Download App

बिलखता मौन-भाग 3 : किरण कमरे में क्यों बंद थी?

‘‘मिस हैलन, तुम्हें तो पता है. कभीकभी बच्चे कितने निर्दयी हो जाते हैं. प्लेग्राउंड में मैं सदा ही रंगभेद का निशाना बनती रही. कानों में अकसर सुनाई देता, देखोदेखो, निग्गर (अफ्रीकन), पाकी (पाकिस्तानी), हाफकास्ट, बास्टर्ड वगैरावगैरा नामों से संबोधित किया जाता था. कभी कोई कहता, ‘उस के बाल और होंठ देखे हैं? स्पैनिश लगती है.’ ‘नहींनहीं, वह तो झबरी कुतिया लगती है.’ ‘स्पैनिश भाषा का तो इसे एक अक्षर भी नहीं आता.’ ‘फिर इंडियन होगी, रंग तो मिलताजुलता है.’ पीछे से आवाज आई, ‘जो भी है, है तो हाफकास्ट.’ ‘स्टूपिड कहीं का, आगे से कभी हाफकास्ट मत कहना, आजकल इस शब्द को गाली माना जाता है. मिक्स्ड रेस कहो.’ ‘तुम्हारा मतलब खिचड़ी निग्गर, पाकी, स्पैनिश और इंडियन या फिर स्ट्यू’ और सब जोर से खिलखिला कर हंस पड़े.

‘‘मुझे देखते ही उन के चेहरों पर अनेक सवाल उभरने लगते जैसे पूछ रहे हों- नाम इंडियन, किरण. बाल मधुमक्खी का छत्ता. रंग स्पैनिश जैसा. नाक पिंगपोंग के गेंद जैसी. होंठ जैसे मुंह पर रखे 2 केले. उन से फूटती है अंगरेजी. तुम्हीं बताओ, तुम्हें हाफकास्ट कहें या फोरकास्ट. सब के लिए मैं एक मजाक बन चुकी थी.

‘‘सभी मुझ जैसी उलझन को सुलझाने में लगे रहते. उन की बातें सुन कर अकसर मैं बर्फ सी जम जाती. रात की कालिमा मेरे अंदर अट्टहास करने लगती. उन के प्रश्नों के उत्तर मेरे पास नहीं थे. मैं स्वयं अपने अस्तित्व से अंजान थी. मैं कौन हूं? क्या पहचान है मेरी? मैं बिना चप्पू के 2 कश्तियों में पैर रख कर संतुलन बनाने का प्रयास कर रही थी, जिन का डूबना निश्चित था. ‘‘शुरूशुरू में हर रोज स्कूल जाने से पहले मैं आधा घंटा अपने तंग घुंघराले बालों को स्ट्रेटनर से खींचखींच कर सीधा करने की कोशिश करती. पर कभीकभी प्रकृति भी कितनी क्रूर हो जाती है. बारिश भी ऐनवक्त पर आ कर मेरे बालों का भंडा फोड़ देती. वे फिर घुंघराले हो जाते.’’

‘‘किरण, अब बस करो, पुरानी बातों को कुरेदने से मन भारी होता है,’’ वार्डन ने किरण को समझाते हुए कहा.

‘‘हैलन प्लीज, आज मुझे कह लेने दो. मेरे देखतेदेखते चिल्ड्रंस होम से कई बच्चों को होम मिल गए (फोस्टर होम जहां सामान्य परिवार के लोग इन बच्चों की देखरेख के लिए ले जाते हैं). कुछ बच्चे गोद ले लिए गए. मैं भी आशा की डोर थामे बैठी थी. इसी उम्मीद के साथ कि एक दिन मैं भी किसी सामान्य परिवार का सुख भोग सकूंगी. मेरा चेहरा तथा बाल देखते ही लोग भूलभुलैया में फंस जाते. तब मेरा नंबर एक सीढ़ी और नीचे आ जाता. मेरा होना ही मेरे लिए जहर बन चुका था. मेरी आंखों की मूक याचना कोई नहीं सुन सका. बिक्की को बहुत अच्छे फोस्टर पेरैंट्स मिल गए थे. हम दोनों ने वादा किया कि हर शनिवार को हम एकदूसरे से जरूर मिलेंगे. मुझे उस का जाना बेहद खला. मन ही मन मैं उस के लिए खुश थी कि अब उसे 24 घंटे अनुशासित जीवन नहीं जीना पड़ेगा. घड़ी के चारों ओर परिक्रमा नहीं करनी पड़ेगी.

