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Mother’s Day 2024 : उसकी मम्मी मेरी अम्मा – आखिर दिक्षा अपनी मम्मी से क्यों नफरत करती थी?

दीक्षा की मम्मी उसे कार से मेरे घर छोड़ गईं. मैं संकोच के कारण उन्हें अंदर आने तक को न कह सकी. अंदर बुलाती तो उन्हें हींग, जीरे की दुर्गंध से सनी अम्मा से मिलवाना पड़ता. उस की मम्मी जातेजाते महंगे इत्र की भीनीभीनी खुशबू छोड़ गई थीं, जो काफी देर तक मेरे मन को सुगंधित किए रही.

मेरे न चाहते हुए भी दीक्षा सीधे रसोई की तरफ चली गई और बोली, ‘‘रसोई से मसालों की चटपटी सी सुगंध आ रही है. मौसी क्या बना रही हैं?’’

मैं ने मन ही मन कहा, ‘सुगंध या दुर्गंध?’ फिर झेंपते हुए बोली, ‘‘पतौड़े.’’

दीक्षा चहक कर बोली, ‘‘सच, 3-4 साल पहले दादीमां के गांव में खाए थे.’’

मैं ने दीक्षा को लताड़ा, ‘‘धत, पतौड़े भी कोई खास चीज होती है. तेरे घर उस दिन पेस्ट्री खाई थी, कितनी स्वादिष्ठ थी, मुंह में घुलती चली गई थी.’’

दीक्षा पतौड़ों की ओर देखती हुई बोली, ‘‘मम्मी से कुछ भी बनाने को कहो तो बाजार से न जाने कबकब की सड़ी पेस्ट्री उठा लाएंगी, न खट्टे में, न ढंग से मीठे में. रसोई की दहलीज पार करते ही जैसे मेरी मम्मी के पैर जलने लगते हैं. कुंदन जो भी बना दे, हमारे लिए तो वही मोहनभोग है.’’

अम्मा ने दही, सौंठ डाल कर दीक्षा को एक प्लेट में पतौड़े दिए तो उस ने चटखारे लेले कर खाने शुरू कर दिए. मैं मन ही मन सोच रही थी, ‘कृष्ण सुदामा के तंबुल खा रहे हैं, वरना दीक्षा के घर तो कितनी ही तरह के बिस्कुट रखे रहते हैं. अम्मा से कुछ बाजार से मंगाने को कहो तो तुरंत घर पर बनाने बैठ जाएंगी. ऊपर से दस लैक्चर और थोक के भाव बताने लगेंगी, ताजी चीज खाया करो, बाजार में न जाने कैसाकैसा तो तेल डालते हैं.’

दीक्षा प्लेट को चाटचाट कर साफ कर रही थी और मैं उस की मम्मी, उस के घर के बारे में सोचे जा रही थी, ‘दीक्षा की मम्मी साड़ी और मैचिंग ब्लाउज में मुसकराती हुई कितनी स्मार्ट लगती हैं. यदि वे क्लब चली जाती हैं तो कुंदन लौन में कुरसियां लगा देता है और अच्छेअच्छे बिस्कुटों व गुजराती चिवड़े से प्लेटें भरता जाता है. अम्मा तो बस कहीं आनेजाने में ही साड़ी पहनती हैं और उन के साथ लाल, काले, सफेद रूबिया के 3 साधारण ब्लाउजों से काम चला लेती हैं.’

प्लेट रखते हुए दीक्षा अम्मा से बोली, ‘‘मौसी, आप ने कितने स्वादिष्ठ पतौड़े बनाए हैं. दादी ने तो अरवी के पत्ते काट कर पतौड़े बनाए थे, पर उन में वह बात कहां जो आप के चटपटे पतौड़ों में है.’’

मैं और दीक्षा कैरम खेलने लगीं. मैं ने उस से पूछा, ‘‘मौसीजी आज कहां गई हैं?’’

दीक्षा ने उदासी से उत्तर दिया, ‘‘उन का महिला क्लब गरीब बच्चों के लिए चैरिटी शो कर रहा है, उसी में गई हैं.’’

मैं ने आश्चर्य से चहक कर कहा, ‘‘सच? मौसी घर के साथसाथ समाजसेवा भी खूब कर लेती हैं. एक मेरी अम्मा हैं कि कहीं निकलती ही नहीं. हमेशा समय का रोना रोती रहेंगी. कभी कहो कि अम्मा, मौल घुमा लाओ, तो पिताजी को साथ भेज देंगी. तुम्हारी मम्मी कितनी टिपटौप रहती हैं. अम्मा कभी हमारे साथ चलेंगी भी तो यों ही चल देंगी. दीक्षा, सच तो यह है कि मौसीजी तेरी मम्मी नहीं, वरन दीदी लगती हैं,’’ मैं मन ही मन अम्मा पर खीजी.

रसोई से अम्मा की खटरपटर की आवाज आ रही थी. वे मेरे और दीक्षा के लिए मोटेमोटे से 2 प्यालों में चाय ले आईं. दीक्षा उन से लगभग लिपटते हुए बोली, ‘‘मौसी, आप भी कमाल हैं, बच्चों का कितना ध्यान रखती हैं. आइए, आप भी कैरम खेलिए.’’

अम्मा छिपी रुस्तम निकलीं. एकसाथ 2-2, 3-3 गोटियां निकाल कर स्ट्राइकर छोड़तीं. अचानक उन को जैसे कुछ याद आया. कैरम बीच में ही छोड़ कर कहते हुए उठ गईं, ‘‘मुझे मसाले कूट कर रखने हैं. तुम लोग खेलो.’’

अम्मा के जाने के बाद दीक्षा आश्चर्य से बोली, ‘‘तुम लोग बाजार से पैकेट वाले मसाले नहीं मंगाते?’’

मेरा सिर फिर शर्म से झुक गया. रसोई से इमामदस्ते की खटखट मेरे हृदय पर हथौड़े चलाने लगी, ‘‘कई बार मिक्सी के लिए बजट बना, पर हर बार पैसे किसी न किसी काम में आते रहे. अंत में हार कर अम्मा ने मिक्सी के विचार को मुक्ति दे दी कि इमामदस्ते और सिलबट्टे से ही काम चल जाएगा. मिक्सी बातबात में खराब होती रहती है और फिर बिजली भी तो झिंकाझिंका कर आती है. ऐसे में मिक्सी रानी तो बस अलमारी में ही सजी रहेंगी.’’

मुझे टैस्ट की तैयारी करनी थी, मैं ने उस से पूछा, ‘‘मौसीजी चैरिटी शो से कब लौटेंगी? तेरे पापा भी तो औफिस से आने वाले हैं.’’

दीक्षा ने लंबी सांस ले कर उत्तर दिया, ‘‘मम्मी का क्या पता, कब लौटें? और पापा को तो अपने टूर प्रोग्रामों से ही फुरसत नहीं रहती, महीने में 4-5 दिन ही घर पर रहते हैं.’’

अतृप्ति मेरे मन में कौंधी, ‘एक अपने पिताजी हैं, कभी टूर पर जाते ही नहीं. बस, औफिस से आते ही हम भाईबहनों को पढ़ाने बैठ जाएंगे. टूर प्रोग्राम तो टालते ही रहते हैं. दीक्षा के पापा उस के लिए बाहर से कितना सामान लाते होंगे.’

मैं ने उत्सुकता से पूछा, ‘‘सच दीक्षा, फिर तो तेरा सारा सामान भारत के कोनेकोने से आता होगा?’’

दीक्षा रोनी सूरत बना कर बोली, ‘‘घर पूरा अजायबघर बन गया है और फिर वहां रहता ही कौन है? बस, पापा का लाया हुआ सामान ही तो रहता है घर में. महल्ले की औरतें व्यंग्य से मम्मी को नगरनाइन कहती हैं, उन्हें समाज कल्याण से फुरसत जो नहीं रहती. होमवर्क तक समझने को तरस जाती हूं मैं. मम्मी आती हैं तो सिर पर कस कर रूमाल बांध कर सो जाती हैं.’’

पहली बार दीक्षा के प्रति मेरे हृदय की ईर्ष्या कुछ कम हुई. उस की जगह दया ने ले ली, ‘बेचारी दीक्षा, तभी तो इसे स्कूल में अकसर सजा मिलती है. इस का मतलब अभी यह जमेगी हमारे घर.’

अम्मा ने रसोई से आ कर प्यार से कहा, ‘‘चलो दीक्षा, सीमा, कल के लिए कुछ पढ़ लो. ये आएंगे तो सब साथसाथ खाना खा लेना. उस के बाद उन से पढ़ लेना. कल तुम लोगों के 2-2 टैस्ट हैं, बेटे.’’

दीक्षा ने अम्मा की ओर देखा और मेरे साथ ही इतिहास के टैस्ट की तैयारी करने लगी. उसे कुछ भी तो याद नहीं था. उस की रोनीसूरत देख कर अम्मा उसे पाठ याद करवाने लगीं. जैसेजैसे वह उसे सरल करकर के याद करवाती जा रही थीं, उस के चेहरे की चमक लौटती जा रही थी. आत्मविश्वास उस के चेहरे पर झलकने लगा था.

पिताजी औफिस से आए तो हम सब के साथ खाना खा कर उन्होंने मुझे तथा दीक्षा को गणित के टैस्ट की तैयारी के लिए बैठा दिया. दीक्षा को पहाडे़ भी ढंग से याद नहीं थे. जोड़जोड़ कर पहाड़े वाले सवाल कर रही थी. तभी दीक्षा की मम्मी कार ले कर उसे लेने आ गईं.

अम्मा सकुचाई सी बोलीं, ‘‘दीक्षा को मैं ने जबरदस्ती खाना खिला दिया है. जो कुछ भी बना है, आप भी खा लीजिए.’’

थोड़ी नानुकुर के बाद दीक्षा की मम्मी ने हमारे उलटेसीधे बरतनों में खाना खा लिया. मैं शर्र्म से पानीपानी हो गई. स्टूल और कुरसी से डाइनिंग टेबल का काम लिया. न सौस, न सलाद. सोचा, अम्मा को भी क्या सूझी? हां, उन्होंने उड़द की दाल के पापड़ घर पर बनाए थे. अचानक ध्यान आया तो मैं ने खाने के साथ उन्हें भून दिया. दीक्षा की मम्मी ने भी दीक्षा की ही तरह हमारे घर का खाना चटखारे लेले कर खाया. फिर मांबेटी चली गईं.

