त्रिकोणीय बनाने की स्थिति में भी नहीं है. जगन मोहन रेड्डी जोश से लबरेज हैं क्योंकि एंटीइनकमबैंसी न के बराबर है. दूसरे भाजपा-टीडीपी गठबंधन, जो टूट कर फिर हुआ है, की साख पहले सी नहीं रह गई है. चंद्रबाबू नायडू पहले भी भाजपा का भगवा दुपट्टा पकड़ चुके हैं जो वोटर को रास नहीं आया था. उन्होंने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया था कि वह राज्य को विशेष दर्जा नहीं दे रही तो अब क्यों उसी सरकार की गोद में जा बैठे हैं, यह बात वोटर को समझा पाना उन के लिए किसी चैलेंज से कम नहीं.

भाजपा के दखल के बाद आंध्रप्रदेश में भी धर्म और जाति की राजनीति जोर पकड़ रही है जिसे, अच्छा यह है कि, वहां का वोटर ख़ारिज कर देता है. कई बार तो साफ़साफ़ लगा कि नफरत की राजनीति के डायलौग लिखती तो भाजपा है, जो चंद्रबाबू नायडू के मुंह से तोते की तरह सुनने में आते हैं. एक बार उन्होंने जगन मोहन की तरफ इशारा करते कहा था कि आप ईसाई समुदाय के हैं, आप के आराध्य ईसा मसीह हैं और मैं भगवान व्यंकटेश को मानता हूं, आप के हाथ में बाइबिल रहती है. 2014 में मुख्यमंत्री बनने के बाद भी चंद्रबाबू नायडू की महज 3 फीसदी ब्राह्मणों पर मेहरबानी न तो दलितों को रास आई थी, न पिछड़ों को और न ही मुसलमानों को जो तकरीबन 10 फीसदी मतदाता हैं. 20 फीसदी दलित भी इस बात से बिदके थे कि चंद्रबाबू ने ब्राह्मण युवाओं को रोजगार योजना के नाम पर महंगी स्विफ्ट कार दी थी. तब दलितों में इस बात को ले कर गुस्सा था कि ब्राह्मण तो मंदिरों में घंटेघड़ियाल बजा कर और पूजापाठ कर खासा पैसा बना लेते हैं. उन्हें कार के नाम पर पैसा दिया जाना एक तरह की सरकारी खजाने से दक्षिणा ही है.

मुसलमानों का यह डर अपनी जगह वाजिब है कि भाजपा अब टीडीपी की पीठ पर सवार हो कर प्रदेश में पैठ बनाएगी और उत्तर भारत की तरह हिंदूमुसलिम करते नफरत का माहौल बनाएगी. अब जो मुसलमान टीडीपी को वोट कर रहे थे उन का वाईएसआर के साथ जाना तय दिख रहा है. यह मुसलिम-दलित समीकरण भी जगन मोहन रेड्डी के हक में जाता है जो 10 फीसदी परंपरागत रेड्डी वोटों के दम पर खुद को काफी कंफर्ट महसूस कर रहे हैं . भगवा गैंग के दुष्प्रचार के बाद भी उन का ईसाई होना कभी बड़े विवाद का विषय नहीं बना तो इसे आंध्रप्रदेश के लोगों की समझ ही कहा जाएगा कि वे इन छिछोरी बातों पर संकीर्णता नहीं दिखाते.

रेड्डी समुदाय एक तरह से जमींदार है और व्यापारी भी है. मुख्यमंत्री रहते उन के पिता राजशेखर रेड्डी ने दलितों के लिए भी काफी काम किए थे जिन्हें उन्होंने 5 साल और बढ़ाया. आंध्रप्रदेश में जातिगत जनगणना उन में से एक है जिस के आंकड़े आने बाकी हैं. गौरतलब है कि जगन मोहन ने इसी साल फरवरी में जातिगत जनगणना करवाई है.
आंध्रप्रदेश के समाज और राजनीति पर 12 बार मुख्यमंत्री देने वाले रेड्डी समुदाय के अलावा जिन और 2 समुदायों का दबदबा है उन मे से एक कम्मा या कामा है जिस की आबादी 25 फीसदी है. मुख्यधारा वाला यह समुदाय टीडीपी का परंपरागत वोटबेंक माना जाता है. एनटीआर ने 80 के दशक में इसी समुदाय को सत्ता के सपने दिखा कर रेड्डी समुदाय की राजनीति पर ब्रेक लगाया था. उन के बाद चंद्रबाबू नायडू इसी समुदाय के दम पर सत्ता में आते रहे हैं.

लेकिन सब से बड़ी लेकिन दिलचस्प अडचन 15 फीसदी वाले कापू समुदाय को ले कर है. अभिनेता पवन कल्याण इसी समुदाय से हैं पर उन्हें पूरा समर्थन इस का नहीं मिलता. अब भाजपा कोशिश कर रही है कि कामा और कापू समुदाय अगर एनडीए के पक्ष में लामबंद हो जाएं तो बात बन भी सकती है. पवन कल्याण एक कामयाब ऐक्टर हैं जिन की फिल्म ‘गब्बर सिंह’ ने तेलुगू सिनेमा में 150 करोड़ रुपए का कारोबार करने का इतिहास रच दिया था. लेकिन यह फार्मूला राजनीति में नहीं चलता जिस का उदाहरण पिछले विधानसभा चुनाव में उन का दोनों सीटों से हार जाना रहा था. जेएसपी तो औंधेमुंह गिरी थी. जगन मोहन रेड्डी ने सभी प्रमुख समुदायों के प्रतिनिधियों को उपमुख्यमंत्री बना कर पहले ही बिसात जमा ली थी.

वैसे भी आंध्रप्रदेश की राजनीति में अब तक ऐसा नहीं हुआ कि कापू और कामा समुदाय एक ही पार्टी को एकसाथ वोट दें. पवन के भाई चिरंजीवी भी नामी ऐक्टर रहे हैं जिन्होंने 2008 में प्रजा राज्यम पार्टी बनाई थी. उस पार्टी ने 2009 के विधानसभा चुनाव में 16 फीसदी वोटशेयर के साथ 294 में से 18 सीटें जीती थीं जिस का बाद में कांग्रेस में विलय हो गया था.

अब अगर कापू वोट आधाआधा भी बंटा तो वाईएसआर की राह में कोई खास अडचन पेश नहीं आने वाली जिस के मुखिया जगन मोहन रेड्डी के सामने 2019 का प्रदर्शन बरक़रार रखने की तगड़ी चुनौती तो है.

असली चेहरा- भाग 1: क्यों अवंतिका अपने पति की बुराई करती थी?

