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मेरी वाइफ का एक्स बौयफ्रैंड मेरी औफिस में काम करता है और मुझे ऐसा फील होता है कि वे मेरा मजाक उड़ा रहा है.

अगर आप भी अपनी समस्या भेजना चाहते हैं, तो इस लेख को अंत तक जरूर पढ़ें..

सवाल –

मेरी शादी को 3 महीने हुए हैं और मैं एक मल्टीनैशनल कंपनी में जौब करता हूं. शादी से पहले मैं और मेरी पत्नी अच्छे दोस्त भी रह चुके हैं. हम दोनों एक दूसरे से सारी बातें डिस्कस किया करते थे फिर चाहे पर्सनल रिलेशनशिप्स की बात हो या फिर घरवालों से जुड़ी कोई बात हो. शादी से पहले उसका एक बौयफ्रेंड था जिसके बारे में उसने मुझे बताया था और तो और मैं एक बार उस लड़के से एक बार मिल भी चुका हूं. किसी कारण से उस दोनों का रिलेशन ज्यादा समय तक नहीं चल पाया और उनका ब्रेक-अप हो गया. हाल ही में उस लड़के ने मेरे औफिस में ज्वाइन किया है. मैं उससे हमेशा अच्छे से मिलता हूं पर जब भी मैं उसे देखता हूं तो मुझे ऐसा फील होता है जैसे उसकी नजरें मेरा मजाक उड़ा रही हों. मुझे क्या करना चाहिए ?

जवाब –

मैं आप की प्रौब्लम कोअच्छी तरह समझ सकता हूं. अपनी ही पत्नी के एक्स बौयफ्रेंड से रोज मिलना किसी भी लड़के को अच्छा नहीं लगेगा. मुझे यह जान कर काफी अच्छा लगा कि आप उससे हमेशा अच्छी तरह मुलाकात करते हैं क्योंकि इससे पता चलता है कि आप का दिल काफी साफ है और आप किसी के लिए कोई बुरा विचार नहीं रखते. इतना ही नहीं आप का यह स्वभाव इस बात को भी साबित करता है कि आप की पत्नी की पुरानी जिंदगी आप के लिए कोई खास मायने नहीं रखती है.

अगर आप की पत्नी का एक्स बौयफ्रेंड आप के औफिस में आ भी गया है तो आप को इतना परेशान होने की कोई जरूरत नहीं है. ऐसा नहीं है कि आप की वजह से उन दोनों का ब्रेकअप हुआ है. उन दोनों में अच्छे संबंध नहीं बन पाए जिस वजह से वे दोनों अलग हुए होंगे और आप की किस्मत में इसी लड़की का आना लिखा होगा तभी आप दोनों की शादी हुई है. अगर आप दोनों एकदूजे के लिए अच्छे कैंपैनियन साबित हो रहे हैं तो यह इस बात का प्रुव है कि आप की पत्नी के लिए भी अतीत कोई मायने नहीं रखता है.

कभीकभी हमे जो सामने से नजर आता है वह सच नहीं होता. अगर आप को उसे देख कर लग रहा है कि उस की नजरें आप का मजाक उड़ा रही हैं तो आप को उस से एक बार बात करनी चाहिए. यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि उस का इंटेशन क्या है. मुलाकात करने पर उस से पूछना चाहिए कि उस की क्या प्रौब्लम क्या है. हो सकता है मजाक उड़ाने जैसा कुछ ना हो और यह सिर्फ आप के मन का वहम हो.

आप को इस बात का खास खयाल रखना है कि औफिस में आप को अपनी पत्नी के बारे में उससे किसी तरह की कोई बात नहीं करनी है क्योंकि अपनी इज्जत अपने हाथ में होती है. हो सके तो उस लड़के से आप को ज्यादा दोस्ती नहीं करनी चाहिए बल्कि एक प्रोफेशनल्स की तरह आप दोनों को सिर्फ काम से रिलेटेड ही बात करनी चाहिए जिससे कि आप दोनों सेम औफिस में अच्छे से काम कर पाएं. ऐसा करके आप अपनी दुविधा से बाहर आएंगें.

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जाहिल : असलियत में गंवार कौन

फरिश्ता कौंप्लैक्स में ममता नगरनिगम के लाल, हरे, काले रंगों के कचरे के बड़े डब्बे लिए एकएक घर की घंटी बजाती कचरा इकट्ठा करने रोज की तरह आवाज लगाने लगी.

उसी समय बाकी कामवालियां भी अपनेअपने लगे घरों में साफसफाई करने को आजा रही थीं और कुछ रहवासी अपने कामधंधे के लिए घर से निकल रहे थे.

उस व्यस्त फ्लोर पर सभी ने एक बार में अपनेअपने कचरे खुद या अपने घर पर काम करने आई बाई के हाथ बाहर भिजवा दिए और कई सीधा उन डब्बों में अपने वेस्ट डाल अपने घरों के भीतर चले गए.

उस फ्लोर पर एक घर शेष था जिस में अभीअभी कोई नए लोग रहने आए थे. कल भी उन्होंने कचरा उस के जाने के बाद बाहर रखा और पूरा फ्लोर बदबूदार हो गया.

वह कल की तरह आज बिल्ंडिंग मैनेजर से डांट नहीं खाना चाहती थी, इसलिए ममता ने फिर घंटी बजाई. लेकिन कोई न आया. उस ने उस घर के सामने जा कर जोर से आवाज लगाई.

‘‘दीदी, कचरा हो तो अभी दे दीजिए.’’

सुबह के 9 बजे अपनी बदहवास नींद में चूर वे मेमसाहब अपनी नाकमुंह बिचका कर अपने घर के दरवाजे को आधा खोल, कचरे से पिलपिलाती थैली उस के पैर की ओर जोर से फेंक कर झट से अपना दरवाजा बंद कर लेती हैं.

‘ये कचरा बीनने वाले दो कौड़ी के लोग सुबहसुबह हमारी नींद खराब करने को मुंह उठा कर चले आते हैं, गंवार कहीं के,’ वे अपने घर के भीतर बड़बड़ाती रहीं और दरवाजे के इस पार खड़ी ममता उन की बातें सुन हतप्रभ रह गई.

वह सोचती रह गई कि काम तो काम होता है, चाहे वह एयरकंडीशनर कमरे में बैठ कर कंप्यूटर चलाने वाला हो या गटर साफ करने वाला, अपनाअपना पेट पालने के लिए परिश्रम तो सभी करते हैं. उन की मेहनत आंकने को वह किसी से नहीं कह रही पर इस तरह से तिरस्कार करना क्या सही है?

उन्हें उसे ऐसा कहते सुन टीस जरूर हुई और एकाएक ममता के कानों के साथ उस की भीगी आंखें उन के आलीशान कारीगरी किए हुए दरवाजे पर जा अटकीं और एक पल को उन के कहे एकएक शब्द उस के दिमाग में घूमने लगे. इसी बीच उस की खोई हुई नजरों ने अपने पैरों के बीच कुछ बहता हुआ पाया. उस ने नीचे देखा और अपने जूते झट से अलग कर लिए.

उन के द्वारा प्रतिबंधित की जा चुकी नष्ट न होने वाली पन्नी, जो वर्ल्ड लाइफ फैडरेशन के आंकड़े के अनुसार प्रदेश में रोजाना 20 गायों की मौत का कारण बन रही है, को जोर से फेंकने से वह पूरी तरह से फट गई थी और उस से बदबू मारती उन के घर की सड़ीगली जूठन के साथ डिस्पोजेबल चम्मच, घड़ी के सैल, सैनेटरी पैड आदि साफ टाइल्स पर धरधरा कर जहांतहां फैल गए.

वह अपने दस्ताने पहने हाथों से उन्हें उठा वेस्ट अनुसार नगरनिगम के डब्बों में डाल तो देती है पर तब तक उस से निकल चुका गंदे कचरे का पानी फर्श पर फैल गया.

उस ने खुद को समझाया कि सालों से कुछ घरों से ऐसी ओछी प्रतिक्रिया मिलना उस के लिए तो आम बात थी, फिर इतना दिल से क्यों लगाना, जाने दो.

‘एक ही थैली में सब तरह का कचरा नहीं डाला जाता,’ यह बात नगरनिगम के कर्मचारी समयसमय पर खुद आ कर और पंफलेट द्वारा सालों से बतला रहे हैं.

मां तो अनपढ़ थीं फिर भी उन्हें इतनी समझ थी पर इतने बड़े पढ़ेलिखे लोगों को भला यह आसान बात क्यों नहीं सम?ा आती. जिन्हें सूखा, गीला और प्रकृति के लिए जोखिम वाले सामान के डब्बों के बीच का फर्क नहीं पता.

बिना विभाजन किए किचन का वेस्ट, प्लास्टिक सामान, सैलबैटरीज, बिना लाल क्रौस किए पेपर में लपेट कर पैड-डायपर की अलग पन्नी, टूटे कांच बिना सोचे कि उन के फेंकने के बाद उस कचरे को कुत्ते, गाय या कचरा बीनने वाले के खोलने पर वे चोटिल हो सकते हैं और न ही अपने घर से होती पर्यावरण को सुरक्षित रखने की महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी व दिनभर मोबाइल पर उंगलिया चलाने वाली अतिव्यस्त जनता समय के अभाव का बहाना कर सभी कचरा अलगअलग करने में असमर्थ हो एकसाथ ठूंस कर फेंक देती है, जबकि यही जनता सरकार को वायु, जल, मिट्टी के बढ़ते प्रदूषण के लिए बेझिझक कोसने में देर नहीं लगाती.

कचरा तो बिन गया पर गंदगी का वह लसलसा, लारदार पानी जस का तस था.

सफाई वाली तो आ कर जा चुकी और उस का काम कचरा इकट्ठा करना है, गंदगी साफ करना नही. एक बार को कर भी दे पर उस के पास तो सफाई का सामान ही नहीं है, बाकी घरों से कचरा लेने के लिए देर भी हो रही है. उसे उस फ्लोर को ऐसे ही गंदगी के बीच छोड़ कर जाने के अलावा कोई रास्ता न सूझ और वह एक के बाद एक दूसरे फ्लोर में कचरा इकट्ठे करने यह सोच कर निकल गई कि जब सफाई वाली दिखेगी तो उस से कह कर यहां सफाई करवा देगी.

वहीं, कुछ घंटों बाद जब वे मेमसाहब सजधज कर, परफ्यूम मार, शौपिंग के लिए मौल को निकलने के लिए अपना दरवाजा बंद कर अपनी चिकनी हाई हील्स से लिफ्ट की ओर जाने को मुड़ीं नहीं कि वे धम्म से उन मक्खियों से भिनकते अपने द्वारा फेंके कचरे में जा फिसलीं.

तभी सामने वाले घर से काम कर निकलती बाई ने उन्हें फर्श पर से अपने चिपचिपाते हाथों से उठने का बारबार असफल प्रयास करते पाया और दूसरी ओर से उसी समय ममता सफाई वाली को ले कर आ पहुंची.

वे तीनों उन की मदद करने को उन की ओर फुरती से बढ़ने लगीं.

‘‘यह क्या तरीका है गंवारो? न सफाई करने की अक्ल है न ही कचरा हटाने की. तुम लोगों को नौकरी से नहीं निकलवाया तो मेरा नाम नहीं. रुको वहां, यहां मत आना. वहीं खड़ी रहो. अपने गंदे हाथों से मुझे छूना मत,’’ वे मेमसाहब गिरती-संभलती बड़बड़ाती हैं.

‘‘हां, तो पड़ी रह वैसी. एक तो मदद कर रहे हैं और ये अकड़ दिखा रही हैं. देखा था मैं ने, कैसे कचरा फेंक कर दे रही थी सुबह. देख, अब अपने किए पर कैसी लोट रही है.’’

‘‘चुप रह, अपनी औकात देख कर बात कर, अनपढ़.’’

‘‘हां मानते हैं, आप लोग जैसे बड़े स्कूलकालेज में नहीं गए पर कचरे का विभाजन कर फेंकने की तमीज हमारे पास आप से बेहतर है. अनपढ़गंवार आप को हमें नहीं बल्कि हमें आप को कहना चाहिए.’’

‘‘दीदी माफ करिएगा,’’ ममता ने मामला बढ़ता देख उसे चुप करा दिया. जो वह आज सुबह न कह सकती थी, उस तुनकमिजाज बाई ने उसे सुना दिया.

सफाई वाली बिना कुछ कहे वह गंदगी साफ कर ममता के साथ चली गई और वे मेमसाहब अपना सिर ?ाकाए, अपनी पीठ सरका कर दरवाजे का सहारा लेते अपने महंगे कपड़ों से रिसती हुई बदबूदार लार को अपने साथ घर के भीतर ले जातीं यह सोचती रहीं कि असलियत में गंवार है कौन?

चेहरे

नीति ने अपना पर्स उठाया और औफिस से बाहर निकल गई. ‘‘ठंडे दिमाग से सोचना मैडम, ऐसी नौकरी आप को दूसरी नहीं मिलेगी. लौटने का विचार बने तो फोन कर देना.’’ मधुकर ने चलतेचलते उस से कहा.

नीति ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा. पैर पटकती चली गई. बाहर आ कर औटो लिया और सीधे अपने कमरे पर आ गई. पर्स बिस्तर पर फेंक कर वहीं पसर गई और रोती रही. रोतेरोते कब उस की आंख लग गई, पता नहीं चला.

अगले दिन निधि का फोन आया तो उठी. रोज निधि के साथ ही औफिस जाती थी. दोनों एक ही जगह से बस पकड़ती थीं. आज नीति को नहीं देखा तो निधि ने फोन कर के पूछा, ‘‘औफिस में नहीं आई है क्या? सब जगह देखा, सब से पूछा, कहीं मिली नहीं?’’

‘‘तबीयत ठीक नहीं है, घर पर ही हूं,’’ कह कर नीति ने फोन काट दिया. वह जानती थी कि औफिस से निधि को पता चल जाएगा कि क्यों वह वहां नहीं है. पता लगते ही वह उस से मिलने जरूर आएगी. कल निधि छुट्टी पर थी नहीं तो शायद वह नीति को इस तरह नौकरी छोड़ कर न आने देती.

अब तक भी कल की बात दिमाग से उतरी नहीं थी. बाथरूम में जा कर मुंह धोया और चाय बनाने रसोई में चली गई. चाय भी अच्छी नहीं बनी. दिमाग में तो उधेड़बुन चल रही थी.

नई नौकरी ढूंढ़नी पड़ेगी. पता नहीं अनुभव प्रमाणपत्र भी मधुकर देगा या नहीं. जब तक नौकरी नहीं मिल जाती तब तक कैसे काम चलेगा? अकेली ही रहती है इस शहर में. दोस्त भी कोई इस हाल में नहीं है कि मदद कर पाए. सब उस के ही जैसे हैं.

चाय पी कर बिस्तर पर लेट गई. कब नींद आई, पता ही नहीं चला. दरवाजे की घंटी जोरजोर से बज रही थी. नीति ने नींद में ही जा कर दरवाजा खोला.

‘‘दिन में इतनी गहरी नींद में कौन सोता है, कब से घंटी बजा रही हूं? मुझे भी घर वापस जाना होगा,’’ निधि एक ही बार में सबकुछ बोल गई.

‘‘तबीयत ठीक नहीं थी, इसलिए दवाई ले कर नींद आ गई,’’ नीति ने बहाना बनाया.

‘‘दवाई तो तुम कभी इतनी जल्दी लेती नहीं हो. कल तो औफिस गई थी, फिर अचानक इतनी बीमार कैसे हो गई? बीमारी है या कोई और बात है जो बताना नहीं चाहती हो?’’ निधि ने सवाल किया.

‘‘तुम से क्या छिपा है?’’ नीति ने कहा और कल की पूरी घटना निधि को बताई.

‘‘तुझे क्या पड़ी है किसी को सुधारने की? लोग इतने अच्छे होते तो इन निकेतनों की जरूरत ही क्या होती? कुछ लोग पाप करते हैं. कुछ लोग उन के पाप को पनाह देते हैं.’’

नीति चुपचाप सब सुन रही थी. निधि की बातें व्यावहारिक थीं. लेकिन वह उस जगह वापस लौट कर नहीं जाना चाहती थी. निकेतन चलाने वालों का सच उस के सामने आ चुका था. वहां पल रहे अधिकतर बच्चों के अभिभावकों को वे जानते थे. बड़ी पहुंच वाले, पैसे वाले लोग थे और उस पैसे से ही सब का मुंह बंद कर दिया गया था. उसी पैसे के बलबूते पर कई लोगों के घर चल रहे थे. उन बच्चों के सहारे कुछ और बच्चों को भी जीवनदान मिला हुआ था. उन का जीवन भी चल रहा था. निकेतन में काम करने वाले सभी लोग इस बात को जानते हुए भी चुप रहते थे. नीति ने मुंह खोला तो नौकरी छोड़नी पड़ी.

‘‘एक बार वापस सोच लेना. देख, अकेले तेरे काम छोड़ने से कुछ बदलने वाला नहीं है. अभी अपने बारे में सोच. नौकरी के बिना तू इस शहर में नहीं रह पाएगी.’’

निधि जातेजाते भी अपनी सहेली को सम?ाते हुए गई. नीति ने ध्यान से उस की बात सुनी और सोचसमझ कर निर्णय लेने का वादा किया. लेकिन मन ही मन उस ने तय कर लिया था कि वापस लौट कर नहीं जाना है. उस में काबिलीयत है और काम करने का जनून भी. वह कोई दूसरी नौकरी ढूंढ़ ही लेगी. अपनी आंखों से सबकुछ देखते हुए गलत सहन नहीं करेगी.

10 दिन गुजर गए पर कहीं भी बात बनी नहीं. पैसे भी धीरेधीरे खत्म हो रहे थे. घर पर अभी कुछ भी बताया नहीं था पर हालात घर लौटने के ही हो रहे थे. वापस जाने के बाद मम्मी, पापा की वही रट कि शादी की उम्र निकली जा रही है.

एक दिन सो कर उठी तो फोन बज रहा था. किसी अनजान नंबर से कौल आ रहा था. इतनी जगह सीवी दिया है, शायद किसी कंपनी से ही हो.

‘‘मैडम, आप आज ही इंटरव्यू के लिए आ जाइए.’’ फोन पर एक लड़की बोल रही थी. नीति के कुछ पूछने से पहले ही फोन कट गया. जल्दी से उठ कर नहाने गई और तैयार हो कर फोन पर बताए ऐड्रैस पर पहुंची.

