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रक्ष : श्मशान घाट पर क्या हुआ था

लेखक- राम बजाज रक्ष

एक कपड़े को कस कर दबोचे सो रहा था. इसे देख राघव की आंखों में आंसू आ गए और एक क्षणभंगुर विचार उस के दिमाग में कौंध गया कि रक्ष क्या उस के पिता की गंजी पकड़ कर सो रहा है या उन का असीमित स्नेह रक्ष को पकड़े है. आखिर रक्ष का बाबूजी से रिश्ता कैसा था. बाबूजी का असली नाम नरेंद्र कुमार था. वे इलाहाबाद बैंक के बैंक प्रबंधक पद से रिटायर हुए थे. रिटायर होने से पहले वे गीता प्रैस रोड, गांधी नगर, गोरखपुर में बैंक के मुख्यालय में थे.

उन्हें ‘बाबूजी’ का उपनाम तब मिला जब वे अल्फांसो रोड पर बैंक में शुरूशुरू में टेलर (क्लर्क) थे. हालांकि उन के पास बीकौम प्रथम श्रेणी की डिग्री थी लेकिन उन्हें एक उपयुक्त नौकरी नहीं मिली और उन्हें टेलर की नौकरी के लिए सम?ाता करना पड़ा. वे अपने ग्राहकों, सहकर्मियों और अपने वरिष्ठों व मालिकों के साथ सम्मान व मुसकराहट के साथ व्यवहार करते थे. नौकरी से वे खुश थे. ग्राहक उन के अच्छे स्वभाव व हास्य के कारण उन्हें बाबूजी कहने लगे. बाबूजी को उन का प्यार पसंद आया और उन्हें इस उपनाम से कोई आपत्ति न थी और इस का आनंद लेना शुरू कर दिया क्योंकि इस में प्यार, स्नेह और आशीर्वाद सभी एकसाथ विलीन थे तो, नरेंद्र ‘बाबूजी’ बन गए.

नरेंद्र चूंकि बहुत महत्त्वाकांक्षी और उज्ज्वल व्यक्ति थे, अपने कैरियर में चमकना चाहते थे, इसलिए जब वे काम कर रहे थे, रात्रि कक्षाएं लीं और प्रथम श्रेणी के साथ एमकौम पास किया. जल्द ही उन का परिवार बढ़ गया और उन्हें जुड़वां बेटों का आशीर्वाद मिला, जिन के नाम भार्गव और राघव थे. भार्गव राघव से लगभग 2 मिनट बड़ा था और दोनों के बीच जो बंधन था, वह असाधारण था- राघव हमेशा अपने भाई का सम्मान करता था और अपने भाई को बड़े भाई के रूप में संदर्भित करता था. आखिरकार, वे बड़े हुए. अच्छी तरह से शिक्षित हुए. शादी हुई और उन के परिवार में दोदो बच्चे थे,

एकएक लड़का और एकएक लड़की. परंतु, घर के दूसरे परिवारों से उन्हें दूर जाना पड़ा. भार्गव मुंबई के चेंबूर में स्थित परमाणु ऊर्जा आयोग में अकाउंटैंट था और राघव केरल में एक रिजोर्ट प्रबंधक. राघव ने होटल मैनजमैंट की डिग्री हासिल की थी. जब बाबूजी 60 वर्ष के हुए तो उन्हें सरकारी नियमों और विनियमों के अनुसार सेवानिवृत्त होना पड़ा. उन्होंने अपने पैतृक घर में सेवानिवृत्त होने का फैसला किया क्योंकि उन की जन्मजात इच्छा उस शहर में रहने की थी जहां उन का जन्म, पालनपोषण हुआ और जहां उन के मातापिता जीवनभर रहे. उन का निवास गोरखपुर के एक मध्यर्गीय क्षेत्र में था और यह बाबूजी की शैली में फिट बैठता था. उन्होंने 2 नौकरों, एक रसोइया और एक ड्राइवर व पुराने पड़ोसियों और परिचित दोस्तों की प्रेमभरी धूमधाम में बड़ी शांति और आराम पाया.

ऐसा लगा कि वे संसार के साथ हैं और संन्यास में भी हैं. पूरे जीवनभर बाबूजी परिवार, दोस्तों, पड़ोसियों और रिश्तेदारों व जानवरों सहित सभी के प्रति बहुत दयालु थे. एक दिन बाबूजी पोर्च में अपनी सीट पर बैठे थे और एक छोटा सा कुत्ता उन के पास आया. बाबूजी ने उसे प्यार से थपथपाया और उन दोनों में तत्काल एक बंधन बन गया. बाबूजी ने उसे रोटी खिलाई और कुत्ते ने उसे बिजली की गति से खत्म कर दिया क्योंकि वह भूखा लग रहा था. भले ही वह आवारा कुत्ता था, वह वहीं रहता था. वह दिन में ज्यादातर समय बाबूजी के बरामदे में ही रहता था, चाहे बाबूजी अपनी दिनचर्या में व्यस्त रहें या जब वे बरामदे में भी रहें. वह सफेद धब्बे और छोटे बालों वाला एक सुंदर, भूरा कुत्ता था जो ऐसा लगता था जैसे वह पेशेवर मुंडा था. कुत्ता हर दिन दिखाई देता था. जब बाबूजी पोर्च पर होते थे तो दोनों को एकदूसरे का साथ भाता था.

कुत्ते ने कभी बाबूजी को परेशान नहीं किया, बल्कि उन के लिए सुरक्षात्मक था. वह हर उस व्यक्ति पर भूंकता था जो बाबूजी के पास जाता था जब तक कि बाबूजी यह न इशारा देते कि आगंतुक मित्र है, शत्रु नहीं. वह कुत्ता रोज ही सुबह पोर्च पर दिखाई देता और बाबूजी के साथ बैठता. फिर अंधेरा होने पर चुपचाप घर के साथ वाली गली में, यातायात से दूर, सो जाता. नौकरों और पड़ोसियों को उस के होने की आदत हो गई और वे लोग उसे बाबूजी का कुत्ता सम?ाने लगे. चूंकि बाबूजी और नौकर उसे सुबह व शाम को खाना खिलाते थे, वह खुश लग रहा था और आखिरकार एक सुंदर कुत्ते के रूप में बड़ा हुआ, जिस ने कभी किसी को परेशान न किया और बाबूजी को अच्छी संगति प्रदान की. वह बाबूजी के बाहर जाने पर उन के साथ जाता. वह बिना पट्टे के ही उन के साथ चलता था

और अपने आसपास के सभी लोगों के साथ दोस्ताना व्यवहार करता था. जो लोग उसे पहचानते थे, वे हमेशा उस कुत्ते की प्रशंसा करते थे. बाबूजी ने अपने कुत्ते का नाम ‘रक्ष’ (रक्षक से बना) रखा, क्योंकि एक बार उस ने बाबूजी के जीवन को गुंडों के एक ?ांड से बचाया था, जो उन के पैसे चोरी करने की कोशिश कर रहे थे. बाबूजी एक एटीएम बूथ से बहुत रुपयों की राशि के साथ बाहर निकल रहे थे कि अचानक 3 गुंडों ने उन्हें पकड़ लिया और उन से पैसे छीनने लगे. एटीएम बूथ में घुसने से पहले ही वे बाबूजी की घात में थे और धीरेधीरे उन का पीछा कर रहे थे. जैसे ही वे बाहर आए, उन्होंने उन पर हमला कर दिया और उन्हें पीटा व उन के पैसे ले कर भागे. बाबूजी की नाक, कुहनी, घुटने लहूलुहान हो गए. बूथ में मौजूद गार्ड खर्राटे ले रहा था, शोर सुन कर उस की नींद खुल गई.

वैसे भी, बूथ को जल्दी से बंद करने व ग्राहकों की सुरक्षा करने के लिए उसे प्रशिक्षित ही नहीं किया गया था. बाबूजी दयनीय पीड़ा में थे, उन को हौस्पिटल ले जाया गया. उन्हें 19 टांके लगवाने पड़े. वे पूरे एक सप्ताह तक निष्क्रिय रहे. उधर, रक्ष ने तीनों बदमाशों का पीछा कर उन्हें धर दबोचा और वे पैसे छोड़ कर अपनी जान बचाने की कोशिश करते रहे. कुत्ते ने उन पर तब तक हमला किया जब तक कि पुलिस ने तीनों गुंडों को कुत्ते से नहीं बचाया. बाद में उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया. कुत्ते के काटने के कारण उन्हें 14-14 इंजैक्शनों के साथ इलाज करवाना पड़ा. बाबूजी के पड़ोसियों सहित अन्य लोगों को बचाने के लिए रक्ष के बारे में और भी कहानियां हैं. इस घटना के बाद कुत्ता ‘रक्ष’ बन गया और बाबूजी जब उसे रक्ष कह कर संबोधित करते तो वह उन के पास आ जाता.

उस को पता लग गया था कि अब उस का नाम रक्ष है. अब जब भी बाबूजी खरीदारी करने जाते तो वे निश्ंिचत रहते क्योंकि रक्ष उन के साथ होता. रक्ष दुकान के बाहर बैठ कर बाबूजी के आने तक प्रतीक्षा करता था और उन के साथ घर जाता था जब तक कि बाबाजी सुरक्षित घर न पहुंच जाते. एक बार, पोर्च सीट से उठने के बाद बाबूजी ने देखा कि उन का रूमाल गायब था. उन्होंने इधरउधर खोजा, परंतु नहीं मिला. उन्होंने सोचा कि कहीं छोड़ दिया होगा और उस के बाद ज्यादा ध्यान नहीं दिया. दूसरी बार उन्होंने अपने जूते से एक मोजा खो दिया. फिर उसे भी तुच्छ सम?ा कर वे इस के बारे में भूल गए. उन्हें थोड़ी चिंता हुई कि शायद वे चीजों को भूलने लगे हैं- सोचा कि शायद वे बूढ़े हो रहे हैं. आखिर वे 65 साल की उम्र के आगे बढ़ चुके थे. जीवन सामान्यतया और शांति से चल रहा था. बाबूजी को अपनी पत्नी की बड़ी याद आती थी. लेकिन वे खुद को सांत्वना देते कि प्रकृति से कोई नहीं लड़ सकता. कोई कितनी भी कोशिश करे, होनी को नहीं टाल सकता और जीवन तो जीना ही है. बाबूजी के बच्चे कभीकभार उन से मिलने आते थे और हो सका तो वे अपने पोतेपोतियों की संगति का आनंद लेते थे.

उन के दोनों पुत्रों ने उन्हें उन के साथ रहने की पेशकश की. उन दोनों के बीच समय बांटे. उन्होंने इस प्रस्ताव पर लंबे समय तक गंभीर और गहन विचार कर फैसला किया कि वे अपने पुश्तैनी घर में अपने नौकरों के साथ ही रहेंगे. बच्चों की अपनी जिंदगी है. उन की पत्नियां भी नौकरीपेशे वाली थीं और उन के जीवन में वे हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे. उन्होंने सोचा कि वे खुश हैं. उन के लिए यह ही काफी सुकून देने वाला था कि उन के बेटों का प्रस्ताव गंभीर था और मन की शांति थी कि उन के पास विकल्प था कि वे उन के साथ रह सकते हैं अगर अपने दम पर जीने में असमर्थ हों तो. उन के पास मित्र, सुविधाएं, स्वतंत्रता, वांछनीय संगति और गतिविधियां थीं और सब से अच्छी बात यह थी कि कोई दायित्व न था. उन्होंने खुद को अपने जीवनसाथी की कंपनी के बिना रहने में सक्षम बनाया था,

भले ही वह हर समय उन के विचारों में थी. उन्होंने सोचा कि कभीकभी यादों को संजोने के लिए अंतराल भर देता है. बाबूजी ने यह भी महसूस किया कि रक्ष की संगति और वह मौन और समर्पित प्रेम, जो उस ने उन्हें कम अपेक्षा के साथ दिया था, उन के स्वार्थहीन जीवन के लिए पर्याप्त था. विरले ही, लेकिन निश्चितरूप से बाबूजी राजनीति और धर्म व अन्य मामलों के बारे में अपनी कुंठाओं को बाहर निकालते और रक्ष सौ प्रतिशत सहमत होता. जैसेजैसे प्रकृति ने अपनी भूमिका निभाना जारी रखा, बाबूजी बूढ़े हो गए और प्राकृतिक प्रक्रियाएं अपना काम करने लगीं. वे सही खाना खाते, व्यायाम करते और सकारात्मक सोचते, लेकिन प्रकृति को कोई नहीं हरा सकता. उन की वार्षिक चिकित्सा परीक्षा के बाद डाक्टर ने उन से कहा कि वे चौथे चरण के लिवर कैंसर से ग्रसित हैं. यह एक भयंकर, घातक व तेजी से बढ़ता कैंसर है. वे इस के कारण होने वाले दर्द को कम करने के लिए पूरी कोशिश करें और शरीर को ज्यादा विश्राम दें. यह कैंसर लाइलाज है और रोगी के पाचनतंत्र के साथसाथ मानसिक स्थिरता पर भी भारी पड़ता है. बाबूजी आश्चर्यचकित थे क्योंकि वे कभी भी जोखिमभरे कार्यों में लिप्त नहीं हुए. वे जीवनभर शाकाहारी रहे थे. उन्होंने कभी शराब नहीं पी, धूम्रपान नहीं किया. उन्होंने नियमितरूप से व्यायाम किया और जीवनभर एक सुरक्षित कार्यालय की नौकरी की. उसी दोपहर, बाबूजी रक्ष के साथ पोर्च पर बैठे थे, सुबह का आनंद ले रहे थे, लेकिन चिंतित थे. उसी समय धोबी नियमित तरीके से गंदे कपड़े मांगने के लिए दरवाजे पर आया कि वह धो सके और उन्हें वापस कर सके.

बाबूजी कपड़े बाहर छोड़ कर धोबी को भुगतान करने के लिए पैसे लेने चले गए. धोबी भी समय बचाने के लिए अगले घर से कपड़े लाने के लिए निकल गया. जब वह वापस आया तो बाबूजी ने उसे भुगतान दिया और उस से कपड़े गिनने के लिए कहा. बाबूजी ने धोबी को देने के लिए 20 कपड़े इकट्ठे किए थे और हमेशा की तरह, धोबी ने केवल 19 कपड़ों की गिनती की. बाबूजी ने उस से बारबार गिनने के लिए कहा और अपने सामने देखा पर केवल 19 कपड़े थे. बाबूजी यह सुनिश्चित करने के लिए अंदर गए कि कुछ भी गलती से गिरा तो नहीं था. लेकिन कुछ भी न मिला. उन को कपड़े के गायब होने की नहीं, बल्कि अपनी मानसिक क्षमता के बारे में चिंता हुई. लेकिन उन्होंने इसे नजरअंदाज कर दिया. धोबी को जाने दिया. जैसे ही वे वापस सीट पर बैठे, रक्ष दौड़ता हुआ आया और उन की बगल में बैठ गया. वह जीभ से हांफ रहा था, फुफकार रहा था. बाबूजी को आराम करने के बाद, उन्हें मानसिक उथलपुथल हुई और इस बारे में बहुत मानसिक स्ट्रैस हुआ कि क्या उन्हें अपनी बीमारी के बारे में अपने बेटों को सूचित करना चाहिए या उन्हें अभी थोड़े समय के बाद करना चाहिए या एक पत्र या ईमेल या कौल द्वारा ऐसा करना चाहिए.

उन्होंने फैसला किया कि उन्हें बुलाना सब से अच्छा है. राघव और भार्गव दोनों आए. वे बुरी खबर सुन कर चौंक गए. उन्हें इस तरह के आघात का कभी अनुभव नहीं था. वे रोना बंद नहीं कर पा रहे थे. उन दोनों ने डाक्टर और बाबूजी के मानसिक तनाव व मानसिक दर्द को कम करने के बारे में सलाह मांगी. डाक्टर ने बहुत मदद की और उन्हें सलाह दी कि वे उन्हें अपनी पसंद के अनुसार काम करने दें और उन के लिए कम से कम तनाव का माहौल बनाएं और उन के सामने बीमारी के बारे में ज्यादा बात न करें. कुछ हफ्ते बाद वे अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए अपनेअपने घर चले गए और उन्हें हर दिन फोन करने का वादा किया और उन से उन के साथ खुल कर बात करने व जितनी जल्दी हो सके उन्हें बुलाने का वादा किया अगर उन्हें उन की जरूरत है. सितंबर माह की एक सुहानी सुबह बाबूजी को सांस लेने में तकलीफ महसूस हुई और वे उठ नहीं पाए. उन्होंने अपने नौकर को बुलाया, जिस ने तुरंत एंबुलैंस को फोन किया और उन्हें अस्पताल पहुंचाया. लेकिन बाबूजी को एंबुलैंस के कर्मचारियों द्वारा उन्हें पुनर्जीवित करने के प्रयासों के बावजूद उन्होंने एंबुलैंस में ही दम तोड़ दिया.

उन्हें बड़ा घातक दिल का दौरा पड़ा था और वे डिफिब्रिलेशन द्वारा भी उन्हें पुनर्जीवित न कर सके. सभी उचित संस्कारों के बाद बेटे वापस आए और बाबूजी के दाह संस्कार की तैयारी की. बाबूजी ने अपनी पत्नी की तरह ही पालदारों द्वारा श्मशान घाट ले जाने की इच्छा व्यक्त की थी. श्मशान घाट उन के घर से करीब 3 मील की दूरी पर था. जब पाल वाले चल रहे थे, भार्गव ने देखा कि रक्ष भी अपनी जीभ बाहर लटकाए हुए, हांफते हुए उन का पीछा कर रहा था. भार्गव ने उसे बुलाया और वापस जाने का इशारा किया, लेकिन रक्ष ने उस की बात अनसुनी कर दी. उन्होंने अर्थी चलना जारी रखा और जब वे सभी श्मशान घाट पहुंचे व संस्कार के लिए तैयार हुए तो वह बैठे हुए – बहुत करीब लेकिन पर्याप्त जगह छोड़ कर, उदास चेहरे और फटी आंखों के साथ बाबूजी के अवशेषों के दहन को घूर रहा था. पूरे संस्कार के दौरान, भार्गव ने देखा कि भीड़ में बाकी सभी लोगों की तरह रक्ष की आंखों से आंसू की धारा बह रही थी. दहन की रस्म के बाद सभी लोग कारों से घर लौट आए, रक्ष 3 मील दौड़ कर बाबूजी के घर पहुंचा.

सभी थके हुए और उदास थे और अपने साधारण भोजन के बाद सभी रात को विश्राम के लिए चले गए. रक्ष भी दौड़भाग कर थक गया था और निश्चय ही दुख में था. सब बहुत जल्दी सो गए. भार्गव सो न सका और कुछ ताजी हवा लेने के लिए बाहर आया. तब उस ने देखा कि रक्ष अभी भी पोर्च पर था, शांति से सो रहा था. यह एक असामान्य घटना, क्योंकि रक्ष आमतौर पर सोने के लिए गली में चला जाता था, राघव को अजूबी लगी कि सोते समय रक्ष पर एक सफेद कपड़ा था. जब उस ने गौर से देखा तो ऐसा लग रहा था कि यह बाबूजी की सफेद गंजी है. रक्ष उसे कस कर दबोचे सो रहा था. इसे देख भार्गव की आंखों में आंसू आ गए और एक क्षणभंगुर विचार उस के दिमाग में कौंध गया- क्या रक्ष बाबूजी की गंजी पकड़ कर सो रहा है या बाबूजी का असीमित स्नेह रक्ष को पकड़े है?- उस दिन, बाद में, भार्गव और राघव घर के साथ वाली गली में गए और एक कोने में, उन्हें एक घोंघा छेद मिला, जहां रक्ष ने बाबूजी के रूमाल, उन के जुराब और अन्य सामान को साथ रखा था, जिसे रक्ष हमेशा बाबूजी की सुगंध लिए संजोता रहा था. उन्हें जलन हुई कि रक्ष के पास कुछ ऐसा है जो उन के पास नहीं हो सकता, लेकिन वे इस बात से संतुष्ट थे कि उन के पास उस की सुखद यादें हमेशा संजोने के लिए हैं.

मेरे पति के साथ लगातार इरैक्शन की प्रौब्लम आ रही है क्या करें?

सवाल 

मैं 45 वर्षीय नौनवर्किंग, विवाहित महिला हूं. मेरे पति मुझ से 2 वर्ष बड़े हैं. वे अच्छी प्राइवेट जौब में हैं, शारीरिक रूप से बलिष्ठ हैं. उन्हें कोई बीमारी नहीं है. किसी तरह की दवाई का सेवन भी नहीं करते. आजकल उन के साथ इरैक्शन की प्रौब्लम आ रही है. इस से उदास हो जाते हैं. इस का हमारे वैवाहिक जीवन पर असर पड़ रहा है. क्या करूं?

जवाब 

सब से पहले जानने की कोशिश करें कि पति को कोई परेशानी तो नहीं है जो वे आप से शेयर नहीं कर रहे. हो सकता है औफिस की कोई प्रौब्लम चल रही हो जो वे आप से छिपा रहे हों. यदि उपरोक्त बात न हो तो कुछ अपनेआप पर भी ध्यान दें. पति के सामने जरा बनसंवर कर रहें. कुछ सैक्सी कपड़े पहनें और पति से खुल कर जानें कि उन्हें क्या चाहिए. अपने शरीर पर ध्यान दें, उसे आकर्षक बनाएं. रोज सैर पर जाएं. एक्सरसाइज करें और पति को भी करवाएं. गरिष्ठ भोजन के बजाय हैल्दी फूड खाएं. आप पतिपत्नी साथ बैठ कर रात में अपने कमरे में रोमांटिक फिल्म देखें तो आप की समस्या 90 फीसदी हल हो सकती है. पत्नियों को वैसे भी पतियों को लुभा कर रखना चाहिए. हमारी राय मान कर देखिए. फिर भी, कुछ फर्क नजर न आए तो डाक्टरी परामर्श ले सकती हैं.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem 

अपने पराए,पराए अपने : क्या थी इसकी वजह

पार्किंग में कार खड़ी कर के मैं दफ्तर की ओर बढ़ ही रहा था कि इतने में तेजी से चलते हुए वह आई और ‘भाई साहब’ कहते हुए मेरा रास्ता रोक कर खड़ी हो गई. उस की गोद में दोढ़ाई साल की एक बच्ची भी थी. एक पल को तो मैं सकपका गया कि कौन है यह? यहां तो दूरदराज के रिश्ते की भी मेरी कोई बहन नहीं रहती. मैं अपने दिमाग पर जोर डालने लगा.

