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वक्फ की जमीनों पर गड़ी हैं मोदी सरकार की नजरें

भारतीय जनता पार्टी के पास चुनाव जीतने और सत्ता में बने रहने के लिए सिर्फ एक दांव है – हिंदूमुसलिम के बीच नफरत बढ़ाओ. आम जनता के जीवन स्तर को ऊपर उठाने, युवाओं को नौकरी देने, गरीब बच्चों के भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य की दिशा में काम करने, महिलाओं की सुरक्षा, अपराधों में कमी लाने और इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत करने जैसे हजारों मुद्दे हैं जिस के लिए जनता सरकार चुनती है, वह चाहती है कि सरकार इन मुद्दों पर काम करे ताकि आम लोगों का जीवन सुगम और सुखी हो, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के पास सिर्फ एक ही मुद्दा है – धर्म.

 

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धर्म के नाम पर भाजपा बड़ी आसानी से लोगों को उत्तेजित कर लेती है. धर्म के झांसे में जनता को फंसा कर उसे मूल मुद्दों से भटका देती है. जनता भोली है वह भाजपा की राजनीतिक चालबाजियों को नहीं समझ पाती और राजनीति उसे जैसे हांकती है वह उसी ओर मुड़ जाती है. कभी बीमारी से लड़ने के लिए तालीथाली बजाती है तो कभी धर्म के नाम पर उकसाने पर अपने उस पड़ोसी के सीने में छुरा भोंक आती है, जिस के साथ बरसों से उस का प्रेमपूर्ण मैत्री सम्बन्ध बना हुआ था.

भाजपा हिंदू के दिल में मुसलमान के लिए नफरत के बीज डालती है. कि देखो मुसलमान ढेरों बच्चे पैदा कर रहे हैं, मुसलमानों की आबादी बढ़ रही है. वे तुम्हारा हक, तुम्हारी जमीन, तुम्हारा अनाज खा जाएंगे. वे तुम्हारी औरतों का मंगलसूत्र छीन लेंगे. अगर तुम ने भाजपा के अलावा किसी और को वोट दिया तो वे सत्ता में आते ही तुम्हारे हिस्से का आरक्षण मुसलमानों को दे देगी. मुसलमान आततायी हैं, घुसपैठिये हैं, उस ने तुम्हारे भगवानों को बेघर कर के उन जगहों पर अपनी मस्जिदें बना लीं. जनता उत्तेजित हो जाती है. वह समझने लगती है कि उन की भूख से बड़ा मुद्दा भगवान का है.

चुनावी नैया पार लगाने के लिए भाजपा के पास पहले राम मंदिर का मुद्दा था. इस मुद्दे को उछाल कर कई चुनाव जीते गए. आखिरकार 5 अगस्त 2020 को अयोध्या में रामलला के मंदिर की नींव पड़ गई और 22 जनवरी, 2024 को मंदिर का उदघाटन भी हो गया. मंदिर बनाने के लिए अयोध्या के जनजीवन को तहस नहस कर दिया गया. शहर भर में सौंदर्यीकरण के नाम पर हजारों लोगों के घरदुकानें उजाड़ दीं. भगवान का घर बसाने के लिए जीतेजागते इंसानों को बेघर कर दिया गया. उन के रोटीरोजगार जो बरसों से चल रहे थे, बंद हो गए. जनता ने सहा. लोकसभा चुनाव में अपना गुस्सा भी व्यक्त किया और भाजपा अयोध्या की सीट हार गई.

अब राम मंदिर का मुद्दा खत्म हो गया है. 4 जून को लोकसभा चुनाव का रिजल्ट आने के बाद अब रामलला के बारे में कोई बात भी नहीं रहा है. मगर आगे कई राज्यों के चुनाव होने हैं. खासतौर पर उत्तर प्रदेश का. राज्यों के चुनाव जीतने के लिए भाजपा को मुसलमानों के खिलाफ कुछ नए मुद्दे पैदा करने हैं. एनआरसी और सीएए जैसी परेशान करने वाली चालें जनता के विरोध के चलते कामयाब नहीं हो रही हैं. हालांकि उन को बीचबीच में हवा दी जाती है. उधर जम्मू कश्मीर में धारा 370 हटा कर यह दावा किया जा रहा था कि अब वहां शांति स्थापित होगी, मगर वहां लगातार आतंकी हमले हो रहे हैं. आतंकी जम्मू तक घुस आए हैं. सेना के दो दर्जन से ज्यादा जवान इन हमलों में शहीद हो चुके हैं. इस पर मोदी सरकार की बोलती बंद है. नया बवाल बांग्लादेश में शेख हसीना के तख्तापलट के बाद सामने आ खड़ा हुआ है. बांग्लादेश से पलायन कर रहे लोग हजारों की संख्या में भारतीय बौर्डर पर जमे हैं कि किसी तरह भारत में प्रवेश कर जाएं. अभी तक बांग्लादेशियों और रोहिंगिया मुसलमानों को भारत से बाहर करने की कवायद में जुटी भाजपा सरकार अब इतनी बड़ी तादाद में भारत में घुसने को आतुर बांग्लादेशियों को कैसे रोकेगी, कहांकहां से रोकेगी, यह बड़ा सवाल है. ऐसे में चुनावी मुद्दे के रूप में कोई तो ऐसा मामला चाहिए जिस से उत्तेजना भड़के, ध्रुवीकरण हो. सो नया मुद्दा है – वक्फ की संपत्तियों का.

भाजपा की आंखें वक्फ की संपत्तियों पर आ गड़ी हैं. इस मामले को उछाल कर जहां वह एक तरफ हिंदू वोटरों को यह दिखाने की कोशिश करेगी कि देखो मुसलमानों के पास देश की कितनी जमीन है, वहीं वक्फ बोर्ड में घुसपैठ कर के वह उसे अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश में है. जिनजिन जगहों पर वक्फ की संपत्तियों को ले कर किसी तरह का विवाद होगा, उन को विवादित घोषित कर वह अपने हाथ में लेले तो कोई आश्चर्य नहीं.

मोदी सरकार वक्फ बोर्ड अधिनियम 1995 में प्रस्तावित संशोधन ले कर आई है, जिसे वक्फ (संशोधन) विधेयक 2024 के रूप में रखा है. सरकार का कहना है कि वक्फ (संशोधन) विधेयक का उद्देश्य वक्फ बोर्डों में जवाबदेही और पारदर्शिता बढ़ाना है, जिस में महिलाओं को अनिवार्य रूप से शामिल करना भी शामिल है. 8 अगस्त 2024 को अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू ने वक्फ (संशोधन) विधेयक लोकसभा में पेश किया है.

इस में कहा गया है कि ‘इस अधिनियम के लागू होने से पहले या बाद में वक्फ संपत्ति के रूप में पहचानी गई या घोषित की गई कोई भी सरकारी संपत्ति वक्फ संपत्ति नहीं मानी जाएगी. जिला कलैक्टर यह तय करने वाला मध्यस्थ होगा कि कोई संपत्ति वक्फ संपत्ति है या सरकारी भूमि और ये निर्णय अंतिम होगा. एक बार निर्णय लेने के बाद कलैक्टर राजस्व रिकौर्ड में आवश्यक परिवर्तन कर सकता है और राज्य सरकार को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर सकता है. विधेयक में यह भी कहा गया है कि कलैक्टर की ओर से राज्य सरकार को अपनी रिपोर्ट पेश करने तक ऐसी संपत्ति को वक्फ संपत्ति नहीं माना जाएगा.

यह बात सच है कि वक्फ संपत्तियों को ले कर देश में काफी झगड़े चल रहे हैं. कहीं वक्फ की संपत्तियों पर नाजायज कब्जे हो गए हैं तो कहीं वक्फ संपत्ति से होने वाली आय में भ्रष्ट लोगों द्वारा बंदरबांट हो रही है. वक्फ की काफी संपत्तियों पर दबंगों, नेताओं और अपराधी तत्वों ने कब्जा कर अपने मकान, मोल, दुकानें आदि बना लीं हैं. वहीं इन संपत्तियों की देखरेख का जिम्मा जिन वक्फ बोर्ड्स का है, उस में भी भ्रष्टाचार अपनी चरम पर है. नतीजा वक्फ की संपत्तियों से जो फायदा गरीब मुसलमानों को पहुंचना चाहिए वह उन्हें नहीं मिल रहा है.

वक्फ के मामलों को मुसलमानों को खुद सुलझाना चाहिए, बिलकुल वैसे ही जैसे सिख अपने धार्मिक मामलों को स्वयं सुलझाते हैं, या हिंदू अपने धार्मिक मामलों को खुद देखते हैं. देश भर के वक्फ बोर्ड्स को एकजुट हो कर यह देखना चाहिए कि उन के घर के मामले घर के अंदर ही कैसे सुलझें. वक्फ बोर्ड्स के पास अपनी जमीनों की हिफाजत के कानून भी हैं और अधिकार भी. मगर मोदी सरकार इस में जबरदस्ती घुसपैठ करना चाहती है. देश भर में कितने मंदिर हैं, उन मंदिरों के पास कितनी जमीनें हैं, कितना धन और सोना चांदी उन के अंदर भरा पड़ा है, रोजाना इन मंदिरों में जितना चढ़ावा चढ़ रहा है, वह कहां जाता है, इन तमाम बातों का खुलासा वह कभी नहीं होने देगी मगर वक्फ की जमीनों को नापने के लिए वह बहुत बेचैन है.

एक समाचार के अनुसार राम मंदिर के भूमि पूजन से अब तक रामलला के मंदिर में भक्तगण 55 अरब रुपये से अधिक धनराशि चढ़ा चुके हैं. यह पैसा कहां जाएगा? इस से गरीब हिंदू के भले के लिए क्या किया जाएगा? क्या कोई स्कूल, अनाथाश्रम, अस्पताल, वृद्धाश्रम इतनी बड़ी धनराशि से खोले जाएंगे? नहीं. ऐसा कुछ नहीं होगा. फिर इतनी बड़ी धनराशि कहां जाएगी? यह सवाल कोई नहीं उठाता. यह सिर्फ एक रामलला के मंदिर के चढ़ावे की बात है. देश भर के मंदिरों में रोजाना चढ़ावे का धन चढ़ रहा है. दक्षिण के मंदिरों में कितना धन और सोना चांदी हीरे जवाहरात भरे पड़े हैं, उस से देश के गरीब हिंदुओं के लिए क्या किया जा रहा रहा है, इस का कोई जवाब सरकार नहीं देगी. मगर मुसलमान के पास कितनी संपत्ति है, उस का क्या हो रहा है इस को जांचनेपरखने की उसे बड़ी जल्दी है. अगर भाजपा की नीयत साफ होती तो वक्फ बोर्ड में सुधार से जुड़े विधेयक में संशोधन किसी भी मुसलमान को मंजूर होता, मगर सवाल भाजपा सरकार की नीयत का है. इसलिए विरोध हो रहा है.

हालांकि मोदी सरकार जानती थी कि विरोध होगा और विपक्षी एकजुटता के आगे संशोधित विधेयक पास होना भी मुश्किल होगा, और वही हुआ भी. लोकसभा में विधेयक आते ही विपक्षी दलों ने एकसुर में इस का विरोध किया. लिहाजा वक्फ बोर्ड में सुधार से जुड़े विधेयक को संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को भेजने की घोषणा कर दी गई और अगले ही दिन लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने 31 सदस्यीय समिति गठित कर दी. इस में 21 सदस्य लोकसभा और 10 सदस्य राज्यसभा के हैं. इस में इमरान मसूद, मोहम्मद जावेद, मौलाना मोहिबुल्लाह और असदुद्दीन ओवैसी के भी नाम शामिल हैं. समिति को संसद के आने वाले शीतकालीन सत्र के पहले हफ्ते में विधेयक पर अपनी रिपोर्ट के लिए कहा गया है. माना जा रहा है कि संसद का अगला सत्र नवंबर के अंतिम हफ्ते से शुरू होगा. ऐसे में समिति को विधेयक से जुड़े पहलुओं को जांचने और उस से जुड़ी जानकारी जुटाने के लिए करीब साढ़े तीन महीने का समय मिल रहा है.

विधेयक को जेपीसी को भेजने के पीछे भी मोदी सरकार का बड़ा सियासी दांव छिपा है. वक्फ (संशोधन) विधेयक, 2024 को लोकसभा में तो पेश कर दिया गया, लेकिन राज्यसभा में इसे अगले सत्र में पेश किया जाएगा. संसद का शीतकालीन सत्र नवंबरदिसंबर महीने में होगा. तब तक राज्यसभा का समीकरण सत्ताधारी मोदी सरकार के पक्ष में आ जाएगा. 3 सितंबर को राज्यसभा की 12 सीटों पर होने वाले चुनावों में सत्ताधारी एनडीए के सदस्यों के चुने जाने की उम्मीद है. अगले सत्र में अगर राज्यसभा के 4 नामित सदस्यों की खाली सीटों को भर दिया गया तो सदन में सरकार का हाथ और मजबूत हो जाएगा.

पिछले महीने ही चारों सीटें खाली हुई हैं. यह चार सदस्य आ गए तो सरकार को राज्यसभा में बहुमत पाने के लिए एआईएडीएमके जैसे बाहरी सहयोगियों से मदद मांगने की भी जरूरत नहीं पड़ेगी. अभी एनडीए खेमे में राज्यसभा के कुल 117 सदस्य हैं जबकि बहुमत का आंकड़ा 119 का होता है. इसलिए विधेयक को जेपीसी के पास भेजा गया है, ताकि राज्यसभा में बिल पास करने लायक बहुमत जुटाने का वक़्त मिल जाए.