नई कालोनी में आए मुझे काफी दिन हो गए थे. किंतु समयाभाव के कारण किसी से मिलनाजुलना नहीं हो पाता था. इसी वजह से किसी से मेरी कोई खास जानपहचान नहीं हो पाई थी. स्कूल में टीचर होने के कारण मुझे घर से सुबह 8 बजे निकलना पड़ता और 3 बजे वापस आने के बाद घर के काम निबटातेनिबटाते शाम हो जाती थी. किसी से मिलनेजुलने की सोचने तक की फुरसत नहीं मिल पाती थी. मेरे घर से थोड़ी दूर पर ही अवंतिका का घर था. उस की बेटी योगिता मेरे ही स्कूल में और मेरी ही कक्षा की विद्यार्थी थी. वह योगिता को छोड़ने बसस्टौप पर आती थी. उस से मेरी बातचीत होने लगी. फिर धीरेधीरे हम दोनों के बीच एक अच्छा रिश्ता कायम हो गया. फिर शाम को अवंतिका मेरे घर भी आने लगी. देर तक इधरउधर की बातें करती रहती.

अवंतिका से मिल कर मुझे अच्छा लगता था. उस की बातचीत का ढंग बहुत प्रभावशाली था. उस के पहनावे और साजशृंगार से उस के काफी संपन्न होने का भी एहसास होता था. मैं खुश थी कि एक नई जगह अवंतिका के रूप में मुझे एक अच्छी सहेली मिल गई है. योगिता वैसे तो पढ़ाई में ठीक थी पर अकसर होमवर्क कर के नहीं लाती थी. जब पहले दिन मैं ने उसे डांटते हुए होमवर्क न करने का कारण पूछा, तो उस ने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया, ‘‘पापा ने मम्मा को डांटा था, इसलिए मम्मा रो रही थीं और मेरा होमवर्क नहीं करा पाईं.’’ योगिता आगे भी अकसर होमवर्क कर के नहीं लाती थी और पूछने पर कारण हमेशा मम्मापापा का झगड़ा ही बताती थी.

वैसे तो मात्र एक शिक्षिका की हैसियत से घर पर मैं अवंतिका से इस बारे में बात नहीं करती पर वह चूंकि मेरी सहेली बन चुकी थी और फिर प्रश्न योगिता की पढ़ाई से भी संबंधित था, इसलिए एक दिन अवंतिका जब मेरे घर आई तो मैं ने उसे योगिता के बारबार होमवर्क न करने और उस के पीछे बताने वाले कारण का उस से उल्लेख किया. मेरी बात सुन उस की आंखों में आंसू आ गए और फिर बोली, ‘‘मैं नहीं चाहती थी कि आप के सामने अपने घर की कमियां उजागर करूं, पर जब योगिता से आप को पता चल ही गया है हमारे झगड़े के बारे में तो आज मैं भी अपने दिल की बात कह कर अपना मन हलका करना चाहूंगी… दरअसल, मेरे पति का स्वभाव बहुत खराब है.

उन की बातबात पर मुझ में कमियां ढूंढ़ने और मुझ पर चीखनेचिल्लाने की आदत है. लाख कोशिश कर लूं पर मैं उन्हें खुश नहीं रख पाती. मैं उन्हें हर तरह से बेसलीकेदार लगती हूं. आप ही बताएं आप को मैं बेसलीकेदार लगती हूं? क्या मुझे ढंग से पहननाओढ़ना नहीं आता या मेरे बातचीत का तरीका अशिष्ट है? मैं तो तंग आ गई हूं रोजरोज के झगड़े से… पर क्या करूं बरदाश्त करने के अलावा कोई रास्ता भी तो नहीं है मेरे पास.’’

‘‘मैं तुम्हारे पति से 2-4 बार बसस्टौप पर मिली हूं. उन से मिल कर तो नहीं लगता कि वे इतने बुरे मिजाज के होंगे,’’ मैं ने कहा.

‘‘किसी के चेहरे से थोड़े ही उस की हकीकत का पता चल सकता है… हकीकत क्या है, यह तो उस के साथ रह कर ही पता चलता है,’’ अवंतिका बोली.

मैं ने उस की लड़ाईझगड़े वाली बात को ज्यादा महत्त्व न देते हुए कहा, ‘‘तुम ने बताया था कि तुम्हारे पति अकसर काम के सिलसिले में बाहर जाते रहते हैं… वे बाहर रहते हैं तब तो तुम्हारे पास घर के काम और योगिता की पढ़ाई दोनों के लिए काफी समय होता होगा? तुम्हें योगिता की पढ़ाई पर ध्यान देना चाहिए.’’ ‘‘किसी एक के खयाल रखने से क्या होगा? उस के पापा को तो किसी बात की परवाह ही नहीं होती. बेटी सिर्फ मेरी ही तो नहीं है? उन की भी तो है. उन्हें भी तो अपनी जिम्मेदारी का एहसास होना चाहिए. समय नहीं है तो न पढ़ाएं पर जब घर में हैं तब बातबात पर टोकाटाकी कर मेरा दिमाग तो न खराब करें… मैं तो चाहती हूं कि ज्यादा से ज्यादा दिन वे टूअर पर ही रहें…कम से कम घर में शांति तो रहती है.’’

सोच : सलोनी को अपनी जेठानी गंवार क्यों लगती थी

‘‘तो कितने दिनों के लिए जा रही हो?’’ प्लेट से एक और समोसा उठाते हुए दीपाली ने पूछा.

‘‘यही कोई 8-10 दिनों के लिए,’’ सलोनी ने उकताए से स्वर में कहा.

औफिस के टी ब्रेक के दौरान दोनों सहेलियां कैंटीन में बैठी बतिया रही थीं.

सलोनी की कुछ महीने पहले ही दीपेन से नईनई शादी हुई थी. दोनों साथ काम करते थे. कब प्यार हुआ पता नहीं चला और फिर चट मंगनी पट ब्याह की तर्ज पर अब दोनों शादी कर के एक ही औफिस में काम कर रहे थे, बस डिपार्टमैंट अलग था. सारा दिन एक ही जगह काम करने के बावजूद उन्हें एकदूसरे से मिलनेजुलने की फुरसत नहीं होती थी. आईटी क्षेत्र की नौकरी ही कुछ ऐसी होती है.

‘‘अच्छा एक बात बताओ कि तुम रह कैसे लेती हो उस जगह? तुम ने बताया था कि किसी देहात में है तुम्हारी ससुराल,’’ दीपाली आज पूरे मूड में थी सलोनी को चिढ़ाने के. वह जानती थी ससुराल के नाम से कैसे चिढ़ जाती है सलोनी.

‘‘जाना तो पड़ेगा ही… इकलौती ननद की शादी है. अब कुछ दिन झेल लूंगी,’’ कह सलोनी ने कंधे उचकाए.

‘‘और तुम्हारी जेठानी, क्या बुलाती हो तुम उसे? हां भारतीय नारी अबला बेचारी,’’ और दोनों फक्क से हंस पड़ीं.

‘‘यार मत पूछो… क्या बताऊं? उन्हें देख कर मुझे किसी पुरानी हिंदी फिल्म की हीरोइन याद आ जाती है… एकदम गंवार है गंवार. हाथ भरभर चूडि़यां, मांग सिंदूर से पुती और सिर पर हर वक्त पल्लू टिकाए घूमती है. कौन रहता है आज के जमाने में इस तरह. सच कहूं तो ऐसी पिछड़ी औरतों की वजह से ही मर्द हम औरतों को कमतर समझते हैं… पता नहीं कुछ पढ़ीलिखी है भी या नहीं.’’

