क्या बिना सिनेमाई समझ से सिनेमा से मुनाफा कमाया जा सकता है? कौर्पोरेट जगत की फिल्म इंडस्ट्री में बढ़ती हिस्सेदारी ने इस सवाल को हवा दी है. सिनेमा पर बढ़ते कौर्पोरेटाइजेशन ने सिनेमा पर कैसा असर छोड़ा है, जानें.
बौलीवुड के बहुचर्चित निर्माता व निर्देशक करण जौहर की फिल्म निर्माण कंपनी धर्मा प्रोडक्शंस लंबे समय से घाटे में चल रही थी. 2012 में फिल्म ‘स्टूडैंट औफ द ईयर’ के बाद से जौहर की प्रोडक्शन कंपनी ने जितनी फिल्में बनाईं, सभी ने काफी नुकसान पहुंचाया. 2024 की शुरुआत से ही चर्चा थी कि करण जौहर अपने पिता द्वारा 1979 में स्थापित धर्मा प्रोडक्शंस को बेचना चाहते हैं. आखिरकार अक्तूबर माह में करण जौहर ने धर्मा प्रोडक्शंस की 50 प्रतिशत हिस्सेदारी पुणे के सीरम इंस्टिट्यूट के मालिक अदार पूनावाला को 1,000 करोड़ रुपए में बेच दी. तब से बौलीवुड के अंदर एक नई बहस शुरू हो गई है कि क्या फिल्म प्रोडक्शंस में कौर्पोरेट के इंवैस्टमैंट या जुड़ाव से सिनेमा का विकास होगा या सिनेमा की बरबादी? इस तरह के सवाल उठाने वालों का यकीन है कि ‘सिनेमा सिर्फ व्यवसाय नहीं बल्कि कला भी है.
मशहूर फिल्मकार विनोद पांडे इस संबंध में साफसाफ कहते कहते हैं, ‘‘सिनेमा केवल नाचगाना, मनोरंजन या ऐक्शन नहीं है. फिल्मकार अपनी कहानी के जरिए कुछ न कुछ कहता है. इस बात को कौर्पोरेट नहीं समझ सकता क्योंकि कौर्पोरेट तो उत्पादक पदार्थों को बेचना व लाभ कमाना जानता है.’’ मगर जब से करण जौहर ने अपनी कंपनी में कौर्पोरेट को हिस्सेदार बनाया है, तब से कई कौर्पोरेट कंपनियां फिल्म उद्योग से जुड़ने को इच्छुक नजर आ रही हैं.
मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो फरहान अख्तर और रितेश सिद्धवानी भी अपनी फिल्म प्रोडक्शन कंपनी एक्सेल इंटरटेनमैंट की हिस्सेदारी बेचने के लिए प्रयासरत हैं. तो वहीँ खबर गरम है कि विद्या बालन के पति और फिल्म निर्माता सिद्धार्थ रौय कपूर भी अपनी फिल्म प्रोडक्शंस कंपनी रौय कपूर फिल्म्स की हिस्सेदारी बेच रहे हैं. इसी के साथ बौलीवुड के कौर्पोरेटाइजेशन को ले कर भी कई तरह की बातें की जा रही हैं. तमाम क्रिएटिव/रचनात्मक लोग इस का विरोध कर रहे हैं. उन की राय में इस से रचनात्मकता पर अंकुश लग रहा है.
बौलीवुड यानी कि सिनेमा में कौर्पोरेट कंपनियों के इंवैस्टमैंट की घटना कोई नई नहीं है. यह सिलसिला तो भारतीय सिनेमा के जनक कहे जाने वाले दादा साहेब फालके के जमाने से ही शुरू हो गया था और अब तक कई कौर्पोरेट घराने फिल्म निर्माण से जुड़ कर अपने हाथ जला कर तोबा भी कर चुके हैं. जी हां, यह कटु सत्य है.
