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हैवान : स्त्री के धोखे से तबाह युवक की कहानी

लेखक – डा. पी.के. सरीन

सोचतेसोचते डा. पटेल का सिर दर्द से फटने लगा था. उन्होंने घड़ी देखी तो सुबह के 4 बजे थे. पूरा कमरा सिगरेट की गंध से भरा हुआ था. उन्हें याद है कि इस से पहले उन्होंने जीवन में 2 बार सिगरेट पी थी पर इस एक रात में वह 4 पैकेट सिगरेट पी गए थे. दरअसल, शाम को अनीता का फोन आने के बाद डा. पटेल इतना आंदोलित हो गए थे कि अपने बीवीबच्चों से काम का बहाना बना कर रात को अपने नर्सिंग होम में ही रुक गए थे.

हां, उसी अनीता का फोन आया था जिस के लिए मैं पिछले 5 सालों से अपना घरपरिवार, व्यवसाय, यारदोस्त, यहां तक कि अपने 2 मासूम बच्चों को भी भूले बैठा था. उसी अनीता के जहर बुझे शब्द अब भी मेरे कानों में गूंज रहे थे, ‘तुम ने जो कुछ किया वह सब एक सोचीसमझी योजना के तहत किया है. तुम इनसान नहीं, हैवान हो. मेरे देवता समान पति को तुम ने बरबाद कर दिया.’

डा. पटेल सोच रहे थे कि बरबाद तो मैं हुआ, समाज में मेरी बदनामी हुई, शारीरिक रूप से अपंग मैं हुआ, प्रोफेशनल रूप से जमीन पर मैं आ गया, और वह सिर्फ अनीता की खातिर, फिर भी उस का पति देवता और मैं हैवान. इसी के साथ डा. पटेल के दिमाग में पिछले कुछ सालों की घटनाएं न्यूजरील की तरह उभरने लगीं.

मैं डा. पटेल. इसी उदयपुर में पलाबढ़ा और यहीं से सर्जरी में एम.एस. करने के बाद सरकारी नौकरी में न जा कर अपना निजी नर्सिंग होम खोला. छोटा शहर, काम करने की लगन और कुछ मेरे मिलनसार व्यक्तित्व ने मिल कर मरीजों पर इस कदर असर छोड़ा कि 3-4 साल के भीतर ही मेरा नर्सिंग होम शहर का नंबर एक नर्सिंग होम कहलाने लगा था.

शहर और आसपास के डाक्टर भी मेरे नर्सिंग होम में सर्जरी के लिए अपने मरीजों को पूरे विश्वास के साथ भेजने लगे. मेरी पत्नी उदयपुर विश्वविद्यालय में लेक्चरर थी, हर तरह से सुखी, संतुष्ट जीवन गुजर रहा था कि अनीता से मेरी मुलाकात हो गई. अनीता मेरे ही एक नजदीकी दोस्त गजेश की बीवी थी. गजेश रामकरण अंकल का बेटा था और रामकरण अंकल के एहसानों तले मैं पूरी तरह से दबा हुआ था.

यह बात तब की है जब अपने नर्सिंग होम को जमाने के लिए मुझे कुछ सर्जरी के उपकरण खरीदने के लिए एक बैंक गारंटर की जरूरत थी. ऐसे में काम आए मेरी पत्नी के दूर के एक रिश्तेदार रामकरण अंकल, जो उदयपुर में ही शिक्षा विभाग में क्लर्क थे. रामकरण अंकल ने बैंक गारंटर बन कर मेरी समस्या को हल किया था और मैं यह कभी न भूल सका कि इसी बैंक गारंटी की वजह से मेरा यह नर्सिंग होम स्थापित हो पाया जोकि बाद में नई ऊंचाइयों तक पहुंचा.

रामकरण अंकल का बेटा गजेश एक तेजतर्रार, महत्त्वाकांक्षी नौजवान था जिसे पिता ने जोड़तोड़ कर के डिगरी कालिज में तकनीशियन की नौकरी दिलवा दी थी. रामकरण अंकल द्वारा बैंक गारंटी दिए जाने के बाद गजेश का मेरे नर्सिंग होम में आनाजाना बहुत बढ़ गया और अपने कालिज के बजाय वह अपना आधा दिन मेरे नर्स्ंिग होम में गुजारता था. वैसे इस के पीछे भी एक कारण था जो मुझे बाद में पता चला था, और वह था अनीता से उस का अफेयर. जी हां, इसी अनीता से जिस के आज के फोन के बाद मैं अपने अतीत में झांकने को मजबूर हुआ हूं.

अनीता गजेश की रिश्तेदारी में ही एक खूबसूरत मृगनयनी थी जो उसी डिगरी कालिज से एम.फिल. कर रही थी, जिस में गजेश तकनीशियन था. अपने पिता के पैसे के बल पर मोटरसाइकिल पर घूमने और अकड़ कर रहने वाले गजेश पर अनीता ऐसी फिदा हुई कि वह अपने घर वालों के सख्त विरोध के बावजूद गजेश के साथ प्रेम बंधन में बंध गई.

मुझे तो बाद में पता चला कि यह प्रेम की लता भी मेरे ही नर्सिंग होम में पलीबढ़ी और परवान चढ़ी थी. और प्रेम का यह खेल तब शुरू होता था जब मैं दोपहर में खाना खाने घर जाता था. गजेश तब मेरे वापस आने तक अनीता को वहीं नर्सिंग होम में ही बुला लेता था और दोनों कबूतर की तरह तब तक गुटरगूं करते रहते थे. मुझे जब यह सब पता चला तो बुरा लगा था लेकिन गजेश की खुशी को ही उस समय मैं ने अपनी खुशी समझा और रामकरण अंकल पर दबाव बना कर मैं ने उन दोनों के प्रेम को विवाह के अंजाम तक पहुंचाया था.

दरअसल, अनीता के घर वालों की जिद को देखते हुए रामकरण अंकल ने भी गजेश की शादी कहीं और करने का मन बना लिया था. और गजेश को भी अपनी इज्जत का वास्ता दे कर तैयार कर लिया था, जबकि अनीता के घर वाले अपनी एम.फिल. कर रही बेटी के भविष्य को देखते हुए मात्र एक तकनीशियन और वह भी सिर्फ एक स्नातक, को उस के लायक न मानते थे.

गजेश महत्त्वाकांक्षी था और अपनी महत्त्वाकांक्षा के चलते एक बार वह शेयर बाजार में 50 हजार की रकम डुबो चुका था. इस के बाद भी गजेश ने 2-3 ऐसे बिजनेस अपने पुराने दोस्तों के साथ मिल कर किए थे जिस का ‘कखग’ भी वह नहीं जानता था. नतीजा उस घुड़सवार जैसा ही हुआ था जो पहली बार घुड़सवारी करता है.

इस तरह अपने पिता के लगभग 2 लाख रुपए गजेश डुबो चुका था. मजे की बात यह है कि मेरे साथ लगभग आधा दिन गुजारने वाले गजेश ने अपने इन कारनामों को भी मुझ से छिपा कर अंजाम दिया था. मुझे तो तब पता चला जब तकाजे वाले गजेश को ढूंढ़ते हुए मेरे नर्सिंग होम के चक्कर लगाते नजर आए.

एक दिन मैं ने गजेश को अपने पास बैठा कर कहा था, ‘यह सब क्या है गजेश, अगर तुम्हें कोई काम करना ही था तो पहले मुझ से सलाह ले ली होती. बड़े होने के नाते कुछ अनुभव तो मैं भी रखता हूं, कोई अच्छी सलाह ही तुम्हें देता.’

गजेश ने उस दिन अपनी महत्त्वाकांक्षा फिर मेरे सामने दोहराई थी कि वह सारी उम्र तकनीशियन बन कर नहीं सड़ना चाहता है, बल्कि किसी व्यापार के जरिए धन कमा कर बहुत बड़ा आदमी बनना चाहता है. उस की योजना के बारे में पूछने पर गजेश ने मुझे बताया था कि यह शहर विस्तार के पथ पर अग्रसर है तो क्यों न हम इस नर्सिंग होम को ‘अस्पताल शृंखला’ के रूप में फैलाएं.

एक बार तो मैं ने गजेश की योजना को उस की कल्पना की कोरी उड़ान बता कर नजरअंदाज कर दिया लेकिन जब उस ने यह बताया कि वह शहर से 10 किलोमीटर दूर एक नई निर्माणाधीन कालोनी में सस्ते में जगह ले चुका है और अगर मैं अपना नाम दे कर अनीता को साथ ले कर इस दिशा में कदम उठाऊं तो भविष्य में उस के लिए बहुत अच्छा रहेगा. इस प्रस्ताव पर मैं ने गंभीरता से सोचा था.

एक तो मैं अपनी स्थिति से पूर्णतया संतुष्ट था, दूसरे, रामकरण अंकल के एहसानों का कुछ बदला चुकाने का मौका देख कर मैं ने हामी भर दी. तुरंत युद्धस्तर पर भवननिर्माण का काम शुरू हो गया और अब से ठीक 5 साल पहले वह घड़ी भी आ गई थी जब विधिवत ‘पटेल गु्रप्स आफ हास्पिटल्स’ अस्तित्व में आया था, जिस का मैनेजिंग डायरेक्टर मैं ने अनीता को बनाया था. बस, यहीं से शुरू होती है मेरी चाहत की कहानी, कदम दर कदम धोखे की, जो आज इस अंजाम पर पहुंची है.

गजेश के साथ यह तय हुआ कि मैं अनीता को अपने साथ रख कर डेढ़ साल तक उसे अस्पताल मैनेजमेंट के गुर सिखाऊंगा जिस से कि वह सबसेंटर को पूरी तरह संभाल सके और मैं घूमघूम कर अपनी शाखाओं को संभालता रहूंगा.

मैं शुरू से ही अपने इस काम में पूरे उत्साह से लग गया. अपने हर डाक्टर को अनीता से मिलवाया, किस को कैसे हैंडल करना है, इस के गुर बताए, यहां तक कि मैं खुद परदे के पीछे हो गया और सामने परदे पर अनीता की छवि पेश करने लगा. मुझ पर उसे आगे बढ़ाने का जैसे जनून सा सवार हो गया था. मैं चाहने लगा था कि दुनिया अनीता को शहर की नंबर वन बिजनेस लेडी के रूप में जाने, क्योंकि उस ने मुझे अपनी यही चाहत बताई थी और उस की चाहत को पूरा करना मैं ने अपना लक्ष्य बना लिया था.

अनीता की ओर से मुझे पहला धक्का तब लगा जब 6 महीने बाद उस ने यह बताया कि वह गर्भवती है. न जाने क्यों पहली बार मैं अपने को ठगा सा महसूस करने लगा. कहां तो मैं कल्पना कर रहा था कि साल भर में वह मेरे कंधे से कंधा मिला कर इस अस्पताल शृंखला को आगे बढ़ाने में मेरी मदद करेगी और कहां अभी से वह परिवार बढ़ाने में ही अपना सुख देख रही है, जबकि उस की बड़ी बच्ची अभी मात्र डेढ़ साल की ही थी.
हालांकि मुझे यह सोचने का हक नहीं था मगर उस से भावनात्मक रूप से शायद मैं इतना जुड़ गया था कि अपने सिवा किसी और से उस के रिश्ते को भी नकारने लगा था. अब तक अनीता सिर्फ दोपहर तक ही मेरे साथ रहती थी, जबकि मैं चाहता था कि वह सुबह से शाम तक मेरे साथ रहे और अस्पताल के संचालन में मेरी तरह वह भी पूरी डूब जाए.

मैं ने किसी तरह से यह कड़वा घूंट हजम किया ही था कि अनीता ने एक नई योजना बना ली. उस के कहने पर मैं ने अपनी अस्पताल शृंखला को कंप्यूटरी- कृत किया और अब वह चाहती थी कि स्वयं कंप्यूटर सेंटर जा कर कंप्यूटर सीखे. मैं ने उसे समझाया कि अभी तुम अस्पताल में 5-6 घंटे ही दे पाती हो, कंप्यूटर सीखने जाओगी तो यह समय और भी कम हो जाएगा, और फिर तुम्हें कंप्यूटर सीख कर करना भी क्या है. लेकिन उस की जिद के आगे मेरी एक न चली और अब अस्पताल में उस का समय केवल 2 घंटे का ही रह गया. मैं ने दिल को यह सोच कर तसल्ली दी कि 6 महीने बाद तो अनीता मुझे पूरा समय देगी ही, लेकिन तभी उस ने एक बेटी को जन्म दिया और 3 महीने के लिए वह घर बैठ गई.

शहर में पहला फैशन डिजाइनिंग कोर्स खुला तो अनीता ने नर्सिंग होम के कामों में मुझे सहयोग करने के बजाय 2 साल का डिजाइनिंग कोर्स करने की जिद पकड़ ली और मैं ने उस की यह इच्छा भी पूरी की. धीरेधीरे मैं उस के इस नए काम में इतना डूब गया कि मेरे मिलने वाले मजाक में मुझे टेलर मास्टर कहने लगे.

ड्रेस डिजाइनिंग के कोर्स में अनीता के फर्स्ट आने के जनून में मैं इतना खो गया कि अब अपने अस्पताल को एक जूनियर सर्जन के हवाले कर के अनीता के साथ घूमता, कभी उसे क्लास में ले जाता तो कभी प्रेक्टिकल के लिए कपड़ा, धागे, सलमेसितारे लेने बाजार के चक्कर काटने लग जाता. नतीजा, मेरा बिजनेस घट कर आधा रह गया, लेकिन मैं न चेता क्योंकि तब मुझ पर अनीता का नशा छाया हुआ था.

मेरी एकमात्र चाहत यही थी कि अनीता जिस क्षेत्र में भी जाए, नंबर वन रहे और वह दुनिया से कहे कि देखो, यह वह इनसान है जिस के कारण आज मैं तरक्की की बुलंदी पर हूं. जब वह एकांत में मुझे यह श्रेय दे कर कहती कि मैं उस का सबकुछ हूं तो मैं फूला नहीं समाता था. और इसी तरह की एक भावनात्मक घड़ी में एकदिन वह समर्पित भी हो गई.

आखिर वह दिन आया जब अनीता को डिजाइनिंग सेंटर द्वारा आयोजित एक शानदार समारोह में बेस्ट फैशन डिजाइनर की उपाधि हासिल हुई. मुझे धक्का तो उस दिन लगा जब मुझे उस समारोह में अपने साथ ले जाने लायक उस ने न समझा. अगले दिन के अखबार भी मुझे मुंह चिढ़ा रहे थे. शहर की बेस्ट फैशन डिजाइनर अनीता ने अपनी सफलता का पूरा श्रेय अपने पति को दिया, जिन के ‘मार्गदर्शन’ और ‘सहयोग’ के बिना वह यह उपलब्धि हासिल न कर पाती.

उस दिन मुझे पहली बार लगा कि मैं सिर्फ एक सीढ़ी मात्र हूं जिस पर पैर रख कर अनीता सफलता के पायदान चढ़ना चाहती है और इस काम में उस के पति गजेश का उसे पूरा समर्थन हासिल है. होता भी क्यों न. मुझ जैसा एक काठ का उल्लू जो उसे मिल गया था, जिस के बारे में वह समझ चुकी थी कि मैं उस की किसी भी इच्छा के खिलाफ नहीं जा सकता था. उस की सब इच्छाएं मैं ने पूरी कीं और जब श्रेय लेने की बारी आई तो पतिदेव सामने आ गए.