चलिए अब बात करते हैं वक्फ और वक्फ सम्पत्तियों की जिन पर मोदी सरकार की आंखें गड़ी हुई हैं. भारत सरकार की वक्फ बोर्ड की वेबसाइट के मुताबिक वक्फ शब्द की उत्पत्ति अरब जगत के वकुफा शब्द से हुई है, जिस का मतलब है पकड़ना, बांधना या हिरासत में लेना. इस्लामिक मान्यता के मुताबिक अगर कोई भी शख्स अपने धर्म की वजह से या फिर अल्लाह की खिदमत करने की नीयत से अपनी जमीन या अपनी संपत्ति का दान करता है, तो उसे ही वक्फ कहते हैं. यानी कि इस्लाम में धर्म के आधार पर दान की गई चल या अचल संपत्ति वक्फ है. और जिस ने दान किया है, उसे कहा जाता है वकिफा. लेकिन संपत्ति दान करने की एक शर्त ये होती है कि उस चल या अचल संपत्ति से होने वाली आमदनी को इस्लाम धर्म की सेवा में ही खर्च किया जा सकता है. और इस सेवा के अंतर्गत कई चीजें आती हैं, मसलन मस्जिदें बनवाना, कब्रिस्तान बनवाना, मदरसे बनवाना, अस्पताल बनवाना और अनाथालय बनवाना आदि. अगर कोई गैर इस्लामिक शख्स यानी जो किसी अन्य धर्म का हो, वह भी अपनी संपत्ति को वक्फ करना चाहे तो वो कर सकता है, बशर्ते वो इस्लाम को मान्यता देता हो और उस की वक्फ की गई संपत्ति का मकसद भी इस्लाम की सेवा करना हो.

इस्लाम में वक्फ की शुरुआत कैसे हुई

इस्लाम में वक्फ का कॉन्सेप्ट पैगंबर मुहम्मद साहब के वक्त से माना जाता है. भारत सरकार की वक्फ बोर्ड की वेबसाइट के मुताबिक एक बार खलीफा उमर ने खैबर में एक जमीन का टुकड़ा अपने कब्जे में लिया और पैगंबर मोहम्मद साहब से पूछा कि इस का सब से बेहतर इस्तेमाल किस तरह से किया जा सकता है? तो मुहम्मद साहब ने जवाब दिया कि इस जमीन को कुछ इस हिसाब से इस्तेमाल करो कि यह जमीन इंसानों के काम आए. इसे किसी भी तरह से न तो बेचा जा सके, न ही किसी को तोहफे में दिया जा सके, न ही इस पर किसी तरह से तुम्हारे बच्चों या उन की आने वाली पीढ़ियां काबिज हो सकें.

इस के अलावा एक और मान्यता है कि 570 ईसा पूर्व मदीना में खजूर का एक बड़ा बाग था, जिस में करीब 600 पेड़ थे. उन से होने वाली आमदनी का इस्तेमाल मदीना के गरीब लोगों की मदद के लिए किया जाता था. इसे वक्फ का शुरुआती उदाहरण माना जाता है. मिस्र की अल-अज़हर यूनिवर्सिटी और मोरक्को की अल-कुरायनीन यूनिवर्सिटी वक्फ संपत्ति पर बने सब से पुराने संस्थान माने जाते हैं.

भारत में वक्फ की शुरुआत दिल्ली सल्तनत से मानी जाती है. ऐसा माना जाता है कि दिल्ली सल्तनत में सन 1173 के आसपास सुल्तान मुईजुद्दीन सैम गौर ने मुल्तान की जामा मस्जिद के निर्माण के लिए दो गांव दिए थे. और यहीं से भारत में वक्फ परंपरा की शुरुआत हुई. अंग्रेजी हुकूमत के दौरान वक्फ को खारिज कर दिया गया था. लेकिन आजादी के बाद भारत में बाकायदा कानून बना कर वक्फ परंपरा को बरकरार रखा गया. सब से पहले संसद ने 1954 में कानून बनाया. फिर उस में संशोधन हुआ और 1995 में नरसिम्हा राव सरकार ने कानून में तब्दीली की. और आखिरी बार साल 2013 में मनमोहन सिंह की सरकार में इतनी बड़े बदलाव हुए कि वक्फ बोर्ड के पास अथाह ताकत आ गई और वहीं से परेशानी की शुरुआत हो गई.

वक्फ संपत्तियों की देखरेख का जिम्मा

पूरे देश में फैली वक्फ संपत्तियों की देखरेख की जिम्मेदारी वक्फ बोर्ड की होती है. ये वक्फ बोर्ड भारत की संसद के कानून के तहत बनाया गया है. 1954 में भारतीय संसद ने वक्फ एक्ट 1954 पास किया. इस के तहत वक्फ की गई संपत्तियों की देखरेख की जिम्मेदारी वक्फ बोर्ड के पास आ गई. वक्फ बोर्ड के पास अभी जो संपत्ति है वह इतनी है कि उस में दिल्ली जैसे 3 शहर बन जाएं. यह संपत्तियां भारतपाकिस्तान बंटवारे की वजह से हासिल हुई हैं.

1947 में जब भारतपाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो पाकिस्तान जाने वाले मुसलिम लोग अपनी चल संपत्ति तो ले गए, लेकिन अचल संपत्ति यानी कि उन के घर, मकान, खेतखलिहान, दुकान सब यहीं रह गए और तब 1954 में कानून बना कर इस तरह की सभी संपत्तियों को वक्फ बोर्ड के हवाले कर दिया गया. वक्फ बोर्ड बनाने के अगले ही साल यानी कि 1955 में संसद ने एक और कानून बनाया और इस के तहत देश के हर एक राज्य में वक्फ बोर्ड बनाने का अधिकार मिल गया. फिर 1964 में सेंट्रल वक्फ काउंसिल का गठन हुआ, जिस का मकसद राज्यों के वक्फ बोर्ड को सलाहमशविरा देना था. लेकिन भारत में भी इस्लाम को मानने वाले दो बड़े धड़े हैं. एक धड़ा शिया समुदाय का है और दूसरा धड़ा सुन्नी समुदाय का.

तो वक्फ बोर्ड में शिया और सुन्नी के नाम पर भी बंटवारा हुआ और इस्लाम को मानने वाली इन दोनों ही धाराओं के लोगों ने अपनाअपना वक्फ बोर्ड यानी कि शिया वक्फ बोर्ड और सुन्नी वक्फ बोर्ड बना लिया. बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में शिया और सुन्नी के अलगअलग वक्फ बोर्ड हैं.

वक्फ बोर्ड में होता कौनकौन है?

भारत की संसद के बनाए कानून के मुताबिक सेंट्रल वक्फ काउंसिल में सब से ऊपर केंद्र सरकार के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री होते हैं. और इस लिहाज से अभी देखें तो वक्फ बोर्ड में सब से ऊपर केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू हैं. दूसरे नंबर पर वक्फ के डायरेक्टर होते हैं, जो केंद्र सरकार के जॉइंट सेक्रेटरी लेवल के अधिकारी होते हैं. अभी एस.पी. सिंह तेवतिया वक्फ बोर्ड के डायरैक्टर हैं. इस के अलावा बोर्ड में 8 और सदस्य होते हैं. लेकिन अभी केंद्रीय वक्फ बोर्ड में इन सभी 8 लोगों की जगह खाली है. लिहाजा फैसला लेने के लिए किरण रिजिजू और एस.पी. सिंह तेवतिया फ्री हैं.

राज्यों के वक्फ बोर्ड में कौनकौन होता है?

अलगअलग राज्यों के वक्फ बोर्ड में सब से ऊपर चेयरमैन होता है. उस के अलावा सेक्रेटरी के स्तर का एक आईएएस अधिकारी होता है, जो एक तरह से सीईओ होता है. बाकी संपत्तियों का लेखाजोखा रखने के लिए सर्वे कमिश्नर होता है. बाकी दो सदस्यों को उस राज्य की सरकार मनोनित करती है, जिस में एक मुसलिम सांसद और एक मुसलिम विधायक होता है. बाकी उस बोर्ड का राज्य स्तर पर एक वकील होता है, एक टाउन प्लानर होता है और एक मुसलिम बुद्धिजीवी होता है.

वक्फ बोर्ड की ताकत

वक्फ बोर्ड के पास अथाह ताकत होती है. वक्फ की सारी संपत्ति की देखरेख की जिम्मेदारी बोर्ड की होती है. कितनी आमदनी हुई, उसे कहां खर्च करना है, यह सब वक्फ बोर्ड ही तय करता है. किस की संपत्ति वक्फ को लेनी है, संपत्ति किस को ट्रांसफर करनी है, संपत्ति का इस्तेमाल कैसे करना है, ये सब वक्फ बोर्ड ही तय करता है. अगर एक बार संपत्ति वक्फ बोर्ड के पास आ गई तो उसे वापस नहीं किया जा सकता है. वो संपत्ति हमेशाहमेशा के लिए वक्फ की हो जाती है. और इस को ले कर देश की किसी भी अदालत में कोई मुकदमा दायर नहीं हो सकता है. अगर वक्फ बोर्ड को ये लगता है कि कोई भी संपत्ति इस्लामिक कानूनों के मुताबिक वक्फ की है, तो वह वक्फ की हो जाती है. अगर उस जमीन पर किसी का दावा है, तो दावा किसी अदालत में नहीं बल्कि वक्फ बोर्ड के सामने ही कर सकता है. और अंतिम फैसले का अधिकार भी वक्फ बोर्ड का ही होता है.

अगर हिंदू या किसी गैरइस्लामिक शख्स की ज़मीन पर भी अगर वक्फ अपना दावा करे तो उस शख्स को वक्फ के पास जा कर यह साबित करना होता है कि जमीन उस की है, वक्फ की नहीं. हालांकि वक्फ बोर्ड खुद भी ऐसी ही ज़मीन पर दावा कर सकता है जो 1947 के भारतपाकिस्तान बंटवारे से पहले वक्फ के नाम पर दर्ज हो या फिर 1954 में भारत सरकार की ओर से वक्फ को दे दी गई हो. कुल मिला कर एक लाइन में कहें तो वक्फ बोर्ड एक ऐसा बोर्ड है, जिस में उसके खिलाफ भी अगर कोई बात हो तो उस पर फैसला उसे ही करना होता है, देश की कोई दूसरी अदालत उस मसले पर फैसला नहीं कर सकती है.

मोदी सरकार के नए कानून में क्या बदलाव प्रस्तावित हैं?

मोदी सरकार में अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री किरेन रिजिजू ने जो बिल संसद में पेश किया है, उस में वक्फ बोर्ड की असीमित ताकतों को सीमित करने का प्रावधान है. उदाहरण के तौर पर –

– अब वक्फ बोर्ड में सिर्फ मुसलिम ही नहीं गैर मुसलिम भी शामिल हो सकते हैं.

– वक्फ बोर्ड का सीईओ भी गैर मुसलिम हो सकता है.

– अब वक्फ बोर्ड में दो महिला सदस्यों को भी शामिल किया जाएगा.

– वक्फ बोर्ड को किसी संपत्ति पर अपना दावा करने से पहले उस दावे का वेरिफिकेशन करना होगा.

– अभी तक मस्जिद या इस तरह की कोई धार्मिक इमारत बने होने पर वो जमीन वक्फ की हो जाती थी. लेकिन अब मस्जिद बने होने के बावजूद उस जमीन का वेरिफिकेशन करवाना ही होगा.

– भारत सरकार की सीएजी के पास अधिकार होगा कि वो वक्फ बोर्ड का औडिट कर सके.

– वक्फ बोर्ड को अपनी संपत्ति को उस जिले के जिला मजिस्ट्रेट के पास दर्ज करवाना होगा, ताकि संपत्ति के मालिकाना हक की जांच की जा सके.

– वक्फ की संपत्तियों पर दावेदारी के मसले को भारत की अदालत में चुनौती दी जा सकेगी और अंतिम फैसला वक्फ बोर्ड का नहीं, बल्कि अदालत का मान्य होगा.

इस तरह के तमाम ने नियम संशोधित बिल में हैं, जिस के तहत सरकार इस में घुसपैठ करना चाहती है.

विपक्ष का बिल पर एतराज

इस बिल के विरोध में लगभग पूरा विपक्ष एक साथ है. चाहे वो कांग्रेस हो, सपा हो, शरद पवार की एनसीपी हो, ममता बनर्जी की टीएमसी हो या फिर असदुद्दीन ओवैसी की आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन, सब ने इस बिल का विरोध किया है. और सभी विपक्षी दलों का मानना यही है कि इस बिल के जरिए सरकार वक्फ की संपत्ति पर अपना कब्जा चाहती है.

ओवैसी ने इसे धर्म में हस्तक्षेप बताया है और कहा है कि सरकार मुसलिमों की दुश्मन है. वहीं सपा मुखिया अखिलेश यादव ने वक्फ बोर्ड में गैर मुसलिमों को शामिल करने पर ऐतराज जताया है. डीएमके का कहना है कि बिल मसलिमों को निशाना बनाने के लिए लाया गया है. विपक्ष के और भी तमाम दलों के तर्क कुछ ऐसे ही हैं.

विपक्ष के विरोध को देखते हुए इस बिल को खुद केंद्रीय मंत्री किरेन रिजिजू ने जेपीसी को भेजने का प्रस्ताव रखा है. यानी कि अब इस बिल की खूबियों और खामियों को देखने के लिए एक ज्वाइंट पार्लियामेंट्री कमेटी बनेगी. और उस की सिफारिशों के आधार पर ही तय होगा कि अब इस बिल का भविष्य क्या है.