पहला कौर्पोरेट जो फिल्मों से जुड़ा
1917 में दादा साहेब फालके की स्वदेशी फिल्मों से प्रभावित हो कर लोकमान्य तिलक के प्रयास किए जाने पर उस वक्त के उद्योगपति रतनजी सेठ यानी कि जे आर डी टाटा के पिता और मनमोहनजी ने मिल कर दादा साहेब फालके को 5 लाख रुपए का औफर देते हुए कहा था कि दादा साहेब फालके एक लिमिटेड कंपनी बनाएं. पर इस औफर को दादा साहेब फालके ने ठुकरा दिया था. लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने खुद कुछ कौर्पोरेट को जोड़ते हुए हिंदुस्तान फिल्म कंपनी बनाई. उस कंपनी में उन के साथ बी ए साहब, गोकुलदास व माधो भागीदार थे. वह कंपनी शेयर बाजार में लिस्टेड थी या नहीं, इस की पुख्ता जानकारी तो नहीं मिल पा रही है लेकिन गोकुलदास व माधो दोनों शेयर बाजार से जुड़े हुए थे.
हिमांशु राय और देविका रानी ने 1954 में कौर्पोरेट कंपनी ‘बौम्बे टौकीज’’ बनाई, जो कि शेयर बाजर में लिस्टेड कंपनी थी. 1960 में उद्योगपति शापूर पालेनजी ने फिल्म ‘मुगल ए आजम’ के निर्माण में पैसा लगाया था. इस फिल्म के बाद उन्होंने खुद को फिल्मों से दूर कर लिया था. बताया जाता है कि जब के आसिफ ने शापूर पालेनजी से कहा कि वे कुछ धन लगाएं जिस से कि ‘मुगल ए आजम’ को रंगीन किया जा सके, तो शापूर पालेनजी ने साफसाफ कह दिया था कि वे फिल्म उद्योग से दूर रहना चाहते हैं.
लेकिन सिनेमा का असली कौर्पोरेटाइजेशन करने के मकसद से 1978 में वर्किंग ग्रुप औफ नैशनल फिल्म पौलिसी का गठन कन्नड़ साहित्यकार डा. के शिवराम करण की अध्यक्षता में हुआ था. इस ने 1980 में सुझाव दिया था कि फिल्म इंडस्ट्री को उद्योग का दर्जा दिया जाना चाहिए और फिल्मकार को इंस्टिट्यूशनल फाइनैंस यानी कि बैंक से कर्ज मिलना चाहिए. इस के अलावा डिस्ट्रीब्यूशन सैक्टर को आर्गेनाइज करने की भी सलाह दी थी.
पहली पहल करते हुए सुभाष घई ने 1982 में अपनी फिल्म प्रोडक्शन कंपनी मुक्ता आर्टस प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनाई. 2000 में यह कंपनी शेयर बाजार में लिस्ट हुई थी. बाहर से जो कर्ज लिया जाता है, वह काफी महंगा होता था. इस तरह सुभाष घई ने पहली बार कौर्पोरेटाइजेशन की तरफ कदम बढ़ाया था. सुभाष घई ने अपनी इस कंपनी को शेयर बाजार में लिस्ट कर आम जनता से धन उगाही कर क्या किया, इस को ले कर कई तरह की कहानियां चर्चा में रही हैं.
बौलीवुड में कौर्पोरेटाइजेशन का श्रेय नितिन केनी को
बौलीवुड के कौर्पोरेटाइजेशन के लिए असली श्रेय नितिन केनी को जाता है. यह 2001 की बात है. उस वक्त नितिन केनी जी टीवी के साथ जुड़े हुए थे और उन्होंने कौर्पोरेट कल्चर के तहत काम करते हुए बौलीवुड की चिरपरिचित कार्यशैली के विपरीत पूरी तरह से कौर्पोरेट कल्चर को अपनाते हुए अनिल शर्मा के निर्देशन में 19 करोड़ रुपए की लागत से फिल्म ‘गदरः एक प्रेमकथा’ का निर्माण किया था, जिस ने बौक्सऔफिस पर 78 करोड़ रुपए कमाए थे.