उम्मीद के विपरीत नौकरी मिल गई और अगले ही दिन से फिर वही पुरानी दिनचर्या शुरू हो गई. नए औफिस में जैसे उस का इंतजार ही हो रहा था. समय ही नहीं लगा घुलनेमिलने में. काम कुछ विशेष नहीं था, बस, फ्रंट डैस्क संभालनी थी. बौस से रोज ही मिलना होता. बहुत शांत और सौम्य व्यक्तित्व. जितना जरूरी हो उतना ही बोलते, पूरे औफिस पर उन का राज था.

एक दिन मधुकर को औफिस में देखा तो नीति का दिमाग घूम गया.

‘शायद डोनेशन के लिए आए होंगे,’ उस ने मन ही मन सोचा. औफिस में उस ने सुना था कि अपने प्रौफिट का एक निर्धारित प्रतिशत बौस दान कर देते हैं. कितनी ही स्वयंसेवी संस्थाओं को उन से वार्षिक अनुदान मिलता था. मधुकर नीति को नहीं देख पाया, उस ने शुक्र मनाया. वह नहीं चाहती थी कि वह उस से बात करे या नए औफिस में कोई जान पाए कि वह मधुकर को जानती है.

दिन पंख लगा कर उड़ रहे थे. नीति मस्त हो गई थी. पुराने औफिस को, मधुकर को, यहां तक कि निधि को भी लगभग भूल चुकी थी. बौस का रंग उस पर भी चढ़ने लगा था. पूरे औफिस में कोई था ही नहीं जो बौस के बारे में कुछ भी उलटासीधा बोले या उन की बुराई करे. सभी जैसे उन के एहसान तले दबे हुए थे. उन के मोहक व्यक्तित्व का प्रभाव था या धन ऐश्वर्य का, जो भी संपर्क में आता था वही गुलाम हो जाता था. बौस की सैक्रेटरी राजी से भी नीति की अच्छी दोस्ती हो गई थी. राजी ने ही बताया था कि बौस अगले हफ्ते विदेश जाने वाले हैं एक मीटिंग के लिए.

औफिस से भी एकदो लोग उन के साथ जाएंगे.

‘अच्छा होता अगर मेरा नंबर लग जाता,’ नीति ने मन ही मन सोचा और अगले ही दिन पता चला कि बौस के साथ राजी और नीति का ही जाना तय हुआ है. पूरे दिन नीति खयालों में ही उड़ रही थी. उस ने कभी सोचा ही नहीं था कि किसी दिन अपने बलबूते पर वह विदेश यात्रा करने के काबिल बन पाएगी. अभी तक सुनती ही आई थी कि औफिस की मीटिंग के लिए लोग विदेश यात्रा करते हैं. जिस में अपना कुछ भी खर्च नहीं होता उलटे दोगुनी तनख्वाह मिलती है. घर पर बताने का मन हुआ लेकिन फिर खयाल आया जाने के दिन ही बता कर चौंकाएगी. पहले से बता दिया तो मम्मीपापा की हिदायतें शुरू हो जाएंगी. शंकाएं उमड़ने लगेंगी. औफिस से अकेली वही क्यों जा रही है? इन सभी खयालों के आते ही उस ने अभी नहीं बताने का पक्का इरादा बना लिया.

शाम को अपने कमरे पर पहुंची ही थी कि मधुकर का फोन आया. अनमने से उस ने फोन उठाया.

‘‘नीति, आप से एक बात कहनी है अगर आप फोन न काटें तो.’’ नीति कुछ समझ नहीं पाई, इसलिए उस ने कह दिया, ‘‘जल्दी बोलो जो बोलना है, अभी औफिस से आई हूं, ज्यादा लंबा भाषण मत देना.’’

‘‘ठीक है, सीधे ही कह देता हूं. आप इस विदेश यात्रा के लिए मना कर दीजिए.’’ मधुकर ने कहा तो नीति लगभग चीखते हुए बोली, ‘‘पहले तो यह बताओ तुम्हें कैसे पता कि मैं विदेश जा रही हूं?’’

मधुकर ने गुस्सा नहीं किया.

‘‘नीतिजी, यह स्वयंसेवी संस्था भी आप के बौस की ही है. उन के पिताजी ने शुरू की थी लेकिन वे रिटायर हो कर अपने गांव चले गए तो अब आप के बौस ही कर्ताधर्ता हैं.’’

‘‘तुम्हें क्या समस्या है मेरे विदेश जाने से?’’ नीति अब भी गुस्से में ही बोल रही थी.

‘‘समस्या मुझे नहीं, आप को होने वाली है. हर साल एक विदेश यात्रा होती है आप के बौस की. औफिस में पता करना. राजी तय करती है कि बौस किस के साथ जाएंगे?’’

मधुकर की बात बीच में ही काट कर नीति बोली, ‘‘वह सैक्रेटरी है बौस की. उस का काम है यह. तुम्हें क्या परेशानी है? मेरी इतनी चिंता क्यों हो रही है?’’

नीति फोन काटने ही वाली थी कि मधुकर ने बात पूरी सुनने का आग्रह किया.

‘‘नीतिजी, अभी आप को कुछ नहीं बता पाऊंगा, बस, इतना कह सकता हूं कि कोई बहाना बना कर मना कर देंगी तो आप का ही फायदा होगा.’’

फोन कट गया पर नीति के दिमाग में हलचल मचा गया. पलंग पर बैठ गई. जिस दिन से मधुकर से मिली थी उस दिन से ले कर नौकरी छोड़ देने तक उसे उस के विरुद्ध कुछ भी ऐसा नहीं याद आ रहा था कि वह उस की बात पर विश्वास नहीं करे. रातभर दिमाग में द्वंद्व चलता रहा. सो भी नहीं पाई. सुबह उठते ही राजी को मैसेज किया.

‘‘मम्मी की तबीयत अचानक खराब हो गई तो रात में ही घर के लिए निकलना पड़ा. अभी आईसीयू में हैं. जब तक तबीयत संभल नहीं जाती तब तक औफिस नहीं आ पाऊंगी.’’

राजी का लगातार फोन आ रहा था लेकिन नीति ने बात नहीं की. घर तो नहीं गई लेकिन जब तक विदेश जाने की तारीख नहीं निकल गई, औफिस नहीं गई. कोई फोन भी नहीं किया. एक हफ्ते बाद औफिस गई तो माहौल बदलाबदला सा लग रहा था. राजी खुद को कुछ ज्यादा ही व्यस्त दिखाने में लगी हुई थी. बाकी लोग भी जैसे खिंचेखिंचे से लग रहे थे. पहली बार बौस ने किसी बात को ले कर डांट लगाई. कुल मिला कर सबकुछ बदल गया था. कोई भी ठीक से बात करने को तैयार नहीं था. नीति ने राजी को सम?ाना चाहा अपने नहीं जाने की वजह पर उस ने कोई ध्यान ही नहीं दिया.

‘‘नीति आज बौस का मूड उखड़ा हुआ है और काम भी बहुत है. तुम नहीं गईं, कोई बड़ी बात नहीं. वह मीटिंग वैसे भी कैंसिल हो गई थी.’’

नीति ने और कुछ नहीं पूछा. अपने काम में व्यस्त हो गई. बौस के किसी काम को मना करने का क्या मतलब होता है, उसे समझ आ गया था.

मधुकर से मैसेज कर के पूछा कि उस ने मना क्यों किया तो उस ने टाला नहीं, बस, छुट्टी वाले दिन मिल कर बताने को कहा.

‘‘फोन पर कही हुई या लिखी गई बात कभी भी सब के सामने आ सकती है, इसलिए बेहतर है कि आमनेसामने बात हो. कई बातों का मतलब तो मैसेज या कौल में गलत ही मान लिया जाता है क्योंकि कहने वाले के चेहरे के भाव छिप जाते हैं.’’ आने वाले रविवार को मिलना तय हुआ.

इस मुलाकात ने मधुकर के प्रति जो गुस्सा था उसे खत्म कर दिया. मुलाकात एक स्वयंसेवी संस्था में ही हुई. जगह मधुकर ने ही बताई थी. वहां उस ने महिमा से मिलवाया. उस के गांव की ही लड़की थी. इस शहर में अपना कैरियर बनाने आई थी मगर एक दुर्घटना ने उसे अवसादग्रत बना दिया और नारी निकेतन पहुंचा दिया था. मधुकर उस से मिलने जाता रहता था. महिमा से मिल कर अच्छा लगा लेकिन कुछ ऐसा था जो नीति को नहीं बताया गया था. नीति बारबार यही सोच रही थी.

‘यह पूरी जानकारी नहीं है. बहुतकुछ छिपा है महिमा के चेहरे के पीछे,’ अपने मन की इस बात पर विश्वास कर के नीति ने ठान लिया था कि पता लगा कर रहेगी कि क्यों मधुकर ने महिमा से उसे मिलवाया?

अगले रविवार को फिर से नीति उसी निकेतन में जा पहुंची जहां महिमा रहती थी. वह जानती थी कि मधुकर इतनी जल्दी महिमा से मिलने नहीं जाएगा, इसलिए समय मिलते ही निकल गई. महिमा से इस बार और भी बातें हुईं और उसे पता चल गया कि वह यहां कैसे पहुंची. महिमा मधुकर के साथ उस से मिली थी, इसलिए नीति पर उसे विश्वास हो गया था. दूसरे, नीति ने अपने आने की सूचना मधुकर को भी नहीं दी थी, इसलिए बिना किसी रोकटोक या सलाह के वह खुल कर नीति से बात कर पाई. वह सबकुछ बता दिया जो मधुकर जानते हुए भी उस से छिपा
गया था.

‘‘महिमा तुम्हारी बहन है और व्योम उसी का बेटा है. यही कारण था कि उस का बाकी बच्चों से ज्यादा खयाल रखा जाता था. तुम ने अधिराज से इस बारे में बात क्यों नहीं की?’’ शाम को फोन पर नीति ने मधुकर से सीधे पूछा. कई महीनों से वह इन बातों के चंगुल में फंसी हुई थी. बाल निकेतन को छोड़ने पर भी उस की जड़ों ने उस का पीछा नहीं छोड़ा था.

‘‘अभी समय नहीं आया है सीधे बात करने का. जब आ जाएगा, जरूर करूंगा. मैं तो इस शहर में आया ही उस से बात करने के लिए हूं.’’
मधुकर ने दृढ़ता से उत्तर दिया. नीति ने एक और सवाल पूछा.

‘‘मुझ से क्या चाहते हो?’’

‘‘अधिराज के मुंह से कबूलनामा कि उस ने मेरी बहन की जिंदगी बरबाद की है और व्योम की परवरिश.’’

मधुकर ने तुरंत उत्तर दिया.

‘‘यह कैसे संभव होगा?’’ कुछ सोचते हुए नीति ने पूछा.

‘‘जल्दी ही तुम्हें बताऊंगा कि तुम्हारी जरूरत कहां पड़ेगी. तब तक निश्चय कर लो कि तुम इस लड़ाई में महिमा और व्योम के साथ हो.’’

कह कर मधुकर ने फोन काट दिया. नीति सोच रही थी कि कैसे बौस के असली चेहरे को देखे क्योंकि मधुकर की योजना में शामिल होने से पहले वह तय करना चाहती थी कि क्या मधुकर सही है? उस ने जो कहानी बताई और दिखाई है वह सच है या फिर अधिराज से मधुकर की कोई व्यक्तिगत दुश्मनी है.

नए साल की शुरुआत के साथ ही औफिस में नए कर्मचारियों की नियुक्तियां शुरू हो गईं. एक लड़की भी आई, सृष्टि. बला की खूबसूरत और बिंदास. उस के आते ही औफिस के पुरुष कर्मचारियों की कार्यक्षमता दोगुनी हो गई. पहले समय पर औफिस पहुंचना और पहले ही निकल जाना एक आम बात थी लेकिन अब सब जल्दी औफिस आते और जब तक सृष्टि नहीं चली जाती, कोई भी नहीं जाता था. पूरे औफिस का माहौल बदल गया था. थोड़े ही दिन बीते कि राजी को कंपनी के दूसरे औफिस में भेज दिया गया और उस की जगह सृष्टि ने ले ली. अब बौस से उस का सीधा संपर्क होने लगा तो औफिस में कानाफूसी भी बढ़ने लगी. वह कुछ देर बौस के केबिन में रुक जाती तो सब घडि़यां देखने लगते. एकएक मिनट का हिसाब रखा जाता. जब बाहर आती तो ऐसी नजरों से उसे देखते जैसे कोई अपराध कर के आई हो.

कई बार नीति का मन होता कि इस माहौल से खुद को निकाल ले पर दूसरी नौकरी मिले बिना, इसे छोड़ नहीं सकती थी. पहली नौकरी छोड़ने के बाद की हालत उसे अभी भी भूली नहीं थी.

मधुकर का फोन आया और सृष्टि पर नजर रखने के लिए बोला. कारण, अभी नहीं बता सकता. अगले दिन बौस ने केबिन में बुलाया. उन्होंने भी सृष्टि पर नजर रखने के लिए ही कहा. एक बार तो नीति को शक हुआ कहीं अधिराज और मधुकर मिले हुए तो नहीं हैं? पर उस का भी कोई सबूत उस के पास नहीं था. दोनों का जितना चरित्र उस के सामने आया था उस में ऐसा कुछ भी नहीं था कि उन दोनों पर शक किया जा सके.

फिर गुत्थी क्या है? बाल निकेतन, नारी निकेतन और यह औफिस जिस में वह काम करती है, कैसे एकदूसरे से जुड़े हुए हैं? महिमा, राजी और सृष्टि की क्या भूमिका है? व्योम क्यों बाल निकेतन में रह रहा है? दूसरे बच्चों से ज्यादा खयाल उस का क्यों रखा जाता है? बहुत सारे प्रश्न थे जिन के जवाब नीति चाहती थी लेकिन जितना इन सब के बारे में सोचती उतना ही उल?ाती जाती थी. नौकरी करनी है तो इस असमंजस की स्थिति में रहना सीखना ही होगा. शायद समय आने पर इन सवालों के जवाब मिल जाएं. इसी उम्मीद में वह काम कर रही थी. साथ ही, दूसरी नौकरी के लिए भी तलाश जारी थी.

नए साल का पहला दिन तो और भी चौंका गया. महिमा भी औफिस में वापस आ गई. वापस इसलिए कि पहले वह इसी औफिस में काम करती थी. फिर उस के साथ कुछ दुखद हुआ और वह 2 साल नारी निकेतन में थी. क्या हुआ था, यह कोई भी खुल कर नहीं बोलता था. उस के आने से औफिस में 2 दल बन गए थे. एक था जो समय मिलते ही उस की आलोचना करता और दूसरा जिस में एकदो लोग ही थे या तो चुप रहते या उस के काम की तारीफ किया करते. नीति ने महिमा को पहचान लिया था लेकिन उस ने ऐसा ही दिखाया जैसे नीति से वह पहली बार ही मिल रही हो. नीति को थोड़ा अजीब लगा लेकिन उस ने यही सम?ा लिया कि आजकल सबकुछ अजीब ही घट रहा है उस के जीवन में.

मधुकर के फोन आते और वही चुप रह कर सभी पात्रों पर दृष्टि गड़ाए रखने के निर्देश दिए जाते. बौस से भी अब लगभग रोज ही मिलना होता. औफिस के काम के सिवा सृष्टि क्या करती है दिनभर, यह भी रिपोर्ट देनी पड़ती. सृष्टि अभी तक बिंदास फुदकती थी. काम तो दूसरे लोगों से करवा लेती और खुद सजधज, गपशप में व्यस्त रहती. बाकी की कसर बौस की तारीफों के पुल बांध कर पूरी कर लेती. उस का रुतबा बढ़ता ही जाता था.

औफिस में कोई ऐसा नहीं था जो दिन में एक बार सृष्टि से मिल न लेता हो. औफिस की महिलाएं भी उस से जरूर मिलतीं और बात भी करतीं. यह अलग बात है कि पीठपीछे उस की हमेशा बुराई ही करतीं. सृष्टि को चर्चाओं में बने रहना बखूबी आता था. इस के पीछे उस का क्या मकसद था, यह नीति नहीं सम?ा पा रही थी. उसे मधुकर और बौस के कहने पर सृष्टि पर नजर बना कर रखनी पड़ती थी.

नौकरी अब दूसरों पर नजर रखने की ही हो गई थी. कोई विशेष काम उसे नहीं करना पड़ता था. महीने के अंत में तनख्वाह मिल जाती थी. बस, यही एक मकसद बचा था इस नौकरी का. न सीखने को कुछ था और न ही करने को. लगातार दूसरी कंपनियों में आवेदन दे रही थी लेकिन कहीं से भी कोई बुलावा नहीं आता था. उसे कई बार लगता कि इस कंपनी की कोई न कोई नीति ऐसी है कि जब तक कंपनी कर्मचारी को नहीं निकाल देती तब तक दूसरी कंपनी उस के रिज्यूमे पर नजर नहीं डालती है.

दूसरे शहर में आवेदन करने का भी कई बार खयाल आता था पर फिर से नई शुरुआत करने से मन पीछे हट जाता था. मम्मीपापा हर बार बोलते कि सरकारी नौकरी के लिए भी आवेदन करो. थोड़ी तैयारी होगी तो कोई न कोई परीक्षा पास हो ही जाएगी. औफिस के साथ तैयारी का समय ही नहीं बचता था. बड़ी दुविधा में पड़ गई थी नीति.

‘‘नीति, फौरेन इन्वैस्टर्स के साथ एक मीटिंग है. तुम्हें कंपनी में आए हुए एक साल से ज्यादा का समय हो चुका है. कंपनी के बारे में काफीकुछ जान चुकी हो. तुम्हारा नाम भी औफिस से भेजा गया है. तैयार रहना. इस बार कोई बहाना नहीं चलेगा.’’

बौस ने सुबहसुबह बुला कर साफ शब्दों में आदेश दिया. न कहने की कोई गुंजाइश नहीं थी. एक बार तो बहुत गुस्सा आया, किसी भी आदेश को बिना जांचेपरखे कैसे माना जा सकता है? पहले से कोई बात नहीं. अचानक से तलवार सिर पर रख दी.

‘इस बार चल कर देखते हैं. ऐसा क्या है इन विदेशी दौरों में?’ इस खयाल ने दिमाग को थोड़ा शांत किया.

