आज जब सौम्या झील के उस पार बने बड़े से बंगले में पहली बार प्रवेश कर रही थी तो जो बात उस के दिमाग में सब से ऊपर थी वह यह कि उस ने अपने जीवन में जो सपना देखा था क्या वह पूरा हुआ?
छोटे से शहर के साधारण परिवार की साधारण सी दिखने वाली एक आम लड़की जिस की आंखों में थे चंद सपने और मन में कुछ चाहतें. बचपन से आज तक उस ने कोई ऐसी प्रतिभा का परिचय नहीं दिया था जिस के आधार पर उस से कुछ खास कर गुजरने की उम्मीदें की जा सकें, बल्कि एक आम मध्यवर्गीय भारतीय परिवार की औसत लड़की की ही माफिक उस ने पहले उलटनापलटना, फिर 4 पैरों पर चलना और उस के बाद तुतलाती जबान में कुछ बोलना सीखा.
सभी घरों की तरह उस के घर में भी जब पहली बार उस की आवाज में मां… मां… शब्द उस के कंठ से फूट कर निकले तो एकसाथ सब लोगों की बांछें खिल गईं. कई दिनों तक घर में चर्चा चलती रही कि पहले सौम्या ने बोलना शुरू किया था या उस से 2 साल बड़ी बहन संगीता ने.
दरअसल परिवार में सौम्या दूसरी लड़की के रूप में आई थी. उस के पिता की पहली संतान थी संगीता. जब सौम्या होने वाली थी तो उस की मां ने उम्मीदें लगा रखी थीं कि इस बार बेटा होगा. इन मामलों की अच्छी सम झ रखने वाले तथा कुछ परिचित ज्योतिषियों ने भी 100 प्रतिशत दावा किया था कि लड़का ही होगा. आखिर सारे लक्षण जो लड़के के ही दिख रहे थे, लेकिन हुआ अंत में वही जो कुदरती होना था. मांबाप तथा परिवार के बड़ेबुजुर्गों ने मन मार कर उस तोहफे को स्वीकार लिया जिस का कई दिनों की जद्दोजेहद तथा विचारविमर्श के बाद नाम पड़ा सौम्या. सौम्या यानी आकर्षक, प्रिय तथा मनोहारी.
समय के साथ पंख लगाए सौम्या पहले किंडरगार्टन गई, फिर स्कूल और उस के बाद कालेज, कालेज तक न तो उस ने कोई ऐसा काम किया और न ही कोई ऐसी उपलब्धि हासिल की थी जिसे किसी भी तरह से विशिष्ट कहा जा सके या फिर जिस के आधार पर उस से कोई खास उम्मीद की जा सके. आखिर देखनेसुनने में सपाट, पहनावेओढ़ावे में साधारण, पढ़ाईलिखाई में औसत और बाहरी गतिविधियों से बेखबर इस लड़की से कैसे यह उम्मीद की जा सकती थी कि वह आसमान से तारे तोड़ लाएगी?
जब वह बीए के फाइनल में पहुंची थी तो उस के पिता ने मन ही मन तय कर लिया था कि अब जल्दी से जल्दी कोई लायक लड़का खोज कर उस की शादी कर देंगे. पिछले ही साल सौम्या की बड़ी बहन का उन्होंने विवाह किया था. जिस बैंक में वे काम करते थे, वहीं उन्हें एक लड़का मिल गया था जिस के पिता भी हाल ही में उसी बैंक से रिटायर हुए थे.
लड़का देखने में काफी सुंदर था और साथ ही उन का पक्का भक्त भी. आखिर उन्होंने ही उसे बड़े जतन और स्नेह से नौकरी के सारे दांवपेंच सिखाए थे. इत्तेफाकन लड़के के पिता भी उन के पुराने परिचित निकल गए थे जिन के साथ उन्होंने कई साल पहले राजस्थान के सुदूर जैसलमेर जिले के छोटे से कसबे में बैंक की शाखा में काम किया था, इसीलिए विवाह तय करने में ज्यादा परेशानी नहीं हुई थी.
जिस तरह की शादी संगीता की हुई थी, कुछ वैसा ही रिश्ता सौम्या की खातिर भी ढूंढ़ा जा रहा था. योजना थी कि सालदोसाल में कुछ रुपएपैसे जमा भी हो जाएंगे जो शादी में काम आएंगे. 1-2 लड़के दिमाग में भी थे, कोई म्युनिसिपलिटी का बाबू, कोई वन विभाग में रेंजर तो कोई सिंचाई विभाग में जूनियर इंजीनियर, लेकिन आजकल के लड़कों का दिमाग नौकरी पाते ही जैसे खराब हो जाता है वैसे ही इन लोगों का भी था. न जाने लड़की के रूप में क्या चाहते थे, ‘जन्नत की हूर या आसमान की कोई परी या कोई हीरोइन.’ ऊपर से पैसा बेशुमार और नखरे तो पूछो ही मत.