मुझे उलझन में देख कर वह बोली, ‘‘क्या आप मुझे पहचान नहीं पा रहे हैं? मैं लाजवंती हूं. आप की बहन लाजो. मैं तो आप को देखते ही पहचान गई थी.’’ मैं ने खुशी के मारे उस औरत की पीठ थपथपाते हुए कहा, ‘‘अरी, तू है चुड़ैल.’’

मैं बचपन में उसे लाड़ से इसी नाम से पुकारता था. सो बोला, ‘‘भला पहचानूंगा कैसे? कहां तू बित्ती भर की थी, फ्रौक पहनती थी और अब तो तू एक बेटी की मां बन गई है.’’

मेरी बातों से उस की आंखें भर आईं. मुझे दफ्तर के लिए देर हो रही थी, इस के बावजूद मैं ने उसे घर ले चलना ही ठीक समझा. वह कार में मेरी साथ वाली सीट पर आ बैठी. रास्ते में मैं ने गौर किया कि वह साधारण थी. सूती साड़ी पहने हुए थी. मामूली से गहने भी उस के शरीर पर नहीं थे. सैंडल भी कई जगह से मरम्मत किए हुए थे.

बातचीत का सिलसिला जारी रखने के लिए मैं सब का हालचाल पूछता रहा, मगर उस के पति और ससुराल के बारे में कुछ न पूछ सका. लाजवंती को मैं बचपन से जानता था. वह मेरे पिताजी के एक खास दोस्त की सब से छोटी बेटी थी. दोनों परिवारों में बहुत मेलजोल था. 8

हम सब भाईबहन उस के पिताजी को चाचाजी कहते थे और वे सब मेरे पिताजी को ताऊजी. अम्मां व चाची में खूब बनती थी. दोनों घरों के मर्द जब दफ्तर चले जाते तब अम्मां व चाची अपनी सिलाईबुनाई ले कर बैठ जातीं और घंटों बतियाती रहतीं.

हम बच्चों के लिए कोई बंधन नहीं था. हम सब बेरोकटोक एकदूसरे के घरों में धमाचौकड़ी मचाते हुए खोतेपीते रहते. पिताजी ने हाई ब्लडप्रैशर की वजह से मांस खाना व शराब पीना बिलकुल छोड़ दिया था. वैसे भी वे इन चीजों के ज्यादा शौकीन नहीं थे, लेकिन चाचाजी खानेपीने के बेहद शौकीन थे.

अकसर उन की फरमाइश पर हमारे यहां दावत हुआ करती. इस पर अम्मां कभीकभी पिताजी पर झल्ला भी जाती थीं कि जब खुद नहीं खाते तो दूसरों के लिए क्यों इतना झंझट कराते हो. तब पिताजी उन्हें समझा देते, ‘क्या करें बेचारे पंडित हैं न. अपने घर में तो दाल गलती नहीं, हमारे यहां ही खा लेते हैं. तुम्हें भी तो वे अपनी सगी भाभी की तरह ही मानते हैं.’

मेरे पिताजी ऐक्साइज इंस्पैक्टर थे और चाचाजी ऐजूकेशन इंस्पैक्टर. चाचाजी मजाक में पिताजी से कहते, ‘यार, कैसे कायस्थ हो तुम… अगर मैं तुम्हारी जगह होता तो पानी की जगह शराब ही पीता.’ तब पिताजी हंसते हुए जवाब देते, ‘लेकिन गंजे को खुदा नाखून देता ही कहां है…’

इसी तरह दिन हंसीखुशी से बीत रहे थे कि अचानक न जाने क्या हुआ कि चाचाजी नौकरी से सस्पैंड हो गए. कई महीनों तक जांच होती रही. उन पर बेईमानी करने का आरोप लगा था. एक दिन वे बरखास्त कर दिए गए. बेचारी चाची पर तो जैसे मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा. 2 बड़ी लड़कियों की तो शादी हो चुकी थी, पर 3 बच्चे अभी भी छोटे थे. सुरेंद्र 8वीं, वीरेंद्र 5वीं व लाजो चौथी जमात में पढ़ रही थी.

चाचाजी ने जोकुछ कमाया था, वह जी खोल कर मौजमस्ती में खर्च कर दिया था. आड़े समय के लिए चाचाजी ने कुछ भी नहीं जोड़ा था. चाचाजी को बहुत मुश्किल से नगरनिगम में एक छोटी सी नौकरी मिली. जैसेतैसे पेट भरने का जुगाड़ तो हुआ, लेकिन दिन मुश्किल से बीत रहे थे. वे लोग बढि़या क्वार्टर के बजाय अब छोटे से किराए के मकान में रहने लगे. चाची को चौकाबरतन से ले कर घर का सारा काम करना पड़ता था.

लाड़प्यार में पले हुए बच्चे अब जराजरा सी चीजों के लिए तरसते थे. दोस्ती के नाते पिताजी उस परिवार की ज्यादा से ज्यादा माली मदद करते रहते थे.

समय बीतता गया. चाचाजी के दोनों लड़के पढ़ने में तेज थे. बड़े लड़के को बीए करने के बाद बैंक में नौकरी मिल गई और छोटे बेटे का मैडिकल कालेज में दाखिला हो गया. मगर लाजो का मन पढ़ाई में नहीं लगा. वह अकसर बीमार रहती थी. वह बेहद चिड़चिड़ी और जिद्दी भी हो गई थी और मुश्किल से 8वीं जमात ही पास कर पाई.

फिर पिताजी का तबादला बिलासपुर हो गया. मैं भी फोरैस्ट अफसर की ट्रेनिंग के लिए देहरादून चला गया. कुछ अरसे के लिए हमारा उन से संपर्क टूट सा गया. फिर न पिताजी रहे और न चाचाजी. हम लोग अपनीअपनी दुनिया में मशगूल हो गए. कई सालों के बाद ही इंदौर वापस आना हुआ था.

शाम को जब मैं दफ्तर से घर पहुंचा तो देखा कि लाजो सब से घुलमिल चुकी थी. मेरे दोनों बच्चे ‘बूआबूआ’ कह कर उसे घेरे बैठे थे और उस की बेटी को गोद में लेने के लिए उन में होड़

मची थी. मेरी एकलौती बहन 2 साल पहले एक हादसे में मर गई थी, इसलिए मेरी बीवी उमा भी ननद पा कर खुश हुई.

खाना खाने के बाद हम लोग उसे छोड़ने गए. नंदानगर में एक चालनुमा मकान के आगे उस ने कार रुकवाई. मैं ने चाचीजी के पैर छुए, पर वे मुझे पहचान न पाईं. तब लाजो ने मुझे ढूंढ़ निकालने की कहानी बड़े जोश से

सुनाई. चाचीजी मुझे छाती से लगा कर खुश हो गईं और रुंधे गले से बोलीं, ‘‘अच्छा हुआ बेटा, जो तुम मिल गए. मुझे तो रातदिन लाजो की फिक्र खाए जाती है. दामाद नालायक निकला वरना इस की यह हालत क्यों होती.

‘‘भूखों मरने से ले कर गालीगलौज, मारपीट सभी कुछ जब तक सहन करते बना, यह वहीं रही. फिर यहां चली आई. दोनों भाइयों को तो यह फूटी आंख नहीं सुहाती. अब मैं करूं तो क्या करूं? जवान लड़की को बेसहारा छोड़ते भी तो नहीं बनता. ‘‘बेटा, इसे कहीं नौकरी पर लगवा दो तो मुझे चैन मिले.’’

सुरेंद्र भी इसी शहर में रहता था. अब वह बैंक मैनेजर था. एक दिन मैं उस के घर गया. उस ने मेरी बहुत खातिरदारी की, लेकिन वह लाजो की मदद के नाम पर टस से मस नहीं हुआ. लाजवंती का जिक्र आते ही वह बोला, ‘‘उस का नाम मत लीजिए भाई साहब. वह बहुत तेज जबान की है. वह अपने पति को छोड़ आई है.

‘‘हम ने तो सबकुछ देख कर ही उस की शादी की थी. उस में ससुराल वालों के साथ निभाने का ढंग नहीं है. माना कि दामाद को शराब पीने की लत है, पर घर में और लोग भी तो हैं. उन के सहारे भी तो रह सकती थी वह… घर छोड़ने की क्या जरूरत थी?’’ सुरेंद्र की बातें सुन कर मैं अपना सा मुंह ले कर लौट आया.

मैं बड़ी मुश्किल से लाजो को एक गांव में ग्रामसेविका की नौकरी दिला सका था. चाचीजी कुछ दिन उस के पास रह कर वापस आ गईं और अपने बेटों के साथ रहने लगीं.

मेरा जगहजगह तबादला होता रहा और तकरीबन 15 साल बाद ही अपने शहर वापस आना हुआ. एक दिन रास्ते में लाजो के छोटे भाई वीरेंद्र ने मुझे पहचान लिया. वह जोर दे कर मुझे अपने घर ले गया. उस ने शहर में क्लिनिक खोल लिया था और उस की प्रैक्टिस भी अच्छी चल रही थी.

लाजो का जिक्र आने पर उस ने बताया कि उस की तो काफी पहले मौत हो गई. यह सुनते ही मुझे धक्का लगा. उस का बचपन और पिछली घटनाएं मेरे दिमाग में घूमने लगीं. लेकिन एक बात बड़ी अजीब लग रही थी कि मौत की खबर सुनाते हुए वीरेंद्र के चेहरे पर गम का कहीं कोई निशान नहीं था. मैं चाचीजी से मिलने के लिए बेताब हो उठा. वे एक कमरे में मैलेकुचैले बिस्तर पर पड़ी हुई थीं. अब वे बहुत कमजोर हो गई थीं और मुश्किल से ही उठ पाती थीं. आंखों की रोशनी भी तकरीबन खत्म हो चुकी थी.

मैं ने अपना नाम बताया तभी वे पहचान सकीं. मैं लाजो की मौत पर दुख जाहिर करने के लिए कुछ बोलने ही वाला था कि उन्होंने हाथ पकड़ कर मुझे अपने नजदीक बैठा लिया. वे मेरे कान में मुंह लगा कर धीरे से बोलीं, ‘‘लाजो मरी नहीं है बेटा. वह तो इसी शहर में है. ये लोग उस के मरने की झूठी खबर फैला रहे हैं. तुम ने जिस गांव में उस की नौकरी लगवा दी थी, वहीं एक ठाकुर साहब भी रहते थे. उन की बीवी 2 छोटेछोटे बच्चे छोड़ कर मर गई. गांव वालों ने लाजो की शादी उन से करा दी.

‘‘लाजो के अब 2 बेटे भी हैं. वैसे, अब वह बहुत सुखी है, लेकिन एक बार उसे अपनी आंखों से देख लेती तो चैन से मरती. ‘‘एक दिन लाजो आई थी तो वीरेंद्र की बीवी ने उसे घर में घुसने तक नहीं दिया. वह दरवाजे पर खड़ी रोती रही. जातेजाते वीरेंद्र से बोली थी कि भैया, मुझे अम्मां से तो मिल लेने दो. लेकिन ये लोग बिलकुल नहीं माने.’’

लाजो की यादों में डूब कर चाचीजी की आंखों से आंसू बहने लगे थे. वे रोतेरोते आगे बोलीं, ‘‘बताओ बेटा, उस ने क्या गलत किया? उसे भी तो कोई सहारा चाहिए था. सगे भाई हो कर इन दोनों ने उस की कोई मदद नहीं की बल्कि दरदर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया. तुम्हीं ने उस की नौकरी लगवाई थी…’’

तभी मैं ने महसूस किया कि सब की नजरें हम पर लगी हुई हैं. मैं उस जगह से फौरन हट जाना चाहता था, जहां अपने भी परायों से बदतर हो गए थे. मैं ने मन ही मन तय कर लिया था कि लाजो को ढूंढ़ निकालना है और उसे एक भाई जरूर देना है.

किसानों को रिझाने में जुटी भाजपा, वाकई मदद या लौलीपोप?

प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के बाद 18 जून को मोदी वाराणसी पहुंचे जहां उन्होंने सब से पहले किसान सम्मेलन को संबोधित किया. साथ ही उन्होंने 20 हजार करोड़ रुपया 17वीं पीएम किसान निधि के रूप में किसानों के खाते में ट्रांसफर किया. किसानों को संबोधित करते हुए मोदी ने कहा, “मैं ने किसान, नौजवान, नारी शक्ति और गरीब को विकसित भारत का मजबूत स्तंभ माना है. अपने तीसरे कार्यकाल की शुरुआत मैं ने इन्हीं के सशक्तिकरण से की है. सरकार बनते ही सब से बड़ा किसान और गरीब परिवारों से जुड़ा फैसला लिया गया है. देश में गरीब परिवारों के लिए 3 करोड़ नए घर बनाने हों या फिर पीएम किसान सम्मान निधि को आगे बढ़ाना हो… ये फैसले करोड़ोंकरोड़ों लोगों की मदद करेंगे.”

कार्यक्रम के दौरान उन्होंने स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) की 30,000 से अधिक महिलाओं को कृषि सखी के रूप में प्रमाण पत्र भी प्रदान किए. बकौल प्रधानमंत्री पीएम-किसान निधि योजना के तहत अब तक 11 करोड़ से अधिक पात्र किसान परिवारों को 3.04 लाख करोड़ रुपए से अधिक का लाभ मिल चुका है.

19 जून को किसानों के हित में मोदी सरकार ने एक और काम किया. मोदी की अध्यक्षता में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 14 खरीफ फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को मंजूरी दे दी. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के मंत्री अश्विनी वैष्णव ने मीडिया को बताया कि धान, रागी, बाजरा, ज्वार, मक्का और कपास समेत 14 खरीफ सीजन की फसलों पर एमएसपी को लागू कर दिया गया है. जिस के फलस्वरूप किसानों को एमएसपी के रूप में लगभग 2 लाख करोड़ रुपए मिलेंगे. धान का नया एमएसपी 2300 रुपए होगा जो पहले से 117 रुपए ज्यादा है. उन्होंने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री मोदी का तीसरा कार्यकाल किसानों के कल्याण के लिए निरंतर कार्य करेगा.

अचानक मोदी सरकार किसानों के प्रति इतनी दयालु होती क्यों नजर आ रही है. वह सरकार जो अब तक किसानों की मांगों पर कान भी नहीं धर रही थी. वो सरकार जो किसानों के आंदोलन को अपने क्रूर दमनात्मक रवैया से कुचल देने पर उतारू थी, वो सरकार जिस ने किसानों की राह में बड़ेबड़े कीलकांटे और सीमेंट की दीवारें खड़ी कर के उन्हें अपनी बात कहने दिल्ली के अंदर आने नहीं दिया, वो सरकार जिस के मंत्री ने आंदोलनरत किसानों को अपनी गाड़ियों से कुचल कर मारा और तोहफे में लोकसभा चुनाव का टिकट पाया, वो सरकार जिसके कानों तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश करते हुए 700 किसानों ने अपनी जान दे दी, आखिर ऐसी कठोर सरकार का दिल किसानों के प्रति इतनी ममता कैसे उंडेलने लगा?

दरअसल इस की वजह है लोकसभा चुनाव का परिणाम, जिसके जरिए किसानों ने न सिर्फ अपनी ताकत का अहसास भारतीय जनता पार्टी को करा दिया है, बल्कि यह भी समझा दिया है कि उन की बात ना सुनी गई तो वे आगे राज्यों के विधानसभा चुनावों में वे भारतीय जनता पार्टी को मूल समेत उखाड़ फेंकेंगे.

अब की लोकसभा चुनाव में किसानों ने भाजपा को काफी करारा जवाब दिया है. खासतौर पर हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के किसानों ने तो भाजपा के पैरों तले जमीन खींच ली. उत्तर प्रदेश में तो भाजपा को इतना बड़ा धक्का पहुंचा कि अपने बलबूते केंद्र की सत्ता पर आसीन होने और अपनी तानाशाही कायम करने का उन का सपना छन्न से टूट गया.

उत्तर प्रदेश जहां की 80 सीटों पर भाजपा जीत का दावा ठोंक रही थी, राम मंदिर उद्घाटन के बाद भी उस को मात्र 37 सीटें ही मिलीं जबकि समाजवादी पार्टी ने 42 सीटें जीत लीं. उत्तर प्रदेश की करारी शिकस्त ने ही भाजपा को सहयोगियों की बैसाखियों पर झूलने के लिए मजबूर किया. इस में सब से बड़ी भूमिका निभाई उत्तर प्रदेश के किसानों ने और उस के बाद व्यापारियों ने, जिन के काम धंधे मोदी सरकार की गलत नीतियों ने बिलकुल चौपट कर दिए है.

सिर्फ यह 3 राज्य ही नहीं, इस बार के लोकसभा चुनाव में पूरे देश से भाजपा के हक में कोई अच्छा फैसला जनता ने नहीं दिया. जबकि धर्म का ढोलतमाशा खूब हुआ, मंदिर महिमा के बखान के साथ मुसलमानों को भी जम कर गरियाया गया. ‘अब की बार 400 पार’ का स्लोगन ले कर भाजपा ने चुनाव प्रचार किया, लेकिन जनता ने उस को 240 सीटों पर ही रोक दिया. जबकि यही भाजपा 2019 के लोकसभा चुनाव में अकेले 303 सीटों पर जीत कर आई थी और अपने दम पर सरकार बनाई थी. मगर इस बार भाजपा को 63 सीटों का बहुत बड़ा नुकसान हुआ है, जिस का मुख्य कारण किसान हैं. लिहाजा अब किसानों को साधना जरूरी है.

भाजपा ने एनडीए के अन्य घटक दलों के सहयोग से किसी तरह सरकार तो बना ली है, लेकिन इस ‘खिचड़ी’ सरकार में भाजपा की ताकत और फैसले लेने की क्षमता पहले की तरह नहीं है. कुछ ही समय बाद देश के कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में यदि किसानों को नहीं पटाया गया तो बहुत बड़ा खामियाजा पार्टी को भुगतना पड़ेगा. इसी के मद्देनजर पार्टी ने अपनी स्थिति पर मंथन शुरू कर दिया है.

गौरतलब है कि तीन काले कृषि कानूनों को ले कर भाजपा के खिलाफ देश में बड़ा आंदोलन चला. ऐसे कानून जिस में अपने अमीर उद्योगपतियों को फायदा पहुंचाने की नीयत से मोदी सरकार ने किसानों को उन की ही जमीनों पर उन्हें मजदूर बनाने के सारे इंतजाम कर डाले थे. इस के खिलाफ साल भर से ऊपर दिल्ली की सीमा पर कई राज्यों के किसान धरने पर बैठे रहे. इस विरोध प्रदर्शन के दौरान पुलिस की कड़ी कार्रवाई, मौसम की मार, कड़ाके की ठंड और बारिश के बीच बार बार पुलिस द्वारा मारनेभगाने की कोशिशें, जिस के चलते सैकड़ों बुजुर्ग और युवा किसानों की जान गई. भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत का कहना था कि विरोध प्रदर्शन के दौरान लगभग 700 किसानों की मौत हुई है.

किसानों को जबरदस्त तरीके से प्रताड़ित करने के बाद जब सरकार ने देखा कि किसान सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ लड़ने मरने और जान देने पर उतारू हैं मगर आंदोलन ख़त्म करने को तैयार नहीं हैं तो किसानों के गुस्से को देखते हुए मोदी सरकार ने अपने तीन काले कृषि कानून वापस तो ले लिए, लेकिन किसानों का गुस्सा शांत करने या उन से माफी मांगने का कोई उपक्रम नहीं किया क्योंकि सरकार भारी अहंकार और दम्भ में थी. नतीजा यह हुआ कि लोकसभा चुनाव में किसानों ने भाजपा को जबरदस्त पटखनी दी. ग्रामीण क्षेत्रों में भाजपा का वोट शेयर जो 2019 में 39.5% था, से गिर कर 35% हो गया. इस के अलावा किसानों के विरोध के चलते भाजपा को 40 सीटों का नुकसान भी उठाना पड़ा. खासकर पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्से में.

पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने पंजाब में गुरदासपुर और होशियारपुर से दो सीटें जीती थीं, लेकिन इस बार वह कुल 13 में से एक भी सीट नहीं जीत पाई. पंजाब में भाजपा की अलोकप्रियता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि राज्य में चुनाव प्रचार शुरू होने के बाद से ही उस के उम्मीदवारों को विरोध का सामना करना पड़ा. भाजपा के प्रति लोगों में इतनी नफरत थी कि कई गांवों में तो भाजपा उम्मीदवारों को वोट मांगने के लिए आने से ही रोक दिया गया. तो कई जगह भाजपा उम्मीदवार और उन के समर्थकों को दौड़ा दौड़ा कर गांव वालों ने पीटा.

हरियाणा में भी भाजपा की हार पंजाब जैसी ही रही. पिछले लोकसभा चुनाव में भगवा पार्टी ने राज्य में सभी 10 सीटों पर कब्जा कर के क्लीन स्वीप किया था, लेकिन इस बार वह सिर्फ 5 सीटें ही जीत पाई. पंजाब के बाद हरियाणा के किसानों ने 2020-21 के विरोध प्रदर्शनों में सब से जोरदार भागीदारी की थी. पंजाब की तरह हरियाणा में भी ग्रामीण जनता ने भाजपा उम्मीदवारों को वोट मांगने के लिए गांवों में घुसने नहीं दिया.

लोकसभा चुनाव से पहले फरवरी में हरियाणा के हजारों किसानों ने मोदी सरकार को उस के अधूरे वादों की याद दिलाने के लिए दिल्ली की सीमाओं पर मार्च भी किया था. तब भी हरियाणा सरकार ने सख्त कदम उठाते हुए किसानों को शंभू बौर्डर पार करने से रोक दिया था.

दिलचस्प बात यह है कि केंद्र द्वारा कृषि कानूनों को निरस्त करने के बाद, 2022 के विधानसभा चुनावों के दौरान पश्चिमी जिलों में भाजपा का चुनावी प्रदर्शन उल्लेखनीय रहा, मगर लोकसभा चुनावों में पासा पलट गया. गन्ना उत्पादक प्रमुख जिले मुजफ्फरनगर में भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा, केंद्रीय मंत्री और लोकप्रिय क्षेत्रीय नेता संजीव बालियान तक अपनी सीट जीतने में विफल रहे और 24,000 से अधिक वोटों से चुनाव हार गए. काशी की धरती पर भाजपा का ध्रुव तारा बने नरेंद्र मोदी मात्र डेढ़ लाख वोटों से ही विजयी हुए जबकि कई अन्य नेताओं का प्रदर्शन उन से कई गुना बेहतर रहा.