‘‘बिक्की तथा मेरा हर शनिवार को मिलना जारी रहा. आज शनिवार था. मैं ने मिलते ही उसे, खुशखबरी दे दी कि फीस्टरिंग बाजार में मेरा नंबर भी आ गया है. आज फोस्टर पेरैंट ने वार्डन से कौंटैक्ट किया था, अब वे मुझे गोद ले लेंगे. ‘‘हैलन, मेरे नए परिवार में जाने के इंतजार में दिन रेंग रहे थे. मानो वक्त की सुई वहीं थम गई हो. कुछ दिनों बाद वह दिन आ ही गया. फैसला मेरे हित में हुआ.

‘‘मेरे वनवास की अवधि पूरी होने वाली थी. वीकेंड में अपना सामान बांधे सहमेसहमे कदमों से मैं अपने नए सफर की ओर चल दी. पिछले 7 वर्षों से जो अपना घर था, उसे छोड़ते वक्त इस जीवन ने मुझे सुखदुख के अर्थ बहुत गहराई से समझा दिए थे. बिक्की का घर एडवर्ड के घर के पास ही था.

‘‘बिक्की और मेरा घर पास होने के कारण अब तो हम होमवर्क भी एकसाथ बैठ कर करते थे. मिसेज एडवर्ड पहले तो बहुत अच्छी थीं लेकिन धीरेधीरे उन्होंने घर के सभी कामों का उत्तरदायित्व मेरे कंधों पर डाल दिया. घर के कामकाज मेरी पढ़ाई में दखलंदाजी करने लगे. जिस का प्रभाव मेरी परीक्षा के परिणामों पर पड़ा. मुझे महसूस होने लगा कि मैं उन की बेटी कम, नौकरानी अधिक थी. हमारा स्कूल बहुत बड़ा था. जिस में नर्सरी, प्राइमरी, जूनियर तथा सैकंडरी सभी स्कूल शामिल थे. उन के प्लेग्राउंड अलगअलग थे. क्रिसमस की छुट्टियों से पहले स्कूल में क्रिसमस का समारोह था. सभी बच्चों को जिम्मेदारियां बांटी गई थीं. मेरी ड्यूटी अतिथियों को बैठाने की थी. अचानक मैं ने देखा, मैं जोर से चिल्लाई, ‘बिक्की, बिक्की, इधर आओ, इधर आओ, वो, वो देखो मां, मेरी मां, असली मां.’ मेरी आवाज भर्राई. टांगें कांपने लगीं. बिक्की ने मुझे कुरसी पर बिठाया. ‘मां’ मेरे मुंह से निकलते ही मेरा मन मां के प्रति प्रेम से ओतप्रोत हो गया. आंखों का सैलाब रुक न पाया.

‘‘‘शांत हो जाओ किरण, तुम्हें शायद गलतफहमी हो.’

‘‘‘वो देखो, नीले सूट में,’ मेरा मन छटपटाने लगा.

‘‘‘क्या तुम्हें पूरा यकीन है. उन्हें देखे तो तुम्हें 7-8 वर्ष हो गए हैं.’

‘‘‘क्या कभी कोई अपनी ‘मां’ को भूल सकता है?’

‘‘‘उन के साथ यह बच्चा कौन है?’

‘‘‘मैं नहीं जानती. इस का पता तुम्हें लगाना होगा, बिक्की.’

‘‘समारोह के बाद बिक्की से पता चला कि वह मेरा छोटा भाई सूरज है.’’

‘‘किरण, ध्यान से सुनो, जिंदगी एक नाम और एक रिश्ते से तो नहीं रुक जाती,’’ वार्डन हैलन ने समझाते हुए कहा.

बिलखता मौन-भाग 1 : किरण कमरे में क्यों बंद थी?

