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नई दिशा : आलोक के पत्र में क्या था?

नीता स्कूल से लौट कर आई. उस ने घड़ी पर नजर डाली, शाम के 6 बजने वाले थे. उस ने किताबें टेबल पर रख दीं और थकी सी पलंग पर बैठ गई.

उसे कमरा बेहद सूना लग रहा था. ‘आलोक आज चला जो गया था. अगर वह कुछ दिन और रहता तो कितना अच्छा लगता पर…’ सोचतेसोचते वह पिछले दिनों की यादों में खो गई.

उस दिन ठंड कुछ ज्यादा थी. घर के अंदर भी ठंड का एहसास हो रहा था. मम्मी धूप में बैठी स्वैटर बुन रही थीं. धीरज जोरजोर से बोल कर सबक याद कर रहा था. नीता टिफिन तैयार कर रही थी कि तभी घंटी बजी.

दरवाजा खोलने मम्मी ही गईं. सामने एक अपरिचित युवक खड़ा था.

‘चाचीजी, नमस्ते. आप ने पहचाना मुझे?’ वह हाथ जोड़ कर बोला.

‘आप…कौन?’ उन्हें चेहरा जानापहचाना लग रहा था.

‘मैं रामसिंहजी का बेटा, आलोक…’ वह बोला.

‘अरे, तुम रामसिंह भैया के बेटे हो. कितने बड़े हो गए हो. तभी तो मुझे लगा मैं ने तुम्हें कहीं देखा है,’  वे हंस कर बोलीं, ‘बेटा, अंदर आओ न.’

वे दरवाजे से एक तरफ हट गईं. आलोक ने बैग कंधे से उतार कर नीचे रख दिया. फिर आराम से सोफे पर बैठ गया. उस ने एक पत्र अपनी जेब से निकाल कर मम्मी को दिया.

‘अच्छा, तो तुम यहां पीएससी की परीक्षा देने आए हो?’ पत्र पढ़ते हुए मम्मी ने पूछा.

‘जी चाचीजी,’ उस ने आदर से कहा.

‘ठीक है. इसे अपना ही घर समझो,’ फिर वे रुक कर बोलीं, ‘अरी, नीता बिटिया, देख कौन आया है और सुन चाय भी बना ला.’

नीता की समझ में कुछ नहीं आया. कौन है, देखने के लिए वह बाहर आ गई.

‘बेटी, यह आलोक है, तेरे बचपन का दोस्त. जानती है एक बार इस ने तेरी चोटी रस्सी से बांध दी थी. मुश्किल से बाल काट कर खोलनी पड़ी थी,’ मम्मी ने हंस कर बताया.

‘मम्मीजी, मुझे तो कुछ याद नहीं, कब की बात है?’ नीता ने पूछा.

‘उस दिन तेरा जन्मदिन था. बड़ी अच्छी फ्रौक पहन, 2 चोटियां कर के तू आलोक को बताने गई थी. आलोक उस समय तो कुछ नहीं बोला. मैं इस की मां के साथ बातों में लगी थी कि तभी इस ने चुपके से तेरी चोटी बांध दी थी,’ मां ने याद दिलाया.

‘अब मुझे याद आ गया,’ आलोक अचानक बोला, ‘नीता, मुझे माफ करना. अब ऐसी गलती नहीं करूंगा.’

नीता शरमा कर अंदर चाय बनाने चली गई.

आज से करीब 12 साल पहले नीता और आलोक के पापा विजय नगर में आसपास रहते थे. कालोनी में उन की दोस्ती की अकसर चर्चा हुआ करती थी.

दोनों की जाति अलगअलग थी पर विचार एक से थे. दोनों परिवारों की स्थिति भी एक जैसी थी. पर नीता के पापा अपने काम के सिलसिले में इंदौर आ बसे. इस शहर में उन का धंधा अच्छा चल निकला. इसलिए वे यहीं के हो कर रह गए.

इतने सालों बाद अब आलोक परीक्षा देने उन के यहां आया था.

सुबह से शाम तक नीता उस का खयाल रखती. इस साल वह भी 12वीं की परीक्षाएं देने वाली थी. आलोक पढ़ाई में तेज था. अपनी पढ़ाई के साथसाथ वह नीता को भी पढ़ाई के गुर सिखलाता. ‘मन लगा कर पढ़ोगी तो जरूर अच्छे नंबर आएंगे,’ वह समझाता. नीता को भी उस की बातें बहुत अच्छी लगतीं.

मम्मी ने आलोक को एक अलग कमरा दे दिया था ताकि वह अपनी तैयारी ठीक से कर सके. वह 2 पेपर दे चुका था. पेपर बहुत अच्छे हुए थे. आलोक का चायनाश्ता, खानापीना, सभी मम्मी ने नीता के हवाले कर दिया था. नीता का जवान दिल जैसे आलोक को पा कर मस्त हो रहा था. रात को घंटों वह आलोक के पास बैठी रहती. मम्मी भी उन की बातों से अनजान रहतीं.

आलोक का आखिरी पेपर 2 दिन बाद था. वह तैयारी करना चाहता था पर नीता ने जिद कर के आलोक और धीरज के साथ पिक्चर जाने का मन बना लिया. फिर दूसरे दिन कमला पार्क में पिकनिक का प्रोग्राम भी बना डाला.

आलोक पिकनिक नहीं जाना चाहता था पर उसे मजबूरन नीता का साथ देना पड़ा. इन 2 दिनों में नीता के मन में आलोक के प्रति एक अजीब आकर्षण पैदा हो गया था. जैसे वह मन ही मन आलोक की तरफ खिंचती चली जा रही थी.

उस दिन आलोक का अंतिम पेपर था. नीता भी उसे खाना दे कर कैमिस्ट्री का कुछ पूछने बैठ गई. रात अधिक हो चुकी थी. उस के मम्मीपापा दूसरे कमरे में बेखबर सो रहे थे. अचानक नीता ने आलोक का हाथ पकड़ लिया और बोली, ‘आलोक, जाने क्यों तुम मुझे अच्छे लगने लगे हो.’

आलोक भी कुछ ऐसा ही महसूस कर रहा था. उस का मन हुआ कि वह नीता के बहुत करीब हो जाए. पर तभी वह संभल गया, ‘जिस चाचीजी ने मुझ पर विश्वास किया है, क्या उन्हें समाज के सामने जलील होना पड़ेगा?’ ऐसा सोच कर उस ने धीरे से अपना हाथ छुड़ा लिया.

‘देखो नीता, यह समय हमारे प्यार करने का नहीं है बल्कि अपनाअपना कैरियर बनाने का है. अगर हम ने इस समय ऐसावैसा कुछ किया तो शायद हमें जीवन भर पछताना पड़े. इसलिए मैं तो कहता हूं कि तुम 12वीं में अच्छी डिवीजन लाओ.

‘मैं भी नौकरी की तैयारी करता हूं. मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूं कि नौकरी लगते ही सब से पहले पिताजी को तुम्हारे घर भेजूंगा, हमारे रिश्ते की बात चलाने के लिए,’ उस ने नीता को समझाया.

‘हां आलोक, मम्मी भी मुझे डाक्टर बनाने का सपना देख रही हैं. अच्छा हुआ जो तुम ने मुझे सोते से जगा दिया,’ वह शरमा कर बोली.

थोड़ी देर चुप्पी रही. ‘मैं कल पेपर दे कर चला जाऊंगा. मुझे एक इंटरव्यू की तैयारी करनी है. अब तुम अपने कमरे में जाओ. रात बहुत हो चुकी है,’ मुसकराते हुए आलोक बोला.

नीता भी मन में नई दिशा में बढ़ने का संकल्प ले कर अपने कमरे की ओर चल पड़ी

टैलीकौम एक्ट 2023 : आम लोगों की मोबाइल पर सरकार का कड़ा पहरा

शीर्षक पढ़ कर ही किसी का भी चिंतित हो जाना स्वभाविक बात है क्योंकि नए टैलीकौम एक्ट में लोगों की प्राइवेसी पर पहरा बैठाने के तमाम प्रावधान है. खासतौर से व्हाट्सऐप पर जिस के मैसेज तो लोग घर के मेम्बर्स को भी पढ़ाने से बचते हैं. युवाओं की तो कई प्राइवेट चैट व्हाट्सऐप पर ही होती है फिर चाहे वह दोस्तों से की गई हो या बौयफ्रैंड या गर्लफ्रैंड से की गई हो.

 

नरेंद्र मोदी की सरकार 4 जून को कमजोर भले ही हुई हो लेकिन इस से उस की मनमानी पर कोई खास फर्क पड़ता हालफ़िलहाल तो दिखाई नहीं दे रहा है. हां उस का तरीका जरुर बदलता नजर आ रहा है. यह भी समझ आ रहा है कि अब उस ने हिंदुत्व का अपना एजेंडा दानपेटी में बंद कर लिया है. क्योंकि उस पर दबाब मजबूत विपक्ष के साथ साथ सहयोगी सैक्यूलर दलों का भी है.

 

यानी सरकार अब कहने और बताने को आम लोगों के भले के काम करेगी और उन की जिंदगी आसान बनाने वाले फैसले लेगी. ये फैसले और काम कैसे होंगे इस का अंदाजा 25 जून को वजूद में आ गए टेलीकाम एक्ट से लगाया जा सकता है जिस में सहूलियत तो कोई नहीं है लेकिन बंदिशें दर्जनों हैं. इन में से एक जिस का हल्ला ज्यादा है वह यह है कि अब कोई भी जना एक पहचानपत्र पर 9 से ज्यादा सिम कार्ड इस्तेमाल नहीं कर सकता और अगर करता पाया जाएगा तो उस पर पहली दफा पकड़े जाने पर 50 हजार रुपए का जुर्माना लगेगा. दूसरी बार भी पकड़ा गया तो जुर्माने की यह राशि 2 लाख रुपए हो जाएगी. फर्जी तरीके से सिम कार्ड लेने पर 50 लाख रुपए का जुर्माना और 3 साल तक की कैद का प्रावधान है. यानी सरकार ने एडवांस में मान लिया है कि वह सिम खरीदी में फर्जीवाड़ा रोकने में नाकाम है.

 

इस प्रावधान या फरमान के कोई माने नहीं हैं. क्योंकि हजार में से एक ही बन्दा मुश्किल से मिलेगा जिस ने एक आईकार्ड पर 2 – 4 से ज्यादा सिम कार्ड रजिस्टर्ड करवाए होंगे. किसी के पास इतना पैसा नहीं है कि वह थोक में 9 सिम कार्ड यानी 9 नंबर रखे और इन के इस्तेमाल के लिए 9 मोबाइल फोन भी ख़रीदे. यह एक बेतुकी बात है क्योंकि आम लोग 2 – 3 से ज्यादा सिम कार्ड इस्तेमाल नहीं करते हैं. हां संगठित रूप से अपराध करने वाले जरुर ऐसा करते होंगे लेकिन इस से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि जब इस देश में हजार 500 रुपए में फर्जी आईडी आसानी से बन जाती हैं तो अपराधी उन पर ही सिम कार्ड लेंगे और अकसर वे कानून से बचने करते भी यही हैं.

इस पहले प्रावधान से ही समझ आता है कि नए कानून बनाने के पीछे सरकार की मंशा यह दिखाने भर की है वह धर्म, हिंदुत्व, जाति और पोंगापंथ से भी इतर कुछ करना जानती है.

 

9 सिम वाले हल्ले से आम लोगों को कोई सरोकार नहीं लेकिन जिस प्रावधान से होना चाहिए उस पर चर्चा न के बराबर हो रही है वह यह है कि सरकार राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों के हित में या युद्ध की स्थिति में किसी एक या सभी दूर संचार सेवाओं का नियंत्रण और प्रबंधन अपने हाथ में ले सकती है. सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था या अपराध की रोकथाम के लिए भी सरकार ऐसा कर सकती है. यह कैसे सरकार का डर और आप की हमारी प्राइवेसी पर पहरा है इसे हालिया दो अहम घटनाओं से समझें तो लगता है कि दरअसल में यह तानाशाही ही है.

पहली घटना नई संसद के होहल्ले से ताल्लुक रखती हुई है जब संसद में इंदिरा गांधी वाली इमरजेंसी को ले कर जम कर बवाल मचा. इस बवाल के अपने अलग सियासी माने थे लेकिन आपातकाल में हुआ यही था कि आम लोगों की प्राइवेसी खत्म हो गई थी. डाकघरों में उन की चिट्ठियां खोल कर पढ़ी जा रही थीं, अख़बारों के दफ्तरों में सरकार का अदृश्य कब्जा था. वे वही छाप रहे थे जो सरकार चाह रही थी. और यह सब राष्ट्रीय सुरक्षा वगैरह की आड़ में ही किया जा रहा था.

 

यानी इमरजेंसी और जंग वगैरह की स्थिति में टेलीकाम कंपनियों को सरकारी अफसर और सत्तारूढ़ दल भाजपा चलाएगी, ठीक वैसे ही जैसे इंदिरा गांधी के आपातकाल में डाकघर, रेडियां और अखबार कांग्रेस चला रही थी. लोगों के टेलीफोन भी टेप किए जा रहे थे कि कौन क्या बात कर रहा है. कांग्रेसियों को डर इस बात का सताने लगा था कि कहीं कोई इंदिरा सरकार की बुराई तो नहीं कर रहा और कहीं सरकार गिराने की साजिश तो कोई नहीं रच रहा.

 

दूसरी घटना कुख्यातस्ट्रेलियन हेकर जूलियन असांजे से जुड़ी है जो बीती 26 जून को 14 साल की कैद भुगतने के बाद ब्रिटेन से अपने देश पहुंचा है. जूलियन ने साल 2006 में अपनी वेबसाइट विकीलीक्स के जरिये अमेरिका के कई गोपनीय दस्तावेज लीक कर दिए थे. इस के पीछे उस की अपनी दलीलें थीं. मसलन यह कि हर किसी को बोलने की आजादी होनी चाहिए और जिस तरह सरकारें आम लोगों के बारे में सारी जानकारियां हासिल कर लेती हैं वैसे ही सरकार के बारे में भी आम लोगों को सब कुछ पता होना चाहिए कि आखिर बंद इमारतों में उस के नुमाइंदे और अफसर क्याक्या घालमेल करते रहते हैं. वह हर लेबिल पर ट्रांसपेरेंसी का हिमायती था.

हैकिंग के बाद न केवल अमेरिकी बल्कि दुनिया भर की सरकारें चौकन्नी हो गईं थीं. जूलियन असांजे को अमेरिकी सरकार ने इतना हैरान परेशान कर दिया था कि वह समझौते वाली क़ानूनी डील के लिए भी वहां की अदालत जाने से डर रहा था. मामला अब सुलझ गया है और जूलियन अपने देश आस्ट्रेलिया वापस चला गया है. ( यह लेख आप इसी वेबसाइट पे पढ़ सकते हैं शीर्षक है – जूलियन असांजे – क्या गारंटी कि अब कोई नई खुराफात नहीं करेंगे)
जूलियन असांजे को ले कर अमेरिकी सरकार की परेशानी की तरफ इशारा करते ब्रिटेन के एक प्रमुख अख़बार द गार्डियन के पूर्व सम्पादक एलन रूसब्रिजर ने एक्स पर सटीक ट्वीट किया था कि उन के साथ जो व्यव्हार हुआ वह पत्रकारों और मुखबिरों के लिए भविष्य में चुप रहने की चेतावनी थी और मुझे लगता है कि यह कारगर साबित होगी.

अब यही काम नए टेलीकाम एक्ट भारत में और बड़े पैमाने पर हो रहा है. जहां आम लोगों को खामोश करने सरकार टैलीकौम कम्पनियों का नियंत्रण और प्रबंधन उपर बताए कारण बता कर अपने हाथ में हर कभी ले सकती है. यह इमरजेंसी नहीं तो और क्या है. अब होगा यह कि जब भी जहां से भी लोग सरकार के फैसलों और नीतियों रीतियों के विरोध में अपने हक में आवाज उठाएंगे सरकार टैलीकौम कंपनियों को अपने हाथ में ले लेगी. पंजाब, कश्मीर, मणिपुर और किसान आंदोलन के मामलों में उस का जोर कम चला था इस के बाद भी वह इंटरनैट शट डाउन करने से चूकी नहीं थी.

जानकर हैरत होती है कि दुनिया भर में सब से ज्यादा इंटरनैट शट डाउन भारत में होता है. एक एजेंसी एक्सिस नाउ द्वारा जारी आंकड़ो के मुताबिक साल 2023 में कुल 116 बार शट डाउन किया गया जबकि दुनिया भर के 38 देशों में ऐसा 283 बार हुआ. ऐसा भी पहली बार नहीं है बल्कि भारत लगातार 6 सालों से इंटरनेट बंद करने के मामले में अव्वल है एक चिंतनीय मिसाल मणिपुर की है जहां पिछले साल 5 दिन या उस से ज्यादा वक्त तक चलने वाले शट डाउन की तादाद में 2022 के मुकाबले कोई 30 फीसदी ज्यादा शट डाउन हुआ.

मणिपुर के हालातों से डरी सरकार नहीं चाहती थी कि वहां का सच लोगों तक पहुंचे. यही कई बार पंजाब और जम्मू कश्मीर में हुआ. सच छिपा कर विश्व गुरु बनने का सपना देखने वाली सरकार की हकीकत का ही नतीजा इसे कहा जाएगा कि मोदी सरकार कमजोर हुई और भाजपा उम्मीद से ज्यादा दुर्गति का शिकार हुई. मोदी सरकार पर से आम लोगों का भरोसा उठा है क्योंकि खुद सरकार अपने ही देश के नागरिकों पर भरोसा नहीं करती.

अब टैलिकौम एक्ट की धारा 1, 2 और 10 से 30 सहित 42 से 44 और 46, 47 से 50 से 58, 61 और 62 के प्रावधान प्रभावी हो गए हैं. इन में सब से ज्यादा घातक धारा वह है जिस के तहतक्ट में वर्णित वजहों के चलते सरकार किसी भी नागरिक के मैसेज इंटरसेप्ट कर सकती है और तो और धारा 20 ( 2 ) के तहत सरकार किसी के भी मैसेज रिसीवर तक पहुंचने के पहले रोक भी सकेगी. इतना ही नहीं सरकार किसी के भी मैसेज देख भी सकती है.
कुछ और छोटे मोटे प्रावधान भी है जिन से कोई ख़ास फर्क लोगों को नहीं पड़ना लगता ऐसा है कि वे सिर्फ मसौदा बढ़ाने के लिए हैं जिस से एक्ट एक्ट जैसा दिखे नहीं तो सरकार की मंशा सिर्फ यह जानने में है कि लोग क्या और कैसे मेसेज एकदूसरे को कर रहे हैं.

अभी इस अधिनियम को लागू हुए चंद दिन ही हुए हैं इसलिए लोगों को समझ नहीं आ रहा है कि सरकार कैसे उन से उन के मौलिक अधिकार राष्ट्रीय सुरक्षा और अपराध नियंत्रण वगैरह के नाम पर छीन रही है. सच तो यह भी है कि सरकार लोगों के बारे में सब कुछ जानती है मसलन यह कि उन्होंने कब, कितना, कहां पैसा खर्च किया या लिया या दिया. आधार कार्ड जहांजहां लिंक है वहां की जानकारी भी सरकार को रहती है. ऐसे में नागरिक स्वतंत्रता कहां है यह पूछा और सोचा जाना बेमानी है. हैरानी तो इस बात की है कि इस अहम मसले पर विपक्ष भी खामोश है जबकि इस एक्ट की एक बड़ी गाज उस पर भी गिरना है.