अब अकसर दीक्षा की मम्मी उसे हमारे घर कार से छोड़ जातीं और रात को ले जातीं. समाज कल्याण के कार्यों में वे पहले से भी अधिक उलझती जा रही थीं. शुरूशुरू में दीक्षा को संकोच हुआ, पर धीरेधीरे हम भाईबहनों के बीच उस का संकोच कच्चे रंग सा धुल गया. पिताजी औफिस से आ कर हम सब के साथ उसे भी पढ़ाते और गलती होने पर उस की खूब खबर लेते.

मैं ने दीक्षा से पूछा, ‘‘पिताजी तुझे डांटते हैं तो कितना बुरा लगता होगा? उन्हें तुझे डांटना नहीं चाहिए.’’

दीक्षा मुसकराई, ‘‘धत पगली, मुझे अच्छा लगता है. मेरे लिए उन के पास वक्त है. दवाई भी तो कड़वी होती है, पर वह हमें ठीक भी करती है. मेरे मम्मीपापा के पास तो मुझे डांटने के लिए भी समय नहीं है.’’

मुझे दीक्षा की बुद्धि पर तरस आने लगा, ‘अपने मम्मीपापा की तुलना मेरे मातापिता से कर रही है. मेरे पिताजी क्लर्क और उस के पापा बहुत बड़े अफसर. उस की मम्मी कई समाजसेवी संस्थाओं की सदस्या, मेरी अम्मा घरघुस्सू. उस के  पापा क्लबों, टूरों में समय बिताने वाले, मेरे पिताजी ट्यूशन का पैसा बचाने में माहिर. उस की मम्मी सुंदरता का पर्याय, मेरी अम्मा को आईना देखने तक की भी फुरसत मुश्किल से ही मिल पाती है.’

अचानक दीक्षा 1 और 2 जनवरी को विद्यालय नहीं आई. यदि वह 3 जनवरी को भी नहीं आती तो उस का नाम कट जाता. इसलिए मैं 3 जनवरी को विद्यालय जाने से पूर्व उस के घर जा पहुंची. काफी देर घंटी बजाने के बाद दरवाजा खुला.

मैं आश्चर्यचकित हो दीक्षा को देखे चली जा रही थी. वह एकदम मुरझाए हुए फूल जैसी लग रही थी. मैं ने उसे मीठी डांट पिलाते हुए कहा, ‘‘दीक्षा, तू बीमार है, मुझे मैसेज तो कर देती.’’

वह फीकी सी हंसी के साथ बोली, ‘‘मम्मी पास के गांवों में बच्चों को पोलियो की दवाई पिलवाने चली जाती हैं…’’

‘‘और कुंदन?’’ मैं ने पूछा.

‘‘4-5 दिनों से गांव गया हुआ है. उस की बेटी बीमार है.’’

पहली बार मेरे मन में दीक्षा की मम्मी के लिए रोष के तीव्र स्वर उभरे, ‘‘और तू जो बीमार है तो तेरे लिए मौसीजी का समाजसेविका वाला रूप क्यों धुंधला जाता है. चैरिटी घर से ही शुरू होती है.’’ यह कह कर मैं ने उस को बिस्तर पर बैठाया.

दीक्षा ने बात पूरी की, ‘‘पर घर की  चैरिटी से मम्मी को प्रशंसा के पदक और प्रमाणपत्र तो नहीं मिलते. गवर्नर उन्हें भरी सभा में ‘कल्याणी’ की उपाधि तो नहीं प्रदान करता.’’

शो केस में सजे मौसी को मिले चमचमाते पदक, जो मुझे सदैव आकर्षित करते थे, तब बेहद फीके से लगे. अचानक मुझे पिछली गरमी में खुद को हुए मलेरिया के बुखार का ध्यान आ गया. बोली, ‘‘दीक्षा, मुझे कहलवा दिया होता. मैं ही तेरे पास बैठी रहती. मुझे जब मलेरिया हुआ था तो मैं अम्मा को अपने पास से उठने तक नहीं देती थी. बस, मेरी आंख जरा लगती थी, तभी वे झटपट रसोई में कुछ बना आती थीं.’’

दीक्षा के सिरहाने बिस्कुट का पैकेट तथा थर्मस में गरम पानी रखा हुआ था. मैं ने उसे चाय बना कर दी. फिर स्कूल जा कर अपनी और दीक्षा की छुट्टी का प्रार्थनापत्र दे आई. लौटते हुए अम्मा को सब बताती भी आई.

पूरा दिन मैं दीक्षा के पास बैठी रही. थर्मस का पानी खत्म हो चुका था. मैं ने थर्मस गरम पानी से भर दिया. दीक्षा का मन लगाने के लिए उस के साथ वीडियो गेम्स खेलती रही.

शाम को मौसीजी लौटीं. उन की सुंदरता, जो मुझे सदैव आकर्षित करती थी, कहीं गहन वन की कंदरा में छिप गई थी. बालों में चांदी के तार चमक रहे थे. मुंह पर झुर्रियों की सिलवटें पड़ी थीं. उन में सुंदरता मुझे लाख ढूंढ़ने पर भी न मिली.

वे आते ही झल्लाईं, ‘‘यह पार्लर भी न जाने कब खुलेगा. रोज सुबहशाम चक्कर काटती हूं. आजकल मुझे न जाने कहांकहां जाना पड़ता है. कोई पहचान ही नहीं पाता. यदि पार्लर कल भी न खुला तो मैं घर पर ही बैठी रहूंगी. इस हाल में बाहर जाते हुए मुझे शर्म आती है. सभी आंखें फाड़फाड़ कर देखते हैं कि कहीं मैं बीमार तो नहीं.’’

मैं ने चैन की सांस ली कि चलो, मौसी कल से दीक्षा के पास पार्लर न खुलने की ही मजबूरी में रहेंगी. उन की सुंदरता ब्यूटीपार्लर की देन है. क्रीम की न जाने कितनी परतें चढ़ती होंगी.

मन ही मन मेरा स्वर विद्रोही हो उठा, ‘मौसी, तब भी आप को अपनी बीमार बिटिया का ध्यान नहीं आता. कुंदन, ब्यूटीपार्लर…सभी तो बारीबारी से बीमार दीक्षा की ओर संकेत करते हैं. आप ने तो यह भी ध्यान नहीं किया कि स्कूल में 3 दिनों की अनुपस्थिति में दीक्षा का नाम कटतेकटते रह गया.

‘ओह, मेरी अम्मा कितनी अच्छी हैं. उन के बिना मैं घर की कल्पना ही नहीं कर सकती. वे हमारे घर की धुरी हैं, जो पूरे घर को चलाती हैं. आप से ज्यादा तो कुंदन आप के घर को चलाने वाला सदस्य है.

मेरी अम्मा की जो भी शक्लसूरत है, वह उन की अपनी है, किसी ब्यूटीपार्लर से उधार में मांगी हुई नहीं. यदि आप का ब्यूटीपार्लर 4 दिन भी न खुले तो आप की सुंदरता दम तोड़ देती है. अम्मा ने 2 कमरों के मकान को घर बनाया हुआ है, जबकि आप का लंबाचौड़ा बंगला, बस, शानदार मगर सुनसान स्मारक सा लगता है.

‘मौसी, आप कितनी स्वार्थी हैं कि अपने बच्चों को अपना समय नहीं दे सकतीं, जबकि हमारी अम्मा का हर पल हमारा है.’

मेरा मन भटके पक्षी सा अपने नीड़ में मां के पास जाने को व्याकुल होने लगा

विविध परंपरा: रिटायरमेंट के बाद दीनदयाल को क्या पापड़ बेलने पड़े?

Writer- Santosh Srivastava

नगर निगम के विभिन्न विभागों में काम कर के रिटायर होने के बाद दीनदयाल आज 6 माह बाद आफिस में आए थे. उन के सिखाए सभी कर्मचारी अपनीअपनी जगहों पर थे. इसलिए सभी ने दीनदयाल का स्वागत किया. उन्होंने हर एक सीट पर 10-10 मिनट बैठ कर चायनाश्ता किया. सीट और काम का जायजा लिया और फिर घर आ कर निश्चिंत हो गए कि कभी उन का कोई काम नगरनिगम का होगा तो उस में कोई दिक्कत नहीं आएगी.

एक दिन दीनदयाल बैठे अखबार पढ़ रहे थे, तभी उन की पत्नी सावित्री ने कहा, ‘‘सुनते हो, अब जल्द बेटे रामदीन की शादी होने वाली है. नीचे तो बड़े बेटे का परिवार रह रहा है. ऐसा करो, छोटे के लिए ऊपर मकान बनवा दो.’’

दीनदयाल ने एक लंबी सांस ले कर सावित्री से कहा, ‘‘अरे, चिंता काहे को करती हो, अपने सिखाएपढ़ाए गुरगे नगर निगम में हैं…हमारे लिए परेशानी क्या आएगी. बस, हाथोंहाथ काम हो जाएगा. वे सब ठेकेदार, लेबर जिन के काम मैं ने किए हैं, जल्दी ही हमारा पूरा काम कर देंगे.’’

‘‘देखा, सोचने और काम होने में बहुत अंतर है,’’ सावित्री बोली, ‘‘मैं चाहती हूं कि आज ही आप नगर निवेशक शर्माजी से बात कर के नक्शा बनवा लीजिए और पास करवा लीजिए. इस बीच सामान भी खरीदते जाइए. देखिए, दिनोंदिन कीमतें बढ़ती ही जा रही हैं.’’

‘‘सावित्री, तुम्हारी जल्दबाजी करने की आदत अभी भी गई नहीं है,’’ दीनदयाल बोले, ‘‘अब देखो न, कल ही तो मैं आफिस गया था. सब ने कितना स्वागत किया, अब इस के बाद भी तुम शंका कर रही हो. अरे, सब हो जाएगा, मैं ने भी कोई कसर थोड़ी न छोड़ी थी. आयुक्त से ले कर चपरासी तक सब मुझ से खुश थे. अरे, उन सभी का हिस्सा जो मैं बंटवाता था. इस तरह सब को कस कर रखा था कि बिना लेनदेन के किसी का काम होता ही नहीं था और जब पैसा आता था तो बंटता भी था. उस में अपना हिस्सा रख कर मैं सब को बंटवाता था.’’

दीनदयाल की बातों से सावित्री खुश हो गई. उसे  लगा कि उस के पति सही कह रहे हैं. तभी तो दीनदयाल की रिटायरमेंट पार्टी में आयुक्त, इंजीनियर से ले कर चपरासी तक शामिल हुए थे और एक जुलूस के साथ फूलमालाओं से लाद कर उन्हें घर छोड़ कर गए थे.