इस के बाद बौलीवुड में कौर्पोरेट कपंनियों के जुड़ने का एक बूम आ गया था. इस बूम के चलते इन कौर्पोरेट कंपनियों ने 10 रुपए की औकात रखने वाले कलाकार को 200 रुपए दे कर जो नुकसान फिल्म उद्योग को पहुंचाया, उस के लिए इन्हें कभी भी माफ नहीं किया जाना चाहिए.
सब से पहले उद्योगपति मुकेश अंबानी के भाई अनिल अंबानी ने रिलायंस इंटरटेनमैंट की शुरुआत कर खुलेहाथों कलाकारों को पैसा बांटा. इन्हें लगा कि बड़े से बड़े कलाकार को अनापशनाप धन दे कर वे अपनी फिल्मों को बौक्सऔफिस पर हिट करा कर खूब धन कमाएंगे. पर हुआ इस के उलटा.
इसी तरह कई उद्योगपति बौलीवुड से जुड़े और खुद को बरबाद कर वापस लौट गए. जे आर डी टाटा तो एक टीवी सीरियल ‘हमराही’ के निर्माण से भी जुड़े थे, पर फिर वे वापस लौट गए. यहां तक कि नितिन केनी जो कारनामा कर दिखाया था, उसी से प्रभावित हो कर 2004 में टाटा ग्रुप के रतन टाटा, जिन का हाल ही में निधन हुआ है, ने भी 2004 में अमिताभ बच्चन, जौन अब्राहम और बिपाशा बसु को ले कर रोमांटिक सायकोलौजिकल फिल्म ‘एतबार’ का निर्माण टाटा इंफोमीडिया के बैनर तले किया था. 10 करोड़ रुपए की लागत से बनी इस फिल्म की बौक्सऔफिस पर दुर्गति हुई थी. यह फिल्म बौक्सऔफिस पर महज 4 करोड़ 25 लाख रुपए ही एकत्र कर सकी थी, जिस में से निर्माता के हाथ में महज डेढ़ करोड़ रुपए ही आए थे और फिर रतन टाटा ने हमेशा के लिए बौलीवुड से दूरी बना ली थी.
अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस इंटरटनेमैंट ने भी आखिरकार घुटने टेक दिए. अनुराग कश्यप, विकास बहल, माटवणे ने मिल कर एक कंपनी फैंटम बनाई थी, जिस के तहत फिल्में बना रहे थे, पर वह कंपनी बिखर गई. शेखर कपूर व रामगोपाल वर्मा ने मिल कर एक कंपनी बनाई थी, जिस के तहत उन्होंने फिल्म ‘दिल से’ बनाई, पर फिर दूसरी फिल्म नहीं बनी. उद्योगपति ढिलिन मेहता की कंपनी अष्टविनायक फिल्म्स ने भी परेश रावल व सुनील शेट्टी को ले कर ‘महारथी’ के अलावा कोई फिल्म नहीं बनाई. इसी तरह कौर्पोरेट पृष्ठभूमि की कई कंपनियां आईं और एकदो फिल्में बना कर डब्बागोल हो गईं.
बौलीवुड में कौर्पोरेट क्यों असफल होता रहा?
फिल्म/सिनेमा के निर्माण में कौर्पोरेट/उद्योगपतियों के असफल होने की मूलतया 2 वजहें हैं. पहली वजह तो यह है कि फिल्म निर्माण में कुछ इनोवेशन या उत्पादकता नहीं है. फिल्म के नाम पर ऐसा कोई पदार्थ नहीं बनता जिस के बारे में पहले से ही आकलन कर दावा किया जा सके कि इसे बेचने के बाद इतनी कमाई हो सकती है. कहने का अर्थ यह कि फिल्में यूनिवर्सल प्रोडक्ट नहीं हैं. मसलन, पारले कंपनी के बिस्कुट को लें. तो यहां पर कंपनी को पता है कि ब्रिटानिया या अन्य कंपनी के बिस्कुट के साथ प्रतियोगिता करते हुए गुणवत्ता के आधार पर कीमत रख कर कितनी कमाई की जा सकती है.
