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हर्बल कास्मेटिक कैरियर संवारे त्वचा निखारे

देश में बेरोजगारों की तादाद ज्यादा है और नौकरियां कम हैं. वैसे भी जानकारी व पहुंच की कमी के कारण हमारे ग्रामीण नौजवान नौकरियों के मौके हासिल करने में नाकाम ही रहते हैं. स्वरोजगार उन के लिए वरदान साबित हो सकता है. कम लागत में अपने ही इलाके में उत्पादन इकाई लगा कर आप अच्छी कमाई कर सकते हैं. ऐसा ही एक स्वरोजगार है हर्बल कास्मेटिक. भारत में पढ़ेलिखे बेरोजगारों की तादाद देखते हुए मानव संसाधन विकास मंत्रालय और लघु उद्योग मंत्रालय ने पिछले कुछ सालों से स्वरोजगार को बढ़ावा देने की अच्छी पहल की है. इस दिशा में कई प्रशिक्षण संस्थान भी खोले गए हैं, जहां बिलकुल मुफ्त प्रशिक्षण दिया जाता है. उन में एक कोर्स है हर्बल कास्मेटिक मैन्यूफैक्चरिंग.

हर्बल कास्मेटिक लघु उद्योग का उत्पाद है. इस की मार्केटिंग और एक्सपोर्ट में सरकार कई तरह की सहायता करती है, साथ ही कर्ज भी मुहैया कराती है. घर में मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट लगा कर कम लागत में अच्छी कमाई की जा सकती है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोग लागत को ले कर काफी सेंसटिव हैं. हमारे देश के लोग?भी त्वचा की देखभाल को ले कर सजग हुए?हैं. नामीगिरामी स्किन सेंटर खुले हैं, इन में आम बात यह?है कि सभी में हर्बल कास्मेटिक की मांग है. हर्बल कास्मेटिक का आधार जड़ीबूटियां हैं और इस में कोई कैमिकल भी नहीं होता. इस के इस्तेमाल से न तो स्किन के खराब होने का डर होता?है, न ही रिएक्शन होने का खतरा. भारत में जड़ीबूटियां काफी मात्रा में उपलब्ध हैं, इसलिए यहां हर्बल कास्मेटिक का उत्पादन अपेक्षाकृत आसान व कम लागत में संभव है.

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मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट लगाने का खर्च ?

हर्बल कास्मेटिक मैन्यूफैक्चरिंग का आधार जड़ीबूटियां हैं, जिन में चंदन, हलदी, तुलसी, नीम, एलोवेरा नारियल तेल व लौंग वगैरह का इस्तेमाल किया जाता है. इस कच्चे माल के साथसाथ जरूरी बरतन, गरम करने के लिए गैस और एक कमरे की जरूरत होती है, जहां एक यूनिट लग सके. इन सब मदों में तकरीबन 50 से 75 हजार रुपए तक खर्च आता है.

कर्ज की सुविधा

मैन्यूफैक्चरिंग यूनिट लगाने के लिए खर्च का 90 फीसदी भाग कर्ज के रूप में प्राप्त किया सकता?है. सहायता की सीमा 20 लाख रुपए तक है. महिला उद्यमियों को 30 फीसदी तक कर्ज में सब्सिडी भी मिलती?है. यह कर्ज पब्लिक सेक्टर के बैंक, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक और केंद्र व राज्य सरकार की वित्तीय संस्थाएं देती हैं.

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पैकेजिंग और मार्केटिंग

आजकल उत्पाद की क्वालिटी के साथसथ पैकेजिंग पर भी काफी जोर दिया जाने लगा?है. इस की पैकिंग मार्केट की मांग और निर्यात किए जाने वाले देश के लोगों के शौपिंग बिहेवियर को देखते हुए कर सकते?हैं.

हर्बल कास्मेटिक की मांग भारत के बाजार में काफी है, लेकिन इन दिनों विदेशों के स्पा सेंटरों में?भी हर्बल कास्मेटिक के बढ़ते उपयोग ने उद्यमियों के लिए एक्सपोर्ट की संभावनाओं का काफी विस्तार किया है.

बनने वाले प्रोडक्ट

हर्बल मैन्यूफैक्चरिंग में साबुन, क्रीम, तेल और शैंपू जैसे उत्पाद तैयार किए जाते?हैं, जिन में सिर्फ जड़ीबूटियों का इस्तेमाल किया जाता है. कभीकभी एलोपैथी मैटीरियल्स को भी प्रयोग में लाया जाता है.

हर्बल शैंपू मेकिंग

आज के दौर में शैंपू का प्रचलन बहुत हो गया है. इस के इस्तेमाल से बाल मुलायम और चमकीले बने रहते?हैं. व्यावसायिक तौर पर यह काफी लाभप्रद है और इस की मांग भी बहुत ज्यादा है.

आवश्यक सामग्री

नारियल का तेल, कास्टिक पोटाश, शुद्ध पानी (डिस्टिल वाटर) पोटिशियम कार्बोनेट, सुगंधित पदार्थ.

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बनाने की विधि

सब से पहले नारियल तेल का पूरी तरह साबुनीकरण करने के लिए उस में कास्टिक पोटाश मिलाया जाता?है. उस के बाद उस में डिस्टिल वाटर मिला कर 75 सेंटीग्रेड तापमान तक गरम किया जाता?है. फिर इस घोल को धीरेधीरे डिस्टिल वाटर की सहायता से पतला कीजिए. उस के बाद पोटेशियम कार्बोनेट मिला दीजिए. अंत में सुगंधित पदार्थ मिला दीजिए.

इस मिश्रण को बड़े पारदर्शक जार में रख दीजिए. कुछ देर रखा रहने पर भारी भाग जार की तली में बैठ जाएगा. ऊपर वाले तरल भाग को निकाल कर छान लीजिए और प्लास्टिक की सुंदर शीशियों में पैक कर के और लेबल लगा कर बाजार में बेच दीजिए. इसी तरह आप दूसरे उत्पाद भी तैयार कर सकते?हैं और उन्हें आमदनी का जरीया बना सकते?हैं.

प्रशिक्षण संस्थान

देश में कई ऐसे संस्थान हैं, जहां से  तकरीबन 30 दिनों का कास्मेटिक मैन्यूफैक्चरिंग का प्रशिक्षण हासिल किया जा सकता है. ऐसे संस्थानों के पते नीचे दिए जा रहे हैं.

* खादी एंड विलेज इंडस्ट्रीज कमीशन, गांधी आश्रम राजघाट, नई दिल्ली.

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* डा. बीआर अंबेडकर इंस्टीट्यूट औफ रूरल टेक्नोलोजी एंड मैनेजमेंट, खादी और विलेज इंडस्ट्रीज कमीशन, त्रियंबक विद्या मंदिर, नासिक.

* मल्टीडिसिप्लिनरी ट्रेनिंग सेंटर, दूरवानी नगर, बेंगलूरू, कर्नाटक.

* खादी एंड विलेज इंडस्ट्रीज कमीशन के ब्लाक, चौधरी बिल्डिंग, कनाट प्लेस, नई दिल्ली.

आधी रात के बाद हुस्न और हवस का खेल

18 नवंबर, 2016 की रात के यही कोई डेढ़ बजे मुंबई से सटे जनपद थाणे के उल्लासनगर के थाना विट्ठलवाड़ी के एआई वाई.आर. खैरनार को सूचना मिली कि आशेले पाड़ा परिसर स्थित राजाराम कौंपलेक्स की तीसरी मंजिल स्थित एक फ्लैट में काले रंग के बैग में लाश रखी है. सूचना देने वाले ने बताया था कि उस का नाम शफीउल्ला खान है और उस फ्लैट की चाबी उस के पास है. 35 साल का शफीउल्ला पश्चिम बंगाल के जिला मुर्शिदाबाद की तहसील नगीनबाग के गांव रोशनबाग का रहने वाला था. रोजीरोटी की तलाश में वह करीब 8 साल पहले थाणे आया था, जहां वह उल्लासनगर के आशेले पाड़ा परिसर स्थित राजाराम कौंपलेकस के तीसरी मंजिल स्थित फ्लैट नंबर 308 में अपने परिवार के साथ रहता था. वह राजमिस्त्री का काम कर के गुजरबसर कर रहा था.

उस के फ्लैट से 2 फ्लैट छोड़ कर उस का मामा राजेश खान अपनी प्रेमिकापत्नी खुशबू उर्फ जमीला शेख के साथ रहता था. 10-11 महीने पहले ही खुशबू राजेश खान के साथ इस फ्लैट में रहने आई थी. वह अपना कमातीखाती थी, इसलिए वह राजेश खान पर निर्भर नहीं थी. राजेश खान कभीकभार ही उस के यहां आता था. ज्यादातर वह पश्चिम बंगाल स्थित गांव में ही रहता था.

18 नवंबर की दोपहर शफीउल्ला अपने फ्लैट पर जा रहा था, तभी इमारत की सीढि़यों पर उस की मुलाकात राजेश खान से हो गई. उस समय काफी घबराया होने के साथसाथ वह जल्दबाजी में भी था. लेकिन शफीउल्ला सामने पड़ गया तो उस ने रुक कर कहा, ‘‘शफी, अगर तुम मेरे साथ नीचे चलते तो मैं तुम्हें एक जरूरी बात बताता.’’

‘‘इस समय तो मैं कहीं नहीं जा सकता, क्योंकि मुझे बहुत तेज भूख लगी है. जो भी बात है, बाद में कर लेंगे.’’ कह कर शफीउल्ला जैसे ही आगे बढ़ा, राजेश खान ने पीछे से कहा, ‘‘यह रही मेरे फ्लैट की चाबी, रख लो. तुम्हारी मामी मुझ से लड़झगड़ कर कहीं चली गई है. मैं उसे खोजने जा रहा हूं. मेरी अनुपस्थिति में अगर वह आ जाए तो यह चाबी उसे दे देना. बाकी बातें मैं फोन से कर लूंगा.’’

राजेश खान से फ्लैट की चाबी ले कर शफीउल्ला अपने फ्लैट पर चला गया तो राजेश खान नीचे उतर गया.  करीब 12 घंटे बीत गए. इस बीच न राजेश खान आया और न ही उस की पत्नी खुशबू आई. शफीउल्ला को चिंता हुई तो उस ने दोनों को फोन कर के संपर्क करना चाहा. लेकिन दोनों के ही नंबर बंद मिले.

शफीउल्ला सोचने लगा कि अब उसे क्या करना चाहिए. वह कुछ करता, उस के पहले ही रात के करीब एक बजे उस के फोन पर राजेश खान का फोन आया. उस के फोन रिसीव करते ही उस ने पूछा, ‘‘तेरी मामी आई या नहीं?’’

‘‘नहीं मामी तो अभी तक नहीं आई. यह बताओ कि इस समय तुम कहां हो?’’ शफीउल्ला ने पूछा.