‘‘खैर, मुझे क्या? काट लूंगी कुछ दिन किसी तरह. चल, टाइम हो गया है… बौस घूर रहा है,’’ और फिर दोनों अपनीअपनी सीट पर लौट गईं.

सलोनी शहर में पलीबढ़ी आधुनिक लड़की थी. दीपेन से शादी के बाद जब उसे पहली बार अपनी ससुराल जाना पड़ा तो उसे वहां की कोई चीज पसंद नहीं आई. उसे पहले कभी किसी गांव में रहने का अवसर नहीं मिला था. 2 दिन में ही उस का जी ऊब गया. उस ठेठ परिवेश में 3-4 दिन रहने के लिए दीपेन ने उसे बड़ी मुश्किल से राजी किया था.

शहर में जींसटौप पहन कर आजाद तितली की तरह घूमने वाली सलोनी को साड़ी पहन घूंघट निकाल छुईमुई बन कर बैठना कैसे रास आता… ससुराल वाले पारंपरिक विचारों के लोग थे. उसे ससुर, जेठ के सामने सिर पर पल्लू लेने की हिदायत मिली. सलोनी की सास पुरातनपंथी थीं, मगर जेठानी अवनि बहुत सुलझी हुई थी.

छोटी ननद गौरी नई भाभी के आगेपीछे घूमती रहती थी. सलोनी गांव की औरतों की सरलता देख हैरान होती. वह खुद दिल की बुरी नहीं थी, मगर न जाने क्यों पारंपरिक औरतों के बारे में उस के विचार कुछ अलग थे. सिर्फ घरगृहस्थी तक सीमित रहने वाली ये औरतें उस की नजरों में एकदम गंवार थीं.

शहर में अपनी नई अलग गृहस्थी बसा कर सलोनी खुश थी. यहां सासननद का कोई झंझट नहीं था. जो जी में आता वह करती. कोई रोकनेटोकने वाला नहीं था. दीपेन और सलोनी के दोस्त वक्तबेवक्त धमक जाते. घर पर आए दिन पार्टी होती. दिन मौजमस्ती में गुजर रहे थे.

कुछ दिन पहले ही दीपेन की छोटी बहन गौरी की शादी तय हुई थी. शादी का अवसर था. घर में मेहमानों की भीड़ जुटी थी.

गरमी का मौसम उस पर बिजली का कोई ठिकाना नहीं होता था. हाथपंखे से हवा करतेकरते सलोनी का दम निकला जा रहा था. एअरकंडीशन के वातावरण में रहने वाली सलोनी को सिर पर पल्लू रखना भारी लग रहा था. गांव के इन पुराने रीतिरिवाजों से उसे कोफ्त होने लगी.

एकांत मिलते ही सलोनी का गुस्सा फूट पड़ा, ‘‘कहां ले आए तुम मुझे दीपेन? मुझ से नहीं रहा जाता ऐसी बीहड़ जगह में… ऊपर से सिर पर हर वक्त यह पल्लू रखो. इस से तो अच्छा होता मैं यहां आती ही नहीं.’’

‘‘धीरे बोलो सलोनी… यार कुछ दिन ऐडजस्ट कर लो प्लीज. गौरी की शादी के दूसरे ही दिन हम चले जाएंगे,’’ दीपेन ने उसे आश्वस्त करने की कोशिश की.

सलोनी ने बुरा सा मुंह बनाया. बस किसी तरह शादी निबट जाए तो उस की जान छूटे. घर रिश्तेदारों से भरा था. इतने लोगों की जिम्मेदारी घर की बहुओं पर थी. सलोनी को रसोई के कामों का कोई तजरबा नहीं था. घर के काम करना उसे हमेशा हेय लगता था. अपने मायके में भी उस ने कभी मां का हाथ नहीं बंटाया था. ऐसे में ससुराल में जब उसे कोई काम सौंपा जाता तो उस के पसीने छूट जाते. जेठानी अवनि उम्र में कुछ ही साल बड़ी थी, मगर पूरे घर की जिम्मेदारी उस ने हंसीखुशी उठा रखी थी. घर के सब लोग हर काम के लिए अवनि पर निर्भर थे, हर वक्त सब की जबान पर अवनि का नाम होता. सलोनी भी उस घर की बहू थी, मगर उस का वजूद अवनि के सामने जैसे था ही नहीं और सलोनी भी यह बात जल्दी समझ गई थी.

घर के लोगों में अवनि के प्रति प्यारदुलार देख कर सलोनी के मन में जलन की भावना आने लगी कि आखिर वह भी तो उस घर की बहू है… तो फिर सब अवनि को इतना क्यों मानते.

‘‘भाभी, मेरी शर्ट का बटन टूट गया है, जरा टांक दो,’’ बाथरूम से नहा कर निकले दीपेन ने अवनि को आवाज दी.

सलोनी रसोई के पास बैठी मटर छील रही थी. वह तुरंत दीपेन के पास आई. बोली, ‘‘यह क्या, इतनी छोटी सी बात के लिए तुम अवनि भाभी को बुला रहे हो… मुझ से भी तो कह सकते थे?’’ और फिर उस ने दीपेन को गुस्से से घूरा.

‘‘मुझे लगा तुम्हें ये सब नहीं आता होगा,’’ सलोनी को गुस्से में देख दीपेन सकपका गया.

‘‘तुम क्या मुझे बिलकुल अनाड़ी समझते हो?’’ कह उस के हाथ से शर्ट ले कर सलोनी ने बटन टांक दिया.

धीरेधीरे सलोनी को समझ आने लगा कि कैसे अवनि सब की चहेती बनी हुई है. सुबह सब से पहले उठ कर नहाधो कर चौके में जा कर चायनाश्ता बना कर सब को खिलाना. बूढ़े ससुरजी को शुगर की समस्या है. अवनि उन की दवा और खानपान का पूरा ध्यान रखती. सासूमां भी अवनि से खुश रहतीं. उस पर पति और 2 छोटे बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी निभाते हुए भी मजाल की बड़ों के सामने पल्लू सिर से खिसक जाए. सुबह से शाम तक एक पैर पर नाचती अवनि सब की जरूरतों का खयाल बड़े प्यार से रखती.

घर आए रिश्तेदार भी अवनि को ही तरजीह देते. सलोनी जैसे एक मेहमान की तरह थी उस घर में. अवनि का हर वक्त मुसकराते रहना सलोनी को दिखावा लगता. वह मन ही मन कुढ़ने लगी थी अवनि से.

घर में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए अब सलोनी हर काम में घुस जाती थी, चाहे वह काम करना उसे आता हो या नहीं और इस चक्कर में गड़बड़ कर बैठती, जिस से उस का मूड और बिगड़ जाता.

‘ठीक है मुझे क्या? यह चूल्हाचौका इन गंवार औरतों को ही शोभा देता है. कभी कालेज की शक्ल भी नहीं देखी होगी शायद… दो पैसे कमा कर दिखाएं तब पता चले,’ सलोनी मन ही मन खुद को तसल्ली देती. उसे अपनी काबिलीयत पर गुमान था.