 

कहीं आप ‘इमोशनल डंपिंग’ के शिकार तो नहीं, जांचने के लिए करना होगा ये काम

इशिता और अरुण की कहानी पढ़कर यह जानना आसान होगा कि आप   इमोशनल डंपिंग के शिकार तो नहीं   

इशिता को डेट करते हुए अरुण को 6 महीने ही हुए हैं मगर इशिता अरुण की इमोशनल बातों से अब बोर होने लगी है और उस से ब्रेकअप करना चाहती है, मगर वह अरुण की अच्छाइयों के कारण फैसला नहीं ले पा रही है.

 

अरुण को जब कालेज के थर्ड ईयर में इशिता पर क्रश हुआ तो धीरेधीरे दोनों ही एकदूसरे को पसंद करने लगे. फिर कालेज के बाहर मिलने का सिलसिला भी शुरू हो गया. अरुण काफी संवेदनशील और चुप सा रहने वाला लड़का था. वह क्लास में भी किसी से ज्यादा बोलता नहीं था. लड़कियों से तो खास दूरी बना कर रहता था. कालेज की कैंटीन में लड़कों के हुजूम के साथ भी हल्लागुल्ला मचाता कभी नजर नहीं आया. खाली पीरियड में कालेज के पीछे वाले बाग़ में घूमता था. अकेला और अपने में खोयाखोया. क्लास में वह चोर नजर से इशिता को बीचबीच में निहारता था. एक दिन इशिता ने उस की यह चोरी पकड़ ली तो वह झेंप गया और इशिता को उस का यही रूप भा गया.

बातचीत शुरू हुईं. फिर दोस्ती और उस के बाद प्यार भी हो गया. अरुण इशिता से अपने घर परिवार की बातें बताते हुए बहुत इमोशनल हो जाता था. अपनी बड़ी बहन की बात करते हुए तो उस के आंसू तक निकल आते थे. वह बड़ी बहन से बहुत अटैच्ड था, जिन को उस के ससुराल वालों ने दहेज के लिए मार डाला था. तब अरुण सिर्फ 17 साल का था. बहन की बेटी तब सिर्फ डेढ़ साल की थी. अब वह अरुण के परिवार के साथ ही रहती है. उस से अरुण का असीम प्रेम है. उस की ढेर सारी बातें अरुण इशिता को बताता है. उस के अलावा अपनी छोटी बहन, छोटे भाई और मातापिता के दुखदर्द की बातें भी अरुण के पिटारे में ढेरों हैं.

इशिता को डेट करते हुए अरुण को 6 महीने हुए हैं मगर अब इशिता अरुण की बातों से बोर होने लगी है और किसी तरह उस से ब्रेकअप करना चाहती है. मगर वह अरुण की अच्छाइयों के कारण फैसला नहीं ले पा रही है. अगर अरुण की दुख भरी लम्बी कहानियों को छोड़ दे तो अरुण में बहुत सारी खूबियां हैं. वह बेवफा नहीं है. इशिता जानती है कि वह कभी उस को धोखा नहीं देगा. टाइम का बहुत पंक्चुअल है. जो कहता है वह करता है. पढ़ाई में बहुत तेज है. बड़ा अधिकारी बनने की उस की तमन्ना है और वह बन भी सकता है. इशिता से बहुत प्यार करता है. उस पर इतना विश्वास करता है कि अपने घर की एकएक बात उस ने इन 6 महीनों में इशिता को बता दी है. इशिता ही उस की एकमात्र दोस्त और प्रेमिका है. अरुण में एक अच्छा पति होने के सारे गुण हैं मगर इशिता को लगता है कि वह अपनी उम्र से बहुत बड़ी उम्र की बातें करता है. वह अन्य लड़कों की तरह खिलंदड़ा नहीं है. उछलकूद नहीं मचाता. जिंदगी को एंजोय नहीं करता. हर वक्त खुद पर एक भारीपन लादे रहता है.

 

जबकि इशिता एक ऐसे परिवार से है जहां लोगों को एकदूसरे की बहुत ज्यादा परवाह नहीं है. सब अपनीअपनी जिंदगी अपने तरीके से हंसते खिलखिलाते, दोस्तों के बीच पार्टियां करते व्यतीत कर रहे हैं. उस की मां अपनी किट्टी पार्टियों में, पिता औफिस के यारों दोस्तों में, बड़ा भाई ट्रैकिंग और ट्रैवेलिंग में अपना समय बिताते हैं. उन के पास दुख दर्द की बातें करने का टाइम ही नहीं है. वे आपस में कुछ बातें रात में बस डायनिंग टेबल पर ही करते हैं. वो भी हंसी मजाक की. जबकि अरुण की बातें उन बातों से बिलकुल विपरीत हैं. इशिता भी शुरू में उस की ओर इस वजह से अट्रैक्ट हो गई थी क्योंकि वह दूसरों से अलग लगा. लेकिन अब इशिता को लगने लगा है कि वह शायद पूरी जिंदगी पीड़ित सा, दुखी सा, भावुक सा रहने वाला है. ये तो इशिता के लिए बहुत कष्टदायक हो जाएगा. वह 25 साल में 50 साल जैसे बूढ़े का अनुभव हरगिज नहीं चाहती है.

रिश्ते इमोशनल कनैक्शन पर बनते हैं लेकिन कभीकभी ये रिश्ते असंतुलित हो जाते हैं. खासकर जब एक साथी लगातार अपने और अपनी भावनाओं पर काबू करने की जगह हर छोटीबड़ी बात के लिए अपना इमोशनल दबाव दूसरे पर थोपता है तो यह स्थिति रिश्ते में इमोशनल डंपिंग कहलाती है. इस से रिश्ते में दूसरा व्यक्ति थका हुआ, अनसुना और यहां तक कि खुद को काफी परेशान महसूस कर सकता है.

 

बहुत सारे लोग रिश्तों में इसी तरह के इमोशनल डंपिंग का शिकार हैं मगर वह रिश्ते में इतनी दूर तक आ गए हैं कि अब रिश्ता तोड़ना भी मुमकिन नहीं है. ऐसी कई स्थितियां हैं जो इशारा करती हैं कि आप इमोशनल डंपिंग का सामना कर रहे हैं. आप खुद इस चीज को जांच सकते हैं जैसे –

1. क्या आप का साथी आप के बारे में पूछे बिना लगातार अपनी समस्याओं और चिंताओं के बारे में बात करता है. यह एक रेड फ्लैग है जो बताता है कि रिश्ते में दूसरे की परवाह किए बिना बस एक ही व्यक्ति अपनी चीजें शेयर कर रहा है जो रिश्ते में इमोशनल सपोर्ट में असंतुलन का संकेत देता है.

2. क्या आप का साथी इमोशनल सपोर्ट के लिए पूरी तरह आप पर निर्भर है और बदले में शायद ही आप की कभी कोई परिस्थिति समझता है या आप को सपोर्ट करता है? हेल्दी रिलेशनशिप में दोनों तरफ से इमोशनल सपोर्ट शामिल होता है, न कि एकतरफा.

3. क्या आप अकसर अपने साथी के साथ बातचीत के बाद भावनात्मक रूप से थका हुआ महसूस करते हैं? यह इमोशनल डंपिंग के नकारात्मक प्रभाव की ओर इशारा करता है जिस से आप कमजोर हो जाते हैं और अपनी इमोशनल हैल्थ को खराब कर बैठते हैं.

4. क्या आप को लगता है कि जब आप अपनी भावनाओं को शेयर करने का प्रयास करते हैं तो उन्हें आप के पार्टनर द्वारा दरकिनार कर दिया जाता है या उन्हें गैरजरूरी या कमतर बता दिया जाता है? यह उपेक्षापूर्ण व्यवहार आप की इमोशनल नीड के प्रति सम्मान और सहानुभूति की कमी को दर्शाता है. यह रिश्ते में एक रेड फ्लैग है.

5. क्या रिश्ते में ऐसा महसूस होता है कि आप लगातार सुनने या सिर्फ देखभाल ही करने वाले हैं जबकि आप का साथी पूरी तरह से इमोशनल डंपर है? एक हहैल्दी रिलेशनशिप समानता और आपसी सहयोग पर बनता है. इस में ऐसा नहीं होना चाहिए कि एक देखभालकर्ता और दूसरा उस पर निर्भर मरीज है.

इमोशनल डंपिंग से किसी भी रिश्ते पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. इमोशनल डंपिंग व्यक्ति और रिश्ते दोनों के लिए हानिकारक परिणाम देता है. एक व्यक्ति को यदि लंबे समय तक यह स्थिति झेलनी पड़े तो रिश्ते के प्रति नाराजगी और असंतोष पैदा हो जाता है जिस से संबंध टूट सकता है. कोई भी नहीं चाहता कि उस का पार्टनर हमेशा दुख भरी बातें ही करता रहे. हमेशा अपना अतीत कुरेद कुरेद कर उस में से नकारात्मक चीजें निकाल कर सामने रखता रहें. ऐसे लोग न तो कभी खुद खुश रहते हैं और न अपने साथी को खुश और सकारात्मक रहने देते हैं.

जिंदगी अतीत में जीने के लिए नहीं है. भविष्य की खुशियां तलाशना, वर्तमान को जिंदादिली से जीना ही असली सुख है. कभीकभी कोई पुरानी बात याद आ गई और उस को पार्टनर से शेयर कर लिया तो ठीक है, पर हर वक्त उन यादों को ओढ़े रखना बेवकूफी है.

कुछ लड़केलड़कियां अपने पुराने टूटे प्रेम को याद करते रहते हैं. जिन की दूसरी शादी हुई वो अकसर अपनी पहली बीवी की बेवफाई के किस्से नई वाली को सुनाने लगते हैं. नई बीवी यह सोच कर सुन लेती है कि कहीं पति को यह न लगे कि वह उस के दुख में शामिल नहीं है. लेकिन ऐसी बातें ज्यादा या हर वक्त हों तो अंततः रिश्तों में कड़वाहट ही घोलती हैं. फिर हैल्दी रिलेशनशिप में दोनों तरफ से इमोशनल सपोर्ट शामिल होता है न कि एकतरफा. अगर ऐसा हो रहा है तो यह आप के रिश्ते में रेड फ्लैग है.

शोशेबाजी के लिए ही कपल कर रहे हैं डेस्टिनेशन वेडिंग या मामला कुछ और

आजकल डैस्टिनेशन वेडिंग का ज़माना है, जिस में भारीभरकम बारातियों की जगह कम गेस्ट्स बुलाए जाते हैं और सुंदर लोकेशन पर शादी की जाती है. जानिए इस बढ़ते ट्रेंड के फायदे क्या हैं और कैसे इस की तैयारियां की जाएं.

 

शाहरुख खान की फिल्म, ‘कुछ कुछ होता है’ का वह डायलौग तो आप सभी को भी याद होगा ‘हम एक बार जीते हैं, एक बार मरते हैं, शादी भी एक ही बार होती है और प्यार… वो भी एक बार ही होता है…” यानी शादी का दिन वाकई में यादगार होना चाहिए. यही वजह है कि आजकल हर कोई अपने इस खास मौके को डैस्टिनेशन वेडिंग के जरिए यादगार बनाना चाहता है.

बदलते समय के साथ शादियों के आयोजन के स्वरूप में भी बदलाव आ रहा है. जहां आज से 20-30 साल पहले इंटरनैट, सोशल मीडिया और मोबाइल फोन इतने प्रचलित नहीं थे तब शादी की दावतों का आयोजन अलग तरीकों से होता था. उस समय दावतों का आयोजन घर के बड़े कमरे या बाहर के मंडप में होता था जहां मेहमानों के लिए खानेपीने की व्यवस्था की जाती थी. शादी में गाने बजते थे और महिलाएं भी नाचती थीं.

शादी के आयोजन के तरीकों में एक नया बदलाव जो बहुत तेजी से ट्रैंडड कर रहा है वह डैस्टिनेशन वेडिंग का जिस में अब परिवार अपने शहर में ही शादी करने के बजाय डैस्टिनेशन वेडिंग्स को पसंद कर रहे हैं जिस में लोग शादी के लिए घर से दूर किसी खूबसूरत जगह पर जाते हैं, जहां दुल्हन और दूल्हे के अलावा उन के दोस्त, रिश्तेदार व परिवार के लोग मिल कर शादी के समारोह को एंजोय करते हैं.

 

अब लोग शादी को एक इंटिमेट और पर्सनल अफेयर बनाना चाहते हैं. लंबीचौड़ी गेस्ट लिस्ट अब छोटी हो गई है. अब शादियां छोटी और इंटिमेट होने लगी हैं. अब लोगों का फोकस अपने करीबी परिवार और दोस्तों की मौजूदगी में अपने जीवन के इस खास पल के एक्सपीरियंस को यादगार बनाने पर है. अब बिग फैट वेंडिंग यानी 500 से 800 गेस्ट वाली शादियों का ट्रैंड थमने लगा है. अधिकतर शादियों में गेस्ट की संख्या 100 से 150 तक होती है. अगर डैस्टिनेशन वेडिंग पर आने वाले खर्च की बात करें तो यह डैस्टिनेशन वेडिंग की लोकेशन, मेहमानों की संख्या, सर्विसेज और सेलिब्रेशन की कुल अवधि पर भी निर्भर करता है.

डैस्टिनेशन वेडिंग के फायदे

यादगार अनुभव
भारत में शादी के लिए बहुत सारी खूबसूरत लोकेशंस हैं और हर जगह की यूनिक संस्कृति और धरोहर है. जो शादियों को मौडर्न एक्सपीरियंस के साथ ट्रेडिशंस से जोड़ती है.

छोटी गेस्ट लिस्ट और कम खर्च
अब लोग चाहते हैं कि उन की शादी एक पर्सनल अफेयर की तरह ही हो जिस में वे अपने कुछ गिनेचुने नजदीकी दोस्तों और रिश्तेदारों के साथ अपने जीवन के इस खास मौके को यादगार बनाना चाहते हैं. खर्चों को कम करने का सब से आसान तरीका है अपनी मेहमानों की सूची को सीमित रखना और डैस्टिनेशन वेडिंग इस का बेहतरीन तरीका है.

डैस्टिनेशन वेडिंग यानी वेन्यू के अनलिमिटेड औप्शंस
अगर आप छोटे शहर में रहते हैं तो आप के पास शादी के वेन्यू के लिमिटेड औप्शंस होंगे. ऐसे में डैस्टिनेशन वेडिंग का ट्रैंड आप के लिए कई और भी औप्शंस खोलता है जहां आप को कई यूनीक और खूबसूरत लोकेशंस, स्टनिंग होटल खूबसूरत व्यू के साथ मिलेंगे.

वेडिंग के यादगार पल के साथ छुट्टियों का मजा
डैस्टिनेशन वेडिंग का एक मुख्य आकर्षण यह है कि इस में शादी करने वाले कपल के साथसाथ मेहमानों को भी वेकेशन जैसा आनंद अनुभव होता है. सिर्फ शादी की रात जोड़े को शगुन का लिफाफा पकड़ाने और खाना खा कर घर भागने की जगह मेहमानों को टिक कर शादी के रीतिरिवाजों को एंजोय करने का अवसर मिलता है.
कुल मिला कर डैस्टिनेशन वेडिंग उन जोड़ों के लिए एक बढ़िया विकल्प है जो यह करना चाहते हैं कि उन की शादी वाकई अनोखी और यादगार हो.

 

सफल डैस्टिनेशन वेडिंग की प्लानिंग कैसे करें
सब से पहले आप को डैस्टिनेशन वेडिंग के लिए एक सही लोकेशन की तलाश कर लेनी चाहिए. वेदर कंडीशन, कल्चलर अट्रैक्शन, एक्सैसिबिलिटी और लोकेशन की पौपुलैरिटी ध्यान में रखते हुए आप गोवा, उदयपुर, जयपुर, केरल, जोधपुर और अंडमान आईलैंड जैसी लोकेशंस चुन सकते हैं. कई हिल स्टेशंस भी डैस्टिनेशन वेडिंग के लिए काफी पौपुलर हो रहे हैं.

बजट बना लें
लोकेशन, वेडर्स, डेकोरेशन का निर्णय करने से पहले अपना बजट निर्धारित कर लें. सबकुछ फाइनल करने से पहले एक बार कोस्ट भी जान लें और उसी के आधार पर आगे का फैसला लें.

वैन्यू का चुनाव चुन लें और वेंडर्स बुक कर लें
चाहें आप बीच लोकेशन चुन रहे हैं, गार्डन या पैलेस चुन रहे हैं, याद रखें कि पे करने से पहले एक बार लोकेशन पर जा कर जरूर देखें. फोटोग्राफर, फ्लोरिस्ट चुनने से पहले जान लें कि उन्हें डैस्टिनेशन वेडिंग का आइडिया है या नहीं.

फन एक्टिविटीज प्लान करें
शादी अपनेआप में ही एक मस्ती भरा पल है, लेकिन आप चाहें तो इस में कुछ अच्छी और मजेदार एक्टिविटीज प्लान कर सकते हैं जिस से गेस्ट्स भी मस्ती करेंगे और आप भी फंक्शंस के साथ इसे एंजोय करेंगे.

गेस्ट लिस्ट और होटल फाइनल कर लें
अपनी उस गेस्ट लिस्ट को फाइनल कर लें जो आप के साथ होटल तक जाने वाले हैं और उसी होटल को फाइनल करें जो इतने गेस्ट के रुकने की व्यवस्था कर सकता है. इस बात का भी ध्यान रखें कि एयरपोर्ट या स्टेशन से आने वाले गेस्ट्स के लिए वेन्यू तक पहुंचने के लिए सुविधा हो.

पैकिंग ध्यान से करें
वेडिंग डैस्टिनेशन पर जाने से पहले अच्छी तरह पैकिंग कर लें क्योंकि कोई एक भी चीज छूट गई तो आप का पूरी शादी में मूड खराब हो सकता है. ऐसे में पैकिंग करने से पहले एक लिस्ट बना लें और पैकिंग करने के बाद उस लिस्ट को क्रौस चेक कर लें जिस से कोई भी सामान छूटे नहीं.

मुंबई हाईकोर्ट ने क्यों कहा कि कालेज या काम की जगह पर धार्मिक पहचान दिखाना उचित नहीं

मोदी सरकार ने जब से हिंदुत्व का परचम बुलंद किया है, हिंदू धर्म के प्रतीकों का प्रदर्शन करना शुरू किया है तब से मुसलमानों और अन्य धर्म को मानने वालों ने भी अपनी धार्मिक पहचानों को उजागर करना शुरू कर दिया है. धर्म का सब से आसान शिकार औरतें होती हैं. लिहाजा कठमुल्लाओं द्वारा मुसलिम लड़कियों पर यह दबाव बना है कि वे हर जगह नकाब ओढ़ें.

