लेखिका – संयुक्ता त्यागी
“मुबारक हो, बेटा हुआ है.”
नर्स ने आलोक की गोद में बच्चे को देते हुए कहा. आलोक ने अपने नवजात बेटे को गोद में लेने के लिए हाथ आगे बढ़ाए तो आंखों से आंसू बह निकले. पिता बनने की खुशी हर आदमी के लिए खास होती है लेकिन आलोक के लिए ‘बहुत खास’ थी. गोद में ले बेटे को एकटक देखता रहा.
चेहरे पर संतुष्टिभरी मुसकराहट खिल गई और उस ने बेटे को सीने से लगा लिया. मन ही मन खुद से वादा किया कि मैं सारी दुनिया की ख़ुशी अपने बच्चे को दूंगा, वह भी बिना मांगे.
आलोक और वाणी की शादी को 8 साल बीत चुके थे लेकिन वे संतानसुख से वंचित थे. इन 8 सालों में उन दोनों ने न जाने कितने डाक्टर बदले और कितने ही मंदिरों की चौखटों पर माथे रगडे, अनगिनत मिन्नतें, हवनयज्ञ, जिस ने जो उपाय बता दिया, वह किया. कोई फायदा न हुआ.
रिश्तेदार तरहतरह के उपायउपचार बताने के साथ ही कभी सामने तो कभी पीछे ताने मारने से भी नहीं चूकते थे. कोई सहानुभूति के नाम पर हेयदृष्टि से देखता तो कोई अपने बच्चों को वाणी से दूर रखने की कोशिश करता. आलोक और वाणी सब समझने के बाद भी कुछ न बोलते, बस, खून का घूंट पी कर रह जाते. वाणी ने दबी आवाज में बच्चा गोद लेने के लिए कहा तो परिवार में बवाल मच गया.
‘पता नहीं किस का बच्चा होगा?’
‘कौन सी बिरादरी का होगा?’
‘अगर बच्चा लेना ही है तो रिश्तेदारी में से ही लो.’
एकदो धनलोलुप रिश्तेदारों ने तो अचानक उन से मेलजोल बढ़ाना भी शुरू कर दिया. आलोक और वाणी सब समझते थे, इसलिए उन्होंने रिश्तेदारों का बच्चा गोद लेने से साफ़ मना कर दिया. इस के बाद जो ताने दबी जबान में दिए जाते थे वो मुंह पर मिलने लगे.
‘बांझ है, हम तो तरस खा कर अपना बच्चा दे रहे थे लेकिन एटिट्यूड तो देखो ज़रा, हूंह, हमें क्या, रहो ऐसे ही बेऔलाद.’
वाणी आलोक के सीने से लग रो लेती लेकिन किसी को पलट कर जवाब न देती. उस वक्त दोनों ने संतान की उम्मीद छोड़ दी. लेकिन ऊपर वाले ने किस के लिए क्या सोचा होता है, यह कोई जानता तो जिंदगी कितनी आसान लगती.
इतने बरस के इंतज़ार के बाद वाणी की प्रैग्नैंसी की खबर ने रेगिस्तान से तपते मन को शीतल कर दिया था. पूरे 9 महीने आलोक ने वाणी का हद से ज्यादा ध्यान रखा. रैगुलर चैकअप, खानपान, मूड स्विंग आदि सब को संभालता आलोक एकएक दिन गिन रहा था. वहीं रिश्तेदारों के मुंह पर ताले लग गए थे.
आलोक और वाणी की सारी दुनिया अब उन के बच्चे तक सिमट गई थी. जिस बच्चे के लिए उन्होंने सालों तपस्या की थी वह अब उन के सामने था. बड़े चाव से नाम रखा ‘शिखर’.
आलोक ने सारा घर खिलौनों से भर दिया. सोतेजागते, बस, शिखर ही उस के दिमाग में रहता. जितने समय घर में रहता, बेटे को गोद में रखता, इस बात पर अकसर वाणी से उस की बहस भी हो जाती.
“आलोक, शिखर को हर वक्त गोद में रखोगे तो यह चलना कैसे सीखेगा?”