सलोनी के हाथ से अचार का बरतन गिर कर टूट गया. रसोई की तरफ आती अवनि फिसल कर गिर पड़ी और उस के पैर में मोच आ गई. घर वाले दौड़े चले आए. अवनि को चारपाई पर लिटा दिया गया. सब उस की तीमारदारी में जुट गए. उसे आराम करने की सलाह दी गई. उस के बैठ जाने से सारे काम बेतरतीब होने लगे.

बड़ी बूआ ने सलोनी को रसोई के काम में लगा दिया. सलोनी इस मामले में कोरा घड़ा थी. खाने में कोई न कोई कमी रह जाती. सब नुक्स निकाल कर खाते.

अवनि सलोनी की स्थिति समझती थी. वह पूरी कोशिश करती उसे हर काम सिखाने की पर अभ्यास न होने से जिन कामों में अवनि माहिर थी उन्हें करने में सलोनी घंटों लगा देती.

मझली बूआ ने मीठे में फिरनी खाने की फरमाइश की तो सलोनी को फिरनी पकाने का हुक्म मिला. उस के पास इतना धैर्य कहां था कि खड़ेखड़े कलछी घुमाती, तेज आंच में पकती फिरनी पूरी तरह जल गई.

‘‘अरे, कुछ आता भी है क्या तुम्हें? पहले कभी घर का काम नहीं किया क्या?’’ सारे रिश्तेदारों के सामने मझली बूआ ने सलोनी को आड़े हाथों लिया.

मारे शर्म के सलोनी का मुंह लाल हो गया. उसे सच में नहीं आता था तो इस में उस का क्या दोष था.

‘‘बूआजी, सलोनी ने ये सब कभी किया ही नहीं है पहले. वैसे भी यह नौकरी करती है… समय ही कहां मिलता है ये सब सीखने का इसे… आप के लिए फिरनी मैं फिर कभी बना दूंगी,’’ अवनि ने सलोनी का रोंआसा चेहरा देखा तो उस का मन पसीज गया.

ननद गौरी की शादी धूमधाम से निबट गई. रिश्तेदार भी 1-1 कर चले गए. अब सिर्फ घर के लोग रह गए थे. अवनि के मधुर व्यवहार के कारण सलोनी उस से घुलमिल गई थी. अवनि उस के हर काम में मदद करती.

2 दिन बाद उन्हें लौटना था. दीपेन ने ट्रेन के टिकट बुक करा दिए. एक दिन दोपहर में सलोनी पुराना अलबम देख रही थी. एक फोटो में अवनि सिर पर काली टोपी लगाए काला चोगा पहने थी. फोटो शायद कालेज के दीक्षांत समारोह का था. उस फोटो को देख कर सलोनी ने दीपेन से पूछा, ‘‘ये अवनि भाभी हैं न?’’

‘‘हां, यह फोटो उन के कालेज का है. भैया के लिए जब उन का रिश्ता आया था तो यही फोटो भेजा था उन के घर वालों ने.’’

‘‘कितनी पढ़ीलिखी हैं अवनि भाभी?’’ सलोनी हैरान थी.

‘‘अवनि भाभी डबल एमए हैं. वे तो नौकरी भी करती थीं. उन्होंने पीएचडी भी की हुई है. शादी के कुछ समय बाद मां बहुत बीमार पड़ गई थीं. बेचारी भाभी ने कोई कसर नहीं रखी उन की तीमारदारी में. अपनी नौकरी तक छोड़ दी. अगर आज मां ठीक हैं तो सिर्फ भाभी की वजह से. तुम जानती नहीं सलोनी, भाभी ने इस घर के लिए बहुत कुछ किया है. वे चाहतीं तो आराम से अपनी नौकरी कर सकती थीं. मगर उन्होंने हमेशा अपने परिवार को प्राथमिकता दी.’’

सलोनी जिस अवनि भाभी को निपट अनपढ़ समझती रही वह इतनी काबिल होगी, इस का तो उसे अनुमान भी नहीं था. पूरे घर की धुरी बन कर परिवार संभाले हुए अवनि भाभी ने अपनी शिक्षा का घमंड दिखा कर कभी घरगृहस्थी के कामों को छोटा नहीं समझा था.

सलोनी को अपनी सोच पर ग्लानि होने लगी. उस ने आधुनिक कपड़ों और रहनसहन को ही शिक्षा का पैमाना माना था.

‘‘अरे भई, कहां हो तुम लोग, बिट्टू के स्कूल के प्रोग्राम में चलना नहीं है क्या?’’ कहते हुए अवनि भाभी सलोनी के कमरे में आईं.

‘‘हां, भाभी बस अभी 2 मिनट में तैयार होते हैं,’’ सलोनी और दीपेन हड़बड़ाते हुए बोले.

बिट्टू को अपनी क्लास के बैस्ट स्टूडैंट का अवार्ड मिला. हर विषय में वह अव्वल रहा था. उसे प्राइज देने के बाद प्रिंसिपल ने जब मांबाप को स्टेज पर दो शब्द कहने के लिए आमंत्रित किया तो सकुचाते हुए बड़े भैया बोले, ‘‘अवनि, तुम जाओ. मुझे समझ नहीं आता कि क्या बोलना है.’’

बड़े आत्मविश्वास के साथ माइक पकड़े अवनि भाभी ने अंगरेजी में अभिभावक की जिम्मेदारियों पर जब शानदार स्पीच दी, तो हौल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा.

घर लौटने के बाद दीपेन से सलोनी ने कहा, ‘‘सुनो, कुछ दिन और रुक जाते हैं यहां.’’

‘‘लेकिन तुम्हारा तो मन नहीं लग रहा था… इसीलिए तो इतनी जल्दी वापस जा रहे हैं,’’ दीपेन हैरान होकर बोला.

‘‘नहीं, अब मुझे यहां अच्छा लग रहा है… मुझे अवनि भाभी से बहुत कुछ सीखना है,’’ सलोनी उस के कंधे पर सिर टिकाते हुए बोली.

‘‘वाह तो यह बात है. फिर तो ठीक है. कुछ सीख जाओगी तो कम से कम जला खाना तो नहीं खाना पड़ेगा,’’ दीपेन ने उसे छेड़ा और फिर दोनों हंस पड़े.

चिराग : रिश्तों की अजीब कशमकश

कानपुर रेलवे स्टेशन पर परिवार के सभी लोग मुझ को विदा करने आए थे, मां, पिताजी और तीनों भाई, भाभियां. सब की आंखोें में आंसू थे. पिताजी और मां हमेशा की तरह बेहद उदास थे कि उन की पहली संतान और अकेली पुत्री पता नहीं कब उन से फिर मिलेगी. मुझे इस बार भारत में अकेले ही आना पड़ा. बच्चों की छुट्टियां नहीं थीं. वे तीनों अब कालेज जाने लगे थे. जब स्कूल जाते थे तो उन को बहलाफुसला कर भारत ले आती थी. लेकिन अब वे अपनी मरजी के मालिक थे. हां, इन का आने का काफी मन था परंतु तीनों बच्चों के ऊपर घर छोड़ कर भी तो नहीं आया जा सकता था. इस बार पूरे 3 महीने भारत में रही. 2 महीने कानपुर में मायके में बिताए और 1 महीना ससुराल में अम्मा व बाबूजी के साथ.