‘पता नहीं क्या हो गया है इस लड़की को? 2 दिनों से कमरे में बंद बैठी है. माना स्कूल की छुट्टियां हैं और उसे देर तक बिस्तर में रहना अच्छा लगता है, किंतु पूरे 48 घंटे बिस्तर में भला कौन रह सकता है? बाहर तो आए, फिर देखते हैं. 2 दिनों से सबकुछ भुला रखा है. कई बार बुला भेजा उसे, कोई उत्तर नहीं. कभी कह देती है, आज मेरी तबीयत ठीक नहीं. कभी आज भूख नहीं है. कभी थोड़ी देर में आती हूं. माना कि थोड़ी तुनकमिजाज है, किंतु अब तक तो मिजाज दुरुस्त हो जाना चाहिए था. हैरानी तो इस बात की है कि 2 दिनों से उसे भूख भी नहीं लगी. एक निवाला तक नहीं गया उस के अंदर. पिछले 10 वर्षों में आज तक इस लड़की ने ‘रैजिडैंशियल केअर होम’ के नियमों का उल्लंघन कभी नहीं किया. आज ऐसा क्या हो गया है?’’ केअर होम की वार्डन हैलन बड़बड़ाए जा रही थी. फिर सोचा, स्वयं ही उस के कमरे में जा कर देखती हूं कहीं किरण की तबीयत तो खराब नहीं. डाक्टर को बुलाना भी पड़ सकता है. हैलन पंजाब से आई ईसाई औरत थी और 10 सालों से वार्डन थी उस केअर होम की.

वार्डन ने कई बार किरण का दरवाजा खटखटाया. कोई उत्तर न पा वह झुंझलाती हुई अधिकार से बोली, ‘‘किरण, दरवाजा खोलो वरना दरवाजा तोड़ दिया जाएगा.’’ किरण की ओर से कोई उत्तर न पा कर वार्डन फिर क्रोध से बोली, ‘‘दरवाजा क्यों नहीं खोलती? किस का शोक मना रही हो? बोलती क्यों नहीं.’’

‘‘शोक मना रही हूं, अपनी मां का,’’ किरण ने रोतेरोते कहा. फिर फूटफूट कर रोने लगी.

इतना सुनते ही वार्डन चौंक पड़ी. सोच में पड़ गई, मां, कौन सी मां? जब से यहां आई है, मां का तो कभी जिक्र तक नहीं किया. वार्डन ने गहरी सांस ले अपने को संभालते हुए बड़े शांत भाव से कहा, ‘‘किरण बेटा, प्लीज दरवाजा तो खोलो.’’

कुछ क्षण बाद दरवाजा खोलते ही किरण वार्डन से लिपट कर दहाड़दहाड़ कर रोने लगी. धीरेधीरे उस का रोना सिसकियों में बदल गया.

‘‘किरण, ये लो, थोड़ा पानी पी लो,’’ वार्डन ने स्नेहपूर्वक कहा.

नाजुक स्थिति को समझते हुए वार्डन ने किरण का हाथ अपने हाथ में ले उस से प्यार से पूछा, ‘‘किरण, अपनी मां से तो तुम कभी मिली नहीं? आज ऐसी क्या बात हो गई है?’’

सिसकियां भरतेभरते किरण बोली, ‘‘मैं मां से कहां मिलना चाहती थी. अभी भी कहां मिली हूं. न जाने यह कब और कैसे हो गया. अब तो मैं चाह कर भी मां से नहीं मिल सकती.’’ इतना कह कर किरण ने गहरी सांस ली.

वार्डन ने उसे आश्वासन देते हुए कहा, ‘‘जो कहना है कहो, मेरे पास तुम्हारे लिए समय ही समय है.’’

वार्डन का कहना भर था कि किरण के मुंह से अपने जीवन का इतिहास अपनेआप निकलने लगा, ‘‘पैदा होने से अब तक रहरह कर मेरे कानों में मां के तीखे शब्द गूंजते रहते हैं, ‘तू कोख में क्या आई, मेरे तो करम ही फूट गए.’ ऊपर से नानी, जिन्होंने मां को एक पल भी चैन से नहीं जीने दिया, मां से संबंधविच्छेद के बाद भी कभीकभार हमारे घर आ धमकतीं. फिर चालू हो जाती उन के तानोंउलाहनों की सीडी, ‘न सुखी, तू जम्मी ओ वी कुड़ी’. हुनतां तू अपने देसी बंदे नाल व्याण जोगी वी नई रई. कुड़ी अपने बरगी होंदी ते बाकी बच्यां नाल रलमिल जांदी. लबया वी कौन? दस्दयां वी शर्म आंदी ऐ.’’ आंसू भर आए थे एक बार फिर किरण की आंखों में.