पहले भारतीय रेलवे, उस के बाद भारतीय सेना और उस के बाद तीसरे नंबर पर देश में अगर किसी एक संस्था के पास सब से ज्यादा जमीन है तो वो है वक्फ बोर्ड. पूरे देश में कुल करीब 9 लाख 40 हजार एकड़ जमीन वक्फ में दर्ज है. इन जमीनों पर यतीमखाने हैं, मदरसे हैं, मुसलिम कब्रिस्तान हैं, मकबरे हैं, मजारें हैं, मस्जिदें हैं, गरीब मुसलमानों के घर हैं, तालाब आदि हैं. अब इस जमीन पर मोदी सरकार की नजर गड़ी हुई है कि किसी तरह धीरेधीरे यह वक्फ के हाथ से निकल कर सरकार के पास आ जाए.

मुकेश अंबानी का घर एंटीलिया वक्फ की जमीन पर बना

मुकेश अंबानी ने एंटीलिया बनाने के लिए साल 2002 में 4,532.39 स्क्वेयर मीटर वाला प्लोट 21.5 करोड़ रुपए में खरीदा था. अंबानी का यह घर साउथ मुंबई के पैडर रोड पर बना है और इसे दुनिया के सब से महंगे मकानों में से एक माना जाता है. यह बहुमंजिला मकान वक्फ बोर्ड की जमीन पर है, पहले यहां बच्चों का यतीमखाना था, अंबानी ने यह कह कर जमीन ली थी कि वह इस पर बहुत बड़ा यतीमखाना बनाएंगे और बना लिया अपना महल.

बात 2002 की है, महाराष्ट्र वक्फ बोर्ड की जमीन को बेचा गया था. इस के खिलाफ अब्दुल मतीन नामक एक टीचर और जर्नलिस्ट ने 2005 में एक पिटीशन भी फाइल की थी. इस बारे में महाराष्ट्र वक्फ बोर्ड की तरफ से बयान भी आया था कि इस मामले में तत्कालीन सीईओ और चेयरमैन शामिल हैं. यह बताता था कि मुकेश अंबानी का घर वक्फ बोर्ड की जमीन पर बना है. मामला अभी भी बौम्बे हाईकोर्ट में है. हाई कोर्ट ने भी माना है कि अंबानी ने जमीन खरीदने में वक्फ बोर्ड की धारा 32(2) का उल्लंघन किया है. कोर्ट कभी भी एंटीलिया को गिराने का फैसला दे सकता है, तो ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि क्या मोदी सरकार के खास मुकेश अंबानी के एंटीलिया को बचाने के लिए सरकार आज वक्फ बोर्ड संशोधन बिल ला रही है?

पूर्व में महाराष्ट्र विधानसभा वक्फ बोर्ड द्वारा पेश की गई एक्शन टेकन रिपोर्ट (एटीआर) में भी कहा गया है कि वक्फ बोर्ड ने अंबानी को घर बनाने के लिए नहीं, बल्कि अनाथालय बनाने के लिए जमीन बेचीं थी और अंबानी ने गलत तरीके अपना कर एंटीलिया बना लिया. रिपोर्ट स्वीकार करने के बाद महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस ने कहा था कि सरकार रिपोर्ट के आधार पर एक्शन लेगी. उन्होंने कहा कि किसी को भी छोड़ा नहीं जाएगा. तब रिलायंस के प्रवक्ता ने इस मामले में केवल इतना कहा था कि वह पहले रिपोर्ट देखेंगे और इस के बाद ही कोई कमेंट करेंगे. तब विधानसभा में पेश एटीआर में कहा गया था कि करीम भाई इब्राहिम ने 1986 में यह जमीन धार्मिक शिक्षा और अनाथालय बनाने के लिए वक्फ बोर्ड को दी थी, लेकिन बोर्ड ने इसे अंबानी को बेच दिया. यह डील शुरू से ही विवादों में आ गई, क्योंकि जिस जमीन को बेचा गया वह वक्फ बोर्ड की थी. विवाद बढ़ने पर रिटायर्ड जज एटीएके शेख को जांच की जिम्मेदारी दी गई और उन से कहा गया कि वह अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपें. मामला अदालत में है और एंटीलिया खतरे में है.

पुराणों में भी है ‘बैड न्यूज’

पिछले दिनों अभिनेता विक्की कौशल की एक फिल्म मैडिकल कंडीशन हेटरोपैटरनल सुपरफेकंडेशन पर आधारित बैड न्यूज आई थी. फिल्म में विक्की कौशल के अलावा तृप्ति डिमरी और एमी विर्क हैं. इस में नायिका प्रैगनैंट हैं. उसे नहीं पता कि पेट में पल रहे बच्चे का बाप कौन है.

नायिका को 2 युवकों पर शक है. वह जानना चाहती है कि बच्चे का बाप कौन है. इस के लिए वह पैटरनिटी टैस्ट करवाती है. टैस्ट के बाद पता चलता है कि बच्चे के बाप विक्की कौशल और एमी विर्क हैं. हालांकि यह फिल्म रोमांस और कौमेडी युक्त है पर फिल्म देखने के बाद दर्शकों के जेहन में सवाल उठने लगे कि क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है कि महिला के गर्भ में पलने वाले बच्चे के 2 पिता हों.

डाक्टरों के अनुसार ऐसा बिल्कुल संभव है लेकिन ऐसे मामले विरले ही होते हैं. दुनिया में अब तक करीब 19 मामले सामने आए हैं. मैडिकल तरक्की और वैज्ञानिक जांचों से अब मातृत्व और पितृत्व की सटीक परख संभव होने लगी है.

असल में यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है. सृष्टि में जब से स्त्रीपुरुष के संबंध बने हैं तभी से ऐसा होता आया है. हालांकि, ऐसे मामले रेयर ही होते हैं. पुराणों में ऐसे कई किस्से हैं.

आइए, पहले जानते हैं ऐसा होता कैसे है और साथ ही विश्व में हुईं ऐसी सच्ची घटनाओं के बारे में भी-

दरअसल हैटरोपैटरनल का अर्थ है अलगअलग पिता और सुपरफेकंडेशन का मतलब है एक ही मेंस्ट्रूअल साइकिल के अंदर दो अलगअलग इंटरकोर्स से शुक्राणुओं का एग के साथ फर्टिलाइजेशन होना. जब कोई महिला अलगअलग पार्टनर के साथ कुछ समय के अंतराल में शारीरिक संबंध बनाती है तो इस से 2 एग रिलीज हो कर 2 स्पर्म से फर्टिलाइज होते हैं. इस कारण महिला जुड़वां बच्चों का गर्भधारण करती है पर दोनों ही बच्चों के पिता अलगअलग होते हैं.

हेटरोपैटरनल सुपरफेकंडेशन में मां के गर्भ से पैदा होने वाले दोनों ही बच्चों के डीएनए भी अलग होते हैं.

अब कुछ सच्चे किस्सों पर गौर करते हैं, 2022 में ब्राजील की एक 19 साल की युवती ने जुड़वां बच्चे को जन्म दिया, जिन के वास्तव में 2 जैविक पिता निकले. डेली मेल की खबर के अनुसार, युवती को संदेह था कि उन के पिता कौन है, लिहाजा, उस ने पैटरनिटी टैस्ट करवाया.

तुर्की के इस्तांबुल में भी पितृत्व विवाद का मामला सामने आया. यहां एक विवाहित महिला ने जुड़वां बच्चे को जन्म दिया. महिला के पति ने शक के चलते डीएनए टैस्ट करवाया. जुड़वां बच्चों में एक का ब्लड ग्रुप अलग था. पति ने कहा कि वह उस का पिता नहीं है. जांच में बात सही निकली.

2020 में कोलंबिया में भी हेटरोपैटरनल सुपरफेकंडेशन का केस सामने आया था.

अमेरिका के डलास का किस्सा तो बडा़ चर्चित रहा था. यहां 2009 में जस्टिन और जोर्डन नामक जुड़वां बच्चों के अलगअलग जैविक पिता होने का मामला उजागर हुआ था. जुड़वां बच्चों की मां मिया वाशिंगटन और उस के प्रेमी जेम्स हैरिसन ने फौक्स न्यूज टीवी पर आ कर अपनी कहानी बयान की थी. युवती ने स्वीकार किया कि उस का एक अन्य व्यक्ति से भी संबंध था. उस ने कहा कि वह शौक्ड है कि उस के साथ ऐसा हुआ.

असल में इस दंपती ने नोटिस किया कि उन के जुड़वां बच्चे अलगअलग शक्ल के हैं. उन्होंने पितृत्व टैस्ट कराने का निर्णय किया. वे डलास लैब में गए, जहां इस बात का खुलासा हुआ कि जोर्डन तो हैरिसन का बेटा है पर जस्टिन मिया वाशिंगटन के दूसरे प्रेमी का है.
हैरिसन ने टैलीविजन पर कहा कि यह बात उजागर होने के बाद भी वह दूसरे बेटे जस्टिन को भी अपने पास ही रखेगा. उस का पालनपोषण करेगा. उस ने कहा कि उस ने अपनी प्रेमिका मिया वाशिंगटन को माफ कर दिया है और उसी के साथ ही रहने का वादा किया है. मिया ने भी अपनी गलती के लिए माफी मांग ली. दंपती ने यह भी कहा कि बडा़ होने पर अगर जस्टिन अपने असली पिता से मिलना चाहेगा तो उसे मिला दिया जाएगा.

2016 में चीन में भी एक मामला सामने आया. जुड़वां बच्चे की केस स्टडी के अनुसार इस विवादित पितृत्व मामले में जांच के बाद जुड़वां बच्चों के जैविक पिता अलगअलग निकले.

अब देखते हैं पौराणिक काल के किस्से

पांडु की दूसरी पत्नी माद्री के जुड़वां बच्चे हुए नकुल और सहदेव. कथा के अनुसार, माद्री ने 2 अश्वनी कुमारों नासत्य और दस्त्र का आह्वान किया, जिस से उसे नकुल और सहदेव पुत्र के रूप में हुए.

महाभारत की कथानुसार, एक बार ऋषि दुर्वासा कुंती की सेवा से बहुत प्रसन्न हुए. वे कुंती को एक मंत्र देते हुए कहते हैं कि इस के करने से तुम जिस भी देवता का आह्वान करोगी, तुम्हें उसी देवपुत्र की प्राप्ति होगी. कुंती ने सर्वप्रथम धर्म के देवता का आह्वान किया. जिस से उसे युधिष्ठिर उत्पन्न हुए. इसी तरह पवनदेव के आह्वान से भीमसेन और देवराज इंद्र से अर्जुन की प्राप्ति हुई.

संतानप्राप्ति का यह मंत्र कुंती ने ही माद्री को दिया था. पांडवों की उत्पत्ति ऐसे ही हुई थी क्योंकि पांडु को शाप मिला हुआ था कि तुम पत्नी को छुओगे तो तत्काल तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी.

इसी तरह धृतराष्टृ का विवाह गांधारी से हुआ लेकिन 100 पुत्र और एक पुत्री का जन्म घड़े में हुआ.

महाभारत में द्रौपदी के 5 पति और इन पांचों के अलगअलग पुत्रों की कहानी भी है.

छांदोग्य उपनिषद के अध्याय 4 के खंडों में सत्यकाम जाबाल की पैदाइश का किस्सा हेटरोपैटरनल सुपरफेकंडेशन का ही है. जिस में सत्यकाम की मां के कई लोगों से संबंध होते हैं और उसे खुद पता नहीं कि उस के पुत्र सत्यकाम का पिता कौन है.

कथा के अनुसार सत्यकाम महर्षि गौतम के शिष्य थे. उन की माता जाबाल थीं. सत्यकाम जब शिक्षा लेने गुरु के पास गए तो नियमानुसार गौतम ने उन से पिता का नाम और गौत्र पूछा. गुरु ने कहा कि अपनी मां से पूछ कर आओ. सत्यकाम मां के पास गए और अपने पिता का नाम व गोत्र पूछा. मां ने कहा, ‘पुत्र, तुम बता देना कि मेरी मां का नाम जाबाल है. मेरी मां अनेक साधुसंतों की सेवा करती थीं. मेरी माता को भी ज्ञात नहीं कि मेरा पिता कौन और उन का गोत्र क्या है.’

बालक ने यही बात जा कर महर्षि गौतम से कह दी. महर्षि गौतम बालक की स्पष्ट, सच्ची बात से खुश हुए और उसे ब्राह्मणपुत्र मान कर शिक्षा देने लगे.

पुराणों में पति के रहते परपुरुष से उत्पन्न संतान को ले कर एक और किस्सा है. कथा के अनुसार, बृहस्पति की पत्नी तारा के गर्भ में उस के प्रेमी चंद्रमा का बच्चा पर रहा था. जब बृहस्पति को पता चला कि यह बच्चा उस का नहीं है बल्कि चंद्रमा का है तो वे गर्भ में पल रहे उस बच्चे को नपुंसक होने का श्राप दे देते हैं.

असल में 2 पुरुषों के एक स्त्री से संबंध के चलते पैदा हुई संतान का कारण प्राकृतिक है और ये संबंध शाश्वत रहे हैं. हमारे पौराणिक पात्र भी इस से अछूते नहीं रहे.

हां, फिल्म ‘बैड न्यूज’ में और अमेरिका के डलास की दंपती के किस्से समाज को गलती को सुधारने की प्रेरणा देते हैं, बजाय पौराणिक पात्र बृहस्पति द्वारा उस बेकुसूर शिशु को नपुंसक होने का श्राप देने के.