मैं सब से गले मिली. ट्रेन चलने में अब कुछ मिनट ही शेष रह गए थे. पिताजी ने कहा, ‘‘बेटी, चढ़ जाओ डब्बे में. पहुंचते ही फोन करना.’’ पता नहीं क्यों मेरा मन टूटने सा लगा. डब्बे के दरवाजे पर जातेजाते कदम वापस मुड़ गए. मैं मां और पिताजी से चिपट गई. गाड़ी चल दी. सब लोग हाथ हिला रहे थे. मेरी आंखें तो बस मां और पिताजी पर ही केंद्रित थीं. कुछ देर में सब ओझल हो गए. डब्बे के शौचालय में जा कर मैं ने मुंह धोया. रोने से आंखें लाल हो गई थीं. वापस आ कर अपनी सीट पर बैठ गई. मेरे सामने 3 यात्री बैठे थे, पतिपत्नी और उन का 10-11 वर्षीय बेटा. लड़का और उस के पिता खिड़की वाली सीटों पर विराजमान थे. हम दोनों महिलाएं आमनेसामने थीं, अपनीअपनी दुनिया में खोई हुईं.

‘‘आप दिल्ली में रहती हैं क्या?’’ उस महिला ने पूछा.

‘‘नहीं, लंदन में रहती हूं. दिल्ली में मेरी ससुराल है. यहां पीहर में इतने सारे लोग हैं, इसलिए बहुत अच्छा लगता है. दिल्ली में सासससुर के साथ रहने का मन तो बहुत करता है पर वक्त काटे नहीं कटता. वहां बस खरीदारी में ही समय खराब करती रहती हूं,’’ अब मेरा मन कुछ हलका हो गया था, ‘‘आप मुझे आशा कह कर पुकार सकती हैं,’’ मैं ने अपना नाम भी बता दिया.

‘‘मेरा नाम करुणा है और यह है हमारा बेटा राकेश, और ये हैं मेरे पति सोमेश्वर.’’ करुणा के पति ने हाथ जोड़ कर नमस्कार किया. राकेश अपनी मां के कहने पर नमस्ते के बजाय केवल मुसकरा दिया. लेकिन सोमेश्वर ने नमस्ते के बाद उस से आगे बात करने में दिलचस्पी नहीं दिखाई. मैं ने अनुमान लगाया कि शायद वे दक्षिण के थे. करुणा और मैं तो हिंदी में ही बातें कर रही थीं. शायद सोमेश्वर को हिंदी में बातें करने में परेशानी महसूस होती थी, इसलिए वे चुप ही रहे. ‘‘गाड़ी दिल्ली कब तक पहुंचेगी?’’ मैं ने पूछा, ‘‘वैसे पहुंचने का समय तो दोपहर के 3 बजे का है. अभी तक तो समय पर चल रही है शायद?’’ ‘‘यह गाड़ी आगरा के बाद मालगाड़ी हो जाती है. वहां से इस का कोई भरोसा नहीं. हम तो साल में 3-4 बार दिल्ली और कानपुर के बीच आतेजाते हैं, इसलिए इस गाड़ी की नसनस से वाकिफ हैं,’’ करुणा बोली, ‘‘शायद 5 बजे तक पहुंच जाएगी. आप दिल्ली में कहां जाएंगी?’’

‘‘करोलबाग,’’ मैं बोली.

‘‘आप को स्टेशन पर कोई लेने आएगा?’’ करुणा ने पूछा, ‘‘हमें तो टैक्सी करनी पड़ेगी, हम छोड़ आएंगे आप को करोलबाग, अगर कोई लेने नहीं आया तो…’’ ‘‘मुझे लेने कौन आएगा. बेचारे सासससुर के बस का यह सब कहां है,’’ मैं ने संक्षिप्त उत्तर दिया. सोमेश्वर ने अंगरेजी में कहा, ‘‘आप फिक्र न कीजिए, हम छोड़ आएंगे.’’

‘‘हम तो हौजखास में रहते हैं. कभी समय मिला तो आप से मिलने आऊंगी,’’ करुणा बोली. न जाने क्यों वह मुझे बहुत ही अच्छी लगी. ऐसे लगा जैसे बिलकुल अपने घर की ही सदस्य हो. ‘‘हांहां, जरूर आ जाना…परसों तो इंदू भी आ जाएगी. हम तीनों मिल कर खरीदारी करेंगी.’’ करुणा की आंखों में प्रश्न तैरता देख कर मैं ने कहा, ‘‘इंदू मेरी ननद है. मेरे पति से छोटी है. कलकत्ता में रहती है.’’

‘‘कहीं इंदू के पति का नाम वीरेश तो नहीं?’’ करुणा जल्दी से बोली.

‘‘हांहां, वही…तुम कैसे जानती हो उसे?’’ मैं उत्साह से बोली. अचानक शायद कोई धूल का कण सोमेश्वर की आंखों में आ गया. उस ने तुरंत चश्मा उतार लिया और आंख रगड़ने लगा.

करुणा बोली, ‘‘आप से कितनी बार कहा है कि खिड़की के पास वाली सीट पर मत बैठिए. खुद बैठते हैं, साथ ही राकेश को भी बिठाते हैं. अब जाइए, जा कर आंखों में पानी के छींटे डालिए.’’ सोमेश्वर सीट से उठ खड़ा हुआ. उस के जाने के बाद करुणा ने राकेश को पति की सीट पर बैठने को कहा और खुद मेरे पास आ कर बैठ गई.

‘‘आशाजी, आप मुझे नहीं पहचानतीं, मैं वही करुणा हूं जिस की शादी हरीश से हुई थी.’’

‘‘अरे, तुम हो करुणा?’’ मेरे मुंह से चीख सी निकल गई. करुणा ने मेरी ओर देखा फिर राकेश को देखा. वह अपने में मस्त बाहर खिड़की के नजारे देख रहा था. करुणा का नाम लेना भी हमारे घर में मना था. हम सब के लिए तो वह मर गई थी. मेरे देवर से उस की शादी हुई थी, 12 वर्ष पहले. शादी अचानक ही तय हो गई थी. हरीश 2 वर्ष के लिए रूस जा रहा था, प्रशिक्षण के लिए. साथ में पत्नी को ले जाने का भी खर्चा मिल रहा था.अम्मा और बाबूजी तो हमारे आए बिना शादी करने के पक्ष में नहीं थे. इन का औ?परेशन हुआ था, डाक्टरों ने मना कर दिया था यात्रा पर जाने के लिए, इसलिए हम में से तो कोई आ नहीं पाया था. शादी के कुछ दिनों बाद हरीश और करुणा रूस चले गए. लेकिन 2 महीने के भीतर ही हरीश की कार दुर्घटना में मृत्यु हो गई. मेरे पति लंदन से मास्को गए थे हरीश का अंतिम संस्कार करने. बेचारी करुणा भी भारत लौट गई. दुलहन के रूप में भारत से विदा हुई थी और विधवा के रूप में लौटी थी.