‘‘मिसेज हैलन, मुझे नानी का हरदम कोसना, मां की बेरुखी से कहीं अधिक खलता था. ऐसा लगता जैसे वे मुझे नहीं, मेरे मांबाप को गालियां दे रही हों. मेरे मोटेमोटे होंठ, तंगतंग घुंघराले बाल, सभी को बहुत खटकते थे. मैं अकसर क्षुब्ध हो कर मां से पूछती, ‘इस में मेरा क्या कुसूर है?’ मैं दावे से कह सकती हूं कि अगर नानी का बस चलता तो मेरे बाल खींचखींच कर सीधे कर देतीं. मेरे होंठों की प्लास्टिक सर्जरी करवा देतीं. मुझे नानी जरा भी नहीं भाती थीं. दरवाजे से अंदर घुसते ही उन का शब्दों का प्रहार शुरू हो जाता, ‘नी सुखीये ऐस कुड़ी नूं सहेड़ के, तू अपनी जिंदगी क्यों बरबाद कर रई ए. दे दे किसी नूं, लाह गलयों. जद गल ठंडी पै जावेगी, तेरा इंडिया जा के ब्याह कर दयांगे. ताकत देखी है लाल (ब्रिटिश) पासपोर्ट दी. जेड़े मुंडे ते हथ रखेंगी, ओईयों तैयार हो जावेगा.’

‘‘दिनरात ऐसी बातें सुनसुन कर मेरे प्रति मां के व्यवहार में रूखापन आने लगा. एक दिन जब मैं स्कूल से लौटी ही थी कि घंटी बजी. मेरे दरवाजा खोलते ही सामने एक औरत खड़ी थी, बोली, ‘हाय किरण, मैं, ज्योति आंटी, तुम्हारी मम्मी की सहेली.’

‘‘मां, आप की सहेली, ज्योति आंटी आई हैं,’’ मैं ने मम्मी को आवाज दी.

‘‘‘हाय ज्योति, तुम आज रास्ता कैसे भूल गई हो?’

‘‘‘बहुत दिनों से मन था तुम्हारे साथ बैठ कर पुरानी यादों को कुरेदने का.’

‘‘‘आओ, अंदर आओ, बैठो. बताओ, आजकल क्या शगल चल रहा है. 1 से 2 हुई या नहीं?’ मां ने पूछा.

‘‘‘न बाबा न, मैं इतनी जल्दी इन झंझटों में पड़ने वाली नहीं. जीभर के मजे लूट रही हूं जवानी के. तू ने तो सब मजे स्कूल में ही ले लिए थे,’ ज्योति ने व्यंग्य से कहा.

‘‘‘मजे? क्या मजे? वे मजे तो नुकसानदेह बन गए हैं मेरे लिए. सामने देख,’ मां ने मेरी ओर इशारा करते हुए कहा.

Crime Story : शहजादी का गुलाम

सौजन्य- मनोहर कहनियां

पति से दूरी या उस की प्रताड़ना से दुखी हो कर कई महिलाएं अंजाम की परवाह किए बिना गलत राहों पर निकल जाती हैं. ऐसे में कई बार पति उग्र हो जाता है, तब पत्नी और उस का प्रेमी जो शौर्टकट अपनाते हैं, वह उन्हें जेल तक पहुंचा देता है. शहजादी और सिकंदर के साथ भी यही हुआ. कैसे… परिवार बढ़ा तो जावेद ने स्वयं कोपूरी तरह काम में डुबो दिया. उसे लगा कि काम अधिक होगा तो लाभ भी उसी

तरह होगा. जावेद मोटर मैकेनिक था. सुबह 9 बजे घर से निकलता तो देर रात 8-9 बजे ही वापस घर लौटता था.