‘‘तुम्हें राज की एक बात बताता हूं. अब तुम्हारी मामी कभी नहीं आएगी, क्योंकि मैं ने उसे मार दिया है. इस में मुझे तुम्हारी मदद चाहिए. मेरे फ्लैट के बैडरूम में बैड के नीचे काले रंग का एक बैग पड़ा है, उसी में तुम्हारी मामी की लाश रखी है. तुम उसे ले जा कर कहीं फेंक दो. जल्दबाजी में मैं उसे फेंक नहीं पाया. इस समय मैं ट्रेन में हूं और गांव जा रहा हूं.’’

खुशबू की हत्या की बात सुन कर शफीउल्ला के होश उड़ गए. उस ने उस बैग के बारे में आसपड़ोस वालों को बताया तो सभी इकट्ठा हो गए. उन्हीं के सुझाव पर इस बात की सूचना शफीउल्ला ने थाना विट्ठलवाड़ी पुलिस को दे दी थी.

एआई वाई.आर. खैरनार ने तुरंत इस सूचना की डायरी बनवाई और थानाप्रभारी सुरेंद्र शिरसाट तथा पुलिस कंट्रोल रूम एवं पुलिस अधिकारियों को सूचना दे कर वह कुछ सिपाहियों के साथ राजाराम कौंपलेक्स पहुंच गए. रात का समय था, फिर भी उस फ्लैट के बाहर इमारत के काफी लोग जमा थे. उन के पहुंचते ही शफीउल्ला ने आगे बढ़ कर उन्हें फ्लैट की चाबी थमा दी.

फ्लैट का ताला खोल कर वाई.आर. खैरनार सहायकों के साथ अंदर दाखिल हुए तो बैडरूम में रखा वह काले रंग का बैग मिल गया. उन्होंने उसे हौल में मंगा कर खुलवाया तो उस में उन्हें एक महिला की लाश मिली.

बैग से बरामद लाश की शिनाख्त की कोई परेशानी नहीं हुई. शफीउल्ला ने उस के बारे में सब कुछ बता दिया. लाश बैग से निकाल कर वाई.आर. खैरनार जांच में जुट गए. वह घटनास्थल और लाश का निरीक्षण कर रहे थे कि थानाप्रभारी सुरेंद्र शिरसाट, एसीपी अतितोष डुंबरे, एडिशनल सीपी शरद शेलार, डीसीपी सुनील भारद्वाज, अंबरनाथ घोरपड़े के साथ आ पहुंचे.

फोरैंसिक टीम के साथ पुलिस अधिकारियों ने भी घटनास्थल और लाशों का निरीक्षण किया. अपना काम निपटा कर थोड़ी ही देर में सारे अधिकारी चले गए.

लाश के निरीक्षण में स्पष्ट नजर आ रहा था कि मृतका की बेल्ट से जम कर पिटाई की गई थी. उस के शरीर पर तमाम लालकाले निशान उभरे हुए थे. कुछ घावों से अभी भी खून रिस रहा था. उस के गले पर दबाने का निशान था. लाश और घटनास्थल का निरीक्षण कर के सुरेंद्र शिरसाट ने लाश को पोस्टमार्टम के लिए उल्लासनगर के मध्यवर्ती अस्पताल भिजवा दिया.

घटनास्थल की पूरी काररवाई निपटा कर सुरेंद्र शिरसाट थाने लौट आए और सहयोगियों से सलाहमशविरा कर के इस हत्याकांड की जांच एआई वाई.आर. खैरनार को सौंप दी.

वाई.आर. खैरनार ने मामले की जांच के लिए अपनी एक टीम बनाई, जिस में उन्होंने एआई प्रमोद चौधरी, ए. शेख के अलावा हैडकांस्टेबल दादाभाऊ पाटिल, दिनेश चित्ते, अजित सांलुके तथा महिला सिपाही ज्योति शिंदे को शामिल किया.

पुलिस को शफीउल्ला से पूछताछ में पता चल गया था कि राजेश खान ने कत्ल कर के गांव जाने के लिए कल्याण रेलवे स्टेशन से ज्ञानेश्वरी एक्सप्रैस पकड़ ली है. अब पुलिस के लिए यह चुनौती थी कि वह गांव पहुंचे, उस के पहले ही उसे पकड़ ले. अगर वह गांव पहुंच गया और उसे पुलिस के बारे में पता चल गया तो वह भाग सकता था.

इस बात का अंदाजा लगते ही पुलिस टीम ने जांच में तेजी लाते हुए राजेश खान के मोबाइल की लोकेशन पता की तो वह जिस ट्रेन से गांव जा रहा था, वहां से उसे गांव पहुंचने में करीब 10 घंटे का समय लगता.

पुलिस टीम किसी भी तरह उसे हाथ से जाने देना नहीं चाहती थी, इसलिए वाई.आर. खैरनार ने सीनियर अधिकारियों से बात कर के राजेश खान की गिरफ्तारी के लिए एआई ए. शेख और हैडकांस्टेबल माने को हवाई जहाज से कोलकाता भेज दिया. दोनों राजेश के पहुंचने से पहले ही हावड़ा रेलवे स्टेशन पर पहुंच गए और उसे गिरफ्तार कर लिया.

26 साल के राजेश खान को मुंबई ला कर पूछताछ की गई तो उस ने खुशबू से प्रेम होने से ले कर उस की हत्या तक की जो कहानी सुनाई, वह इस प्रकार थी—

राजेश खान पश्चिम बंगाल के जनपद मुर्शिदाबाद की तहसील नगीनबाग के गांव रोशनबाग का रहने वाला था. गांव में वह मातापिता एवं भाईबहनों के साथ रहता था. गांव में उस के पास खेती की जमीन तो थी ही, बाजार में कपड़ों की दुकान भी थी, जो ठीकठाक चलती थी. उसी दुकान के लिए वह कपड़ा लेने थाणे के उल्लासनगर आता था. वह जब भी कपड़े लेने उल्लासनगर आता था, अपने भांजे शफीउल्ला से मिलने जरूर आता था.

24 साल की खुशबू उर्फ जमीला से राजेश खान की मुलाकात उस की कपड़ों की दुकान पर हुई थी. वह उसी के गांव के पास की ही रहने वाली थी. उस की शादी ऐसे परिवार में हुई थी, जिस की आर्थिक स्थिति काफी खराब थी. वह जिन सपनों और उम्मीदों के साथ ससुराल आई थी, वे उसे पूरे होते नजर नहीं आ रहे थे. खुली हवा में सांस लेना घूमनाफिरना, मनमाफिक पहननाओढ़ना उस परिवार में कभी संभव नहीं था.

इसलिए जल्दी ही वहां खुशबू का दम घुटने लगा. खुली हवा में सांस लेने के लिए उस का मन मचल उठा. दुकान पर आनेजाने में जब उस ने राजेश खान की आंखों में अपने लिए चाहत देखी तो वह भी उस की ओर आकर्षित हो उठी.

चाहत दोनों ओर थी, इसलिए कुछ ही दिनों में दोनों एकदूसरे के करीब आ गए. जल्दी ही उन की हालत यह हो गई कि दिन में जब तक दोनों एक बार एकदूसरे को देख नहीं लेते, उन्हें चैन नहीं मिलता. उन के प्यार की जानकारी गांव वालों को हुई तो उन के प्यार को ले कर हंगामा होता, उस के पहले ही वह खुशबू को ले कर मुंबई आ गया और किराए का फ्लैट ले कर उसी में उस के साथ रहने लगा. मुंबई में उस ने उस से निकाह भी कर लिया.

मुंबई पहुंच कर खुशबू ने आत्मनिर्भर होने के लिए एक ब्यूटीपार्लर में नौकरी कर ली. इस से राजेश खान चिंता मुक्त हो गया. वह महीने में 10-15 दिन मुंबई में खुशबू के साथ रहता था तो बाकी दिन गांव में रहता था.

मुंबई आ कर खुशबू में काफी बदलाव आ गया था. ब्यूटीपार्लर में काम करने के बाद उस के पास जो समय बचता था, उस समय का सदुपयोग करते हुए अधिक कमाई के लिए वह बीयर बार में काम करने चली जाती थी. पैसा आया तो उस ने रहने का ठिकाना बदल दिया. अब वह उसी इमारत में आ कर रहने लगी, जहां शफीउल्ला अपने परिवार के साथ रहता था. वहां उस ने सुखसुविधा के सारे साधन भी जुटा लिए थे.

खुशबू के रहनसहन को देख कर राजेश खान के मन संदेह हुआ. उस ने उस के बारे में पता किया. जब उसे पता चला कि खुशबू ब्यूटीपार्लर में काम करने के अलावा बीयर बार में भी काम करती है तो उस ने उसे बीयर बार में काम करने से मना किया. लेकिन उस के मना करने के बावजूद खुशबू बीयर बार में काम करती रही. इस से राजेश खान का संदेह बढ़ता गया.

18 नवंबर की सुबह खुशबू बीयर बार की ड्यूटी खत्म कर के फ्लैट पर आई तो राजेश खान को अपना इंतजार करते पाया. उस समय वह काफी गुस्से में था. उस के पूछने पर खुशबू ने जब सीधा उत्तर नहीं दिया तो वह उस पर भड़क उठा. वह उस के साथ मारपीट करने लगा तो खुशबू ने साफसाफ कह दिया, ‘‘मैं तुम्हारी पत्नी हूं, गुलाम नहीं कि जो तुम कहोगे, मैं वहीं करूंगी.’’

‘‘खुशबू, तुम मेरी पत्नी ही नहीं, प्रेमिका भी हो. मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं. तुम अपनी ब्यूटीपार्लर वाली नौकरी करो, मैं उस के लिए मना नहीं करता. लेकिन बीयर बार में काम करना मुझे पसंद नहीं है. मैं नहीं चाहता कि लोग तुम्हें गंदी नजरों से ताकें.’’

‘‘मैं जो कर रही हूं, सोचसमझ कर कर रही हूं. अभी मेरी कमानेखाने की उम्र है, इसलिए मैं जो करना चाहती हूं, वह मुझे करने दो.’’ कह कर खुशबू बैडरूम में जा कर कपड़े बदलने लगी.

राजेश खान को खुशबू से ऐसी बातों की जरा भी उम्मीद नहीं थी. वह भी खुशबू के पीछेपीछे बैडरूम में चला गया और उसे समझाने की गरज से बोला, ‘‘इस का मतलब तुम मुझे प्यार नहीं करती. लगता है, तुम्हारी जिंदगी में कोई और आ गया है?’’

‘‘तुम्हें जो समझना है, समझो. लेकिन इस समय मैं थकी हुई हूं और मुझे नींद आ रही है. अब मैं सोने जा रही हूं. अच्छा होगा कि तुम अभी मुझे परेशान मत करो.’’

खुशबू की इन बातों से राजेश खान का गुस्सा बढ़ गया. उस की आंखों में नफरत उतर आई. उस ने चीखते हुए कहा, ‘‘मेरी नींद को हराम कर के तुम सोने जा रही हो. लेकिन अब मैं तुम्हें सोने नहीं दूंगा.’’