अब मैं अंदर ही अंदर घुटने लगा, किसी से कुछ कह सकता नहीं था क्योंकि मैं ने अपनी बीवी तक को इस जनून के चलते पिछले 3 साल से अनदेखा कर रखा था और हमारे बीच के संबंध तनावपूर्ण नहीं तो कम से कम मधुर भी नहीं रह गए थे. वह पढ़ीलिखी समझदार औरत थी लेकिन सबकुछ देखजान कर भी चुप थी, तो वजह अनीता का रामकरण अंकल की बहू होना था, जिसे वह अपने पिता के समान ही मानती थी.

अनीता की बेवफाई से टूटा मैं अपने दर्द किस के साथ बांटता, क्योंकि घरपरिवार, नातेरिश्तेदार, यारदोस्त सब तो मुझ से दूर हो गए थे. ऐसे मौके पर मैं नशे की गोलियों का सहारा लेने लगा. डाक्टर होने की वजह से मुझे ये गोलियां सहज उपलब्ध थीं. धीरेधीरे हालत यह हो गई कि मैं अस्पताल में सुबह ही नशे में गिरतापड़ता पाया जाने लगा. घर पर भी नशे की झोंक में अनीता का गुस्सा मैं अपने बीवीबच्चों पर निकालने लगा और धीरेधीरे बच्चे मुझ से दूर होने लगे.

नशे की मेरी लत अब और भी बढ़ गई थी. तभी एक दिन सुबह उठने पर मुझे लगा कि मेरे दाएं हाथ ने लकवे के कारण काम करना बंद कर दिया है, मैं अपाहिज हो गया. 2 दिन तो मैं ने शौक की स्थिति में गुजारे लेकिन फिर इसे ही अपनी नियति मान कर काम पर आना शुरू कर दिया. नए रखे कारचालक की मदद से कार में बैठ कर अस्पताल आ जाता. सर्जरी के लिए तो अब मैं पूरी तरह से अपने जूनियर सर्जन पर निर्भर हो गया, लेकिन दिल में फिर भी एक चाह थी कि शायद अब अनीता आएगी और गंभीरतापूर्वक अस्पताल को संभालेगी.

मेरी यह हसरत कभी पूरी न हो पाई. हां, मेरी बीमारी का सहारा ले कर अस्पताल में गजेश की दखलंदाजी बढ़ती गई. उस दिन तो हद ही हो गई जब एक पार्टी में मेरे सीनियर डा. हेमेंद्र ने मेरा परिचय किन्हीं मि. सिंघवी से ‘पटेल गु्रप्स आफ हास्पिटल्स’ के रूप में करवाया तो सिंघवी अविश्वास से मेरी तरफ देखते हुए कहने लगे कि उस के मालिक तो मेरे दोस्त मि. गजेश हैं, ये कौन हैं? दूसरा झटका मुझे गजेश के पड़ोसी वर्माजी ने यह पूछ कर दिया कि और आप भी गजेशजी के अस्पताल में कार्यरत हैं?

मैं दंग रह गया. अपने ही अस्पताल में मैं अपरिचित हो गया. मेरी आंखें खुलीं, लेकिन अभी भी अनीता के प्यार के खुमार ने जकड़ रखा था मुझे, हालांकि वह अब मुझ से खिंची सी रहने लगी थी.

इसी दौरान मेरे अस्पताल में एक मरीज की मौत को ले कर हंगामा मच गया. शहर के सभी अखबारों ने इस घटना को नमकमिर्च लगा कर छापा. इस घटना के बाद मेरे रहेसहे व्यापारिक संबंध भी कन्नी काटने लगे और व्यावसायिक दृष्टि से मैं धरातल पर आ गया. अब अनीता ने नजरें बिलकुल फेर लीं और खुलेआम मेरी बरबादी का जिम्मेदार वह मुझे ही बताने लगी. उस वक्त तो मेरी हैरानी की सीमा न रही जब उस ने मुझे कहा कि पिछले कई सालों से उस के पति गजेश ने अस्पताल को संभाल रखा था, वरना तुम्हारी वजह से तो यह अस्पताल चलने से पहले ही बंद हो जाता.

आज शाम को एक छोटी सी बात पर गजेश बदतमीजी पर उतर आया और मेरे कर्मचारियों के सामने वह चिल्ला- चिल्ला कर कहने लगा कि पिछले कई सालों से मैं तुम्हें सहन कर रहा हूं. यह सुन कर मैं सन्न रह गया, लेकिन फिर मैं ने संभल कर कहा, ‘मेरे दोस्त, तुम वाकई मुझे सहन कर रहे हो तो अब कोई मजबूरी नहीं है मुझे सहन करने की, अब तो मैं अपाहिज हो चुका हूं.’

गजेश चीख कर बोला, ‘तू मुझ से कह दे, मैं कल से तेरे अस्पताल में झांकूंगा भी नहीं.’ मैं ने कहा, ‘कल किस ने देखा है, मैं आज ही कह रहा हूं,’ वह तुरंत मुड़ा और निकल गया वहां से, जैसे कि वह यहां से जाने का बहाना ही तलाश रहा हो.

उस के जाने के घंटे भर बाद अनीता का फोन आया, ‘तुम ने जो कुछ किया वह सब एक सोचीसमझी स्कीम के तहत किया. तुम्हें मेरा शरीर पाना था सो वह तुम पा गए. तुम इनसान नहीं, हैवान हो. मेरे देवता समान पति को तुम ने बरबाद कर दिया.’ अनीता के कहे ये शब्द मुझे अतीत की इन कड़वी यादों में झांकने को मजबूर कर रहे थे और मैं अब भी यही सोच रहा हूं कि प्लान से मैं चला या गजेश, हैवान मैं हुआ या गजेश, उत्तर आप ही दें, न्याय आप ही करें.

पिछवाड़े की डायन : ओझाओं और पुजारियों की ऐशगाह क्यों था वह गांव

इस वीरान घाटी में रहते हुए मुझे तकरीबन एक साल हो गया था. वहां तरहतरह के किस्से सुनने को मिलते थे. घाटी के लोग तमाम अंधविश्वासों को ढोते हुए जी रहे थे.

तांत्रिक और पाखंडी लोग अपने हिसाब से तरहतरह की कहानियां गढ़ कर लोगों को डराते रहते थे. वह घाटी ओझाओं और पुजारियों की ऐशगाह थी. पढ़ाईलिखाई का वहां माहौल ही नहीं था.

जब मैं घाटी में आया था, तो लोगों द्वारा मुझे तमाम तरह की चेतावनियां दी गईं. मुझे बताया गया कि मधुगंगा के किनारे दिन में पिशाच नाचते रहते हैं और रात में भूत सड़क पर खुलेआम बरात निकालते हैं.

एकबारगी तो मैं बुरी तरह से डर गया था, लेकिन नौकरी की मजबूरी थी, इसलिए मुझे वहां रुकना पड़ा. बस्ती से तकरीबन सौ मीटर दूर मेरा सरकारी मकान था. वहां से मधुगंगा साफ नजर आती थी. मेरे घर और मधुगंगा के बीच 2 सौ मीटर चौड़ा बंजर खेत था, जिस में बस्ती के जानवर घास चरते थे.

मेरे घर से एकदम लगी कच्ची सड़क आगे जा कर पक्की सड़क से जुड़ती थी. अस्पताल भी मेरे घर से आधा किलोमीटर दूर था.

मैं एक डाक्टर की हैसियत से वहां पहुंचा था. जाते ही डरावनी कहानियां सुन कर मेरे होश उड़ गए. कुछ दिनों तक मैं वहां पर अकेला रहा, लेकिन मुझे देर रात तक नींद नहीं आती थी.

विज्ञान पढ़ने के बावजूद वहां का माहौल देख कर मैं भी डरने लगा था. रात को जब खिड़की से मधुगंगा की लहरोें की आवाज सुनाई देती, तो मेरी घिग्घी बंध जाती थी. आखिरकार मैं ने गांव के ही एक नौजवान को नौकर रख लिया. वह भग्गू था. बस्ती के तमाम लोगों की तरह वह भी घोर अंधविश्वासी निकला.

मेरे मना करने के बावजूद वह उन्हीं बातों को छेड़ता रहता, जो भूतप्रेतों और तांत्रिकों के चमत्कारों से जुड़ी होती थीं.भग्गू के आने से मुझे बड़ा सुकून मिला था. वह मजेदार खाना बनाता था और घर के तमाम काम सलीके से करता था. वह रहता भी मेरे साथ ही था. उसे साथ रखना मेरी मजबूरी भी थी. उस बड़े घर में अकेले रहना ठीक नहीं था.

कहीसुनी बातों से कोई खौफ न भी हो, तो भी बात करने के लिए एक सहारा तो चाहिए ही था. भग्गू ने मेरा अकेलापन दूर कर दिया था.

वहां नौकरी करते हुए एक साल बीत गया. इस बीच मैं ने पिशाचों की कहानियां तो खूब सुनीं, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी भूतपिशाच या चुड़ैल का सामना करना पड़ा हो.

अब तो मैं वहां रहने का आदी हो गया था. इलाके के लोग मुझ से खुश रहते थे. दिन हो या रात, मैं मरीजों को हर समय देखने के लिए तैयार रहता था. मुझे इन गरीब लोगों की सेवा करने में बड़ा सुकून मिलता था.

आमतौर पर मेरे पास मरीज तब आते थे, जब बहुत देर हो चुकी होती थी. पहले वे लोग झाड़फूंक कराते थे, फिर तंत्रमंत्र आजमाते थे और आखिर में अस्पताल आते थे. इसी वजह से कई लोग भयानक बीमारियों की चपेट में आ गए थे.

मैं ने महसूस किया था कि तांत्रिक, ओझा और नीमहकीम जानबूझ कर लोगों का सही इलाज न कर अपने जाल में फंसा लेते हैं और फिर उन का जम कर शोषण करते हैं. घाटी में मैं इलाज के लिए मशहूर हो गया था. मुझ से उन पाखंडी लोगों को बेहद चिढ़ होती थी.

स्वोंगड़ शास्त्री की अगुआई में उन्होंने मेरी खिलाफत भी की, लेकिन वे अपने मकसद में कामयाब नहीं हुए. यहां तक कि उन्होंने मुझे नीचा दिखाने के लिए तमाम तरह के हथकंडे अपनाए. आखिरकार उन्होंने हार मान ली.

स्वोंगड़ शास्त्री के लिए मेरे मन में ऐसी नफरत भर गई थी कि मैं ने उस से बात करना ही बंद कर दिया था. उस धूर्त से शायद मैं कभी नहीं बोलता, मगर एक घटना ने मेरा मुंह खुलवा दिया. वह पूर्णिमा की रात थी. धरती चांदनी की दूधिया रोशनी में नहा रही थी. घर के पिछवाड़े की खिड़की से मैं मधुगंगा की मचलती लहरों को साफ देख सकता था. धरती का यह रूप कभीकभार ही देखने को मिलता था. उस रात को मैं ने जो कुछ भी देखा, वह रोंगटे खड़ा कर देने वाला था.

रात के 10 बज चुके थे. बस्ती के लोग गहरी नींद में सो रहे थे. पिछलीरात भयंकर तूफान आया था, इसलिए बिजली गुल थी. मैं चारपाई पर बैठा पिछवाड़े की खिड़की से बाहर का नजारा देख रहा था.

अभी मैं मस्ती में डूबा ही था कि सामने बंजर खेत में झाडि़यों के बीच एक चेहरा दिखाई दिया. सफेद धोती में लिपटी एक औरत घुटनों के बल बैठी थी. उस के सिर का पल्लू पूरे मुंह को ढके हुए था. उस का दायां हाथ नहीं हिल रहा था, लेकिन बायां हाथ लगातार हिलता जा रहा था. ऐसा लगता था, मानो अपना हाथ हिला कर वह मुझे अपनी तरफ बुला रही है.

मेरी रगों में दौड़ता खून जैसे जम कर बर्फ बन गया. मेरे माथे पर पसीने की बूंदें निकल आईं. काफी देर तक मैं उस चेहरे को देखता रहा.

वह अपनी जगह उसी तरह बैठी हाथ हिला रही थी. मैं टौर्च जला कर भग्गू के कमरे की ओर गया. वह सो रहा था. मैं ने उसे जोर से हिला कर जगाना चाहा, पर वह बारबार ‘घूंघूं’ करता और करवट बदल कर मुंह फेर लेता था हार कर मैं ने उस के कान में फुसफुसाया, ‘‘उठो भग्गू, पिछवाड़े में देखो तो क्या है?’’

‘‘क्या है…?’’ उस की नींद उड़ गई. वह सकपका कर उठ बैठा.

‘‘चलो मेरे साथ… अपनी आंखों से देख लो…’’ कहते हुए मैं भग्गू को अपने कमरे तक ले आया.

भग्गू ने ज्यों ही उस चेहरे को देखा, वह कांपता हुआ मुझ से लिपट गया. सामने का नजारा देखते ही वह देर तक हांफता रहा और फिर बोला, ‘‘आज तो मौत सामने आ गई, साहब. डायन है वह. उस ने हमें देख लिया है, इसलिए हाथ हिला कर बुला रही है.

‘‘अब स्वोंगड़ शास्त्री ही हमें बचा सकते हैं. पर उन के घर जाएं कैसे? बाहर निकलते ही दुष्ट डायन हमारा खून पी जाएगी. मर गए आज…’’

अचानक बाहर सड़क से खांसी की आवाज सुनाई दी. मेरी जान लौट आई. जान बचाने को आतुर भग्गू ने लपक कर दरवाजा खोला और बाहर झांका. अचानक उस का चेहरा खिल उठा. कंधे पर झोला लटकाए स्वोंगड़ शास्त्री आते हुए दिखे.

उन्हें देखते ही भग्गू जोर से चिल्लाया, ‘‘बचाओबचाओ… शास्त्रीजी, इस दुष्ट डायन से हमें बचाओ…’’

मैं ने पिछवाड़े की ओर देखा. वह डायन अभी भी हाथ हिला कर हमें बुला रही थी. इसी बीच स्वोंगड़ शास्त्री भी वहां आ गया.डरा हुआ भग्गू उन के पैर पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगा, ‘‘किस्मत से ही आप इतनी रात को दिख गए, शास्त्रीजी. आप नहीं आते, तो डायन हमें मार डालती…’’

‘‘मैं तो पास वाले गांव से पूजा कर के लौट रहा था, भग्गू. तू चिल्लाया तो चला आया, वरना साहबों की चौखट लांघना मेरे जैसे तांत्रिक की हैसियत में कहां…?’’

शास्त्री मुझे ही सुना रहा था, लेकिन मेरी समस्या यह थी कि उस समय मुझे उस की मदद चाहिए थी. मैं ने मुड़ कर पिछवाड़े की ओर देखा. डायन अभी भी हाथ हिलाए जा रही थी.

मैं डर गया और माफी मांगते हुए बोला, ‘‘माफ करना, शास्त्रीजी. भूलचूक हो ही जाती है. इस समय आप ही हमें बचा सकते हैं. वह देखिए पिछवाड़े में. 2 घंटे बीत गए, पर वह डायन अभी भी वहीं बैठी है. आप कुछ कीजिए.’’

