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इकलौता बेटा : तीन बेटियां हुईं तो मां झल्ला गईं

मां फोन पर सुबक रही थी,”सिर्फ खाना देना होता हेै और शूगर की सुई लगानी होती हेै। यही 2 काम शेैला के लिए भारी पड़ता है। वह इतना भी नहीं करना चाहती। कहती हेै कि मैं थक जाती हूं। मुझ से होता नहीं,” सुन कर मुझे बहुत गुस्सा आया।
शैला मेरी इकलौती भाभी है। क्या इतनी कमजोर हो गई है कि मां को खाना भी नहीं दे सकती? बुढापे के कारण मां का ठीक से उठनाबैठना नहीं हो पाता था। उन के घुटनों में हमेशा दर्द बना रहता। उस पर उन का भारी शरीर। दो कदम चली नहीं कि हांफने लगती। अब इस स्थिति में शैला उन की सेवा नहीं करेगी तो कौन करेगा? बुढापे में बच्चे ही मांबाप का सहारा होते हैं। माना कि उन के सिर्फ एक ही लडका कृष्णा था और हम 3 बेटियां। उन की सेवा तो हम बेटियां भी कर सकती हैं मगर वे हमारे पास आना नहीं चाहती थीं। वजह वही सामाजिक रूसवाई। लोग कहेंगे कि बेटा के रहते बेटी के यहां रह रही है। बेटा पर तो अधिकार है पर बेटियों के पास किस हक से जाएं?
मां की व्यथा सुन कर मेरा मन बेचैन हो उठा। अगर वे आसपास होतीं तो मैं तुरंत चल कर उन के पास पहुंच जाती। मगर विवश थी। कहां इलाहाबाद कहां चैन्नई। जब तक कृष्णा दिल्ली में था, जाना आसान था। अब संभव नहीं रहा।
‘‘शैला, दिनभर करती क्या है? बच्चों  के स्कूल जाने के बाद उस के पास काम ही क्या रहता होगा?’’ मेरा स्वर तल्ख था।
‘‘सोती रहती है। कहती है कि मेरी तबीयत ठीक नहीं रहती,” मां बोली।
‘‘तबीयत को क्या हुआ है। जवान है, आप की तरह बूढी नहीं। कृष्णा का रवैया कैसा है?”
‘‘कृष्णा दिनभर औफिस में रहता है। औफिस से आने के बाद वह सीधे शैला के कमरे में जाता है। वही 1 घंटे नाश्तापानी करने के बाद  खुसुरफुसुर करता है। वह तो उलटा मुझे ही दोष देता है।’’
‘‘क्या कहता है?’’
‘‘यही कि मैं बिनावजह शैला से उलझती रहती हूूं।”
72 वर्षीय महिला हैं आप। जरा सा टीकाटिपप्णी कर ही दिया तो इस में बुरा मानने की क्या जरूरत है। क्या वह बूढ़ी नहीं होगी?’’ कह कर मै सोचने लगी कि बुढ़ापे में आदमी अपने शरीर से परेशान हो जाता है। तमाम बीमारियां उसे घेर लेती हैं। जिस की वजह से वह चिडचिडा हो जाता है। मां को हाई ब्लड प्रैशर के अलावा शुगर भी था। न उन में पहले की तरह जोश था न ही स्फूर्ति। कौन कमजोर होना चाहता है। आज का नौजवान जवानी के नशे में कल की नहीं सोचता हेेै। अगर सोचता तो मां की यह हालत न होती। मुझे शैला से ज्यादा कृष्णा पर क्रोध आ रहा था। यह वही कृष्णा था जिसे मां देशी घी का लडडू कहती थीं। हम 3 बहनों में कृष्णा सब से छोटा था। इसलिए उसे मां और हमसब का भरपूर लाड़प्यार मिला। इस की एक सब से बडी वजह यह भी थी कि वह लडका था। 3 लगातार बेटियां हुईं तो मां झल्ला गईं। ऐसे में कृष्णा का आगमन अंधेरे में चिराग की तरह था।
कृष्णा के आने के बाद मां का सारा ध्यान उसी पर टिक गया। हम बहनें उन के लिए पहले ही बोझ थीं अब और हो गईं। वे जबतब हमें डांटती रहतीं। मानों हमें देखना भी नहीं  चाहती हों। कृष्णा को कोई अभाव न हो, इस का हर वक्त उन्हें खयाल रहता। मां के इस रवैये से मेरा मन वेदना से भर जाता। इस के बावजूद भी मैं वही करती जो वह चाहतीं। सिर्फ इसलिए कि वह मुझ से खुश रहें।
घर का सारा काम करना। कृष्णा की सभी जरूरतों को पूरा करना। उस के बाद स्कूल की पढ़ाई करना। यह आसान नहीं था मेरे लिए। मेरा बोझ हलका तब हुआ जब मेरी बाद की दोनों बहनें मेरे काम में हाथ बंटाने लगीं।
आहिस्ताआहिस्ता समय सरकता रहा। फिर एक दिन ऐसा आया जब पापा को मेरी शादी की चिंता हुई।  उस समय पढ़ाई पूरी कर के मैं एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगी थी। टयूशन व स्कूल की तनख्वाह से बटोरी गई पूंजी और रिश्तेदारों की मदद से मेरी शादी हो गई। पापा ने फूटी कौड़ी भी खर्च नहीं की। वे अपने रुपयों को ले कर हमेशा संशय में रहे। उन की आंखों के सामने हमेशा कृष्णा का ही भविष्य घूमता। लिहाजा, मेरी शादी चाहे जैसे लड़के से हो मगर उन का एक पेैसा खर्च न हो। ऐसा ही हुआ। मैं ने भी इसे कुदरत का फैसला मान कर स्वीकार कर लिया।
इस बीच मकानमालिक ने पापा को मकान खाली करने का अल्टीमेटम दे दिया। इस मकान में पापा 25 साल रहे। वह भी मामूली किराए पर। एकाएक इस समस्या ने उन्हे विचलित कर दिया। तभी उन्होंने मम्मी से रायमशविरा कर एक छोटा सा मकान खरीद लिया। जाहिर था, इस मकान का वारिस कृष्णा ही बनेगा। पापा अपने इस फैसले से संतुष्ट थे। बाद में मंझली बहन ने भी प्राइवेट स्कूल और टयूशन कर के जो पूंजी जमा की उसी में थोडाबहुत अपना रुपया पापा ने लगा कर उस की भी शादी कर दी। रह गई तीसरी। किसी तरह उसे भी निबटाया।
अब उन के लिए सिर्फ कृष्णा था। कृष्णा ने कोचिंग करने के लिए फीस मांगी तो पापा सहर्ष तैयार हो गए। वहीं जब मैं ने कहा था तो साफ इनकार कर दिया था। कहने लगे कि हमारे पास इतना है ही नहीं कि तुम्हारे लिए कोचिंग करवा सकें जबकि मैं पढने में काफी होशियार थी।
कृष्णा एक नामी कंपनी में इंजीनियर बन गया। उस ने आधुनिक जरूरतों का सारा सामान खरीद लिया। मांपिताजी सभी कृष्णा की तरक्की से खुश थे। पापा को लगा उन का जीवन सार्थक हो गया। जब तक पापा जीवित थे सब ठीकठाक था। एकाएक पापा दिवगंत हुए तो मां को इलाहाबाद छोड़ कर कृष्णा के पास रहना पङा। यहां उन की देखभाल कौन करता? मां, बेटाबहू के पास नहीं रहना चाहती थीं। वजह उन्हें अपने मकान और शहर से लगाव था। मगर इस उम्र में उन की हमेशा देखभाल कौन करेगा? मैं भले ही इलाहाबाद में रहती थी मगर मेरा अपना घर था। रातबिरात उन्हें कुछ होता है तो कौन मदद के लिए आएगा? यही सब सोच कर कृष्णा ने मां को अपने पास बुला लिया। वे बेमन से चली गईं।
अपने शहर का सुख और ही होता है। सब से बड़ी बात सब जानासुना होता है। माहौल के रगरग से वाकिफ होता हेै। बहरहाल, साल में एक बार हमसब बहनें उन से मिलने जरूर जाते। वापसी पर उन की आंखें भीग जातीं। कहती कि मन नहीं लगता,  इलाहाबाद आना चाहती।
मैं कहती, ‘‘वहां अकेले रहना क्या आसान है? उम्र हो चली है। रातबिरात तबीयत बिगडेगी तब कौन होगा? यहां कम से कम कृष्णा है आप की देखभाल के लिए।’’
‘‘कृष्णा बदल गया है,” मां बोलीं।
‘‘इस पर ज्यादा गौर मत किया करो। बदलाव सभी में आता है,” कह कर मैं औटो में बैठने लगी। मैं ने पीछे मुड़ कर देखा वे तब तक हमें देखती रहीं जब तब औटो उन की नजरों से ओझल नहीं हो गया। मुझे उन की मनोदशा पर तरस आ रहा था।
समय हमेशा एकजैसा नहीं होता। मां सबकुछ पहले जैसा चाहती थी। पर क्या ऐसा हो सकता है? गाङी में बैठने के बाद जब हम बहनें थोङी फ्री हुईं तो मां केा ले कर चर्चा हुई।
‘‘मां, बारबार इलाहाबाद आने को कहती हैं,” मंझली बहन शिवानी बोली। मां मंझली के ज्यादा करीब रही थीं।
‘‘क्या यह संभव है?’’ मैं पूछी।
‘‘चाहे जैसे भी हो उन्हें उन्हीे के पास रहना होगा। इसी में उन की भलाई है।’’
‘‘कैसी बात करती हो, दीदी। तुम्हें मां के प्रति इतना निष्ठुर नहीं होना चाहिए,” शिवानी को बुरा लगा।
‘‘तो रख लो अपने पास। तुम से वह ज्यादा घुलीमिली रहती है,’’ शिवानी को बुरा लगा।
“क्या तुम नहीं रखोगी? क्या वह तुम्हारी मां नहीं है?’’ शिवानी का सवाल बचकाना लगा मुझे।
‘‘सवाल रखने या न रखने का नहीं है। जिम्मेदारी की बात है। बेटे की जिम्मेदारी बनती हेै अपने मांबाप की सेवा की। हम रख कर कृष्णा को और बेलगाम कर देंगे। वह तो चाहेगा कि मां को हमलोग रख लें ताकि निरंकुश जीवन जीए। क्या तुम ने सुना नहीं जब शेैला, मां से कह रही थी कि आप की वजह से हम कहीं आजा नहीं सकते। आप ने हमें बांध कर रख दिया है।’’
‘‘दीदी ठीक कह रही है। मम्मी ने एक बार फोन कर के इस बात का जिक्र मुझ से किया था,” तीसरी बहन सुमन बोली।
कुछ सोचकर शिवानी बोली,”2-2 महीना तो रख ही सकते हैं। इस बहाने उन का मन भी बहल जाएगा।’’
‘‘मैं कब इनकार करती हूं। मगर इस अवस्था में सफर कर के अलगअलग शहरों में आनाजाना क्या उन के लिए आसान हेागा? कौन उन्हें चैन्नई से ले आएगा?‘‘
‘‘मेैं अपने पति से कहूंगी कि वह मां को ले आए,’’ शिवानी बोली।
‘‘बहुत आगे बढ़बढ़ कर तुम बोल रही हो। एक बार कह कर तो देखो, तुम्हारे पति इनकार न कर दें तो कहना। सीधे कहेंगे कि जिस की मां है वह भेजे। मैं क्यों अपनी नौकरी छोड़ कर उतनी दूर जाऊं? मैं बोली।
‘‘सब एकजैसे नहीं होते,’’ शिवानी का इशारा मेरी तरफ था। मेरे पति जमीनी व्यक्ति थे। वहीं शिवानी का पति धर्मपरायण। पता नहीं कैसे नौकरी करते थे। दिनभर उन का ध्यान अंधविश्वास व भगवान पर ही रहता था। क्षणिक भावनाओं में बह कर वे चैन्नई चले भी गए तो यह हमेशा ऐसा संभव होगा? वहीं सुमन का पति एक दम ठेठ प्रवृति का इंसान। जब वह सुमन का नहीं सुनता तो भला सास को लेने क्या जाएगा? साफ कहेगा कि उन के बेटाबहू जानें हम से क्या मतलब। इसलिए सुमन से कोई अपेक्षा करना निरर्थक था। सुमन यही सब सोच कर चुपचाप हमलोगों की गुफ्तगू सुन रही थी।
रात होने को हुआ। हमलोग बात यहीं खत्म कर के अपनेअपने बैड पर सोने चले गए।
सुबह गाङी सतना पहुंची तो शिवानी के साथ सुमन भी उतर गई। सुमन को वहां 2 दिन रुकना था। उस के बाद वह अपने घर लखनऊ चली जाएगी। मैं ने उन से विदा ली। मेरा पडाव 6 घंटे बाद आने वाला था। मैं सोचने लगी कि समय कितना बलवान होता है। कहां हमसब एक ही शहर में रह कर पलेबढे़ और आज 4 लोग 4 जगह के हो गए। मेरा मायका इलाहाबाद था। इसलिए मैं हर वक्त मम्मीपापा के लिए खड़ी रहती थी। बाद में पापा की तबीयत बिगड़ी तो वे दिल्ली चले गए। वहीं उन्होंने अंतिम सांस ली।
योजना के मुताबिक मैं ने कृष्णा को फोन लगाया,”तुम्हें ले जाना हो तो ले जाओ। मेरे पास समय नहीं है,’’उस ने साफसाफ बोल दिया।
“थोड़ा समय निकालो। उन का भी जी बहल जाएगा,’’ मैं ने मनुहार की।
‘‘उन का दिल कहीं नहीं लगेगा। मैं उन के स्वभाव को जानता हूं।”
‘‘अब तुम उन का स्वभाव भी देखने लगे?” मुझे बुरा लगा।
‘‘इतना ही फिक्र है तो रख लो उन को अपने पास हमेशा के लिए।’’
‘‘मैं क्यों रखूंगी। सबकुछ तुम्हें दिया है। अब जब लोैटाने की बारी आई तो हम बहनों पर टाल रहे हो।’’
‘‘तो जैसे चल रहा है चलने दो।’’
‘‘कैसे चलने दूं? बीवी के मोह ने तुम्हें अपने कर्तव्य से विमुख कर रखा हेै।’’
“मुझे अपना कर्तव्य मत सिखाओ। मुझे अच्छे से निभाना आता है।’’
‘‘कुछ नहीं निभा रहे हो। तुम दिनभर औफिस में रहते हो। तुम्हें कुछ पता रहता है क्या? देर शाम घर आते हो तो सीधे अपने बीवी के कमरे में चले जाते हो। कभी मां का हाल पूछते हो? वे बेगानों की तरह एक कमरे में पड़ी रहती हेैं।’’
‘‘मैं ने कब रोका है? क्यों नहीं आ कर हमारे पास बैठती हैं?’’
‘‘क्या बैठेंगी जब बेटाबहू ने मुंह फेर लिया है?’’ मेरे कथन पर मारे खुन्नस के चलते कृष्णा ने फोन काट दिया और तमतमाते हुए मां के कमरे में आया,”आप को ज्यादा खुशी मिलती है अपनी बेटियों से तो कहिए हमेशा के लिए उन्हीं के यहां पहुंचा दूं? दिनभर फोन कर के हमारी बुराई बतियाती रहती हैं।’’
‘‘मैं ने क्या कहा?’’ मां का स्वर दयनीय था।
‘‘बिना कहे इतना सुनने को मिल रहा है।”
‘‘क्या कोई अपने मन की बात भी नहीं कर सकता? तुम्हारी बीवी तो जैसे जबान पर ताला लगा कर आई है। उस का ताला खुलेगा तो सिर्फ तुम्हारे लिए या तो अपने मायके वालों के लिए। ऐसे में यदि मैं अपनी बेटियों से कहसुन लेती हूं तो क्या गलत करती हूं,” मां ने भी तेवर कड़े किए।
‘‘मैं आप से बहस नहीं करना चाहता। आप चाहती क्या हैं?’’ कृष्णा बोला।
‘‘मैं इलाहाबाद जाना चाहती हूूं।’’
‘‘ठीक है। मैं आप को पहुंचाने की व्यवस्था करता हूं। मगर बाद में यह न कहिएगा कि मैं ने अपनी मरजी से आप को इलाहाबाद भेज दिया।’’ मां चुप रहीं।
जिस दिन इलाहाबाद जाने को था मां की आंखें नम थीं। उन्हें अपने 2 पोतों का खयाल आने लगा। बड़ा पोता 8 साल का था। बोला,‘‘दादी, आप इलाहाबाद क्यों जा रही हैं? आप को सुई कौन लगाएगा? खाना कौन देगा?’’ सुन कर मां की आंखें डबडबा आईं ।
शेैला खुश थी कि चली इसी बहाने झंझट छूटा। अंदर से कृष्णा का भी मन मुदित था। क्योंकि वह जानता था कि इलाहाबाद में मैं तो हूं ही। चाहे जैसे भी हो मां के लिए करेगी ही। सिर्फ रुपए भेजने की जरूरत है। वह भेज दिया करेगा। मैं ने भी मन बना लिया था कि जिस मां ने मुझे पेैदा किया उस रिश्ते की लाज उन की अंतिम सांस तक रखूंगी।
पता नहीं क्यों बरबस मेरा ध्यान उस बचपन पर चला गया जब मां ने एक टौफी कृष्णा के लिए मुझ से छिपा कर रखी थी। संयोग से मेरी नजर पङी तो मैें ने अपने लिए मांग लिया, तो मां ने साफ इनकार कर दिया।
बोलीं,‘‘यह मैं ने कृष्णा के लिए रखा है।’’
मैं मायूस दूसरे कमरे में चली गई।