फिल्मों के साथ ऐसा नहीं है. करण जौहर की फिल्म की तुलना में रोहित शेट्टी या संजय लीला भंसाली या राहुल ढोलकिया की फिल्मों को ले कर ऐसा नहीं कहा जा सकता. यहां तक कि करण जौहर या संजय लीला भंसाली निर्मित फिल्म की तुलना भी नहीं की जा सकती. फिल्म की कहानी, कलाकार व निर्देशक और जौनर बदलने के साथ ही उस फिल्म के चलने या न चलने को ले कर खुद संजय लीला भंसाली या करण जौहर भी बतौर निर्माता कोई दावा नहीं कर सकते.
कोई भी बैंक या फायनैंशियल इंस्टिट्यूशन या कौर्पोरेट कंपनी में बैठे दिग्गज एमबीए पास भी फिल्म की सफलता को ले कर कोई आश्वासन नहीं दे सकते. ये सभी अपनीअपनी कंपनी में मोटी रकम, सैलरी के तौर पर, लेते हुए केवल कंपनी को डुबोने का काम कर रहे हैं. कभीकभी आरोप लगते रहते हैं कि ये लोग अपनी जेब भरने के लिए किसी के भी नाम पर कोई भी रकम लगा देते हैं. वास्तव में कार या साबुन बेचने वाला कला व क्रिएटिविटी को नहीं समझ सकता.
बौलीवुड में हर शुक्रवार कलाकार का भविष्य बदलता है. किसी वक्त अक्षय कुमार को फिल्म की सफलता की गारंटी माना जाता था पर पिछले 4 वर्षों में अक्षय कुमार की करीबन 14 फिल्में बौक्सऔफिस पर अपनी लागत वसूल नहीं पाईं. इस के बावजूद आज भी कौर्पोरेट कंपनियों की शह पर वे प्रति फिल्म 135 करोड़ रुपए पारिश्रमिक राशि लेते हैं. जब अक्षय की फिल्म बौक्सऔफिस पर 10 करोड़़ नहीं कमा पा रही तो आप उसे 135 करोड़ रुपए क्यों दे रहे हो? कौर्पोरेट में क्रिएटिविटी के स्तर पर दिवालियापन है.
दूसरी वजह बौलीवुड की कार्यशैली है, जिस के चलते बौलीवुड को कौर्पोरेटाइज नहीं करना चाहिए. यहां पर 90 प्रतिशत लेनदेन नकद में होता है. इस की कई वजहें हो सकती हैं. छोटे डेली वेजेस व छोटेमोटे तकनीशियन को निर्माता पर यकीन नहीं होता कि निर्माता ने चैक दिया और बाउंस हो गया तो. तीसरी वजह ब्लैक मनी का चलन भी है. नकद लेनदेन को एक्सटर्नल और इंटरनल औडीटर मान्य नहीं करते. चौथी वजह एक फिल्म के निर्माण में कई स्तर पर कई तरह की क्रिएटिव योग्यता वाले लोग जुड़े होते हैं, इन के बीच एक प्रतिशत का भी तालमेल गड़बड़ा जाए, तो फिल्म बौक्सऔफिस पर ढेर हो जाती है.
तालमेल गड़बड़ाने के पीछे भी कई वजहें होती हैं और यह तालमेल फिल्म निर्माण के दौरान कभी भी गड़बड़ा सकता है. इसी वजह से कन्नड़ साहित्यकार डा. के शिवराम करण की अध्यक्षता में गठित कमेटी की सिफारिशें बेकार साबित हुईं.
सब से बड़ी वजह यह है कि कौर्पोरेट जगत में एमबीए पास जो लोग बैठे हैं उन्हें साहित्य, कला की समझ नहीं है. वे सिर्फ व्यवसाय करना जानते हैं. वे लाभहानि का खाका कागज पर बनाने में माहिर होते हैं. उन्हें तो यह भी नहीं पता कि मुंशी प्रेमचंद कौन थे. एक बार ‘शोले’ सहित कई सफलतम व लोकप्रिय फिल्मों के निर्देशक रमेश सिप्पी मुंशी प्रेमचंद की एक कहानी पर फिल्म बनाने का प्रस्ताव ले कर एक कौर्पोरेट कंपनी के पास गए, तो 4 दिनों बाद उस कौर्पोरेट कपंनी से एक एमबीए पास युवक का रमेश सिप्पी के पास फोन आया कि मुंशी प्रेमचंद का बायेाडाटा भेजिए, तो हमें समझ में आए कि उन की कहानी कैसी हो सकती है. उस की बात सुन कर रमेश सिप्पी ने अपना माथा पीट लिया और वे दोबारा उस कौर्पोरेट के पास नहीं गए.
