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सुप्रीम कोर्ट ने क्यों कहा ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’

दिल्ली शराब घोटाले में आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया को सुप्रीम कोर्ट ने 17 माह के बाद जमानत दी. जमानत देते कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वतंत्रता के पहलू को सामने रखते निचली अदालतों को तमाम नसीहत भी दी. सवाल उठता है कि तमाम फैसलों में इस तरह दी जाने वाली नसीहतों को निचली अदालतें किस तरह से लेती हैं? जमानत देने में अदालतों को इतनी दिक्कत क्यों होती है? आरोपी देश छोड़ कर भाग नहीं रहा होता है. जमानत आरोपी का अधिकार है. अदालतें जमानत देने में संकोच क्यों करती हैं?

मनीष सिसोदिया जैसे लोगों पर तो हो हल्ला खूब मचता है. इन के पास अच्छे वकीलों की कमी नहीं होती है. पैसा कोई समस्या नहीं है तब यह हालत है. देश की जेलों में तमाम लोग जमानत मिलने की प्रतीक्षा में रह रहे हैं. इन की बात सुनने वाला कोई नहीं है. हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक जाना इन की आर्थिक क्षमता से बाहर होता है. जब नेता सत्ता में होते हैं तो उन को यह परेशानी क्यों नहीं पता चलती कि जमानत के लिए आरोपी का घर द्वार बिक जाता है. जमानत का इंतजार कर रहे हर आदमी के पास नेताओं की तरह मंहगे वकील और पैसा नहीं होता है. वह जमानत को ले कर समाज सुधार का कोई कानून क्यों नहीं बनाते?

‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’

हाई कोर्ट से जमानत के लिए जाने का कम से कम खर्च 3 से 5 लाख के बीच आता है. सुप्रीम कोर्ट में यह 5 से 10 लाख कम से कम हो जाता है. आम आदमी किस तरह से अपना मुकदमा वहां ले कर जाए. खासतौर पर तब जब घर का कमाने वाला ही जेल में जमानत की राह देख रहा हो. जमानत के अधिकार पर केवल सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी से काम नहीं चलने वाला. इस को ले कर न्याय प्रणाली में एक स्पष्ट व्यवस्था होनी चाहिए जिस से कम से कम समय जमानत के इंतजार में लोगों को जेल में रहना पड़े.

सुप्रीम कोर्ट ने मनीष सिसोदिया को जमानत देते वक्त कहा कि जमानत को सजा के तौर पर नहीं रोका जा सकता. निचली अदालतों को यह समझने का समय आ गया है कि ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’. मुकदमे के समय पर पूरा होने की कोई संभावना नहीं है. सिसोदिया को लंबे दस्तावेजों की जांच करने का अधिकार है.

अदालत ने यह देखने के बाद याचिका मंजूर की कि मुकदमे में लंबी देरी ने मनीष सिसोदिया के शीघ्र सुनवाई के अधिकार का उल्लंघन किया है. कोर्ट ने कहा कि शीघ्र सुनवाई का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वतंत्रता का एक पहलू है. बेंच ने कहा कि मनीष सिसोदिया को शीघ्र सुनवाई के अधिकार से वंचित किया गया है.

हाल ही में जावेद गुलाम नबी शेख मामले में भी हम ऐसे ही निपटे थे. हम ने देखा कि जब अदालत, राज्य या एजेंसी शीघ्र सुनवाई के अधिकार की रक्षा नहीं कर सकती हैं तो अपराध गंभीर होने का हवाला दे कर जमानत का विरोध नहीं किया जा सकता है. अनुच्छेद 21 अपराध की प्रकृति के बावजूद लागू होता है.

कानून बना कर समाज सुधार से भागती सरकारें

मनीष सिसोदिया की जमानत पर सांसद संजय सिंह ने कहा कि “दिल्ली का नागरिक खुश है. सब मानते थे कि हमारे नेताओं के साथ जोर जबरदस्ती और ज्यादती हुई है. हमारे मुखिया अरविंद केजरीवाल और सत्येंद्र जैन को जेल में रखा है. वो भी बाहर आएंगे. केंद्र की सरकार की तानाशाही के खिलाफ जोरदार तमाचा है. ईडी ने कोई न कोई जवाब दाखिल करने का बहाना बनाया. एक पैसा मनीष सिसोदिया के घर, बैंक खाते से नहीं मिला. सोना और प्रौपर्टी नहीं मिला. दिल्ली के विधानसभा चुनाव के लिए और आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता के लिए खुशखबरी है. हमें ताकत मिलेगी.”

संजय सिंह का बयान राजनीतिक है. प्रधानमंत्री के साथसाथ उन को न्याय प्रणाली से सवाल करना चाहिए कि जमानत देने में हिचक क्यों होती है ? संजय सिह और आम आदमी पार्टी सत्ता में हैं जहां कानून बनते हैं. उन को राज्यसभा में यह बात उठानी चाहिए कि जमानत के अधिकार में रोड़ा न लगाया जा सके. असल में सरकारों के साथ यह दिक्कत होती है कि वह शोषक होती है. कानून के जरिए समाज सुधार के काम नहीं करती. संजय सिंह और आम आदमी पार्टी आज भी दूसरे आरोपियों की चिंता नहीं कर रही जो जमानत के इंतजार में जेल में हैं. वह केवल अपनी पार्टी के लोगों के लिए आवाज उठा रहे हैं.

आम आदमी पार्टी जब विपक्ष में थी तब उस के नेता अरविंद केजरीवाल कहते थे कि ‘दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को पहले जेल में डालो फिर मुकदमा चलाओ. सब कबूल कर देंगी. कहां कैसे भ्रष्टाचार और घोटाले हुए हैं.’ अब जब उन कर यही हथियार चल पड़ा तो समझ में आ रहा कि जेल, जमानत, सुनवाई में देरी, ईडी और सीबीआई क्या करती है उस का क्या प्रभाव पड़ता है. जो पार्टी सत्ता में हो तो उसे इस तरह के कानून बनाने चाहिए कि समाज सुधार हो सके. जनता को राहत मिले.

जमानत का अधिकार एक बड़ा मुद्दा है. सुप्रीम कोर्ट बारबार निचली अदालतों को प्रवचन देती है लेकिन निचली अदालतें कहानी की तरह सुन कर भूल जाती है. ऐसे में कानून बनाने वाली सरकारों की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह कि ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’ के सिद्वांत को लागू कराए. जिस से जमानत के लिए लोगों को अपना घर द्वार न बेचना पड़े. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक पंहुच सकने वाले आरोपियों को भी जल्दी जमानत मिल सके.

17 माह बाद मिली जमानत

सुप्रीम कोर्ट ने कथित दिल्ली शराब घोटाले में मनीष सिसोदिया की जमानत पर फैसला सुना दिया. मनीष सिसोदिया को सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दे दी है. 17 माह के बाद वह जेल से बाहर आ रहे हैं. उन्हें 10 लाख के निजी मुचलके पर जमानत मिल गई है. मनीष सिसोदिया पर दिल्ली आबकारी नीति में गड़बड़ी के आरोप हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने कुछ शर्तों के साथ जमानत दी है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार, सिसोदिया को अपना पासपोर्ट जमा करना होगा, इस का मतलब सिसोदिया देश छोड़ कर बाहर नहीं जा सकते. मनीष सिसोदिया को हर सोमवार को थाने में हाजिरी देनी होगी.

आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने इस फैसले का स्वागत करते कहा है कि “यह सत्य की जीत हुई है. पहले से कह रहे थे इस मामले में कोई भी तथ्य और सत्यता नहीं थी. जबरदस्ती हमारे नेताओं को जेल में रखा गया. क्या भारत के प्रधानमंत्री इस 17 महीने का जवाब देंगे

जिंदगी के 17 महीने जेल में डाल कर बर्बाद किया ? जब ‘जेल नहीं, जमानत ही नियम है’ का सिद्वांत लागू होगा तो किसी के जीवन का कीमती समय जमानत के इंतजार में जेल में नहीं कटेगा.”

30-35 की उम्र में फीमेल फ्रैंड्स होने के हैं ढेरों फायदे

आप 30 -35 साल की हैं और शादी नहीं हुई या आप ने अपनी मर्जी से नहीं की हो तो समाज को और खुद को हैंडल करने के अपनी लाइफ एंजौय करने के कई तरीके हैं. अपनी हमउम्र लड़कियों, शादी शुदा, डाइवोर्सी, कुंवारी लड़कियों से दोस्ती करें. ऐसा करने के अनेक फायदे भी हैं.

महिला मित्र के साथ आप एकदूसरे के घर बेफिक्र हो कर स्टे करने के लिए जा सकती हैं, शहर से बाहर बिना किसी टेंशन के आउटिंग के लिए जा सकती हैं. सेम जैंडर के साथ यानी महिलाओं के साथ दोस्ती से अपोजिट सैक्स के चक्कर में फंसने का डर नहीं होता. किसी लड़की की बजाय अगर आप की दोस्ती किसी पुरूष के साथ है तो समाज के डर से आप को घर से बाहर घूमने जाने पर अलगअलग रूम लेने होंगे,समाज की नजरों से बच कर रहना होगा.

अगर मूवी देखने जा रहे हैं तो लाइन में लग कर टिकट कौन खरीदेगा इस बारे में सोचना पड़ेगा,अगर बाहर लंच या डिनर के लिए साथ गए तो खाने का बिल कौन भरेगा, गाड़ी का टायर पंचर हो गया तो टायर कौन बदलेगा यह सब सोचना पड़ेगा. जबकि अगर वही दोस्ती महिला के साथ होगी तो सब काम मिल बांट कर होंगे, समाज की नजरों और सवालों से बचने की टेंशन नहीं होगी. सारी फीमेल गैंग मिल कर सारे काम एक साथ करेगी और फुल औन मौज मस्ती होगी.

धर्म और समाज के कटाक्षों की चिंता न करें

हमारे टिपिकल भारतीय समाज के मुताबिक लड़कियों को 24-25 तक शादी कर लेनी चाहिए और 30 की उम्र तक उन का कम से कम एक बच्चा तो हो ही जाना चाहिए. लेकिन अगर कोई लड़की ऐसा न कर पाए या न करने का चुनाव करे तो समाज उसे कटघरे में खड़ा कर के उस से रोज 10 तरह के सवाल करता है. लड़कियों को शादी कब करनी चाहिए, बच्चे कब और कितने करने चाहिए, उस के लिए ये सारे फैसले हमेशा से समाज के लोग ही करते आए हैं. लड़की की मर्जी जानना कोई जरूरी नहीं समझता. लेकिन वे लड़कियां जो आज अपने लिए फैसले ले रही हैं समाज और धर्म उन पर भी उंगलियां उठाने और उन्हें समाज से अलग करने से बाज नहीं आता. कई सामाजिक आयोजनों में अधिक उम्र की अविवाहित लड़कियों को हेय दृष्टि से देखा जाता है, उन्हें आमंत्रित नहीं किया जाता ऐसे में 30-35 वर्ष की अविवाहित लड़कियां अपनी खुशी के आयोजनों की प्लानिंग खुद करें और धर्म और समाज के कटाक्षों की बिल्कुल चिंता न करें.