जब वह पूरे दिन काम में व्यस्त रहने लगा तो सिकंदर की बांछें खिल गईं. उस के लिए यह सुनहरा अवसर था, शहजादी के दिल में जगह बनाने का.

उस ने जावेद के घर में आवाजाही बढ़ा दी. जावेद की पत्नी शहजादी सिकंदर के हवास पर छाई थी और वह उसे किसी भी कीमत पर पाना चाहता था. जावेद की अनुपस्थिति में मौका पाते ही वह शहजादी के पास पहुंच जाता और उसे रिझाने का प्रयास करता.

ये भी पढ़ें-Crime Story: शक की पराकाष्ठा

उस दिन भी पूर्वाहन में सिकंदर शहजादी के घर पहुंचा तो वह हरी मटर छील रही थी. सिकंदर ने मटर के कुछ दाने उठाए और मुंह में डालते हुए बोला, ‘‘मटर तो एकदम ताजा और मिठास से भरी हुई है, इस का कौन सा व्यंजन बनाने जा रही हो?’’

‘‘तहरी बनाऊंगी,’’ शहजादी मुस्कराई, ‘‘सर्दी में आलूमटर की गरमागरम तहरी हरी मिर्च और लहसुन की चटनी से अच्छा व्यंजन कोई दूसरा नहीं होता.’’ वह सिकंदर की आंखों में देखते हुए बोली, ‘‘तहरी खाओगे?’’

‘‘भाभी, मेरा ऐसा नसीब कहां, जो तुम्हारे हाथों का पका स्वादिष्ट खाना खा सकूं.’’ सिकंदर मटर के दाने चबाता शहजादी के पास बैठ गया, ‘‘नसीब तो जावेद भाई का है, खाना भी टेस्टी मिलता है और पत्नी भी सुंदर व टेस्टी मिली है.’’ सिकंदर और शहजादी में देवरभाभी का रिश्ता था.

इस रिश्ते के चलते उन में स्वाभाविक हंसीठिठोली और नोकझोंक होती रहती थी. शहजादी ने भी मुस्करा कर पलटवार किया, ‘‘मुझ से शादी कर के तुम्हारे भाई ने किस्मत चमका ली तो तुम भी किसी से शादी कर के किस्मत चमका लो.’’  फिर उस ने शोखी से मुसकरा कर बोली, ‘‘बीवी बनाने के लिए ऐसी लड़की चुनना जो खाना भी टेस्टी पकाती हो और खुद भी टेस्टी हो.’’

सिकंदर थोड़ा पास खिसक आया और भेदभरे स्वर में बोला, ‘‘भाभी, ऐसी एक लड़की है मेरी नजर में.’’

‘‘कौन है वह खुशनसीब, मुझे भी तो बताओ.’’

सिकंदर कुछ देर शहजादी की आंखों में देखता रहा, फिर बोला, ‘‘वह तुम हो.’’

‘‘अच्छा मजाक कर लेते हो,’’ शहजादी खिलखिला कर हंसी, ‘‘बुद्धू, मैं लड़की नहीं, औरत हूं. 3 बच्चों की मां.’’

‘‘मेरे लिए तो तुम कुंवारी जैसी हो,’’ सिकंदर ने शहजादी की कलाई पकड़ ली, ‘‘मेरी बात मजाक में मत लो भाभी. मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं. छोड़ो जावेद भाई को मुझ से शादी कर लो. कसम से, पलकों से तुम्हारे नाज उठाऊंगा.’’

शहजादी गंभीर हो गई. कोई जवाब दिए बगैर उस ने सिकंदर से कलाई छुड़ाई, फिर छिली मटर की थाली उठाई और रसोई में चली गई.

सिकंदर भी उस के पीछे जाने वाला था कि एक पड़ोसन आ गई. सिकंदर को लगा कि अब उस का वहां रूकना फिजूल है. उस ने शहजादी से अपने मन की बात खुले शब्दों में कह दी थी. अब निर्णय शहजादी को करना था. इसलिए वह भी उठ कर बाहर चला गया.