पिछवाड़े में बैठी डायन का चेहरा देख कर एकबारगी स्वोंगड़ शास्त्री भी डर गया. उस के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं. डर के मारे उस का हलक सूख गया. भग्गू से एक लोटा पानी मांग कर उस ने पूरा लोटा गटक लिया.

फिर स्वोंगड़ शास्त्री बोला, ‘‘पहली बार मैं इतनी अनाड़ी चुड़ैल को देख रहा हूं. आज यह यहां तक आ पहुंची है. बहुत भयंकर है यह… लेकिन, तुम चिंता न करो. मैं मंत्र पढ़ता हूं.’’स्वोंगड़ शास्त्री मंत्र पढ़ने लगा. मंत्र पढ़ते हुए उस का चेहरा इतना भयानक हो रहा था कि डायन से कम, उस से ज्यादा डर लग रहा था. उस ने आंखें मूंद ली थीं और मंत्रों की आवाज के साथ हाथों से अजीबअजीब इशारे भी कर रहा था.

अचानक जोर की हवा चली और पिछवाड़े में बैठी डायन ने दिशा बदल ली. उस ने सिर झुका लिया और उस का हिलता हाथ भी थम गया. भग्गू के चेहरे पर मुसकान तैर गई, लेकिन मेरा माथा ठनक गया.

‘‘धन्यवाद शास्त्रीजी, आप ने बहुत मंत्र पढ़ लिए, लेकिन यह डायन अपनी जगह से हिल नहीं रही है. अब मैं खुद जा कर इस से निबटता हूं,’’ कहते हुए मैं बाहर को लपका.

‘‘पगला गया है क्या? खून चूस डालेगी वह तेरा…’’ शास्त्री ने गुस्से में आ कर कहा, लेकिन मैं बाहर निकल कर डायन की ओर बढ़ा.

‘‘रुक जाओ साहब…’’ भग्गू चिल्लाया, मगर तब तक मैं डायन के एकदम सामने जा पहुंचा था.

एक सूखी झाड़ी पर पुरानी धोती कुछ इस तरह से लिपटी थी कि दूर से देखने पर वह घुटनों के बल बैठी किसी औरत की तरह लगती थी. टहनी पर लटका पल्लू जब हवा के झोंकों से डोलता, तो ऐसा लगता था जैसे वह हाथ हिला कर किसी को बुला रही हो.

सचाई जान कर मुझे अपनी बेवकूफी पर हंसी आने लगी. मैं ने झाड़ी पर लिपटी वह पुरानी धोती समेटी और वापस लौट आया. मुझे देखते ही स्वोंगड़ शास्त्री का चेहरा उतर गया. सिर झुकाए चुपचाप वह अपने घर को चल दिया.

‘‘इस निगोड़ी झाड़ी ने कितना डराया साहब, मैं तो डर के मारे अकड़ ही गया था,’’ भग्गू ने कहा.

‘‘तुम ने अपने मन को इस तरह की किस्सेकहानियां सुनसुन कर इतना डरा लिया है कि तुम्हारी नजर भूतप्रेतों के अलावा अब कुछ देखती ही नहीं. तुम्हारे इसी डर के सहारे स्वोंगड़ शास्त्री जैसे लोग चांदी काट रहे हैं,’’ मैं ने भग्गू को समझाया.

‘‘ठीक कहते हो साहब…’’ घड़ी की ओर देख कर भग्गू ने कहा.

रात के 12 बज चुके थे. मैं रातभर यही सोचता रहा कि भूतों का भूत इन सीधेसादे लोगों के दिमाग से कब भागेगा? स्वोंगड़ शास्त्री जैसे तांत्रिकों की दुकानदारी आखिर कब तक चलती रहेगी?

सैक्स में ऐसे करें पार्टनर को संतुष्ट

आजकल के कपल्स सैक्स को सिर्फ एक प्रक्रिया न मान कर उस का भरपूर आनंद उठाना चाहते हैं और यह बात बेहद अच्छी भी है. सैक्स करने से कपल्स के बीच की बौंडिंग और भी ज्यादा अच्छी बनती है और सैक्स आप को अपने पार्टनर के और भी करीब ले जाता है. कहा जाता है कि हैल्दी सैक्स मतलब हैल्दी रिलेशन.

पार्टनर से करें सैक्स की बातें

कपल्स को अपने पार्टनर की हर बात जानने का पूरा पूरा हक है और जब बात सैक्स की आती है तो कपल्स को पता होना चाहिए कि उन के पार्टनर को किन चीजों से आनंद मिलता है.

सैक्स हमेशा एकदूसरे की रजामंदी से किया जाता है ताकि दोनों पार्टनर्स सैक्स का भरपूर आनंद उठा सकें। पर आज भी कई लोग हैं जो अपने पार्टनर से सैक्स की बात नहीं कर पाते और उन्हें नहीं बता पाते कि उन्हें सैक्स में क्या सब करना पसंद है.

ऐक्सट्रा मैरिटल अफेयर का बड़ा कारण

सैक्स हमारे रिलेशन का वह पार्ट है जिसे हम कभी भी इग्नोर नहीं कर सकते और न ही हमें इसे इग्नोर करना चाहिए. ऐक्सट्रा मैरिटल अफेयर का सब से बड़ा कारण भी यही है कि वे अपने पार्टनर के साथ अच्छे से सैक्स का आनंद नहीं ले पाते.

इसलिए हमें हमेशा इस बात का खास खयाल रखना चाहिए कि हमें अपने पार्टनर के साथ क्याक्या करना चाहिए जिस से कि हमारा पार्टनर पूरी तरह संतुष्ट हो जाएं.

ऐसे करें पार्टनर को संतुष्ट

हमें सिर्फ सैक्स पर फोकस नहीं करना चाहिए बल्कि सैक्स से पहले और सैक्स के बाद हमें अपने पार्टनर के साथ रोमांटिक बातें करनी चाहिए और जानने की कोशिश करनी चाहिए कि वे सैक्स को किस तरह ऐंजौय करना चाहते हैं. ऐसा करने से आप का पार्टनर न सिर्फ पूर्ण संतुष्टी का अनुभव करेगा, बल्कि रिश्ते में ताउम्र गरमाहट बनी रहेगी.

सैक्स के दौरान अगर आप को अपने पार्टनर की कोई बात या कोई ऐक्शन अच्छा नहीं लग रहा तो आप उन से डाइरैक्ट बोल सकते हैं ताकि वे इस बात का खास खयाल रख सकें.

मिन्नी : समाज की गंदी सोच

मैं एसडीएम बन कर जोधपुर गई तो मेरे मन में यह चाहत बलवती हो गई थी कि मुझे मिन्नी से जरूर मिलना है. मिन्नी मेरे मामू की लड़की है. जब वह 8वीं में पढ़ रही थी, ब्याह दी गई थी. वह बच्ची समाज की गंदी सोच की भेंट चढ़ गई थी. लड़कियों को न पढ़ाने की सोच, जल्दी ब्याह देने की सोच, पढ़ने से लड़कियां बिगड़ जाती हैं, ऐसी घटिया सोच. शहरों के कुछ परिवारों को छोड़ कर राजस्थान के अधिकांश गांवों में लड़कियों के लिए यही सोच चल रही है. पीढ़ीदरपीढ़ी यही हो रहा है. मैं यह भी कह सकती हूं कि देश के सभी गांवों में यही सोच बलवती है. मामूमामी ने वही किया जो उन के संस्कारों में था, जो उन के साथ हुआ था. मेरे लिए भी उन्होंने यही सोचा था लेकिन मैं ने विरोध किया. घर से बेघर हुई. रिश्तेनाते छूटे पर अपने लक्ष्य को प्राप्त किया. अपने पांवों पर खड़ी हुई. आज मैं राजस्थान कैडर की आईएएस अफसर हूं.

मिन्नी जोधपुर जिले के रजनीमहल गांव में कहीं अपना जीवन व्यतीत कर रही है. मैं ने अपने एक विश्वासपात्र को उस का पता दे कर उस का हालचाल पूछने के लिए उस के गांव भेजा था. उस ने आ कर जो बताया, वह दुखदायी था, ‘मैडमजी, वह बहुत गरीब है. पति कहीं मजदूरी करता है. कोई रैगुलर आमदनी नहीं है. स्कूल जाने लायक 2 बच्चे हैं लेकिन गरीबी के कारण स्कूल नहीं जाते और भी रोज की चीजों के अभाव हैं. बाकी मैडमजी, आप वहां जा रही हैं, खुद देख लेना. मैं ज्यादा नहीं बता सकता.’

मैं विचारों में खो गई थी. मेरे नाना-दादा के परिवारों में रिवाज है कि लड़कियों को घर के कूड़ेकरकट की तरह छोटी उम्र में ही बाहर फेंक देना, ब्याह देना. ब्याह के साथ ही उस से कह देना कि आज से उस का मायका खत्म. लड़की को घर से इतना तिरस्कार मिलता है कि वह मर कर भी अपने मायके नहीं आना चाहती. पढ़लिख कर मेरे साथ भी तो यही हुआ था. मैं तो बिना ब्याही घर से बेघर कर दी गई थी. मैं अपनी मेहनत से अफसर बन गई, यह बात अलग है. नहीं तो मेरे मांबाप ने जीतेजी मुझे घर से निकाल कर मार ही दिया था.

‘‘मैडम, रजनीमहल चलने का टाइम हो गया है.’’

मुझे रजनीमहल के सभी प्रशासनिक औफिस, सरकारी स्कूल, एक सरकारी कालेज का इंस्पैक्शन करना था. शिक्षा विभाग का एक अफसर मेरे साथ था. यह उन के प्रोटोकोल में था कि कोई मेरे स्तर का अधिकारी इंस्पैक्शन पर जाए तो उन के विभाग का एक अधिकारी उसे असिस्ट करेगा.

मैं ने उस से मिन्नी और उस के हसबैंड की नौकरी के लिए बात की. उस ने कहा, ‘‘मैम, अस्थायी में तो उन्हें तुरंत रखा जा सकता है. यह प्रिंसिपल के अधिकार क्षेत्र में है. चाहे वे 8वीं पास हैं. फिर उन्हें अस्थायी सर्विस के दौरान 10वीं पास करवा कर स्थायी किया जा सकता है.’’

‘‘क्या ऐसा हो सकता है?’’

‘‘बिलकुल, ऐसा हो सकता है. ऐसा हो जाएगा. आप के रहतेरहते उन्हें 10वीं पास करवा कर स्थायी भी कर दिया जाएगा.’’

लंच स्कूल प्रिंसिपल के साथ था. लंच के दौरान ही मिन्नी और उस के हसबैंड के लिए बात कर ली गई. मिन्नी की लड़कियों के स्कूल में और उस के पति की लड़कों के स्कूल में अस्थायी चपरासी का प्रबंध कर दिया गया. मिन्नी के बच्चे भी उसी स्कूल में पढ़ेंगे जिस स्कूल में मिन्नी रहेगी.

लंच के बाद मैं मिन्नी से मिलने गई तो मन में तसल्ली थी कि कुछ भी हो, नौकरी से कम से कम उस की दालरोटी तो चलेगी. रैगुलर आमदनी तो रहेगी और बच्चे भी पढ़ जाएंगे. इस महीने का खर्च मैं दे दूंगी. वह मेरी कजिन है.

मेरे एक आदमी ने मिन्नी को बता दिया था कि मैं उस से मिलने आ रही हूं. मैं जब उस के पास पहुंची तो वह गले लग खूब रोई थी ऐसे जैसे आज तक उसे रोने के लिए कोई कंधा न मिला हो. उस ने मेरे दाहिनी ओर का बलाउज आंसुओं से भिगो दिया था. मैं ने उसे रोने दिया. बरसों का अवसाद निकल रहा था. उस का पति भी एक तरफ सिर ?ाकाए हाथ जोड़े खड़ा था. मिन्नी एक खोली में रह रही थी. वह अभावग्रस्त जीवन जी रही थी, बल्कि मैं कहूंगी कि नारकीय जीवन जी रही थी. बहुत दुख हुआ.

मैं ने मिन्नी से पूछा, ‘‘कभी मामामामी मिलने नहीं आए?’’

‘‘नहीं दीदी, उन के लिए तो मैं उसी रोज मर गर्ह थी जिस रोज उन्होंने मुझे ब्याह दिया था.’’

मैं फिर आक्रोश से भर उठी थी. यह लड़कियों के प्रति जुल्म है कि शादी के बाद उन का मायका खत्म हो जाए. इस घटिया सोच की जड़ें इतनी गहरी हैं कि उन से मुक्त होना असंभव हैं. मेरे अधिकार में भी नहीं है. मैं केवल जो हो गया है, उस में सुधार कर सकती थी.

मैं ने मिन्नी और उस के हसबैंड से कहा, ‘‘मैं ने आप की नौकरी का प्रबंध कर दिया है. ये दोनों मैडमें स्कूल की प्रिंसिपल हैं. एक लड़कों के स्कूल की, दूसरी लड़कियों के स्कूल की. कल इन के पास जाना. ये आप को चपरासी की टैंपरेरी नौकरी दे देंगी. वहीं आप को रहने की जगह भी मिल जाएगी. आप की रैगुलर आमदनी बनेगी. वहीं आप के बच्चे भी पढ़ेंगे लेकिन किसी तरह की शिकायत नहीं मिलनी चाहिए. ईमानदारी से काम करना. तुम दोनों अगले 2 साल में 10वीं पास कर लेना. मेरे रहते तुम्हें स्थायी भी कर देंगे. लेकिन यह सब आप के काम पर निर्भर रहेगा.’’

मिन्नी के हसबैंड ने कहा, ‘‘मैम, मैं 10वी पास हूं. यह रहा मेरा 10वीं का सर्टिफिकेट.’’

मैं ने देखा और दोनों प्रिंसिपल की ओर बढ़ा दिया. उन्होंने कहा, ‘‘ठीक है, फिर मिन्नी 10वीं पास कर लेगी. कल 10 बजे हमारे पास आ जाएं. हम इन्हें अपौइंट कर लेंगे. वहीं लड़कियों के स्कूल में इन के रहने का प्रबंध हो जाएगा. दोनों लड़के लड़कों के स्कूल में दाखिल कर
दिए जाएंगे.’’

मैं ने दोनों का धन्यवाद किया. शिक्षा विभाग से आए अफसर से मैं ने कहा, ‘‘इन दोनों का अस्थायी अपौइंटमैंट ऐप्रूव करवा कर भेज देना.’’

उस ने हामी भरी. मैं ने मिन्नी की मुट्ठी में 5 हजार रुपए रखे और जल्दी से बाहर आ गई. मिन्नी और उस का पति कुछ नहीं बोल पाए थे. केवल धन्यवाद की मुद्रा में हाथ जोड़े खड़े रहे थे.

शाम को मैं जब जोधपुर लौटी तो मन के भीतर केवल एक ही विचार था, ‘जीवन में कभी मामामामी मिले तो मैं उन्हें खूब लताड़ूंगी. चाहे इस का लाभ कुछ न हो.’ ऐसे लोगों की सोच कभी बदली नहीं जा सकती. अब मेरे मांबाप को ही लें. मैं घर से पढ़ने क्या गई, मु?ा से सभी ने नाता ही तोड़ दिया. किस अपराध में, मैं आज तक समझ नहीं पाई थी?