आंटियों की गौसिप व सवालों की परवाह न करें

आज की लड़कियां 30 की उम्र में में अपने लिए मिस्टर परफैक्ट खोजने के बजाय अपनी पर्सनल ग्रोथ कर ध्यान दे रही हैं. किसी दूसरे को खुद के लिए चुनने, उसे खुद पर हावी होने देने से पहले खुद को समझ रही हैं. नोएडा की 32 वर्ष की दीपा एक मल्टीनैशनल कंपनी में उच्च पर कार्यरत है. उस का कहना है, ‘बेटा, तुम्हारी उम्र बढ़ती जा रही है. तुम कब शादी कर रही हो? यह मैं अपने पड़ोस की आंटियों से हमेशा सुनती रहती हूं. समाज के हिसाब से तो इतनी उम्र में मुझे शादी और बच्चे दोनों कर लेने चाहिए थे लेकिन मेरे लिए शादी कर के किसी के साथ घर बसाने से ज्यादा जरूरी कैरियर में सैटल होना है और मैं अपनी महिला मित्रों के साथ अपनी लाइफ बहुत अच्छे से एंजौय कर रही हूं और यह निर्णय ले कर मुझे अपनी ताकत को पहचानने का मौका मिला है. शादी न करना मेरे लिए बहुत एंपावरिंग रहा है. इस उम्र में सिंगल रहना मेरे लिए खुद को, अपने सपने, अपनी सीमाओं को जानने का मौका है. मैं ने सोलो एडवेंचर, पर्सनल ग्रोथ को चुना है. किसी के साथ अब तक सैटल न होना मेरी अहमियत को कम नहीं करता है. यह मेरे जीवन का एक निर्णय है, जिस में मुझे खुद की ताकत को पहचानने का मौका मिला है.’

सिंगल महिलाएं दुखी होने की बजाय खुश होने के अवसर तलाशें

लाइफस्टाइल जर्नलिस्ट श्रीमती पियू कुंडू ने भारत की सिंगल महिलाओं पर एक किताब लिखी ‘स्टेटस सिंगल’ जिस में उन्होंने बताया है कि भारत में 74.1 मिलियन से भी अधिक महिलाएं सिंगल हैं. वे या तो तलाक ले चुकी हैं, विधवा हैं या अलग रह रही हैं या फिर किन्हीं कारणों से उन्होंने शादी नहीं की. कुंडु भी अपनी किताब में सुझाव देती हैं कि सिंगल महिलाएं दुखी होने की बजाय खुश होने के अवसर तलाशें और जीवन को आनंदपूर्ण बनाएं.

सिंगल होने का मतलब यह नहीं कि जीवन अधूरा है

30-35 वर्ष की अनमैरिड लड़कियां के लिए खुश रहने के लिए सब से जरूरी है खुद को प्राथमिकता देना, खुद की खुशियों पर फोकस करना. आप की खुशियां समाज के रवैये पर निर्भर नहीं रहनी चाहिए और किसी और के लिए अपनी इच्छा और अपनी प्रायोरिटी को कभी भी छोड़ना नहीं चाहिए. यह बात दिमाग में अच्छी तरह से बैठा लें कि यदि आप सिंगल है, तो इस का मतलब यह नहीं कि आप का जीवन अधूरा है. 30-35 वर्ष की अनमैरिड लड़कियां अकेले रहने से न डरें, जिज्ञासु बनें तथा अपने पैशन को फौलो करें. आप को कभी भी अकेलापन नहीं लगेगा और फिर भाई बहन, दोस्त तो हैं ही.

भय बिनु होत न प्रीति : पुत्र मोह में अंधे पिता के कारगुजारियों की कहानी

लेखिका – संयुक्ता त्यागी

“मुबारक हो, बेटा हुआ है.”

नर्स ने आलोक की गोद में बच्चे को देते हुए कहा. आलोक ने अपने नवजात बेटे को गोद में लेने‌ के लिए हाथ आगे बढ़ाए तो आंखों से आंसू बह निकले. पिता बनने की खुशी हर आदमी के लिए खास होती है लेकिन आलोक के लिए ‘बहुत खास’ थी. गोद में ले बेटे को एकटक देखता रहा.

चेहरे पर संतुष्टिभरी मुसकराहट खिल गई और उस ने बेटे को सीने से लगा लिया. मन ही मन खुद से वादा किया कि मैं सारी दुनिया की ख़ुशी अपने बच्चे को दूंगा, वह भी बिना मांगे.

आलोक और वाणी की शादी को 8 साल बीत चुके थे लेकिन वे संतानसुख से वंचित थे. इन 8 सालों में उन दोनों ने न जाने कितने डाक्टर बदले और कितने ही मंदिरों की चौखटों पर माथे रगडे, अनगिनत मिन्नतें, हवनयज्ञ, जिस ने जो उपाय बता दिया, वह किया. कोई फायदा न हुआ.

रिश्तेदार तरहतरह के उपायउपचार बताने के साथ ही कभी सामने तो कभी पीछे ताने मारने से भी नहीं चूकते थे. कोई सहानुभूति के नाम पर हेयदृष्टि से देखता तो कोई अपने बच्चों को वाणी से दूर रखने की कोशिश करता. आलोक और वाणी सब समझने के बाद भी कुछ न बोलते, बस, खून का घूंट पी कर रह जाते. वाणी ने दबी आवाज में बच्चा गोद लेने के लिए कहा तो परिवार में बवाल मच गया.

‘पता नहीं किस का बच्चा होगा?’

‘कौन सी बिरादरी का होगा?’

‘अगर बच्चा लेना ही है तो रिश्तेदारी में से ही लो.’

एकदो धनलोलुप रिश्तेदारों ने तो अचानक उन से मेलजोल बढ़ाना भी शुरू कर दिया. आलोक और वाणी सब समझते थे, इसलिए उन्होंने रिश्तेदारों का बच्चा गोद लेने से साफ़ मना कर दिया. इस के बाद जो ताने दबी जबान में दिए जाते थे वो मुंह पर मिलने लगे.

‘बांझ है, हम तो तरस खा कर अपना बच्चा दे रहे थे लेकिन एटिट्यूड तो देखो ज़रा, हूंह, हमें क्या, रहो ऐसे ही बेऔलाद.’

वाणी आलोक के सीने से लग रो लेती लेकिन किसी को पलट कर जवाब न देती. उस वक्त दोनों ने संतान की उम्मीद छोड़ दी. लेकिन ऊपर वाले ने किस के लिए क्या सोचा होता है, यह कोई जानता तो जिंदगी कितनी आसान लगती.

इतने बरस के इंतज़ार के बाद वाणी की प्रैग्नैंसी की खबर ने रेगिस्तान से तपते मन को शीतल कर दिया था. पूरे 9 महीने आलोक ने वाणी का हद से ज्यादा ध्यान रखा. रैगुलर चैकअप, खानपान, मूड स्विंग आदि सब को संभालता आलोक एकएक दिन गिन रहा था. वहीं रिश्तेदारों के मुंह पर ताले लग गए थे.

आलोक और वाणी की सारी दुनिया अब उन के बच्चे तक सिमट गई थी. जिस बच्चे के लिए उन्होंने सालों तपस्या की थी वह अब उन के सामने था. बड़े चाव से नाम रखा ‘शिखर’.

आलोक ने सारा घर खिलौनों से भर दिया. सोतेजागते, बस, शिखर ही उस के दिमाग में रहता. जितने समय घर में रहता, बेटे को गोद में रखता, इस बात पर अकसर वाणी से उस की बहस भी हो जाती.

“आलोक, शिखर को हर वक्त गोद में रखोगे तो यह चलना कैसे सीखेगा?”

“चलने लगेगा. मैं अभी इसे नीचे नहीं छोड़ूंगा, कहीं चोट लग गई तो?”

वाणी, आलोक के इस रवैए से खीझ जाती लेकिन आलोक का प्यार करने का यही तरीका था. नतीजा यह हुआ कि शिखर ने चलना देर से शुरू किया और अपने हाथ से खाना तो उसे 9 साल की उम्र में आया.

“मम्मा, आज मैम ने मुझे डांटा.”

“क्यों?”

“मैं ने सान्या को धक्का दिया था,” कह कर वह शरारत से मुसकरा दिया.

उस की बात से वाणी को बहुत तेज गुस्सा आया तो आलोक ने हंस कर बात टाल दी, “मैं कल तुम्हारी टीचर से मिल कर आता हूं. ऐसे कैसे डांट सकती हैं मेरे क्यूट से बच्चे को.”

“आलोक, यह गलत है. शिखर ने गलती की है और तुम उसे शह दे रहे हो.”

आलोक ने वाणी की बात अनसुनी कर शिखर को गोद में उठा लिया.

वक्त अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रहा था और शिखर भी बड़ा होने लगा. आलोक बेटे के मुंह से निकली हर बात पूरी करता, फिर वह जायज़ हो या नाजायज़. ऐसा नहीं था कि वाणी अपने बेटे को कम प्यार करती थी लेकिन वह समझती थी कि अच्छी परवरिश के लिए सख्ती भी जरूरी है और आलोक को भी समझाती लेकिन आलोक न तो खुद शिखर को कुछ कहता और न ही वाणी को कहने देता. आलोक के इसी रवैए के कारण 14 साल का शिखर एक जिद्दी और बिगड़ैल किशोर बन गया.

अपनी जिद मनवाने के लिए उसे बहुत ज्यादा कोशिश नहीं करनी पड़ती थी. जिस दोस्त के पास जो चीज देख लेता वही उस को भी चाहिए होती थी. अगर कभी वाणी मना कर देती तो शिखर जोरजोर से चिल्लाता और हंगामा खड़ा कर देता क्योंकि उसे तो बचपन से ही मन की करने की आदत थी. वाणी के लिए यह सब बरदाश्त से बाहर था लेकिन आलोक उसे कुछ कहने नहीं देता. सच तो यह था कि आलोक अब खुद भी शिखर के जिद्दी स्वभाव के चलते अंदर ही अंदर परेशान था लेकिन धृतराष्ट्र की तरह पुत्रमोह में बंधा था, ऐसा मोह संतान का सर्वनाश करता है, यह बात उस की समझ में नहीं आ रही थी.

आज शिखर ने स्कूल से वापस आते ही स्कूलबैग एक तरफ़ फेंक, जूते उतारते हुए फरमान जारी किया, “मम्मा, मुझे मोबाइल चाहिए.” उस के स्वर में रिक्वैस्ट नहीं और्डर था.

वाणी ने शिखर को पलट कर देखा और खाना लगाते हुए ही बोली, “तुम्हें फोन की क्या जरूरत है?”

“मेरे सब दोस्तों के पास फोन है, एक मेरे ही पास नहीं है.”

“ठीक है, मेरा पुराना फोन रखा है, उसे ले लेना.”

“पुराना? क्या बोल रही हो, मैं पुराना फोन यूज़ करूंगा? मुझे नया फोन चाहिए,” रोब के साथ चिल्लाते हुए वह बोला.

“शिखर…”

“रहने दो मम्मा, मैं पापा से बात कर लूंगा. आप तो मुझे प्यार ही नहीं करतीं,” वाणी की बात बीच में ही काट शिखर पैर पटकता हुआ अपने कमरे में चला गया.

वाणी ने उस से बहस करना ठीक नहीं समझा.

पिछले कुछ समय से खर्चें बढ़ गए थे. नया मकान लिया था और कार की इंस्टौलमैंट भी जाती थी, ऐसे में किसी और ख़र्च की गुंजाइश नहीं थी.

शाम को आलोक के घर में घुसते ही शिखर ने फिर वही बात छेड़ दी. आलोक ने भी उसे पुराना फोन लेने को कहा. लेकिन शिखर कहां मानने वाला था.