पेरैंट्स हद से ज्यादा जिंदगी न्योछावर नहीं करेंगे, बच्चे अपने रास्ते खुद बनाएं.

बच्‍चों को इस दुनिया में लाने से ले कर उन की परवरिश, कैरियर और जिंदगी में सैटल करने के सफर में पेरैंट्स चौबीसो घंटे एक टांग पर खड़े रह कर बच्चों के लिए सबकुछ करते हैं और इस दौरान पेरैंट्स को कई तरह की समस्‍याओं व परेशानियों का सामना करने के साथ अपनी कई इच्छाओं का त्याग भी करना पड़ता है. कई बार तो जिम्मेदारी के इस सफर में वे अपनी जिंदगी जीना ही भूल जाते हैं. बच्चे के पैदा होने से ले कर उस के स्कूल में पहला कदम रखने और बड़े हो कर जीवन की गाड़ी खुदबखुद चलाने तक की प्रक्रिया में मातापिता बच्चे का हाथ थामे रखते हैं. लेकिन जीवन में एक समय ऐसा आता है जब वे अपनी जिंदगी, अपने भविष्य के बारे में सोचते हैं जो कि बिलकुल सही है.

बच्चे अपनी जिम्मेदारियां खुद उठाना सीखें

बच्चों को यह बात अच्छी तरह अपने दिलोदिमाग में बिठा लेनी चाहिए कि पेरैंट्स की भी अपनी एक जिंदगी है. पेरैंट्स बनने का अर्थ यह नहीं कि वे अपनी पूरी जिंदगी आप पर न्योछावर कर दें. माना कि बच्चों को बड़ा करना, पढ़ानालिखाना, अपने पैरों पर खड़ा करना उन का कर्तव्य है लेकिन बच्चों को भी चाहिए कि वे हर बात के लिए पेरैंट्स पर निर्भर न रहें और अपने जीवन की राह के रास्ते खुद बनाएं.

बच्चों को यह समझना होगा कि अब वे दूधपीते बच्चे नहीं रहे जिन के पीछे मांबाप दूध की बोतल ले कर घूमते थे. उन्हें अपनी जिम्मेदारियां खुद उठानी सीखनी होंगी. फिर चाहे वह लड़का हो या लड़की, दोनों को एक समय के बाद घर के कामों को सीखना होगा, मांबाप का हाथ बंटाना होगा. इस की शुरुआत अपना टिफिन बनाने, अपना कमरा साफ करने, घर की ग्रौसरी खरीदने, कपड़े धोने से करनी होगी. ऐसा करने से बच्चे जिम्मेदार बनेंगे जो उन के भविष्य में भी मदद करेगा और उन्हें आत्मनिर्भर भी बनाएगा.

आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनें

एक उम्र के बाद बच्चे हर छोटीछोटी जरूरत के लिए पेरैंट्स के आगे हाथ न फैलाएं. अगर आप की जरूरतें बड़ी हैं तो उस के लिए पेरैंट्स पर निर्भर न रह कर खुद अपनी आमदनी का जरिया बनाएं. पार्टटाइम काम करें, ट्यूशन लें.

बदलनी होगी सोच

भारत के विपरीत विदेशों में बच्चे छोटी उम्र में ही आत्मनिर्भर बन जाते हैं. पांचछह साल की उम्र से वे मांबाप से अलगअलग बैडरूम में सोते हैं और पंद्रहसोलह की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते तो वे अलग घर में रहने लगते हैं और इसी उम्र से वे अपने निर्णय खुद लेने लगते हैं. परंतु भारतीय परिवारों में बच्चे चाहे जितना मरजी बड़े हो जाएं वे खुद को बच्चा ही समझते हैं. हर काम के लिए मांबाप का मुंह ताकते हैं जो कि गलत है. बच्चों को यह समझना होगा कि पेरैंट्स की भी अपनी जिंदगी है, उन्हें भी अपनी जिंदगी में खुशियां पाने का अधिकार, अपने शौक पूरे करने का अधिकार है.

जरूरत से अधिक पेरैंट्स पर निर्भर न रहें

जहां जरूरत हो, वहां पेरैंट्स की मदद लेने में कोई बुराई नहीं है लेकिन, ‘क्योंकि पेरैंट्स तो हैं ही वे हमारी मदद कर ही देंगे, हर मुसीबत में हमारी ढाल बन कर खड़े हो जाएंगे,’ इस सोच को पाल कर अपने शरीर और दिमाग को काम करने का मौका न देना और हर काम व जरूरत के लिए पेरैंट्स पर निर्भर रहना आप के लिए भविष्य में मुश्किलें बढ़ाएगा. इसलिए, अपनी सोचसमझ से अपनी प्रौब्लम का सोल्यूशन निकालने की कोशिश करें.

पेरैंट्स इमोशनल फूल नहीं, समझदार हैं

आज पेरैंट्स फिजिकली सक्षम हैं तो वे बच्चों की मदद कर पा रहे हैं लेकिन एक समय ऐसा आएगा जब उन्हें आर्थिक, शारीरिक, इमोशनल मदद की जरूरत होगी, उस का इंतजाम भी उन्हें समय रहते कर के रखना है इसलिए वे बेवकूफ बन कर अपने जीवन की सारी पूंजी सिर्फ बच्चों पर लगाने की गलती नहीं करेंगे. पेरैंट्स ने आप को अच्छी परवरिश, शिक्षा और अच्छे संस्कार दिए हैं पर वे अपने जीवन की सारी पूंजी आप पर न्योछावर नहीं करेंगे. आखिर, उन्हें भी अपनी आगे की जिंदगी अच्छी तरह जीनी है.

ताकि बच्चों को आगे चल कर न होना पड़े दुखी

बच्चे पेरैंट्स को अपनी हर इच्छापूर्ति का माध्यम न मानें और न ही यह भ्रम पालें कि पेरैंट्स पूरी जिंदगी आप को पालेंगे. एक समय के बाद अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए आप को हाथपैर चलाने पड़ेंगे, आप को एफर्ट्स करने होंगे. पेरैंट्स अपनी खुशियों को भी समय देंगे, अपने भविष्य की भी प्लानिंग करेंगे. बच्चे शादी के बाद अकेले रहें, अपना घर खुद बनाएं, अपनी गृहस्थी खुद जमाएं. हर समय सबकुछ पकापकाया, जमाजमाया मिलेगा, इस उम्मीद में न रहें. पेरैंट्स ने आप के लिए जितनी मेहनत करनी थी, कर दी, अब आप अपनी जिंदगी की गाड़ी खुद चलाना सीखें.

लकीरें : अपनी छोटी सोच पर शर्मसार व्यक्ति की कथा

शाम को औफिस से लौटा तो पत्नी ने खबर दी, ‘‘आलिया के मकान का सौदा हो गया है. इसी महीने रजिस्ट्री भी हो जाएगी.’’

यह सुन कर मेरा मन खिन्न हो गया. चाय का कप लिए मैं छत पर आ गया. मेरी छत से लगा हुआ आलिया का मकान सुनसान पड़ा था. बहारों के मौसम में भी पौधों से लदे गमले सूखे, मुरझाए पड़े थे. मैं ने छत से झुक कर उन के पोर्च पर नजर डाली तो सिर्फ नारंगी फूलों वाली बेल फूलों से लदी हुई थी. याद आ गया पिछले महीने ही तो 25 वर्षीया आलिया ने अपनी बेहद नर्म आवाज से बतलाया था- ‘राजू भाई, पूरे 2 साल हो गए इस बेल को लगाए हुए. लेकिन इक्कादुक्का से ज्यादा फूल खिलते ही नहीं. इस बार नहीं फूल खिले तो काट दूंगी.’ यह सुन कर अम्मा बीच में बोली, ‘न न बिटिया, ऐसा न करना. हरी बेल को कभी काटना नहीं चाहिए. पाप लगता है. खादपानी डालती रहो, देखना इस बार लहकेगी.’ ‘ठीक है चाची,’ कह कर आलिया छोटे से लौन की सफाई में लग गई. और वाकई इस साल बेल ऐसी लहकी की पत्तियां दिखलाई नहीं दे रही थीं लेकिन उसे देख कर गद्गद् होने वाली मांबेटी न जाने जीवन की किस उलझन को सुलझाने में लगी थीं. लहकती बेल की खूबसूरती को जी भर कर देखने का वक्त ही नहीं निकाल सकी थीं.

पांच साल पहले मुसलमान परिवार ने घर के बगल में अपना घर बनाना शुरू किया तो अम्मा बड़बड़ाई थी-

‘ये मुसलमान तो बड़े गुस्से वाले और लड़ाकू होते हैं. कहीं हमारी शांति न भंग कर दें.’

मकान बनने में पूरा एक साल लगा. इस बीच आलिया और उस की अम्मी के मृदुल एवं सहयोगी स्वभाव से अम्मा का डर धीरेधीरे कम होता चला गया. गृहप्रवेश के बाद जब वे रहने आ गए तो पंडिताइन अम्मा ने उन के रहनसहन, खानपान और रोजमर्रा की गतिविधियों का बड़ी बारीकी से अध्ययन करना शुरू कर दिया.

‘ग्वालियर वाली जिज्जी तो कह रही थीं कि मुसलमान हफ्ते में एक बार शुक्रवार को ही नहाते हैं. पास बैठते हैं तो तेज गरममसाले और लहसनप्याज की बदबू आती है उन के कपड़ों से. लेकिन आलिया के घर तो…’

मेरी पत्नी बीच में बोल पड़ी, ‘सुबह 5 बजे उठ जाती हैं मांबेटियां. फिर पूरे घर का झाड़ूपोंछा. 9 बजे तक आलिया के दोनों भाई और वो खुद अपनी बुटीक के लिए नहाधो कर, खापी कर निकल जाते हैं. दिन में आलिया की अम्मी किताबें पढ़ती है. पूरा घर चमचमाता रहता है उन का.’ यह सुन कर मुझे तसल्ली हुई.

एक दिन मैं ने देखा अम्मा अपनी सफेद धोती के आंचल से एक कटोरी ढ़ांक कर आलिया के घर दाखिल हो रही है. लौटी तो कटोरी को वैसे ही ढांक कर ले आई और अपनी थाली लगाने लगी. मैं ने उत्सुकतावश पूछ लिया, ‘‘क्या लाई हो अम्मा? और क्या ले गई थी?’

‘कुछ नहीं राजू, आलिया को अर्वी के पत्तों की बेसन वाली सब्जी पसंद है, वही देने गई थी. उस की अम्मी ने पकौड़ों वाली कढ़ी दे दी. ले, थोड़ी तू भी चख ले. खाना बहुत अच्छा बनाती है आलिया की अम्मी.’

छूताछूत पर विश्वास रखने वाली अम्मा मुसलमान के घर उठनाबैठना और खाने की चीजों का अदानप्रदान करने लगी है, देख कर बेहद आश्चर्य हुआ.

मेरा बेटा विक्की 4 साल का होने वाला था लेकिन स्कूल के नाम पर दहाड़ें मारमार कर रोता था. जितने दिन भी नर्सरी स्कूल गया, क्लास की खिडक़ी से बाहर बैठी दादी को बारबार आवाजें देता रहा. आलिया का छोटा भाई 12वीं के बाद प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगा था. महल्ले के चारपांच बच्चे शाम को उस के पास ट्यूशन पढऩे आते थे. अम्मा विक्की को बैग के साथ रोज उस के पास ले जाने लगी. अम्मा दूसरे कमरे में आलिया की अम्मी से बातें करती हुर्ई कभी सब्जी काटने लगती, कभी बुटीक की साडिय़ों और ब्लाउज में पीकोफौल करने या बखिया करने लगती. दादी बैठी है इसी भरोसे से और विक्की हमउम्र बच्चों के साथ बैठ कर पढऩे लगा. धीरेधीरे विक्की खुद ही, 3 बजते ही बस्ता उठा कर आलिया के घर जाने लगा.

पढ़ाई खत्म होने के बाद आलिया की अम्मी बच्चों को चौकलेट, बिस्कुट देते हुए कहती, ‘शुक्रिया बोलिए.’ जब मुसलमान बच्चे घर जाते हुए ‘अल्लाह हाफिज’ कहते तो देखादेखी विक्की भी ‘अल्लाह हाफिज’ बोलने लगा. अब वह घर में किसी भी चीज को लेते हुए ‘शुक्रिया’ कहता और घर से जाते हुए अल्लाह हाफिज कहने लगा. घर में तो वह धमाचौकड़ी मचाए रहता लेकिन आलिया के घर बड़ी ही तहजीब से बैठता और आपआप कर के छोटेबड़े सभी से बातें करने लगा.

कट्टर रूढि़वादी पंडित घर की मेरी पत्नि ने विक्की के संस्कारों में उर्दू एवं मुसलिम संस्कृति को घुलतेमिलते देखा तो उस के दिमाग में अलगाववादी कीड़ा कुलबुलाने लगा. क्या सीख रहा है विक्की ये. क्यों धन्यवाद की जगह बातबात पर शुक्रिया कहने लगा है और ट्यूशन पढऩे जाते समय मेरे और अम्मा के पैर छू कर अल्लाह हाफिज कहता है. अगर हमारे परिवार वाले सुनेंगे तो क्या कहेंगे. यही न कि ब्राह्मïण को मुसलिम संस्कार सिखा रहे हो. बचपन में सीखी गई बातें ही तो बच्चा जीवनभर याद रखता है. हमारे वार्त्तालाप के समय मैं ने देखा की विक्की पूजाघर में अम्मा के साथ बैठा श्लोक दोहरा रहा है और बीचबीच में हाथ उठा कर घंटी भी बजा देता है. इत्मीनान की सांस ले कर मैं बोल उठा, ‘रजनी, अब समय बदल गया है. अब हमें बच्चे को अपने संस्कारों के अलावा दूसरे धर्मों, खासतौर पर इसलाम धर्म, के अच्छे संस्कारों से भी परिचित कराना चाहिए ताकि बड़े होने के बाद मुसलमानों के साथ मेलजोल बढ़ाने, साथ रहने, काम करने में जरा भी हिचक पैदा न हो. लोगों ने हिंदू-मुसलमानों के बीच लकीरें खींच कर देश के 2 टुकड़े कर दिए. और अब कितने टुकड़े होते देखते रहेंगे हम.’