दीनदयाल ने सोचा, एकदम ऊपर स्तर पर जाने के बजाय नीचे स्तर से काम करवा लेना चाहिए. इसलिए उन्होंने नक्शा बनवाने का काम बाहर से करवाया और उसे पास करवाने के लिए सीधे नक्शा विभाग में काम करने वाले हरीशंकर के पास गए.

हरीशंकर ने पहले तो दीनदयालजी के पैर छू कर उन का स्वागत किया, लेकिन जब उसे मालूम हुआ कि उन के गुरु अपना नक्शा पास करवाने आए हैं तब उस के व्यवहार में अंतर आ गया. एक निगाह हरीशंकर ने नक्शे पर डाली फिर उसे लापरवाही से दराज में डालते हुए बोला, ‘‘ठीक है सर, मैं समय मिलते ही देख लूंगा,. ऐसा है कि कल मैं छुट्टी पर रहूंगा. इस के बाद दशहरा और दीवाली त्योहार पर दूसरे लोग छुट्टी पर चले जाते हैं. आप ऐसा कीजिए, 2 माह बाद आइए.’’

दीनदयाल उस की मेज के पास खडे़ रहे और वह दूसरे लोगों से नक्शा पास करवाने पर पैसे के लेनदेन की बात करने लगा. 5 मिनट वहां खड़ा रहने के बाद दीनदयाल वापस लौट आए. उन्होंने सोचा नक्शा तो पास हो ही जाएगा. चलो, अब बाकी लोगों को टटोला जाए. इसलिए वह टेंडर विभाग में गए और उन ठेकेदारों के नाम लेने चाहे जो काम कर रहे थे या जिन्हें टेंडर मिलने वाले थे.

वहां काम करने वाले रमेश ने कहा, ‘‘सर, आजकल यहां बहुत सख्ती हो गई है और गोपनीयता बरती जा रही है, इसलिए उन के नाम तो नहीं मिल पाएंगे लेकिन यह जो ठेकेदार करीम मियां खडे़ हैं, इन से आप बात कर लीजिए.’’

रमेश ने करीम को आंख मार कर इशारा कर दिया और करीम मियां ने दीनदयाल के काम को सुन कर दोगुना एस्टीमेट बता दिया.

आखिर थकहार कर दीनदयालजी घर लौट आए और टेलीविजन देखने लगे. उन की पत्नी सावित्री ने जब काम के बारे में पूछा तो गिरे मन से बोले, ‘‘अरे, ऐसी जल्दी भी क्या है, सब हो जाएगा.’’

अब दीनदयाल का मुख्य उद्देश्य नक्शा पास कराना था. वह यह भी जानते थे कि यदि एक बार नीचे से बात बिगड़ जाए तो ऊपर वाले उसे और भी उलझा देते हैं. यही सब करतेकराते उन की पूरी नौकरी बीती थी. इसलिए 2 महीने इंतजार करने के बाद वह फिर हरीशंकर के पास गए. अब की बार थोडे़ रूखेपन से हरीशंकर बोला, ‘‘सर, काम बहुत ज्यादा था, इसलिए आप का नक्शा तो मैं देख ही नहीं पाया हूं. एकदो बार सहायक इंजीनियर शर्माजी के पास ले गया था, लेकिन उन्हें भी समय नहीं मिल पाया. अब आप ऐसा करना, 15 दिन बाद आना, तब तक मैं कुछ न कुछ तो कर ही लूंगा, वैसे सर आप तो जानते ही हैं, आप ले आना, काम कर दूंगा.’’

दीनदयाल ने सोचा कि बच्चे हैं. पहले भी अकसर वह इन्हें चायसमोसे खिलापिला दिया करते थे. इसलिए अगली बार जब आए तो एक पैकेट में गरमागरम समोसे ले कर आए और हरीशंकर के सामने रख दिए.

हरीशंकर ने बाकी लोगों को भी बुलाया और सब ने समोसे खाए. इस के बाद हरीशंकर बोला, ‘‘सर, मैं ने फाइल तो बना ली है लेकिन शर्माजी के पास अभी समय नहीं है. वह पहले आप के पुराने मकान का निरीक्षण भी करेंगे और जब रिपोर्ट देंगे तब मैं फाइल आगे बढ़ा दूंगा. ऐसा करिए, आप 1 माह बाद आना.’’

हारेथके दीनदयाल फिर घर आ कर लेट गए. सावित्री के पूछने पर वह उखड़ कर बोले, ‘‘देखो, इन की हिम्मत, मेरे से ही सीखा और मुझे ही सिखा रहे हैं, वह नक्शा विभाग का हरीशंकर, जिसे मैं ने उंगली पकड़ कर चलाया था, 4 महीने से मुझे झुला रहा है. अरे, जब विभाग में आया था तब उस के मुंह से मक्खी नहीं उड़ती थी और आज मेरी बदौलत वह लखपति हो गया है और मुझे ही…’’

सावित्री ने कहा, ‘‘देखोजी, आजकल ‘बाप बड़ा न भइया, सब से बड़ा रुपइया,’ और जो परंपराएं आप ने विभाग मेें डाली हैं, वही तो वे भी आगे बढ़ा रहे हैं.’’

परंपरा की याद आते ही दीनदयाल चिंता मुक्त हो गए. अगले दिन 5000 रुपए की एक गड्डी ले कर वह हरीशंकर के पास गए और उस की दराज में चुपचाप रख दी.

हरीशंकर ने खुश हो कर दीनदयाल की फाइल निकाली और चपरासी से कहा, ‘‘अरे, सर के लिए चायसमोसे ले आओ.’’

फिर दीनदयाल से वह बोला, ‘‘सर, कल आप को पास किया हुआ नक्शा मिल जाएगा.’’

Mother’s Day 2024 : इन 5 कारणों से होता है मां-बेटी के बीच मनमुटाव

मां बेटी का रिश्ता दुनिया के खूबसूरत रिश्तों में से एक होता है. बेटी होती है मां की परछाई और इस परछाई पर मां दुनियाभर की खुशियां वार देना चाहती है. एक औरत जब मां बनती है और खासकर बेटी की मां बनती है तो उसे लगता है एक बेटी के रूप में वह अपना जीवन फिर से जी सकेगी. मांबेटी के प्यारभरे रिश्ते में भी कई बार तल्खियां उभर आती हैं. मांबेटी के रिश्ते में तल्खियां विवाह से पहले या विवाह के बाद कभी भी हो सकती हैं.

शादी से पहले के मनमुटाव

मां के हिसाब से बेटी का समय पर न उठना, दिनभर मोबाइल में लगे रहना, ऊटपटांग कपड़े पहनना आदि अनेक ऐसे छोटेमोटे विषय हैं जिन पर मांबेटी के बीच आमतौर पर खींचातानी होती रहती है. ऐसा होना हर मांबेटी के बीच आम है. लेकिन कई बार कुछ मसले ऐसे हो जाते हैं जिन के कारण मांबेटी के बीच मनमुटाव इस कदर बढ़ जाता है कि वे एकदूसरे से बात करना भी नहीं पसंद करतीं या फिर बेटी, मां से अलग रहने का भी निर्णय ले लेती है.

मुझे पसंद नहीं तुम्हारा बौयफ्रैंड :  22 वर्षीया सान्या एमबीए की स्टूडैंट है. वह अपने कालेज के एक ऐसे लड़के को पसंद करती है जिसे उस की मां नापसंद करती है. मां नहीं चाहती कि सान्या उस लड़के के साथ कोई भी संपर्क रखे. लेकिन सान्या के दिलोदिमाग पर तो वह लड़का इस कदर छाया हुआ है कि वह मां की कोईर् बात सुनने को ही तैयार नहीं है. आएदिन की इस लड़ाईझगड़े से तंग आ कर सान्या ने अलग फ्लैट ले कर रहना शुरू कर दिया है.

नौकरी बन जाए विवाद का विषय:  28 वर्षीया रिया कौल सैंटर में नौकरी करती है, वह भी नाइट शिफ्ट की. उस की मां को यह जौब बिलकुल पसंद नहीं है क्योंकि इस नौकरी की वजह से रिया के आसपड़ोस वाले उस की मां को तरहतरह की बातें सुनाते रहते हैं.

रिया की मां ने कई बार उस से कहा है कि वह यह नौकरी छोड़ दे लेकिन चूंकि रिया को इस नौकरी से कोई दिक्कत नहीं है, सो, वह छोड़ना नहीं चाहती. इस बात पर दोनों की अकसर बहस होती रहती है. आएदिन की बहस से परेशान हो कर रिया ने अपने औफिस के पास के एक पीजी में रहना शुरू कर दिया है. उसे लगता है कि रोज की किचकिच से यही बेहतर है.

विवाह के बाद बेटी अपनी ससुराल चली जाती है. ऐसे में मांबेटी के बीच प्यार और अपनापन कायम रहना चाहिए लेकिन कुछ मामलों में शादी के बाद भी मांबेटी के बीच का मनमुटाव जारी रहता है. बस, विवाद के कारण बदल जाते हैं.

लेनदेन से उपजा मनमुटाव :  विधि की शादी एक संपन्न घर में हुई है. वह जब भी मायके  आती है तो मां से अपेक्षा करती है उसे वही ऐशोआराम, वही सुखसुविधाएं मायके में भी मिलें जो ससुराल में मिलती हैं. लेकिन चूंकि विधि के मायके की आर्थिक स्थिति सामान्य है, सो, उसे वहां वे सुविधाएं नहीं मिल पातीं.

नतीजतन, जब भी विधि मायके आती है, मां से उस की बहस हो जाती है. इस के अलावा विधि को अपनी मां से हमेशा यह शिकायत भी रहती है कि वे उस की ससुराल वालों के स्टेटस के हिसाब से लेनेदेन नहीं करतीं, जिस की वजह से उसे अपनी ससुराल में सब के सामने नीचा देखना पड़ता है. विधि की मां अपनी हैसियत से बढ़ कर विधि की ससुराल वालों को लेनादेना करती है लेकिन विधि कभी संतुष्ट नहीं होती और दोनों के बीच खींचातानी चलती रहती है.

संपत्ति विवाद भी है कारण :  पति के गुजर जाने के बाद स्वाति की मां अपने बेटे रोहन के साथ रहती हैं. रोहन ही उन की सारी जरूरतों का ध्यान रखता है और उन की तरफ से सारे सामाजिक लेनदेन करता है. आगे चल कर कोई प्रौपर्टी विवाद न हो, इसलिए स्वाति की मां ने वसीयत में अपनी सारी जमीनजायदाद रोहन के नाम कर दी.