“पापा, बता रहा हूं, नया फोन चाहिए, वह भी आईफोन.”

आलोक पहली बार किसी बात के लिए शिखर को मना करते हुए बोला,

“नहीं बेटा, अभी मैं इतना खर्चा नहीं कर सकता. नया फोन कुछ महीने बाद दिलवा दूंगा, तब तक पुराने फोन से काम चला लो.”

शिखर के लिए यह अविश्वसनीय था कि पापा किसी बात के लिए उसे मना कर दें. वह आंखें फाड़ कर आलोक को देख रहा था. गुस्से से शरीर कांप रहा था, चेहरा लाल हो गया था.

“मतलब, आप मुझे फोन नहीं दिलवा रहे हो?”

“बेटा, मेरी बात तो समझो, मैं मजबूर हूं.”

वाणी वहीं खड़ी सब देख रही थी और उसे आलोक का बेटे के सामने इस तरह मजबूरी जताना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था. इस से पहले वह कुछ कहती, शिखर चिल्लाया,

“पापा, अगर कल मेरा फोन नहीं आया तो…”

“तो?” आलोक ने थूक गटकते हुए कहा.

“मैं सुसाइड कर लूंगा, पापा.”

आलोक सुन्न हो गया. उस का 14 साल का वह बेटा जो उस की जिंदगी का केंद्र था, उसे मरने की धमकी दे रहा था. सहसा आंखों के सामने आएदिन अखबारों में आने वाली आत्महत्या की खबरें घूम गईं. आलोक से खड़ा नहीं रहा गया, वहीं फर्श पर बैठ गया. अगर शिखर ने कुछ कर लिया तो? मैं कैसे जी पाऊंगा, चक्कर आ गया. दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया. तभी, एक आवाज से चौंक कर ऊपर देखा,

“चटाक,” वाणी ने शिखर को खींच कर चांटा लगाया और एक पर नहीं रुकी, लगातार मारती रही.

“तुझे मरना है न, ठीक है, इस घर में आज तक तेरी हर बात मानी जाती रही है, यह भी मानी जाएगी, बोल कैसे मरना है?” और शिखर को खींचते हुए बालकनी की ओर ले जाने लगी.

“चल, तुझे यहीं 10वें फ्लोर से धक्का दे कर किस्सा खत्म करती हूं.”

शिखर को ऐसी उम्मीद बिलकुल भी न थी, वह तो सिर्फ डरा रहा था लेकिन मां का यह रूप देख बुरी तरह घबरा गया. वाणी का गुस्सा देख उसे लगा वह सच में शिखर को बालकनी से फेंक देगी.

“नहीं  मम्मा, मुझे नहीं  मरना. सौरी मम्मा, सौरी.”

वाणी ने शिखर का गिरेबान पकड़ लिया, “कान खोल कर सुन ले, आज कह रही हूं दोबारा नहीं कहूंगी, बेशक तुझे हम ने बड़ी मन्नतों से पाया है और तू हमें बेहद प्यारा है लेकिन हमारे प्यार का गलत फायदा उठाने की कोशिश कभी मत करना. तेरी कोई भी ज़िद और बद्तमीज़ी आज के बाद इस घर में बरदाश्त नहीं होगी. और हां, जब मरने की इच्छा हो, मुझ से कहना. मैं अपने हाथों से तेरी जान लूंगी लेकिन इस तरह की सुसाइड की धमकी से डर कर नहीं रहेंगे हम.”

“तेरे पापा ने हमेशा तुझे हद से ज्यादा प्यार दिया, बहुत बार समझाया भी मैं ने लेकिन उन्हें तेरे प्यार के सामने और कुछ दिखता ही नहीं था. वे भूल गए थे कि ‘भय बिनु होय न प्रीति.’

आलोक ने वाणी की तरफ़ देख सहमति में सिर हिला दिया.

अपनी ही मां का कत्ल कर दे रहे बच्चे, गुस्से का कारण सख्ती तो नहीं

अगस्त, 2024 : यमुनानगर, हरियाणा में बेटे ने मां से ड्रग्स खरीद कर नशा करने के लिए पैसे मांगे, मां ने नहीं दिए, तो उस ने लोहे के रौड से पीटपीट कर अपनी ही मां मार डाला.

जुलाई, 2024 : पूर्णिया, बिहार में बेटे ने पत्नी के साथ मिल कर मां के सिर पर हथौड़े पर हमला किया. मामला संपत्ति विवाद से जुड़ा था.

जून, 2024 : दौसा, राजस्थान के विकास बैरवा की शादी नहीं हो रही थी, इस वजह से उस ने परिवार को दोषी मानना शुरू कर दिया. एक दिन मां के सिर पर लोहे के पाइप से मार कर उस की हत्या कर दी.

मई, 2024 : श्योरपुर, मध्य प्रदेश में गोद लिए बेटे ने ही मां की हत्या कर दी। उस ने सब से पहले मां को छत से नीचे फेंका, उस के बाद गला दबा, घर के बाथरूम में खुदाई कर वहीं दफन कर दिया.

ऊपर दी हुई कुछ घटनाएं मई से अगस्त तक के महीने की हैं. यहां लगातार 4 महीने की केवल एकजैसी घटना का उदाहरण दिया गया है, जिस की संख्या अधिक भी हो सकती है. वजह कुछ भी हो, सभी घटनाओं में बेटे ने मां का कत्ल किया है.

रिश्तों में मां का दरजा, दुनिया के हर धर्म और जाति में सब से ऊपर रखा गया है, जिस की वजह है मां का जननीस्वरूप. इस के बावजूद ऐसी दुखद घटनाएं क्यों घट रही हैं? क्या इस के लिए पूरी तरह से मौडर्न लाइफस्टाइल जिम्मेदार है? क्या पूर्व में इस तरह की कोई घटना नहीं घटी?

परशुराम ने भी की थी मां की हत्या

शिव के अवतार माने जाने वाले परशुराम को भी मातृहंता कहा जाता है. पाैराणिक कथाओं के अनुसार, उन्होंने अपने पिता ऋषि जमदाग्नि के कहने पर अपनी मां का वध कर दिया था. ग्रंथों में ऐसा लिखा गया है कि ऋषि ने पत्नी रेणुका को यज्ञ के लिए जल लाने को कहा, लेकिन रेणुका जल में खेल रहे गंधर्व को देख कर मोहित हो गई और यज्ञ वाली बात भूल गई. गुस्से में ऋषि ने अपने सभी बेटों से मां की हत्या करने को कहा लेकिन कोई आगे नहीं आया. तब उन का सब से आज्ञाकारी बेटा परशुराम सामने आया और माता के सिर को धड़ से अलग कर दिया.

ऐसी प्राचीन कथाएं कहीं न कहीं समाज की उस पारंपरिक सोच को पुख्ता करती है जिस में स्त्री को चाकर समझा जाता है, फिर चाहे वह पत्नी हो, बेटी हो या फिर जन्म देने वाली माता ही क्यों न हो.

पुरुष को जब गुस्सा आता है, तो उस के सामने सब से कमजोर शख्स के रूप में महिला ही होती है, जिसे दंड दे कर वह अपने व्यक्तित्व की मजबूती बनाए रखना है और शक्तिशाली होने के अपने भ्रम को टूटने नहीं देता चाहता.

अगर परशुराम के पिता ने मां को उन की नाफरमानी करने के लिए दंड जारी किया, तो उन्होंने उन पुत्रों के लिए यह फरमान जारी क्यों नहीं किया जिन्हों ने पिता की आज्ञा टालते हुए अपनी मां का वध करने से इनकार कर दिया था, जब पिता ने उन्हें मां का वध करने को कहा था?

महिलाओं की कमजोर छवि को गढ़ने के लिए धर्म को भी उतना ही जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए, जितना इन घटनाओं के लिए मौडर्न लाइफस्टाइल को ब्लैम किया जाता है.

टीनऐजर्स और युथ का ब्रैन गुस्से का टाइमबम

हत्या मां की हो या परिवार के दूसरे सदस्यों की, ज्यादातर मामलों में यह देखा गया है कि इस तरह की घटनाएं गुस्से के आवेग में होती हैं. जब गुस्सा बेकाबू होता है तो हत्या जैसी घटनाओं के रूप में यह सामने आता है. कोई जरूरी नहीं कि गुस्से में व्यक्ति सामने वाले को ही नुकसान पहुंचाए, बल्कि वह खुद पर भी गुस्सा उतारता है, इस का उदाहरण सुसाइड के रूप में सामने आता है. एक स्टडी में गुस्से की कई वजहें सामने निकल कर आईं जैसे तनाव, पारिवारिक समस्याएं, आर्थिक दिक्कतें वगैरह।

इस के अलावा शरीर को तकलीफ पहुंचने की स्थिति में, किसी से नाराजगी होने पर, किसी तरह का नुकसान होने पर या फिर मन में किसी तरह का असंतोष हो, तो ये सभी कारक भी गुस्से को ट्रिगर करने का काम करते हैं. इन ट्रिगर्स की वजह से गुस्सैल इंसान खुद को या किसी दूसरे को नुकसान पहुंचाता है, फिर चाहे वह उस की मां ही क्यों न हो।

उत्तर प्रदेश के प्रयागराज जिले में ऐंगर मैनेजमैंट को ले कर 386 लोगों पर एक स्टडी की गई. इस में 193 किशोर और 193 किशोरियों को शामिल किया गया. इस स्टडी में गुस्से की कई वजहें सामने निकल कर आईं. इस के अलावा शरीर को तकलीफ पहुंचने की स्थिति में, किसी से नाराजगी होने पर, किसी तरह का नुकसान होने पर या फिर मन में किसी तरह का असंतोष हो, तो ये सभी कारण गुस्से को ट्रिगर करने का काम करते हैं. इन ट्रिगर्स की वजह से गुस्सैल इंसान खुद को या किसी दूसरे को नुकसान पहुंचाता है, फिर चाहे वह उस की मां ही क्यों न हो ? सवाल यह उठता है कि ज्यादातर मामलों में पुरुष को ही हिंसक पाया गया है, जैसाकि मां की हत्या के मामलों में देखा गया, इस की वजह क्या है?

इसी अध्ययन के दौरान यह देखा गया कि गुस्सा करने के सभी ट्रिगर्स लड़कियों की तुलना में लड़कों पर अधिक असर करते हैं, इस वजह से किशोरियों की तुलना में किशोरों में गुस्से का स्तर अधिक होता है.

ऐंगर मैनेजमैंट घर में सिखाएं

अमेरिकन साइकोलौजिकल एसोसिएशन के अनुसार, गुस्सा एक सामान्य इंसानी भावना है लेकिन जब यह कंट्रोल से बाहर हो जाता है, तो प्रौब्लम शुरू होती है.

मनोवैज्ञानिक, पीएचडी चार्ल्स स्पीलबर्गर के अनुसार, गुस्सा होने की स्थिति में फिजिकल और बायोलौजिकल दोनों में चेंज आता है, जैसे हार्ट रेट और ब्लड प्रैशर बढ़ जाता है. इस के साथ ही ऐनर्जी से जुड़े हारमोन जैसे ऐड्रेनालाइन और नौरएड्रेनालाइन का लैवल भी बढ़ जाता है इसलिए ऐंगर मैनेजमैंट कर इन पर लगाम लगाया जा सकता है.