जी हां, कौर्पोरेट में जो इंसान फिल्म बनाने का निर्णय लेता है उस का अपना पैसा या दिमाग कुछ भी इंवैस्ट नहीं हो रहा होता है. जिस के चलते सिनेमा की रचनात्मकता से उन का कोई लगाव नहीं रहता. मगर मजबूरी ऐसी कि वर्तमान समय में निजी निर्माता अपनी फिल्म को रिलीज करने के लिए कौर्पोरेट के पास ही जा रहे हैं. फिर चाहे वह धर्मा हो या संजय लीला भंसाली हो या दिनेश वीजन. ये सभी कौर्पोरेट के साथ मिल कर ही काम कर रहे हैं. इसे आप यों कह सकते हैं कि फिल्म बनाने के आर्थिक बोझ को साझा किया जा रहा है. सिनेमा से कालाधन गायब होने की मूल वजह कौर्पोरेट का आना ही है.
‘तिरंगा’, ‘क्रांतिवीर’ जैसी 40 से अधिक सफलतम फिल्मों के निर्माता व निर्देशक मेहुल कुमार कहते हैं, ‘‘सिनेमा को बाजारू बनाने, सिनेमा के अंदर क्रिएटिविटी खत्म करने के साथ ही सिनेमा को डुबोने में कौर्पोरेट का 100 प्रतिशत योगदान है. आज की तारीख में फिल्म का बजट कहां से कहां पहुंचा दिया गया है. इन कौर्पोरेट कंपनियों ने 20 लाख रुपए कीमत लेने वाले कलाकार को 50 लाख रुपए देना शुरू कर दिया. 50 लाख रुपए वालों को एक से 5 करोड़ रुपए मिलने लगा. जो हीरोइनें टौप पर होते हुए भी 25 लाख रुपए ले रही थीं, उन्हें इन्होंने 50 लाख रुपए देना शुरू कर दिया.
“आज तो कलाकारों को करोड़ों रुपए पारिश्रमिक राशि के रूप में दिए जा रहे हैं, कहानी पर ध्यान नहीं. इसलिए फिल्में असफल हो रही हैं. यदि आज भी कलाकारों की पारिश्रमिक राशि रीजनेबल हो जाए, फिल्म का बजट रीजनेबल हो जाए, तो फिल्में सफल हो सकती हैं. फिल्मों का बिजनैस आज भी अच्छा हो सकता है.
“दूसरी बात, पहले कलाकार केवल अभिनय पर ध्यान देते थे, पर अब कलाकार को फिल्म की कमाई में भी भागीदारी चाहिए. भागीदारी होते ही उन की दखलंदाजी बढ़ जाती है. ऐसे में निर्माता या निर्देशक के हाथ बंध जाते हैं. पहले सभी निर्णय निर्माता व निर्देशक ही लेते थे, पर अब ऐसा नहीं रहा.
“इतना ही नहीं, कौर्पोरेट/स्टूडियो की दखलंदाजी के चलते एक ही फिल्म में चारचार संगीतकार होते हैं, जिस के चलते संगीत भी डूब रहा है. यही नहीं, अब संगीत कंपनियां किसी का भी गाना खरीद कर अपनी लाइब्रेरी में रख लेती हैं. फिर वे निर्देशक से कहती हैं कि इन 25 गानों में से चुन कर फिल्म में डाल दो. अब जिन गानों का कहानी से संबंध ही नहीं है, उन्हें फिल्म में डालेंगे, तो क्या होगा? तभी आज की फिल्मों में गानों का कहानी से कोई लेनादेना नहीं होता. मैं फिल्म ‘तिरंगा’ की बात करना चाहूंगा. मैं ने संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को लिया. उन्होंने कहा कि इस फिल्म के गीत कई देशभक्ति वाले गाने लिख चुके संतोषजी से लिखवाया जाए. मैं ने कहा कि वेह लिखेंगे? लक्ष्मीजी ने कहा कि बात कीजिए. उन दिनों वे लखनऊ में थे.