यह कह कर राजेश खान खुशबू की बुरी तरह से पिटाई करने लगा. हाथपैर से ही नहीं, उस ने उसे बेल्ट से भी मारा. इस पर भी उस का गुस्सा शांत नहीं हुआ तो फर्श पर पड़ी दर्द से कराह रही खुशबू के सीने पर सवार हो गया और दोनों हाथों से उस का गला दबा कर उसे मौत के घाट उतार दिया.

खुशबू के मर जाने के बाद जब उस का गुस्सा शांत हुआ तो उस के पैरों तले से जमीन खिसक गई. उसे जेल जाने का डर सताने लगा. वह लाश को ठिकाने लगाने के बारे में सोचने लगा. काफी सोचविचार कर उस ने लाश को फ्लैट में ही छिपा कर गांव भाग जाने में अपनी भलाई समझी. उस का सोचना था कि अगर वह गांव पहुंच गया तो पुलिस उसे कभी पकड़ नहीं पाएगी.

उस ने बैडरूम मे रखे खुशबू के बैग को खाली किया और उस में उस की लाश को मोड़ कर रख कर उसे बैड के नीचे खिसका दिया. वह दरवाजे पर ताला लगा कर बाहर निकल रहा था, तभी उस का भांजा शफीउल्ला उसे सीढि़यों पर मिल गया, जिस की वजह से खुशबू की हत्या का रहस्य उजागर हो गया.

घर की चाबी शफीउल्ला को दे कर वह सीधे कल्याण रेलवे स्टेशन पहुंचा और वहां से कोलकाता जाने वाली ज्ञानेश्वरी एक्सप्रैस पकड़ कर गांव के लिए चल पड़ा.

राजेश खान से पूछताछ के बाद पुलिस ने उस के खिलाफ अपराध संख्या 324/2016 पर खुशबू की हत्या का मुकदमा दर्ज कर उसे मैट्रोपौलिटन मजिस्ट्रैट के सामने पेश किया, जहां से उसे जेल भेज दिया गया. मामले की जांच एआई वाई.आर. खैरनार कर रहे थे.

– कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित

‘‘सीजंस ग्रीटिंग्स”: पहली भारतीय फिल्म जिसके साथ संयुक्त राष्ट्र ने मिलाया हाथ

इन दिनों फिल्मकार राम कमल मुखर्जी के पैर जमीं पर नहीं पड़ रहे हैं. इसकी मूल वजह यह है कि उनकी फिल्म ‘‘एक ट्रिब्यूट टू रितुपर्णो घोष सीजंस ग्रीटिंग्स’’  पहली भारतीय फीचर फिल्म बन गयी है, जिसके साथ संयुक्त राष्ट्र ने स्वतंत्रता और समानता के तहत हाथ मिलाया. लेखक व निर्देशक राम कमल मुखर्जी की यह दूसरी फिल्म है. इससे पहले इस साल की शुरुआत में ईशा देओल अभिनीत लघु फिल्म केकवाक के निर्देशन से अपनी शुरुआत की थी.

फिल्म ‘‘सीजन्स ग्रीटिंग’’ से बौलीवुड अभिनेत्री सेलिना जेटली हाग की शादी और मातृत्व के बाद वापसी कर रही हैं. इस फिल्म में नवोदित कलाकार अजहर खान भी हैं. अनुभवी थिएटर और फिल्म स्टार लिलेट दुबे ने सेलिना की औन- स्क्रीन मां की भूमिका निभायी हैं. जबकि यह फिल्म बौलीवुड में एक ट्रांसजेंडर अभिनेता श्री घटक की पहली फिल्म है.

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फिल्म ‘‘सीजंस ग्रीटिंग्स’’ की कहानी मां सुचित्रा (लिलेट दुबे) और बेटी रोमिता (सेलिना जेटली) के रिश्ते से संबंधित है. जब अपने ब्वायफ्रेंड उस्मान (अजहर खान) के साथ मुंबई में ‘लिव इन रिलेशनशिप’ रह रही रोमिता (सेलिना जेटली) अपने ब्वायफ्रेंड उस्मान को अपनी मां सुचित्रा से मिलवाने कलकत्ता पहुंचती है, तो रात्रिभोज के वक्त कहानी में अप्रत्याशित मोड़ आ जाता है. रितुपर्णो घोष की हर फिल्म की तरह, फिल्म ‘सीजंस ग्रीटिंग्स’ एक मानवीय भावनाओं के साथ विभिन्न भावों में व्यवहार करती है.’’

कोलकाता में सुंदर स्थानों पर फिल्मायी गयी इस फिल्म को संयुक्त राष्ट्र के सामने स्कैनिंग की परतों से गुजरना पड़ा और जिनेवा से उनकी टीम ने आधिकारिक तौर पर सामाजिक कारणों से सहयोगी बनने का फैसला लिया.संयुक्त राष्ट्र के आधिकारिक बयान में कहा गया है- ‘‘हमें निर्देशक राम कमल मुखर्जी की भारतीय फीचर फिल्म ए ट्रिब्यूट टू रितुपर्णो घोषः सीजंस ग्रीटिंग्स’  को ‘युनाइटेड नेशन के फ्री एंड इक्वल- ग्लोबल’’ के लिए समर्थन करते हुए खुशी हो रही है. यह दुनिया भर में मौजूद ‘एलजीबीटीक्यूाआईए’ के लोगों के लिए समानता का अभियान है. हम अनुभव से जानते हैं कि इस तरह की फिल्में उन वार्तालापों को शुरू करने और बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं.हम समानता के प्रति जागरूकता फैलाने के लिए राम कमल और उनकी टीम के साथ काम करने को तत्पर हैं. भारत में एलजीबीटी कम्यूनिटी के लोगों को जिस तरह से जिंदगी जीने के लिए समान सेक्स संबंधों की स्वीकृति मिली है, उससे संबंधित कुछ मुद्दों पर यह फिल्म बात करती है.’’

‘युनाइटेड नेशन’ से मिले इस सहयोग के संदर्भ में फिल्म ‘‘सीजन्स ग्रीटिंग्स’’ के निर्देशक राम कमल मुखर्जी कहते हैं- ‘‘यह अप्रत्याशित और सुखद आश्चर्य है. जब सेलिना जेटली ने सुझाव दिया कि हमें फिल्म को यूएन को दिखाना चाहिए, तो मैं थोड़ा घबरा गया था कि यह एक भारतीय फिल्म है और वह इसे तवज्जों नही देंगे. लेकिन उन्होंने मुझे गलत साबित कर दिया. मैं फिल्म पर उनकी विस्तृत प्रतिक्रिया से अभिभूत था. मुझे यकीन है कि रितु दा आज सबसे ज्यादा खुश होंगे.’’

फिल्म में सुचित्रा का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री लिलेट दुबे कहती हैं- ‘‘मुझे राम कमल की फिल्म ‘सीजंस की ग्रीटिंग्स’ का हिस्सा बनने की खुशी है, जो जल्द ही जी5 पर प्रीमियर होगी. मैं हमेशा रितुपर्णो घोष के साथ काम करना चाहती थी. दुर्भाग्य से उन्होंने इस संसार से बहुत जल्दी विदा ले ली. मैं इस फिल्म का हिस्सा बनकर खुश हूं. ऐसे अद्भुत फिल्म निर्माता को श्रद्धांजलि.’’

फिल्म में रोमिता का किरदार निभाने वाली अभिनेत्री सेलिना जेटली ने कहा है- ‘‘मुझे इस बात का बेहद गर्व है कि संयुक्त राष्ट्र ने फिल्म के लिए उनके फ्री एंड इक्वल अभियान के तहत सामाजिक कारण भागीदार बनने पर सहमति व्यक्त की है. फिल्म पूरी स्क्रीनिंग प्रक्रिया से गुजरते हुए पारित हुई है. सभी ने महसूस किया कि हमें विश्व स्तर पर इस कहानी के बारे में बात करने की आवश्यकता है. फिल्म का प्रदर्शन उस वक्त हो रहा है जब भारत के सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक, गे और ट्रांस जेंडर आबादी के लिए ऐतिहासिक फैसला देकर औपनिवेशिक युग से चले आ रहे प्रतिबंध को खत्म कर  समान-यौन संबंध और ट्रांसजेंडर लोगों के अधिकारों की पुष्टि की है. यह फिल्म समान परिस्थितियों में भावनात्मक संदेश के साथ दुनिया भर के लोगों तक पहुंचकर एक वैश्विक राग छेड़ेगी.’’

सेलिना ने आगे कहा, ‘‘यह फिल्म मेरे लिए कई मायनों में खास है. इसके निर्देशक राम कमल मुखर्जी मेरे मित्र हैं, जिनके साथ यह मेरी पहली फिल्म है. जिसे मैंने अपने गृह नगर कलकत्ता में फिल्माया है. मुझे खुशी है कि लिलेट दुबे जैसी दिग्गज अदाकारा के साथ काम करने का अवसर मिला.’’

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सेलिना का मानना है कि लंबे समय से चले आ रहे लोगों के रवैए को बदलना आसान नही है, मगर बातचीत करते करते ऐसा हो जाएगा.

फिल्म का निर्माण अरिजित दास और शैलेंद्र कुमार द्वारा क्रमशः मोशन पिक्चर्स और एसएस 1 एंटरटेनमेंट के बैनर तले किया गया है. फिल्म को दुनिया भर के विभिन्न अंतरराष्ट्रीय समारोहों में प्रदर्शन के लिए चुना गया है. फिल्म का प्रीमियर नवंबर में औस्ट्रेलिया के सिडनी में चेंजिंग फेस इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में किया जाएगा. जबकि नवंबर माह में यह फिल्म ओटीटो प्लेटफार्म ‘‘जी 5’’ पर आएगी.

‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’: इस शो के प्रोड्यूसर राजन शाही क्यों हो रहे हैं ट्रोल

आपका फेवरेट शो  ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’ के 3000 एपिसोड पूरे हो चुके है.  जी हां इस शो के प्रोडयूसर  राजन शाही ने सोशल मीडिया पर  एक वीडियो शेयर की हैं जिनमें शो की पूरी स्टारकास्ट नजर आ रही है.  ‘ये रिश्ता क्या कहलाता है’  के सेट पर जश्न का माहौल है, हो भी क्यों न… इस शो के 3000 एपिसोड पूरे भी तो हो गए.

लेकिन क्या आप जानते हैं, इस विडियो में अक्षरा  (हिना खान) और  नैतिक (करण मेहरा नदारद) इस वीडियो में नजर नहीं आ रहे  है. इसी वजह से  फैंस नाराज हैं और  इस शो के प्रोडयूसर राजन शाही को ट्रोल करना शुरू कर दिया है.