‘रजनी हमारे विक्की को अप्रत्यक्ष रूप से बचपन में ही मुसलिम तहजीब वालों के साथ रहने का मौका मिल रहा है, इस से वह अपनी संकीर्ण सोच के दायरे से बाहर निकाल कर दूसरे कल्चर के साथ घुलमिल कर अपने व्यक्तित्व का विकास ही करेगा. उसे सोच का विस्तृत आकाश मिलेगा. वह अपनी कुंठाओं और धार्मिक दायरों से बाहर आ कर हिंदूमुसलमानों के बारे में अलगअलग नहीं साचेगा बल्कि वह सिर्फ इंसानों के बारे में सोचेगा. धर्मनिरपेक्षता का पाठ हम नहीं पढ़ाएंगे बच्चों को तो देश सिर्फ जातिवाद और धर्म को ले कर होने वाले दंगेफसादों का ही मैदान बना रहेगा. बच्चों को बचपन से सिखलाया जाना चाहिए कि हिदू धर्म और इसलाम को मानने वालों में मूलभूत रूप से कोई भेदभाव नहीं है. बच्चों के बड़े होने तक तथाकथित कट्टर पंडित और मौलवियों को अपने रोटी सेंकने व स्वार्थपर्यताभरी कुचालों को तर्कवितर्क कर के समझने की सूझबूझ पैदा करना हमारा कर्तव्य है, तभी तो हम धर्मनिरपेक्ष देश की कल्पना कर सकते हैं.’ मेरी भारीभरकम बातें सुनती रही रजनी लेकिन उस दिन के बाद उस ने कभी भी विक्की को रोका नहीं.

आलिया का परिवार मेरे परिवार के साथ बहुत घुलमिल गया. पत्नि दूसरी बार मां बनने वाली थी. विक्की कभीकभी आलिया के साथ सो जाता. आलिया की सुंदरता और शालीनता देख कर मेरी पत्नी अकसर उसे छेड़ते हुए कहती, ‘जब तुम्हारी शादी होगी तो जवाई बाबू को पहले ही समझा देना कि हम तुम्हारे जैसी ही बहू लाएंगे विक्की के लिए. समझ गई न. सुन कर शर्म से आलिया की कान की लोलकी लाल बिरबुहटी हो जाती. सोच लो हम हिदू हैं. बाद में मुकर तो न जाओगी.’

आलिया तपाक से कहती, ‘हिंदूमुसलमान तो हम ने बनाए हैं, भाभी. पहले तो हम इंसान हैं. वादा रहा. जिंदगी रही तो निभाऊंगी जरूर.’ यह सुन कर कट्टरवादिता मुंह छिपाने लगती और धर्मनिरपेक्षता मस्तीभरी अंगड़ाइयां लेने लगती.

अम्मा ईद के समय आलिया के लिए जोड़ा, मेहंदी और सेवइयों के साथ चूडिय़ां जरूर भिजवाती. दीवालीहोली पर आलिया की मम्मी अपने हाथ से दहीबड़े, खोये के गुलाबजामुन और स्वादिष्ठ गुजिया बना कर भिजवाती. अम्मा और आलिया की अम्मी दोनों शाम को पोर्च में कुरसी डाले दुनियाजहान की बातें करते हुए ठहाके लगातीं.

दोनों पड़ोसी परिवार एकदूसरे के पूरक बन गए थे, लेकिन अचानक आलिया के मकान बेचने के फैसले ने हम सब को विचलित कर दिया.

आलिया ने बुटीक के पेपर गिरवी रख कर लोन ले कर बड़ी मेहनत से मकान बनवाया था. मकान बेचने का उस का अप्रत्याशित फैसला मुझे हजारों सवालों के रेगिस्तान ले गया जहां दूरदूर तक जवाबों की कोई झील नहीं थी. धीरगंभीर आलिया अपनी समस्याओं को अपनी अम्मी के साथ भी नहीं बांटती थी. कहीं सुन कर अम्मी ने सदमा ले लिया तो क्या होगा. आठ साल से अब्बू के इंतेकाल के बाद अम्मी ही तो उस का एक मात्र सहारा थी. भाई की अचानक मौत के बाद आलिया के अब्बू ने उस के दोनों बच्चों को अपने पास रख कर परवरिश की. उन के मरने के बाद आलिया ने उन के कौल को पूरा करने के लिए कमसिन भाइयों को अपने हाथ ही रखा. एक बुटीक की कमाई और खाने वाले 5 पेट. रबर की तरह कहां तक खिंचती उस की आमदनी. मकान के लोन की किस्त भी हर महीने बदस्तूर जमा करनी पड़ती थी.

आलिया से पूछने की हिम्मत नहीं हुई, लेकिन इतना तो समझ में आ गया कि जरूर कोई बड़ी और गहरी वजह है जिस ने आलिया को इतनी मेहनत और प्यार से बनाए गए मकान का सौदा करने के लिए मजबूर किया है.

आलिया का मकान बिक गया. अम्मा तो काठ की हो गई और विक्की का रोरो कर बुरा हाल था. अग्निहोत्री के परिवार का सामान ट्रक से उतरने लगा. तीन बेटियां, दो बेटे, भरापूरा घर. अग्निहोत्री जी नगर निगम में इंजीनियर थे.

बमुश्किल एक रात ही कटी थी कि दूसरे दिन मजदूरों ने मेन गेट उखाडऩे की प्रक्रिया में इतनी जोर से सब्बल की चोटें मारी कि में दिमाग की नसें तडक़ने लगीं. मेन गेट को चेंज किया गया. कमरों के फर्श की मोजाक उखाड़ कर संगमरमर बिठाया गया. लकड़ी की अलमारियां और कबर्ड बनने लगे. पूरे दिन ठकठक की आवाजें आती रहतीं.

झांसी जैसे कसबे में लोग कहीं न कहीं आपस में टकरा ही जाते. उस दिन औफिस में सहकर्मी ने बर्थडे की पार्टी दी तो मैं ने अग्निहोत्री के मंझले बेटे को उसी होटल में दोस्तों के साथ बियर पीते, मटन खाते देखा. इत्तेफाकन एक दिन देररात को औफिस से लौटने लगा तो अग्निहोत्री को इंग्लिश शराब की दुकान से अखबार में बोतल लपेटे गाड़ी में रखते देखा. कट्टर ब्राह्मण परिवार अपने संस्कारों एवं क्रियाकलापों से वास्तव में कितना ब्राह्मण रह गया है, यह सोच कर ही मन अफसोस से भर गया.

उस दिन शाम को सामान लेने मैं पत्नी और विक्की के साथ खरीदारी कर रहा था कि विक्की जोरजोर से चिल्लाने लगा, ‘आलिया दीदी, आलिया दीदी.’ और स्कूटर से उतर कर भीड़भरी सडक़ की दूसरी तरफ खड़ी आलिया और अम्मी की तरफ तेजी से भागने लगा. आलिया उसे गोद में उठा कर प्यार करने लगी और धीरेधीरे सडक़ पार कर के हमारे पास आ कर खड़ी हो गई.

आलिया की अम्मी दुबली हो गई थी और आलिया का गुलाब सा चेहरा वक्त के थपेड़ों में कुम्हला गया था.

‘‘अम्मा बहुत याद करती हैं आंटी आप लोगों को,’’ पत्नी बोली.

आलिया की आंखें पनीली हो गईं और वह मेरी पत्नी के कंधे पर सिर रख कर फफक पड़ी.

‘‘क्यों बेच दिया आलिया तुम ने मकान? ऐसी क्या मजबूरी थी?’’ मैं अपने अंदर की तल्खी को दबा नहीं सका.

भर्राए गले से हिचकियों के साथ बोले गए आलिया के एकएक शब्द मुझे भीतर तक चीरते चले गए.

‘‘मेरे चचाजात दोनों भाई 28-29 साल के हो कर भी आर्थिक रूप से मेरी कोई मदद नहीं करते थे. सिलाई में कम्पीटिशन और कारीगरों की मनमानी की वजह से बुटीक की आमदनी से 5 लोगों का गुजारा नहीं हो पा रहा था. पिछले 6 महीनों से मैं बैंकलोन की क़िस्त भी जमा नहीं कर सकी थी. बेरोजगार भाई ने लवमैरिज कर एक और जिम्मेदारी मेरे कंधों पर डाल दी. अम्मी काम करने के लिए कहती तो वे दोनों सीनाजोरी पर उतर कर कहते, ‘मकान में हमारा भी हिस्सा है. हम यहीं रहेंगे, जब काम मिलेगा तभी तो करेंगे न.’ तो मैं क्या करती, राजू भाई.”

‘‘लडक़े ने शादी करने से पहले एक बार भी नहीं सोचा कि हमें आसरा देने वाली बड़ी बहन अभी तक कुंआरी है. पहले उस की शादी करना चाहिए. इसलिए मकान बेच कर बैंकलोन चुकाया और एक प्लौट लिया शहर से जरा बाहर. अब वहां दोदो कमरों के 2 मकान बनाए जा रहे हैं. एक दोनों लडक़ों के लिए, एक हम मांबेटी के लिए,’’ आलिया की अम्मी ने खुलासा किया, “अपने की खुदगर्जी और बेहिसी, बेमुरव्वती ही इंसान को तोड़ देती है. जिन भाइयों को पालतेपालते आलिया ने अपनी पूरी कमाई, अपनी उम्र का खुशनुमां वक्त सहरा बना कर गंवा दिया, उन निकम्मे भाइयों ने एक बार भी उम्र गंवाती खुशियों से बेदखल हुई बहन के बारे में नहीं सोचा. बस, यही दस्तूर रह गया अब हमारे समाज का.”

‘‘आलिया बूआ घर चलिए न, दादी आज पंजीरी बनाएंगी. आप को बहुत पसंद है न,’’ विक्की आलिया के गले में नन्हींनन्हीं बांहें डाल कर बोला.

‘‘आएंगे बेटा, आएंगे. जब अग्निहोत्री जी गृहप्रवेश करेंगे तब जरूर आएंगे.’’

घर में घुसते ही विक्की ने सब से पहले अम्मा को आलिया से मुलाकात का विवरण दिया तो अम्मा की आंखों में दरिया उतर आया. बूढ़े चेहरे पर अफसोस और उदासी की रेखाएं खिंच गईं.

पड़ोस से घिसाई मशीन की घर्रघर्र और ठोंकनेपीटने की आवाजें बदस्तूर आ रही थीं.

शाम को दूध लेने डोलची ले कर बाहर निकला तो अग्निहोत्री कार से उतर रहे थे. औपचारिक मुसकान के अदानप्रदान के साथ हाथ मिलाते हुए मैं ने पूछ लिया, “कब कर रहे है गृहप्रवेश. मुझे आलिया के आने का बेसब्री से इंतजार था.”

‘‘अभी समय लगेगा. बहुत सारा काम करवाना बाकी है.’’

‘‘लेकिन मकान तो पूरी तरह से रहने लायक था. आलिया का परिवार 7 सालों से रह रहा था और बहुत अच्छा मेनटेन भी किया था.’’

‘‘ऐक्चुअली, अब हम किचन ओटे की टाइल्स और नीचे का फर्श बदल रहे हैं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘वे लोग मुसलमान थे. सालों से नानवेज पका-खा रहे थे. मसालों के और नानवेज के छींटे टाइल्स और नीचे के फर्श पर पड़े होंगे, फर्श पर रख कर मटनमछली काटा और साफ किया होगा. हम सूर्यकुल के ब्राह्मण हैं. ऐसी जगह भाग का कच्चापक्का खाना कैसे पका सकते हैं. और कमरों की जिस फर्श पर उन्होंने नमाजें और फातेहा पढ़ी होगी, वहां भगवान की मूर्तियां कैसे स्थापित कर सकते हैं. वाइफ तो लैट्रीन के इंडियन और कमोड पौट भी बदलने के लिए जोर दे रही है. मुसलमानों द्वारा उपयोग में लाई गई चीजों का हम ब्राह्मण कैसे प्रयोग कर सकते हैं?’’ अग्निहोत्री जी की तर्कहीन बातें सुन कर मेरे कानों में हजारों अलावे धधकने लगे और दिल में अफसोस का हाहाकार मच गया.

खुद को बहुत संयत करने के बावजूद अपने रोष को छिपा नहीं सका. ‘‘अग्निहोत्री जी, जिन की रसोई के मांसाहारी खानों के छींटे पडऩे के भ्रम में आप ने इतना ज्यादा रुपया और समय बरबाद किया है कि वे लोग मांसाहारी थे, हालांकि वे मांसाहारी नहीं थे. मुसलमान हो कर भी पूरी तरह से शाकाहारी भोजन का सेवन करते थे. प्रतिदिन नहाधो कर घर को मंदिर की तरह साफ रखते थे. रहा सवाल नमाज और फातेहा पढऩे के लिए मुसलमान परिवार द्वारा इस्तेमाल किए गए फर्श को उखाड़ कर नया फर्श लगाने का, तो मुसलमान तो अपनी नमाजों में अपने शरीर के अलावा हिंदुओं की तरह रोली, चंदन, दीयाबाती, फूलपत्ती, नारियल धूप प्रसाद, पानी आदि किसी सामग्री का इस्तेमाल नहीं करते, फिर फर्श के अपवित्र या गंदा होने का प्रश्न ही कहां उठता है?”