अम्मा और बाबूजी के ऊपर तो दुख का पहाड़ टूट पड़ा था. उन का बेटा भरी जवानी में ही उन को छोड़ कर चला गया था. वे करुणा को अपने पास रखना चाहते थे, लेकिन वह नागपुर अपने मातापिता के पास चली गई. कभीकभार करुणा के पिता ही बाबूजी को पत्र लिख दिया करते थे. अम्मा और बाबूजी की खुशी की सीमा नहीं रही, जब उन्हें पता चला कि उन के बेटे की संतान करुणा की कोख में पनप रही है. कुछ महीनों बाद करुणा के पिता ने पत्र द्वारा बाबूजी को उन के पोते के जन्म की सूचना दी. अम्मा और बाबूजी तो खुशी से पागल ही हो गए. दोनों भागेभागे नागपुर गए, अपने पोते को देखने. लेकिन वहां पहुंचने पर पता चला कि करुणा ने बेटे को जन्म अपने पीहर में नहीं बल्कि अपने दूसरे पति के यहां बंबई में दिया था. दोनों तुरंत नागपुर से लौट आए. बाद में करुणा के 1 या 2 पत्र भी आए, परंतु अम्मा और बाबूजी ने हमेशाहमेशा के लिए उस से रिश्ता तोड़ लिया. हरीश की मृत्यु के बाद इतनी जल्दी करुणा ने दूसरी शादी कर ली, इस बात के लिए वे उसे क्षमा नहीं कर पाए. जब उन्हें इस बात का पता चला कि करुणा का दूसरा पति उस समय मास्को में ही था, जब हरीश और करुणा वहां थे तो अम्माबाबूजी को यह शक होने लगा कि क्या पता करुणा के पहले से ही कुछ नाजायज ताल्लुकात रहे हों. क्या पता यह संतान हरीश की है या करुणा के दूसरे पति की? कहीं जायदाद में अपने बेटे को हिस्सा दिलाने के खयाल से इस संतान को हरीश की कह कर ठगने तो नहीं जा रही थी करुणा? ‘‘राकेश एकदम हरीश पर गया है. एक बार अम्माबाबूजी इस को देख लें तो सबकुछ भूल जाएंगे,’’ मुझ से रहा न गया. ‘‘भाभीजी, आप ने मेरे मुंह की बात कह दी. यह बात कहने को मैं बरसों से तरस रही थी लेकिन किस से कहती. बेचारा सोमेश्वर तो राकेश को ही अपना बेटा मानता है. शायद हरीश भी कभी राकेश से इतना प्यार नहीं कर पाता जितना सोमेश्वर करता है.’’

करुणा ने बात बीच में ही रोक दी. सोमेश्वर लौट आया था. उस के बैठने से पहले ही राकेश उठ खड़ा हुआ, ‘‘चलिए पिताजी, भोजनकक्ष में. कुछ खाने को बड़ा मन कर रहा है.’’ सोमेश्वर का मन तो नहीं था, परंतु करुणा द्वारा इशारा करने पर वह चला गया. उन के जाने पर करुणा ने चैन की सांस ली. हम दोनों चुप थीं. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बात करें. ‘‘करुणा, अम्मा और बाबूजी को बहुत बुरा लगा था कि तुम ने हरीश की मृत्यु के बाद इतनी जल्दी दूसरी शादी कर ली,’’ मैं ने चुप्पी तोड़ने के विचार से कहा. शायद करुणा को इस प्रश्न का एहसास था. वह धीरे से बोली, ‘‘क्या करती भाभीजी, सोमेश्वर हमारे फ्लैट के पास ही रहता था. वह उन दिनों बंबई की आईआईटी में वापस जाने की तैयारी कर रहा था. उस ने हरीश की काफी मदद की थी. हर शनिवार को वह हमारे ही यहां शाम का खाना खाने आ जाया करता था. जिस कार दुर्घटना में हरीश की मृत्यु हुई थी, उस में सोमेश्वर भी सवार था. संयोग से यह बच गया.

‘‘भाई साहब तो हरीश का अंतिम संस्कार कर के तुरंत लंदन वापस चले गए थे परंतु मैं वहां का सब काम निबटा कर एक हफ्ते बाद ही आ पाई थी. सोमेश्वर भी उसी हवाई उड़ान से मास्को से दिल्ली आया था. वह अम्मा और बाबूजी का दिल्ली का पता और हमारे घर का नागपुर का पता मुझ से ले गया,’’ कहतेकहते करुणा चुप हो गई. ‘‘तुम दिल्ली भी केवल एक हफ्ता ही रहीं और नागपुर चली गईं?’’ मैं ने पूछा.‘‘क्या करती भाभी, सोमेश्वर दिल्ली से सीधा नागपुर गया था, मेरे मातापिता से मिलने. उस से मिलने के बाद उन्होंने तुरंत मुझे नागपुर बुला भेजा, भैया को भेज कर. फिर जल्दी ही सोमेश्वर से मेरी सिविल मैरिज हो गई,’’ करुणा की आंखों में आंसू भर आए थे. ‘‘तुम ने सोमेश्वर से शादी कर के अच्छा ही किया. राकेश को पिता मिल गया और तुम्हें पति का प्यार. तुम्हारे कोई और बालबच्चा नहीं हुआ?’’

‘‘भाभीजी, राकेश के बाद हमारे जीवन में अब कोई संतान नहीं होने वाली. कानूनी तौर पर राकेश सोमेश्वर का ही बेटा है. सोमेश्वर ने तो मुझ को पहले ही बता दिया था कि युवावस्था में एक दुर्घटना के कारण वह संतानोत्पत्ति में असमर्थ हो गया था. मेरे मातापिता ने यही सोचा कि इस समय उचितअनुचित का सोच कर अगर समय गंवाया तो चाहे उन की बेटी को दूसरा पति मिल जाएगा, परंतु उन के नवासे को पिता नहीं मिलने वाला. मैं शादी के बाद बंबई में रहने लगी. जब राकेश हुआ तो किसी को तनिक भी संदेह नहीं हुआ.’’ वर्षों से करुणा के बारे में हम लोगों ने क्याक्या बातें सोच रखी थीं. अम्मा और बाबूजी तो उस का नाम आते ही क्रोध से कांपने लगते थे. परंतु अब सब बातें साफ हो गई थीं. बेचारी शादी के बाद कितनी जल्दी विधवा हो गई थी. पेट में बच्चा था. फिर एक सहारा नजर आया, जो उस की जीवननैया को दुनिया के थपेड़ों से बचाना चाहता था. ऐसे में कैसे उस सहारे को छोड़ देती? अपने भविष्य को, अपनी होने वाली संतान के भविष्य को किस के भरोसे छोड़ देती? मैं ने करुणा के सिर पर हाथ रख दिया. वह मेरी ओर स्नेह से देखने लगी. अचानक वह झुकी और मेरे पांवों को हाथ लगाने लगी, ‘‘आप तो रिश्ते में मेरी जेठानी लगती हैं. आप के पांव छूने का अवसर फिर पता नहीं कभी मिलेगा या नहीं.’’