स्वाति को जब इस बात का पता चला तो वह अपनी मां से संपत्ति में हिस्से के लिए लड़ने आ गई. उस का कहना था कि जमीनजायदाद  में उसे बराबरी का हिस्सा चाहिए जबकि स्वाति की मां का कहना था कि उस की शादी में जो लेनादेना था, वह उन्होंने कर दिया और वैसे भी, अब रोहन उन की पूरी जिम्मेदारी संभालता है तो वे प्रौपर्टी रोहन के नाम ही करेंगी. इस बात पर गुस्सा हो कर स्वाति ने मां से बोलचाल बंद कर दी और घर आनाजाना भी बंद कर दिया.

मां के संबंधों से बेटी को शिकायत: अनन्या के पिताजी को गुजरे 4 वर्ष हो गए हैं. वह अपनी ससुराल में मस्त है. मां कालेज में नौकरी करती हैं. जहां उन के संबंध कालेज के सहकर्मी से हैं. यह बात अनन्या को बिलकुल पसंद नहीं. अनन्या को लगता है पिताजी के चले जाने के बाद मां ने उस पुरुष से संबंध क्यों रखे हैं.

वह कहती है, ‘मां के इन संबंधों से समाज और ससुराल में उस की बदनामी हो रही है.’ जबकि अनन्या की मां का कहना है कि उम्र के इस पड़ाव के अकेलेपन को वह किस तरह दूर करे. अगर ऐसे में कालेज का उक्त सहकर्मी उस की भावनाओं व जरूरतों का ध्यान रखता है तो उस में बुरा क्या है. बस, यही बात मांबेटी के बीच मनमुटाव का कारण बनी हुई है. इस स्थिति में अनन्या को अपनी मां के अकेलेपन की जरूरत को समझना चाहिए और व्यर्थ ही समाज से डर कर मां की खुशियों की राह में रोड़ा नहीं बनना चाहिए.

बेटी को मां की जरूरतों से ज्यादा अपनी प्रतिष्ठा की फिक्र है. वह तो मां को बुत बना कर बाहर खड़ा कर देना चाहती है जो आदर्श तो कहलाए पर आंधीपानी और अकेलेपन को रातदिन सहे.

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विधवा-विधुर विवाह क्या पहली शादी जैसा है

55 साल के संदीप सरकारी नौकरी करते थे. 2 साल पहले उन की पत्नी का निधन हो चुका था. संदीप अपनी बेटी की शादी कर चुके थे. बेटा कालेज में पढ़ाई कर रहा था. संदीप के पास वेतन और जायदाद दोनों ही थी. सोशल मीडिया के जरिए उन का रेखा नाम की महिला से संपर्क हुआ. उस का एक बेटा था. 10 साल पहले वह विधवा हो चुकी थी. बेटा कैंसर से पीडि़त था. मां उस की देखभाल करती थी. इस के बाद भी वह बेटे को कैंसर से बचा नहीं पाई.

बेटे के बाद वह अकेली हो गई. संदीप के साथ वह अपनी पूरी बातें शेयर करती थी. संदीप और उस के बीच 5 साल की उम्र का फर्क था, पर देखने में वह 35 साल से अधिक की नहीं लगती थी. दोनों ने आपस में बात की और फिर शादी कर ली.

रेखा ने अपनी एक सहेली को ही यह बताया था. वह समाज के लोगों को बताने में हिचक रही थी. ऐसे में उस की सहेली ने रेखा और संदीप के गले में फूलों की माला वाली फोटो सोशल मीडिया पर पोस्ट कर दी, जिस से सब को यह पता चला कि इन की शादी हो चुकी है.

धीरेधीरे फेसबुक पर ही बधाई का सिलसिला चल पड़ा. अब सभी को पता चल गया है. बिना बैंडबाजा और बरात के इन की शादी हो गई. उन की शादी को हुए 2 साल बीत चुके हैं. दोनों नए पतिपत्नी सा जीवन जी रहे हैं. दोनों ही मिल कर संदीप के बेटे की शादी की तैयारी भी कर रहे हैं. वे अपने पुराने और विधवा और विधुर के जीवन के बारे में बात नहीं करते. उन को देख कर ऐसे लगता है जैसे इन की शादी पहले वाली ही है.

पहली शादी जैसे नहीं होते रस्मरिवाज

आज समाज में विधवा और विधुर ही नहीं, सिंगल रहने वाले लोगों के बीच भी विवाह होने लगे हैं. इस के 2 प्रमुख कारण हैं- पहला यह है कि आज महिला और पुरुष दोनों ही अपनी हैल्थ और फिटनैस का पहले से ध्यान रखते हैं. समय के हिसाब से फैशन और लाइफस्टाइल में भी बेहतर दिखते रहते हैं.

महिला और पुरुष दोनों ही अधिक उम्र में पहले जैसे जवान बने रहते हैं. इस कारण से दोनों के ही दिलों में पहले जैसी हसरतें उमड़ती रहती हैं. ज्यादातर लोग अपने गांवघर से दूर रहते हैं. ऐसे में उन के ऊपर अपने समाज व नातेरिश्तेदारों का दबाव नहीं रहता है. इस वजह से वे अपने फैसले खुद करते हैं.

इन में से कई ऐसे होते हैं जिन के बच्चे स्कूलकालेज में पढ़ने वाले होते हैं. वे होस्टल में होते हैं. उन का भी मांबाप के जीवन में दखल नहीं रहता. दोनों में से कोई एक भी अगर आर्थिक रूप से मजबूत है तो उन का दोस्त ही उन का समाज होता है.

ये लोग अपने जीवन में दूसरों का दखल कम ही रखते हैं. ये ज्यादातर बिना विवाह के साथसाथ रहते हैं. अगर विवाह करते भी हैं तो यह पहली शादी जैसा नहीं होता है. ऐसे लोग शादी कर के सोशल मीडिया के जरिए ही समाज को यह बता देते हैं कि उन्होंने शादी कर ली है. उस के बाद दोनों अपने बेहद करीबी लोगों को होटल में पार्टी दे कर, केक काट कर शादी की रस्म को बेहद सादगी से पूरा करते हैं.

न बैंड न बाजा न कोई पंडित

विधवाविधुर से विवाह में न कोई बैंड बजता है न बाजा और बरात होती है. इन के रिश्ते घरपरिवार के लोगों की जगह पर ये खुद खोजते हैं. इस में पंडित का रोल भी नहीं होता. कारण यह कि कुंडली देख कर इन की शादी नहीं होती है.

शादी में भी अग्नि के सामने 7 फेरे नहीं होते हैं. ज्यादातर लोग दो फूलों की माला पहन कर केक काट लेते हैं. पतिपत्नी जैसी जयमाला वाली फोटो खिंचवा लेते हैं. बहुत हुआ तो अपनी आस्था के अनुरूप किसी धार्मिक स्थल में हो आते हैं.

अधिकतर लोग तो पहले लोगों को बताते ही नहीं हैं. धीरेधीरे लोगों को उन को देख कर ही सम?ा आता है. वही विधवा और विधुर शादी कर पाते हैं जिन के जीवन में नातेरिश्तेदार और समाज का दखल कम होता है. जिन के जीवन में ऐसे दखल होते हैं वे कभी शादी नहीं कर पाते हैं.

बहुत सारे ऐसे विधवाविधुर हैं जो एकदूसरे से शादी तो करना चाहते हैं पर वे समाज और नातेरिश्तेदारों के दबाव में होते हैं. उन को लगता है कि घरपरिवार और समाज के लोग क्या कहेंगे, यह सोच कर ऐसे लोग शादी करने का कदम नहीं उठा पाते हैं.

पहली शादी घरपरिवार के लोगों की मरजी और पहल पर होती है. लेकिन यह शादी विधवाविधुर की अपनी मरजी पर होती है. घरपरिवार के लोगों का कम ही मन होता है कि ये लोग शादी करें.

इस में जायदाद और दूसरी जिम्मेदारियां अधिक होती हैं. घरपरिवार के लोगों को लगता है कि जो भी नया व्यक्ति आता है वह अपने हित देखता है. ऐसे में वे ऐसी शादी की पहल नहीं करते हैं, लेकिन जब विधवाविधुर शादी कर ही लेते हैं तो वे अपनी मौन सहमति दे देते हैं.

वर्किंग स्पाउस से बन गए स्पाउस

फैशन फोटोग्राफर रहे अमित की पत्नी का निधन 40 साल की उम्र में हो गया था. वह अकेले ही जीवन गुजार रहा था. ऐसे में नीता नामक एक औरत मौडलिंग के लिए फोटो शूट कराने उस के पास आती है. धीरधीरे दोनों के बीच दोस्ती होती है. फिर नीता अमित के बिजनैस में मदद देने लगती है.

नीता पढ़नेलिखने में होशियार थी. उस ने फोटोग्राफी को एक बिजनैस का रूप दे दिया. अब दोनों के बारे में कोई पूछता तो दोनों ही कहते कि वे वर्किंग स्पाउस हैं. एकसाथ काम करते करीब 4 से 5 साल निकल गए.

एक दिन दोनों ने तय किया कि अब वे शादी कर लेंगे. 45 साल की उम्र में नीता और अमित वर्किंग स्पाउस से स्पाउस बन गए. नीता का बेटा अब दोनों के साथ रहता है. कम उम्र में दोनों पहले पतिपत्नी जैसे दिखते हैं. लेकिन इन की भी शादी फोटो शूट से शुरू होती है और होटल की पार्टी में केक काट कर पूरी हो जाती है.

ऐसे उदाहरण एकदो नहीं हैं. आज के समय में 50 से 65-70 साल तक आदमी की शादी किसी को चौंकाती नहीं है. 65 साल की औरत भी खुद को इस तरह से मेंटेन कर के रखती है कि वह 55 साल की लगती है. ऐसे में जिन के बच्चे या तो होते नहीं या जिन के बच्चे अलग अपनी गृहस्थी बसा लेते हैं, वे अपनी शादी के फैसले करने लगे हैं.

बहुत सारे ऐसे लोग हैं जिन के बच्चे विदेशों में रह रहे हैं. वे वहां के हिसाब से सोचते हैं. वे भी ऐसी शादी का विरोध नहीं करते, जिस की वजह से विधवाविधुर को शादी करने का फैसला करने में दिक्कत नहीं होती है.

