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Mother’s Day 2024 – सुबह का भूला: सौतेली मां की कहानी

मां की याद मुझे बहुत ही धुंधली सी है. मैं उन दिनों 8 साल का था. एक शाम मां के पेट में जोर का दर्द उठा था. वे दर्द से बुरी तरह कराह रही थीं. पिताजी पड़ोस में रहने वाले विष्णु काका के साथ मां को अस्पताल ले कर गए थे. अगली सुबह जब मेरी आंख खुली तो घर में बहुत से लोग जमा थे. आदमी लोग भले ही पिताजी के पास चुपचाप बैठे थे लेकिन औरतें दादी के गले लगलग कर खूब रो रही थीं. मैं उस भीड़ में अपनी मां को ढूंढ़ रहा था, लेकिन वे कहीं दिखाई नहीं दे रही थीं. सब को इस तरह रोता देख कर मैं भी रोने लगा. फिर रोते हुए दादी के पास जा कर पूछा, ‘‘मां कहां हैं?’’ तो दादी मुझे सीने से लगा कर जोर से रोने लग गईं. मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था. अपने सवाल का जवाब न पा कर जब मैं पिताजी से पूछने बाहर आंगन में गया, तो उन्होंने भी बिना कुछ बोले मुझे बांहों में भर कर सीने से लगा लिया. मेरे कुछ कहने से पहले ही विष्णु काका के इशारे पर उन का बेटा दिनेश मुझे उठा कर अपने घर ले गया. वहीं उस ने मुझे नाश्ता करवाया और कई घंटों तक बैठाए रखा.

उस के बाद तो कई दिनों तक घर में अकसर लोगों का आनाजाना लगा रहा, लेकिन मां लौट कर नहीं आईं. फिर कई दिनों तक मां का इंतजार करकर और उन के बारे में सवाल पूछपूछ कर भी जब मैं कुछ जान नहीं सका तो मैं अकसर जिद करने और रोने लगा. तब एक दिन दादी ने समझाते हुए बताया कि मेरी मां अब कभी वापस नहीं आएंगी. यह सुन कर मैं हैरान रह गया. मुझे बिना बताए, मुझे यहां छोड़ कर मां कैसे कहीं जा सकती हैं? मेरे इस प्रश्न के उत्तर में दादी हर रोज एक नई कहानी सुना देतीं. हर रोज उन की कही नई बात, नई कहानी से मुझे यकीन हो चला था कि मां अब लौट कर आने वाली नहीं. उन दिनों मैं जब कभी भी रोते हुए कहता कि मुझे भी मां के पास जाना है तो दादी या पिताजी मुझे प्यार से गले लगा कर कहते, ‘बच्चे वहां नहीं जा सकते, तभी तो मां अकेली चली गई हैं.’ उन दिनों मैं बड़ी ही अजीब मनोस्थिति से गुजर रहा था. मेरी समझ में कुछ नहीं आता था. बस, कभी मां पर और कभी रोजरोज नई कहानियां सुनाने वाली दादी पर मुझे रहरह कर गुस्सा आता था. मैं दिन भर खीजता, चिड़चिड़ाता, जिद करता और रोता रहता. उधर पिताजी भी बहुत परेशान व उदास रहने लगे थे, क्योंकि वे तो बड़े थे, मां फिर भी उन्हें साथ ले कर नहीं गई थीं. पिताजी से कुछ पूछने, कहने की हिम्मत ही नहीं होती थी. वैसे वे घर पर ज्यादा रहते ही कहां थे. सुबह से देर रात तक काम के सिलसिले में घर से बाहर ही रहने लगे थे.

दिनभर चारपाई पर बैठ कर मां पर हुक्म चलाने वाली दादी पर एकाएक घर का सारा काम आ पड़ा था. दादी को वैसे भी जोड़ों के दर्द  के कारण उठनेबैठने में बहुत परेशानी होती थी. ऐसे में विष्णु काका की छोटी बहन गीता, दादी की मदद को आ जाया करती थी. धीरेधीरे वह मेरे भी सारे काम करने लगी थी. मुझे स्कूल से लाना, खाना खिलाना, मेरा होमवर्क करवाना वगैरावगैरा. उन्हीं दिनों उस ने बीए की परीक्षा दी थी. वह मुझ से इतनी बड़ी थी, फिर भी मैं उसे गीता ही पुकारता था, क्योंकि दादी उसे गीता बुलाती थीं. किसी से कोई रिश्ता जोड़ने की मेरी तब उम्र ही नहीं थी. दादी अकसर मुझे टोकतीं पर मैं दादी की उन दिनों सुनता ही कहां था. हां, गीता जरूर मेरी बात सुन कर हंस दिया करती थी. धीरेधीरे गीता ने घर का लगभग सारा काम ही संभाल लिया था क्योंकि दादी के जोड़ों के दर्द ने उन्हें चारपाई पकड़वा दी थी. मैं तब क्या जानता था कि मेरे ही घर में क्या चल रहा है, नियति मेरे साथ क्या खेल खेल रही है.

दशहरे की छुट्टियां थीं. मैं  अपने मामा के घर गया हुआ था. छुट्टियों में मैं अकसर मां के साथ उन के घर जाया करता था. उस बार मामा स्वयं मुझे लेने आए थे. 4 दिनों बाद पिताजी के साथ जब मैं घर लौटा तो देखा कि गीता घर में सुंदर गोटे, किनारी वाला सूट और ढेर सारे गहने पहने, बालों का जूड़ा बनाए आंगन में दादी के पास बैठी उन के पैरों  की मालिश कर रही है. गीता उन सब चीजों में बहुत सुंदर लग रही थी. मैं ने शरारत से मुसकराते हुए उस के पास जा कर पूछा, ‘‘गीता, क्या तुम्हारी शादी हो गई?’’ तभी दादी ने मुझे प्यार से अपने पास खींचते हुए कहा, ‘‘गीता नहीं, मां कह. अब यह गीता नहीं तेरी मां है. अब यह यहीं रहेगी, तेरी देखभाल के लिए.’’इतना सुनते ही मुझे जैसे बिजली का करंट सा लगा. पिताजी ने रास्तेभर मुझे कुछ नहीं बताया था. मैं अपने जीवन में आए इस परिवर्तन को पचा नहीं पा रहा था. आंखों में आंसू लिए घर के अंदर भागा तो वहां दीवार पर मां की तसवीर की जगह पिताजी और गीता की मुसकराती हुई तसवीर टंगी थी. अब मेरे पास किसी से कुछ पूछने को बचा ही क्या था? मैं समझ गया कि इन तीनों ने मिल कर मुझे घर से दूर भेज कर यह खेल खेला है. मेरी रुलाई फूट पड़ी. गाल आंसुओं से भीग गए. मैं घर से भागा और भागता चला गया. मुझे कुछ सूझ ही नहीं रहा था. आखिर हार कर पेड़ के नीचे बैठ, घुटनों में सिर दे कर रोने लगा और  देर तक बैठा रोता रहा.

जल्दी ही पिताजी मुझे ढूंढ़ते हुए वहां आ गए थे. वे चेहरे से बहुत दुखी लग रहे थे. मैं चुपचाप उठ कर उन के साथ चल दिया. मेरे पास और कोई रास्ता भी तो नहीं था. उन के साथ न जाता तो उस उम्र में अकेला कहां जाता? मैं घर तो आ गया, लेकिन अब मेरे जीवन में परिवर्तनों का सिलसिला शुरू हो गया था. हर रोज कुछ बदल रहा था. मां के बाद पिताजी के साथ सोने वाला मैं, अब दादी के साथ सुलाया जाने लगा था. दादी के पास मुझे नींद नहीं आती थी. अगर कभी जिद कर के पिताजी के पास सो भी जाता, तो भी सुबह उठता दादी के ही कमरे में था. गीता, जिसे मैं मां कभी न कह सका, उस का दखल अब घर में ज्यादा हो गया था, जो मुझे बिलकुल अच्छा नहीं लगता था. गीता जितना मेरे पास आने की कोशिश करती उतना ही मैं उस से दूर होता जा रहा था. बचपन का भोला मन पता नहीं क्याक्या सोचने लगा था. सही और गलत का विवेक उस उम्र में था ही नहीं, सो मैं परिवार में सब से कटाकटा अपने में ही गुमसुम सा रहने लगा था. दादी की बातबात पर मुझे गीता की तरफ धकेलने की कोशिश मुझे दादी से भी दूर करने लगी थी. पता नहीं क्यों मुझे लगता था कि मेरी देखभाल तो मात्र बहाना है. गीता दरअसल हमारे पूरे घर और घर के लोगों पर कब्जा करना चाहती है. मेरी देखभाल तो वह पहले भी करती ही थी. इस के लिए उसे पिताजी के साथ शादी करने की क्या जरूरत थी? मेरा मन दुनियादारी, रीतिरिवाज, रिश्तों के तानेबाने जैसी बातों को समझने को तैयार ही नहीं था.

गीता हमारे घर में सब पर अधिकार जमाने और मुझे पिताजी से छीनने आई है, यह बात मेरे मन में कहीं गहरी बैठ गई थी. उस पर लगा सौतेली होने का ठप्पा मुझे ठीक से कुछ सोचने ही नहीं देता था. स्कूल में दोस्तों से सुनी जा रही सौतेली मां की कहानियां, बातें और ताने मेरे मन में गीता के सौतेलेपन को कठोर बनाते जा रहे थे. पिताजी से तो मैं उसी दिन ही दूर हो गया था जिस दिन उन्होंने गीता को मेरी मां की जगह दे दी थी और मुझे अपने इस निर्णय में शामिल करना तो दूर, मुझे इस बारे में बताया तक नहीं था. वैसे बीते इतने वर्षों में मुझे कई बार लगा कि पिताजी मुझ से बहुत कुछ कहना चाहते हैं. वे अपनी स्थिति स्पष्ट करना चाहते हैं या शायद अपनी मजबूरियां मुझे बताना चाहते हैं लेकिन कह नहीं पाते. पता नहीं यह उन का संकोच है या उन के प्रति मेरा रूखा व्यवहार है जो उन्हें ऐसा करने से रोकता है. वर्षों बाद पास के शहर में सरकस आया तो सब दोस्तों ने सरकस देखने का प्रोग्राम बना लिया. पिताजी काम के सिलसिले में 3 दिनों के लिए बाहर गए हुए थे. दादी को सिधारे हुए 2 वर्ष हो गए थे और गीता को मैं किसी गिनती में लेता ही नहीं था. सो, बिना किसी से कुछ पूछे, कुछ कहे मैं ने भी दोस्तों के साथ जाने का मन बना लिया.

इसी साल कालेज में दाखिला होते ही पिताजी ने मेरे जन्मदिन पर मुझे बाइक, तोहफे में दी थी. पिताजी इसी तरह के कीमती तोहफों से अपने और मेरे बीच की दूरी को कम करने की कोशिश में लगे रहते थे लेकिन दूरियां थीं कि बढ़ती ही जा रही थीं, क्योंकि गीता जो बीच में खड़ी थी. पता नहीं क्यों मैं चाह कर भी न उसे स्वीकार ही कर पाया था और न ही खुल कर कभी कोई प्रतिवाद ही कर पाया था. 2 और दोस्तों के पास अपनी बाइक है, सो हम 6 दोस्त सुबह ही घर से निकले तो कालेज के लिए लेकिन शहर की ओर चल दिए. सरकस देखा, पूरे दिन शहर में खूब मौजमस्ती की और शाम को लौट रहे थे कि घर से लगभग 30 किलोमीटर दूर हाईवे पर एक तेज रफ्तार ट्रक ने हमारा संतुलन बिगाड़ दिया. दूसरे दोस्तों का तो पता नहीं, मैं सड़क पर उस ट्रक के साथ बहुत दूर तक घिसटता चला गया था. नीम बेहोशी की हालत में मैं ने स्वयं को अस्पताल के बिस्तर पर पाया. कब, किस ने कैसे मुझे अस्पताल पहुंचाया, मुझे कुछ पता नहीं. पट्टियों में बंधा, दर्द से निढाल था मैं और मुझे खून चढ़ाया जा रहा था. मेरे आसपास कोई नहीं था. तभी एक आवाज मेरे कानों से टकराई, ‘‘प्लीज डाक्टर साहब, कुछ भी कर के मेरे बेटे को होश में लाइए. यह हमारी इकलौती संतान है, हमारे जीने का एकमात्र सहारा है,’’ एक औरत रोंआसे स्वर में गिड़गिड़ा रही थी. मैं ने अपनी पूरी ताकत से अपनी बोझिल पलकें उठा कर आवाज की दिशा में देखा. वह औरत कोई और नहीं, गीता थी. मुझे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था.

इतनी बेबस, परेशान, दुखी और आंसू बहाती और डाक्टर के आगे हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाती गीता का यह रूप मुझ से देखा नहीं गया. मैं ने अपनी आंखें मूंद लीं. बचपन से अब तक का जीवन आंखों के सामने चलचित्र की भांति घूम गया. शरीर का दर्द कहीं पीछे छूट गया. दिल में एक टीस सी उठी. मुझे अपने जीवन का एकमात्र सहारा, अपनी इकलौती संतान कहने वाली को मैं ने तो कभी मां का दरजा ही नहीं दिया. मन आत्मग्लानि से भर गया. शायद किसी दोस्त, राहगीर या पुलिस ने घर पर खबर कर दी थी. गीता रात में अकेली कैसे, किस हाल में खबर पाते ही यहां पहुंची, कुछ पता नहीं. मैं अपनेआप को धिक्कारने लगा. आंखों से पश्चात्ताप के आंसू बह निकले. ज्यादा कुछ सेचने की स्थिति में मैं हूं ही नहीं. एकाएक दिल और शरीर से दर्द की एक लहर सी उठी और मैं मां कह कर कराह उठा.

नर्स गीता के पास जा कर बोली, ‘‘लगता है आप के बेटे को होश आ गया है. वह आप को पुकार रहा है.’’ गीता एक आह भरते हुए बोली, ‘‘मुझे नहीं पुकार रहा, मुझे तो यह गीता कहता है.’’ ‘‘आप तो कह रही थीं यह आप का इकलौता बेटा है?’’ नर्स ने हैरान होते हुए पूछा. उत्तर में वह कुछ नहीं बोली. क्या कहती, क्या समझाती वह उस नर्स को? नर्स ने भी कुछ और नहीं पूछा. वर्षों से हर रोज नएनए मरीजों की देखभाल में लगी रहने वाली नर्स के पास उन के जीवन में झांकने का समय ही कहां होता है. नर्स कंधे उचकाते हुए बाहर चली गई. मैं ने एक ममतामयी स्पर्श माथे पर महसूस किया, जिस के लिए मैं वर्षों से तरस रहा था, जो मेरे पास था लेकिन मैं ही उस से दूर भागता रहा. उस स्पर्श में जादू था जो धीरेधीरे मेरे दर्द को सुला कर मेरी चेतना जगा रहा था. सुबह जब ठीक से होश आया तो पिताजी मेरे सामने खड़े थे. मुझे जागा देखते ही, उन के अंदर मेरे प्रति वर्षों से जो आक्रोश दबा था वह फूट पड़ा, ‘‘यह वर्षों से चली आ रही इस की जिद, इस की मनमानी का ही नतीजा है. किसी को कुछ समझता ही नहीं. अरे मां सौतेली है लेकिन बाप तो तेरा अपना है, लेकिन नहीं जी…’’ गुस्से में वे और भी न जाने क्याक्या बोलते जा रहे थे.

गीता पिताजी को चुप कराती हुई बोली, ‘‘देख नहीं रहे, बेटा कितनी तकलीफ में है. ऐसे में गुस्सा करना जरूरी है क्या? बच्चा है, मन हुआ तो दोस्तों के साथ चला गया. सारी गलती तो उस ट्रक वाले की है, और आप…’’‘‘तुम आज भी इस की वकालत कर रही हो जबकि यह तुम्हें किसी गिनती में लेता ही नहीं. बेटाबेटा कहते तुम्हारा मुंह सूखता है. एक यह है जिस ने तुम्हें कभी…’’ पिताजी अपना वाक्य भी पूरा नहीं कर पाए थे कि मैं ने ‘मां’ कहते हुए गीता का हाथ पकड़ लिया. मेरी आंखों में पश्चात्ताप के आंसू थे. मां और पिताजी की आंखें भी नम हो आईं. मैं आगे कुछ बोल ही नहीं पाया. मेरे आंसू सबकुछ कह गए थे. पिताजी फौरन बाहर चले गए. शायद अपनी आंखों में आए खुशी के आंसुओं को वे किसी को दिखाना नहीं चाहते थे. गीता ने मेरे आंसू पोंछते हुए मेरा माथा चूम लिया.

अस्थमा से होने वाली 42 प्रतिशत मौतें अकेले भारत में, वजह सांस पर भारी पड़ता ट्रैफिक जाम

आशीष और मधु के बेटे राहुल को 4 वर्ष की उम्र में ब्लड कैंसर डिटैक्ट हुआ. राहुल उन का इकलौता बेटा था, लिहाजा उस के इलाज में आशीष कोई कोताही नहीं बरतना चाहते थे. वे राहुल को अमेरिका ले गए जहां उस का लंबा उपचार चला. कीमोथेरैपी के जरिए ट्रीटमैंट हुआ और करीब 6 साल में राहुल कैंसर से पूरी तरह मुक्त हो गया. आशीष और मधु ने राहत की सांस ली और भारत वापस लौट आए.

आशीष का घर गुड़गांव में था. यहां राहुल का एक स्कूल में एडमिशन हो गया. कुछ ही महीने गुजरे होंगे कि राहुल को सांस लेने में कठिनाई होने लगी. वह अन्य बच्चों के साथ प्लेग्राउंड में खेलता तो उस की सांस चढ़ जाती थी. कभी आशीष उस को स्कूल से घर ला रहे होते और उन की कार जाम में फंस जाती तो उस वक्त राहुल की हालत बिगड़ जाती थी. वह बेचैन होने लगता था और जल्दी जाम से निकलने के लिए पिता से जिद करता था.

अमेरिका से लौटने के बाद राहुल के व्यवहार में यह परिवर्तन बहुत तेजी से हो रहे थे. वह बाहर सड़क पर साइक्लिंग नहीं करना चाहता था. सामने पार्क में खेलने नहीं जाना चाहता था. जबकि अमेरिका में वह अपने पिता के साथ साइक्लिंग करता था और दोस्तों के साथ खूब खेलता था.

आशीष और मधु अपने बेटे को ले कर डाक्टर के पास गए. विस्तार से सारे लक्षण उन्हें बताए. डाक्टर ने राहुल से भी कुछ सवाल किए और निष्कर्ष यह निकला कि गुड़गांव और दिल्ली की प्रदूषित हवा राहुल को रास नहीं आ रही है. वह अस्थमा यानी दमा का मरीज हो गया है. कुछ दवाइयां और इन्हेलर के इस्तेमाल की सलाह के साथ डाक्टर ने आशीष से कहा कि अगर आप अपने बच्चे की सलामती चाहते हैं तो किसी पहाड़ी क्षेत्र, जहां आबादी और प्रदूषण कम हो, में इस को ले जा कर रहें.

आशीष और मधु अपने बेटे के जीवन की खातिर अब अमेरिका में ही बसने का मन बना चुके हैं. आशीष कहते हैं, वहां राहुल का ट्रीटमैंट भी चल रहा था और वह एक स्कूल में पढ़ भी रहा था. वहां वह बिलकुल नौर्मल था. खेलता था. बच्चों के साथ पिकनिक पर जाता था. मेरे साथ वीकैंड पर साइक्लिंग किया करता था. उस को वहां सांस फूलने की तकलीफ कभी नहीं हुई. लेकिन इंडिया आने के बाद वह बहुत विचलित रहता है जैसे कोई उस को जकड़े हुए है.

आशीष अमीर परिवार से ताल्लुक रखते हैं, लिहाजा अपने बेटे को विदेश ले जा सकते हैं, एक अच्छा और साफ माहौल दे सकते हैं मगर भारत की 80 फीसदी जनता इसी प्रदूषित हवा में सांस लेने को मजबूर है. हर तरफ फैली गंदगी और बीमारी ही उस की नियति है.

आप को यह जान कर हैरानी होगी कि अस्थमा यानी दमा के कारण दुनियाभर में होने वाली मौतों में से 42 फीसदी मौतें भारत में होती हैं. इस की मुख्य वजह है प्रदूषित वायु जो सांस के जरिए हम निरंतर अपने फेफड़ों में भर रहे हैं. वायु प्रदूषण में फैक्टरी उत्सर्जन, गाड़ियों का धुंआ, पराली और जंगल की आग का धुआं, कूड़े के पहाड़ों और कचरे से उत्पन्न बदबू, नालियों और सीवर की सड़ांध और बहुतकुछ शामिल है. धूल-मिट्टी के महीन कण एलर्जी और अस्थमा के दौरे का कारण बनते हैं. वायु प्रदूषण से अस्थमा ही नहीं, बल्कि फेफड़ों की अन्य बीमारियां भी होती हैं, जिन में फेफड़े का कैंसर प्रमुख है. अस्थमा एक लंबी चलने वाली यानी क्रोनिक बीमारी है. यह सांस की नाली संकरी हो जाने, धुल, धुएं और ठंडी हवा के प्रति संवेदनशीलता बढ़ जाने के कारण उत्पन्न होती है.

वायु प्रदूषण का मुख्य कारण ट्रैफिक जाम भी है. दिल्ली और एनसीआर अर्थात – गाजियाबाद, नोएडा, फरीदाबाद, गुरुग्राम की 3 करोड़ से अधिक आबादी के जीवन को ट्रैफिक जाम ने बहुत जटिल बना दिया है. हलकी सी बारिश हो जाए तो नोएडा और गुरुग्राम के रस्ते पर लोगों की गाड़ियां सातसात घंटे तक जाम में फंसी रहती हैं.

दिल्ली में प्रदूषण का हाल यह है कि केजरीवाल सरकार को बारबार औड एंड ईवन रूल लागू करना पड़ता है. धुल और धुंएं को दबाने के लिए आर्टिफिशियल बारिश करवानी पड़ती है. मगर यह प्रयोग असफल ही रहे हैं. इन से वायु की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं आया. सच तो यह है कि दिल्ली की हवा अब सांस लेने लायक बची ही नहीं है.

दिल्ली और उस के करीबी जिलों का वायु गुणवत्ता सूचकांक बेहद खतरनाक स्तर यानी 400 से पार ही रहता है. भारत सरकार के पृथ्वी मंत्रालय के अंतर्गत डीएसएस सिस्टम अर्थात ‘डिसीजन सपोर्ट सिस्टम फौर एयर क्वालिटी मैनेजमैंट इन दिल्ली’ ने स्पष्ट कह दिया है कि दिल्ली महानगर में वायु प्रदूषण का असली कारण गड़बड़ाया परिवहनतंत्र है. ग्रेप नीति के तहत प्रदूषण बढ़ने पर परिवहन में सुधार के जो उपाय किए जाने चाहिए, उन पर कभी ध्यान ही नहीं दिया गया.

समग्र दिल्ली अर्थात – गाजियाबाद, नोएडा, फरीदाबाद, गुरुग्राम की 3 करोड़ से अधिक आबादी के जीवन को जटिल बना रहे वायु प्रदूषण का मूल कारण ट्रैफिक जाम है. इस में सड़क पर प्रबंधन का तो अभाव है ही, हाल के वर्षों में बने फ्लाईओवर, अंडरपास और सड़कें भी दूरगामी सोच के साथ नहीं बनी हैं. जगहजगह सड़कों के किनारे अतिक्रमण कर के रेहड़ी-पटरी वालों ने कब्जा जमा लिया है जो न सिर्फ गंदगी का अम्बार बनाते हैं बल्कि सड़कों को संकुचित कर ट्रैफिक को निकलने नहीं देते. जगहजगह सड़कों के किनारे बने इन अवैध बाजारों में लोग अचानक गाड़ियां, स्कूटर आदि रोक कर खरीदारी करने लगते हैं या अपने वाहन यहांवहां खड़ा कर देते हैं जिस से बुरी तरह ट्रैफिक जाम होता है और प्रदूषण बढ़ता है.

दिल्ली के 2 सब से बड़े अस्पताल एम्स और सफदरजंग अस्पताल के सामने रिंग रोड पर पूरे दिन वाहन रेंगते हैं. बारीकी से देखें तो वहां केवल सड़क का मोड़ गलत है और बसस्टौप के लिए उचित स्थान नहीं है. साथ ही, टैक्सी और तिपहिया वाहनों का बेतरतीब खड़ा होना ट्रैफिक जाम का कारण है. यहां वाहनों की गति पर ऐसा विराम लगाता है कि इन अस्पतालों में भरती मरीजों की रोग प्रतिरोधक क्षमता तक प्रभावित हो रही है. उन पर एंटीबायोटिक दवा का असर कम हो रहा है. इतनी गंभीर समस्या के निदान पर कभी कोई सोचता नहीं, जबकि इस जाम में हर दिन कईकई एम्बुलैंस भी फंसती हैं और मरीज अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं.

दिल्ली से मेरठ के एक्सप्रेसवे को देश का सब से चौड़ा और अत्याधुनिक मार्ग कहा जाता है. साल 1999 में इस की घोषणा संसद में हुई थी और फिर शिलान्यास 2015 में हुआ. इस सड़क की लागत 8, 346 करोड़ रुपए थी. मगर 6 लेन की इस सड़क पर हर शाम जाम मिलता है. दिल्ली के प्रगति मैदान में बनी सुरंग-सड़क को देश के वास्तु का उदाहरण कहा जाता है, इस की लागत करीब 923 करोड़ रुपए आई थी. इस को शुरू हुए ज्यादा वक्त नहीं हुआ है मगर इस में भी जाम लगना हर दिन की कहानी है.

वायु प्रदूषण की बचीखुची कसर जगहजगह चल रहे मैट्रो और आवासीय निर्माण कार्यों ने पूरी कर दी है. इस के कारण पूरा यातायात और सिस्टम हांफ रहा है. यह बेहद गंभीर चेतावनी है कि आने वाले दशक में दुनिया में वायु प्रदूषण के शिकार सब से ज्यादा लोग दिल्ली में होंगे. एक अंतर्राष्ट्रीय शोध रिपोर्ट की मानें तो दिल्ली में प्रदूषण स्तर को यदि काबू में नहीं किया गया तो साल 2025 के बाद दिल्ली में हर साल करीब 32,000 लोग जहरीली हवा के शिकार हो कर असामयिक मौत के मुंह में समा जाएंगे. सांसों में बढ़ता जहर लोगों को आर्थ्राइटिस जैसे रोगों का शिकार भी बना रहा है.

दिल्ली में वायु प्रदूषण का बड़ा कारण यहां बढ़ रहे वाहन, ट्रैफिक जाम और राजधानी से सटे जिलों में पर्यावरण के प्रति बरती जा रही कोताही है. हर दिन बाहर से आने वाले डीजल पर चलने वाले कोई 80 हजार ट्रक या बसें यहां के हालात को और गंभीर बना रहे हैं. भले ही दिल्ली सरकार कहती हो कि दिल्ली में ट्रक घुस ही नहीं रहे मगर गाजियाबाद से रिठाला जाने वाली मैट्रो पर सवार हो कर यदि राजेंद्रनगर से दिलशाद गार्डन तक महज 4 स्टेशनों के रास्ते को बाहर की देखें तो जहां तक आप की नजर जाएगी ट्रक ही ट्रक खड़े दिखेंगे.

एक सूचना के अनुसार ज्ञानी बौर्डर के नाम से मशहूर इस ट्रांसपोर्ट नगर में हर दिन 10 हजार तक ट्रक आते हैं. यहां कच्ची जमीन है और ट्रकों के चलने से यहां भयंकर धूल उड़ती है. यह पूरा स्थान दिल्ली की सीमा से शून्य किलोमीटर दूर है. यही हालत बहादुरगढ़, बदरपुर, बिजवासन, लोनी और अन्य दिल्ली की सीमाओं के ट्रांसपोर्ट नगरों की है.

दिल्ली के लोगों का जीवन बचाना है और बच्चों को स्वस्थ रखना है तो दिल्ली सरकार को कई मोरचों पर एकसाथ और बहुत गंभीरता से काम करना होगा. नए वाहनों का पंजीकरण स्लो करना होगा. डीजल वाहन जो धुआं उगलते हैं उन पर भारी जुर्माना लगा कर जब्त किया जाना चाहिए. सड़कों पर अवैध अतिक्रमण और हाट-बाजारों को हटाया जाना चाहिए ताकि ट्रैफिक को गुजरने में आसानी हो. बसों को बसस्टौप पर ही रोकने के सख्त आदेश होने चाहिए. अत्यधिक निर्माण कार्यों पर पाबंदी लगाई जानी चाहिए. दिल्ली में अधिकांश स्कूलों के लगने और छुट्टी का वक्त लगभग समान है. जिस के कारण जबरदस्त ट्रैफिक जाम होता है. इन का टाइम अलगअलग किया जा सकता है. इस से कुछ राहत मिलेगी. यदि दिल्ली की हवा को वास्तव में निरापद रखना है तो यहां से भीड़ को भी कम करना ही होगा. साथ ही, कूड़े को जलाने, खासकर मैडिकल कचरे को जलाने से रोकने के लिए कड़े कदम उठाने होंगे. दिल्ली में जगहजगह जो कूड़े के पहाड़ खड़े हैं उन को जलाने के बजाय मिट्टी में पाट कर उस का निस्तारण किया जाना चाहिए. निश्चित ही इस में लंबा वक्त लगेगा मगर इस ढेर को जलाने से तो दिल्ली-एनसीआर में लोग दम घुटने से मर जाएंगे.

कोर्ट में तलाक के लिए चप्पलें घिसते जोड़ों को लटकाए रखना कितना सही

हाल ही में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में एक शख्स की पत्नी ने अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने का आरोप लगाते हुए पति के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई थी जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया. अदालत ने तर्क दिया कि कानून के हिसाब से यह अपराध नहीं है क्योंकि पत्नी अपने पति से विवाहित थी.

न्यायमूर्ति जी एस अहलूवालिया की एकल पीठ ने फैसला सुनाते हुए कहा कि कानूनी रूप से विवाहित पत्नी के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध आईपीसी की धारा 377 के तहत अपराध नहीं है. इस पर और अधिक विचारविमर्श की आवश्यकता नहीं है. फैसले में कहा गया है कि अगर एक वैध पत्नी विवाह के दौरान अपने पति के साथ रह रही है तो किसी पुरुष द्वारा अपनी ही पत्नी के साथ, जो कि 15 वर्ष से कम न हो, कोई यौन संभोग दुष्कर्म नहीं माना जा सकता.

इस का अर्थ तो यह हुआ कि चूंकि स्त्री पत्नी है इसलिए उस के साथ किसी भी तरह से बनाया गया रिश्ता गलत नहीं हो सकता. वह पति के साथ न रहना चाहे तो भी अदालत उसे पति से बांध कर रखती है. ऐसे फैसलों का औचित्य क्या है? कानून स्त्री को अलग होने की परमिशन क्यों नहीं देता? शादी करने का मतलब यह तो नहीं कि एक स्त्री सात जन्मों के लिए उस पुरुष के साथ बांध दी गई. शादी अगर सही से नहीं निभ रही और पति या पत्नी में से कोई इस रिश्ते से असंतुष्ट है तो क्या उसे अलग होने का हक नहीं?

अकसर अदालतों में तलाक के केस खारिज कर दिए जाते हैं या मामला सुलटाने का प्रयास किया जाता है. पतिपत्नी को साथ रहने को विवश किया जाता है. भले ही वे आपस में कितना भी झगड़ें या एकदूसरे को टौर्चर करें, पत्नी को जितना भी सताया जा रहा हो, मगर कोर्ट का आदेश अकसर तलाक के विरोध में होता है. अगर गाहेबगाहे तलाक केस स्वीकार कर भी लिए जाएं तो उन का फैसला आने में लंबा समय लग जाता है. कई बार तो फैसले आने में सालों लग जाते हैं. केस पेंडिंग पड़े रहते हैं. अकेले मुंबई की पारिवारिक अदालतों में 5,000 से अधिक तलाक के मामले लंबित हैं.

भोपाल का मामला

हाल ही में ग्वालियर हाईकोर्ट ने पतिपत्नी को 38 साल की कानूनी लड़ाई के बाद तलाक लेने की अनुमति दी. 38 साल पहले भोपाल न्यायालय से शुरू हुआ तलाक का यह मामला विदिशा कुटुंब न्यायालय, ग्वालियर कुटुंब न्यायालय, हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा. इतने वर्षों बाद न्यायालय ने इंजीनियर पति को 12 लाख रुपए एकमुश्त पत्नी को देने की शर्त पर तलाक की अनुमति दी.

दरअसल, भोपाल के रिटायर्ड इंजीनियर की शादी 1981 में ग्वालियर की युवती से हुई थी. 4 वर्षों तक इनके घर में बच्चा नहीं हुआ तो पतिपत्नी के बीच विवाद होने लगा. विवाद इतना बढ़ा कि 1985 में इंजीनियर पति ने पत्नी के खिलाफ तलाक के लिए आवेदन लगा दिया. हालांकि, उस दावे को कोर्ट ने खारिज कर दिया था. यहां से दोनों के संबंध बिगड़े और दोनों पतिपत्नी पूरी तरह से अलग रहने लगे. बाद में इंजीनियर पति ने विदिशा कोर्ट में तलाक का आवेदन पेश किया. मामला आगे बढ़ता रहा और 38 साल बाद आखिर में पति ने हाईकोर्ट की ग्वालियर बैंच में तलाक के लिए अपील दायर की. यहां सुनवाई के दौरान दोनों पतिपत्नी में तलाक लेने के लिए सहमति बन गई.

जल्द निबटारा जरूरी

शादी से जुड़े मामलों का जल्दी निबटारा इस वजह से जरूरी है क्योंकि मानव जीवन छोटा होता है. अगर पतिपत्नी के बीच निभ नहीं रही तो उन्हें अलग हो जाना चाहिए न कि लड़नेझगड़ने या पछताने में जिंदगी बरबाद की जाए.

जीवन बेकार की चीजों और भावनाओं पर समय गंवाने के लिए बहुत छोटा है. जब शादी से जुड़े किसी मामले में शादी को खत्म करने का अनुरोध शामिल हो तो अदालतों को एक साल की सीमा के भीतर इस का निबटारा करने का प्रयास करना चाहिए जिस से संबंधित पक्ष नए सिरे से अपने जीवन की शुरुआत कर सकें. तलाक होगा तभी तो नए जीवन की शुरुआत होगी. तलाक ही नहीं होगा तो दोनों पक्ष एक जगह पर ठहरे रहेंगे.

जितनी आसानी से शादी हो जाती है उतनी ही आसानी से तलाक क्यों नहीं होता? आखिर तलाक लेने में इतनी समस्याएं क्यों आती हैं? कहीं न कहीं सनातनी सोच कानूनी संस्थाओं पर भी हावी रहती है कि स्त्री की डोली यदि एक पुरुष के घर गई है तो वहां से उस की अर्थी ही निकलेगी क्योंकि शादी तो सात जन्मों का रिश्ता है. इस तरह की सोच स्त्रीपुरुष के संबंधों को अधिक जटिल बना देती है. शादी के बाद पुरुष एक स्त्री का मालिक बन जाता है और अपने हिसाब से उसे चलाना चाहता है. भले ही तलाक के बाद भी स्त्री का जीवन आसान नहीं रहता और ज्यादातर मामलों में दूसरी शादी भी नहीं हो पाती. फिर भी वह अलग रहने का फैसला तो कर ही सकती है न. इस में कानून बीच में कैसे आ सकता है?

35 करोड़ पर हायहाय और मंदिरों के खरबों पर खामोशी

मैं भ्रष्टाचार से लूटे गए गरीबों के धन को वापस करने के बारे में क़ानूनी सलाह ले रहा हूं. मेरा ध्यान मेरे लिए इस्तेमाल किए जाने बाले अपशब्दों पर नहीं, बल्कि उन गरीब लोगों पर है जिन का धन लूटा गया है. अकेले ईडी ने अब तक अलगअलग कार्रवाइयों में 1.25 लाख की संपत्ति जब्त की है. इस के लिए क़ानूनी सलाह ली जा रही है कि वह धन गरीबों को वापस कैसे किया जा सकता है.

6 मई को हैदराबाद की एक पब्लिक मीटिंग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह कहते हुए सीधेसीधे जो बहुत सी बातें मान ली हैं उन में खास ये हैं कि विश्व की 5वीं बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के बाद भी देश में इफरात से गरीब और गरीबी है. दूसरी बात यह कि 8 नवंबर, 2016 को नोटबंदी के फैसले के वक्त उन की ही की गई यह घोषणा भी खोखली निकली कि इस से देश में कालाधन खत्म हो जाएगा. और उसी से जुडी तीसरी अहम बात यह कि 10 साल में कालेधन को बंद करने के लिए कुछ नहीं कर पाए हैं, उलटे, यह दिनोंदिन बढ़ ही रहा है. इस के लिए उन्होंने जो कुछ कर रखा है वह अभी किसी को नजर नहीं आएगा. हां, जिस दिन जनता उखाड़ फेंकेगी उस दिन जोजो सामने आएगा, उस की भी कल्पना हरकोई नहीं कर सकता. चौथी और असल बात यह थी कि 80 करोड़ लोगों को मुफ्त राशन और दूसरी योजनाओं के जरिए इमदाद देने के बाद भी भाजपा को उम्मीद के मुताबिक वोट और सीटें नहीं मिल रही हैं, इसलिए वोटों के लिए वही लालच दिया जा रहा है जो आज से 10 वर्षों पहले दिया गया था कि देश में इतना कालाधन है कि उसे पकड़ कर हरेक के खाते में 15-15 लाख डाल दूंगा.

उन के इस झांसे से लोगों को कोई खास ख़ुशी नहीं हुई क्योंकि वे एक बार नहीं बल्कि कई बार ऐसे धोखे पिछले 10 वर्षों में खा चुके हैं. इत्तफाक से इसी दिन झारखंड के ग्रामीण विकास मंत्री आलमगीर के पीएस संजीव लाल के नौकर जहांगीर आलम के यहां से कोई 35 करोड़ की नकदी बरामद हुई थी जिसे चारा बना कर जनता के सामने उन्होंने पेश किया कि इस पैसे पर पहला हक तुम्हारा है, जो तुम्हें दिया भी जा सकता है लेकिन इस के लिए जरूरी है कि मुझे तीसरी बार प्रधानमंत्री बनाओ.
अब इस इत्तफाक में लोग भाजपा सरकार का यह रोल भी देख रहे हैं कि कहीं यह उस का ही कियाधरा तो नहीं. वजह, आजकल सबकुछ मुमकिन है और चुनाव जीतने के लिए नेता किसी भी हद तक जा सकते हैं. यह पैसा ईमान का था या बेईमानी का, इस बारे में भी कोई दावे से कुछ नहीं कह सकता. इस में हैरानी की इकलौती बात यह है कि इसे संभाल कर कमरे में रखा गया था यानी इसे कभी न कभी खर्च किया जाता जिस से यह बाजार में आता.

मंदिरों में तो जाम है पैसा

जो नकदी झारखंड से बरामद हुई वह उन पैसों के आगे कुछ नहीं है जो मंदिरों में जाम पड़ा है तथाकथित भ्रष्टाचार का पैसा अगर गरीबों का है तो मंदिरों में सड़ रहा खरबों रुपया किस का है, प्रधानमंत्री कभी इस पर क्यों नही बोलते. क्या यह पैसा भी लूट का नहीं जो लोकपरलोक सुधारने व मोक्षमुक्ति बगैरह के नाम पर पंडेपुजारियों द्वारा झटका जाता है. यह पैसा क्यों गरीबों में नहीं बांट दिया जाता, जिस के लिए किसी क़ानूनी सलाह की भी जरूरत नहीं. गरीबों के लिए दुबलाए जा रहे प्रधानमंत्री चाहें तो एक झटके में देश से गरीबी दूर हो सकती है, उन्हें बस मंदिरों का पैसा गरीबों में बांटे जाने का हुक्म देना भर है.

लेकिन वे ऐसा करेंगे नहीं क्योंकि सत्ता गरीबों के वोट से ही मिलती है. एक दफा लोकतंत्र खत्म हो जाए, संविधान मिट जाए लेकिन गरीबी पर आंच नहीं आनी चाहिए. नेहरू से ले कर इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी से ले कर मनमोहन सिंह की सरकारों ने भी गरीबी दूर करने की सिर्फ बातें की थीं, गरीबी हटाओ के लुभावने नारे दिए थे लेकिन इसे दूर करने को कुछ ठोस नहीं किया था. यही नरेंद्र मोदी कर रहे हैं. फंडा बहुत सीधा है कि जब तक धर्म और धर्मस्थल हैं तब तक गरीबी दूर नहीं हो सकती. इन के चलते गरीब अकर्मण्य, निठल्ला और भाग्यवादी बना रहता है. वह मेहनत भी कामचलाऊ करता है और जब पेट पीठ से चिपकने लगता है तो सरकार अपने गोदामों के शटर उठा देती है जिस से वह भूखा न मरे. देश के लिए तो वह किसी काम का नहीं लेकिन धर्म के लिए उसे जिंदा रखा जाता है. वैसे भी मंदिरों के पैसों पर हक भाजपा का ही है जिसे सलामत रखने की बाबत वह पंडेपुजारियों को पगार और कमीशन देती है, एवज में भगवान के ये एजेंट भाजपा के लिए वोटों की दलाली करते हैं. इन के कोई उसूल नहीं होते. एक वक्त में यही काम ये लोग कांग्रेस के लिए भी करते थे. इन का भगवान सिर्फ बिना मेहनत से आया पैसा होता है जो इन दिनों मोदी सरकार उन्हें दरियादिली से दिला रही है.

जब पैसे वालों को तसल्ली हो जाती है कि गरीब हैं और गरीबी किसी सरकार की देन नहीं बल्कि इन के पूर्वजन्मों के पापों का फल है तो वह दान की, पूजापाठ की तादाद बढ़ा देता है ताकि अगले जन्म में वह गरीबी में पैदा न हो. ऐसे में छापों के पैसों से गरीबी दूर करने का झांसा देना एक बड़ी चालाकी है. बात तो तभी बन सकती है जब मंदिरों के खजानों का मुंह गरीबों के लिए खोल दिया जाए.

देश के मंदिरों के पैसे की थाह लेना आसान नहीं है लेकिन यह हर कोई जानता है कि उन में अथाह धन है. हाल तो यह है कि एक अकेले तिरुपति के मंदिर की जायदाद से ही गरीबी दूर हो सकती है. कुबेर के इस रईस मंदिर के ट्रस्ट के मुताबिक बैंकों में 16,000 करोड़ रुपए की एफ़डी हैं जिन का ब्याज ही करोड़ों में होता है. देशभर में मंदिर ट्रस्ट की 960 प्रापर्टीज हैं जिन की कीमत भी अरबों में है. मंदिर के पास 11 टन सोना है और कोई ढाई टन सोने के गहने हैं. साल 2022-23 में ही जमा पैसे पर 3,100 करोड़ रुपए ब्याज में मिले थे और रोज करोड़ों का चढ़ावा बदस्तूर आ ही रहा है.

गरीबी तो अकेले तिरुपति के पैसे से ही दूर हो सकती है लेकिन अगर इस में अयोध्या, काशी, शिर्डी, वैष्णो देवी, उज्जैन सहित चारोंधामों का भी पैसा मिला दिया जाए तो देश में अमीरों की भरमार हो जाएगी. लेकिन फिर वे भाजपा को वोट नहीं देने वाले क्योंकि फिर उन्हें धर्म की जरूरत नहीं रह जाएगी और भाजपा को इस के सिवा कुछ और आता नहीं जो पूरे चुनावप्रचार में मुसलमानों का डर दिखाते राम-श्याम और राधेराधे करती रही. उस का मकसद पंडेपुजारियों की आमदनी सुनिश्चित करना है.
पब्लिक मीटिंगों में विपक्षियों को कोसते रहना नरेंद्र मोदी की कोई सियासी मजबूरी नहीं बल्कि चालाकी है कि ये अगर सत्ता में आए तो मुफ्त की तगड़ी कमाई वाला धर्म और मंदिर खत्म कर देंगे, फिर सब बैठ कर चिमटा हिलाते रहना. अगर इस पैसे की इस सनातनी सिस्टम की हिफाजत चाहते हो तो मुझे वोट दो, मैं गरीबी बनाए रखूंगा, यह मेरी गारंटी है.

चोरी की जिंदगी : तान्या शादी करने से क्यों मना करती थी?

प्रेम कुमार, रिटायर्ड साफ्टवेयर इंजीनियर, की नौकरी इतने अच्छे ओहदे की थी कि घर, गाड़ी और बैंकबैलेंस कुछ हद तक ठीकठाक सा था. हालांकिi, ज्यादातर पैसा उन्होंने पानी की तरह बच्चों पर बहा दिया था.  बच्चों (2 बेटों और एक बेटी) की हर ख़्वाहिश पूरी करना उन्हें अच्छे से अच्छा खानाओढ़ना देना, उन्हें अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ाना और तीनों बच्चों को ऊंचे पदों पर आसीन करना उन का सपना था,  जो अब लगभग पूरा हो चुका है.
लगभग इसलिए कि बड़ा बेटा अनिल एमटैक कर के एक आईटी कंपनी में अच्छे ओहदे पर नौकरी करते हुए कंपनी की तरफ से 2 साल के लिए अमेरिका चला गया और बेटी तान्या डबल एमए, बीएड के बाद यूनिवर्सिटी औफ दिल्ली में लैक्चरर थी.   लेकिन तीसरी औलाद यानी कि छोटा बेटा सुनील बीए करने के बाद न जाने कितने एंट्रेंस की तैयारियां कर रहा था, न जाने कितने तरह के टैस्ट दे चुका था और न जाने किनकिन कोर्सों के लिए आएदिन पिता से पैसे लेता रहता. कौन जाने कुछ कर भी रहा था या केवल मौजमस्ती में ही सब समय और पैसा बरबाद कर रहा था.
बस, प्रेम कुमार जी को चिंता थी तो केवल सुनील की. हर समय यही कहते, ‘न जाने यह नालायक कुछ करेगा भी कि नहीं. कौन जाने मुंबई जा कर क्या करता है, क्या नहीं.’ बेशक प्रेम कुमार नौकरी के पूरे समय बेंगलुरु में रहे, लेकिन रिटायर होते ही 2 दिनों बाद ही अपने गांव ज्योतिसर (कुरुक्षेत्र के नज़दीक) आ पहुंचे. जो खेतीबाड़ी चाचा के बेटों राम लाल और श्याम लाल  को आधाआधा पर जोतने के लिए दी थी, उन के बेटे  राघव और माधव अब उसे हड़पने की फ़िराक़ में थे.
प्रेम कुमार जब भी खेतों में जाते, राघव और माधव उन्हें यह कह कर घर वापस भेज देते कि, ‘बड़े चाचा क्या इस उम्र में भी काम करोगे का?  अरे, हम हैं न ई का देखभाल की खातिर. हम तोहार बच्चे न सही मगर बच्चे जैसन तो हैं न. जाइबे घर जाई के आराम करी के. और हम तो कहत कि आपन कहां ईहा गांम में आपन जिंदगी खराब करेत रहिन. अपन उही सहर में जा के रहो आराम से.’
प्रेम कुमार को थोड़ा अटपटा लगता जब राघव-माधव हर बार खेतों से उन्हें वापस घर भेज देते. वे कमाई के नाम पर हिसाब भी न देते, बस, केवल अनाज उन के घर पहुंचा देते.
अगर कभी प्रेम कुमार पैसों का ज़िक्र करते कि ख़र्च के लिए ज़रूरत है तो कहते, ‘लो भई, बड़े चाचा, अब आप ने के कमी है, थारो तो पेनसन भी आवे है, खर्च तो हमारे न पूरा पड़यो है.’
आखिर एक दिन प्रेम कुमार ने साफ लफ़्ज़ों में कह दिया कि अब से वे अपने खेतखलिहान खुद संभालेंगे. उन्हें परेशान होने की आवश्यकता नहीं. इस पर राघव-माधव बिगड़ पड़े. और हो गई आपस में तूतूमैंमैं. यहां तो बात हाथापाई तक आ पहुंची. राघव-माधव बोले, ‘कोण से खेत चाचा? अब तक मेहनत की हम लोगां ने, और अब आप कहो खेत आपने दे दें. फेर हमारा के? जे खेत तो ना मिले अब थाने.’
प्रेम कुमार जी ने रामलाल और श्यामलाल से कहा तो वे बोले, “भाईसाहब अब बच्चे बड़े हो गए हैं, खुद समझदार हैं, जो कह रहे हैं ठीक ही होगा.” गांव में पंचायत बैठाई गई. पंचायत भी राघव-माधव का साथ ही देने लगी, क्योंकि उन दोनों ने पंचायत की जेब पहले से गरम कर रखी थी. प्रेम कुमार ने शहर आ कर पुलिस थाने में कंपलेंट की, लेकिन थाने के चक्कर काटकाट कर प्रेम कुमार की चप्पल घिस गई, मामला ज्यों का त्यों. अब प्रेम कुमार ने कोर्ट केस कर दिया लेकिन राघव-माधव ने पहले से ही अपने पांव इतने फैला रखे थे कि कहीं कुछ भी प्रेम कुमार को बात बनती नज़र न आती.
उधर प्रेम कुमार के बड़े बेटे अनिल ने अमेरिका में अमेरिकी लड़की से शादी कर ली और शादी की तसवीरें मातापिता को भेज कर सूचित कर दिया कि उस ने शादी कर ली, और कहा, “कोई मजबूरी थी, कुछ समय बाद इंडिया आ कर सब बात बताऊंगा.” ख़ैर, प्रेम कुमार ने कहा कि, “ठीक है, बेटा. सफाई देने की ज़रूरत नहीं. जो किया, ठीक किया.” बेटी के लिए कब से रिश्ता ढूंढ रहे हैं मगर आजकल हर लड़के वाले इतनी बड़ी बोली बोलते हैं कि प्रेम कुमार सबकुछ बेच कर भी डिमांड पूरी न कर सकें. तान्या जब भी छुट्टी में घर आती मां से हमेशा यही कहती, “मां, समझाओ न बाबा को, क्यों परेशान होते हैं. नहीं करनी मुझे शादीवादी. कभी सुना है कि जो गाय बेचता है वह पैसे देता है. गाय बेचने जाओगे तो पैसे ले कर आओगे न.”
“सुना जी आप ने, क्या कह रही है तान्या, पता नहीं आजकल के बच्चे पढ़लिख कर कैसी सोच के हो जाते हैं. भला दानदहेज बिना कभी शादी होती है. हां, यह बात अलग है कि लड़के वाले के मुंह थोड़े ज्यादा ही खुल गए हैं.” “सब सुन और देख रहा हूं. आजकल बच्चे कुछ अधिक ही सयाने हो गए हैं,”  प्रेम कुमार को एक और भी चिंता सताए जा रही थी. जो तान्या पतली-दुबली सी छुई-मुई सी हुआ करती थी, वह अब आत्मनिर्भर होने के साथसाथ शारीरिक तौर पर भी बदल रही थी. तान्या का बदन गदराया हो गया था. उस की चालढाल बदल गई थी. तान्या के उभार पहले से ज्यादा गदराए हुए हैं जो कि किसी मर्द की छुअन से ही हो सकते हैं  (क्योंकि प्रेम कुमार भी तो खेलेखाए हुए हैं अपने वक्त में)  लेकिन प्रेम कुमार कुछ कह नहीं रहे बल्कि इसलिए वे जल्द से जल्द तान्या की शादी कर देना चाहते हैं.
एक तान्या की चिंता, दूसरे सुनील की फ़िक्र. न तो वह किसी एंट्रेंस में क्लियर हो रहा है, न ही कोई नौकरी मिल रही है, उस पर ये राघव-माधव ने खेतखलिहान पर‌ कब्जा कर लिया. अनिल को फोन पर बताया कि राघव-माधव खेत आपने क़ब्ज़े में ले रहे हैं. कहीं सुनवाई नहीं हो रही. उन की पहुंच बहुत ऊपर तक है. अनिल ने दोटूक सा जवाब दे कर फोन रख दिया कि, ” मैं यहां विदेश में बैठा क्या कर सकता हूं, सुनील वहां है सुनील  से कहिए.” सुनील को‌ फोन किया तो बोला, “पापा, अब तक इन खेतों से क्या बना पाए? ले भी लें अगर तो क्या करेंगे. कौन जोतेगा, कौन देखभाल करेगा? कुछ ले-दे कर समझौता कर लो, वही सही रहेगा.”
“हूं ऊऊ कहता है समझौता कर लो, बापदादा की जमीनजायदाद ऐसे ही छोड़ दूं‌. कोई बताए ज़रा इन को तुम ने इसी खेत की रोटी खाई है. भला, डिप्लोमा इंजीनियर की कमाई में इतना कहां जो तुम्हारी हर इच्छा पूरी कर पाता. वह तो इन खेतों की वजह से खुद भी आगे पढ़ता रहा और बच्चों को भी पढ़ा दिया. और आज कहता है, छोड़ दो, क्या मिला इन खेतों से,” गुस्से में बड़बड़ाते हुए प्रेम कुमार बाहर चले गए.  कुछ दिनों बाद प्रेम कुमार की पत्नी दयावती की अचानक हार्टअटैक से मृत्यु हो गई. मां की मृत्यु के बाद बेटी अपने पिता को दिल्ली ले आई कुछ दिनों के लिए. बेटी ने खूब सेवा की पिता की, खूब अच्छे से खयाल रखा. लेकिन एक दिन शादी की चर्चा पर बापबेटी में खूब बहस हो गई.
“तान्या,  इतनी मुश्किल से ऐसा लड़का मिला है जो  कम बजट में शादी के लिए तैयार है, लेकिन अब तुम्हें क्या एतराज़ है? चाहती क्या है तू? जो बात है, साफसाफ कह. मैं पागल नहीं हूं, दुनियां देखी है मैं ने, सब जानता हूं. जो जिंदगी तू जी रही है न, मैं सब समझता हूं.   समय से अपने घर जा और मैं भी चैन की सांस ले सकूं.” “पापा, मुझे नहीं करनी शादीवादी इन लड़कों से जिन्हें आप ढूंढढूंढ कर ला रहे हैं. अगर आप को मेरी शादी की इतनी फिक्र है तो जहां मैं चाहती हूं वहीं मेरी शादी करा दीजिए. लेकिन मुझे पता है कि आप मेरी पसंद के लड़के को कभी स्वीकार नहीं करोगे, इसलिए मैं ने अब तक आप लोगों से कुछ नहीं बताया. आप लोग जात-धर्म के पचड़ों में पड़े रहते हैं.
“मेरी नज़र में अक्षित में कोई कमी नहीं. अच्छा, स्वस्थ, सुंदर लड़का है. आईपीएस औफिसर है. मुझ पर जान लुटाता है और क्या चाहिए. जो कुछ है सब सामने है. मैं आप की तरह चोरी की ज़िंदगी नहीं जी रही. देखती थी मैं आप को अकसर जब आप मां को अपने बटुए को हाथ तक नहीं लगाने देते थे. “बालकनी में छिप कर कितनीकितनी देर तक बटुए से तसवीर निकाल कर बिना पलक झपके उसे निहारते रहते, ऐसा महसूस करते जैसे वह आप के सामने है और आप उस से बातें करने लग जाते थे. तब उस समय आप को मां पर बहुत प्यार आता था.
“मैं वह तसवीर कभी नहीं देख पाई थी. यह राज़ मुझ पर तब खुला जब एक दिन मैं अपनी किसी सहेली के साथ एक प्रोजैक्ट पर काम करने के लिए बाजार सामान लेने गई तब मैं ने आप को देखा, आप शिवानी मैम के घर के बाहर स्कूटर रोक कर इधरउधर चोरों की तरह देख रहे थे जैसे कहीं कोई आप की चोरी न पकड़ ले. और फिर आप मैम के घर के अंदर चले गए. तब मुझे समझ आया कि शिवानी मैम मुझे इतना प्यार क्यों करती है. उस चोरी की ज़िंदगी से तो यह जात-पांत से दूर हमारी जिंदगी लाखगुना अच्छी है.” “हां, जी है मैं ने चोरी की ज़िंदगी, इंसान हूं मैं भी, मुझे भी कुछ पल का सुकून चाहिए था. जो मुझे शिवानी की निकटता से मिला. लेकिन तुम्हारी तरह किसी ग़ैरजात से तो रिश्ता नहीं बनाया था मैं ने. कहां हम ज़मींदार, मैं उच्च कोटि का इंजीनियर और कहां वह नाई का बेटा. क्या बराबरी हमारी और उस की.”
“वाह पापा, आप के उच्च कोटि वाले इतना मोटा दहेज मांगते हैं कि जिस की किस्तें भरतेभरते इंसान खत्म हो जाए फिर भी किस्तें न खत्म हों. और वो आप के उच्च कोटि वाले, आप के सगे वाले ही आप की ज़मीन हड़प रहे हैं और आप कोर्टकचहरी के चक्कर काट रहे हैं, जिस से कुछ हासिल होता नज़र नहीं आ रहा. और आप का वो उच्च कोटि वाला आप का अपना सपूत जो विदेश में न जाने किस से शादी कर के वहीं बस गया. भारत उसे रास नहीं आ रहा, इसलिए उस ने यहां आना तो दूर, यहां से नाता ही छोड़ लिया. और आप का वो उच्च कोटि वाला दूसरा सपूत जो आप से कह रहा है कि कुछ ले-दे कर समझौता कर लो, ज़मीन का क्या करोगे, मैं कुछ नहीं कर सकता.”
“तू चाहे कुछ भी कह, अपने तो अपने होते हैं और ग़ैर, ग़ैर ही रहेंगे. हो सकता है उस की कोई मजबूरी  रही हो. मैं कल ही अनिल से बात करता हूं और चाहे तू कुछ भी कर ले, इस नाई के बेटे से तो तेरी शादी मेरे जीते जी नहीं होगी. मेरे मरने के बाद जो जी चाहे करते रहना सब के सब.” तान्या के पिता बोलते हुए गुस्से से गांव जाने के लिए निकल जाते हैं. अगले दिन अनिल को फिर से फोन किया. अनिल के कोई जवाब न देने पर दोतीन दिनों तक फोन करते रहे. आखिर एक दिन अनिल ने साफ़ कह दिया, “पापा, मुझे डिस्टर्ब मत किया कीजिए. अपनी समस्याएं आप सुलझाइए.”
इधर तान्या ने अक्षित को पापा की ज़मीन की सारी कहानी बताई. अक्षित की पहुंच और रुतबा काफी अच्छा था, इस वजह से ज़मीन का फैसला जल्दी हो गया और प्रेम कुमार जी को उन की ज़मीन मिल गई. लेकिन अब प्रेम कुमार को एहसास हो गया था कि कौन अपना है और कौन पराया. कौन उच्च कोटि का है और कौन छोटा. इंसान कर्मों से उच्चता को प्राप्त होता है न कि जातबिरादरी या धर्म से.

पसंद का घर: क्या राजन ने पति का फर्ज निभाया?

उम्मी को ससुराल माफिक नहीं पड़ी है, यह उस की बातों से ही नहीं चेहरे पर भी पढ़ा जा सकता है. ससुराल जैसे उस के लिए जेलखाना हो गई है और मायका आजादी का आंगन. महीना भर हो गया है उसे यहां आए. 2 बार उस का बुलावा आ चुका है पर उम्मी बारबार किसी न किसी बहाने से अपना जाना टालती रही है, वहां जाने से बचती रही है.

उम्मी की बुद्धि पर सोचती हूं तो तरस आता है. आखिर वह जाना क्यों नहीं चाहती अपनी ससुराल? क्या कमी है वहां? कितना बड़ा तो घर है और कितने मिलनसार हैं घर के सारे लोग. उम्मी की सास, उम्मी के ससुर, उम्मी के देवर, उम्मी की ननदें सब के मधुर व्यवहार के बाद भी उम्मी को इतना बड़ा घर काटने को क्यों दौड़ रहा है? अब क्या किया जाए यदि उम्मी की ससुराल में 10-12 लोगों का परिवार है. उम्मी के ससुर ने पहली पत्नी की अकाल मृत्यु के पश्चात पुन: शादी की थी. इसलिए घर में बच्चों की संख्या कुछ अधिक हो गई थी. उन्हीं से घर भरापूरा सा हो गया. साथ में दादा हैं, दादी हैं, बड़े भाई की पत्नी हैं, घर न हो जैसे मेला हो, दिनरात हल्लागुल्ला, शोरशराबा. उम्मी को तो सिरदर्द हो जाता है, सब की चीखपुकार से.

उम्मी पर तरस आने लगता है जब वह कठोर स्वर में कहती है, ‘‘यह मेरी पसंद का घर बिलकुल नहीं है. मैं वहां रहूंगी तो मर जाऊंगी. वहां सुख मुझे कभी न मिलेगा.’’

‘पसंद का घर’, सोचती हूं पसंद का घर किसे मिल पाता है, इतनी बड़ी उलझी पेचीदी दुनिया में.

मेरा भी ब्याह हुआ था तब कैसा घर मिला था मुझे. क्या दशा हुई थी मेरी. ससुराल अंधा कुआं लगने लगी थी. 3 भाइयों का घर था, दूसरी बहू थी मैं. सास, ससुर, उन के मातापिता, एक देवर, विधवा ताई. रोरो कर मैं तो माथा पटक रही थी…जाने क्यों ऐसा हो गया था कि ऐसा घर मिल गया.

शायद घर के सदस्यों को किसी ने गिनने की जरूरत ही न समझी हो. राजन जैसा वर, वह भी बिना दानदहेज के मिल जाना छोटी बात न थी. पर मैं ने ससुराल में पांव रखा तो सदस्यों की एक लंबी पांत देख मेरे हाथपांव फूल गए.

अपने घर में मैं ने देखा ही क्या था, एक अपनी बहन और एक मांबाप को. दादाजी थे, वह 6 माह हमारे घर रहते थे, 6 माह दुनिया की सैर करते थे. मां काम करती थीं इसलिए घर और भी छोटा हो जाता था, और भी सूना. दिन भर मां और पिताजी बाहर.

हम जब तक स्कूल नहीं गए थे, ताले में बंद हो कर घर में कैदियों की तरह रख छोड़े जाते थे. इसी बीच के वक्त में हमें कुछ भी परेशानी हो जाए, सब अकेले ही झेलना पड़ता था.

मुझे याद है. एक बार एक ठग साधु आ कर हमारी खुली खिड़की के नीचे बैठ हमें अकेला जान कर खूब अनापशनाप कोसता हम से घर की कीमती चीजों की मांग कर रहा था. मैं ने उसे कीमती चीजें तो न दीं मगर उस के डर से बेहोश सी हो गई थी. कई दिनों तक हमें ज्वर रहा था और ज्वर में हम बारबार उसी साधु का वर्णन करते रहते थे. मां इस घटना से बिलकुल घबरा गई थीं. इस के बाद ही उन्होंने एक आया रखी थी. उस के खर्च इतने लंबे होते थे कि उसे कभी हटा दिया जाता था, कभी रख लिया जाता था और एक दिन इस आया के चक्कर में काफी रुपए चोरी हो गए थे. तब से फिर आया कभी नहीं रखी गई. यों हमें अब भी घर में अकेला रहना खलता था मगर धीरेधीरे उम्र के साथ बढ़ती समझदारी को अकेलापन पसंद आता चला गया, कुछ इतना अधिक कि हमें कोई बाहरी प्राणी एकाध दिन से ज्यादा भाता ही न था.

इसी से ससुराल में चिडि़याघर की तरह से अनेक प्राणी देख मन हिल कर रह गया था.

बड़ीबड़ी मूंछों वाले जेठजी किसी जेलर से कम न लगे थे. दिन भर हाथ में माला फेरने वाली ताईसास के साथ गुजारा कठिन लगा था, मेरा अधार्मिक चित्त जाल में फंसी हिरनी सा तड़फड़ा गया. दिन भर ‘चायचाय’ की पुकार लगाने वाले ससुरजी मुझे कोल्हू का बैल न बना कर रख दें. लजीज खानों के शौकीन नखरेलू देवरजी के किस नखरे से घर में लड़ाई छिड़ जाए, पता ही न चलता था. सुबहसुबह तानपूरे पर आवाज उठाती छोटी ननद, लगा, कान फाड़ कर रख देंगी. इन सब के बीच घर भर की लाड़ली नन्ही भतीजी गोद में चढ़ कितना परेशान करेगी, कौन जानता था.

ताईसास से तो पहले ही दिन पाला पड़ गया था. मेरे देर तक सोते रहने पर उन्होंने कड़वे स्वर में मुझे सुना कर ही कहा था, ‘‘हद है इन आज की लड़कियों की. करेंगी एम.ए., बी.ए. पर यही नहीं पढ़ेंगी, जानेंगी कि ससुराल में कैसी आदतें ले कर आना चाहिए. अब यह सोने का वक्त है?’’

‘‘छी: ताईजी,’’ बड़े जेठजी का प्रतिवादी स्वर उभरा था, ‘‘सोने दो न. नईनई शादी हुई है. अभी तो मायके वाली आदत ही होगी न. जम कर सोना और मां के हाथ का कौर निगलना. कुछ दिनों में तुम्हारी तरह सब सीख लेगी.’’

‘‘हटो,’’ ताईजी झिड़क उठीं, ‘‘मुझे क्या वक्त लगा था ससुराल की आदतें सीखने में, सब मां ने सिखापढ़ा कर भेजा था.’’

‘‘पर ताईजी, तब और अब की लड़कियों में बड़ा अंतर है. पहले की लड़कियों का बचपना तो माएं हड़प जाती थीं और उन्हें तुरंत बच्ची से जवान कर देती थीं. अब वैसी बात कहां? अब तो लड़कियां बचपना, किशोरावस्था, तरुणाई सब का आनंद एकएक सीढ़ी उठाती हैं. अभी छोटी सी तो बच्ची है, धीरेधीरे सब सिखा लेना.’’

मैं तो जेठजी की बात सुनते ही हैरान रह गई. लंबीलंबी झब्बेदार मूंछों वाले जिन जेठजी को मैं अपने माथे पर बोझ समझ रही थी, उन्हें अपनी ओर से वकालत करते देख कर हैरान रह गई. उन के प्रति श्रद्धा से मन उमड़ आया. अपनी क्षुद्रता पर झेंप गई. फिर भी सब की ओर से मन शंकित ही रहा. अंदर के चोर ने यह भी कहा, ‘अभी तो सभी के लिए नईनई हूं, सारी सहानुभूति इस नएपन की वजह से ही होगी,’ ताईसास की इस पहली झिड़की को ही यात्रा का अपशकुन मान लिया.

उस घर में जब मेरी पाककला की परीक्षा ली गई थी तो मैं ने एकएक चीज कितनी लगन से बनाई थी पर मेरी बनाई हर चीज बस प्लेटों में ही घीमसालों से तर सुंदर लग रही थी. मुंह में रखते ही हर किसी को बेस्वाद लगी. किसी व्यंजन में मसाला नहीं भुना था. किसी में नमक कम था तो किसी में ज्यादा. मांजी को मेरी रसोई तो बिलकुल न रुची थी, वह तो प्लेट एक ओर सरका कर रसोई से भागने ही वाली थीं, तभी ससुरजी ने उन्हें रोक लिया. उन्होंने बड़ी ही चालाकी से मांजी को बहलाया, ‘‘अरे, क्या हुआ, यह तो तुम्हारी बहू की रसोई का पहला दिन है. होमसाइंस में उसे पूरे नंबर न भी दो तो कम से कम गले से निगल कर तो उठो. खाली पेट उठना बहू का नहीं, खाने का अपमान है.’’

मिनटमिनट में ‘चायचाय’ चिल्लाने वाले ससुरजी से मुझे निर्वाह कितना कठिन लग रहा था मगर उन्होंने ही मेरी बेढंगी पाककला को धार में बहते देख अपने तिनके का सहारा दे कर बचा लिया. पूरे खाने के बीच वे बातों से, चुटकुलों से सब का मनोरंजन कर रहे थे. उन के इस काम में देवर और ननदें भी साथ थीं. वे सब ताई और मांजी को नाकभौं बनाने से बचा रहे थे और मैं तो उस पूरी पलटन की मूक कृतज्ञता से भरी गद्गद हो गई थी.

उसी शाम पुन: रात के खाने की मुझे जिम्मेदारी सौंपी गई तो डर से पसीनेपसीने होने लगी थी. अपनी बनाई अष्टावक्री रोटियों की हास्यास्पद कल्पना से भयभीत ही हो रही थी कि देखा, जेठानी रसोई में चली आ रही हैं. उन्होंने बड़े प्यार से मेरा हाथ थाम लिया था, तसल्ली दी थी. कैसे आटा गूंधा जाए, तरकारियां काटी जाएं, मसाले भूने जाएं, पूडि़यां बेली जाएं, सब मुझे बारबार सिखा रही थीं, समझा रही थीं. मुझ से न बनता था तो पुन: बताती थीं. मेरी तो आंखें छलकी जा रही थीं. यह कैसा रूप था उन का? मैं ने तो सोचा था कड़ी मिजाज जेठानी ही शायद युद्ध की पहली ईंट छंटेगी. पर उन्हें मां की ममता से भरी देख कर मेरा अहं टूट कर रह गया.

अभी एक मुसीबत आसान हुई थी कि दूसरे दिन दूसरी मुसीबत आ खड़ी हुई. सासजी ने इतवार का व्रत रखा था, उन के साथ बड़ी जेठानी भी रखती थीं पर जब मुझे भी व्रत रखने को कहा गया तो मेरे तो हाथपांव फूल गए. अब क्या होगा? उपवास और मुझ में तो शुरू से 36 का आंकड़ा रहा है. न रखूं तो सासजी के नाराज होने का डर है और रखूं तो इसे निभा कैसे पाऊंगी पर मेरी इस समस्या को भी जेठानी ने चुपके से हल कर दिया. उन्होंने मेरा हाथ थाम कर अकेले में कहा, ‘‘छोटी, हां कर दो. जब सासजी मंदिर जाएंगी तब तुम खा लेना. मैं जानती हूं आदत धीरेधीरे ही पड़ेगी. अभी तो भले ही यह मुसीबत लगे, बाद में बड़ा उपयोगी लगेगा. व्रत के ही नाम पर सही, शरीर पर मोटापे का नियंत्रण रहता है. बाद में यह अच्छे स्वास्थ्य की कुंजी लगेगी.’’

मैं तो उन्हें ताकती रह गई. वाकई उन्होंने गलत भी नहीं कहा था. पहले बच्चे के समय मुझे घर के एकएक सदस्य ने इतना आराम दिया कि मेरा वजन काफी बढ़ गया था. मैं तो परेशान होने लगी थी. ऐसे ही समय में मैं ने सास और जेठानी के साथ हफ्ते में एक दिन व्रत के नाम पर गरिष्ठ भोजन का त्याग करना शुरू कर दिया था. पर जेठानी की इस जरा सी समझदारी को मैं कभी न भूल पाई. ऐसा हो सकता था कि मेरे द्वारा व्रत करने का प्रस्ताव ‘ना’ होता तो वे मेरे प्रति कोई चिढ़ सी पाल लेतीं, पर जेठानी की मदद से ऐसा होने के बजाय सासजी का मन मेरे प्रति बर्फ सा पिघल उठा. वे गद्गद हो कर सब से कहतीं, ‘‘बहू हो तो छोटी जैसी. जो कहो, सिर झुका कर मानती है.’’

मेरी स्वादहीन पाककला में जैसे उस दिन से स्वाद बरस गया. खूब दुलार से कहतीं, ‘‘जाने दो, सब में सब बातें एक साथ नहीं मिलतीं.’’

मेरी तो आंखें भर आतीं. अपने मन में स्वयं को ही हजार गालियां देती. बिना जानेसमझे ही मैं ने इस घर के सारे सदस्यों को कितनी बद्दुआएं दी थीं. अब सिवा पश्चात्ताप के कुछ न होता था.

मुझे याद है जब मैं पहली बार ससुराल से मां के पास आई थी तो फिर यहां आने का नाम ही न लेती थी. मां को भी मुझे इस बड़े घर में दिए जाने का बड़ा दुख था पर वे भी क्या करतीं. असमय ही पिता के गुजर जाने से उन्हें हाथ में कुछ भी जोड़ कर रखने का मौका नहीं दिया. कुछ रखा भी था तो एक और बहन भी तो ब्याह के लिए तैयार थी. इसी से रोधो कर भी उस बड़े परिवार में मुझे भेज देना पड़ा था.

इसी बीच मैं गर्भवती हो गई थी. जैसे ही इस बात की जानकारी सब को मिली, जैसे घर का मौसम ही बदल गया. डाक्टर ने पता नहीं क्यों मुझे पूरे समय अतिरिक्त सावधानी और आराम की सलाह दे दी थी. मैं तो बस, अब दर्शक हो गई थी. मेरी थोड़ी सी सेवा, नम्रता के बदले घर के सारे सदस्य अपने स्नेह और प्यार से मुझे तोले दे रहे थे.

ताईसास ने तुरंत मेरा व्रत बंद करवा दिया. सासजी मुझे सुबहशाम अपने साथ मंदिर ले जाने के बहाने हवाखोरी करवाने लगीं. जो ससुरजी चाय के रसिया थे चाय बिलकुल बंद कर दी, कहते, ‘‘जिस दिन बहू मुझे खिलौना देगी, अब चाय उसी दिन शुरू करूंगा.’’

जेठजी तो मुझे मानते ही थे. वैसी बड़ी कमाई न थी उन की, फिर भी मैं कुछ कह दूं वह बात पूरी होते देर न लगती. ननद मेरा एकएक काम खुद करती. देवर ने कभी फिर खाने को ले कर किसी को परेशान नहीं किया. जेठानी अकेली रसोई में होतीं तो वह भी कभीकभी जुट जाता.

उन्हीं दिनों मैं ने महसूस किया था कि प्यार के बदले सिर्फ अदायगी में प्यार ही मिलता है. सासजी ने पहला उपहार पोता पाया था और रहीसही कसर पोती भी देते ही मैं सब की आंखों का तारा बन गई. सास तो मेरी मां बन गईं. वे मेरा इतना खयाल रखने लगीं जैसे मैं धरती की नहीं, कहीं और की जीव हूं. उन्होंने मेरे दोनों बच्चों को खुद संभाल लिया और मैं नौकरी करने लगी थी. मैं कहीं भी आतीजाती, मुझे इस बात की चिंता करने की कोई जरूरत ही न पड़ती कि बच्चे क्या कर रहे होंगे? अपनी मां की तरह मुझे कोई परेशानी नहीं थी. यह बड़ा परिवार कैसे बच्चों के लिए सुरक्षागृह, मनोरंजन- शाला सबकुछ था, यह मैं ही देख कर अनुभव करती थी. न किसी अकेलेपन का भय, न किसी आकस्मिक संकट पर साथी की तलाश. सबकुछ तो घर में ही था. न कोई आया, न चपरासी, न पहरेदार. बच्चे कब खाएंगे, कब सोएंगे, कब नहाएंगे, सब का हिसाब मांजी के पास तय था.

एक हम थे, मां हमें समझा कर काम पर जाती थीं पर फिर भी कुछ ढंग से न होता था. कब खाया, कब नहाया, कई बार तो हम बिना खाएपीए ही बैठे होते थे. यहां तो अपने बच्चों के खानेपीने का ध्यान बस मैं छुट्टी के ही दिन सोचती. 6 दिन बड़ी ही निश्ंिचतता से मैं ने घर भर में बांट रखे थे.

फिर इसी के 4-5 वर्ष पश्चात मेरी जिंदगी को बड़ा झटका लगा था. पतिदेव बड़ी ही निर्ममता से कुछ बदमाशों की गोलियों का शिकार हो गए. बहुत ही बहादुरी से उन्होंने उन का सामना किया, इस एवज में उन्हें सामाजिक संगठनों, दफ्तर की ओर से, सरकार की ओर से इनाम मिले थे, वाहवाही मिली थी. पर जो सब से बड़ी चीज मुझे अपनी तपस्या, अपने प्रयत्नों से प्राप्त हुई थी, वह थी इस घर से मिली सुरक्षा और सुखी आश्रय. पूरे घर ने मुझे और मेरे बच्चों को अपनी बांहों में समेट लिया. मेरा एक बूंद आंसू न मेरे आंचल में टपका न जमीन पर. सारे के सारे परिवार के सदस्यों ने हथेलियों में बटोर लिए थे.

मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं बेसहारा हो गई हूं. बड़ा परिवार आदमियों का बोझ नहीं होता. यह मैं शिद्दत से जान पाई. सहयोग और समझदारी होने पर वटवृक्ष सा छाया देता है, बस जरूरत है उसे ढंग से सहेजने की.

2 जनों वाले परिवारों के सदस्यों को मैं ने ऐसे कठिन वक्त में अपने अकेलेपन से जूझते देखा था. हारते देखा था, बीमार मानसिक रोगियों की भांति हवा से बातें करते देखा था, लड़तेझगड़ते देखा था. पर मैं कुछ ही समय में अपने खालीपन से मुक्त हो कर कर्ममार्ग में लग गई थी.

दिन भर बच्चों को प्यार करने वाले बड़े चाचा, चाची, ताईजी, सासजी, छोटे देवर सब ही तो थे. छोटे देवर तो आज तक खुद को चाचा के बजाय बच्चों से पापा कहलवाते थे.

यह अवश्य हुआ कि वक्त जैसेजैसे भागा, ताईजी, सासजी, ननद का साथ छूट गया. नौकरी के तबादले ने जेठजी, देवरजी दोनों को दूर कर दिया. पर जरूरत के उन दिनों में मेरे जख्मों पर उन्होंने अपनी आर्थिक सुरक्षा का जो मरहम लगाया था, वह उसी बड़े परिवार वाले घर की तो देन थी. अगर कहीं हठ और वर्तमान सुविधा के लालच में मैं ने वह घर छोड़ दिया होता या सदा अपने रोष का दामन थामे रहती तो उन अकेले पड़ गए दिनों में कौन काम आता. उस बड़े घर को कैसे भूल सकती हूं? मेरे लिए दुश्मनों का वह घर कब पसंद के घर में बदल गया, इस का मुझे एहसास ही नहीं हो पाया.

‘पसंद का घर क्या स्वयं मिल जाता है,’ ऐसा ही मेरी सासजी कहती थीं.

उम्मी की शिकायत भले ही आज न मिटे, कल को उस के व्यवहार से स्वयं मिट जाएगी, उसे किस तरह बताऊं.

यह तो तय है कि अंतत: मैं समझा कर उम्मी को उस के ससुराल भेज दूंगी पर सोचती हूं ये बच्चियां जाने कब समझ पाएंगी कि जिस तरह सीमेंट, गारा, ईंट, मजदूरों की बदौलत रहने को लोग अपनी ‘पसंद के घर’ का निर्माण करते हैं, उसी तरह रिश्तों के पसंद का घर धैर्य व विश्वास के द्वारा ही निर्माण किया जाता है.

मेरी पत्नी बहाना बना कर मुझसे लड़ती रहती है, क्या करूं?

सवाल

मेरी शादी हुए एक साल हो गया है, मेरी उम्र 32 साल है. शादी के बाद 2 हफ्ते तक ही पत्नी ढंग से रही. उस के बाद उस ने अपने रंग बदल लिए. कोई न कोई बहाना बना कर मुझ से लड़ती रहती है. मेरे मातापिता की इज्जत नहीं  करती. यहां तक कि गालियां भी बकती है. मैं ने उसे हर तरह से सम?ाने की कोशिश की, उस की हर ख्वाहिश पूरी करने की कोशिश की, उस की हर बात मानने की कोशिश की लेकिन नहीं, उस की हरकतें वैसी की वैसी हैं. बहुत पूछने पर बोली कि वह ऐसा ही बरताव करती रहेगी जब तक मैं अपना दोमंजिला घर उस के नाम न कर दूं.

मैं ने साफ मना कर दिया कि ऐसा तो नहीं करूंगा. ऐसा कर दिया तो वह मु?ो और मेरे मातापिता को सड़क पर खड़ा कर देगी. अब कुछ महीने से वह मु?ो धमकी दे रही है कि वह आत्महत्या के ?ाठे केस में मुझे फंसा कर मुझे जेल भिजवा कर रहेगी.

मैं बहुत डर गया हूं. मैं सीधासाधा आदमी हूं. पुलिस, कानून से दूरदूर का नाता नहीं रहा कभी. मेरे मातापिता भी बेचारे मेरी हालत देख कर बीमार रहने लगे हैं. मेरी जिंदगी बरबाद हो रही है. मैं क्या करूं कि जिस से मेरी पत्नी मुझे केस में न फंसा सके? आप की राय मुझे तबाह होने से बचा सकती है.

जवाब

लगता है आप की पत्नी का आप से शादी करने का असली मकसद मकान हड़पने का था. वह शातिर दिमाग की औरत है. सो, आप को चालाकी से काम लेना होगा. वह आप के सीधेपन का फायदा उठा रही है.

वह आप को बारबार झूठे केस में फंसाने की धमकी दे रही है तो आप को भी कई उपाय अपनाने होंगे अपने को बचाने के लिए.

सब से पहले यदि पत्नी कोई ऐसी हरकत करती है जैसे कि कोई धमकी देती है या आत्महत्या करने का  प्रयत्न करती है, या ऐसा दिखावा करती है तो उस की औडियो या वीडियो, जैसे भी हो सके, रिकौर्ड कर लें और सुबूत के लिए उसे संभाल कर रखें.

जरूरत पड़ने पर आप को अपने लिए कुछ गवाहों की जरूरत पड़ेगी. आसपास के लोग जो आप के विश्वसनीय हों, आवश्यकता पड़ने पर गवाही दे सकें कोर्ट में जा कर, या पुलिस थाने में, उन्हें अपने घर बुला लें और उन्हें अपनी पत्नी की हरकत दिखाएं ताकि वे साक्षी बन जाएं और आवश्यकता पड़ने पर आप के फेवर में बोल सकें.

यदि कभी पत्नी आत्महत्या करने का प्रयत्न करे तो बिना घबराए तुरंत 100 नंबर पर पुलिस को कौल करना चाहिए और इस बात की शिकायत करनी चाहिए. यह भविष्य के लिए आप के पास बहुत बड़ा सुबूत बन जाता है खुद के बचाव के लिए.

जब आप को पत्नी धमकी देती है या आत्महत्या करने का प्रयत्न करती है, अथवा किसी अन्य प्रकार की धमकी देती है तो आप को पुलिस को लिखित में शिकायत करनी चाहिए. आप के लिए बेहतर होगा कि आप यह शिकायत इंडियन पोस्ट के माध्यम से भेजें जिस से कि आप को एक रसीद प्राप्त हो जाती है. यदि आप पुलिस को शिकायत बाईहैंड देंगे तो पुलिस इस की रिसीविंग ले लें और यदि आप शिकायत पोस्ट से भेजते हैं तो आप को एक रसीद प्राप्त होगी जो कि एक सुबूत होती है कि आप ने शिकायत की थी.

आप को जो ये सारी कार्यवाही बताई है, इस को करने से आप के पास सुबूत इकट्ठे हो जाएंगे. यदि भविष्य में कभी पत्नी द्वारा कोई केस किया जाता है आप पर तो ये सुबूत आप के बचाव के लिए कारगर होंगे और कोर्ट में यह सिद्ध करेंगे कि आप को पहले से ही ?ाठे केस में अपनी बात मनवाने के लिए आप की पत्नी द्वारा धमकाया जाता था.

ये सारे सुबूत आप के बचाव के लिए बहुत ही ज्यादा उपयोगी सिद्ध होंगे.

अगर आपकी भी ऐसी ही कोई समस्या है तो हमें इस ईमेल आईडी पर भेजें- submit.rachna@delhipress.biz

सब्जेक्ट में लिखें- सरिता व्यक्तिगत समस्याएं/ personal problem

बेटे का विद्रोह: क्या शिव ने मां को अपनी शादी के बारे में बताया?

शादी से पहले काउंसलिंग है जरूरी

सुजाता और राजीव चौहान की शादी को सिर्फ 6 महीने ही हुए थे कि उन में रोज ?ागड़ा होने लगा. बात पिटाई तक पहुंच गई. आखिर तंग आ कर दोनों ने एकदूसरे से अलग होने का फैसला कर लिया. तलाक का फैसला देते हुए जज ने कहा कि शादी से पहले आप दोनों को काउंसलर की मदद लेनी चाहिए थी, ताकि वे आप को सम?ा सकते कि आगे दोनों में निभेगी या नहीं.

सोनिया मंडल और आकाश महतो शादी से पहले कई बार मिले, साथ घूमने गए, फिल्में देखीं वगैरहवगैरह. उन्हें लगा कि हम दोनों एकदूसरे के बारे में काफी कुछ जानतेसम?ाते हैं.

उन की शादी में एक पेंच था. दोनों हालांकि जाट बिरादरी के थे पर एक के घरवाले जमींदार किसान थे और दूसरे के फौज में साधारण सिपाही, पर पैसा इतना था कि बच्चों को शहर में पढ़ा सकें. सोनिया के पिता ने कहा भी कि आकाश के मातापिता का घर छोटा सा और वे इस तरह पैसा नहीं खर्च कर सकेंगे, पर दोनों ने कहा कि हमें तो शहर में रहना है, हमें आकाश के परिवार से क्या लेनादेना.

दोनों की नौकरियां अच्छी थीं, लगभग बराबर और रोजमर्रा के खाने के लिए काफी आय थी. उन्होंने प्लानिंग भी कर ली थी कि जल्दी ही अपना एक फ्लैट ले लेंगे. लेकिन शादी के 2 महीने बाद ही दोनों में तूतूमैंमैं, शुरू हो गई. आकाश के भाईबहन अकसर उन के प्लैट पर आ कर रहने लगे और सोनिया पर रोब जमाते. नतीजा यह हुआ कि सोनिया अपने मायके वापस आ गई. घरवालों ने लाख सम?ाया, लेकिन दोनों ही कुछ भी सम?ाने को तैयार न हुए.

सोनिया का कहना है, ‘‘आकाश बहुत शंकालु प्रवृत्ति का है. मु?ो किसी से बात नहीं करने देता है.’’ उधर आकाश का कहना है, ‘‘सोनिया में बहुत बचपना है. अपनी निजी बातें भी वह सब के सामने बोल देती है और उस की यही आदत ?ागड़े का कारण बन जाती है.’’

दोनों ने आर्थिकभेद कम बताया क्योंकि वह तो उन्हें पहले ही दोनों के मांबापों ने बोल दिया था. उस घुटन का गुस्सा कहीं और फूटा. कुछ इसी तरह की समस्याओं को ले कर हाल ही में एक सैमिनार का आयोजन किया गया. सैमिनार में इस बात पर जोर दिया गया कि लोगों में शादी से पहले होने वाली काउंसलिंग को ले कर जागरूकता की कमी है, इसी वजह से तलाक की संख्या में तेजी आई है.

इस के साथ ही यूथ में आपसी सम?ा की भी कमी है. इस बात को मैरिज काउंसलर्स भी मानते हैं कि आजकल की पीढ़ी में धैर्य की कमी है, फिर दोनों कमाते हैं तो उन में अहं का टकराव भी तलाक की वजह बनता है. शादी से पहले क्या काउंसलिंग की जरूरत होती है और उस का क्या नतीजा सकारात्मक रहता है, इस पर कुछ मैरिज काउंसलर्स से बात की गई.

फैसला कुछ घंटों में नहीं लिया जाता एक सैक्सोलौजिस्ट और मैरिज काउंसलर का कहना है, ‘‘ऐसा नहीं
है कि इस तरह की समस्याओं का सामना केवल मिडिल क्लास के लोग कर रहे हैं, बल्कि पढ़ेलिखे और उच्च आय ग्रुप के लोगों में भी इस तरह की परेशानियां हैं. अकसर यूथ फैमिली के दबाव और सोसाइटी के चलते शादी जैसे अहम फैसले कर तो लेते हैं, लेकिन रिलेशनशिप को ज्यादा समय मेंटेन नहीं रख पाते. लगातार तलाक के मामलों में बढ़ोतरी आने की वजह से मैरिज काउंसलर के कैरियर का ग्राफ दिनबदिन बढ़ता जा रहा है.

‘‘काउंसलर हर मुद्दे पर खुल कर बात करते हैं. कभी दोनों को साथ बैठा कर तो कभी अलगअलग बात करते हैं. इस में कैरियर संबंधी, आय से संबंधित, संयुक्त परिवार में रहने से संबंधित, बच्चों की संख्या आदि जैसे कई मुद्दे होते हैं. पारिवारिक पृष्ठभूमि की बात भी होती है. घरेलू बातों से ले कर हम दफ्तर तक की बातों को भी शामिल करते हैं. जिंदगीभर साथ रहने का निर्णय सिर्फ कुछ घंटों में नहीं लिया जा सकता है. उन के साथ लंबीलंबी सिटिंग्स करनी पड़ती हैं. दोनों पक्षों में मातापिता से भी बात करते हैं. आगे चल कर किस तरह की समस्याएं आ सकती हैं, उन पर पहले से विचार किया जाता है, बात की जाती है, उन का समाधान किस तरह से किया जा सकता है, इस के बारे में सोचा जाता है.’’

वे आगे कहते हैं, ‘‘विवाह के बाद अकसर समस्याएं घरेलू स्तर पर शुरू होती हैं जो धीरेधीरे कामकाज से ले कर रिश्तेदारों तक पहुंच जाती हैं. युवा यह जान ही नहीं पाते कि शादी के बाद आपसी बहस और ?ागड़े में वे किस स्तर तक उतर गए हैं. कई बार इस के भयंकर परिणाम सामने आते हैं. एकदूसरे पर हाथ उठाना, घर के सामान की तोड़फोड़, बच्चे हो गए हों तो उन पर बेवजह गुस्सा निकालना जैसी घटनाएं आएदिन परिवार में घटती हैं.

मैरिज काउंसलर्स मानते हैं कि आजकल पतिपत्नी दोनों कामकाजी हो गए हैं, जाहिर है अपेक्षाएं आशा से अधिक होने लगी हैं. साथ ही, घर में जिम्मेदारियों को ले कर भी दोनों में तनाव रहता है. मैरिज काउंसलर्स इन्हीं समस्याओं को दूर करने में मदद करते हैं.

विचारों में एकरूपता लाने की कोशिश

किसी भी लड़केलड़की को शादी से पहले किसी प्रोफैशनल ऐक्सपर्ट से बात करनी चाहिए. इस से उस के लिए सही फैसला लेना आसान हो जाएगा. वह शादी से पहले इस बात को जान सकेगा कि उस का होने वाला पार्टनर उस से क्या अपेक्षाएं रखता है और क्या वह उन सभी उम्मीदों पर खरा उतरता है.

मैरिज काउंसलर्स क्या सभी तरह की समस्याओं को दूर करने में मददगार हो सकते हैं? चावला सर का इस बारे में कहना है, ‘‘मैरिज काउंसलर्स एक हद तक आपसी विचारों में एकरूपता ला सकते हैं. यह सही है कि जीवन में ऐसी कई बातें होती हैं जिन के बारे में पहले से नहीं पता होता है, इसलिए स्थितियां काफी हद तक बिगड़ जाती हैं लेकिन कम से कम हम कोशिश तो करते हैं कि सबकुछ सामान्य हो जाए.’’ उन का मानना है कि घरेलू ?ागड़ों को सु?ालाने के लिए फैमिली कोर्ट हैं, परिवार परामर्श केंद्र हैं लेकिन
ये सब शादी के बाद अस्तित्व में आते हैं. शादी से पहले ही यदि मदद दी जाए, सलाह दी जाए तो हो सकता है आने वाले समय में तलाक और मनमुटाव की घटनाएं कम हो जाएं.

तलाकों की संख्या अब हर जाति में बढ़ने लगी है. कुर्मी की तलाकशुदा, जाट तलाकशुदा जैसे व्हाट्सऐप ग्रुपों से पता चलता है कि यह समस्या हर वर्ग की है और ऊंची जातियों के जज/वकील इन में से बहुतों के पारिवारिक बैकग्राउंड को भी नहीं सम?ा पाते. काउंसलरों का काम होता है कि वे हर तरह की समस्या का पूर्वानुमान करें. काउंसलर के सामने कभी दोनों साथ तो कभी एकएक कर के बैठते हैं. ऐसे में बहुत सी दबी बातें शादी से पहले साफ हो सकती हैं.

बड़े शहरों के साथसाथ अब छोटे शहरों में भी प्रीमैरिज काउंसलर्स संस्थाएं काम कर रही हैं. इन संस्थाओ में मनोवैज्ञानिक समाजशास्त्री और कानूनविद लोगों को सलाह देते हैं ताकि आने वाली जिंदगी में खुशहाली रहे. अब तो ऐसे लोगों की संख्या भी बढ़ती जा रही है जो अपने मन का संशय दूर करने में काउंसलर्स की मदद लेने लगे हैं. उन्हें पैसा देना हो उन को खलता नहीं, वे यह सम?ाते हैं कि पंडोंपुरोहितों को देने से इन्हें देना अच्छा है.

अच्छी सेहत के लिए बहुत जरूरी है Detoxification, जानें इसका मतलब

डिटॉक्सिफिकेशन का मतलब है शरीर को हानिकारक पदार्थों से छुटकारा दिलाना. हम रोज कई हानिकारक पदार्थों के संपर्क में आते हैं, जो हमारी सेहत के लिए खतरनाक हो सकते हैं. डिटौक्सीफिकेशन के द्वारा शरीर से इन पदार्थों को बाहर निकाल शरीर को तनावमुक्त बनाया जा सकता है.

ये पदार्थ शरीर में जमा हो जाते हैं:

– वायु प्रदूषण जैसे उद्योगों और गाडि़यों से निकलने वाला धुआं.

– फूड प्रिजर्वेटिव, एडिटिव और स्वीटनर.

– हेयर डाई, परफ्यूम, साफसफाई में काम आने वाले उत्पाद जिन में आमतौर पर प्रिजर्वेटिव या रसायन होते हैं, जो शरीर के लिए हानिकारक होते हैं.

– घर की सफाई में काम आने वाले क्लीनिंग एजेंट्स.

– भारी धातु यानी हैवी मैटल्स जो अकसर पीने के पानी में मौजूद होते हैं.

– शराब, सिगरेट का धुआं और नशीली दवाएं.

डिटॉक्सिफिकेशन का महत्त्व

हमारा शरीर हमेशा अपनेआप जहरीले पदार्थों को बाहर निकालने का काम करता रहता है. लेकिन खानेपीने की गलत आदतें, शराब, कैफीन, नशीली दवाओं का सेवन, तनाव, पौल्यूशन आदि आज के आधुनिक जीवन का हिस्सा बन चुके हैं.

हम चाहे कितना भी सेहतमंद भोजन करें और लाइफस्टाइल पर ध्यान दें, बाहरी कारकों का असर हमारे शरीर पर पड़ता ही है और जानेअनजाने जहरीले पदार्थ हमारे शरीर में इकट्ठे होते जाते हैं. इस से शरीर के अंगों की ताकत धीरेधीरे कम होने लगती है. जब शरीर के अंगों पर इस का दबाव बहुत ज्यादा बढ़ जाता है, तो वह ठीक से काम नहीं कर पाता और बीमारियों की चपेट में आने लगता है.

कैसे करें डिटौक्स

शरीर को डिटौक्स करने के कई तरीके हैं. इन में न तो ज्यादा समय खर्च होता है और न ही ज्यादा पैसे.

आहार:

ऐसे आहार का सेवन न करें जिस से पाचनतंत्र पर दबाव बढ़ता हो. फलों में प्राकृतिक चीनी यानी फ्रुक्टोस होती है. फाइबर से युक्त आहार का सेवन करें. ब्राउन राइस, ताजे फल और सब्जियां खाएं. चुकंदर, मूली, आर्टीचोक, पत्तागोभी, ब्रौकली अच्छे खा-पदार्थ हैं, जो शरीर से जहरीले पदार्थ निकालने में मदद करते हैं. विटामिन सी का सेवन भरपूर मात्रा में करें. इस से शरीर में ग्लुटेथिऔन बनता है, जो शरीर से जहरीले पदार्थ बाहर निकालने में फायदेमंद होता है.

पानी मिनरल्स से युक्त पीएं:

पानी शरीर को जरूरी मिनरल्स देता है. अपने पानी की जांच करें. उस में कहीं भारी धातु यानी हेवी मैटल्स तो नहीं? नल से आने वाला पानी अकसर पुरानी पाइपों में से आता है, जिस में भारी धातु होती है.

इस के अलावा घर पर भी कुछ डिटौक्स ड्रिंक्स बना सकती हैं जैसे लैमन व मिंट, ग्रीन टी इत्यादि.

व्यायाम:

रोज कसरत करने से शरीर से जहरीले पदार्थ निकल जाते हैं. कसरत के दौरान पसीना आता है, लिपोलाइसिस यानी फैट टिशू बर्न होने की प्रक्रिया तेज हो जाती है और फैट टिशू में मौजूद विषैले पदार्थ बाहर निकलने लगते हैं. इस से रक्त का प्रवाह बढ़ता है, लिवर और किडनियों तक ज्यादा औक्सीजन पहुंचती है और जहरीले पदार्थ फिल्टर हो कर बाहर निकलने लगते हैं.

पसीना:

पसीना बहाने से शरीर में से भारी धातु और जेनोबायोटिक्स यानी प्लास्टिक और पेट्रोकैमिकल्स जैसे रसायन भी निकलने लगते हैं.

त्वचा:

हानिकर रसायनों का इस्तेमाल न करें. हेयर डाई, हेयर स्प्रे, मेकअप और त्वचा पर इस्तेमाल किए जाने वाले उत्पादों में बहुत से रसायन होते हैं. आप के स्किन प्रोडक्ट ऐसे हों, जिन में परफ्यूम और रसायन कम से कम मात्रा में हों. क्योंकि रसायन त्वचा पर मौजूद छिद्रों को बंद कर देते हैं.

अगर आप डिटौक्सीफिकेशन के बारे में सोच रहे हैं, तो पहले डाक्टर से जरूर बात कर जान लें कि आप के लिए क्या ठीक होगा, क्योंकि कई मामलों जैसे डायबिटीज आदि में यह हानिकारक हो सकता है. अगर आप को कोई बीमारी है या आप कोई दवा ले रहे हैं, तो इस बारे में भी डाक्टर को जरूर बता दें.

– डा. करुणा चतुर्वेदी, चीफ डाइटीशियन, जेपी हौस्टिपल, नोएडा

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