ये भी पढ़ें-Crime Story: लव मैरिज का कर्ज

30 वर्षीय शहजादी का मायका पश्चिम बंगाल के हावड़ा स्थित अमांता थाना क्षेत्र में था. पिता का नाम मो. सुलेमान और मां का नाम नजमा. 4 भाइयों की एकलौती बहन थी शहजादी.

 

जवानी की पहली बहार आते ही शहजादी के कदम बहक गए थे. वह घर से घंटों लापता रहने लगी थी. मातापिता सोचते थे कि अभी बच्ची है, नादान है. थोड़ा घूमटहल ले तो अच्छा है. शादी हो जाएगी तब उसे ऐसी आजादी फिर कहां मिलेगी?

सुलेमान के कान तब खड़े हुए, जब एक दोस्त ने शहजादी के चरित्र का आईना दिखाया ‘लड़केलड़कियों के पीछे मंडराते हैं, उन्हें पटाने की कोशिश में रहते हैं. मगर मैं ने एक शहजादी ही ऐसी देखी है जो लड़के पटाती घूमती है.’

सुलेमान को काटो तो खून नहीं. उस ने अपने स्तर से पता किया तो मालूम हुआ कि दोस्त ने गलत नहीं कहा था. अपनी रंगरलियों के चलते शहजादी काफी बदनाम थी.

घर लौट कर सुलेमान ने यह बात अपनी बेगम नजमा को बताई. इस के बाद दोनों ने मिल कर उस की खबर ली. सुलेमान ने उसे मारापीटा तो नजमा ने गालीगलौज के बाद समझाया, ‘‘मुझ पर भी जवानी आई थी, मगर तेरी तरह इज्जत हथेली पर ले कर नहीं घूमती थी. आइंदा कोई गंदी हरकत की तो जमीन में जिंदा दफन कर दूंगी.’’

शहजादी को नएनए लड़कों का जो चस्का लगा था, वह पिता की पिटाई और मां की धमकी से छूटने वाला नहीं था. सुलेमान और नजमा अपनी तरफ से लाख कोशिशें कर के हार गए, लेकिन शहजादी ने नेकचलनी की राह अख्तियार नहीं की. तब नजमा पति से बोली, ‘‘जितनी जल्दी हो, अपनी इस बिगड़ैल लड़की को मजबूत खूंटे से बांध दो.’’

सुलेमान ने युद्ध स्तर पर शहजादी के लिए वर की तलाश शुरू कर दी. इस दिशा में उन को सफलता भी मिली. भावी दामाद के रूप में जावेद खां उन के मन को भा गया.

जावेद खां हावड़ा के अमांता थाना क्षेत्र के जोका गांव नवासी शाहजहां का बेटा था. दोनों पक्षों की बातचीत तथा भावी वरवधू देखने के बाद रिश्ता तय हो गया. फिर निश्चित तिथि पर दोनों का निकाह हो गया. मायके से विदा हो कर शहजादी ससुराल आ गई.

ये भी पढ़ें-Crime Story: खौफनाक संधि विच्छेद

ससुराल में शहजादी के भटकाव को ठहराव मिला. ठहराव तो मिलना ही था, जिस चीज की तलाश में वह लड़कों के पीछे भागती थी, अब वह चीज उसे चौबीसों घंटे घर में मुहैया रहने लगी. शहजादी की कामनाओं के तूफान को संभालने में भी जावेद सक्षम था. फलस्वरूप शहजादी शादी से पहले का अपना शौक भूल गई.

निकाह के कुछ समय बाद जावेद उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले में आ कर बस गया. वह गाजीपुर के थाना कोतवाली क्षेत्र के बड़ीबाग चुंगी पर स्थित कांशीराम आवासीय कालोनी में रहने लगा.

वह एक गैराज में मोटर मैकेनिक का काम करने लगा. यह काम वह पहले से ही करता आ रहा था. बीतते समय के साथसाथ शहजादी 3 बच्चों की मां बन गई. दो बेटी नर्गिस, (10 वर्ष) नेहा परवीन, (8 वर्ष) और बेटा इब्राहिम (3 वर्ष).

सिकंदर शहजादी के घर के सामने मोहल्ले में रहने वाले करीम का बेटा था. सिकंदर अविवाहित था और कार ड्राइवर था. सिकंदर का शहजादी के घर आनाजाना था.