आखिर वह दिन भी आया जब नीति एयरपोर्ट पर पहुंच गई. आज मन में डर नहीं था बल्कि खुशी थी. उसे खुद समझ नहीं आ रहा था कि उस के साथ ऐसा क्यों हो रहा था. प्लेन में बोर्ड करने की घोषणा हो चुकी थी. जैसे ही नीति बैग उठा कर आगे बढ़ी, फोन बजने लगा. मधुकर का फोन था. वापस आना था क्योंकि अंतिम समय पर मीटिंग कैंसिल होने की सूचना मिली थी.

एयरपोर्ट पर ही एक हौल में पूरी टीम इकट्ठा थी. पुलिस भी आई हुई थी. एकएक कर के सब से पूछताछ चल रही थी. सृष्टि और बौस महिमा और मधुकर.

‘‘हुआ क्या है?’’ नीति ने मधुकर के पास जा कर पूछा.

‘‘कल पेपर में पढ़ लेना. अभी पुलिस की कार्यवाही पूरी हो जाए तो घर चले जाना.’’

रात जागतेजागते बीती. बहुत दिनों बाद निधि से भी बात की. बारह बजते ही गूगल पर देखा. कुछ नहीं था. सुबह उठते ही पड़ोस वाली आंटी से पेपर ले कर आई.

‘‘स्वयंसेवी संस्था का अध्यक्ष गिरफ्तार.’’

नीति पूरी खबर तेजी से पढ़ रही थी लेकिन बौस का नाम नहीं था. किसी वीरेन का नाम लिखा था.

‘शायद नाम बदल दिया है,’ उस ने सोचा. औफिस के ग्रुप में कोई मैसेज नहीं था. डरतेडरते औफिस पहुंची लेकिन सब सामान्य था.

‘‘शुक्रिया नीति मेरी मदद करने के लिए,’’ महिमा पास आ कर बोली.

‘‘पर किया क्या है मैं ने?’’ नीति ने थोड़ा दूर हट कर पूछा.

‘‘मधुकर की बात मान कर औफिस में रुकने के लिए,’’ महिमा ने कृतज्ञता के भाव से कहा.

लेकिन नीति के चेहरे पर शिकन बरकरार थी. उस ने शिकायती लहजे में कहा, ‘‘मैं ने तो कुछ किया नहीं. क्या हुआ है, यह भी अभी तक पता नहीं है.’’

‘‘वीरेन को पकड़वाने के लिए यह सब चाल चली गई थी. एक नंबर का ऐयाश है. वह संस्था जिस में तुम काम करती थीं उस की और उस के जैसे कुछ ऐयाशों की औलादों को ही पाल रही थी.’’

बौस कब आए, नीति को पता ही नहीं चला. उन्होंने आगे कहा, ‘‘महिमा उस के चंगुल में फंसी तो हम ने उस की चाल से ही उसे मात दी. कोई भी कांड कर के विदेश भाग जाता था. सृष्टि के जाल में फंस गया और नशे में सबकुछ बोल गया.’’

अब नीति को कुछकुछ समझ आ रहा था. सृष्टि पहले चली गई थी. उसी होटल में थी जिस में वीरेन ठहरा हुआ था. उसी ने उस की असलियत उजागर की.

‘‘मुझे आप सृष्टि पर नजर रखने के लिए क्यों बोलते थे?’’ नीति ने सीधे पूछ ही लिया.

‘‘यह जानने के लिए कि औफिस में किसी को कुछ पता तो नहीं चला है कि सृष्टि कौन है? वह मेरी दोस्त है, मेरी मदद कर रही थी. अब उस के पापा ने इस कंपनी को खरीद लिया है.’’

नीति के दिमाग में एक और प्रश्न था उस स्वयंसेवी संस्था को ले कर.

‘‘पापा रिटायर हो गए हैं तो उस संस्था को संभालेंगे. वीरेन के जाल को हम सब ने मिल कर काट दिया है,’’ सृष्टि चहकती हुई बोली.

‘‘मैं भी वहीं हूं. वापस आना चाहो तो आ जाना,’’ यह मधुकर की आवाज थी.

नीति सारी जानकारी जोड़ कर उसे घटना से मिलाने की कोशिश कर रही थी. जो गुनाहगार था वह चेहरा तो देख ही नहीं पाई थी वह.

न्याय, न्यायालय, न्यायाधीश

एक सवाल के जवाब में संसद में सरकार ने स्पष्ट किया कि 2018 के बाद 661 नए नियुक्त किए गए जजों में से 500 से ज्यादा ऊंची जातियों के पुरुष हैं. ये ही जज उच्च न्यायालयों में आमतौर पर गरीबों की जमानतों के, तलाकों के, जमीनों के, अपराधियों के मामलों को सुनेंगे जबकि वे न तो इन जमातों से आते हैं और न ही उन्हें इन का दर्द समझ आता है.

देश की जेलों में बंद लाखों कैदियों में से 75 फीसदी कैदी बिना अपराध साबित हुए सड़ रहे हैं और बिना किसी तरह की जातीय गणना किए कहा जा सकता है कि इन 75 फीसदी कैदियों में से 90 फीसदी से ज्यादा पिछड़ी, एससी, एसटी जातियों के या अल्पसंख्यक होंगे. संविधान जजों की नियुक्ति में किसी तरह के रिजर्वेशन का प्रावधान नहीं रखता.

जब से देश में ज्यूडीशियल नियुक्तियों को कौमन लौ एंट्रैंस टैस्ट के माध्यम से किया जाना शुरू कर दिया गया है, अमीर घरों के युवा ज्यादा इस क्षेत्र में आने लगे हैं क्योंकि अच्छे वेतन के साथ प्रतिष्ठा भी अच्छी होती है और रुतबा भी बढ़ा होता है. पर यह परीक्षा ऐसी है जिस में वही जा पा रहे हैं जिन्होंने 5 साल का किसी नैशनल लौ स्कूल या बहुत प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई की हो. चूंकि इस में आरक्षण नहीं है, इन कोर्सों में केवल ऊंची जातियों के ही युवा जा रहे हैं. नतीजा यह है कि प्राथमिक न्यायालयों में अब ऊंची जातियों के युवा जज भर गए हैं और उन्हीं में से हाईकोर्ट के जज बनेंगे.

वकालत का 3 साल का कोर्स कर के आए ताल्लुका स्तर के वकीलों में कुछ बहुत अच्छे निकलते हैं पर हाईकोर्टों में उन की नियुक्तियों का कोई लंबाचौड़ा मापदंड नहीं है और यह उच्च न्यायालय के कोलैजियम और सरकार पर निर्भर करता है. सरकार चाहे कितना ही कहे, प्रशासन और व्यापारों की तरह न्यायपालिका पर कब्जा भी उन्हीं लोगों का रहने वाला है जिन्हें उन वर्गों की परेशानियों का एहसास नहीं जो महंगे वकील तक नहीं कर सकते.

यही नहीं, दिसंबर 2023 तक हाईकोर्ट के 790 जजों में से केवल 111 जज ही महिलाएं थीं चाहे उन की जाति या पृष्ठभूमि कुछ भी हो. आजकल अदालतों में औरतें अपने अधिकारों के लिए और ज्यादा आने लगी हैं पर पुरातनवादी पुरुष जज उन की अपेक्षाओं और विडंबनाओं को समझ नहीं पाते.

हमारे जैसे ही गरीब देश ग्वाटेमाला और पनामा में 50 फीसदी से ज्यादा महिला जज हाईकोर्टों में हैं. इंगलैंड में 37-38 फीसदी जज महिलाएं हैं. अमेरिका की फेडरल कोर्टों में भी 37-38 फीसदी जज महिलाएं हैं.

हमारे यहां लौ कालेजों में अब युवतियों की संख्या काफी है पर उन में से अधिकांश ऊंचे घरों की हैं क्योंकि कानून की पढ़ाई काफी महंगी है. जब तक महिलाओं और पिछड़ों को न्यायपालिका में सही जगह नहीं मिलेगी, औरतें अपनी सैंडिलें और गरीब अपनी मैली चप्पलें पहने अदालतों के आगे बैठे नजर आएंगे लेकिन उन्हें न्याय मिलेगा, इस में संदेह है.

शांत नहीं कश्मीर

सैनिक आंकड़ों के अनुसार, संविधान की धारा 370 को समाप्त कर दिए जाने के बाद भी कश्मीर शांत नहीं हुआ है. 6 और 7 जुलाई को आतंकवादियों के साथ हुई मुठभेड़ में 2 सैनिकों की मृत्यु हो जाना इस बात की गवाह है कि कश्मीर पर थोपा गया संविधान संशोधन हिंदू जनता को चाहे पसंद आया हो पर मुसलिम कश्मीरियों ने इसे अभी सहज स्वीकारा नहीं है. ऐसी घटनाएं छिटपुट ही नहीं घट रहीं, बल्कि अकसर ही घट जाती हैं. अब जब सीमा पर पूरी तरह तारबंदी है, तो भी घटनाओं का होना यही बताता है कि इन को अंजाम देने वाले आतंकवादी स्थानीय ही हैं, कश्मीरी ही हैं.

यह असल में दिल्ली में बैठे लोगों की नीतियों की असफलता की निशानी है. हर काम को बंदूक के बल पर कराया जा सकता है, यही पाठ महाभारत में कृष्ण ने अर्जुन को दिया था और चाहे इस का अंत पूरे कुरुवंश का समाप्त हो जाना रहा हो, भारतीय नेता इसे दिल से लगाए बैठे हैं. गलती उन की भी नहीं क्योंकि दुनियाभर में हर राजा ने बल से ही लोगों का मन जीता है, तर्क या सेवा से नहीं.

कश्मीर का मामला अब एक तरह से गंभीर नहीं रह गया क्योंकि आर्थिक तौर पर कश्मीरियों को शह देने वाला पाकिस्तान बुरी तरह पिछड़ गया है, इतनी बुरी तरह कि वहां तो भारत को छोड़ें, बंगलादेश से भी ईर्ष्या की जाती है. पाकिस्तान कश्मीर में कुछ ज्यादा नहीं कर सकता, यह पक्का है.

भारत के लिए यह अवसर है कि वह कश्मीरियों को हर तरह की छूट दे कर उन का ध्यान राजनीति व धर्म से हटा कर उन की अपनी खुद की आर्थिक उन्नति की ओर लगाने को प्रेरित करे. कश्मीरियों को कश्मीर ही नहीं, पूरे देश में नौकरियों के अवसर मिलें. उन्हें अपना राज्य खुद चलाने की इजाजत दी जाए. उन्हें भरोसे में लिया जाए.

मुगलों और अंगरेजों ने देश पर सदियों राज किया तो सिर्फ बंदूक और तलवार पर नहीं बल्कि सुशासन के बल पर किया. उन्होंने जनता को बहुत रियायतें दीं. तभी तो आज भी इस देश में उन दोनों शासकों की भाषा, व्यवहार, खानपान, पहरावा जिंदा हैं. दिल्ली में बैठ कर कानून बदलने या दिल्ली वालों को वहां का शासक बना कर भेजने से बात नहीं बनती.

बच्चों से रोटीवसूली

सिर्फ धार्मिक जिद पूरी करने के लिए देश का न जाने कितना ही अनाज उन गायों को खिलाने के लिए बरबाद किया जा रहा है जिन की न आज जरूरत रह गई है, न भविष्य में होगी. हिंदू धर्म में गौदान का बड़ा महत्त्व है क्योंकि बैठेठाले ऋषिमुनि अपने आश्रमों में गाय पालने का कष्ट नहीं करते थे. उन्होंने मंत्रों को पढ़ कर यह भ्रांति फैला दी कि गौदान से पुण्य मिलता है. ऋषिमुनि उन गायों का सूखने के बाद क्या करते थे, यह जानकारी तो ज्यादा नहीं मिलती लेकिन गौदान में दी गई गायों के रातदिन दोहन किए जाने से कमजोर हो या सूख सी गई गायें देशभर के लिए आफत बनी हुई हैं.

उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के लोकसभा चुनाव हारने में एक वजह ये छुट्टा सूखी गायें भी रही हैं जो किसानों के खेतों में घुस कर फसल नष्ट कर दिया करती हैं. अगर उन्हें डंडे मार कर भगाया जाए तो तथाकथित गौप्रेमी आगबबूला हो उठते हैं. प्लास्टिक थैलियों पर बैन केवल इसलिए लगाया जा रहा है क्योंकि उन में रख कर फेंका खाना गायें खा जाती हैं, थैलियों समेत.

अब रायपुर के एक स्कूल ने एक जबरन टैक्स थोपा है बच्चों पर कि वे हर रोज अपने टिफिन में एक रोटी अतिरिक्त लाएं जो स्कूल के बाहर रखे बौक्स में गायों के लिए डाली जाए. उस स्कूल, वीर छत्रपति शिवाजी स्कूल, के बच्चों को रोजाना धर्म की जिद पर ‘गाय टैक्स’ देना पड़ रहा है. ये रोटियां फिर किसी गौशाला में भेजी जाती हैं, जहां उन्हें उन पशुओं को खिलाया जाता है जो असल में कच्ची घास को खाने के आदी हैं, आलू भरे, घी में तर परांठे खाने के नहीं. इन 700-800 बच्चों की मांओं में से कुछ ही खुश होंगी और जो खुश न होंगी वे इस नई मुसीबत पर, धर्म के डर के कारण, कुछ बोलेंगी नहीं. धर्म के ठेकेदार उस घर में मारपीट कर सकते हैं जो इस जबरिया टैक्स को मानने से इनकार कर देगा.

गाय की पूजा का लाभ पहले केवल ब्राह्मणों को मिलता था, अब तो यह भगवा गुंडई का धंधा बन गया है. गौरक्षक सड़कों पर जमा हो कर हर तरह के मवेशी को लाने-ले जाने पर टैक्स वसूलने लगे हैं. इस टैक्स वसूली का पैसा कहां जाता है, वह नरेंद्र मोदी सरकार के पीएम केयर फंड की तरह गुप्त है, प्राइवेट है. यानी, दस लफंगे मिल कर गौरक्षा गैंग बना कर अच्छी कमाई कर सकते हैं. रायपुर का यह वीर छत्रपति शिवाजी स्कूल अपरोक्ष रूप से इस तरह के गैंगों का हिस्सेदार है क्योंकि उस का बच्चों से किसी तरह की उगाही करना उन गैंगों की करतूतों का महिमामंडन करना ही है.

(अन)सोशल पौलिसियां

अब अपनी गर्लफ्रैंड या पत्नी को हीरों से लादफांद कर दूसरों पर रोब जमाने का जमाना गया क्योंकि चाहे गर्लफ्रैंड हो या पत्नी, वह पुरुष की संपत्ति नहीं रही. बड़ा मकान, सही ऐड्रैस पर होना पैसा दिखाने की एक तरकीब है पर अब कितने लोग हैं जो किसी सहयोगी, साथी या अनजाने से घर का पता पूछते हैं या उस के घर जाते हैं. अब अपनी सक्सैस दिखाने का, मेल ईगो के एक्जीबिट करने का एक बड़ा तरीका बड़ी गाड़ी का दिखाना हो गया है.

भारत जैसे गरीब देश में भी, जहां 80 करोड़ों को खाना मुफ्त दिया जा रहा है, 40 करोड़ लोग ?ाग्गियों या स्लमनुमा ढहते से मकानों में रहते हैं, बड़ी गाडि़यों की बिक्री धड़ल्ले से हो रही है. 50 लाख से 2 करोड़ रुपए तक की गाडि़यां अब सड़कों पर दौड़ती नजर भी आ जाएंगी, सड़कों के किनारे धूल जमी खड़ी भी दिख जाएंगी क्योंकि उन्हें चलाया ही कम जाता है. गाड़ी, बड़ी गाड़ी, और भी बड़ी गाड़ी अब स्टेटस सिंबल हैं.

यही नहीं, एक रिपोर्ट के अनुसार महंगी गाडि़यों को कस्टमाइज कराने के औप्शन भी दिए जा रहे हैं. 70 लाख रुपए की औडी कार को 17 एक्स्ट्रा चीजों से अंदरबाहर से सिर्फ पैसा दिखाने के लिए सजाया जा सकता है जिस पर 30-35 लाख रुपए और लग सकते हैं.

कार्बन फाइबर रूफ, मैट्रिक्स डिजाइन के एलईडी हैडलैंप, स्टीयरिंग कवर, सभी सीटों के लिए सेपरेट स्क्रीनें, हैंडक्राफ्टेड लैदर सीटें, लैदर कुशन, स्पैशल कार नंबर, मिनी फ्रिज, इनसाइड लाइटें आदि कुछ ऐक्सेसरीज हैं जो एक्स जैनरेशन धड़ल्ले से महंगी गाडि़यों में लगवा रही है.

इस बढ़ते भेदभाव का एक कारण तो टैक्नोलौजी है कि इतने सारे औप्शन अब मिल रहे हैं लेकिन दूसरा बड़ा कारण सरकार की, खासतौर पर भगवा सरकार की, नीतियां हैं. पिछले 30-40 वर्षों के दौरान देश के समाजवाद, बराबरी, भेदभावरहित व्यवस्था, सभी को एकसमान अवसर जैसे विचार गंगा-सरयू में बहा दिए गए हैं. रामायण और महाभारत सीरियलों में जिस तरह से नकली, काल्पनिक भव्यता को रामानंद सागर ने दिखाया, वह आम आदमी के मन का हिस्सा बन गया है.

मानव का मकसद अब पूजापाठ कर, बेईमानी कर, जबरदस्ती कर, लूट कर अपना महल दशरथ के महल या कौरव पांडव के महल सा बनाना है. भगवा आंदोलन ने देशभर में सुंदरसुंदर मंदिर बनवा डाले जो आसपास की कच्ची बस्तियों में शान से सिर उठाए खड़े हैं.

अपनी एक्स्ट्रा ऐक्सेसरीज वाली कार ले जा कर कोई भी पुराने बड़े बाजार के ढहते खंडहरों में भी खड़ा कर सकता है. अब दूसरे ईर्ष्या नहीं करते बल्कि ज्यादा जोर से भजन करते हैं क्योंकि सब को यह मालूम है कि यह एक्स्ट्रा पैसा या तो सट्टा बाजार से आ रहा है या रिश्वतखोरी से या ऐसे व्यवसाय से जिस में सरकारी कौन्ट्रैक्ट हैं.