इस शो के प्रोड्यूसर, स्टारकास्ट और बाकी टीम एक दूसरे की तारीफ करते करते थक नहीं रही है. तभी तो हाल ही में मोहसिन खान ने अपनी टीम और फैंस को शुक्रिया अदा किया है. इसके अलावा सीरियल के प्रोड्यूसर  राजन शाही ने भी एक वीडियो के जरिए मोहसिन खान, शिवांगी जोशी और बाकी कलाकारों का बधाई दी थी.

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लेकिन  हिना खान और करण मेहरा नदारद के फैंस को  राजन शाही का यह अंदाज कुछ खास पसंद नहीं आया है, जिसकी वजह से वह ट्रोलर्स के निशाने पर आ गए हैं. ऐसे में जहां एक तरफ शो की स्टारकास्ट इन दिनों अपने 3000 एपिसोड पूरे होने को लेकर काफी उत्साहित है. वहीं दूसरी तरफ हिना खान और करण मेहरा के फैंस शो के मेकर्स को खूब बुरा भला सुना रहे हैं.

दरअसल इस वीडियो में सीरियल की 10 साल तक नजर आ चुकी पूरी स्टारकास्ट है लेकिन इसमें हिना खान और करन मेहरा नदारद नजर नहीं आ रहे हैं. इस कारण ही फैंस को राजन की यह बात पसंद नहीं आई है और वो लगातार राजन को ट्रोल कर रहे हैं.

एक यूजर ने सोशल मीडिया पर लिखा कि  आपको 3000 एपिसोड के लिए धन्यवाद, लेकिन इस वीडियो में हिना खान और करण मेहरा कहां हैं. उन्होंने आपके शो को 8 साल दिए हैं. आप ऐसा कैसे कर सकते हैं. वहीं एक और यूजर ने राजन से सवाल किया, हिना खान की एक भी तस्वीर यहां नहीं है आप ऐसा क्यों कर रहे हैं?

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वही  यूजर ने लिखा, हिना खान और करण मेहरा जैसे लोगों ने ही आपके इस शो को इस लायक बनाया है कि, यह सीरियल 3000 एपिसोड पूरे कर सके. उन दोनों ने इस कहानी की शुरुआत की थी. मोहसिन खान और शिवांगी जोशी इस जर्नी का बहुत छोटा हिस्सा है. यह शो इन दोनों की वजह से नहीं चल रहा है.

बिखर गई खुशी: भाग 1

15जुलाई, 2019 की सुबह के यही कोई साढ़े 9 बज रहे थे. महाराष्ट्र की शीतकालीन राजधानी नागपुर के ग्रामीण इलाके के सावली गांव की पुलिस पाटिल (चौकीदार) ज्योति कोसरकर अपने घर पर बैठी थी, तभी उस के पास गांव का एक आदमी आया और उस ने घबराई आवाज में उसे जो कुछ बताया, उसे सुन कर वह चौंक उठी.

वह बिना देर किए उस आदमी को साथ ले कर घटनास्थल पर पहुंची तो वहां का दृश्य देख कर स्तब्ध रह गई. पाटुर्णा-नागपुर एक्सप्रैस हाइवे से करीब 25 फीट की दूरी पर गड्ढे में एक युवती का शव पड़ा हुआ था, जिस की उम्र करीब 19-20 साल के आसपास थी. युवती के ब्रांडेड कपड़ों से लग रहा था कि वह किसी अच्छे घर की रही होगी.

उस की हत्या बड़ी ही बेरहमी से की गई थी. उस का चेहरा एसिड से जला कर विकृत कर दिया गया था. उस का एक हाथ गायब था, जिसे देख कर लग रहा था कि संभवत: उस का हाथ रात में किसी जंगली जानवर ने खा लिया होगा. घटनास्थल को देख कर यह बात साफ हो गई थी कि उस युवती की हत्या कहीं और की गई थी.

पुलिस पाटिल ज्योति कोसरकर लाश को देख ही रही थी कि वहां आसपास के गांवों के काफी लोग एकत्र हो गए.

ज्योति कोसरकर ने वहां मौजूद लोगों से उस युवती के बारे में पूछा तो कोई भी लाश को नहीं पहचान सका. आखिर ज्योति कोसरकर ने लाश मिलने की खबर स्थानीय ग्रामीण पुलिस थाने को दे दी.

सूचना मिलने पर ग्रामीण पुलिस थाने के इंसपेक्टर सुरेश मद्दामी, एएसआई अनिल दरेकर, कांस्टेबल राजू खेतकर, रवींद्र चपट आदि को साथ ले कर तत्काल घटनास्थल पर पहुंच गए. वहां पहुंच कर उन्होंने पुलिस पाटिल ज्योति कोसरकर से लाश की जानकारी ली और शव के निरीक्षण में जुट गए. उन्होंने यह सूचना अपने उच्चाधिकारियों को भी दे दी.

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वह युवती कौन और कहां की रहने वाली थी, यह बात वहां मौजूद लोगों से पता नहीं लग सकी. टीआई सुरेश मद्दामी मौकामुआयना कर ही रहे थे कि एसपी (देहात) राकेश ओला, डीसीपी मोनिका राऊत, एसीपी संजय जोगंदड़ भी मौकाएवारदात पर आ गए.

फोरैंसिक टीम भी आ गई थी. कुछ देर बाद क्राइम ब्रांच की टीम भी वहां पहुंच गई. जांच टीमों ने मौके से सबूत जुटाए. वरिष्ठ अधिकारियों के जाने के बाद टीआई सुरेश मद्दामी और क्राइम ब्रांच के इंसपेक्टर अनिल जिट्टावार इस नतीजे पर पहुंचे कि हत्यारे ने अपनी और उस युवती की शिनाख्त छिपाने की पूरीपूरी कोशिश की है.

जिस तरह उस युवती की हत्या हुई थी, उस में प्यार का ऐंगल नजर आ रहा था. हत्यारा युवती से काफी नाराज था. शव देख कर यह बात साफ हो गई थी कि युवती शहर की रहने वाली थी.

मौके की जरूरी काररवाई निपटाने के बाद पुलिस ने युवती की लाश पोस्टमार्टम के लिए जिला अस्पताल भेज दी. इस के साथ ही थाना पुलिस और क्राइम ब्रांच इस केस की जांच में जुट गईं.

पुलिस के सामने सब से बड़ी समस्या यह थी कि वह अपनी जांच कहां से शुरू करे. क्योंकि जांच के नाम पर उस के पास कुछ नहीं था. केवल युवती के बाएं हाथ पर लव बर्ड (प्यार के पंछी) और सीने पर क्वीन (दिल की रानी) के टैटू के अलावा कोई पहचान नहीं थी. फिर भी पुलिस ने हार नहीं मानी.

पुलिस ने मृतक युवती की शिनाख्त के लिए जब सोशल मीडिया का सहारा लिया तो बहुत जल्द सफलता मिल गई. इस से न सिर्फ मृतका की शिनाख्त हुई बल्कि 10 घंटों के अंदर ही क्राइम ब्रांच ने अपने अथक प्रयासों के बाद मामले को सुलझा भी लिया.

पुलिस ने जब मृतका की फोटो सोशल मीडिया पर डाली तो जल्द ही वायरल हो गई. एक से 2, 2 से 3 ग्रुपों से होते हुए मृत युवती का फोटो जब फुटला तालाब परिसर में स्थित एक पान की दुकान पर पहुंचा तो दुकानदार ने फोटो पहचान लिया.

फोटो उभरती हुई मौडल खुशी का था. पान वाले ने खुशी को कई बार एक स्मार्ट युवक के साथ घूमते और धरेरा होटल में आतेजाते देखा था.

यह जानकारी जब क्राइम ब्रांच के इंसपेक्टर अनिल जिट्टावार को मिली तो वह और ज्यादा सक्रिय हो गए. उन्होंने उस युवती की सारी जानकारी कुछ ही समय में इकट्ठा कर ली. उन्होंने खुशी के इंस्टाग्राम को खंगाला तो ठीक वैसा ही टैटू खुशी के हाथ और सीने पर मिल गया, जैसा कि मृत युवती के शरीर पर था. इस से यह साबित हो गया कि वह शव खुशी का ही था.

क्राइम ब्रांच के अधिकारियों को खुशी के इंस्टाग्राम प्रोफाइल में उस का पूरा नाम और उस के बारे में जानकारी मिल गई. उस का पूरा नाम खुशी परिहार था. वह अपनी मौसी के साथ रहती थी और राय इंगलिश स्कूल और जूनियर कालेज में बी.कौम. अंतिम वर्ष की छात्रा थी. वह पार्टटाइम मुंबई और नागपुर में मौडलिंग करती थी.

खुशी की शिनाख्त से पुलिस और क्राइम ब्रांच का सिरदर्द तो खत्म हो गया था. अब जांच अधिकारियों के आगे खुशी परिहार के हत्यारों तक पहुंचना था. पुलिस ने जब खुशी की मौसी से संपर्क किया तो उन्होंने बताया कि खुशी कई महीनों से उन के साथ नहीं है. वह अपने दोस्त अशरफ शेख के साथ लिवइन रिलेशन में वेलकम हाउसिंग सोसायटी, हजारीबाग पहाड़गंज गिट्टी खदान के पास रही थी.

पुलिस ने जब मौसी को खुशी की हत्या की खबर दी तो वह दहाड़ें मार कर रोने लगीं और उन्होंने अपना संदेह अशरफ शेख पर जाहिर किया. उन का कहना था कि घटना की रात अशरफ शेख ने उन्हें फोन कर बताया था कि खुशी और उस के बीच किसी बात को ले कर झगड़ा हो गया था. वह उस से नाराज हो कर अपने गांव चली गई है.

क्राइम ब्रांच टीम को खुशी की मौसी की बातों से यह पता चल गया कि मामले में किसी न किसी रूप में अशरफ शेख की भूमिका जरूर है. अत: क्राइम ब्रांच ने अशरफ शेख का मोबाइल नंबर सर्विलांस पर लगा दिया.

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इस के अलावा शहर के सभी पुलिस थानों को अशरफ शेख के बारे में जानकारी दे दी गई. इस का नतीजा यह हुआ कि अशरफ शेख को गिट्टी खदान पुलिस की सहायता से कुछ घंटों में दबोच लिया गया.

अशरफ शेख को जब क्राइम ब्रांच औफिस में ला कर उस से पूछताछ की गई तो वह जांच अधिकारियों को भी गुमराह करने की कोशिश करने लगा. लेकिन क्राइम ब्रांच ने जब सख्ती की तो वह फूटफूट कर रोने लगा और अपना गुनाह स्वीकार कर के मौडल खुशी परिहार की हत्या करने की बात मान ली. उस ने मर्डर मिस्ट्री की जो कहानी बताई, उस की पृष्ठभूमि कुछ इस प्रकार से थी.

21 वर्षीय अशरफ शेख नागपुर के आईबीएम रोड गिट्टी खदान इलाके का रहने वाला था. उस का पिता अफसर शेख ड्रग तस्कर था. अभी हाल ही में उसे नागपुर पुलिस ने करीब 400 किलोग्राम गांजे के साथ गिरफ्तार किया था. अशरफ शेख उस का सब से छोटा बेटा था.