आयु में सिकंदर जावेद से 5 साल छोटा था. इस नाते जावेद को भाई और शहजादी को भाभी कह कर बुलाता था. सिकंदर का स्वभाव ऐसा था कि शहजादी उस से जल्द हिलमिल गई.

 

बदलते वक्त के साथ शहजादी के प्रति सिकंदर की नीयत बदलने लगी. वह मन ही मन उसे चाहने लगा. उस की चाहत में शहजादी को पाने की तमन्ना सिर उठाने लगी. सिकंदर यह भी भूल गया कि शहजादी शादीशुदा और 3 बच्चों की मां है.

जावेद तो पूरे दिन गैराज में काम में लगा रहता था. इस से सिकंदर की चांदी हो गई. शहजादी को पटाने के लिए वह अकसर उस के घर में घुसा रहने लगा. अपनी लच्छेदार बातों से वह उसे लुभाने की कोशिश करता रहता.

एक दिन सिकंदर को सही मौका मिला तो उस ने खुले शब्दों में शहजादी से कह दिया कि वह उस से प्यार करता है. वह अपने पति जावेद को छोड़ कर उस से निकाह कर ले, वह उसे अपनी पलकों पर बिठा कर रखेगा.

उस दिन के बाद से सिकंदर अकसर शहजादी से प्यार के दावे करने लगा. प्यार के बदले उस का प्यार मांगने लगा. अकेले में उस ने भाभी के बजाय उसे शहजादी कह कर पुकारना शुरू कर दिया. वह पहले प्यार की दुहाई देता, फिर कहता, ‘‘शहजादी, जावेद का जोश और प्यार खत्म हो चुका है. उसे छोड़ो और मेरा हाथ थाम लो. दोनों मिल कर मौज करेंगे.’’

ये भई पढ़ें-Crime Story: बुरे फंसे यार

एक ही बात बारबार, रोजाना कही जाए तो वह असर छोड़ती ही है. सिकंदर की मनुहार शहजादी पर असर करने लगी. उस का पुराना शौक भी अंगड़ाई लेने लगा. वैसे भी जावेद उस से प्यार से कम गुस्से से ज्यादा बात करता था, झगड़ा करता था और मारतापीटता भी था. वह उस से परेशान रहने लगी थी. इसलिए उसे सिकंदर की प्यार भरी बातें भाने लगीं.

 

एक दिन शहजादी ने सिकंदर से पूछा, ‘‘सहीसही बताओ, तुम्हारी मंशा क्या है. तुम चाहते क्या हो?’’

‘‘शहजादी, कितनी बार बताऊं, मैं तुम्हें चाहता हूं.’’

‘‘मेरी चाहत पा कर क्या करोगे?’’

‘‘सीने से लगा कर रखूंगा.’’

‘‘मेरा अपना बसाबसाया घर है, पति है, बच्चे हैं,’’ शहजादी ने सिकंदर को समझाया, ‘‘तुम से आशिकी कर के मैं अपना घरसंसार दांव पर नहीं लगाना चाहती.’’

‘‘मुहब्बत से घर बनते है, दुनिया आबाद होती है. बर्बादी की बात मत किया करो.’’

‘‘सिकंदर, जब तुम प्यार की बात करते हो तो मैं कमजोर पड़ने लगती हूं.’’

‘‘इस का मतलब यह कि तुम्हारे दिल में भी मुहब्बत जाग चुकी है,’’ सिकंदर मुस्कराया, ‘‘छोड़ो जावेद को और हमेशा के लिए मेरी हो जाओ.’’

शहजादी जानती थी कि वह सिकंदर का कहना मान लेती है तो बच्चों का भविष्य खराब हो जाएगा. वह असमंजस में थी कि बच्चे साथ ले जाए या जावेद के पास छोड़ दे. दोनों परिस्थिति में उन्हें सौतेलेपन का दंश लगना ही है. सिकंदर से पीछा छुड़ाने के लिए एक दिन उस ने प्रस्ताव रख दिया, ‘‘ सिकंदर, मुझ से निकाह के बाद जो तुम्हें चाहिए, वह मुझ से बिना निकाह किए ही ले लो. उस के बाद मुझ से निकाह का ख्याल छोड़ देना.’’