सोशल पौलिसियां ऐसी हो गई हैं कि अब अमीरों के प्रति गुस्सा नहीं है, उन की अमीरी को दैविक देन सम?ा जाता है. तभी तो देश के धनाढ्य उद्योगपति मुकेश अंबानी के बेटे की शादी पर गरीबों के नेता ममता बनर्जी और लालू प्रसाद यादव भी मोहर लगा आए कि वाह, क्या सही काम किया है हजारों करोड़ जनता से कमाए पैसे को बरबाद कर के. सो, कारों में अगर छोटा अंबानी कुछ खर्च कर रहा है, तो शिकायत कैसी?

सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर एक्शन पर उठाए गंभीर सवाल, कहा यह सही तरीका नहीं है

साल 2022 में मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी की नेता वृंदा करात ने जहांगीरपुरी में बुलडोजर से की गई तोड़फोड़ को चुनौती देने वाली एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में दाखिल की थी. इस याचिका में बुलडोजर से की जानी वाली तोड़फोड़ को रोकने की मांग की गई थी. इस के साथ ही जमीयत उलेमा ए हिंद ने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान में आएदिन होने वाली बुलडोजर द्वारा की जा रही तोड़फोड़ पर रोक लगाने की मांग की.

सरकार का कहना है कि किसी के अपराधी होने से नहीं उस के गैरकानूनी तरीके से बनने के चलते यह काम किया गया है. इस को रूल औफ लौ कहा गया. क्या सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद बुलडोजर से किया जाने वाला तथाकथित ‘जस्टिस’ रुक सकेगा?

सवाल उठता है कि अगर कोई मकान 50-60 साल पहले 4 लोगों के हिसाब से बना था. उस की एक मंजिल का नक्शा पास था और अब अगर मकान मालिक अपने रहने के लिए वहां नया कुछ बना ले, तो वह गैरकानूनी कैसे हो गया? 50-60 साल पहले म्यूनिसिपल कौरपोरेशन ने जो शहर बसाया था, क्या आज वह वैसा ही है? नहीं. शहर बदल चुके हैं. फुटपाथ गायब हो गए हैं. पेड़ कट चुके हैं.

जब जरूरत के हिसाब से शहर में बदलाव गलत नहीं है, तो घर में बदलाव गैरकानूनी कैसे हो गया? गैरकानूनी है तो बुलडोजर नीतियों के हिसाब से चलेगा या जिस ने अपराध किया उस के ऊपर ही चलेगा?

बुलडोजर ऐक्शन को ले कर विपक्षी दलों के नेताओं ने भाजपा को निशाने पर ले लिया. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने कहा, “2027 में जब सपा की सरकार बनेगी तो सारे बुलडोजर गोरखपुर की ओर भेज दिए जाएंगे.”

बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने कहा, “बुलडोजर का इस्तेमाल रूल औफ लौ के मुताबिक होना चाहिए.”

कांग्रेस नेता और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने कहा, “भाजपा की असंवैधानिक और अन्यायपूर्ण बुलडोजर नीति पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी स्वागत योग्य है. बुलडोजर के नीचे इनसानियत और इंसाफ को कुचलने वाली भाजपा का संविधान विरोधी चेहरा अब देश के सामने बेनकाब हो चुका है. बेलगाम सत्ता का प्रतीक बन चुके बुलडोजर ने नागरिक अधिकारों को कुचल कर कानून को निरंतर अंहकार भरी चुनौती दी है. ‘त्वरित न्याय’ की आड़ में ‘भय का राज्य’ स्थापित करने की मंशा से चलाए जा रहे बुलडोजर के पहिए के नीचे अकसर बहुजन और गरीबों की ही घरगृहस्थी आती है. सुप्रीम कोर्ट इस अति संवेदनशील विषय पर दिशानिर्देश दे कर भाजपा सरकारों के इस लोकतंत्र विरोधी अभियान से नागरिकों की रक्षा करेगा.”

‘बुलडोजर जस्टिस’ का विरोध

जमीयत उलेमा ए हिंद की तरफ से सीनियर एडवोकेट दुष्यंत दवे ने जस्टिस बीआर गवई और केवी विश्वनाथन की पीठ से कहा कि 2022 में जहांगीरपुरी में हिंसा भड़की थी. हिंसा के बाद कई लोगों के घरों पर बुलडोजर चलाया गया. इन लोगों पर यह आरोप था कि उन्होंने हिंसा भड़काई थी.

याचिका में कहा गया कि अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाए जाने का आरोप लगाया गया है. याचिका में ‘बुलडोजर जस्टिस’ की प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट से अपील की गई थी.

जहांगीरपुरी मामले में वकील फरूख रशीद द्वारा दाखिल की गई थी. याचिका में कहा गया था कि राज्य सरकारें हाशिए पर मौजूद लोगों खासकर अल्पसंख्यकों के खिलाफ दमनचक्र चला कर उन के घरों और संपत्तियों पर बुलडोजर चलाने को बढ़ावा दे रही हैं, जिस से पीड़ितों को कानूनी उपाय करने का मौका नहीं मिलता.

24 अगस्त को मध्य प्रदेश के छतरपुर में पुलिस पर पथराव मामले में आरोपी हाजी शहजाद अली के बंगले को बुलडोजर से तोड़ दिया गया था. एमेनेस्टी इंटरनैशनल की फरवरी, 2024 की रिपोर्ट के मुताबिक, अप्रैल, 2022 से जून, 2023 के बीच दिल्ली, असम, गुजरात, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा के बाद 128 संपत्तियों को बुलडोजर से ढहा दिया गया. मध्य प्रदेश में एक आरोपी के पिता की संपत्ति पर बुलडोजर चलवा दिया गया और मुरादाबाद और बरेली में भी बुलडोजर से संपत्तियां ढहाई गईं. राजस्थान के उदयपुर जिले में राशिद खान का घर भी बुलडोजर से गिरा दिया गया, जिस में उन के 15 साल के बेटे पर स्कूल में अपने सहपाठी को चाकू से गोदने का आरोप था.

क्या ठहर जाएगा बुलडोजर

सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर पर गंभीर सवाल उठाए हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘अगर कोई सिर्फ आरोपी है तो प्रौपर्टी गिराने का ऐक्शन कैसे लिया जा सकता है?’

जस्टिस विश्वनाथन और जस्टिस बीआर गवई की बैंच ने कहा, ‘अगर कोई दोषी भी हो, तब भी ऐसा ऐक्शन नहीं लिया जा सकता है. सिर्फ आरोपी होने के आधार पर किसी के घर को गिराना उचित नहीं है. किसी का बेटा आरोपी हो सकता है, लेकिन इस आधार पर पिता का घर गिरा देना, ऐक्शन का सही तरीका नहीं है.

‘हम यहां अवैध अतिक्रमण के बारे में बात नहीं कर रहे हैं. इस मामले से जुड़ी पार्टियां सुझाव दें. हम पूरे देश के लिए गाइडलाइन जारी कर सकते हैं.’

सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने इस बात को स्वीकार किया और कहा कि अपराध में दोषी साबित होने पर भी घर नहीं गिराया जा सकता. उन्होंने साफ किया कि जिन के खिलाफ ऐक्शन हुआ है, वे अवैध कब्जे या निर्माण के कारण निशाने पर हैं न कि अपराध के आरोप की वजह से ऐक्शन हुआ है. किसी भी आरोपी की प्रौपर्टी इसलिए नहीं गिराई गई, क्योंकि उस ने अपराध किया. आरोपी के अवैध कब्जों पर म्यूनिसिपल ऐक्ट के तहत ऐक्शन लिया है.

म्यूनिसिपल ऐक्ट कब बना

सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने अवैध कब्जों पर म्यूनिसिपल ऐक्ट के तहत ऐक्शन की बात कही. अब सवाल उठता है कि म्यूनिसिपल ऐक्ट कब बना आज के समय में वह कितना उपयोगी है? भारत में नगर प्रशासन साल 1687 के बाद कानून बना. सब से पहले साल 1687 में मद्रास नगरनिगम का गठन हुआ. इस के बाद साल 1726 में कलकत्ता (अब कोलकाता) और बौम्बे नगरनिगम का गठन हुआ. साल 1916 में देश के तकरीबन सभी शहरों में नगरनिगम प्रशासन की मौजूदगी हो गई थी. तब भारत के वाइसराय लार्ड रिप्प ने नगरपालिका शासन की नींव रखी थी.

साल 1919 में भारत सरकार ने लोकतांत्रिक रूप से चुनी हुई नगरपालिका सरकार की शक्तियां तैयार कीं. साल 1935 में भारत सरकार ने राज्य सरकार और प्रांतीय सरकार के अधिकार के तहत नगरपालिका सरकार लाई. उस को अपने कानून बनाने का हक दिया गया.

साल 1991 की जनगणना के मुताबिक, देश में 3,255 शहरी स्थानीय निकाय बने. इन को 4 प्रमुख श्रेणियों में रखा गया. नगरनिगम, नगरपालिका (नगरपालिका परिषद, नगरपालिका बोर्ड, नगरपालिका समिति) (नगर परिषद), टाउन एरिया कमेटी और अधिसूचित क्षेत्र समिति को बनाया. नगरनिगम और नगरपालिका पूरी तरह से प्रतिनिधि निकाय हैं. यहां चुने गए प्रतिनिधि होते हैं. अधिसूचित क्षेत्र समितियां और शहर क्षेत्र समितियां या तो पूरी तरह या आंशिक रूप से निकाय हैं.

भारत के संविधान के मुताबिक, साल 1992 में 74वां संशोधन अधिनियम लागू कर के इन को और हक दिए गए. साल 1994 में यह लागू हुआ. 74वें संशोधन के बाद शहरी स्थानीय निकायों को महानगरनिगम, नगरपालिका और नगरपंचायत में बांट दिया गया. इन को शहरी विकास के हिसाब से कानून बनाने का हक था. कई ऐसे कानून थे, जिन में समय, शहरी जरूरतों और टैक्नोलौजी का ध्यान नहीं रखा गया. जब भी कोई जमीन खरीदता है, तो उस पर मकान बनाने के लिए नक्शा पास कराना होता है. जब साल 1916 में जब म्यूनिसिपल कानून बना था, तब जिस तरह की पाबंदियां थीं, वही अब भी हैं.

आज शहरी जरूरतें बदल गई हैं. अब छोटेछोटे जमीन के हिस्सों पर रहने के लिए मकान बनने लगे हैं. पहले मकान एक मंजिल के बनते थे, आज की टैक्नोलौजी के हिसाब से 4-5 मंजिल के मकान साधारण रूप में बनते हैं. मकान बनाने के लिए नक्शा पास कराने के लिए प्राधिकरण के पास जाना पड़ता है. वह पुराने कानून के हिसाब से ही नक्शा पास करता है, जिस का नतीजा यह होता है कि लोग अपनी बढ़ती जरूरत के हिसाब से मकान में फेरबदल कर लेते हैं. यह मकान मालिक की सुविधा के लिए ठीक है. लेकिन नक्शे के हिसाब से गलत है. यह म्यूनिसिपल कानून के तहत गिराया जा सकता है.

नक्शे के अलावा जरूरत के हिसाब से बनाया गया मकान म्यूनिसिपल कानून की नजर में अवैध निर्माण कहा जाता है. आज बहुत सारे घरों में दुकानें बनने लगी हैं. उन का व्यावसायिक उपयोग होने लगा है. म्यूनिसिपल कानून की नजर में यह गलत है. रिहाइशी इलाकों में व्यावसायिक गतिविधियां नहीं की जा सकतीं. इस पर म्यूनिसिपल कानून के तहत जुर्माना लगता है. कई बार मकान सील भी कर दिया जाता है. अगर किसी को अपने मकान में इस तरह के काम करने हैं तो इस को गलत क्यों माना जाता है?

उत्तर प्रदेश से शुरू हुआ बुलडोजर रोग

जिन प्रमुख राज्यों में बुलडोजर ऐक्शन हुआ, उन में सब से ज्यादा चर्चा में उत्तर प्रदेश था. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपने पहले कार्यकाल में उत्तर प्रदेश गैंगस्टर ऐक्ट और एंटी सोशल ऐक्टिविटीज (प्रीवैंशन) ऐक्ट के तहत 15,000 लोगों के खिलाफ मुकदमे दर्ज किए गए. कई मामलों में आरोपियों के खिलाफ अवैध निर्माणों पर बुलडोजर चला कर इन को गिरा दिया गया था.

गैंगस्टर अतीक अहमद, मुख्तार अंसारी और विकास दुबे की करोड़ों रुपए की संपत्ति गिरा दी गई. योगी सरकार -1 में बुलडोजर ऐक्शन शुरू हो गया था. इस से बलात्कार और हत्या में शामिल बदमाशों में कानून का खौफ बैठने लगा था. वे खुद थानों में सरैंडर करने लगे थे.

17 जुलाई, 2021 को 87 अवैध निर्माण गिरा दिए गए. 15 एकड़ से अधिक की सरकारी भूमि खाली कराई गई. 5 सितंबर, 2021 को 176 अवैध निर्माण तोड़े गए. ये सड़कों और सरकारी जमीन पर अवैध निर्माण थे. 22 नवंबर, 2021 को एक सप्ताह चले अभियान में 312 अवैध निर्माण तोड़े गए. 15 जनवरी, 2022 को 59 अवैध बस्तियों को तोड़ कर 25 एकड़ भूमि को खाली कराया गया.

इस के बाद सोशल मीडिया पर योगी आदित्यनाथ को ‘बुलडोजर बाबा’ के नाम से जाना जाने लगा. बुलडोजर का यह सिलसिला उत्तर प्रदेश के बाहर तक भी पहुंचने लगा. मध्य प्रदेश के उस समय के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अप्रैल, 2022 में खरगोन में हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद 16 घरों और 23 ढांचों पर बुलडोजर चलवा दिया. इस के बाद उन का नाम ‘बुलडोजर मामा’ पड़ गया. एक तरह के बुलडोजर को ‘इंसाफ’ का प्रतीक बना कर पेश किया जाने लगा. इस के बाद हरियाणा में कई घर गिराए गए. दिल्ली में मसजिद की दीवार गिराई गई. राजस्थान में चाकू से हमला करने वाले के घर पर ऐक्शन लिया गया. बिहार में बच्ची के हमलावर का घर गिरवा दिया. इस के अलावा असम और उत्तराखंड में भी ऐसे मामले सामने आए हैं.

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद क्या बुलडोजर की रफ्तार पर रोक लगेगी? यह सवाल आने वाले दिनों में साफ हो जाएगा. पूरे देश को ले कर सुप्रीम कोर्ट क्या कहने वाली है, यह भी 17 सितंबर के बाद पता चल सकेगा. फिलहाल बुलडोजर से पीड़ित पक्षों को राहत मिलती दिख रही है. रूल औफ लौ से ही न्याय त्वरित मिले जिस से लोगों को अदालतों में भरोसा हो सके. इस से ही जनता में बुलडोजर न्याय की अपेक्षा खत्म हो सकेगी.

विदेशी दामाद : परदेस की बेमानी हसरत

चिंता की बात तो है. पर ऐसी नहीं कि शांति, सुमन के मामा के साथ मिल कर मुझ पर बमबारी शुरू कर दे. मेरी निगाहें तो कुमार पर जमी हैं. फंस गया तो ठीक है. वैसे, मैं ने तो एक अलग ही सपना देखा था. शायद वह पूरा होने वाला नहीं.

कल शाम पुणे से सुमन के मामा आए थे. अकसर व्यापार के संबंध में मुंबई आते रहते हैं. व्यापार का काम खत्म कर वह घर अवश्य पहुंचते हैं. आजकल उन को बस, एक ही चिंता सताती रहती है.

‘‘शांति, सुमन 26 पार कर गई है. कब तक इसे घर में बिठाए रहोगे?’’ सुमन के मामा चाय खत्म कर के चालू हो गए. वही पुराना राग.

‘‘सुमन घर में नहीं बैठी है. वह आकाशवाणी में काम करती है, मामाजी,’’ मैं भी मजाक में सुमन के मामा को मामाजी कह कर संबोधित किया करता था.

‘‘जीजाजी, आप तो समझदार हैं. 25-26 पार करते ही लड़की के रूपयौैवन में ढलान शुरू हो जाता है. उस के अंदर हीनभावना घर करने लगती है. मेरे खयाल से तो….’’

‘‘मामाजी, अपनी इकलौती लड़की को यों रास्ता चलते को देने की मूर्खता मैं नहीं करूंगा,’’ मैं ने थोड़े गंभीर स्वर में कहा, ‘‘आप स्वयं देख रहे हैं, हम हाथ पर हाथ रखे तो बैठे नहीं हैं.’’

‘‘जीजाजी, जरा अपने स्तर को थोड़ा नीचे करो. आप तो सुमन के लिए ऐसा लड़का चाहते हैं जो शारीरिक स्तर पर फिल्मी हीरो, मानसिक स्तर पर प्रकांड पंडित तथा आर्थिक स्तर पर टाटाबाटा हो. भूल जाइए, ऐसा लड़का नहीं मिलना. किसी को आप मोटा कह कर, किसी को गरीब खानदान का बता कर, किसी को मंदबुद्धि करार दे कर अस्वीकार कर देते हैं. आखिर आप चाहते क्या हैं?’’ मामाजी उत्तेजित हो गए.

मैं क्या चाहता हूं? पलभर को मैं चुप हो, अपने बिखरे सपने समेट, कुछ कहना ही चाहता था कि मामाजी ने अपना धाराप्रवाह भाषण शुरू कर दिया, ‘‘3-4 रिश्ते मैं ने बताए, तुम्हें एक भी पसंद नहीं आया. मेरी समझ में तो कुछ भी नहीं आ रहा. अभी तुम लड़कों को अस्वीकार कर रहे हो, बाद में लड़के सुमन को अस्वीकार करना शुरू कर देंगे. तब देखना, तुम आज की लापरवाही के लिए पछताओगे.’’

‘‘भैया, मैं बताऊं, यह क्या चाहते हैं?’’ शांति ने पहली बार मंच पर प्रवेश किया. मैं ने प्रश्नसूचक दृष्टि से शांति को ताका और विद्रूप स्वर में बोला, ‘‘फरमाइए, हमारे मन की बात आप नहीं तो और क्या पड़ोसिन जानेगी.’’