बेटा नशे के धंधे में न पड़े, इसलिए अफसर ने उसे गिट्टी खदान में एक बड़ा सा हेयर कटिंग सैलून खुलवा दिया था. लेकिन उस हेयर कटिंग सैलून में अशरफ शेख का मन नहीं लगता था. वह शानोशौकत के साथ आवारागर्दी करता था. खूबसूरत लड़कियां उस की कमजोरी थीं.

अपने सभी भाइयों में सुंदर अशरफ रंगीनमिजाज युवक था. यही कारण था कि अपने दोस्तों की मार्फत वह शहर की महंगी पार्टियों और फैशन शो वगैरह में जाने लगा था.

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इसी के चलते उस की कई मौडल लड़कियों से दोस्ती हो गई थी. एक फैशन शो में उस ने जब खुशी को देखा तो वह उस का दीवाना हो गया. खुशी से और ज्यादा नजदीकियां बनाने के लिए वह उस की हर पार्टी और फैशन शो में जाने लगा था.

अगली कड़ी में पढ़ें-   आखिर  मौडल खुशी की हत्या क्यों हुई थी?

सौजन्य: मनोहर कहानियां

कश्मीर पर केंद्र का कदम

अनुच्छेदों 370 और 35 ए को अप्रभावी बनाने का भाजपा सरकार का कदम कश्मीर समस्या को हल करना नहीं था और न है, यह तो भारतभर में फैले कट्टर हिंदूभक्तों की मानसिक समस्या का हल है. कट्टर हिंदुओं को इन बातों से सिरदर्द नहीं होता कि देश में उन की औरतें ही क्यों दूसरे दर्जे के नागरिक की तरह रहती हैं, क्यों तलाक बढ़ रहे हैं, क्यों शादियों में दहेज की मांग हो रही है, क्यों शहरगांव गंद से भरे हैं, क्यों हर कोने में एक मंदिर उगता है, क्यों कांवड़ या रामलीला या हनुमान परिक्रमा की वजह से सड़कें बंद हो जाती हैं.

उन के सिर में दर्द होता था कि क्यों कश्मीर को 1947 के विलय की शर्तों के हिसाब से संविधान में बने अनुच्छेद 370 और 35 ए के तहत विशेष स्तर दिया गया है. सड़कों, चौराहों, व्हाट्सऐप चर्चाओं, ट्विटरों, समाचारपत्रों में देश के सामने सब से भीषण समस्या न गरीबी है, न बेरोजगारी है, न मौबलिंचिंग है, न दलितों को पैर की जूती समझना है. समस्या तो केवल संविधान में कश्मीर को स्पैशल स्टेटस देना है. वह अब समाप्त कर दिया गया, तो मानो कश्मीर पर विजय हो गई.

अब कट्टरपंथी हिंदू फूले जा रहे हैं मानो उन की 2 जनों की फौज ने विदेशी भूमि पर कब्जा कर लिया है और वहां की जमीन, पैसा, औरतें भरभर कर लाई जाएंगी जो भक्तों में बांटी जाएंगी.

ऐसा माहौल, इंटरनैट बंद करने के बावजूद, क्या कश्मीरियों को छुएगा नहीं? यह एक ऐसा घाव है जिसे कश्मीरी तब ही भूल पाएंगे जब उस का खमियाजा मिल जाए.

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मुसलिम आक्रमणकारियों ने 700-800 ईसवी में भारत के हिस्सों पर कब्जा करना शुरू कर दिया था. तब हम ने क्या कर लिया? 1,200 साल का इतिहास साक्षी है कि हम कभी भी उन्हें खदेड़ न सके. चित्तौडि़यों या मराठों ने मुकाबला किया पर वे उन्हें पूरी तरह अफगानिस्तान सीमा के खैबर दर्रे के उस ओर जाने को मजबूर न कर सके. 1947 में देश का बड़ा हिस्सा उन्हें देना पड़ा क्योंकि यही कट्टर हिंदू ऐसे राजा पैदा न कर पाए जो पूरे भूभाग से उन्हें निकाल सकें जिन्हें वे विदेशी मानते हैं. कश्मीर पर आज कोई फतह नहीं हुई है.

कश्मीर के निहत्थे लोगों पर भारी फौज थोप कर संविधान की इन धाराओं को समाप्त करना न कूटनीति की सफलता है न रणनीति की. भाजपा के नेता तो तब कामयाब माने जाते जब वे सहमति से इन अनावश्यक रेखाओं को प्यार के रबड़ से मिटा देते. महबूबा मुफ्ती की पार्टी के साथ मिल कर भाजपा का वहां सरकार बनाना एक अच्छा कदम था, पर बाद में घमंड ने इस समझौते को नष्ट कर दिया.

संसद में बहुमत के सहारे, कश्मीर की जनता की सहमति के बिना, जो काम किया गया है उस से कश्मीरियों के दिलोदिमाग पर खंजर के निशान बने रहेंगे, हमेशाहमेशा के लिए.

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अभिनेता : भाग 1

‘कपूर साहब… कल मुम्बई से एक मौडल आ रहा है… यहां रविन्द्रालय हौल में उसका एक शो है… उसके बाद मैंने उसे स्टूडियो बुला लिया है… उभरता हुआ मौडल है… कल को बड़ा नाम बनेगा… क्यों न कल शाम आप उसका एक इंटरव्यू ले लीजिए अपने कार्यक्रम ‘इनसे मिलिए’ के लिए…? कार्यक्रम के प्रभारी अनिल त्यागी ने अपने रेडियो उद्घोषक सागर कपूर के कमरे में घुसते हुए कहा.

‘अरे भाई आप कहें और मैं न लूं…? त्यागी साहब… आप तो बस आदेश किया करें… हम तो बैठे ही हैं इंटरव्यू लेने के लिए…’ सागर कपूर ने हंसते हुए अनिल त्यागी का स्वागत किया और उनका हाथ थाम कर कुर्सी पर बिठा दिया, ‘चाय मंगाऊं…?’ उन्होंने टेबल पर रखी घंटी की ओर हाथ बढ़ाते हुए पूछा.

‘अरे, नहीं, नहीं… अभी पी है…’ त्यागी ने उन्हें रोकते हुए कहा, ‘उस मौडल का नाम साहिल शर्मा है… कुछ बड़ी ऐड कम्पनियों के लिए मौडलिंग कर रहा है, मेरी उससे मुम्बई में एक फंक्शन के दौरान मुलाकात हुई थी, वैसे तो यहीं लखनऊ का रहने वाला है, मुम्बई में तीन-चार साल से स्ट्रगल कर रहा था, अब उसके पास काफी अच्छे प्रोजेक्ट्स हैं… एक फिल्म भी मिलने के चांस बन रहे हैं…’ अनिल त्यागी ने जानकारी देते हुए कहा, ‘इनसे मिलिए प्रोग्राम वैसे भी नौजवानों के लिए है, तो इसका इंटरव्यू अच्छा रहेगा…’

‘हां, हां… क्यों नहीं, मैं आज ही सवाल तैयार कर लेता हूं और कुछ गानों के रिकौर्ड्स भी निकाल लेता हूं…’ सागर कपूर ने हामी भरते हुए कहा.

‘इनसे मिलिए’ कार्यक्रम आजकल रेडियो पर काफी लोकप्रिय हो रहा था. किसी नौजवान बिजनेसमैन, आर्टिस्ट, डॉक्टर, इंजीनियर, राजनेता आदि जिन्होंने अपने क्षेत्र में कुछ नाम कमाया हो, उनके स्ट्रगलिंग लाइफ और कम उम्र की उपलब्धियों के बारे में बातचीत करते हुए बीच-बीच में कुछ मनपसंद गीतों के साथ यह कार्यक्रम युवाओं को काफी भा रहा है. इस प्रोग्राम के प्रभारी तो अनिल त्यागी हैं, मगर इसको तैयार करने की पूरी जिम्मेदारी सागर कपूर की ही है. सागर कपूर रेडियो में लम्बे समय से काम कर रहे हैं. एक उद्घोषक के तौर पर उनकी खास पहचान है. उनकी आवाज में जो ठहराव और भारीपन है वह सुनने वालों को अपने आकर्षण में बांध लेता है. उनकी मीठी और लच्छेदार बातों में बंधे लोग शुरू से अंत तक कार्यक्रम ‘इनसे मिलिए’ को सुनते हैं. सागर कपूर साधारण से साधारण बात को भी ऐसे नाटकीय ढंग से पेश करते हैं कि लोग सुन कर झूम उठते हैं. गानों और गप्पों के साथ-साथ वे ज्ञान की भी काफी बातें बांचते हैं, जीवन से जुड़ी ऐसी-ऐसी गूढ़ बातें, जिन्हें सुनना बड़ा अच्छा मालूम पड़ता है. यही वजह है कि बीते पंद्रह वर्षों से वह इस रेडियो स्टेशन पर जमे हुए थे. कई बार नौकरी छोड़ने की बात सोची, मगर कोई उन्हें जाने ही नहीं देता है.

सागर कपूर को आवाज से खेलने का यह अंंदाज रंगमंच की साधना के परिणामस्वरूप प्राप्त हुआ है. जवानी के दिनों में उन्होंने कई शौर्ट फिल्में कीं और दूरदर्शन व रंगमंच से भी काफी लम्बे वक्त तक जुड़े रहे. अपने आकर्षक व्यक्तित्व और अपनी आवाज में छिपी जादुई कशिश के चलते वह काफी समय तक छोटे परदे पर आने वाले धारावाहिकों में छाये रहे, लेकिन धीरे-धीरे वह चकाचौंध वाली दुनिया से निकल कर रेडियो के शांत माहौल में आ गये. जिन्दगी में बड़े उठा-पटक देखे. प्रेम, धोखा, दोस्ती, छल और न जाने किन-किन मुकामों से निकली जिन्दगी के बावन बरस किस रफ्तार से गुजर गये, पता ही नहीं चला. आज वे कई लोगों से मिलते, बतियाते, उनके इंटरव्यू लेते, मस्त-मस्त गीत सुनाते, अपनी रसभरी बातों से श्रोताओं का मनोरंजन करते, मगर दुनिया भर को अपनी रसभरी बातों से गुदगुदाने वाले सागर कपूर की अपनी जिन्दगी कितनी सूनी और खोखली थी, यह कोई नहीं जानता था. दरअसल अपनी निजी जिन्दगी के बारे में वह कभी कोई बात नहीं करते थे. करना ही नहीं चाहते थे. उन जख्मों को कुरेदना नहीं चाहते थे जो अकेले में उन्हें टीस पहुंचाते थे.