इस डैमेज कंट्रोल के लिए अब कवायद शुरू हो चुकी है. काशी के घाट से प्रधानमंत्री मोदी ने किसान सभा को सम्बोधित किया, कृषि- सखी के तौर पर अनेकों महिलाओं को सम्मान चिन्ह भेंट किए और किसानों के खातों में सम्मान निधि डालने की घोषणा की. उन को लग रहा है कि शायद देश का भोला किसान इस झुनझुने से बहल जाएगा और राज्यों के विधानसभा चुनावों में फिर भाजपा की झोली वोटों से भर देगा. मगर मोदी सरकार अब भ्रम में न रहे क्योंकि उसने अपने दस सालों के शासनकाल में देश के किसानों की जो दुर्दशा की है, वह इतने भर से ठीक होने वाली नहीं है.

आज किसानों की समस्याएं देश भर में सुरसा की तरह मुंह फाड़े खड़ी हैं. मोदी काशी के मंच से भले पीएम सम्मान निधि की घोषणा कर गए, लेकिन जमीनी स्तर पर क्या वह पैसा किसानों के खाते में पहुंच रहा है? यह किस ने देखा? 20 हजार करोड़ रुपए की सम्मान राशि सुनने में बहुत बड़ी धनराशि मालूम पड़ती है, बड़ी आकर्षक बात लगती है, मगर एक किसान को इस में से क्या मिलता है यह जानना महत्वपूर्ण है.

पीएम किसान निधि योजना 2019 से चल रही है. जिस के तहत किसानों को साल में तीन बार 2-2 हजार रुपए उन के बैंक खाते में दिए जाते हैं. यानी एक किसान को साल में मात्र 6 हजार रुपए ही सरकार दे रही है. मगर यह 6 हजार रुपए भी प्राप्त करने में किसानों की एड़ियां घिस जाती हैं. उत्तर प्रदेश के देवरिया का एक किसान 2 साल से किसान निधि का पैसा पाने के लिए दौड़ रहा है.

वह कहता है, “कृषि विभाग के अधिकारी और कर्मचारी कार्यालय में मिलते ही नहीं हैं. बैंक जाओ तो वो कहते हैं कृषि विभाग से लिखवा कर लाओ, या पहले केवाईसी करवाओ. किसान सम्मान निधि के लिए 2 सालों से दौड़ रहे हैं, लेकिन समस्या का समाधान नहीं हो रहा है और अधिकारी एकदूसरे पर काम करने का ठीकरा फोड़ते हैं. मेरे साथ बहुत सारे किसान हैं जो इसी तरह परेशान हैं. अधिकारी उन्हें बहाने बना कर इधर से उधर टरकाते रहते हैं.

“सरकार को क्या लगता है कि तीनचार महीने में दो हजार रुपए एक किसान को दे देने से वह आत्मनिर्भर नहीं बन जाएगा? उस के घर में खुशहाली आ जाएगी? उस के बच्चों के पेट भर जाएंगे? या उनकी अच्छी शिक्षादीक्षा हो जाएगी? दो हजार रुपए भागदौड़ कर के अगर मिल भी गए तो वह ऊंट के मुंह में जीरा मात्र है.”

किसानों की समस्या यह है कि उन की फसलों के उचित दाम उन्हें नहीं मिल रहे हैं. चना सहित सभी दालें बहुत कम कीमत पर बिकती हैं. जो अनाज सरकार खरीदती है उस में से दलाल अपना बड़ा हिस्सा मार लेता है. देश में तिलहन और दलहन की खेती के बावजूद सरकार तेल और दालें बाहर से मंगवाती है. मगर इस की उपज बढ़ाने के लिए न तो किसानों को प्रोत्साहित करती है और न कोई आर्थिक मदद देती है. मोदी सरकार अगर किसानों की इतनी हितैषी बन रही है तो क्यों नहीं उन को अच्छे बीज, खाद, कीटनाशक, कृषि यंत्र आदि कम दाम पर उपलब्ध कराती है? छोटे जोत वाले किसानों के लिए ब्याज मुक्त ऋण उपलब्ध कराना सरकार का काम है, जिस की तरफ मोदी सरकार ने कभी ध्यान नहीं दिया. अपने अमीर उद्योगपतियों, व्यापारियों के अरबोंकरोड़ों रुपए के कर्ज चुटकियों में माफ करने वाली मोदी सरकार अन्नदाता का एक लाख रुपए का कर्ज भी माफ नहीं करती है.

कर्ज में हताश हो कर उस से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता है. देश भर का किसान कभी सूखे का सामना कर रहा है, कभी बाढ़ से अपनी फसलें बरबाद होते देख रहा है. ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार लगातार बिजली के दाम बढ़ाती जा रही है. अव्वल तो बिजली आती नहीं, जो मिलती है उस के दाम बढ़ाए जा रहे हैं. आखिर फसलों की सिंचाई कैसे हो? छोटा किसान तो आज भी मौसम की बारिश के आसरे ही बैठा है. बारिश समय पर हो जाए तो ठीक, वरना कर्ज का बोझ और बढ़ जाता है, क्योंकि बच्चों के भूखे पेट को एक वक्त की रोटी तो देनी ही है. जिस दिन सरकार सम्मान निधि की घोषणा कर रही थी उसी दिन आई चाइल्ड पौवर्टी पर यूनीसेफ एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत दुनिया के सब से खराब देशों में एक है जहां बच्चों को उचित आहार नहीं मिल रहा है. निश्चित ही यह बच्चे गरीब किसान और मजदूर वर्ग के ही हैं. खुद मोदी सरकार पूरे गुरूर के साथ यह दावा करती है कि वह 80 करोड़ आबादी को मुफ्त राशन बांट रही है. यानी 80 करोड़ गरीब सरकार की दी गई भीख पर जिंदा हैं.

देशभर में जिस तरह एक्सप्रैस वे का जाल बिछाया जा रहा है उस से सब से अधिक पीड़ित देश का किसान ही है. इन एक्सप्रैस वे पर उस की बैलगाड़ी तो कभी नहीं चलेगी, इस पर तो मोदी सरकार के करीबी व्यापारियों, उद्योगपतियों और अमीरों की चमचमाती गाड़ियां ही दौड़ेंगी, मगर इन एक्सप्रैस वे का जाल पूरे देश में बिछाने के लिए किसानों की जमीनें जबरन अधिग्रहित की जा रही हैं. उदाहरण के तौर पर महाराष्ट्र के शक्तिपीठ एक्सप्रैस वे की बात करें तो यह एक्सप्रैस वे 12 जिलों से होकर गुजरेगा. इस हाइवे से राज्य के करीब 12589 किसानों को नुकसान होगा, जिस में बीड के परली चुनाव क्षेत्र के 700 किसान भी शामिल हैं. कहा जा रहा है कि राज्य की 27 हजार एकड़ जमीन इस हाईवे में चली जाएगी. मराठवाड़ा में प्रभावित कृषि भूमि कई सिंचाई नहरों, नदियों, कुओं, तालाबों की वजह से सिंचित और उपजाऊ है. यह सारी उपजाऊ जमीन यह एक्सप्रैस वे खा जाएगा और किसान के हिस्से फाके आएंगे.

देश की सेना में नेताओं और व्यापारियों के बेटे नहीं बल्कि इन्हीं किसानों के बेटे जाते हैं. देश का पेट भरना हो या देश की रक्षा करनी हो, उस की सारी जिम्मेदारी हमारा किसान ही ढोता है. मगर सरकार उसे क्या दे रही है? सेना में जा कर देश पर अपनी जान न्योछावर करने का जज्बा रखने वाले किसान पुत्रों को 4 साला अग्निवीर बना कर मोदी सरकार ने उन के राष्ट्रप्रेम के जज्बे की जो तौहीन की है उसे किसान कभी माफ नहीं करेगा.

कांग्रेस की चुनौतियों से निबटेगी राहुल-प्रियंका की जोड़ी

2024 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी के लिए अच्छा अवसर था, अगर मध्य प्रदेश और बिहार में कांग्रेस या उस का गठबंधन 25 से 30 सीटें जीत जाता तो नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने से रोका जा सकता था. उत्तर प्रदेश में भाजपा की हार को ईवीएम में गड़बड़ी के आरोप से जोड़ कर देखा जा सकता है. भाजपा को उत्तर प्रदेश में अति आत्मविश्वास था जिस की वजह से पार्टी चुनाव मैनेजमैंट में चूक गई. विरोधी दल ईवीएम पर जिस तरह से सवाल उठा रहे हैं ऐसे में ईवीएम से होने वाली गड़बड़ी को नजरअंदाज करना कठिन है.

उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार की सामाजिक संरचना करीबकरीब एकजैसी है. इन के चुनावी मुद्दे भी कमोबेश यूपी वाले ही थे. ऐसे में यूपी में इतनी करारी हार मिली और मध्य प्रदेश, बिहार में भाजपा को तगड़ी बढ़त मिली. यूपी में गच्चा कैसे खा गए, यह बात हर किसी को समझ नहीं आ रही? क्या भाजपा यूपी के मूड को पढ़ने में चूक गई? उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर केंद्र सरकार का भरोसा ज्यादा था? अपनी जीत के बाद भी राहुल गांधी और अखिलेश यादव यह भरोसा करने को तैयार नहीं हैं कि ईवीएम में गड़बड़ी नहीं हो सकती?

लोकसभा चुनावों में जो परिणाम आए उन्होंने कांग्रेस की चुनौतियों को बढ़ा दिया है. देश की जनता ने कांग्रेस को 99 सीटें दे कर बता दिया है कि उस का कांग्रेस पर कितना भरोसा है. इंडिया ब्लौक को 234 सीटें मिली हैं जो सरकार बनाने वाली एनडीए की 292 सीटों से 58 सीटें ही कम हैं. इस बार सत्ता और विपक्ष की ताकत बराबर की है. ऐसे में कांग्रेस और इंडिया ब्लौक की जिम्मेदारी है कि वह सत्ता पक्ष को मनमानी नहीं करने दे. इस के लिए सब से पहले तो आपसी एकजुटता रखनी है. आपस में योजना बना कर सत्ता पक्ष की कमजोरियों पर हमला करना है.

ससंद में ताकतवर हुआ गांधी परिवार

राहुल गांधी ने रायबरेली लोकसभा सीट अपने पास रखी है और केरल की वायनाड सीट से इस्तीफा दे दिया है. वहां से प्रियंका गांधी चुनाव लड़ेंगी. अब लोकसभा में गांधी परिवार से राहुल और प्रियंका होंगे तो राज्यसभा में सोनिया गांधी सदस्य हैं. आजादी के बाद पहली बार गांधी परिवार के 3 सदस्य संसद में साथ होंगे. इस से कांग्रेस को मजबूती मिलेगी. अल्पमत वाली एनडीए सरकार के लिए मनमानी करना आसान नहीं होगा.

इंडिया ब्लौक का सब से बड़ा घटक दल कांग्रेस है. ऐसे में उस की जिम्मेदारी अधिक है. कांग्रेस की लोकसभा में चुनाव दर चुनाव सीटें कम होती जा रही हैं. कांग्रेस के ज्यादातर नेता राहुल गांधी पर निर्भर हैं. एक अकेले राहुल गांधी पूरी पार्टी की नैया कैसे पार लगा सकते हैं, यह बड़ा सवाल है. कांग्रेस ने अगर मध्य प्रदेश और बिहार में अच्छा प्रदर्शन किया होता, इस के साथ ही उत्तराखंड, दिल्ली और हिमांचल में भाजपा को रोका होता तो परिणाम कुछ और होते. हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है. इस के बाद भी एक सीट नहीं जीत पाई.

कांग्रेस में तमाम ऐसे नेता हैं जो पार्टी पर बोझ हैं. ये समयसमय पर ऐसे काम करते रहते हैं जिन से कांग्रेस की मुसीबत बढ़ जाती है. दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और शशि थरूर जैसे तमाम नेता ऐसे हैं जो कांग्रेस पर बोझ हैं. ऐसे नेता समय देख पार्टी बदल लेते हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले इसी तरह के कांग्रेसी नेताओं ने दल बदले. इन में राधिका खेड़ा, गौरव वल्लभ, अरविंदर सिंह लवली, संजय निरूपम, मिलिंद देवड़ा, रोहन गुप्ता, अक्षय कांति बम, अर्जुन मोडवाढ़िया और अशोक चव्हाण प्रमुख थे. इस तरह के नेता अभी भी कांग्रेस में हैं, पार्टी को इन से दूरी बना लेनी चाहिए. यह खुद किसी लायक हैं नहीं, केवल राहुल गांधी पर निर्भर हैं.

लोकसभा सीटों में लगातार गिरावट

2024 के लोकसभा चुनाव की बात करें तो इंडिया ब्लौक की तरफ से 295 सीट से अधिक जीतने का दावा किया गया था. वह 234 सीटें ही जीत पाया है. उसे समीक्षा करने की जरूरत है कि वह लक्ष्य को क्यों हासिल नहीं कर पाया. कांग्रेस की दिक्कत यह है कि 1989 के लोकसभा चुनाव से कांग्रेस की संसद में सीटें लगातार कम होती जा रही हैं. कांग्रेस इस तथ्य को स्वीकार कर इस का निदान तलाशने की जगह पर इस को ढकने का प्रयास करती है.

प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उपजी लहर के बाद 1984 के आम चुनाव में कांग्रेस को 414 लोकसभा की सीटें मिली थीं. इस के बाद कांग्रेस में गिरावट शुरू हुई. वह 1984 से 2024 के बीच केवल 2 बार 200 से अधिक सीट हासिल कर पाई. 1989 में कांग्रेस को 197 सीटें ही मिल पाई थीं, जिस के बाद वी पी सिंह प्रधानमंत्री बने थे. 1991 में मध्यावधि चुनाव हुए. आधे चुनाव पहले हुए और आधे राजीव गांधी की हत्या के बाद हुए.

राजीव गांधी की हत्या के बाद 1991 के हुए 10वें लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की लहर होने के बाद भी उस को 521 में से सिर्फ 232 सीटें ही मिली थीं. कांग्रेस नेता नरसिम्हाराव प्रधानमंत्री बने थे. 1996 में हुए चुनाव में कांग्रेस को 140 सीटें मिली थीं. इस दौर में इंद्रकुमार गुजराल और एच डी दैवगोड़ा प्रधानमंत्री बने. 1998 में कांग्रेस को 141 सीटें मिलीं. 1999 के चुनाव में कांग्रेस घट कर 114 पर पहुंच गई.

सरकार तो बनाई पर पार्टी नहीं बचाई

साल 2004 में जब कांग्रेस सत्ता में आई और सोनिया गांधी ने यूपीए गठबंधन कर सरकार बनाई उस समय भी कांग्रेस के पास सीटें केवल 145 ही थीं. जो भाजपा से केवल 7 सीटें ही ज्यादा थीं. 2009 में कांग्रेस फिर सत्ता में वापस आई. इस बार उसे 204 सीटें मिलीं. इस तरह से देखें कि जब 10 साल कांग्रेस सत्ता में रही तो उसे पहली बार 145 और दूसरी बार 204 सीटें ही मिलीं. 1991 में 232 सीटों के मुकाबले उस की संख्या 28 घट गई थी. चूंकि उस ने 10 साल सरकार चलाई तो इस तरफ किसी का ध्यान नहीं गया.

कांग्रेस ने अपने संगठन को बढ़ाने पर उस दौर में कोई काम नहीं किया. उसे लग रहा था कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर उसे जनता बारबार जिताती रहेगी. सरकार में रहते पार्टी के लिए काम नहीं हुआ. इस का नतीजा यह हुआ कि 2014 के लोकसभा चुनाव में उस को करारा झटका लगा. जहां विपक्षी भारतीय जनता पार्टी को 282 सीटें मिलीं, वहीं कांग्रेस केवल 44 सीटों पर सिमट गई. इस के बाद भी कांग्रेस इस मुगालते में रही कि भाजपा सरकार चलेगी नहीं, अगले चुनाव में हार जाएगी. कांग्रेस खुद को मजबूत करने की जगह भाजपा के कमजोर होने का इंतजार करती रही.

जब 2019 में लोकसभा चुनाव के परिणाम आए तो पता चला कि कांग्रेस 52 सीटों पर सिमट गई. भाजपा ने 303 सीटें हासिल कर लीं. कांग्रेस में राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ो यात्राओं, अडानी-अम्बानी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना के साथ जातीय जनगणना, संविधान बचाओ और आरक्षण बचाओ को मुद्दा बना कर नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक माहौल बनाया. इस के बाद जब परिणाम सामने आए तो कांग्रेस की सीटें बढ़ कर 99 हो गईं. इंडिया ब्लौक 234 सीटें ही पा सका, जिस वजह से नरेंद्र मोदी को तीसरी बार एनडीए का प्रधानमंत्री बनने से वह रोक नहीं पाया. पिछले 43 साल से कांग्रेस अपने बल पर 240 सांसदों को जिताने में सफल नहीं हो पाई है.

लक्ष्य तक पहुंचना हो रहा मुश्किल

2024 के लोकसभा चुनाव परिणामों के उत्साह में कांग्रेस इस कदर डूब गई है कि उसे लग रहा है कि लक्ष्य हासिल हो गया है. नरेंद्र मोदी 400 सीटें नहीं ला पाए, इतना बहुत है. कांग्रेस का लक्ष्य नरेंद्र मोदी की 400 सीटों को रोकने से अधिक अपनी 272 सीटें लाने का होना चाहिए. कांग्रेस की सब से बड़ी चुनौती यही है कि वह लक्ष्य तक कैसे पहुंचेगी.

लोकसभा चुनाव में इंडिया ब्लौक के दल साथसाथ लड़े लेकिन विधानसभा चुनाव में उन के साथ लड़ने की संभावना नहीं दिखती. कम से कम दिल्ली और पश्चिम बंगाल से इस तरह की जानकारियां मिल रही हैं. भाजपा को देश के स्तर पर हराने की ताकत केवल कांग्रेस के पास है. कांग्रेस यह तब तक नहीं कर पाएगी जब तक वह अपने को मजबूत नहीं करती.

कांग्रेसी खेमा बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने का इंतजार कर रहा है. उसे लग रहा है कि नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू किस दिन भाजपा से नाराज हो कर समर्थन वापस लें और मोदी-3 सरकार गिर जाए. यह कब होगा, इस का पता नहीं? इस बीच कई राज्यों के विधानसभा चुनाव 2024 और 2025 में आने वाले हैं.
कांग्रेस ने 1980 और 1989 में सत्ता पलट कर के चौधरी चरण सिंह और चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनवा कर मोरारजी देसाई की जनता पार्टी सरकार और विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार गिरावा दी थी. उस समय उस के पास सांसदों की संख्या इतनी थी कि वह चरण सिंह और चंद्रशेखर को प्रधानमंत्री बनवा ले गई थी. 2024 में उस के पास इतने सांसद नहीं हैं कि वह नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू को प्रधानमंत्री बनवा सके. ऐसे में वह केवल समय का इंतजार ही कर सकती है. इंतजार के साथ ही साथ उसे अपने को अवसर का लाभ उठाने लायक मजबूत भी करना होगा.

हाथ आतेआते फिसल गई सत्ता

कांग्रेस की सब से बड़ी चुनौती यह है कि जिन राज्यों में उस का भारतीय जनता पार्टी से सीधा मुकाबला है वहां वह सब से कमजोर प्रदर्शन करती है. 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के पास अच्छा मौका था कि वह नरेंद्र मोदी को सत्ता से बेदखल कर सकती थी. जनता ने नरेंद्र मोदी को हटाने के लिए जम कर वोट दिया. अगर कांग्रेस 25 से 30 सीट और ले आती तो उस के पास मौका था.

मध्य प्रदेश में कांग्रेस की बुरी हार हुई है. प्रदेश की सभी 29 लोकसभा सीटों पर भारतीय जनता पार्टी की जीत हुई है. राजगढ़ से कांग्रेस नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह और छिंदवाड़ा से कमलनाथ के बेटे एवं निवर्तमान सांसद नकुल नाथ तक अपनी सीट नहीं बचा पाए. ऐसे में कांग्रेस कैसे चुनाव जीत सकती थी.
मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की मेहनत और उन के काम पर जनता ने भाजपा को वोट दिया. कांग्रेस की तरफ से चुनाव अभियान का नेतृत्व राहुल गांधी, पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और प्रियंका गांधी वाड्रा ने किया. लोकल लैवल पर कोई भी नेता जिम्मेदारी उठाने को तैयार नहीं था. कमलनाथ अनमने से कांग्रेस में हैं. वे अच्छे अवसर की राह देख रहे हैं. दिग्विजय सिंह बड़बोले नेता हैं. कोई जनाधार बचा नहीं. कांग्रेस उन को ढो रही है.

मध्य प्रदेश में कांग्रेस अच्छा कर सकती थी. इस का दर्द उस को लंबे समय तक परेशान कर सकता है. दिल्ली प्रदेश में भी कांग्रेस एक भी सीट नहीं ला पाई. जबकि यहां पर उस का आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन भी था. यहां कांग्रेस के लोकल नेताओं का आम आदमी पार्टी के साथ विरोध था. जिस से लोकल नेताओं ने काम नहीं किया. कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अरविंदर सिंह लवली ने इस मुद्दे पर पार्टी छोड़ दी थी. संदीप दीक्षित जैसे दूसरे बड़े नेता भी इस के विरोध में थे. पूरी कांग्रेस राहुल गांधी के भरोसे ही जीत की आस लगाए बैठी थी. आम आदमी पार्टी पूरी की पूरी जेल में है और विवादों में घिरी है. ऐसे में उस के कार्यकर्ताओं में उत्साह नहीं था.