इधर सौम्या के पिता इन चिंताओं में घुले जा रहे थे उधर सौम्या की जिंदगी में एक नया तूफान उठ रहा था. वह आया तो इतने चुपके से कि आहट तक नहीं हुई लेकिन न जाने कब, देखते ही देखते वह सौम्या की हस्ती पर इस कदर छा गया कि सौम्या को उस के अलावा कोई और नजर ही नहीं आता था.
यह कोई नहीं जानता कि उस ने सौम्या में क्या देख लिया क्योंकि जहां तक सौम्या जानती थी और जो काफी हद तक सचाई भी थी, उस में कोई ऐसा विशेष आकर्षण नहीं था जिस से एक करोड़पति घर का एकलौता शहजादा उस पर लट्टू हो जाता. न तो सूरत ही ऐसी और न सीरत ही, लेकिन पवन को उस बड़े से कालेज में यदि कोई लड़की पसंद आई, किसी को देख कर उस का दिल धड़का, किसी का दीदार करने की लालसा जागी और किसी से गुफ्तगू करने का मन हुआ तो सिर्फ उसी लड़की से जो न केवल दूसरों की निगाहों में अतिसामान्य थी बल्कि जो खुद भी इसी खयालात की थी.
बहुत दिन बाद एक बार पवन ने यों ही बस, बातोंबातों में उस से कहा था कि उस की आंखों में एक अजीब सी मनमोहक कशिश है जो इंसान को अपनी ओर इस तरह खींच लेती है जैसे चुंबक लोहे को. उस दिन के बाद से सौम्या ने अपनी आंखों का खासा खयाल रखना शुरू कर दिया था और घंटों आईने के सामने अकेली बैठ कर उन्हें निहारती रहती.
पवन के पिता शहर के नामीगिरामी वकीलों में थे. उस के दादा भी वकील थे और दादा के पिता भी और उन के पिता भी. सभी हाईकोर्ट में और सभी सर्विस मैटर के. हिंदुस्तान के सब से बड़े मुकदमेबाज यहां के सरकारी सेवक होते हैं. यह राज पवन के दादा के दादा ही सम झ गए थे. उन्होंने न सिर्फ खुद यह क्षेत्र चुना बल्कि अपनी औलादों को भी इसी क्षेत्र में लगाया.
वह अकसर कहा करते थे कि चूंकि यहां के सरकारी नुमाइंदों को एक तो न काम करने की मोटी तनख्वाह मिलती है ऊपर से काम करने की कीमत अलग से हराम के रूप में मिलती है. लिहाजा यह संभव ही नहीं कि कोई भी सरकारी नौकर कम से कम एक बार कानून के इस दंगल में नहीं कूदेगा. साथ ही उन्होंने यह भी चेतावनी दी थी कि जब तक उन के खानदान के लोग वकालत के इस क्षेत्रविशेष को पकड़े रहेंगे तब तक तो परिवार की निरंतर तरक्की होगी और जिस दिन यह छोड़ दिया तभी से परिवार का गिरना शुरू हो जाएगा.
उन की बात को पत्थर की लकीर मानते हुए वह परिवार आज तक अपना परचम लहरा रहा था और न जाने कितने ही हाईकोर्ट तथा कुछेक सुप्रीम कोर्ट के जज तक दे चुके थे. इसी परंपरा का पालन करते हुए पवन भी कानून की पढ़ाई कर रहा था.
पवन और सौम्या की पहली कुछ मुलाकातें बेहद औपचारिक और ि झ झक भरी थीं. बस, परिचय प्राप्ति कह सकते हैं उसे. क्या नाम है, कहां के हैं, कहां, किस विषय में दाखिला है, जैसे सामान्य प्रश्न जिन में भावों तथा स्नेहबंधन की गहराई ऊपर से बिलकुल न दिखे. लेकिन कोई भी तजरबेकार यह आसानी से देख सकता कि मामला उतना सतही नहीं है जितना प्रश्नों और उत्तरों के सुनने से लगता है. यहां महत्त्व भाषा का नहीं, भाव का था और इन मुलाकातों में अंदरूनी छिपा भाव कहीं गहरा और असरदार था.