“मैं ने संतोषजी को लखनऊ फोन किया. उन्होंने बताया कि अब वे गीत लिखना बंद कर चुके हैं. मैं ने उन से कहा कि, ‘हमारी फिल्म ‘तिरंगा’ की कहानी ऐसी है कि आप को गीत लिखना चाहिए.’ उन्हें संक्षेप में कहानी के बारे में बताया. फिर वे 8 दिन के लिए मुंबई आए और फिल्म ‘तिरंगा’ के गाने लिख कर वापस लखनऊ चले गए थे. मैं ने हसरत जयपुरी, आनंद बख्शी, इंदीवर से भी गाने लिखवाए. ये सभी गीतकार पहले फिल्म की पूरी कहनी सुनते थे, उस के बाद गाने लिखते थे. इसलिए उन के गानों में कहानी नजर आती थी, जो कि आज के गानों में नहीं मिलता.
“इतना ही नहीं, अब तो कलाकार की दखलंदाजी इस कदर हो गई है कि वह तय करता है कि फिल्म में कैमरामैन कौन होगा. इसी चलते 90 प्रतिशत पुराने फिल्मकार फिल्में नहीं बना रहे हैं. मैं ने कभी भी कलाकार या कौर्पोरेट के आगे सरैंडर हो कर फिल्म नहीं बनाई. इसलिए मैं ने ‘जागो’ के बाद कोई फिल्म नहीं बनाई. मैं जिस तरह की बातें सुनता हूं, उन्हें सुन कर सोचता हूं कि लोग कैसे फिल्म बना लेते हैं.’’
मेहुल कुमार की बातों में काफी सचाई है. कौर्पोरेट पैसा कमाने के साथ डौमिनेट करने की कोशिश करता है. वह धीरेधीरे ऐसा गहरा नियंत्रण कर लेता है कि फिर क्रिएटिव लोगों की सीमा अतिसीमित हो जाती है. पैसा ही असली खेल कराता है.
अभिनेत्रियां रेखा व शबाना आजमी के साथ कई सफलतम फिल्में बना चुके विनोद पांडे ने पिछले दिनों कौर्पोरेट के साथ काम करने के अपने अनुभवों पर रोशनी डालते हुए आरोप लगाया कि कौर्पोरेटाइजेशन से गहरी बात कहने वाले फिल्मकार गर्त में समाते गए. अब सिनेमा में क्रिएटिविटी नहीं रही.
विनोद पांडे ने कहा है, ‘‘मैं ने राजपाल यादव को हीरो ले कर अनिल अंबानी की कंपनी रिलायंस इंटरटेनमैंट के साथ एक फिल्म ‘चालू मूवी’ बनाई थी. आप यकीन नहीं करेंगे, वे इस फिल्म को बीच अधर में छोड़ देना चाहते थे. क्योंकि राज पाल यादव का भाव अचानक कम हो गया था. राजपाल यादव की ओपनिंग फिल्म के दर्शक महज 5 प्रतिशत रह गए थे. सो, वे इस फिल्म को बंद कर देना चाहते थे. मैं केवल लेखक व निर्देशक था, तो मैं ने अपनी इंस्टौलमैंट छोड़ कर किसी तरह इस फिल्म को पूरा किया था. पर उन्होंने तकनीशियन को पैसे नहीं दिए और रिलीज करने से इनकार कर दिया था.
“कौर्पोरेट जगत से आने वाले लोग मोटी सैलरी लेते हैं, पर इन्हें सिनेमा की समझ नहीं होती. कार या हेयर ड्रैसर या गोरा बनाने वाली क्रीम बेचने वाले लोग सिनेमा को समझ ही नहीं सकते. सिनेमा की अपनी एक आत्मा होती है. कौर्पोरेट वालों की वजह से उस आत्मा वाला सिनेमा गायब हो गया. उसे वपस लाने की जरूरत है. कौर्पोरेट का पैसा, कौर्पोरेट की पूंजी अर्थपूर्ण सिनेमा का सब से बड़ा दुश्मन है.’’