कपल घर बनाने में संंकोच न करें, फैमिली और सोशल प्रेशर को करें दरकिनार

ये तेरा घर ये मेरा घर, किसी को देखना हो गर
तो पहले आ के मांग ले, मेरी नज़र तेरी नज़र

रीवा और ईशान को शादी के बंधन में बंधे कुछ ही महीने हुए हैं . रीवा एक मल्टीनेशनल कंपनी में वर्किंग है और ईशान का अपना सफल बिजनेस है .
जब रीवा और ईशान ने एक होने का निर्णय लिया था तभी उनके कानों में घरपरिवार और आसपास के लोगों की खुसफुसाहट पड़ने लगी थी कि अगर ईशान इतना अच्छा कमाता है तो रीवा को भला नौकरी करने की क्या जरूरत है !
रीवा और ईशान दोनों कैरियर के अच्छे मुकाम पर थे और दोनों ने लोगों की बातों को अनदेखा करते हुए अलग घर बसाने का निर्णय लिया !
अगर समाज की सोच के हिसाब से सोचें तो उन्होंने ऐसा निर्णय लेकर बहुत गलत किया लेकिन सही तरीके से समझा जाए तो उन्होंने बहुत सही निर्णय लिया ..
आइए जानते हैं क्यों और कैसे ?

भले ही समाज बदल रहा है और बदलते समय के साथ भारतीय समाज के लोगों की सोच में भी काफी बदलाव आया हो लेकिन आज भी पुरानी सोच के लोगों के मुंह से वर्किंग वुमन के लिए निकलता है “जब पति इतना कमाता है, तो तुम्हें जॉब करने की क्या जरूरत?” सुनने को मिल ही जाता है . लेकिन मॉर्डन ऐज के मैरिड कपल्स रीवा और ईशान ने अपने कैरियर को न छोड़ते हुए अलग घर बसाने का निर्णय लिया !
आप ही सोचिए अगर लड़का अपने करियर को बनाने में मेहनत करता है तो लड़की भी तो उतनी ही मेहनत करती है तो उसकी मेहनत को कम क्यों आँका जाए और उससे जॉब छोड़ने की उम्मीद क्यों की जाए?

पका पकाया नहीं खुद की मेहनत का
हमारे समाज में अधिकांश कपल शादी के बाद पेरेंट्स के बनाए  घर में रहते हैं जहां उन्हें सबकुछ रेडीमेड मिलता है लेकिन वहीं जब रीवा की ईशान की तरह आप अपने घर में अलग रहने का निर्णय लेते हैं तो उस घर में  हर चीज खुद से करते हैं जिससे न केवल कॉन्फिडेंस आता है बल्कि दुनियादारी की समझ आती है और आटेदाल का भाव भी पता चलता है जो हर कपल को सीखना चाहिए .

अलग रहने का एक फायदा यह भी होगा आपको फैमिली, रिलेटिव्स की चूँ चूँ भी नहीं सुननी पड़ेगी और अकेले रहने से नाते रिश्तेदार आपकी वैल्यू करेंगे कि आपने  घर खुद बनाया है.  सास,ननद, देवरानी, जेठानी के ताने देने पर लड़की को नौकरी नहीं छोड़नी पड़ेगी. वैसे भी आज के जमाने में एक व्यक्ति की कमाई से  ना घर बनाया जा सकता है न चलाया जा सकता है . आज की जरूरत है कि पतिपत्नी दोनों काम करें .

पति पत्नी के बीच प्यार और नजदीकी बढ़ेगी
शादी के बाद हर newly wedded ऐसी प्लानिंग करें कि वे अलग घर में रहें, भले ही वह घर एक कमरे का हो या दो कमरे का या किराये का . यंग कपल की अपनी अलग किचन होनी चाहिए . इससे उनमें अलग रहने का ,जीवन के उतार चढ़ावों का सामना करना आएगा खुद पर गर्व होगा कि वे खुद का घर बना और चला सकते हैं जहां लड़के और लड़की दोनों की भागीदारी होगी . इससे कपल के बीच प्यार और नजदीकी भी बढ़ेगी . पति भी पत्नी की कमाई की वैल्यू करेगा और घर दोनों के खर्चे से चलेगा .

औरतों को मिलेगी अपनी पहचान

लड़कियों के लिए नौकरी या कमाई करना सिर्फ पैसा कमाने का जरिया होने से ज्यादा आत्मसम्मान, इंडिपेंडेंट बने रहने और अपनी पहचान बनाने का जरिया होता है।
यह बात उन परिवारों और समाज को समझने की जरूरत है जिन्हें लगता है कि पति अच्छा कमाता है पत्नी को घर से बाहर जाकर काम करने की क्या जरूरत है !

पति पत्नी दोनों का होगा घर
जब पतिपत्नी दोनों मिलकर शादी के बाद अपना अलग घर बसाएंगे तो वह घर पतिपत्नी दोनों की कमाई से बनेगा और चलेगा . ऐसे में घर दोनों का होगा और लड़कियों की उसका घर ‘कौन सा’ सोचने की समस्या भी दूर होगी .

 

विटिलिगो से निराशा क्यों : मान लीजिए कि दाग अच्छे हैं

सफेद दाग यानी विटिलिगो रोग एक आम बीमारी है, लेकिन इस के बारे में जानकारी बहुत कम है. यहां तक कि मैडिकल पेशे से जुड़े लोग भी इस बीमारी के बारे में अभी ज्यादा जानकारी नहीं जुटा पाए हैं.

 

हम दसवीं कक्षा में थे. बाकी सहपाठी तो नवीं से प्रमोट हो कर दसवीं में पहुंचे थे, पर एक नया एडमिशन हुआ था. सायरा का. हमारे स्कूल की सभी छात्राएं नीली स्कर्ट, सफेद शर्ट पर नीली टाई और जूता मोजा पहनती थीं, मगर सायरा सफेद शलवार और नीले कुर्ते पर सफेद दुपट्टा ओढ़ती थी. जब पहले दिन वह क्लास में आई, तो क्लास टीचर ने उसे पहली बेंच पर बिठाया. साथ में एक और स्टूडेंट बैठी थी. पहला पीरियड ख़त्म हुआ और जैसे ही क्लास टीचर बाहर निकली, सायरा के साथ बैठी लड़की तुरंत उठ कर दूसरी सीट पर जा बैठी. सायरा चुपचाप अपनी किताब में नज़र गड़ाए रही.

 

दरअसल सायरा को सफेद दाग यानी विटिलिगो नामक रोग था. उस के लगभग पूरे शरीर की चमड़ी सफेद हो चुकी थी, कोहनी, गर्दन और चेहरे के कुछ भागों को छोड़ कर. कुछ जगहों पर सांवला रंग और बाकी जगह सफेद चमड़ी के कारण वह अजीब सी दिखती थी. सायरा पतलीदुबली और बालों की कस कर एक छोटी बनाने वाली लड़की थी. शलवार कुर्ता पहनने की परमिशन स्कूल प्रशासन ने इसलिए दी थी ताकि उस के हाथपैर की चमड़ी कपड़े से ढंकी रहे और सूरज की तेज किरणों से बची रहे. शुरू के दोतीन महीने तक उस की कोई सहेली नहीं बनी. कोई उस के साथ उस की सीट पर भी नहीं बैठना चाहती थी. टीचर की डांट पड़ती तब कोई उस के साथ अनमने मन से बैठ जाती थी.

3 महीने बाद जब क्वाटर्ली पेपर हुए और रिजल्ट आया तो सायरा क्लास में फर्स्ट आई. फिर दोतीन लड़कियां सायरा से बात करने और साथ खाना खाने लगीं. फिर धीरेधीरे पूरी क्लास उस की दोस्त बन गई. सायरा भी सब के साथ घुल मिल गई. वह पढ़ने में बहुत तेज थी. थ्रू आउट फर्स्ट डिवीजन. छमाही के एग्जाम के बाद तो हर लड़की उस के साथ बैठना चाहती थी. आज सायरा एक कामयाब डाक्टर है. उस ने शादी नहीं की. अपने मातापिता और भाईभाभी के साथ रहती है. उस की कमाई उस के भाई और पिता की कमाई से 3 गुना ज्यादा है. वैसे तो वह सुबह से शाम तक मरीजों में व्यस्त रहती है, पर कभीकभी अकेलेपन का अहसास भी होता है. खासतौर पर तब जब वह अपने भैया भाभी के बेडरूम से उन के हंसने खिलखिलाने की आवाजें सुनती है.

निर्मला खत्री चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं. वह मुंबई में रहती हैं. 5 साल पहले उन की शादी हुई थी. दो साल का एक बेटा है उन का. एक दिन अचानक निर्मला के होंठों के आसपास सफेद चकत्ते से उभरे और फिर कोहनी और आंखों के चारों तरफ ये दाग बड़ी तेजी से फैलने लगे. कोई 6 महीने के भीतर ही निर्मला का चेहरा बदरंग हो गया. उन्होंने अनेक डाक्टरों को दिखाया. मगर कोई भी उन दागों को शरीर पर फैलने से रोक नहीं पाया.

निर्मला अवसादग्रस्त हो गईं. किसी से मिलती नहीं थी. नौकरी भी छोड़ दी. ज़्यादातर घर में बंद रहने लगीं. किसी जरूरी कार्यवश बाहर निकलने की मजबूरी हुई तो उन को लगता कि जैसे हर आदमी उन को घूर रहा है. पति से भी कटीकटी रहने लगी थी. लेकिन उन के पति ने उन का हौसला बढ़ाया. यह अहसास जगाया कि उन दोनों के बीच जो प्यार भरी बौन्डिंग है, उस के आगे निर्मला के शरीर के दाग कोई मायने नहीं रखते हैं. उन्होंने निर्मला को अवसाद से निकलने में मदद की. डाक्टर्स के पास ले कर गए. अब एक डाक्टर का इलाज चल रहा है. उस ने निर्मला की काउंसलिंग भी की है. निर्मला अब काफी हद तक नौर्मल हो चुकी हैं. दोनों अपने बच्चे के साथ बीच पर घूमने जाते हैं और पानी में मस्ती करते हैं. साथ मिल कर शौपिंग करते हैं. निर्मला ने दागों को स्वीकार कर लिया है. उन्होंने नौकरी भी ज्वाइन कर ली है.

सफेद दाग यानी विटिलिगो रोग एक आम बीमारी है, लेकिन इस के बारे में जानकारी बहुत कम है. यहां तक कि मैडिकल पेशे से जुड़े लोग भी इस बीमारी के बारे में अभी ज्यादा जानकारी नहीं जुटा पाए हैं. अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट औफ हैल्थ (एनआईएच) के अनुसार, इस बीमारी से दुनिया की 0.5 फीसदी से 1.0 फीसदी आबादी प्रभावित है. अनेक मामले रिपोर्ट नहीं किए जाते हैं. कुछ शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इन की स्थिति 1.5 फीसदी आबादी में हो सकती है.

विटिलिगो नाम की इस बीमारी में त्वचा और कुछ मामलों में बालों का पिगमेंटेशन (गहरा रंग) चला जाता है और ये सफेद हो जाते हैं. यह काले लोगों में जल्दी नज़र आता है. विटिलिगो संक्रामक रोग नहीं है. यानी यह छूने, साथ रहने, साथ खाने या खेलने से नहीं फैलता है. हालांकि, ये ऐसा डिसऔर्डर है जो इस से पीड़ित लोगों के लिए काफी चिंता और परेशानी का कारण बनता है.