हाल ही में बौम्बे हाई कोर्ट ने स्कूल और कालेज में बुर्का-हिजाब पहनने की इजाजत की मांग करने वाली याचिका को रद्द करते हुए फैसला दिया कि स्कूल-कालेज में नियमानुसार ड्रैस कोड लागू रहेगा. कोर्ट ने कहा कि चेंबूर के आचार्य-मराठा कालेज ने कालेज परिसर में जो ‘हिजाब बैन’ लगाया है वह बिलकुल सही है. यह किसी भी धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाने के इरादे से नहीं है बल्कि सभी छात्रों-कालेज पर एक समान नियम लागू हो, इसलिए है.

गौरतलब है कि चेंबूर के आचार्य-मराठा कालेज की 9 मुसलिम लड़कियों ने कालेज में हिजाब बैन के खिलाफ अदालत में याचिका दाखिल की थी कि इस से उन की धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन होता है. उन्होंने कहा कि वे कई सालों से नकाब पहन रही हैं और कालेज में उसे उतारना उन की धार्मिक स्वतंत्रता का हनन है. इस पर जस्टिस एएस चंदुरकर और राजेश पाटिल की बेंच ने कहा कि कालेज को शैक्षणिक संस्थान का संचालन करने का मौलिक अधिकार है. साथ ही कोर्ट ने संस्थान की दलीलों को स्वीकार कर लिया कि ड्रैस कोड सभी छात्राओं पर लागू होता है, चाहे उन का धर्म या जाति कुछ भी हो.

बेंच ने कहा कि हिजाब पहनना एक अनिवार्य धार्मिक प्रथा है या नहीं, यह ऐतिहासिक और तथ्यात्मक रूप से तय किया जाना चाहिए. याचिकाकर्ताओं ने इस तर्क को पुष्ट करने के लिए कोई सामग्री नहीं दी कि हिजाब और नकाब पहनना एक आवश्यक धार्मिक प्रथा है, इसलिए इस संबंध में तर्क विफल हो जाता है. कोर्ट ने कहा कि हमें नहीं लगता कि कालेज द्वारा ड्रैस कोड निर्धारित करना अनुच्छेद 19(1)(ए) (भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद 25 (धर्म का पालन करने की स्वतंत्रता) के प्रावधानों का उल्लंघन करता है. अदालत ने कहा कि हमारे विचार में निर्धारित ड्रैस कोड को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) और अनुच्छेद 25 के तहत याचिकाकर्ताओं के अधिकारों का उल्लंघन नहीं माना जा सकता है.

बेंच ने कहा कि कालेज केवल एक ड्रैस कोड निर्धारित कर रहा था. इस तरह के ड्रैस कोड के नियमन को संस्थान में अनुशासन बनाए रखने की दिशा में एक अभ्यास के रूप में माना जाना चाहिए. यह अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(जी) और अनुच्छेद 26 के तहत एक शैक्षणिक संस्थान की स्थापना और प्रशासन के मान्यता प्राप्त मौलिक अधिकार से निकलता है. ड्रैस कोड का पालन करने का आग्रह कालेज परिसर के भीतर है और याचिकाकर्ताओं की पसंद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अन्यथा प्रभावित नहीं होती है.

कोर्ट ने कहा कि ड्रैस कोड निर्धारित करने के पीछे का मकसद कालेज द्वारा जारी किए गए निर्देशों से स्पष्ट है, जिस के अनुसार इरादा ये है कि किसी स्टूडैंट का धर्म प्रकट नहीं होना चाहिए. पीठ ने कहा कि यह छात्राओं के शैक्षणिक हित के साथसाथ कालेज के प्रशासन और अनुशासन के लिए भी जरूरी है कि यह उद्देश्य हासिल किया जाए. यही कारण है कि स्टूडैंट्स से अपेक्षा की जाती है कि वे अपने शैक्षणिक कैरियर को आगे बढ़ाने के लिए उचित निर्देश प्राप्त करने के लिए शैक्षणिक संस्थान में उपस्थित हों. अदालत ने कहा कि ड्रैस कोड के अनुसार छात्राओं से अपेक्षा की जाती है कि वे कुछ औपचारिक और सभ्य पहनें, जिस से उन का धर्म प्रकट न हो.

शिक्षण संस्थानों या कार्यालयों में यदि लोग अपने अपने धर्म के अनुसार कपड़े पहन कर आने लगें तो भारी असमानता पैदा हो जाएगी और उस स्थान पर अराजकता के साथसाथ असुविधा बढ़ जाएगी. एक कार्यालय में एक पंडितजी कैशियर के पद पर आसीन हैं. वे सिर पर चोटी रखते हैं. धोती कुर्ता पहनते हैं, कलावा बांधते हैं और माथे पर हल्दी-चंदन का बड़ा सा तिलक लगाते हैं. उन की वेशभूषा के कारण सब उन को बड़ा श्रेष्ठ समझते हुए उन्हें पंडितजी, पंडितजी कह कर संबोधित करते हैं. पंडितजी को बड़ा गर्व महसूस होता है. वे खूब अकड़ कर चलते हैं. जैसे ब्राह्मण घर में पैदा हो कर उन्होंने बहुत बड़ा तीर मार लिया है. पूरे औफिस पर रोब ग़ालिब करते हैं. मानों उन से श्रेष्ठ कोई हो ही न. मगर उसी कार्यालय में कुछ दलित कर्मचारी भी हैं, जो उन से नफरत करते हैं. पंडितजी भी उन के बिल लम्बे समय तक अटका कर रखते हैं. जब ऊपर अधिकारी तक शिकायत पहुंचती है, तब जा कर पैसा रिलीज करते हैं. इस से चिढ़ कर दलित स्टाफ भी पंडितजी की कोई बात नहीं सुनता है. मुसलमान स्टाफ भी पंडित की धार्मिक पहचान उजागर करते रहने के कारण उस से नफरत करता है. लेकिन इस सब में नुकसान सिर्फ संस्थान को हो रहा है.

कार्यालय में अगर वह पंडित अपनी धार्मिक पहचान को लपेट कर न आता और बाकी ब्राह्मण स्टाफ की तरह पेंट-शर्ट पहनता तो दलित स्टाफ उस से भी उसी तमीज से पेश आता, जैसे अन्य ब्राह्मण स्टाफ से आता है. अन्य ब्राह्मण स्टाफ और दलित या पिछड़े या मुसलमान या ठाकुर कर्मचारियों के बीच कोई झगड़ा या मनमुटाव नहीं है. सब एकदूसरे से बातचीत हंसीमजाक करते हैं. साथ बैठ कर खाना खाते हैं. बस वो पंडित कैशियर ही उन के बीच एक अलग नमूना सा दिखता है. उस को लगता है कि उस की धार्मिक वेशभूषा उस को बड़ा बना रही है जबकि सच यह है कि वह सफेद भेड़ों के झुंड में एक काली भेंड़ की तरह अलग नजर आता है. उस की वजह से वहां धार्मिक वैमनस्य और नकारात्मकता फैलती है.

इसी तरह सिख समुदाय के लोग अकसर विदेशों में अपनी धार्मिक पहचान पगड़ी और कटार की वजह से वहां की पुलिस द्वारा प्रताड़ित किए जाते हैं. कई ऐसे समाचार आ चुके हैं जब अमेरिका में सिखों की पगड़ियां उतरवाई गईं. यह निसंदेह उन की धार्मिक आस्था पर चोट करने वाली बात है लेकिन उस देश में सुरक्षा के लिहाज से पुलिस द्वारा ऐसा करना गलत भी नहीं है.

अनेक मुसलिम लड़कियां अपनी धार्मिक आस्था और परिवार व समाज के दबाव में एक उम्र के बाद नकाब ओढ़ने लगती हैं. ऐसा सभी लड़कियां नहीं करती हैं. कोई एक दशक पहले तक भारत में भी नकाब, हिजाब या बुर्के पर कोई सवाल नहीं उठता था. जो मुसलिम लड़कियां बुर्का पहन कर कालेज जाती थीं वे कालेज गेट से अंदर घुसते ही बुर्का उतार कर बैग में रख लेती थीं और छुट्टी के वक्त बाहर आने से पहले फिर पहन लेती थीं, मगर अब वे अपनी इस धार्मिक पहचान को क्लास के अंदर भी खुद से चिपकाए रखना चाहती हैं. इस के पीछे वजह है राजनीति.

मोदी सरकार ने जब से हिंदुत्व का परचम बुलंद किया है, हर चीज को धर्म से जोड़ा है, धार्मिक पहचान को उजागर करने के लिए बात बात पर जय श्री राम का नारा देना शुरू किया है तब से इसलाम को मानने वालों में भय बढ़ा है. इस भय के कारण उन्होंने भी अपने धर्म की पहचानों को उजागर करना शुरू कर दिया है. धर्म कोई भी हो उस का सब से आसान शिकार औरतें ही होती हैं. लिहाजा कठमुल्लाओं और परिवार द्वारा मुसलिम लड़कियों पर यह दबाव बना कि वे हर जगह नकाब ओढ़ें.

सोचिये, यह कितना असुविधाजनक है. एक क्लास में जहां 40-50 छात्रछात्राएं मौजूद हों और गरमी के मौसम में सिर पर सिर्फ एक ही पंखा चल रहा हो वहां शलवार-कुर्ते और दुपट्टे के ऊपर एक और मोटा काला लबादा ओढ़े बैठी लड़की का पढ़ाई में कितना ध्यान लग रहा होगा? अगर यह लड़की किसी साइंस लैब या कैमिस्ट्री लैब में कोई एक्सपेरिमेंट कर रही हो तो वहां यह बुर्का उस की जान के लिए कितना बड़ा खतरा साबित हो सकता है? वह आग पकड़ सकता है.

इस के अलावा आंखें छोड़ किसी लड़की का यदि पूरा मुंह नकाब के पीछे है तो अन्य लोगों में उस का चेहरा देखने की उत्सुकता हमेशा होगी. खासतौर पर लड़कों में. यह उत्सुकता उन्हें गलत कार्य के लिए भी उकसा सकती है. यह तो खतरे को न्योता देने जैसा है. जबकि कालेज की अन्य लड़कियां जो नौर्मल कपड़ों में कालेज आती हैं उन के प्रति कोई उत्सुकता लड़कों में पैदा नहीं होती. ढकी हुई चीज को खोल कर देखना तो मानव बिहेवियर है, इस से कैसे मुक्ति मिल सकती है? तो क्यों अपने को ऐसा विषय बना कर रखा जाए जिस में लोगों की दिलचस्पी जागृत हो?

सेना, पुलिस, नेवी या एयरफोर्स हर जगह यूनिफौर्म है. मैकडोनाल्ड, पिज्जा हट, सब जैसे अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों में काम करने वालों के लिए एक सी यूनिफौर्म होती है. वकीलों जजों की यूनिफौर्म है. डाक्टरों-नर्सों की यूनिफौर्म है. इन तमाम जगहों पर अपना धार्मिक सिम्बल चिपका कर अलग दिखने की पूरी तरह रोक है. धार्मिक आस्था और धार्मिक दिखावा किसी भी कार्यस्थल पर असमानता और घृणा पैदा करता है. आप की धार्मिक आस्था आप के घर के अंदर तक ही ठीक है.

कुछ लोग गले में रुद्राक्ष की मालाएं डाल कर घूमते हैं और सोचते हैं कि लोग उन्हें बड़े सम्मान से देखते होंगे. कुछ लोग कलाइयों में ढेरों कलावे बांध कर उन का प्रदर्शन करते घूमते हैं. कुछ माथे पर तिलक चिपका कर चलते हैं. ईसाई लोग गले में क्रौस डाल लेते हैं. मेट्रो में अकसर महिलाएं और कभीकभी पुरुष एक छोटे से बैग में माला डाल कर उस का जाप करते देखे जाते हैं. ये सभी सोचते हैं कि ऐसा करने से वे बड़े धार्मिक और संस्कारी नजर आएंगे और लोग उन का सम्मान करेंगे. पर लोग उन्हें उत्सुकता की दृष्टि से देखते हैं. ये सभी लोग सफेद भेड़ों के बीच एक काली भेंड़ की तरह अलग से नजर आते हैं. लोग उन्हें देखते हैं और मुसकराकर मुंह फेर लेते हैं. अधिकांश लोग इस तरह की गतिविधियों को दिखावा ही मानते हैं. सभ्य और शिक्षित लोग समानता में विश्वास करते हैं. सामाजिक समरसता भी तभी आती है जब सब एक जैसे नजर आएं.

अजनबी : बार-बार अवधेश की मां सफर में क्यों डरी हुई थी?

सभी कुछ था वहां, स्टेशनों में आमतौर पर पाई जाने वाली गहमागहमी, हाथों में सूटकेस और कंधे पर बैग लटकाए, चेहरे से पसीना टपकाते यात्री, कुछ के पास सामान के नाम पर मात्र एक बैग और पानी की बोतल, साथ ही, अधिक सामान ले कर यात्रा करने वालों के लिए एक उपहास उड़ाती सी हंसी. कुछ बेचारे इतने थके हुए कि मानो एक कदम भी न चल पाएंगे. कुछ देरी से चल रही ट्रेनों की प्रतीक्षा में प्लेटफौर्म पर ही चादर बिछा कर, अपनी अटैची या बैग को सिरहाना बनाए लेटे हुए या सोये हुए थे. कुछ एकदम खाली हाथ हिलाते हुए निर्विकार, निरुद्देश्य से चले जा रहे थे.

यात्रियों की ऐसी ही विविध प्रजातियों के बीच खड़ी थी मैं और मेरे 2 बच्चे. सफर तो हम भी बहुत लंबा तय कर के आ रहे थे. सामान भी काफी था. तीनों ही अपनेअपने सूटकेस पकड़े हुए थे. किसी पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं था. अवधेश, मेरा बेटा, बहुत सहायता करता है ऐसे समय में. बेटी नीति तो अपना बैग उठा ले, वही बहुत है.

मन में कुछ घबराहट थी. यों तो अनेक बार अकेले सफर कर चुकी थी किंतु पूर्वोत्तर के इस सुदूर असम प्रदेश में पहली बार आना हुआ था. मेरे पति प्रकाश 8 माह पूर्व ही स्थानांतरण के बाद यहां आ चुके थे. बच्चों की पढ़ाई में व्यवधान न हो, इसीलिए स्कूल के सत्र-समापन पर ही हम अब आए थे. मेरी घबराहट का कारण था, यहां आएदिन होने वाले प्रदर्शन, अपहरण, बम विस्फोट और इसी तरह की अराजक घटनाएं जिन के विषय में आएदिन समाचारपत्रों व टैलीविजन में देखा व पढ़ा था. रेलवे स्टेशनों पर पटरियों पर आएदिन अराजक तत्त्व कुछ न कुछ अनहोनी करते थे. किंतु अपनी घबराहट की ‘हिंट’ भी मैं बच्चों को नहीं देना चाहती थी. ‘खामखाह, दोनों डर जाएंगे,’ मैं ने सोचा. अवधेश मेरे चेहरे, मेरे हावभाव से मेरी मनोदशा का एकदम सटीक अनुमान लगा लेता है, इसीलिए प्रयास कर रही थी कि उसे पता न चले कि उस की मम्मी थोड़ी डरी हुई है.

‘‘नीति, बैग ठीक से पकड़ो, हिलाहिला कर क्यों चल रही हो,’’ मैं उस पर झुंझला रही थी. एक बार पहले भी नीति इसी तरह एक सूटकेस को गिरा चुकी थी जिस से उस का हैंडल टूट गया था. बहुत मुश्किल से उसे उठा कर ट्रेन तक ला पाए थे अवधेश और उस के पापा. देखा, तो नीति काफी पीछे रह गई थी, ‘‘थोड़ा तेज चलो न, प्लेटफौर्म नंबर 7 अभी काफी आगे है,’’ मैं ने कहा.

वह कहां चुप रहने वाली थी. झट से बोली, ‘‘चल तो रही हूं, मम्मी. इतने भारी बैग के साथ मैं इस से ज्यादा तेज नहीं चल सकती.’’

‘‘नीति, ला मुझे दे अपना बैग,’’ अवधेश ने कहा.

‘‘ओ वाओ बिग ब्रदर, थैंक्यू,’’ कहते हुए नीति ने बैग वहीं छोड़ दिया.

मुझे बड़ा गुस्सा आया, ‘‘तुम को दिखाई नहीं दे रहा. भैया के पास पहले ही सब से बड़ा सूटकेस है. तुम्हारा बैग भी कैसे पकड़ेगा वह?’’

‘‘ओ मां, आप चिंता न करें, मैं उठा लूंगा,’’ कहतेकहते एक प्रश्नसूचक मुसकराहट से मेरी ओर देखा अवधेश ने. छोटीछोटी बातों पर खीज उठने की मेरी आदत से, तुरंत मेरी घबराहट का अंदाजा लगा लेता है अवधेश. मैं उस की मां हूं, उस की रगरग से वाकिफ हूं. वह भी मेरे हर मूड को, हर अनकही बात को ऐसे समझ लेता है कि कई बार मन एक सुखद आश्चर्य से भर उठता है. कई बार चिढ़ भी जाती मैं, क्यों समझ जाता है यह सबकुछ.

‘‘आप चिंता मत करो, 7 नंबर प्लेटफौर्म पास ही है, धीरेधीरे भी चलेंगे तो 10 मिनट में पहुंच जाएंगे, आप घबराओ मत, मां. बहुत टाइम है हमारे पास,’’ अवधेश बोला.

उस की बातों से कुछ संबल मिला. थोड़ी आश्वस्त हो गई मैं. वैसे तो शाम के 7 ही बजे थे किंतु नौर्थईस्ट इलाके में सूर्यास्त जल्दी हो जाने से इस समय अच्छाखासा अंधेरा हो गया था. सुबह 4 बजे के जगे हम तीनों देहरादून से आ रहे थे. वहां से बस द्वारा दिल्ली, दिल्ली से बाई एअर गुवाहाटी, वहां से एक मारुति वैन में घंटों सफर करने के बाद अब हम खड़े थे एक अन्य रेलवे स्टेशन पर. ‘सिमलगुड़ी’ यह नाम पहली बार ही सुना था. यहां से रात साढ़े 11 बजे की ‘इंटरसिटी’ ट्रेन थी, जोकि सवेरे 5 बजे के आसपास हमें ‘नाजिरा’ पहुंचा देती. वहां छोटा सा कसबा है नाजिरा, प्रकाशजी ने बताया था. वहां तेलखनन से संबंधित गतिविधियां चलती थीं और पिछले 7-8 माह से वे वहां स्थानांतरित थे.

छोटा सा गांव था सिमलगुड़ी. कई ट्रेनें यहां से आतीजाती थीं. महानगरों के आदी हम तीनों को यह स्टेशन एकदम सुनसान सा लग रहा था जबकि ऐसा था नहीं, लोग थे पर लोगों की भीड़ नहीं. रोशनी भी कुछ खास नहीं थी. प्लेटफौर्म नंबर 7 पर एक खाली बैंच देख अवधेश ने सामान रख दिया और हाथ हिला कर हमें जल्दी से वहां आने का इशारा किया. हम दोनों मांबेटी धीरेधीरे अपना सामान लिए पहुंच ही गईं. पुरानी सी बैंच, लकड़ी से बनी, जिस की 5 में से 2 फट्टियां बैठने के स्थान से गायब थीं. और चौथी टांग की तबीयत भी कुछ नासाज लग रही थी. अवधेश ने उपाय सुझाया, ‘‘आप और नीति बैंच के बीचोबीच बैठ जाओ, कुछ नहीं होगा. मैं अपने सूटकेस को नीचे रख कर उस पर बैठ जाऊंगा, ठीक है न, मां.’’