पूरी होती हैं कानूनी जरूरतें

इस उम्र में अकेलापन बहुत होता है. विधवाविधुर के बारे में लोगों को लगता है कि बुढ़ापे में इन की शारीरिक जरूरतें तो होती नहीं, फिर शादी की क्या जरूरत? असल में इस उम्र में शादी शारीरिक जरूरत नहीं, मानसिक जरूरत होती है. अकेलापन दूर करने के लिए होती है.

बुढ़ापे में अपने ही बेटाबेटी साथ नहीं देते. सब की निगाह बूढ़े होते मातापिता की जायदाद पर लगी होती है. ऐसे में विधवाविधुर शादी उन की अपनी जरूरत की वजह से होती है. दोनों ही पहली शादी जैसे रस्मरिवाज भले ही नहीं करते पर कानूनी अधिकार और जिम्मेदारी की लिखापढ़त पूरी करते हैं जिस से कि दोनों में से किसी के अकेले होने के बाद उन को जायदाद में हक मिल सके.

कई बार यह होता है कि विधवाविधुर की शादी में भले ही कोई विरोध न करे, लेकिन जैसे ही दोनों में से किसी एक की मौत होती है, उस के घरपरिवार के लोग हिस्सा और अधिकार मांगने आ जाते हैं.

विधवाविधुर की शादी में भले ही पहली शादी जैसा माहौल न रहता हो पर कानूनी लिखापढ़त जरूर होती है. धीरेधीरे विधवाविधुर की शादी कोई बड़ा मुद्दा नहीं रह गई है. अब समाज के लोग भी इस का विरोध नहीं करते. पहले ऐसी शादियों की बड़ीबड़ी खबरें छपती थीं, समाज में चर्चा का विषय होती थीं लेकिन अब लोग इस को मुद्दा नहीं बनाते.

उत्तर प्रदेश के अमेठी जिले में ऐसी ही एक शादी के दूसरे दिन दूल्हा अपना काम करता मिला. उस के लिए कुछ नया नहीं होता. बस, जरूरत इस बात की होती है कि लोग अपना फैसला खुद करें. तभी यह हो सकता है. पहली शादी की तरह विधवाविधुर की शादी में समाज और घरपरिवार पहल नहीं करता है.

कोरोना वैक्सीन से हार्ट अटैक के चलते टैंशन में दुनिया

दुनियाभर में बढ़ते हार्ट अटैक के मामलों की वजह कोरोना वैक्सीन को मानते हुए अनेक मुकदमे दुनियाभर की अदालतों में वैक्सीन कंपनियों के खिलाफ ठोंके जा रहे हैं. ब्रिटेन में हार्ट अटैक से होने वाली 81 मौतों के बाद ब्रिटेन की हाईकोर्ट में 50 से अधिक पीड़ित परिवारों ने एस्ट्राजेनेका कंपनी के खिलाफ केस किया है, जिस में कंपनी से 1,000 करोड़ रुपए के हर्जाने की मांग की गई है.

जैमी स्काट नामक व्यक्ति ने एस्ट्राजेनेका के खिलाफ ब्रिटेन की हाईकोर्ट में मामला दर्ज कराया है. स्काट का आरोप है कि वैक्सीन लेने के बाद उस के शरीर में खून के थक्के जमने की समस्या हुई और दिमाग में ब्लीडिंग हुई. इस से उस के मस्तिष्क को काफी नुकसान हुआ.
हालांकि, भारत में सीरम इंस्टिट्यूट की तरफ से अभी तक वैक्सीन को बाजार से वापस लेने संबंधी कोई फैसला नहीं लिया गया है. मगर भारत में भी कोविशील्ड को ले कर चिंता उठ रही है. इसे ले कर सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है और वैक्सीन की सुरक्षा संबंधी चिंताओं पर सुनवाई की मांग की गई है.

एस्ट्राजेनेका की वैक्सीन के साइड इफैक्ट के खिलाफ दायर याचिका पर सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अपनी सहमति भी दे दी है हालांकि मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने सुनवाई के लिए अभी कोई तारीख तय नहीं की है. याचिकाकर्ता ने मांग की है कि वैक्सीन के साइड इफैक्ट और अन्य संभावित जोखिमों की जांच विशेषज्ञ पैनल से कराई जाए और इस की निगरानी सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड न्यायाधीश द्वारा की जानी चाहिए. याचिका में मुआवजे के लिए निर्देश की भी मांग की गई है. एस्ट्राजेनेका की कोरोना वैक्सीन भारत में कोविशील्ड के नाम से लगाई गई है, जिस का उत्पादन आदार पूनावाला की कंपनी सीरम इंस्टिट्यूट औफ इंडिया ने किया है.

दुनियाभर में कोरोना वायरस की महामारी के दौरान लोगों को टीके मुहैया कराने वाली कंपनी एस्ट्राजेनेका ने अपनी बदनामी और हार्टअटैक के बढ़ते केसेस को देखते हुए यूरोप और दुनिया के अन्य देशों से अपनी वैक्सजेवरिया वैक्सीन को वापस मंगा लिया है.

ब्रिटिश-स्वीडिश फार्मास्यूटिकल कंपनी एस्ट्राजेनेका का यह कदम ऐसे वक्त सामने आया है जब कंपनी ने कोर्ट में लिखित दस्तावेजों में स्वीकार किया कि कोरोना वैक्सीन के कुछ दुर्लभ मामलों में साइड इफैक्ट दिख सकते हैं. इस की वजह से कुछ लोगों में थ्रांबोसिस थ्रोंबोसाइटोपेनिया सिंड्रोम बीमारी के लक्षण देखे गए हैं, जिस में लोगों में खून के थक्के जमने लग जाते हैं, जो हार्टअटैक का कारण होता है.

गौरतलब है कि एस्ट्राजेनेका के लाइसैंस वाली कोविशील्ड वैक्सीन ही भारत में भी कोरोना से बचाव के लिए दी गई थी. भारत में लगाई गई कोविशील्ड वैक्सीन भी उसी फार्मूले पर बनी है जिस पर वैक्सजेवरिया वैक्सीन बनी है. भारत में कोविशील्ड का निर्माण सीरम इंस्टिट्यूट औफ इंडिया ने किया था, लेकिन अभी तक भारत में कोरोना वैक्सीन वापस लेने का कोई फैसला नहीं हुआ है.

यह सच है कि बीते 2 सालों के दौरान हार्टअटैक के मामलों में वृद्धि हुई है. जवान लोगों और बच्चों तक की हार्टअटैक से अचानक मौतें हुई हैं. कोई कसरत करतेकरते मर गया, कोई शादी की पार्टी में डांस करते हुए अचानक गिरा और चल बसा. वरमाला पहनाती हुई दुलहन अचानक गिरी और मर गई. ऐसी अनेक घटनाएं हुई हैं. यह असाधारण बात है और चिंता का विषय है. लेकिन 2020 में जब कोविड महामारी की शुरुआत हुई और लोगों की जानें जाने लगीं, उस वक़्त दुनियाभर की वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों पर जल्द से जल्द कोरोना का टीका बनाने का जबरदस्त दबाव था. हर मुल्क में साइंटिस्ट और डाक्टर रिसर्च में लगे थे.

हम जानते हैं कि वैक्सीन बनाने के लिए रिसर्च सालोंसाल चलती है. विज्ञान की दुनिया में कोई भी निष्कर्ष आखिरी निष्कर्ष नहीं होता है. प्लेग, चेचक, खसरा, पोलियो आदि की वैक्सीन तैयार होने में कई कई वर्ष लग गए. उन का पहले जानवरों पर और उस के बाद मनुष्य पर प्रयोग किया गया. कई प्रयोग विफल हुए पर आखिरकार वैक्सीन बनी और उस के इस्तेमाल से मनुष्य में संक्रमण के कारण तेजी से फैलने वाली इन बीमारियों पर काबू पाया जा सका.

कोविड महामारी की वैक्सीन बनाने के लिए डाक्टर्स और रिसर्चर्स को ज्यादा समय नहीं मिला. दुनियाभर में लोग कोविड के कारण धड़ाधड़ मर रहे थे. ऐसे में जल्दीजल्दी में जो दवा बन पाई उसे तुरंत बाजार में उतार दिया गया. वैक्सीन के कारण अनेक लोगों की जानें बच भी गईं. ऐसा नहीं है कि वैक्सीन पर रिसर्च बंद हो गई है. यह रिसर्च जारी है ताकि परफैक्ट वैक्सीन प्राप्त की जा सके. हाल ही में कोरोना के एक और नए वैरिएंट की आहट सुनी गई है. कोरोना कभी भी वापस पलट सकता है. इसलिए दुनियाभर के डाक्टर और साइंटिस्ट बेहतर से बेहतर वैक्सीन बनाने पर कार्य कर रहे हैं.

विज्ञान निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है. विज्ञान मानता है कि ब्रह्मांड में अनेकानेक चीजें ऐसी हैं जिन तक मनुष्य अभी पहुंच नहीं पाया है. इसलिए विज्ञान लगातार खोजों और प्रयोगों में जुटा है. प्रयोग सफल भी होते हैं और असफल भी. जबकि धर्म खोज में विश्वास ही नहीं करता है. विज्ञान और धर्म में मूल भिन्नता ही यह है कि धर्म आखिरी निष्कर्ष पर पहुंच चुका है. हजारों साल पहले धर्म ने चीजों की जैसी व्याख्या कर दी, हजारों साल बाद तक धर्म को मानने वाले लोग उन व्याख्याओं को ही आखिरी सत्य मानेंगे. जबकि विज्ञान के लिए आखिरी सत्य कुछ भी नहीं है.

धर्म ने कह दिया, एक ईश्वर है. एक स्वर्ग है. एक नरक है. एक यमराज हैं जो मनुष्य के प्राण हर कर ले जाते हैं. चित्रगुप्त हर मनुष्य के अच्छेबुरे कर्मों का लेखाजोखा रखते हैं आदिआदि. धर्म को मानने वाला इन बातों पर कोई सवाल नहीं उठाएगा. वह इसी को ज्यों का त्यों मान लेगा. मगर विज्ञान इन तमाम बातों पर सवाल उठाएगा, तर्क करेगा, खोज करेगा.

धर्म के अनुसार सूर्य एक भगवान है, उस की पूजा करनी चाहिए. जबकि, विज्ञान के अनुसार सूर्य एक आग का गोला है, जहां एटम के बीच लगातार होने वाले फ्यूजन से जबरदस्त ऊर्जा और प्रकाश उत्पन्न हो रहा है. यानी, धर्म एक जगह ठिठका खड़ा है जबकि विज्ञान लगातार गतिमान है.