सहयोगी बनेंगे बड़ी मुसीबत

इंडिया ब्लौक में जो घटक दल हैं उन में से कई दलों की राजनीति कांग्रेस के विरोध से शुरू हुई थी. जैसे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, पश्चिम बंगाल में टीएमसी, बिहार में राजद. इन दलों का विकास कांग्रेस के वोटबैंक टूटने से हुआ था. कांग्रेस के 2 बड़े वोटबैंक मुसलिम और दलित अपने लिए मजबूत ठिकाने की तलाश में हैं. उन्हें लगता है कि कांग्रेस ही अकेली ऐसी पार्टी है जो भाजपा से लड़ सकती है. कांग्रेस में जैसे ही उसे उम्मीद दिखी और भाजपा से उस को खतरा दिखा कि 400 सीटें ला कर वह संविधान में बदलाव कर के आरक्षण खत्म कर देगी, वह कांग्रेस के पाले में खड़ा हो गया.

जब दलित कांग्रेस के साथ खड़ा हुआ तो पिछले लोकसभा में 10 सीटें जीतने वाली बसपा को उत्तर प्रदेश में एक भी सीट नहीं मिली. समाजवादी पार्टी को जो सफलता मिली है उस का बड़ा कारण कांग्रेस है. दलित कांग्रेस की तरफ आया. गठबंधन में होने के कारण उस का वोट सपा को भी मिल गया. मुसलिम अभी सपा के साथ था. इस चुनाव में वह कांग्रेस के साथ गया. इसी खतरे को भांपते हुए अखिलेश ने कांग्रेस से गठबंधन किया था. ऐसे में कांग्रेस जितना मजबूत होगी, उस के यह सहयोगी दल उतने कमजोर होंगे.

पश्चिम बंगाल में इसी खतरे को भांपते हुए टीएमसी ने कांग्रेस को सीट नहीं दी थी. समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव ने हमेशा कांग्रेस को बाहर से समर्थन दिया. कभी भी कांग्रेस के साथ चुनावपूर्व तालमेल नहीं किया. 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और सपा का जब गठबंधन राहुल गांधी और अखिलेश यादव के बीच हुआ था तब मुलायम सिंह यादव इस से खुश नहीं थे. उन को यह डर हमेशा रहा कि अगर मुसलिम कांग्रेस की तरफ गया तो सपा की राजनीति खत्म हो जाएगी.
सहयोगी दल भी इस खतरे को समझते हैं. ऐसे में कांग्रेस को योजना बनानी चाहिए कि वह खुद कैसे मजबूत हो. सहयोगी दलों के पिछलग्गू बन कर चलने से भला नहीं होने वाला. जनता ने कांग्रेस को एक अवसर दिया है. इस का लाभ उठा कर आगे चलने से ही लाभ होगा. देखना है कांग्रेस अपने को मजबूत कर आगे बढ़ने का सोचेगी या सहयोगी दलों की बैसाखी पर ही चलना कबूल है.

राहुल गांधी मेहनती हैं, वे पार्टी में जान फूंक सकते हैं. अपने दल की चुनौतियों से वे कैसे निबटेंगे, उन के सामने यह सब से बड़ा सवाल है. सहयोगी दलों के साथ चलते हुए उन को कांग्रेस को मजबूत करना है. प्रियंका गांधी अब तक पार्टी लैवल पर ही राहुल गांधी की मदद करती थीं, अब वायनाड से सांसद बनने के बाद लोकसभा में राहुल की मदद करेंगी. भाईबहन की यह जोड़ी कांग्रेस को चुनौतियों से निबटने में मदद करेगी

यूजीसी-नेट में धांधली, ऐसे गुरुओं को नमन करें कैसे?

‘गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरा गुरु साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः’ अर्थात गुरु ही ब्रह्मा है. गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है. गुरु ही साक्षात परब्रह्म है. ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूं. भारत में गुरुओं को ले कर इस नैतिकता की दुहाई हमेशा दी जाती रही है. इस के विपरीत आज गुरु कैसे बन रहे हैं, इस का उदाहरण यूजीसी-नेट परीक्षा की धांधली में नजर आता है. क्या हम ऐसे गुरु की कल्पना कर सकते हैं जो नकल और धांधली कर के परीक्षा में पास हो. इस के बाद यह गुरु स्कूलकालेजों में बच्चों को पढ़ाएंगे. बच्चों को परीक्षा में जब नकल करने से रोकेंगे तो उन को अपनी नकल याद नहीं आएगी.

क्या ऐसे गुरुओं को नकल से रोकने का अधिकार होना चाहिए? क्या ऐसे गुरुओं का सम्मान हमारी नजर में हो सकता है? क्या यही वे नकल कर के पास होने वाले गुरु हैं जिन के सहारे हम विश्वगुरु बनने की रातदिन दुहाई देते हैं? देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सुचिता और ईमानदारी की बात करते हैं? 10 साल में पेपर लीक जैसी धांधली को रोक नहीं पा रहे, ऐसे में हम विश्व की तीसरी ताकत बनने की बात करते हैं, जो सरकार अपने देश में बिना धांधली के परीक्षा नहीं करवा पाती वह विश्व की तीसरी ताकत कैसे बन सकती है?

यथा राजा तथा प्रजा

पढ़ाई का स्तर क्या है, इस की एक झलक नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल की केंद्रीय महिला बाल विकास राज्यमंत्री सावित्री ठाकुर के रूप में देखी जा सकती है. भारतीय जनता पार्टी का एक नारा था- ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’. मध्य प्रदेश में धार के ब्रह्मकुंडी स्कूल इलाके में स्कूल चलो अभियान कार्यक्रम का उदघाटन समारोह था. उस में केंद्रीय राज्यमंत्री सावित्री ठाकुर मुख्य अतिथि थीं. वहां हस्ताक्षर अभियान में उन को अपना संदेश लिख कर हस्ताक्षर करना था. सावित्री ठाकुर अपनी पार्टी के स्लोगन ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ की जगह ‘बेढी पड़ाओ बच्चाव’ लिख दिया. केंद्रीय मंत्री का गलत तरह से लिखना मीडिया से ले कर सोशल मीडिया में चर्चा का विषय बन गया.

लोकतंत्र का दुर्भाग्य है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोग और बड़े विभागों के लिए जिम्मेदार लोग अपनी मातृभाषा में भी सक्षम नहीं हैं. वे अपना मंत्रालय कैसे चला सकते हैं, यह सवाल लोगों के बीच घूम रहा है. एकतरफ देश की बेटियों को पढ़ाने की बात की जा रही है तो वहीं दूसरी तरफ जिम्मेदार लोगों में साक्षरता की कमी है. क्या इसी तरह से भारत देश विश्वगुरु बन पाएगा? सवाल उठता है कि सांसद और केंद्रीय मंत्री होने के बावजूद सावित्री ठाकुर दो शब्द भी ठीक से नहीं लिख पाईं. बच्चों ने जब उन्हें गलत लिखते देखा होगा तो उन्हें कैसा लगा होगा? केंद्र सरकार में वे किस तरह का नेतृत्व देंगी, इस की केवल कल्पना ही की जा सकती है?

सवाल यह भी उठ रहा है कि जब प्रधानमंत्री की अपनी डिग्री विवादों के घेरे में रही है, तब मंत्रियों से क्या उम्मीद की जा सकती है? ऐसे राज में शिक्षकों की भरती में धांधली कोई बड़ा काम नहीं है. इस व्यवस्था से यही उम्मीद की जा सकती है कि शिक्षक नकल कर के ही नौकरी पा सकता है. ऐसे में गुरुओं के सम्मान और नैतिककता की बात केवल किताबी है. इस की बातें केवल पौराणिक कथाओं भर में रह गई हैं. सचाई से ये कोसों दूर हैं. क्या छात्र ऐसे गुरु का सम्मान कर सकते हैं जो नकल कर के पास हुआ हो?

यूजीसी-नेट में धांधली

विश्वगुरु बनने वाले देश का हाल यह है कि 18 जून की परीक्षा हुई और 19 जून को कैंसिल हो गई. नीट परीक्षा में गड़बड़ी से चर्चा में आई एनटीए यूजीसी-नेट धांधली की भी जिम्मेदार मानी जा रही है. विश्वविद्यालय में असिस्टैंट प्रोफैसर बनने या फैलोशिप लेने के लिए कैंडिडेट्स को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आयोजित नेट की परीक्षा को पास करना होता है.

18 जून, 2024 को 11 लाख छात्रों ने इस उम्मीद से परीक्षा दी थी कि अच्छे अंक लाने पर उन्हें अच्छे संस्थान में असिसटैंट प्रोफैसर का पद मिलेगा या सरकार की तरफ से जूनियर रिसर्च फैलोशिप की सुविधा मिलेगी. परीक्षा के अगले ही दिन पता चला कि परीक्षा रद्द कर दी गई है. इस से छात्रों का हौसला तो टूटा ही है, साथ ही, परीक्षा आयोजित कराने वाली एजेंसी एनटीए से भरोसा भी उठा है.

पहले नेट की परीक्षा सीबीटी मोड में होती थी, ऐसे में पेपर तुरंत लौक हो जाता था. एनटीए ने इस बार परीक्षा ओएमआर शीट पर कराई. परीक्षा में प्रयोग हुई ओएमआर शीट खराब और हलके पेपर पर थी. पैन और पेपर का प्रयोग करने से वह फट जा रही थी. लकड़ी की बैंच पर शीट रख कर स्टूडैंट्स ने उन्हें भरा था. विश्व की 5वी अर्थव्यवस्था का दावा करने वाला देश अपने छात्रों को परीक्षा में अच्छी क्वालिटी के पेपर वाली ओएमआर शीट तक नहीं दे पा रहा है.

नेट क्लीयर करने के लिए कैंडिडेट्स को पेपर 1 और पेपर 2 देना होता है. ये दोनों पेपर कंबाइन हो कर आते हैं, जिन्हें 3 घंटे में पूरा करना होता है. पेपर वन में 50 प्रश्न और पेपर 2 में 100 प्रश्न होते हैं. हर सवाल 2 अंकों का होता है. इसे पास करने के लिए कैंडिडेट्स को न्यूनतम 35 प्रतिशत अंक लाना जरूरी है. इस के बाद जूनियर रिसर्च फैलोशिप यानी जेआरएफ देना केंद्र सरकार के फंड पर निर्भर करता है. अगर केंद्र सरकार की तरफ से 10 लोगों को जेआरएफ दिया जा रहा है तो टौप 10 स्टूडैंट्स को फैलोशिप मिल जाएगी. इस के बाद बाकी स्टूडैंट्स के लिए यूनिवर्सिटीज फौर्म निकालती हैं, कैंडिडेट्स इन फौर्म को फिल कर के नेट स्कोर के आधार पर एडमिशन लेते हैं. जब पीएचडी शुरू हो जाती है तब जेआरएफ के छात्रों का पैसा आने लगता है.

बढ़ रही उम्र कैसे बनेगा कैरियर

यूजीसी-नेट परीक्षा देने वाले छात्रों की औसत उम्र 23 से 27 साल के बीच में होती है. इस का मतलब यह है कि इस उम्र तक छात्र अपने कैरियर के लिए परीक्षा दे रहे हैं. विश्वगुरु और 5वीं अर्थव्यवस्था का दावा करने वाला देश इस उम्र के छात्रों को नौकरी नहीं दे पा रहा है. इस उम्र में बच्चों को अपना घर बसा लेना चाहिए था. अभी ये नौकरी ही तलाश कर रहे हैं. उस में भी परीक्षा में पेपर लीक और दूसरे व्यवधान के चलते नौकरी मिलने की उम्र 35 साल हो जा रही है. 60 में रिटायरमैंट होने वाली जौब में 35 साल केवल नौकरी तलाश करने में निकल जा रहे हैं. केवल 25 साल ही नौकरी करने का मौका मिलेगा.

परीक्षा में व्यवधान होने पर छात्रों का अमूल्य समय खराब होता है. छात्रों में हताशा होती है. वे निराश होते हैं. डिप्रैशन का शिकार होते हैं. कई बार वे आत्महत्या करने जैसे कदम भी उठा लेते हैं. यूजीसी नेट परीक्षा में गड़बड़ी नहीं हुई होती तो छात्र समय पर अपना एग्जाम खत्म करते और समय पर उन का एडमिशन हो जाता. दिसंबर तक सभी एलिजिबल छात्रों की पीएचडी शुरू भी होती और कैंडिडेट्स का जेआरएफ भी आने लगता. अब यह पूरा चक्र पिछड़ गया है, जिस का प्रभाव छात्रों की उम्र पर पड़ेगा.

क्यों बनते हैं प्राइवेट सैंटर

इन परीक्षाओं की पहले विश्वविद्यालयों में निगरानी होती थी. एनटीए ने अब अलग सैंटर देने शुरू कर दिए हैं. असल में सैंटर बनवाने में ही पैसे का असल खेल होता है. प्राइवेट सैंटर भरोसेमंद नहीं होते. यहीं पेपर लीक और नकल कराने जैसे आरोप लगते हैं. एनटीए प्राइवेट सैंटर को परीक्षा केंद्र क्यों बनाता है, इस की जांच होनी चाहिए. कोई भी परीक्षक अपने पसंदीदा कैंडिडेट से यह भी कह सकता है कि ओएमआर शीट ब्लैंक छोड़ दो. अगर सारे सवाल पता हों तो कुछ ही देर में ओएमआर शीट भर कर पेपर भिजवाया जा सकता है. ओएमआर शीट की पेक्षा कंप्यूटर पर परीक्षा कराना ज्यादा सुरक्षित होता है.

यूजीसी नेट का एग्जाम दोबारा कराया जाएगा. सवाल उठता है कि क्या दोबारा परीक्षा कराने से छात्रों का जो नुकसान हुआ है उस की भरपाई हो जाएगी? जून का महीना ऐसा महीना है जब सभी स्टूडैंट्स के सैमेस्टर खत्म होते हैं. अगर आप एग्जाम फिर से करवाओगे तो वह अभ्यार्थियों की अन्य परीक्षाओं के साथ क्लैश करेगा. क्या दोबारा परीक्षा कराने का खर्च सरकार देगी?

पौराणिक कथाओं में गुरु का महत्त्व

पौराणिक कथाओें में गुरुओं का महत्त्व सब से अधिक बताया गया है. देश में हर साल 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाता है. इस दिन पूर्व राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्मदिन होता है. वे शिक्षक से राष्ट्रपति बने थे. ऐसे में छात्र उन के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाते हैं. पौराणिक ग्रंथों में गुरु का दर्जा भगवान के समान बताया गया है. गुरु के बिना ज्ञान मिल ही नहीं सकता. अनंत काल से गुरु को लोग भगवान मानते आ रहे हैं. गुरु मिलते ही उन के चरण स्पर्श करना चाहिए.
आज के गुरुओं की हालत यह है कि वे नकल कर के परीक्षा पास करते हैं. ऐसे में गुरु अपना फर्ज निभाने में असफल साबित हो रहे हैं. हिंदू पंचांग के अनुसार, आषाढ़ मास की पूर्णिमा तिथि पर गुरुपूर्णिमा का त्योहार मनाया जाता है. इस पर्व पर अपने गुरु के प्रति आस्था को प्रगट किया जाता है तथा विधिवत रूप से गुरुपूजन किया जाता है. पौराणिक ग्रंथों के अनुसार, इस दिन को व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं. इस दिन को चारों वेदों के रचयिता और महाभारत की रचना करने वाले वेद व्यास का जन्म हुआ था.

व्यास पूर्णिमा से रक्षाबंधन तक आरएसएस गुरुदक्षिणा का कार्यक्रम आयोजित करता है. इस में संघ के भगवा ध्वज के सामने गुरुदक्षिणा रखी जाती है. राशि और दक्षिणा देने वाले का नाम सार्वजनिक नहीं किया जाता है. आरएसएस की शुरुआत 1925 में हुई पर गुरुदक्षिणा का कार्यक्रम 1928 से गुरुपूजा के रूप में लगातार चल रहा है. गुरुओं का महत्त्व पूरे समाज को बताया जाता है. अब के गुरु तो नकल कर के, पेपर लीक कर के परीक्षा में पास हो रहे हैं. इन को आदर्श कैसे माना जा सकता है, यह बड़ा सवाल है.

गुरु की आड़ में जितनी भी नैतिकता की बातें होती हैं वे सब आज के समय में बेमानी हैं. गुरु और सरकारी मास्टर में फर्क है. वह नौकरी के लिए कुछ भी कर सकता है. ऐसे में उस की आदर्शवादी बातें छात्रों को मजाक लगती हैं. पैसा खर्च कर के नौकरी पाने वाला शिक्षक छात्रों को पढ़ाने के बजाय पैसे बनाने की सोचता रहता है. ऐसे में नकल कराने और पेपर लीक कराने वाले काम भी करता है. इस तरह ‘गुरु ब्रह्मा गुरु विष्णु, गुरु देवो महेश्वरा, गुरु साक्षात परब्रह्म, तस्मै श्री गुरुवे नमः’ वाली बात पूरी तरह से बेमानी है.

फिर गंगा की गोद में मोदी, अब ऊपरवाले के हवाले वतन

प्रमुख समाजवादी नेता डाक्टर राम मनोहर लोहिया का धर्म की राजनीति के बारे में कहना यह था कि राजनीति अल्पकालिक धर्म है और धर्म दीर्घकालिक राजनीति है. समाजवादियों ने तो इस फिलौसफी या थ्योरी के माने कभी समझे नहीं लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को 18 जून को एक बार फिर से काशी में देख कर लगा कि लोहिया गलत नहीं कह गए थे . उन के सच्चे अनुयायी तो अब दक्षिणपंथी हो चले हैं जिन्होंने धर्म और राजनीति में फर्क ही खत्म कर रखा है.

4 जून को आमचुनाव के नतीजे देख सकपका नरेंद्र मोदी भी गए थे कि हे राम, यह क्या हो गया. इसी सदमे में उन्होंने बेखयाली में शपथ वाले दिन संविधान को माथे से लगा भी लिया था जोकि अल्पकालिक धर्म था. फिर 13 दिनों के मंथन के बाद वे दीर्घकालिक राजनीति वाले फार्मूले पर आ गए. इसी बीच गम कम करने की गरज से उन्होंने एक चक्कर विदेश का भी लगा लिया. जिस के बारे में एक दक्षिण भारतीय वामपंथी अभिनेता प्रकाश राज के नाम से किसी शरारती तत्त्व ने सटीक टिप्पणी यह वायरल कर दी कि 70 सालों में पहली बार कोई प्रधानमंत्री मात्र एक सैल्फी लेने के लिए विदेश गया.

इटली में आयोजित जी7 सम्मेलन में भारत की मौजूदगी औफिशियल नहीं थी लेकिन मोदीजी को शायद देश में पीएम होने जैसी फीलिंग पूरी तरह नहीं आ रही थी, इसलिए इटली जा कर उन्होंने अपना खोया हुआ आत्मविश्वास प्राप्त किया. वहां वे जार्जिया, सुनक, मैंक्रो जेलेंसकी और ट्रूडो वगैरह से मिले और उन्हें बताया कि दुनिया के सब से बड़े लोकतांत्रिक चुनाव में हिस्सा लेने के बाद इस सम्मेलन का हिस्सा बनना बहुत संतुष्टि की बात है. मेरा सौभाग्य है कि जनता ने मुझे तीसरी बार देश की सेवा करने का अवसर दिया है.

यह सुनिश्चित करने के बाद कि दुनिया के इन राष्ट्रप्रमुखों और पूरी दुनिया को उन के तीसरी बार भारत का प्रधानमंत्री बनने की तसल्ली हो गई है तो वे दिल्ली होते हुए सीधे गंगा किनारे जा पहुंचे. यहां वे पहले के मुकाबले आंशिक रूप से सहज दिखे. फिर भी यह कसक छिपाए न छिपी कि, बस, डेढ़ लाख वोटों से ही जीते वरना बात तो 8-10 लाख की हो रही थी.

धर्म की कई खूबियों में से एक यह भी होती है कि वह दुख भुलाने में लोगों की मदद करता है. भगवान की शरण में जा कर महसूस होता है कि अच्छा हो या बुरा, सबकुछ इसी का कियाधरा होता है. वह जो करता है, भले के लिए करता है, उस की मरजी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता और लाख टके की बात, गीता का यह सार याद आ जाता है कि, ‘तू क्या ले कर आया था और क्या ले कर जाएगा. तेरा क्या है जो तू शोक करता है. हानि-लाभ, जीवनमरण, यश-अपयश विधि हाथ…

इस ज्ञान के आगे घोर नास्तिकों की नास्तिकता भी विसर्जित होने लगती है तो आस्तिकों की बिसात क्या जो एकदम झूम उठते हैं. ये धार्मिक बातें भ्रम मिटाती हैं या बढ़ाती हैं, इस का जवाब दोनों में से कुछ दिया जाए तो निष्कर्ष यही निकलता है कि भ्रम न तो मिटता है न बढ़ता है बल्कि यथावत रहता है, हां, उस के होने का एहसास नहीं होता. यह ज्ञान पेनकिलर जैसा होता है जिन के असर से दर्द खत्म नहीं होता, उस का महसूस होना खत्म हो जाता है. बकौल काल मार्क्स, अफीम का नशा.

तो शिव की नगरी आ कर नरेंद्र मोदी ने 13 दिनों बाद ज्ञान की गंगा, गंगा किनारे बहाई, औफलाइन भी और औनलाइन भी बहाई जहां ज्ञान समुद्र के पानी की तरह दिनरात बहता रहता है और कभीकभी तो ज्ञान का तूफान भी आता है. मोदी जी ने हिंदी और इंग्लिश दोनों भाषाओं में ज्ञान वर्तमान एक्स यानी भूतपूर्व ट्विटर पर कुछ यों दिया.

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जैसे ही उन्होंने धार्मिक गेटअप धारण किया वैसे ही वे 4 जून से पहले के प्रधानमंत्री लगने लगे. उन्हें इस नवकंज लोचन कंजमुख कर…टाइप मनभावन, मनमोहक रूप में देख टाइगर जिंदा है कि तर्ज पर भक्तों में भी प्रसन्नता की लहर दौड़ गई. थोड़ी देर में ही शोकनिवृत्ति हो गई और हरहर गंगे और भोलेनाथ के नारे लगने लगे. एक बार घंटेघड़ियाल बजने लगे, भजनआरतीपूजन होने लगे जिस से देश, देश जैसा लगने लगा. सब से पहले उन्होंने निर्धन लेकिन कृतघ्न किसानों को पैसा बांटा ठीक वैसे ही जैसे विजय के बाद चक्रवर्ती सम्राट टाइप के राजा जनता से इकट्ठा किए खजाने का थोड़ा सा मुंह जनता पर ही एहसान थोपते खोल देते थे ताकि वह ओवरफ्लो न हो.