मुझे याद है, मैं भी 13 साल की उम्र में धुएं में झांक दी गई थी. मैं खूब रोई थी लेकिन मेरे रोने का असर किसी पर नहीं हुआ था. सभी का कहना था कि पढ़लिख कर कौन सा कलैक्टर बनना है. फिर दूर के एक चाचू ने मेरा साथ दिया तो मैं आगे पढ़ने लगी. वह भी इस शर्त पर कि घर का सारा काम कर के मैं स्कूल जाया करूंगी और आ कर भी सारा काम करूंगी यानी चूल्हे के धुंए से मुझे कहीं छुट्टी नहीं थी. मु?ो इतना व्यस्त रखा जाता कि घर में पढ़ने का टाइम न मिलता. स्कूल में जो पढ़ती वही मेरी पढ़ाई थी.

इतना सब होने पर भी मैं ने 10वीं में जिले में टौप किया था. मेरे घर वाले खुश नहीं हुए. मां ने कहा, ‘बहुत पढ़ लिया. अगले महीने तेरी शादी कर देंगे.’ पिता ने भी यही बात कही. मेरे दादादादी, नानानानी ने भी शादी पर जोर दिया. सभी मेरी शादी के पक्ष में थे.

मैं अकेली शादी का विरोध करती रही थी. मैं ने गुस्से और आक्रोश में कहा था, ‘अगर आप मेरी जबरदस्ती शादी करेंगे तो मैं अभी घर से चली जाऊंगी.’

‘अच्छा, तू अभी घर से चली जाएगी? जा, चली जा,’ पिताजी ने मेरा बाजू पकड़ कर घर से बाहर निकाला और दरवाजा बंद कर दिया था.

कोई कुछ नहीं कर सका था. मां, भाई, दादादादी, नानानानी सब चुपचाप देखते रहे थे. किसी ने नहीं सोचा था कि इस अमावस की अंधेरी रात में एक जवान लड़की कहां जाएगी.

बाहर घुप अंधेरा था. मैं भी अजमंजस में थी कि मैं अब कहां जाऊं? दूरदूर तक कुछ सूझ नहीं रहा था. फिर अंधेरे में बस अड्डे की ओर चल दी थी. बस अड्डे के पास उसी चाचू की दुकान थी जिस ने पढ़ाई में मेरा साथ दिया था. मैं ने निश्चय कर लिया था कि मैं चाचू से पैसे ले कर प्रिंसिपल मैम के पास जाऊंगी. उन्होंने मुझ से एक बार कहा था कि ऐसी नौबत आने पर मेरे पास आना. मैं कुछ न कुछ प्रबंध कर दूंगी, कोई गलत कदम मत उठाना.

चाचू ने रुपए तो दिए साथ में कहा, ‘तुम इस समय रात को कहां जाओगी, रात मेरे यहां रुक जाओ, सुबह चली जाना.’

मैं ने कहा था, ‘चाचू, शुक्रिया, मुझे अपने रास्ते खुद बनाने हैं. मैं दूसरों की बैसाखियों के सहारे जीवन में नहीं चल सकती. मेरे लिए रास्ता पहले से निश्चित है. मैं ये रुपए बहुत जल्दी लौटा दूंगी.’

मैं बस पकड़ कर जब प्रिंसिपल मैम के घर पहुंची तो रात के 11 बज चुके थे. मैम के हसबैंड ने दरवाजा खोला था. मुझे देख कर वे हैरान हुए थे. मुझे पहचान गए थे. एकदो बार मैं उन के घर में आ चुकी थी. उन्होंने मुझे अंदर बैठाया था. मैम आईं तो मैं रो पड़ी थी. बहुत समय तक रोती रही थी. वे मेरी पीठ को सहला कर सांत्वना देती रही थीं. रोना रुकने पर मैं ने सारी बात बताई. उन्होंने कहा, ‘तुम चिंता मत करो. आज तुम मेरे यहां रहो. कल सारे प्रबंध कर दिए जाएंगे.’ उन्होंने मुझे अपनी बेटी के कमरे में एडजस्ट किया. उन की बेटी मेरी क्लासफैलो थी. मेरा जबरदस्त स्वागत किया. अपने कपड़े दिए और कहा, ‘अभी नहा कर फ्रैश हो लो. मैं तुम्हारे खाने का देखती हूं.’

मैं नहा कर बाहर निकली तो मेरे चेहरे पर तनाव विद्यमान था. मैम की बेटी रंजना ने देखते ही कहा, ‘हाय चिंकी, तुम बहुत सुंदर हो, राजस्थान की सुंदरी.’

मैं मुसकराई थी. उसी समय मैम मेरे लिए ब्रैड, मक्खन और दूध का कप ले कर आई थीं. उन्होंने रंजना की बात सुन ली थी, कहा था, ‘सुंदर तो यह है ही लेकिन अभी इस के हालात अच्छे नहीं हैं, सब ठीक हो जाएगा.’

उस रात मैं सो नहीं पाई थी. रंजना के साथ के पलंग पर लेटी करवटें बदलती रही थी. सुबह जल्दी उठ कर मैं तैयार हो गई थी. रंजना का दिया सूट ही मैं ने पहन लिया था. मैम ने रात को ही कह दिया था कि यही सूट पहन लेना. नाश्ते के बाद वे सीधे मुझे पुलिस स्टेशन ले कर गईं. इंस्पैक्टर मैम को पहचानता था. उन के बच्चे भी हमारे स्कूल में पढ़ते थे. मेरी सारी बात सुनी. वहीं मुझ से लिखित में ले लिया था. मुख्य मकसद यह था कि मेरे मांबाप गुमशुदा की शिकायत करते हैं तो नबालिग होने के कारण प्रिंसिपल मैम पर कोई ऐक्शन न हो.

इंस्पैक्टर ने सिर्फ यह पूछा, ‘वैसे, आप इस को रखेंगे कहां?’

‘मैं अपने स्कूल में रखूंगी. हमारा चपरासी अपनी फैमिली के साथ रहता है. उस के साथ बहुत शानदार कमरा है, वाशरूम अटैच है. वहां रहेगी. इस के रोज के खर्चों के लिए मैं इसे टयूशनें दिला दूंगी. यह बहुत होशियार लड़की है. 10वीं में जिले में प्रथम आई है. मु?ो इस से बहुत उम्मीद है. आगे चल कर यह पूरे शिक्षा बोर्ड में टौप करेगी. सरकार से इसे छात्रवृत्ति मिल रही है. खाने का प्रबंध भी हो जाएगा. मैं इसे आत्मसम्मान के साथ जीना सिखाऊंगी. मैं चाहूंगी स्कूल में भी आप के संरक्षण में रहे. मैं हमेशा स्कूल में नहीं रहूंगी.’

‘आप चिंता न करें, मैम,’ इंस्पैक्टर ने महिला इंस्पैक्टर को बुलाया और सारी इंस्ट्रक्शन दीं. आगे कहा, ‘चिंकी की हर तरह की सुरक्षा की जिम्मेदारी हमारी है. इंस्पैक्टर सुनिधि हमेशा चिंकी के संपर्क में रहेगी. यहां स्कूल में भी और कालेज में भी.’

इंस्पैक्टर सुनिधि ने अलग से मुझ से बात की. एक मोबाइल दिया और कहा, ‘इस से हमेशा आप मेरे संपर्क में रहेंगी. बेफिक्र हो कर आप पढ़ें. मैं आज ही आप का कमरा देखने आऊंगी.’

मैं मैम के साथ स्कूल आ गई. क्लास में बैठ कर पढ़ाई की. अब सबकुछ ठीक हो गया है. पुलिस इस तरह की सुरक्षा बहुत कम देती है. यह प्रिंसिपल मैम का ही प्रभाव था. मांबाप को ले कर मन कसैला हो गया था. पिताजी ने थोड़ा सा भी नहीं सोचा था कि रात को जवान लड़की कहां जाएगी? उन के लिए तो दरवाजे से बाहर धकेलते ही मैं मर गई थी. न चाहते हुए भी आंखें नम हो गई थीं.

रंजना मेरा हाथ पकड़ कर स्कूल की कैंटीन में ले गई थी. वह अपने और मेरे लिए चायसमोसा ले आई थी. मैं ने कहा, ‘रंजना, यह क्यों, सुबह नाश्ता तो किया था?’

‘तुम मेरी प्यारी सखी हो. रात को मुझे अपने साथ के पलंग पर सुलाते हुए भी अपनापन लगा था. कुछ मत सोचो, खाओ. सब ठंडा हो जाएगा. मम्मी ने भी बोला था कि मैं तुम्हारा खयाल रखूं. चिंकी डिप्रैस्ड नहीं होनी चाहिए.’

मेरी आंखों से आंसू बह निकले. मैं आंसुओं को रोक नहीं पा रही थी. रंजना जल्दी से मुझे कैंटीन से क्लास में ले आई. आंसू पोंछे और पानी पिलाया, कहा, ‘जानती हूं, तुम्हारी हालत में कोई भी आंसुओं को रोक नहीं पाएगा लेकिन तुम्हें साहस से काम लेना होगा. हिम्मत रखनी होगी. तुम्हारे सामने लंबा रास्ता है और मंजिल बहुत दूर है.’

मैं ने अपनेआप को संभाल लिया था. फिर न रोने की कसम खाई थी. रंजना के कारण कैंटीन का लड़का चाय और समोसा ले कर आया. हम दोनों ने खाया और चाय पी और अगले पीरियड के लिए तैयार हो गईं.

स्कूल की कैंटीन से प्रिंसिपल मैम ने मेरे खाने का प्रबंध करवा दिया था. कमरे की खिड़की में सलाखें और जाली नहीं लगी हुई थीं. इंस्पैक्टर सुनिधि ने भी इसे पौइंटआउट किया था. दूसरे रोज वह भी ठीक करवा दी गई थी. स्कूल के स्वीपर से सारा कमरा धुलवा कर साफ करवा दिया था. उसे यह भी आदेश दिया गया था कि रोज कमरा और वाशरूम साफ होगा.

सभी प्रबंध होने के बाद मेरा पूरा ध्यान अपनी पढ़ाई पर चला गया था. बिस्तर और पहनने के कपड़े प्रिंसिपल मैम के घर से आ गए थे. इंस्पैक्टर सुनिधि ने भी मुझे बहुत से सूट दिए. मेरे खर्चों के लिए मैम ने मुझे 4 टयूशनें दिलवा दी थीं. उस से मुझे महीने के 5 हजार रुपए आने लगे. मैं ने खुद को हर तरह से व्यवस्थित कर लिया था.

पहले महीने मैं कैंटीन में खाने का रुपया नहीं दे पाई थी. दूसरे महीने टयूशन के रुपए मिलने पर मैं कैंटीन के मालिक महेंद्रजी को रुपए देने गई थी. वे अधेड़ उम्र के व्यक्ति थे. हाथ जोड़ कर खड़े हो गए, कहा, ‘बिटिया, मैं आप से पैसे नहीं ले सकता. मैं ने प्रिंसिपल मैम से भी कहा था कि मेरे कारीगरों का खाना भी बनता है. खाने में से खाना निकल आया करेगा. मैं चिंकी बिटिया से पैसे नहीं लूंगा. प्लीज, यह रुपया अपने पास रखें.’

मेरी आंखें भर आई थीं. मैं ने कहा था, ‘काका, आप के इस स्नेह के लिए आभार. मैं फ्री में खाना खाना नहीं चाहती. मेरे सम्मान को ठेस पहुंचती है. आप इन रुपयों को ले लें.’

‘ठेस कैसी बिटिया? आप मेरी राजी बिटिया जैसी हो. आप मुझे शर्मिंदा न करें.’ उन की पत्नी भी पास आ कर खड़ी हो गई थीं.

मेरी आंखों से आंसू टपकने लगे थे. उन की पत्नी रोहिनी ने कहा, ‘रोओ मत बिटिया. तुम्हारे सम्मान को ठेस न लगे, इसलिए हम ने 10 रुपए रख लिए हैं. हर महीने 10 रुपए दे दिया करो. बस, हमारे खाने का पैसा आ जाया करेगा.’

मैं कमरे में लौट आई. बहुत देर तक रोना आता रहा. कैसी विडंबना है कि अपनों से तिरस्कार, बेगानों से प्यार. फिर खुद को संभाला. बच्चे ट्यूशन के लिए आने वाले थे.

मेरी पढ़ाई चलती रही. इंस्पैक्टर सुनिधि रोज मेरे संपर्क में रहती. जैसे कि प्रिंसिपल मैम को उम्मीद थी, मैं 12वीं में पूरे राजस्थान बोर्ड में टौप पर रही. मैं संतुष्ट थी कि मैं सब की कसौटी पर खरी उतरी. प्रिंसिपल मैम बहुत खुश थीं. उन्होंने मुझे बहुत आशीर्वाद दिए, कहा, ‘कालेज में जाने के बाद तुम यहां स्कूल के कमरे में नहीं रह सकोगी पर तुम चिंता मत करो. मैं अच्छे पीजी में प्रबंध करवा दूंगी. ट्यूशनें तुम्हारी चलती रहेंगी. आगे क्या करना चाहती हो?’

‘मैम, आप मेरे मन की पूछें तो मैं बीटैक कंप्यूटर साइंस में करना चाहती हूं और यूपीएससी की परीक्षा दे कर प्रशासनिक अधिकारी बनना चाहती हूं. मुझे आईआईटी राजस्थान से डायरैक्ट एंट्री का औफर है. वे मेरी पढ़ाई का सारा खर्चा उठाएंगे. फूडिंग और लौजिंग भी फ्री देंगे.’
मैम ने कुछ देर सोचा, फिर कहा, ‘मुझे उन के संपर्क नंबर दो, मैं खुद बात कर के बताती हूं.’

मैं ने उन्हें औफर का लैटर फौरवर्ड कर दिया. दूसरे रोज मैम ने बताया, ‘मेरी वहां के प्रिंसिपल से बात हुई है. वे तुम्हें स्कौलरशिप के साथ कालेज फीस, होस्टल में फ्री एसी वाला कमरा और खाने का खर्चा भी उठाएंगे. आप वहां तुरंत एडमिशन ले लो.’

मैं ने बीटैक में दाखिला लिया. मुझे जिन सुविधाओं का वादा किया गया था, कालेज ने मुझे वे सारी सुविधाएं दीं. मेरा पूरा ध्यान अपनी पढ़ाई पर चला गया. मैं ने सब से संपर्क भी रखा. इंस्पैक्टर सुनिधिजी, मैम और उन की बेटी रंजना से. मैं कैंटीन के मालिक महेंद्रजी को भी नहीं भूली. मैम ने तो मुझे यहां तक कहा, ‘चिंकी, जब भी कालेज में छुट्टियां हों, सीधे मेरे पास आना है. किसी तरह की झिझक न रखना.’

मैं भावुक हो उठी थी. मेरी आंखें नम हो गई थीं. पढ़ाई में टौप करती रही. बीटैक में भी मैं ने यूनिवर्सिटी में टौप किया. मैं ने यूपीएससी की परीक्षा दी तो उस में भी मैं 5वें नंबर पर थी. मुझे आईएएस के लिए चुना गया. इंटरव्यू में कई तरह के सवाल पूछे गए. उन में से एक सवाल यह भी था कि अगर प्रशासनिक सेवा में आना था तो मैं ने बीटैक क्यों की?