“चलने लगेगा. मैं अभी इसे नीचे नहीं छोड़ूंगा, कहीं चोट लग गई तो?”
वाणी, आलोक के इस रवैए से खीझ जाती लेकिन आलोक का प्यार करने का यही तरीका था. नतीजा यह हुआ कि शिखर ने चलना देर से शुरू किया और अपने हाथ से खाना तो उसे 9 साल की उम्र में आया.
“मम्मा, आज मैम ने मुझे डांटा.”
“क्यों?”
“मैं ने सान्या को धक्का दिया था,” कह कर वह शरारत से मुसकरा दिया.
उस की बात से वाणी को बहुत तेज गुस्सा आया तो आलोक ने हंस कर बात टाल दी, “मैं कल तुम्हारी टीचर से मिल कर आता हूं. ऐसे कैसे डांट सकती हैं मेरे क्यूट से बच्चे को.”
“आलोक, यह गलत है. शिखर ने गलती की है और तुम उसे शह दे रहे हो.”
आलोक ने वाणी की बात अनसुनी कर शिखर को गोद में उठा लिया.
वक्त अपनी रफ्तार से आगे बढ़ रहा था और शिखर भी बड़ा होने लगा. आलोक बेटे के मुंह से निकली हर बात पूरी करता, फिर वह जायज़ हो या नाजायज़. ऐसा नहीं था कि वाणी अपने बेटे को कम प्यार करती थी लेकिन वह समझती थी कि अच्छी परवरिश के लिए सख्ती भी जरूरी है और आलोक को भी समझाती लेकिन आलोक न तो खुद शिखर को कुछ कहता और न ही वाणी को कहने देता. आलोक के इसी रवैए के कारण 14 साल का शिखर एक जिद्दी और बिगड़ैल किशोर बन गया.
अपनी जिद मनवाने के लिए उसे बहुत ज्यादा कोशिश नहीं करनी पड़ती थी. जिस दोस्त के पास जो चीज देख लेता वही उस को भी चाहिए होती थी. अगर कभी वाणी मना कर देती तो शिखर जोरजोर से चिल्लाता और हंगामा खड़ा कर देता क्योंकि उसे तो बचपन से ही मन की करने की आदत थी. वाणी के लिए यह सब बरदाश्त से बाहर था लेकिन आलोक उसे कुछ कहने नहीं देता. सच तो यह था कि आलोक अब खुद भी शिखर के जिद्दी स्वभाव के चलते अंदर ही अंदर परेशान था लेकिन धृतराष्ट्र की तरह पुत्रमोह में बंधा था, ऐसा मोह संतान का सर्वनाश करता है, यह बात उस की समझ में नहीं आ रही थी.
आज शिखर ने स्कूल से वापस आते ही स्कूलबैग एक तरफ़ फेंक, जूते उतारते हुए फरमान जारी किया, “मम्मा, मुझे मोबाइल चाहिए.” उस के स्वर में रिक्वैस्ट नहीं और्डर था.
वाणी ने शिखर को पलट कर देखा और खाना लगाते हुए ही बोली, “तुम्हें फोन की क्या जरूरत है?”
“मेरे सब दोस्तों के पास फोन है, एक मेरे ही पास नहीं है.”
“ठीक है, मेरा पुराना फोन रखा है, उसे ले लेना.”
“पुराना? क्या बोल रही हो, मैं पुराना फोन यूज़ करूंगा? मुझे नया फोन चाहिए,” रोब के साथ चिल्लाते हुए वह बोला.
“शिखर…”
“रहने दो मम्मा, मैं पापा से बात कर लूंगा. आप तो मुझे प्यार ही नहीं करतीं,” वाणी की बात बीच में ही काट शिखर पैर पटकता हुआ अपने कमरे में चला गया.
वाणी ने उस से बहस करना ठीक नहीं समझा.
पिछले कुछ समय से खर्चें बढ़ गए थे. नया मकान लिया था और कार की इंस्टौलमैंट भी जाती थी, ऐसे में किसी और ख़र्च की गुंजाइश नहीं थी.