अग्निहोत्री मेरी बातें सुन कर स्तब्ध रह गए. और निरुत्तर से बोझिल कदम उठाते हुए मेन गेट से टिके, जड़, मूर्तिवत खड़े के खड़े रह गए.

आत्मनिर्भर औरतें : क्या अपने आत्मविश्वास पर टिकी रही मालती?

“भाभी, ऊपर के टैंक में पानी नहीं चढ़ रहा. सब नहाने के लिए इंतज़ार कर रहे हैं,” नेहा ने धीरे से कान में कहा तो मालती ने अपनी आंसुओं से तर आंखें ऊपर उठाईं.

“मेरे मोबाइल में ‘पानी वाला’ के नाम से नंबर सेव है, उसे फोन कर के बुला लो,” मालती ने जवाब दिया. नेहा ने मालती का मोबाइल ले जा कर अपने छोटे भाई विशाल को दिया और विशाल ने पानी वाले को बुला कर मोटर चालू करवाई.

“मिस्त्री 200 रुपए मांग रहा है,” विशाल ने मालती से आ कर कहा तो अब मालती को उठना ही पड़ा. वह अलमारी में रखे पर्स में से रुपए निकाल कर लाई और विशाल को थमा दिए. महिलाओं के बीच आ कर बैठते ही उस की रुलाई एक बार फिर से फूट पड़ी.

अभी 3 दिन ही तो हुए हैं पति विनय को अंतिम सांस लिए. 10 दिनों की हौस्पिटल की भागदौड़ और डाक्टरों के चक्करों के बाद भी वह अपने पति की सांसें लौटा लाने में कामयाब नहीं हो पाई थी. इस बीच परिवार के किसी सदस्य ने एक बार भी आ कर उस से नहीं पूछा कि उसे किसी प्रकार की कोई जरूरत तो नहीं है. पता नहीं सब ने विनय की बीमारी को गंभीरता से नहीं लिया या मालती की आत्मनिर्भरता को अधिक गंभीरता से लिया.

अरे मालती अकेली ही सब संभाल लेगी. आत्मनिर्भर है वह, जानती है कि कौन सा काम कैसे करना है. सब की सोच यही थी. और शादी के बाद से आज तक वह सब संभाल भी रही थी लेकिन यही आत्मनिर्भरता उस के लिए अभिशाप बन गई.

बेटे की बीमारी की खबर सुन कर सास आई तो थी उस की मदद करने के लिए लेकिन उस के आने से भी उस का काम आसान होने के बजाय बढ़ा ही था. सास भी हर बात के लिए उसी पर निर्भर हो गई थी. यहां तक कि सब्जी-राशन तक के फैसले भी मालती को खुद ही लेने पड़ रहे थे. और फिर अचानक विनय का यों साथ छोड़ जाना… बेचारी मालती तो पति की मृत्यु पर खुल कर रो भी नहीं पा रही थी. क्या करती. जैसे ही कोई नई समस्या आती, सब मालती का मुंह ताकने लगते और फिर उसे अपने आंसुओं को भीतर समेट कर उस समस्या का हल निकालने में जुटना पड़ता, आत्मनिर्भर जो ठहरी.

ससुराल का भरापूरा परिवार छोड़ कर जब मालती विनय के साथ उस की पोस्टिंग पर आई तो एकल परिवार की जिम्मेदारियों से घबरा गई थी. विनय तो सुबह का गया देर शाम तक घर लौटता था और उस पर भी अकसर टूर पर ही रहता था. ऐसे में बिजलीपानी के बिल भरवाने से ले कर बैंकबीमे आदि के काम भी अटकने लगे और बारबार पनेल्टी लगने लगी तो विनय ने उसे आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में पहल करनी शुरू कर दी. धीरेधीरे सारी जिम्मेदारियां मालती अपने ऊपर ओढ़ती गई और विनय चिंतामुक्त हो कर अपनी नौकरी करने लगा.

अपने हिस्से के हर काम उसे सिखाता विनय अनजाने ही उस के भीतर बोए आत्मविश्वास के बीज को पोषितपल्लवित करता जा रहा था. और एक दिन वह आत्मनिर्भरता का बीज वयस्क पेड़ बन उस के भीतर लहलहाने लगा था. लेकिन तब मालती कहां जानती थी कि आत्मनिर्भर होना उस के लिए इतना कष्टदायक हो जाएगा कि पति को याद कर के खुल कर रो भी न सकेगी वह.

उस से कहीं अच्छी दशा में तो मांजी और नेहा ही हैं जो बेशक हर बात में किसी सबल साथ का मुंह ताकती रहती हैं लेकिन कम से कम अपने बेटे और भाई की मृत्यु पर जीभर कर रो तो सकती हैं, यह सोचते ही मालती की हिचकियां बंध जातीं.

सामाजिक औपचारिकताएं पूरी होने के बाद सभी एकएक कर अपने कामधंधे और घरों को लौट गए.

‘यों तो मालती आत्मनिर्भर है, सब संभाल ही लेगी, बस कुछ दिन तुम उस के पास रह भर जाओ ताकि उसे अकेलापन न लगे,’ कहते हुए ससुरजी ने मांजी को उस के पास छोड़ दिया था. मालती कहती भी क्या, रह गईं दोनों सासबहू अकेली.

विनय के जाने के बाद उस की पैंशन, बीमा और ग्रेज्युएटी का भुगतान, अनुकंपा के आधार पर मालती को नौकरी आदि सब के लिए मालती अकेली ही जूझती रही थी.

ओह विनय, क्या इसी दिन के लिए तुम ने मुझे आत्मनिर्भर बनाया था? यह सोच कर मालती रो पड़ती थी. पति की यादों और उन की रिक्तता से उत्पन्न हुए शोक को मजबूती से भीतर दबा कर शारीरिक व मानसिक रूप से थकीहारी जब शाम को लौटती तो मांजी पानी के गिलास के साथ दिनभर की डाक के रूप में समस्याओं का पिटारा भी साथ ही थमा देती थीं.

विनय भी न, गज़ब इंसान था, कहांकहां पांव फंसा रखे थे कुछ नहीं पता…डाक देखतेदेखते मालती का सिर चकराने लगता. कोई म्यूच्यूअल फंड का कागज तो कोई इनकम टैक्स का रिटर्न; कोई किसी पत्रिका की सदस्यता तो कोई किसी सामाजिक संस्था से जुडाव… विनय में जैसे पूरा एक समाज समाया हुआ था. और वह ये सब मालती के भरोसे ही तो किया करता था. कागज संभालती मालती की आंखें भर आतीं.

‘बहू देख तो, यह एक कागज आया था आज,’ मांजी ने एक रजिस्टर्ड पत्र उस के सामने रख दिया. देखा तो विनय के नाम इनकम टैक्स विभाग का नोटिस था. उस के खाते में बीस हजार रुपए का टैक्स बकाया था.

‘यह कैसे संभव है. मैं तो नियम से विनय का टैक्स भरवाती आई हूं. फिर यह चूक कैसे हो गई,’ मालती ने माथा पकड़ लिया. रातभर सोचतीविचारती रही कि पैसे की व्यवस्था कैसे करेगी. कोई राह नहीं सूझ रही थी.

सुबह 10 बजते ही मालती अपने सीए से मिलने पहुंची. उसे नोटिस दिखाया.

‘कहीं किसी अमाउंट की पोस्टिंग में गड़बड़ी है, फ़िक्र की कोई बात नहीं है. मैं ठीक कर देता हूं. विनय जी का कोई टैक्स बकाया नहीं है. आप को तो बल्कि 15 हजार रुपए का रिफंड मिलेगा. बस, थोड़ी सी फौर्मेलिटी करनी पड़ेगी,’ सीए ने विनय का खाता चैक कर बताया तो मालती ने राहत की सांस ली. इसलिए नहीं कि 15 हजार रुपए का रिफंड हो रहा था बल्कि इसलिए कि वह विनय की अपेक्षाओं पर खरी उतरी थी. जिस भरोसे के साथ विनय उसे आत्मनिर्भर बनाना चाहता था आज वह उस विश्वास को हासिल कर पाई थी.

इसी तरह विनय की यादों को सहेजतेसमेटते और जीने के लिए लड़तेजूझते साल बीत गया. जिंदगी एक बार फिर से दबीदबी सी मुसकराने लगी थी. घने पेड़ों को चीरती हुई एक आशा की किरण जमीन पर उतरने को आतुर थी.

मालती को विनय की जगह उस के औफिस में नौकरी मिल गई. आर्थिक तंगी दूर हो गई. अपने काम में डूबने से मालती का मन अवसाद से बाहर आ रहा था. उस का घर और नौकरी के तराजू पर संतुलन बहुत अच्छे से चलने लगा था. ठीक वैसे ही जैसे बांस पर चढ़ी नटनी का चलता है. हां, यह जीवन नट का खेल ही तो है जिसे सब अपनेअपने तरीके से खेलते हैं. कोई रस्सी पर चल कर दूसरे किनारे पहुंच जाता है तो कोई बीच राह में ही गिर पड़ता है.

जिंदगी की गाड़ी फिर से रफ़्तार पकड़ने लगी थी लेकिन वो रास्ते ही क्या जो सीधे गुजरते जाएं. बिना मोड़ के भी कहीं जिंदगी कटी है भला? इसी महीने ससुरजी का रिटायरमैंट है. मांजी तो पहले ही चली गई थीं. मालती भी एक सप्ताह की छुट्टी ले कर गई है. बेटे के जाने के बाद से ससुरजी उसे ही अपना बेटा समझने लगे थे. रिटायरमैंट वाले दिन परिवार सहित सभी दोस्तरिश्तेदार ससुरजी को लिवाने उन के औफिस गए थे.

‘इस औफिस की परंपरा रही है कि रिटायर होने वाले कर्मचारी को विदा करते समय विदाई में भुगतान का चैक दिया जाता है लेकिन कुछ शासकीय समस्याओं के चलते इस बार यह नहीं हो सका, हमें इस का खेद है. जल्द ही सारी औपचारिकताएं पूरी कर ली जाएंगी. हम इन के उत्तम स्वास्थ्य की कामना करते हैं.’ ससुर जी के बौस ने उन के सम्मान में अपना वक्तव्य दिया. सुनते ही विशाल भड़क गया.

‘यह क्या बाबूजी, न पैंशन बनी न ग्रेज्युएटी के पेपर. अगले ही महीने हाथ तंग हो जाएगा. मुझे तो इन सरकारी कामों की अधिक समझ भी नहीं है और अब तो भैया भी नहीं हैं. आप भी इस उम्र में कहांकहां चक्कर काटेंगे,’ विशालजी ने जरा नाराजगी से अपने पिताजी से कहा.

‘कोई बात नहीं. यह मेरी आत्मनिर्भर बहू है न, सब संभाल लेगी,’ ससुरजी ने भरपूर स्नेह के साथ मालती की तरफ देखा तो मालती का चेहरा आत्मविश्वास से दमक उठा लगा मानो विनय ही ससुरजी के चेहरे में से झांक रहा है.

टीस का अंत : प्रेमी की अमानत को संभालती प्रेमिका की कहानी

लेखक – नितेंद्र सागर

स्कूल के पते पर खत आया आराधना मैडम का. आश्चर्य हुआ उन को कि इस मोबाइल के जमाने में खत भी लिख सकता है कोई. अपना पता देखने के बाद जब भेजने वाले का नाम देखा तो आश्चर्यचकित हो कर रह गई. वह भेजने वाला कोई चंद्र था. खत का मजमून इस प्रकार था-
‘मेरा अंतिम समय निकट है, शायद जब तक तुम्हें यह खत मिले, मैं इस दुनिया में न रहूं. हो सके तो मेरे इकलौते बेटे रोहन को अपना लेना. ‘आप का चंद्र.’

खत पढ़ कर आराधना  के पैरों की  जमीन खिसक गई. बीता हुआ कल अचानक वर्तमान में आ कर खड़ा हो गया. जो सोचा नहीं था उस ने   वह हो गया. ‘ओ चंद्र, ओ चंद्र,’ बुदबुदाई वह.  चंद्र जिसे तनमन से चाहा था, जिस के सिवा किसी और की चाह नहीं थी, दुनिया में जिस के बगैर एक पल रहना मुश्किल था उस का खत. उस का दोस्त, उस का प्रेम,  उस का साथी, उस का सबकुछ. चंद्र वक्त की आंधी में कैसे खो गया था. साथ में पढ़ते थे दोनों. चंद्र आराधना को अपना सबकुछ मानता था. मगर आराधना की हिम्मत नहीं हो पाई बगावत करने की. पापा ने जब आनंद से शादी करने को बोला, तो अपने ही मकड़ी के जाल में उलझी हुई आराधना इनकार न कर सकी. देखने में सुंदर और पढ़ने में होशियार आराधना के पिता उसे आगे नहीं पढ़ाना चाहते थे. आराधना  पढ़ना चाहती थी. सौतेली मां ने कहा, ‘नाक कटवाएगी यह हमारी. अगर हम ने इसे आगे पढ़ने दिया तो.’ मजबूरीवश  आराधना ने पापा से कहा कि, ‘मुझे अपनी मरजी से पढ़ने दो, फिर आप जब कहेंगे, जहां कहेंगे, वहां शादी कर लूंगी.’