शांति मुसकराई. उस पर मेरे व्यंग्य का कोई प्रभाव नहीं पड़ा. वह तटस्थ स्वर में बोली, ‘‘भैया, इन्हें विदेशी वस्तुओं की सनक सवार है. घर में भरे सामान को देख रहे हो. टीवी, वीसीआर, टू इन वन, कैमरा, प्रेस…सभी कुछ विदेशी है. यहां तक कि नया देसी फ्रिज खरीदने के बजाय इन्होंने एक विदेशी के घर से, इतवार को अखबार में प्रकाशित विज्ञापन के माध्यम से पुराना विदेशी फ्रिज खरीद लिया.’’

‘‘भई, बात सुमन की शादी की हो रही थी. यह घर का सामान बीच में कहां से आ गया?’’ मामाजी ने उलझ कर पूछा.

‘‘भैया, आम भारतवासियों की तरह इन्हें विदेशी वस्तुओं की ललक है. इन की सनक घरेलू वस्तुओं तक ही सीमित नहीं. यह तो विदेशी दामाद का सपना देखते रहते हैं,’’ शांति ने मेरे अंतर्मन के चोर को निर्वस्त्र कर दिया.

इस महत्त्वाकांक्षा को नकारने की मैं ने कोई आवश्यकता महसूस नहीं की. मैं ने पूरे आत्मविश्वास के साथ शांति के द्वारा किए रहस्योद्घाटन का समर्थन करते हुए कहा, ‘‘इस सपने में क्या खराबी है? आज अपने हर दूसरे मित्र या रिश्तेदार की बेटी लंदन, कनाडा, अमेरिका या आस्टे्रलिया में है. जिसे देखो वही अपनी बेटीदामाद से मिलने विदेश जा रहा है औैर जहाज भर कर विदेशी माल भारत ला रहा है,’’ मैं ने गंभीर हो कर कहा.
‘‘विदेश में काम कर रहे लड़कों के बारे में कई बार बहुत बड़ा धोखा हो जाता है, जीजाजी,’’ मामाजी ने चिंतित स्वर में कहा.

‘‘मामाजी, ‘दूध के जले छाछ फूंकफूंक कर पीते हैं’ वाली कहावत में मैं विश्वास नहीं करता. इधर भारत में क्या रखा है सिवा गंदगी, बेईमानी, भ्रष्टाचार और आतंकवाद के. विदेश में काम करो तो 50-60 हजार रुपए महीना फटकार लो. जिंदगी की तमाम भौतिक सुखसुविधाएं वहां उपलब्ध हैं. भारत तो एक विशाल- काय सूअरबाड़ा बन गया है.’’

मेरी इस अतिरंजित प्रतिक्रिया को सुन कर मामाजी ने हथियार डाल दिए. एक दीर्घनिश्वास छोड़ वह बोले, ‘‘ठीक है, विवाह तो वहां तय होते हैं.’’

मामाजी की उंगली छत की ओर उठी हुई थी. मैं मुसकराया. मैं ने भी अपने पक्ष को थोड़ा बदल हलके स्वर में कहा, ‘‘मामाजी, मैं तो यों ही मजाक कर रहा था. सच कहूं, मैं ने सुमन को इस दीवाली तक निकालने का पक्का फैसला कर लिया है.’’

‘‘कब इंपोर्ट कर रहे हो एक अदद दामाद?’’ मामाजी ने व्यंग्य कसा.

‘‘इंपोर्टेड नहीं, देसी है. दफ्तर में मेरे नीचे काम करता है. बड़ा स्मार्ट और कुशाग्र बुद्धि वाला है. लगता तो किसी अच्छे परिवार का है. है कंप्यूटर इंजीनियर, पर आ गया है प्रशासकीय सेवा में. कहता रहता है, मैं तो इस सेवा से त्यागपत्र दे कर अमेरिका चला जाऊंगा,’’ मैं ने रहस्योद््घाटन कर दिया.

शांति और मामाजी की आंखों में चमक आ गई. दरवाजे पर दस्तक हुई तो मेरी तंद्रा टूट गई. मैं घर नहीं दफ्तर के कमरे में अकेला बैठा था.
दरवाजा खुला. सुखद आश्चर्र्र्र्य, मैं जिस की कल्पना में खोया हुआ था, वह अंदर दाखिल हो रहा था. मैं उमंग और उल्लास में भर कर बोला, ‘‘आओ कुमार, तुम्हारी बड़ी उम्र है. अभी मैं तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था और तुम आ गए.’’

कुमार मुसकराया. कुरसी पर बैठते हुए बोला, ‘‘हुक्म कीजिए, सर. कैसे याद कर रहे थे?’’

मैं ने सोचा घुमाफिरा कर कहने की अपेक्षा सीधा वार करना ठीक रहेगा. मैं ने संक्षेप में अपनी इच्छा कुमार के समक्ष व्यक्त कर दी.

कुमार फिर मुसकराया और अंगरेजी में बोला, ‘‘साहब, मैं केवल बल्लेबाज ही नहीं हूं, मैं ने रन भी बटोरे हैं. एक शतक अपने खाते में है, साहब.’’

मैं चकरा गया. आकाश से पाताल में लुढ़क गया. तो कुमार अविवाहित नहीं, विवाहित है. उस की शादी ही नहीं हुई है, एक बच्चा भी हो गया है. क्रिकेट की भाषा की शालीनता की ओट में उस ने मेरी महत्त्वाकांक्षा की धज्जियां उड़ा दीं. मैं अपने टूटे सपने की त्रासदी को शायद झेल नहीं पाया. वह उजागर हो गई.

‘‘साहब, लगता है आप अपनी बेटी की शादी के बारे में चिंतित हैं. अगर कहें तो…’’ कहतेकहते कुमार रुक गया. अब कहने के लिए बचा ही क्या है?

मैं मोहभंग, विषादग्रस्त सा बैठा रहा.

‘‘साहब, क्या आप अपनी बेटी का रिश्ता विदेश में कार्य कर रहे एक इंजीनियर से करना पसंद करेंगे?’’ कुमार के स्वर में संकोच था.

अंधा क्या चाहे दो आंखें. कुमार की बात सुन मैं हतप्रभ रह गया. तत्काल कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर सका.

‘‘साहब, कुछ लोग अपनी बेटियों को विदेश भेजने से कतराते हैं. पर आज के जेट युग में दूरी का क्या महत्त्व? आप कनाडा से दिल्ली, मैसूर से दिल्ली की अपेक्षा जल्दी पहुंच सकते हैं.’’

मेरे अंतर के सागर में उल्लास का ज्वार उठ रहा था, परंतु आवेग पर अंकुश रख, मैं ने शांत स्वर में पूछा, ‘‘कोई लड़का तुम्हारी नजर में है? क्या करता है? किस परिवार का है? किस देश में है?’’

‘‘साहब, मेरे कालिज के जमाने का एक दोस्त है. हम मैसूर में साथसाथ पढ़ते थे. करीब 5 साल पहले वह कनाडा चला गया था. वहीं पढ़ा और आज अंतरिक्ष इंजीनियर है. 70 हजार रुपए मासिक वेतन पाता है. परसों वह भारत आया है. 3 सप्ताह रहेगा. इस बार वह शादी कर के ही लौटना चाहता है.’’

मेरी बाछें खिल गईं. मुझे लगा, कुमार ने खुल जा सिमसिम कहा. खजाने का द्वार खुला और मैं अंदर प्रवेश कर गया.

‘‘साहब, उस के परिवार के बारे में सुन कर आप अवश्य निराश होंगे. उस के मातापिता बचपन में ही चल बसे थे. चाचाजी ने पालपोस कर बड़ा किया. बड़े कष्ट, अभावों तथा ममताविहीन माहौैल में पला है वह.’’

‘‘ऐसे ही बच्चे प्रगति करते हैं. सुविधाभोगी तो बस, बिगड़ जाते हैं. कष्ट की अग्नि से तप कर ही बालक उन्नति करता है. 70 हजार, अरे, मारो गोली परिवार को. इतने वेतन में परिवार का क्या महत्त्व?’’

इधर कुमार का वार्त्ताक्रम चालू था, उधर मेरे अंतर में विचारधारा प्रवाहित हो रही थी, पर्वतीय निर्झर सी.

‘‘साहब, लगता है आप तो सोच में डूब गए हैं. घर पर पत्नी से सलाह कर लीजिए न. आप नरेश को देखना चाहें तो मैं…’’

बिजली की सी गति से मैं ने निर्णय कर लिया. बोला, ‘‘कुमार, तुम आज शाम को नरेश के साथ चाय पीने घर क्यों नहीं आ जाते?’’

‘‘ठीक है साहब,’’ कुमार ने अपनी स्वीकृति दी.

‘‘क्या तुम्हारे पास ही टिका है वह?’’

‘‘अरे, नहीं साहब, मेरे घर को तो खोली कहता है. वह मुंबई में होता है तो ताज में ठहरता है.’’

मैं हीनभावना से ग्रस्त हो गया. कहीं मेरे घर को चाल या झुग्गी की संज्ञा तो नहीं देगा.

‘‘ठीक है, कुमार. हम ठीक 6 बजे तुम लोगों का इंतजार करेंगे,’’ मैं ने कहा.

मेरा अभिवादन कर कुमार चला गया. तत्पश्चात मैं ने तुरंत शांति से फोन पर संपर्क किया. उसे यह खुशखबरी सुनाई. शाम को शानदार पार्टी के आयोजन के संबंध में आदेश दिए. हांगकांग से मंगवाए टी सेट को निकालने की सलाह दी. शाम को वे दोनों ठीक समय पर घर पहुंच गए.

हम तीनों अर्थात मैं, शांति औैर सुमन, नरेश को देख मंत्रमुग्ध रह गए. मूंगिया रंग का शानदार सफारी सूट पहने वह कैसा सुदर्शन लग रहा था. लंबा कद, छरहरा शरीर, रूखे किंतु कलात्मक रूप से सेट बाल. नारियल की आकृति वाला, तीखे नाकनक्श युक्त चेहरा. लंबी, सुती नाक और सब से बड़ा आकर्षक थीं उस की कोवलम बीच के हलके नीले रंग के सागर जल सी आंखें.

बातों का सैलाब उमड़ पड़ा. चायनाश्ते का दौर चल रहा था. नरेश बेहद बातूनी था. वह कनाडा के किस्से सुना रहा था. साथ ही साथ वह सुमन से कई अंतरंग प्रश्न भी पूछता जा रहा था.

मैं महसूस कर रहा था कि नरेश ने सुमन को पसंद कर लिया है. नापसंदगी का कोईर् आधार भी तो नहीं है. सुमन सुंदर है. कानवेंट में पढ़ी है. आजकल के सलीके उसे आते हैं. कार्यशील है. उस का पिता एक सरकारी वैज्ञानिक संगठन में उच्च प्रशासकीय अधिकारी है. फिर और क्या चाहिए उसे?

लगभग 8 बजे शांति ने विवेक- शीलता का परिचय देते हुए कहा, ‘‘नरेश बेटे, अब तो खाने का समय हो चला है. रात के खाने के लिए रुक सको तो हमें खुशी होगी.’’

‘‘नहीं, मांजी, आज तो नहीं, फिर कभी सही. आज करीब 9 बजे एक औैर सज्जन होटल में मिलने आ रहे हैं,’’ नरेश ने शांत स्वर में कहा.

‘‘क्या इसी सिलसिले में?’’ शांति ने घबरा कर पूछा.

‘‘हां, मांजी. मेरी समझ में नहीं आता, इस देश में विदेश में बसे लड़कों की इतनी ललक क्यों है? जिसे देखो, वही भाग रहा है हमारे पीछे. जोंक की तरह चिपक जाते हैं लोग.’’

हम लोगों के चेहरे उतर गए. तत्काल नरेश संभल गया. क्षमायाचना करते हुए बोला, ‘‘माफ कीजिएगा, आप लोगों का अपमान करने का मेरा कोई इरादा नहीं था, फिर आप लोग तो उन में से हैं भी नहीं…वह तो कुमार ने आप को मजबूर कर दिया वरना आप कब सुमनजी को सात समुंदर पार भेजने वाले थे.’’

हम सहज हो गए, परंतु शांति के अंतर्मन में कोई चोर भावना सिर उठा रही थी. शायद वह नरेश को अधिकांश मुंबइया फिल्मों का वह बेशकीमती हीरा समझ रही थी जिसे हर तस्कर चुरा कर भाग जाना चाहता था. व्यावहारिकता का तकाजा था वह, इसलिए जैसे ही नरेश जाने के लिए उठा, शांति ने फटाक से सीधासीधा प्रश्न उछाल दिया, ‘‘बेटा, सुमन पसंद आई?’’

‘‘इन्हें तो कोई मूर्ख ही नापसंद करेगा,’’ नरेश ने तत्काल उत्तर दिया.

सुमन लाज से लाल हो गई. वह सीधी अपने कमरे में गई और औंधी लेट गई.

‘‘फिर तो बेटे, मुंह मीठा करो,’’ कह कर शांति ने खाने की मेज से रसगुल्ला उठाया और नरेश के मुंह में ठूंस दिया.

घर में बासंती उत्सव सा माहौल छा गया. कुमार के चेहरे पर चमक थी. नरेश के मुख पर संतोष और हम दोनों के मुख दोपहर की तेज धूप से दमक रहे थे.

‘‘अब आगे कैसे चलना है? तुम तो शायद सिर्फ 3 सप्ताह के लिए ही आए हो?’’ मैं ने पूछा.

‘‘अब जब लड़की मिल गई तो मैं 2-3 हफ्ते के लिए अपनी छुट्टी बढ़वा लूंगा. हनीमून मैं कनाडा की जगह कश्मीर में मनाना पसंद करूंगा. एक बात और पिताजी, शादी एकदम सादी. व्यर्थ का एक पैसा भी खर्च नहीं होगा. न ही आप कोई दहेज खरीदेंगे. कनाडा में अपना खुद का सुसज्जित मकान है. घरेलू उपकरण खरीदना बेकार है. एक छोटी सी पार्टी दे दें, बस.’’

‘‘पंडितजी से मुहूर्त निकलवा लें?’’

‘‘अभी नहीं, मांजी.’’

हम दोनों अभिभूत थे. नरेश ने हमें मां औैर पिताजी कह कर पुकारना शुरू कर दिया था. किंतु उस की अंतिम बात ने हमें चौंका दिया.

‘‘क्यों बेटे?’’

‘‘मैं कल बंगलौर जा रहा हूं. जरा अपने चाचाचाची से भी पूछ लूं. बस, औपचारिकता है. बड़े हैं, उन्हीं ने पाला- पोसा है. वे तो यह सब जान कर खुश होंगे.’’

‘‘ठीक है.’’

और वे दोनों चले गए. पीछे छोड़ गए महान उपलब्धि की भीनीभीनी सुगंध.

सुमन अपने कमरे से निकली. पहली बार उस के मुंह से एक रहस्योद्घाटन हुआ. जब शांति ने सुमन से नरेश के बारे में उस की राय जाननी चाही तो उस ने अपने मन की गांठ खोल दी.

सुमन और एक नवयुवक कुसुमाकर का प्रेम चल रहा था. कुसुमाकर लेखक था. वह रेडियो के लिए नाटक तथा गीत लिखता था. इसी संबंध में वह सुमन के समीप आ गया. सुमन ने तो मन ही मन उस से विवाह करने का फैसला भी कर लिया था, पर अब नरेश को देख उस ने अपना विचार बदल दिया. उस ने शांति के सामने स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लिया. नरेश जैसे सागर के सामने कुसुमाकर तो गांव के गंदले पानी की तलैया जैसा है.

नरेश मैसूर से लौट आया. उस ने घर आ कर यह खुशखबरी सुनाई कि उस के चाचाचाची इस संबंध से सहमत हैं. शांति ने शानदार खाना बनाया. नरेश ने डट कर खाया, शादी की तारीख के बारे में बात चली तो नरेश बोला, ‘‘कुमार से सलाह कर के…’’

शांति ने उस की बात बीच में ही काट कर कहा, ‘‘उसे छोड़ो. बिचौलियों का रोल लड़के को लड़की पसंद आने तक होता है. उस के बाद तो दोनों पक्षों को सीधी बात करनी चाहिए. मध्यस्थता की कोई आवश्यकता नहीं.’’

नरेश हंस पड़ा. मैं शांति के विवेक का लोहा मान गया. थोड़े से विचारविमर्श के बाद 20 अक्तूबर की तिथि तय हो गई. सुबह कोर्ट में शादी, दोपहर को एक होटल में दोनों पक्षों के चुनिंदा व्यक्तियों का भोजन, बस.

हमें क्या आपत्ति होनी थी.

तीसरे दिन नरेश का फोन आया. उस ने अपने हनीमून मनाने और कनाडा वापस जाने का कार्यक्रम निश्चित कर लिया था. उस ने बड़ी दबी जबान से 50 हजार रुपए की मांग की. कश्मीर का खर्चा. कनाडा जाने के 2 टिकट और उस के चाचाचाची तथा उन के बच्चों के लिए कपड़े और उपहार. इन 3 मदों पर इतने रुपए तो खर्च हो ही जाने थे.

मैं थोड़ा सा झिझका तो उस ने तत्काल मेरी शंका का निवारण करते हुए कहा, ‘‘पिताजी, निश्चित नहीं था कि इस ट्रिप में मामला पट जाएगा, इसलिए ज्यादा पैसा ले कर नहीं चला. कनाडा पहुंचते ही आप को 50 हजार की विदेशी मुद्रा भेज दूंगा. उस से आप कार, स्कूटर या घर कुछ भी बुक करा देना.’’

‘‘ठीक है, बेटे,’’ मैं ने कह दिया.

फोन बंद कर के मैं ने यह समस्या शांति के सामने रखी तो वह तत्काल बोली, ‘‘तुरंत दो उसे 50 हजार रुपए. वह विदेशी मुद्रा न भी भेजे तो क्या है. किसी हिंदुस्तानी लड़के से शादी करते तो इतना तो नकद दहेज में देना पड़ता. दावत, कपड़े, जेवर और अन्य उपहारों पर अलग खर्चा होता. इस से सस्ता सौदा औैर कहां मिलेगा.’’

मैं ने दफ्तर में भविष्यनिधि से रुपए निकाले और तीसरे दिन ताजमहल होटल के उस कमरे में नरेश से मिला और उसे 50 हजार रुपए दे दिए.