सहमति में मैं ने सिर हिला दिया. वह सामान सैट करने लगा. तीनों ही बहुत थके हुए थे. काफी देर यों ही चुपचाप बैठे रहे और आतेजाते लोगों को देखते रहे.

धीरेधीरे स्टेशन पर खड़ी ट्रेनें एकएक कर अपनेअपने गंतव्य की ओर जा रही थीं. यात्रियों की भीड़ भी छंट रही थी. कुछ समय बाद कुछ ही लोग नजर आ रहे थे वहां. अनजान, सुनसान उस जगह पर बैठी मैं मन ही मन फिर घबराने लगी थी. जो जगह 8 बजे ही इतनी सुनसान लग रही है तो रात साढ़े 11 बजे उस का स्वरूप कैसा होगा, कल्पनामात्र से ही डर रही थी मैं.

कुछ ही देर में वहां 2 युवक आए, कुछ क्षण चारों ओर देखा, फिर हमारी बैंच के समीप ही अपना सामान रखने लगे. एक दृष्टि उन पर डाली. गौरवर्ण, छोटीछोटी आंखें और गोल व भरा सा चेहरा…वहां के स्थानीय लोग लग रहे थे. सामान के नाम पर 2 बड़े बोरे थे जिन का मुंह लाल रंग की प्लास्टिक की डोरी से बंधा था. एक बक्सा स्टील का, पुराने समय की याद दिलाता सा. एक सरसरी नजर उन्होंने हम पर डाली, आंखों ही आंखों में इशारों से कुछ बातचीत की, और दोनों बोरे ठीक हमारी बैंच के पीछे सटा कर लगा दिए. बक्से को अवधेश की ओर रख कर तेजी से वे दोनों वहां से चले गए.

वे दोनों कुछ संदिग्ध लगे. मेरा मन किसी बुरी आशंका से डरने लगा, ‘अब क्या होगा,’ सोचतेसोचते कब मेरी कल्पना के घोड़े दौड़ने लगे, पता नहीं. क्या होगा इन बोरों में? कहीं बम तो नहीं? दोनों पक्के बदमाश लग रहे थे. सामान छोड़ कर कोई यों ही नहीं चला जाता. पक्का, इस में बम ही है. बस, अब धमाका होगा. घबराहट में हाथपांव शिथिल  हो रहे थे. बस दौड़ रहे थे तो मेरी कल्पना के बेलगाम घोड़े. कल सुबह के समाचारपत्रों की हैडलाइंस मुझे आज, इसी क्षण दिखाई दे रही थीं… ‘सिमलगुड़ी रेलवे स्टेशन पर कल रात हुए तेज बम धमाकों में कई लोग घायल, कुछ की स्थिति गंभीर.’ हताहतों की सूची में अपना नाम सब से ऊपर दिख रहा था. प्रकाशजी का गमगीन चेहरा, रोतेबिलखते रिश्तेदार और न जाने क्याक्या. पिछले 10 सैकंड में आने वाले 24 घंटों को दिखा दिया था मेरी कल्पना ने.

‘‘मां, देखो, वेइंग मशीन,’’ नीति की आवाज मुझे विचारों की दुनिया से बाहर खींच लाई. कहां थी मैं? मानो ‘टाइम मशीन’ में बैठी आने वाले समय को देख रही थी और यहां दोनों बच्चे बड़े ही कौतूहल से इस छोटे से स्टेशन का निरीक्षण कर रहे थे. कुछ आश्वस्त हुई मैं. घबराहट भी कम हो गई. कुछ उत्तर दे पाती नीति को, उस से पहले ही अवधेश बोला, ‘‘कभी देखी नहीं है क्या? हर स्टेशन पर तो होती हैं ये. वैसे भी अब तो ये आउटडेटेड हो चुकी हैं. इलैक्ट्रौनिक स्केल्स आ जाने से अब इन्हें कोई यूज नहीं करता.’’

सच ही तो कहा उस ने. हर रेलवे स्टेशन पर लालपीलीनीली जलतीबुझती बत्तियों वाली बड़ीबड़ी वजन नापने की मशीनें होती ही हैं. मानो उन के बिना स्टेशन की तसवीर ही अधूरी है. फिर भी किसी फिल्म के चरित्र कलाकार की भांति वे पार्श्व में ही रह जाती हैं, आकर्षण का केंद्र नहीं बन पातीं. किंतु जब हम छोटे बच्चे थे, हमारे लिए ये अवश्य आकर्षण का केंद्र होती थीं. कितनी ही बार पापा से 1 रुपए का सिक्का ले कर मशीन पर अपना वजन मापा करते थे. वजन से अधिक हम बच्चों को लुभाते थे टोकन के पीछे लिखे छोटेछोटे संदेश ‘अचानक धन लाभ होगा’, ‘परिश्रम करें सफलता मिलेगी’, ‘कटु वचनों से परहेज करें’ आदिआदि.

ऐसा ही एक संदेश मुझे आज भी याद है, ‘बुरी संगति छोड़ दें, अप्रत्याशित सफलता मिलेगी.’ मेरा बालमन कई दिनों तक इसी ऊहापोह में रहा कि मेरी कौन सी सहेली अच्छी नहीं है जिस का साथ छोड़ देने से मुझे अप्रत्याशित सफलता मिलेगी, 10वीं की बोर्ड की परीक्षा जो आने वाली थी. खैर, मेरी हर सखी मुझे अतिप्रिय थी. और यदि बुरी होती भी तो मित्रता के मूल्य पर मुझे सफलता की चाह नहीं थी. काफी ‘इमोशनल फूल’ थी मैं या हूं. शायद, इस बार टाइममशीन के ‘पास्ट मोड’ में चली गई थी मैं.

‘‘मां, आप के पास टू रुपीज का कौइन है?’’ नीति की खिचड़ी भाषा ने तेजी से मेरी तंद्रा भंग कर दी.

‘‘कितनी बार कहा है नीति, तुम्हारी इस खिचड़ी भाषा से मुझे बड़ी कोफ्त होती है. अरे, हिंदी बोल रही हो तो ठीक से तो बोलो,’’ मैं झुंझला रही थी, ‘‘पता नहीं, यह आज की पीढ़ी अपनी भाषा तक ठीक से नहीं बोलती,’’ अवधेश मेरी झुंझलाहट पढ़ पा रहा था, बोला, ‘‘अरे मां, आजकल यही हिंगलिश चलती है, आप की जैसी भाषा सुन कर तो लोग ताकते ही रह जाते हैं, कुछ समझ नहीं आता उन्हें. आप भी थोड़ा मौडर्न लिंगो क्यों यूज नहीं करतीं?’’ और दोनों भाईबहन ठहाका मार कर हंसने लगे. मन कुछ हलका सा हो गया.

‘‘अच्छा बाबा, मुझे माफ करो तुम दोनों. मैं ठीक हूं अपने …’’

मेरे वाक्य पूरा करने से पहले ही दोनों एकसाथ बोले, ‘‘प्राचीन काल में,’’ और फिर हंसने लगे.

तभी मैं ने देखा वे दोनों युवक वापस आ रहे थे. हमारे समीप ही वे दोनों अपने सामान पर पांव फैला कर बैठ गए. उन को एकदम अनदेखा करते हुए हम चुपचाप इधरउधर देखने लगे. खैर, कुछ देर सब शांत रहा. फिर वे दोनों अपनी भाषा में वार्त्तालाप करने लगे. एक बात थी, उन की भाषा, बोली, उन का मद्धिम स्वर, सब बड़े ही मीठे थे. मैं चुपचाप समझने का प्रयास करती रही. शायद, उन का ‘प्लान’ समझ आ जाए पर कुछ पल्ले नहीं पड़ा. आसपास देखा तो स्टेशन पर कम ही लोग थे. गुवाहाटी के लिए खड़ी ट्रेन में अधिकांश लोग यहीं से चढ़े थे. ट्रेन चली गई. एक अजीब सी नीरवता पसर गई थी.

सामने सीढि़यों से उतरते हुए एक सज्जन, कंधे पर टंगा बैग और हाथ में एक बंधा हुआ बोरा लिए इस ओर ही आ रहे थे. 2 बंधे बोरे मेरे पास ही पड़े थे. ‘शायद बोरों में ही सामान भर कर ले जाते हैं ये लोग,’ मैं ने सोचा. तभी वे रुके, जेब से कुछ निकाला और तेजी से हमारी ओर बढ़ने लगे. मैं सतर्क हो गई. पर मेरा संदेह निर्मूल था. वे तो हाथ में एक सिक्का लिए, बड़े ही उत्साह से वजन मापने की मशीन की ओर जा रहे थे. अपना बैग, बोरा नीचे रख धीमे से वे मशीन पर खड़े हो गए. जलतीबुझती बत्तियों के साथ जैसे ही लालसफेद चकरी रुकी वैसे ही उन्होंने सिक्का अंदर डाल दिया जिस की गिरने की आवाज हम ने भी सुनी. अब वे सज्जन बड़ी ही आशा व उत्साह से मशीन के उस भाग को अपलक निहार रहे थे जहां से वजन का टोकन बाहर आता है. 15-20 सैकंड गुजर गए किंतु कुछ नहीं निकला.

पास बैठे युवकों में से एक ने शरारत भरे स्वर में पूछा, ‘‘की होल दादा?’’ यानी क्या हुआ भाईसाहब. सज्जन ने आग्नेय नेत्रों से पीछे पलट कर देखा पर बोले कुछ नहीं. कुछ समय और गुजरा. टोकन को बाहर न आना था, न आया. दोनों युवक मुंह दबा कर हंस रहे थे. हम तीनों मांबच्चों को कुछ समझ नहीं आया कि हो क्या रहा है.

सिक्का व्यर्थ ही खो देने का दुख था, अपना वजन न देख पाने की हताशा या फिर आसपास के लोगों के उपहास का केंद्र बन जाने की खिसियाहट, इन में से जाने कौन सी भावना के चलते उन्होंने मशीन को भरपूर मुक्का और लात जड़ दी और तेजी से अपना सामान उठा चलते बने. अब की बार दोनों युवकों के साथ नीति व अवधेश भी जोर से हंस पड़े.

एक युवक मेरी ओर देखते हुए बोला, ‘‘बाइडो.’’ तभी दूसरे ने उसे हिंदी में बोलने को कहा.

‘‘दीदीजी, यह मशीन मैं 4 बरस से देख रहा हूं,’’ सिक्का लहराते हुए उस ने कहा.

दूसरा बोला, ‘‘हां दीदीजी, हर महीने काम के सिलसिले में 4-5 बार यहां से आनाजाना होता है, पर हम ने इस को काम करते कभी नहीं देखा. लोग सिक्का डालडाल कर इस में दुखी होते रहते हैं.’’

दूसरे युवक की हिंदी पहले युवक से अच्छी थी. दोनों ही हंसहंस कर लोटपोट हुए जा रहे थे.

भय कुछ कम होने लगा. मैं ने उन के नाम पूछे.

‘‘मुकुटनाथ,’’ पहले ने कहा.

‘‘और मेरा, टुनटुन हाटीकाकोटी,’’ दूसरा बेला.

हम तीनों ही हंस पड़े. नीति ने पूछा, ‘‘अंकल, आप तो इतने स्लिम हो फिर टुनटुन नाम क्यों रखा गया आप का?’’

वह समझा नहीं. तब मैं ने बताया कि टुनटुन नाम की एक बहुत मोटी हास्य अभिनेत्री थी, और ‘टुनटुन’ शब्द मोटापे व मसखरेपन का पर्याय ही था हमारे लिए. यह जान कर वह भी मुसकरा दिया.

मैं ने गौर किया, अवधेश थोड़ा सजग हो सीधा बैठ गया था. इतनी जल्दी वह किसी अजनबी से घुलतामिलता नहीं था, शायद अपने पापा की हिदायतें उसे याद हो आई थीं, ‘स्टेशन पर किसी अजनबी से बहुत बात मत करना, एक जगह बैठे रहना, सामान को ध्यान से रखना, कोई पूछे तो कहना कि हम यहीं के हैं. यह पूछने का साहस हम ने कभी नहीं किया कि हमारी शक्लें, बोलीभाषा क्या हमारा परिचय नहीं दे देतीं? आजकल मीठीमीठी बातें कर के लोग दोस्त बन जाते हैं और मौका पाते ही चोरी कर नौ दो ग्यारह हो जाते हैं. सीधेसादे लोगों को वे दूर से ही पहचान लेते हैं.

प्रकाशजी के लिए सारी दुनिया में हम से अधिक सीधासादा (कहना शायद वे बेवकूफ चाहते थे पर कह नहीं पाते थे) और कोई न था और हर व्यक्ति बस हमें ठग लेने की प्रतीक्षा में ही बैठा था. खीज तो बहुत होती थी पर मैं इन सब से…पर एक पति और पिता होने के नाते उन का यह अति सुरक्षात्मक रवैया मैं अच्छी तरह समझती भी थी.

एक और हिदायत याद हो आई, ‘स्टेशन पर पहुंचते ही फोन कर देना, मैं इंतजार करूंगा.’

‘ओह, यहां पहुंचे हुए तो डेढ़ घंटा बीत चुका है, वहां वे प्रतीक्षा कर रहे होंगे,’ मैं ने अवधेश को याद दिलाया. इधरउधर नजर दौड़ाई कोई पीसीओ नजर नहीं आया, मोबाइल की बैटरी दिन में ‘डाउन’ हो चुकी थी. दोनों बच्चे चुप हो गए. अपने पापा के स्वभाव को जानते थे. समय पर काम नहीं हुआ तो पारा सातवें आसमान पर चढ़ जाता था.

मुकुटनाथ हमें अचानक यों चुप देख कर बोला, ‘‘क्या हुआ, दीदीजी? आप परेशान लग रही हैं.’’

‘‘ऐसी तो कोई बात नहीं, बस घर पर फोन करना था पर कोई बूथ नजर नहीं आ रहा,’’ मैं ने कहा.

‘‘एक टैलीफोन बूथ है तो, किंतु दूर है, स्टेशन के बाहर.’’

पति के क्रोध का कुछ ऐसा डर था कि आव देखा न ताव, पर्स से पैसे निकाले और अवधेश को मुकुटनाथ के साथ भेज दिया. चैन की एक लंबी सांस ली मैं ने. सच, कितनी अच्छाइयां थीं प्रकाशजी में. एक बहुत ही परिश्रमी और सैल्फमेड व्यक्ति थे, कोई दुर्व्यसन नहीं, चरित्रवान और बहुत ही और्गेनाइज्ड… किंतु उन का शौर्ट टैंपर्ड होना, बातबेबात कहीं पर भी चिल्ला देना, सभी अच्छाइयों को धूमिल बना जाता था. बच्चे भी उन से डरते थे.

तकरीबन 10 मिनट गुजर चुके थे अवधेश को मुकुटनाथ के साथ गए. अचानक जैसे मैं नींद से जागी, ‘यह मैं ने क्या किया? बच्चे को एक अजनबी के साथ भेज दिया. अभी कुछ समय पहले जो मुझे संदेहास्पद लग रहे थे उन के साथ?’ कलेजा मुंह को आने का अनुभव उसी क्षण हुआ मुझे. ‘कहीं अवधेश को अपने साथ तो नहीं भगा ले गया वह?’ कल्पना के घोड़े फिर से दौड़ने को तत्पर थे. ‘क्या अवधेश को किडनैप कर लिया है उन्होंने? फिरौती मांगेंगे या कहीं अपने उग्रवादी संगठन में जबरन भरती कर लेंगे. मेरा बच्चा उस संगठन की यूनिफौर्म पहने, माथे पर काली पट्टी और हाथ में स्टेनगन लिए नजर आ रहा था मुझे.’

‘‘मां, कहां खो गईं आप?’’ नीति मेरा कंधा झकझोर रही थी, ‘‘आप का चेहरा अचानक पीला क्यों पड़ गया? तबीयत ठीक है?’’

वह क्या समझती कि कैसा झंझावात चल रहा था भीतर, ‘‘कहां जाऊं, क्या करूं, क्या शोर मचाऊं, कुछ समझ नहीं आ रहा था, क्या मैं भी बाहर जा कर देखूं?’’ पर नीति को एक अन्य अजनबी के साथ छोड़ कर जाने का दुस्साहस नहीं हुआ. यह बेवकूफी मैं ने कैसे कर दी, कोस रही थी स्वयं को मैं.

बाहर से शांत रहने का असफल प्रयास करती मैं देख रही थी, नीति कैसे टुनटुन नाम के उस युवक के साथ खिलखिला रही थी, मशीन पर आनेजाने वालों और उन की प्रतिक्रियाओं पर. उस क्षण उस का वह खिलखिलाना मुझे बेहद अखर रहा था. मन किया कि डांट कर चुप करा दूं. किंतु छठी इंद्रिय संयत रहने को कह रही थी. नीति को बता रहा था टुनटुन कि वह बच्चों को तबला बजाना सिखाता है. और उस का अपना एक म्यूजिकल ग्रुप भी है जो पार्टियों में या अन्य समारोहों में जाता है.

‘‘अंकल, और क्याक्या करते हैं आप?’’ नीति ने पूछा.

‘‘मेरी एक ‘बिहूटोली’ है, बिहू के समय वह घरघर जाती है, गाने गाती है, ‘बिहू’ करती है. पिछले साल फर्स्ट प्राइज भी जीता था हमारी बिहूटोली ने,’’ बड़े उत्साह से वर्णन कर रहा था वह इस बात से अनभिज्ञ कि मैं भीतर ही भीतर क्रोध से धधक रही हूं. अपने क्रोध को दबाते हुए तल्खी भरे स्वर से मैं ने पूछा, ‘‘नाचतेगाते ही हो या कुछ कामधाम भी करते हो?’’

‘‘हां दीदीजी, मैं ने इसी बरस पौलिटैक्निक की परीक्षा पास की है,’’ वह बड़ी विनम्रतापूर्वक बोला.

‘‘और तुम्हारा वह मुकुटनाथ?’’

‘‘दीदीजी, वह चाय की फैक्टरी में काम करता है, त्योहारों में ‘भाओना’ में काम करता है,’’ मेरी कड़वाहट को भांपते हुए वह धीरेधीरे सौम्यता से उत्तर दे रहा था.

‘‘भाओना क्या होता है?’’ नीति ने उत्सुकतापूर्वक पूछा.

‘‘धार्मिक नाटक होता है…’’

नीति बीच में ही बोल पड़ी, ‘‘हांहां अंकल, हमारे होम टाउन में भी होती है ‘रामलीला,’ मैं ने भी देखी है.’’

यहां के लोगों के कलाप्रेमी होने के विषय में मैं जानती थी, किंतु इस वक्त संगीतवंगीत, कलावला सब व्यर्थ की चीजें जान पड़ रही थीं. एक मन हुआ कि उस का गला पकड़ कर चीखचीख कर पूछूं, ‘कहां है मेरा बच्चा? कहां ले गया तुम्हारा साथी उसे?’ क्रोध से जन्मे पागल पशु की नकेल मैं भीतर कस के पकड़े थी. किंतु रहरह कर मेरे स्वर की तल्खी बढ़ जाती.