किसी शायर ने क्या खूब कहा है- ‘प्रेमिकाएं विवाही  जाती हैं सरकारी नौकरियों से, जमीनों से, दुकानों से, नहीं विवाही जातीं वो अपने प्रेमियों से.’ आराधना जानती थी मेरे बगैर चंद्र जिंदा न रहेगा. उस की दुनिया उजड़ जाएगी. उस ने चंद्र से कभी कहा भी था कि चंदर, मैं बहुत कमजोर लड़की हूं. लेकिन तब तक चंद्र अपना सबकुछ आराधना पर वार चुका था. निदा फाजली के शेर को याद करते हुए ‘कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता’ आराधना शादी कर के आनंद के साथ अपनी ससुराल चली गई. छोड़ गई चंद्र को जीवन की मुसीबत का सामना करने इस भरी दुनिया में. अकेला हो गया चंद्र. पहले ही उस का कोई नहीं था. अब दुनिया उजड़ गई उस की.  बीमार हो गया. सरकारी अस्पताल में भरती हुआ. वहां की एक विधवा नर्स, जिस का एक बेटा था, ने चंद्र की बहुत सेवा की. लता नाम था उस का. लता भी अकेली थी, चंदर भी अकेला. दुख ने दुख से बात की बिन चिट्ठी बिन तार. एकदूसरे के मन में सहानुभूति उमड़ी. उन्होंने शादी कर ली. कुदरत जिन के हिस्से में गम लिखती है फिर उस को परेशानियां देती ही जाती है. कुछ लोगों पर कुदरत को कभी रहम नहीं आता. कुछ अपना कर्ज चुकाने के लिए दुनिया में आते हैं. कुछ समय साथ रहने के बाद लता भी चंद्र को छोड़ कर दुनिया से चली गई. एक ऐक्सिडैंट ने उस की जीवनलीला समाप्त कर दी.  रह गया चंद्र और रोहन.  पर जब चंद्र को पता चला किडनी की बीमारी उसे ज्यादा दिन तक दुनिया में नहीं रहने देगी तो उस ने अपने बेटे को अनाथालय में डालने से पहले एक खत आराधना को उस के घर के पते पर न भेज कर उस के स्कूल के पते पर भेजा.

आराधना समझ नहीं पा रही थी क्या किया जाए. चंद्र के बेटे को कैसे अपनाया जाए. अपने पति को कैसे बताया जाए कि, चंद्र कौन था? रोहन कौन था? उस के अपने भी 2 बच्चे थे स्वामी और सोनू. घर पर  आराधना के पति ने उस को परेशान सा देखा तो पूछा, ‘क्या बात है, आराधना, इतनी परेशान क्यों हो? शादी जरूर कर ली थी आराधना ने, मगर अपने मन से दिल से चंद्र को न भुला सकी. जब भी  उसे चंद्र की याद आती थी, उस के मन में एक टीस उभर आती थी. आराधना के मम्मीपापा तो इस दुनिया से चले गए थे, आराधना को दे गए थे चंद्र के नाम की टीस. उस का पति आनंद कभीकभी उस से पूछता था अचानक कभीकभी क्यों खो जाती हो अपनी सुधबुध भूल कर. इस समय आराधना के आंसू बह रहे थे. बहुत सोचने पर उस ने एक निर्णय ले ही लिया. आनंद के  बारबार पूछने पर आज उस ने चंद्र के बारे में सबकुछ बता दिया  और कहा, “यदि तुम रोहन को नहीं अपनाओगे तो मैं रोहन को ले कर तुम्हारी जिंदगी से कहीं दूर चली जाऊंगी और अपने दोनों बेटों को तुम्हें दे जाऊंगी.” इतना कह कर आराधना रोने लगी.

आनंद बहुत देर तक आराधना को देख कर बोला, “तुम ने मुझे अब तक नहीं समझा, आराधना. तुम जबजब सुधबुध खो कर बैठ जाती थी तब मैं समझता था तुम्हारे अंदर कोई सैलाब छिपा हुआ है जो बाहर आना चाहता है. मगर शायद तुम्हारी शर्म है  जो उसे बाहर आने नहीं देती. तुम ने कभी मुझे अपना दोस्त नहीं समझा. बस, एक आदर्श पत्नी का धरम निभाती रही. आज जब तुम ने सब बात  मुझे बता दी है तो मेरा भी निर्णय सुन लो, रोहन को हम सब मिल कर पालेंगे. आज से हमारे दो नहीं, तीन बच्चे हैं.” यह सुन कर आराधना आनंद के चरणों में गिर पड़ी.

सासससुर अजनबियों सा व्यवहार करते हैं, क्या करूं?

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मेरे मम्मीपापा नहीं हैं. मुझे मेरी बूआ ने बड़े लाड़प्यार से पाला. कालेज में साथ पढ़ने वाले फ्रैंड से मेरा अफेयर हुआ और फिर शादी. मैं वर्किंग हूं. मेरे पति इकलौती संतान हैं. खुद के मातापिता न होने के कारण मैं ने शुरू से चाहा था कि अपने सासससुर से बहुत प्यार करूंगी, उन की सेवा करूंगी. लेकिन यहां तो मेरे सासससुर मुझ से दूरदूर रहते हैं. रिश्ते में कोई मिठास नहीं. एक ठंडापन है, पता नहीं क्यों? क्या करूं कि उन का दिल जीत सकूं?

जवाब –

अफसोस की बात है कि आप सासससुर को मानसम्मान देना चाहती हैं जबकि वे आप से दूरी बनाए हुए हैं. क्या आप ने उन से उन के इस व्यवहार का कारण जानने की कोशिश की? क्या वे आप से इसलिए तो नाराज नहीं कि उन के बेटे ने आप से प्रेमविवाह किया? क्या आप दोनों के फैमिली स्टेटस में अंतर है?

वजह कोई भी हो. अब रिश्तों के बीच जमी बर्फ को पिघला कर घर का माहौल खुशनुमा बनाना आप का ही काम है. सब से पहले, इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि रिश्तों को बनने में समय लगता है. सासससुर के साथ समय बिताएंगी तो रिश्तों के बीच की दूरी कुछ समय में घट जाएगी. उन के साथ समय बिताने के लिए आप उन्हें टैक्नोलौजी से रूबरू करा सकती हैं. आप उन्हें मोबाइल चलाना सिखा सकती हैं ताकि वे भी समय के साथ स्मार्ट बन जाएं.

अगर आप उन के साथ समय बिताएंगी तो अपने बौंड को और स्ट्रौंग कर पाएंगी. आप उन के साथ समय बिताने के लिए साथ में टीवी भी देख सकती हैं. औनलाइन गेम्स खेल सकती हैं, बागबानी कर सकती हैं, उन की क्रिएटिविटी को उजागर कर सकती हैं, उन के साथ पार्क जा सकती हैं या आप जिम जाती हैं तो उन्हें भी जिम जौइन करा सकती हैं ताकि वे भी फिट रहें.

फैमिली ट्रिप प्लान करें. वैसे भी फैमिली डे-आउट रिश्तों को करीब लाते हैं और हम अपने प्रियजनों के शौक जान पाते हैं. साथ ही, मन में पड़ चुकी गांठें, नाराजगी दूर कर एकदूसरे को सुनने का बेहतर मौका देती है आउटिंग.

उन की मनपसंद डिश बना सकती हैं. नहीं बना सकतीं तो उन्हें लंच या डिनर पर बाहर ले जाएं या फिर औफिस से आते हुए उन के लिए उन का कुछ मनपसंद खाना ला सकती हैं. आप की इन कोशिशों को देख कर वे खुश हो जाएंगे.

जन्मदिन, शादी की सालगिरह, मदर्सडे व फादर्स डे जैसे खास मौकों पर सरप्राइज गिफ्ट या पार्टी दे कर उन्हें स्पैशल फील करवा सकती हैं. उन्हें उन की पसंद की शौपिंग करवाएं, मूवी दिखलाने ले जाएं. इस सब से उन्हें फील होगा कि आप उन्हें मांपिता का दर्जा देती हैं.

सब से पहले उन्हें अपना दोस्त बनाएं. उन से दोस्ती करें और घर में कोई भी फैसला लेने से पहले एक दोस्त की तरह उन से राय मांगें और उन की अनुमति अवश्य लें. ऐसा करने से उन्हें अच्छा फील होगा.

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फिल्म रिव्यू : औरों में कहां दम था (2 स्टार)

निर्देशक नीरज पांडे को अपनी शानदार थ्रिलर फिल्मों के लिए जाना जाता है. इस बार उस ने यह रोमांटिक फिल्म बनाई है लेकिन वह रोमांस और थ्रिलर में उलझ कर रह गया है. फिल्म शुरुआत में एक बढ़िया लवस्टोरी होने की उम्मीद जगाती है. लेकिन फिल्म की धीमी रफ्तार से दर्शक बोर होने लगते हैं. फिल्म के कई दृश्य रिपीट हैं. फिल्म वर्तमान और फ्लैशबैक में झूलती है.

कहानी कृष्णा (अजय देवगन) और वसुधा (तब्बू) की है. यह कहानी 2001 से 2024 के पीरियड में चलती है. दोनों मुंबई की एक चाल में पड़ोसी थे और एकदूसरे से बहुत प्यार करते थे. कृष्णा को कंपनी की ओर से जरमनी जाने का औफर मिला था. दोनों भविष्य के सुनहरे सपने संजोते, इस से पहले कृष्णा का कुछ बदमाशों से झगड़ा हुआ, जो वसुधा को निशाना बनाने आए थे. कृष्णा ने उन बदमाशों में से 2 को मौत के घाट उतार दिया. उसे उम्रकैद की सजा हो गर्ई थी.

अच्छे चालचलन की वजह से कृष्णा की सजा 2 साल कम हो जाती है. जेल से बाहर आने पर उस का सामना वसुधा से होता है. वसुधा अभिजीत (जिमी शेरगिल) से शादी कर चुकी है लेकिन वह कृष्णा को भुला नहीं पाई है.

यहां कहानी में ट्विस्ट आता है. निर्देशक ने फ्लैशबैक में कृष्णा और वसुधा की मस्त लाइफ को दिखाया है. युवा कृष्णा और वसुधा की भूमिका शांतनु माहेश्वरी और सई मांजरेकर ने निभाई है. दोनों की देहभाषा, चेहरे के भाव, चलना, ठिठकना, शरमाना, मुसकाना सहज ही दिखता है, उस में कोई बनावटीपन नहीं.

कृष्णा की कोई फैमिली नहीं है. जेल से निकल कर वह अपनी पुरानी चाल में आता है. वसुधा, जो अब अभिजीत की पत्नी है, उस से मिलने आती है. अब वसुधा पति को सब सच बताती है कि उन 2 बदमाशों की जान कृष्णा ने नहीं ली थी, बल्कि उस ने (वसुधा ने) खुद ली थी. कृष्णा ने सच्चे प्यार का परिचय देते कत्ल का इलजाम अपने सिर ले लिया था.

फिल्म में अजय देवगन और तब्बू के किरदारों को ज्यादा फुटेज दी गई है. शांतनु माहेश्वरी और सई मांजरेकर ने इन किरदारों में जान डाल दी है. फिल्म की कहानी कमजोर है, रफ्तार धीमी है. क्लाइमैक्स में दर्शक खुद को ठगा सा महसूस करते हैं. फिल्म में अजय देवगन और तब्बू ने अपनी रहस्यमयी चुप्पी से जान डालने की असफल कोशिश की है. फिल्म की 5 मिनट की कहानी को सवा दो घंटे में दिखाया गया है.

सई मांजरेकर और शांतनु महेश्वरी की जोड़ी खूब जमी है. निर्देशक का कहानी कहने का तरीका बहुत उबाऊ लगता है. फिल्म का संगीत कमजोर है. जिमी शेरगिल का काम छोटा है, सिनेमेटोग्राफी अच्छी है.

अगस्त माह का पहला सप्ताह बौलीवुड का कारोबारः दर्शकों ने जान्हवी कपूर, अजय देवगन व तब्बू को सिरे से ठुकराया

बौलीवुड की हालत आंकलनों से ज्यादा खराब चल रही है. 7 माह बीत गए, एक भी फिल्म अपनी लागत तक नहीं वसूल पाई. कुछ फिल्में तो अपनी लागत का दो प्रतिशत भी बौक्सऔफिस पर इकट्ठा नहीं कर पाई लेकिन कलाकारों के अहम चरम सीमा पर हैं. तो वहीं फिल्मों की असफलता के चलते यह कलाकार फ्रस्ट्रेशन के शिकार हो रहे हैं. अब तो हालात ऐसे हो गए हैं कि प्रैस कौन्फ्रैंस में बुलाए गए किराए के अपने ‘नकली फैंस’ के सामने कलाकार पत्रकार को हड़काने से बाज नहीं आ रहा.

ऐसे हालात में अगस्त के पहले सप्ताह यानी कि दो अगस्त को जब अजय देवगन और तब्बू की फिल्म ‘औरों में कहां दम था’ तथा एक लघु फिल्म के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके निर्देशक सुधांशु सरिया व अभिनेत्री जान्हवीं कपूर की फिल्म ‘उलझ’ प्रदर्शित हुई तो उम्मीदें थीं कि यह दोनों फिल्में बौलीवुड को कम से कम उंट के मुंह जीरा वाली सफलता का स्वाद चखा देंगी. लेकिन हुआ उल्टा. फिल्म की शूटिंग के दौरान चाय पीने पर जो धनराशि खर्च हुई होगी, वह राशि भी यह दोेनों फिल्में बौक्स औफिस पर इकट्ठा नहीं कर पाईं.