इस रोग का अमीरी गरीबी से भी कोई नाता नहीं है. इस के शिकार अमीर भी हैं और गरीब भी. विनी हार्लो, जो दुनिया की जानीमानी मौडल हैं, वे भी विटिलिगो से प्रभावित हैं. वे एक कनाडाई फैशन मौडल हैं और अपने इस रोग के बावजूद रैंप पर कैटवाक करते वक़्त उन के अंदर कभी कोई झिझक या परेशानी नहीं देखी गई.

2018 में, विनी हार्लो विक्टोरिया सीक्रेट फैशन शो में विटिलिगो वाली पहली मौडल बनीं. वह बियोंसे द्वारा निर्देशित एचबीओ विजुअल एल्बम बियोंसे : लेमोनेड (2016) में भी दिखाई दीं. उन्हें 2018 में ‘बीबीसी 100 प्रभावशाली महिलाएं’ में से एक के रूप में सम्मानित किया गया था. बाद में हार्लो ने अमेजन प्राइम वीडियो सीरीज – मेकिंग द कट के दूसरे सीजन में जज के रूप में काम किया.

कोई भी व्यक्ति, चाहे वह पुरुष हो या महिला, चाहे उस की त्वचा का रंग कुछ भी हो, विटिलिगो से पीड़ित हो सकता है. ये क्रौनिक बीमारी है जिस में त्वचा पर सफेद या पीले धब्बे दिखाई देते हैं, त्वचा के इस हिस्से में मेलेनिन खत्म हो जाता है. मेलेनिन त्वचा के पिगमेंटेशन के लिए जिम्मेदार होता है, जो मेलानोसाइट्स नाम की खास कोशिकाओं से बना होता है. त्वचा को रंग देने के अलावा मेलानोसाइट्स हमारी त्वचा को सूरज की तेज अल्ट्रावायलेट किरणों से बचाते हैं. लेकिन जब मेलानोसाइट्स ख़त्म हो जाएं तो पिगमेंट चला जाता है और व्यक्ति को विटिलिगो नामक रोग हो जाता है.

ये बीमारी त्वचा के किसी भी हिस्से में हो सकती है, लेकिन आमतौर पर उस हिस्से में पहले शुरू होता है जो सूरज की किरणों के संपर्क में आता है. जैसे – चेहरा, गर्दन और हाथ. यह समस्या काली या सांवली त्वचा वाले लोगों में अधिक दिखती है और ये हर व्यक्ति में अलगअलग हो सकती है.

विटिलिगो के प्रकार

इसे दो हिस्सों में बांटा जा सकता है, ये इस बात पर निर्भर करता है कि कैसे और शरीर के किस हिस्से में डिपिगमेंटेशन होती है.

सेगमेंटल : इसे एकतरफा विटिलिगो भी कहा जाता है. यह आमतौर पर कम उम्र में ही दिखाई देता है, जिस में शरीर के केवल एक हिस्से में सफेद धब्बे होते हैं. यह एक पैर, चेहरे के एक तरफ या शरीर के सिर्फ एक तरफ हो सकता है. इस तरह के विटिलिगो से पीड़ितों में से लगभग आधे लोगों को जहां विटिलिगो हुआ है वहां पर बाल झड़ने की शिकायत होती है.

नौन-सेगमेंटल : ये विटिलिगो का सब से सामान्य प्रकार है जो ज्यादातर लोगों को होता है. इस में शरीर के किसी भी हिस्से में सफेद रंग पैच बनने लगते हैं.
एक्रोफेशियल : चेहरे, सिर, हाथ और पैरों को प्रभावित करता है.
म्यूकोसल : मुंह के पास और जननांग म्यूकोसा को प्रभावित करता है.
यूनिवर्सल : यह सब से गंभीर स्थिति है, लेकिन सब से दुर्लभ भी है. यह त्वचा के 80 से 90 फीसदी हिस्से तक फैल जाता है.

 

कौन होता है इस से पीड़ित

इस बीमारी से प्रभावित लोगों के लिए काम करने वाली संस्था ‘विटिलिगो सोसाइटी’ के अनुसार, दुनिया 7 करोड़ लोग इस रोग से पीड़ित हैं और 20 से 35 फीसदी मरीज बच्चे हैं. विटिलिगो आमतौर पर 20 साल की उम्र में दिखाई देना शुरू होता है, हालांकि यह किसी भी उम्र में हो सकता है. ये महिला पुरुष किसी को भी हो सकता है. यह एक औटो इम्यून डिसऔर्डर है केवल एक ‘कास्मेटिक’ समस्या नहीं है.

अब तक यह पता लगाना संभव नहीं हो पाया है कि विटिलिगो का कारण क्या है, लेकिन यह कोई संक्रमण रोग नहीं है और एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में नहीं फैल सकता. चूंकि इस बीमारी का कारण पता नहीं है इसलिए यह अनुमान लगाना असंभव है कि एक बार विटिलिगो का पहला धब्बा दिखाई देने पर त्वचा का कितना हिस्सा प्रभावित होगा. इस से जो सफेद धब्बे त्वचा पर होते हैं वो स्थाई होते हैं.

इस के लक्षण

विटिलिगो का कोई शारीरिक लक्षण नहीं होता है, अगर दाग को धूप से सुरक्षित न रखा जाए तो ये धूप में जल सकते हैं. इस की वजह से शरीर में दर्द या कोई अन्य परेशानी पैदा नहीं होती है, लेकिन यह प्रभावित व्यक्ति के लिए बहुत ज्यादा मनोवैज्ञानिक परेशानी का कारण बन सकते हैं, खासकर अगर सफेद दाग चेहरे, गर्दन, हाथ या जननांगों पर हो जाएं. डाक्टर्स के लिए अभी तक यह अनुमान लगाना कठिन ही है कि यह बीमारी कैसे डेवलप होती है, कुछ लोगों को सालों तक त्वचा के धब्बों में कोई बदलाव नजर नहीं आता, लेकिन कुछ ऐसे भी मामले हैं यहां धब्बे तेजी से फैल जाते हैं.

इस का इलाज क्या है

आमतौर पर स्पैशलिस्ट ट्रीटमेंट के काम्बिनेशन की सलाह देते हैं. जैसे फोटो थेरैपी (अल्ट्रावायलेट लाइट थेरेपी) के साथ दवा और त्वचा पर कार्टिकोस्टेरौइड्स लगाने की सलाह दी जाती है. लेकिन कार्टिकोस्टेरौइड्स सिर्फ 25 फीसदी से कम मरीजों में ही प्रभावी होते हैं और अल्ट्रावायलेट लाइट त्वचा के रंग में असामान्य बदलाव करता है और लंबे समय में ये स्किन कैंसर का खतरा पैदा सकता है.

अमेरिका और यूरोपीय संघ ने नौन-सेगमेंटल विटिलिगो के इलाज के लिए ओपज़ेलुरा नाम की एक दवा को मंज़ूरी दी है, जिस का सक्रिय पदार्थ रुक्सोलिटिनिब है. ये दवा एक मरहम के रूप में आती है और इसे विटिलिगो से प्रभावित हिस्से में सीधे लगाया जाता है. दिन में दो बार इस का इस्तेमाल करने वाले लगभग आधे लोगों ने असरदार सुधार की बात कही है, 6 में से एक मरीज का कहना था कि इस के इस्तेमाल से सफेद धब्बों में पिगमेंटेशन लौट आई है.

हालांकि, इस फार्मूले में कई मतभेद हैं. इस से इम्यून सिस्टम प्रभावित हो सकता है और जहां इसे लगाया जाता है वहां मुंहासे और जलन की समस्या हो सकती है. इस के अलावा, ओपज़ेलुरा की एक ट्यूब की कीमत 2,000 अमेरिकी डौलर है.

इस के अलावा, जर्नल औफ डर्मेटलौजी में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला है कि काली मिर्च के तीखे स्वाद के लिए जिम्मेदार पिपेरिन भी पिगमेंटेशन को बढ़ाता है. इस से त्वचा में मेलानोसाइट्स का उत्पादन तेज होता है.

हालांकि, जो भी चीज मेलानोसाइट्स में वृद्धि का कारण बनती है, उस से मेलेनोमा का खतरा भी बढ़ जाता है, जो त्वचा के कैंसर का सब से घातक रूप है. इसलिए, ये अभी तक साबित नहीं हुआ है कि क्या पिपेरिन का इस्तेमाल लोगों में विटिलिगो के इलाज के लिए इस ख़तरनाक असर के बिना किया जा सकता है.

कई बार सफेद दाग में पिगमेंट वापस भी आ जाता है, खासकर बच्चों के साथ ऐसा होता है.

इस का प्रभाव

विटिलिगो एक ऐसी बीमारी है, जो मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक रूप से बहुत अधिक प्रभावित कर सकती है. खासकर जब यह किसी लड़की या महिला को हो जाए, तो वह अवसाद में चली जाती हैं. उन्हें लगने लगता है कि अब उन का जीवन व्यर्थ है.

दुनिया में जहां त्वचा के कोमल, साफ, चमकदार और सफेद रंग को ख़ूबसूरती का पैमाना बना दिया गया है और हजारों क्रीम, लोशन, साबुन, फेसवाश, फेशियल, मसाज, प्लास्टिक सर्जरी आदि सिर्फ इसलिए हैं कि आपकी त्वचा पर कोई दागधब्बा न रहे, ऐसे में जब सफेद दाग पूरे चेहरे की त्वचा का रंग बदलने लगता है और पूरे चेहरे पर धब्बे ही धब्बे पैदा हो जाते हैं, तो लड़कियों का अवसादग्रस्त होना लाजिमी है. जब इंसान का पूरा व्यक्तित्व सिर्फ उस की त्वचा के रंग से नापा जाए तो जाहिर है, ऐसी सोच रखने वाले लोगों के बीच धब्बेदार चेहरा ले कर निकलना आसान नहीं है.

लेकिन इस सोच को अब बदलने की जरूरत है. प्रकृति में बहुत सारे जीव हैं जिन की त्वचा पर अनेक प्रकार के धब्बे और निशान हैं, मगर वे उन के साथ ही हमें क्यूट लगते हैं. अनेक धब्बों और निशानों वाली बिल्लियां, कालीसफेद पट्टियों वाले जेबरे, काले धब्बों वाले चीते, कई रंगो वाले कुत्ते या गायें, हम देखते हैं. उन्हें देख कर आश्चर्य नहीं होता. फिर काली, सांवली या बहुत सफेद या विटिलिगो वाली त्वचा को लेकर इतना आश्चर्य क्यों? सिर्फ त्वचा का रंग या उस की कोमलता हमारे पूरे व्यक्तित्व का पैमाना नहीं है.

इंसान की खूबियां, उस का ज्ञान, उस का कौशल, उस का व्यवहार, उस की भाषा, उस का रहनसहन सब मिल कर उस का व्यक्तित्व निर्धारित करते हैं. चमड़ी पर एक धब्बा पैदा हो गया, सिर्फ इतने भर से बाकी खूबियों को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है. विटिलिगो से पीड़ित व्यक्तियों को घूरना या उन से दूरी बनाना ठीक नहीं है. यह कोई ऐसी चीज नहीं है जो हाथ मिलाने या साथ बैठने से आप को लग जाएगी. इस कमी को नजरअंदाज कर व्यक्ति की वास्तविक क्षमताओं पर फोकस करना चाहिए.

विटिलिगो से प्रभावित लोगों को भी हर वक्त यह सोच कर परेशान होने की आवश्यकता नहीं है कि हाय उन की खूबसूरती को यह क्या हो गया? खूबसूरती की उम्र महज बीस-पच्चीस साल ही है. उस के बाद सब की त्वचा पर धब्बे, दाने, झुर्रियां पैदा हो जाती हैं. इसलिए जीवन का वह समय जब आप अपनी क्षमताओं, अपने कौशल और ज्ञान का सर्वाधिक प्रयोग कर अपने और समाज के भविष्य को बेहतर बना सकते हैं, अवसादग्रस्त हो कर दुनिया से अलगथलग पड़े रहना बेवकूफी ही है.

राम मंदिर आंदोलन के बाद, चीन के मुकाबले भारत की गिरती ग्रोथ

भारत और चीन अर्थव्यवस्था के मामले में एक समय साथसाथ चल रहे थे. मगर राम मंदिर आंदोलन के बाद से, देश की जीडीपी चीन के मुकाबले पिछड़ती चली गई, जहां चीन ने धर्म को सत्ता से दूर रखा वहीँ भारत ने इसे केंद्र में.

 

धर्म दुनिया भर के देशों की अर्थव्यवस्था को लील रहा है. जिन देशों में सरकारें धर्म को प्रोत्साहित कर रही हैं, वहां की अर्थव्यवस्था बरबादी की ओर जा रही हैं. पाकिस्तान, अफगानिस्तान ही नहीं, कुछ अरब देशों सहित अमेरिका और ब्रिटेन तक धर्म के नशे में शामिल हैं. सरकारों की शह से धार्मिक कट्टरपंथी तो नुकसान पहुंचा ही रहे हैं, धर्म को प्रश्रय और प्रोत्साहन की सरकारी नीति भी देशों की गर्त की ओर ले जा रही है.

भारत की दशा भी कुछ वर्षों से ऐसी ही हो रही है. सरकारें विकास के चाहे कितने ही गाल बजा लें, आंकड़ें और हकीकत दुर्दशा की गवाही दे रहे हैं.

जिन देशों ने धर्मों के नागों को नाथ कर रखा, वो देश प्रगति के फर्राटे भर रहे हैं. उन में चीन एक प्रमुख देश है. कम्युनिस्ट नास्तिक होने के बावजूद चीन में बौद्ध, ताओइज्म, ईसाई, इस्लाम आदि धर्म मौजूद हैं और ये शासन सत्ता को दबा झुका कर अपनी मनमर्ज़ी चलाने के हरसंभव प्रयास करते रहते हैं लेकिन सरकार है कि वह उन्हें सिर चढ़ाने के बजाय उन पर उलटे कौड़े बरसाती दिखाई देती है. क्योंकि चीन की कम्युनिस्ट सरकार सत्ता के लिए धर्मों की मुहताज नहीं है.

दरअसल 1989 के बाद से चीन के मुकाबले भारत की जीडीपी लगातार पिछड़ती रही है. भारत में जब से राम मंदिर आंदोलन शुरू हुआ, देश की अर्थव्यवस्था पर ग्रहण शुरू हो गया. शुरू में कहा गया कि 21वीं सदी भारत की होगी लेकिन बाजी तो चीन मार ले गया. अपनी विशाल जनसंख्या का फायदा वह अर्थव्यवस्था को आगे ले जाने में कामयाब दिखाई दे रहा है. इधर भारत अपनी सारी ऊर्जा अयोध्या में मंदिर निर्माण, काशी, मथुरा, केदारनाथ, उज्जैन की परिक्रमा, धारा 370, समान नागरिक संहिता, जैसे कामों में ही लगाता रहा है.