ऐंगर मैनेजमैंट के लिए साइकोलौजिस्ट की मदद लेने में कोई हरज नहीं होना चाहिए, पर पेरैंट्स को कोशिश करना चाहिए कि वह घर में ही ऐंगर मैनेजमैंट करने पर ध्यान दें.

टीनऐजर्स और युवाओं को यह करना सिखाएं :

– गुस्सा आते ही रिलैक्सेशन करना शुरू करें जैसे गहरी सांस लें, मन में रिलैक्स, रिलैक्स दोहराएं (दोहरान के लिए किसी और शब्द का प्रयोग कर सकते हैं).

– मन को सुकून पहुंचाने वाली किताब पढ़ें, किताब पढ़ना नहीं पसंद है, तो गाना सुनें.

– तुरंत किसी क्रिऐटिव काम में जुट जाएं जैसे गार्डेनिंग, पेंटिंग, ड्राइंग वगैरह।

– ऐसे विषयों में खो जाएं जो दिमाग को आराम पहुंचाएं जैसे, जब आप की तारीफ की गई, जब किसी बेहतरीन काम करने की वजह से शाबाशी मिली हो.

– कुछ देर के लिए पार्क में दौड़ आएं, इस से मसल्स रिलैक्स होंगे और शांति महसूस होगी, गुस्से वाला मन इधरउधर भटक जाएगा.

– जब भी गुस्सा आए, तो खुद को यह समझाना शुरू करें कि तोड़फोड़, मारपीट गुस्से का सौल्यूशन नहीं है.

पैरेंट्स को भी यह सीखने की जरूरत है :

– हमेशा बच्चों पर हावी होने की कोशिश नहीं करें.

– टीनऐजर्स और यूथ की जायज मांगों को मानने से इनकार न करें.

– अपने घर के बड़े बच्चों में भरोसा जताएं, उन्हें मन की करने की छूट दें.

– उन कामों को न करें, जिस से टीनऐजर्स को गुस्सा आएं जैसे दोस्तों के बारे में ज्यादा पूछताछ, बारबार किसी बात के पीछे पड़ जाना, हर बात में कमियां गिनाना, दूसरों से उन की तुलना करना.

– पेरैंट्स को चाहिए कि बहुत ही छोटी उम्र से ही बच्चों के जिद या गुस्से की आदत को कंट्रोल करें.

– अपने घर के टीनऐजर और युवा की तारीफ करना सीखें, जब भी वे अच्छा काम करें उन की सराहना करें, अपने दोस्तों या घर के बुजुर्गों के सामने भी उसे सराहें.

– पेरैंट्स अपने गुस्से पर कंट्रोल करना सीखें क्योंकि कई बार बच्चे इन को देखदेख कर गुस्सा करने के पैटर्न को अपना लेते हैं.

मेरी पत्नी सैक्स टौयज का इस्तेमाल करती है

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल :

मैं एक प्राइवेट कंपनी में जौब करता हूं और मुझे अकसर काम के सिलसिले में अपने बौस के साथ शहर से बाहर जाना पड़ता है. कई बार तो मुझे मीटिंग्स और कौन्फरैंस के चलते 1-2 हफ्ते भी घर से दूर रहना पड़ता है. ऐसे में जब मैं घर आता हूं तो अपनी पत्नी के साथ जम कर सैक्स करता हूं क्योंकि मुझे भी इतने दिनों उस से दूर रह कर अधूरापन सा लगता है. मैं अपनी पत्नी से बेहद प्यार करता हूं. लेकिन मुझे हाल ही में पता चला कि जब मैं अपने औफिस के काम से बाहर जाता हूं तो मेरे पीठ पीछे मेरी पत्नी सैक्स टौयज का इस्तेमाल करती है. क्या वह कुछ गलत तो नहीं कर रही? इस से कोई साइडइफैक्ट्स तो नहीं है?

जवाब :

सैक्स नीड्स और सैक्स डिजायर्स हर इंसान के अंदर होती है. हर इंसान को सैक्स करना बेहद अच्छा भी लगता है. ऐसे में अगर आप अपनी पत्नी से दूर रहते हैं, तो आप के पीठ पीछे उन का भी सैक्स करने का मन करता ही होगा. कई लोग खुद को कंट्रोल कर पाते हैं, तो वहीं दूसरी तरफ कुछ लोग ऐसे भी हैं जो खुद को ज्यादा दिन तक कंट्रोल नहीं कर पाते.

सैक्स टौयज इस्तेमाल करना कोई गलत बात नहीं है. कई ऐसी लड़कियां हैं जो सैक्य टौयज इस्तेमाल कर के ही खुद को संतुष्ट कर पाती हैं. ऐसे में आप को खुश होना चाहिए कि आप के पीठ पीछे आप की पत्नी ने अपनी सैक्स जरूरतों को पूरा करने के लिए नाजायज संबंध नहीं बनाए और वे आप के लिए पूरी तरह से वफादार है.

आप को कोशिश करनी चाहिए कि जब आप अपने औफिस के काम से बाहर गए हुए हों उस दौरान आप अपनी पत्नी के साथ वीडियो कौल या चैटिंग से लगातार संपर्क में रहें.

आप ऐसा भी कर सकते हैं कि रात को सोने से पहले अपनी पत्नी के साथ कुछ देर सैक्स चैटिंग कर लें या फिर वीडियो कौल पर एकदूसरे के साथ कुछ प्यारभरी बातें कर लें. ऐसा करने से आप की पत्नी सिर्फ और सिर्फ आप के बारे में सोचेगी।

आप को उन्हें एक बात जरूर समझानी चाहिए कि सैक्स टौयज का इस्तेमाल बहुत ज्यादा जरूरत पड़ने पर ही करें. ऐसा देखा गया है कि कुछ लोगों को इन की इतनी आदत पड़ जाती है कि समय मिलते ही वे खुद को अकेला पा कर सैक्स टौयज इस्तेमाल करने लग जाते हैं और उन का किसी और चीज में मन ही नहीं लगता. उन्हें सैक्स टौइज को कम से कम इस्तेमाल करना चाहिए ताकि उन को इस की आदत न लगें.

व्हाट्सऐप मैसेज या व्हाट्सऐप औडियो से अपनी समस्या इस नम्बर पर 9650966493 भेजें.

रील के चक्कर में जान गंवाते युवा

हमारे देश में सोशल मीडिया पर रील्स देखने का शौक तेजी से बढ़ता जा रहा है. देश का एक बड़ा हिस्सा अपना समय इसी में गुजार रहा है. रील्स देखने के शौक ने पढ़ाई, कैरियर और बिजनेस को प्रभावित किया है. अखबारों, किताबों और पत्रिकाओं को पढ़ना छोड़ रहे हैं.

पुस्तकालय खाली है. तमाम बंद हो गए हैं. हालत यह हो गई है कि तमाम युवा रील्स बनाने में ही अपना कैरियर देखने लगे हैं.

युवाओं को लगता है कि रील्स बना कर पैसा कमाया जा सकता है. मजबूरी यह है कि केवल रील्स बनाने से काम नहीं चलता है. जरूरी यह होता है कि रील्स वायरल हो. जब रील वायरल होगी तब उन के फौलोवर्स बढ़ेंगे. उन की पहचान इन्फ्लुएंसर के रूप में होगी. इन्फ्लुएंसर बनने के बाद ही कमाई के रास्ते खुलेंगे. अब युवा इस फिराक में रहते हैं कि किस तरह से उन की रील वायरल हो जाए. वायरल होने का यह गणित ही जीवन को संकट में डाल रहा है.

स्टंटबाजी का जोखिम

हाल के दिनों में कई इन्फ्लुएंसर को बिग बौस या दूसरे चैनलों पर दिखने का मौका मिला. यहां से इन को फिल्म और सोशल मीडिया पर पहचान मिलने लगी है. ऐसे में इन की देखादेखी दूसरे युवा भी इस प्रयास में लग गए. सोशल मीडिया पर रील देखने वाले या तो सैक्सी कटेंट देखते हैं या भौंडा मजाक पंसद करते हैं. इस में लड़कियों को सफलता जल्दी मिल जाती है. जहां तक लड़कों का सवाल है उन की रील कम लोग देखते हैं. लड़कों में सब से ज्यादा रील स्टंटबाजी की देखी जाती है.

अब लड़के इस बात को समझते हैं. वह ज्यादा से ज्यादा स्टंट करने लगे हैं. रेलवे लाइन, नदी, झरना जैसी खतरनाक जगहों पर वीडिया शूट करते हैं. कई बार रेल और चलती गाड़ियों पर भी वीडियो बनाते हैं. यह लोग एक्शन फिल्मों के सीन देख कर उसे करने का प्रयास करते हैं. उन को यह समझ नहीं आता कि फिल्मों में इस तरह के सीन सुरक्षा के साथ अलग तरह से फिल्माए जाते हैं. इन को बिना सुरक्षा के करना खतरनाक होता है. रील को वायरल होने की चाहत जान की दुश्मन बन जा रही है.

क्राफ्टिंग इमेज की फांउडर डायरैक्टर और इंटरनैशनल इमेज कल्सटेंट निधि शर्मा कहती हैं, “युवा सड़कों पर जिस तरह की स्टंटबाजी कर रहे हैं उस से वह अपनी जान के साथ ही साथ दूसरों की जान से खिलवाड़ कर रहे हैं. सड़क पर चलने के कानून भी तोड़ रहे हैं. कहानी किसी एक दो शहरों की नहीं है पूरे देश में यह चलन बढ़ रहा है. युवा रील देखने और बनाने के नशेड़ी बन रहे हैं. तो वीडियो देखते रहते हैं या फिर वीडियो बनाते रहते हैं. जब से सोशल मीडिया पर कंटेंट के जरिये पैसे कमाने का औप्शन आ गया है, तब से लोगों में ट्रेंडिंग रील्स बनाने का चलन बढ़ गया है. लोग ऐसे कंटेंट बनाने की कोशिश करते हैं, जिस में ज्यादा से ज्यादा व्यूज आए. इस चक्कर में लोग अपनी जान तक जोखिम में डाल देते हैं.”

कुछ घटनाओं पर नजर डालें तो हालात साफ पता चल जाते हैं. लोग वायरल कंटेंट बनाने के चक्कर में अपनी जान से हाथ धोते नजर आते हैं. एक कपल रील बनाने के दौरान अचानक ट्रेन आ जाने पर पुल के नीचे कूद गया. वहीं एक इन्फ्लुएंसर का पैर पहाड़ी से फिसल जाने पर वो खाई में गिर गई. इस तरह से सोशल मीडिया पर मुरादाबाद के एक युवक का वीडियो शेयर किया गया है. युवक तेज रफ्तार मालगाड़ी के किनारे डांस करता नजर आया. इस दौरान उस का दोस्त वीडियो बना रहा था. लेकिन रील बनाने के चक्कर में ऐसा हादसा हुआ कि युवक अपनी जान गंवा बैठा.

वायरल हो रहे इस वीडियो में एक युवक रेलवे पुल के किनारे डांस करता नजर आया. युवक ने चश्मा लगाया हुआ था और पुल के किनारे खड़ा हो कर डांस कर रहा था. युवक के बगल से एक मालगाड़ी तेज रफ्तार में जा रहा था. शख्स का दोस्त आगे खड़ा हो कर वीडियो बना रहा था. डांस करते हुए अचानक युवक का हाथ रेलगाड़ी से टकराया. इस के कारण युवक का बैलेंस बिगड़ गया और वो सीधे नीचे पुल में बने गड्ढे में जा कर नीचे गिर गया.