आप को याद होगा बचपन में सिरदर्द होने पर आप को एनासिन की टेबलेट खाने को दी जाती थी. सालोंसाल एनासिन के विज्ञापन टीवी पर छाए रहे. अचानक एनासिन बाजार से गायब हो गई. क्यों? क्योंकि डाक्टर्स ने एनासिन के कुछ साइड इफैक्ट देखे. फिर प्रयोग हुए और एनासिन से बेहतर दवाएं बनीं व बाजार में लाई गईं.

इसी तरह ब्रूफेन, एस्पिरिन, डिस्पिरिन, वोवरन जैसी दवाएं भी अब प्रतिबंधित कर दी गई हैं, क्योंकि इन के कुछ साइड इफैक्ट सामने आए. जबकि इस से पहले ये दवाएं बाजार में धड़ाधड़ बिकती रहीं और लोग उन का फायदा उठाते रहे. मगर विज्ञान इन से भी बेहतर उत्पाद बनाने की ओर अग्रसर है. यही बात कोरोना वैक्सीन के साथ भी है. लगातार शोध हो रहे हैं. अगर खून का थक्का बनने की घटनाएं सामने आईं हैं तो उस के कारणों को खोजा जा रहा है और पहले से बेहतर वैक्सीन बनाने की तरफ शोध जारी है.

हाल ही में स्वास्थ्य कारणों से डेनमार्क और नौर्वे में हाई कैफीन वाले एनर्जी ड्रिंक्स की बिक्री पर रोक लगा दी गई है. इसे जान के लिए खतरा बताया जा रहा है. जबकि सालों से लोग इस का सेवन कर रहे थे. जिम करने वाले युवाओं और किशोरों को प्रोटीन सप्लीमैंट के अधिक सेवन से बचने की हिदायतें अकसर डाक्टर देते हैं क्योंकि इन के खतरनाक साइड इफैक्ट दिखे हैं. रिसर्च जारी है. हो सकता है जल्दी ही बेहतर सप्लीमैंट्स बाजार में आ जाएं. ये लगातार होने वाली खोजें हैं. किसी भी खोज को अंतिम खोज नहीं कहा जा सकता.

हां, कोरोना वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों ने कोविड काल में खूब धन कमाया है, इस से इनकार नहीं किया जा सकता. सीरम इंस्टिट्यूट ने भी कोरोनाकाल में मोदी सरकार को करोड़ों रुपयों का चंदा दे कर अपनी वैक्सीन बेचने के लिए भारत ही नहीं, दुनिया के कई देशों के बाजारों पर कब्जा किया. किसी दूसरी कंपनी की वैक्सीन को बाजार में जगह नहीं बनाने दी. मगर उस वैक्सीन को बनाने के लिए भी डाक्टर्स ने काफी मेहनत की. उन की मेहनत पर सवाल नहीं उठाया जा सकता. अगर उस समय कोरोना वैक्सीन बाजार में न आती और जान जाने के डर से थरथराते लोग अगर बाबाजी के आयुर्वेदिक उपचारों के भरोसे रहते तो न जाने देश में कितने लाख लोग और मर जाते.

Prostate Cancer : क्यों बढ़ रहे हैं प्रोस्टेट कैंसर के मामले

Prostate Cancer :  हाल ही में मैडिकल जर्नल लैंसेट की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक प्रोस्टेट कैंसर के नए मामले साल 2020 में 14 लाख थे जो साल 2040 में बढ़ कर 29 लाख हो जाएंगे. हर साल 1,00,000 की आबादी में 4 से 8 मामले आते हैं. राष्ट्रीय स्तर पर कैंसर के मामलों में 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है वहीं पिछले 25 सालों में शहरी आबादी में प्रोस्टेट कैंसर 75-85 फीसदी बढ़ा है.

प्रोस्टेट कैंसर 112 देशों में पुरुषों में होने वाला एक आम कैंसर है और कैंसर के कुल मामलों में 15 प्रतिशत मामले प्रोस्टेट कैंसर के होते हैं. साल 2020 में दुनियाभर में 3,75,000 पुरुषों की मौत प्रोस्टेट कैंसर से हुई थी. 2040 तक इन मौतों में 85 प्रतिशत की वृद्धि होगी. पुरुषों में कैंसर से होने वाली मौत का यह 5वां कारण है. भारत की बात की जाए तो कैंसर के कुल मामलों में प्रोस्टेट कैंसर 3 प्रतिशत है और प्रतिवर्ष 33,000 से 42,000 कैंसर के नए मामले सामने आते हैं.

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प्रोस्टेट क्या होता है

प्रोस्टेट पुरुषों के प्रजनन तंत्र का भाग होता है जो ब्लैडर (मूत्राशय) के नीचे होता है. उम्र के साथ इस का आकार बढ़ने लगता है. सामान्यतया 45-50 की उम्र के बाद पुरुषों में प्रोस्टेट से संबंधित समस्या आती है. जब यह बढ़ने लगता है तो डाक्टर पीएसए टैस्ट कराने की सलाह देते हैं. जांच के बाद ही अगर कैंसर का शक होता है तो आगे और जांच कराई जाती है.

सामान्य कैंसर की तरह प्रोस्टेट कैंसर तब बनता है जब कोशिकाएं सामान्य से अधिक तेजी से विभाजित होती हैं. सामान्य कोशिकाएं तो मर जाती हैं लेकिन कैंसर कोशिकाएं मरती नहीं बल्कि बढ़ती हैं और एक गांठ में बदल जाती हैं जिसे ट्यूमर कहा जाता है. जैसेजैसे कोशिकाएं बढ़ती रहती हैं, ट्यूमर के कुछ हिस्से टूट सकते हैं और आप के शरीर के अन्य हिस्सों (मेटास्टेसिस) में फैल सकते हैं.

प्रोस्टेट कैंसर धीमी गति से बढ़ता है

उम्र बढ़ने के बाद यह बीमारी सामने आती है और यह स्लो ग्रोइंग यानी धीरेधीरे शरीर में बढ़ती है. इस के मामले भारत में पहले कम सामने आते थे और इस की वजह यह मानी जा सकती है कि तब औसत उम्र कम यानी 60 वर्ष तक होती थी. अब लोगों की उम्र बढ़ रही है और वे लंबे समय तक जीते हैं. इस वजह से यह समस्या भी बढ़ने लगी है. जैसेजैसे पुरुषों की उम्र बढ़ती है, प्रोस्टेट कैंसर के मामले सामने आते रहते हैं.

शुरू में इस के लक्षण दिखाई नहीं देते लेकिन निम्न दिक्कतें सामने आने लगें तो सावधान हो जाना चाहिए.

बारबार पेशाब लगना, रात में स्लो फ्लो होना, पेशाब का निकलना, पेशाब में खून निकलना. पेशाब करने में परेशानी होना, वीर्य में खून जाना, बिना प्रयास किए वजन कम होना आदि.

अगर ऐसी परेशानियां सामने आती हैं तो इस के बाद पीएसए टैस्ट कराया जाता है. अगर कैंसर का पता चलता है और वह फैल चुका हो तो कैंसर हड्डियों में चला जाता है. उस के बाद ये समस्याएं भी आ सकती हैं- कमर में दर्द, हड्डी का टूटना, हड्डियों में दर्द होना आदि.

प्रोस्टेट कैंसर के बारे में ब्लड टैस्ट से पता चल जाता है और यह सुविधा ज्यादातर लैब में उपलब्ध होती है. जांच में अगर प्रोस्टेट बढ़ा हुआ हो तो इमेजिंग, अल्ट्रासाउंड और एमआरआई भी होती है. जब 60-75 वर्ष की उम्र में कैंसर का पता चलता है और अगर वह प्रोस्टेट तक ही सीमित हो तो रोबोटिक सर्जरी संभव है. इस से 10-15 साल तक जीवन चल जाता है. लेकिन अगर वह हड्डियों में फैल जाता है तो मुश्किल होती है और उस का इलाज अलग होता है.

जोखिम कारक

प्रोस्टेट कैंसर के खतरे को बढ़ाने वाले कारकों में शामिल हैं-

1 . बड़ी उम्र – जैसेजैसे आप की उम्र बढ़ती है, प्रोस्टेट कैंसर का खतरा बढ़ता जाता है. यह 50 वर्ष की आयु के बाद सब से आम बीमारी है. लगभग 60 फीसदी प्रोस्टेट कैंसर 65 से अधिक उम्र के लोगों में होता है.

2. खानपान – वीगन या शाकाहारी के मुकाबले मांसाहारी लोगों में यह कैंसर होने की आशंका ज्यादा होती है. इस का मतलब यह नहीं है कि वीगन या शाकाहारी को यह नहीं होगा. यह कैंसर पश्चिमी देशों में ज्यादा देखा गया है क्योंकि यह लाइफस्टाइल से संबंधित है जिस में खानपान, जिस में जंक फूड, धूम्रपान, शराब का सेवन आदि शामिल हैं, से कैंसर होने का खतरा बढ़ता है.

3. नस्ल – काले लोगों में अन्य नस्ल के लोगों की तुलना में प्रोस्टेट कैंसर का खतरा अधिक होता है. काले लोगों में प्रोस्टेट कैंसर के आक्रामक या विकसित होने की भी अधिक संभावना होती है. यानी, यदि आप अश्वेत हैं या अफ्रीकी वंश के हैं तो आप अधिक जोखिम में हैं.

4. पारिवारिक इतिहास – कैंसर एक ऐसी बीमारी है जो जेनेटिक भी होती है. यानी, अगर आप के परिवार में किसी को कैंसर है तो आशंका बनी रहती है कि दूसरे सदस्यों को कैंसर हो जाए. यदि आप के परिवार के किसी करीबी सदस्य को प्रोस्टेट कैंसर है तो आप को प्रोस्टेट कैंसर होने की संभावना दो से तीन गुना अधिक होती है. ऐसे में अगर परिवार में किसी को प्रोस्टेट कैंसर रहा है तो परिवार के पुरुष सदस्यों को 45 वर्ष के बाद हर 2 साल में पीएसए की जांच करवा लेनी चाहिए. इस के अलावा स्तन कैंसर का बहुत मजबूत पारिवारिक इतिहास है तो भी प्रोस्टेट कैंसर का खतरा अधिक हो सकता है.

5. मोटापा – जो लोग मोटापे से ग्रस्त हैं उन में स्वस्थ वजन वाले लोगों की तुलना में प्रोस्टेट कैंसर होने का खतरा अधिक होता है.