देश में अनगिनत मंदिर और तीर्थस्थल हैं जिन से करोड़ों लोगों की आस्था जुड़ी हैं. इसी  आस्था का राजनीतिक फायदा उठाने के लिए भाजपा ने राम मंदिर निर्माण आंदोलन शुरू किया. आस्था के केंद्र से सियासत के समीकरण बनाए गए. जनता को लुभाने के लिए तरहतरह के नारे गढ़े गए.

राम के जीवन दर्शन के लिए सरकार ने रामायण सर्किट बनाया. साथ ही चार धाम रोड प्रोजैक्ट भी तैयार किया गया है. बुद्ध सर्किट को भी सरकार ने और मजबूत बनाया है. इस के अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ दिन पहले ही कायाकल्प के बाद केदारधाम का लोकार्पण किया और बद्रीधाम का भी कायाकल्प किया जा चुका है. यही नहीं, जम्मू कश्मीर में सरकार करीब 50 हजार मंदिरों का जीर्णोद्धार कर रही है. मुसलिम देश में भी हिंदू मंदिर बनाया जा चुका है.

उधर चीन ने धर्मों पर अंकुश रखा है. हालांकि धर्मों ने सत्ता पर वर्चस्व की कोशिशें कीं लेकिन सरकारी नीतियों ने उन्हें कामयाब नहीं होने दिया. चीन ने अपनी विशाल आबादी का इस्तेमाल देश की प्रगति में किया है.

राम मंदिर आंदोलन के बाद से देश निकम्मेपन, बेकारी की ओर बढ़ने लगा. बेकारों की फौज में बढ़ोतरी होने लगी.

राम मंदिर आंदोलन का देश की उत्पादकता, अर्थव्यवस्था से कोई संबंध नहीं रहा. हालांकि सरकारों ने दावे किए कि इस से पर्यटन बढ़ेगा, रोजगार बढ़ेंगे और अर्थव्यवस्था की रफतार बढ़ेगी लेकिन ऐसा कुछ नहीं दिखाई देता. राम मंदिर में मूर्ति स्थापना के समय देश के  लगभग एक दर्जन शहरों से सीधे अयोध्या के लिए फ्लाइटें संचालित की गईं लेकिन खबरें आ रही हैं कि अब वे सभी फ्लाइटें बंद हो चुकी हैं.

अयोध्या में लोगों ने व्यापार की दृष्टि से जमीनें खरीदीं व अन्य तरीकों से निवेश किया, इस उम्मीद से कि मंदिर निर्माण के बाद रामजी नए सिरे ने व्यापार में बढ़ोतरी करेंगे पर टांयटांय फिस्स हो गया.

अकेले राम मंदिर निर्माण में हजारों करोड़ रूपए लग गए. यह पैसा इस देश की जनता की मेहनत की कमाई का था. अगर वहां इतने ही पैसों के 20-30 कारखाने लग जाते तो वहां की गरीब जनता रामजी के लिए जलाए गए लाखों दीयों से तेल बटोरती हुई पुलिस के डंडे नहीं खाती.

मंदिरों का निर्माण हो, तीर्थों का विकास या कौरिडोर बनाने हों, इन में खर्च हजारों करोड़ रूपए सरकार और उस के अंधभक्तों की आत्मसंतुष्टि और पंडों के धंधे चमकाने के लिए पर्याप्त हो सकते हैं लेकिन इस देश के आम लोगों के किसी काम के नहीं हैं.

1978 में जब से चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को खोलना और सुधारना शुरू किया, तब से जीडीपी वृद्धि औसतन 9 प्रतिशत प्रतिवर्ष रही है और लगभग 800 मिलियन लोग गरीबी से बाहर निकल आए हैं. इसी अवधि में स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य सेवाओं तक पहुंच में भी उल्लेखनीय सुधार हुआ है. 1978 से सुधार के बाद यह दुनिया की चौथी सब से बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है. अविश्वसनीय रूप से चीन ने 30 वर्षों में सुधार, पुनर्जागरण और औद्योगिक क्रांति के बराबर काम किया है. यह अविश्वसनीय है क्योंकि केवल तीन दशक पहले चीन इतना गरीब और अलगथलग था.

 

कभी हुआ करते थे बराबर

एक समय था जब भारत जीडीपी में चीन के करीब आ पहुंचा था. 1991 में भारत की जीडीपी करीब 0.27 ट्रिलियन डौलर थी. 28 साल में 11 गुणा बढ़ कर 2.88 ट्रिलियन डौलर हो गई. 1980 में चीन की जीडीपी भारत से सिर्फ 2.5 प्रतिशत अधिक थी जो 75 गुणा बढ़ कर 14.34 ट्रिलियन डौलर हो गई.

राम मंदिर आंदोलन को भी 3 दशक से अधिक समय हो गया. आंदोलन का नतीजा है कि इस दौरान गांवों, कस्बों, शहरों और महानगरों ने हजारों मंदिर, मस्जिद बन गए. ये इतने विशाल, भव्य हैं कि इस की चकाचौंध में लोग रोजीरोटी, शिक्षा जैसे बुनियादी मुद्दे भूल गए हैं.

इधर चीन की धार्मिक नीति बड़ी कठिन है. यहां धर्मस्थलों को सरकार से मंज़ूरी लेनी होती है. इस के साथ ही इन की गतिविधियों पर सरकार का नियंत्रण होता है. चीन में मुसलिम भी पाबंदियों के साथ जी रहे हैं.

चीन इतना ताकतवर है, लेकिन इस देश में धर्मों का संसार सब से लाचार है. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के लगभग 8.5 करोड़ कार्यकर्ता हैं. इन्हें सख्त चेतावनी है कि वो किसी धर्म का पालन नहीं करेंगे. अगर पार्टी का कोई कार्यकर्ता किसी भी धर्म का अनुयायी पाया जाता है तो उसे सज़ा देने का प्रावधान है़.

 

प्रशासनिक मामलों में धर्म से दूरी

चीन में 6.7 करोड़ लोग ईसाई धर्म को मानते हैं. इन करोड़ों लोगों के लिए आधिकारिक चर्च के अलावा दूसरे चर्चों में प्रार्थना करना आसान नहीं है. चीन के पारंपरिक धर्म बौद्ध और ताओइज्म मानने वाले 30 से 40 करोड़ लोग हैं. चीन में धर्मों पर नियंत्रण का एक व्यावसायिक पहलू भी है. मंदिरों में स्थानीय सरकार लोगों की एंट्री पर शुल्क देने पर मजबूर करती है.

चीन में बौद्ध धर्म के बारे में कहा जाता है कि यह एकमात्र विदेशी धर्म है जिस की चीन में सब से ज़्यादा स्वीकार्यता है. चीन में बौद्ध धर्म दूसरी शताब्दी में आया था. चीन के कई हिस्सों में वह एक महत्वपूर्ण ताकत है. ग्रामीण चीन में इस का ख़ास प्रभाव है. लेकिन सरकारों में दखलंदाजी से दूर दिखाई देता है.

इस्लाम चीन में 7वीं शताब्दी में वहां के अरब के व्यापारियों के ज़रिए आया था. आज  इस्लाम यहां अल्पसंख्यक है. एक अनुमान के मुताबिक चीन में डेढ़ करोड़ से ज्यादा मुसलिम हैं. राजनीतिक रूप से चीन में मुसलमानों को अहम भागीदारी है, क्योंकि चीन ने व्यापार के लिए इन का इस्तेमाल करना सीख लिया है. चीन का मुसलिम देशों से अच्छा संबंध है. यहां के लगभग मुसलिम सुन्नी हैं लेकिन इन पर सूफ़ियों का प्रभाव ज़्यादा है. यानी इन में कट्टरता नहीं है.

राम मंदिर आंदोलन के बाद से भारत में मुसलमानों और मुसलिम देशों के प्रति एक नफरत का माहौल बनाया गया, जिस का नुकसान भारत को आर्थिक और सामाजिक तौर पर उठाना पड़ रहा है. इस का असर जीडीपी पर पड़ना निश्चित था.

 

डेवेलपमैंट में आगे चीन

चीनी सरकार का मानना है कि धार्मिक आस्था वामपंथ को कमजोर करती है. पार्टी का मानना है कि धर्म विचारधारा के आड़े आता है. पार्टी कार्यकर्ताओं को हर नियम मानना पड़ता है. 1990 में चीनी अर्थव्यवस्था भारत की तुलना में बड़ी थी. आज भी चीन की जीडीपी भारत से 5.46 गुना बड़ी है.

वर्ल्ड बैंक के अनुसार 2021 में भारत की जीडीपी 3.1 ट्रिलियन डौलर थी और चीन की 17.7 ट्रिलियन डौलर. चीनी अर्थव्यवस्था को कैसे पीछे छोड़ेगी, यह चुनौती राम मंदिर सरकार के सामने है. इसे पीछे छोड़ने में भारत को ढाई दशक लग जाएंगे.

विश्व के बड़े अर्थशास्त्री इस मुद्दे पर बहस करना समय की बरबादी मानते हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन की आर्थिक सलाहकार परिषद में रहे स्टीव हैंके कहते हैं कि भारत समस्याओं से दबा हुआ हैं. ह्यूमन फ्रीडम इंडैक्स में 165 देशों में से भारत 150वें स्थान पर है. यह रैंक व्यक्तिगत, नागरिक और आर्थिक स्वतंत्रता को ले कर हैं. मिसाल के तौर पर कानून के शासन पर दिए गए स्कोर में भारत का रिकौर्ड दुनिया में सब से खराब देशों में से है.

भारत झूठे दावे करता रहा कि 21वीं सदी भारत की होगी लेकिन चीन इस सदी में दुनिया के सब से ताकतवर देशों की पंक्ति में आ खड़ा हुआ. वह दुनिया का सब से बड़ा मैन्युफैक्चरर देश है. भारत में पिछले लगभग तीन दशक में धर्म को पैर पसारने का मौका मिला और ये पैर इस कदर पसारे कि सरकारों के सिर पर आ गए. सरकारें भी पैरों को परे पटकने की बजाय सहलाने लगी.

सरकार की शह से देश में कट्टरवादी ताकतें बेलगाम हो गईं. धर्म की निंदा करने वाले बुद्धिजीवियों, लेखकों, पत्रकारों और लोकतंत्र व सामाजिक सौहार्द के पक्षधर लोगों पर हमले शुरू हो गए. मौब लिंचिंग की घटनाएं होने लगीं. अनेक उद्योगपतियों का पलायन हुआ. इन सब कारणों से विदेशी निवेश गिरने लगा. पिछले 35 साल में सब से ज्यादा बेरोजगारी है. 30 लाख केंद्र में सरकारी पद खाली पड़े हैं. युवा, किसान, मजदूर, छोटे व्यापारी परेशान हैं.

घरेलू बचत 35 वर्षों में सब से निचले स्तर पर है, जबकि घरेलू ऋण लगातार बढ़ कर 1970 से ले कर आजतक के सब से ऊंचे स्तर पर है. 1990 में चीनी अर्थव्यवस्था भारत की तुलना में थोड़ी ही बड़ी थी. तब से भारत की जीडीपी चीन के मुकाबले लगातार गिर रही है.

कुछ समय पहले सरकार ने कहा था कि 25 करोड़ भारतीयों को गरीबी रेखा से बाहर निकाला है. केंद्र सरकार 80 करोड़ गरीब लोगों को 5 किलो गेंहू दे रही है. इस का अर्थ देश में 105 करोड़ लोग गरीब हैं. वर्ल्ड बैंक के अनुसार 2021 में भारत की जीडीपी 3.1 ट्रिलियन डौलर थी और चीन की 17.7 ट्रिलियन डौलर.

 

धर्म की राजनीति ने डुबोई लुटिया

दरअसल भाजपा ने 1989 में अपने पालमपुर, हिमाचल प्रदेश संकल्प में अयोध्या में राम जन्मभूमि पर मंदिर के निर्माण का वादा किया. उसी साल दिसंबर में हुए आम चुनाव में भाजपा ने राम मंदिर के निर्माण की बात अपने चुनावी घोषणापत्र में पहली बार कही. नतीजा यह हुआ कि 1984 में दो सीट जीतने वाली भाजपा ने 1989 के चुनाव में 85 सीटें जीत लीं. अब भाजपा का पूरा फोकस राम मंदिर आंदोलन पर हो गया.

भाजपा के पूर्व नेता लालकृष्ण आडवाणी राम रथ यात्रा के रास्ते हिंदुत्व विचारधारा को भारतीय राजनीति की मुख्यधारा में ले आए. उन्होंने देश के बदलते हुए मूड को भांप लिया था. राम जन्मभूमि के आंदोलन ने बिखरे हुए राष्ट्रवाद को धर्म से जोड़ कर इसे एक हिंदू राष्ट्रवाद के राजनीतिक आंदोलन में बदल दिया.

इस से मुसलिम अल्पसंख्यकों पर हिंसक हमले बढ़ गए. मुसलिम विरोधी बयानबाजी, राजनीति और नीतियां हिंदुत्व नेताओं, खासकर भाजपा के लिए फायदेमंद साबित होने लगी. यह उभरते हुए हिंदू राष्ट्रवाद की शुरुआत थी लेकिन भारत की सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था के लिए घातक थी.

मंदिर मुद्दे पर पार्टी की बढ़ती हुई लोकप्रियता व आडवाणी के बढ़ते कद से तब की जनता दल की सरकार घबरा गई. प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने भाजपा के बढ़ते असर को कम करने के लिए 1990 में मंडल कमीशन लागू करने की घोषणा कर दी. मंदिर बनाम मंडल की जंग में जीत भाजपा की हुई. आडवाणी ने सितंबर 1990 में रथयात्रा निकाली ताकि कारसेवक 20 अक्टूबर को राम मंदिर के निर्माण में हिस्सा ले सकें.

1991 में संसद के लिए मध्यावधि चुनाव हुआ तो भाजपा ने 120 सीटें हासिल कीं जो पिछले चुनाव की तुलना में 35 सीटें ज़्यादा थीं. उसी साल उत्तर प्रदेश में पार्टी पहली बार सत्ता में आई. 6 दिसंबर 1992 को मस्जिद के तोड़े जाने के बाद कल्याण सिंह की सरकार तो गिर गई लेकिन राम मंदिर के मुद्दे से पार्टी को सियासी लाभ मिल चुका था.

इसी दौरान पार्टी की केंद्र में सरकार बनी जिस से पार्टी का मनोबल बढ़ा और अब उसे मंदिर मुद्दे की जरूरत महसूस नहीं हुई. इसीलिए नारे गढ़ने में माहिर भाजपा ने 2004 के चुनाव में इंडिया शाइनिंग का नारा दिया और विकास की बात की. पार्टी चुनाव हार गई. 2009 में पार्टी ने राम मंदिर का मुद्दा फिर सामने रखा.