मैं ने उस को अपने पांवों को छूने दिया. चाहे अम्मा और बाबूजी ने करुणा को अपनी पुत्रवधू के रूप में अस्वीकार कर दिया था, परंतु मुझे अब वह अपनी देवरानी ही लगी. कुछ ही देर में सोमेश्वर और राकेश लौट आए. भोजनकक्ष से काफी सारा खाने का सामान लाए थे. हम सभी मिलजुल कर खाने लगे. दिल्ली जंक्शन आ गया. सामान उठाने के लिए 2 कुली किए गए. सोमेश्वर ने मुझे कुली को पैसे देने नहीं दिए. टैक्सी में सोमेश्वर आगे ड्राइवर के साथ बैठा था. मैं, करुणा और राकेश पीछे बैठे थे. कुछ ही देर बाद हमारा घर आ गया. सोमेश्वर डिक्की से मेरा सामान निकालने लगा. ‘‘बेटा, ताईजी को नमस्ते करो, पांव छुओ इन के,’’ करुणा ने कहा तो राकेश ने आज्ञाकारी पुत्र की तरह पहले हाथ जोड़े फिर मेरे पांव छुए. मैं ने उन दोनों को सीने से लगा लिया. सोमेश्वर ने मेरा सामान उठा कर बरामदे में रख कर घंटी बजाई. मैं ने करुणा और राकेश से विदा ली. चलतेचलते मैं ने 100 रुपए का 1 नोट राकेश की जेब में डाल दिया. अम्मा और बाबूजी तो मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे, तुरंत दरवाजा खोल दिया. मेरे साथ सोमेश्वर को देख कर तनिक चौंके, परंतु मैं ने कह दिया, ‘‘अम्माजी, ये अपनी टैक्सी में मुझे साथ लाए थे, कार में इन की पत्नी और बेटा भी हैं.’’

‘‘चाय वगैरा पी कर जाइएगा,’’ बाबूजी ने आग्रह किया.

‘‘नहीं, अब चलता हूं,’’ सोमेश्वर ने हाथ जोड़ दिए. अम्मा और बाबूजी मुझ को घेर कर बैठ गए. वे सवाल पर सवाल किए जा रहे थे, सफर के बारे में, मेरे पीहर के बारे में परंतु मेरा मन तो कहीं और भटक रहा था. लेकिन उन से क्या कहती.

मैं कहना तो चाहती थी कि आप यह सब मुझ से क्यों पूछ रहे हैं? अगर कुछ पूछना ही चाहते हैं तो पूछिए कि वह आदमी कौन था, जो यहां तक मुझे टैक्सी में छोड़ गया था? टैक्सी में बैठी उस की पत्नी और पुत्र कौन थे? शायद मैं साहस कर के उन को बता भी देती कि उन के खानदान का एक चिराग कुछ क्षण पहले उन के घर की देहरी तक आ कर लौट गया है. वे दोनों रात के अंधेरे में उसे नहीं देख पाए थे. शायद देख पाते तो उस में उन्हें अपने दिवंगत पुत्र की छवि नजर आए बिना नहीं रहती.

सबक : सुधीर के नए संबंधों के बारे में जान कर क्या थी अनु की कशमकश

रक्षाबंधन पर मैं मायके गई तो भैया ने मेरे ननदोई सुधीर जीजाजी के विषय में कुछ ऐसा बताया जिसे सुन कर मुझे विश्वास नहीं हुआ.

‘‘नहीं भैया, ऐसा हो ही नहीं सकता, जरूर आप को कोई भ्रम हुआ होगा.’’

‘‘नहीं अनु, मुझे कोई भ्रम नहीं हुआ. पिछले महीने औफिस के काम से दिल्ली गया तो सोचा, सुधीर से भी मिल लूं क्योंकि उन से मुलाकात हुए काफी अरसा हो चुका था. काम से फारिग होने के बाद जब मैं सुधीर के घर पहुंचा तो वे मुझे अचानक आया हुआ देख कर कुछ घबरा से गए. उन्होंने मेरा स्वागत वैसा नहीं किया जैसा कि मेरे पहुंचने पर अकसर किया करते थे. तभी मेरी नजर शोकेस में रखी एक तसवीर पर गई. उस तसवीर में सुधीर के साथ संध्या नहीं, कोई और युवती थी. जब मैं बाथरूम से फ्रैश हो कर आया तो वह तसवीर वहां से गायब थी लेकिन वह तसवीर वाली युवती ही उन की रसोई में चायनाश्ता तैयार कर रही थी.’’

‘‘भैया, हो सकता है वह उन की मेड हो.’’

‘‘शायद मैं भी यही समझता, अगर मैं ने वह तसवीर न देखी होती.’’

‘‘देखने में कैसी थी वह युवती?’’ मैं अपनी उत्सुकता छिपा न सकी.

देखने में सुंदर मगर बहुत ही साधारण थी. एक बात और मैं ने नोटिस की, मेरे अचानक आ जाने से वह सुधीर की तरह असहज नहीं थी, बिलकुल सामान्य नजर आ रही थी. उस के हाथ की चाय और नाश्ते में आलूप्याज की पकौडि़यों और सूजी के हलवे के स्वाद से ही मैं ने जान लिया था कि वह साक्षात अन्नपूर्णा होने के साथसाथ एक कुशल गृहिणी है.

‘‘सुधीर जीजाजी ने आप का उस से परिचय नहीं करवाया?’’

‘‘उस को चायनाश्ते के लिए कहते वक्त सुधीर शायद मुझे यह दर्शा रहे थे कि वह उन की मेड है लेकिन उन के साथ उस की तसवीर, फिर तसवीर का गायब होना और मेरी उपस्थिति से सुधीर का असहज होना इस बात की तरफ साफ संकेत कर रहा था कि वह युवती उन की मेड नहीं बल्कि कुछ और है.’’

‘‘भैया, इस विषय में हमें संध्या दी को तुरंत बता देना चाहिए,’’ मैं ने उतावले स्वर में कहा.

‘‘नहीं अनु, इस विषय में तुम संध्या दी को कुछ नहीं बताओगी,’’ भैया के बजाय भाभी बड़े ही कठोर और आदेशात्मक लहजे में बोलीं. ‘‘भाभी, आप एक औरत हो कर भी औरत के साथ अन्याय की बात कर रही हैं. संध्या दी मेरे पति की सगी बहन हैं, मेरी ननद हैं. जैसे मैं आप की ननद हूं’’ ‘‘जानती हूं मैं, संध्या आप के पति की सगी बहन है, लेकिन 14 साल पहले वह अपने पति से बुरी तरह लड़झगड़ कर अपनी मरजी से अपनी दोनों बेटियों को ले कर मायके आ गई थी. सुधीर और उन के परिवार वालों ने लाख कोशिश की कि वह लौट आए लेकिन हर बार उन्हें संध्या दी ने अपमानित किया. ऐसी स्थिति में सुधीर के मांबाप ने चाहा भी कि दोनों का तलाक हो जाए लेकिन संध्या दी पर तो जैसे जिंदगीभर सुधीर को परेशान करने का जनून सवार था. शायद इसी वजह से उस ने सुधीर को तलाक भी नहीं दिया.’’