इस कटु सत्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि सिनेमा मूलतया कला है, जिस पर कौर्पोरेट जगत अपने इंवैस्टमैंट को वसूलने के चक्कर में बाजार को थोप रहा है. जब कौर्पोरेट वाले शेयर बाजार के माध्यम से आम जनता का पैसा ले कर सिनेमा में लगाते हैं तो वे फिल्म इंडस्ट्री या यों कहें कि सिनेमा को भी बाजारू बनाने पर उतारू हैं. जब फिल्म से कला खत्म हो जाए तो आप यह उम्मीद कैसे कर सकते हैं कि ‘बावर्ची’, ‘मुगल ए आजम’, ‘जुगनू’, ‘गाइड’ या ‘अछूत कन्या’ जैसी फिल्में बनें.
समस्या यह है कि यह कौर्पोरेट, जिन्हें सिनेमा व कला की समझ नहीं है, वे बिना फिल्म देखे, उस को समझे बगैर ब्लूबर्ड पर अंधाधुध पैसा लगाते हैं. कुछ समय पहले प्रदर्शित आलिया भट्ट की फिल्म ‘जिगरा’ को देख लें. कौर्पोरेट में बैठे सभी को पता था कि इसी कहानी पर टीसीरीज की फिल्म ‘सावी’ असफल हो चुकी है. लेकिन आलिया भट्ट व करण जौहर का नाम देख कर कौर्पोरेट यानी कि मुकेश अंबानी की कंपनी जियो स्टूडियो ने पैसा लगा दिया और आलिया भट्ट के अभिनय से सजी फिल्म ‘जिगरा’ की बौक्सऔफिस पर दुर्गति हुई.
सरकारी स्तर पर गलत निर्णय
कन्नड़ साहित्यकार डा. के शिवराम करण की अध्यक्षता वाली कमेटी की सिफारिश पर आधाअधूरा अमल करते हुए सरकार ने फिल्म निर्माण में मदद के लिए राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम और चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी का गठन किया. पर सरकार की तरफ से फिल्मों के प्रदर्शन को ले कर कोई ठोस कदम आज तक नहीं उठाया गया. राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम और चिल्ड्रेन फिल्म सोसायटी द्वारा दिए गए धन से कई फिल्में आज तक सिनेमाघरों में नहीं पहुंचीं. अब तो सराकर ने इन सभी का एक तरह से विलय कर सिनेमा के विकास पर अंतिम कील ठोक दी है.
इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि कौर्पोरेट नुकसान नहीं सहना चाहता. इसलिए वह चाहता है कि उस का ब्रैंड लोगों तक पहुंचे. लेकिन एमबीए पास लोग कला की समझ न रखने के कारण अच्छे लेखक व अच्छे निर्देशक के पास जाने के बजाय सोशल मीडिया पर झूठे व नकली फौलोअर्स के बल पर अपना कद बड़ा साबित करने वाले कलाकारों के पीछे भागते हुए इन कलाकारों को इन की औकात से कई गुणा ज्यादा रकम बांट रहे हैं. कौर्पोरेट अभी तक नहीं समझ सका कि सिनेमा की असली शक्ति निर्देशक के पास होती है.
कौर्पोरेट जगत में बैठे एमबीए पास लोगों को सब से पहले यह समझने की जरूरत है कि सिनेमा/फिल्म एक ऐसा क्षेत्र है जहां कोई यूनिवर्सल प्रोडक्ट नहीं बनता, कोई नया इनोवेशन नहीं होता है. यह ‘कला’ है, मगर अतिखर्चीला है. इस वजह से जो भी कौर्पोरेट सिनेमा से या किसी फिल्म प्रोडक्शन कंपनी का हिस्सेदार बनेगा, उसे नुकसान होना स्वाभाविक है.