अन्य संभावित जोखिम कारकों में शामिल हैं-

धूम्रपान.

प्रोस्टेटाइटिस

यौन संचारित संक्रमण (एसटीआई)

खयाल रखने वाली बातें

स्वस्थ खानपान – कैंसर से बचाव के लिए कोई एक आहार नहीं है लेकिन खानपान की अच्छी आदतें आप के स्वास्थ्य में सुधार ला सकती हैं. लाल मांस और जंकफूड से बचें. फलों और सब्जियों से भरपूर स्वस्थ आहार चुनें. विभिन्न प्रकार के फल, सब्जियां और साबुत अनाज खाएं. फलों और सब्जियों में कई विटामिन और पोषक तत्त्व होते हैं जो आप के स्वास्थ्य में योगदान दे सकते हैं. ऐसे खाद्य पदार्थ चुनें जो विटामिन और खनिजों से भरपूर हों ताकि आप अपने शरीर में विटामिन के स्वस्थ स्तर को बनाए रख सकें.

व्यायाम – सप्ताह के अधिकांश दिन व्यायाम करें. व्यायाम आप के समग्र स्वास्थ्य में सुधार करता है, आप को अपना वजन बनाए रखने में मदद करता है और आप के मूड में सुधार करता है. रोजाना थोड़ा समय निकाल कर व्यायाम करने का प्रयास करें.

वजन – स्वस्थ वजन बनाए रखें. यदि आप का वर्तमान वजन सही है तो स्वस्थ आहार चुन कर और व्यायाम कर के इसे बनाए रखने की कोशिश करें. यदि आप को वजन कम करने की आवश्यकता है तो अधिक व्यायाम जोड़ें और प्रतिदिन खाने वाली कैलोरी की संख्या कम करें.

नियमित प्रोस्टेट जांच करवाएं – अपने डाक्टर से पूछें कि आप को अपने जोखिम कारकों के आधार पर साल में कितनी बार जांच करानी चाहिए.

धूम्रपान छोड़ें – तंबाकू उत्पादों से बचें. यदि आप धूम्रपान करते हैं तो इस आदत को शीघ्र छोड़ दें.

मालूम रहे कि मैडिकल साइंस में कैंसर का इलाज सामान्यतया कीमोथेरैपी, रेडिएशन और सर्जरी द्वारा ही की जाती है. इन के अलावा हार्मोन थेरैपी या इम्यूनो थेरेपी का नंबर आता है जो अकसर संतुष्टिदायक रिजल्ट नहीं दे पाते.

इन के अलावा फोकल थेरैपी उपचार का एक नया रूप है जो आप के प्रोस्टेट के अंदर के ट्यूमर को नष्ट कर देता है. यदि कैंसर कम जोखिम वाला है और फैला नहीं है तो आप का डाक्टर इस उपचार की सिफारिश कर सकता है

मुझे हद से ज्यादा पसीना आता है, क्या करूं?

सवाल

गरमी का मौसम आ गया है और मेरी परेशानी यह है कि मुझे हद से ज्यादा पसीना आता है. चेहरे पर, सिर में, पीठ पर, पसीना सब चिपचिपा कर देता है. इस कारण कहीं जाने में मुझे बहुत दिक्कत होती है. मेकअप चेहरे पर टिकता नहीं, देखने में भद्दा लगता है. जब पसीना आ जाता है तो बाल पसीने से गीले हो जाते हैं जिस से हेयरस्टाइल खराब हो जाता है. पीठ गीलीगीली लगती है. क्या करूं, उपाय बताइए.

जवाब

वैसे तो गरमी के मौसम में पसीना आना शरीर के लिए अच्छा होता है, लेकिन हद से ज्यादा आना ठीक नहीं. जैसे कि आप ने कहा कि पसीने की वजह से आप बेहाल हो जाती हैं तो कुछ उपाय अपना कर आप कुछ हद तक अपनी इस परेशानी से नजात पा सकती हैं.

जहां आप को पसीना आता है, घर से बाहर जाने से पहले उस जगह पर बर्फ रगड़ने से पसीना कम आता है. अच्छा रहेगा कि आप अपने खाने में नमक की मात्रा कम कर दें. अधिक से अधिक पानी पिएं ताकि पसीने से बदबू न आए. रोज दिन में एक बार टमाटर का जूस पीने से ज्यादा पसीना नहीं आता.

चेहरे से पसीना और चिपचिपाहट दूर रखने के लिए ठंडक देने वाला फेसपैक का इस्तेमाल कर सकती हैं.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

ब्रह्मांड को जानिए पाखंड को नहीं

राइटर- सैन्नी अशेष

भगवान ने इंसानों को बनाया या इंसानों ने अपनी सहूलियत के लिए भगवानों को गढ़ा, यह सवाल आस्तिकनास्तिक की बहस का मुख्य बिंदु रहता है. ब्रह्मांड में छिपे अनंत रहस्यों के खुलासे के नाम पर धर्म के ठेकेदारों ने भगवानों को गढ़ कर लोगों के दिमाग से पड़ताल और सोचनेसमझने की क्षमता खत्म कर दी है.

ईश्वर के नाम पर दुनियाभर में पाखंड फैला है. ईश्वर को मानना एक प्रकार का कृत्रिम स्वभाव है जो ब्रह्मांडीय नियमों से नहीं, तार्किक, तथ्यात्मक व वैज्ञानिक धर्म के धंधेबाजों के भय, ढोंग, आलस्य, पैसा पाने के षड्यंत्र अथवा सीखी व उधार में मिली हुई मान्यताओं से बना है.

ईश्वर को मानना या उसे ढूंढ़ना एक गहरी आदत तो जरूर है परंतु यह आदत ब्रह्मांड की उपेक्षा करने से विकसित हुई है. इस उपेक्षा से एक ऐसी धार्मिकता अथवा आस्तिकता का जबरदस्त पालनपोषण हुआ है, जो पूर्णतया दिखावटी है.

दुनिया के अधिकांश आस्तिक केवल इसलिए आस्तिक हैं कि बगैर सृष्टि के रहस्यों में रुचि लिए वे उस धर्म और ईश्वर को चुपचाप मानते हैं जिसे उन के धर्म वाले अन्य लाखोंकरोड़ों लोग भेड़चाल में मान रहे होते हैं. इस आस्तिकता के पक्ष में वे धार्मिक ग्रंथों से उदाहरण देते हैं, किसी संतोषदायक मौलिक दृष्टि से नहीं.

इस भेड़चाल में उन्हें अबोध अवस्था में धकेल दिया जाता है और धर्म के नाम पर व्यवसाय करने वाले पंडित, मौलवी, पादरी जम कर ईश्वर की भ्रांति का प्रचार करते हैं.

वे भगवान को मानने या जानने का खूब ही नाटक करते हैं और उस के नाम पर अपने भवन, मंदिर, गढ़, मसजिद, चर्च और मठ बनाते हैं. अन्य धर्मावलंबियों पर आक्रमण करते हैं और इसे अपने ग्रंथों व शास्त्रों द्वारा सही प्रमाणित करते हैं. हमारे सामने ब्रह्मांड का अनंत विस्तार है, अपने सौरमंडल और ब्रह्मांड के संबंध में विचार करें तो युगों से प्रचलित ईश्वर की धारणा हमारे लिए निरर्थक पड़ जाएगी.

कहीं हमारा ईश्वर निरर्थक न पड़ जाए, अब तक पोषित पांडित्य का आत्मविश्वास ढह न जाए, इस भय से धर्म ने अपना प्रचारतंत्र तेज कर रखा है. लोग ईश्वर से चिपके रहें, कहीं इस दुनिया को तर्क की निगाह से देखनेजानने के चक्कर में उन के स्वार्थ फीके न पड़ जाएं, यह डर आज और गहरा होता जा रहा है और ईश्वर की बात को धर्म, जाति, नस्ल से जोड़ा जा रहा है.

मनुष्य स्वभाव से ही उधार के अंधविश्वासों व पांडित्य से मुक्ति चाहता है. ऐसा न होता तो आज ब्रह्मांड के कोनों पर मनुष्य की दृष्टि न पड़ती, उस की आंखों में हर बार आशा के नए नक्षत्र न टिमटिमाते. न्यूटन और आईंस्टीन न बनते.

आखिर मनुष्य यह दावा क्यों करे कि उस ने किसी सर्वशक्तिमान सत्ता का पता कर लिया है? क्यों न वह सृष्टि के रहस्यों में से गुजरते हुए पहले अपनी मौजदूगी के कारणों का पता लगाए? हर बार जो रहस्य बच जाए उसे भयभीत हो कर नहीं, आनंदित हो कर ही स्वीकार करना मनुष्य की प्रकृति है.

वह जन्म व जीवन को तो स्वीकार करता है पर मृत्यु से डरा रहता है. बातबात पर वह ‘जैसी ईश्वर की इच्छा’ जैसी मंजूरी तो देता है किंतु मृत्यु के अवसरों या संभावनाओं पर विचलित और भावुक हो उठता है. बहुत सीमा तक उस का यह डर स्वाभाविक तो जान पड़ता है किंतु इस के पीछे उसे यहांवहां से थोपी गई आत्मा, परमात्मा या पुनर्जन्म की ऐसी धारणाएं होती हैं जो उस के अवचेतन को सहमत नहीं कर पाती हैं.

भगवान व धर्म का फंदा

धार्मिक समुदायों द्वारा ईश्वर को कितना भी बड़ा, उपकारी, दयालु, न्यायप्रिय और सहायक बताया जाता हो, लेकिन फिर भी दूसरे समुदाय से भयभीत हो कर उन का स्वरूप मानवताविरोधी, बर्बर, हिंसक और विध्वंसक हो जाता है.

धर्म व ईश्वर काल्पनिक मान्यताएं हैं जिन्होंने मानव बुद्धि को बुरी तरह जकड़ रखा है. बुद्ध महावीर, गांधी, ईसा, मुहम्मद, कबीर, मीरा, सुकरात, रविदास जैसे सैकड़ों लोगों ने अपना धर्म व ईश्वर न तो दूसरों से ले कर बनाया और न ही वे दूसरों को अपनी धार्मिकता दे सके. उन से केवल प्रेरित हुआ जा सकता था. जो निजी ढंग की प्रेरणा लेने में चूक जाते हैं वे किसी एक ऐसे महान व्यक्ति को अपना खुदा, पैंगबर, भगवान या देवदूत मान लेते हैं जिसे उन के आसपास के लोग मान रहे होते हैं.