फिर शुरू हुईं मुद्दे की बातें, मसलन मुझे मां गंगा ने गोद ले लिया है, अब मैं यहीं का हो गया हूं. यहीं का दिखने की जरूरी शर्तें पूरी करने के लिए उन्होंने गंगा आरती भी की, फिर दशाश्वमेघ घाट भी गए और विश्वनाथ मंदिर भी गए. वहां उन्होंने न मालूम वजहों के चलते इस बार षोडशोपचार पूजा की जो सनातन धर्म का एक कठिन पूजन है. इस में 16 चरणों में पूजन संपन्न होता है. इस तरह भगवान और काशी के लोगों का धन्यवाद उन्होंने एकसाथ कर दिया.

काशीवासियों को भी यकीन हो गया कि ये वही मोदीजी हैं जो सारी समस्याओं का हल भगवान पर डाल कर चलते बनते हैं. डेढ़ लाख से जिताओ या दस लाख से, इन्हें इस से कोई सबक नहीं मिलता. 370 दे दो या 241 सीटें दे दो, ये देश और जनता की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेने की भूल नहीं करते. हां, राज करने के लिए जरूर सैक्युलरों का एहसान ले लेते हैं जिस से कम्युनलों का भरोसा कायम रहे.

140 करोड़ लोगों को यह मैसेज दे कर कि अब तुम्हारा भगवान ही मालिक है, वापस दिल्ली उड़ गए. धर्म की असल खूबी यही है कि यह जिम्मेदारियों से बच निकलने के लिए तंग और संकरी गलियां ही नहीं, बल्कि लंबेचौड़े हाईवे मुहैया करा देता है. उन के जाने के बाद जब धरमकरम की धूल छंटी तो लोगों को समझ आया कि मोदीजी इसी दफा उन के हुए हैं, 10 साल से गैर थे. इस के पहले काशी के लोग महान नहीं थे और न ही लोकतंत्र इतना मजबूत था जितना कि 4 जून को हुआ.

यही बात जो वाकई बड़ा सच है उन्होंने इटली में विदेशी शासकों को भी बताई थी, बल्कि गए शायद यही बताने के लिए थे कि इस बार भारतीय लोकतंत्र मजबूत हुआ है. बात सच इस लिहाज से है कि 234 सीटों के जरिए जनता ने विपक्ष को मजबूती दे दी है जो किसी भी लोकतंत्र को मजबूत बनाती है.

अब क्या होगा, इस का किसी को अंदाजा नहीं क्योंकि सरकार एक बेमेल गठबंधन की है इस के सहयोगी मां गंगा की गोद और पूजापाठ में भरोसा नहीं करते. लिहाजा, धरमकरम एक हद तक ही वे बरदाश्त कर पाएंगे. लगता नहीं कि वे देश और जनता को भगवान भरोसे छोड़ने के रिस्क पर राजी होंगे लेकिन मोदीजी ने अपनी तरफ से वतन ऊपरवाले के हवाले कर दिया है.

 

सीनियर सिटीजन किट्टी का बढ़ता चलन

किट्टी पार्टी एक तरीके का गेटटुगेदर है. यहां बहुत सारी महिलाएं और पुरुष एक घर में उपस्थित होते हैं. वहां कुछ गेम खेले जाते हैं और कुछ प्राइस दिए जाते हैं. साथ में, जिस के घर में पार्टी होती है वह कमेटी भी डालते हैं. इस से जरूरतमंद सदस्य की फाइनैंस संबंधी प्रौब्लम सौल्व होती हैं. ये पार्टियां मनमुताबिक घर और बाहर होटल्स में भी आयोजित की जाती हैं.

इस तरह की किट्टी में हर कपल शामिल होना चाहिए. एक उम्र में आ कर पतिपत्नी दोनों को समझना चाहिए कि उन का पार्टनर एकदूसरे के बराबर है. न ही कोई कम है न ही कोई ज्यादा. जीवनभर आप ने चाहे कुछ भी किया हो, जैसे कि पत्नी ने पति से लड़ाई की हो, पति ने पत्नी पर रोब मारा हो लेकिन जीवन की इस संध्या में जो जैसा है उसे वैसा ही प्यार से स्वीकार करो और साथ में एंजौय करने के लिए किट्टी पार्टी जैसे तरीके अपनाओ.

किट्टी दरअसल तम्बोला का एक खेल होता है जिसे पैसे के साथ या बिना पैसे के खेला जाता है. आमतौर पर शहरी पाश्चात्य संस्कृति की महिलाओं के बीच इस तरह की पार्टी का आयोजन किया जाता है जिन में महिलाएं एकत्रित हो कर समय बिताने के लिए तम्बोला के साथ चायनाश्ता और कुछ गपशप करती हैं. बारीबारी से एकदूसरे के घरों में जाती हैं और इस तरह के आयोजन करती हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि सिर्फ महिलाएं ये किट्टी पार्टी करती हैं बल्कि अब तो महिलाओं के साथ पुरुष भी इस में शामिल होते हैं.

सीनियर सिटीजन किट्टी के फायदे

सोशल सर्कल बनेगा : रिटायर होने के बाद सोशल सर्कल काफी कम हो जाता है. अगर हो तो भी पुराने दोस्तों से मिलना धीरेधीरे कम हो जाता है. ऐसे में किट्टी डाल लेने से अपने एरिया के काफी लोगों से जानपहचान हो जाती है. अगर चाहें तो अपने डिपार्टमैंट के कुछ लोगों के साथ यह कपल किट्टी डालें. पहले भले ही आप ने अपनी बीवी को अपना औफिस चाहे कभी न दिखाया हो लेकिन अब उन्हें अपने सर्कल से मिलवाने और दोस्ती करवाने का यह एक अच्छा मौका भी हो सकता है. आप चाहें तो इस तरह के कई ग्रुप बना लें जैसे कि अपनी सोसाइटी का, पुराने दोस्तों का, औफिस के लोगों का, रिश्तेदारों के साथ भी इस तरह की किट्टी डाल सकते हो.

टाइम पास होगा : कहते हैं न खली दिमाग शैतान का. बस, कुछ ऐसा ही है. रिटायरमैंट के बाद खाली बैठे कितना टीवी देखेंगे. घूमफिर कर पतिपत्नी किसी न किसी बात पर उलझ ही पड़ेंगे. लेकिन अगर महीने में 4-5 किट्टी इस तरह की डाल लेंगे, तो उस की प्लानिंग में ही टाइम बीत जाएगा. महीने में कुछ दिन किट्टी के बहाने घर से बाहर निकलेंगे तो लगेगा कि जैसे आप पूरे महीने ही बिजी हैं.

किट्टी को सीनियर सिटीजन क्लब के नाम से चलाएं

आप चाहें तो अपनी किट्टी को एक क्लब का नाम दे कर भी शुरू कर सकते हैं. आज जहां बच्चे नौकरीपढ़ाई आदि के लिए घर से दूर रहते हैं, वहां अकेले रहने वाले सीनियर सिटीजन की भी कमी नहीं है. ऐसे में अगर कभी कोई जरूरत है, कोई बीमारी आदि के लिए हौस्पिटल जाना है या इस तरह का कोई भी काम है तो किट्टी के सभी मैंबर्स एकदूसरे की मदद करें ताकि बच्चों को भी चिंता न हो और आप को भी पता हो की इमरजैंसी में ग्रुप पर एक मैसेज करते ही मदद मिल जाएगी.

कपल को एकदूसरे के करीब आने का मौका मिलेगा

किट्टी के बहाने ही सही पर अब काफी हद तक उन के टौपिक औफ़ इंट्रैस्ट तो एक ही होंगे. किट्टी के बारे में बात करतेकरते वे एकदूसरे से जुड़ जाएंगे. आपस में टाइम स्पैंड करेंगे. इस उम्र में एकदूसरे की जरूरतें भी पता चलेंगी. कई बार आप को लगता होगा कि पत्नी तो बेकार ही हर वक्त अपनी बीमारियों का रोना रोती रहती है लेकिन जब आप किट्टी में देखेंगे कि इस उम्र की लगभग सभी महिलाएं इन परेशानियों का सामना कर रही हैं, तो आप को भी अच्छी तरह से अपनी पत्नी की तकलीफें समझ आएंगी.

खुद को फिट रखना जरूरी लगने लगेगा

किट्टी में जाएंगे, वहां लोगों से मिलेंगे तो पता चलेगा कि रिटायरमैंट के बाद ज़िंदगी ख़त्म नहीं हुई बल्कि एक नई ज़िंदगी बांहें फैलाए आप का इंतज़ार कर रही है. वहां जा कर आप का मन नएनए कपड़े, फैशन की चीजें लेने का करेगा. मन में खुद आएगा कि चलो, कुछ नया ले लेते हैं, हर बार सूट ही क्यों पहनना. चलो, इस बार कोई अलग से ड्रैस ट्राई करती हूं आदिआदि. मिसेज जिंदल ने भी तो कितनी अच्छी ड्रैस पहनी थी, फिर मैं क्यों न पहनूं. मेरी तो फिगर भी उन से अच्छी है. आप को इस तरह सजतासंवरता देख पति भी खुश होंगे और वे भी अपने लिए शौपिंग करने से पीछे नहीं हटेंगे. बाकी लोगों को देख आप भी औनलाइन ऐक्सरसाइज आदि शुरू कर सकते हैं. अपनी फिटनैस को ले कर सजगता बढ़ेगी तो खानेपीने पर भी धयान देंगे.

फैस्टिवल पर बच्चों का न आना नहीं खलेगा

कई बार बच्चे अगर फैस्टिवल पर नहीं आ पाते, तो आप का मन उदास हो जाता है कि अब क्या करेंगे. जब बच्चे ही नहीं हैं तो कैसा फैस्टिवल. लेकिन आप चाहें तो एक कैटरर बुक कर के अपने घर किट्टी रख सकते हैं. अब घर सजाने का मन भी करेगा और घर में रौनक भी हो जाएगी. बच्चे बहुत खुश होंगे कि चलो, मम्मीपापा भी एंजौय कर रहे हैं.

कपल में सहयोग की भावना बढ़ेगी

पूरी ज़िंदगी भले ही आप ने कभी किचन में पत्नी का हाथ न बंटाया हो पर अब तो किट्टी आप दोनों की है तो उस की तैयारियां भी साथ मिल कर ही करनी होंगी. इस से आप दोनों में सहयोग की भावना बढ़ेगी. एकदूसरे के सहयोग के साथ किचन में काम करने को एक बार ट्राई जरूर करें. यकीन मानें, इस का आनंद ही कुछ और होगा. यह काफी रोमांटिक भी हो सकता है आप दोनों के लिए.

धयान दें

-किट्टी में एकदूसरे की बुराई न करें.
-किट्टी को घरेलू झगड़े निबटाने का प्लेटफौर्म न बनाएं.
-आप हैसियत में किसी से ज्यादा हैं तो किट्टी को अपने शो-औफ करने का अड्डा न बनाएं.
-अगर आप अपने साथी की इमेज बना कर चलेंगे, तो आप की इमेज भी बेहतर बनेगी क्योंकि आप दोनों एकदूसरे से जुड़े हैं.
-मदद करेंगे तो मदद मिलेगी भी. यह याद रखना, आज सामने वाले को जरूरत है तो कल आप को भी जरुरत हो सकती है. इसलिए मदद करने से कभी पीछे न हटें.
-इस बात का हमेशा धयान रखें कि किट्टी भी परिवार की तरह है. वहां आप की बात से किसी को ठेस न पहुंचे.

जनता का हुक्म : सरकार चलाओ धर्म नहीं

4 जून, 2024 को आए आम चुनाव के नतीजों ने एक अहम बात यह स्पष्ट कर दी है कि लोकतंत्र में जनता अपना भविष्य खुद लिखने में भरोसा करती है. लेकिन ये नतीजे कई सवाल भी खड़े कर गए हैं, मसलन यह कि अगर कोई लहर भाजपा के पक्ष में थी या नहीं भी थी तो उसे मध्य प्रदेश, ओडिशा, दिल्ली और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में बंपर सफलता क्यों मिली और उत्तर प्रदेश, राजस्थान व हरियाणा जैसे अपने दबदबे वाले राज्यों में वह उम्मीद से ज्यादा दुर्गति का शिकार क्यों हुई और क्यों दक्षिण में भी उसे मुंह की खानी पड़ी? वहां क्यों उस के हिंदुत्व का कार्ड नहीं चला?

क्यों भाजपा राम वाली अयोध्या सीट से हारी जिस के चलते हिंदू घोषिततौर पर दोफाड़ हो गए. अलावा इस के, जवाब इस सवाल का भी महत्त्वपूर्ण है कि कांग्रेस क्यों सियासी पंडितों की उम्मीद से ज्यादा सीटें बटोर ले गई. पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र में भी उसे पिछले चुनाव के मुकाबले कुछ खास हाथ नहीं लगा और इन से भी ज्यादा अहम सवाल यह कि क्या वाकई में नरेंद्र मोदी का जादू उतर रहा है और राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ रही है? और ऐसा क्या हो गया जो फिर से गठबंधन वाली सरकार को आकार लेना पड़ा?

इन सवालों का कोई एक जवाब जो सटीक और नतीजों को जस्टिफाई करता हुआ है वह यह है कि इस बार जनता ने अपने वोट का इस्तेमाल कलम की तरह किया और लिख दिया कि उसे कोई अवतार नहीं, भगवान नहीं, धर्मकर्म, कर्मकांडों के नाम पर फलतेफूलते पाखंड नहीं, अयोध्या, काशी, मथुरा नहीं, रासलीलाएं और रामलीलाएं नहीं, कलश यात्राएं और कांवड़ भी नहीं बल्कि एक अच्छी मैनेजिंग गवर्नमैंट चाहिए जो स्कूल, सड़क, अस्पताल बनाए और अर्थव्यवस्था मजबूत बनाए, फैक्ट्रियां व कारखाने बनाए जिन से रोजगार के नएनए मौके मिलते हैं. यह और ऐसा बहुतकुछ पिछले 10 सालों से नहीं हो रहा था, उलटे आम लोग इतनी दहशत और घुटन में जी रहे थे कि इस से नजात पाना ही एक वक्त में दुष्कर काम लगने लगा था.

जो हो रहा था उसे संक्षेप में दोहराया या याद किया जाए तो सोच कर ही कंपकंपी छूटने लगती है कि देश की अधिसंख्य आबादी जो दलितपिछड़ों और अल्पसंख्यकों की होती है एक खास किस्म के शोषण और आतंक का शिकार हो चली थी. यह शोषण और आतंक धार्मिक भी था, सामाजिक भी था और आर्थिक भी. मोदी सरकार ने 10 साल तबीयत से धर्मकर्म की, पाखंडों की, मंदिर की, दानदक्षिणा की, खर्चीले भव्य धार्मिक आयोजन की और हिंदूमुसलिम की राजनीति की और डंके की चोट पर इतने ढोलधमाके के साथ की थी कि लोगों के कान के परदे और दिमाग की नसें दोनों फटने लगे थे.

लेकिन मोदी सरकार को आम लोगों की परेशानियों से कोई सरोकार नहीं था, उलटे, वह तो और नईनई परेशानियां पैदा करने पर उतारू हो आई थी. उस का मकसद सबकुछ अपनी मुट्ठी में कैद करने का होता जा रहा था. इस बाबत उस ने वन नेशन वन इलैक्शन का ढिंढोरा पीटते इस की तैयारियां भी शुरू कर दी थीं. सरिता के मई (द्वितीय) अंक में प्रकाशित कवर स्टोरी, ‘एक का फंदा, एक देश, एक चुनाव, एक टैक्स यानी एक ब्रह्म, एक पार्टी एक नेता…’ में इस मंशा की बाल की खाल निकाली गई है और पोल खोली गई है. यहां उस रिपोर्ट के कुछ चुनिंदा अंश प्रस्तुत हैं-

इस कथित धर्मनिरपेक्ष देश में 5 मई को भाजपा ने एक विज्ञापन जारी किया था जिस में कहा गया था कि हम महाकाल की तर्ज पर धर्मस्थलों का विकास करेंगे. इसलिए भाजपा को वोट दो.

एक देश एक चुनाव के पीछे मंशा यह है कि इन मुद्दों को 5 साल में एक बार में ही भुना लिया जाए और फिर नेता 5-6 साल बैठ कर इत्मीनान से  राज करें क्योंकि तब तक जनता जनार्दन के हाथ कटे रहेंगे.

इतिहास बताता है कि आधुनिक यानी तथाकथित लोकतांत्रिक तानाशाहों में और प्राचीन तानाशाहों में बड़ा फर्क होता है. अब तानाशाही का मतलब सामूहिक नरसंहार नहीं बल्कि पूंजी को मुट्ठीभर हाथों को सौंप देना हो गया है और इस के लिए किसी विचार या दर्शन का नहीं, बल्कि धर्म का सहारा लिया जाने लगा है.

लोकतांत्रिक तानाशाही में तमाम दक्षिणपंथी शासक भगवान हो जाने की आदिम इच्छा से ग्रस्त होते हैं. लंबे समय तक सत्ता एक ही के हाथ में रहे तो उसे धीरेधीरे अपने भगवान हो जाने का भ्रम होने लगता है.

नरेंद्र मोदी की मंशा अब विकास या देश चलाना नहीं रह गई है बल्कि वे अद्वैत को थोपने में लग गए हैं.

लेकिन 4 जून का नतीजा जनता ने भाजपा और नरेंद्र मोदी दोनों के लिए इनाम नहीं बल्कि सजा की शक्ल में इस चैलेंज के साथ परोस दिया है कि अब अगर दम है तो यह सब दोबारा कर के दिखाओ.

जनता की इस चुनौती को आंकड़ों की शक्ल में देखें तो 543 लोकसभा सीटों में से भाजपा को महज 240 सीटें मिली हैं जो पिछले चुनाव के मुकाबले 63 कम हैं. 272 का नंबर छूने एनडीए के बड़े घटक दलों में नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड की भागीदारी 12 सीटों की और चंद्रबाबू नायडू की अगुआई वाली तेलुगूदेशम पार्टी की 16 सीटों की है. चिराग पासवान की लोकजन शक्ति पार्टी की 5 और एकनाथ शिंदे की शिवसेना की 7 सीटें मिला कर यह संख्या 280 हो जाती है. बाकी एकएक दोदो सीटों वाली चिल्लर पार्टियों की 12 सीटें और जोड़ दें तो एनडीए के पास 292 सीटें होती हैं.

एक बेमेल गठबंधन

यह गठजोड़ भाजपा और नरेंद्र मोदी की मनमानी पर लगाम है जो 10 साल पानी पीपी कर गठबंधन वाली सरकारों की खिल्ली उड़ाते रहे थे. अब उसी खिचड़ी का हिस्सा बनने को जनता ने उन्हें मजबूर कर दिया है, यही लोकतंत्र की खूबी और खासीयत है. एनडीए के 4 में से 3 बड़े घटक दल ही नहीं, सभी छोटी पार्टियां भी मूलतया सैक्युलर हैं जिन्हें धर्म की राजनीति से कोई वास्ता कभी नहीं रहा. शिवसेना के अलावा इन्होंने कभी मंदिरों और देवीदेवताओं के नाम पर वोट नहीं मांगे. कभी नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू और चिराग पासवान को धोतीकुरता और तिलक लगा कर पूजापाठ करते या आरती उतारते या कि किसी गंगा में डुबकी लगाते किसी ने नहीं देखा, न ही इन्होंने कभी सार्वजनिक तौर पर माथे पर त्रिपुंड लगा कर यज्ञहवन कर आहुतियां डालीं. एक सीटधारी हम पार्टी के मुखिया बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मां?ा तो सनातन धर्म के खुलेतौर पर विकट के आलोचक हैं जो रामायण और राम की प्रासंगिकता और वास्तविकता पर उतनी ही उंगली उठाते रहे हैं जितनी कि तमिलनाडु के मंत्री उदयनिधि स्टालिन उठा चुके हैं.

मतदाता ने नतीजों के जरिए कहा यह है कि धर्म से यथासंभव राजनीति को और सरकार को तो एकदम अलग रखा जाए क्योंकि धर्म है तो ज्यादा से ज्यादा व्यक्तिगत आस्था का विषय है जबकि धर्मनिष्ठ जनता की राय में भी इस का व्यवसायीकरण व बाजारीकरण या राजनीतीकरण न किया जाए जोकि मोदी सरकार 10 साल से कर रही थी. शुरू में तो कट्टरवादियों की हां में हां मिलाते हुए लोगों को इस में हर्ज नजर नहीं आया था लेकिन जब इस के पीछे छिपे खतरनाक और विध्वंसक मंसूबे उजागर होने लगे तो लोग घबरा उठे. सदियों से उठती हिंदू राष्ट्र की मांग इन्हीं 10 सालों में जिद और जनून में तबदील हुई. सरिता हमेशा ही हिंदू राष्ट्र के खतरों से आगाह करती रही है कि इस से किसी को कुछ हासिल होने वाला नहीं है, उलटे, जो छिनेगा उस की भरपाई सदियों तक भी नहीं हो पाएगी.

दरअसल धर्म दुनिया का सब से बड़ा धंधा है जिस से फायदा हर समाज में चंद एजेंटों को ही होता है. यह वह वर्ग है जो ईसाई देशों में पोप, पादरी, इस्लामिक देशों में इमाम, हाफिज वगैरह और भारत जैसे कथित हिंदू (हकीकत में ब्राह्मण) राष्ट्र में पंडेपुजारी शंकराचार्य, मठाधीश, स्वामी आदि के नाम से जाने जाते हैं. मोदीराज में इन का टर्नओवर हर रोज बढ़ रहा था. इस से पहले आम लोगों को कोई खास फर्क नहीं पड़ता था क्योंकि वे खुद दानदक्षिणा के जरिए इन्हें पालतेपोसते हैं लेकिन जब यही काम सरकारी संरक्षता में बड़े पैमाने पर सरकार करने लगी तो इस के साइड इफैक्ट भी सामने आने लगे.