पूरे 25 मिनट हो गए थे अवधेश को गए. खैर, मेरा संयत रहना ठीक रहा. सामने से अवधेश आ रहा था मुकुटनाथ के साथ. आंखें छलछलाने को हो गईं. फिर संयत किया स्वयं को, कैसे पब्लिक में हम सभ्य समाज के सदस्य अपने इमोशंस को दिखाएं. लोग क्या सोचेंगे, यह फिक्र पहले हो जाती है.

‘‘इतनी देर कहां लगा दी, अवधेश?’’ भारी सा था मेरा गला.

‘‘कहां मां, देर तो नहीं हुई, यह तो मुकुट दादा शौर्टकट से ले गए वरना और समय लग जाता. हां, पापा से बात हो गई. इसलिए अब आप रिलैक्स हो जाइए. ओ के.’’

‘‘ठीक है, बेटे,’’ मन ही मन सोच रही थी मुकुटदादा, यह कैसे? फिर उस से कहा, ‘‘तुम्हारा बहुतबहुत धन्यवाद, मुकुटनाथ.’’

‘‘अरे दीदीजी, धन्यवाद किसलिए,’’ शरमा कर बोला वह.

धीरेधीरे उन से बातों की शृंखला जो जुड़ी तो जुड़ती चली गई. दोनों बच्चे उन से घुलमिल गए थे.

उन दोनों युवकों के प्रति मेरे मन में जो कलुषता आ गई थी उसे साफ करने का प्रयास कर रही थी मैं. सच, हम पढ़ेलिखे शहरी लोग महानगरों के कंक्रीट जंगलों में रहतेरहते वैसे ही बन जाते हैं, कंक्रीट जैसे सख्त. किंतु वहां हुए कुछ कटु अनुभव हमें विवश कर देते हैं सरलता छोड़ वक्र हो जाने पर.

निस्वार्थ जैसा शब्द तो महानगरों में अपना अस्तित्व कब का खो चुका था. किसी को निस्वार्थ भाव से या उदारता दिखाते कुछ कार्य करता देख लोग उस की प्रशंसा की जगह उस पर संदेह ही करते हैं. ‘यह कुछ जरूरत से ज्यादा अच्छा बनने की कोशिश कर रहा है, आखिर क्यों? जरूर अपना कोई उल्लू सीधा करना होगा. छोटे गांवों और कसबों में यह निश्छलता अब भी है,’ ये सब सोचते हुए स्वयं पर ग्लानि हो आई.

अब हम और हम से 4 बैंच छोड़ कर एक और परिवार रात को आने वाली इंटरसिटी की प्रतीक्षा कर रहा था. अभी डेढ़ घंटा और बाकी था. प्लेटफौर्म पर डिब्रूगढ़ की ओर जाने वाली गाड़ी आ गई थी. यहां से कोई नहीं चढ़ा. 15 मिनट बाद वह चली गई.

बच्चे टुनटुन और मुकुटनाथ के साथ मिल कर मशीन पर आनेजाने वालों को देख कर अपना मनोरंजन कर रहे थे. सामने से एक स्मार्ट युवक आ रहा था मशीन की ओर. नीति की धीमी आवाज में ‘रनिंग कमैंट्री’ शुरू हो गई. टुनटुन भी साथ दे रहा था.

‘‘हां तो दादा, बैग नीचे रखा?’’

‘‘हां, रखा.’’

‘‘मशीन पर चढ़ा?’’

‘‘हां जी, चढ़ गया.’’

‘‘चरखी रुकी?’’

‘‘बिलकुल नीति बेबी.’’

‘‘सिक्का डाला.’’

‘‘हां, डाल रहा है.’’

‘‘बस, अब यह फंसा…अब देखो क्या होता है?’’

टोकन न आने के कारण मशीन  पर चढ़ा युवक बेचैन हो रहा था. ऊपर खड़ेखड़े ही उस ने जोरों से लैफ्टराइट करना शुरू कर दिया कि शायद झटके से कहीं फंसा हुआ टोकन नीचे आ जाए.

कुछ समय बाद बेहद खीज गया वह और मशीन को दाएंबाएं ढोलक की तरह बजाने लगा. अचानक गश्त करते एक सिपाही को देख मशीन से उतर गया. ज्यों ही सिपाही आगे गया, एक भरपूर किक मशीन को रसीद कर दी उस ने. चारों ओर घूम के भी देखा, कहीं कोई साक्ष्य तो नहीं उस के शौर्य का. तुरंत हम ने मुंह घुमा लिए. हंसी से लोटपोट हुए जा रहे थे हम सभी. ऐसे ही कितने आए, कितने गए. मशीन सभी के सिक्के लीलती रही. किसी को कृतार्थ नहीं किया उस ने हंसतेहसंते समय कैसे निकल गया, पता ही नहीं चला. कहां थी मैं, इस अनजान सुनसान प्लेटफौर्म पर, रात के 11 बजे, अनजाने लोग अनजानी जगह. फिर भी घबराहट नहीं, कोई डर नहीं.

‘‘दीदीजी, आप की इंटरसिटी लग गई, देखिए,’’ टुनटुन ने कहा, ‘‘अब आप का सामान गाड़ी में रख देते हैं.’’

‘‘अरे, हम रख लेंगे, आप रहने दीजिए,’’ औपचारिकतावश मैं ने कहा.

बगल में मुकुटनाथ अपनी बोरी को खोल कर उस में से कुछ निकाल रहा था. मेरे पास आया और 2 खाकी भूरे से कागज के बडे़बड़े पैकेट मेरी ओर बढ़ाते हुए बोला, ‘‘दीदीजी, यह चायपत्ती है, जहां मैं काम करता हूं न उसी फैक्टरी की. आप को अच्छी लगेगी, ले लीजिए.’’

‘‘अरे नहींनहीं, मुझे नहीं चाहिए,’’ मैं ने पीछे होते हुए कहा.

‘‘ले लीजिए न, दीदीजी,’’ उस ने अनुनय की.

मैं अब मना नहीं कर सकी और पैसे निकालने के लिए पर्स खोलने लगी.

‘‘अरे दीदीजी, नहींनहीं,’’ हाथ जोड़ कर उस ने कहा, ‘‘अपनी दीदीजी से हम पैसा कैसे ले सकते हैं,’’ और तेजी से हमारा सामान उठा कर चल दिया.

टुनटुन और मुकुटनाथ दोनों ने हमारी  सीट के नीचे हमारा सारा सामान सैट कर दिया था. गाड़ी छूटने का समय हो चला था. टुनटुन नीचे उतरा और 2 मिनट बाद फिर हमारे पास आया. पानी की 2 बोतलें और बिस्कुट के पैकेट ले कर. नीति को थमाते हुए वह बोला, ‘‘रात को बच्चों को प्यास लगेगी, दीदीजी, और अब तो रात बहुत हो गई है, कोई पानी वाला, चाय वाला इस समय गाड़ी में नहीं मिलेगा.’’

‘‘ठीक है भैया, अब तुम लोग जाओ,’’ मैं ने कहा.

गाड़ी सरकने लगी थी. ‘नहींनहीं, अंकल’, सुन कर बच्चों की ओर देखा तो पाया मुकुटनाथ दोनों की हथेलियों पर 10-10 रुपए का नोट रख रहा था, ‘‘टौफी खाना, बाबू, ठीक है,’’ उन के सिरों पर हाथ रख कर वह जाने लगा.

‘‘अरे, यह क्या,’’ मैं कुछ और कहती इस से पहले वे नीचे उतर चुके थे.

दोनों बच्चे भावविभोर थे. उन 10-10 रुपए की ‘फेस वैल्यू’ चाहे जो भी हो, इस क्षण में वे नोट नीति व अवधेश के लिए अमूल्य थे. दोनों नीचे खड़े हुए बच्चों को हाथ हिला कर बाय कर रहे थे. ट्रेन धीरेधीरे आगे बढ़ रही थी. मैं ने पाया कि हाथ हिलातेहिलाते दूसरे हाथ से अपनी आंखें भी पोंछ रहे थे. ‘हैं, इतना स्नेह’ मैं विश्वास नहीं कर पा रही थी. अपने बच्चों की आंखों में भी उदासी साफ देख पा रही थी मैं. बात बदलने के उद्देश्य से बेटे से पूछा, ‘‘इन लोगों की ट्रेन कितने बजे की है, मैं ने तो पूछा भी नहीं?’’

भारी स्वर में अवधेश बोला, ‘‘मां, उन को तो डिब्रूगढ़ की ट्रेन पकड़नी थी जो हम से काफी पहले आ गई थी, लेकिन उन्होंने मिस कर दिया उसे.’’

मैं हैरान थी. ‘‘पर क्यों?’’

‘‘हमारे लिए मां. जब मैं फोन करने उन के साथ गया था तो उन्हें बताया था कि हम पहली बार यहां आए हैं. शायद उन्होंने भांप लिया था कि आप नई जगह पर अकेले घबरा रही हैं. मुकुटदादा ने बोला कि आप सब को ट्रेन में बिठा कर वे स्टेशन के बाहर से डिब्रूगढ़ की बस पकड़ लेंगे. सच, मां, यकीन नहीं होता, इतने अच्छे लोग भी होते हैं.’’

अवाक् थी मैं. आंखें धुंधला गईं. कब मैं उन की ‘दीदीजी’ बन गई थी, पता ही नहीं चला. कैसे बन गए थे वे मेरे आत्मीय, मेरे अपने से अजनबी.

मेरी पत्नी का मुझसे ज्यादा मेरे दोस्त से अट्रैक्शन है, कहीं वह मुझे छोड़ कर चली न जाए, मैं क्या करूं?

सवाल
मेरी शादी को 2 साल हुए हैं लेकिन मेरी पत्नी का मुझ से ज्यादा मेरे दोस्त से अट्रैक्शन है. वह मुझ से बोलती भी है कि तुम्हें अच्छे से रहना नहीं आता जबकि मैं ने उसे शादी से पहले ही बता दिया था कि मैं बहुत साधारण हूं. मुझे इस बात से अंदर ही अंदर घुटन महसूस हो रही है कि कहीं वह मुझे छोड़ कर चली न जाए. मैं उसे बहुत प्यार करता हूं?

जवाब
जिस तरह लड़के इच्छा रखते हैं कि उन की पत्नी बनठन कर रहे, उसी तरह लड़कियों की भी इच्छा रहती है कि उन का पति हैंडसम दिखे ताकि हर कोई उन की तारीफ करे.

यही आप की पत्नी के साथ भी हुआ है कि वे आप के साधारण रहनसहन के कारण दोस्तों के बीच खुद को काफी नीचा महसूस करने के चलते आप के दोस्त के मौडर्न लुक की तरफ आकर्षित हो रही हैं. वैसे किसी के लुक को पसंद करना कोई बुरी बात नहीं है लेकिन उस के कारण आप की उपेक्षा करना बिलकुल भी सही नहीं है जबकि आप उन्हें शादी से पहले ही बता चुके थे कि आप को साधारण रहनसहन पसंद है.

आप अपनी पत्नी को प्यार से समझाएं कि अब तुम्हारी शादी हो गई है और इस तरह की हरकतें शादी के बाद शोभा नहीं देतीं. और रही लुक की बात, तो मैं खुद को बदलने के लिए भी तैयार हूं.

फिर भी उसे समझ न आए, तो सख्ती का रुख अपनाएं ताकि भविष्य में आप इस के खतरनाक परिणामों से बच सकें और इस बात से बिलकुल न घबराएं कि वह आप को छोड़ कर चली जाएगी. आप ने तो उस से सच्चा रिश्ता निभाया है, अगर वह आप की कद्र न करे तो आप उस की चिंता में खुद को दुखी न करें.

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‘‘अरे वाह देवरजी, तुम तो एकदम मुंबइया हीरो लग रहे हो,’’ सुशीला ने अपने चचेरे देवर शिवम को देख कर कहा.

‘‘देवर भी तो तुम्हारा ही हूं भाभी. तुम भी तो हीरोइनों से बढ़ कर लग रही हो,’’ भाभी के मजाक का जवाब देते हुए शिवम ने कहा.

‘‘जाओजाओ, तुम ऐसे ही हमारा मजाक बना रहे हो. हम तो हीरोइन के पैर की धूल के बराबर भी नहीं हैं.’’

‘‘अरे नहीं भाभी, ऐसा नहीं है. हीरोइनें तो  मेकअप कर के सुंदर दिखती हैं, तुम तो ऐसे ही सुंदर हो.’’

‘‘अच्छा तो किसी दिन अकेले में मिलते हैं,’’ कह कर सुशीला चली गई.

इस बातचीत के बाद शिवम के तनमन के तार झनझना गए. वह सुशीला से अकेले में मिलने के सपने देखने लगा.

नाजायज संबंध अपनी कीमत वसूल करते हैं. यह बात लखनऊ के माल थाना इलाके के नबी पनाह गांव में रहने वाले शिवम को देर से समझ आई.

शिवम मुंबई में रह कर फुटकर सामान बेचने का काम करता था. उस के पिता देवेंद्र प्रताप सिंह किसान थे.

गांव में साधारण सा घर होने के चलते शिवम कमाई करने मुंबई चला गया था. 4 जून, 2016 को वह घर वापस आया था.

शिवम को गांव का माहौल अपना सा लगता था. मुंबई में रहने के चलते वह गांव के दूसरे लड़कों से अलग दिखता था. पड़ोस में रहने वाली भाभी सुशीला की नजर उस पर पड़ी, तो दोनों में हंसीमजाक होने लगा.

सुशीला ने एक रात को मोबाइल फोन पर मिस्ड काल दे कर शिवम को अपने पास बुला लिया. वहीं दोनों के बीच संबंध बन गए और यह सिलसिला चलने लगा.

कुछ दिन बाद जब सुशीला समझ गई कि शिवम पूरी तरह से उस की गिरफ्त में आ चुका है, तो उस ने शिवम से कहा, ‘‘देखो, हम दोनों के संबंधों की बात हमारे ससुरजी को पता चल गई है. अब हमें उन को रास्ते से हटाना पड़ेगा.’’ यह बात सुन कर शिवम के पैरों के नीचे से जमीन खिसक गई.

सुशीला इस मौके को हाथ से जाने नहीं देना चाहती थी. वह बोली, ‘‘तुम सोचो मत. इस के बदले में हम तुम को पैसा भी देंगे.’’

शिवम दबाव में आ गया और उस ने यह काम करने की रजामंदी दे दी.

नबी पनाह गांव में रहने वाले मुन्ना सिंह के 2 बेटे थे. सुशीला बड़े बेटे संजय सिंह की पत्नी थी. 5 साल पहले संजय और सुशीला की शादी हुई थी.

सुशीला उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले के महराजगंज थाना इलाके के मांझ गांव की रहने वाली थी. ससुराल आ कर सुशीला को पति संजय से ज्यादा देवर रणविजय अच्छा लगने लगा था. उस ने उस के साथ संबंध बना लिए थे.

दरअसल, सुशीला ससुराल की जायदाद पर अकेले ही कब्जा करना चाहती थी. उस ने यही सोच कर रणविजय से संबंध बनाए थे. वह नहीं चाहती थी कि उस के देवर की शादी हो.

इधर सुशीला और रणविजय के संबंधों का पता ससुर मुन्ना सिंह और पति संजय सिंह को लग चुका था. वे लोग सोच रहे थे कि अगर रणविजय की शादी हो जाए, तो सुशीला की हरकतों को रोका जा सकता है.

सुशीला नहीं चाहती थी कि रणविजय की शादी हो व उस की पत्नी और बच्चे इस जायदाद में हिस्सा लें.

लखनऊ का माल थाना इलाका आम के बागों के लिए मशहूर है. यहां जमीन की कीमत बहुत ज्यादा है. सुशीला के ससुर के पास  करोड़ों की जमीन थी.

सुशीला को पता था कि ससुर मुन्ना सिंह को रास्ते से हटाने के काम में देवर रणविजय उस का साथ नहीं देगा, इसलिए उस ने अपने चचेरे देवर शिवम को अपने जाल में फांस लिया.

12 जून, 2016 की रात मुन्ना सिंह आम की फसल बेच कर अपने घर आए. इस के बाद खाना खा कर वे आम के बाग में सोने चले गए. वे पैसे भी हमेशा अपने साथ ही रखते थे.

सुशीला ने ससुर मुन्ना सिंह के जाते ही पति संजय और देवर रणविजय को खाना खिला कर सोने भेज दिया. जब सभी सो गए, तो सुशीला ने शिवम को फोन कर के गांव के बाहर बुला लिया.

शिवम ने अपने साथ राघवेंद्र को भी ले लिया था. वे तीनों एक जगह मिले और फिर उन्होंने मुन्ना सिंह को मारने की योजना बना ली.

उन तीनों ने दबे पैर पहुंच कर मुन्ना सिंह को दबोचने से पहले चेहरे पर कंबल डाल दिया. सुशीला ने उन के पैर पकड़ लिए और शिवम व राघवेंद्र ने उन को काबू में कर लिया.

जान बचाते समय मुन्ना सिंह चारपाई से नीचे गिर गए. वहीं पर उन दोनों ने गमछे से गला दबा कर उन की हत्या कर दी.

मुन्ना सिंह की जेब में 9 हजार, 2 सौ रुपए मिले. शिवम ने 45 सौ रुपए राघवेंद्र को दे दिए. इस के बाद वे तीनों अपनेअपने घर चले गए.

सुबह पूरे गांव में मुन्ना सिंह की हत्या की खबर फैल गई. उन के बेटे संजय और रणविजय ने माल थाने में हत्या का मुकदमा दर्ज कराया. एसओ माल विनय कुमार सिंह ने मामले की जांच शुरू की.

पुलिस ने हत्या में जायदाद को वजह मान कर अपनी खोजबीन शुरू की. मुन्ना सिंह की बहू सुशीला पुलिस को बारबार गुमराह करने की कोशिश कर रही थी.

पुलिस ने जब मुन्ना सिंह के दोनों बेटों संजय और रणविजय से पूछताछ की, तो वे दोनों बेकुसूर नजर आए.

इस बीच गांव में यह पता चला कि सुशीला के अपने देवर रणविजय से नाजायज संबंध हैं. इस बात पर पुलिस ने सुशीला से पूछताछ की, तो उस की कुछ हरकतें शक जाहिर करने लगीं.

एसओ माल विनय कुमार सिंह ने सीओ, मलिहाबाद मोहम्मद जावेद और एसपी ग्रामीण प्रताप गोपेंद्र यादव से बात कर पुलिस की सर्विलांस सैल और क्राइम ब्रांच की मदद ली.

सर्विलांस सैल के एसआई अक्षय कुमार, अनुराग मिश्रा और योगेंद्र कुमार ने सुशीला के मोबाइल को खंगाला, तो  पता चला कि सुशीला ने शिवम से देर रात तक उस दिन बात की थी.

पुलिस ने शिवम का फोन देखा, तो उस में राघवेंद्र का नंबर मिला. इस के बाद पुलिस ने राघवेंद्र, शिवम और सुशीला से अलगअलग बात की.

सुशीला अपने देवर रणविजय को हत्या के मामले में फंसाना चाहती थी. वह पुलिस को बता रही थी कि शिवम का फोन उस के देवर रणविजय के मोबाइल पर आ रहा था.