उस के बाद मैं ने एक पांचसितारा होटल में 100 व्यक्तियों का दोपहर का भोजन बुक करा दिया. निमंत्रणपत्र भी छपने दे दिए.
सुमन और शांति शादी के लिए थोड़ी साडि़यां और जेवर खरीदने में जुट गईं. बेटी को कुछ तो देना ही था.

लगभग 10 अक्तूबर की बात है. नरेश का फोन आया कि वह 3 दिन के लिए किसी आवश्यक काम से दिल्ली जा रहा है. लौट कर वह भी सुमन के साथ खरीदारी करेगा.

सुमन ने नरेश को मुंबई हवाई अड्डे पर दिल्ली जाने के लिए विदा किया.

2 महीने बीत गए हैं, नरेश नहीं लौटा है. 20 अक्तूबर कभी की बीत गई है. निमंत्रणपत्र छप गए थे किंतु सौभाग्यवश मैं ने उन्हें वितरित नहीं किया था.

मैं ने ताज होटल से पता किया. नरेश नाम का कोई व्यक्ति वहां ठहरा ही नहीं था. फिर उस ने किस के कमरे में बुला कर मुझ से 50 हजार रुपए लिए? एक रहस्य ही बना रहा.

मैं ने कुमार को बुलाया. उसे सारा किस्सा सुनाया तो उस ने ठंडे स्वर में कहा, ‘‘मैं कह नहीं सकता, मेरे मित्र ने आप के साथ यह धोखा क्यों किया? लेकिन आप लोगों ने एक ही मीटिंग के बाद मेरा पत्ता साफ कर दिया. उसे रुपए देने से पहले मुझ से पूछा तो होता. अब मैं क्या कर सकता हूं.’’

‘‘वैसे मुझे एक बात पता चली है. उस के चाचाचाची कब के मर चुके हैं. समझ में नहीं आया, यह सब कैसे हो गया?’’

मेरे सिर से विदेशी दामाद का भूत उतर चुका है. मैं यह समझ गया हूं कि आज के पढ़ेलिखे किंतु बेरोजगार नवयुवक हम लोगों की इस कमजोरी का खूब फायदा उठा रहे हैं.

आज तक तो यही सुनते थे कि विदेशी दामाद लड़की को ले जा कर कोई न कोई विश्वासघात करते हैं पर नरेश ने तो मेरी आंखें ही खोल दीं.

रही सुमन, सो प्रथम आघात को आत्मसात करने में उसे कुछ दिन लगे. बाद में शांति के माध्यम से मुझे पता चला कि वह और कुसुमाकर फिर से मिलने लगे हैं.

यदि वे दोनों विवाह करने के लिए सहमत हों तो मैं कोई हस्तक्षेप नहीं करूंगा.

जीवनधारा : अपनों से धोखे की दास्तां

हादसे जिंदगी के ढांचे को बदलने की कितनी ताकत रखते हैं, इस का सही अंदाजा उन की खबर पढ़नेसुनने वालों को कभी नहीं हो सकता. एक सुबह पापा अच्छेखासे आफिस गए और फिर उन का मृत शरीर ही वापस लौटा. सिर्फ 47 साल की उम्र में दिल के दौरे से हुई उन की असामयिक मौत ने हम सब को बुरी तरह से हिला दिया.

‘‘मेरी घरगृहस्थी की नाव अब कैसे पार लगेगी?’’ इस सवाल से उपजी चिंता और डर के प्रभाव में मां दिनरात आंसू बहातीं.

‘‘मैं हूं ना, मां,’’ उन के आंसू पोंछ कर मैं बारबार उन का हौसला बढ़ाती, ‘‘पापा की सारी जिम्मेदारी मैं संभालूंगी. देखना, सब ठीक हो जाएगा.’’

मुकेश मामाजी ने हमें आश्वासन दिया, ‘‘मेरे होते हुए तुम लोगों को भविष्य की ज्यादा चिंता करने की कोई जरूरत नहीं. संगीता ने बी.काम. कर लिया है. उस की नौकरी लगवाने की जिम्मेदारी मेरी है.’’

मुझ से 2 साल छोटे मेरे भाई राजीव ने मेरा हाथ पकड़ कर वादा किया, ‘‘दीदी, आप खुद को कभी अकेली मत समझना. अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करते ही मैं आप का सब से मजबूत सहारा बन जाऊंगा.’’

राजीव से 3 साल छोटी शिखा के आंखों से आंसू तो ज्यादा नहीं बहे पर वह सब से ज्यादा उदास, भयभीत और असुरक्षित नजर आ रही थी.
मोहित मेरा सहपाठी था. उस के साथ सारी जिंदगी गुजारने के सपने मैं पिछले 3 सालों से देख रही थी. इस कठिन समय में उस ने मेरा बहुत साथ दिया.

‘‘संगीता, तुम सब को ‘बेटा’ बन कर दिखा दो. हम दोनों मिल कर तुम्हारी जिम्मेदारियों का बोझ उठाएंगे. हमारा प्रेम तुम्हारी शक्ति बनेगा,’’ मोहित के ऐसे शब्दों ने इस कठिन समय का सामना करने की ताकत मेरे अंगअंग में भर दी थी.

परिवर्तन जिंदगी का नियम है और समय किसी के लिए नहीं रुकता. जिंदगी की चुनौतियों ने पापा की असामयिक मौत के सदमे से उबरने के लिए हम सभी को मजबूर कर दिया.

मामाजी ने भागदौड़ कर के मेरी नौकरी लगवा दी. मैं ने काम पर जाना शुरू कर दिया तो सब रिश्तेदारों व परिचितों ने बड़ी राहत की सांस ली. क्योंकि हमारी बिगड़ी आर्थिक स्थिति में सुधार लाने वाला यह सब से महत्त्वपूर्ण कदम था.

‘‘मेरी गुडि़या का एम.बी.ए. करने का सपना अधूरा रह गया. तेरे पापा तुझे कितनी ऊंचाइयों पर देखना चाहते थे और आज इतनी छोटी सी नौकरी करने जा रही है मेरी बेटी,’’ पहले दिन मुझे घर से विदा करते हुए मां अचानक फूटफूट कर रो पड़ी थीं.

‘‘मां, एम.बी.ए. मैं बाद में भी कर सकती हूं. अभी मुझे राजीव और शिखा के भविष्य को संभालना है. तुम यों रोरो कर मेरा मनोबल कम न करो, प्लीज,’’ उन का माथा चूम कर मैं घर से बाहर आ गई, नहीं तो वह मेरे आंसुओं को देख कर और ज्यादा परेशान होतीं.

मोहित और मैं ने साथसाथ ग्रेजुएशन किया था. उस ने एम.बी.ए. में प्रवेश लिया तो मैं बहुत खुश हुई. अपने प्रेमी की सफलता में मैं अपनी सफलता देख रही थी. मन के किसी कोने में उठी टीस को मैं ने उदास सी मुसकान होंठों पर ला कर बहुत गहरा दफन कर दिया था.

पापा के समय 20 हजार रुपए हर महीने घर में आते थे. मेरी कमाई के 8 हजार में घर खर्च पूरा पड़ ही नहीं सकता था. फ्लैट की किस्त, राजीव व शिखा की फीस, मां की हमेशा बनी रहने वाली खांसी के इलाज का खर्च आर्थिक तंगी को और ज्यादा बढ़ाता.

‘‘अगर बैंक से यों ही हर महीने पैसे निकलते रहे तो कैसे कर पाऊंगी मैं दोनों बेटियों की इज्जत से शादियां? हमें अपने खर्चों में कटौती करनी ही पडे़गी,’’ मां का रातदिन का ऐसा रोना अच्छा तो नहीं लगता पर उन की बात ठीक ही थी.

फल, दूध, कपडे़, सब से पहले खरीदने कम किए गए. मौजमस्ती के नाम पर कोई खर्चा नहीं होता. मां ने काम वाली को हटा दिया. होस्टल में रह रहे राजीव का जेबखर्च कम हो गया.

इन कटौतियों का एक असर यह हुआ कि घर का हर सदस्य अजीब से तनाव का शिकार बना रहने लगा. आपस में कड़वा, तीखा बोलने की घटनाएं बढ़ गईं. कोई बदली परिस्थितियों के खिलाफ शिकायत करता, तो मां घंटों रोतीं. मेरा मन कभीकभी बेहद उदास हो कर निराशा का शिकार बन जाता.

‘‘हिम्मत मत छोड़ो, संगीता. वक्त जरूर बदलेगा और मैं तुम्हारे पास न भी रहूं, पर साथ तो हूं ना. तुम बेकार की टेंशन लेना छोड़ दो,’’ मोहित का यों समझाना कम से कम अस्थायी तौर पर तो मेरे अंदर जीने का नया जोश जरूर भर जाता.

अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने में मैं जीजान से जुटी रही और परिवर्तन का नियम एकएक कर मेरी आशाओं को चकनाचूर करता चला गया. बी.टेक. की डिगरी पाने के बाद राजीव को स्कालरशिप मिली और वह एम.टेक. करने के लिए विदेश चला गया.

‘‘संगीता दीदी, थोड़ा सा इंतजार और कर लो, बस. फिर धनदौलत की कमी नहीं रहेगी और मैं आप की सब जिम्मेदारियां, अपने कंधों पर ले लूंगा. अपना कैरियर बेहतर बनाने का यह मौका मैं चूकना नहीं चाहता हूं.’’

राजीव की खुशी में खुश होते हुए मैं ने उसे अमेरिका जाने की इजाजत दे दी थी. राजीव के इस फैसले से मां की आंखों में चिंता के भाव और ज्यादा गहरे हो उठे. वह मेरी शादी फौरन करने की इच्छुक थीं. उम्र के 25 साल पूरे कर चुकी बेटी को वह ससुराल भेजना चाहती थीं.

मोहित ने राजीव को पीठपीछे काफी भलाबुरा कहा था, ‘‘उसे यहां अच्छी नौकरी मिल रही थी. वह लगन और मेहनत से काम करता, तो आजकल अच्छी कंपनी ही उच्च शिक्षा प्राप्त करने में सहायता करती हैं. मुझे उस का स्वार्थीपन फूटी आंख नहीं भाया है.’’

मोहित के तेज गुस्से को शांत करने के लिए मुझे काफी मेहनत करनी पड़ी थी. मां कभीकभी कहतीं कि मैं शादी कर लूं, पर यह मुझे स्वीकार नहीं था.

‘‘मां, तुम बीमार रहती हो. शिखा की कालिज की पढ़ाई अभी अधूरी है. यह सबकुछ भाग्य के भरोसे छोड़ कर मैं कैसे शादी कर सकती हूं?’’

मेरी इस दलील ने मां के मुंह पर तो ताला लगाया, पर उन की आंखों से बहने वाले आंसुओं को नहीं रोक पाई. एम.बी.ए. करने के बाद मोहित को जल्दी ही नौकरी मिल गई थी. उस ने पहली नौकरी से 2 साल का अनुभव प्राप्त किया और इस अनुभव के बल पर उसे दूसरी नौकरी मुंबई में मिली.

अपने मातापिता का वह इकलौता बेटा था. उन्हें मैं पसंद थी, पर वह उस की शादी अब फौरन करने के इच्छुक थे.

‘‘मैं कैसे अभी शादी कर सकती हूं? अभी मेरी जिम्मेदारियां पूरी नहीं हुई हैं, मोहित. मेरे ससुराल जाने पर अकेली मां घर को संभाल नहीं पाएंगी,’’ बडे़ दुखी मन से मैं ने शादी करने से इनकार कर दिया था.

‘‘संगीता, कब होंगी तुम्हारी जिम्मेदारियां पूरी? कब कहोगी तुम शादी के लिए ‘हां’?’’ मेरा फैसला सुन कर मोहित नाराज हो उठा था.

‘‘राजीव के वापस लौटने के बाद हम….’’

‘‘वह वापस नहीं लौटेगा…कोई भी इंजीनियर नहीं लौटता,’’ मोहित ने मेरी बात को काट दिया, ‘‘तुम्हारी मां विदेश में जा कर बसने को तैयार होंगी नहीं. देखो, हम शादी कर लेते हैं. राजीव पर निर्भर रह कर तुम समझदारी नहीं दिखा रही हो. हम मिल कर तुम्हारी मां व छोटी बहन की जिम्मेदारी उठा लेंगे.’’

‘‘शादी के बाद मुझे मां और छोटी बहन को छोड़ कर तुम्हारे साथ मुंबई जाना पड़ेगा और यह कदम मैं फिलहाल नहीं उठा सकती हूं. मेरा भाई मुझे धोखा नहीं देगा. मोहित, तुम थोड़ा सा इंतजार और कर लो, प्लीज.’’

मोहित ने मुझे बहुत समझाया पर मैं ने अपना फैसला नहीं बदला. मां भी उस की तरफ से बोलीं, पर मैं शादी करने को तैयार नहीं हुई.

मोहित अकेला मुंबई गया. मुझे उस वक्त एहसास नहीं हुआ पर इस कदम के साथ ही हमारे प्रेम संबंध के टूटने का बीज पड़ गया था.
वक्त ने यह भी साबित कर दिया कि राजीव के बारे में मोहित की राय सही थी.

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उस ने वहीं नौकरी कर ली. वह हम से मिलने भी आया, एक बड़ी रकम भी मां को दे कर गया, पर मेरी जिम्मेदारियां अपने कंधों पर लेने को वह तैयार नहीं हुआ.

परिस्थितियों ने मुझे कठोर बना दिया था. मेरे आंसू न मोहित ने देखे न राजीव ने. इन का सहारा छिन जाने से मैं खुद को कितनी अकेली और टूटा हुआ महसूस कर रही थी, इस का एहसास मैं ने इन दोनों को जरा भी नहीं होने दिया था.

मां रातदिन शादी के लिए शोर मचातीं, पर मेरे अंदर शादी करने का सारा उत्साह मर गया था. कभी कोई रिश्ता मेरे लिए आ जाता तो मां का शोर मचाना मेरे लिए सिरदर्द बन जाता. फिर रिश्ते आने बंद हो गए और हम मांबेटी एकदूसरे से खिंचीखिंची सी खामोश रह साथसाथ समय गुजारतीं.

मैं 30 साल की हुई तब शिखा ने कंप्यूटर कोर्स कर के अच्छी नौकरी पा ली. शादी की सही उम्र तो उसी की थी. उस के लिए एक अच्छा रिश्ता आया तो मैं ने फौरन ‘हां’ कर दी.

राजीव ने उस की शादी का सारा खर्च उठाया. वह खुद भी शामिल हुआ. मां ने शिखा को विदा कर के बड़ी राहत महसूस की.

राजीव ने जाने से पहले मुझे बता दिया कि वह अपनी एक सहयोगी लड़की से विवाह करना चाहता है. शादी की तारीख 2 महीने बाद की थी.

उस ने हम दोनों की टिकटें बुक करवा दीं. पर मैं उस की शादी में शामिल होने अमेरिका नहीं गई. मां अकेली अमेरिका गईं और कुछ सप्ताह बिता कर वापस लौटीं. वह ज्यादा खुश नहीं थीं क्योंकि बहू का व्यवहार उन के प्रति अच्छा नहीं रहा था.

‘‘मां, तुम और मैं एकदूसरे का ध्यान रख कर मजे से जिंदगी गुजारेंगे. तुम बेटे की खुदगर्जी की रातदिन चर्चा कर के अपना और मेरा दिमाग खराब करना बंद कर दो अब,’’ मेरे समझाने पर एक रात मां मुझ से लिपट कर खूब रोईं पर कमाल की बात यह है कि मेरी आंखों से एक बूंद आंसू नहीं टपका.

अब रुपएपैसे की मेरी जिंदगी में कोई कमी नहीं रही थी. मैं ने मां व अपनी सुविधा के लिए किस्तों पर कार भी ले ली. हम दोनों अच्छा खातेपहनते. मेरी शादी न होने के कारण मां अपना दुखदर्द लोगों को यदाकदा अब भी सुना देतीं. मैं सब को हंसतीमुसकराती नजर आती, पर सिर्फ मैं ही जानती थी कि मेरी जिंदगी कितनी नीरस और उबाऊ हो कर मशीनी अंदाज में आगे खिसक रही थी.

‘संगीता, तू किसी विधुर से…किसी तलाकशुदा आदमी से ही शादी कर ले न. मैं नहीं रहूंगी, तब तेरी जिंदगी अकेले कैसे कटेगी?’ मां ने एक रात आंखों में आंसू भर कर मुझ से पुराना सवाल फिर पूछा था.

‘जिंदगी हर हाल में कट ही जाती है, मां. मैं जब खुश और संतुष्ट हूं तो तुम क्यों मेरी चिंता कर के दुखी होती हो? अब स्वीकार कर लो कि तुम्हारी बड़ी बेटी कुंआरी ही मरेगी,’ मैं ने मुसकराते हुए उन का दुखदर्द हलका करना चाहा था.

‘तेरे पिता की असामयिक मौत ने मुझे विधवा बनाया और तुझे उन की जिम्मेदारी निभाने की यह सजा मिली कि तू बिना शादी किए ही विधवा सी जिंदगी जीने को मजबूर है,’ मां फिर खूब रोईं और मेरी आंखें उस रात भी सूनी रही थीं.

अपने भाई, छोटी बहन व पुराने प्रेमी की जिंदगियों में क्या घट रहा है, यह सब जानने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं रही थी. अतीत की बहुत कुछ गलीसड़ी यादें मेरे अंदर दबी जरूर पड़ी थीं, पर उन के कारण मैं कभी दुखी नहीं होती थी.

मेरी समस्या यह थी कि अपना वर्तमान नीरस व अर्थहीन लगता और भविष्य को ले कर मेरे मन में किसी तरह की आशा या उत्साह कतई नहीं बचा था. मैं सचमुच एक मशीन बन कर रह गई थी.

जिंदगी में समय के साथ बदलाव आना तो अनिवार्य ही है. मेरी जिंदगी की गुणवत्ता भी कपूर साहब के कारण बदली. कपूर साहब आफिस में मेरे सीनियर थे. अपने काम में वह बेहद कुशल व स्वभाव के अच्छे थे. एक शाम बरसात के कारण मुझ से अपनी चार्टर्ड बस छूट गई तो उन्होंने अपनी कार से मुझे घर तक की ‘लिफ्ट’ दी थी. वह चाय पीने के लिए मेरे आग्रह पर घर के अंदर भी आए. मां से उन्होंने ढेर सारी बातें कीं. हम मांबेटी दोनों के दिलों पर अच्छा प्रभाव छोड़ने के बाद ही उन्होंने उस शाम विदा ली थी.