पहला इफैक्ट हिंदूमुसलिम होते रहने का था जिस से लोगों की आम जिंदगी गड़बड़ाने लगी थी. हिंदुओं के दिलोदिमाग में मुसलमानों के प्रति इतनी जबरदस्त नफरत भर दी गई कि लोगों को मुसलमान दुश्मन नजर आने लगे. इफरात से मुसलमानों को हिंदू धर्म और संस्कृति को नष्टभ्रष्ट करने वाला, मंदिर तोड़ने वाला, हिंदू औरतों की इज्जत लूटने वाला बताया गया और इस के तथ्य उस इतिहास से लिए गए जो हिंदू ब्राह्मणों ने लिखा ही नहीं था और मुसलिम इतिहासकारों और यूरोपीय इतिहासकारों का जमा किया है. ये बातें आंशिक रूप से अभी भी जिंदा हैं. आरएसएस और भाजपा ने कभी इस मानसिकता को हतोत्साहित करने की कोशिश नहीं की, उलटे, जितना हो सकता था इसे और हवा ही दी.

लंका जैसा अयोध्या कांड

इस से नुकसान क्या और कैसे हो रहे थे, यह बात नतीजों के बाद 4 जून की रात से ही सामने आने लगी जब हिंदू ही हिंदू को गाली देने लगा. सनातनी परंपरा के अनुरूप हमेशा की तरह गाली देने वाला हिंदू ऊंची जाति का और खाने वाला छोटी जाति वाला हिंदू था. सोशल मीडिया पर अयोध्या के हिंदुओं को गद्दार जैसे संबोधनों से नवाजते मांबहन की भद्दी गलियों के अलावा उन्हें मुफ्तखोर और कृतघ्न यानी एहसानफरामोश के साथसाथ और भी न जाने क्याक्या कहा गया और महीनों कहा जाएगा.

चंद घंटों में ही इस बौखलाहट और ?ाल्लाहट की वजह भी सामने आ गई कि दरअसल ऊंची जाति वाले हिंदू नीची जाति वाले हिंदुओं, जिन्हें धर्मग्रंथों में शूद्र से भी नीच, अछूत और आम बोलचाल की भाषा में दलित कहा जाता है, को दुत्कार रहे हैं क्योंकि उन्होंने खासतौर पर अयोध्या लोकसभा सीट पर भाजपा को वोट नहीं दिया था. अयोध्या उत्तर प्रदेश की फैजाबाद लोकसभा सीट के तहत आता है जहां शूद्रों से नीचे एससी दलितों की आबादी 26 फीसदी, मुसलमानों की 14 फीसदी और ब्राह्मणों व शूद्र कुर्मियों और यादवों की 12-12 फीसदी है. बाकी 24 फीसदी में ठाकुर और वैश्य वगैरह ऊंची जातियां हैं.

इस सीट से भाजपा ने ठाकुर बिरादरी के लल्लू सिंह को तीसरी बार टिकट दिया था जबकि इंडिया गठबंधन ने एक अछूत दलित पासी समुदाय के सपा विधायक अवधेश पासी को मैदान में उतारा था. जबकि, यह सुरक्षित सीट नहीं थी. भाजपा यह मान कर चल रही थी कि इस बार भी वही जीतेगी क्योंकि यह तो रामलला की नगरी है. दूसरे, मंदिर बनने के बाद अयोध्या में अरबों रुपए खर्च कर विकास कार्य सरकार ने किए हैं. सड़कें चौड़ी हुईं, रेलवे स्टेशन चमचमाने लगा, हवाई अड्डा बना, रंगबिरंगी बिजलियां लगीं, इमारतें चमकने लगीं और मंदिर में बेहिसाब सोना मढ़ा गया. लाखों लोगों ने अयोध्या आ कर जम कर खर्च भी किया.

लेकिन जब नतीजा आया तो हरकोई भौचक्क रह गया क्योंकि लल्लू सिंह भाजपा के सपा के अवधेश पासी के हाथों 54,567 वोटों से हार गए थे.

योगी-मोदी की भक्ति पर वोटर की शक्ति भारी पड़ी. अयोध्या के सभी लोगों को, चाहे वे भाजपा वोटर थे या सपा वोटर, देशभर से गालियां पड़ीं. तरहतरह के पौराणिक किस्सेकहानियां आम हुए कि अयोध्या के लोग तो त्रेता युग में भी गद्दार थे तो आज उन से कैसे भक्ति और निष्ठा की उम्मीद की जा सकती है. राम वनवास और सीता की अग्निपरीक्षा जैसे गंभीर संवेदनशील लेकिन अप्रासंगिक हो चले प्रसंगों का दोषी भी इन्हें ही ठहरा दिया गया लेकिन आश्चर्य की बात शम्बूक का जिक्र किसी ने नहीं किया, जिस शूद्र को वेदों के पाठ को स्मरण करने पर सजा दी गई थी.

जल्द ही अयोध्या के लोगों के आर्थिक बहिष्कार की अपीलें सोशल मीडिया पर ठीक वैसे ही प्रवाहित होने लगीं जैसे आमतौर से मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार की होती रहती हैं. शुक्र इस बात का रहा कि वे संविधान में बने एससीएसटी एक्ट का उल्लंघन करने से डरे, नहीं तो दलितों को जातिसूचक संबोधनों से अपमानित करने में वे चूकते नहीं. इस लिहाज की वजह भाजपा की बाकी जगह की दुर्गति का भी भरम था जो तब ताजीताजी थी.

अगर संविधान नहीं होता, जिस की चर्चा पूरे चुनावप्रचार में सुर्खियों में रही थी, तो इन दलितों का और क्याक्या व कैसाकैसा हश्र होता, इस का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्हें तो धर्मग्रंथों के मुताबिक ज्ञान और शिक्षा का अधिकार ही नहीं, ऐसा करने पर तो इन के कानों में पिघला सीसा तक डालने के निर्देश हैं और राजा को इन्हें जान से मार डालने तक का अधिकार मिला हुआ है. लेकिन अभी तो ऐसा कुछ नहीं हुआ था.

बस, इन के ?ोंपड़े, जमीनजायदाद और दुकानें अयोध्या के विशाल मंदिर निर्माण के लिए नाममात्र के मुआवजे के एवज में अधिगृहीत कर लिए गए थे. इस से ताल्लुक रखते वीडियो भी सामने आए थे जिन में अयोध्या की औरतें रोते हुए यह बता रहीं थीं कि कैसे मंदिर की भव्यता के लिए उन के कच्चेपक्के आशियाने मामूली मुआवजे के एवज में उजाड़े गए और राम ने कब कहा कि इन्हें खदेड़ कर मेरा मंदिर बना दो. अब अगर दलितों ने भी वोट के जरिए अपने हक का इस्तेमाल कर लिया तो तिलमिलाने वाले तिलमिला उठे मानो उन्होंने कोई संगीन गुनाह कर दिया हो.

डूबी लुटिया यूपी में

बात अकेले अयोध्या की नहीं थी बल्कि पूरे उत्तर प्रदेश में मुसलमानों सहित दलितों और पिछड़ों ने भाजपा को नकार दिया था क्योंकि वह उस धर्म की राजनीति करती रही थी जो केवल सवर्णों के भी कट्टरपंथियों का है. धर्म इन दलितों के बारे में क्या राय रखता है, सरिता को यह बताते 65 साल हो गए हैं. अब कहीं जा कर दलितों को थोड़ी अक्ल आई है कि हम क्यों धार्मिक और जातिगत भेदभाव बरदाश्त करें लेकिन पढ़ेलिखे सवर्णों को यह अक्ल अभी भी नहीं आ रही कि वे धार्मिक संकीर्णता और भेदभाव वाली मानसिकता छोड़ दें.

धर्म से परे मौजूदा राजनीति की बात करें तो उत्तर प्रदेश की 80 में से 33 सीटें ही भाजपा को मिलीं. भाजपा की सहयोगी आरएलडी को 2 और अपना दल के खाते में एक सीट उस की मुखिया अनुप्रिया पटेल को मिली. सपा को रिकौर्ड 36 और पिछले चुनाव में केवल एक सीट ले जा पाई कांग्रेस के खाते में 6 सीटें आईं. बची एक नगीना सुरक्षित सीट आजाद समाज पार्टी के मुखिया चंद्रशेखर रावण ने जीती जिन्होंने भाजपा के ओम कुमार को 1.50 लाख वोटों से शिकस्त दी. सपा के मनोज कुमार को 1.2 लाख ही वोट मिले.

यह नगीना की सीट भी वोट पैटर्न और आने वाली दलित राजनीति के लिहाज से अहम है. बसपा के सुरेंद्र पाल सिंह को केवल 13,272 वोट मिले जबकि पिछला चुनाव बसपा के गिरीशचंद्र ने भाजपा के उम्मीदवार यशवंत सिंह को एक लाख से भी ज्यादा वोटों से हरा कर जीता था. भाजपा से डरीसहमी बसपा सुप्रीमो मायावती के खत्म होते दौर को इस से सहज सम?ा जा सकता है. मुमकिन है चंद्रशेखर रावण में दलित अपना नया नेता देखने लगे हों जिन्होंने जीतते ही इंडिया गठबंधन पर अपना भरोसा जताया.

भाजपा ने दलितों का भरोसा खो दिया, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं बल्कि ऐसा कहने की कई वजहें हैं कि वह फिर से सिर्फ ब्राह्मणों और उन के मूर्ख भक्त बनियों की पार्टी साबित होने लगी है. उस के वोट शेयर में कोई खास बदलाव नहीं हुआ लेकिन इंडिया गठबंधन के चलते विपक्ष का वोट एकजुट हो गया. अखिलेश यादव का पीडीए यानी पिछड़ा दलित अल्पसंख्यक फार्मूला कैसे एक जादू की तरह चला और कैसे राहुल गांधी नायक बन कर उभरे.

हिंदू भक्त और मोदी को अवतार सा मानने वाले हिंदीअंग्रेजी चैनलों ने जम कर विश्लेषण कर के कहना चाहा कि अभी खास बिगड़ा नहीं है पर उन की खिसियाहट स्पष्ट है क्योंकि 1 जून को एक्जिट पोलों में ये धार्मिक न्यूज चैनल जनता को बता चुके थे भाजपा को 350 और गठबंधन को 400 सीटें मिलेंगी ही.

सोशल मीडिया के दुष्प्रचार और प्रचारकों की हकीकत एक बार फिर 6 जून को उजागर हुई जब आगरा पुलिस ने धीरेंद्र राघव नाम के एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया जिस ने मुसलिम गेटअप रख कर भड़काऊ रील वायरल की थी कि रामभक्त हिंदुओं ने बचा लिया नहीं तो राहुल गांधी हम मुसलमानों को आरक्षण देता और अयोध्या में मंदिर की जगह फिर से मसजिद बनवा देता.

एक दिलचस्प जंग – 

राहुल बनाम मोदी

धीरेंद्र राघव जैसी भाषा भाजपा और नरेंद्र मोदी ने चुनावप्रचार के दौरान अपने ढंग से इस्तेमाल की थी. उन्होंने बस धीरेंद्र राघव जैसे मुसलिम युवकों की तरह गेटअप नहीं बदला था. लेकिन इस बेसिरपैर के प्रचार के ?ांसे में न तो हिंदू आए और न ही मुसलमान आए जिन्होंने अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए वोट किया. नतीजतन भाजपा 240 पर अटक कर रह गई. चुनावप्रचार के दौरान ऐसे कई मौके आए जब नरेंद्र मोदी ने आपा खोया, कहीं जानबू?ा कर तो कहीं अनजाने में उलट. इस के, राहुल गांधी ने सब्र से काम लिया और मोदी सहित किसी भी नेता पर पर्सनल कमैंट्स नहीं किए.

भगवा खेमे में हलचल

मंगलसूत्र, मांस, मच्छी, मुजरा जैसे कई शब्दों का इस्तेमाल मोदी ने किया जिस से उन की बौखलाहट ही प्रदर्शित हुई. राहुल गांधी को मुसलमान बताने के लिए उन्होंने उन्हें बारबार ‘शहजादा’ कहा. यह शब्द मुगलकाल में वारिसों के लिए प्रयोग होता था जबकि 2014 के चुनावप्रचार में वे राहुल को युवराज कहते ताना मारते थे. पूरे चुनावप्रचार में राहुल ने कोई धार्मिक बात या काम नहीं किया जबकि मोदी पूरे चुनाव में धार्मिक विवाद खड़े करने की कोशिश करते रहे. उन का पूजापाठ तो जगजाहिर है ही जिस के चलते उन्हें यह गलतफहमी हो आई थी कि ऐसा करने से जनता महंगाई और बेरोजगारी सरीखे मुद्दों से भटक जाएगी.

पहले चरण के मतदान के बाद ही भगवा खेमे में हलचल मच गई थी कि लोग धर्म और मंदिर मुद्दे पर वोट नहीं कर रहे हैं. यह खेमा आगे की रणनीति तय कर पाता, इस के पहले ही राहुल गांधी ने संविधान की दुहाई देना शुरू कर दिया. असल खेल और चुनाव यहीं से शुरू हुआ जब बौखलाए नरेंद्र मोदी ने दलित, पिछड़ों को यह डर दिखाना शुरू कर दिया कि कांग्रेस उन का आरक्षण छीन कर मुसलमानों को दे देगी. आरक्षण और संविधान के मसलों पर क्यों लोगों ने भाजपा और नरेंद्र मोदी के बजाय कांग्रेस और राहुल गांधी पर भरोसा किया, इन कारणों की सटीक और तथ्यात्मक तार्किक व्याख्या करती रिपोर्ट शीर्षक ‘संविधान की शक्ति गुलामी और भेदभाव से मुक्ति’ सरिता के ही पिछले यानी जून (प्रथम) 2024 के अंक में प्रकाशित हुई है.

राहुल गांधी ने तो सबक लेते धर्म की राजनीति से तोबा कर ली लेकिन नरेंद्र मोदी किस हद तक इस की गिरफ्त में आ गए थे, यह हर किसी ने चुनावप्रचार के दौरान देखा और 22 जनवरी, 2024 के अयोध्या इवैंट के बाद से तो यही देखतेदेखते लोग इतने ऊब गए थे कि वोट डालने ही नहीं गए. यह दरअसल भाजपा का कोर वोटबैंक था जो नरेंद्र मोदी से पूरी तरह नाउम्मीद हो गया था कि उन्हें अब तो रामकृष्ण और राहुल के अलावा भी कुछ बोलना चाहिए. लेकिन मोदी बोलते भी तो क्या बोलते क्योंकि उन्होंने 10 साल में विकास का या आम लोगों की जिंदगी को सुविधाजनक बनाने का कोई उल्लेखनीय काम किया ही नहीं. प्रचार जरूर हुआ.

धीरेधीरे राहुल गांधी नरेंद्र मोदी पर भारी पड़ने लगे जिस में उन की भारत जोड़ो और न्याय यात्राओं का भी खासा योगदान रहा जिन के जरिए वे अपने पूर्वजों की तरह आम लोगों के बेहद नजदीक आए. उन्होंने राह चलते लोगों और महिलाओं से सीधे संवाद किया. जवाहरलाल नेहरू की तरह बच्चों को गोद में उठाया और बिना किसी आलोचना की परवा किए सड़कों पर खूब मौजमस्ती भी की. 2 साल में राहुल ने आम भारतीय जिंदगी को नजदीक से सम?ा.

चुनावप्रचार में उन्होंने संविधान को सीने से लगा कर ताबड़तोड़ हमले भाजपा पर किए तो नरेंद्र मोदी इतने बौखला गए कि सलीके से शब्दों का चयन भी नहीं कर पाए, जिस के लिए वे जाने जाते थे. हद तो तब हो गई जब उन्होंने वाराणसी से नामांकन दाखिल करते वक्त एक न्यूज चैनल को दिए प्रायोजित इंटरव्यू में खुद को ‘नौन बायोलौजिकल’ बता डाला. इस से उन का प्रशंसक वर्ग और मायूस हो उठा. लेकिन इस तरह की ही बातों से राहुल गांधी लोगों की निगाह में चढ़ने लगे. ऐसा भी पहली बार हुआ कि राहुल गांधी ने नरेंद्र मोदी को जैसे चाहा, नचाया. क्रिकेट की भाषा में कहें तो अपनी पिच पर खेलने को मजबूर कर दिया. इस वक्त से ले कर अभी तक नरेंद्र मोदी की दयनीयता गौर करने के काबिल है जो अब अपने सहयोगी दलों के भी इशारे पर नाचने को मजबूर होंगे.

जिस वाराणसी से उन के 8-10 लाख वोटों से जीतने के दावे किए जा रहे थे वहां से बमुश्किल वे 1.52 लाख वोटों के अंतर से जीत पाए. शुरुआती गिनती में वे कांग्रेस के अजय राय के मुकाबले पिछड़ रहे थे तब टीवी देखते भक्तों और अभक्तों को अपनी आंखों और कानों पर ही यकीन नहीं हो रहा था. उलट इस के, राहुल गांधी दोनों सीटों से सम्मानजनक वोटों से जीते. रायबरेली में उन्होंने भाजपा उम्मीदवार दिनेश प्रताप सिंह पर 3.90 लाख वोटों से जीत दर्ज की तो वायनाड से रिकौर्ड 4.31 लाख मतों के अंतर से सीपीआई प्रत्याशी एनी राजा को शिकस्त दी. भाजपा के के. सुरेन्द्रन 1.41 लाख वोट हासिल कर तीसरे नंबर पर रहे.

इन शानदार जीतों से उस कांग्रेस की जोरदार वापसी 99 सीटों की शक्ल में हुई जिस के खारिज होने की भविष्यवाणी तमाम सर्वे और चर्चा में रहा राजस्थान का फौलादी सट्टा बाजार और बारबार खेमा पलटने वाले प्रशांत किशोर सरीखे स्वयंभू चुनावी रणनीतिकार कर चुके थे. 4 जून के पहले से ही लोगों के दिलोदिमाग में बैठा खौफ कम होने लगा था जो 4 जून की शाम होतेहोते खत्म भी हो गया. लगा ऐसा कि घुटन और उमसभरे कमरे की खिड़कियां किसी ने खोल दी हों जिस से ताजी हवा के ?ांके आने लगे हैं. कुछकुछ मोदीभक्तों ने भी दबी जबान से ही यही स्वीकारा कि अच्छा हुआ नहीं तो मोदीजी तानाशाह होते जा रहे थे जो देश के भविष्य के लिहाज से खतरे की बात थी. लोकतंत्र में विपक्ष का मजबूत होना जरूरी है जिस से सरकार मनमानी न कर सके.

आगे क्या हो सकता है?

अब आने वाला वक्त और दिलचस्प होगा क्योंकि आम लोगों को ही लग नहीं रहा कि बेमेल गठबंधन वाली सरकार ज्यादा दिनों तक चल पाएगी. अब तक संसद से ले कर सड़क तक होता वह था जो नरेंद्र मोदी चाहते थे. ईडी, सीबीआई और आईटी जैसी सरकारी एजेसियां जब चाहें कहीं भी छापा मार सकती थीं. किसी भी हेमंत सोरेन और अरविंद केजरीवाल को गिरफ्तार कर सकती थीं.

अब यह सब नहीं होगा क्योंकि असली कमान नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू जैसे घाटघाट का पानी पी चुके खिलाडि़यों के हाथ में है जो कम से कम इस तरह की दुर्वासा ऋषिनुमा और श्राप देने वाली राजनीति तो नहीं करते कि जो लोग वोट न दें वे गद्दार और भी न जाने क्याक्या हैं. शुरुआती दिनों में एनडीए के सभी दलों ने एकदूसरे पर भरोसा जताया है. नरेंद्र मोदी को नेता चुना है लेकिन इस से यह साबित नहीं होता कि वे दूसरे भाजपाइयों जैसे मोदीभक्त हो गए. जब नीतिगत मुद्दे पटल पर आएंगे तब इन की टकराहट देखने काबिल होगी.

दायित्व तो किसी को देना होगा और इंडिया ब्लौक इसे लेने को तैयार नहीं था. एनडीए का जो भी हो लेकिन इंडिया गठबंधन का जोश वाकई हाई है. अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश के तो उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के नायक बन कर उभरे हैं. बिहार में अपने राजनीतिक चाचा के छलकपट का शिकार रहे तेजस्वी यादव जरूर थोड़ा पीछे रहे हैं लेकिन संजीवनी आरजेडी को भी मिली है जिस के

4 सांसद जीते हैं. बिहार में कांग्रेस ने भी 3 सीटें जीतीं जो 2029 के लिहाज से उस की वापसी की राष्ट्रीय स्वीकृति ही है. सड़कों के बाद अब संसद में राहुल गांधी और नरेंद्र

मोदी आमनेसामने होंगे तो नजारे वाकई दिलचस्प होंगे. इस बार राहुल मजबूत हैं और मोदी कमजोर हैं, इस का फर्क तो पड़ेगा.

दक्षिण ने भी नकारा

इस बार दक्षिणी राज्यों से भाजपा को बहुत उम्मीदें थीं क्योंकि नरेंद्र मोदी ने वहां भी ताबड़तोड़ रैलियां और सभाएं की थीं जिन में भीड़ भी उमड़ी थी. दक्षिणी राज्यों के मंदिरों की चौखट पर भी नरेंद्र मोदी ने खूब माथा रगड़ा था और वहां भी इंडिया गठबंधन को यह कहते कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की थी कि ये लोग सनातन और रामविरोधी हैं यानी अधर्मी टाइप के हैं, इसलिए इन्होंने राम मंदिर का प्राणप्रतिष्ठा का आमंत्रण भी ठुकरा दिया था.

लेकिन उन की धार्मिक छवि और बेमतलब के रोनेगाने से दक्षिण भारत ने भी कोई इत्तफाक नहीं रखा. इन राज्यों में धर्म तो उत्तरभारत सरीखा ही चलता है लेकिन धर्म की राजनीति एक हद से ज्यादा परवान नहीं चढ़ती. इसे वहां के माहौल से भी सहज सम?ा जा सकता है कि ऊंचीनीची जातियों की महिलाएं धार्मिक यात्राओं के नाम पर मीलों कलश ढोते नहीं मिलेंगी. सड़क पर टैंट लगाए प्रवचन करते और कुछ हजार रुपए में मोक्ष दिलाने का कारोबार करते बाबा लोग नहीं मिलेंगे. नेता भी धार्मिक, शोबाजी ज्यादा नहीं करते.

इस का यह मतलब नहीं कि दक्षिण के लोग धार्मिक अंधविश्वासी या रूढि़वादी नहीं हैं, फर्क इतना है कि वहां धार्मिक नफरत उत्तरभारत के मुकाबले कम है और जहां तुलनात्मक दृष्टि से ज्यादा है वहां भाजपा को ज्यादा सीटें मिली हैं.