बातों से मुलाकातों और मुलाकातों से तादात्म्य और तादात्म्य से आत्मीयता और आत्मीयता से अंतरंगता और अंतरंगता से उन्माद और उन्माद से निर्णय, फिर विरोध. पवन के परिवार का भी और सौम्या के परिवार में भी. तर्कवितर्क, वादप्रतिवाद, नाराजगी, गुस्सा, अंतर्कलह, उठापटक, सामदामदंडभेद, धमकियां, देश, समाज और नातेरिश्तेदारों की गुहार. फिर बड़ेबुजुर्गों की हार. परस्पर सम झौता और फिर विजातीय विवाह और कुछ ही सालों के अंदर दोनों परिवारों के बीच हर तरह के सामाजिक संबंधों तथा सरोकारों की पूरी तरह स्थापना.
आज सौम्या को वह दिन भी याद आ रहा था जब वह पहली बार पवन से मिली थी और वह दिन भी जब उस ने पहली बार लाल जोड़े में सज कर शर्मीली दुलहन के रूप में अपनी ससुराल में प्रवेश किया था. साथ ही वह दिन भी याद आ रहा था जब पवन ने उसे पहली बार सतीश से मिलाया था और वह दिन भी जब सतीश ने पहली बार मौका पा कर अकेले में उस के कान में मिश्री घोली थी.
वह दिन भी जब सतीश ने उस का हाथ हौले से पकड़ा था फिसलने से रोकने के बहाने, अब यह बात दूसरी है कि तब सौम्या सम झ भी नहीं पाई थी कि वह संभलने के बजाय फिसल रही है किसी गहरी अंधेरी खाई में. अंत में वह दिन भी जब उस ने फिर कदम रखा था. खैर, वह तो कल ही की बात थी.
सतीश पवन का बहुत ही अजीज दोस्त था, कम से कम पवन तो यही सम झता था. हालांकि दोनों की जानपहचान ज्यादा पुरानी नहीं थी लेकिन जिस तरह बहुत तेजी से कुछ ही दिनों में सौम्या उस के जीवन का हिस्सा बन गई थी, उसी तेजी से सतीश ने भी पवन के जीवन में प्रवेश कर के उस पर एक तरह का वर्चस्व हासिल कर लिया था. देखने में बहुत सुंदर, भोलीभाली सांवली सूरत वाला हंसमुख जवान, जबान में मानो शहद घुली हो. हमदर्द इतना कि चारों पहर एक पांव पर खड़ा. पवन की मां की बीमारी के समय रातभर अस्पताल में जाग कर रात गुजारी थी उस ने. साथ ही यारों का यार.
पवन और सौम्या की शादी के बाद जितनी बड़ी पार्टी खुद उस के परिवार वालों ने नहीं दी थी उस से बड़ी और भव्य पार्टी सतीश ने दी थी, शानोशौकत और मुहब्बत से. स्वाभाविक था कि ऐसे में आपसी सौहार्द और प्रेम दिन दूना रात चौगुना बढ़ता. यह नहीं था कि सतीश अकेले पवन की पसंद हो या फिर सिर्फ उस का साथी, वह तो पूरे परिवार का हमदम भी था. हमदर्द भी और दोस्त भी.
और सौम्या का, उस का तो सबसे खास, करीबी, अपना, फिक्रमंद, लाजवाब देवर था जो हर मौके के लिए, हर काम के लिए, हर आदेश पर, हर समय उस के सामने सिर झुकाए मौजूद रहता.
हां, साथ ही वह सौम्या को उस की कुछ छिपी हुई अच्छाइयों और खूबियों के बारे में भी बताता जिन का स्वयं सौम्या को भी एहसास नहीं था लेकिन जो उसे सतीश के मुंह से सुन कर बहुत अच्छा लगता, उसे लगता मानो उसे सही अर्थों में सम झनेबू झने वाला कोई मिल गया है.
फिर एक दिन सौम्या ने उस की मौजूदगी में एक गाना सुनाया. गाने के बोल उसे आज तक बखूबी याद हैं, ‘मोरा गोरा रंग लई ले…’ साथ ही उसे यह भी याद है कि गाना खत्म होने के बाद भी सतीश न जाने कितनी देर तक तालियां बजा कर बधाई देता रहा था. रात में खाने की टेबल पर भी वह लगातार सौम्या की ही तारीफ करता रहा था और पहली बार पवन के चेहरे पर अजीब से खिंचाव और तनाव के भाव उभरे थे.