मध्य प्रदेश के उज्जैन में इंस्टाग्राम पर रील बनाने के चक्कर में दो माह में हुए तीन हादसों में 7 युवाओं अपनी जान गंवाई. कई लोग घायल भी हुए. कार से सांवरियाजी दर्शन करने जा रहे 4 युवा इंस्टाग्राम पर रील बनाते समय सामने चल रहे ट्राले से टकरा गए, जिस में 3 की मौत हो गई. 19 अप्रैल को रात 1.30 बजे देवास रोड पर पोलिटैक्निक कालेज के सामने तेज रफ्तार कार डिवायडर से टकरा गई थी. हादसे में नागझिरी में रहने वाले अदनान उम्र 20 साल, अफसान काजी उम्र 17 साल, कैफ मंसूरी उम्र 20 साल की मौके पर ही मौत गई.

16 मई को मंदसौर के पास मुल्तानपुरा रोड पर उज्जैन के रहने वाले रितिक उर्फ रजनीश उम्र 27 साल, संजय राणा उम्र 22 साल, विजय उर्फ नोडी उम्र 24 साल और लकी धाकड़ की कार सामने चल रहे ट्राले से टकरा गई थी. लकी को छोड़ तीनों की मौत हो गई. दो दिन बाद इन का आखिरी वीडियो भी आया जिस में यह चारों कार चलाते समय शराब पीते हुए रील बना रहे थे, और हादसे का शिकार हो गए.

उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले में 4 युवक एक ही बाइक पर सवार थे. वह तेज रफ्तार से बाइक चला कर रील बना रहे थे. रील बनाते समय युवक तेज रफ्तार से बाइक चला कर सीट पर ही ऊपर नीचे बैठते और खड़े हो रहे थे. इसी बीच बाइक अनियंत्रित हो गई और बाइक पर सवार 4 में 3 की मौके पर ही मौत हो गई. इटियाथोक कोतवाली क्षेत्र के बेंदुली मोड़ के पास सड़क हादसा हुआ. किसी ने हेलमेट तक नहीं पहन रखा था. यह युवक एक ही बाईक पर सवार हो कर खरगूपुर बाजार से अपने घर इटियाथोक बाजार के नौशहरा महल्ले में जा रहे थे.

झारखंड के साहिबगंज जिले में रील बनाने के चक्कर में एक युवक ने 100 फीट की ऊंचाई से छलांग लगाई. गहरे पानी में डूबने से उस की मौत हो गई. इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ. वीडियो में युवा तेजी से भाग कर जंप करता दिख रहा है. साहिबगंज जिले के करम पहाड़ी के नजदीक एक पत्थर खदान है. यहां पर पानी की झील सी बनी हुई है. तौसीफ नाम का एक युवक यहां अपने कुछ दोस्तों के साथ नहाने आया था. इस दौरान उसने लगभग 100 फीट की ऊंचाई से गहरे पानी में छलांग लगा दी और वो डूब गया. इस दौरान झील में नहा रहे उस के दोस्तों ने उसे बचाने की कोशिश की लेकिन असफल रहे. वीडियो में ऊपर खड़ा हुआ एक शख्स इस पूरी घटना को रिकौर्ड कर रहा था.

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पूर्वोत्तर रेलवे लखनऊ मंडल में ही पटरियां पार करने के समय ट्रेनों साथ सेल्फी बनाते, ईयर फोन लगाने और रील बनवाते समय 7 महीने में 277 लोगों ने जान गंवाई है. इन में सेल्फी बनाते समय ही 83 लोगों की जान गई. अब आरपीएफ ने ऐसी ही कई कीमती जान को बचाने के लिए आपरेशन जीवन रक्षक की शुरुआत की है.

देखने वाले दोषी

निधि शर्मा कहती हैं, “पूरे मामले को समझने की कोशिश करें तो जितना दोष खतरनाक किस्म की रील बनाने वालों का है उस से कहीं ज्यादा दोश रील देखने वालों का है. देखने वाले जिस तरह से कंटेट देखते हैं बनाने वाले उसी तरह का बनाने का काम करते हैं. देखने वालों को खतरनाक किस्म के स्टंट वाली रील देखना बंद करना चाहिए. तभी लोग इस को बनाना बंद करेंगे. वरना जब तक यह वायरल होती रहेगी लोग सस्ती लोकप्रियता की चाहत में इस को बनाते रहेंगे. अपनी और राह चलते दूसरों की जान जोखिम में डालते रहेंगे.”

आखिरी रास्ता : निर्मला और विमल को क्या अपने प्यार की मंजिल मिल सकी ?

‘‘यार, इस में इतना परेशान होने की क्या बात है? तुम दोनों पहले सोच कर फैसला कर लो कि तुम अपने पापामम्मी की मरजी के बिना शादी कर सकते हो या नहीं?’’ रौनक ने अपने दोस्त विमल से कहा.

‘‘तुम सभी लोग जानते हो कि मैं और निर्मला कालेज के फर्स्ट ईयर से ही एकदूसरे को चाहते हैं, फिर भी सामाजिक मर्यादाओं की सीमा में ही रहे हैं. मुश्किल तो यह है कि हम दोनों में से किसी का परिवार गैरजातीय शादी के लिए तैयार नहीं है,’’ विमल बोला.

‘‘अब आगे से प्यार करने के पहले हमें एकदूसरे की जाति और धर्म पूछ लेना चाहिए वरना आगे चल कर हमारा भी यही हश्र हो सकता है,’’ निर्मला की एक सहेली ने कहा.

इस पर वहां मौजूद सभी दोस्त हंस पड़े.

‘‘तुम लोग हंस रहे हो और हम दोनों कितने परेशान हैं, शायद इस का अंदाजा तुम्हें नहीं है,’’ निर्मला बोली.

‘‘अरे नहीं. हम सभी तुम्हारे साथ हैं और चाहते भी हैं कि तुम दोनों की शादी हो पर पहले तुम दोनों में इतना साहस हो कि अपने परिवार की मरजी के खिलाफ जा कर शादी कर सको. तुम अब मैच्योर्ड हो और अपने पैरों पर खड़े हो,’’ कुछ दोस्तों ने कहा.

‘‘मेरे मामू वकील हैं, तुम दोनों बोलो तो मामू को बोल कर तुम्हारी कोर्ट मैरिज की औपचारिकताएं शुरू करा दें. गवाही के लिए हम लोग तैयार हैं ही,’’ रौनक बोला.

सभी लोगों ने कुछ देर आपस में सलाहमशवरा किया. विमल और निर्मला कोर्ट मैरिज के लिए तैयार हो गए. सभी दोस्तों ने फैसला किया कि यह बात दोनों परिवारों तक नहीं पहुंचनी चाहिए. रजिस्ट्रार के औफिस में कोर्ट मैरिज के लिए 30 दिन का नोटिस दिया गया. विमल और निर्मला दोनों अपने मातापिता की इकलौती संतानें थीं, उन की जातियां अलग थीं. दोनों के मातापिता उन की शादी के लिए रिश्ते तलाश रहे थे.

उन्हें अपनी जाति में मनलायक अच्छे रिश्ते भी मिल रहे थे पर विमल और निर्मला दोनों ही किसी न किसी बहाने शादी टाल रहे थे.

एक महीने बाद विमल और निर्मला ने कोर्ट मैरिज कर ली. शादी के बाद उन्होंने अपने दोस्तों के साथ होटल में लंच लिया. इस के बाद विमल और निर्मला अपनेअपने घर चले गए. उसी दिन शाम को विमल मिठाइयां और कुछ उपहार के पैकेट ले कर निर्मला के घर पहुंचा. उस के पापामम्मी दोनों बाहर लौन में ही बैठे थे. निर्मला घर के अंदर थी.

वह बोला, ‘‘नमस्ते अंकल, नमस्ते आंटी. आप लोग कैसे हैं?’’

‘‘नमस्ते, हम ठीक हैं. और यह सब क्या है, कैसे आना हुआ?’’ निर्मला के पिता महेश दूबे ने पूछा.

‘‘अंकल, आंटी, अब मुझे आप दोनों को मम्मीपापा बोलना होगा. आज कोर्ट में मैं ने निर्मला से शादी कर ली है. उसे विदा कराने आया हूं. मेरे मातापिता इसे बहू स्वीकार करने के लिए तैयार हैं.’’

‘‘लगता है तुम्हारा दिमाग ठिकाने नहीं है, चलो भागो यहां से,’’ बोल कर दूबेजी गुस्से से आगबबूला हो कर उठ खड़े हुए और उन्होंने मिठाई व गिफ्ट पैकेट्स को जमीन पर फेंक दिया.

फिर दूबेजी ने बेटी को चिल्ला कर आवाज दी, ‘‘निर्मला, इधर आओ.’’

निर्मला को इस स्थिति का आभास पहले से ही था. वह चुपचाप आ कर दूबेजी के सामने खड़ी हो गई.

‘‘देखो, यह क्या बके जा रहा है. यह बोल रहा है कि तुम दोनों ने शादी कर ली है,’’ विमल की ओर इशारा करते हुए वे बोले.

निर्मला कुछ देर तक सिर झुकाए खामोश खड़ी रही. तब फिर दूबेजी ने गरजते हुए कहा, ‘‘मैं ने तुम से कुछ पूछा है, जवाब दो.’’

पर निर्मला से कुछ बोलते नहीं बना, वह अभी भी खामोश थी. तभी विमल ने आगे बढ़ कर कोर्ट मैरिज का सर्टिफिकेट उन्हें देते हुए कहा, ‘‘यह क्या बोलेगी, खुद ही देख लीजिए मैरिज रजिस्ट्रेशन का सर्टिफिकेट है यह.’’

दूबेजी ने सर्टिफिकेट पढ़ा और फाड़ कर फेंक दिया.

‘‘यह तो सिर्फ एक जेरौक्स कौपी है.’’

दूबेजी ने पत्नी पर गुस्सा उतारते हुए कहा, ‘‘देखा तुम ने, दुलार में बेटी को कितना बिगाड़ दिया है. मैं ने कहा था न कि इसे कालेज भेजने की जरूरत नहीं है. 12वीं के बाद ही इस के लिए अच्छे अच्छे रिश्ते आने लगे थे.’’

उस समय विमल और निर्मला के कुछ मित्र वहां आए और वे एकसाथ बोले, ‘‘अंकल, शादी मुबारक.’’

‘‘काहे की शादी? मैं नहीं मानता इस शादी को.’’

‘‘पर कानून तो मानता है. आप कानून को नहीं मानते हैं तो इस में गलती आप की है. जरा ठंडे दिमाग से सोचिए, इन दोनों ने कोई गलत काम नहीं किया है. इन्होंने मर्यादा के विरुद्ध कोई काम नहीं किया है. कोर्ट मैरिज ही इन के लिए आखिरी रास्ता था. इस रिश्ते को स्वीकार करने में ही सब की खुशी है.’’

दूबेजी अपनी पत्नी और बेटी निर्मला को ले कर अंदर चले गए. उन्होंने फोन कर स्थानीय रिश्तेदार व दोस्त को बुलाया. विमल अपने दोस्तों के साथ बरामदे में कुरसी और झूले पर बैठा था. उस के दोस्त रौनक ने भी फोन कर अपने वकील मामू को बुला लिया. आधे घंटे के अंदर 2 कारें आईं जिन में दूबेजी के मित्र और रिश्तेदार थे.