शाम को आलोक के घर में घुसते ही शिखर ने फिर वही बात छेड़ दी. आलोक ने भी उसे पुराना फोन लेने को कहा. लेकिन शिखर कहां मानने वाला था.
“पापा, बता रहा हूं, नया फोन चाहिए, वह भी आईफोन.”
आलोक पहली बार किसी बात के लिए शिखर को मना करते हुए बोला,
“नहीं बेटा, अभी मैं इतना खर्चा नहीं कर सकता. नया फोन कुछ महीने बाद दिलवा दूंगा, तब तक पुराने फोन से काम चला लो.”
शिखर के लिए यह अविश्वसनीय था कि पापा किसी बात के लिए उसे मना कर दें. वह आंखें फाड़ कर आलोक को देख रहा था. गुस्से से शरीर कांप रहा था, चेहरा लाल हो गया था.
“मतलब, आप मुझे फोन नहीं दिलवा रहे हो?”
“बेटा, मेरी बात तो समझो, मैं मजबूर हूं.”
वाणी वहीं खड़ी सब देख रही थी और उसे आलोक का बेटे के सामने इस तरह मजबूरी जताना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था. इस से पहले वह कुछ कहती, शिखर चिल्लाया,
“पापा, अगर कल मेरा फोन नहीं आया तो…”
“तो?” आलोक ने थूक गटकते हुए कहा.
“मैं सुसाइड कर लूंगा, पापा.”
आलोक सुन्न हो गया. उस का 14 साल का वह बेटा जो उस की जिंदगी का केंद्र था, उसे मरने की धमकी दे रहा था. सहसा आंखों के सामने आएदिन अखबारों में आने वाली आत्महत्या की खबरें घूम गईं. आलोक से खड़ा नहीं रहा गया, वहीं फर्श पर बैठ गया. अगर शिखर ने कुछ कर लिया तो? मैं कैसे जी पाऊंगा, चक्कर आ गया. दोनों हाथों से सिर पकड़ लिया. तभी, एक आवाज से चौंक कर ऊपर देखा,
“चटाक,” वाणी ने शिखर को खींच कर चांटा लगाया और एक पर नहीं रुकी, लगातार मारती रही.
“तुझे मरना है न, ठीक है, इस घर में आज तक तेरी हर बात मानी जाती रही है, यह भी मानी जाएगी, बोल कैसे मरना है?” और शिखर को खींचते हुए बालकनी की ओर ले जाने लगी.
“चल, तुझे यहीं 10वें फ्लोर से धक्का दे कर किस्सा खत्म करती हूं.”
शिखर को ऐसी उम्मीद बिलकुल भी न थी, वह तो सिर्फ डरा रहा था लेकिन मां का यह रूप देख बुरी तरह घबरा गया. वाणी का गुस्सा देख उसे लगा वह सच में शिखर को बालकनी से फेंक देगी.
“नहीं मम्मा, मुझे नहीं मरना. सौरी मम्मा, सौरी.”
वाणी ने शिखर का गिरेबान पकड़ लिया, “कान खोल कर सुन ले, आज कह रही हूं दोबारा नहीं कहूंगी, बेशक तुझे हम ने बड़ी मन्नतों से पाया है और तू हमें बेहद प्यारा है लेकिन हमारे प्यार का गलत फायदा उठाने की कोशिश कभी मत करना. तेरी कोई भी ज़िद और बद्तमीज़ी आज के बाद इस घर में बरदाश्त नहीं होगी. और हां, जब मरने की इच्छा हो, मुझ से कहना. मैं अपने हाथों से तेरी जान लूंगी लेकिन इस तरह की सुसाइड की धमकी से डर कर नहीं रहेंगे हम.”
“तेरे पापा ने हमेशा तुझे हद से ज्यादा प्यार दिया, बहुत बार समझाया भी मैं ने लेकिन उन्हें तेरे प्यार के सामने और कुछ दिखता ही नहीं था. वे भूल गए थे कि ‘भय बिनु होय न प्रीति.’
आलोक ने वाणी की तरफ़ देख सहमति में सिर हिला दिया.