28 सीटों वाले कर्नाटक में भाजपा को 2019 के मुकाबले उत्तर प्रदेश की तर्ज पर कम नुकसान नहीं हुआ है जहां उस की सीटें 28 से घट कर 17 पर आ गईं. इन 8 सीटों का फायदा सीधेसीधे कांग्रेस को मिला जिस की पिछले चुनाव में एक सीट थी. इस बार 9 हो गईं. एनडीए के सहयोगी दल, जनता दल (एस) को इस बार भी 2 सीटें मिलीं. यानी हिंदुत्व यहां भी कमजोर पड़ रहा है और धर्म की राजनीति भी फीकी पड़ रही है.

तमिलनाडु में इस बार भी भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली. सभी 39 सीटें इंडिया गठबंधन के खाते में गईं जिन में से 22 सीटें डीएमके को और 9 कांग्रेस को मिलीं. अन्य छोटे दल 8 सीटों पर जीते. हैरत की बात एनडीए के सब से बड़े घटक दल एआईएडीएमके का खाता न खुलना भी रहा. जो पहले भारतीय जनता पार्टी का सहयोगी था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार यहां उदयनिधि स्टालिन के सनातन विरोधी बयान को मुद्दा बनाने की कोशिश करते रहे लेकिन वोटर्स ने उन की बात पर ध्यान नहीं किया. जाहिर है उसे हिंदू राष्ट्र और सनातन धर्म से कोई लेनादेना नहीं रहा.

धर्म और हिंदुत्व की जड़ें जमाने के लिए इस बार भाजपा ने एक 40 वर्षीय आईपीएस अधिकारी अन्नामलाई कुप्पुसामी को 3 साल पहले प्रदेश अध्यक्ष बनाते उन्हें हिंदुत्व के पोस्टर बौय के रूप में लौंच किया था. अन्नामलाई को भाजपा ने कोयंबटूर सीट से उतारा था जो डीएमके के उम्मीदवार राज कुमार से 1 लाख 18 हजार से भी ज्यादा वोटों से हारे. तमिलनाडु के अलावा पूरे देश में यह हवा फैलाई गई थी कि अन्नामलाई तमिलनाडु में हिंदुत्व की अलख जलाएंगे लेकिन नतीजा आया तो हर किसी को सम?ा आ गया कि तमिलनाडु में सनातन नहीं चलने वाला.

अन्नामलाई से सौगुना ज्यादा हल्ला भाजपा ने हैदराबाद लोकसभा सीट पर मचाया था जहां से कट्टर हिंदुत्व की इमेज वाली माधवी लता को उस ने एआईएमआईएम के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी के मुकाबले टिकट दिया था. मीडिया ने माधवी लता को हाथोंहाथ लिया और इन की तुलना साध्वी उमा भारती और प्रज्ञा सिंह से की जाने लगी. हैदराबाद की गलियों में डेढ़ महीने जय श्रीराम टाइप के नारे गूंजे लेकिन 4 जून की शाम होतेहोते भाजपा का यह एटम बम भी फुस्स साबित हो गया. माधवी लता 3 लाख 38 हजार से भी ज्यादा वोटों से हारीं. तेलंगाना में इस बार भाजपा को 17 में से 8 सीटें मिलीं जो पिछली बार से 4 ज्यादा हैं. कांग्रेस को भी 8 सीटें मिलीं जो पिछले चुनाव के मुकाबले 5 ज्यादा हैं. केसीआर की बीआरएस की खाता भी नहीं खुला जिस का फायदा कांग्रेस और भाजपा दोनों को मिला.

केरल में भाजपा इस बार खाता खोल पाने में कामयाब हो गई, नहीं तो आजादी के बाद से वह यहां सफल नहीं हो पा रही थी. इंडिया गठबंधन का दबदबा यहां बरकरार रहा. कांग्रेस को 20 में से 14, मुसलिम लीग को 2 और सत्तारूढ़ पार्टी सीपीआई (एम) को एक सीट मिली. भाजपा की इकलौती सीट त्रिशूर से अभिनेता सुरेश गोपी के रूप में मिली जो हिंदुत्व की वजह से कम, अपनी फिल्मी इमेज की वजह से ज्यादा जीते.

25 लोकसभा सीटों वाले आंध्र प्रदेश में टीडीपी के एनडीए गठबंधन में होने का फायदा भाजपा को मिला. उसे 3 सीटों पर जीत मिली. टीडीपी को 16 और लोकप्रिय अभिनेता पवन कल्याण की जनसेना को 2 सीटें मिलीं. वायएसआर कांग्रेस को सत्ताविरोधी लहर भारी पड़ी. उसे केवल

4 सीटों से तसल्ली करनी पड़ी. विधानसभा में भी इंडिया गठबंधन का सूपड़ा एंटीइनकमबैंसी के चलते साफ हुआ. यहां भाजपा चंद्रबाबू नायडू के भरोसे थी जिन्होंने धर्म या मंदिर की बात भी नहीं की, उस का वोट भाजपा को मिला.

दक्षिणी राज्यों की 129 सीटों में से भाजपा को 29 और कांग्रेस को 40 सीटें मिलना बताता है कि यहां भी मोदी का धर्म का मैजिक नहीं चला और भाजपा को बस गठबंधन का ही फायदा मिला. उस का कोर वोट यहां है ही नहीं और जो थोड़ाबहुत है वह कर्नाटक में है जिस में इस बार कमी हुई है.

कहीं खुशी कहीं गम 

महाराष्ट्र में भी भाजपा को बड़ा नुकसान हुआ जहां वह शिवसेना और एनसीपी को दोफाड़ कर खुश हो रही थी. 48 सीटों वाले इस राज्य में कांग्रेस को सब से ज्यादा 13 सीटें मिलीं. उस के सहयोगी शिवसेना उद्धव गुट को 9 और 7 सीटें शरद पवार वाली एनसीपी को मिलीं. एनडीए में भाजपा को 9, अजित पवार वाली एनसीपी को एक और एकनाथ शिंदे वाली शिवसेना को 7 सीटें मिलीं. पिछले चुनाव के मुकाबले भाजपा को 13 सीटों का नुकसान हुआ.

बिहार में भाजपा को जनता दल यू के साथ का वही फायदा मिला जो आंध्र प्रदेश में टीडीपी का साथ लेने से मिला था. 40 में से 12-12 सीटें भाजपा और जदयू को और 5 सीटें चिराग पासवान वाली लोकजन शक्ति पार्टी को मिलीं. राजद को 4 और कांग्रेस को 3 सीटें मिलीं. भाजपा के लिए यह नुकसान इस लिहाज से भी है कि 2019 के चुनाव में उसे 17 सीटें मिली थीं. अगर जदयू साथ न देता तो यहां भी उसे उत्तर प्रदेश जैसा नुकसान होना तय था.

पंजाब में उम्मीद के मुताबिक भाजपा को कुछ नहीं मिला जबकि वहां आप और कांग्रेस अलगअलग लड़े थे. 14 में से कांग्रेस को 7, आप को 3, शिअद को एक और एक सीट निर्दलीय अमृतपाल सिंह को मिली जो खूडूर सीट से जीते. खालिस्तान समर्थक अमृतपाल राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत मार्च 2023 से असम की डिब्रूगढ़ जेल में बंद हैं. क्या यह पृथक खालिस्तान का समर्थन है, इस सवाल का एक जवाब यह भी निकलता है कि यह भाजपा के हिंदू राष्ट्र निर्माण का भी विरोध है. भाजपा अगर पंजाब में जीतती तो यह आग और भड़क सकती थी क्योंकि सनातनियों की निगाह में तो आंदोलन करते किसान भी खालिस्तानी थे. यह अनदेखी और अपमान सिख समुदाय के लोग हर कभी हर कहीं भुगतते हैं. गनीमत है कट्टर सिख चुनावों से अपनी बात सामने रख रहे हैं.

पश्चिम बंगाल में लाख कोशिशों और साजिशों के बाद भी भगवा कार्ड नहीं चला. वहां तो हिंदूमुसलमान उत्तर प्रदेश से भी ज्यादा और खतरनाक स्थिति में पहुंच गया था. ममता बनर्जी ने इस खतरे को सम?ाते अपने दम पर लड़ना ज्यादा बेहतर सम?ा जिस का फायदा भी उन्हें मिला. टीएमसी की 7 सीटें वहां बढ़ीं. उसे इस बार 42 में से 29 सीटें मिलीं. भाजपा की 6 सीटें कम हुईं. वह 18 से गिर कर 12 पर अटक गई. हिंदूमुसलिम वाले संदेशखाली मुद्दे पर भाजपा के दुष्प्रचार को वोटर्स ने नकार दिया. एक बार फिर पश्चिम बंगाल के लोगों ने साबित कर दिया कि वे अमनचैन से रहना चाहते हैं. भाजपा का धर्म, मंदिरवाद और हिंदूमुसलिम उन्हें रत्तीभर भी रास नहीं आया.

संविधान ही रास्ता

कमोबेश यही हालात ?ारखंड में रहे जहां भाजपा की 3 सीटें कम हुईं. कांग्रेस को 2 और ?ारखंड मुक्ति मोरचा को 3 सीटें मिलीं. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को भाजपा जेल में बंद करने का जो अधिकतम फायदा उठा सकती थी वह उस ने उठाया. सोरेन परिवार की बहू सीता सोरेन, जो दुमका सीट से भाजपा के टिकट पर लड़ी थीं, को ?ामुमो के नलिन सोरेन के सामने हार का मुंह देखना पड़ा.

राजस्थान और हरियाणा में भी भाजपा जरूरत से ज्यादा दुर्गति की शिकार हुई. राजस्थान में उसे 25 में से 11 सीटें मिलीं जबकि पिछले चुनाव में उस ने क्लीन स्वीप यहां से किया था. जाट राजपूत तो भाजपा से खफा थे ही लेकिन आरक्षण को ले कर दलित, आदिवासी भी आशंकित थे कि मनुवादी भाजपा पर कम से कम इस मसले पर तो भरोसा नहीं किया जा सकता. इस से 11 सीटों का फायदा राजस्थान में इंडिया गठबंधन को हुआ. हरियाणा में भी यही समीकरण ज्यादा प्रभावी साबित हुए. भाजपा यहां 10 में से 5 सीटें ही ले जा पाई, जबकि 2019 में उस ने सभी सीटें जीतीं थीं.

जिन राज्यों में भाजपा फायदे में रही उन में सब से ऊपर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, दिल्ली और उस के बाद ओडिशा हैं. मध्य प्रदेश की सभी 29 सीटें उसे मिलीं. ऐसा नहीं है कि दलित, आदिवासी और पिछड़े वोटर यहां आरक्षण को ले कर भयभीत नहीं थे लेकिन कोई तीसरा दल न होने से भाजपा भारी पड़ी. उसे यहां सौफ्ट हिंदुत्व के चलते भी नुकसान नहीं हुआ. पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह और वर्तमान मुख्यमंत्री मोहन यादव कम पूजापाठी नहीं लेकिन उन की दहशत उतनी और वैसी नहीं है जैसी योगी आदित्यनाथ की उत्तर प्रदेश में है. इस राज्य के कांग्रेसी भी धर्म के रंग में रंगे रहे हैं हमेशा. इसी पैटर्न पर उसे छत्तीसगढ़ की 11 में से 10 सीटें मिल गईं.

ओडिशा की 21 में से 20 सीटें जीत लेना वाकई हैरत की बात भाजपा के लिहाज से है. जबकि वहां धर्म और मंदिर की राजनीति का उपद्रव कम था. असल में मुख्यमंत्री नवीन पटनायक का 24 साल लंबा कार्यकाल, उन की गिरती सेहत और द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति बनाए जाने का फायदा उम्मीद से ज्यादा भाजपा को मिला और वह बीजद को बेदखल करते विधानसभा पर भी काबिज हो गई. कांग्रेस यहां इस गलतफहमी में रह गई कि नवीन पटनायक तो हैं ही, इसलिए ज्यादा मेहनत करने से कोई फायदा नहीं.

दिल्ली के नतीजे भी कम हैरान करने वाले नहीं रहे जहां की सभी 7 सीटें भाजपा ने जीत लीं. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जेल में डालने का फायदा भाजपा को मिला और आप और कांग्रेस के वोटों का एक जगह न गिरना भी हार की वजह बना. दोनों दलों के कार्यकर्ताओं में तालमेल का अभाव और उदासीनता भी दिल्ली में साफसाफ देखी गई. ओवर कौन्फिडैंस भी इंडिया गठबंधन को ले डूबा वरना तो धर्म दिल्ली में बड़ा मुद्दा नहीं था.

अब भाजपा क्या करेगी, यह देखना कम दिलचस्प नहीं होगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित सभी छोटेबड़े भाजपाई नेताओं के चेहरे उतरे हुए हैं. तथाकथित जीत, जो हार से ज्यादा शर्मनाक हो कर साल रही है, के बाद भाजपाई पहले की तरह मंदिरों की तरफ नहीं टूटे न उन्होंने लड्डुओं का प्रसाद बांटा और न ही घंटे, घडि़याल, शंख बजाए, मथुराकाशी का नारा भी कोई अब नहीं लगा पा रहा.

एनडीए की 8 जून की मीटिंग में नरेंद्र मोदी ने संविधान की प्रति को माथे से लगाया. लेकिन इसे बदलाव सम?ाना या कहना ज्यादती होगी बल्कि इसे मौकापरस्ती कहना ज्यादा सटीक होगा क्योंकि अब सामने एक सशक्त विपक्ष है और पीछे नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू जैसे सैक्युलर नेता हैं जिन के लिए धर्म सैकंडरी है जो नरेंद्र मोदी और भाजपा के लिए बेहद प्राइमरी होता है. इसी को जनता ने नकारा है और लोकतांत्रिक सरकार होने के माने भी बता दिए हैं.

उम्मीद कर सकते हैं कि अब राज्यपालों की नियुक्ति में मनमानी नहीं चलेगी, सुप्रीम कोर्ट पर राममंदिर जैसा पर अतार्तिक फैसला करवाने का दबाव नहीं बनाया जा सकता, हाईकोर्टो में धर्मनिष्ठ जजों की भरती आसान नहीं रहेगी, इलैक्टोरल बौंड्स जैसी अपारदर्शी व्यवस्थाएं नहीं चलेंगी, देश का सारा पैसा अडानीअंबानी को सौंप देने के तरीकों पर लगाम कसी रहेगी और अहम बात, संसद भवन जैसी राष्ट्रीय धरोहरों के उद्घाटन समारोह हिंदू स्वामियों की देखरेख में भगवा नहीं होंगे जहां आदिवासी राष्ट्रपति तक को नहीं बुलाया गया. आरएसएस की इमारतों की भव्यता भी कम होने की उम्मीद है.

जिंदगी कैसी है पहेली हाय!

निम्मो खूब तेज दौड़ी. पीछे मुड़मुड़ कर देखती जाती. हंसती खिलखिलाती. चौदह साल की उम्र में भागने की गति देखते ही बनती है. उस के आनंद का ठिकाना न था. उसे लगा, आज तो अहमर और अमान को उस ने पछाड़ ही दिया पर उस के पेट में अचानक तेज दर्द की लहर उठी. ओह, मां ने पिछले महीने सम?ाया तो था पर उसे इस बात पर ज्यादा सोचने का मौका नहीं मिला था कि लो, अब यह दूसरे महीने में फिर पीरियड की शुरुआत थी. उस ने महसूस किया, उस की फ्रौक कुछ गीली हो गई है. वह वहीं धम्म से बैठ गई. तेजतेज धौंकनी सी चलती सांसों को काबू किया और पीछेपीछे आराम से चलते अहमर और अमान को हंसते हुए आते देखा तो सकुचा गई. अहमर ने दूर से ही कहा, ‘‘जोश ठंडा हो गया न?’’ वह कुछ नहीं बोली, पेट पर हाथ रखते हुए बोली, ‘‘मु?ो घर जाना है.’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘कुछ नहीं. बस, घर जाना है.’’

‘‘खेलेगी नहीं?’’

‘‘आज नहीं.’’

‘‘पर हुआ क्या है?’’

‘‘तुम दोनों को नहीं पता होगा. मां कहती है लड़कों को इस बारे में कुछ नहीं बताना. लड़कों से ऐसी बातें नहीं करनी हैं.’’

अहमर और अमान ने एकदूसरे को देखा, फिर मुसकराए. अमान ने कहा, ‘‘तु?ो पीरियड होने लगा?’’

‘‘तुम्हें यह सब पता है?’’

दोनों हंस पड़े, ‘‘तू कितनी बुद्धू है. आजकल सब को सबकुछ पता रहता है. सुन, तु?ो कोई दिक्कत हो रही है?’’

‘‘हां, पेट में बहुत दर्द है.’’

‘‘चल, तु?ो घर छोड़ आएं, तेरी मां अभी घर लौट आई होगी?’’

‘‘नहीं, पिताजी भी कुछ देर से आएंगे.’’

‘‘चल, घर चल.’’

तीनों की टोली सब मस्ती भूल घर लौट चली. तीनों बनारस के बाहरी नए बसे इलाके की एक छोटी सी बस्ती में रहते थे. तीनों में खूब प्यार था. घर भी थोड़ी दूरी पर थे. निम्मो के पिता श्याम गोदौलिया की कपड़े की दुकान में काम करते थे. मां इंदु संजय गांधी नगर के कुछ घरों में खाना बनाने का काम करती थीं. ये आम गरीब परिवार थे. इन्हें हिंदूमुसलिम की राजनीति से कोई मतलब न था, दिन में सब मेहनत करते, रात को पड़ कर सो जाते. संघर्ष और मेहनत का फिर एक और दिन निकलता, जीने की जद्दोजेहद में किसी से नफरत करने का न समय बचता, न हिम्मत.

ये तीनों बच्चे चौदहपंद्रह की उम्र के थे. एक सरकारी स्कूल में एकसाथ ही जाते, एकसाथ ही खेलते. छोटीछोटी ?ाग्गियों की इस बस्ती में सब कुछ न कुछ करते रहते. ये तीनों अपने जीवन को इतनी कमियों के साथ जीते हुए भी साथसाथ खुश रहते. अहमर और अमान दोनों के ही दिलों में निम्मो के लिए एक खास जगह थी. दोनों ही यह बात जानते भी थे. अहमर के पिता तारिक किसी होटल में काम करते थे, अम्मी नजमा कुछ घरों में काम करती. अमान के पिता अली एक टेलर के साथ काम करते, अम्मी अरीशा कभी उन कपड़ों में तुरपाई करती, कभी गोटे लगाती, कभी साड़ी में फौल लगाती. सब मातापिता यही सोचते कि बच्चे पढ़लिख कर कुछ बन जाएं तो जिंदगी कुछ आसान हो.

तारिक कभीकभी होटल की बची बिरयानी घर ले आते तो अहमर, अमान को साथ लिए निम्मो के लिए जरूर ले जाता. निम्मो के मातापिता तीनों का आपस का प्यार देख खुश होते. निम्मो की 17 साल की बड़ी बहन रीना जौनपुर में अपने भरेपूरे ससुराल में रहती थी. वह जब भी आती, तीनों बच्चे उस के पिनपिने से गोलू से खूब खेलते. उसे थपकी देदे कर सुलाते. रीना अपने सिर पर हाथ मारती हुई कहती, ‘‘अरे, तुम लोग स्कूल जाओ, इस से आ कर खेलना. सब स्कूल न जाने के बहाने हैं, जानती हूं.’’

फिर उसे निम्मो की शादी की चिंता हो जाती, पूछती, ‘‘मां, इस की उम्र में मेरी शादी आप ने कर दी थी, इस की क्यों नहीं कर रही हो?’’

‘‘अभी छोटी है, कर देंगे.’’

‘‘छोटी है, पीरियड होने लगा है, अब क्या छोटी? सारा दिन लड़कों के साथ खेलती है, इसे रोको.’’

पर अकसर घरों में छोटा बच्चा हमेशा छोटा ही बना रहता है, वह चाहे कितना ही बड़ा हो जाए. इसलिए नमिता हमेशा लाड़ में निम्मो ही बनी रहती. कुछ दिन और बीते. युवा मन अब एकदूसरे के साथ कुछ और अलग अंदाज में धड़कने लगे थे. अब एकदूसरे को छूते हुए तीनों को कुछ अलग सा रोमांच हो आता और एक दिन ऐसे पल आ गए जो उन तीनों के जीवन में आने नहीं चाहिए थे.

निम्मो के साथ दोनों के शारीरिक संबंध बन गए. अब तक उन की जो अल्हड़ सी दुनिया थी, अब उस में देहसुख शामिल हुआ तो तीनों अब नए उत्साह से भरे करीब आने की जगहें ढूंढ़ते. जिस का घर खाली होता, वह प्रेम की नदी में डूब जाता. निम्मो अब सिर से पैर तक इस आनंद में खोई रहती. नएनए प्रयोग होते. अंतरंग पलों के वीडियो बनाए जाते. फिर अपनेअपने फोन में उन को बाद में देख कर हंसा जाता, हंसीठिठोली की जाती.

गरीब से गरीब बच्चों के पास आजकल सस्ते से सस्ते मोबाइल तो मिल ही जाते हैं, चाहे उन के पास कुछ और हो या न हो. तीनों का तनमन का साथ ऐसा ही बना रहा. कुछ महीने और बीत गए. निम्मो का इस तरफ ध्यान ही नहीं गया कि उसे काफी दिन से पीरियड हुआ नहीं है. एक दिन रात को अपने मातापिता के साथ खाना खाते हुए उसे उबकाई आई. उस ने खूब उलटियां कीं. इंदु ने पूछा, ‘‘क्या उलटासीधा खाया था, निम्मो?’’

‘‘कुछ नहीं, अम्मा. जो आप बना कर रख गई थीं, वही तो खाया था,’’ पस्त सी निम्मो ने जमीन पर बिछे बिस्तर पर लेटते हुए कहा.

‘‘ठीक है, चल, आराम कर ले, कल स्कूल न जाना.’’

निम्मो मुसकरा दी तो श्याम हंस पड़े, ‘‘सारे बच्चे स्कूल न जाने पर कितना खुश होते हैं न, चाहे हमारे जैसे गरीब हों या अमीर.’’

अगली सुबह श्याम और इंदु अपनेअपने काम पर चले गए तो अहमर और अमान स्कूल जाने के लिए तैयार हो कर निम्मो को लेने आए तो उस ने चहकते हुए कहा, ‘‘आज मैं स्कूल नहीं जा रही.’’