मेरा बड़ा साफ जवाब था, ‘सर, बीटैक मैं ने कंप्यूटर साइंस में की है. आज सबकुछ औनलाइन होता है. कंप्यूटर का जमाना है. मैं इस क्षेत्र में औरों से बैटर कर सकती हूं.’

फिर पूछा गया था, ‘आप का पूरा अकैडमिक कैरियर टौप का रहा है.

क्या आप सर्विस में रहते हुए आगे पढ़ना चाहेंगी?’

‘सर, मैं एमटैक करना चाहूंगी और वह कर लूंगी.’

मेरे चेहरे की दृढ़ता देख कर इंटरव्यू में बैठे मनोविज्ञान के जानकार एक अधिकारी ने पूछा, ‘आप का प्रशासनिक अधिकारी का जीवन बहुत व्यस्त होगा. आप एमटैक कैसे कर पाएंगी?’

मैं ने अपने जीवन संघर्ष के प्रति बताते हुए कहा था, ‘इतनी विकट परिस्थितियों में मैं पढ़ाई में टौप रह सकती हूं तो एमटैक भी कर लूंगी.’

फिर किसी ने मुझ से कोई सवाल नहीं पूछा था. 2 महीने के अंदर मेरे पास आईएएस एकेडैमी में ट्रेनिंग पर जाने का लैटर आ गया था. पुलिस वैरिफिकेशन के लिए मुझे स्थायी पता देना था. मैं कुछ देर के लिए समझ नहीं पाई थी कि मैं किस का पता दूं. प्रिंसिपल मैम और इंस्पैक्टर सुनिधिजी से बात की. दोनों चाहती थीं कि मैं उन का पता दूं. फिर इंस्पैक्टर सुनिधि ने कहा कि मेरी तो बदली होती रहेगी. मैं प्रिंसिपल मैम का पता दूं. पुलिस वैरिफिकेशन हो जाएगी.

एक साल की ट्रेनिंग के दौरान ही मेरी पुलिस वैरिफिकेशन हो गई थी. रंजना ने परीक्षा दी तो वह आईपीएस के लिए चुनी गई थी. वह अंडरट्रेनिंग में थी. मेरी पहली पोस्ंिटग डीडवाना में थी. बाद में मैं जोधपुर आई थी.

प्रशासनिक सेवा में मैं जहांजहां भी गई, मैं ने गांवगांव जागरूक अभियान चलाया. लड़कियां पढ़ें और आगे बढ़ें. उन का जीवन धुएं में ही न खो कर रह जाए. मैं अपने जीवन में अपने मांबाप और परिवार के अन्य सदस्यों से कभी मिल नहीं पाई. न ही उन्होंने मु?ा से मिलने की कोशिश की. यह कैसा विरोध है? कैसे रिश्ते हैं? मैं जान ही नहीं पाई. मैं जानती हूं, मैं भी उन के लिए मिन्नी हो गई हूं. ऐसी कितनी मिन्नियां देश में हैं? इस सवाल का उत्तर दूरदूर तक मुझे सूझ नहीं रहा, नहीं मिल रहा.

मैं भी बेटी हूं

‘‘मैं सिर्फ आप की पत्नी ही नहीं, किसी की बेटी भी हूं.’’ ‘‘एक बार फिर से दोहराना.’’ ‘‘मैं सिर्फ आप की पत्नी ही नहीं, किसी की बेटी भी हूं. यह क्या बचपना लगा रखा है, अभिनव? ट्रेन का समय होने वाला है, आप अब उतर जाइए.’’ ‘‘मैं तुम्हें यही समझाना चाहता हूं कि तुम्हारी शादी हो गई, इस का मतलब यह बिलकुल भी नहीं कि तुम्हारी अपने घर से जिम्मेदारी खत्म. वहां तुम्हारे मम्मीपापा का शरीर बुखार से तप रहा है, तुम्हारा कर्तव्य बनता है कि तुम दोनों घरपरिवार का बराबर ध्यान रखो,’’

ट्रेन की सीट पर तनाव से भरी पत्नी शीतल का हाथ नजाकत से सहलाते हुए अभिनव ने कहा. ‘‘जी, समझ गई. अब उतर जाएं वरना मेरे साथसाथ आप भी रायपुर पहुंच जाएंगे. फिर मेरी बेटी का ध्यान कौन रखेगा. देखिए, गाड़ी चलने लगी है.’’ अचानक अपने मातापिता की तबीयत खराब हो जाने से परेशान शीतल चंद मिनटों में अपने मायके के लिए रवाना होने वाली है. उन की 5 साल की बेटी परी इतने दिन बिना उस के पहली बार अकेले रहेगी. यह सोच उस का कलेजा पहले से ही छटपटा रहा था. ‘‘तुम निश्चिंच हो कर जाओ, यहां की चिंता मत करना, मैं सब संभाल लूंगा.’’

अभिनव पलपल चलती ट्रेन के साथ कहतेकहते शीतल का हौसला बढ़ाते चले गए. ‘‘आप के भरोसे मांजी, बाबूजी की जिम्मेदारी छोड़े जा रही हूं, उन्हें मेरी अनुपस्थिति में कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए,’’ मुरझाया चेहरा लिए शीतल बेबसी से अभिनव की ओर देखते हुए कहने लगी. ‘‘तुम परेशान मत हो, पहुंच कर फोन करना,’’ अभिनव के पैर अब तेज रफ्तार पकड़ती ट्रेन के सामने कमजोर पड़ने लगे और वह वहीं थम कर उसे अपना हाथ दिखा, विदा करने लगा. ‘‘ठीक है, आप अपना खयाल रखना.’’ भरी आंखों से शीतल अभिनव के ओझिल होते तक उसे निहारती रही. वापस अपनी सीट पर बैठ मन ही मन वह प्रकृति को धन्यवाद देने लगी.

क्या यह उन्हीं का आशीर्वाद है कि कुल 4 बहनें होने पर भी आज उसे अपने परिवार में एक बेटा न होने की कमी नहीं खल रही थी. उसे उन क्षण बचपन से सुनते आए अपने मांपिता को वह चुभनभरे ताने एकाएक याद आने लगे. ‘बिना बेटेबहू के आप का बुढ़ापा कैसे बीतेगा?’ ये बेटियां तो अपनीअपनी ससुराल में व्यस्त हो जाएंगी. आप की जरूरत के समय उन से आप के साथ खड़े रहने की उम्मीद लगाना बेकार की बात है. वे अपने ससुराल का ध्यान रखेंगी या अपने मायके का? सासससुर, पति, बच्चों की जिम्मेदारी से खाली होंगी तब तो आ पाएंगी. अगर ससुराल वाले ही मना कर देंगे तो क्या घर में महाभारत रचा कर उन का आना मुमकिन होगा. आप अपनी दूसरी व्यवस्था कर के रखिएगा वरना आगे चल कर बड़ी मुसीबत का सामना करना पड़ेगा.’

पर आज अभिनव का ऐसा रूप देख कर उस का मन भर आया. शुरुआत में वे छोटीमोटी बात पर मायके जाने की उस की जिद को नजरअंदाज कर दिया करते थे. उसे भी महसूस हुआ कि बाकी जीजू की तरह, अभिनव को भी उस का मायके बारबार जाना पसंद नहीं. फिर धीरेधीरे शीतल ने ही उन से कहना बंद कर दिया. अब मुश्किल से केवल साल में एक बार जाने का मौका मिल पाता था. आज घरवालों की इस कठिन परिस्थिति में भी उन के पास कोई भी बहन मौजूद नहीं हो पा रही थी. सब अपनीअपनी समस्याओं में उलझ हुई थीं. यह बताने पर कि, उस के मांपिता ने अपनी कामवाली बाई को पूरे दिन के लिए रख लिया है तो अभिनव को यह बात बिलकुल अच्छी नहीं लगी. उन्होंने तुरंत कहा कि, ‘बेटा हो या बेटी, अगर जरूरत पड़ने पर उन के खुद के बच्चे सहारा न बन सके तो फिर किस काम के?’

उसे बिना बताए तुरंत उस के अकेले का टिकट कटा कर अगले ही दिन भेजने का फैसला कर लिया. यह देख उसे बहुत आश्चर्य हुआ. अगर उसे आज अभिनव और अपने सासससुर का साथ न मिलता तो शायद वह भी न उन के पास पहुंच पाती. उन्हीं की जिद थी कि वह मायके जा कर उन का तसल्ली से इलाजपानी करवा कर ही लौटे. उस ने जब सास, ससुर, उन की और परी का हवाला दिया तो अभिनव कहते हैं, ‘तुम्हें इस घड़ी में उन के साथ होना चाहिए. मैं मानता हूं कि तुम्हारे बिना कुछ दिन मुश्किल होगी पर फिर सब मैनेज हो जाएगा.’ यह कहना उन के लिए शायद आसान होगा पर जब करेंगे तब समझ पाएंगे कि इस कभी न खत्म होने वाली जंग में दो पल का चैन नहीं मिलता कि अगली जंग फिर सामने आ खड़ी होती है. इतना भी सोचविचार नहीं किया कि अकेले सब कैसे संभाल पाएंगे.

वह बखूबी जानती थी कि उस की गैरमौजूदगी में सब को कितनी तकलीफ उठानी पड़ेगी. बेटी के हजार खाने के नखरे, सासससुर की डायबिटीज और ब्लडप्रैशर की समय पर दवाई की याद, सब का फरमाइशी खानापीना, घर का राशन, बाई का काम देखना आदिआदि इन सब के बाद उन्हें औफिस का काम भी करना होगा. ट्रेन की खिड़की के बाहर, सीट में अपनी गरदन टिकाए वह खुले आसमान में बादलों को अठखेलियां करते हुए देख यह सब सोच कर यही मनाती रही कि मांपापा जल्दी ठीक हो जाएं और वह अपनी ससुराल समय से वापस लौट आए. यह विचार करते उस की रात गुजरती रही और अगली सुबह स्टेशन पर उतरते ही औटो पकड़ अपने घर के लिए रवाना हो गई. उस ने अपने घर में आने की जानकारी नहीं दी थी वरना वे लोग उसे आने के लिए मना कर देते. घर पहुंची नहीं कि उसे देख मां ने सवाल पर सवाल बिछा दिए. ‘‘शीतल तुम्हें आने की क्या जरूरत थी? और परी कहां है?’’ ‘‘मम्मी, मैं अकेले आई हूं. अभिनव उसे संभाल रहे हैं.’’ ‘‘आसपड़ोस के लोग और बाई भी है.

तुम अपनी गृहस्थी क्यों बिगाड़ कर आई हो. वहां तुम्हारे सासससुर हैं, उन का ध्यान कौन रखेगा?’’ ‘‘मां, तुम चिंता मत करो. अभिनव हैं न, वे सब देख लेंगे.’’ ‘‘एक मर्द से घर संभालने की उम्मीद करना, मैं तो न कर सकती.’’ ‘‘अब आ गई है तो तुम्हें खुश होना चाहिए. बेटी, आज हम दोनों को कई डाक्टरों को दिखाना है. यहां से वहां अकेले ऐसी हालत में तुम्हारी मां और खुद को ले कर कहांकहां भटकता, अच्छा किया जो सही समय पर आ गईं.’’ ‘‘आप नहीं समझेंगे. मां तो आने के लिए मना ही करेगी.’’ शीतल को भीतर से लगा कि उस ने यहां आ कर एक नेक काम किया. कुछ देर आज उसे क्याक्या करना है, उन दोनों के साथ प्लान कर वह अभिनव को फोन लगाने लगी.

‘‘हैलो, मैं आराम से पहुंच गई थी. तुम कैसे हो? मांजी, बाबूजी और परी सब कैसे हैं?’’ ‘‘सब ठीक है. तुम यहां की चिंता मत करो. मैं औफिस के लिए थोड़ी देर में निकल रहा हूं. सभी ने अपना खाना खुद निकाल कर खा लिया है. मां ने बाई से सारा काम करवा लिया. बाबूजी खुद दोनों की दवाई निकाल कर समय से खाने की याद रख रहे हैं. और परी, तुम जैसा करती हो, हम सब को अगली चीज करने की याद दिला रही है.’’ ‘‘हमारी बच्ची इतनी सम?ादार हो गई है, यकीन नहीं होता,’’ शीतल मुसकराती हुई आश्चर्य से कहने लगी. ‘‘तुम न जातीं तो पता ही न चलता कि यह लड़की बिना कुछ कहे या टोके अपने सभी काम खुद से कर सकती है और तुम विश्वास नहीं करोगी, आज उस ने बिना नखरे किए कद्दू की सब्जी अपने हाथों से खाई है.’’

‘‘जो सुधार मैं महीनों से नहीं कर पाई वह आप ने एक दिन में ही कर दिखाया. मान गई आप को.’’ ‘‘तुम्हारा धन्यवाद. मैं ने कहा था न, सब मैनेज हो जाएगा. अब तुम जब वापस आओगी तो सब की आदतें बिलकुल ऐसे ही रहने देना. तभी अपना टीचिंग जौब वापस चालू करने की सोच सकती हो.’’ ‘‘आप ने सही कहा. सब ऐसा ही चलता रहा तो जल्द शुरू कर पाऊंगी.’’ ‘‘चलो, तुम ध्यान रखो वहां. मु?ो औफिस के लिए देर हो जाएगी.’’ ‘‘ठीक है.’’ अभिनव की बातें सुन कर मानो उस के मन से बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो, वहां सब अपने पति को अच्छे से संभाला हुआ पा कर वह अपनेआप निश्चिंत होने लगी. आज अपने पति के प्रति अलग सा प्यार और झुकाव होते उसे महसूस हुआ. सभी डाक्टरों को दिखा कर रात हो गई. यह अच्छा रहा कि कुछ बड़ी बात नहीं निकली. बस 2 हफ्ते की दवाइयां और आराम भर से उन के जल्दी ठीक हो जाने का आश्वासन पा कर वे सब बहुत खुश हुए.

वहां कुल 10 दिन बिताने के बीच शीतल को अपने बचपन के वे सभी क्षण याद आ रहे थे जब कभी वे बहनें बीमार पड़तीं या चोटिल होती थीं और कैसे उन की मां दिनरात सेवा में लगी रहतीं. पिता नियम से काम पर जाने से पहले उन्हें कड़वी दवाई के घूंट बड़े प्यार से पिला कर जाया करते थे. तब उन्हें उन के साथ और प्यार की कितनी जरूरत थी. उन के बिना वे जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते थे. वहीं, वे शीतल को एकाएक अपने समक्ष पा कर और इतने संवेदनशील दिल का दामाद पा कर बहुत खुश महसूस कर रहे थे. यह बात तो पक्की थी कि बिना उन के सहयोग व आश्वासन के बगैर कोई भी बेटी अपना घरबार इतने दिन ऐसे छोड़ कर आने की हिम्मत नहीं जुटा सकती थी.