सुशीला सोच रही थी कि पुलिस हत्या के मामले में देवर रणविजय को जेल भेज दे, तो वह अकेली पूरी जायदाद की मालकिन बन जाएगी, पर पुलिस को सच का पता चल चुका था.

पुलिस ने तीनों को साथ बिठाया, तो सब ने अपना जुर्म कबूल कर लिया.

14 जून, 2016 को पुलिस ने राघवेंद्र, शिवम और सुशीला को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया. वहां से उन तीनों को जेल भेज दिया गया.

सुशीला अपने साथ डेढ़ साला बेटे को जेल ले गई. उस की 4 साल की बेटी को पिता संजय ने अपने पास रख लिया.

जेल जाते समय सुशीला के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी. वह शिवम और राघवेंद्र पर इस बात से नाराज थी कि उन लोगों ने यह क्यों बताया कि हत्या करते समय उस ने ससुर मुन्ना सिंह के पैर पकड़ रखे थे.

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लैंडर : क्या आकांक्षी अपने सपने की उड़ान भरने में कामयाब हो पाई?

एक हलचल भरे महानगर के शांत कोनों में, शहर की रोशनी की चमक और जीवन की निरंतर खलबली से दूर एक विशाल गोदाम सा दिखने वाला क्षेत्र था. दूर से ही सुरक्षा बाड़ा शुरू हो जाता था और बड़ेबड़े अक्षरों में उस के बाहर लिखा था, “प्रवेश वर्जित”. सिर्फ अंदर काम करने वाले वैज्ञानिकों और अभियांत्रिकों को ही पता था कि इस विशाल गोदाम के भीतर क्या चल रहा है.

आकांक्षी नाम की एक युवती अंतरिक्ष वैज्ञानिक का पदभार यहां संभाले हुए थी. उस का दिल अंतरिक्ष को समर्पित हो चुका था, और आत्मा ब्रह्मांड के अज्ञात रहस्यों से घिर गई थी. उस के सपने उसे पृथ्वी की सीमाओं से बहुत दूर ले गए थे. अपनी हर सांस के साथ, वह चंद्रमा की मिट्टी की सुगंध लेती थी और जब चाहे तब आंखें मूंद कर अंतरिक्ष की भारहीनता को महसूस करती थी.

आकांक्षी की यात्रा गरमियों की रात में, चमकते सितारों से सजे आकाश के नीचे शुरू हुई. एक बच्ची के रूप में, वह अकसर अपने अति साधारण से दिखने वाले घर की छत पर लेटी रहती थी, उस की आंखें ऊपर प्रकाश के टिमटिमाते बिंदुओं पर टिकी रहती थीं. उस के मातापिता उसे घर के अंदर आने के लिए धीरे से डांटते थे, लेकिन कोई भी चीज उसे चमकते सितारों के दिव्य चमत्कार से दूर नहीं कर सकती थी मानो अंतरिक्ष उसे बुला रहा हो.

साल बीतते गए और उस का जुनून और भी मजबूत होता गया. अपने विरुद्ध खड़ी देहाती बाधाओं के बावजूद जहां गांव वाले स्त्री शिक्षा के खिलाफ थे, आकांक्षी ने शहर में कालेज, बाद में यूनिवर्सिटी और फिर देश के प्रतिष्ठित अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान में अपनी जगह बनाने के लिए संघर्ष किया. लेकिन अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में उस का प्रवेश खुले दिल से नहीं किया गया. अंतरिक्ष अनुसंधान क्षेत्र भी पुरुष प्रधान क्षेत्र था. सैकड़ों विभागों में हजारों तकनीशियन, इंजीनियर और वैज्ञानिक कार्यरत थे, जिन में से पुरुष बहुसंख्यक थे. अपने क्षेत्र की कुछ महिलाओं में से वह एक थी. पहले तो उसे दुर्गम बाधा की तरह लगा, लेकिन जब उस ने अपने पुरुष सहकर्मियों का मित्रतापूर्ण आचरण देखा, तो धीरेधीरे अपने नए माहौल में पूरी तरह से घुलमिल गई और बेफिक्र हो गई.

अनुसंधान केंद्र में आकांक्षी ने खुद को एक ऐसे प्रोजैक्ट पर कड़ी मेहनत करते हुए पाया, जिस में चंद्रमा के बारे में मानवता की समझ को फिर से परिभाषित करने की क्षमता थी. एक चंद्रमा मिशन क्षितिज पर था, और उस ने चंद्रमा की सतह को छूने वाले लैंडर के लिए प्रमुख प्रौद्योगिकियों को विकसित करने की चुनौती ली थी. यह एक कठिन काम था, लेकिन उस की आंखों में शोध और अन्वेषण की ज्वाला जल उठी.

चंद्रमा मिशन के लिए लैंडर विकसित करने के लिए इस विशाल गोदामनुमा जगह को चुना गया. सुरक्षित और सफल लैंडिंग सुनिश्चित करने के लिए उन्नत प्रौद्योगिकियों के संयोजन के साथसाथ चंद्रमा की सतह पर वैज्ञानिक प्रयोग और डेटा संग्रह करने की क्षमता की आवश्यकता होती है.

आकांक्षी ने सब से पहले लैंडर के प्रोपल्शन सिस्टम पर काम करना शुरू किया. लैंडर के उतरने को धीमा करने और चंद्रमा की सतह पर नियंत्रित लैंडिंग प्राप्त करने के लिए एक विश्वसनीय प्रोपल्शन सिस्टम आवश्यक होगा. विभिन्न प्रणोदन विधियों का उपयोग किया जा सकता है, जैसे कि तरल या ठोस राकेट इंजन, थ्रस्टर्स या यहां तक कि हरित प्रणोदन प्रणाली जैसी नवीन प्रौद्योगिकियां जो गैरविषैले प्रणोदक का उपयोग करती हैं. इन में से किस को चुनना है? और क्यों? जिस को भी चुनना है, उस की तर्कसंगतता रिपोर्ट में जाहिर करनी पडेगी.

अंत में काफी कैलकुलेशन के पश्चात आकांक्षी ने तरल इंजन चुना और विस्तार से अपनी रिपोर्ट लिखी. अपनी रिपोर्ट में उस ने इस बात पर जोर दिया कि चंद्रयान-2 की असफलता की वजह थी कि लैंडर को सभी दिशाओं में कंट्रोल करने वाले थ्रस्टर नहीं थे, इसीलिए चंद्रयान-3 के लैंडर में जरूर होने चाहिए. इस के लिए उस ने लैंडर-3 पर लेजर डौप्लर वेलोसीमीटर लगाने का सुझाव दिया.

मिशन ग्रुप हेड को ये सुझाव इतने अच्छे लगे कि आकांक्षी को उन्होंने लैंडर टीम का चीफ घोषित कर दिया. आकांक्षी मानो हवा में उड़ रही हो.

चीफ बनाए जाने पर आकांक्षी ने तुरंत अपना ध्यान मार्गदर्शन, नेविगेशन और नियंत्रण (जीएनसी) प्रणाली पर केंद्रित किया. जीएनसी प्रणाली लैंडर के उतरने और उतरने के दौरान सटीक नेविगेशन और नियंत्रण सुनिश्चित करती थी. यह लैंडर की स्थिति निर्धारित करने और वास्तविक समय में इस के प्रक्षेप पथ को समायोजित करने के लिए एक्सेलेरोमीटर, जायरोस्कोप और अल्टीमीटर जैसे सेंसर का उपयोग करती थी.

आकांक्षी जीएनसी प्रणाली बनाने के अपने काम में डूब गई, तो दिन धुंधले हो कर रात में बदल गए. प्रयोगशाला उस का अभयारण्य बन गई, और समीकरणों और प्रयोगों का जटिल नृत्य उस की भाषा बन गई. वह अकसर समय का ध्यान खो देती थी, खुद को केवल दृढ़ संकल्प पर टिकाए रखती.

चंद ही हफ्तों में वह लैंडर के लैंडिंग गियर की डिजाइन स्टेज पर पहुंच गई. चंद्रमा की सतह पर लैंडिंग के प्रभाव को अवशोषित करने के लिए लैंडर को मजबूत लैंडिंग गियर की आवश्यकता होती है. इन प्रणालियों में आकांक्षी ने अपनी टीम के अलगअलग सदस्यों को शौक अवशोषक, कुचलने योग्य संरचनाएं, और कुछ को नवीन तंत्र डिजाइन करने के लिए कहा, जो लैंडिंग के बाद लैंडर के लिए चंद्रमा की सतह पर एक स्थिर मंच प्रदान कर सकें.

पृथ्वी पर मिशन नियंत्रण के साथ संपर्क बनाए रखने और चंद्रमा की सतह से एकत्र किए गए वैज्ञानिक डेटा और छवियों को प्रसारित करने के लिए एक विश्वसनीय संचार प्रणाली आवश्यक थी.

आकांक्षी ने अपनी टीम के सदस्यों को कुशल डेटा ट्रांसमिशन सुनिश्चित करने के लिए उच्च आवृत्ति रेडियो सिस्टम या यहां तक कि औप्टिकल संचार सिस्टम का उपयोग भी करने के लिए कहा. सभी डिपार्टमेंट के ग्रुप हेड, संचार प्रणाली की प्रगति और नायाब तरीके अपनाने से बेहद प्रसन्न थे.

लेकिन पूरा समय गोदाम में गुजारने से आकांक्षी का निजी जीवन कक्षा से बाहर गिरते उपग्रह की तरह ढहने लगा. मित्रताएं धूमिल हो गईं, चिंतित परिवार के सदस्यों के फोन काल अनुत्तरित हो गए, और सितारों के लिए जो प्यार उस के मन में था, वह एक दूर की स्मृति जैसा महसूस होने लगा. अकेलेपन का बोझ उस के कंधों पर भारी पड़ गया, फिर भी वह आगे बढ़ती रही, उस की आंखें चंद्रमा की सतह पर खूबसूरती से उतरते एक लैंडर के दृश्य पर टिकी रहीं. टीम मीटिंग ले कर आगंतुक और वरिष्ठ, सभी इंजीनियर और वैज्ञानिकों को उस ने बताया कि चंद्रमा की सतह अत्यधिक तापमान, और लंबे समय तक अंधेरे, दोनों का अनुभव करती है, जिस से बिजली उत्पादन और भंडारण महत्वपूर्ण हो जाता है. सूर्य से बिजली उत्पन्न करने के लिए सौर पैनलों को तैनात किया जा सकता है, और चंद्र रातों के दौरान लैंडर के उपकरणों को संचालित करना सुनिश्चित करने के लिए उन्नत बैटरी सिस्टम या अन्य ऊर्जा भंडारण समाधान की आवश्यकता होगी. अगले एक महीने तक पूरी टीम इसी काम में लगी रही.

अगले चरण में थर्मल नियंत्रण प्रणाली बनाते समय आकांक्षी को अप्रत्याशित हार का सामना करना पडा. चंद्र तापमान दिन और रात के बीच काफी भिन्न हो सकता है, इसलिए लैंडर के संवेदनशील उपकरणों को उन के औपरेटिंग तापमान सीमा के भीतर रखने के लिए एक प्रभावी थर्मल नियंत्रण प्रणाली आवश्यक है. इंसुलेशन, रेडिएटर और हीट सिंक गरमी के प्रवाह को प्रबंधित करने में मदद करते हैं. लेकिन प्रयोगशाला में दिनरात प्रयोग करने के बावजूद रेडिएटर अत्यधिक गरम होता रहा, हीट सिंक गलती रही और इंसुलेशन फटता रहा. हताशा और निराशा के क्षण थे. असफल प्रयोगों और असफलताओं ने उस की क्षमताओं पर सवाल खड़े कर दिए. सफल होने का दबाव उस पर हावी हो गया, जिस से उस चिंगारी के बुझने का खतरा पैदा हो गया, जिस ने कभी उस के सपनों को हवा दी थी. लेकिन अंधेरे के बीच आशा की एक किरण उभरी. टीम के सदस्यों ने मिल कर अपना काम बांटा और अंत में एक अच्छी थर्मल नियंत्रण प्रणाली डिजाइन कर ली, जो चंद्रमा के तापमान के भारी अंतर को सह सके.

आकांक्षी के सामने अगली बाधा तब उत्त्पन्न हुई, जब वह वैज्ञानिक उपकरण बनाने लगी. लैंडर के पेलोड में वैज्ञानिक उपकरणों का एक सेट शामिल करना था, जो प्रयोग करने और चंद्रमा की सतह, भूविज्ञान, वायुमंडल और अन्य घटनाओं के बारे में डेटा इकट्ठा करने के लिए डिजाइन किया जाए. इन उपकरणों में कैमरे, स्पेक्ट्रोमीटर, ड्रिल, सिस्मोमीटर और बहुतकुछ शामिल हो सकते थे. इन सब में तो आकांक्षी को महारत नहीं थी, इसीलिए संपर्कों का तांता लग गया. शोधपत्रों के विशाल ढेर लग गए. वैज्ञानिक उपकरण बनाने के लिए मशीनरी की गड़गड़ाहट के बीच, आकांक्षी को समर्थन का एक अप्रत्याशित स्रोत मिला. इस क्षेत्र के अनुभवी, 70 वर्षीय डा. कृष्णन को अहमदाबाद से बुलाया गया. उन्होंने आकांक्षी की क्षमता को पहचाना और उस के द्वारा सामना किए गए संघर्षों को देखा.

डा. कृष्णन आकांक्षी के गुरु बन गए, और परियोजना द्वारा प्रस्तुत चुनौतियों के माध्यम से उस का मार्गदर्शन किया. उन के मार्गदर्शन में आकांक्षी लैंडर पर सभी उपकरण लगाने में सफल हुई.

अब यह सोचना था कि लैंडर पर नमूना संग्रह किस प्रकार का हो, कैसे और कहां लगाया जाए. यदि मिशन में चंद्रमा की सतह से नमूने एकत्र करने हैं, तो भविष्य में पृथ्वी पर वापसी के लिए नमूने इकट्ठा करने और संग्रहीत करने के लिए लैंडर रोबोटिक हथियार, ड्रिल या स्कूप जैसे तंत्र से लैस हो सकता है.

डा. कृष्णन ने थकी हुई आंखों के पीछे छिपे प्रतिभाशाली दिमाग को देखा और जाना कि सितारों को भी अपनी सब से चमकीली चमक के लिए अंधेरे की जरूरत होती है. उन्होंने आकांक्षी को नमूना संग्रह तंत्र पर काम करने से मना कर दिया और कहा कि आने वाले किसी और चंद्र मिशन में इस काम को आगे बढाए. उन्होंने उसे याद दिलाया कि महानता आसान रास्तों और आसान जीत से नहीं, बल्कि संघर्ष और बाधाओं के बावजूद आगे बढ़ने के दृढ़ संकल्प से पैदा होती है. उन के मार्गदर्शन से, आकांक्षी ने अपने जीवन में संतुलन ढूंढना शुरू कर दिया, बिना अपराध बोध के आराम के क्षणों को अपनाना सीखा और अपनी प्रयोगशाला से परे दुनिया की सुंदरता में सांत्वना तलाशना सीखा.

डा. कृष्णन के उत्साहित किए जाने से आकांक्षी ने एक बार फिर तरोताजगी महसूस की. लैंडिंग साइट चयन सौफ्टवेयर के लिए शहर के दूसरे कोने पर स्थित सौफ्टवेयर सेंटर में सौफ्टवेयर बनवाया. मिशन से पहले, सुरक्षा और उच्चतम वैज्ञानिक मूल्य सुनिश्चित करने के लिए संभावित लैंडिंग साइटों का विस्तृत विश्लेषण किया जाने वाला सौफ्टवेयर बनवाया. उन्नत सौफ्टवेयर का उपयोग विभिन्न लैंडिंग परिदृश्यों को मौडल करने और इलाके, सतह संरचना और वैज्ञानिक लक्ष्यों जैसे कारकों के आधार पर इष्टतम साइट का चयन करने के लिए किया. पूरे सौफ्टवेयर को चंद्रमा के दक्षिण ध्रुवीय इलाके के लिए टेस्ट किया. यह बात वह नहीं भूली थी कि चंद्रयान-2 की विफलता सौफ्टवेयर ग्लिच के कारण ही हुई थी.

कठोर चंद्र वातावरण और अंतरिक्ष अभियानों की जटिलता के कारण, अतिरेक और विश्वसनीयता महत्वपूर्ण हैं, यह बात डा. कृष्णन को अपने अनेकों वर्ष के अनुभवी जीवन से अच्छे से ज्ञात थी. यह सुनिश्चित करने के लिए उन्होंने आकांक्षी को सिस्टम को डुप्लीकेट करने के लिए कहा कि यदि कोई सिस्टम विफल हो जाता है, तो बैकअप सिस्टम निर्बाध रूप से काम संभाल सके.

आकांक्षी ने प्रवेश, अवतरण और लैंडिंग (ईडीएल) प्रणाली पर काम करने के लिए पूरी टीम इकट्ठा की. ईडीएल प्रणाली अंतरिक्ष से चंद्रमा की सतह तक लैंडर के संक्रमण का प्रबंधन करने के लिए थी. इस में वायुमंडलीय प्रवेश के लिए सुरक्षात्मक हीट शील्ड, नियंत्रित वंश के लिए पैराशूट या रेट्रोप्रोपल्शन और सुरक्षित टचडाउन के लिए लैंडिंग तंत्र के लिए अपनी टीम को मार्गदर्शन दिया. टीम में अनेक सदस्य थे, जो चंद्रयान-2 के लिए यह काम कर चुके थे.

आकांक्षी ने उन से भी सीखा और उन्हें अपनी ओर से लैंडर-3 में जो भी परिवर्तन करने चाहिए, उन का सुझाव देने के लिए कहा.

चंद्रयान-2 की स्वायत्त प्रणाली वाली टीम ने अलग से यह प्रणाली तैयार कर ली. पृथ्वी और चंद्रमा के बीच संचार में देरी के कारण चंद्रमा लैंडर अकसर स्वायत्त रूप से काम करते थे. मिशन के महत्वपूर्ण चरणों के दौरान वास्तविक समय पर निर्णय लेने के लिए उन्नत एल्गोरिदम और एआई सिस्टम नए तौर पर आकांक्षी ने लैंडर-3 के लिए लगाए. टीम को उस ने समझाया कि पिछले कई वर्षों में एआई में तीव्र उन्नति हुई है और हमें नए सिरे से लैंडर-3 पर एआई अल्गोरिथम लगाने चाहिए.

जैसेजैसे चंद्रमा मिशन नजदीक आता गया, आकांक्षी का समर्पण और दृढ़ता रंग लाने लगी. सफलताएं मिलीं, हर सफलता उस की अटूट प्रतिबद्धता का प्रमाण. और लैंडर अंततः तैयार हो गया. उस के परिश्रम और जुनून का उत्कृष्ट नमूना. उसे एहसास हुआ कि उस ने जो यात्रा की थी, वह केवल चंद्रमा तक पहुंचने के बारे में नहीं थी. यह अपने भीतर की ताकत की खोज करने के बारे में थी, यह साबित करने के बारे में थी कि सपने गुरुत्वाकर्षण को चुनौती दे सकते हैं और सितारों से भरे दिल वाली एक युवा महिला ब्रह्मांड के माध्यम से अपना रास्ता खुद बना सकती है.