कार से उतर कर वे सभी सीधे घर के अंदर गए. इस के दस मिनट बाद एक अन्य कार से वकील मामू सादे लिबास में आए. वे विमल और उस के मित्रों के बीच बैठ गए. घर के अंदर से कभी दूबेजी की गुस्से वाली तेज आवाज आती तो कभी उन के मित्रों या रिश्तेदारों की धीमी आवाज में उन्हें समझाने की.

कुछ मिनट इंतजार के बाद वकील ने पूछा, ‘‘क्या मैं भी अंदर आ सकता हूं?’’

‘‘आप की तारीफ?’’ दूबेजी ने पूछा.

‘‘मैं ने ही इन दोनों की कोर्ट मैरिज कराई है.’’

‘‘तो आप जले पर नमक छिड़कने आए हैं?’’

‘‘जी नहीं, मुझे क्या पड़ी है. मैं तो सिर्फ आप को सम?ाने आया हूं. मैं वकील हूं, मेरे बेटे ने भी घर से भाग कर कोर्ट मैरिज की थी. बाद में जब उस के ससुर बेटी को उस के साथ नहीं जाने दे रहे थे तब बेटे ने पुलिस की मदद ली और वह अपनी पत्नी को साथ ले गया.

हम मानें या न मानें, ऐसी शादी को कानून की मान्यता है. मुझे भी अपनी बहू को स्वीकार करना ही पड़ा था. इसलिए मेरी सलाह है कि कोर्टकचहरी के चक्कर में न पड़ें, इसी में सब की भलाई है. मुझे बस इतना ही कहना था, बाकी आप की मरजी.’’

कुछ देर तक सब लोग आपस में बातें करते रहे. ज्यादातर लोग दूबेजी को ही सम?ा रहे थे कि इस रिश्ते को मान लेना ही सही होगा. तभी वकील ने फिर कहा, ‘‘ठीक है भाईसाहब, मैं अब चलता हूं. एक बार फिर ठंडे दिमाग से सोचिए, आप खुद एक सरकारी नौकर हैं, कानून तो आप भी जानते ही होंगे.’’

दूबेजी को फिर लोगों ने सम?ाया कि अब इस रिश्ते को कबूल करने में ही उन की भलाई है वरना अपनी इकलौती संतान से भी हाथ धो बैठेंगे. उन का गुस्सा धीरेधीरे ठंडा पड़ने लगा. वकील मामू तब तक जा चुके थे. उन के जाने के कुछ देर बाद विमल ने कहा, ‘‘निर्मला मेरे साथ चल रही है न?’’

दूबेजी ने कहा, ‘‘बेशर्म, चल भाग यहां से. जा कर बाप को बोल, बरात ले कर आए और अपनी बहू को विदा करा के ले जाए.’’
उन की बात सुन कर सभी खुशी से झूम उठे. विमल ने भी निर्मला को आंख मारी और अपने दोस्तों के साथ लौट गया.

दर्पण : गलत राह पर जाने से खुद को संभालती पत्नी की कथा

लेखिका – मंजरी सक्सेना

‘‘आजकल बड़ा लजीज खाना भेजती हो बेगम,’’ आफिस से आ कर जूते खोलते हुए सुजय ने कहा.

‘‘क्यों, अच्छा खाना न भेजा करूं,’’ मैं ने कहा, ‘‘इन दिनों कुकिंग कोर्स ज्वाइन किया है. सोचा, रोज नईनई डिश भेज कर तुम्हें सरप्राइज दूं.’’

‘‘शौक से भेजिए सरकार, शौक से. आजकल तो सभी आप के खाने की तारीफ करते हैं,’’ सुजय ने हंस कर कहा.

मैं ने आश्चर्य से पूछा, ‘‘सभी कौन?’’

‘‘अरे भई, अभी आप यहां किसी को नहीं जानती हैं. हमें यहां आए दिन ही कितने हुए हैं. जब एक बार पार्टी करेंगे तो सब से मुलाकात हो जाएगी. यहां ज्यादातर अधिकारी मैस में ही खाना खाते हैं. हां, मैं तुम्हें बताना भूल गया था कि निसार भी पिछले हफ्ते ट्रांसफर पर यहीं आ गया है. उसे मेरी सब्जियां बहुत पसंद आती हैं. एक दिन कह रहा था कि जब ठंडे खाने में इतना मजा आता है तो गरम कितना लजीज होगा,’’ सुजय मेरे खाने की तारीफों के पुल बांध रहे थे.

मैं ने पूछा, ‘‘यह निसार क्या सरनेम हुआ?’’

‘‘वह निसार नाम से गजलें लिखता है, वैसे उस का नाम निश्चल है,’’ सुजय ने बताया.

‘‘अच्छा,’’ कह कर मैं चुप हो गई पर चाय के उबाल के साथसाथ मेरे विचारों में भी उबाल आ रहे थे.

‘‘तुम्हें याद नहीं क्या मौली? हमारी शादी में भी निसार आया था.’’

‘‘हूं, याद है,’’ अतीत की यादें आंधी की तरह दिल के दरवाजे में प्रवेश करने लगी थीं.

मुंह दिखाई की रस्म शुरू हो चुकी थी. घर के सभी बड़े, ताऊ, चाचा, मामी, मामा कोई भी उपहार या गहना ले कर आता और पास बैठी छोटी ननद मेरा घूंघट उठा देती. बड़ों को चरण स्पर्श और छोटों को प्रणाम में मैं हाथ जोड़ देती थी. इतना सब करने पर भी मेरी पलकें झुकी ही रहतीं. घूंघट की ओट से अब तक बीसियों अनजान चेहरे देख चुकी थी. अचानक स्टेज के पास निश्चल को देखा तो हैरत में पड़ गई. सोचा, कोई दोस्त होगा, पर वह जब पास आया तो वही अंदाज.

‘भाभी, ऐसे नहीं चलेगा. आप को मुंह दिखाई के समय आंखें भी दिखानी होंगी. कहीं भेंगीवेंगी आंख वाली तो नहीं?’ कह कर किसी ने घूंघट उठाना चाहा तो आवाज सुन कर मेरा मन हुआ कि आंखें खोल कर पुकारने वाले को देख तो लूं, पर संकोचवश पलक झपक कर रह गए थे.

‘अरे, दुलहन, दिखा दो अपनी आंखें वरना तुम्हारा यह देवर मानने वाला नहीं,’ किसी बूढ़ी औरत का स्वर सुन कर मैं ने आंखें खोल दीं. ऐसा लगा जैसे शिराओं में खून जम सा गया हो. तो यह निश्चल और सुजय आपस में रिश्तेदार हैं. मन ही मन सोचती मैं कई वर्ष पीछे लौट गई थी.

निश्चल और कोई नहीं, मेरे स्कूल के दिनों का सहपाठी था जो रिकशे में मेरे साथ जाता था. सारे बच्चे मिल कर धमा- चौकड़ी मचाते थे. इत्तेफाक से कालिज में भी वह साथ रहा और 2-3 बार हमारा पिकनिक भी साथ ही जाना हुआ था. पता नहीं क्यों निश्चल की आंखों की भाषा पढ़ कर हमेशा ऐसा लगता था जैसे उस की आंखें कुछ कहनासुनना चाहती हैं. तब कहां पता था कि एक दिन पापा मेरे रिश्ते के लिए उसी का दरवाजा खटखटाने पहुंचेंगे.

निश्चल का बायोडाटा काफी दिनों तक पापा की जेब में पड़ा रहा था. वह उस समय न्यूयार्क में कंप्यूटर इंजीनियर था. 2 महीने बाद भारत आने वाला था. घर वालों को फोटो पसंद आ चुकी थी. बस, जन्मपत्री मिलानी बाकी थी. हरसंभव कोशिशों के बाद भी जन्मपत्री नहीं मिली थी. चूंकि निश्चल के मातापिता जन्मपत्री में विश्वास करते थे इसलिए शादी टल गई थी. उन्हीं दिनों वैवाहिक विज्ञापन के जरिए सुजय से शादी की बात चली. सुजय से जन्मपत्री मिलते ही शादी की रस्म पूरी होगी.

‘‘क्या सोच रही हो, मौली?’’ सुजय की आवाज से मैं अतीत से वर्तमान में आ गई.

‘‘कुछ नहीं,’’ होंठों पर बनावटी हंसी लाते हुए मैं ने कहा.

निश्चल कुछ ज्यादा मजाकिया स्वभाव का है. उस की बातों का बुरा नहीं मानना तुम. वैसे भी बेचारा अकेला है. न्यूयार्क में किसी अमेरिकन लड़की से शादी कर ली थी पर वह छोड़ कर चली गई…’’ उदार हृदय, पति बताते रहे और मैं हूं, हां करती चाय के कप से उड़ती हुई भाप देखती रही.

निरीक्षण भवन में सुजय ने पार्टी का इंतजाम कराया था. खाने की प्लेट हाथ में लिए मैं खिड़की से बाहर का नजारा देखने लगी थी. रात के अंधेरे में मकानों की रोशनी आसमान में चमकते सितारों सी जगमगा रही थी.

‘‘आप बिलकुल नहीं बदलीं,’’ किसी ने पीछे से आवाज दी.

निश्चल को देख कर मैं चौंक कर बोली, ‘‘आप ने मुझे पहचान लिया?’’

‘‘लो, जिस के साथ बचपन से जवान हुआ उसे न पहचानने की क्या बात है. तब आप संगमरमर की तरह गोरी थीं, आज दूध की तरह सफेद हैं,’’ निश्चल ने कहा.

‘‘पर समय के साथ शक्ल और यादें दोनों बदल जाती हैं,’’ मैं ने यों ही कह दिया.

‘‘आप गलत कह रही हैं. समय का अंतराल यहां नहीं चल पाया. आप 13 साल पहले भी ऐसी ही थीं,’’ निश्चल ने हंसते हुए कहा तो शर्म से मेरी पलकें झुक गई थीं.

तभी किसी को अपने आसपास यह कहते सुना, ‘‘ओहो, इस उम्र में भी क्या ब्लश कर रही हैं आप?’’ सुन कर मेरे गाल लाल हो गए थे. प्लेट रख कर हाथ धोने के बहाने दर्पण में अपना चेहरा देख कर मैं खुद ही शरमा गई थी.

जब से निश्चल ने मेरी तारीफ में कसीदे पढ़े, मेरी जिंदगी ही बदल गई. जेहन में बारबार यह सवाल उठते कि क्यों कहा निश्चल ने मुझे संगमरमर की तरह गोरी और दूध की तरह सफेद…तब तो चौराहे की भीड़ की तरह मुझे छोड़ कर निश्चल ने पीछे मुड़ कर देखा तक नहीं और अपना रास्ता ही बदल लिया था. अब, जब हमारे रास्ते अलग हो गए, मंजिलें बदल गईं फिर उस कहानी को याद दिलाने की जरूरत किसलिए?

मुझे किसी से भी किसी बात की शिकायत नहीं है, न क्षोभ न पछतावा, पर नियति ने क्यों मेरी जिंदगी में उस व्यक्ति को सामने खड़ा कर दिया जिस को मैं ने बचपन से चाहा. मैं सोच नहीं पाती, क्यों मन बारबार संयम का बांध तोड़ना चाहता है? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उस से मुलाकात का कोई रास्ता ही न रह जाए.