कुछ दिनों बाद उन की तबीयत सुन आसपास के रिश्तेदार और समाज के लोग एक के बाद एक उन से मिलने घर आने लगे. शीतल को बिना बिटिया के मुसकराते हुए देख उन के साथ हर पल साए की तरह मौजूद पा कर सब हतप्रभ रह गए. सब उस से तरहतरह की पूछताछ करते नहीं थक रहे थे. सभी सवालों की झड़ी के जवाब देदे कर उसे पता नहीं क्यों भीतर ही भीतर ऐसा पति पा कर सम्मानित महसूस हो रहा था. क्या एक पति का ऐसा हृदय दिखाना क्या इतनी बड़ी बात है. वैसे, देखा जाए तो पीढि़यों से यही काम एक बहू आजीवन बड़ी निष्ठा से करती आ रही है, क्या तब भी औरों के लिए एक औरत का इतना त्याग करना इतना ही आदरकारी कार्य माना जाता है?

खैर. मातापिता हर किसी के सामने प्रफुल्लित हो अपने दामाद की प्रशंसा करते हुए कहने लगे, ‘‘उन्होंने ही जिद कर शीतल को हमारे पास अकेले यहां भेजा और अगली ही ट्रेन से. इतने दिनों के लिए हमारे पास निश्चिंत हो हमारा खयाल रख रही है. तो फिर क्या था. सब ने केवल एक बात दोहराई, ‘‘भई, दामाद हो तो ऐसा.’’ ‘‘भई दामाद हो तो ऐसा.’’ जब एक लड़की की शादी हो जाती है तो उसे बस, घर की बहू के रूप में ही क्यों देखा जाता है? जिन्होंने उसे जन्म दिया, पालापोसा, पढ़ायालिखाया, अपने कलेजे का टुकड़ा समझ, हर सुखदुख में चट्टान की तरह साथ दिया. इतने संस्कार और सामंजस्य की घुट्टी पिलाई कि वह ससुराल जा कर एक आदर्श बहू की उपाधि प्राप्त कर सके. फिर ऐसा क्यों होता है कि किसी मुश्किल घड़ी में या बुरा वक्त आने पर उसे उस के ही जन्मदाता से पराए की तरह बरताव करने के लिए दबाव डाला जाता है. इस बात को क्यों अहमियत नहीं दी जाती कि वह एक पत्नी, बहू व मां के साथसाथ किसी की बेटी भी है?

टीनएज में जब गर्लफ्रैंड बने

दिल तेरे बिन कहीं लगता नहीं वक्त गुजरता नहीं क्या यही प्यार है. अकसर हर युवा दिल इस सिचुएशन से गुजरता है. अगर आप का हाल ए दिल भी आजकल यही है जनाब, तो आप सही जगह हैं. हम आप को यही समझाना चाहते हैं कि कुछ देर शांति से बैठ कर अपने दिल से पूछ तो लें कि यह प्यार ही है या फिर इंफेक्चुएशन है.

आज तुम्हें वो लड़की बहुत अच्छी लग रही है लेकिन कल उस ने तुम्हारे साथ चलने को मना कर दिया, अपनी डीपी शेयर नहीं की या फिर किसी ओर लड़के से बात कर ली तो कहीं गुस्से में रिश्ता तोड़ने तो नहीं बैठ जाओगे. सच तो यह है कि अगर ये तुम्हारे इंफेक्चुएशन है तो 10 दिन में खतम हो जाएगी. तुम्हे 14-15 साल की उम्र में मालूम ही नहीं कि गर्लफ्रैंड का मतलब क्या होता है. शायद आप के पेरैंट्स भी यही बात कहते होंगे. लेकिन आप चाहें तो खुद इसे एक्सपीरियंस कर के देख लें.

स्टेटस सिम्बल भी है गर्लफ्रैंड या बौयफ्रैंड बनाना

14 वर्षीय आशिमा से जब पूछा गया कि आखिर उसे बौयफ्रेंड की जरूरत क्या है? तो उस का जवाब था कि साथसाथ घूमनेफिरने और पार्टियों में जाने के लिए एक बौयफ्रैंड तो चाहिए ही, वरना लोग सोचेंगे कि मुझ में कोई आकर्षण ही नहीं है.

मेरी सभी सहेलियों के तो बौयफ्रैंड हैं. अगर मैं नहीं बनाउंगी तो लोग मुझे लो क्लास समझेंगे और अपने ग्रुप का पार्ट भी नहीं बनाएंगे और साथ ही मैं उन के ग्रुप में अनफिट हो जाउंगी. अगर आप भी यही सोच कर गर्लफफ्रैंडबौयफ्रैंड बना रहे हैं तो अपने मन का करें नहीं मन है तो न बनाएं क्योंकि कुछ तो लोग कहेंगे लोगों का काम है कहना.

जमाने को न लगे खबर

गर्लफ्रैंड या बौयफ्रैंड बनाओ तो इस को शेयर ज्यादा मत करो. अगर कभी पब्लिक प्लेस में कोई जानकार मिल जाए तो बौयफ्रैंड या गर्लफ्रैंड कह कर न मिलवाएं. इस का नुकसान आप को ही होगा. उसे क्लासमेट या फिर जस्ट फ्रैंड कह कर मिलवाएं. लेकिन फिर भी अगर किसी से शेयर करना है तो उस से करो जो अपने पेट में बात रख सके. लेकिन एक फ्रैंड को जरूर मालूम होना चाहिए कि मैं इस के साथ इस कैफे में बैठ कर गप्पे मारती हूं, हम स्कूटी में राइड पर जाते हैं.

कुछ तुम कहो कुछ हम कहें

अगर बौयफ्रैंड बना ही लिया है तो उसे परखें और खूब बातें करें और जानें क्या उस का और आप का मेंटल लेवल मैच कर रहा है या नहीं, क्या आप अपनी पूरी जिंदगी उस इंसान के साथ बिताने में कम्फ़र्टेबल हैं भी या नहीं. बातोंबातों में पता करें कि उस की लाइफ के गोल क्या हैं. उस के बाद ही किसी नतीजे पर पहुंचें कि सिर्फ टाइम पास करना है या फिर आप इस रिलेशन को ले कर सीरियस हैं.

अपनी फर्स्ट प्रायोरिटीज तय करें

वैसे तो आप का सब से पहला फोकस अपने कैरियर पर ही होना चाहिए. यही समय है जब पढ़लिख कर कुछ बना जा सकता है. फिर ऐसे गर्लफ्रैंड और बौयफ्रैंड तो बहुत मिल जाएंगे पर अगर किसी पर दिल आ ही आ गया है तो कोई नहीं बौयफ्रैंड बनाएं लेकिन फर्स्ट प्रायोरिटी केवल कैरियर ही होना चाहिए क्योंकि गर्लफ्रैंड और बौयफ्रैंड तो आतेजाते रहेंगे लेकिन अगर पढ़ाई करने का यह समय चला गया तो फिर लौट कर नहीं आएगा.

वेल्थ टैक्स है क्या बला और क्यों डर रहे हैं लोग

वेल्थ टैक्स लागू होने को ले कर मांग शुरू हो गई है. यह मांग 2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान की गई थी. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने एक चुनावी भाषण में कहा था कि उन की सरकार आने पर वे एक आर्थिक सर्वे कराएंगे. इस के बाद संपत्ति का बंटवारा होगा. इस के पीछे की योजना वेल्थ टैक्स की ही थी. कांग्रेस इस के जरिए गरीब जनता का वोट लेना चाहती थी. नरेंद्र मोदी ने इसे मंगलसूत्र से जोड़ कर चुनाव प्रचार का हिस्सा बना लिया था. चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, टैक्स बढ़ाने का कोई अवसर नहीं छोड़ती हैं. ऐसे में ‘वेल्थ टैक्स’ चर्चा में है.

वेल्थ टैक्स के लाभ

‘वेल्थ टैक्स’ के जरिए ‘आर्थिक असमानता’ को दूर करने का काम किया जाना है. साधारण शब्दों में समझें तो यह ‘अमीरों पर अलग से लगने वाला टैक्स’ होता है. आर्थिक असमानता का मतलब होता है कि अमीरों और गरीबों के बीच धन का बहुत बड़ा अंतर होना. सरकार वेल्थ टैक्स लगा कर इस अंतर को कम करती है. जिस के पास जितनी अधिक संपत्ति होगी, उसे उतना अधिक टैक्स देना पड़ेगा. इस टैक्स की मांग से अमीरों में डर फैलने लगा है. जब अमीर और गरीब के बीच की खाई चौड़ी हो जाती है, तब जनता के बीच अविश्वास पैदा होने लगता है. ऐसे में गरीब वर्ग को खुश करने के लिए सरकारें ऐसा करती हैं.

कैसे होगी वेल्थ टैक्स की गणना

उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति की 1 करोड़ से अधिक आय होने पर वेल्थ टैक्स लगता है. साथ ही किसी व्यवसाय में 10 करोड़ से अधिक आय होने पर उस व्यवसाय के रिटर्न पर भी वेल्थ टैक्स लगता है. यदि कोई व्यक्ति भारत का निवासी है और भारत में रहते हुए विदेश में उस की कोई भी संपत्ति है, तो उस पर भी वेल्थ टैक्स लागू होगा. इस के अलावा, एनआरआई होने पर भी यदि भारत में संपत्ति है, तो उस संपत्ति पर वेल्थ टैक्स लगेगा.

वेल्थ टैक्स से कई लाभ भी होंगे. इस के अंतर्गत आर्थिक असमानता दूर होगी और भारत की अर्थव्यवस्था को फायदा होगा. भारत की जीडीपी का 2.73 प्रतिशत भाग यहीं से मिलेगा. जो लोग नियम अनुसार सुपर रिच कैटेगरी में आएंगे, उन पर 2 प्रतिशत अतिरिक्त वेल्थ टैक्स और 33 प्रतिशत इनहेरिटेंस टैक्स लगेगा. भारत में 2014-15 और 2022-23 के बीच आर्थिक असमानता बढ़ी है. यदि यह वेल्थ टैक्स लागू होता है, तो इस के घेरे में केवल 0.04 प्रतिशत लोग ही आएंगे.

किस वेल्थ पर लगेगा टैक्स

‘वेल्थ टैक्स’ के दायरे में प्रौपर्टी, घर, दुकान, अन्य प्रकार की जमीनें, कार, बोट, एयरक्राफ्ट, सोना, चांदी और मौजूदा नकद रुपए, साथ ही साथ आर्ट पीस और एंटीक पीस पर भी टैक्स लगता है. वेल्थ टैक्स का भुगतान रेजिडेंशियल स्टेटस और संपत्ति की वैल्यू पर भी निर्भर करता है. सामान्य तौर पर हिंदू अविभाजित परिवार, व्यक्तियों और कंपनियों को अपनी संपत्ति के अनुसार इस का भुगतान करना होता है.

टैक्स का भुगतान करने वाले करदाताओं के बीच समानता लाने के उद्देश्य से सरकार पहले वेल्थ टैक्स वसूलती थी. साल 2015 में सरकार ने इस की जगह 2 प्रतिशत से बढ़ा कर सरचार्ज को 12 प्रतिशत कर दिया और 1957 से लागू वेल्थ टैक्स को हटा दिया, क्योंकि वेल्थ टैक्स में जितना सरकार को कलेक्शन होता था, उस से ज्यादा खर्च हो जाता था.

अब भी सरकार वेल्थ टैक्स वसूलती है, लेकिन सभी नागरिकों से नहीं और न ही सभी संपत्तियों पर. वेल्थ टैक्स की गणना रेजिडेंशियल स्टेटस और संपत्ति की वैल्यू पर की जाती है. किसी कंपनी, व्यक्ति या हिंदू अविभाजित परिवार की संपत्ति 30 लाख रुपये से ज्यादा है, तो जितनी वैल्यू ज्यादा होगी, उस पर उन्हें एक प्रतिशत की दर से टैक्स का भुगतान करना होगा.

क्या कहता पुराना अनुभव

आर्थिक असमानता को दूर करने के लिए आजादी के बाद से ही सरकार ने ऐसे प्रयास किए हैं. सब से पहले 507 राज्यों को भारत में मिलाया गया. इस के एवज में उन्हें प्रिवी पर्स देने का प्रावधान रखा गया. 1971 की इंदिरा गांधी सरकार को लगा कि प्रिवी पर्स जनता की जेब पर भारी पड़ रहा है और इस से सामाजिक असमानता बढ़ रही है. तब प्रिवी पर्स को खत्म कर दिया गया. इसी तरह जमींदारी उन्मूलन के तहत जमीनों की सीमा तय की गई. इस कानून के तहत जमींदारों की जमीन सरकार ने ले ली और उन के पास जमीन का कम हिस्सा रहने दिया.

1957 में 2 प्रतिशत वेल्थ टैक्स भी लगाया गया था, जिसे 2014 में 12 प्रतिशत सरचार्ज में बदल दिया गया. वेल्थ टैक्स से स्थिति यह हो गई थी कि कई बार इस टैक्स को चुकाने के लिए जमीन बेचनी पड़ रही थी. चुनाव के समय कांग्रेस ने इसे वापस लगाने की मांग की. अब डर इस बात का है कि कहीं सरकार 12 प्रतिशत सरचार्ज की जगह पर 2 प्रतिशत वेल्थ टैक्स अलग से न लगा दे. जीडीपी की ग्रोथ रेट से ज्यादा टैक्स नहीं होना चाहिए. यदि ऐसा है, तो यह समझा जाता है कि सरकार नागरिकों का खून चूस रही है.

सरकार टैक्स वसूले, खून न चूसे

टैक्स लगाने से बेहतर होता है कि सरकार कुछ ऐसे उपाय करे कि लोग संपत्ति जमा ही न कर सकें. जो पैसा मिले, उससे आर्थिक असमानता न बढ़े. जैसे आज वेतनभोगियों की तुलना करें, तो प्राइवेट सेक्टर और सरकारी सैक्टर के वेतन में अंतर है. प्राइवेट सैक्टर में भी एक कंपनी से दूसरी कंपनी के वेतन में अंतर है. जहां सरकारी सैक्टर में वेतन के साथ पेंशन, हेल्थ बीमा और अन्य सुरक्षा साधन हैं, वहीं प्राइवेट सैक्टर में कोई नियमकानून नहीं है.

तमाम बिजनेसमैन, जमींदार और राजा की तरह मुनाफा कमा रहे हैं, लेकिन वेतन और कर्मचारी सुरक्षा पर काम नहीं करते हैं. इस तरह की असमानता को दूर करने का काम सरकार को करना चाहिए. सरकार कानून बना कर प्राइवेट सैक्टर के वेतनभोगियों को सुरक्षा प्रदान करे, जिस से संपत्ति एकत्र न हो सके और वेल्थ टैक्स लगाने की जरूरत ही न पड़े. वेल्थ टैक्स से आर्थिक असमानता दूर होगी, यह जरूरी नहीं है. जमींदारी उन्मूलन और राजाओं की संपत्ति लेने के बाद भी आर्थिक असमानता दूर नहीं हुई है. वेल्थ टैक्स की जगह अन्य उपायों पर सरकार को विचार करना चाहिए.

कहीं आप ममाज बौय तो नहीं

‘ममाज बौय’ शब्द का इस्तेमाल सामान्यतया ऐसे पुरुषों को इंगित करने के लिए किया जाता है जिस में आत्मनिर्भरता की कमी होती है और जो युवा होने के बाद भी अपनी मां पर अत्यधिक निर्भर होता है. हालांकि इसे निगेटिव रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा है लेकिन बदलते नजरिए ने आज इस शब्द के इस्तेमाल के तरीके में बदलाव ला दिया है. हाल के वर्षों में इस शब्द का इस्तेमाल ऐसे लड़कों या पुरुषों को दर्शाने के लिए किया जाने लगा है जो अपनी मां की सराहना करता है, उस का सम्मान करता है और उन के साथ गहरा लगाव रखता है.