अगले सप्ताह ऐसा इत्तफाक हुआ कि हम दोनों साथसाथ आफिस की इमारत से बाहर आए. जरा सी नानुकुर के बाद मैं उन के साथ कार में घर लौटने को राजी हो गई.

‘‘कौफी पी कर घर चलेंगे,’’ मुझ से पूछे बिना उन्होंने एक लोकप्रिय रेस्तरां के सामने कार रोक दी थी.

हम ने कौफी के साथसाथ खूब खायापिया भी. एक लंबे समय के बाद मैं खूब खुल कर हंसीबोली भी.

उस रात मैं इस एहसास के साथ सोई कि आज का दिन बहुत अच्छा बीता. मन बहुत खुश था और यह चाह बलवती थी कि ऐसे अच्छे दिन मेरी जिंदगी में आते रहने चाहिए.

मेरी यह इच्छा पूरी भी हुई. कपूर साहब और मेरी उम्र में काफी अंतर था. इस के बावजूद मेरे लिए वह अच्छे साबित हो रहे थे. सप्ताह में 1-2 बार हम जरूर छोटीमोटी खरीदारी के लिए या खानेपीने को घूमने जाते. वह मेरे घर पर भी आ जाते. मां की उन से अच्छी पटती थी. मैं खुद को उन की कंपनी में काफी सुरक्षित व प्रसन्न पाती. मेरे भीतर जीने का उत्साह फिर पैदा करने में वह पूरी तरह से सफल रहे थे.

फिर एक शाम सबकुछ गड़बड़ हो गया. वह पहली बार मुझे अपने फ्लैट में उस शाम ले कर गए जब उन की पत्नी दोनों बच्चों समेत मायके गई हुई थीं.

उन्हें ताला खोलते देख मैं हैरान तो हुई थी, पर खतरे वाली कोई बात नहीं हुई. उन की नीयत खराब है, इस का एहसास मुझे कभी नहीं हुआ था.

फ्लैट के अंदर उन्होंने मेरे साथ अचानक जोरजबरदस्ती करनी शुरू की, तो मुझे जोर का सदमा लगा.

मैं ने शोर मचाने की धमकी दी, तो वह गुस्से से बिफर कर गुर्राए, ‘‘इतने दिनोें से मेरे पैसों पर ऐश कर रही हो, तो अब सतीसावित्री बनने का नाटक क्यों करती हो? कोई मैं पागल बेवकूफ हूं जो तुम पर यों ही खर्चा कर रहा था.’’

उन से निबटना मेरे लिए कठिन नहीं था, पर अकेली घर पहुंचने तक मैं आटोरिकशा में लगातार आंसू बहाती रही.

घर पहुंच कर भी मेरा आंसू बहाना जारी रहा. मां ने बारबार मुझ से रोने का कारण पूछा, पर मैं उन्हें क्या बताती.

रात को मुझे नींद नहीं आई. रहरह कर कपूर साहब का डायलाग कानों में गूंजता, ‘…अब सतीसावित्री बनने का नाटक क्यों करती हो? कोई मैं पागल, बेवकूफ हूं जो तुम पर यों ही खर्चा कर रहा था.’

यह सच है कि उन के साथ मेरा वक्त बड़ा अच्छा गुजरा था. अपनी जिंदगी में आए इस बदलाव से मैं बहुत खुश थी, पर अब अजीब सी शर्मिंदगी व अपमान के भाव ने मन में पैदा हो कर सारा स्वाद किरकिरा कर दिया था.

रात भर मैं तकिया अपने आंसुओं से भिगोती रही. अगले दिन रविवार होने के कारण मैं देर तक सोई.

जब आंखें खुलीं तो उम्मीद के खिलाफ मैं ने खुद को सहज व हलका पाया. मन ने इस स्थिति का विश्लेषण किया तो जल्दी ही कारण भी समझ में आ गया.

नींद आने से पहले मेरे मन ने निर्णय लिया था, ‘मैं अब खुश रह कर जीना चाहती हूं और जिऊंगी भी. यह नेक काम मैं अब अपने बलबूते पर करूंगी. किसी कपूर साहब, राजीव या मोहित पर निर्भर नहीं रहना है मुझे.’

‘परिस्थितियों के आगे घुटने टेक कर…अपनी जिम्मेदारियों के बोझ तले दब कर मेरी जीवनधारा अवरुद्ध हो गई थी, पर अब ऐसी स्थिति फिर नहीं बनेगी.’

‘मेरी जिंदगी मुझे जीने के लिए मिली है. दूसरों की जिंदगी सजानेसंवारने के चक्कर में अपनी जिंदगी को जीना भूल जाना मेरी भूल थी. कपूर साहब मेरी जिस नासमझी के कारण गलतफहमी का शिकार हुए हैं, उसे मैं कभी नहीं दोहराऊंगी. जिंदगी का गहराई से आनंद लेने से मुझे अब न अतीत की यादें रोक पाएंगी, न भविष्य की चिंताएं.’

अपने अंतर्मन में इन्हीं विचारों को गहराई से प्रवेश दिला कर मैं नींद के आगोश में पहुंची थी. अपनी भावदशा में आए सुखद बदलाव का कारण मैं इन्हीं सकारात्मक विचारों को मान रही थी.

कुछ दिन बाद मेरे एक दूसरे सहयोगी नीरज ने मुझ से किसी बात पर शर्त लगाने की कोशिश की. मैं जानबूझ कर वह शर्त हारी और उसे बढि़या होटल में डिनर करवाया.

इस के 2 दिन बाद मैं चोपड़ा और उस की पत्नी के साथ फिल्म देखने गई. अपने इन दोनों सहयोगियों के टिकट मैं ने ही खरीदे थे.

पड़ोस में रहने वाले माथुर साहब मुझे मार्किट में अचानक मिले, तो उन्हें साथसाथ कुल्फी खाने की दावत मैं ने ही दी और जिद कर के पैसे भी मैं ने ही दिए.

मैं ने अपनी रुकी हुई जीवनधारा को फिर से गतिमान करने के लिए जरूरी कदम उठाने शुरू कर दिए थे. कपूर साहब की तरह मैं किसी दूसरे पुरुष को गलतफहमी का शिकार नहीं बनने देना चाहती थी.

इस में कोई शक नहीं कि मेरी जिंदगी में हंसीखुशी की बहार लौट आई थी. अपनों से मिले जख्मों को मैं ने भुला दिया था. उदासी और निराशा का कवच टूट चुका था.

हंसतेमुसकराते और यात्रा का आनंद लेते हुए मैं जिंदगी की राह पर आगे बढ़ चली थी. मेरा जिंदगी भर साथ निभाने को कभी कोई हमराही मिल गया, तो ठीक, नहीं तो उस के इंतजार में रुक कर अपने अंदर शिकायत या कड़वाहट पैदा करने की फुर्सत मुझे बिलकुल नहीं थी.

पत्नी के हाथों पिटते पति और प्रेमिका, दुनिया बना रही है वीडियो

रमा का अपने पति रामकुमार के साथ झगड़ा चल रहा था. शादी के बाद से ही शुरू हुई अनबन में रिश्ते बिगड़ते चले गए. पिछले 4 साल से दोनों के बीच झगड़ा बढ़ता ही गया. मारपीट और पुलिसकचहरी तक मामला गया. अब वे दोनों अलग रहते हैं. तलाक के लिए मुकदमा किया जा चुका है, पर तलाक मिलना आसान नहीं है.

 

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नतीजतन, रमा अपने मायके में रहने लगी और रामकुमार की दोस्ती सपना से हो गई. सपना और रामकुमार में एक कौमन बात यह थी कि उन दोनों का अपनेअपने जीवनसाथी से झगड़ा चल रहा था. सपना का अपने पति से तलाक हो चुका था. वह अब पति से अलग रह रही थी.

एक दिन रामकुमार सपना के साथ अपने फ्लैट में था कि अचानक उस की पत्नी रमा अपनी मां और भाई के साथ वहां आ धमकी. वह रामकुमार पर आरोप लगाने लगी कि वह सपना के साथ ऐश कर रहा है, जबकि उन का तलाक नहीं हुआ है.

सोसाइटी में हंगामा मच गया. लोग झगड़े का वीडियो बनाने लगे. इस बीच सोसाइटी का रखरखाव देखने वाली संस्था आरडब्ल्यूए के लोग भी आ गए. पुलिस को फोन किया गया. पुलिस आई और सपना और रामकुमार को पकड़ कर थाने ले गई.

रामकुमार और सपना दोनों बालिग थे. एकसाथ फ्लैट में थे और यह कोई कानूनी अपराध नहीं था. पुलिस को समझ नहीं आ रहा था कि वह किस धारा में मामला दर्ज करे. रमा और उस के परिवार वाले पुलिस पर दबाव डाल रहे थे. ऐसे में सपना के लिए तो यही सजा से कम नहीं था कि उसे थाने ला कर बेइज्जत किया गया.

पुलिस ने थाने में कुछ देर बिठाने के बाद रामकुमार को शांति भंग करने के मुकदमे में जेल भेज दिया और सपना को देर रात निजी मुचलके पर छोड़ दिया.

रमा को रामकुमार के साथ रहना भी नहीं है और वह उसे आजादी से रहने भी नहीं देना चाहती है. इस से उस की अपनी जिंदगी तो बरबाद हो ही रही है, रामकुमार की भी जिंदगी बरबाद हो रही है.

रमा को इस बात की खुशी है कि वह रामकुमार को अपने हिसाब से जीने नहीं दे रही है. रामकुमार इस बात से बेहद परेशान हो चुका है. वह अब किसी सूरत में रमा के साथ रहना नहीं चाहता. दूसरी तरफ अदालत उन के तलाक का मुकदमा जल्दी नहीं निबटा रही है. इस के चलते रमा, रामकुमार और सपना तीनों की जिंदगी तबाह हो रही है.

उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में प्रेमिका के साथ घूम रहे पति को पत्नी ने पकड़ कर बीच सड़क पर जम कर पीटा. पति की प्रेमिका की भी पटकपटक कर पिटाई की गई. पुलिस मूकदर्शक बनी देखती रही. मारपीट में घायल हुई प्रेमिका और पत्नी को अस्पताल में भरती कराया गया, जबकि पति को पुलिस थाने ले गई.

सौहरवा तालाब का रहने वाला राहुल अपनी गर्लफ्रैंड के साथ एक रैस्टोरैंट के पास घूम रहा था. तभी राहुल की पत्नी सुमन ने उन दोनों को पकड़ लिया और फिर सड़क पर ही पति और उस की प्रेमिका की पिटाई करने लगी.

मारपीट के चक्कर में प्रेमिका और पत्नी दोनों घायल हो गईं. बाद में दोनों को महिला पुलिस जिला अस्पताल में इलाज के लिए ले गई. अस्पताल पहुंचते ही पत्नी फिर पति पर टूट पड़ी और उस की पिटाई करने लगी. मारपीट में पति ने पत्नी को पटक दिया, जिस से उस के सिर पर चोट आ गई.

राहुल और सुमन की शादी 6 साल पहले हुई थी. पति राहुल अपनी पत्नी समेत परिवार के साथ लोक नगर चौधरी खजान सिंह महल्ले में किराए के मकान में रहता था. राहुल हलवाई का काम करता है और सुमन लोगों के घरों में साफसफाई का काम करती है.

सुमन का आरोप था कि राहुल ने चोरीछिपे अपनी प्रेमिका शिल्पी से शादी कर ली है और उस को ले कर वह गांधीनगर में एक किराए के मकान में रहता है.

मध्य प्रदेश के श्योपुर जिले में अपनी पत्नी के साथ बंद कमरे में एक नौजवान को देख कर पति ने हंगामा खड़ा कर दिया. साथ ही लोगों की भीड़ को मौके पर बुला लिया. पत्नी और उस के प्रेमी ने कमरे के गेट की कुंडी लगा रखी थी. इस वजह से भीड़ अंदर नहीं घुस सकी. लेकिन इस पूरे मामले का वीडियो सोशल मीडिया पर तेजी से वायरल हो गया.

रात को जब उस औरत का पति किसी काम से बाहर गया था, तभी रात के तकरीबन 9 बजे विजयपुर एसडीएम का रीडर जितेंद्र यादव अपने सरकारी मकान से निकल कर औरत के किराए के कमरे में पहुंच गया. उन्होंने अंदर से गेट की कुंडी भी लगा ली कि तभी कुछ देर बाद औरत का पति वहां आ गया. उस ने दरवाजा खटखटाया तो औरत और उस के साथ मौजूद रीडर डर गए. उन्होंने कुछ देर तक दरवाजा नहीं खोला और चुप हो गए. जब खिड़की को धक्का दे कर खोला गया, तो उस में रीडर और औरत आपत्तिजनक हालत में दिखाई दिए. इस से उस औरत के पति ने हल्ला मचा दिया. यह सुन कर वहां लोगों की भीड़ जमा हो गई.

भीड़ ने पुलिस बुला ली. मौके पर पहुंच कर पुलिस ने गेट खुलवाया. बाहर निकलते ही मारपीट शुरू हो गई. विजयपुर थाने के टीआई पप्पू सिंह यादव ने बताया कि रात को सूचना मिलने के बाद पुलिस वहां पहुंची थी. लेकिन दोनों पक्षों के बीच सुलह हो गई, इसलिए कार्यवाही नहीं हुई.

लखनऊ के एक रैस्टोरैंट में एक आदमी अपनी गर्लफ्रैंड को ले कर डिनर करने पहुंचा था. दोनों खाना खा ही रहे थे कि उस आदमी की पत्नी वहां आ धमकी. पति को दूसरी औरत संग देख कर पत्नी का पारा चढ़ गया. फिर पत्नी ने अपने भाई के साथ मिल कर पति और उस की गर्लफ्रैंड की जम कर पिटाई की. सड़क पर ले जा कर दोनों को पीटा. इस का वीडियो भी वायरल हुआ है. जब पुलिस वहां पहुंची, तब जा कर मामला शांत हुआ.

सीमित है पुलिस के हक

इस तरह के मामले समाज में बढ़ते जा रहे हैं. पहले पत्नियां सारे दुख सहन कर लेती थीं, पर आज की लड़कियां अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं. मातापिता भी उन की मदद करने को तैयार रहते हैं. ऐसे में वे पति के साथ दब कर नहीं रहती हैं. कोई दिक्कत होती है, तो वे सब से पहले पुलिस बुला लेती हैं. पहले पुलिस बुलाने के लिए थाने जाना पड़ता था, सिफारिश लगवानी पड़ती थी, पर अब केवल मोबाइल से 112 नंबर डायल करने की जरूरत होती है और पुलिस पहुंच जाती है. किसी औरत या लड़की को सताने की कोई घटना हो तो पुलिस के साथ कई एनजीओ वाले भी आ धमकते हैं.

आज के डिजिटल के जमाने में पड़ोसी दुख में भले साथ न दें, लेकिन वीडियो बनाने के लिए आ जाते हैं. अब सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो वायरल होने लगे हैं, जिन में पति और उस के साथ मिली लड़की या औरत को उस की प्रेमिका बता दिया जाता है. लोग सब से पहले पुलिस बुला लेते हैं. पुलिस के आने के बाद मामला और ज्यादा बिगड़ जाता है.

पुलिस के पास घरेलू मामलों में मुकदमा दर्ज करने का हक बहुत सीमित हो गया है. ऐसे में वह लोगों को थाने लाती है फिर मारपीट या शांति भंग करने जैसी धाराओं में चालान कर देती है. औरतों को ले कर पुलिस को सावधानी ज्यादा बरतनी पड़ती है. ऐसे में वह लिखापढ़ी कर के थाने से ही जमानत दे देती है.

कोर्ट नहीं करते जल्दी फैसले

मुसलिमों में तलाक के जरीए जल्दी अलगाव हो जाता है, पर हिंदुओं में शादी कराने वाला पंडित तलाक कराने नहीं आता. हिंदू धर्म में पतिपत्नी का साथ सात जन्मों का माना जाता है, जबकि बहुत से जोड़े तो सात कदम साथ चलने को तैयार नहीं होते हैं. कानून अलग भी नहीं रहने देता. इस वजह से पतिपत्नी हिंसक और अराजक हो जाते हैं, मरनेमारने पर उतारू हो जाते हैं. दहेज हत्याएं इस का सुबूत हैं. इस के साथसाथ दूसरी तरह की मारपीट की हिंसक घटनाएं होती हैं.

कई बार पति का बाहर अफेयर हो जाता है. कई बार पत्नी भी बाहर चक्कर चलाने लगती है. इन पर लोग नजर रखने लगते हैं. जैसे ही यह पता चलता है कि 2 लोग छिपछिप कर मिल रहे हैं, तीसरा पहुंच जाता है. हंगामे और मारपीट के वीडियो और पुलिस सीन में आ जाते हैं. कम कपड़ों में पिटते पति और उस की प्रेमिका के वीडियो बनने लगते हैं. पूरा समाज इस को चटपटे अंदाज में देखता है. ऐसे मसलों में पुलिस के आने से समझौते की उम्मीद खत्म हो जाती है. अब कोर्ट को यह करना चाहिए कि तलाक जल्द से जल्द मिल सके, जिस से दूसरा पक्ष जल्द अपनी नई जिंदगी शुरू कर सके.

इन घटनाओं का सारा असर औरतों पर पड़ता है. धर्म के बताए रास्ते पर चल कर वे पति की मार और फटकार झेलती हैं. ऐसे में चाहे पत्नी के रूप में या प्रेमिका के रूप में बदनाम औरत ही होती है. मर्द पर उंगली नहीं उठती है. ऐसे में जरूरत इस बात की है कि औरत की चाह पर कोर्ट उस का फैसला जल्द से जल्द करे. घर, परिवार और समाज को यह समझना चाहिए कि एक बार मामला पुलिस और कोर्ट तक गया, तो इस का हल केवल तलाक ही है. समझौते की कोई गुजांइश नहीं रहती है. कोर्ट को ऐसे मसले को लटकाने के बजाय जल्द तलाक दिला देना चाहिए, जिस से वे दोनों आजाद हो कर अपनी नई जिंदगी शुरू कर सकें.