लौंच के दिन, जब दुनिया की सांसें रुकी हुई थीं, आकांक्षी अपने सहकर्मियों के बीच खड़ी थी, उस के दिल में प्रत्याशा और घबराहट भरी उत्तेजना थी. लैंडर, जो उस के बलिदान और विजय का प्रतीक था, चंद्रमा की गोद में जाने की अपनी यात्रा पर निकल पड़ा. जब उस ने राकेट को अपनी आत्मा के टुकड़े के साथ आसमान में गायब होते देखा, तो उस की आंखों में आंसू आ गए.

हफ्तों बाद खबर आई कि लैंडर सफलतापूर्वक चंद्रमा पर उतर गया है. इस से प्रसारित छवियां लुभावनी थीं और आकांक्षी का हृदय गर्व से फूल गया.

आकांक्षी ने इस मिशन को साकार करने में अहम भूमिका निभाई थी. लेकिन दुनिया जो नहीं देख सकी, वह अनगिनत रातें थीं, जो उस ने अपनी प्रयोगशाला की मंद चमक में, समीकरणों और संदेहों से जूझते हुए बिताई थीं.

मिशन की सफलता ने आकांक्षी के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ ला दिया. अपनी प्रतिष्ठा मजबूत होने के साथ उस ने महत्वाकांक्षी वैज्ञानिकों की एक नई पीढ़ी को प्रेरित करना शुरू कर दिया, विशेषकर युवा महिलाओं को, जो उसे दृढ़ता और उपलब्धि के प्रतीक के रूप में देखती थीं. और जैसेजैसे साल बीतते गए, आकांक्षी सितारों तक पहुंचती रही, न केवल अपने काम में बल्कि अच्छी तरह से जीवन जीने की कोशिश में भी. उस ने जान लिया कि ब्रह्मांड मानव आत्मा की तरह ही विशाल और अज्ञात है. जिस तरह उस ने अंतरिक्ष विज्ञान की चुनौतियों का सामना किया था, उसी तरह उसे अपने दिल के इलाकों को नेविगेट करने और अपनी महत्वाकांक्षाओं और अपनी भलाई के बीच संतुलन खोजने के महत्व का पता चला. और शांत क्षणों में, जब शहर की रोशनी कम हो जाती थी, तब भी वह अपनी छत पर छिप जाती थी, उन्हीं सितारों को देखती रहती थी, जिन्होंने उस की उल्लेखनीय यात्रा में उस का मार्गदर्शन किया था.

कंजक्टिवाइटिस आंखों का एक सामान्य रोग

कंजक्टिवाइटिस है तो आंखों की साधारण बीमारी, लेकिन लापरवाही बरतने पर इस से आंखों की रोशनी भी जा सकती है. इस बीमारी में यदि सावधानी बरती जाए तो यह एकदो हफ्ते में स्वत: ही ठीक भी हो जाती है. कुल मिला कर इस बीमारी में सफाई का ध्यान रखना सब से आवश्यक है. आंख संबंधी बीमारियों में से एक है कंजक्टिवाइटिस. यह एक सामान्य संक्रामक रोग है. यदि इस का समय पर उपचार न किया जाए तो इस से आंखों की रोशनी भी जा सकती है. कंजक्टिवाइटिस को साधारण बोलचाल की भाषा में ‘आंख आना’ भी कहते हैं. वैसे तो यह रोग कभी भी हो सकता है, लेकिन बरसात के बाद इस के होने का खतरा अधिक रहता है. कंजक्टिवाइटिस हर आयुवर्ग वालों को हो सकता है.

कंजक्टिवाइटिस के कई प्रकार होते हैं. यह बैक्टीरियल और वायरल इंफैक्शन से भी हो सकता है. बैक्टीरियल कंजक्टिवाइटिस पहले एक आंख में होती है फिर दूसरी आंख इस की चपेट में आती है. इस के विपरीत वायरल इन्फैक्शन से उत्पन्न कंजक्टिवाइटिस एकसाथ दोनों आंखों में भी हो सकता है. कंजक्टिवाइटिस धूल, मिट्टी, कैमिकल, धुआं और शैंपू की एलर्जी के कारण भी होता है. कंजक्टिवाइटिस के कुछ लक्षण प्रमुख हैं, आंखें लाल होना, उन में सूजन, दर्द और खुजली होना, आंखों से निरंतर चिपचिपा पानी निकलते रहना, धुंधला दिखाई देना, सोने के बाद उठने पर पलकें चिपक जाना. शुरुआत में ये लक्षण दोनों में से किसी एक आंख में दिखाई देते हैं, लेकिन धीरेधीरे दूसरी आंख में भी नजर आने लगते हैं.

इस बीमारी का प्रकोप 1 से 2 सप्ताह तक रहता है. यदि सावधानी बरती जाए तो बिना उपचार के ही 15 दिन में यह बीमारी ठीक हो सकती है, लेकिन इस में सफाई और सावधानी बरतना हर किसी के बस की बात नहीं है. इसलिए बेहतर होगा कि नेत्र चिकित्सक से परामर्श ले कर दवा डालें. कंजक्टिवाइटिस होने पर आंखों में दवा सावधानी से डालें. यदि घर में एक से अधिक सदस्यों को यह बीमारी है तो सभी एक ही ड्रौपर से दवा न डालें और न ही इसे आंखों से छुआएं. इसी प्रकार संक्रमित व्यक्ति का तौलिया, रूमाल, तकिया आदि भी इस्तेमाल न करें.

इस बीमारी में आंखों में खुजली होती है, लेकिन आंखें खुजलानी नहीं चाहिए. बारबार मसलने से आंखों के अंदरूनी हिस्सों को नुकसान पहुंच सकता है. यदि सावधानी नहीं बरती गई तो आंखों के भीतर घाव भी हो सकते हैं. कंजक्टिवाइटिस होने पर सावधानी और सतर्कता बरतनी जरूरी है. यदि संभव हो तो स्कूल, कालेज, औफिस आदि से छुट्टी ले लें, ताकि अन्य लोग इस की चपेट में आने से बच सकें. बीमारी पूरी तरह ठीक होने तक दिन में हर 2 घंटे में एक बार साफ पानी से अपनी आंखें धोएं. यदि आंखों में दर्द हो तो डाक्टर द्वारा दी गई दवा या ड्रौप का इस्तेमाल करें. चाहें तो कपड़े को हलका गरम कर के आंखों पर रख कर सिंकाई कर सकते हैं. चूंकि इस बीमारी से आंखों में खुजली और जलन होती है और पानी भी निकलता है. अत: आंखों को धोने, पोंछने, खुजलाने के बाद अपने हाथ साबुन से अवश्य धोएं.

जब भी घर से बाहर निकलें काला चश्मा अवश्य पहनें, ताकि तेज रोशनी की चुभन आंखों में महसूस न हो. साथ ही यह ध्यान रहे कि दूसरे व्यक्ति आप के चश्मे का इस्तेमाल न करें. कंजक्टिवाइटिस से पीडि़त व्यक्ति दिन में बारबार अपने हाथों को साबुन से धोएं. यदि आप कौंटैक्ट लैंस का इस्तेमाल करते हैं, तो बेहतर होगा कि बीमारी ठीक होने तक उस के बजाय चश्मा पहनें. यदि आंखों की पलकें आपस में चिपक गई हों तो रूई को गीला कर के धीरेधीरे साफ करें. कंजक्टिवाइटिस के दौरान किसी भी तरह के कौस्मैटिक्स का इस्तेमाल करने से बचें. यदि आप खेलने, तैराकी करने व मौर्निंगवौक का शौक रखते हैं तो ठीक होने तक ये सब न करना ही ठीक है. इस दौरान सामाजिक मेलमिलाप से भी बचना चाहिए. खासतौर पर किसी स्वस्थ व्यक्ति से हाथ न मिलाएं अन्यथा उसे भी इस का संक्रमण हो सकता है.

सास भी कभी बहू थी

सुमित्रा की आंखें खुलीं तो देखा कि दिन बहुत चढ़ आया था.  वह हड़बड़ा कर उठी. अभी सास की तीखी पुकार कानों में पड़ेगी. ‘अरी ओ महारानी, आज उठना नहीं है क्या? घर का इतना सारा काम कौन निबटाएगा? इतनी ही नवाबी थी तो अपने मायके से एकआध नौकर ले कर आना था न.’

फिर उन का बड़बड़ाना शुरू हो जाएगा. ‘उंह, इतने बच्चे जन कर धर दिए. इन को कौन संभालेगा? इन का बाप सारी चिंता छोड़ कर परदेस में जा बैठा है. जाने कौन सी पढ़ाई है शैतान की आंत की तरह जो खत्म ही नहीं हो रही और अपने परिवार को ला पटका मेरे सिर. हम पहले ही अपने झंझटों से परेशान हैं. अपनी बीमारियों से जूझ रहे हैं, अब इन को भी देखो.’

सुमित्रा झटपट तैयार हो कर रसोई की ओर दौड़ी. पहले चाय बना कर घर के सब सदस्यों को पिलाई. फिर अपने बच्चों को स्कूल के लिए तैयार किया. उन का नाश्ता पैक कर के दिया. उन्हें स्कूल की बस में चढ़ा कर लौटी तो थक कर निढाल हो गई थी.

अभी तक उस ने एक घूंट चाय तक न पी थी. सच पूछो तो उसे चाय पीने की आदत ही न थी. बचपन से ही वह दूध की शौकीन थी. उस के मायके में घर में गायभैंसें बंधी रहती थीं. दहीदूध की इफरात थी.

जब वह ब्याह कर ससुराल आई तो उस ने डरतेडरते अपनी सास से कहा था कि उसे चायकौफी की आदत नहीं है. उसे दूध पीना अच्छा लगता है.

 

सास ने मुंह बना कर कहा था, ‘‘दूध किसे अच्छा नहीं लगेगा भला. लेकिन शहरों में दूध खरीद कर पीना पड़ता है. यहां तुम्हारे ससुर की तनख्वाह में दूध वाले का बिल चुकाना भारी पड़ता है. बालबच्चों को दूध मिल जाए तो वही गनीमत समझो.’’

उस के बाद सुमित्रा की फिर मुंह खोलने की हिम्मत न हुई थी. उस ने कमर कस ली और काम में लग गई. घर में महाराजिन थी पर जब वह काम से नागा करती तो सुमित्रा को उस का काम संभालना पड़ता था. महरी नहीं आई तो सब सुमित्रा का मुंह जोहते रहते और वह झाड़ू ले कर साफसफाई में जुट जाती. घर में कई सदस्य थे. एक बेटी थी जो अपने परिवार के साथ मायके में ही जमी हुई थी उस का पति घरजमाई था और सास का बेहद लाड़ला था.

सुमित्रा के अलावा 2 देवरदेवरानियां भी थीं पर वे बहुएं बड़े घर से आई थीं और सास की धौंस की वे बिलकुल परवा न करती थीं. तकरीबन रोज ही वे खापी, बनठन कर सैरसपाटे को चल देतीं. कभी मल्टी प्लैक्स सिनेमाघर में फिल्म देखतीं तो कभी चाटपकौड़ी खातीं.

सुमित्रा का भी बड़ा मन करता था कि वह घूमेफिरे पर इस शौक के लिए पैसा चाहिए था और वह उस के पास न था. उस का पति डाक्टरी पढ़ने के लिए लंदन यह कह कर गया था, ‘तुम कुछ दिन यहीं मेरे मातापिता के पास रहो. तकलीफ तो होगी पर थोड़े ही समय के लिए. एफआरसीएस की पढ़ाई पूरी होगी और नौकरी लग जाएगी, मैं तुम लोगों को ले जाऊंगा और फिर हमारे दिन फिर जाएंगे.’

सुमित्रा मान गई थी. इस के सिवा और कोई चारा भी तो न था. बच्चों की पढ़ाई की वजह से उस का शहर में रहना अनिवार्य था. उन के भविष्य का सोच कर वह तंगी में अपने दिन काट रही थी. सासससुर ने एक मेहरबानी कर दी थी कि उसे अपने बच्चों समेत अपने घर में शरण दी थी. लेकिन वे उसे हाथ पे हाथ धरे ऐश करने नहीं दे सकते थे. सास तो हाथ धो कर उस के पीछे पड़ी रहतीं. दिनभर उस के ऊपर आदेशों के कोड़े दागती रहतीं.

वे उस के लिए खोजखोज कर काम निकालतीं. वह जरा सुस्ताने बैठती कि उन की दहाड़ सुनाई देती, ‘अरी बहू, थोड़ी सी बडि़यां उतार ले. खूब कड़ी धूप है.’ या ‘थोड़ा सा आम का अचार बना ले.’ उन्हें लगता कि बेटा एक पाई तो भेजता नहीं, कम से कम बहू से ही घर का काम करवा कर थोड़ीबहुत बचत कर ली जाए तो क्या बुराई है. इस महंगाई के जमाने में चारचार प्राणियों को पालना कोई हंसीखेल तो था नहीं.

महीने में एक दिन सुमित्रा को छुट्टी मिलती कि वह पास ही के गांव में अपने मातापिता से मिल आए. उस के बच्चे इस अवसर का बड़ी बेसब्री से इंतजार करते. चलते वक्त उस की सास उस के हाथ में बस के टिकट के पैसे पकड़ातीं और कहतीं, ‘वापसी का किराया अपने मांबाप से ले लेना.’

साल में एक बार बच्चों की स्कूल की छुट्टियों में सुमित्रा को अपने मायके जाने की अनुमति मिलती थी. वे दिन उस के लिए बड़ी खुशी के होते. गांव की खुली हवा में वह अपने बच्चों समेत खूब मौजमस्ती करती. अपने बच्चों के साथ वह खुद भी बच्चा बन जाती. वह घर के एक काम को हाथ न लगाती. बातबात पर ठुनकती. थाली में अपनी पसंद का खाना न देख कर रूठ जाती. उस के मांबाप उस की मजबूरियों को जानते थे. उस की तकलीफ का उन्हें अंदाजा था.

वे उस का मानमनुहार करते. यथासाध्य उस की मदद करते. चलते वक्त उस के और बच्चों के लिए नए कपड़े सिलवा देते. सुमित्रा को भेंट में एकआध छोटामोटा गहना गढ़वा देते.

जब वह मांबाप की दी हुई वस्तुएं अपनी सास को दिखाती तो वे अपना मुंह सिकोड़ कर कहतीं, ‘बस इतना सा ही दिया तुम्हारे मांबाप ने? यह जरा सी मिठाई तो एक ही दिन में चट कर जाएंगे ये बच्चे. और ये साड़ी? हुंह, लगती तो नहीं कि असली जरी की है. और यह गहना, महारानी, यह मेरी बेटी को न दिखाना वरना वह मेरे पीछे पड़ जाएगी कि उसे भी मैं ऐसा ही हार बनवा दूं और यह मेरे बस का नहीं है.’

सुमित्रा को लाचारी से अपना हार बक्से में बंद कर के रखना पड़ता और बातें वह बरदाश्त कर लेती थी पर जब खानेपीने के बारे में उस की सास तरफदारी करती तो उस के आंसू बरबस निकल आते. घर में जब भी कोई अच्छी चीज बनती तो पहले ससुर और बेटों के हिस्से में आती. फिर बच्चों को मिलती. कभीकभी ऐसा भी होता कि मिठाई या अन्य पकवान खत्म हो जाता और सुमित्रा के बच्चे निहारते रह जाते, उन्हें कुछ न मिलता. सुमित्रा के मायके से कभी भूलाभटका कोई सगा संबंधी आ जाता तो उसे कोई पानी तक को न पूछता और यह बात उसे बहुत अखरती थी.

एक बार सुमित्रा बुखार में तप रही थी. उसे बहुत कमजोरी महसूस हो रही थी. कमरे में दिनभर पड़े रहने पर भी किसी ने उस का हाल तक जानने की कोशिश न की थी. जब उस से रहा न गया तो वह धीरेधीरे चल कर रसोई तक आई.

‘‘मांजी,’’ उस ने कहा, ‘‘एक गिलास दूध मिलेगा क्या? मुझ से अब खड़ा भी नहीं रहा जाता.’’

‘‘दूध?’’ सास ने मुंह बिचका कर कहा, ‘‘अरी बहू, यहां दूध अंजन लगाने तक तो मिलता नहीं, तुम गिलासभर दूध की फरमाइश कर रही हो. कहो तो थोड़ी कड़क चाय बना दूं.’’

‘‘नहीं, रहने दीजिए.’’

उस के मातापिता को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने आग्रह कर के उस के घर एक गाय भेज दी.

‘‘अरे बाप रे, यह क्या बहू, इस गाय का सानीपानी कौन करेगा? इस उम्र में मुझ से ये सब न होगा.’’

‘‘आप चिंता न करें, मांजी, मैं सब कर लूंगी.’’

‘‘ठीक है, जो करना हो करो. लेकिन एक बात बताए देती हूं कि घर में गाय आई है तो दूध सभी को मिलेगा. यह नहीं हो सकता कि तुम दूध सिर्फ अपने बच्चों के लिए बचा कर रखो.’’

‘‘ठीक है, मांजी,’’ सुमित्रा ने बेमन से सिर हिलाया.

घर के काम के अलावा गाय की सानीपानी कर के वह बुरी तरह थक जाती थी. पर और कोई इलाज भी तो न था. दिन गिनतेगिनते वह घड़ी भी आ पहुंची जब उस का पति रजनीश लंदन से वापस लौट आया. आते ही उस की नियुक्ति मुंबई के एक बड़े अस्?पताल में हो गई और वह अपने परिवार को ले कर चला गया.

कुछ साल सुमित्रा के बहुत सुख से बीते. समय मानो पंख लगा कर उड़ चला. बच्चे बड़े हो गए. बड़ी 2 बेटियों की शादी हो गई. बेटे ने वकालत की पढ़ाई कर ली और उस की प्रैक्टिस चल निकली.

एक दिन दिल की धड़कन रुक जाने से अचानक रजनीश का देहांत हो गया. सुमित्रा पर फिर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा.

धीरेधीरे वह अपने दुख से उबरी. उस ने फिर से अपना उजड़ा घोंसला समेटा. अब घर में केवल वह और उस का बेटा कुणाल रह गए थे. सुमित्रा उस के पीछे पड़ी कि वह शादी कर ले, ‘‘अकेला घर भांयभांय करता है. तेरा घर बस जाएगा तो मैं अपने पोतेपोतियों से दिल बहला सकूंगी.’’

‘‘क्यों मां, हम दोनों ही भले हैं. किसी और की क्या जरूरत. अपने दिन मजे में कट रहे हैं.’’

‘‘नहीं बेटा, ऐसा नहीं कहते. समाज का नियम है तो मानना ही पड़ेगा. सही समय पर तेरी शादी होनी जरूरी है नहीं तो लोग तरहतरह की बातें बनाएंगे. और मुझे भी तो बुढ़ापे में थोड़ा आराम की जरूरत है. तेरी पत्नी आ कर अपनी गृहस्थी संभाल लेगी तो मैं चैन से जी सकूंगी.’’

कुणाल थोड़े दिन टालता रहा पर जब शहर के एक अमीर खानदान की बेटी ज्योति का रिश्ता आया तो वह मना नहीं कर सका. जब उस ने ज्योति को देखा

तो देखता ही रह गया. अपार धनराशि के साथ इतना अच्छा रूप मानो सोने पे सुहागा.