शोधों से पता चलता है कि अपनी मां के साथ मजबूत रिश्ते रखने वाले लड़के और पुरुष मानसिक रूप से स्वस्थ होते हैं, अधिक सहानुभूति भरा स्वभाव रखते हैं और महिलाओं के साथ उन के रिश्ते बेहतर होते हैं. यह भी सच है कि वह अपनी मां के बिना कोई काम नहीं कर सकते.

इस शब्द का पहली बार प्रयोग 1900 के दशक के प्रारंभ में किया गया था. इस का प्रयोग सिगमंड फ्रायड और बेंजामिन स्पाक जैसे सिद्धांतकारों और बाल विकास शोधकर्ताओं ने भी किया है. एथलीट से ले कर बिजनेसमैन तक कई पुरुष गर्व से दावा करते हैं कि वे ममाज बौयज हैं. इस में देखा जाए तो कोई बुराई नहीं है. मुश्किल तब आती है जब इन की शादी होती है.

एक पत्नी अपने पति पर पूरा हक चाहती है और इस प्यार को किसी के साथ बांटना नहीं चाहती. मगर ये पत्नी को आधाअधूरा प्यार और समय दे पाते हैं क्योंकि बाकी समय और प्यार तो मां के नाम होता है. ये हर बात मां से पूछ कर करना चाहते हैं जैसा कि इन्हें शुरू से आदत होती है. मगर यही बात पत्नी को चुभने लगती है. पत्नी ही नहीं अकसर गर्लफ्रेंड्स भी ममाज बौयज को पसंद नहीं करतीं.

मोहित एक 23 साल का नौजवान है और अपने मांबाप के साथ रहता है. वह इकलौता बेटा है इसलिए अपनी मां का ज्यादा ही दुलारा है. बचपन से उस के सारे काम उस की मां करती आ रही है. उस के कपड़े धोने, बैड ठीक करना, चादर बदलना, उस के कपड़ों पर प्रेस करना, उस के जूते साफ करना, उस के कमरे के लिए नए परदे लाना, खाना टेबल पर रख कर जाना, उस के सोने का इंतजाम देखना और यहां तक कि सुबह समय पर उठाना भी. वह एग्जाम देने जाता तो मां उस का बैग भी संभालती. अब औफिस ज्वाइन करने के बाद भी मां ही उस का बैग सही करती है. वह कहीं भी जाता है तो मां को साथ ले जाता है.

एक दिन जब वह अपनी गर्लफ्रैंड के साथ था तो उस की मां का फोन आया यह पूछने के लिए कि उसे दोस्त के बर्थडे पार्टी के लिए किस कलर की शर्ट पहननी है ताकि वह उस शर्ट को धो कर और प्रेस कर तैयार कर दें. मां ने उसे यह भी समझाया कि वह ब्लू शर्ट में स्मार्ट लगता है इसलिए उसे ब्लू शर्ट ही पहननी चाहिए. मोहित ने ब्लू शर्ट के लिए हामी भर दी साथ में यह कहना भी नहीं भूला कि मां आप भी मेरे साथ चलोगी. बर्थ डे अगले ही दिन था.

मोहित की गर्लफ्रैंड को यह जान कर बहुत आश्चर्य हुआ कि उस का बौयफ्रैंड अपने सारे काम आज भी अपनी मां से कराता है. मां ही यह फैसला लेती है कि वह किस ओकेजन में कौन से कलर के कपड़े पहने. गर्लफ्रैंड ने हंसते हुए ताना कसा,

“यार जब हम छोटे होते हैं तो हमारा सारा काम हमारी मां करती है. लेकिन समय के साथ जब हम बड़े हो जाते हैं और अपनी जिम्मेदारियां खुद उठाने लायक हो जाते हैं तब हर काम मां से कराने का क्या मतलब? मां ने पिछले 18 – 20 साल तुम्हारे ऊपर लगा दिए. अब तो उन्हें अपनी जिंदगी जीने दो या अब भी उन्हें तुम्हारे ही आगे पीछे घूमना चाहिए? कल को मैं या कोई और लड़की तुम्हारी पत्नी बनेगी तब भी क्या तुम्हारे हर काम में मां की दखल होगी? मां ही हर जगह तुम्हारे साथ जाएगी? तब तुम्हारी पत्नी का क्या होगा? वैसे भी अब तुम अपने हर काम खुद करने के योग्य हो तो फिर मां पर यह निर्भरता क्यों?”

मोहित को बात समझ आ गई थी. उस ने तुरंत फोन उठाया और मां को कौल कर के बोला, “मां आप मेरे शर्ट की टेंशन मत लो. आज मैं अपनी दोस्त के साथ शौपिंग करने जा रहा हूं और हम वहां कल की पार्टी के लिए एक अच्छी शर्ट ले लेंगे. मैं कल उसी के साथ चला जाऊंगा आप बिलकुल भी टेंशन मत लेना.”

दरअसल आजकल एक या दो बच्चे होते हैं जो पेरैंट्स खासकर मां के बहुत लाडले होते हैं. माएं अपना सारा समय बेटे की जरूरतें पूरा करने में लगा देती हैं. यह आदत कुछ ऐसी लग जाती है कि बेटे के बड़े होने के बाद भी वह उसी के कामों में लगी रहती हैं. बहुत से बेटे भी हर काम के लिए मां के आसरे रहते हैं.

मगर युवा पीढ़ी को समझना होगा कि मां ने अपनी जिंदगी के इतने साल जब बेटे के पालनपोषण में लगा दिए तो अब समय है जब उन्हें खुद के लिए जीना चाहिए. इस के लिए बेटे को हर काम खुद करने की आदत डालनी चाहिए ताकि कल को बीवी आए तो उसे यह नहीं लगे कि वह ममाज बौय है और मां के बिना हिल भी नहीं सकता. पत्नी भी कुछ सपने ले कर आती है. ऐसे में सास की हर चीज में जरूरत से ज्यादा दखलंदाजी उस के सपनों पर भारी पड़ सकती है.

पत्नी और मां के बीच सामंजस्य कैसे बैठाएं

शादी के बाद आप के जीवन में आप की पत्नी और मां दोनों का ही महत्व होता है. मां ने आप को जन्म दिया है, पालपोस कर बड़ा किया है. आप को ले कर उन के कुछ ख्वाब है. वहीं दूसरी और पत्नी भी अपना घर परिवार आप के लिए छोड़ कर आई है. वह भी आप से अपने हिस्से का प्यार चाहती है. दोनों के विचार अलग हो सकते हैं. दोनों में जनरेशन गैप भी है. पर एक चीज दोनों में समान है. दोनों ही आप का भला चाहती हैं और आप से प्यार करती हैं. इसलिए जहां तक हो सके आप दोनों को उन का स्पेस दें. दोनों को उन के हिस्से का प्यार व समय दें ताकि आप दोनों को साथ ले कर चल सकें. मां को भी ऐसा न लगे कि बहू के आने के बाद बेटा उन्हें भूल गया है और पत्नी को भी ऐसा ना लगे कि पति तो ममाज बौय है. परिस्थितियों को बेहतर बनाने और ममाज टैग को हटाने के लिए कुछ प्रयास आप को भी करने होंगे.

बेहतर होगा कि आप अपनी मां/सास को दूसरों के साथ इन्वौल्व होने को प्रेरित करें. ऐसा माहौल तैयार करें कि मां आप को छोड़ कर दूसरे कामों और दूसरे लोगों में व्यस्त हो जाए. उन की दोस्ती उन के हमउम्र लोगों से कराएं कुछ इस तरह-

मां को उन की हमउम्र महिलाओं के ग्रुप से मिलवाएं

मां को ऐसी महिलाओं से मिलनेजुलने को प्रेरित करें जो उन के उम्र की हैं. इस उम्र में अकसर महिलाओं की समस्याएं एक सी होती हैं. उन की सोच और सेहत भी एक सी ही होगी. इन महिलाओं के पास घर परिवार और सेहत से जुड़ी बातें करने के लिए बहुत सारे टौपिक्स होते हैं. वे आपस में मिलेंगीजुलेंगी तो उन का मन लगा रहेगा. अपनी समस्याएं डिस्कस कर उन का समाधान भी खोज सकेंगी. सेहत से जुड़ी बातें कर तरहतरह के योगा या फिजिकल एक्टिविटी की क्लासेज से जुड़ने लगेंगी. सहेलियों के साथ मिल कर कोई ग्रुप या क्लासेज ज्वाइन करना आसान भी होता है और आनंद भी आता है.

मां की हमउम्र ऐसी महिलाओं की तलाश के लिए आप व्हाट्सअप ग्रुप्स का सहारा ले सकते हैं. इस के अलावा सुबहसुबह किसी पार्क में मौर्निंग वाक के लिए जाने पर भी ऐसी बहुत सी महिलाएं दिख जाती हैं. बहुत सी महिलाएं तो गलीमहल्ले की ही होती हैं. मां को इन से दोस्ती करने और घर बुलाने को प्रेरित करें. कभीकभी उन्हें किटी पार्टी करने को भी उत्साहित करें.

अपनी पत्नी की सहेलियों की माओं से उन की मीटिंग करवाएं

अपनी मां को पत्नी की मां की सहेलियों से मिलवाएं. इस के लिए अपने घर में अपने दोस्तों के साथसाथ पत्नी की मां की सहेलियों को भी आमंत्रित करें. ताकि आप की मां उन सहेलियों के साथ बिजी हो जाएं और आप अपने युवा दोस्तों के साथ एन्जोय कर सकें. आप हर वीक ऐसा कर सकते हैं. धीरेधीरे आप की मां का अपना सोशल ग्रुप ही इतना बड़ा हो जाएगा कि वह उसी में बिजी रहा करेंगी. आप अपनी मां को अपनी सहेलियों के घर या कहीं बाहर घूमने जाने को भी प्रेरित कर सकते हैं. इस से आप की मां भी अब इस उम्र में आ कर अपनी जिंदगी जी सकेंगी.

उन्हें तरहतरह के शौक पालने और पूरा करने को उत्साहित करें

हो सकता है कि आप की मां को युवावस्था में किसी तरह का शौक मसलन डांसिंग, सिंगिंग, एक्टिंग, टीचिंग, राइटिंग आदि में इंटरेस्ट हो मगर परिवार में व्यस्त हो जाने की वजह से वह उसे पूरा न कर पाई हों. अब आप जब अपने जीवन में व्यवस्थित हो गए हैं तो उन्हें इन शोकों को फिर से अपनाने के लिए प्रेरित करें. आप उन्हें इस तरह के क्लासेस में भेज सकते हैं या ऐसे ग्रुप्स से जोड़ सकते हैं जो इन से सम्बद्ध हों. क्या पता आप की मां इस उम्र में भी कुछ ऐसा कर सकें जिस से आप गौरवान्वित महसूस करें क्यों कि कुछ करने के लिए उम्र मायने नहीं रखता. यह तो बस एक संख्या है. जरूरत तो उत्साह, लगन और रूचि की होती है. उन्हें मैगजीन्स पढ़ने को प्रेरित करें.

कहने का मतलब यह है कि अपनी मां की जिंदगी में फिर से एक स्पार्क और उद्देश्य पैदा करें. उन्हें सोशल और एक्टिव लाइफ जीने का हौसला दीजिए ताकि वे आप के आगे पीछे रह कर अपनी बाकी की जिंदगी में खत्म न करें और आप की पत्नी को भी अपनी शादीशुदा जिंदगी जीने का मौका मिल सके. आप भी सही अर्थों में एक आत्मनिर्भर और जिम्मेदार बेटा और पति बन सकें.

फैशन के प्रति झुकाव

अकसर माएं अपने लुक को ले कर उदासीन हो जाती हैं. मगर आप उन्हें फैशनेबल और स्टाइलिश बनने को प्रेरित कर सकते हैं. इस से मां का ध्यान आप से हट कर अपनी तरफ जाएगा. उन्हें भी कुछ नया खरीदने या सिलवाने की इच्छा होगी तो वे अपना समय इन सब में भी लगाएंगी. एक बार जब वह फैशन की तरफ रुझान पैदा कर लें तो उन का कौन्फिडेंस भी बढ़ेगा और जिंदगी में कुछ बेहतर करने या जिंदगी नए सिरे से एन्जोय करने की ललक भी बढ़ेगी.

औरों से अलग है पुलिस वालों के बच्चों की जिंदगी

निर्देशक रमेश सिप्पी की 1982 में आई फिल्म ‘शक्ति’ इसलिए हिट हुई थी कि उस में बौलीवुड के 2 दिग्गज ऐक्टर दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन पहली बार एकसाथ नजर आए थे लेकिन क्राइम और ऐक्शन प्रधान इस फिल्म की कहानी एक ऐसे आला पुलिस अफसर और उस के बेटे पर केंद्रित थी जो निहायत ही उसूल वाला, सख्त और अनुशासनप्रिय है और इतना है कि अपने इकलौते बेटे को अपराधियों के चंगुल से छुड़ाने वह अपनी ईमानदारी से समझता नहीं करता. नन्हा बेटा जिंदगीभर इस हादसे को नहीं भुला पाता और यह मान कर चलता है कि पिता अगर चाहता तो अपराधियों की गिरफ्त से उसे छुड़ा सकता था. ऐसे में उस की जान अपराधियों के ही एक साथी ने बचाई थी. कहानी कुछ ऐसे आगे बढ़ती है कि बड़ा हो कर बेटा इंट्रोवर्ट होता जाता है और फिर स्मगलरों के साथ ही मिल कर गैरकानूनी काम करने लगता है और आखिर में पिता के ही हाथों मारा जाता है.

जरूरी नहीं कि यह या ऐसी ही कोई दूसरी फिल्मी कहानी हर पुलिस वाले की जिंदगी पर लागू होती हुई हो. लेकिन इतना जरूर तय है कि पुलिस वालों के बच्चे आमतौर पर आम बच्चों से कुछ या ज्यादा अलग हट कर ही होते हैं. वे बहुत अच्छे भी हो सकते हैं और बहुत बुरे भी. यह बात उन की पेरैंटिंग पर निर्भर करती है. उम्मीद यह की जाती है कि कानून के रखवालों की संतानें जुर्म का रास्ता अख्तियार नहीं करेंगी लेकिन जब किसी पुलिस वाले की संतान ही कानून अपने हाथ में लेती है तो कठघरे में पूरा पुलिस महकमा खड़ा नजर आता है. ऐसा ही एक हादसा भोपाल में 25 मई की देररात हुआ.