साहिल शर्मा के इंटरव्यू की पूरी तैयारी करके सागर कपूर अपने घर की ओर चल दिये. घर क्या था… सूनी दीवारें और छत…. हालांकि उनके पास किसी चीज की कमी नहीं थी… पैसा, गाड़ी, बड़ा घर और एक अच्छी नौकरी… सभी कुछ तो था, मगर किसके लिए? यह बड़ा सवाल था. यह बहुत बड़ी कमी थी. उनके पास कोई नहीं था, जिससे चीजों को शेयर करने की खुशी उन्हें मिल सके. कोई साथी नहीं था, जिससे मन की बात कही जा सके, जिससे दिन भर की गुफ्तगू की जा सके. दिन भर की थकान के बाद जिसकी गोद में सिर रखो तो प्यार का कोमल स्पर्श मिल सके.

सागर कपूर के लिए यह ऐसा अधूरा सपना था जो रातों में बड़ी टीस पहुंचाता था. अपने पुराने शहर लौटकर भी उसे शांति नहीं मिली थी. उसके पास अच्छी नौकरी थी, बंगला-गाड़ी सब था, मगर फिर भी जिन्दगी खाली-खाली सी थी. आखिर अकेले आदमी को खाने-पहनने के लिए कितना पैसा चाहिए? जो मिल रहा था वह भी जरूरत से ज्यादा ही था. सागर जिन्दगी भर पैसे के पीछे पागल रहा, खूब कमाया, खूब उड़ाया, मगर अब उसे मालूम हो चुका था कि पैसे से प्यार, साथ और सुख नहीं खरीदा जा सकता. आज वह अकेला है, बिल्कुल अकेला, यही उसका सच है… यही बात उसे डराती थी. रात को थका हुआ घर लौटता तो वहां भरे हुए सन्नाटे चीखते… सांय-सांय करते… कभी लगता जैसे ये ऊंची-ऊंची दीवारें उन पर गिर पड़ेंगी और वह दफन हो जाएगा… यहीं… किसी को कानोंकान खबर तक न होगी. मुम्बई में खूबसूरती, चकाचौंध, शोहरत और ग्लैमर से भरी जवानी जीने वाला सागर आज उम्र के आखिरी पड़ाव की ओर बढ़ता हुआ नितान्त अकेला, मायूस और टूटा हुआ था.

ऐसा नहीं था कि सागर कपूर को कभी लड़कियों की कमी रही. उनकी जिन्दगी में अनगिनत लड़कियां आयीं और गयीं. एक बेहद खूबसूरत लड़की से उन्होंने शादी भी की. उनका ख्वाब था कि शादी करेंगे तो किसी हूर से… किसी परी से… मगर वह खूबसूरत बला तो सचमुच परी ही निकली. कुछ साल रही उनके साथ, फिर एक दिन फुर्र से उड़ गयी किसी और के साथ… अपने पीछे छोड़ गयी पांच साल की कैंसरग्रस्त बच्ची. सागर कपूर ने अपनी बेटी का बहुत इलाज करवाया. कहां-कहां, किस-किस डॉक्टर को नहीं दिखाया, मगर कुछ फायदा नहीं हुआ. कई साल जानलेवा दर्द सहते-सहते एक दिन उस मासूम के प्राण-पखेरू उड़ गये.

बेटी की मौत ने सागर कपूर को तोड़कर रख दिया. वह अभिनय और थियेटर से विमुख होकर खुद में ही सिमट गये. कुछ दिन बाद अपने पुराने शहर लौट आये और यहां उद्घोषक के रूप में स्थापित हो गये. आज इसका इंटरव्यू तो कल उसका… परसों किसी और का… जिन्दगी ऐसे ही कटने लगी… अकेले…

परपीड़ा सुख : 3 तलाक और 370

इसलाम से 3 तलाक और जम्मू कश्मीर से धारा 370 के हटाए जाने से किसी का कोई खास नफानुकसान नहीं है, लेकिन हिंदू इस से खुश हैं तो इस की अपनी वजहें भी हैं कि हिंदू राष्ट्र निर्माण के रास्ते पर मोदी सरकार ने अपना पहला कदम रख दिया है जिस में उन की उम्मीदें और बढ़ गई हैं लेकिन…

एक शूर्पणखा थी. वह वैसी कुरूप और वीभत्स नहीं थी जैसी कि भक्तों के दिलोदिमाग में बैठा दी गई है. बल्कि, वह एक निहायत ही खूबसूरत स्त्री थी. शूर्पणखा की नाक कटने का प्रसंग हर कोई जानता है कि वह लक्ष्मण ने काटी थी.

शूर्पणखा एक स्वतंत्र माहौल में पलीबढ़ी युवती थी. राक्षस कुल में आर्यों जैसी बंदिशें औरतों पर नहीं थीं और न ही वे ब्राह्मणों व ऋषिमुनियों के इशारे पर नाचने वाली समझी जाती थीं. उन में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का बड़ा महत्त्व था ठीक वैसा ही जैसा आज यूरोप के लोगों में दिखता है.

वनवासी शूर्पणखा भाइयों राम और लक्ष्मण पर रीझ गई और उस ने बेहद विनम्रता से उन से प्रणय निवेदन कर डाला. इन दोनों को पूरा हक था कि वे उस का प्रस्ताव ठुकरा देते. लेकिन इन शूरवीर क्षत्रियों ने उस की नाक ही काट डाली. सुनसान जंगल में एक अबला की नाक काट डालना 2 पुरुषों के लिए कोई बहादुरी वाला या मुश्किल काम नहीं था. इन आर्य पुत्रों ने ऐसा ही किया.

इस के बाद की रामायण भी हर कोई जानता है. राम और लक्ष्मण को जो परपीड़ा सुख मिला था वही आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह सहित ऊंची व निचली जातियों के हिंदुओं को मिल रहा है कि देखो, श्रावण के पिछले सोमवार तीन तलाक कानून बनाया था और इस सोमवार कश्मीर समस्या हमेशा के लिए सुलटा या सुलझा दी.

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भला किस का

इस में देश का और हिंदुओं का कोई भला नहीं है. हां, कश्मीर के मुसलमान जरूर अब तमाम दुश्वारियों से घिरने वाले हैं ठीक वैसे ही जैसे बस्तर के आदिवासी सालों से घिरे हुए हैं. उन के एक तरफ सेना है तो दूसरी तरफ नक्सली हैं, जो उन्हें न तो सुकून से जीने देते हैं और न ही चैन से मरने देते हैं.

जिन 10-12 फीसदी शिक्षित और भरपेट हिंदुओं को शूर्पणखा के प्रसंग का उद्धरण कश्मीर पर देने से हैरत हो रही हो, उन्हें प्रतिक्रिया देने से पहले एक बार किसी इतिहासकार से फोन कर पूछ लेना चाहिए कि क्या वाकई, वे भारत के मूल निवासी हैं. अगर नहीं हैं तो कौन हैं और कैसे यहां के राजा बन बैठे. यह एक लंबी बहस की बात है लेकिन यह स्थापित तथ्य है कि यह देश, जिस में हम रह रहे हैं व जिसे गर्व से हमारा कहते हैं, मूलतया उन आदिवासियों का है जो आज भी जंगलों में जानवरों सी जिंदगी जी रहे हैं.

यकीन मानें और चाहें तो अपने स्रोतों व संपर्कों के जरिए तसल्ली कर लें कि आदिवासी इलाकों में कश्मीर से धारा 370 को हटाए जाने को ले कर कोई जश्न नहीं मन रहा है, न वहां मिठाइयां बंट रही हैं और न ही वे भूखेनंगे व अभावग्रस्त लोग कश्मीर में प्लौट खरीदने की सोच रहे हैं. वे तो अपनी ही जमीनों पर खुद ही मजदूरी कर रहे हैं.

खुद को सांत्वना

370 पर हंसीठिठोली 10-12 करोड़ ऊंची जाति वाले कथित हिंदू कर रहे हैं और वे ठीक ही कह रहे हैं कि भाजपा को 303 सीटें कोई कबड्डी खेलने को नहीं दी थीं. जिस मकसद से दूसरी बार नरेंद्र मोदी और भाजपा को भारी बहुमत से चुन कर भेजा था वह एकचौथाई पूरा हो गया है. बाकी रह गए हैं राममंदिर निर्माण और जातिगत आरक्षण खत्म कर वर्णव्यवस्था बहाल करना, तो वे भी 2024 नहीं तो 2029 तक पूरे हो ही जाएंगे. यानी देश पूरी तरह हिंदू राष्ट्र हो जाएगा जो आरएसएस का सालों पुराना सपना है.

एक उत्तेजना और रोमांच पूरे देश में फैला हुआ है. लोग बहादुर मोदी और शाह को सलाम कर रहे हैं कि जो वे कर सकते हैं वह किसी और के वश की बात है भी नहीं. रावण जैसे ताकतवार शासक की बहन की नाक राम और लक्ष्मण के अलावा कोई और काट भी नहीं सकता था.

370 को ले कर कुछ हिंदू ग्लानि से भी भरे हुए हैं जिसे दूर करने के लिए वे तरहतरह की दलीलें भी दे रहे हैं कि अब कश्मीर में यह हो जाएगा. और वह भी हो जाएगा, मसलन, वहां आतंक राज खत्म हो जाएगा. वहां के लोगों यानी मुसलमानों की गरीबी दूर हो जाएगी. नएनए उद्योगधंधे चालू होंगे और कारखाने बनेंगे. कालेज और विश्वविद्यालय खुल जाएंगे वगैरहवगैरह.

ये मुट्ठीभर हिंदू किस बात की सांत्वना खुद को दे रहे हैं और क्यों दे रहे हैं, इस सवाल का जवाब बेहद साफ है कि वे दरअसल इस बात से सहमत नहीं कि शूर्पणखा की नाक काटी जानी जरूरी नहीं थी. उन के मुताबिक, रावण को मारने के लिए वाल्मीकि कोई दूसरा मिथक भी गढ़ सकते थे.

सार यह है कि हिंदू सिर्फ इस बात से खुश हैं कि मोदीशाह की जोड़ी ने मुसलमानों को सबक सिखा दिया. यह अगर खुशी या जश्न मनाने वाली बात है तो पूरे मुसलमानों को पाकिस्तान भेज देने का आइडिया या एजेंडा भी हर्ज की बात नहीं. लेकिन, अहम सवाल है कि इस के बाद क्या ज्योमेट्री की तरह मान लिया जाए कि पूरे देश से मुसलमानों को खदेड़ दिया गया है, तो अब करने को क्या बचा?

आलीशान ड्राइंगरूमों में बैठे हिंदुओं यानी मुख्यधारा के निशाने पर अब क्या है, यह ऊपर बताया जा चुका है. पिछले पखवाड़े देश की अर्थव्यवस्था और जीडीपी कितने पायदान लुढ़की, यह इन की चिंता का विषय नहीं. उत्तर प्रदेश के उन्नाव का विधायक कैसे गुंडाराज चला रहा था, इन के लिए यह सोचने वाली बात भी नहीं.