सुमित्रा ने जरा आपत्ति की, ‘‘शादी हमेशा बराबर वालों में ही ठीक होती है. वे लोग बहुत पैसे वाले हैं.’’

‘‘तो क्या हुआ, मां. हमें उन के पैसों से क्या लेनादेना?’’

‘‘बहू बहुत ठसके वाली हुई तो? नकचढ़ी हुई तो?’’

‘‘यह कोई जरूरी नहीं उसे अपने पैसे का घमंड हो. आप बेकार में मन में वहम मत पालो. और सोचो यदि गरीब घर की लड़की हुई तो वह अपने परिवार की समस्याएं भी साथ लाएंगी. हमें उन से भी जूझना पड़ेगा.’’

सुमित्रा ने हथियार डाल दिए.

‘‘वाह सुमित्रा तेरे तो भाग खुल गए,’’ उस की सहेलियां खुश हो रही थीं, ‘‘बहू मिली खूब सुंदर और साथ में दहेज इतना लाई है कि तेरा घर भर गया.’’

सुमित्रा भी बड़ी खुश थी. पर धीरेधीरे उसे लगने लगा कि उस का भय दुरुस्त था.

ज्योति मांबाप की लाड़ली, नाजों से पली बेटी थी. वह बातबात पर बिगड़ती, रूठ जाती, अपनी मनमानी न होने पर भूख हड़ताल कर देती, मौनव्रत धारण कर लेती, कोपभवन में जा बैठती और घर में सब के हाथपांव फूल जाते. कुणाल हमेशा बीवी का मुंह जोहता रहता था. और सुमित्रा को भी सदा फिक्र लगी रहती कि पता नहीं किस बात को ले कर बहू बिदक जाए और घर की सुखशांति भंग हो जाए.

 

बहू के हाथों घर की बागडोर सौंप कर सुमित्रा यह सोच कर निश्चिंत हो गई कि अब वह अपने सब अरमान पूरे करेगी. वह भी अपनी हमउम्र स्त्रियों की तरह पोतीपोते गोद में खिलाएगी, घूमेगीफिरेगी, मन हुआ तो किट्टी पार्टी में भी जाएगी, ताश भी खेलेगी. अब उसे कोई रोकनेटोकने वाला न था. अब वह अपनी मरजी की मालिक थी, एक आजाद पंछी की तरह.

 

कुछ दिन चैन से बीते पर शीघ्र  ही उसे अपने कार्यक्रम पर पूर्णविराम लगाना पड़ा. ज्योति ने अनभ्यस्त हाथों से घर चलाने की कोशिश तो की पर उसे किफायत से घर चलाने का गुर मालूम न था. वह एक बड़े घर की बेटी थी. महीनेभर चलने वाला राशन 15 दिन में ही खत्म हो जाता. नौकरचाकर अलग लूट मचाए रहते थे. आएदिन घर में छोटीमोटी चोरी करते और चंपत हो जाते.

हार कर सुमित्रा को फिर से गृहस्थी अपने जिम्मे लेनी पड़ी. वह चूल्हेचौके की फिक्र में लगी और उस की बहू आजादी से विचरने लगी. ज्योति ने एक किट्टी पार्टी जौइन कर ली थी. जब उस की मेजबानी करने की बारी आती और सखियां उस के घर पर एकत्रित होतीं तो वे सारा घर सिर पर उठा लेतीं. कमसिन लड़कियों की तरह उधम मचातीं और सुमित्रा से बड़ी बेबाकी से तरहतरह के खाने की फरमाइश करतीं. शुरूशुरू में तो सुमित्रा को ये सब सुहाता था पर शीघ्र ही वह उकता गई.

उसे मन ही मन लगता कि कहीं कुछ गलत हो रहा है. उस का बेटा दिनभर अपने काम में व्यस्त है. बहू है कि वह अपनी मौज में मस्त है और सुमित्रा घर की समस्याओं को ले कर लस्तपस्त है. दिन पर दिन उस की बहू शहजोर होती जा रही है और सुमित्रा मुंह खोल कर कुछ कह नहीं सकती. ज्योति की आदतें बड़ी अमीराना थीं. उस की सुबह उठते ही बैड टी पीने की आदत थी. अगर सुमित्रा न बनाए और नौकर न हो तो यह काम झक मार कर उस के पति कुणाल को करना पड़ता था. इस बात से सुमित्रा को बड़ी कोफ्त होती थी. ऐसी भी क्या नवाबी है कि उठ कर अपने लिए एक कप चाय भी न बना सके? वह नाकभौं सिकोड़ती. हुंह, अपने पति को अपना टहलुआ बना डाला. यह भी खूब है. बहू हो कर उसे घरभर की सेवा करनी चाहिए. पर यहां सारा घर उस की ताबेदारी में जुटा रहता है. यह अच्छी उल्टी गंगा बह रही है.

एकआध बार उस ने ज्योति को प्यार से समझाने की कोशिश भी की, ‘‘बहू, कितना अच्छा हो कि तुम सुबहसवेरे उठ कर अपने पति को अपने हाथ से चाय बना कर पिलाओ. चाहे घर में हजार नौकर हों पति को अपने पत्नी के हाथ की चाय ही अच्छी लगती है.’’

‘‘मांजी, यह मुझ से न होगा,’’ ज्योति ने मुंह बना कर कहा, ‘‘मुझ से बहुत सवेरे उठा नहीं जाता. मुझे कोई बिस्तर पर ही चाय का प्याला पकड़ा दे तभी मेरी आंख खुलती है.’’

चाहे घर में मेहमान भरे हों, चाहे कोई आएजाए इस से ज्योति को कोई सरोकार नहीं था. उस का बंधा हुआ टाइमटेबल था. वह सुबह उठ कर जौगिंग करती या हैल्थ क्लब जाती. लंच तक सैरसपाटे करती. कभी ब्यूटीपार्लर जाती, कभी शौपिंग करती. दोपहर में घर में उस की सहेलियां इकट्ठी होतीं. ताश का अड्डा जमता. वे सारा दिन हाहा हीही करतीं. और रहरह कर उन की चायपकौड़ी की फरमाइश…सुमित्रा दौड़तेदौड़ते हलकान हो जाती. उसे अपने कामों के लिए जरा भी समय नहीं मिलता था.

वह मन ही मन कुढ़ती पर वह फरियाद करे भी तो किस से? कुणाल तो बीवी का दीवाना था. वह उस के बारे में एक शब्द भी सुनने को तैयार न था.

धीरेधीरे घर में एक बदलाव आया. ज्योति के 2 बच्चे हो गए. अब वह जरा जिम्मेदार हो गई थी. उस ने घर की चाबियां हथिया लीं. नौकरों पर नियंत्रण करने लगी. स्टोररूम में ताला लग गया. वह एकएक पाई का हिसाब रखने लगी. इतना ही नहीं, वह घर वालों की सेहत का भी खयाल रखने लगी. बच्चों को जंक फूड खाना मना था. घर में ज्यादा तली हुई चीजें नहीं बनतीं. सुमित्रा की बुढ़ापे में जबान चटोरी हो गई थी. उस का मन मिठाई वगैरह खाने का करता, पर ऐसी चीजें घर में लाना मना था.

जब उस ने अपनी बेटियों से अपना रोना रोया तो उन्होंने उसे समझाया, ‘‘मां इन छोटीछोटी बातों को अधिक तूल

न दो. तुम्हारा जो खाने का मन करे,

उसे तुम स्वयं मंगा कर रख लो और खाया करो.’’

सुमित्रा ने ऐसा ही किया. उस ने चैन की सांस ली. चलो देरसवेर बहू को अक्ल तो आई. अब वह भी अपनी बचीखुची जिंदगी अपनी मनमरजी से जिएगी. जहां चाहे घूमेगीफिरेगी, जो चाहे करेगी.

पर कहां? उस के ऊपर हजार बंदिशें लग गई थीं. जब भी वह अपना कोई प्रोग्राम बनाती तो ज्योति उस में बाधा डाल देती, ‘‘अरे मांजी, आप कहां चलीं? आज तो मुन्ने का जन्मदिन है और हम ने एक बच्चों की पार्टी का आयोजन किया है. आप न रहेंगी तो कैसे चलेगा?’’

‘‘ओह, मुन्ने का जन्मदिन है? मुझे तो याद ही न था.’’

‘‘यही तो मुश्किल है आप के साथ. आप बहुत भुलक्कड़ होती जा रही हैं.’’

‘‘क्या करूं बहू, अब उम्र भी तो हो गई.’’

‘‘वही तो, उस दिन आप अपनी अलमारी खुली छोड़ कर बाहर चली गईं. वह तो अच्छा हुआ कि मेरी नजर पड़ गई. किसी नौकर की नजर पड़ी होती तो वह आप के रुपएपैसे और गहनों पर हाथ साफ कर चुका होता. बेहतर होगा कि आप इन गहनों को मुझे दे दें. मैं इन्हें बैंक में रख दूंगी. जब आप पहनना चाहें, निकाल कर ले आऊंगी.’’

‘‘ठीक है. पर अब इस उम्र में मुझे कौन सा सजनसंवरना है, बहू. सबकुछ तुम्हें और लीला व सरला को दे जाऊंगी.’’

‘‘एक बात और मांजी, आप रसोई में न जाया करें.’’

‘‘क्यों भला?’’

‘‘उस रोज आप ने खीर में शक्कर की जगह नमक डाल दिया. रसोइया बड़बड़ा रहा था.’’

‘‘ओह बहू, अब आंख से कम दिखाई देता है.’’

‘‘और कान से कम सुनाई देता है, है न? आप के बगल में रखा टैलीफोन घनघनाता रहता है और आप फोन नहीं उठातीं.’’

‘‘हां मां,’’ कुणाल कहता है, ‘‘पता नहीं तुम्हें दिन पर दिन क्या होता जा रहा है. तुम्हारी याददाश्त एकदम कमजोर होती जा रही है. याद है उस दिन तुम ने हमसब को कितनी परेशानी में डाल दिया था?’’

 

सुमित्रा ने अपराधभाव से सिर झुका  लिया. उसे याद आया वह दिन जब हमेशा की तरह वह शाम को टहलने निकली और बेध्यानी में चलतेचलते जाने कहां जा पहुंची. उस ने चारों तरफ देखा तो जगह बिलकुल अनजानी लगी. उस के मन में डर बैठ गया. अब वह घर कैसे पहुंचेगी? वह रास्ता भूल गई थी और चलतेचलते बेहद थक भी गई थी. पास में ही एक चबूतरा दिखा. वह चबूतरे पर कुछ देर सुस्ताने बैठ गई.

सुमित्रा ने अपने दिमाग पर जोर दिया पर उसे अपना पता न याद आया. वह अपने बेटे का नाम तक भूल गई थी. यह मुझे क्या हो गया? उस ने घबरा कर सोचा. तभी वहां एक सज्जन आए. सुमित्रा को देख कर वे बोले, ‘‘अरे मांजी, आप यहां कहां? आप तो खार में रहती हैं. अंधेरी कैसे पहुंच गईं? क्या रास्ता भूल गई हैं? चलिए, मैं आप को घर छोड़ देता हूं.’’

घरवाले सब चिंतित से बाहर खड़े थे. कुणाल उसे देखते ही बोला, ‘‘मां तुम कहां चली गई थीं? इतनी देर तक घर नहीं लौटीं तो हम सब को फिक्र होने लगी. मैं अभी मोटर ले कर तुम्हें ढूंढ़ने निकलने वाला था.’’

‘‘बस, आज से तुम्हारा अकेले बाहर जाना बंद. जब कहीं जाना हो तो साथ में किसी को ले लिया करो.’’

कुणाल उसे डाक्टर के पास ले गया. डाक्टर ने सुमित्रा की जांच की तो कुणाल से बोला, ‘‘आप की मां को ‘अलजाइमर्स’ की बीमारी है. जिस तरह बुढ़ापे में शरीर अशक्त हो जाता है उसी तरह दिमाग की कोशिकाएं भी कमजोर हो जाती हैं. यह बीमारी लाइलाज है पर जान को खतरा नहीं है. बस, जरा एहतियात बरतना पड़ेगा.’’

‘जाने कौन सी मरी बीमारी है जिस का आज तक नाम भी न सुना,’ सुमित्रा ने चिढ़ कर सोचा.

अब उस के बाहर आनेजाने पर भी प्रतिबंध लग गया.

सुमित्रा अब दिनभर अपने कमरे में बैठी रहती है. किसी को याद आ गया तो उस का खाना और नाश्ता उस के कमरे में ले आता है. अकसर ऐसा होता है कि नौकरचाकर अपने काम में फंसे रहते हैं और उस के बारे में भूल जाते हैं. और तो और, अब तो यह हाल है कि सुमित्रा स्वयं भूल जाती है कि उस ने दिन का खाना खाया कि नहीं. अकसर ऐसा होता है कि उस के पास तिपाई पर चाय की प्याली रखी रहती है और वह पीना भूल जाती है.

 

यह मुझे दिन पर दिन क्या होता जा रहा है? वह मन ही मन घबराती है. दिमाग पर एक धुंध सी छाई रहती है. जब धुंध कभी छंटती है तो उसे एकएक बात याद आती है.

उसे हठात याद आया कि एक बार ज्योति ने टमाटर का सूप बनाया था और उसे भी थोड़ा पीने को दिया. उसे उस का स्वाद बहुत अच्छा लगा. ‘अरे बहू, थोड़ा और सूप मिलेगा क्या?’ उस ने पुकार कर कहा.

 

थोड़ी देर में रसोइया कप में उस के लिए सूप ले आया. सुमित्रा खुश हो गई. उस ने एक घूंट पिया तो लगा कि इस का स्वाद कुछ अलग है.

उस ने रसोइए से पूछा तो वह अपना सिर खुजाते हुए बोला, ‘‘मांजी, सूप खत्म हो गया था. मेमसाब बोलीं कि अब दोबारा सूप कौन बनाएगा. सो, उन्होंने थोड़ा सा टमाटर का सौस गरम पानी में घोल कर आप के लिए भिजवा दिया.’’

सुमित्रा ने सूप पीना छोड़ दिया. उस का मन कड़वाहट से भर गया. अगर उस ने अपनी सास के लिए ऐसा कुछ किया होता तो वे उस की सात पुश्तों की खबर ले डालतीं, उस ने सोचा.

एक बार उस को फ्लू हो गया.

3-4 दिन से मुंह में अन्न का एक दाना भी न गया था. उसे लगा कि थोड़ा सा गरम दूध पिएंगी तो उसे फायदा पहुंचेगा. वह धीरे से पलंग से उठी. घिसटती हुई रसोई घर तक गई, ‘‘बहू, एक प्याला दूध दे दो. इस समय वही पी कर सो जाऊंगी. और कुछ खाने का मन नहीं कर रहा.’’

‘‘दूध?’’ ज्योति मानो आसमान से गिरी, ‘‘ओहो मांजी, इस समय तो घर में दूध की एक बूंद भी नहीं है. मैं ने सारा दूध जमा दिया है दही के लिए. कहिए तो बाजार से मंगा दूं?’’

‘‘नहीं, रहने दो,’’ सुमित्रा बोली.

वह वापस अपने कमरे में आई. क्या सब के जीवन में यही होता है? उस ने मन ही मन कहा. वह हमेशा सोचती आई कि जब वह बहू से सास बन जाएगी तो उस का रवैया बदल जाएगा. वह अपनी बहू पर हुक्म चलाएगी और उस की बहू दौड़दौड़ कर उस का हुक्म बजा लाएगी लेकिन यहां तो सबकुछ उलटा हो रहा था. कहने को वह सास थी पर उस के हाथ में घर की बागडोर न थी. उस की एक न चलती थी. उस की किसी को परवा न थी. वह एक अदना सा इंसान थी, कुणाल के प्रिय कुत्ते टाइगर से भी गईबीती. टाइगर की कभी तबीयत खराब होती तो उसे एक एसी कार में बिठा कर फौरन डाक्टर के पास ले जाया जाता पर सुमित्रा बुखार में तपती रहे तो उस का हाल पूछने वाला कोई न था. वह अपनी इस स्थिति के लिए किसे दोष दे.

उसे लग रहा था कि वह एक अवांछित मेहमान बन कर रह गई है. वह उपेक्षित सी अपने कमरे में पड़ी रहती है या निरुद्देश्य सी घर में डोलती रहती है. उस का कोई हमदर्द नहीं, कोई हमराज नहीं. वह पड़ीपड़ी दिन गिन रही है कि कब सांस की डोर टूटे और वह दुनिया से कूच कर जाए.

सास हो कर भी उस की ऐसी दशा? यह बात उस के पल्ले नहीं पड़ती. एक जमाना था कि बहू का मतलब होता था एक दबी हुई, सहमी हुई प्राणी जिस का कोई अस्तित्व न था, जो बेजबान थी और जिस पर मनमाना जुल्म ढाया जा सकता था, जिसे दहेज के लिए सताया जा सकता था और कभीकभी नृशंसतापूर्वक जला भी दिया जाता था.

आज के जमाने में बहू की परिभाषा बदल गई है. आज की बहू दबंग है. शहजोर है. वाचाल है. ईंट का जवाब पत्थर से देने वाली. एक की दस सुनाने वाली. वह किसी को पुट्ठे पर हाथ नहीं रखने देती. उस से संभल कर पेश आना पड़ता है. उस के मायके वालों पर टिप्पणी करते ही वह आगबबूला हो जाती है. रणचंडी का रूप धारण कर लेती है. ऐसी बहू से वह कैसे पेश आए. उसे कुछ समझ में न आता था.

उसे याद आया कि उस की सास जब तक जीवित रहीं, हमेशा कहती रहीं, ‘अरी बहू, यह बात अच्छी तरह गांठ बांध ले कि तेरा खसम तेरा पति बाद में है, मेरा बेटा पहले है. वह कोई आसमान से नहीं टपका है तेरी खातिर, उसे मैं ने अपनी कोख में 9 महीने रखा और जन्म दिया है और मरमर कर पाला है. उस पर तेरे से अधिक मेरा हक है और हमेशा रहेगा.’

सुमित्रा अगर ज्योति से ये सब कहने  जाएगी तो शायद ज्योति कहेगी कि मांजी आप को अपना बेटा मुबारक हो. आप रहो उसे ले कर. मैं चली अपने बाप के घर. और आप

लोगों को शीघ्र ही तलाक के कागजात मिल जाएंगे.’

सुमित्रा यही सब सोचने लगी.

हाय तलाक का हौवा दिखा कर बहू घरभर को चुप करा देगी. सुमित्रा की तो सब तरह से हार थी. चित भी बहू की, पट भी उस की.

सुमित्रा ने अपना सिर थाम लिया. सारी उम्र सोचती रही कि वह सास बन जाएगी तो ऐश करेगी. अपने घर पर राज करेगी. पर आज उसे लग रहा था कि सास बन कर भी उस के जीवन में कुछ खास बदलाव नहीं आया. क्या यह नए जमाने का दस्तूर था या बहू की पढ़ाई की कारामात थी या उस के पिता की दौलत का करिश्मा था या फिर बहू की परवरिश का कमाल?

उस की बहू तेजतर्रार है, मुंहजोर है, निर्भीक है, स्वच्छंद है, काबिल है और अपने नाम का अपवाद है.

और सुमित्रा पहले भी बहू थी और आज सास होने के बाद भी बहू है.

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