अजय देवगन,तब्बू, शांतनु माहेश्वरी और साई मांजरेकर अभिनीत तथा ‘बेबी’ सहित तमाम सफलतम फिल्मों के निर्देशक नीरज पांडे द्वारा लिखित व निर्देशित फिल्म ‘औरों में कहां दम था’ प्रेम कहानी नहीं टौर्चर कहानी ही महसूस हुई. लोगों ने एक टिकट पर एक फ्री का औफर भी स्वीकार नहीं किया. इस फिल्म की रिलीज दो बार टाली गई. हर बार रिलीज टालने की वजह यह बताई गई थी कि फिल्म का प्रचार सही नहीं हो पाया लेकिन अंत तक अजय देवगन, तब्बू, शांतनु माहेश्वर या साई मांजरेकर ने पत्रकारों से बात नहीं की. अब इस के लिए यह कलाकार स्वयं दोषी हैं अथवा इन की पीआर टीम व मार्केटिंग टीम दोषी हैं, यह तो यह कलाकार ही बेहतर जानते होंगे.

हां, फिल्म के रिलीज से पहले दोतीन नामचीन गोदी मीडिया वाले टीवी चैनलों पर अजय देवगन और तब्बू गए थे, पर वहां पर भी ये फिल्म के संबंध में चर्चा करने की बजाय अपनी दोस्ती की ही चर्चा करते रहे. अजय देवगन व तब्बू को मान लेना चाहिए कि दर्शक को आप का चेहरा नहीं देखना है. दर्शक को इस बात में रुचि नहीं है कि आप लोग कितने वर्षों से दोस्त हैं. दर्शक मनोरंजन व अच्छा कंटैंट चाहता है. यही वजह है कि निर्माताओं के अनुसार पूरे 8 दिन के अंदर 100 करोड़ रूपए की लागत में बनी फिल्म ‘ओरों में कहां दम था’ महज 10 करोड़ ही कमा सकी. जिस में से निर्माता की जेब में बामुश्किल 4 करोड़ जाएंगे. मगर जानकारी के मुताबिक ,उस के अनुसार इस फिल्म ने बौक्सऔफिस पर 8 दिन में 5 करोड़ रुपए भी नहीं कमाए. फिल्म की इस दुर्गति की वजह खराब प्रचार, खराब कहानी, खराब निर्देशन, कलाकारों का बेमन अभिनय ही रहा. केवल साई मांजरेकर ने बेहतरीन अभिनय किया है.

कथानक के स्तर पर नीरज पांडे ने जो गलतियां की हैं,कम से कम उन के जैसे अनुभवी निर्देशक उसे तो उम्मीद नहीं थी.

अगस्त माह के पहले सप्ताह यानी कि दो अगस्त को प्रदर्शित फिल्म ‘उलझ’ के असफल होने पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ. यदि निर्देशक सुधांशु सरिया को ले कर यह कहा जाए कि ‘बंदर के हाथ में उस्तरा’ दे दिया गया तो गलत नहीं होगा. सुधांशु सरिया इस से पहले चारपांच लघु फिल्में बना कर राष्ट्रीय पुरस्कार जरूर जीत चुके थे, पर फिल्म ‘उलझ’ देख कर समझ में आ गया कि उन के अंदर निर्देशकीय प्रतिभा का घोर अभाव है. फिल्म के प्रदर्शन से पहले वह हवा में उड़ रहे थे.

जब पत्रकारों ने उन से फिल्म के संबंध में बातचीत करने के लिए संपर्क किया तो वह एक ही जवाब देते रहे कि मेरी फिल्म की मार्केटिंग टीम और पीआरओ से संपर्क कीजिए. शायद इसीलिए दर्शकों ने कह दिया कि पीआर टीम क्या तय करेगी, हम ही तय कर देते हैं. जी हां, लंदन में सब्सिडी ले कर लगभग 40 करोड़ में फिल्माई गई जान्हवी कपूर की फिल्म ‘उलझ’ सात दिन में सात करोड़ रुपए ही इकट्ठा कर सकी, इस में से निर्माता को मिलेंगे तीन करोड़ रुपए. वैसे सूत्रों का दावा है कि इस फिल्म ने 4 करोड़ से भी कम कमाए हैं. फिल्म ‘उलझ’ की नायिका जान्हवी कपूर ने तो अपने कैरियर की पहली फिल्म ‘धड़क’ से ही साबित कर दिया था कि उन के अंदर अभिनय प्रतिभा नहीं है, मगर वह तो ‘नेपो किड’ यानी कि निर्माता बोनी कपूर व अभिनेत्री श्रीदेवी की बेटी हैं, इसलिए उन्हें काम मिलता रहेगा.

तलाक : अदालती फैसला एहसान जैसा क्यों, हक जैसा क्यों नहीं

कानपुर की रहने वाली अवनि की शादी हरिद्वार के कार्तिक (दोनों बदले नाम) से 2 मई, 2019 को हुई थी. शादी के 4 दिन बाद ही दोनों को समझ आ गया था कि उन की पटरी किसी भी कीमत पर नहीं बैठेगी. लिहाजा, उन्होंने तलाक लेने का फैसला ले लिया. शादी के महज 25 दिन बाद, 27 मई को दोनों अलग हो गए.

आगे क्या हुआ, इसे जानने से पहले इन दोनों की तारीफ करनी होगी कि उन्होंने परिवार, समाज और दुनिया की परवाह नहीं की कि लोग क्या कहेंगे. कार्तिक और अवनि दोनों की उम्र सिर्फ 20 साल थी, लेकिन जो हिम्मत, समझ और परिपक्वता उन्होंने दिखाई, वह काबिले तारीफ थी. एक बोझिल जिंदगी जीने से तो बेहतर है कि दोनों अलग हो कर आजाद जिंदगी जिएं और अपनी मर्जी के मुताबिक नए सिरे से इस अफसाने को एक खूबसूरत मोड़ पर ले जाएं. क्योंकि अंजाम उन्हें समझ आ गया था कि अच्छा तो होने से रहा.

जब उन्होंने अदालत का रुख किया, तो थोक में बिचौलियों की समझाइशें मिलीं, जिन का कोई असर न होते देख, इन्हें यह ज्ञान भी मिला कि तलाक कोई गुड्डेगुड़ियों का खेल नहीं. इस के लिए कोई आधार तो होना चाहिए. इस पर अवनि ने कार्तिक के खिलाफ दहेज मांगने की रिपोर्ट दर्ज करा दी. मामला परिवार न्यायालय में कोई 2 साल चला, जहां से तलाक तो नहीं मिला, लेकिन अदालत ने कार्तिक को आदेश दिया कि वह अवनि को 20 हजार रुपए महीने भरणपोषण के रूप में दे. इस पर झल्लाए कार्तिक ने नैनीताल हाईकोर्ट की शरण लेते हुए इस फैसले को चुनौती दी.

हाईकोर्ट में कोई 3 साल मामला चला. मुख्य न्यायधीश राकेश थपलियाल और जस्टिस ऋतु बाहरी ने बीती 4 अगस्त को फैसला देते हुए कहा कि पतिपत्नी के बीच कोई भावनात्मक जुड़ाव नहीं है. ऐसे में यह शादी एक बेजान मिलन के अलावा कुछ नहीं है. अगर दोनों पक्षों को तलाक नहीं दिया गया, तो यह दोनों पक्षों के लिए क्रूरता होगी. दोनों के बीच सुलह की कोई गुंजाइश नहीं है. समझौते के तहत हुए इस तलाक में कार्तिक को हुक्म दिया गया कि वह अवनि को स्थायी गुजारा भत्ते के रूप में एकमुश्त 25 लाख रुपये 26 सितंबर तक दे और अदालत को इस की पुष्टि करे.

अब थोड़ी देर के लिए इस मामले को होल्ड पर रखते हुए तलाक के आंकड़ों पर गौर करें, तो भारत उन गिनेचुने देशों में शामिल है जहां तलाक की दर सब से कम है. यहां तलाक की दर महज 0.01 फीसदी है. फोर्ब्स एडवाइजर के मुताबिक, दुनिया में तलाक की सब से ज्यादा दर मालदीव में 5.52 है. कजाकिस्तान में यह दर 4.6 फीसदी और रूस में 3.9 फीसदी है. भारत में तलाक की कम दर के बारे में फोर्ब्स की वेबसाइट झिझकते हुए गोलमोल शब्दों में कहती है कि कम दरों को सख्त कानूनों द्वारा समझाया जा सकता है, जो विवाह को भंग करने की सीमा को सीमित करते हैं. भारत ने 2023 में बिना किसी गलती के तलाक की शुरुआत की, जबकि अमेरिका में यह अधिक उदार नजरिया दशकों से आदर्श रहा है.

अब यह तो भुक्तभोगी ही बेहतर बता सकते हैं कि कानून ही सख्त नहीं हैं, बल्कि कानूनी प्रक्रिया उस से ज्यादा सख्त है. नहीं तो हिंदू मैरिज एक्ट की धारा 13 बी में परस्पर सहमति से तलाक का प्रावधान है, लेकिन उस का उपयोग न के बराबर होता है. वकील से ले कर अदालत का बाबू और जज भी नहीं चाहते कि तलाक आसानी से हो. वजह साफ है कि ये सभी पूजापाठी होते हैं और शादी को ऐसा धार्मिक संस्कार मानते हैं जिस का टूटना धर्म और संस्कृति के लिए खतरा पैदा कर सकता है.

कार्तिक और अवनि का मामला इस का अपवाद नहीं कहा जा सकता क्योंकि तलाक का मुकदमा लगभग 5 साल चला. इस अवधि में दोनों ने कितनी पारिवारिक, सामाजिक और मानसिक पीड़ा भुगती होगी, इस का अंदाजा लगाना सहज नहीं है. इस पर भी हाईकोर्ट ने तलाक की डिक्री अहसान सा थोपते दी, जबकि यह उन दोनों का अधिकार था. हाईकोर्ट को तो इस बाबत खेद व्यक्त करना चाहिए था कि कानूनी खामियों के चलते इन दोनों को खामख्वाह 5 साल परेशानी उठानी पड़ी.

ऐसा कभी होगा, लगता नहीं, क्योंकि विवाह व्यवस्था पंडेपुजारियों की गिरफ्त में है. जो नहीं चाहते कि तलाक की दर बढ़े, क्योंकि ऐसा होने से लोगों का भरोसा धार्मिक रस्मों और मंडप के नीचे ली गई कसमों से उठने लगेगा. आजादी के 77 साल बाद शादी के तौरतरीकों में जो बदलाव आए हैं, उनसे हर कोई वाकिफ है. मसलन पहले तो जमीन पर बैठ कर पंगत खिलाई जाती थी, शादी 10-15 दिन तक चलती थी, बरात 3 दिन किसी स्कूल या खेत में रुकती थी वगैरहवगैरह. इन चर्चाओं और यादों में एक चीज ज्यों की त्यों है, वह है मंडप के नीचे पंडित की अनिवार्य मौजूदगी.

धर्म के इस कारोबार को समझना मुश्किल भले ही न हो, लेकिन इस से छुटकारा पाना नामुमकिन है क्योंकि कोर्ट मैरिज को किसी भी स्तर पर प्रोत्साहन नहीं दिया जा रहा है. विवाह को धार्मिक संस्कार ही मानने की जिद की कीमत अवनि और कार्तिक जैसे लाखों कपल चुकाते हैं, जिन पर वैवाहिक जीवन भले ही वह नर्क तुल्य हो, को ढोने के लिए तरहतरह के दबाव बनाए जाते हैं. जो इस दबाव को मानने से इंकार करते हैं, उन के अदालत की चौखट पर पांव रखते ही ढीले पड़ने लगते हैं. अवनि और कार्तिक को शादी तोड़ने का फैसला लेने में महज 25 दिन लगे थे, लेकिन अदालत ने मंजूरी देने में 5 साल लगा दिए.

यह ठीक है कि अब दोनों आजाद हैं और मर्जी से रह और जी सकते हैं, और चाहें तो दूसरी शादी भी कर सकते हैं. लेकिन अहम सवाल यह है कि तलाक के बाद ही दूसरी शादी क्यों? तलाक की सालोंसाल चलती तकलीफदेह प्रक्रिया के दौरान ही क्यों नहीं? इस सवाल का जवाब बेहद साफ है कि पहली शादी के कानूनी तौर पर न टूटने यानी तलाक होने तक दूसरी शादी करना अपराध है. हालांकि यह एक ऐसा अपराध है, जो पतिपत्नी में से किसी ने नहीं किया होता, लेकिन सजा दोनों को ही भुगतनी पड़ती है.

बेहतर तो यह है कि ‘सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे’ की तर्ज पर पतिपत्नी को शादी कर लेनी चाहिए और कोई सुबूत उस का नहीं छोड़ना चाहिए. ‘लिविंग टूगेदर’ इस के एक आकर्षक और बेहतर विकल्प के रूप में उभरा है, जो लगभग शादी ही होता है. खासतौर से महानगरों में यह तरीका लोकप्रिय है और अब बी-टियर शहरों में भी दिखने लगा है. ‘पहले इस्तेमाल करें, फिर विश्वास करें’ वाला फंडा हर्ज की बात नहीं है. तलाक जब होगा, तब होगा, लेकिन तब तक शादी से जुड़ी सुख और जरूरतें क्यों कोई छोड़े? इस बात पर अब अदालतों को सोचना चाहिए कि तलाक कोई शौक नहीं, बल्कि जरूरत और हक भी है. ठीक वैसे ही जैसे शादी है. लेकिन जब शादी में अदालत का कोई रोल नहीं तो तलाक में इतना लंबा क्यों?

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