क्लब में तो हर हफ्ते ही मुलाकात होती है. उस पर भी अगर संतोष कर लिया जाए तो ठीक लेकिन गुस्सा तो मुझे अपने ऊपर इसलिए आता था कि जिस का अब जिंदगी से कोई वास्ता नहीं तो फिर क्यों मन उस चीज को पाना चाहता है.

क्यों तिरछी बौछार में भीगने की चाहत है, क्या मैं समझती नहीं, निश्चल की आंखों की भाषा?

सोचसोच कर मेरी रातों की नींद उड़ने लगी थी.

मुलाकातों का सिलसिला अपने आप चलता जा रहा था. अपनी भांजी की शादी में जाना था. व्यस्तताओं के चलते सुजय दिल्ली आ कर मुझे प्लेन में बैठा गए थे. वहीं निश्चल को भी प्लेन में बैठा देख कर मैं हैरान थी कि अचानक उस का कार्यक्रम कैसे बन गया था, मैं समझ नहीं पा रही थी. प्लेन में कई सीटें खाली पड़ी थीं. निश्चल मेरे पास ही आ कर बैठ गया. धरती से हजारों मील ऊपर क्षितिज को अपने बहुत पास देख कर मन पुलकित हो रहा था या निश्चल का साथ पा कर, यह मैं समझ नहीं पा रही थी.

एक दिन पेट में तेज दर्द से अचानक तबीयत खराब हो गई. फोन कर के डाक्टर को घर पर बुला लिया था. उन्होंने ब्लड टेस्ट, अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट देख कर कहा था कि आपरेशन करना पड़ेगा. डाक्टर ने ब्लड का इंतजाम करने को कहा क्योंकि मेरा ब्लड गु्रप ‘ओ पाजिटिव’ था.

‘‘अब क्या होगा?’’ मैं घबरा गई.

‘‘होना क्या है, कोई न कोई दाता तो मिल ही जाएगा,’’ डाक्टर ने कहा.

‘‘यहां कौन है? अभी तो हम ने किसी को खबर भी नहीं दी है,’’ सुजय ने कहा.

मैं ने निश्चल को फोन मिलाया.

‘‘क्या कोई खास बात, आप परेशान लग रही हैं, मैं अभी आता हूं,’’ कह कर निश्चल ने फोन रख दिया.

10 मिनट के बाद ही निश्चल मेरे सामने था. उस को देखते ही सुजय ने कहा, ‘‘ब्लड का इंतजाम करना पड़ेगा.’’

निश्चल तुरंत अपना ब्लड टेस्ट कराने चला गया और लौट कर बोला, ‘‘सुनो, तुम्हारा और मेरा एक ही ब्लड गु्रप है.’’

‘‘काश, घर वाले जन्मपत्री की जगह ‘ब्लड गु्रप’ मिला कर शादी करने की बात सोचते तब तो मैं जरूर ही तुम्हें कहीं न कहीं से ढूंढ़ निकालता.’’

अवाक् सी मैं निश्चल को देखती रह गई. शर्म से मेरे गाल लाल हो गए.

सुजय ने हंस कर कहा, ‘‘फिर तो हम घाटे में रहते.’’

आपरेशन के बाद होश में आने में कई घंटे लग गए थे. पानीपानी कहते हुए मैं ने आंखें खोलीं तो सामने निश्चल को देखा. मेरी आंखें सुजय को तलाश रही थीं. मुझे देख कर निश्चल ने कहा, ‘‘सुजय सब को फोन करने गया है कि आपरेशन ठीक हो गया और होश आ गया है, लेकिन पता है भाभी, आपरेशन के बाद से अब तक सुजय ने एक बूंद पानी तक नहीं पिया है, क्योंकि आप को भी पानी नहीं देना है. वैसे आप को तो ड्रिप चढ़ाई जा रही है,’’ रूमाल से मेरे होंठों को गीला कर के निश्चल बाहर सुजय के इंतजार में खड़ा रहा.

निश्चल के कहे शब्दों से मैं अंदर तक हिल गई. जिस दर्पण में भावुक, टूट कर चाहने वाले इनसान का प्रतिबिंब हो उसे मैं खंडित करने की सोच भी नहीं सकती. अगर उस में जरा सी दरार आ जाए तो वह बेकार हो जाता है. अपने मन के दर्पण को मैं खंडित नहीं होने दूंगी. ‘खंडित दर्पण नहीं बनूंगी मैं,’ मन ही मन बुदबुदा रही थी. सुजय की मेरे प्रति आस्था ने मेरी दिशा ही बदल दी. जरा सी दरार जो दर्पण को खंडित कर देती है उस से मैं अपने को संयत कर पाई.

बिना बोले हंसाने का हुनर बस चार्ली चैप्लिन में ही था

दुनिया का सब से मुश्किल काम लोगों को हंसाना है, और वह भी यदि बिना बोले सिर्फ अपनी भावभंगिमा से हंसाना तो यह अति मुश्किल है, मगर चार्ली चैपलिन को इस में महारत हासिल थी. आज ओटीटी और नेटफ्लिक्स के जमाने जिस भयावह शोर और चीखों के दौर से हम गुजर रहे हैं, उस के बीच चार्ली चैपलिन की खामोश फिल्मों की छोटीछोटी क्लिप्स जब सोशल मीडिया के किसी प्लेटफौर्म पर दिख जाती हैं तो ऐसा जान पड़ता है मानों तपते रेगिस्तान में बारिश की फुहारें पड़ गई हों. चार्ली चैपलिन एक ब्रिटिश हास्य अभिनेता, निर्माता, लेखक, निर्देशक और संगीतकार थे, जिन्हें व्यापक रूप से स्क्रीन के सब से महान हास्य कलाकार और मोशन-पिक्चर के इतिहास में सब से महत्वपूर्ण हस्तियों में से एक माना जाता है. वे अपने स्क्रीन व्यक्तित्व, द ट्रैम्प के माध्यम से दुनिया भर में एक आइकन बन गए.

बोलती फिल्में चाहे वे ब्लैक एंड वाइट थीं या रंगीन, उन में गिनीचुनी कुछ ही फिल्में हैं जो हमें हंसा गईं, गुदगुदा गईं, वरना अधिकांश में वही रोनाधोना, लड़ाईझगड़ा, साजिशें, मिलान और जुदाई, चीखनाचिल्लाना, मारकाट और कानफोड़ू संगीत भरा पड़ा है. फिर चाहे हमारा देसी सिनेमा हो या विदेशी. परंतु खालिस हंसी का मजा लेना हो तो उस दौर में गोता लगाना होगा जहां चार्ली चैपलिन हैं, जहां खामोशी है और उस खामोशी में जबरदस्त खिलखिलाहट है. चार्ली चैपलिन बिना कुछ बोले ही लोगों को हंसाते थे. वे इंग्लैंड की फिल्म इंडस्ट्री में उस दौर के कलाकार थे जब फिल्में साउंड रहित और ब्लैक एंड वाइट होती थीं.

यूट्यूब पर चार्ली चैपलिन की फिल्मों के अनेक वीडियो हैं. एक निर्देशक के रूप में चार्ली की पहली फिल्म थी ‘द किड’. यह फिल्म एक ओर जहां ठहाके लगाने को मजबूर करती है वहीं आप की आंखें भी नम कर जाती है. और यह सब बिना किसी डायलौग डिलीवरी के होता है. उन की सब से मजेदार फिल्म – ‘द गोल्ड रश’ है, जिस में सब से अच्छी कामेडी है. ‘द गोल्ड रश’ मूवी में एक अकेला इन्स्पेक्टर सोने की तलाश में जाता है और वह कुछ दबंग किरदारों के साथ घुलमिल जाता है. ‘द गोल्ड रश’ उन की सब से बड़ी और सब से महत्वाकांक्षी मूक फिल्म है. यह उस समय तक बनी सब से लंबी और सब से महंगी कामेडी फिल्म भी थी.

इस फिल्म में चैप्लिन के कई मशहूर कामेडी सीक्वेंस शामिल हैं, जिन में उन के बूट को उबालना और खाना, रोल का डांस और डगमगाता हुआ केबिन शामिल है. ‘द वुमन औफ पेरिस’ 1923 की आकर्षक फिल्म है जो निर्देशक के रूप में चार्ली चैप्लिन की अनोखी प्रतिभा को बखूबी प्रदर्शित करती है. यह फिल्म मैरी नाम की एक युवा महिला की कहानी है. फिल्म ‘सर्कस’ चैप्लिन के कैरियर की सब से महत्वपूर्ण फिल्म थी. इस फिल्म के जरिये एक जबरदस्त निर्माता और एक जबरदस्त हास्य कलाकार के रूप में चार्ली ने अपनी प्रतिभा की छाप सिनेमा जगत पर छोड़ी.

1931 में आई चार्ली की फिल्म ‘सिटी लाइट्स’ भी एक बेहतरीन मूवी है जिस में चार्ली को एक खूबसूरत मगर अंधी लड़की से प्यार हो जाता है. अपनी फिल्म ‘द ग्रेट डिक्टेटर’ में चार्ली ने हिटलर का किरदार निभाया था और उस के सामान खड़ी मूंछों के साथ जो अदाकारी उन्होंने परदे पर की उस को देख कर हंसतेहंसते लोग अपने पेट पकड़ लेते थे.

आज के फिल्म निर्माता और कलाकार कितनी ही कोशिश कर लें मगर चार्ली की मूक फिल्मों के आसपास नहीं पहुंच सकते हैं. साइलेंट फिल्में सिनेमा के इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय है. जब आवाज को फिल्मों में शामिल नहीं किया जाता था तब दृश्य और भावनाएं ही कहानी कहने का माध्यम होती थीं. इस में चार्ली चैपलिन को जो महारत हासिल थी, उन के बाद किसी कलाकार में उस दर्जे की कला नहीं दिखी. हां, रोवन एटकिन्सन जो एक ब्रिटिश अभिनेता और हास्य अभिनेता हैं और जिन्होंने अपनी हास्य रचना मिस्टर बीन से टेलीविजन और फिल्म दर्शकों को आनंदित किया, कुछ हद तक चार्ली चैपलिन की कमी को पूरा करते हैं.

मूक फिल्मों में कलाकार को अपनी बात बिना बोले दर्शकों तक पहुंचाने के लिए बहुत ही प्रभावी अभिनय करना होता था. 1920 का दशक मूक फिल्मों का स्वर्णिम समय माना जाता है. इस दौरान कई महान फिल्म निर्माता और अभिनेता हुए. जिन्होंने सिनेमा के इतिहास में अपना नाम अमर कर दिया.

कुछ मशहूर साइलेंट फिल्में जैसे ‘द कैबिनेट औफ डा. कैलीगरी’, यह एक जर्मन हौरर फिल्म थी जिसे साइलेंट सिनेमा का एक क्लासिक माना जाता है. फिल्म ‘मेट्रोपोलिस’ एक जर्मन फिक्शन फिल्म है. जो अपने भव्य दृश्यों और सामाजिक विषयों के लिए जानी जाती है. फिल्म ‘द किड’, चार्ली चैपलिन की यह मूक हास्य फिल्म एक अनाथ बच्चे और एक आवारा व्यक्ति के बीच के रिश्ते की कहानी बताती है.