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जश्न परपीड़ा सुख का

सोचने वाली बात यह है कि कलियुग के महादेव अब कब ऐसी व्यवस्था करते हैं कि हमारे बालबच्चे ऐशोआराम से जिएं. कब दलित दोबारा हमारे घर के सामने से निकलें तो जूते उतार कर अपने सिर पर रखें. उस की यह हीनता ही हमारी श्रेष्ठता है. यह बात संविधान में लिखी हो न लिखी हो, लेकिन मनु महाराज तो अपनी स्मृति में लिख गए हैं. तो, यह जो जश्न मन रहा है वह परपीड़ा सुख का है, बेकुसूर शूर्पणखा की नाक कटने का है.

हिंदू बड़े फख्र से कह रहे हैं कि मोदीजी ने नेहरू का पाप धो दिया या गलती सुधार दी.

लेकिन मनुस्मृति की गलतियां कौन सुधारेगा, इस का जवाब वे बड़ी मासूमियत से यह कह कर देते हैं कि छुआछूत, जातिगत भेदभाव वगैरह अब कहां हैं. अब तो सब बराबर हैं. उलटे, आरक्षण के चलते हमारे बच्चे पिछड़ रहे हैं यानी इसे भी तीन तलाक और 370 की तरह खत्म किया जाए, क्योंकि मुसलमानों की तरह दलितों का भी कोई सियासी रहनुमा नहीं बचा है. कहने को जो मायावती बची थीं, वे भी मनुवादियों के साथ हो ली हैं. जो गलती महबूबा मुफ्ती ने भाजपा से हाथ मिला कर की थी वही मायावती कर रही हैं.

यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि 370 का दलितों और आरक्षण से क्या कनैक्शन? कनैक्शन यह है कि हिंदूवादी भाजपा हिंदुत्व के अपने एजेंडे को अमल में लाने को उतारू हो आई है और उसे रोकने वाला कोई है नहीं. मुख्यधारा वाले हिंदू कहते हैं और बड़े भोलेपन से कहते हैं कि देश अगर हिंदूराष्ट्र हो भी जाए तो क्या हर्ज है. हर्ज तो इस में भी नहीं कि आप मुसलमानों को देश से खदेड़ दें.

हर्ज तो इस बात में भी नहीं कि दलितों से आरक्षण छीन लिया जाए और उन्हें सदियों पहले वाली स्थिति में ढकेल दिया जाए. अभी 2 फीसदी दलित भी सरकारी नौकरियों में नहीं हैं और न ही उन के पास करोड़ोंअरबों का कारोबार है. वे आज भी सड़कों पर झाड़ू लगा रहे हैं, चमड़े के छोटेमोटे कारोबार में लगे हैं और गौ तस्करी के आरोप में पिटतेमरते भी रहते हैं. तेली बदस्तूर तेल निकालने में मशगूल है जबकि काछी सब्जीभाजी उगा रहे हैं. नाई अभी हजामत ही बना रहा है. धोबी, घाट पर कपड़े धो रहा है. बसोड बांस के आइटम बेच कर जैसेतैसे पेट भर रहा है. केवट नाव चलाने और मछलियों के पुश्तैनी कारोबार में लगा है.

अब इन में से भी जो मुट्ठीभर सरकारी नौकरी हासिल कर पैसे वाले बन गए हैं, उन्हें गले लगा लो और उन से दानदक्षिणा भी लो, जिस से ये अगले जन्म में फिर शूद्र योनि में पैदा न हों. यह सब मुख्यधारा वाले हिंदुओं को नहीं दिखता और न ही वे इसे देखना व दिखाना चाहते हैं. वे कहते हैं सब ठीकठाक है, ये पुरानी बातें हैं और थोड़ाबहुत कुछ हो भी रहा है तो उस पर हायहाय बेवजह की और हिंदुत्व विरोधी बात है.

उबरें पुरानी मानसिकता से

हम सभी को इस पुरानी मानसिकता से उबरना चाहिए. ये लोग बेहतर जानते हैं कि शहरों के फुटपाथ और झुग्गियों में जानवरों सी जिंदगी जी रही बड़ी आबादी कोई ब्राह्मण, क्षत्रियों, बनियों या कायस्थ जैसी ऊंची या दूसरी ब्राह्मणपूजक जातियों की नहीं है. इसलिए, पूरे दमखम से कहो कि अब दलित हैं कहां और जो हैं वे तो बाबू और साहब बने हमारी छाती पर मूंग दल रहे हैं. ऐसे झूठों और दोगलों का कोई इलाज नहीं है जो खुद एक सिमटे दायरे में रहते हैं और कोशिश यह करते हैं कि सभी उसी दायरे में आ जाएं. और जो आने से इनकार करें उन्हें तरहतरह से बहिष्कृत करो और जैसे भी हो उन की हिम्मत तोड़ो, ताकि ब्राह्मण राज कायम करने में कोई अड़ंगा न आए.

370 हटाए जाने पर पहली बार आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने नरेंद्र मोदी को बधाई दी, तो लगा मानो कोई वरिष्ठ या विश्वामित्र राम को आशीर्वाद दे रहा हो कि पुत्र, लगे रहो. अभी तो ऐसे कई और यज्ञ व अनुष्ठान हमें करने हैं. तुम्हारी भूमिका तो निमित्त है. प्रजा हमारे अनुकूल है, लिहाजा, अगले आदेश की प्रतीक्षा करो. वह शुभदिन निकट है. जब आदिवासियों और वनवासियों का प्राकृतिक संपदाओं से संपन्न यह देश पूरी तरह हम आर्यों का होगा.

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निजी सैक्टर जनता का नहीं खुद का फायदा

निजी सैक्टर में भवन निर्माण, कूरियर सेवाएं, स्कूल, अस्पताल और बस की सेवाएं अपनी उम्मीदों पर खरी नहीं उतर रही हैं. बावजूद इस के सरकार रेल को निजी सैक्टर में देने की शुरुआत कर रही है. रेलवे का निजीकरण किसी भी तरह से लाभ का सौदा नहीं होगा. रेलवे में स्टेशन से ले कर ट्रेनों में खानपान और कंबलचादर तक का काम निजी सैक्टर के हाथों में है.

यह हालत सही नहीं है. कुली से ले कर शादी के पंडाल तक हर जगह निजी सैक्टर प्रभावी हैं. सभी जगह इन का काम चलताऊ है. ऐसे में निजी सैक्टर का न तो भरोसा रहा है न ही संतोष.

साल 2019-20 के बजट में सरकार ने इस बात पर जोर दिया कि रेलवे के विकास के लिए निजीकरण की जरूरत है. इस के लिए सालाना 5 लाख करोड़ रुपए की जरूरत है, रेलवे के अपने भरोसे यह काम नहीं हो रहा है तो इस में अधिक से अधिक निवेश की जरूरत है.

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा, ‘‘रेलवे में 2030 तक 50 लाख करोड़ रुपए के निवेश की जरूरत है. मौजूदा समय में हर साल केवल 1.5-1.6 लाख करोड़ रुपए की ही व्यवस्था पूंजी के रूप में हो पा रही है. ऐसे में रेलवे की परियोजनाओं को पूरा करना संभव नहीं होगा. सो, रेलवे ट्रैक निर्माण, रोलिंग स्टाक निर्माण, यात्री और माल सेवाओं में सुधार के लिए निजी भागीदारी की जरूरत है.’’

अब ट्रेनों को चलाने में भी निजी सैक्टर की भागीदारी शुरू हो चुकी है. उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से दिल्ली के आनंद विहार रेलवे स्टेशन के बीच ‘तेजस’ ट्रेन चलनी है. यह देश की पहली निजी सैक्टर से चलने वाली टे्रन होगी.

रेलवे में प्राइवेटपब्लिक पार्टनरशिप यानी पीपीपी मौडल लागू करने पर जोर दिया जा रहा है. रेलवे में बहुत सारे काम अब इस योजना के तहत हो रहे है. आईआरसीटीसी भी कार्पोरेशन में काम कर रही है.

रेलवे में यात्रियों के लिए प्रयोग में आने वाली चादर, बैडशीट, तकिया, कंबल की धुलाई भी बाहरी लोगों की मदद से हो रही है. यात्रियों को इस में किसी भी तरह का संतोष नहीं है. ऐसे में यह साफ है कि रेलवे के निजीकरण से कोई लाभ नहीं है.

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अच्छा नहीं है निजीकरण का फैसला

सरकारी विभागों के निजीकरण का फैसला जनता के हित में नहीं है. यह बात केवल रेलवे में ही नहीं दिखाई देती, दूसरे विभागों में भी साफ दिखती है. डाक विभाग ने पत्र और दूसरे जरूरी दस्तावेज पहुंचाने के लिए स्पीड पोस्ट सेवा शुरू की थी. इस में एक शहर से दूसरे शहर तक दूरी के हिसाब से यह पैकेट 24 से 48 घंटे के बीच पहुंच जाते थे. इस की कीमत 30 से 60 रुपए होती थी. धीरेधीरे इन सेवाओं में कटौती होने लगी.

इस से लोग सरकार की स्पीड सेवा को छोड़ कर निजी कूरियर के भरोसे होने लगे. नतीजा यह हुआ कि प्रयागराज से दिल्ली के बीच एक पैकेट भेजने के लिए 500 रुपए देने पड़ते हैं. तब वह कूरियर अगले दिन दिल्ली पैकेट पहुंचाने का काम करता है. करीबकरीब देखें तो 10 गुना ज्यादा पैसा देना पड़ रहा है. पैकेट बड़ा होने पर यही कीमत 500 से बढ़ कर 800 रुपए तक हो जाती है.

पोस्ट औफिस के जरिए होने वाली खतोकिताबत अब बंद हो गई है. अब पोस्ट औफिस से ज्यादा कूरियर सेवाओं पर जनता निर्भर हो गई है. इस के बाद भी अब न तो जनता को समय पर सही से सेवाएं मिल रही हैं और न ही सुरक्षित सेवाएं.

पोस्ट औफिस की साधारण सेवा ही नहीं, रजिस्टर्ड डाक तक अब बुरे दौर से गुजर रही है. नतीजतन, कूरियर का प्रभाव बढ़ रहा है. रजिस्टर्ड डाक से अधिक पैसा निजी कूरियर को देना पड़ता है. इस के बाद भी सब से अधिक पैकेट निजी कूरियर से गायब हो रहे हैं. ऐसे में डाक सेवाओं के निजीकरण का कोई अच्छा प्रभाव देखने को नहीं मिल रहा है.

डाक सेवाओं के प्रभावित होने और कूरियर सेवाओं के प्रभावी होने से पत्रिकाएं और अखबार भेजना मुश्किल हो गया है. इस की वजह से पढ़ने वाले लोगों को समय पर किताबें नहीं मिल रही हैं. किताबों की एक पीढ़ी संकट के दौर से गुजर रही है.