2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद भाजपा शासित कई राज्य सरकारों ने धर्म परिवर्तन और गौ हत्या विरोधी जैसे कानून लागू किए. समान नागरिक संहिता, धारा 370 हटाने जैसी धार्मिक कवायदों पर ही अधिक ध्यान दिया गया.

इस दौरान देश में हिंसा के अनेक नए रूप सामने आए. अंतरधार्मिक शादियों और पशुओं की तस्करी रोकने के लिए डराना, धमकाना और यहां तक कि लिंचिंग करना. ये सब भारत की अर्थव्यवस्था के लिए बड़ी बाधाएं साबित हुईं.

 

 धर्मतंत्र से पिछड़ा भारत

दरअसल धर्म पर खर्च किए गए पैसे का संबंध आर्थिकी कार्य, उत्पादन, सर्विस, उपभोग करने के व्यावहारिक कार्य व्यापार से नहीं है. मंदिरों पर किया गया अधिकांश धन ब्लौक हो जाता है. न सरकारों के पास टैक्स के रूप में जा पाता है, न आम जनता के पास रोटेशन हो पाता. यह पूंजीवाद भी नहीं है. धर्मों पर खर्च पूंजी ऐसी आर्थिक प्रणाली नहीं है जिस का लक्ष्य उत्पादन के माध्यम से असीमित लाभ अर्जित किया जा सके.

असल में यह परलोक सुधारने के लिए धूल में फेंक दिया गया धन है, यह निवेश नहीं है जिस से भविष्य में धन कई गुणा बढ़ सके. दुनिया भर की सरकारों के लिए यह सबक हो सकता है कि किसी भी देश की अर्थव्यवस्था में वहां की सरकार की धार्मिक नीति की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. यह बात सरकारों और राजनीतिक दलों को तो समझ में नहीं आएगी लेकिन जनता को जरूर समझ लेनी चाहिए ताकि उसे अपने देश में कैसी सरकार चाहिए, उस पर सही फैसला कर सके. इस में चीन का कोई सानी नहीं है.

Ragging : ये कैसी पापड़ पार्टी दी थी Seniors ने

आज कालेज कैंपस में सन्नाटा पसरा है. 3 छात्रों की पिकनिक के दौरान नदी में डूब जाने से अकस्मात मौत हो गई. सभी होनहार विद्यार्थी थे. हमेशा खुश रहना व दूसरों की मदद करना उन की दिनचर्या थी.

वे हमारे सीनियर्स थे. कालेज का फर्स्ट ईयर यानी न्यू कमर्स को भीगी बिल्ली बन कर रहना पड़ता था. न्यू कमर्स का ड्रैस कोड, रोज शेविंग करना, सीनियर्स को देख कर नजरें चुपचाप कमीज के तीसरे बटन पर ले जाना अनिवार्य लेकिन अघोषित नियम था.

इस नियम को न मानने का मतलब सीनियर्स द्वारा धुनाई के लिए तैयार रहना पड़ता था. इस वजह से हम सब उन नियमों के पाबंद थे.

हमें यह नसीहत भी दी गई थी कि सीनियर्स की डांटफटकार से आदमी के व्यवहार में गजब का आत्मविश्वास पैदा होता है.

इस रैगिंग से जीवन के किसी भी क्षेत्र में निर्णायक निर्णय लेने की क्षमता पैदा होती है. हर प्रकार की झिझक खत्म हो जाती है. किसी इंटरव्यू को फेस करने में नाममात्र भी घबराहट नहीं होती. यहां रैगिंग का पूरा काम अनैतिक होते हुए भी व्यक्तित्व के निर्माण के लिए मजबूत नींव बनाता है.

हम जूनियर्स ने भी खुद को इन अघोषित नियमों के हवाले कर रखा था, वे जो कहते हम हुक्म बजा लाते.

एक दिन एक सीनियर ग्रौसरीशौप में दिखे. परंपरा के मुताबिक मेरी निगाह अपने तीसरे बटन पर थी,‘‘…तो पापड़ खरीद रहे हो?’’

मैं ने निगाह नीची कर के कहा, ‘‘जी सर…’’

बला आई थी और टल गई… सांसें वापस लौटीं… मैं ने लिस्ट में उस शौप का नाम दर्ज कर लिया, भूल से वहां दोबारा नहीं जाना. यह इलाका सीनियर्स का था.

पापड़ की इतनी सी घटना ने सीनियर्स के दिमाग में नया फुतूर भर दिया.

उन्होंने जूनियर्स को अगले दिन शाम 4 बजे इकट्ठा किया और सब को श्मशान घाट चलने को कहा. हम जूनियर्स नीची निगाहें किए मन ही मन सोचने लगे कि अब क्या नई आफत आने वाली है, हम अंदर ही अंदर डर से कांपने लगे. रास्ते में एक सीनियर ने पापड़ खरीदे. श्मशान में 2-3 चिताएं जल रही थीं. लगभग सभी चिताओं की लकडि़यां सुलग रही थीं. चिताओं के दावेदार आग दे कर चले गए थे. वहां सन्नाटा पसरा हुआ था. सीनियर्स ने सब के हाथ में एकएक पापड़ दिया और कहा कि इन्हें चिता में सेंक कर खाना है, समझे.

यह सुन कर हम लोग सन्न रह गए. हमारे संस्कार आड़े आने लगे. हम रोंआसे हो गए. मन में कई विचार आने लगे. आखिर हम भागनेकतराने की तरकीब में दबी जबान में सीनियर्स से पहली बार भिड़ने की हिम्मत जुटा कर कहने लगे, ‘‘हम से यह नहीं होगा, सर.’’

लेकिन सीनियर्स में से ही एक सीनियर ने अपनी शर्ट खोली, जनेऊ उतार कर जेब में रखा, पापड़ मांगा, सेंका और खा लिया.

हम सब भौचक्क उन को देखते रह गए. उन्होंने कहा कि विचार हमारे मन की बाधाएं हैं. हमें जो संस्कार दिए गए हैं, उन से ऊपर उठने की हम कभी सोचते ही नहीं. हमें एक सांचे में ढालने की कोशिश की जाती है हम उस से जुदा कुछ बनने की, करने की कभी हिम्मत नहीं करते.

अब हम लोगों के पास बचने का कोई रास्ता बाकी नहीं था. इसलिए हम सब ने अपनेअपने पापड़ सेंके और खा लिए.

सीनियर्स ने कहा कि आज यह तुम लोगों की अंतिम परीक्षा थी. तुम सब इस में पास हुए हो. आज से हम सब फ्रैंड हैं.

तब से हम दोस्तों के बीच कोडवर्ड शुरू हो गया, ‘पापड़ पार्टी.’

घर में, कालेज में किसी को खबर नहीं है कि ये ‘पापड़ पार्टी’ बला क्या है.

इस पापड़ पार्टी के बमुश्किल 3 महीने गुजरे हैं और यह हादसा हो गया.

वही श्मशान, वही जगह, वही सीनियर्स…

चिता में लिटाए जाते वक्त लगता था, कमीज न होते हुए भी वे सब तीसरे बटन की ओर देख रहे हैं.

‘जिस गली जाना नहीं उधर देखना भी क्यों

अवाक खड़ा था सोम. भौचक्का सा. सोचा भी नहीं था कि ऐसा भी हो जाएगा उस के साथ. जीवन कितना विचित्र है. सारी उम्र बीत जाती है कुछकुछ सोचते और जीवन के अंत में पता चलता है कि जो सोचा वह तो कहीं था ही नहीं. उसे लग रहा था जिसे जहां छोड़ कर गया था वह वहीं पर खड़ा उस का इंतजार कर रहा होगा. वही सब होगा जैसा तब था जब उस ने यह शहर छोड़ा था.

‘‘कैसे हो सोम, कब आए अमेरिका से, कुछ दिन रहोगे न, अकेले ही आए हो या परिवार भी साथ है?’’

अजय का ठंडा सा व्यवहार उसे कचोट गया था. उस ने तो सोचा था बरसों पुराना मित्र लपक कर गले मिलेगा और उसे छोड़ेगा ही नहीं. रो देगा, उस से पूछेगा वह इतने समय कहां रहा, उसे एक भी पत्र नहीं लिखा, उस के किसी भी फोन का उत्तर नहीं दिया. उस ने उस के लिए कितनाकुछ भेजा था, हर दीवाली, होली पर उपहार और महकदार गुलाल. उस के हर जन्मदिन पर खूबसूरत कार्ड और नए वर्ष पर उज्ज्वल भविष्य के लिए हार्दिक सुखसंदेश. यह सत्य है कि सोम ने कभी उत्तर नहीं दिया क्योंकि कभी समय ही नहीं मिला. मन में यह विश्वास भी था कि जब वापस लौटना ही नहीं है तो क्यों समय भी खराब किया जाए. 10 साल का लंबा अंतराल बीत गया था और आज अचानक वह प्यार की चाह में उसी अजय के सामने खड़ा है जिस के प्यार और स्नेह को सदा उसी ने अनदेखा किया और नकारा.

‘‘आओ न, बैठो,’’ सामने लगे सोफों की तरफ इशारा किया अजय ने, ‘‘त्योहारों के दिन चल रहे हैं न. आजकल हमारा ‘सीजन’ है. दीवाली पर हर कोई अपना घर सजाता है न यथाशक्ति. नए परदे, नया बैडकवर…और नहीं तो नया तौलिया ही सही. बिरजू, साहब के लिए कुछ लाना, ठंडागर्म. क्या लोगे, सोम?’’

‘‘नहीं, मैं बाहर का कुछ भी नहीं लूंगा,’’ सोम ने अजय की लदीफंदी दुकान में नजर दौड़ाई. 10 साल पहले छोटी सी दुकान थी. इसी जगह जब दोनों पढ़ कर निकले थे वह बाहर जाने के लिए हाथपैर मारने लगा और अजय पिता की छोटी सी दुकान को ही बड़ा करने का सपना देखने लगा. बचपन का साथ था, साथसाथ पलेबढ़े थे. स्कूलकालेज में सब साथसाथ किया था. शरारतें, प्रतियोगिताएं, कुश्ती करते हुए मिट्टी में साथसाथ लोटे थे और आज वही मिट्टी उसे बहुत सता रही है जब से अपने देश की मिट्टी पर पैर रखा है. जहां देखता है मिट्टी ही मिट्टी महसूस होती है. कितनी धूल है न यहां.

‘‘तो फिर घर आओ न, सोम. बाहर तो बाहर का ही मिलेगा.’’

अजय अतिव्यस्त था. व्यस्तता का समय तो है ही. दीवाली के दिन ही कितने रह गए हैं. दुकान ग्राहकों से घिरी है. वह उस से बात कर पा रहा है, यही गनीमत है वरना वह स्वयं तो उस से कभी बात तक नहीं कर पाया. 10 साल में कभी बात करने में पहल नहीं की. डौलर का भाव बढ़ता गया था और रुपए का घटता मूल्य उस की मानसिकता को इतना दीनहीन बना गया था मानो आज ही कमा लो सब संसार. कल का क्या पता, आए न आए. मानो आज न कमाया तो समूल जीवन ही रसातल में चला जाएगा. दिनरात का काम उसे कहां से कहां ले आया, आज समझ में आ रहा है. काम का बहाना ऐसा, मानो एक वही है जो संसार में कमा रहा है, बाकी सब निठल्ले हैं जो मात्र जीवन व्यर्थ करने आए हैं. अपनी सोच कितनी बेबुनियाद लग रही है उसे. कैसी पहेली है न हमारा जीवन. जिसे सत्य मान कर उसी पर विश्वास और भरोसा करते रहते हैं वही एक दिन संपूर्ण मिथ्या प्रतीत होता है.

अजय का ध्यान उस से जैसे ही हटा वह चुपचाप दुकान से बाहर चला आया. हफ्ते बाद ही तो दीवाली है. सोम ने सोचा, उस दिन उस के घर जा कर सब से पहले बधाई देगा. क्या तोहफा देगा अजय को. कैसा उपहार जिस में धन न झलके, जिस में ‘भाव’ न हो ‘भाव’ हो. जिस में मूल्य न हो, वह अमूल्य हो.

विचित्र सी मनोस्थिति हो गई है सोम की. एक खालीपन सा भर गया है मन में. ऐसा महसूस हो रहा है जमीन से कट गया है. लावारिस कपास के फूल जैसा जो पूरी तरह हवा के बहाव पर ही निर्भर है, जहां चाहे उसे ले जाए. मां और पिताजी भीपरेशान हैं उस की चुप्पी पर. बारबार उस से पूछ रहे हैं उस की परेशानी आखिर है क्या? क्या बताए वह? कैसे कहे कि खाली हाथ लौट आया है जो कमाया उसे वहीं छोड़ आ गया है अपनी जमीन पर, मात्र इस उम्मीद में कि वह तो उसे अपना ही लेगी.

विदेशी लड़की से शादी कर के वहीं का हो गया था. सोचा था अब पीछे देखने की आखिर जरूरत ही क्या है? जिस गली अब जाना नहीं उधर देखना भी क्यों? उसे याद है एक बार उस की एक चाची ने मीठा सा उलाहना दिया था, ‘मिलते ही नहीं हो, सोम. कभी आते हो तो मिला तो करो.’

‘क्या जरूरत है मिलने की, जब मुझे यहां रहना ही नहीं,’ फोन पर बात कर रहा था इसलिए चाची का चेहरा नहीं देख पाया था. चाची का स्वर सहसा मौन हो गया था उस के उत्तर पर. तब नहीं सोचा था लेकिन आज सोचता है कितना आघात लगा होगा तब चाची को. कुछ पल मौन रहा था उधर, फिर स्वर उभरा था, ‘तुम्हें तो जीवन का फलसफा बड़ी जल्दी समझ में आ गया मेरे बच्चे. हम तो अभी तक मोहममता में फंसे हैं. धागे तोड़ पाना सीख ही नहीं पाए. सदा सुखी रहो, बेटा.’

चाची का रुंधा स्वर बहुत याद आता है उसे. उस के बाद चाची से मिला ही कब. उन की मृत्यु का समाचार मिला था. चाचा से अफसोस के दो बोल बोल कर साथ कर्तव्य की इतिश्री कर ली थी. इतना तेज भाग रहा था कि रुक कर पीछे देखना भी गवारा नहीं था. मोहममता को नकार रहा था और आज उसी मोह को तरस रहा है. मोहममता जी का जंजाल है मगर एक सीमा तक उस की जरूरत भी तो है. मोह न होता तो उस की चाची उसे सदा खुश रहने का आशीष कभी न देती. उस के उस व्यवहार पर भी इतना मीठा न बोलती. मोह न हो तो मां अपनी संतान के लिए रातभर कभी न जागे और अगर मोह न होता तो आज वह भी अपनी संतान को याद करकर के अवसाद में न जाता. क्या नहीं किया था सोम ने अपने बेटे के लिए.