कितनी हास्यास्पद बात है कि दुनिया में अधिकांश बच्चों के गले में केवल उसी ‘भगवान’ या ‘धर्म’ के फंदे को पहनाया जाता है जिस का फंदा मांबाप के गले में कसा होता है. वास्तव में ये फंदे मिल्कियत के सुबूत हैं कि जिस के गले में हम ने अपने धर्म का फंदा डाला वह हमारी संपत्ति हुआ.

इस निरंतर खूंटे के बंधन और झूठे धर्म के प्रचारतंत्र के रहते हुए भी जरा से बुद्धिमान व्यक्ति अपनी जान की बाजी लगा कर अपना लौजिकल और वैज्ञानिक रास्ता बनाने निकल पड़ते हैं. मानना पड़ता है कि हर मनुष्य को लंबे समय तक अंधा नहीं बनाया जा सकता. मौका मिलते ही वह मूर्ख बने रहने से इनकार कर देता है. हां, अगली पीढ़ी फिर उसी पाखंड में कूद पड़े तो बड़ी बात नहीं.

जिन समाजों में धर्म के पाखंडों के दैनिक, साप्ताहिक, मासिक या वार्षिक अभ्यास नहीं किए जाते, वहां मृत्यु, ईश्वर और धर्म डराने वाली नहीं, अध्ययनभर की चीजें रह जाती हैं. कुछ क्षेत्रों में आज भी लोग इस बात पर हैरान होते हैं कि पढ़ीलिखी सभ्यताएं किसी भगवान और किसी धर्म को ले कर बेहद गंभीर, आक्रामक, भावुक या समर्पित हैं, उन्होंने सामाजिक कुरुतियों तक को धार्मिकता मान रखा है.

ब्रह्मांड के रहस्यों को समझते हुए उस का आनंद लेने वालों को अकसर इसीलिए नास्तिक कह दिया जाता है कि वे सुविधा से मिली भगवान की धारणा को ले कर न तो झूमते हैं, न विचलित होते हैं. वे ईश्वर और ब्रह्मांड के पारस्परिक संबंधों को ले कर व्यक्त विचारों का अध्ययन अवश्य करते हैं. यह आवश्यक तथा स्वाभाविक भी है.

‘ब्रह्मांड को जानना’ उस के अंतिम रहस्य को पा लेना नहीं है, बल्कि मनुष्य की खोजी कोशिश और अपार उत्सुकता को व्यवहार में लाना है. इस के उलट, ‘ईश्वर’ को जानना उसे मुफ्त में जेब में रख लेने जैसा काम है. मजे की बात तो यह है कि कितने ही लोग ईश्वर को मानते हैं, ओढ़तेलपेटते हैं, उस के लिए जान देने को तैयार रहते हैं, लेकिन उन के इन ईश्वरों का मिलान किया जाए तो कहीं कोई समानता नजर नहीं आती, बल्कि झगड़ालू स्थिति दिखाई पड़ती है.

इन ईश्वरों के ग्रंथों में बेहूदी, झूठी, मनगढं़त बातें भरी पड़ी हैं, पर इन धर्मों के दुकानदार उन की चर्चा ही नहीं करने देते. भगवान या धर्म के चालू शक्ल के लिए जो व्यक्ति या समूह प्राण देते या लेते हैं वे मानवीय मूल्यों के लिए अकसर कुछ नहीं करते.

गांधी, भगत सिंह और उन के पूर्व या बाद के कितने ही लोग मानवता, बराबरी, नैतिकता के लिए मरे, किसी ईश्वर या धर्म को ले कर नहीं. सुकरात, ईसा, दयानंद आदि कितने ही लोगों को जहर या सूली इसलिए मिली कि वे प्रचलित सड़ी हुई धर्म की दुकानों के प्रति विद्रोह कर रहे थे.

ऐसे लोग हर समुदाय में पैदा हुए. ऐसा नहीं कि इन लोगों के सभी विचार सही थे पर कुल मिला कर ये सभी उस मार्ग पर चलना शुरू कर चुके थे जो दकियानूसी दुकानदारी वाले धर्म व ईश्वर को ललकारते हैं जबकि ब्रह्मांड के कणकण से मित्रवत व्यवहार करने की प्रेरणा मिलती है, जियो और जीने दो का सिद्धांत निकलता है.

ज्ञान मुरदा नहीं

ज्ञान या विज्ञान पुरानी सड़ीगली सोच व कहानियों से भरी पोथियों में हो ही नहीं सकता. यह निरंतर विकासमान है और अंतिम नहीं है. कुछ लोगों ने हजार या 2 हजार या 5 हजार साल पहले जो सोचा, कहा या लिखा, वही सत्य होता तो आज संसार का स्वरूप इतना भिन्न न होता. हम वहीं के वहीं होते.

ज्ञान मुरदा नहीं होता. ज्ञान तो ताजा और मौजूद होता है, ओस की बूंद सा होता है. पलपल में यहां नए नक्षत्र, आकाशगंगाएं और सौरमंडल देखे जाने लगते हैं, यदि मनुष्य को कृत्रिम ज्ञान के  मतलब से बाहर आने दिया जाए. ब्रह्मांड की चर्चा न कर के ब्रह्मांड की चर्चा करने के नाम पर ब्राह्मण, पुजारी, पादरी, मुल्ला की चर्चा सदियों से की जा रही है क्योंकि उस के नाम पर विशाल मंदिर, पिरामिड, मसजिदें, चर्च, मठ बनाए जा सकते हैं, जिस को दूसरों की कमाई पर मौज कर रहे लोग अपनी तर्जनी पर पूरे समाज को चलाते हैं.

अनंत ब्रह्मांड की खोज करने वाले एक तरफ तारों की ओर जा रहे हैं तो दूसरी ओर छोटे से छोटे अणु को चीर रहे हैं. ब्रह्मांड की सोच वाले समाज को अगड़ोंपिछड़ों, पूजनीयों, अछूतों, कालोंगोरों, अमीरीगरीबों में बांटते हैं.

आज दुनिया के सारे हिंसक विवाद ईश्वर से जुड़े हैं. ईश्वर दयालु नहीं, जानलेवा है. हाल में रूसयूक्रेन विवाद में और्थोडौक्स क्रिश्चियन धर्म का भी एक बड़ा गुप्त हाथ है. हाल के ही कोविड का टीकाकरण खोजा गया, उस से मुकाबला किया गया. ईश्वर के भक्त तो अपने दड़बों में जा छिपे थे जबकि वैज्ञानिक, डाक्टर, किसान अपने काम पर डटे रहे.

Summer Special: फिट रहने के लिए आजमाएं ये 15 टिप्स

गरमी का मौसम बोरिंग और थकान वाला होता है, लेकिन इसे अच्छा बनाने और खुद को गरमी से बचाने के लिए कुछ फिटनैस टिप्स अपनाने की जरूरत होती है ताकि आप कूल रह सकें. इस बारे में फोक फिटनैस की कोफाउंडर आरती पांडे बताती हैं कि कुछ सावधानियां बरतने से इस मौसम में फिट रहा जा सकता है, मसलन:

– इनडोर वर्कआउट इस मौसम में सब से फायदेमंद रहता है. सुबह जल्दी उठ कर 30 से 40 मिनट तक ठंडे वातावरण में वर्कआउट करने से स्वास्थ्य अच्छा रहता है. इस से न तो आप को गरमी लगेगी और न ही टैन होने का डर रहेगा.

– इस मौसम में गु्रप ऐक्टिविटी पर अधिक ध्यान दें. इस से फिट रहने के साथसाथ एक हैल्दी कंपीटिशन भी बना रहता है.

– इस मौसम में कपल्स अपने बच्चों के साथ घर पर अधिक समय बिताएं. इस से कैलोरी बर्न होने के साथसाथ मजा भी बना रहेगा.

– इस मौसम में पानी का सेवन अधिक करें, जब पारा ऊंचाई पर पहुंचता है तो अधिक पानी या तरल पदार्थ का सेवन जरूरी हो जाता है. ठंडे पेय, बटर मिल्क, जूस, मिल्क शेक्स आदि इस मौसम में अधिक गुणकारी होते हैं.

– मौसमी फल अधिक लाभदायक होते हैं, जैसे तरबूज, टमाटर, खीरा आदि. इन में विटामिन और फाइबर की मात्रा अधिक होती है, जो पाचनक्रिया को सही बनाए रखती है

– शोध बताते हैं कि वर्कआउट के पहले और बाद में फल खाने पर मूड को अच्छा बनाने में मदद मिलती है.

– गरमी के मौसम में बाहर न जा कर इंडोर खेल जैसे बैडमिंटन, टेनिस, स्क्वैश आदि खेलें. ये सभी खेल स्वास्थ्य को अच्छा बनाए रखते हैं.

– इस मौसम में तैरना सब से अधिक लाभदायक होता है. इस से शरीर की पूरी फिटनैस बनी रहती है, क्योंकि तैरने से शरीर की मसल्स ऐक्टिव हो जाती हैं.

– स्विमिंग स्ट्रैस को कम करने में भी सहायक होती है. अगर इसे आप अपने परिवार के साथ करते हैं तो इस का लाभ और अधिक होता है. मगर तैरने से पहले अपने बदन पर ‘सन टैन लोशन’ लगाना न भूलें.

– गरमी में 10-12 गिलास पानी जरूर पीएं.

– गरमी के मौसम में खानपान पर खास ध्यान दें. खाने में हरी सब्जी, दाल, चावल, दही, अचार, पापड़ आदि जरूर लें. शाकाहारी व्यंजन गरमी में अधिक लाभदायक होते हैं. बासी व तली चीजें, मिर्चमसालों वाले और चटपटे भोजन से परहेज करें.

– हलके रंग के कौटन के कपड़े इस मौसम में अधिक पहनें ताकि ठंडक महसूस हो.

– धूप में जाना हो तो धूप के चश्मे, टोपी, छाते का प्रयोग करें. ताकि धूप आप के बदन को छू न पाए.

– जब भी बाहर से घर आएं, एसी या कूलर के आगे तुरंत न बैठे. थोड़ी देर तक सामान्य तापमान में बैठें.

– लंच कर के तुरंत बाहर न निकलें. लू की चपेट में आने से डायरिया हो सकता है.

– बाहर मिलने वाले जूस का सेवन कतई न करें. इस मौसम में वातावरण में कुछ ऐसे बैक्टीरिया ऐक्टिव रहते हैं जो लिवर इन्फैक्शन का कारण बन सकते हैं.

पांच साल बाद: क्या स्निग्धा एकतरफा प्यार की चोट से उबर पाई?

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