(लेख में कानूनी सलाह के चलते पीड़ितों के नाम बदले गए हैं)

मांबाप कभी पराए नहीं होते

सदियों से परंपरा चली आ रही है कि बच्चे मातापिता का खयाल रखते हैं. आज आप अपने मातापिता का खयाल रखेंगे, तो कल आप के बच्चे आप का खयाल रखेंगे. वैसे भी, बच्चे जो आप को करते हुए देखेंगे, वही वे सीखेंगे. हां, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि पहले कई सारे भाईबहन होते थे और वे मांबाप की देखभाल मिलजुल कर कर लेते थे. अब की पीढ़ी के साथ दिक्कत यह है कि अब एक भाई और एक बहन हैं. अब यह परेशानी है कि बीवी अपने मांबाप की या अपने सास ससुर की देखभाल करे या फिर बीवी चारों की देखभाल करे. लेकिन इसे ही तो मैनेज करने की कला आप को आनी चाहिए.

बेटे मांबाप का खयाल इसलिए भी रखें क्योंकि यह गिव और टेक यानी कि लेने का देना है. अगर आप ने आज अपने मातापिता का धयान नहीं रखा तो कल बुढ़ापा तो आप का भी आना है और तब आप के बच्चों द्वारा आप का धयान भी नहीं रखा जाएगा क्योंकि आप के बच्चे वही करेंगे जो वे आप को करते हुए देखेंगे. अगर आज आप का व्यवहार अपने मातापिता के साथ सही नहीं है तो कल आप भी वही सब भुगतने के लिए तैयार हो जाएं. यहां हमारा मकसद आप को डरानाधमकाना बिलकुल नहीं है बल्कि हम तो यही कहना चाहते हैं कि आप जो बोएंगे वही काटेंगे.

जिस तरह से आज आप की जान आप के बच्चों में बस्ती है और आप उन से दूर होने के बारे में सोच भी नहीं सकते बिलकुल इसी तरह आप के मातापिता भी आप से दूर होने की कल्पना तक नहीं कर कर सकते. फिर जब आप अपने बच्चों से दूर नहीं होना चाहते तो उन्हें ही क्यों दूर करना. आज भले ही आप का अपना परिवार, बीवीबच्चे हैं पर मातापिता का परिवार भी तो आप से ही है. उन्हें भी अपने परिवार का हिस्सा ही समझें, उन्हें बोझ न मानें.

वैसे भी, मांबाप का ध्यान रखना कोई ज्यादा मुश्किल नहीं है. मांबाप को आप की कोई ज्यादा लंबीचौड़ी जरूरत नहीं है. आप उन से हलकीफुलकी बात कर लें, उन के सुखदुख में उन्हें पूछ लें वही काफी है. उन्हें आप की जरूरत तब पड़ती है जब वे बीमार हो जाते हैं या फिर 70-80 साल की उम्र के हो जाते हैं. तब तक आप रिटायर हो जाते हो. तब आप आराम से उन की देखभाल कर सकते हो और आप को देखभाल करनी भी चाहिए क्योंकि उन की संपत्ति भी तो आप ही इस्तेमाल करते हैं. या तो वे अपना धन आप को दे कर जाएंगे या आप पर खर्च कर चुके होंगे. लेकिन अगर उन के पास कुछ नहीं भी है तो क्या हुआ, उन का होनहार बेटा ही उन की पूंजी है और आप को उन के साथ उसे शेयर करना भी चाहिए क्योंकि मांबाप के आशीर्वाद आप को हर दुख और तकलीफ से भी तो बचाते हैं. वह कर्ज भी तो आप को उन का उतरना है.

मांबाप के लिए किस तरह से समय निकले और किस तरह से मैनेज करें, मातापिता इरिटेट करें तो इग्नोर करें

जो मांबाप छोटीछोटी चीजों के लिए तंग करें, तो उन्हें इग्नोर करें, उन्हें छोड़ें नहीं. कई बार मांबाप के पास पैसों की कमी हो जाती है वो कहते हैं, तू अभी खड़ा है तो अभी पैसे ट्रांसफर कर. बेटा कहता है, मां, अब नहीं, कल करूंगा, आप ने कल क्यों नहीं बताया. इस बहस में न पड़ें, जो जरूरी लगे उसे कर दें, बाकी के लिए समझा दें. हर बात को तूल न दें बल्कि चीजों को इग्नोर करें.

उन के साथ कहीं घूमने जाएं

आप अपनी बीवीबच्चों के साथ लाख घूमने जाएं लेकिन महीने में एक बार ही सही अपने पेरैंट्स के लिए भी समय निकालें. भले ही उन्हें मार्केट घूमने या फिर कुछ खिलानेपिलाने के लिए ही बाहर ले जाएं.

इंडोर गेम्स खेलने की आदत डालें

पेरैंट्स के साथ टाइम स्पैंड करने का सब से अच्छा तरीका है कि उन के साथ कुछ गेम्स खेलने की आदत डालें, जैसे कि स्प्लेंडर, टिकट टू राइड, लूडो, ताश और ऐसे बहुत से बोर्ड गेम हैं जो वीकैंड पर साथ मिल कर पूरा परिवार खेल सकता है, इस से टाइम पास होगा और स्क्रीनटाइम भी काम होगा, साथ में, सब लोग एंजौय कर पाएंगे सो अलग.

कभीकभी शौपिंग के लिए ले जाएं

मांबाप की जरूरत का हर सामन आप उन्हें भले ही औनलाइन मंगा दें लेकिन कभीकभी साथ ले जा कर भी कुछ शौपिंग कराएं. इस से उन की भी कुछ आउटिंग हो जाएगी और वे खुश रहेंगे.

मातापिता की सीनियर सिटिज़न किटी शुरू करा दें

मातापिता के कुछ पुराने दोस्त, रिश्तेदार या हमउम्र पड़ोसियों के साथ उन की किटी शुरू करा दें ताकि वे अपने दोस्तों के साथ उठबैठ कर खुश रहें और एंजौय करें.

उन की बात पर झल्लाएं नहीं

कभीकभार उन की मांगें या कुछ बातें थोड़ी बेवजह सी लगती होंगी लेकिन क्या भूल गए आप अपना समय, जब उन्होंने आप की हर बात को सिरआंखों पर रखा. आज आप की बारी है. अगर उन की कोई बात पसंद नहीं आ रही, तो उन पर गुस्सा न करें बल्कि प्यार से समझाएं. उन की बात ठीक न लगे तो उस का कोई और तरीका निकालें जिस से वे और आप दोनों ही संतुष्ट हो जाएं.

अब बच्चों को उन के ग्रैंडपा चाहिए

बच्चों के साथ उन की बौन्डिंग बनवाएं ताकि बच्चों और ग्रैंडपा को एक साथी, एक दोस्त मिल जाए. इस से आप की मुश्किल भी काफी हद तक सौल्व हो जाएगी. दोनों एकदूसरे के साथ खुश रहेंगे तो आप को दोनों की ही चिंता नहीं होगी. आजकल दादादादू हों या नानानानू, बच्चों की बौन्डिंग उन के साथ अच्छी होना चाहिए.

मांबाप के साथ में आप का अपना भी स्वार्थ छिपा है

अकसर यह सुनने को मिलता रहता है कि बेटे ने बुढ़ापे में अपने मांबाप को अकेले छोड़ दिया क्योंकि मांबाप की नसीहत उस को बुरी लगती है. लेकिन मांबाप की वसीयत सब को अच्छी लगती है. जबकि सच यह है कि आप के मांबाप जैसा दुनिया में कोई भी नहीं है जो सिर्फ़ आप की फिक्र करता हो. इसलिए अपने मातापिता का सम्मान करें, उन की पूरे दिल से सेवा करें क्योंकि मांबाप के बाद जीवन एकदम फीका हो जाता है. इसलिए सभी को अपने मातापिता का खयाल रखना चाहिए.

पिता खुद कितना भी कमजोर क्यों न हो मगर अपनी औलाद को मजबूत बनाने की हिम्मत रखता है. दुनिया आप की अच्छाइयों को भी बुराई बना देती है और मांबाप आप की बुराइयों को अच्छाई समझ कर स्वीकार कर लेते हैं. यह सच है और कहीं न कहीं आप सभी इस सच को जानते हैं. हम अपनी सुरक्षा के लिए मांबाप की सेवा कर रहे हैं. इस में अपना भी स्वार्थ है, इसलिए हम सेवा कर रहे हैं क्योंकि आप यह परंपरा अपने बच्चों को सिखा रहे हैं क्योंकि कल आप को भी बच्चों के साथ की जरूरत होगी.Community-verified icon

हाउसवाइफ चाहिए तो बैचलरहुड की तैयारी कर लें

आप सालोंसाल तलाश करेंगे तब कहीं जा कर दोचार ऐसी लड़कियां मिल पाएंगी जो इस के लिए राजी होंगी और दूसरी बात, अगर वे राजी हो भी गईं तो क्या आप इन लड़कियों से शादी करने को तैयार होंगे क्योंकि ये लड़कियां ज्यादा पढ़ीलिखी नहीं होंगी और तभी हाउसवाइफ बनना पसंद करेंगी. सोचने की बात है अगर वे अच्छी एजुकेटेड होंगी तो भला वे अपनी पढ़ाईलिखाई बेकार कर घर में क्यों बैठना चाहेंगी.

आजकल की लड़कियां नौकरी के साथसाथ घर संभालना भी जानती हैं, फिर एजुकेशन का उपयोग क्यों न करें. इस का एक पहलू यह भी है कि आप भी लड़की अपनी बराबरी की ही लेना चाहेंगे. बिना एजुकेशन वाली लड़की से तो शादी नहीं करना चाहेंगे भले ही वह हाउसवाइफ बनने को तैयार ही क्यों न हो.

इस बारे में रजत का कहना है, ‘मैं खुद चाहता था कि मेरी पत्नी हाउसवाइफ हो पर इस के साथ शर्त यह भी थी कि लड़की एजुकेटेड हो. पर कई साल बीत जाने पर भी मुझे ऐसी लड़की नहीं मिली और मुझे वर्किंग लड़की से ही शादी करनी पड़ी. लेकिन मुझे इस का कोई पछतावा नहीं है. हम अब बहुत खुश हैं. अब मुझे लगता है कि मेरी सोच ही गलत थी कि वर्किंग लड़की घर नहीं संभाल सकती. बल्कि, यह तो कपल की आपसी समझदारी और सामंजस्य पर निर्भर होता है. अगर दोनों साथ में मिल कर कोशिश करें तो घर और बाहर दोनों संभल जाते हैं.’

संदीप पेशे से इंजीनियर है, उस का भी ऐसा ही कहना है. वे और उन की वाइफ भी सेम प्रोफैशन से हैं. वर्किंग वाइफ होने से वे दोनों अपने समय का सही यूटिलाइजेशन करते हैं. एक ही क्षेत्र के होने कारण वे अपने औफिस की समस्या भी एकदूसरे से शेयर कर सकते हैं. संदीप कहता है, ‘मुझे लगता है वर्किंग वाइफ का नुकसान उन्हें ज्यादा होता है जो यह उम्मीद करते हैं कि उन की पत्नी घर के सारे काम करे, खाना बनाए और पति जब घर आए तो पत्नी उसे टेबल पर खाना-पानी ला कर दे. तो उन लोगों के लिए तो वर्किंग वाइफ के नुकसान हैं. पर जो लोग अपनी पत्नी के साथ काम में हैल्प करवा सकते हैं उन के लिए वर्किंग वाइफ होना बहुत अच्छा है. वर्किंग पत्नी के होने से आप को वित्तीय सहायता तो मिलती ही है, पत्नी लौंग टर्म में फिट और हैल्दी भी रहती है.

वर्किंग लड़की के हैं फायदे ही फायदे

वर्किंग लड़की न सिर्फ भावनात्मक रूप से बल्कि पैसे के मामले में भी मदद कर पाएगी. इनकम टैक्स रिटर्न, लोन आदि की समझ, गाड़ी चलाना आना आदि सब में भी बराबर समझ रखेगी. वर्किंग वाइफ अपनी कमाई का ज्यादातर हिस्सा बचत में रखती है, जैसे फिक्स्ड डिपौजिट, बैंक सेविंग, लाइफ इंश्योरैंस आदि जो आप की फैमिली के फ्यूचर के लिए बहुत जरूरी है.

जब आप दोनों रिलैक्स होना चाहें तो आप दोनों छुट्टी ले कर पूरी तरह से रिलैक्स हो सकते हैं. दोनों के पास सीमित वक़्त होता है, जिसे दोनों ही पार्टनर प्यार से गुजारने में विश्वास करते हैं. इन लोगों के पास लड़ाईझगड़े और वादविवाद के लिए वक़्त की हमेशा कमी रहती है.

घर के रोजमर्रा के कामों में एकदूसरे का सहयोग करते हुए संबंधों का बौंड मजबूत होता जाता है.

पति या पत्नी में से कोई भी एकदूसरे को पैर की जूती नहीं समझ सकता क्योंकि घर दोनों के समान योगदान से चलता है. हालांकि हाउसवाइफ का भी घर चलाने में समान योगदान रहता है लेकिन अभी समाज उस परिपक्वता को हासिल नहीं कर पाया है जहां एक हाउसवाइफ के योगदान को बराबरी का समझा जाए.

पैसे की कमी नहीं रहती है. सिंगल इनकम में आप बेहतर जी रहे होते हो तो डबल इनकम में बेहतरीन जिया जा सकता है.

दोनों एकदूसरे का सम्मान करते हैं. पति भी बड़े गर्व से अपने सर्कल में बताता है है कि उस की वाइफ भी वर्किंग है.

जब तक कोई बहुत बड़ी बात न हो जाए, वर्किंग वाइफ घरेलू झगड़े में पड़ने से बचती है क्योंकि उस के पास औऱ भी जरूरी काम होते हैं.

वर्किंग मदर्स के बच्‍चे अपनी मांओं को एकसाथ कई कामों के बीच तालमेल बैठाते हुए देखते हैं. उन्‍हें समझ होती है कि कई चीजों को एकसाथ संभालना कितना स्ट्रैसफुल होता है. लेकिन उन की मां हर चीज को बहुत अच्‍छे से संभाल रही है. उन्‍हें देख कर बच्‍चे भी मल्‍टीटास्किंग बनते हैं और आगे चल कर स्ट्रैस को हैंडल कर पाते हैं.

यदि आप अपनी जौब चेंज करना चाहते हैं और आप को एकदो महीने जौबलेस होना पड़े तो आप के और घर के खर्चे आप की वाइफ उठा सकती है.

ज़्यादातर वर्किंग वुमन खुली सोच की होती हैं. वे बेवजह किसी के मामले में पड़ना पसंद नहीं करती हैं. यही वजह है कि अगर पति देर तक अपनी महिला मित्रों के साथ गपशप में बिजी रहे या देररात तक औफिस का काम निबटाता रहे तो वे बेवजह किसी बात पर रोकटोक या शक करना पसंद नहीं करती हैं.

वर्किंग वुमेन के साथ सामंजस्य कैसे बैठाएं

वर्किंग वाइफ का नुकसान सिर्फ इतना है कि वह आप के हर उचितअनुचित निर्णय को स्वीकार नहीं करेगी. वह अपना भी मत व्यक्त करेगी. उस की भी अपनी एक सोच होगी और वह चाहेगी कि घर की हर छोटीबड़ी बात का निर्णय उस से सलाह ले कर किया जाए न कि निर्णय होने के बाद उसे पता चले. इसलिए अच्छा यह है की अपना रिश्ता ऐसा बनाएं कि दोनों एकदूसरे की सलाह से ही काम करें. इस से दोनों के बीच सामंजस्य बना रहेगा.

घर के और अपने काम आप खुद देखें या फिर आप मेड लगवाएं. हर काम के लिए बीवी पर डिपैंड न हों क्योंकि समय का भाव उस के पास भी है.

– सुबह और शाम के कामों में अपनी वाइफ की हैल्प करें, क्योंकि दोनों को सुबह औफिस टाइम पर जाना है और शाम को दोनों ही थके होंगे.

– वाइफ अगर आप से ज्यादा अच्छी पोस्ट पर काम कर रही है, तो उसे देख कर जलन नहीं होनी चाहिए. वह जौब कर रही है आप के और आप के घर के लिए ही, इसलिए उसे यह एहसास कभी न कराएं कि आप उस से जलते हैं.

– हो सकता है कि आप को लगे कि वाइफ की तरफ से आप के लिए सम्मान कम हो गया है. यह केवल गलतफहमी हो सकती है या सच में ऐसा हो. अगर ऐसी कोई परेशानी हो, तो साथ में बैठ कर हल करें.

– बच्चों की देखरेख के लिए किसी को घर में रखना होगा, फिर वह चाहे आप का कोई हो या फिर कोई मेड रखने का रिस्क लेना पड़े. इस से बच्चों को ले कर तनाव काम होगा.

हर लड़के को घर के कामकाज आने चाहिए जैसे कि डायपर कैसे बदलें, कैसे साफ़ करें, कपड़े कैसे धोएं आदि.

हर लड़के के पास पूरे दिन में 2 घंटे ऐसे होते हैं जब वह घर के काम कर सकता है, इसलिए उन्हें भी करने की आदत डालें.

सो, अगर आप हाउसवाइफ लाने की बात इसलिए सोच रहे हैं कि बच्चे कैसे पालेंगे, उन की देखरेख कैसे होगी तो यह न सोचें क्योंकि फिर आप बैचलर ही रह जाएंगे. कुंआरे रहने से तो अच्छा है कि या तो बच्चे न करें या फिर सोच लें कि दोनों के सहयोग से बच्चे पल ही जाएंगे. कम से कम शादी तो हो जाए वरना हाउसवाइफ तो ढूंढते ही रह जाओगे. वर्किंग लड़की के साथ जो भी समस्या आप सोचते हैं उसे डिस्कस किया जा सकता है जैसे कि अगर बच्चों को ले कर दिक्कत है और आप मेड पर भरोसा नहीं करते तो 4-5 साल के लिए नौकरी छोड़ी भी जा सकती है और फिर बच्चों के संभल जाने पर दोबारा जौइन की जा सकती है. अगर लड़की आप के स्तर की होगी, बराबर की होगी, उतनी ही एजुकेटेड होगी तो वह वर्किंग ही मिलेगी. अब चौइस है कि आप को हाउसवाइफ की चाहत रख कर बैचलर ही बने रहना है या फिर रिश्ते में सामंजस्य बिठा कर लाइफ में आगे बढ़ना है.Community-verified icon

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