विदेशी संस्कार नहीं थे, इसलिए कह सकता है अपना खून पिलापिला कर जिसे पाला वही तलाक होते ही मां की उंगली पकड़ चला गया. मुड़ कर देखा भी नहीं निर्मोही ने. उसे जैसे पहचानता ही नहीं था. सहसा उस पल अपना ही चेहरा शीशे में नजर आया था.

‘जिस गली जाना नहीं उस गली की तरफ देखना भी क्यों?’

उस के हर सवाल का जवाब वक्त ने बड़ी तसल्ली के साथ थाली में सजा कर उसे दिया है. सुना था इस जन्म का फल अगले जन्म में मिलता है अगर अगला जन्म होता है तो. सोम ने तो इसी जन्म में सब पा भी लिया. अच्छा ही है इस जन्म का कर्ज इसी जन्म में उतर जाए, पुनर्जन्म होता है, नहीं होता, कौन जाने. अगर होता भी है तो कर्ज का भारी बोझ सिर पर ले कर उस पार भी क्यों जाना. दीवाली और नजदीक आ गई. मात्र 5 दिन रह गए. सोम का अजय से मिलने को बहुत मन होने लगा. मां और बाबूजी उसे बारबार पोते व बहू से बात करवाने को कह रहे हैं पर वह टाल रहा है. अभी तक बता ही नहीं पाया कि वह अध्याय समाप्त हो चुका है.

किसी तरह कुछ दिन चैन से बीत जाएं, फिर उसे अपने मांबाप को रुलाना ही है. कितना अभागा है सोम. अपने जीवन में उस ने किसी को सुख नहीं दिया. न अपनी जन्मदाती को और न ही अपनी संतान को. वह विदेशी परिवेश में पूरी तरह ढल ही नहीं पाया. दो नावों का सवार रहा वह. लाख आगे देखने का दावा करता रहा मगर सत्य यही सामने आया कि अपनी जड़ों से कभी कट नहीं पाया. पत्नी पर पति का अधिकार किसी और के साथ बांट नहीं पाया. वहां के परिवेश में परपुरुष से मिलना अनैतिक नहीं है न, और हमारे घरों में उस ने क्या देखा था चाची और मां एक ही पति को सात जन्म तक पाने के लिए उपवास रखती हैं. कहां सात जन्म तक एक ही पति और कहां एक ही जन्म में 7-7 पुरुषों से मिलना. ‘जिस गली जाना नहीं उस गली की तरफ देखना भी क्यों’ जैसी बात कहने वाला सोम आखिरकार अपनी पत्नी को ले कर अटक गया था. सोचने लगा था, आखिर उस का है क्या, मांबाप उस ने स्वयं छोड़ दिए  और पत्नी उस की हुई नहीं. पैर का रोड़ा बन गया है वह जिसे इधरउधर ठोकर खानी पड़ रही है. बहुत प्रयास किया था उस ने पत्नी को समझाने का.

‘अगर तुम मेरे रंग में नहीं रंग जाते तो मुझ से यह उम्मीद मत करो कि मैं तुम्हारे रंग में रंग जाऊं. सच तो यह है कि तुम एक स्वार्थी इंसान हो. सदा अपना ही चाहा करते हो. अरे जो इंसान अपनी मिट्टी का नहीं हुआ वह पराई मिट्टी का क्या होगा. मुझ से शादी करते समय क्या तुम्हें एहसास नहीं था कि हमारे व तुम्हारे रिवाजों और संस्कृति में जमीनआसमान का अंतर है?

अंगरेजी में दिया गया पत्नी का उत्तर उसे जगाने को पर्याप्त था. अपने परिवार से बेहद प्यार करने वाला सोम बस यही तो चाहता था कि उस की पत्नी, बस, उसी से प्रेम करे, किसी और से नहीं. इस में उस का स्वार्थ कहां था? प्यार करना और सिर्फ अपनी ही बना कर रखना स्वार्थ है क्या?

स्वार्थ का नया ही अर्थ सामने चला आया था. आज सोचता है सच ही तो है, स्वार्थी ही तो है वह. जो इंसान अपनी जड़ों से कट जाता है उस का यही हाल होना चाहिए. उस की पत्नी कम से कम अपने परिवेश की तो हुई. जो उस ने बचपन से सीखा कम से कम उसे तो निभा रही है और एक वह स्वयं है, धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का. न अपनों से प्यार निभा पाया और न ही पराए ही उस के हुए. जीवन आगे बढ़ गया. उसे लगता था वह सब से आगे बढ़ कर सब को ठेंगा दिखा सकता है. मगर आज ऐसा लग रहा है कि सभी उसी को ठेंगा दिखा रहेहैं. आज हंसी आ रही है उसे स्वयं पर. पुन: उसी स्थान पर चला आया है जहां आज से 10 साल पहले खड़ा था. एक शून्य पसर गया है उस के जीवन में भी और मन में भी.

शाम होते ही दम घुटने लगा, चुपचाप छत पर चला आया. जरा सी ताजी हवा तो मिले. कुछ तो नया भाव जागे जिसे देख पुरानी पीड़ा कम हो. अब जीना तो है उसे, इतना कायर भी नहीं है जो डर जाए. प्रकृति ने कुछ नया तो किया नहीं, मात्र जिस राह पर चला था उसी की मंजिल ही तो दिखाई है. दिल्ली की गाड़ी में बैठा था तो कश्मीर कैसे पहुंचता. वहीं तो पहुंचा है जहां उसे पहुंचना चाहिए था.

छत पर कोने में बने स्टोररूम का दरवाजा खोला सोम ने. उस के अभाव में मांबाबूजी ने कितनाकुछ उस में सहेज रखा है. जिस की जरूरत है, जिस की नहीं है सभी साथसाथ. सफाई करने की सोची सोम ने. अच्छाभला हवादार कमरा बरबाद हो रहा है. शायद सालभर पहले नीचे नई अलमारी बनवाई गई थी जिस से लकड़ी के चौकोर तिकोने, ढेर सारे टुकड़े भी बोरी में पड़े हैं. कैसी विचित्र मनोवृत्ति है न मुनष्य की, सब सहेजने की आदत से कभी छूट ही नहीं पाता. शायद कल काम आएगा और कल का ही पता नहीं होता कि आएगा या नहीं और अगर आएगा तो कैसे आएगा.

4 दिन बीत गए. आज दीवाली है. सोम के ही घर जा पहुंचा अजय. सोम से पहले वही चला आया, सुबहसुबह. उस के बाद दुकान पर भी तो जाना है उसे. चाची ने बताया वह 4 दिन से छत पर बने कमरे को संवारने में लगा है.

‘‘कहां हो, सोम?’’

चौंक उठा था सोम अजय के स्वर पर. उस ने तो सोचा था वही जाएगा अजय के घर सब से पहले.

‘‘क्या कर रहे हो, बाहर तो आओ, भाई?’’

आज भी अजय उस से प्यार करता है, यह सोच आशा की जरा सी किरण फूटी सोम के मन में. कुछ ही सही, ज्यादा न सही.

‘‘कैसे हो, सोम?’’ परदा उठा कर अंदर आया अजय और सोम को अपने हाथ रोकने पड़े. उस दिन जब दुकान पर मिले थे तब इतनी भीड़ थी दोनों के आसपास कि ढंग से मिल नहीं पाए थे.

‘‘क्या कर रहे हो भाई, यह क्या बना रहे हो?’’ पास आ गया अजय. 10 साल का फासला था दोनों के बीच. और यह फासला अजय का पैदा किया हुआ नहीं था. सोम ही जिम्मेदार था इस फासले का. बड़ी तल्लीनता से कुछ बना रहा था सोम जिस पर अजय ने नजर डाली.

‘‘चाची ने बताया, तुम परेशान से रहते हो. वहां सब ठीक तो है न? भाभी, तुम्हारा बेटा…उन्हें साथ क्यों नहीं लाए? मैं तो डर रहा था कहीं वापस ही न जा चुके हो? दुकान पर बहुत काम था.’’

‘‘काम था फिर भी समय निकाला तुम ने. मुझ से हजारगुना अच्छे हो तुम अजय, जो मिलने तो आए.’’

‘‘अरे, कैसी बात कर रहे हो, यार,’’ अजय ने लपक कर गले लगाया तो सहसा पीड़ा का बांध सारे किनारे लांघ गया.

‘‘उस दिन तुम कब चले गए, मुझे पता ही नहीं चला. नाराज हो क्या, सोम? गलती हो गई मेरे भाई. चाची के पास तो आताजाता रहता हूं मैं. तुम्हारी खबर रहती है मुझे यार.’’

अजय की छाती से लगा था सोम और उस की बांहों की जकड़न कुछकुछ समझा रही थी उसे. कुछ अनकहा जो बिना कहे ही उस की समझ में आने लगा. उस की बांहों को सहला रहा था अजय, ‘‘वहां सब ठीक तो है न, तुम खुश तो हो न, भाभी और तुम्हारा बेटा तो सकुशल हैं न?’’

रोने लगा सोम. मानो अभीअभी दोनों रिश्तों का दाहसंस्कार कर के आया हो. सारी वेदना, सारा अवसाद बह गया मित्र की गोद में समा कर. कुछ बताया उसे, बाकी वह स्वयं ही समझ गया.

‘‘सब समाप्त हो गया है, अजय. मैं खाली हाथ लौट आया. वहीं खड़ा हूं जहां आज से 10 साल पहले खड़ा था.’’

अवाक् रह गया अजय, बिलकुल वैसा जैसा 10 साल पहले खड़ा रह गया था तब जब सोम खुशीखुशी उसे हाथ हिलाता हुआ चला गया था. फर्क सिर्फ इतना सा…तब भी उस का भविष्य अनजाना था और अब जब भविष्य एक बार फिर से प्रश्नचिह्न लिए है अपने माथे पर. तब और अब न तब निश्चित थे और न ही आज. हां, तब देश पराया था लेकिन आज अपना है.

जब भविष्य अंधेरा हो तो इंसान मुड़मुड़ कर देखने लगता है कि शायद अतीत में ही कुछ रोशनी हो, उजाला शायद बीते हुए कल में ही हो.

मेज पर लकड़ी के टुकड़े जोड़ कर बहुत सुंदर घर का मौडल बना रहा सोम उसे आखिरी टच दे रहा था, जब सहसा अजय चला आया था उसे सुखद आश्चर्य देने. भीगी आंखों से अजय ने सुंदर घर के नन्हे रूप को निहारा. विषय को बदलना चाहा, आज त्योहार है रोनाधोना क्यों? फीका सा मुसकरा दिया, ‘‘यह घर किस का है? बहुत प्यारा है. ऐसा लग रहा है अभी बोल उठेगा.’’

‘‘तुम्हें पसंद आया?’’

‘‘हां, बचपन में ऐसे घर बनाना मुझे बहुत अच्छा लगता था.’’

‘‘मुझे याद था, इसीलिए तो बनाया है तुम्हारे लिए.’’

झिलमिल आंखों में नन्हे दिए जगमगाने लगे. आस है मन में, अपनों का साथ मिलेगा उसे.

सोम सोचा करता था पीछे मुड़ कर देखना ही क्यों जब वापस आना ही नहीं. जिस गली जाना नहीं उस गली का रास्ता भी क्यों पूछना. नहीं पता था प्रकृति स्वयं वह गली दिखा देती है जिसे हम नकार देते हैं. अपनी गलियां अपनी होती हैं, अजय. इन से मुंह मोड़ा था न मैं ने, आज शर्म आ रही है कि मैं किस अधिकार से चला आया हूं वापस.

आगे बढ़ कर फिर सोम को गले लगा लिया अजय ने. एक थपकी दी, ‘कोई बात नहीं. आगे की सुधि लो. सब अच्छा होगा. हम सब हैं न यहां, देख लेंगे.’

बिना कुछ कहे अजय का आश्वासन सोम के मन तक पहुंच गया. हलका हो गया तनमन. आत्मग्लानि बड़ी तीव्रता से कचोटने लगी. अपने ही भाव याद आने लगे उसे, ‘जिस गली जाना नहीं उधर देखना भी क्यों.

जून का अंतिम सप्ताह बौलीवुड कारोबार : Kalki 2898AD को गलत बौक्स औफिस आंकड़े न बचा सके

बौलीवुड में गलत आंकडें दिखा कर अकसर फिल्में जबरदस्ती हिट दिखाई जाती हैं. ऐसा कर के वे अपना ही नुक्सान कर रहे हैं, जैसा कलकी के साथ हुआ है.

2023 में ‘जवान’ और ‘पठान’ ने जिस तरह से फेक बौक्स औफिस आंकड़े प्रचारित कर अपनी फिल्मों को सफल बताया था, उसी के चलते बाद में शाहरुख खान की ही फिल्म ‘डंकी’ के साथ जो कुछ हुआ, वह किसी से छिपा नहीं है. इस के बावजूद फिल्म निर्माता व कलाकार आज भी लोगों को मूर्ख ही समझते हैं. इसी का परिणाम है कि 2024 की छमाही के अंतिम सप्ताह यानी कि गुरूवार, 27 जून को प्रदर्शित नाग आश्विन लिखित व निर्देषित तथा प्रभास, अमिताभ बच्चन, दीपिका पादुकोण व अन्य कलाकारों के अभिनय से सजी 600 करोड़ की लागत में बनी फिल्म ‘‘कलकी 2898 एडी’’ को ले कर गलत बौक्स औफिस आंकड़े प्रचारित करने की अजीब सी होड़ लगी हुई है. इस में फिल्म के निर्माता, कलाकार, उन की पीआर और मार्केटिंग टीम के साथ ही चंद ‘समोसा क्रिटिक्स’ भी शामिल हैं.

हकीकत यह है कि नाग आश्विन की हिंदी सहित 5 भाषाओं में प्रदर्शित यह साइंस मैथोलौजिकल फिक्शन फिल्म ‘‘कलकी 2898 एडी’’ पूरी तरह से आतर्किक और रिग्रेसिव फिल्म है. फिल्म की कहानी ‘महाभारत’ काल से 6 हजार साल बाद यानी कि आज से 874 वर्ष बाद के वक्त की है.
फिल्मकार ने अपनी इस फिल्म के माध्यम से गलत तरीके से ‘महाभारत’ को लिखने का प्रयास किया है. यह कहीं नहीं लिखा है कि भगवान कृष्ण ने अश्वत्थामा से कहा था कि तुम्हारे माथे की मणि मेरे पास रहेगी और वह अमरत्व सुख भोगते हुए कलकी के रूप में उन के जन्म के समय मणि मिलने पर उन की अश्वत्थामा उन की रक्षा करेंगें. यह पूरी तरह से ‘महाभारत’ काल के खलनायकों का महिमा मंडन कर उन्हें हीरो बनाने का प्रयास है.