चार्ली चैपलिन के अलावा भी कई निर्माता निर्देशक थे जिन्होंने साइलेंट फिल्में बनाईं. भारत में भी सिनेमा का उदय मूक फिल्मों से ही हुआ, मगर चार्ली की बराबरी कोई नहीं कर सका. उन के जैसा हास्य परदे पर कोई और कलाकार कभी उतार ही नहीं पाया. बाद की मूक फिल्में सामाजिक परिदृश्य के मुताबिक बनीं. कुछ मूक फिल्मों में संवाद प्रस्तुत करने के लिए मूक अभिव्यक्तियों और संकेतों के साथ शीर्षक कार्डों का इस्तेमाल भी होने लगा. विदेशी सिनेमा में कहीकहीं इन मूक फिल्मों के साथ लाइव म्यूजिक भी प्रस्तुत किया जाने लगा. सिनेमाघरों में परदे के एक कोने में साजिंदे अपने साजों या पियानो के साथ बैठते थे और परदे पर चल रहे दृश्यों के अनुरूप धीमे या तेज संगीत से भावों की अभिव्यक्ति को मजबूती देते थे. यह संगीत फिल्म की भावनाओं को और गहरा बनाता था.

हां, साइलेंट फिल्मों ने ही सिनेमा की नींव रखी और आधुनिक फिल्म निर्माण के लिए रास्ता प्रशस्त किया. इन फिल्मों ने हमें सिखाया कि कैसे कोई दृश्य बिना शब्द के एक कहानी कह सकता है. भारतीय फिल्मों की शुरुआत भी मूक फिल्मों से ही हुई थी. मगर वह हास्य फिल्में नहीं थीं बल्कि उन में भारतीय संस्कृति और सामाजिक कहानियों को परदे पर उतारा गया था. पहली भारतीय मूक फिल्म राजा हरिशचंद्र थी जिसे 1913 में दादा साहेब फाल्के ने बनाया था. इस फिल्म को 21 अप्रैल, 1913 को ओलंपिया थिएटर में कुछ प्रमुख लोगों के सामने प्रदर्शित किया गया था. यह फिल्म भारतीय इतिहास की एक प्रसिद्ध कहानी पर आधारित थी और इस फिल्म के निर्माण में उस जमाने में 15 हजार रुपए का खर्च आया था.

दादा साहब फाल्के की एक और कृति लंका दहन रामायण पर आधारित थी. यह 1917 में रिलीज हुई थी और इसे लोगों ने खूब सराहा. इस तरह, यह भारत में पहली बौक्स औफिस हिट बनी. इस फिल्म में ट्रिक फोटोग्राफी और स्पेशल इफैक्ट्स का इस्तेमाल किया गया था, जो भारतीय सिनेमा में पहले कभी इस्तेमाल नहीं किए गए थे. इस के अलावा, मजेदार तथ्य यह है कि इस फिल्म में राम और सीता दोनों ही किरदार एक ही कलाकार ए. सालुंके ने निभाए थे.

मूक फिल्मों का निर्माण लगभग दो दशक तक होता रहा. 1913 में कुल तीन मूक फिल्मों का निर्माण हुआ था. लेकिन धीरेधीरे यह संख्या बढ़ती गई और 1934 तक लगभग 1300 मूक फिल्मों का निर्माण हुआ. 1931 में जब पहली बोलती फिल्म (टौकी) का निर्माण हुआ था, वह वर्ष मूक फिल्मों के चरमोत्कर्ष का वर्ष था.

यह है हमारा शिल्पशास्त्र : भाग-2

पिछले अंक में आप ने भूमि की जातियों के बारे में शिल्पशास्त्रम् में क्याक्या गलत था, पढ़ा. अब आगे…

भविष्य जानने की भोंड़ी विधि

यदि भविष्य के गर्भ में स्थित बातों को जानना आसान होता तो कोई भी अपने भविष्य को इस तरीके से जान सकता था. शिल्पशास्त्र ऐसी ऊलजलूल बातों से भरा पड़ा है.

शिल्पशास्त्र ने यदि पहले कृषि विज्ञान की बातों को हथिया कर उन्हें जातियों से जोड़ा है तो आगे वह ज्योतिषी की भूमिका निभाता हुआ दिखाई देता है. जब वह कहता है कि जिस जमीन पर घर बनाना हो, वहां एकसाथ लंबाचौड़ा गड्ढा खोद कर उस में एक दीपक जला दो. यदि दीये की शिखा काला धुआं दे तो वह जमीन भाग्यकारक व संपत्तिकारक होती है; यदि धुआं पूर्व को जाए तो वृद्धिकारक; यदि दक्षिणपूर्व में जाए तो सम?ा घर को आग लगेगी; यदि दक्षिण में जाए तो घर बनाने वाले की मृत्यु निश्चित है; यदि दक्षिणपश्चिम में जाए तो जीवन में दुख होगा; यदि पश्चिम में जाए तो धन का नाश होगा; यदि पश्चिमउत्तर में जाए तो बीमारी आएगी; उत्तर में जाए तो संपत्ति आएगी तथा यदि उत्तरपूर्व को जाए तो सुख की प्राप्ति होगी.

वास्तोर्मध्ये तु विवरं कृत्वा बाहुप्रमाणतर्;
दीपं तत्र स्थापयित्वा चिन्तयेत् च फलादिकम्.
श्रीदा दीपशिखा धूम्रा, वृद्धि :प्राचीगता भवेत्,
आग्नेये वेश्मदाह : स्याद् याम्ये मृत्युर्न संशय :
नैर्नहते च भवेद् दुर्ख वारुण्ये धननाशनम्.
वायण्ये व्याधिपीडा स्यादूत्तरस्यां च संपद :
ऐशान्ये सुखवृद्धि : स्यादित्याशाभागनिर्णय : (शिल्पशास्त्रम् 1/13-15)

यदि भविष्य के गर्भ में स्थित बातों को आग लगा कर जानना इतना आसान होता तो कोई भी अपने भविष्य को इस तरीके से जान सकता था परंतु क्या इस तरीके का और भविष्य की घटनाओं का कोई आपसी संबंध, विशेषतया कारण-कार्य संबंध, जुड़ता है? हवा का चलना भविष्य-निरपेक्ष है – उस का किसी के भविष्य से कुछ लेनादेना नहीं. जब गड्ढे में दीया जालाएंगे, तब जिस दिशा की हवा होगी, धुआं उस ओर चला जाएगा.

यदि शिल्पशास्त्र में बताए अनुसार फल मिलता, तब तो मिलों, ईंट के भट्ठों आदि के सब मालिक उस दिन मर जाते जिस दिन धुआं दक्षिण को जाता; जिस दिन उन का धुआं दक्षिणपूर्व में जाता उस दिन सब मिलों में आग लग जाती; जिस दिन पश्चिमउत्तर को जाता उस दिन वहां काम करने वाले सारे बीमार पड़ जाते पर ऐसा क्या कभी हुआ है?

स्पष्ट है, यह नुस्खा लालबु?ाक्कड़ मार्का है. शिल्पशास्त्र के ऐसी बेहूदा बातों का क्या संबंध हो सकता है? दुनियाभर में शिल्पशास्त्र पर पुस्तकें हैं और उन की संख्या हमारी पुस्तकों से कहीं ज्यादा है परंतु किसी में भी इस तरह की बातों के लिए कोई स्थान नहीं, जबकि हमारा शिल्पशास्त्र है ही इन्हीं का संग्रह.

लिफ्ट का कुतर्की वास्तुशास्त्र

धार्मिक इंसान ज्यादा डरपोक होता है. उस के हर काम कर्मकांड पर शुरू और खत्म होते हैं. बच्चे के पैदा होने से ले कर मरने तक हर काम में कर्मकांड ही कर्मकांड. जैसे शराबी शराब पीने के लिए सुख व दुख का बहाना ढूंढ़ता है, वैसे ही धार्मिक इंसान हर मौके पर पूजापाठ, हवन, कथाकीर्तन, जादूटोना और वास्तु करता/कराता है.

हाल देखिए कि मल्टीस्टोरीज बिल्डिंग में रहने जा रहे लोग फ्लैट लेते समय वास्तु तो देख ही रहे हैं, साथ में उस फ्लैट में लिफ्ट किस दिशा में हो, कैसी हो, उस से कैसी तरंगें निकलें, इस के लिए भी वास्तु देख रहे हैं. वे इस के लिए वैसे ही आर्किटैक्ट के बनाए स्ट्रक्चर को पसंद करते हैं जो वास्तुशास्त्र के अनुसार काम करे. तमाम बिल्डर्स और डीलर्स अपनी दुकान चलाने के लिए ज्योतिषियों के साथ मिल कर इन अंधविश्वासी लोगों का फायदा उठा रहे हैं. इन्होंने लिफ्ट तक का ऊटपटांग वास्तु हर जगह फैला रखा है.

जैसे, लिफ्ट के वास्तु में ये बताते हैं कि इसे उत्तरपश्चिम दिशा में लगाना चाहिए. लिफ्ट का दरवाजा पूर्व या दक्षिण दिशा में होना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता तो घर में कुछ बुरा हो सकता है. अगर लिफ्ट के अंदर मिरर लगा रहे हैं तो उसे दक्षिण या पश्चिम दिशा में नहीं होना चाहिए. उत्तर व पूर्व दिशा में बिलकुल न लगाएं. ये लिफ्ट में शीशे लगाने के फायदे बताते हैं, कहते हैं कि इस से लिफ्ट में एनर्जी बनी रहती है और डर कम लगता है. वहीं यह भी बताते हैं कि वास्तु के अनुसार लिफ्ट को साफसुथरा रखना चाहिए, क्योंकि इस से नैगेटिविटी नहीं आती.

इन के बताए लिफ्ट के वास्तु को कोई पढ़े तो इन की आधी बातों से कोई एतराज नहीं करेगा, जैसे लिफ्ट में शीशा लगाना चाहिए या लिफ्ट साफ रखनी चाहिए. मसलन, शीशा लगाने से लिफ्ट सुंदर और चमकदार दिखाई देती है, साथ में, बड़ी भी दिखाई देती है और साफ रखने से लिफ्ट में बीमारियों का खतरा कम रहता है. यह तो वैसी ही बात हुई कि भारत में अगर कोई भी व्यक्ति किसी बच्चे के जन्म पर जाए और कहे कि बड़े हो कर इस के बाल काले होंगे और बुढ़ापे में सफेद हो जाएंगे.

लिफ्ट का वास्तु बताने वाले क्या यह बता सकते हैं कि यह तकनीक आई कहां से? आज से तकरीबन 144 साल पहले, जरमनी में वार्नर वोन सीमेंस द्वारा लिफ्ट की तकनीक को खोजा, लेकिन इसे भी इंसानों द्वारा नियंत्रित किया जाता था. जिस औटोमेटिक इलैक्ट्रोनिक लिफ्ट को आज हम अपने आसपास देख रहे हैं, जिस के वास्तु पर घर के खरीदारों को बिल्डर्स चूना लगा रहे हैं, वह सैकंड वर्ल्डवार के अंत में न्यूयौर्क में चलाई गई.

हालांकि इन बातों को दरकिनार कर दें तो कोई इन से पूछे कि लिफ्ट का यह वास्तु आया कहां से? कौन सी वास्तुशास्त्र की किताब में इस का जिक्र है? लिफ्ट की दिशाओं के गलत होने से कौन सी केस स्टडी इन्होंने की है और किस तरह के नुकसान या फायदे लोगों को इस से हुए हैं? अगर ये कुछ बताएं तो बात बढ़े.

(अगले अंक में जारी…)

 

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