उस रोज के बाद से जहां पवन ने सतीश से मिलनाजुलना कम करना शुरू कर दिया था वहीं सौम्या और सतीश की मुलाकातों का सिलसिला बढ़ता ही चला गया था. सतीश ने ही सौम्या को बताया था कि मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में कई संगीतकार और गायकगायिका उस की मित्रमंडली में हैं. उसी ने सौम्या को फिल्मों में गाना गाने की भी सलाह दी थी इस टिप्पणी के साथ कि उस जैसी प्रतिभाशाली महिला का अपने गुणों को दबाए रखना कुदरत का अपमान करने के समान था.
लेकिन जब उस रोज रात को सौम्या ने यह बात पवन को बताई थी तो खुश होने के बजाय वह अचानक बिफर गया और गुस्से की हालत में न जाने क्याक्या अनापशनाप बकने लगा था. वैसे तो वह कई दिनों से कुछ खिंचाखिंचा सा रहता था पर उस दिन तो वास्तव में ही सारी हदें लांघ गया था.
सौम्या उस रात तो चुप रह गई लेकिन अलगाव की शुरुआत बखूबी हो चुकी थी. कुछ ही दिन बाद घर की हालत ऐसी हो गई मानो वह श्मशान हो तथा पवन और सौम्या उस में पड़ी 2 लाशें जिन का आपस में कोई वास्ता न हो.
इधर सौम्या और सतीश दिनोंदिन नजदीक आते ही गए. फिर जब पवन का व्यवहार बद से बदतर होने लगा, सतीश की निकटता बढ़ती गईर् और सौम्या की महत्त्वाकांक्षा पंख लगा कर उड़ने लगी तो एक दिन ऐसा आ ही गया जिस का वे दोनों शायद काफी दिनों से इंतजार कर रहे थे. काफी लड़ाई झगड़े, आरोपप्रत्यारोप और गड़े मुरदे उखाड़ने के बाद सौम्या ने यह कहते हुए वह घर छोड़ दिया कि अब वह जीतेजी पवन का मुंह नहीं देखेगी और पवन ने भी लगभग वैसे ही शब्दों में उस का जवाब दिया.
घर छोड़ कर सौम्या सीधे सतीश के पास आई थी और उसे सारी बात बताई. सतीश ने भी उस की हिम्मत बढ़ाई और एक बार फिर मुंबई चलने की बात दोहराई, लेकिन यह भी साथ में जोड़ दिया कि जाने से पहले उसे अपने सारे गहने और जरूरत भर रुपए घर से लेने चाहिए. सौम्या के लाख सम झाने पर भी कि अब वह उस घर में दोबारा कभी नहीं जाएगी, सतीश नहीं मान रहा था, इस बीच के समय के लिए ही सतीश उसे झील के पार बने इस बड़े से खूबसूरत बंगले में ले आया था.
यह कुदरत का करिश्मा ही कहा जाए या सौम्या की नियति कि उस बंगले में घुसते ही उस की बुद्धि अचानक इस तरह जाग्रत हो गई जैसे उसे बिजली का तेज झटका लगा हो. उस की अंतरात्मा चीखचीख कर उसे धिक्कारने लगी और वह आगे की सारी योजना समाप्त करते हुए चुपचाप तुरंत घर लौटने का आदेश देने लगी.
उसी आदेश में इतना तेज, इतनी ताकत और इतना अधिकारबोध था कि सौम्या चुपचाप, गूंगी गुडि़या की तरह उस का पालन करती हुई वहां से उठी और बंगले से निकल कर उस के कदम खुदबखुद अपने घर की ओर मुड़ गए.
घर आने पर पवन ने काफी कुछ कहा. उलाहना दिया. ताने दिए लेकिन सौम्या ने जवाब में एक शब्द भी नहीं कहा, मानो उस पर तो कोई दूसरी ही ताकत सवार थी. उसे अपनी गलती का एहसास हो रहा था. 2-4 दिनों में सबकुछ सामान्य होने लगा. सौम्या और पवन एकदूसरे से पहले सा व्यवहार करने लगे और महीना बीततेबीतते ऐसा लगने लगा मानो कभी कुछ हुआ ही न हो.
इस घटना के करीब ढाई साल बाद जब पवन और सौम्या घूमने शिमला गए थे तो उन्हें जानेपहचाने 2 चेहरे दिखाई दिए. थोड़ा गौर से देखने पर मालूम हुआ कि उन में से एक उन के करीबी साथी हरीश की बीवी संजना थी और दूसरा उस का पुराना दोस्त सतीश. दोनों बांहों में बांहें डाले ऐसे चले जा रहे थे मानो नवब्याहता हों.
यह देख कर पवन और सौम्या एकसाथ मुसकरा दिए और एकदूसरे का हाथ पकड़ कर अपनी मंजिल की ओर बढ़ गए.