‘महाभारत’ की कहानी के अनुसार अश्वत्थामा ने 5 पांडव पुत्रों की सोते समय हत्या करने के साथ ही अभिमन्यू की पत्नी के गर्भ में पल रहे बच्चे की भी हत्या यानी कि भ्रूण हत्या करने का असफल प्रयास किया था.
इस फिल्म में 874 वर्ष के बाद आने वाले काल में औरतों को बंधुआ मजदूर से भी बदतर स्थिति में दिखाया है. जहां औरतों के गर्भ धारण करने पर उन के गर्भ से सिरम निकाल कर उन की व भ्रूण हत्या कर उस सिरम का उपयोग कर खलनायक खुद को जवान बना रहा है तो वहीं भैरव का किरदार निभा रहे प्रभाष को ‘कर्ण’ बता दिया जो कि सुमति के पेट में पल रहे बच्चे की हत्या करना चाहता है. इतना ही नहीं पूरी फिल्म की कहानी, पटकथा और कलाकारों के अभिनय में इतनी गड़बड़ी है कि दर्शक इस फिल्म को देखना नहीं चाहते.
मगर अपने फैन्स क्लब व अन्य तरह के तरीके अपना कर प्रभास ने फिल्म के प्रदर्शन के पहले दिन यानी कि गुरूवार, 27 जून का बौक्स औफिस कलैकशन 95 करोड़ (हिंदी मे साढ़े 22 करोड़, तेलुगु में 65 करोड़ ) जारी कर दिया, जिसे सभी पत्रकारों ने जम कर प्रचारित किया. जो कि पूरी तरह से गलत आंकड़े थे.
प्रभास तेलुगु के सुपर स्टार हैं और वहां पर उन्हें ईश्वर की तरह पूजा जाता है, तो वहां पर बौक्स औफिस पर उन के फैंस ने टिकट खरीदे होंगें, वैसे सूत्र बता रहे हैं कि प्रभास ने खुद ही अपने फैंस क्लब को टिकट खरीदने के लिए पैसे दिए थे. सूत्र दावा कर रहे हैं कि इस फिल्म के लिए प्रभास ने 80 करोड़ रूपए पारिश्रमिक राशि ली है. पर हिंदी के आंकड़ों पर यकीन करना मुश्किल है. क्योंकि पहले दिन भी सिनेमाघर खाली पड़े हुए थे.
मजेदार बात यह है कि पहले दिन 85 करोड़ कमाने वाली फिल्म निर्माता के ही अनुसार दूसरे दिन महज 59 करोड़ ही कमा सकी. इतनी बड़ी गिरावट? बहरहाल,निर्माता का दावा है कि पूरे 8 दिन में ‘कलकी 2898 एडी’ ने 414 करोड़ रूपए कमा लिए. यह आंकड़े पूरी तरह से गलत है. फिर भी यदि हम निर्माता के ही आंकड़ो को सच मान लें, तो 414 करोड़ में से निर्माता के हाथ में मुश्किल से 200 करोड़ रूपए ही आएंगे. जबकि फिल्म का बजट 600 करोड़ रूपए है. पहले सप्ताह के निर्माता के आंकड़ों पर चलें तो इस फिल्म का लाइफ टाइम व्यापार भी 600 करोड़ नहीं पहुंचेगा.
फिल्म ‘कलकी 2898 एडी’ की निर्माता व पीआरओ के चमचे फिल्म क्रिटिक्स के अलावा सभी फिल्म क्रिटिक्स ने काफी आलोचना की थी. इस से निर्माता व पीआरओ ने पत्रकारों को धमकाया. इतना ही नहीं मशहूर फिल्म वितरक अक्षय राठी ने तो यहां तक कह दिया कि जिन लोगों ने ‘कलकी 2898 एडी’ को एक से दो स्टार दिया है. उन सभी फिल्म क्रिटिक्स को बैन कर दिया जाना चाहिए. आखिर अक्षय राठी अपने निर्माताओं से अच्छी मनोरंजक व कंटैंट प्रधान फिल्में बनने के लिए क्यों नहीं कहते.
देखिए, सब से बड़ी हकीकत यह है कि कोई भी सिनेमाघर मालिक अपना जीएसटी फार्म मीडिया को नहीं देगा, जिस से बौक्स औफिस के सही आंकड़े लोगों के सामने आ सकें. इसी का फायदा उठा कर यह पीआर और मार्केटिंग टीम अपने गलत आंकड़े प्रचारित कर पूरी फिल्म इंडस्ट्री को बरबादी की ओर ले जाने का ही काम कर रही है. अहम तथ्य यह है कि शुक्रवार, 5 जुलाई को मुंबई के गेईटी सिनेमाघर में महज 10 दर्शकों के चलते दोपहर 12 बजे का शो रद्द करना पड़ा. गेईटी में 1100 दर्शकों के बैठने की व्यवस्था है. यह सच है. इसी तरह देश भर के कई सिनेमाघरों में ‘कलकी 2898 एडी’ के शो पहले दिन से ही रद्द होते आ रहे हैं.

नेताजी ने ही कहा, “आप ने कौन सा सेंट लगा रखा है?”

एक नेताजी बस में यात्रा कर रहे थे. थोड़ा अजीब लगता है लेकिन उस दिन शायद उन की कारें पत्नी के रिश्तेदारों की सेवा में लगी होंगी. यही एक ऐसी जगह होती है जहां किसी मर्द की कोई अपील काम नहीं करती. सो, उस दिन वे बस में यात्रा करने को मजबूर थे. लेकिन उन के पड़ोस वाली सीट पर एक सुंदर स्त्री आ कर बैठी जिस ने निहायत उम्दा सेंट लगा रखा था. वह यों महक रही थी कि नेताजी का ईमान डोलने लगा. वे धीरेधीरे उस के पास सरकने लगे. धीरेधीरे पास सरकने की या अवसर से न चूकने की कला सभी नेताओं को मानो घुट्टी में ही पिलाई जाती है.

सो, नेता सरकसरक कर महिला से एकदम सट गए. बिलकुल दबोच दिया उन्होंने उस बेचारी को. महिला बड़े संकट में फंसी थी. वह उन के अंदर के पुरुष का सम्मान भले न करती हो पर शुद्ध खद्दर और गांधी टोपी का लिहाज उसे था. कहे तो क्या कहे. जब बिलकुल ही सट गए, महिला को सांस लेना दूभर होने लगा तो फिर नेताजी ने ही कहा, ‘क्षमा करें, आप ने यह कौन सा सेंट लगा रखा है? मैं अपनी पत्नी के लिए खरीदना चाहता हूं.’ बोलतेबोलते नेताजी ने उस का हाथ अपने हाथ में लिया.

उस महिला ने मीठे स्वर में कहा, ‘जो गलती मैं ने की है उसे आप भी दोहराएंगे?’ नेताजी कुछ समझे नहीं. उन्होंने कहा, ‘मैं कुछ समझा नहीं.’ महिला ने उन के हाथ पर से हाथ फेरते हुए कहा, ‘क्या आप पसंद करेंगे कि अन्य लोग आप की पत्नी के इतने करीब आएं, उन के शरीर से बिलकुल सट कर पूछें कि आप ने कौन सा सेंट इस्तेमाल किया है, मैं भी अपनी पत्नी के लिए खरीदना चाहता हूं?’

मिर्जापुर सीजन 3 : मिर्जापुर का भौकाल हुआ मटियामेट

फिल्मकार का काम होता है कि वह सरकार का पिछलग्गू बनने या सरकारी नीतियों का महिमा मंडन करने की बनिस्बत समाज में जो कुछ घटित हो रहा है, उसे सिनेमाई परदे पर चित्रित करे, मगर जब फिल्मकार इस नियम के विरुद्ध जाता है तो वह अनजाने ही अपनी रचनात्मक शक्ति खो बैठता है. उत्तर भारत, खासकर उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल इलाके में बाहुबलियों का बोलबाला है. इन बाहुबलियों ने अपने ताकत व बंदूक की नोक पर ऐसा भौकाल बना रखा है, जिस के चलते आम जनता के साथ साथ राजनेता भी इन के गुलाम सा बने हुए हैं.

धीरेधीरे यह बाहुबली राजनेता बन विधानसभा व संसद में पहुंचने लगे. इसी परिप्रेक्ष्य में करण अंशुमन और पुनीत कृष्णा ने मिल कर एक आपराध, रोमांचक व एक्शन प्रधान सीरीज ‘मिर्जापुर’ की रचना की थी, जो कि उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के बाहुबलियों की कहानी पर आधारित था.

रितेश सिद्धवानी और फरहान अख्तर निर्मित यह सीरीज 16 नवंबर 2018 से अमेजन प्राइम वीडियो पर जब स्ट्रीम होनी शुरू हुई थी तो देखते ही देखते ही 9 एपीसोड की इस सीरीज में कालीन भईया के किरदार में पंकज त्रिपाठी का भौकाल दर्शकों के सिर पर चढ़ कर बोलने लगा था. इसे जबरदस्त लोकप्रियता मिली. उस के बाद ‘अमेजन प्राइम वीडियो’ पर ही इस का ‘मिर्जापुर सीजन’ दो आया, मगर इस में पहले वाली धार नहीं थी. क्योंकि इस के लेखक व निर्देशक बदल चुके थे. यह दूसरा सीजन 23 अक्टूबर 2020 से स्ट्रीम होना शुरू हुआ था, उस वक्त कोविड महामारी का वक्त भी था, जिस के चलते इसे लोगों ने काफी देखा. इस बीच उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कई बाहुबलियों का मटियामेट कर डाला.
खैर, अब पूरे 4 साल बाद ‘मिर्जापुर’ का सीजन तीन 5 जुलाई से ‘अमेजन प्राइम वीडियो पर ही स्ट्रीम हो रहा है. इस बार अपूर्व धर बडगैयन, अविनाश सिंह तोमर, विजय नारायण वर्मा और अविनाश सिंह लेखक तथा गुरमीत सिंह और आनंद अय्यर निर्देशक हैं.इस बार भी यह सीरीज अपराध,हिंसा, खून खराबा, गाली गलौज के साथ ही सत्ता के इर्दगिर्द घूमता है, मगर इस बार फिल्मकार सत्ता परस्त हो कर ‘भयमुक्त’ (वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी भी प्रदेश को ‘भयमुक्त’ बनाने के लिए बाहुबलियों के खात्मे की बातें कर रहे हैं.) प्रदेश बनाने की बात करने वाला यह तीसरा सीजन ले कर आए हैं और इस में कालीन भईया या मुन्ना का भौकाल गायब है. गुड्डू पंडित व गोलू अपने ढर्रे पर हिंसा व खून खराबा को अंजाम दे रहे हैं, मगर प्रदेश की मुख्यमंत्री माधुरी यादव ‘भयमुक्त’ प्रदेश बनाने के लिए प्रयासरत हैं, जिस के चलते शरद शुक्ला, दद्दा व छोटे त्यागी के किरदार काफी शिथिल कर दिए गए हैं, जिस से दर्शक इत्तफाक नहीं रख पाता और वह बोर हो जाता है. यह सीरीज काफी निराश करती है. यदि लेखक, निर्देशक व निर्माता सरकार परस्त काम करना चाहते हैं तो उन्हें सरकार की सोच को ले कर डाक्यूमेंट्री बनानी चाहिए. मजेदार बात यह है कि इस सीरीज में प्रदेश की मुख्यमंत्री माधुरी यादव अपने राज्य के गृहमंत्री को विश्वास में लिए बगैर उन के मंत्रालय का काम भी खुद करते हुए नजर आ रही है. क्या ऐसा ही कुछ हमारे देश में नहीं हो रहा है.

तीसरे सीजन की कहानी वहीं से शुरू होती है, जहां पर सीजन दो खत्म हुआ था. सीजन दो के अंत में हम ने देखा था कि अखंडानंद त्रिपाठी उर्फ कालीन भैया (त्रिपाठी) और उन का बड़ा बेटा मुन्ना (दिव्येंदु) दोनों पर हमला होता है. मुन्ना ( द्विवेंदु शर्मा ) मारा गया था, मगर किसी ने कालीन भईया (पंकज त्रिपाठी ) को बचा लिया था. तीसरे सीजन के पहले एपीसोड में लगभग 6 मिनट में अब तक का रीकैप ही है. जिस से पता चलता है कि कालीन भईया को बचा कर शरद शुक्ला (अंजुम शुक्ला ) अपने साथ ले जा कर दद्दा त्यागी (लिलिपुट) के अड्डे पर छिपाया है और वहीं पर उन का इलाज शुरू करवाया गया है.

फिलहाल वह कोमा में हैं. डाक्टर उन्हें कोमा से बाहर लाने के लिए प्रयासरत हैं पर कालीन भैया (पंकज त्रिपाठी) कहां हैं, इस की खबर किसी को नहीं. माधुरी (ईशा तलवार) अपने पति मुन्ना की चिता को आग देने के बाद मुख्यमंत्री के तौर पर प्रदेश को भयमुक्त बनाने और अपने पति की मौत का बदला लेने के लिए अपने राजनीतिक हथकंडे अपना रही है. उधर गुड्डू पंडित व गोलू ने खुद को गद्दी पर बैठा लिया है. बीना त्रिपाठी (रसिका दुग्गल), और गुड्डू पंडित (अली फज़ल) मान चुके हैं कि कालीन भईया की मौत हो गई है. पर गोलू (श्वेता त्रिपाठी शर्मा) अभी भी कालीन भईया की तलाश में लगी हुई है.
दूसरी तरफ बाहुबलियों के युद्ध का मैदान अब सिर्फ पूर्वांचल तक सीमित न रह कर पूरे प्रदेश तक फैल गया है. पश्चिम, पूर्वांचल से अधिक देने को तैयार है, इसलिए पश्चिम के बाहुबली बार बार बैठक कर पूर्वांचल पर भी अपना हक जताना चाहते हैं. यानी कि ‘नया कौन बनेगा बाहुबली’ का गेम बहुत पुरानी बात हो गई है.
शरद शुक्ला (अंजुम शर्मा) पिता का सपना पूरा करने के लिए मिर्जापुर की गद्दी हथियाने के लिए राजनीति और बाहुबल जोड़ने में लगे हुए हैं. वह मुख्यमंत्री माधुरी से भी हाथ मिला रहे हैं. दद्दा का भी साथ लिए हुए हैं. शरद हर हाल में गुड्डू को हटाना चाहते हैं, जो कि अपनी सनक और डर के दम पर मिर्जापुर की गद्दी पर बने हुए हैं. अब कहानी किस अंजाम पर पहुंचती है, इस के लिए 10 लंबे एपीसोड देखने पड़ेंगें.