जहांगीराबाद स्थित पुलिस आवासीय परिसर में कुछ पुलिसकर्मियों के बिगड़ैल बेटों ने कोई दर्जनभर खड़ी कारों के कांच तोड़ दिए और कारों में रखे कागजात व नकदी लूट ली. गुस्साए लड़कों ने दूसरी जगह भी ऐसा ही किया. क्यों किया, पूछताछ में यह खुलासा हुआ कि चूंकि आवासीय परिसर के ही लोग उन के देररात आने पर एतराज जताते हैं, इसलिए उन्हें सबक सिखाने की गरज से यह हंगामा बरपाया गया, जिस में कुछ बाहरी लड़कों ने भी इन का साथ दिया. एफआईआर दर्ज हुई और मामला मीडिया में आया तो हर किसी ने यही कहा कि जब पुलिस वालों की औलादें ही ऐसा जुर्म करेंगी तो औरों का क्या दोष. ये पुलिस वालों के लड़के होते ही उद्दंड और बिगड़ैल हैं जिन्हें कानून और पुलिस का डर नहीं रहता. जब अपने ही बच्चों को कानून की इज्जत और लिहाज करना इन के मांबाप इन्हें नहीं सिखा पाए तो मुजरिमों को क्या सुधारेंगे और सबक सिखाएंगे. तो क्या सभी पुलिस वालों के बच्चे ऐसे ही उपद्रवी और कानून तोड़ने वाले होते हैं?

इस सवाल का जवाब न में निकलता है क्योंकि इस उपद्रव की रात कई पुलिस वालों के बच्चे अपनी पढ़ाई भी कर रहे थे. अभी ये बच्चे ‘शक्ति’ फिल्म के पोर्टेबल अमिताभ बच्चन जैसे हैं, जिन्हें वक्त रहते सबक और नसीहत नहीं मिले तो ये बड़े कारनामों को भी अंजाम देने से चूकेंगे नहीं और इस का भी दोष अपने पुलिसकर्मी पिता पर मढ़ते तरहतरह की दलीलें भी देंगे. लेकिन राह भटक चले इन नौजवानों को समझाए कौन कि यह गलत है? बच्चों की आजादी पर असर जब पुलिस वाला पिता ही नहीं सिखा सका तो कोई और क्या खाक इन्हें जिंदगी की ऊंचनीच और भविष्य के बारे में बताएगा कि पुलिस वाले की संतान हो, इसलिए पुलिस से नहीं डरते. लेकिन हर बार बाप का रुतबा और रसूख काम नहीं आएगा. एकाध बार तो बाप अपने अफसरों के सामने रोधो कर, माफी मांग कर तुम्हें बचा लेगा लेकिन अगली या हर बार ऐसा नहीं होगा.

अगर पहली बार में ही तुम्हें थाने में कैद कर आम अपराधियों सरीखी तुम्हारी कंबलकुटाई की जाए तो तुम दोबारा ऐसी जुर्रत नहीं करोगे. पुलिस वाला भले ही हो लेकिन तुम्हारे पिता के सीने में भी बाप का दिल धड़कता है जो तुम्हें थाने की उन यातनाओं और रातभर किस्तों में की जाने वाली मारपिटाई से बचा लेगा जिन से एक बार गुजर कर 90-95 फीसदी लोग दोबारा गुंडागर्दी करने से डरते हैं और जो नहीं डरते वे ‘शक्ति’ फिल्म के अमिताभ बच्चन जैसे पेशेवर मुजरिम बन जाते हैं जिन का हश्र पुलिस की गोली या फिर जेल ही होती है. पुलिस वालों के बच्चे कैसे और बच्चों से अलग होते हैं, इस बाबत भोपाल के ही कोई दर्जनभर पुलिसकर्मियों और उन के बच्चों से बातचीत की गई तो जो बातें उभर कर सामने आईं उन से यह साबित होता है कि जब पुलिस वालों की ही जिंदगी आम लोगों सरीखी आम या सामान्य नहीं होती तो उस का कुछ असर तो बच्चों पर पड़ेगा लेकिन वह हमेशा नकारात्मक हो, यह कतई जरूरी नहीं.

एक कौंस्टेबल ने बताया कि वह थाना इंचार्ज इंस्पैक्टर साहब के बच्चे की ड्यूटी करता है. 15 साल के इस बच्चे को अकेला बाहर नहीं जाने दिया जाता क्योंकि उसे उन अपराधियों से खतरा हो सकता है जो साहब पर किसी बात से खार खाए बैठे हों. यह बच्चा आजादी से दूसरे बच्चों के साथ खेलकूद नहीं सकता. कोचिंग जब भी जाता है तो बाहर मेरी ड्यूटी रहती है. एक तरह से मैं साहब के इकलौते बच्चे का बौडीगार्ड हूं जो पूरे वक्त साए की तरह उस के साथ रहता है. इस पर कभीकभी वह बच्चा झल्ला उठता है और मुझे मेरे नाम से पुकार कर कहता है कि तू पीछा छोड़ यार मेरा. इस बच्चे को पैसों की कोई कमी नहीं है. वह जिस चीज पर हाथ रख देता है वह उसे दिलाई जाती है, साहब उस की कीमत नहीं देखते. उन के पास बेटे को देने का वक्त कम है जबकि पैसा ज्यादा है और वह भी कैसे आता है, यह आप को बताने की जरूरत नहीं.

जाहिर इस बच्चे का मानसिक विकास अपनी उम्र के दूसरे बच्चों की तरह नहीं हो रहा है जो उसे स्वाभाविक तौर पर कुंठित बना रहा है. यह बच्चा सुबह जब स्कूल जा रहा होता है तो टाटा करने के लिए पापा नहीं होते जो अकसर आधी रात को घर आते हैं यानी और बच्चों की तरह वह रात को पापा के गले से लिपट कर उन से गुडनाइट भी नहीं कर पाता. मम्मी जितना हो सकता है उस का उतना ध्यान रखती हैं लेकिन अधिकांश समय वे मोबाइल पर व्यस्त रहती हैं या पड़ोसिनों से गप्पें लड़ा रही होती हैं. वह बताता है, कभीकभी मम्मीपापा में मुझे ले कर कलह होती है तो दोनों एकदूसरे को दोष देते रहते हैं. मम्मी कहती हैं तुम्हारे पास टाइम नहीं तो मैं क्या करूं, जितना हो सकता है ध्यान रखती हूं. लेकिन बच्चे को बाप का भी प्यार मां की बराबरी से चाहिए रहता है. इस पर पापा रटारटाया जवाब यही देते हैं कि तो मैं क्या करूं, पुलिस की नौकरी होती ही ऐसी है कि जिस में खुद के लिए भी वक्त नहीं रहता. सो, तुम लोगों को कहां से दूं. इस कलह से कोई हल नहीं निकलता लेकिन बच्चे के दिमाग पर जरूर बुरा असर पड़ता है. वक्त की कमी पैसों से पूरी नहीं हो सकती. यह बात शायद कुछ पुलिस वालों को समझ आती.

इसलिए वे अपने स्तर पर कोई न कोई इंतजाम कर लेते हैं, मसलन छोटी जगह ट्रांसफर करा लेना और सालदोसाल में लंबी छुट्टी ले कर बीवीबच्चों के साथ घूमने निकल जाना. इस दौरान वे बड़े होते बच्चे को अपनी नौकरी की व्यस्तता और दुश्वारियों के बारे में सलीके से समझ पाने में सफल होते हैं. ट्रांसफर होने का डर एक और सबइंस्पैक्टर की मानें तो एक पुलिस वाले की और भी दिक्कतें होती हैं जिन का असर बच्चों पर पड़ता है. मसलन, बारबार ट्रांसफर होना और जहां पुलिस विभाग के आवास न हों वहां किराए का मकान आसानी से नहीं मिलता. हर मकान वाला यह मान बैठता है कि यह पुलिस वाला है, क्या पता नियमित किराया देगा या नहीं और अगर नहीं दिया तो मैं इस का क्या बिगाड़ लूंगा.

अलावा इस के, रातबिरात देर से आएगा और इस के यहां जो मिलनेजुलने वाले आएंगे भी, इस के ही जैसे लोग होंगे, जिन के कोई नियमधरम नहीं होते. पीता होगा तो और दिक्कतें खड़ी करेगा, इसलिए कौन कुछ पैसों के लिए झंझट मोल ले. इस सबइंस्पैक्टर के मुताबिक, नई जगह जब हम जौइन करने जाते हैं तो अकेला देख मकानमालिक दूर से ही हाथ इन बहानों के साथ जोड़ लेता है कि अभी मकान रिनोवेट कराना है या फिर कुछ दिनों बाद भतीजा पढ़ने के लिए आने वाला है या कि बयाना ले कर मकान का सौदा कर दिया है, कभी भी रजिस्ट्री करनी पड़ सकती है. एक साल पहले मैं सागर से भोपाल आया था तो 6 महीने होटल में रुकना पड़ा था, बाद में जैसेतैसे साथ वालों के सहयोग से मकान मिला. निर्वासित जीवन एक लेडी सबइंस्पैक्टर ने तो और भी दिलचस्प बात बताई कि ‘‘पुलिस वालों की लड़कियों और लड़कों का रिश्ता आसानी से तय नहीं होता क्योंकि सामने वाले की नजर में पुलिस वालों के बच्चों की इमेज अच्छी नहीं होती. और तो और, पुलिस वालों की लड़कियों को तो बौयफ्रैंड भी मुश्किल से मिलते हैं. हंसते हुए यह मिलनसार सबइंस्पैक्टर खुद का उदाहरण देते हुए बताती है कि मेरे पापा भी पुलिस में थे, इसलिए लड़के मुझे प्रपोज करने से डरते थे कि कहीं ऐसा न हो कि किसी चौराहे पर अपने डीएसपी पापा से ठुकाई लगवा दे.

इस युवती के साथ अब नई परेशानी परफैक्ट मैच का न मिलना है. नौकरी या बिजनैस में जमे हुए लड़के और उन के परिवार वाले पुलिस वाली बहू के नाम से ही ऐसे बिदकते हैं मानो वह कोई हौआ हो.’’ फिर कुछ गंभीर हो कर वह बताती है, ‘‘दरअसल हम पुलिसवालियों का कैरेक्टर शक की निगाह में रहता है कि यह तो रातरातभर गैरमर्दों के साथ ड्यूटी करती है, क्या पता क्याक्या करती होगी. पुलिसवालियां आम औरत नहीं होतीं, वे बेलगाम होती हैं. वे घर नहीं चला पातीं वगैरहवगैरह.

वैसे भी, पुलिस महकमा तो पहले से ही बदनाम है. मेरे साथ की 2 सबइंस्पैक्टरों को बेमन से ऐसे लोगों से शादी करनी पड़ी जिन के पति तकरीबन निठल्ले हैं. एक का हमेशा घाटे में चलने वाला छोटा सा बिजनैस है जिस के लोन की किस्तें अब सहेली भरती है तो दूसरा वकील है जिसे कभी अर्जी लिखने का भी काम मिल जाए तो वह खुद को कपिल सिब्बल समझने लगता है.’’ बातचीत के आखिर में वह कहती है, ‘‘लगता है मु?ो भी ऐसे ही किसी लल्लूपंजू से शादी करनी पड़ेगी क्योंकि खुद पुलिसवाले भी पुलिसवाली से शादी नहीं करना चाहते.

पुलिस की जिंदगी की दुश्वारियां और कुछ वास्तविकताएं वे रोजरोज देखते हैं.’’ जब खुद पुलिस वाले समाज का हिस्सा होते हुए भी एक निर्वासित सी जिंदगी जीने को मजबूर हों तो उन के बच्चे तो अलग होंगे ही. भोपाल के एक नामीगिरामी स्कूल की टीचर की मानें तो यह सच है कि पुलिस वालों के बच्चे जिद्दी होते हैं लेकिन दूसरे बच्चों से कम प्रतिभाशाली और कम मेहनती नहीं होते. एक उम्र के बाद उन का गिल्ट या कौंप्लेक्स कुछ भी कह लें दूर हो जाता है लेकिन जिंदगी के सुनहरे 15-16 साल तो उन्हें मुश्किलों में गुजारने पड़ते हैं.

आईपीएस अफसरों के बच्चों के साथ यह दिक्कत नहीं है. उलटे, दूसरे बच्चे उन से दोस्ती करने को बेताब रहते हैं लेकिन उस से नीचे के पद वालों के बच्चों को कुछ दिक्कतें होती हैं जिन्हें अच्छे दोस्त और अच्छा माहौल मिल जाए तो कोई खास मुश्किल पेश नहीं आती. पति अगर पुलिस में है तो पत्नी की जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि वह पिता की भूमिका में भी रहे और अपनी सामाजिक जिंदगी और हैसियत से बच्चे को परिचित कराती रहे जिस से उस के मन में कोई शंका न रहे.

अपनी फ्रैंड के मन से अपने प्रति जलन कैसे निकालूं ?

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

एक किट्टी फ्रैंड मुझ से जलती है. हमारी सोसाइटी का एक किट्टी ग्रुप है. मैं 48 की हो गई हूं. शादी जल्दी हो गई थी, इसलिए बच्चे भी जल्दी हो गए. बड़े बेटे की शादी हो गई है. दादी बन चुकी हूं. लेकिन देखने में छोटी ही लगती हूं. देखने वाले मुझे एडमायर करते हैं. ग्रुप में एक लेडी ऐसी है जो पता नहीं क्यों मुझ से जलती है. मुझे ताने मारती है. जब सब मेरी सुंदरता, स्किल की तारीफ करते हैं तो उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगता. मुझे वह अच्छी लगती है. मैं उस के मन से अपने प्रति जलन निकालना चाहती हूं. आखिर ऐसा क्या करूं कि सांप मर जाए और लाठी भी न टूटे. यानी कि उसे आईना भी दिखा दूं और मैं स्वयं भी ना दुखी होऊं?

जवाब – 

जब आप किसी को सुपीरियर देखते हैं तो मन में एक स्वाभाविक जिज्ञासा आती है कि आखिर वह हम से बेहतर कैसे? बस, यहीं एक पौजिटिव थिंकिंग वाला इस बात को तो एप्रीशिएट करता है, सामने वाले के हुनर या टैलेंट से सीखने की कोशिश करता है जबकि नैगेटिव थिंकिंग वाला इंसान दूसरे से ईर्ष्या, द्वेष की भावना रखने लगता है. इस किस्म के लोग वास्तव में बीमार मानसिकता के गुलाम होते हैं. उन्हें दूसरों की खूबसूरती, प्रतिभा, खुशी या सफलता रास नहीं आती. जब वे अपनी इस भावना पर अंकुश नहीं लगा पाते तब उन के मुंह से कटाक्ष निकाल जाते हैं जो सामने वाले को इनडायरैक्ट अपमानित करने के लिए होते हैं.

जहां तक आप की बात है तो आप उस लेडी के बातबात पर ताने मारने से दुखी हैं तो सब से पहले उस की बात को ज्यादा तरजीह न देते उस वक्त यह सोच कर चुप्पी साध जाएं कि आप को ताना मारना उस की कमजोरी है. हां, बाद में सही वक्त देख कर उस के मन में अपने लिए बैठे मैल को दूर करने का प्रयास करें. उस की जो भी खूबी आप को भाती हो, उस की दिल खोल कर तारीफ करें, ताकि वह स्वयं ही अपनी करनी पर शर्मिंदा हो कर आप के प्रति दोगुने सम्मान से भर उठे.

उस से साफ शब्दों में ऐसी कोई बात न कहने के लिए जरूर कहें, इस से वह सचेत हो जाएगी और किसी और से भी ऐसा व्यवहार करने से पहले कई बार सोचेगी.

तो अगली बार उस के द्वारा दिए ताने पर आप की क्या प्रतिक्रिया होगी, यह आप परिस्थितियां देख कर खुद तय कीजिएगा. बस, इतना निश्चित कर लीजिए कि उस के तानों से अपना दिल न दुखाएं.

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