सुविधाजनक नहीं निजी परिवहन सेवाएं

रेलवे और डाक सेवाओं के बाद अगर परिवहन सेवाओं का हाल देखें तो वहां भी हालत बेहद खराब है. शहर के अंदर और बाहर दोनों ही जगहों पर सरकारी बस सेवाओं की जगह पर निजी बस सेवाएं चल रही हैं. इन में कुछ एसी बसें और गाडि़यां हैं जिन का किराया सरकारी बसों के किराए से कई गुना ज्यादा है. इन के समय से पहुंचने की हालत में कोई सुधार नहीं है.

लखनऊ से इलाहाबाद (अब प्रयागराज) के बीच वोल्वो बस सेवा जब शुरू हुई थी तब बस के किराए में भारी अंतर था. वोल्वो का किराया 500 रुपए से ऊपर था. उसी समय साधारण सेवाएं 150 रुपए में थीं. शुरुआत में वोल्वो बसों की हालत अच्छी थी, अब हालत खराब हो गई है पर किराया वैसा ही है. ऐसे में अब यह कहीं नहीं लगता कि जो किराया निजी बसें वसूल रही हैं वह किसी तरह से उतनी सेवाएं दे रही हैं.

जो निजी साधारण सेवाओं के रूप में शहर और शहर के बाहर चल रही हैं, उन की हालत बेहद खराब है. ये बसें यात्रियों से भरी होती हैं. सामान रखने की जगह नहीं होती. इन से बेहतर सरकारी बसें होती हैं. ऐसे में निजी सेवाओं की हालत यहां भी बेहद खराब है. निजी सेवाओं के साथ जनता का अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा है.

केवल एकदो सैक्टर की बात नहीं है, हर सैक्टर में यही हो रहा है. रेलवे, डाक, परिवहन के बाद अगर हम शहरों में घर बनाने वाली संस्थाओं यानी प्राइवेट बिल्डर्स का हाल देखें तो साफ पता चलता है कि जनता को ठगने का सब से बड़ा काम प्राइवेट बिल्डर्स ने किया है. इस के पहले सरकारी संस्थाएं मकान और कालोनी बनाती थीं और वे हर वर्ग के आर्थिक स्तर के हिसाब से मकान बनाती थीं. अब प्राइवेट बिल्डर्स अपने लाभ के हिसाब से मकान बना रहे हैं.

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न सुविधा, न ईमानदारी

मकान बनाने वाले प्राइवेट बिल्डर्स तो पैसा लेने के सालोंसाल बाद भी लोगों को मकान नहीं दे रहे हैं. कईकई बिल्डर्स जनता का पैसा हजम कर गए, पर मकान नहीं दिया. प्राइवेट सोसाइटी बना कर लोगों ने काम करना शुरू किया.

यहां भी जमीनों की खरीदफरोख्त में भारी घपला होने लगा. सरकारी संस्थाओं द्वारा बनाए मकान या कालेनी देखें और प्राइवेट संस्था के बनाए मकान व कालोनी देखें तो पता चलता है कि हर सुविधा के लिए उस से कई गुना ज्यादा पैसा देना पड़ता है.

प्राइवेट बिल्डर्स से फ्लैट खरीदने वाले को हर सुविधा के लिए अलग से इतना पैसा देना पड़ता है कि वह अपना फ्लैट भी किराए का फ्लैट समझने लगता है. सरकारी कालोनियों में पर्यावरण सुविधाओं का ध्यान रखते हुए पार्क, फुटपाथ और सड़क बनती है, प्राइवेट बिल्डर्स पार्क, फुटपाथ और सड़क के नाम पर भी पैसे वसूल करते हैं.

सरकारी कामकाज में अगर रिश्वत का जोर है तो प्राइवेट बिल्डर्स में धोखाधड़ी का बोलबाला है. रातोंरात पैसा ले कर भाग जाने वाले प्राइवेट बिल्डर्स भी देखे गए. अपने मकान में रहने का सपना देखने वाले लोग ठगी का शिकार हो जाते हैं.

ऐसे में निजी सैक्टर अब जनता में अपना भरोसा खो चुका है. निजी सैक्टर वाले लोग जनता और समाज के लिए नहीं, बल्कि अपने मुनाफे के लिए काम करते हैं. शिक्षा और अस्पताल को देखें तो यह साफ लगेगा कि सुविधा के नाम पर प्राइवेट सैक्टर किस तरह से जनता को लूट रहा है.

सरकारी अस्पतालों में भी अब सारा काम निजी सैक्टर के सहयोग से चल रहा है. खासतौर पर सब से अधिक परेशानी बीमारियों की जांच में आने लगी है. निजी पैथोलौजी में जांच कराना बेहद महंगा पड़ रहा है. कई बार जांचें दवाओं से भी महंगी होती हैं.

बेरोजगारी दूर करने में असफल

किसी भी बिजनैस का एक अहम काम यह होता है कि वहां पर रोजगार उपलब्ध होता है. हाल के कुछ सालों में यहां भी हालात बुरी तरह से खराब हुए हैं. सरकारी सैक्टर और निजी सैक्टर से ले कर वेतन तक में बहुत अंतर है. एक सरकारी स्कूलटीचर सुबह 8 बजे से 4 बजे तक की ड्यूटी देता है और उस का शुरुआती वेतन 40 हजार रुपए होता है.

निजी स्कूलों में टीचर का वेतन 5 हजार से 8 हजार रुपए के बीच शुरू होता है. इस के बढ़ने का कोई तय फार्मूला नहीं है. स्कूल मालिक के एहसान पर है कि वह कितना बढ़ा दे. निजी स्कूलों में पढ़ाने वाले टीचर अधिक समय तक भी काम करते हैं. उन के पढ़ाए बच्चों का परीक्षा परिणाम भी ज्यादा अच्छा होता है. इस के बाद भी उन्हें वेतन कम मिलता है. देखने वाली बात यह भी है कि टीचर को कम पैसे देने वाले स्कूल बच्चों से बहुत फीस वसूल करते हैं.

निजी सैक्टर जनता से भरपूर पैसा वसूल करने के बाद भी अपने कर्मचारियों को उन की जरूरत और क्षमता के अनुसार वेतन व सुविधाएं नहीं देते हैं. उन की शैक्षिक योग्यता के आधार पर वेतन और सुविधाएं तय न होने से रोजगार के अवसर अच्छे नहीं हैं. निजी सैक्टर में काम करने वालों के जीवनस्तर में कोई सुधार नहीं है.

साफ है कि सरकार रेल को निजी सैक्टर में ले जाने का जो काम कर रही है वह सही नहीं है. बहुत सारे उदाहरण बताते हैं कि निजी सैक्टर केवल अपने मुनाफे के लिए काम कर रहे हैं. उस से पब्लिक की सुविधाओं और पब्लिक के बजट का कोई खयाल नहीं है.

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निजी सैक्टर के साथ कठिनाई यह है कि व्यापारियों में जनता की सेवा कर के मुनाफा कमाने की भावना कम और लूटने की भावना ज्यादा हो गई है. व्यापारियों के व्यावसायिक खर्च भी बढ़ गए हैं व व्यक्तिगत भी. और व्यापार में मंदी, प्रतिस्पर्धा व तकनीक का ज्ञान न होने के कारण वे घटिया सेवा देते हैं.    –

बच्चों को रोज सुनाएं कहानी

एक था राजा एक थी रानी चलो भई शुरू हो गई एक नई कहानी. जी हां बचपन की कुछ खट्टी  कुछ मीठी यादें ही हैं कहानियां. जो कभी सुना  करते  थे.  दादी और नानी की जुबानी. पहले संयुक्त परिवार हुआ करते थे तो शाम ढलते ही सबकी  एक जुट हो कर जमा करती थी. कहानियों की मंडली और बच्चे सब भूल कर रम जाते थे इन कहानियों में,कभी कभी तो बड़े भी  इस मंडली का हिस्सा बन जाया करते थे. लेकिन आज कल  टीवी और इंटरनेट की दुनिया ने बचपन को तो छिना ही है, साथ ही कहानियों को भी गुम  कर दिया है . बचपन भले ही बेफिक्र होता है पर जाने अनजाने उलझ सा जाता है. कहानियां एक सहारा है उस उलझन से निकलने का.

जोड़े संस्कृति से

बच्चों को पारम्परिक ,ऐतिहासिक कहानियां अवश्य सुनाये क्योंकि आजकल बच्चे अंग्रेजी स्कूल मे पढ़ते है जिसकारण अपनी सभ्यता और परम्पराओं से दूर होते जा रहे हैं.

काल्पनिक दुनिया दिखाएं

बच्चा कहानी सुनता ही नहीं है बल्कि गढ़ता भी है वो  कहानी सुनतेसुनते वर्ण, स्थान आदि की कल्पना करने लगता  है. इससे उनकी  सोच अच्छी होती  है और दिमाग को क्रिएटिव बनती है .

खुद बनते हैं वक्ता

जब बच्चा कहानी सुनता है तो वो खुद भी कुछ समय पश्चात एक कहानी वक्ता बन जाता है और जो कहानी वो सुनता है उन्ही मे अपने गठजोड़ लगा कर अपनी एक मनगढ़त कहानी रचने लगता है.

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शब्दावली होती है अच्छी

बच्चो का शब्दों का ज्ञान बढ़ता है उनकी सोच को सकारत्मक करती हैं कहानी .उन्हे दुनिया भर की कहानी सुनने का शोक होता है जिससे उन्हे नई नई बातें सीखने को मिलती है व उनका ज्ञान बढ़ती  हैं .

टीवी और इंटरनेट से बढ़ती है दूरी

अगर बच्चों को  रोज नई नई कहानियां सुनाते है तो वह इंटरनेट से दूर रहेंगे. इससे वह स्वस्थ भी रहेंगे और परिवार में प्यार भी बढ़ेगा.

याद करने की शक्ति बढ़ेगी

कहानियां बच्चों की याद करने की शक्ति बढ़ाने  में काफी मदद करती हैं. आप  बच्चे को पहले से सुनाई कहानी कुछ दिनों बाद पूछ सकते है या फिर सुनाई कहानी से सवाल पूछ सकते हैं जिससे उनका दिमाग तेज होगा.

मेरा अनुभव 

पावनि मेरी बेटी फोन  बहुत देखती थी और कुछ खाना या पीना होता था तो फोन देख कर ही पीती थी एक दिन मैंने उसे कुछ गलत वीडियो देखते हुए देखा .बच्चा है उसे नहीं पता की क्या गलत है क्या सही. लेकिन मैने उसी दिन ठान लियाऔर कहानियां सुनती  और तब वो अपना खाना या दूध पीती. कुछ दिन तो उसने फोन की मांग की लेकिन अब वो सिर्फ कहानियां सुनती है, सुनती ही नहीं बल्कि अपनी मनगढ़ंत कहानियां भी मुझे सुनाने लगी है. वो महज 3 साल की है लेकिन उसकी  कहानियां बहुत ही सकरात्मक होती है. सच कहूं तो ये बदलाव मुझे बहुत सुखद अनुभूति देता है की मेरा एक कड़ा कदम मेरी  बच्ची  का भविष्य सवार सकता है.

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