अपराध, रोमांच व एक्शन प्रधान सीरीज में रोचकता बनाए रखने के लिए आवश्यकता पाशविकता क्रूरता व दुष्टता तो प्रतिक्रियाओं पर निर्भर करती है. मगर जब शीतयुद्ध जैसे हालात हों तो क्या होगा? कहानी के केंद्र में बाहुबली अपनी ताकत दिखाने की बजाय शतरंजी चालें चलने में मगन हैं. इस सीजन में लेखक व निर्देशक वर्तमान राज्य सरकार के मुख्यमंत्री के एजेंडे को चलाने के लिए जिस तरह से कहानी को गढ़ा, उस ने ‘मिर्जापुर’ के भौकाल को ही मटियामेट कर डाला. मिर्जापुर की गद्दी पर बैठने के बाद गुड्डू पंडित का किरदार कई दृष्यों में बचकाना सा लगता है.
जब ‘एनीमल’ और ‘किल’ जैसी हिंसात्मक फिल्में दर्शकों के सामने हैं, तो इन फिल्मों के मुकाबले ‘मिर्जापुर सीजन तीन’ काफी कमजोर हो गई है. लेखकों ने तीसरे सीजन में किरदार तो भर दिए, पर किसी भी किरदार का सही ढंग से चरित्र चित्रण नहीं कर पाए. परिणामतः कहानी भी भटकी हुई लगती है. माना कि सीरीज में राजनीति, धोखा, विद्वेष, वासना और ह्यूमर सब कुछ है पर जो रोचकता होनी चाहिए थी उस का घोर अभाव है.

प्रदेश में व्याप्त अराजकता के धूर्त राजनीतिक स्वर एक या दो बार सामने आते हैं, लेकिन कोई दंश नहीं है. कहानी व पटकथा के स्तर पर लेखक भ्रमित हैं. एक तरफ प्रदेश की मुख्यमंत्री ‘भयमुक्त प्रदेश’ बनाना चाहती हैं, तो दूसरी तरफ उन की नजर बाहुबली के गंदे पैसे यानी कि काले धन पर है. इसी तरह शरद शुक्ला के किरदार के साथ भी न्याय नहीं हो पाया. मिर्ज़ापुर की गद्दी का दावेदार बताने वाला शरद शुक्ला (अंजुम शर्मा) एक तरफ कालीन भइया के सामने खुद को उन का भरोसेमंद साबित करने पर तुला है तो दूसरी तरफ सत्ता के साथ भी तालमेल बिठा रहा है. पूरी सीरीज में पहले सीजन में जो कालीन भईया की साजिशें थी, उन का अभाव खलता रहा. दर्शक लगातार सोचता रहता है कि मुन्ना वापस आ जाए.

निर्देशकों ने इसे अधिक यथार्थवादी बनाने के लिए लोकेशनों का चुनाव काफी अच्छा किया है. फिल्मकार ने मिर्ज़ापुर ब्रह्मांड के विस्तारित मानचित्र और पूरे पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तरी बिहार और नेपाल में हुए रक्तपात को समझाने के लिए विस्तृत ग्राफिक्स का उपयोग किया है पर वह दर्शक के दिलों तक नहीं पहुंच पाते. फिल्म की साउंड डिजाइनिंग बहुत गड़बड़ है. इसे एडिटिंग टेबल पर कसने की भी जरुरत थी. पंकज त्रिपाठी के लिए 2024 का यह साल बहुत खराब ही जा रहा है. सब से पहले उन की फिल्म ‘मैं अटल हूं’ ने बौक्स औफिस पर पानी तक नहीं मांगा. फिर नेटफ्लिक्स ने उन की इमेज का फिल्म ‘मर्डर मुबारक’ में कचरा कर दिया और अब इस वेब सीरीज ‘मिर्जापुर’ के तीसरे सीजन ने तो उन की पूरी लुटिया ही डुबा दी. जब ‘मिर्जापुर’ का पहला सीजन आया था, तब किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि तीसरे सीजन में कालीन भईया इस गति में पहुंच जाएंगें.

इस सीजन में उन के हिस्से करने को कुछ रहा ही नहीं. वैसे पंकज त्रिपाठी निजी जीवन में अपनों के साथ जैसा कर रहे हैं वैसा अब उन के साथ परदे पर हो रहा है. अन्यथा बिस्तर पर पड़े हुए भी वह अपनी प्रतिभा का जलवा बिखेर सकते थे. गोलू पर निर्भर गुड्डू पंडित के किरदार में अली फजल के अभिनय का वह जलवा बरकरार नहीं रहा, जो उन्हे उत्कृष्ट बनाता है.
एक लड़की के प्यार या उस की बुद्धि या वीरता के तले दबे इंसान के चेहरे पर जो भाव गुड्डू पंडित के चेहरे पर आने चाहिए थे, वह लाने में अली फजल विफल रहे हैं. इस के लिए वह स्वयं दोषी हैं. पहले सीजन में शर्मीली लड़की से तीसरे सीजन में लेडी डान बन चुकी गोलू के किरदार में श्वेता त्रिपाठी भी खरी नहीं उतरती. बीना त्रिपाठी के किरदार में रसिका दुग्गल के हिस्से करने को कुछ आया ही नहीं. प्यार और बदले के बीच फंसे हुए छोटे त्यागी के किरदार में विजय वर्मा कुछ दृष्यों में प्रभावित कर जाते हैं. शरद शुक्ला के किरदार में अंजुम शर्मा का अभिनय एक जैसा ही है, उस में कहीं कोई विविधता नजर नहीं आती. जबकि शरद शुक्ला के किरदार के कई आयाम हैं. मुख्यमंत्री माधुरी के किरदार में ईशा तलवार चुक गईं. रमाकांत पंडित के किरदार मे राजेश तैलंग, राउफ लाला के किरदार में अनिल जौर्ज अपना प्रभाव छोड़ जाते हैं.

कामवाली : औकात देख कर बात कर, अनपढ़

फरिश्ता कौंप्लैक्स में ममता नगरनिगम के लाल, हरे, काले रंगों के कचरे के बड़े डब्बे लिए एकएक घर की घंटी बजाती कचरा इकट्टा करने रोज की तरह आवाज लगाने लगी.

उसी समय बाकी कामवालियां भी अपनेअपने लगे घरों में साफसफाई करने को आ-जा रही थीं और कुछ रहवासी अपने कामधंधे के लिए घर से निकल रहे थे.

उस व्यस्त फ्लोर पर सभी ने एक बार में अपनेअपने कचरे खुद या अपने घर पर काम करने आई बाई के हाथ बाहर भिजवा दिए और कई सीधा उन डब्बों में अपने वेस्ट डाल अपने घरों के भीतर चले गए.

उस फ्लोर पर एक घर शेष था जिस में अभीअभी कोई नए लोग रहने आए थे. कल भी उन्होंने कचरा उस के जाने के बाद बाहर रखा और पूरा फ्लोर बदबूदार हो गया.

वह कल की तरह आज बिल्डिंग मैनेजर से डांट नहीं खाना चाहती थी, इसलिए ममता ने फिर घंटी बजाई. लेकिन कोई न आया. उस ने उस घर के सामने जा कर जोर से आवाज लगाई.

“दीदी, कचरा हो तो अभी दे दीजिए.”

सुबह के 9 बजे अपनी बदहवास नींद में चूर वे मेमसाहब अपनी नाकमुंह बिचका कर अपने घर के दरवाजे को आधा खोल, कचरे से पिलपिलाती झिल्ली उस के पैर की ओर जोर से फेंक कर झट से अपना दरवाजा बंद कर लेती हैं.

‘ये कचरा बिनने वाले दो कौड़ी के लोग सुबहसुबह हमारी नींद खराब करने को मुंह उठा कर चले आते हैं, गंवार कहीं के,’ वे अपने घर के भीतर बड़बड़ाती रहीं और दरवाजे के इस पार खड़ी ममता उन की बातें सुन हतप्रभ रह गई.

वह सोचती रह गई कि काम तो काम होता है, चाहे वह एअरकंडीशनर कमरे में बैठ कर कंप्यूटर चलाने वाला हो या गटर साफ करने वाला, अपनाअपना पेट पालने परिश्रम तो सभी करते हैं. उन की मेहनत आंकने को वह किसी से नहीं कह रही पर इस तरह से तिरस्कार करना क्या सही है?

उन्हें उसे ऐसा कहते सुन टीस जरूर हुई और एकाएक ममता के कानों के साथ उस की भीगी आंखें उन के आलीशान करीगरी किए हुए दरवाजे पर जा अटकीं और एक पल को उन के कहे एकएक शब्द उस के दिमाग में घूमने लगे. इसी बीच उस की खोई हुई नजरों ने अपने पैरों के बीच कुछ बहता हुआ पाया. उस ने नीचे देखा और अपने जूते झट से अलग कर लिए.

उन के द्वारा प्रतिबंधित की जा चुकी नष्ट न होने वाली पन्नी, जो वर्ल्ड लाइफ फैडरेशन के आंकड़े के अनुसार प्रदेश में रोजाना 20 गायों की मौत का कारण बन रही है, को जोर से फेंकने से वह पूरी तरह से फट गई थी और उस से बदबू मारती उन के घर की सड़ीगली जूठन के साथ डिस्पोजेबल चम्मच, घड़ी के सैल, सैनेटरी पैड आदि साफ टाइल्स पर धरधरा कर जहांतहां फैल गए.

वह अपने दस्ताने पहने हाथों से उन्हें उठा वेस्ट अनुसार नगरनिगम के डब्बो में डाल तो देती है पर तब तक उस से निकल चुका गंदे कचरे का पानी फर्श पर फैल गया.

उस ने खुद को समझाया कि सालों से कुछ घरों से ऐसी ओछी प्रतिक्रिया मिलना उस के लिए तो आम बात थी, फिर इतना दिल से क्यों लगना, जाने दो.

‘एक ही झिल्ली में सब तरह का कचरा नहीं डाला जाता,’ यह बात नगरनिगम के कर्मचारी समयसमय पर खुद आ कर और पंफलेट द्वारा सालों से बतला रहे हैं.

मां तो अनपढ थी फिर भी उन्हें इतनी समझ थी पर इतने बड़े पढ़ेलिखे लोगों को भला यह आसान बात क्यों नहीं समझ आती. जिन्हें सूखा, गीला और प्रकृति के लिए जोखिम वाले सामान के डब्बों के बीच का फर्क नहीं पता.

बिना विभाजन किए किचन का वेस्ट, प्लास्टिक सामान, सैलबैटरीज, बिना लाल क्रौस किए पेपर में लपेट कर पैड-डायपर की अलग झिल्ली, टूटे कांच बिना सोचे कि उन के फेंकने के बाद उस कचरे को कुत्ते, गाय या कचरा बिनने वाले के खोलने पर वो चोटिल हो सकते हैं और न ही अपने घर से होती पर्यावरण को सुरक्षित रखने की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी व दिनभर मोबाइल पर उंगलिया चलाने वाली अतिव्यस्त जनता समय के अभाव का बहाना कर सभी कचरा अलगअलग करने में असमर्थ हो एकसाथ ठूंस कर फेंक देती है, जबकि यही जनता सरकार को वायु, जल, मिट्टी के बढ़ते प्रदूषण के लिए बेझिझक कोसने में देर नहीं लगाती.

कचरा तो बिन गया पर गंदगी का वह लसलसा, लारदार पानी जस का तस था.

सफाई वाली तो आ कर जा चुकी और उस का काम कचरा इकट्टा करना है, गंदगी साफ करना नही. एक बार को कर भी दे पर उस के पास तो सफाई का सामान ही नहीं है, बाकी घरों से कचरा लेने के लिए देर भी हो रही है. उसे उस फ्लोर को ऐसे ही गंदगी के बीच छोड़ कर जाने के अलावा कोई रास्ता न सूझा और वह एक के बाद एक दूसरे फ्लोर में कचरा इकट्ठे करने यह सोच कर निकल गई कि जब सफाईवाली दिखेगी तो उस से कह कर यहां सफाई करवा देगी.

वहीं, कुछ घंटों बाद जब वे मेमसाहब सजधज कर, परफ्यूम मार, शौपिंग के लिए मौल को निकलने अपना दरवाजा बंद कर अपनी चिकनी हाई हील्स से लिफ्ट की ओर जाने मुड़ीं नहीं कि वे धम्म से उन मक्खियों से भिनकते अपने द्वारा फेंके कचरे में जा फिसलीं.

तभी सामने वाले घर से काम कर निकलती बाई ने उन्हें फर्श पर से अपने चिपचिपाते हाथों से उठने का बारबार असफल प्रयास करते पाया और दूसरी ओर से उसी समय ममता सफाईवाली को ले कर आ पहुंची.

वे तीनों उन की मदद करने को उन की ओर फुरती से बढ़ने लगीं.

“यह क्या तरीका है गवारों? न सफाई करने की अक्ल है न ही कचरा हटाने की. तुम लोग को नौकरी से नहीं निकलवाया तो मेरा नाम नहीं. रुको वहं, यहा मत आना. वहीं खड़ी रहो. अपने गंदे हाथों से मुझे छूना मत,” वे मेमसाहब गिरती-संभलती बड़बड़ाती हैं.

“हां, तो पड़ी रह वैसी. एक तो मदद कर रहे हैं, और ये अकड़ दिखा रही हैं. देखा था मैं ने, कैसे कचरा फेंक कर दे रही थी सुबह. देख, अब अपने किए पर कैसी लोट रही है.”

“चुप रह, अपनी औकात देख कर बात कर, अनपढ़.”

“हां मानते हैं, आप लोग जैसे बड़े स्कूलकालेज में नहीं गए पर कचरा का विभाजन कर फेंकने की तमीज हमारे पास आप से बहतर है. अनपढ़गंवार आप को हमें नहीं बल्कि हमें आप को कहना चाहिए.”

“दीदी माफ करिएगा,” ममता ने मामला बढ़ता देख उसे चुप करा दिया. जो वह आज सुबह न कह सकती थी, उस तुनकमिजाज बाई ने उसे सुना दिया.

सफाईवाली बिना कुछ कहे वह गंदगी साफ कर ममता के साथ चली गई और वे मेमसाहब अपना सिर झुकाए, अपनी पीठ सरका कर दरवाजे का सहारा लेते अपने महंगे कपड़ों से रिसती हुई बदबूदार लार को अपने साथ घर के भीतर ले जातीं यह सोचती रहीं कि असलियत में गंवार है कौन ?

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