‘‘जानती हो अनु, जब तुम्हारी संध्या दी ने अपना ससुराल छोड़ा था तब अपने पति के मुंह पर थूक कर गई थी. तो भला, कौन पति अपनी ऐसी बेइज्जती सहेगा? इतना सबकुछ हो जाने के बावजूद, सुधीर की इंसानियत और बड़प्पन देखो कि वे उस का और दोनों बेटियों का पूरा खर्चा बिना किसी हीलहुज्जत के नियम से दे रहे हैं. उन की हर सुखसुविधा का खयाल भी रखते हैं. महीने में उन से मिलने भी आते हैं.’’

‘‘यह तो उन का फर्ज है, भाभी. वे एक पिता और पति भी हैं,’’ मैं ने संध्या दी का पक्ष लेते हुए कहा. ‘‘सारे फर्ज सुधीर के ही हैं, तुम्हारी संध्या दी के कुछ भी नहीं,’’ भाभी कड़वे स्वर में बोलीं, ‘‘अनु, तुम ही बताओ तुम्हारी संध्या दी ने शादी के बाद अपने पति को क्या सुख दिया? उन का जीवन खराब कर दिया. कभी उन्हें मानसिक शांति नहीं मिली. मुझे तो आश्चर्य होता है कि उन की बेटियां कैसे हो गईं? उन्हें तो सुधीर के सान्निध्य से ही घिन आती थी. उन के हर काम, व्यवहार में उन्हें नीचा दिखाने की कोशिश में लगी रहती थीं. उन के कपड़े धोना तो दूर, उन्हें हाथ तक न लगाती थी. उन्हें खाने तक के लिए तरसा दिया था. वे बेचारे मां के पास खाते तो उन पर ताने कसती, उन पर व्यंग्य करती. तो बताओ अनु, क्या ऐसी औरत से हम सहानुभूति रखें? ऐसी औरतों को तो सबक मिलना ही चाहिए जो अपने पति और ससुराल वालों

इतना कर्कश व्यवहार रखती हैं. एक अच्छी और सुघड़ औरत वह होती है जो परिवार को तोड़ती नहीं, बल्कि जोड़ती है. लेकिन तुम्हारी संध्या दी ने तो जोड़ना नहीं, तोड़ना सीखा है. प्रेम और मिलनसार व्यवहार जैसे शब्द तो शायद उन के शब्दकोश में हैं ही नहीं. सच पूछो, तो मुझे बेहद खुशी है कि सुधीर उस औरत के साथ हंसीखुशी रह रहे हैं.’’

‘‘भाभी, आप जो कुछ कह रही हैं वह हम सब जानते हैं. न वे व्यवहार की अच्छी हैं न स्वभाव की. जबान की भी बेहद कड़वी हैं या दूसरे शब्दों में कहें वे शुद्ध खालिस स्वार्थ की प्रतिमा हैं. मायके में भी किसी से नहीं बनी, तभी तो किराए के मकान में रह रही हैं. लेकिन एक औरत होने के नाते हमें ऐसा होने से रोकना चाहिए और संध्या दी को सबकुछ बता देना चाहिए.’’

‘‘अनु, इस मामले में मेरी सोच तुम से जुदा है. मैं भी एक औरत हूं लेकिन इस प्रकरण में मैं सुधीर का साथ दूंगी क्योंकि हर जगह आदमी ही गलत नहीं होता. 95 प्रतिशत मामलों में दोषी न होते हुए भी पुरुषों को ही दोषी ठहराया जाता है. अगर एक पति अपनी कर्कशा पत्नी को पूरा खर्चा दे रहा है, अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा रहा है और इस के एवज में अगर वह अपना एकाकीपन दूर करने के लिए एक औरत के साथ सुखी, संतुष्ट और तनावमुक्त जीवन जी रहा है तो इस में गलत क्या है? वह औरत भी पूरी सचाई से वाकिफ है, तो बुरा क्या है. प्लीज, जैसा चल रहा है, चलने दो. इस बारे में संध्या को बताने का मतलब साफ है कि सुधीर का जीवन पहले से और भी बदतर हो जाना क्योंकि संध्या की फितरत से वाकिफ हूं मैं.’’

‘‘लेकिन भाभी, उस औरत को अंत में क्या हासिल होगा? कानूनी रूप से तो संध्या ही उन की पत्नी हैं. सुधीर जीजाजी के न रहने पर उन की सारी संपत्ति, जमीनजायदाद और पैंशन पर तो संध्या दी का ही हक होगा. यह सब छिपा कर हम उस औरत के साथ भी तो एक तरह से अन्याय ही कर रहे हैं,’’ मैं ने चिंतित स्वर में कहा. ‘‘नहीं अनु, तुम किसी के साथ कोई अन्याय नहीं कर रही हो. मैं जानती हूं, सुधीर जैसे नेकदिल इंसान मात्र अपने सुख और स्वार्थ के लिए उस औरत के साथ कोई धोखा नहीं करेंगे, न ही उसे अंधेरे में रखेंगे. पूरी ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ वे अपना रिश्ता निभाएंगे. मुझे पूरा विश्वास है सुधीर जैसे पढ़ेलिखे, समझदार और दूरदर्शी व्यक्ति ने उस के सुखी और सुरक्षित भविष्य के लिए कुछ न कुछ प्रबंध अवश्य कर दिया होगा.

‘‘रही बात संध्या की, तो ऐसी औरतों को तो सबक मिलना ही चाहिए जो बिना वजह अपने पति और ससुराल वालों को प्रताडि़त कर के उन्हें कानूनी धमकी दे कर अपने मायके आ जाती हैं. इस श्रेणी में तुम्हारी संध्या दी भी आती हैं. यह बात मैं ही नहीं, तुम और तुम्हारे ससुराल वाले और यहां तक कि दोनों तरफ के रिश्तेदार व पड़ोसी भी जानते हैं. इसलिए यह निर्णय मैं तुम पर छोड़ती हूं कि तुम संध्या को बता कर सुधीर की खुशहाल जिंदगी में जहर घुलवाओगी या चुप रह कर उन की वर्तमान खुशियां बरकरार रखोगी,’’ कह कर भाभी चुप हो गईं.

जानती हूं मैं, भाभी ने जो कुछ कहा है वह एकदम सच कहा है क्योंकि सुधीर जीजाजी उन के करीबी रिश्तेदार हैं. उन्होंने अपना दर्द उन से बयां किया है. मैं अजीब कशमकश में हूं कि एक निर्दोष आदमी की खुशियों की खातिर चुप रहूं या फिर एक कटु, कठोर व कर्कशा औरत के न्याय के लिए बोलूं… फिर भी यह तो मैं भी मानती हूं कि पतिपत्नी के रिश्ते को चाहे वह पति हो या पत्नी, कोई एक भी उस रिश्ते को तोड़ने का जिम्मेदार है तो कुसूरवार वही है. ऐसे में दोषी के साथ सहानुभूति दिखाना बेकुसूर के साथ बेइंसाफी होगी. सुधीर जीजाजी को पूरा हक है कि वे अपनी जिंदगी को नए सिरे से संवारें.

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें