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इलजाम

वासुदेव जबलपुर के एक होटल में एक उपन्यास पढ़ने की कोशिश कर रहा था, लेकिन वह उपन्यास के कथानक पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पा रहा था, क्योंकि मन बहुत खुश था. दूसरी बेटी मार्च महीने में पैदा हुई थी. वह बैंकर था, इसलिए मार्च महीने की व्यस्तता की वजह से वह बेटी के जन्म के समय पटना नहीं जा सका था. मनमसोस कर रह गया था वह.

नौकरी में इंसान नौकर बन कर रह जाता है. मन की कुछ भी नहीं कर पाता है. बड़ी बेटी के जन्म के समय में भी वह पत्नी के साथ नहीं था. इसी वजह से जब भी मौका मिलता है, पत्नी उलाहना देने से नहीं चूकती है. हालांकि उसे भी इस का बहुत ज्यादा अफसोस था, लेकिन उस की भावनाओं व मजबूरियों को समझने के लिए पत्नी कभी भी तैयार नहीं होती थी.

भोपाल से पटना के लिए हर दिन ट्रेन नहीं थी. पटनाइंदौर ऐक्सप्रैस सप्ताह में सिर्फ 2 दिन चलती थी. इटारसी से किसी भी ट्रेन में आरक्षण नहीं मिल पा रहा था और वासुदेव को जनरल बोगी में सफर करने की हिम्मत नहीं थी. हालांकि बेरोजगारी के दिनों में वह जनरल बोगी में बडे़ आराम से सफर किया करता था. एक बार तो वह हावड़ा से चेन्नई जनरल बोगी के दरवाजे के पास बैठ कर चला गया था और एक बार भीड़ की वजह से ट्रेन के बाथरूम को बंद कर कमोड में बैठ कर बोकारो से गया तक का सफर तय किया था.

लोकमान्य तिलक टर्मिनल से पटना जाने वाली ट्रेन में जबलपुर से आरक्षित सीटें उपलब्ध थीं. इसलिए, उस ने जबलपुर से टिकट कटवा लिया और भोपाल से जबलपुर बस से आ गया. ट्रेन शाम को थी, इसलिए लंच करने के बाद वह उपन्यास पढ़ने के लिए कमरे की बालकनी में बैठ गया.

उस की आंखें उपन्यास के पन्नों पर जरूर गढ़ी थीं, लेकिन मन बेटी के चेहरे की कल्पना करने में लीन था. क्या मेरे जैसी होगी वह या फिर वाइफ जैसी? मेरे जैसा चेहरा न हो तो ठीक ही होगा, क्योंकि वासुदेव का चेहरा बहुत बड़ा था, इस वजह से बहुत लोग उस का मजाक उड़ाते थे, बदसूरत कहते थे.

ससुरजी ने भी एक बार उसे बेटी के सामने ही बदसूरत कह दिया था, लेकिन उसे लोगों की बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि उस की नजरों में इंसान अपनी सीरत से पहचाना जाता है न कि सूरत से. वह बमुश्किल उपन्यास के 2-3 पन्ने ही पढ़ पाया था कि सोचने लगा कि जल्दी से ट्रेन आए और वह उड़ कर पटना पहुंच जाए. उस के मन में बेटी के अलावा बस यही विचार उमड़घुमड़ रहे थे.

मोबाइल की घंटी बजने से उस की तंद्रा भंग हो गई. उसे लगा कि पत्नी का फोन है. जबलपुर पहुंचने के बाद से 5 बार उस का फोन आ चुका था, लेकिन मोबाइल देखा तो अकाउंटैंट का फोन था. वह चौंक गया, क्योंकि अवकाश स्वीकृत होने के बाद ही उस ने हैडक्वार्टर छोड़ा था.
अकाउंटैंट ने घबराए स्वर में बोला, ‘‘सर, शाखा में लालवानी सर आए हैं.’’

मैं ने कहा, ‘‘फिर इस में घबराने की क्या बात है, सीनियर हैं, लेकिन हमारे पुराने मित्र हैं. चायनाश्ता करवाइए उन्हें.’’

अकाउंटैंट ने लगभग फुसफुसाते हुए कहा, ‘‘लालवानी साहब आप के द्वारा स्वीकृत किए गए लोन खातों व उन के दस्तावेजों की जांच करने के लिए आए हैं.’’

यह सुन कर वासुदेव को झटका लगा, क्योंकि परसों ही लालवानी सर परिहार सर के घर में हो रही पार्टी में मिले थे, लेकिन उन्होंने जांच के बारे में कुछ नहीं बताया था. हां, वासुदेव से यह जरूर पूछा था, ‘‘सुना है, तुम छुट्टी पर पटना जा रहे हो?’’

जबाव में वासुदेव ने कहा था, ‘‘हां, छोटी बेटी का जन्म मार्च महीने में हुआ था, लेकिन क्लोजिंग के कारण उस समय घर नहीं जा सका था. इसलिए, 10 दिनों की छुट्टी ले कर घर जा रहा हूं, कुछ वक्त परिवार के साथ गुजारूंगा.’’

वासुदेव अकेले ही रहता था. इस के पहले उस की पदस्थापना भोपाल के बैरागढ़ में थी. जब उस की बड़ी बेटी का जन्म हुआ था, तभी उस की पोस्टिंग विदिशा जिले के सिरोंज तहसील में हुई थी.

उस ने प्रबंधन और यूनियन दोनों से आग्रह किया था कि उस की पोस्ंिटग या तो भोपाल से दिल्ली मुख्य रेलखंड के आसपास कर दें या फिर भोपाल से इटारसी मुख्य रेलखंड के आसपास ताकि वह भोपाल से रोज अपडाउन कर ले या फिर ऐसी जगह पोस्टिंग करें, जहां अच्छी मैडिकल सुविधा उपलब्ध हो ताकि जरूरत पड़ने पर वह बेटी का इलाज करा सके, क्योंकि हाल ही में गुना से भोपाल इलाज के लिए लाते हुए रास्ते में ही एक मुख्य प्रबंधक की मौत हो गई थी.

प्रबंधन और यूनियन वालों ने उस की एक नहीं सुनी और कहा, ‘‘बैंक की सर्विस औल इंडिया होती है और देश के किसी भी कोने में तुम्हारी पोस्टिंग की जा सकती है, हम तुम्हारे हिसाब से तुम्हारी पदस्थापना नहीं कर सकते हैं.’’

वासुदेव भावुक और संवेदनशील इंसान था. उसे इस बात का दुख नहीं था कि उस के खिलाफ जांच शुरू हुई है, दुख इस बात का था कि लालवानी सर ने उसे जांच के विषय में कुछ नहीं बताया, जबकि लालवानी सर से उस के मधुर संबंध थे, इसलिए उसे उन से ऐसी उम्मीद नहीं थी.

वैसे, वासुदेव जांच की बात सुन कर जरा सा भी नहीं डरा था, क्योंकि उस ने सारे लोन बैंक के दिशानिर्देशों के अनुरूप स्वीकृत किए थे. हां, पाइपलाइन के लिए दिए गए लोन में उसे इस बात की आशंका थी कि जांच के समय किसान के पास पाइप मिलेगी या नहीं, क्योंकि गरीबी की वजह से छोटे किसान पाइप उधार ले कर सिंचाई करते थे. सिरोंज और लटेरी तहसील में पानी की कमी होने और सिंचाई की समुचित सुविधा नहीं होने की वजह से नदी या नहर या तालाब से पानी पाइप की मदद से खेतों तक लाना पड़ता था. चूंकि वहां के अधिकांश इलाकों में भूजल नहीं था या बहुत ही नीचे था. इसलिए इलाके में गिनेचुने कुएं थे. अधिकांश गांवों में पीने का पानी टैंकर से जाता था.

वासुदेव की शाखा में सिरोंज और लटेरी दोनों तहसीलों के ग्राहक थे. कई बैंक वहां थे. इसलिए, प्रतिस्पर्धा भी बहुत ज्यादा थी. बिजनैस बढ़ाना आसान नहीं था. उस की शाखा सिरोंज से लगभग 15 किलोमीटर की दूरी पर सिरोंज और लटेरी तहसील के बीच थी. वह बस या बाइक से शाखा जाता था. शाखा में भी बैंक की एक बाइक थी. इसलिए, जिस दिन वह बस से शाखा जाता था, उस दिन बैंक की बाइक का इस्तेमाल वह गैर निष्पादित परिसंपत्ति (एनपीए) वसूली के लिए करता था.

सुबह 6 बजे ही वासुदेव वसूली हेतु घर से निकल जाता था. गांव जा कर वह सीधे मुखिया और सरपंच को चूककर्ता की सूची दे कर कहता था, ‘‘पंचायत भवन में उन्हें बुला कर पैसे जमा करने के लिए दबाव बनाएं, अगर वे मदद करेंगे तो बैंक गांव के जरूरतमंदों को कर्ज देने से कभी पीछे नहीं हटेगा. गांव के विकास हेतु भी वह जरूरी कर्ज मुहैया कराएगा.’’

वासुदेव, कहेअनुसार काम भी करता था. वह कई गांवों में युवकों को स्वरोजगार शुरू करने और डाक्टरों को क्लीनिक शुरू करने के लिए लोन पास कर चुका था. इस कारण सरकारी योजनाओं वाले लोन के बजटीय लक्ष्य को भी वासुदेव हर साल आसानी से हासिल कर लेता था. जिला कलेक्टर के अलावा राज्य के मुख्यमंत्री भी उसे इस के लिए सम्मानित कर चुके थे.

वासुदेव की यह रणनीति बहुत ही कारगर थी. इस से एनपीए की वसूली तो होती ही थी साथ ही साथ उसे डिपोजिट भी गांव में मिल जाती थी और ऋण के अच्छे प्रपोजल भी. वह बीमा के प्रोडक्ट भी सुबहसुबह गांव में बेच देता था. गांव वालों को घर में ही सारी बैंकिंग सुविधाएं दे देता था. इसलिए, उस शाखा का बिजनैस बहुत तेजी से बढ़ रहा था.

वासुदेव ने दिसंबर महीने में ही डिपोजिट, एडवांस, बीमा और म्यूचुअल फंड का बजटीय लक्ष्य हासिल कर लिया.

एनपीए की शानदार वसूली के लिए बैंक की तरफ से उसे एक लाख का पुरस्कार भी दिया गया और शाखा के हर स्टाफ सदस्य को 20-20 हजार की प्रोत्साहन राशि दी गई, ताकि सभी स्टाफ सदस्यों का मनोबल ऊंचा रहे और वे प्रोत्साहित हो कर भविष्य में भी इसी तरह से शानदार प्रदर्शन करते रहें.

वासुदेव के प्रदर्शन से बैंक प्रबंधन बहुत खुश था और उन्हें उम्मीद थी कि वासुदेव शाखा के बिजनैस को और भी बढ़ा सकता है. इसलिए, उसे जमा और एडवांस में अतिरिक्त बजट दिए गए, लेकिन उसे भी वासुदेव ने मार्च से पहले ही पूरा कर लिया. हालांकि वासुदेव के प्रदर्शन से बैंक की अन्य शाखाओं के शाखा प्रबंधकों में खलबली मची हुई थी.

हर प्री रिव्यू मीटिंग में रीजनल मैनेजर (आरएम) वासुदेव की खुल कर तारीफ करते थे, जिस से अन्य शाखा प्रबंधकों के सीने पर सांप लोट जाते थे. वे वासुदेव की सफलता को बरदाश्त नहीं कर पा रहे थे. अपनी कमियों को छिपाने के लिए वे वासुदेव को रिश्वतखोर साबित करने में लगे रहते थे. मुख्य शाखा के शाखा प्रबंधक अजित परिहार सर भी वासुदेव से बहुत चिढ़ते थे, जबकि वासुदेव उन से पहले कभी नहीं मिला था. बिना मिले ही वे उस के दुश्मन बन गए थे.

परिहार सर शाखा की ऊपर वाली मंजिल पर अकेले रहते थे और रोज बिल्ंिडग की छत पर पार्टी करते थे. वह चाहते थे कि वासुदेव भी रोज उन की पार्टियों में शिरकत करे और पार्टी को स्पौंसर भी करे. उन की पार्टी में शराब और कबाब के साथसाथ शिकवाशिकायत व गलीगलौच का दौर चलता था. जो उन की पार्टियों में शिरकत नहीं करता था, परिहार सर उसे किसी न किसी तरह से नुकसान पहुंचाने की कोशिश करते थे.

सिरोंज में भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) की ब्रौडबैंड की सेवा उपलब्ध थी और उस की स्पीड भी बहुत अच्छी थी. इसलिए वासुदेव ने तुरंत इस की सेवा ले ली थी, क्योंकि वह रोज रात को पत्नी और बच्चों से वीडियो कौल पर ढेर सारी बातें करता था. उसे दिनभर की दिनचर्या में से नईनई और अनोखी सूचनाएं निकाल कर सोशल मीडिया पर पोस्ट करने का चसका भी लग गया था, क्योंकि उस के पोस्ट पर हजारों लाइक्स और कमैंट्स आते थे, जिसे देख व पढ़ कर वह दिनभर खुश होता रहता था. गांव, जंगल और पहाड़ से जुड़ी अनोखी जानकारियों व कहानियों को शहर वाले बहुत पसंद करते थे. गांव से शहर पलायन करने वालों को यह सबकुछ ज्यादा ही पसंद था, क्योंकि वे इन सब को बहुत ही ज्यादा मिस करते थे.

जिंदगी में खालीपन न लगे, इसलिए वासुदेव खुद को हमेशा व्यस्त रखने की कोशिश करता था. उस ने इंदिरा गांधी नैशनल ओपन यूनिवर्सिटी (इग्नू) में व्यवसाय प्रबंधन में स्नातकोत्तर (एमबीए) में दाखिला ले लिया था. वासुदेव पहले 5 सालों तक मीडिया में काम कर चुका था और पढ़नेलिखने का शौक उसे बचपन से था. बैंक में आने के बाद उस का पढ़नालिखना छूट गया था. चूंकि, वह अकेले रह रहा था, इसलिए मौके का फायदा उठाते हुए नियंत्रण अधिकारी से अखबारों में लिखने की अनुमति ले कर फिर से लिखना शुरू कर दिया.

वह संपादक को यह समझाने में कामयाब रहा कि वह अखबार के रिपोर्टरों से बेहतर रिपोर्टिंग कर सकता है, क्योंकि एनपीए की वसूली करने के क्रम में जंगल व पहाड़ के अलावा सिरोंज और लटेरी तहसील के गांवगांव में घूमता है, इसलिए वह ग्रामीणों और वंचित तबके व आदिवासियों की समस्याओं, पेड़ों की अवैध कटाई, जंगली जानवरों के शिकार आदि मामलों की अच्छी समझ रखता है.

शुरू में अखबारों के संपादकों ने नानुकुर किया, लेकिन वासुदेव की रिपोर्ट पढ़ने के बाद दोनों समझ गए कि वासुदेव के अखबार से जुड़ने से अखबार की विविधिता और विश्वसनीयता में इजाफा होगा और इस का फायदा उन्हें ही मिलेगा. इसलिए दोनों संपादकों ने वासुदेव को साप्ताहिक स्तंभ लिखने की अनुमति दे दी.

एमबीए का असाइनमैंट और अखबार के लिए कौलम लिखने की वजह से वासुदेव बहुत बिजी हो गया. फिर भी वह परिहार सर की 1-2 पार्टी में शामिल हुआ और पार्टी को स्पौंसर भी किया, लेकिन परिहार सर की अपेक्षा बढ़ती गई. इसलिए एक दिन उस ने परिहार सर को साफसाफ कह दिया कि न तो वह उन की पार्टी में आएगा और न ही पार्टी के लिए पैसे देगा.

वासुदेव के बागी तेवर को देख कर परिहार सर उस के पीछे पड़ गए. वह हर जगह वासुदेव की शिकायत करने लगे. क्षेत्रीय कार्यालय में भी वे आरएम सहित सभी डैस्क अधिकारियों के कान भरने लगे. आरएम कान के कच्चे थे, इसलिए परिहार सर उन्हें भरोसा दिलाने में कामयाब रहे कि वासुदेव लोन के एवज में रिश्वत लेता है, जिस से बैंक की साख खराब हो रही है. वह बढ़चढ़ कर के लोन इसलिए बांट रहा है, ताकि उसे अधिक से अधिक रिश्वत मिले.

क्षेत्रीय कार्यालय में उस के कुछ मित्रों ने उसे परिहार सर की कारस्तानी के बारे में बताया, लेकिन वासुदेव यह मानने के लिए कतई तैयार नहीं हुआ कि परिहार सर इस हद तक नीचे गिर सकते हैं. उसे इस बात का भी विश्वास नहीं था कि परिहार सर की शिकायत पर आरएम सर कोई काररवाई करेंगे, क्योंकि आरएम सर उस के काम से बहुत खुश थे. उस के उम्दा प्रदर्शन के लिए वे कई बार उसे पुरस्कृत भी कर चुके थे और मामले में सब से महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि उस ने कभी भी कोई गलत काम नहीं किया था.

जांच की काररवाई शुरू होने पर वासुदेव को अपनी गलती का एहसास हुआ, लेकिन तब तक तीर कमान से निकल चुका था. परिहार सर जरूर एक नाकारा और नाकाबिल अधिकारी थे, लेकिन साथ में भोपाल मंडल के अधिकारी यूनियन के जनरल सेक्रेटरी भी थे. इसलिए उन की भोपाल मंडल में खूब चलती थी. नए अधिकारी भले ही उन्हें नहीं जानते थे, लेकिन पुराने लोग उन्हें जानते भी थे और उन से खौफ भी खाते थे.
खबर सुनने के बाद वासुदेव का मन कसैला हो गया और उस के मन में व्यवस्था को ले कर कई तरह के सवाल घूमने लगे, जैसे आरएम सर ने बिना सोचेसमझे जांच का आदेश क्यों दिया? क्या सच से उन्हें कोई लेनादेना नहीं है? क्या बैंक किसी के हनक और स्वार्थ से ऐसे ही चलता रहेगा?

वासुदेव खुद को भी कोस रहा था कि क्यों बैंक की बेहतरी के बारे में उस ने सोचा. वह भी अन्य सहकर्मियों की तरह नौकरी करने का कोरम पूरा करता तो अच्छा रहता. क्यों वह उत्साही लाल बना? वह परिहार सर के रास्ते पर क्यों नहीं चला? कामचोर लोग जीहुजूरी कर के यहां प्रोन्नति तो ले ही रहे हैं वगैरा. हालांकि यह सब सोच कर वासुदेव को ही मानसिक रूप से तकलीफ हो रही थी.

छुट्टी से लौटने के बाद जब उस ने लालवानी सर से मिलने की कोशिश की तो वे भी मिलने से कन्नी काटने लगे. बहुत पीछे पड़ने पर मिले तो जरूर, लेकिन होंठों को सिले रहे.

2 महीने हो गए, लेकिन जांच रिपोर्ट नहीं आई. वासुदेव बाहर से खुद को मजबूत दिखाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन अंदर से वह बहुत ही ज्यादा कमजोर हो गया था. मीडिया में अच्छी साख होने की वजह से जांच की खबर अखबारों की सुर्खियां नहीं बन सकीं, लेकिन यह खबर आग की तरह क्षेत्रीय कार्यालय और उस के कार्यक्षेत्र में आने वाली सभी शाखाओं के साथसाथ सिरोंज और लटेरी तहसील में फैल गई.

थाना प्रभारी से वासुदेव की अच्छी जानपहचान थी. बावजूद इस के एक दिन चुटकी लेते हुए उन्होंने कहा, ‘‘मैनेजर साहब, आप तो छिपे रुस्तम निकले. सुना है, बहुत माल कमाया है आप ने, हम लोगों को एकाध बार पार्टी ही दे देते, बहुत दिनों से ब्लैक डौग का स्वाद नहीं चखा है मैं ने.’’
‘‘नहीं, आप को गलत जानकारी मिली है,’’ कह कर वासुदेव मुसकरा उठा, लेकिन अंदर से उसे ऐसा लग रहा था कि जमीन फट जाए और वह उस में समा जाए.

वासुदेव के सरल व सहज व्यवहार की वजह से इलाके के लगभग लोग उसे जानते थे. आज यही जानपहचान वासुदेव पर भारी पड़ रही थी. किसी से भी मिलने पर उस की आंखों में मौजूद सवालों का जबाव देने में वासुदेव असमर्थ था. उसे हमेशा यही लगता था कि सब की आंखें उसे घृणा और हिकारत भरी नजरों से देख रही हैं.

शाखा के सामने वाली चाय की दुकान पर वह लोगों को उस के रिश्वत लेने के बारे में खुसरफुसर करते हुए अकसर देखता था, लेकिन वह सबकुछ देख कर भी अनदेखी कर देता था.

परिवार के साथ में नहीं रहने की वजह से वह पूरी तरह से टूट चुका था. हालांकि पत्नी उस के मनोबल को ऊंचा रखने के लिए लगातार प्रयास कर रही थी. फिर भी, कमजोर पलों में एकाध बार उस ने आत्महत्या करने की भी सोची, लेकिन बेटियों का चेहरा सामने आने पर उस ने अपने मन को नियंत्रित कर लिया.

एक दिन वासुदेव जांच के बारे में पता करने के लिए क्षेत्रीय कार्यालय गया.

आरएम के एक खास बंदे से मिला, जिस के साथ उस के भी अच्छे संबंध थे.

पहले तो वह भी कुछ भी बताने से बचने की कोशिश करता रहा, लेकिन जब वासुदेव ने बहुत आग्रह किया तो उस ने कहा, ‘‘चिंता नहीं करो, तुम ने 85 किसान क्रैडिट कार्ड (केसीसी), 8 ट्रैक्टर लोन और 7 पाइपलाइन के लोन सैंक्शन किए थे, जिन में से सिर्फ 2 पाइपलाइन लोन में करीब 85 फुट पाइप किसानों के घर पर नहीं मिले, बाकी सभी लोन खाते एवं दस्तावेज सही हैं, जिन 2 ऋणी किसानों के पास पाइप नहीं मिले हैं, उन्होंने लिखित में बयान दिया है कि मिसिंग पाइप उन के रिश्तेदार के पास दूसरे गांव में है. इस तरह तुम्हारे खिलाफ लगाए गए सारे आरोप बेबुनियाद साबित हुए हैं. तुम्हें कोई सजा नहीं होगी और तुम्हारे निर्दोष होने की चिट्ठी इस सप्ताह तुम्हें मिल जाएगी,’’ यह सुन कर वासुदेव ने राहत की एक लंबी सांस ली और तुरंत फोन कर के पत्नी को यह खुशखबरी दी.

शनिवार की शाम को वासुदेव को क्लीन चिट वाला पत्र मिल गया. पत्र का मजमून पढ़तेपढ़ते वह सोचने लगा कि जिस तरह से विगत 2 महीनों से वह तनाव में जी रहा था, उस में कमजोर दिल वाले इंसान की मौत भी हो सकती थी. भले ही, मामले में उसे क्लीन चिट दे दी गई, लेकिन उस की ईमानदारी का कत्ल तो कर ही दिया गया. दामन पर लगे दाग को धोने के लिए कितनों को वह यह चिट्ठी दिखाएगा या सफाई देगा?

इस घटना से वासुदेव को यह भी समझ में आ गया कि किसी को दुश्मन बनाने के लिए उसे नुकसान पहुंचाना जरूरी नहीं है, अनजान व्यक्ति भी बिना किसी कारण का किसी का भी दुश्मन बन सकता है. आरोप लगाने वाले को इस बात की कतई परवा नहीं होती है कि उस के झूठे इल्जाम से किसी की मौत भी हो सकती है, परिवार तबाह हो सकता है.

न्यायधीश भी आरोपी का बिना पक्ष सुने सजा दे रहा है, वह यह नहीं सोच रहा है कि आरोप गलत साबित हुआ तो आरोपी का क्या होगा? उस के द्वारा भोगी गई सजा की कौन भरपाई करेगा? क्या उस की ईमानदारी पर कोई दोबारा विश्वास कर पाएगा?

मौजूदा समय में देश और दुनिया में रोज हजारों लोग झूठे आरोप लगने की वजह से आत्महत्या कर रहे हैं, लेकिन उन की हत्या करने वालों को कभी भी, किसी भी कठघरे में खड़ा नहीं किया जा रहा है. आखिर क्यों?

दीवाली का टोटका – अंधविश्‍वास का ठग

एक दिन रुक्मिणी सेठानी हमारे घर आई. उस ने मुझे 500 सौ रुपए दे कर धीमे से कहा, ‘‘ये रुपए रख लो अब्दुल्ला की बहू, मुझे दीवाली के दिन लौटा देना. दीवाली आज से ठीक एक महीने बाद है, लो रुपए…’’

पर मैं ने हाथ आगे नहीं बढ़ाया. दरअसल, रुक्मिणी की बात मेरी समझ में नहीं आई. बिना मांगे रुपए दे कर दीवाली के दिन वापस करने की बात कुछ रहस्यमय लगी.

सेठानी होशियार थी. मेरी उलझन झट ताड़ गई. मुसकरा कर बोली, ‘‘बहू, यह एक टोटका है, दीवाली का टोटका.’’

फिर पाटे पर अच्छी तरह बैठ कर उस ने अपनी बात खुलासा बताई, ‘‘देखो राबिया, हमारे व्यापार में पिछले 2-3 वर्षों से मुनाफा नहीं हो रहा. लक्ष्मी आ ही नहीं रही. हां, अलबत्ता खर्च काफी हो जाता है. पंडितजी ने पतरा देख कर बताया है कि इस बार भी 6 का लाभ और 10 का खर्च है.’’

‘‘फिर तो इस का कारण भी उन्होंने बताया होगा?’’

‘‘बताया क्यों नहीं? बोले, ‘आप के घर दीवाली के दिन लक्ष्मी आए तो बात बने. इस दिन कोई रुपए ला कर दे तो समझना पौ बारह हैं,’’’

सेठानी तनिक मुसकराई.

‘‘अच्छा, फिर?’’ मुझे बड़ा अजीब लग रहा था.

‘‘फिर क्या, पंडितजी ने एक टोटका बताया है. वह करने पर ठीक दीवाली के दिन हमारे घर रुपए जरूर आएंगे.’’

‘‘कौन सा टोटका?’’

‘‘यही जो मैं करने जा रही हूं. ये रुपए तुम अपने पास रख लो. दीवाली वाले दिन मुझे दे जाना. किसी भी रूप में आए, दीवाली के दिन लक्ष्मी
आनी चाहिए. बस, टोटका पूरा हो जाएगा. फिर सालभर लाभ ही लाभ. कुछ समझे?’’

‘‘समझ गई,’’ चकित हो कर मैं ने सेठ धनपतराय की पत्नी को देखा. कितनी नादान, कितनी अंधविश्वासी है यह.

खैर, अपनी हंसी दबा कर सेठानी से 500 रुपए ले कर रख लिए और कहा, ‘‘मैं ये रुपए ठीक दीवाली के दिन आप के यहां आ कर दूंगी. आप का टोटका पूरा हो जाएगा. अब तो खुश हैं?’’

‘‘जीती रहो, राबिया, इस बार कुछ लाभ ज्यादा हो जाए तो रमा के हाथ पीले कर दूं. वैसे, उस की सगाई की बात चल रही है. लड़के वाले जल्दी ही रमा को देखने आएंगे.’’

‘‘हां, वैसे विभा और निशा भी सयानी हो गई हैं. उन के लिए भी घरवर खोज लो.’’

‘‘पहले रमा का ब्याह हो जाए, फिर आगे सोचूंगी. सेठजी को तो कोई चिंता नहीं. बस, व्यापार के पीछे पड़े रहते हैं. घर की तरफ तो मुड़ कर भी नहीं देखते.’’

सेठानी उठने को हुई तो मैं ने एक बात पूछ ली कि टोटका पूरा करने के लिए उन्होंने इतनी दूर ला कर रुपए क्यों दिए? यह काम तो पड़ोस में भी हो सकता था.

सेठानी का जवाब था, ‘‘पड़ोस में हमारी जातबिरादरी के लोग रहते हैं. अपने समाज में ऐसा करने से बात खुल जाती है जबकि टोटका गुप्त होना चाहिए. फिर अपने समाज वाले मौकेबेमौके ताना देने से भी नहीं चूकते. सब को पता लग जाने पर टोटके का प्रभाव जाता रहता है.’’

‘‘और अब तुम यह भी पूछोगी कि ये रुपए मुझे ही क्यों दिए तो इस का जवाब यह है कि तू और तेरा आदमी ईमानदार हैं. टोटके में लिखापढ़ी तो होती नहीं है, सो कोई ऐन वक्त पर इनकार कर दे तो सारे रुपए डूब गए.’’

‘‘यह तो आप ने अच्छी बात सोची.’’

‘‘हांहां, बहू, मैं हमेशा अच्छी बात ही सोचती हूं. तो अब चलूं?’’ रुक्मिणी सेठानी उठ खड़ी हुई.

‘‘देख राबिया, हमारेतुम्हारे परिवारों में बड़ा पुराना अपनापन है. किसी से यह बात कहना नहीं. तू जाने या मैं, बस,’’ चलतेचलते उन्होंने समझाया.

सेठ धनपतराय का पूरा घर दीवाली के दिनों में कुछ ज्यादा ही अंधविश्वासी हो जाता था. आवश्यक चीजों की एक माह पहले ही खरीदारी हो जाती थी. बाकी पूरे कार्तिक मास में शायद ही उन्होंने कभी एक पैसा भी अंटी से निकाला हो.

उधर रमा की सगाई की बात तो चल ही रही थी. लड़के वालों ने अचानक कहला दिया कि हम रमा को देखने के लिए आ रहे हैं. लड़की पसंद आई तो सगाई पक्की कर जाएंगे. जब भी अवसर मिलेगा, आ जाएंगे.

यह समाचार बहुत अच्छा था, पर दिन व समय तय न होने के कारण सेठ धनपतराय के परिवार को कुछ असुविधा हो रही थी. खैर, लड़के वाले जो न करें वह थोड़ा.

छोटी दीवाली के दिन सेठानी ने सेठ को बताया, ‘‘देखना, कल दीवाली के दिन हमारे घर लक्ष्मी आएगी. कहीं से आए, कुछ रुपए जरूर आएंगे.’’

‘‘तुम्हें कैसे पता?’’ सेठ धनपतराय मुसकराए.

सेठानी ने हंस कर पति की तोंद पर अपना सिर टिका दिया. ‘‘मेरी हथेली में खुजली जो हो रही है. रुपए जरूर आएंगे,’’ सेठानी ने अपनी हथेली खुजाना शुरू कर दिया था.

उस ने अपनी योजना पति को भी नहीं बताई थी. सेठ सोचने लगा कि दीवाली के दिन उन के यहां रुपए कहां से आ सकते हैं. दीवाली के दिन सुबह से ही सेठ धनपतराय के घर में बड़ी शांति थी. पूरा घर सतर्क था कि आज एक पैसा भी खर्च न हो जाए. उन्होंने चाय के लिए दूध भी रात को ही मंगवा लिया था. उधार का माल न सेठ किसी को देता था, न कोई सेठ को उधार देता था. लोग वही सुलूक कर रहे थे जो सेठ उन के साथ किया करता था. सुबह के 8 बजे होंगे कि सेठ के दरवाजे पर एक गाड़ी आ कर रुकी.

‘‘कौन है, देखना तो.’’ बही बंद कर के सेठ ने चश्मा ठीक किया. फिर खुद ही खिड़की से बाहर देख लिया, ‘‘अरे सुनो तो रुक्मिणी, वे लोग आ गए हैं, लड़के वाले.’’

सेठानी, जो रसोई झाड़ रही थी, भाग कर नल के नीचे गई. उस ने हाथमुंह धोया और अपनी बेटियों को सावधान कर के बैठक में आ गई. रमा जहांतहां से सफेदी के छींटों से भरी थी. विभा ने उसे स्नानघर में धकेल कर कुंडी चढ़ा दी, ‘‘झट से नहा ले.’’

पूरे घर में हड़कंप मच गया, लेकिन सेठानी ने शीघ्र ही स्थिति को संभाल लिया. उस ने बढ़ कर अपने होने वाले दामाद व साथ आई समधिनों का हार्दिक स्वागत किया. उन्हें बैठक में बिठा कर कुशलक्षेम पूछी. इस के बाद सेठ को वहां छोड़ कर वह बेटियों के पास भीतर आ गई.

‘‘मां, कहो तो बाजार से मिठाई ले आऊं? हमारे यहां तो मिठाई शाम को ही बनेगी. मेहमानों को नाश्ता…’’ निशा ने मां से पूछा.

‘‘नहीं, करमजली, आज हम एक पैसा भी नहीं खर्च करेंगे.’’

सेठानी झंझला रही थी, ‘‘वह लक्ष्मी ले कर अभी तक क्यों नहीं आई?’’

‘‘कौन मां?’’ विभा की समझ में कुछ नहीं आ रहा था.

‘‘कोई भी, अच्छा, पहले चाय तो बना. लड़का आया है. एक उस की चाची है, दूसरी बूआ है,’’ रुक्मिणी हड़बड़ा रही थी.

‘‘चाय बना ली, पर वह खराब हो गई,’’ यह स्वर रमा का था.

‘‘खराब क्यों हो गई?’’ सेठानी ने दांत पीसे.

‘‘दूध रात का था, मां, शायद फट गया.’’

‘‘फट गया? अरी चुड़ैल, चाय जैसी भी है, बैठक में पहुंचाओ तो सही. क्या मेरी नाक कटवा कर ही चैन लोगी.’’

‘‘तब कुछ फल खरीद लाऊं मां, अभी 2 मिनट लगेंगे.’’

‘‘फिर वही बात, आज दीवाली है, हम लक्ष्मी खर्चेंगे नहीं, कहीं से खीचेंगे जरूर.’’ सेठानी ने फिर मन ही मन राबिया को गाली दी.

यों मां और बेटियों के बीच तकरार चल ही रही थी कि लड़के की चाची वहां आ गई, ‘‘क्या बात है, समधिन?’’

‘‘कुछ नहीं, बस चाय आ रही है, आप बैठें,’’ रुक्मिणी हंस दी.

‘‘चाय? चाय तो हमारा विमल नहीं पीएगा. वैसे भी पहली बार मीठे मुंह का शगुन होता है. बाजार से मिठाई मंगवा लें,’’ चाची यह कह कर वापस बैठक में आ गई. उसे बड़ा अजीब सा लग रहा था.

रुक्मिणी अब क्या करे? कहीं से लक्ष्मी आ जाए तो टोटका पूरा कर के वह कुछ खर्च भी कर सकती है. मगर इस से पहले तो संभव नहीं था. हद हो गई, राबिया ने अभी तक रुपए नहीं भेजे. क्या मैं उस के पास पड़ोस के रामू को भेजूं? भूल तो नहीं गई वह.

मेहमान 8 बजे सेठ धनपतराय की हवेली पर आए थे, अब 11 बजने को आ गए, पर मजाल क्या जो उन्हें दूध, चाय, फल या मिठाई का नाश्ता मिल जाता.

विमल ने इसे अपना अपमान समझा. उस का मूड एकदम खराब हो गया. उस ने चाची की ओर संकेत किया. फिर चाची ने बूआजी को कुहनी मारी, लेकिन बूआजी ने उन्हें थोड़ा शांत रहने का इशारा किया.

सेठ इस बात को समझ गया. वह उठ कर लज्जित भाव से घर में गया, ‘‘अरी भागवान, कुछ तो कर. न हो तो रमा को ही बैठक में भेज दे.’’

‘‘नहीं जी, खाली हाथ वह नहीं जाएगी. बस, कहीं से लक्ष्मी आ जाए तो मैं सबकुछ मंगवा लूंगी, फल, मिठाई वगैरह. आप को शरम लगती है तो तनिक देर यहीं बैठ लें.’’

अभी अंदर ये बातें हो रही थीं कि तभी बैठक में एक लड़की ने प्रवेश किया. वहां अपरिचितों को बैठा देखा तो पूछ लिया, ‘‘सेठानी कहां है जी?

उन्होंने 500 रुपए मंगवाए थे, मेरी खाला से. रामू गया था कहने. ये लो, उन्हें दे देना.’’

‘‘वे भीतर आंगन में होंगी. अंदर चली जाओ. उन के रुपए उन्हीं को दो.’’

लड़की भोली थी. अंदर चली गई.

बैठक में सन्नाटा छा गया. ‘‘बड़ा धन्नासेठ बनता है. घर में फूटी कौड़ी नहीं. नाश्तेपानी के लिए भी उधार रुपए मांगे हैं, उठ बेटे. हमें इस कंगले से रिश्ता नहीं जोड़ना,’’ और मेहमान उठ खड़े हुए.

उन्हें गाड़ी में चढ़ते देखा तो सेठानी दौड़ कर बाहर आई. उस ने खिसिया कर कहा, ‘‘अरे कहां चल दिए? बैठिए, मैं मिठाई मंगवा रही हूं.’’ पर लड़के वालों ने एक न सुनी और अपनी गाड़ी आगे बढ़वा दी.

वैश्विक भूख सूचकांक: नरेंद्र मोदी की सत्ता के अनिश्चय

दुनिया की “वैश्विक भूख सूचकांक” (जीएचआई) की नवीनतम रिपोर्ट आई है. इस में स्वाभाविक रूप से भारत को 127 देशों में 105 वां स्थान मिला है, जो देश को एक ‘गंभीर’ श्रेणी में रखता है. यह आंकड़ा देश के सामने खड़ी एक बड़ी चुनौती को उजागर कर रहा है. देश में कुपोषण की भीषण समस्या है अगर आप ग्रामीण अंचल की और मुख करें तो इसे महसूस कर सकते हैं.

दरअसल, यह देश के करोड़ों नागरिकों के स्वास्थ्य और जीवन को प्रभावित कर रही है, यह हमारे देश के विकास और भविष्य के लिए भी एक संकट के बादल की तरह है.

दरअसल, आंकड़े बताते हैं देश में 13.7 फीसद जनसंख्या कुपोषित है, 35.5 फीसद बच्चे अविकसित हैं, और 2.9 फीसद बच्चे पैदाइश के 5 साल के अंदर मर जाते हैं. ये आंकड़े हमें बताते हैं कि सरकार नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं प्रदान करने में असफल है. ऐसे में कहां जा सकता है कि जो राजनीतिक खेल है वह हमारे लोकतंत्र को कमजोर करता चला जा रहा है. इस का उदाहरण यह है कि हमारे बाद आजाद हुए देश हम से ज्यादा विकसित हैं.

हम अपने किसानों के प्रति जवाबदेह नहीं हैं. सब से पहले हमें अपने कृषि क्षेत्र को मजबूत करने की आवश्यकता है, ताकि हम अपने नागरिकों को पर्याप्त मात्रा में भोजन प्रदान कर सकें. दूसरा, हमें अपने सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुधारने की आवश्यकता है, ताकि गरीब और वंचित वर्गों तक भोजन पहुंच सकें. तीसरा, हमें अपने स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने की आवश्यकता है, ताकि हम कुपोषण और भूख से संबंधित बीमारियों का इलाज कर सकें.

आज नरेंद्र मोदी सरकार को इस समस्या का समाधान करने के लिए ठोस कदम उठाने के लिए प्रतिबद्ध होना होगा. मोदी सरकार को नीतियों और कार्यक्रमों को इस तरह से बनाने की आवश्यकता है कि भूख और कुपोषण खत्म हो. इस के अलावा, हमें अपने समाज में जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है. नागरिकों को यह समझाने की आवश्यकता है कि भूख और कुपोषण एक विकट समस्या है और इस का समाधान करने के लिए सभी को एकजुट हो कर के एक दिशा में काम करना होगा. समयबद्ध तरीके से काम करना होगा तभी हम कुपोषण और भूख से जीत सकते हैं.

हमारे देश की शिक्षा पद्धति की दुनिया भर में आलोचना होती है इस दिशा में सरकार उदासीन रहती आई है. हमें अपने शिक्षा प्रणाली में बदलाव लाने की आवश्यकता है, ताकि हम अपने नौनिहालों को पोषण और स्वास्थ्य के बारे में शिक्षित कर सकें. सरकार को महिलाओं को सशक्त बनाने की दरकार है, ताकि वे अपने परिवार के लिए बेहतर निर्णय ले सकें.

वैश्विक भूख सूचकांक की रिपोर्ट हमें यह याद दिलाती है कि हमारे देश के सामने खड़ी चुनौतियों का समाधान करने के लिए हमें एक साथ जुटने की आवश्यकता है. सरकार को नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं प्रदान करने के लिए काम करने की आवश्यकता है, ताकि हम एक समृद्ध और स्वस्थ समाज बना सकें.

भूख और कुपोषण की समस्या का समाधान करने के लिए हमें अपने समाज में, लोकतांत्रिक व्यवस्था में बदलाव लाने की आवश्यकता है. हमें देश में जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है, ताकि लोग इस समस्या के प्रति जागरूक हो सके और इस का समाधान करने में मदद कर सके.

सरकार को भी इस समस्या का समाधान करने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है. सरकार को अपने नीतियों और कार्यक्रमों को इस तरह से बनाने की आवश्यकता है कि वे भूख और कुपोषण को खत्म करने में मदद करे. जनोन्मुखी बन जाए.

हमें अपने नागरिकों को बुनियादी सुविधाएं प्रदान करने के लिए बुनियादी काम करने की आवश्यकता है, इस में हम फिसड्डी साबित होते हैं. हम एक समृद्ध और स्वस्थ राष्ट्र बना सकें. इस के लिए राजनीतिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता है आज देश में व्याप्त भ्रष्टाचार और ईमानदारी की कमी के कारण भूख और कुपोषण भयावह साबित हो रहे हैं.

राज्य सरकारों, सामाजिक संस्थाएं और कुपोषण

देश में भूख और कुपोषण एक गंभीर समस्या है, जो देश के विकास और भविष्य के लिए एक बड़ा चुनौती है जो एक ‘गंभीर’ श्रेणी में आती है. इस समस्या का समाधान करने के लिए राज्य सरकारों और सामाजिक संस्थाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है.

कृषि विकास कार्यक्रमों को बढ़ावा देने से ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ सकते हैं.

सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मजबूत बनाने से गरीब परिवारों को सस्ता अनाज मिल सकता है. स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार करने से कुपोषण से संबंधित बीमारियों का इलाज हो सकता है.

शिक्षा प्रणाली में पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा को शामिल करने से लोगों को जागरूक किया जा सकता है.

महिला सशक्तिकरण कार्यक्रमों को बढ़ावा देने से परिवारों में पोषण के फैसले लेने में महिलाओं की भूमिका बढ़ सकती है.

जागरूकता अभियान चला कर लोगों को पोषण के महत्व के बारे में बताया जा सकता है. गरीब परिवारों को पोषण युक्त भोजन प्रदान करने के लिए भोजन बैंक स्थापित किए जा सकते हैं. सामुदायिक किचन की स्थापना से गरीबों को सस्ता और पोषण युक्त भोजन मिल सकता है. पोषण और स्वास्थ्य शिक्षा कार्यक्रमों का आयोजन किया जा सकता है, गरीब परिवारों के बच्चों को पोषण युक्त आहार प्रदान करने के लिए छात्रावास कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं.

भूख और कुपोषण की समस्या का समाधान करने के लिए राज्य सरकारों और सामाजिक संस्थाओं को मिल कर काम करने की आवश्यकता है. इन कदमों से हम भूख और कुपोषण की समस्या को कम कर सकते हैं और देश के विकास में योगदान कर सकते हैं.

दरअसल सरकार की दाएंबाएं देखने की फितरत के कारण इस बुनियादी समस्या की ओर न तो ध्यान दिया जा रहा है और न ही इसे खत्म करने का गंभीर प्रयास दिखाई देते हैं जिस की बड़ी आवश्यकता है.

न्याय की मूरत ने सूरत बदली, क्या सीरत भी बदलेगी?

सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने न्याय की देवी की आंख से पट्टी उतार कर शायद यह संदेश देने की कोशिश की है कि उन की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट और न्याय व्यवस्था पारदर्शिता की ओर कदम बढ़ा रही है. न्याय की देवी की नई मूर्ति सुप्रीम कोर्ट के जजों की लाइब्रेरी में स्थापित की गई है.

गौरतलब है कि सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने खुद इस मूर्ति को बनाने का आदेश दिया था. नई मूर्ति की आंखों पर पट्टी नहीं है, वह पूरी तरह खुली हुई हैं. खुली आंखों वाली मूर्ति लगवा कर शायद यह संदेश देने की कोशिश है कि कानून अब अंधा नहीं रहा. वह सब कुछ देखभाल कर न्याय करेगा.

मूर्तिकार विनोद गोस्वामी ने यह नई मूर्ति सीजेआई की इच्छानुरूप तैयार की है. सीजेआई चाहते थे कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय में ‘न्याय की देवी’ की छवि भारतीय हो. सो नई प्रतिमा में देवी का चेहरा भारतीय है. वह जस्टिशिया की तरह आक्रामक और रौबदार न हो कर सौम्य है. नई देवी रोमन स्त्रियों की तरह ट्यूनिक की बजाए साड़ी पहने हुए है. उस की आंखें स्पष्ट रूप से दुनिया देख रही हैं और उस के दाहिने हाथ में तलवार की जगह देश का राष्ट्रीय ग्रंथ ‘संविधान’ है.

पारंपरिक रूप से अब तक न्याय की देवी की मूर्ति में तीन चीजें शामिल थीं : आंखों पर पट्टी, तराजू और तलवार. इन प्रतीकों का अलगअलग मतलब था –

आंखों पर पट्टी : यह पहली बार 16वीं शताब्दी में न्याय की मूर्तियों पर दिखाई दी, जो निष्पक्षता का प्रतीक था. इस का मतलब यह है कि कानून को सभी के साथ समान व्यवहार करना चाहिए, चाहे उन की संपत्ति, शक्ति, सामाजिक स्थिति, या दूसरे बाहरी प्रभाव कुछ भी हो. आंख पर पट्टी होना यह दिखाता है कि न्याय निष्पक्ष और निष्कपट है.

तराजू : तराजू साक्ष्य और तर्कों के तौलने का प्रतीक है. यह दिखाता है कि कानून को किसी भी निर्णय पर पहुंचने से पहले सभी पक्षों पर विचार करना चाहिए. यह निष्पक्षता का प्रतिनिधित्व करता है, जिस में न्याय साक्ष्य के आधार पर दिया जाता है.

तलवार : पारंपरिक रूप से तलवार कानून की ताकत और उस के निर्णयों को लागू करने की शक्ति का प्रतीक है. यह अकसर बिना म्यान के चित्रित की जाती है, जो यह दर्शाती है कि न्याय पारदर्शी, जल्द और निर्दोष की रक्षा करने या दोषी को दंडित करने में सक्षम है.

अब सुप्रीम कोर्ट में जो नई मूर्ति लगाई गई है उस में उस के हाथ में तलवार की जगह संविधान की पुस्तक है. हालांकि नई मूर्ति में एक चीज जिसे नहीं बदला गया वो है तराजू. नई मूर्ति के हाथ में अब भी तराजू रखा गया है, जो बताता है कि न्यायालय किसी भी मामले में दोनों पक्षों की बात सुन कर ही फैसला लेता है. यानी तराजू संतुलन का प्रतीक है.

विधि के क्षेत्र में न्याय की देवी का इतिहास बहुत पुराना है. न्याय की देवी की मूर्तियां दुनिया भर में अदालतों में एक जैसी नहीं है. कुछ देशों में न्याय की मूर्ति की आंखों पर पट्टी बंधी है तो कुछ में नहीं. उदाहरण के लिए अमेरिका में, न्याय की देवी की मूर्ति पर आमतौर पर पट्टी बंधी होती है. जर्मनी में, फ्रैंकफर्ट के रोमर में स्थित न्याय की देवी की मूर्ति बिना पट्टी के है.

न्याय की देवी अलगअलग सभ्यताओं में अलगअलग रूपों में दिखाई गई है. न्याय की देवी की सब से शुरुआती मूर्ति प्राचीन मिस्र में पाई जाती है. कहा जाता है कि ये देवी माट की थी. माट सत्य, व्यवस्था और संतुलन का प्रतीक थीं. उन्हें अकसर एक पंख पकड़े हुए दिखाया जाता था, जिस का उपयोग मृत्यु के बाद आत्मा के न्याय के लिए किया जाता था.

ग्रीक और रोमन सभ्यताओं ने बाद में अपनी खुद की न्याय की मूर्ति बनाई. ग्रीक देवी थेमिस कानून और व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करती थीं, जबकि उन की बेटी डाइक न्याय और नैतिक व्यवस्था का प्रतीक थीं. थेमिस को तराजू पकड़े हुए दिखाया गया था. इन्हें ही न्याय की देवी का शुरुआती रूप माना जाता है. रोमन पौराणिक कथाओं में थेमिस को जस्टिटिया के साथ जोड़ा गया था, जो न्याय की देवी थीं. जस्टिटिया की छवि आज की न्याय व्यवस्था को दिखाने के लिए रखी जाती है. ‘जस्टिटिया’ के नाम से ही जस्टिस शब्द निकला है.

न्याय की देवी का कान्सेप्ट भारत में ब्रिटिश औपनिवेशिक काल से आया है. भारत में ब्रिटिश शैली की अदालतें हैं और कानूनी संस्थान भी ऐसे ही हैं. ब्रिटिश काल से ही यहां न्याय की देवी की मूर्ति उपयोग की जा रही है. कहा जाता है कि भारत में जो न्याय की देवी की मूर्ति है वो रोमन पौराणिक कथाओं वाली जस्टिटिया ही हैं. भारत में यह प्रतिमा अदालतों, ला कालेज और दूसरे कानूनी संस्थानों के बाहर देखी जाती है.

अब आजादी के 75वें साल में सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘न्याय की देवी’ की आंखों से पट्टी हटाने का फैसला न्याय के प्रति नैतिक दृष्टिकोण में सकारात्मक बदलाव का प्रतीक भले हो, लेकिन इस से देश में बेहद धीमी गति से काम कर रही न्याय व्यवस्था में सुधार और लोगों को त्वरित न्याय कैसे मिलेगा, इस का किसी के पास कोई जवाब नहीं है. ‘न्याय की देवी’ के स्वरूप और तेवर का भारतीयकरण हो, यह अच्छा है, लेकिन न्याय प्रणाली अपने कामकाज में भी ‘देसी ढर्रे’ पर ही चलती रहे तो यह गंभीर चिंता का विषय है.

भावनात्मक तौर पर ‘न्याय की देवी’ के भाव बदलने की यह कोशिश अच्छी है, लेकिन व्यवहार में इस देश में निष्पक्ष और त्वरित न्याय मिलने और कानून के प्रभावी अनुपालन की कहानी बहुत आश्वस्त करने वाली नहीं है. इस का पहला कारण तो देशभर की अदालतों में न्यायाधीशों की कमी और न्याय प्रणाली का कछुए की चाल से काम करना है. अगर अदालतों में पर्याप्त संख्या में जज ही नहीं होंगे तो फैसले जल्द कैसे होंगे? जस्टिस चंद्रचूड़ को पहले इस ओर ध्यान देना चाहिए कि जजों की रिक्तियों को एक समय सीमा के भीतर भरा जाए.

भारत सरकार ने लोकसभा में 23 जुलाई 2023 को एक सवाल के जवाब में बताया था कि देश भर में निचली अदालतों में 5388 जजों के पद खाली पड़े हैं. देश की निचली अदालतों में जजों के स्वीकृत पद 25 हजार 246 हैं, लेकिन काम सिर्फ 19 हजार 858 ही कर रहे हैं. इन पदों पर नियुक्तियां राज्य सरकारों को ही करनी होती हैं, लेकिन वहां भी हद दर्जे की लेटलतीफी है. राजनीतिक गुणा भाग हैं. जोड़तोड़ है. सिफारिश और रिश्वत है. हालांकि सुप्रीम कोर्ट में जरूर जजों के रिक्त पदों पर लगभग पूरी नियुक्तियां हो गई हैं, लेकिन हाई कोर्टों में 327 जजों के पद अभी भी खाली पड़े हैं.

एक तरफ जजों की कमी, दूसरी तरफ अदालतों में मुकदमों का बढ़ता अंबार. उपलब्ध जानकारी के मुताबिक वर्तमान में देश की निचली अदालतों में कुल 5.1 करोड़ मामले में लंबित हैं. अकेले सुप्रीम कोर्ट में ही पेंडिंग मामलों की संख्या 82 हजार है जबकि हाई कोर्टों में 58.62 लाख मामले फैसलों का इंतजार कर रहे हैं.

इन में भी 42.64 लाख मामले तो दीवानी के हैं. नई भारतीय न्याय संहिता में फौजदारी मामलों में तो फिर भी विवेचना की समय सीमा तय की गई है, लेकिन दीवानी मामलों में ऐसी कोई बाध्यता नहीं है. देश की अदालतों में 1 लाख 80 हजार मामले तो ऐसे हैं, जो 30 साल से चल रहे हैं.

इन का फैसला कब होगा, कोई नहीं जानता. ऐसे में पीढ़ियों तक मुकदमे चलते रहते हैं. नीति आयोग ने 2018 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में कहा था कि अदालतों में इसी तरह धीमी गति से मामले निपटते रहे तो सभी लंबित मुकदमों के निपटारे में 324 साल लगेंगे. यह स्थिति तब है कि जब 6 साल पहले अदालतों में लंबित मामले आज की तुलना में कम थे.

न्याय के निष्पक्ष होने के साथ यह भी आवश्यक है कि न्याय वह समय रहते मिले. अन्यथा देर से मिलने वाले न्याय का, चाहे वह कितना भी निष्पक्ष क्यों न हो, कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं रह जाता. आपराधिक और दीवानी विवादों के जितने मुकदमे अदालतों में पहुंच रहे हैं, उस तुलना में उन की सुनवाई करने और फैसला देने वालों जजों की संख्या बहुत कम है. आज भारत में हर 10 लाख की आबादी पर औसतन 21 जज काम कर रहे हैं. जबकि यूरोप में यही औसत प्रति 10 लाख 210 और अमेरिका में 150 जजों का है.

अगर हम अमेरिका के मानदंड को भी मानें तो भारत की 145 करोड़ की आबादी पर लंबित मुकदमों के निपटारे के लिए कुल 2 लाख 17 हजार जज चाहिए जबकि यहां 20 हजार भी नहीं हैं. जजों की नियुक्तियों का काम सरकार का है, लेकिन ज्यादातर सरकारें इस मामले में गंभीर नहीं दिखतीं.

परोक्ष रूप से यह रवैया जनता को न्याय के अधिकार के वंचित करने जैसा ही है. इस के अलावा भारतीय अदालतों में बुनियादी और अधोसंरचनात्मक सुविधाओं की कमी की अलग ही कहानी है. कई अदालतों में अदालत कक्षों की कमी है. शौचालय, प्रतीक्षा क्षेत्र, और पार्किंग स्थल जैसी बुनियादी सुविधाओं तक पहुंच सीमित है. निचली अदालतों के केवल 40% भवनों में शौचालय प्रयोग करने योग्य हैं. निचली अदालतों में डिजिटल ढांचे, वीडियो कान्फ़्रेंसिंग रूम और जेलों और अधिकारियों से वीडियो कनेक्टिविटी की कमी है. भारत के 25 उच्च न्यायालयों में से केवल 9 ने अदालती कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग लागू की है.

न्यायपालिका के लिए बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिए राज्य सरकारों के साथसाथ केंद्र को भी योगदान देना चाहिए. न्यायपालिका के लिए बुनियादी सुविधाओं के विकास के लिए राज्यों को न्यायालय भवन निर्माण के लिए उपयुक्त भूमि की पहचान करनी चाहिए. केंद्र सरकार को बुनियादी ढांचे में अपना योगदान बढ़ाने का प्रयास करना चाहिए और राज्यों को समय पर धनराशि जारी करना सुनिश्चित करना चाहिए. क्योंकि न्यायालय के बुनियादी ढांचे की स्थिति न्याय के वितरण पर बहुत बड़ा प्रभाव डाल सकती है.

बहरहाल उम्मीद की जानी चाहिए कि अगर सर्वोच्च अदालत में ‘न्याय की देवी’ की सूरत बदली है तो आगे न्याय प्रणाली की सीरत भी बदलेगी. लेकिन कैसे यह सवाल अभी बाकी है.

हरियाणा में कांग्रेस की हार

हरियाणा विधानसभा चुनाव में चाहे कांग्रेस की हार हो गई हो और भारतीय जनता पार्टी ने पिछले विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में जीती सीटों की दृष्टि से बेहतर प्रदर्शन किया हो, रैसलर विनेश फोगाट की जीत महत्त्वपूर्ण है क्योंकि उस ने 2 वर्ष पहले बृजभूषण सिंह, भाजपा सांसद, रैसलिंग फैडरेशन के अध्यक्ष, की करतूतों के विरुद्ध खुला विद्रोह किया था. भाजपा सरकार ने उन के कहने पर बृजभूषण सिंह को भाजपा से तो नहीं निकाला पर काफी हीलहुज्जत के बाद उस को पद से हटा दिया.

 

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कांग्रेस ने तब भी दिल्ली के जंतरमंतर पर धरने पर बैठी रैसलर को समर्थन दिया था और अब हरियाणा के चुनाव में टिकट दिया था.

बड़ी बात यह है कि कांग्रेस उन लोगों को टिकट दे रही है और फिर जितवा भी रही है जो सत्ता से लोहा लेने को तैयार हैं. आज देश की औरतें, सवर्ण औरतें भी, पिछड़े, दलित और मुसलिम सभी भाजपा के पौराणिक युग वाले आंतक के शिकार हैं. पिछले 30-40 सालों में जब से राममंदिर के बहाने पौराणिक समाज बनाने की कोशिश हो रही है, आधुनिक समान शिक्षा और विज्ञान की उपलब्धियों के बावजूद पिछड़ों, औरतों और मुसलिमों के हाथों से मौके छीने जा रहे हैं.

देश की उन्नति में इन सब का बड़ा हाथ रहा है क्योंकि ये लोग ही निर्माण में लगे हुए हैं. ये ही कारखाने चलाते हैं, ये ही खेती करते हैं, ये ही घरघर सामान पहुंचाते हैं. इन्हीं लोगों ने विदेश जा कर मजदूरी कर के विदेशी मुद्रा देश में भेजना शुरू किया है जिस के बल पर हम ठाट से विलासिता का विदेशी सामान खरीद रहे हैं. विदेशों में रह कर देश में पैसा भेजने वाले भारतीय दुनिया में पहले नंबर पर हैं.

हरियाणा के चुनाव में जो नतीजे आए हैं वे वैसे ही चौंकाने वाले है जैसे लोकसभा चुनाव के थे. लोकसभा चुनाव में सब को उम्मीद थी कि भाजपा 400 पार होगी और अब हरियाणा में उम्मीद थी कि भाजपा फिर हारेगी और कांग्रेस सरकार बनाएगी. भाजपा और कांग्रेस का वोट शेयर लगभग बराबर है पर सीटें भाजपा को ज्यादा मिल गईं. कांग्रेस को एक बड़ी उम्मीद हरियाणा जैसे छोटे प्रदेश से थी पर वह टूट गई है. लगता है, राहुल गांधी को और इंतजार करना होगा.

वैसे, भारतीय जनता पार्टी को लगभग 150 वर्षों तक संघर्ष करने के बाद सत्ता मिली थी. इस गुट ने हिंदूहिंदूहिंदू करना स्वामी दयानंद के समय से शुरू कर दिया था. इस ने पहले कांग्रेस के बाल गंगाधर तिलक और गोपाल कृष्ण गोखले के सहारे समाज को धर्म की पोखर में धकेलने की कोशिश की और बाद में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहारे. आज उसे बड़ी सफलता मिली हुई है पर वह अब फिर ढीली होती रही है.

हरियाणा के चुनाव ने जता दिया कि राहुल गांधी व दूसरे दलों का काम अभी आसान नहीं हुआ है.

जातियों से उठ कर एकता

हिंदू धर्म के मुख्य ग्रंथ महाभारत की कहानी में भाइयों में मनमुटाव दिखाया गया. वहीं, गीता का संदेश घर के क्लेशों को युद्ध से समाप्त करने का है. ऐसे में कौन सी एकता की बात हो रही है, किस एकता का राग आलापा जा रहा है.

पश्चिमी इतिहासकारों की खोजबीन के अनुसार भारत पर विदेशियों ने लगातार हमले किए. हमारे अपने साहित्यकार, अगर थे भी, तो राजा की चाटुकारिता करते रहते थे, इतिहास नहीं लिख रहे थे. उन के अनुसार न तो अशोक था, न चाणक्य, न मौर्य वंश. दक्षिण भारत में कुछ शूद्र राजा हुए हैं जिन्होंने जम कर पौराणिक हिंदू धर्म का प्रचार किया है. पर वहां भी जातिभेद लगातार स्पष्ट रहा है. ‘हम श्रेष्ठ हैं, बाकी निकृष्ट’ की भावना लगातार मन में भरी जा रही है.

शिरडी के साईं को ले कर आज जम कर विवाद हो रहा है कि वह कौन सी जाति का था. किसी को इस का पता नहीं. गुजरात के वैष्णव अरसे तक स्वामीनारायण मंदिरों में नहीं जाते थे, जाति के कारण.

देशभर में जातियों के नाम पर त्योहार बंटे हुए हैं. आजकल सब एकदूसरे के त्योहार मनाने लगे हैं, यह अच्छा है लेकिन यह विज्ञान की देन है. विज्ञान ने सब को एक शहर में रहने को बाध्य किया है, एक नल का पानी पीने को दिया है, एक बिजली का इस्तेमाल करने की सुविधा दी है. सड़कों पर आनेजाने पर आज प्रतिबंध नहीं लग सकता, तो यह विज्ञान का कमाल है.

मोहन भागवत, जो आरएसएस के मुखिया हैं, की आज जरूरत नहीं है. आज जरूरत है तार्किक, वैज्ञानिक, आधुनिक सोच की न कि धार्मिक सोच की. हिंदू एक न हों, सारे भारतीय एकजुट हो कर देश का निर्माण करें. मंदिर नहीं, उद्योग बनाएं. यह मोहन भागवत के बस का नहीं.

पौराणिक ग्रंथों में हिंदू राजाओं का खूब उल्लेख है लेकिन इतिहास में क्षत्रिय हिंदू राजाओं का वर्णन या उन के बनाए महल, मकान, शहर, मंदिर मिलना मुश्किल हैं. जिन मंदिरों को राम, विष्णु, शिव, ब्रह्मा, कृष्ण का कहा जाता है, पुरातत्व खोजों के अनुसार वे 400-500 साल पुराने हैं और जहां मिलते हैं वहां क्षत्रिय नहीं शूद्र, यानी आज के ओबीसी, राजाओं के बनाए हुए मिलते हैं. बौद्ध निर्माण भी काफी दिखता है जिन में पूजापाठ भी होता था और रहने की जगह भी थी.

मोहन भागवत का 6 अक्तूबर को यह कहना कि ‘हिंदू समाज एक हो जाए,’ आज की स्थिति में क्या मतलब रखता है, समझ नहीं आया. हिंदू समाज है क्या, यही हर समय विवाद बना रहता है. पौराणिक ग्रंथ, स्मृतियां, मंदिर, रीतिरिवाज सब मिल कर समाज को हर समय बांटते रहते हैं.

अमृतमंथन में दस्युओं को अलग माना गया है और इस की कहानियां बारबार दोहराई जाती हैं. शिव ने जहर इसी अमृतमंथन के दौरान पिया था. कश्यप अवतार और मोहिनी अवतार इसी अमृतमंथन में हुए थे. फिर जो एकता की कहानी अमृतमंथन में सुनाई जाती है उस में दस्यु और देवता अलग क्यों थे? क्या दोनों हिंदू नहीं थे?

आजकल रामलीलाएं हो रही हैं. उन में मारीच, शूर्पणखा, रावण आदि को पराया दिखाया जा रहा है. उन्हें काला, बदसूरत दिखाया जा रहा है. दरअसल, लोगों के मन में यह बैठाया जा रहा है कि हिंदू हिंदू में फर्क है. दस्यु विदेशी थे, यह न मानते हुए भी अलग थे, तिरस्कार योग्य थे, यह दोहराया जाता है.

धर्मजातिजनित भेदभाव

भारत के हर शहर में कई ऐसे इलाके हैं जिन में केवल ऊंची जातियों के अमीर रहते हैं और जहां जगह की कमी नहीं है. ये इलाके शहरों के पुराने इलाकों से बाहर, भीड़भाड़, गलियों से दूर हैं. इन इलाकों की सड़कें चौड़ी हैं, पेड़ लगे हैं, रोज सफाई होती है, सीवर काम करता है, लाइटें लगी हैं जो जलती भी हैं, मकान पुते हुए साफसुथरे रहते हैं.

ऐसा ही अमेरिका में है. वहां गोरे पहले शहरों के बीच में रहते थे जैसे भारत के मुंबई में बांद्रा या कोलाबा इलाके में रहते थे. अब अमेरिकी शहर के बीच के इलाकों को कालों, भारतीयों, चीनियों, साउथ अमेरिकियों के लिए छोड़ कर ऊंचे दरवाजों वाली गेटेड कम्युनिटीज में जा रहे हैं.

आज 70 फीसदी गोरे अमेरिकी सबअर्बन एरियाज में रहते हैं. डाउन टाउन में केवल गरीब रह गए गोरे हैं. काले अब इन सबअर्बनों में किराए के मकान लेने लगे हैं क्योंकि 40-50 साल के स्ट्रगल के बाद उन्होंने अमेरिका में अपनी जगह बना ली है. भारत में पिछड़ों, दलितों और मुसलमानों को दड़बेनुमा ढहते मकानों में या स्लमों में धकेला जा रहा है.

भारत की दिक्कत यह है कि यहां ऊंची जातियों वाले यादवों, कुर्मियों, जाटों, मराठों, रेड्डियों को भी ब्राह्मणों व बनियों वाले इलाकों में खुशीखुशी आने नहीं दिया जाता.

हर शहर चाहे अमेरिका हो या भारत का, एकजैसा बनने लगा है क्योंकि जैसे वहां डोनाल्ड ट्रंप जैसे खब्ती के करोड़ों अंधभक्त हैं वैसे ही यहां कट्टरपंथी नरेंद्र मोदी के करोड़ों अंधभक्त हैं जो हिंदू धर्म की वर्णव्यवस्था को बचाने के लिए सब से बड़े चौकीदार हैं.

ऊंची जातियों वाले उन्हें अपने परिवार का मानते हैं जैसे अमेरिका में अमेरिकी ‘मेक अमेरिका ग्रेट अगेन’ के सूत्रधार डोनाल्ड ट्रंप को मानते हैं. ट्रंप भी यही कहते हैं कि अमेरिका का राज सिर्फ गोरों के पास रहे.

किसी भी देश में धर्म-जाति को ले कर पैदा किया गया भेदभाव बेहद खतरनाक होता है. हिटलर को अभी भुलाया नहीं गया है, हिटलर के हाथों मारे और तड़पाए जाने वाले यहूदी आज उसी भेदभाव की वजह से इजराइल में फिलिस्तीनियों के साथ वैसा कर रहे हैं.

तीर्थस्थल बनाम शरणस्थल

कुंभ में भाइयों के बिछुड़ने की फिल्मी कहानियां तो अब दिखनी बंद हो गई हैं पर पश्चिम बंगाल के गंगासागर मेले का उपयोग अब भी घर के बूढ़ों को घर से निकाल फेंकने के लिए इस्तेमाल हो रहा है. एक दैनिक समाचारपत्र की खबर के अनुसार, गंगासागर के एक धार्मिक संगठन का कहना है कि हर साल करीब 8,000 बूढ़ों को गंगासागर की भीड़ में छोड़ने की नीयत से लाया जाता है पर उन में से बहुतों को पुलिस व स्वयंसेवकों द्वारा उन के घरों तक वापस पहुंचा दिया जाता है.

रामचरितमानस और गौपूजा वाले उत्तर प्रदेश व बिहार के मामले ज्यादा होते हैं जहां से आए लोग मानसिक संतुलन खो बैठे अपने वृद्धों को गंगासागर मेले में छोड़ जाते हैं. लगभग अपाहिज हो चुके इन वृद्धों की देखभाल न बेटे करना चाहते हैं, न बहुएं और न ही पोते.

आज के युग में जब किसी को ट्रेस करना आसान होता जा रहा है, इन परिवारों को बड़ी निराशा होती है जब स्वयंसेवक खोए वृद्धों को उन के घर तक ले जाते हैं. एक युग था जब कैमरे भी नहीं थे और न स्वयंसेवकों के पास साधन थे कि वे इन छोड़े गए वृद्धों को उन के घरों तक पहुंचा सकें.

वृद्धावस्था एक प्राकृतिक स्थिति है. न केवल वृद्धों को इस के लिए तैयार रहना चाहिए बल्कि बेटों, पोतों को इस की तैयारी करनी चाहिए. हर स्वस्थ व्यक्ति जीवन के अंत के 4-5 साल पैरालिसिस, किडनी डिजीज, अल्जाइमर्स, हार्ट, लंग्स, ब्लाइंडनैस आदि गंभीर बीमारियों का शिकार हो सकता है.

इन बीमारों को गंगासागर में छोड़ना और उसे पुण्य का काम सम?ाना धर्म के हजारों अवगुणों में से एक है. छोड़ तो कोई भी किसी को कहीं सकता है पर परिवार के लोग सोचते हैं कि तीर्थस्थान पर छोड़ने से उन्हें पाप नहीं लगेगा और वे दोषी नहीं ठहराए जाएंगे.

कुछ मामलों में तो लोग ऐसे ‘खोए’ वृद्धों का, घर वापस आ कर पूरी निष्ठा से, अंतिमक्रिया के अनुष्ठान का नाटक कर यह सिद्ध करते हैं कि वे बड़े धार्मिक हैं और उन का वृद्धस्वजन या तो भीड़ में मर गया या खो गया. जितने धार्मिक क्रियाकर्म करने होते हैं, किए जाते हैं.

यह परंपरा कि- वृद्धों को कहीं छोड़ आओ- वानप्रस्थ आश्रम से जुड़ी है जिस का बखान हर प्रवचन में पंडित और गुरु करते हैं. पंडितों और गुरुओं का यह उद्देश्य होता है कि वृद्ध होते लोग जीते जी अपनी धनसंपत्ति दान कर दें क्योंकि पता नहीं होश खोने के बाद उन के बेटे-पोते उन्हें कितना देंगे, देंगे भी या नहीं.

वैसे हमारे सारे तीर्थस्थल छोड़े गए हजारों लोगों की शरणस्थली हैं. वृंदावन, काशी, हरिद्वार, प्रयागराज आदि इस के बड़े केंद्र हैं. अयोध्या भी बनेगा.

बौयफ्रैंड अकेले में मेरे प्राइवेट पार्ट्स टच करता है. क्या मुझे उसे यह सब करने देना चाहिए?

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मेरी उम्र 22 साल है. मेरा एक बौयफ्रैंड है जिस से मेरा रिलेशन 1 साल से चल रहा है. वह मुझ से बहुत प्यार करता है और मेरा अच्छे से खयाल भी रखता है. लेकिन मेरा बौयफ्रैंड जब भी मुझ से अकेले में मिलता है तो वह मेरे प्राइवेट पार्ट्स को छूने की कोशिश करता है. मैं हर बार उसे ऐसा कुछ करने से मना करती हूं लेकिन वह फिर भी नहीं मानता और कहता है कि गर्लफ्रैंड और बौयफ्रेंड में यह सब चलता है. मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या मुझे उसे यह सब करने देना चाहिए?

जवाब –

आजकल रिलेशनशिप में आना काफी सामान्य सी बात है और कई लोग रिलेशनशिप में न सिर्फ रोमांस बल्कि सैक्स भी कर लेते हैं. हर इंसान को रोमांस करना पसंद होता है. जैसाकि आप ने बताया कि आप का बौयफ्रैंड अकेले में आप के प्राइवेट पार्ट्स को छूता है तो ऐसे में आप खुद सोचिए कि क्या आप को अच्छा लगता है जब वह यह सब करता है?

अगर आप को यह सब अच्छा लगता है और आप का बौयफ्रैंड का टच करना पसंद आता है तो बेशक आप को उसशका साथ देना चाहिए और इसे एक ऐंजौय की तरह लेना चाहिए.

रिलेशनशिप में किसिंग, स्मूचिंग या फिर सैक्स संबंध बनाना आम बात है मगर यह जबरन नहीं, रजामंदी से हो तभी ठीक है.

अलबत्ता, आप दोनों पिछले 1 साल से रिलेशनशिप में हैं लेकिन आप हर बार अपने बौयफ्रैंड को रोमांस के लिए मना कर देती हैं पर वह फिर भी आप से प्यार करता है तो ऐसे में उस का प्यार आप के लिए सच्चा है और जिस्मानी नहीं है तो आप को उस के साथ रोमांस जरूर करना चाहिए और उसे भी थोड़ी लिबर्टी लेने दीजिए.

आप को एक अच्छा लड़का मिला हुआ है तो उसे थोड़ी छूट देने में कोई बुराई नहीं है. कहीं ऐसा न हो कि आप के इस स्वभाव की वजह से आप एक अच्छे लड़के से हाथ धो बैठें.

अगर आप श्योर नहीं हैं कि भविष्य में आप की उस के साथ शादी होगी या नहीं तो ऐसे में सैक्स को ले कर आप सोचसमझ कर कदम उठाएं लेकिन रोमांस का मजा आप खुल कर उठा सकती हैं.

अगर आप को कभी भी ऐसा फील हो कि आप सैक्स करने के लिए भी तैयार हैं तो यह करना भी कोई गुनाह नहीं है बल्कि रोमांस और सैक्स एक ऐसा अनुभव है जिसे हर कोई ऐंजौय करता है.

मगर ध्यान रहे, सैक्स के लिए दोनों की रजामंदी जरूरी है और चूंकि अभी आप दोनों को ही पहले कैरियर बनानी है, तो ऐहतियात जरूर बरतें और बौयफ्रैंड से कहें कि वह सैक्स के दौरान कंडोम का प्रयोग करे. इस दौरान यह चैक भी करें कि कंडोम फट तो नहीं गया. वैसे, अच्छी क्वालिटी का कंडोम जल्द फटता नहीं और सैक्स को मजेदार बनाता है.

आप एक बात का ध्यान रखना कि आप को अपने बौयफ्रेंड को उतनी ही छूट देनी है जहां तक आप का मन मानता हो या जहां तक आप कंफर्टेबल फील करें. जहां भी आप को लगे कि आप असहज फील कर रही हैं तो उसी समय अपने बौयफ्रैंड को रोक दें.

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मृगतृष्णा : शादी के बाद कैसा हो गया सुमि का रवैया

गली में पहरा देते चौकीदार के डंडे की खटखट और सन्नाटे को चीरती हुई राघव के खर्राटों की आवाज के बीच कब रात का तीसरा प्रहर भी सरक गया, पता ही न चला. पलपल उधेड़बुन में डूबा दिमाग और आने वाले कल होने वाली संभावनाओं से आशंकित मन पर काबू रखना मेरे लिए संभव नहीं हो पा रहा था. मैं लाख कोशिश करती, फिर भी 2 दिनों पहले वाला प्रसंग आंखों के सामने उभर ही आता था. उन तल्ख तेजाबी बहसों और तर्ककुतर्क के पैने, कंटीले झाड़ की चुभन से खुद को मुक्त करने का प्रयास करती तो एक ही प्रश्न मेरे सामने अपना विकराल रूप धारण कर के खड़ा हो जाता, ‘क्या खूनी रिश्तों के तारतार होने का सिलसिला उम्र के किसी भी पड़ाव पर शुरू हो सकता है?’

कभी न बोलने वाली वसुधा भाभी, तभी तो गेहुंएं सांप की तरह फुंफकारती हुई बोली थीं, ‘सुमि, अब और बरदाश्त नहीं कर सकती. इस बार आई हो तो मां, बाऊजी को समझा कर जाओ. उन्हें रहना है तो ठीक से रहें, वरना कोई और ठिकाना ढूंढ़ लें.’

‘कोई और ठिकाना? बाऊजी के पास तो न प्लौट है न ही कोई फ्लैट. बैंक में भी मुट्ठीभर रकम होगी. बस, इतनी जिस से 1-2 महीने पैंशन न मिलने पर भी गुजरबसर हो सके. कहां जाएंगे बेचारे?’ भाभी के शब्द सुन कर कुछ क्षणों के लिए जैसे रक्तप्रवाह थम सा गया था. जिस बहू का आंचल कितनी ही व्यस्तताओं के बावजूद कभी सिर से सरका न हो, जिस ने ससुर से तो क्या, घर के किसी भी सदस्य से खुल कर बात न की हो, वह यों अचानक अपनी ननद से मुंहजोरी करने का दुसाहस भी कर सकती है?

मैं पलट कर भाभी के प्रश्न का मुंहतोड़ जवाब देने ही वाली थी कि मां ने बीचबचाव सा किया था, ‘बहू, ठीक ढंग से तुम्हारा क्या मतलब है?’

‘मकान का पिछला हिस्सा खाली कर के इन्हें हमारे साथ रहना होगा,’ भाभी ने अपना फैसला सुनाया.

‘उस हिस्से का क्या करोगे?’ अपनी ऊंची आवाज से मैं ने भाभी के स्वर को दबाने की पुरजोर कोशिश की तो जोरजोर से चप्पल फटकारते हुए वे कमरे से बाहर चली गईं.

मैं ने एक नजर विवेक भैया पर डाली कि शायद पत्नी की ऐसी हरकत उन्हें शर्मनाक लगी हो. पर वह मेरा कोरा भ्रम था. भैया की आवाज तो भाभी से भी बुलंद थी, ‘किराए पर देंगे और क्या करेंगे? इस मकान को बनवाने के लिए बैंक से इतना कर्जा लिया है, उसे भी तो उतारना है. कोई पुरखों की जमीनजायदाद तो है नहीं.’

‘किराए पर ही देना है तो हम से किराया ले लो. मैं अपना चौका ऊपर ही समेट लूंगी,’ अपने घुटनों को सहलाती हुई मां, बेटे के मोह में इस कदर फंसी हुई थीं कि  इस बात की तह तक पहुंच ही नहीं पा रही थीं कि उन्हें घर से बेघर करने में भाभी को भैया का पूरा साथ मिला हुआ है. पथराए से बाऊजी चुपचाप पलंग के एक कोने पर बैठे बेमकसद एक ही तरफ देख रहे थे.

‘कुल मिला कर 2 हजार रुपए तो पैंशन के मिलते हैं. उतना तो आप का निजी खर्चा है. मकान के उस हिस्से से तो 3 हजार रुपए की उगाही होगी,’ भैया ने भाभी की आवाज में आवाज मिलाई तो बाऊजी अपने बेटे का चेहरा देखते रह गए थे. उन का पूरा शरीर कांप रहा था.

‘जब पूत ही कपूत बन जाए तो उस पराए घर की बेटी को क्या कहा जा सकता है?’ फुसफुसाती हुई मां की आवाज भीग गई. वे रोतरोते भी बाऊजी से उलझ पड़ीं, ‘इसलिए तो तुम से कहती थी, चार पैसे बुढ़ापे के लिए संभाल कर रखो. पर तुम ने कब सुनी मेरी? अब देख लिया, अपनी औलाद भी किस तरह मुंह फेरती है.’

मैं मां की बात और नहीं सुन पाई थी. पूरा माहौल तनावभरा हो गया था. अगले दिन चुपचाप अपने घर लौट आई थी. अब वहां कहनेसुनने के लिए बचा ही क्या था. अब तो सारे रिश्ते ही झूठे लग रहे थे.

शाम को मैं चौके में चाय बनाने के लिए घुस गई थी. मन, मस्तिष्क जैसे बस में ही नहीं थे. काफी समय बीत जाने के बाद भी जब चाय नहीं बन पाई तो राघव खुद ही चौके में आ गए थे, एक प्याली मुझे दे कर दूसरी प्याली हाथ में ले कर अम्मा के पास जा कर अखबार खोल कर बैठ गए. सुबह के कुछ घंटे अम्मा के साथ बिताना उन की आदत में है. इसीलिए तो मैं ने उन्हें श्रवण कुमार का नाम दिया था.

चौके से बाहर निकल कर मैं कुछ काम निबटाने के लिए यहांवहां घूम रही थी. पर मन तनाव की गिरफ्त में था. भाभी के बरताव का डंक मेरे मन में बुरी तरह चुभा हुआ था. भाभी तो पराए घर की है, पर भैया को क्या हुआ? वे तो सब की इज्जत करते थे, फिर यह बदलाव क्यों आया? न जाने कब आंखों के आगे अंधेरा छा गया और मैं गश खा कर गिर पड़ी. आंख खुली तो अम्मा मेरी पेशानी सहला रही थीं. बदहवास से राघव मेरी आंखों पर पानी के छींटे डाल रहे थे.

‘क्या बात है सुमि, कुछ परेशान दिख रही हो?’ इन्होंने पूछा.

‘नहीं, कुछ भी तो नहीं,’ चालाकी से मैं ने अपना दुख छिपाने की नाकाम सी कोशिश की. पर पूरे शरीर का तो खून ही जैसे किसी ने निचोड़ लिया था.

राघव आश्वस्त नहीं हुए थे, ‘देखो सुमि, सुख बांटने से बढ़ता है, दुख बांटने से कम होता है. हम तुम्हारे अपने ही तो हैं…कुछ कहती क्यों नहीं?’

मैं सोचने लगी कि राघव जैसे लोग कितने सुखी रहते हैं. बिना किसी गिलेशिवे के जिंदगी में आए उतारचढ़ावों को स्वीकार करते चले जाते हैं. लेकिन हमारे जैसे लोग हर रिश्ते को कसौटी पर ही परखते रह जाते हैं. जिंदगी में जो पाया है, उस से संतुष्ट नहीं होते. कुछ और पाने की लालसा में जो कुछ पाया है, उसे भी खो देते हैं.

अपराधबोध मन पर हावी हो उठा था. राघव के कसे हुए तेवरों में दोस्ती की परछाईं थी. फिर भी विश्वास करने को जी नहीं चाह रहा था.

अपने अभिभावकों के पक्षधर बने रहने वाले राघव को भला मेरे मायके वालों से क्यों सहानुभूति होने लगी. आज भी यदि अम्मा और मुझे एक ही तुला पर रख कर तोला जाए तो शायद राघव की नजरों में अम्मा का ही पलड़ा भारी होगा.

एक नजर अम्मा को देखा था. कहते हैं, औरत ही औरत की पीड़ा को समझ सकती है. पर उन आंखों में भी जो भाव थे, उन्हें अपनेपन की संज्ञा देना गलत था.

मौकेबेमौके अम्मा कितनी बार तो सुना चुकी थीं, ‘अपने मायके का दुख डंक की तरह चुभता है.’

‘जाके पैर न फटी बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई’ की दुहाई समयसमय पर देने वाली अम्मा इस समय मेरे मर्म पर निशाना लगाने से नहीं चूकेंगी, इतना तो इस घर में इतने बरसों से रहतेरहते जान ही गईर् थी. शादी के बाद हर 2 दिनों में मेरे मायके में संदेश भिजवाने वाली अम्मा की नजरें मेरे ही मां, बाऊजी में खोट निकालेंगी.

प्याज के छिलकों की तरह अतीत के दृश्य परतदरपरत मेरी आंखों के सामने खुलते चले गए थे. जब भी अम्मा, पिताजी इकट्ठे बैठते, अम्मा आंखें नम कर लेतीं, ‘संस्कार बड़ों से मिलते हैं. मैं तो पहले ही कहती थी, किसी अच्छे परिवार से नाता जोड़ो. मेरा राघव एकलौता बेटा है, उस की तो गृहस्थी ही नहीं बसी.’

‘ऐसी बात नहीं है,’ पिताजी भीगे स्वर में कहते, ‘बहू के मायके वाले तो बहुत अच्छे हैं. रमेश चंद्र प्रोफैसर थे. शीला बहन तो परायों को भी अपना बनाने वालों में हैं. भाई कितना मिलनसार है…और भाभी अमीर खानदान की एकलौती वारिस है, पर घमंड तो छू तक नहीं गया. हां, बहू का स्वभाव विचित्र है. संवेदनशीलता, भावुकता नाम को भी नहीं. मैं तो हीरा समझ कर लाया था. अब यह कांच का टुकड़ा निकली तो जख्म तो बरदाश्त करने ही पड़ेंगे.’

पिताजी मेरे मायके का जुगराफिया खींचतेखींचते जब मुझे कोसते तो अम्मा के जख्मों की कुरेदन और बढ़ जाती. वे मेरे मातापिता को बुलवा भेजतीं. शिकायतों की फेहरिस्त काफी लंबी होती थी. जैसे, मुझे बड़ों का सम्मान करना नहीं आता, पति को कुछ समझती नहीं, कोई काम करीने से कर नहीं सकती, ‘बेहद नकचढ़ी है आप की बेटी,’ कहतेकहते अम्मा बहस का सारांश पेश करतीं. मां सजायाफ्ता मुजरिम की तरह गरदन लटका कर मेरा एकएक गुनाह कुबूल करती जातीं. बाऊजी कभी उन के आरोपों का खंडन करना चाहते भी, तो मां आंख के इशारे से रोक देतीं. समधियाने में तर्कवितर्क करना उन्हें जरा नहीं भाता था. फिर राघव तो उन के दामाद थे. उन्हें कुछ बुरा न लगे, इसलिए वे चुप ही रहना पसंद करती थीं. बेचारी मां को देख कर ससुराल के लोगों पर गुस्सा आता और मां पर दया. निम्नमध्यवर्गीय परिवार में 2 बच्चों की मां से अधिक निरीह जीव शायद और कोई नहीं होता.

इधर मेरे मातापिता के घर से बाहर निकलते ही माहौल बिलकुल बदल जाता. अम्मा, पिताजी किसी न किसी बहाने से घर के बाहर निकल जाते थे, ताकि हम दोनों पतिपत्नी आपस में बातचीत कर के ‘इस मसले’ को हल कर सकें. पर मुझे तो उस समय राघव की शक्ल से भी चिढ़ हो जाती थी. उन्हीं के सामने मेरे मातापिता की बेइज्जती होती रहती, पर वे मेरे पक्ष में एक भी शब्द कहने के बजाय उपदेश ही देते रहते.

अम्मा घर लौट कर बड़े प्यार से एक थाली में छप्पनभोग परोस कर मुझे समझातीं, ‘बहू, कमरे में जा, राघव अकेला बैठा है, खुद भी खा, उसे भी खिला.’

‘मेमने की खाल में भेडि़या,’ मैं मन ही मन बुदबुदाती. इसी को तो तिरिया चरित्तर कहते हैं. मन में दबा गुस्सा मुंह पर आ ही जाता था और मैं चिढ़ कर जवाब देती थी, ‘कोई नन्हे बालक हैं, जो मुंह में निवाला दूंगी? अपने लाड़ले की खुद ही देखभाल कीजिए.’

कमरे में जाने के बजाय मैं घर से निकल पड़ती और सामने वाले पार्क में जा कर बैठ जाती. कालोनी के लोग अकसर पार्क में चलहकदमी करते रहते थे. मेरी पनीली आंखें और उतरा हुआ चेहरा देख कर आसपास खड़े लोगों में जिज्ञासा पैदा हो जाती थी. वे तरहतरह की अटकलें लगाते. कोई कुछ कहता, कोई कुछ पूछता.

मैं घर में घटने वाले छोटे से छोटे प्रसंग का बढ़चढ़ कर बयान करती. ससुराल पक्ष के हर सदस्य को खूब बदनाम करती. घर लौटने का मन न करता था. ऐसा लगता, सभी मेरे दुश्मन हैं. यहां तक कि मां, बाऊजी भी दुश्मन लगते थे. इन लोगों को कुछ कहने के बजाय वे यों मुंह लटका कर चले जाते हैं जैसे बेटी दे कर कोई बहुत बड़ा गुनाह किया हो.

2-4 दिन शांति से बीतते और फिर वही किस्सा शुरू हो जाता. गलती राघव की थी, उस के अभिभावकों की थी या मेरी, नहीं जानती, पर पेशी के लिए मेरे मांबाऊजी को ही आना पड़ता था. कुछ ही समय में मां तंग आ गई थीं. तब विवेक भैया ही आ कर मुझे ले जाते थे.

मायके में भी मेरे लिए उपदेशों की कमी नहीं थी, ‘राघव एकलौता बेटा है, सर्वगुण संपन्न. न देवर न कोई ननद, जमीनजायदाद का एकलौता वारिस है. तू थोड़ा झुक कर चले तो घर खुशियों से भर जाए.’

‘मां, अगर तुम चाहती हो कि बेजबान गाय की तरह खूंटे से बंधी जुगाली करती रहूं तो तुम गलत समझती हो.’

यहांवहां डोलती भाभी, मेरे मुख से निकले हर शब्द को चुपचाप सुन रही होगी, इस ओर कभी ध्यान ही नहीं गया, क्योंकि उन के हावभाव देख कर जरा भी एहसास नहीं होता था कि मेरे शब्दों ने उन पर कोई प्रभाव भी छोड़ा होगा. मां अकेले में मुझे समझातीं, ‘पगली, समझौता करना औरत की जरूरत है. अपनी भाभी को देख, लाखों का दहेज लाई है. हम ने तो तुझे 4 चूडि़यों और लाल जोड़े में ही विदा कर दिया था.’

तब मैं दांत पीस कर रह जाती, ‘कैसी मां है, बेटी के प्रति जरा भी सहानुभूति नहीं.’

मां जातीं तो बाऊजी मेरे पास आ कर बैठ जाते. मेरे सिर पर हाथ रख कर कहते, ‘चिंता मत कर सुमि, मैं जब तक जिंदा हूं, तेरा कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता. न जाने कैसे लोगों से पाला पड़ा है. लोग बहू को बेटी की तरह रखते हैं, और ये लोग…’

बाऊजी के शब्दों से ऐसा लगता था जैसे डूबते को एक सहारा मिला हो. ‘कोई तो है, जो मेरा अपना है,’ सोचते हुए मैं समर्पित भाव से चौके में जा कर बाऊजी की पसंद के पकवान बना कर उन्हें आग्रहपूर्वक खिलाती. राघव की कमाई से जोड़ी हुई रकम से मैं भाभी के साथ बाजार जा कर उन के लिए कोई अच्छा सा उपहार ले आती थी. बाऊजी तब मुझे खूब दुलारते, ‘कितना अंतर है बेटी और बेटे में? सुमि मुझे कितना मान देती है.’

अप्रत्यक्ष रूप से दिया गया वह उपालंभ भैयाभाभी हम सब से नजरें चुराते हुए यों झेलते थे, जैसे उन्होंने कोई कठोर अपराध किया हो. मुझे लगता, मां भी बाऊजी की तरह ही क्यों नहीं सोचतीं? वे तो मेरी जननी हैं, उन्हें तो बेटी के प्रति और भी संवेदनशील होना चाहिए था.

अपरिपक्वता की दहलीज पर कुलांचें भरता मन सोच ही नहीं पाया कि मां की भी तब अपनी मजबूरी रही होगी. महंगाई के जमाने में पति की सीमित आमदनी में से 2 बच्चों की परवरिश करना कोई हंसीखेल तो था नहीं. घर के खर्चों में से इतना बचता ही कहां था, जो अपनी बीए पास बेटी के लिए दहेज की रकम जुटा पातीं. एकएक पैसा सोचसमझ कर खर्च करने वाली मां कभीकभी एक रूमाल और चप्पल लेने के लिए भी तरसा देती थीं.

फैशनेबल पोशाकों में लिपटी हुई अपनी सहपाठिनों को देख कर मेरा मन तड़पता तो जरूर था, पर कर कुछ भी नहीं पाता था. अभावों के शिलाखंड तले दबाकुचला बचपन धीरेधीरे सरकता चला गया और मुझे यौवन की सौगात थमा गया. बचपन में मिले अभावों ने मेरे मन में कुंठा की जगह ऊंची इच्छाओं को जन्म देना शुरू कर दिया था.

मैं बेहद महत्त्वाकांक्षी हो उठी थी. कल्पनाओं के संसार में मैं ने रेशमी परिधानों से सजेसंवरे ऐसे धनवान पति की छवि को संजोया था, जिस के पास देशीविदेशी डिगरियों के अंबार हों, नौकरों की फौज हो, आलीशान बंगला हो, गाडि़यां हों. सास के रूप में ऐसी चुस्तदुरुस्त महिला की कल्पना की थी जो क्लबों में जाती हो, किटी पार्टियों में रुचि लेती हो. सिगार के कश लेते हुए ससुर पार्टियों में ही बिजी रहते हों.

कुल मिला कर मैं ने बेहद संभ्रांत ससुराल की कल्पना की थी. कहते हैं, जीवन में जब कुछ भी नहीं  मिलता, तो बहुत कुछ पाने की लालसा मन में इतनी तेज हो उठती है कि इंसान अपनी औकात, अपनी सीमाओं तक को भूल जाता है. तभी तो साधारण से व्यक्तित्व वाले बीए पास राघव, जिन के पास ओहदे के नाम पर लोअर डिवीजन क्लर्क के लेबल के अलावा कुछ भी न था, मुझे जरा भी आकर्षित नहीं कर पाए थे. उस पर उन का एकलौता होना मुझे इस बात के लिए हमेशा आशंकित करता रहा था कि हो न हो, इन लोगों की उम्मीदें मुझ से बहुत अधिक होंगी.

मेरे विरोध के बावजूद मां, बाऊजी ने इस रिश्ते के लिए हामी भर दी और मैं राघव की दुलहन बन कर इस घर में आ गई. यों कमी इस घर में भी कोई न थी. शिक्षित परिवार न सही, जमीनजायदाद सबकुछ था, यहां तक कि मुंहदिखाई की रस्म पर पिताजी ने गाड़ी की चाबी मुझे दे दी थी. पर मेरा मन परेशान था. हीरे, चांदी की चकाचौंध और सोने, नगीने की खनक तो राघव के पिता की दी हुई है, उस का अपना क्या है? वेतन भी इतना कि ऐशोआराम के साधन तो दूर की बात, मेरे लिए अपनी जरूरतें पूरी करना भी मुश्किल था.

मैं हर समय चिढ़तीकुढ़ती रहती. सासससुर को बेइज्जत करना और पति की अनदेखी करना मेरी दिनचर्या में शामिल हो गया था. शुरू में तो राघव कुछ नहीं कहते थे, पर जब पानी सिर से ऊपर चढ़ने लगा तो फट पड़े थे, ‘तुम कोई महारानी हो, जो हमेशा लेटी रहो और मां सेवा करती रहें?’

‘क्या मतलब?’ मैं तन गई थी.

‘मतलब यह कि घर की बहू हो, घर के कामकाज में मां की मदद करो.’

‘क्यों, क्या मेरे आने से पहले तुम्हारी मां काम नहीं करती थीं?’ मैं ने ‘महाभारत’ शुरू होने की पूर्वसूचना सी दी थी.

‘तब और अब में फर्क है. जब कोई सामने होता है तो उम्मीद होती ही है.’

‘मेरी मां तो मेरी भाभी से जरा भी उम्मीद नहीं करतीं. तुम्हारे घर के रिवाज इतने विचित्र क्यों हैं?’

‘तुम्हारी भाभी नौकरी करती है, आर्थिक रूप से तुम्हारे परिवार की सहायता करती है,’ राघव ने गुस्से से मेरी ओर देखा तो मैं समझ गई कि काम तो मुझे करना ही पड़ेगा, पर इतनी जल्दी मैं झुकने को तैयार न थी. खामोश नदी में पत्थर फेंकना मुझे भी आता था. मैं मुस्तैदी से काम में जुट गई. सास चाय बनातीं, मैं चीनी उड़ेल देती. पिताजी या राघव मीनमेख निकालते तो मैं अम्मा का नाम लगा देती.

एक दिन मैं ने सब्जी को इतने छोटेछोटे टुकड़ों में काट दिया कि अम्मा परेशान हो उठीं. फिर तो आरोपप्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो गया. मैं ने हर आरोप का मुंहतोड़ जवाब दिया. घात लगा कर हर समय आक्रमण की तैयारी में मैं लगी रहती. क्या मजाल जो कोई थोड़ी सी भी चूंचपड़ कर ले.

राघव को बुरा तो लगता था, पर मेरे अशिष्ट स्वभाव को देख कर चुप हो जाते थे. जल्द ही सास समझ गईं कि एक म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं. सासससुर दोनों ने खुद को एक कमरे में समेट लिया. घर में अब मेरा एकछत्र राज था. अपनी मरजी से पकाती, घूमतीफिरती. घर में खूब मित्रमंडली जमती थी. कुल मिला कर आनंद ही आनंद था.

अपने रणक्षेत्र में विजयपताका फहरा कर मैं ने भाभी को फोन किया. मजे लेले कर खूब किस्से सुनाए. भाभी तब तो चुपचाप सुनती रही थीं, पर जब मैं मां के पास गई तो उन्होंने जरूर कुरेदा था, ‘क्या बात है सुमि, बहुत खुश दिखाई दे रही हो?’

‘भाभी, घर का हर आदमी अब मेरे इशारों पर नाचता है. क्या मजाल जो कोई उफ भी कर जाए.’

‘घर का खर्चा भी तुम्हारे ही हाथ में होगा?’ उन की जिज्ञासा और बढ़ गईर् थी.

‘ससुरजी पूरी पैंशन मेरे हाथ पर रख देते हैं. तुम तो जानती ही हो, राघव की तनख्वाह तो इतनी कम है कि राशन का खर्चा भी नहीं निकल सकता.’

अपनी पूरी तनख्वाह मां की हथेली पर रखने वाली भाभी के मन में ईर्ष्या के बीज अंकुरित हो चुके हैं, मैं तब भला कहां जान पाईर् थी.

‘भाभी, बस एक ही बात खटकती है,’ मैं ने मुंह लटका लिया.

‘वह क्या?’

‘राघव की मुंहबोली बहन जबतब आ टपकती है.’

‘अपने सगेसंबंधी भी कभी बुरे लगते हैं, उन से तो घर भराभरा लगता है,’ अपने सुखी संसार पर कलह के बादलों का पूर्वानुमान होते देख मां ने जैसे मुझे आगाह किया था, पर सीख तो उसी को दी जाती है जो सीखना चाहे. मैं तो सिखाना चाहती थी.

‘घर तो भरा रहता है, पर आवभगत भी तो करनी पड़ती है. खर्चा होता है सो अलग.’

मां जैसे सकते में आ गई थीं. हर सगेसंबंधी का आदरसत्कार करने वाली मां को बेटी के कथन में पराएपन की बू आ रही थी. अपना मत व्यक्त कर के मैं तो लौट आई थी.

मेरे विवाह को 3 वर्ष हो गए थे. घर में नया मेहमान आने वाला था. सभी खुश थे. अम्मा (राघव की मां) मेरी खूब देखभाल करती थीं. जीजान से वे नन्हे शिशु के आगमन की तैयारियों में जुटी हुई थीं. किस समय किस चीज की जरूरत होगी, इसी उधेड़बुन में उन का पूरा समय निकल जाता था.

‘कहीं ऐसा न हो, मेरे करीब आ कर वे मेरे साम्राज्य में हस्तक्षेप करना शुरू कर दें,’ आशंका के बादल मेरे मन के इर्दगिर्द मंडराने लगे थे. एक दिन मैं ने उन्हें साफ शब्दों में कह दिया, ‘अम्मा, आप ज्यादा परेशान न हों, प्रसव मैं अपनी मां के घर पर करूंगी.’

‘पहली जचगी, वह भी मायके में?’ वे चौंकी थीं.

‘जी हां, क्योंकि आप से ज्यादा मुझे अपनी मां पर भरोसा है,’ बहुत दिनों बाद मैं ने खाली प्याले में तूफान उठाया था. सहसा सामने खड़े राघव का पौरुष जाग गया था. उन्होंने खींच कर एक तमाचा मेरे गाल पर जड़ दिया था, ‘इस घर में तुम ने नागफनी रोपी है. पूरे घर को नरक बना कर रख दिया. अब तो इस घर की दीवारें भी काटने को दौड़ती हैं.’

‘मेरा अपमान करने की तुम्हारी जुर्रत कैसे हुई. अब मैं एक पल भी यहां नहीं रुकूंगी.’

मैं ने बैग में कपड़े ठूंसे और मां के पास चली आई. वैसे भी 8वां महीना चल रहा था, आना तो था ही. मुझे किसी ने रोका नहीं था और अगर कोई रोकता भी तो मैं रुकने वाली नहीं थी.

मां के ड्राइंगरूम में काफी हलचल थी. भाभी के मातापिता बेटी की ‘गोद भराई’ की रस्म पर रंगीन टीवी और फ्रिज लाए थे. छोटेछोटे कई उपहारों से कमरा भरा हुआ था. घर के सभी सदस्य समधियों की सेवा में बिछे हुए थे.

मां ने उड़ती सी नजर मुझ पर डाली थी. उन की अनुभवी आंखों को यह समझते जरा भी देर न लगी कि मेरे घर में जरूर कुछ न कुछ घटना घटी है. पर पाहुनों के सामने पूछतीं कैसे? अपने साथ मेरी ससुराल भी तो बदनाम होती, जो उन की जैसी समझदार महिला को कतई मंजूर न था.

मेहमान चले गए तो मां व बाऊजी मेरे पास आ कर बैठ गए. भैया के कमरे से छन कर आ रही रोशनी से साफ था कि वे लोग अभी तक सोए नहीं है. मां धीरेधीरे मुझे कुरेदती रहीं और मैं सब कुछ उगलती चली गई, ‘मां, तुम नहीं जानती, वे कैसेकैसे संबोधन मुझे देते हैं…उन्होंने मुझे ‘नागफनी’ कहा है,’ मैं रोंआसी हो उठी थी.

‘ठीक ही तो कहा है, गलत क्या, कहा है?’ भैया की गुस्से से भरी आवाज थी. आपे से बाहर हो कर न जाने कब से वे दरवाजे पर खड़े हुए मेरी और मां की बातें सुन रहे थे. मां कभी मेरा मुंह देखतीं कभी भैया का.

‘सुमि, आखिर भावनाओं का भी कुछ मोल होता है. राघव एकलौते हैं… न जाने कैसीकैसी उम्मीदें रखते हैं लोग अपने बेटे और बहू से, पर तू तो कहीं भी खरी नहीं उतरी. तुझे तो खामोश नदी में पत्थर फेंकना ही आता है.’

मां भैया को चुप करवाना चाहती थीं, पर उन का गुस्सा सारी सीमाएं पार कर चुका था, ‘इस लड़की को सबकुछ तो मिला…पैसा, प्यार, मान, इज्जत…इसी में सबकुछ पचाने की सामर्थ्य नहीं है. जब सबकुछ मिल जाए तो उस की अवमानना, उस के तिरस्कार में ही सुख मिलता है,’ कहते हुए भैया उठे और कमरे से बाहर निकल गए.

उस के बाद भैयाभाभी की बातचीत काफी देर तक चलती रही. इधर मां मुझे पूरी रात समझाती रहीं कि मैं अपना फैसला बदल लूं. एक तो खर्च का अतिरिक्त भार वहन करने की क्षमता उन में नहीं थी. जो कुछ करना था, भैयाभाभी को ही करना था. दूसरे, बढ़े हुए काम का बोझ उठाने की हिम्मत भी उन के कमजोर शरीर में नहीं थीं. भैयाभाभी के बदले हुए तेवरों में उन्हें आने वाले तूफान की संभावना साफ दिखाई दे रही थी.

पर मैं टस से मस न हुई. राघव की मां से कुछ भी अपने लिए करवाने का मतलब था अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मारना. दूसरे ही दिन राघव के पिता का फोन आया था, ‘बच्चे हैं…नोकझोंक तो आपस में चलती ही रहती है. बहू से कहिए, सामान बांध ले और घर लौट आए.’

पर मैं तो विष की बेल बनी हुई थी. न जाना था, न ही गई. पूरा दिन आराम करती, न हिलती, न डुलती. मां की भी उम्र हो चली थी, कितना कर पातीं? भाभी पूरा दिन दफ्तर में काम करतीं और लौट कर मां का हाथ बंटातीं. मैं भाभी को सुना कर मां का पक्ष लेती, ‘मां बेचारी कितना काम करती हैं. एक मेरी सास हैं, राजरानी की तरह पलंग पर बैठी रहती है.’

मां से सहानुभूति जताते हुए मेरी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा फूट पड़ती थी. मां मुझे दुलारती रहतीं, पर इस बीच भाभी मैदान छोड़ कर चली जाती थीं. काफी दिनों तक उन का मूड उखड़ा रहता था.

नन्हें अभिनव के आगमन पर सभी मौजूद थे. उसे देखते ही राघव की मां निहाल हो उठी थीं, ‘हूबहू राघव की तसवीर है. वैसे ही नाकनक्श, उतना ही उन्नत मस्तक, वही गेहुंआं रंग.’

‘सूरत चाहे राघव से मिले, पर सीरत मुझ से ही मिलनी चाहिए,’ मैं ने बेवकूफीभरा उत्तर दिया और अपने गंदे तरीके पर राघव की नाराजगी की प्रतीक्षा करने लगी. पर उन्होंने कुछ नहीं कहा था.

पोते को दुलारने के लिए बढ़े अम्मा के हाथ खुदबखुद पीछे हट गए थे. मैं मन ही मन विजयपताका लहरा कर मुसकरा रही थी. 2 महीने तक मां और भाभी मेरी सेवा करती रहीं. राघव की मां खूब सारे मेवे, पंजीरी और फल भिजवाती रही थीं, पर मैं किसी भी चीज को हाथ न लगाती थी.

एक दिन मां के हाथ की बनी हुई खीर खा रही थी कि भाभी ने करारी चोट की. ‘दीदी, तुम्हारी सास ने इतने प्रेम से कलेवा भेजा है, उस का भी तो भोग लगाओ.’

‘अपनी समझ अपने ही पास रखो तो बेहतर होगा. मेरे घर के मामलों में ज्यादा हस्तक्षेप न करो.’

‘तुम्हारा घर…’ मुंह बिचकाते हुए भाभी कमरा छोड़ कर चली गईं तो मैं कट कर रह गई. आखिरकार मैं अपशब्दों पर उतर आईर् थी.

उन्हीं दिनों भैयाभाभी ने दफ्तर से कर्जा ले कर मेरी ही ससुराल के पास मकान खरीद लिया था. 4 कमरों के इस मकान में आने से पहले ही मां ने यह फैसला ले लिया था कि मां और बाऊजी, पिछवाड़े के हिस्से में रहेंगे. यह मशवरा उन्हें मैं ने ही दिया था और भैया मान भी गए थे.

नए मकान में आने की तैयारी जोरशोर से चल रही थी. उठापटक और परेशानी से बचने के लिए मैं ससुराल लौट आई थी.

घर लौटी तो खुशी के बादल छा गए थे. सास ने भावावेश में आ कर अभिनव को गोद में ले लिया और लगीं उस का मुंह चूमने.

‘नन्हा, फूल सा बालक, कहीं कोई संक्रमण हो गया तो?’ मैं ने उसे अपनी गोद में समेट लिया और साथ ही सुना भी दिया, ‘बच्चे की देखभाल मैं खुद करूंगी. आप सब को चिंता करने की जरूरत नहीं है.’

पिताजी अब कुछ भी नहीं कहते थे, जैसे समझ गए थे कि बहू के सामने कुछ भी कहना पत्थर पर सिर पटकने जैसा ही है. पासपड़ोस के लोग अम्माजी से सवाल करते कि बहू मायके से क्या लाई है तो मैं बढ़चढ़ कर मायके की समृद्धि और दरियादली का गुणगान करती. भाभी के मायके से आई हुई चूडि़यां मां ने मुझे उपहारस्वरूप दी थीं. बाकी सब के लिए उपहार मैं राघव की कमाई से बचाई हुई रकम से ही ले आई थी. सास की एक सहेली ने उलटपलट कर चूडि़यां देखीं, फिर प्रतिक्रिया दी, ‘मोटे कंगन होते तो ठीक रहता, मजबूती भी बनी रहती.’

मैं उस दिन खूब रोई थी, ‘आप लोग दहेज के लालची हैं. कोई और बहू होती तो थाने की राह दिखा देती.’

उस दिन के बाद से मैं ने उन लोगों को अभिनव को छूने न दिया. कोई परेशानी होती तो रिकशा करती और मां के पास पहुंच जाती. मायका तो अब कुछ ही गज के फासले पर था.

राघव के पिता का स्वास्थ्य अब गिरने लगा था. घर का वातारण देख कर वे अंदर ही अंदर घुलने लगे थे. डाक्टर ने दिल का रोग बताया था. जिस वृक्ष की जड़ें खोखली हो गई हों वह कब तक अंधड़ों का मुकाबला कर सकता है? और एक रात ससुरजी सोए तो उठे ही नहीं. पूरे घर का वातावरण ही बदल गया. शोक में डूबी अम्मा का रहासहा दर्प भी जाता रहा. साम्राज्य तो उन का पहले ही छिन गया था.

राघव ने मुझे विश्वास में ले कर सलाह दी ‘अम्मा बहुत अकेलापन महसूस करती हैं, कुछ देर अभिनव को उन के पास छोड़ दिया करो.’

दुख का माहौल था. तब कुछ भी कहना ठीक न जान पड़ा था, पर मैं ने मन ही मन एक फैसला ले लिया था, ‘अभिनव को अम्मा से दूर ही रखूंगी.’

मायके के पड़ोस वाले स्कूल में अभिनव का दाखिला करवा दिया. स्कूल बंद होने के बाद बाऊजी अभिनव को अपने घर ले जाते थे. मां उसे नहलाधुला कर होमवर्क करवातीं और सुला देतीं. शाम को मैं जा कर उसे ले आती थी. एक तो सैर हो जाती थी, दूसरे, इसी बहाने से मैं मां से भी मिल लेती थी. बाऊजी की देखरेख में अभिनव तो कक्षा में प्रथम आने लगा था, पर मां इस अतिरिक्त कार्यभार से टूट सी गई थीं. एकाध बार दबे शब्दों में उन्होंने कहा भी था, ‘शतांक को भी देखना पड़ता है. बहू तो नौकरी करती है.’

पर मैं अभिनव को अपने घर के वातावरण से दूर ही रखना चाहती थी.

धीरेधीरे भाभी ने उलाहने देने शुरू कर दिए थे, ‘पहले बेटी घर पर अधिकार जमाए रखती थी, अब नाती भी आ जाता है. मेरा शतांक बीमार हो या स्वस्थ रहे, पढ़े न पढ़े, इन्हें तो कोई फर्क ही नहीं पड़ता है. एक को सिर पर चढ़ाया हुआ है, दूसरा जैसे पैरों की धूल है.’

भाभी ने साफ तौर पर अभिनव की तुलना शतांक से कर के जैसे सब का अपमान करने की हिम्मत जुटा ली थी. अपने सामने अपने ही मातापिता की झुकी हुई गरदन देखने की पीड़ा कितनी असहनीय होती है, उस दिन मैं ने पहली बार जाना था.

फिर भी हिम्मत जुटा कर कहा था मैं ने, ‘घर तो मेरे बाऊजी और मां का है. हम तो आएंगे ही.’

‘भूल कर रही हो, यह घर मेरे और तुम्हारे भैया के अथक परिश्रम से बना है. तुम्हारे सासससुर की तरह किसी ने हमें उपहार में नहीं दिया. यह अलग बात है कि तुम्हारी तरह नातेरिश्तेदारों से संबंध तोड़ कर नहीं बैठे हैं. यही गनीमत समझो.’

वसुधा भाभी के शब्दों ने बारूद के ढेर में चिनगारी लगाने का काम किया था. उस दिन के बाद से स्थिति बिगड़ती चली गई. कभी मांबाऊजी का अपमान होता, कभी मेरा और कभी अभिनव का. ऐसे माहौल में मांबाऊजी पिछवाड़े का हिस्सा छोड़ कर भैयाभाभी के साथ समायोजन कैसे स्थापित कर सकते थे? अपने पास इतने साधन नहीं थे कि अलग से गृहस्थी बसा सकें. कहां जाएंगे मांबाऊजी, यही प्रश्न मन को बारबार कटोचता है.

आत्मविवेचन करती हूं तो मां की मौन आंखों के बोलते प्रश्नों का जवाब ढूंढ़ नहीं पाती. कभी लगता है, शायद मैं ही दोषी हूं, अपनी ससुराल और पति से दूर भाग कर मायके में सुख ढूंढ़ने की कोशिश करती रही. पर सुख पाना तो दूर, मां व बाऊजी को ही दरदर भटकने को मजबूर कर दिया.

‘कितनी सुखी हैं राघव की मां? संस्कारी बेटा है, सिर पर छत है और पिताजी की छोड़ी हुई संपदा, जिसे जब तक जीएंगी, भोगेंगी. सिर्फ मेरी ही स्थिति परकटे पक्षी सी हो गई है, जिस में उड़ने की तमन्ना तो है, पर पंख ही नहीं हैं. कहां ढूंढ़ूं इन पंखों को? मायके की देहरी पर या ससुराल के आंगन में?’ यही सोचतेसोचते आंखें एक बार फिर नम हो आई हैं. द्य

बनते बिगड़ते शब्दार्थ : इस पर जाएंगे तो सिर चकरा जाएगा

कभी गौर कीजिए भाषा भी कैसेकैसे नाजुक दौर से गुजरती है. हमारा अनुभव तो यह है कि हमारी बदलतीबिगड़ती सोच भाषा को हमेशा नया रूप देती चलती है. इस विषय को विवाद का बिंदु न बना कर जरा सा चिंतनमंथन करें तो बड़े रोचक अनुभव मिलते हैं. बड़े आनंद का एहसास होता है कि जैसेजैसे हम विकसित हो कर सभ्य बनते जा रहे हैं, भाषा को भी हम उसी रूप में समृद्ध व गतिशील बनाते जा रहे हैं. उस की दिशा चाहे कैसी भी हो, यह महत्त्व की बात नहीं. दैनिक जीवन के अनुभवों पर गौर कीजिए, शायद आप हमारी बात से सहमत हो जाएं.

एक जमाना था जब ‘गुरु’ शब्द आदरसम्मानज्ञान की मिसाल माना जाता था. भाषाई विकास और सूडो इंटलैक्चुअलिज्म के थपेड़ों की मार सहसह कर यह शब्द अब क्या रूपअर्थ अख्तियार कर बैठा है. किसी शख्स की शातिरबाजी, या नकारात्मक पहुंच को जताना हो तो कितने धड़ल्ले से इस शब्द का प्रयोग किया जाता है. ‘बड़े गुरु हैं जनाब,’ ऐसा जुमला सुन कर कैसा महसूस होता है, आप अंदाज लगा सकते हैं. मैं पेशे से शिक्षक हूं. इसलिए ‘गुरु’ संबोधन के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों रूपों से रोजाना दोचार होता रहता हूं. परंतु हमारी बात है सोलह आने सच.

‘दादा’ शब्द हमारे पारिवारिक रिश्तों, स्नेह संबंधों में दादा या बड़े भाई के रूप में प्रयोग किया जाता है. आज का ‘दादा’ अपने मूल अर्थ से हट कर ‘बाहुबली’ का पर्याय बन गया है. इसी तरह ‘भाई’ शब्द का भी यही हाल है. युग में स्नेह संबंधों की जगह इस शब्द ने भी प्रोफैशनल क्रिमिनल या अंडरवर्ल्ड सरगना का रूप धारण कर लिया है. मायानगरी मुंबई में तो ‘भाई’ लोगों की जमात का रुतबारसूख अच्छेअच्छों की बोलती बंद कर देता है. जो लोग ‘भाई’ लोगों से पीडि़त हैं, जरा उन के दिल से पूछिए कि यह शब्द कैसा अनुभव देता है उन्हें.

‘चीज’, ‘माल’, ‘आइटम’ जैसे बहुप्रचलित शब्द भी अपने नए अवतरण में समाज में प्रसिद्ध हो चुके हैं. हम कायल हैं लोगों की ऐसी संवेदनशील साहित्यिक सोच से. आदर्शरूप में ‘यत्र नार्यरतु पूज्यंते रमन्ते तत्र देवता:’ का राग आलापने वाले समाज में स्त्री के लिए ऐसे आधुनिक सम्माननीय संबोधन अलौकिक अनुभव देते हैं. सुंदर बाला दिखी नहीं, कि युवा पीढ़ी बड़े गर्व के साथ अपनी मित्रमंडली में उसे ‘चीज’, ‘माल’, ‘आइटम’ जैसे संबोधनों से पुकारने लगती है. सिर पीट लेने का मन करता है जब किसी सुंदर कन्या के लिए ‘फ्लैट’ शब्द भी सुनते हैं. जरा सोचिए, भला क्या संबंध हो सकता है इन दोनों में.

नारी को खुलेआम उपभोग की वस्तु कहने की हिम्मत चाहे न जुटा पाएं लेकिन अपने आचारव्यवहार से अपने अवचेतन मन में दबी भावना का प्रकटीकरण जुमलों से कर कुछ तो सत्य स्वीकार कर लेते हैं- ‘क्या चीज है,’ ‘क्या माल है?’ ‘यूनीक आइटम है, भाई.’ अब तो फिल्मी जगत ने भी इस भाषा को अपना लिया है और भाषा की भावअभिव्यंजना में चारचांद लगा दिए हैं.

‘बम’ और ‘फुलझड़ी’ जैसे शब्द सुनने के लिए अब दीवाली का इंतजार नहीं करना पड़ता. आतिशबाजी की यह सुंदर, नायाब शब्दावली भी आजकल महिला जगत के लिए प्रयोग की जाती है. कम उम्र की हसीन बाला को ‘फुलझड़ी’ और ‘सम थिंग हौट’ का एहसास कराने वाली ‘शक्ति’ के लिए ‘बम’ शब्द को नए रूप में गढ़ लिया गया है. इसे कहते हैं सांस्कृतिक संक्रमण. पहले  के पुरातनपंथी, आदर्शवादी, पारंपरिक लबादे को एक झटके में लात मार कर पूरी तरह पाश्चात्यवादी, उपभोगवादी, सिविलाइज्ड कल्चर को अपना लेना हम सब के लिए शायद बड़े गौरव व सम्मान की बात है. इसी क्रम में ‘धमाका’ शब्द को भी रखा जा सकता है.

‘कलाकार’ शब्द भी शायद अब नए रूप में है. शब्दकोश में इस शब्द का अर्थ चाहे जो कुछ भी मिले लेकिन अब यह ऐसे शख्स को प्रतिध्वनित करता है जो बड़ा पहुंचा हुआ है. जुगाड़ करने और अपना उल्लू सीधा करने में जिसे महारत हासिल है, वो जनाब ससम्मान ‘कलाकार’ कहे जाने लगे हैं. ललित कलाओं की किसी विधा से चाहे उन का कोई प्रत्यक्षअप्रत्यक्ष संबंध न हो किंतु ‘कलाकार’ की पदवी लूटने में वो भी किसी से पीछे नहीं.

‘नेताजी’ शब्द भी इस बदलते दौर में पीछे नहीं है. मुखिया, सरदार, नेतृत्व करने वाले के सम्मान से इतर अब यह शब्द बहुआयामी रूप धारण कर चुका है और इस की महिमा का बखान करना हमारी लेखनी की शक्ति से बाहर है. इस के अनंत रूपों को बयान करना आसान नहीं. शायद यही कारण है कि आजकल ज्यादातर लोग इसे नापसंद भी करने लगे हैं. ‘छद्मवेशी’ रूप को आम आदमी आज भी पसंद नहीं करता है, इसलिए जनमानस में ये जनाब भी अपना मूलस्वरूप खो बैठे हैं.

‘चमचा’ अब घर की रसोई के बरतनभांडों से निकल कर पूरी सृष्टि में चहलकदमी करने लगा है. सत्तासुख भोगने और मजे

उड़ाने वाले इस शब्दविशेषज्ञ का रूपसौंदर्य बताना हम बेकार समझते हैं. कारण, ‘चमचों’ के बिना आज समाज लकवाग्रस्त है, इसलिए इस कला के माहिर मुरीदों को भी हम ने अज्ञेय की श्रेणी में रख छोड़ा है.

‘चायपानी’ व ‘मीठावीठा’ जैसे शब्द आजकल लोकाचार की शिष्टता के पर्याय हैं. रिश्वतखोरी, घूस जैसी असभ्य शब्दावली के स्थान पर ‘चायपानी’ सांस्कृतिक और साहित्यिक पहलू के प्रति ज्यादा सटीक है. अब चूंकि भ्रष्टाचार को हम ने ‘शिष्टाचार’ के रूप में अपना लिया है, इसलिए ऐसे आदरणीय शब्दों के चलन से ज्यादा गुरेज की संभावना ही नहीं है.

थोड़ी बात अर्थ जगत की हो जाए. ‘रकम’, ‘खोखा’, ‘पेटी’ जैसे शब्दों से अब किसी को आश्चर्य नहीं होता. ‘रकम’ अब नोटोंमुद्रा की संख्यामात्रा के अलावा मानवीय व्यक्तित्व के अबूझ पहलुओं को भी जाहिर करने लगा है. ‘बड़ी ऊंची रकम है वह तो,’ यह जुमला किसी लेनदेन की क्रिया को जाहिर नहीं करता बल्कि किसी पहुंचे हुए शख्स में अंतर्निहित गुणों को पेश करने लगा है. एक लाख की रकम अब ‘पेटी’, तो एक करोड़ रुपयों को ‘खोखा’ कहा जाने लगा है. अब इतना नासमझ शायद ही कोई हो जो इन के मूल अर्थ में भटक कर अपना काम बिगड़वा ले.

‘खतरनाक’ जैसे शब्द भी आजकल पौजिटिव रूप में नजर आते हैं. ‘क्या खतरनाक बैटिंग है विराट कोहली की?’ ‘बेहोश’ शब्द का नया प्रयोग देखिए – ‘एक बार उस का फिगर देख लिया तो बेहोश हो जाओगे.’ ‘खाना इतना लाजवाब बना है कि खाओगे तो बेहोश हो जाओगे.’

अब हम ने आप के लिए एक विषय दे दिया है. शब्दकोश से उलझते रहिए. इस सूची को और लंबा करते रहिए. मानसिक कवायद का यह बेहतरीन तरीका है. हम ने एसएमएस की भाषा को इस लेख का विषय नहीं बनाया है, अगर आप पैनी नजर दौड़ाएं तो बखूबी समझ लेंगे कि भाषा नए दौर से गुजर रही है. शब्दसंक्षेप की नई कला ने हिंदीइंग्लिश को हमेशा नए मोड़ पर ला खड़ा किया है. लेकिन हमारी उम्मीद है कि यदि यही हाल रहा तो शब्दकोश को फिर संशोधित करने की जरूरत शीघ्र ही पड़ने वाली है, जिस में ऐसे शब्दों को उन के मूल और प्रचलित अर्थों में शुद्ध ढंग से पेश किया जा सके.

दुश्मनी की अनकही कहानी : सलमान खान की क्यों जान लेना चाहता है लौरेंस बिश्नोई

बौलीवुड के सुपरस्टार सलमान खान (Salman Khan) आज किसी पहचान के मुहताज नहीं हैं. सलमान ने अपने काम से अपनी एक ऐसी पहचान बनाई है कि देशविदेश में उन के कई चाहने वाले हैं.

सलमान द्वारा बींग ह्यूमन नाम (Being Human) का एक ट्रस्ट भी चलाया जाता है जहां वे कई लोगों की मदद करते हैं. अकसर हम ने कई ऐक्टरों से सलमान खान की तारीफ सुनी है और सब ने बताया भी है कि वे अच्छे ऐक्टर होने के साथसाथ अच्छे इंसान भी हैं.

मगर जो इंसान लोगों की मदद करता हो, उसे जेल में बैठा कुख्यात गैंगस्टर लौरेंस बिश्नोई (Lawrence Bishnoi) आखिर क्यों मारना चाहता है?

बढ़ता कुनबा

इन दिनों लौरेंस बिश्नोई काफी सुर्खियों में बना हुआ है. वह गुजरात के साबरमती जेल में बैठ कर अपना पूरा गैंग चला रहा है. लौरेंस बिश्नोई के गैंग में 700 से भी ज्यादा शार्प शूटर्स हैं जिन्हें वह जब चाहे तब आदेश दे कर किसी को भी मारने के लिए कह देता है.

29 मई, 2022 को लौरेंस बिश्नोई ने अपने शूटर्स द्वारा फेमस पंजाबी सिंगर सिद्धू मूसेवाला (Siddhu Moose Wala) की हत्या करवाई थी क्योंकि उस का कहना था कि सिद्धू मूसेवाला का हाथ विक्की मिद्दूखेड़ा (Vicky Middukhera) की हत्या में था जिसे लौरेंस अपना भाई मानता था.

खुलेआम हत्या

लौरेंस बिश्नाई के शूटर्स लोगों की हत्या कर खुलेआम सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं और क्राइम की पूरी जिम्मेदारी लेते हैं.

हैरानी की बात यह है कि लौरेंस बिश्नोई लगभग 10-11 सालों से जेल के अंदर है लेकिन जेल के अंदर बैठेबैठे उस का गैंग भी बढ़ रहा है और वह सब चीजें कर रहा है जो भी वह चाहता है.

कुछ समय पहले लौरेंस बिश्नोई ने सलमान खान को धमकी दी थी कि वह उस के समाज से माफी मांग ले नहीं तो वह सलमान खान को मार देगा.

क्या है मामला

दरअसल, फिल्म ‘हम साथ साथ हैं’ (Hum sath sath hain) के दौरान सलमान खान के ऊपर काले हिरण को मारने के आरोप लगे थे जिस कारण बिश्नोई समाज सलमान से काफी नाखुश हैं.

बिश्नोई समाज में हिरण को काफी माना जाता है तो ऐसे में सलमान खान ने जब काले हिरण का शिकार किया तब से लौरेंस ने मन ही मन ठान लिया था कि वे सलमान खान से बदला लेगा.

हाल ही में हुई बाबा सिद्दीकी (Baba Siddique) की हत्या के पीछे भी लौरेंस बिश्नोई का हाथ बताया जा रहा है जिस के चलते सलमान खान की सिक्यौरिटी और भी ज्यादा बढ़ा दी गई है.

जैसेजैसे लौरेंस बिश्नोई अपनी हर मनचाही घटना को अंजाम दे रहा है ऐसे में जेल प्रशासन को उस के खिलाफ सख्त काररवाई करनी चाहिए और यह सब बंद करवाना चाहिए क्योंकि लोगों की जान अगर ऐसे ही जाती रहेगी तो लोग सरकार या पुलिस से क्या ही उम्मीद रखेंगे.

डूबते को वीकैंड का सहारा : प्यारी महबूबा सरीखा है वीकैंड

मैं बचपन से प्रतिभाशाली रहा हूं. अभिभावकों और गुरुजनों द्वारा कूटकूट कर मेरे अंदर प्रतिभा भरी गई थी जो इतने गहरे में चली गई है कि जरूरत पड़ने पर कभी बाहर ही नहीं आ पाई. यही कारण रहा कि मैं अपनी प्रतिभा का दोहन नहीं कर पाया.

बड़ेबुजुर्ग कहते हैं जो लोग अपनी प्रतिभा का दोहन नहीं कर पाते वे दूसरों की क्षमताओं के अवैध खनन में लग जाते हैं. बिना देरी किए मैं ने बड़ों की इस सलाह को एक कान से सुन कर (दूसरा कान बंद कर), मन में बैठा कर, अमल करने की ठान ली और इसी के दुष्परिणामों के चलते एक प्रतिष्ठान में फाइवडेज वर्किंग की नौकरी मेरे गले पड़ गई.

वीकैंड, हर वीक कर्मचारी को हर वीक संबल का कंबल दान करता है जिस में वे वीकडेज से मिले जख्मों को छिपा कर उन पर दवादारू का छिड़काव कर सकता है. मैं हर वीकैंड को यादगार और शानदार बनाने की कोशिश करता हूं, लेकिन इस से पहले कि मैं कुछ बना पाऊं, वीकैंड मुझे ही बना कर चलता बनता है. वीकैंड जाने के बाद ही मुझे पता चलता है कि न तो मैं वीकैंड पर योग कर पाया और न ही इस का कोई सदुपयोग.

मैं लोकतांत्रिक देश का जिम्मेदार मतदाता और नागरिक हूं, इसलिए मैं चुनी हुई सरकार को एहसास दिलाना चाहता हूं कि मैं हर कदम पर उस के साथ हूं, इसी कारण हर शुक्रवार की शाम को उसी तरह बेफिक्र हो जाता हूं जिस तरीके से सरकारें पूरे 5 साल तक बेफिक्र रहती हैं.

वीकैंड भारतीय रेलवे की तरह डिरेल होतेहोते देरी से पहुंचता है. लेकिन इस की भरपाई करने के लिए जल्दी से विदा भी ले लेता है. इन की विदाई मेरे लिए घर से बेटी की विदाई की तरह मार्मिक और धार्मिक होती है. हर रविवार की रात को मेरा मन भावविभोर हो कर गाने लगता है, ‘‘अभी न जाओ छोड़ कर कि दिल अभी भरा नहीं…’’ हर शुक्रवार की शाम को मैं वीकैंड का हल्ला इसलिए भी मचाता हूं ताकि सोशल मीडिया पर मेरी सक्रियता देख कर मुझे बेरोजगार समझने वाले लोगों को मैं करारा जवाब दे सकूं.

जिस तरह से राजनीतिक दल चुनाव से पहले अपनेअपने दल का चुनावी घोषणापत्र लाते हैं उसी तर्ज पर मैं भी हर सोमवार को अगले वीकैंड पर किए जाने वाले कार्यों की सूची रिहा कर देता हूं ताकि मुझ से किसी काम की उम्मीद रखने वाले अल्पसंख्यक लोगों की उम्मीद को अगले वीकैंड तक जिंदा रख सकूं.

वीकैंड आने पर काम को मैं अगले वीकैंड तक उसी तरह से शिफ्ट कर देता हूं जैसे मरीज को आईसीयू से नौर्मल वार्ड में शिफ्ट किया जाता है. इस तरीके से आगे से आगे शिफ्ट करने से कई काम खुदबखुद आत्महत्या कर लेते हैं और आखिर में बहुत कम काम आप के करकमलों के हत्थे चढ़ते हैं. इस से आगे के वीकैंड्स के लिए कोई काम नहीं करने के लिए आप अपनेआप को तरोताजा व फ्रैश रख सकते हैं.

वीकैंड का इंतजार 11 मुल्क ही नहीं, बल्कि हर मुल्क का कामकाजी आदमी करता है. लेकिन वीकैंड को पकड़ कर रखना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है. जब मेरी नईनई नौकरी लगी थी तो कई वीकैंड्स देख चुके एक सीनियर टाइप कलीग ने चैन से सोना है तो जाग जाओ वाले अंदाज में मुझे बताया था, ‘वीकैंड केवल एक मायाजाल है, इस के चक्कर में कभी मत फंसना. यह तुम को कभी संतुष्ट नहीं कर पाएगा. अगर वाकई तुम वीकैंड एंजौय करना चाहते हो तो इस प्रकृतिजनित वीकैंड के भरोसे मत रहना, बल्कि वीकडेज के दौरान औफिस से बंक मार कर खुद अपने वीकैंड क्रिएट करना. यह क्रिएटिविटी तुम को अपने काम में भी मदद करेगी.’

आज जब वीकडेज के दौरान काम के बोझ से मेरी हालत अर्थव्यवस्था से भी पतली हो जाती है तो उन सीनियर की दी हुई सीख याद कर मेरी चीख निकल जाती है. लेकिन फिर भी वीकैंड का आना किसी बाढ़ग्रस्त इलाके में मुख्यमंत्री का हवाई सर्वेक्षण कर ऊपर से फूड पैकेट व राहत सामग्री गिराने जैसी राहत देता है.

नौकरी से रिटायरमैंट अगर पूर्णविराम है, तो वीकैंड अर्द्धविराम है, लेकिन यह अर्द्धविराम आप को काम करने के लिए फिर से तैयार करता है, तरोताजा करता है, यानी मुझ जैसे डूबने वालों के लिए सहारा बनता है.

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