‘‘क्यों?’’ दोनों ने एकसाथ पूछा.

‘‘रात में उलटियां हुईं तो अम्मा ने कहा, आज आराम कर लूं.’’

‘‘चल, फिर हम भी नहीं जाते,’’ कहते हुए दोनों ने अपने बैग भी कंधे से उतार दिए तो निम्मो जोर से हंसी.

आसपास के घरों के लोग काम पर निकल चुके थे. अहमर ने छोटा सा

दरवाजा बंद कर दिया और वहीं जमीन पर बैठ गया, बोला, ‘‘अब तू ठीक

है, निम्मो?’’

‘‘ठीक नहीं भी है तो अभी हम कर देंगे ठीक,’’ कहतेकहते अमान ने नीचे बैठी निम्मो को अपनी बांहों में भर कर चूम लिया, बोला, ‘‘सच निम्मो, अहमर, हम सारी उम्र ऐसे ही रह लेंगे, है न? हमें और कुछ चाहिए ही नहीं.’’

फिर प्यारमोहब्बतों का दौर शुरू हो गया. जोश में इन पलों की छोटीछोटी वीडियो क्लिप्स बनती रहीं. यहां कोई किसी को बेवकूफ नहीं बना रहा था, कोई किसी को धोखा नहीं दे रहा था. बस, एक अल्हड़पन था, एक नासम?ा थी जो सब को ले कर डूबने वाली थी.

तीनों को यही लग रहा था कि एकदूसरे का साथ अच्छा लगता है. बस, ऐसे ही रह लेंगे. इस में बुरा क्या है पर जब फिर अगले दिन ही निम्मो को सुबह उठते ही एक तेज चक्कर के साथ उलटी हुई तो अब इंदु के कान खड़े हुए. इंदु का अब इस बात पर ध्यान गया कि बहुत दिनों से इंदु ने पीरियड की कोई बात नहीं की. पीरियड के दर्द में स्कूल की छुट्टी नहीं की. एक अजीब सा डर उस के होश उड़ा गया. वह काम पर न जा कर पास की ही एक लेडी डाक्टर के पास निम्मो को ले गई. रास्ते में उस ने निम्मो से पूछा, ‘‘निम्मो, पीरियड कब हुआ था?’’

‘‘याद नहीं, अम्मा.’’

‘‘क्यों याद नहीं? हर महीने तो होता है.’’

‘‘अम्मा, बहुत दिनों से नहीं हुआ शायद.’’ साथ चलती निम्मो के पेट पर इंदु ने नजर डाली तो हलका सा उभार देख इंदु को लगा, उस के दिल की धड़कन जैसे रुकने ही वाली है, उस का पीला सा चेहरा इंदु को अपना संदेह सच साबित करता सा लगा. उस के कदम अचानक भारी हो गए. इस लड़की ने यह क्या कर दिया. डाक्टर ने भी इंदु के संदेह की पुष्टि की तो जैसे मांबेटी को काठ मार गया. डाक्टर ने निम्मो से कहा, ‘‘तुम्हारे साथ जबरदस्ती हुई?’’

‘‘नहीं, हम सब दोस्त हैं,’’ सुबकती हुई निम्मो के मुंह से निकला.

‘‘इंदु, गर्भ गिरा नहीं सकते, 4 महीने हो चुके हैं. आराम से घर जा कर सोचो, क्या करना है.’’

बाहर आ कर इंदु जैसे पत्थर की तरह हो गई, चुपचाप घर की तरफ चलती रही. यह कितनी बड़ी मुसीबत में फंस गई उस की बेटी, अब क्या होगा, यह सवाल जैसे उस की जान ले रहा था, कितनी ही आशंकाएं लिए वह घर आई और एक कोने में बैठ कर फूटफूट कर रो दी. निम्मो ने उस के पैर पकड़ लिए, ‘‘माफ कर दो, अम्मा.’’

और सचमुच इंदु के पैरों पर सिर रख कर ‘‘नाराज न होना, अम्मा, गलती हो गई, कुछ पता नहीं था,’’ कहते हुए जब निम्मो भी रोई तो इंदु का कलेजा जैसे मोम हो गया. उस ने निम्मो को अपने सीने में भींच लिया. दोनों जारजार रोए जा रही थीं. इंदु ने कहा, ‘‘तु?ो नहीं पता बेटा, तू अपने साथ अनर्थ कर बैठी है, बड़ी तकलीफ उठाएगी.’’

अहमर और अमान रोज की तरह जब निम्मो से मिलने आए तो इंदु के चेहरे की सख्त मुद्रा देख उन की हिम्मत नहीं हुई कि निम्मो के बारे में पूछें. इंदु ने साफसाफ कहा, ‘‘अभी तुम दोनों जाओ, तब तक नहीं आना जब तक मैं बुलाऊं नहीं.’’

फौरन व्हाट्सऐप पर तीनों ने बात की. निम्मो ने जब उन्हें सब बताया तो उन के होश उड़ गए. निम्मो को किसी तकलीफ में डालने का दोनों का कोई इरादा नहीं था पर मौजमस्ती करते यह बड़ी गलती तीनों से ही हो गई थी. अब क्या होगा, सोच कर हर इंसान परेशान था. शाम को श्याम घर आए तो पत्नी और बेटी की शक्ल देख कर चौंके, हमेशा हंसती, चहकती बेटी निढाल पड़ी थी और इंदु अपने आंसू पोंछ रही थी. छोटा सा एक कमरा ही तो था, कहां जा कर अकेले में बात करती, निम्मो के सामने ही रोते हुए सब बता दिया. निम्मो चेहरे पर कपड़ा रखे सिसकती रही. सारी बात सुन कर श्याम का मन हुआ कि निम्मो को पीट डाले पर इंदु ने इशारे से रोक दिया कि कुछ न कहें. श्याम ने काफी देर बाद कहा, ‘‘निम्मो, जाओ, दोनों के मांबाप को अभी बुला कर लाना.’’

उस के जाने के बाद श्याम ने इंदु से कहा, ‘‘मन तो हो रहा है दोनों लड़कों पर रेप का केस कर दूं पर निम्मो भी उतनी ही जिम्मेदार है. साथ ही, सब के पास वीडियो भी हैं. आज दोस्त हैं, केस करने पर उलटा मुश्किलें ही बढ़ेंगी. गर्भ गिर नहीं सकता. बच्चे का क्या करना है, मिल कर सोचना होगा.’’

इंदु ने सहमति में सिर हिलाया.

ऐसे पहली बार बुलाया गया था, सब आए, एकसाथ बैठे. श्याम ने सारी बात बताई. तीनों बच्चे एक कोने में सिर ?ाकाए बैठे थे. सारी बात सुन कर सब ने अपने सिर पकड़ लिए. सब अभी तक सुखदुख के साथी रहे थे. अब भी यह परेशानी सब की सा?ा थी. पहले तो निम्मो, अहमर और अमान को जबरदस्त डांट पड़ी, फिर अरीशा ने सम?ादारी का सबूत देते हुए कहा, ‘‘आप सब काम पर जाते हैं, मैं घर में रहती हूं, बच्चा तो अब जन्म लेगा ही. यहां रहे तो निम्मो को परेशानी हो सकती है. मेरी बड़ी बहन भदोही में अकेली रहती है, मैं इसे ले कर वहां चली जाती हूं. आप लोग जब चाहे, आ जाया करना. कोई पूछे तो बोल देना, रीना के पास गई है. अभी कुछ दिन तो चल ही जाएगा. अब सब को मिल कर देखना होगा. बच्चों ने गलती की है. इसे संभालना तो हमें ही होगा. निम्मो की जिंदगी का सवाल है.’’

अली बहुत गुस्से में थे, अमान को डांटते हुए बोले, ‘‘और अब निम्मो से मिलने की जरूरत नहीं है, अपने घर में रहो. बहुत बेवकूफी कर ली. पढ़ोलिखो. शुक्र करो कि श्याम भाई पुलिस केस नहीं कर रहे, हम सब से बैठ कर बात कर रहे हैं. कोई और होता तो तुम दोनों याद रखते.’’

आगे क्याक्या करना पड़ेगा, इस पर बहुत देर बात होती रही. सब बहुत उदास, परेशान थे. यह स्थिति ही ऐसी थी कि सब को बहुत सोचसम?ा कर कदम उठाना था. तीन युवा जिंदगियों का सवाल था. किसी का भविष्य चौपट न हो, इस बात पर बहुत विचार होता रहा. रात गहरा गई तो सब भारी मन से अपनेअपने घर चले गए.

अब निम्मो की पढ़ाई कुछ दिनों के लिए छूट गई. रीना आई तो सब जान कर रोने लगी. बहन थी, उस के आने वाले दुख उसे रुला रहे थे. छोटी बहन को गले से लगाए देर तक सिसकती रही. कुछ दिनों के बाद इंदु और नजमा के साथ निम्मो भदोही चली गई.

निम्मो की अजीब हालत थी. दोनों दोस्त खूब याद आते. चंचल बचपन अचानक जाने कहां गायब हो गया था और यौवन ने आते ही उस के जीवन में जो हलचल मचाई थी, कुछ सम?ा ही नहीं आ रहा था.

नजमा की बहन अंजुम बहुत स्नेहिल स्वभाव की महिला थी. उस का स्वभाव देख इंदु के दिल को कुछ तसल्ली मिली. अंजुम ने एकांत में इंदु से कहा, ‘‘चिंता न करो, बहन, मेरा तो कोई और है नहीं. आप लोगों के किसी काम आ जाऊंगी तो लगेगा कोई है. यह घर अपना ही सम?ाना. जब चाहो, आती रहना. अब बच्ची की देखभाल में मेरा मन लगा रहेगा. बाकी परेशानी तो इसे ही सहनी है.’’

इंदु रोरो कर बेचैन सी इधरउधर घूमती, रातों को जागती, फिर कुछ दिन बाद वापस लौट आई पर उसे चैन न आया तो वापस निम्मो के पास ही चली गई. नजमा लौट गई. कभी कोई आ जाता, कभी कोई.

नियत समय पर निम्मो ने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया जिस का नाम रखने की जिम्मेदारी इंदु ने अंजुम को ही दी, ‘‘दीदी, आप ही रखो इस का नाम. आप का ही साथ मिला तो हम इस परेशानी से निबट सके.’’

‘‘बहन, परेशानी कैसी, जिन का कोई नहीं होता उन्हें तो हर रिश्ते में अपनापन दिखता है. बच्चे के आने से मेरा सूना घरआंगन जैसे गा उठा है. इस का नाम गीत ही रख दो. आप लोगों ने बच्चे को ले कर पहले ही फैसला कर लिया था वरना मैं तो कहती हूं, मैं ही बच्चे को पाल लेती.’’

‘‘नहीं, दीदी, रमा-विनोद से कह दिया है, वे निसंतान हैं, दलित होने के कारण लोग उन से ज्यादा मतलब भी नहीं रखते. ज्यादा पूछताछ नहीं होगी. वे बच्चा पालने के लिए तैयार हो गए हैं. हम उन्हें इस का खर्चा देते रहेंगे. वे मान गए हैं. निम्मो को थोड़ा और पढ़ालिखा कर इस की शादी कर ही देंगे. आप की मदद से बड़ी मुश्किल से बाहर आ पाए. आप न होतीं तो बहुत ज्यादा परेशान हो जाते.’’

बहुत सारा धन्यवाद कहते हुए श्याम और इंदु निम्मो को ले कर वापस अपने घर आ गए. इस बीच अहमर और अमान निम्मो से फोन पर ही उस के हालचाल पूछते रहे थे. यह वह उम्र थी कि तीनों डर से गए थे. अहमर और अमान के मातापिता ने बहुत संजीदगी से दोनों को सम?ाते हुए भविष्य के लिए डराते हुए कहा था, ‘अगर निम्मो के मातापिता पुलिस में एक बार तुम्हारी शिकायत कर दें तो जेल में कब तक सड़ोगे, पता नहीं. जिंदगी खराब हो जाएगी. अब चुपचाप निम्मो की जिंदगी से दूर हो जाओ. उसे भी चैन से जीने दो. इतनी सी उम्र में बेचारी बहुत ?ोल गई.’

इन थोड़े महीनों की दूरी ने सब को थोड़ा और सम?ादार बना दिया था. तीनों थोड़े संजीदा हुए थे. बेवक्त के हंसीमजाक बिलकुल बंद हो गए थे. सब सम?ा रहे थे कि इस खुलेपन से क्या नुकसान हुआ है. इस कमसिन उम्र में निम्मो इतने दर्द ?ोल गई थी कि वह अंदर से पूरी तरह बदल गई थी. कोई जिद न करती. चुपचाप जो मिलता, खा लेती, कुछ न कहती.

कुछ दिनों बाद उस ने स्कूल जाना शुरू कर दिया था. अब स्कूल भी अलगअलग हो गए थे. सो, तीनों का आपस में मिलनाजुलना बहुत कम हो गया था. धीरेधीरे फोन पर भी दूरी होती गई.

रीना अकसर आती रहती. जैसेजैसे निम्मो बड़ी हो रही थी, अब वह उस के लिए किसी अच्छे रिश्ते की तलाश में रहती. समय अपनी रफ्तार से बीतता रहा. 7 वर्षों बाद जौनपुर में रहने वाले सोमेश से निम्मो का विवाह हो गया. श्याम और इंदु ने चैन की सांस ली. गीत रमा और विनोद के घर में पल रहा था. उस की देखरेख कैसे हो रही है, यह जानने के लिए अंजुम वहां कभी भी चक्कर काट आतीं. 2 साल बाद निम्मो ने वीर को जन्म दिया. सोमेश के घर निम्मो सुखी थी.

अपने अतीत के बारे में किसी से बात न करे, यह उसे मायके से बारबार सम?ा दिया गया था. सोमेश सरल स्वभाव का इंसान था. उस के मातापिता निम्मो को खूब स्नेह देते. कुल मिला कर सब अपनेअपने जीवन में रचबस गए थे. अहमर और अमान की शादी भी हो गई थी. अब किसी के जीवन में कोई परेशानी नहीं है. सब ठीक हो गया है. यह सोच कर अब निम्मो के मायके आने पर अहमर और अमान से आमनासामना होने पर मुंह नहीं घुमाए जाते थे. थोड़ा हंसबोल लिया जाता था पर समय कब करवट लेले, भला कभी कोई जान सका है.

रमा बीमार रहने लगी थी. विनोद परेशान था. गांव में उन की बस्ती भी अलग और कुछ दूर थी. रमा के लिए वहां से बारबार डाक्टर तक जाना भी जब मुश्किल होने लगा तो विनोद और रमा ने एकदूसरे से सलाह की और गीत को बुला कर उस के जन्म से ले कर आज तक का सच बता दिया. गीत यह सब सुन कर रोने लगा. चुप ही न हुआ तो विनोद ने अंजुम के पास जा कर कहा, ‘‘अब आप ही गीत को देखिए, हम अब और देखभाल नहीं कर पाएंगे.’’

नजमा अकेली थीं, बीमार थीं, कुछ सम?ा न आया तो बोलीं, ‘‘अब मैं अपना काम ही बहुत मुश्किल से करती हूं, मैं तो गीत की जिम्मेदारी उठा नहीं पाऊंगी. तुम जा कर गीत के नानानानी से मिल कर देखो, क्या कहते हैं वे. मैं तो जिस के लिए जितना कर सकती थी, कर दिया, भाई. अब तो मेरी भी उम्र हो गई.’’

विनोद श्याम और इंदु के घर पहुंचा तो उसे देख कर दोनों चौंके. विनोद ने गीत को अब अपने पास न रखने की मजबूरी बताई तो दोनों ने सिर पकड़ लिया. बड़ी परेशानी की बात थी. श्याम ने कहा, ‘‘क्या करें, कुछ सम?ा नहीं आ रहा, किसी को क्या जवाब देंगे कि यह बच्चा कौन है, कहीं निम्मो के जीवन में कोई परेशानी न आ जाए. अभी तुम जाओ, कुछ रास्ता निकालते हैं कि क्या हो सकता है.’’

इंदु ने कुछ रुपए भी उस के हाथ में रख दिए. वह परेशान सा लौट गया. 7 साल के गीत का चेहरा देख रमा और विनोद का कलेजा मुंह को आता. क्या होगा इस का. शुरू में तो उन्होंने पैसे के लिए बच्चे को पालने की जिम्मेदारी संभाल ली थी पर अब बच्चे से उन्हें बहुत लगाव हो गया था. लेकिन रमा कैंसर की लास्ट स्टेज पर थी. अब वह चाह कर भी गीत की देखरेख नहीं कर पा रही थी. विनोद ही मजदूरी के साथसाथ सब काम करता, रमा का ध्यान रखता. अब उसे सम?ा आ गया था कि गीत की जिम्मेदारी से सब बच रहे हैं. उसे ही इस बच्चे के बारे में कुछ सोचना होगा. गांव में एक ‘सनाथ’ नाम की संस्था का औफिस था. यह एनजीओ अनाथ बच्चों के लिए काम करती थी. इस में सुधाजी, जिन्हें सब दीदी कहते थे, इस की प्रमुख थी. विनोद ने उन के पास जा कर उन्हें पूरी बात बताई.

वे गीत की पूरी कहानी सुन कर हैरान हुई, बोलीं, ‘‘एक बच्चे के जीवन का प्रश्न है, उस का पिता कौन है?’’

‘‘यह तो नहीं पता, दीदी.’’

‘‘मु?ो अंजुम का पता दो, मैं जा कर बात

करती हूं.’’

सुधा उसी समय अंजुम के पास पहुंची, अपना परिचय दिया. अंजुम सम?ा गई कि अब बात उतनी आसान नहीं रह गई है जितनी अब तक लग रही थी. सुधा ने अंजुम से अमान और अहमर का पता किया और वहां जा कर अपना परिचय देते हुए दोनों को फोन कर के एक जगह बुलाया. दोनों घबरा गए. कितने ही बेकसूर आज यों ही फंसा दिए जाते हैं. उन दोनों से तो गलती हुई थी. वे किसी भी चक्कर में फंस सकते हैं, यह वे सम?ा रहे थे. सुधा ने बहुत चतुराई से एक डाक्टर से गीत, अहमर और अमान के ब्लड सैंपल दिलवाए और प्रूव कर दिया कि गीत अमान का बेटा है.

सुधा गीत के साथ अमान के घर गई तो उस के चेहरे का रंग उड़ गया. अमान की पत्नी सबा ने उन से आने का कारण पूछा तो सुधा ने पूरी कहानी सुना दी, कहा, ‘‘अब इस बच्चे की जिम्मेदारी तुम लोगों में से किसी को लेनी ही होगी. अगर यह अनाथ होता तो मैं देख लेती पर अमान और निम्मो हैं तो किसी को तो इस के बारे में सोचना ही होगा. कोई भी परिवार इस बच्चे की जिम्मेदारी ले.’’ सबा चिल्लाने लगी, ‘‘मेरे साथ धोखा हुआ है, मैं किसी और औरत के बच्चे को क्यों पालूं?’’

सुधा ने निम्मो को फोन कर के आने के लिए कहा था. वह अपने पति के साथ

आई. अब सब को सबकुछ पता चल गया था. सोमेश ने सिर पकड़ लिया. सुधा

ने कहा, ‘‘तुम लोगों को लग रहा होगा कि मैं ने तुम लोगों के सुखी जीवन की शांति छीन ली, देखिए, मैं बच्चों की भलाई के लिए काम करती हूं, अनाथ बच्चों को पढ़ातीलिखाती हूं, हमें कई लोग सपोर्ट करते हैं पर जिस बच्चे के मातापिता जिंदा हैं, उन का फर्ज बनता है कि वे कोई रास्ता निकालें, गलतियां सब से होती हैं पर बड़ों की लापरवाही एक मासूम क्यों ?ोले. अब आप लोग देखो, मैं चलती हूं. हां, गीत के साथ कोई अन्याय नहीं होने दूंगी, यह याद रखना.’’

उन के वहां से जाते ही सोमेश ने कहा, ‘‘तुम्हें जो करना है, करो. मैं शायद तुम्हारे साथ न रह पाऊं. तुम सब ने मु?ा से ?ाठ बोला है, मु?ो धोखा दिया है. मैं अपने बच्चे को खुद देख लूंगा.’’ यह सब गुस्से में कहता हुआ सोमेश वहां से चला गया. सबा ने अमान को घूरते हुए कहा, ‘‘मु?ा से उम्मीद भी मत करना कि मैं तुम्हारी रंगरलियों के नतीजे को संभालूंगी. जो किया था, अब भरो.’’

गीत बड़ी देर से चुप था पर अब जोरजोर से घबरा कर रो पड़ा. हैरानपरेशान खड़ी निम्मो ने उसे चुप करवाने के लिए अपने पास बुलाया तो वह उस के आंचल में छिप गया. थके कदमों से निम्मो अपमानित सी अमान के घर से निकली तो गीत भी उस के पीछेपीछे चल पड़ा. सबा ने कहा, ‘‘अमान, तुम भी जाओ, मैं अकेली अपने बच्चे के साथ जी लूंगी. निम्मो और इस नाजायज बच्चे का साया भी अपने घर पर पड़ने नहीं दूंगी.’’

अमान थोड़ी देर सोचता रहा, फिर कुछ सम?ा न आया तो निम्मो और गीत के पीछे कदम बढ़ा दिए. गीत के चेहरे पर एक सुकून था. वह पीछे मुड़ कर अमान को देखता रहा. फिर अमान से पूछने लगा, ‘‘अब हम तीनों साथ रहेंगे न? अब मैं भी अपने असली मम्मीपापा के साथ रहा करूंगा?’’

निम्मो की आंखों से आंसू बहे चले जा रहे थे. उसे कुछ सम?ा नहीं आ रहा था. जिंदगी कैसे मोड़ पर ले आई थी. सब बिखर गया था. कैसे समेटा जाएगा, कोई राह नहीं दिखती थी. अमान दोनों के पीछे ही चल रहा था. कहां जाएंगे, कैसे रहेंगे, कोई ठिकाना नहीं था. बड़ी उल?ान की घड़ी थी. कहीं दूर से ‘जिंदगी, कैसी है पहेली हाय…’ गीत के बोल कानों में पड़े तो दोनों ने एक ठंडी सांस ली. दोनों की आंखों से आंसू बह गए. कोई किसी की तरफ देख नहीं रहा था. बस, चलते जा रहे थे, पता नहीं कहां.  द्य

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