सिकंदर मुस्कराया, ‘‘मंजूर है.’’

‘‘शर्त यह है कि एक बार ही तुम्हे प्यार दूंगी. दूसरी बार के लिए मत कहना.’’

‘‘भाभी, एक बार जन्नत दिखा दो, फिर कोई ख्वाहिश बाकी नहीं रह जाएगी. मुझे तुम्हारी शर्त मंजूर है.’’ सिकंदर चहका.

उस वक्त घर में कोई नहीं था. अत: शहजादी ने उसे अपने कमरे में जाने को कहा. फिर खुद पहुंची और दरवाजा अंदर से बंद कर लिया. शहजादी का इरादा व नीयत भांप कर सिकंदर ने उसे आलिंगनबद्ध कर लिया. शहजादी भी उस से लिपट गई. कुंवारे और जोशीले बादल खूब उमड़े, खूब गरजे और अंत में तेजतेज बरसे. इस बरसात से शहजादी की देह मानो तृप्त हो गई.

शहजादी की तरफ से शर्त एक बार की थी, मगर सिकंदर ने अपने पौरूष का ऐसा जबरदस्त प्रदर्शन किया कि वह उस की दिवानी हो गई. पुराना शौक भी सिर उठा चुका था. इसलिए वह खुद ही बारबार सिकंदर को बुला कर उसे देह का संगीत सुनाने लगी.

बुरे काम का नतीजा बुरा ही होता है. अवैध संबंध की इस कहानी का अंत भी बुरा ही हुआ.

 

24 अप्रैल को सुबह 6:30 बजे का समय था. कांशीराम कालोनी के सामने कृषि विभाग के फार्म हाउस में कटे गेंहू के खेत में किसी ने एक युवक की लाश पड़ी देखी. उस ने लाश की सूचना थाना कोतवाली पुलिस को दे दी.

कोरोना वायरस के चलते लौकडाउन चल रहा था तो सभी पुलिस अधिकारी मुस्तैद थे. सूचना मिलते ही इंसपेक्टर धनंजय मिश्रा मय पुलिस टीम के घटनास्थल पर पहुंच गए. उन के पहुंचने के थोड़ी देर बाद डीएम ओमप्रकाश मौर्या, एसपी ओमप्रकाश सिंह व अन्य पुलिस अधिकारी भी वहां आ गए.

मृतक की उम्र 30-35 वर्ष के बीच रही होगी. उस के गले पर दबाए जाने के निशान मौजूद थे. शिनाख्त के लिए आसपास के लोगों को बुला कर मदद ली जाती कि तभी एक औरत अपनी एक बच्ची के साथ वहां पहुंची. उस ने पुलिस अधिकारियों को बताया कि उसका नाम शहजादी है, वह कांशीराम कालोनी में रहती है. यह उस के पति जावेद खां की लाश है.

एक दिन पहले 23 तारीख को सुबह वह गैराज में काम करने गए थे लेकिन देर रात तक वापस नहीं लौटे. एसपी ओमप्रकाश सिंह ने कहा कि लौकडाउन में सब बंद है तो मृतक काम करने क्यों और कैसे जाएगा?

इस के जवाब में शहजादी ने कहा कि शटर बाहर से बंद रहता है, अंदर काम होता रहता है.

उस से कुछ आवश्यक पूछताछ करने के बाद पुलिस अधिकारी इंसपेक्टर धनंजय मिश्रा को आवश्यक दिशानिर्देश दे कर चले गए. इस के बाद इंसपेक्टर मिश्रा ने लाश को पोस्टमार्टम के लिए मौर्चरी भेज दिया.

फिर शहजादी को साथ ले कर कोतवाली आ गए. वहां शहजादी की लिखित तहरीर के आधार पर अज्ञात के विरूद्ध भा.द.वि. की धारा 302 के तहत मुकदमा दर्ज करवा दिया.

इंसपेक्टर धनंजय मिश्रा का शक बारबार शहजादी पर जा रहा था. पति की मौत का जो गम चेहरे पर दिखाई देना चाहिए था, वह शहजादी के चेहरे पर नहीं था. वह रो जरूर रही थी लेकिन उस के आंसू बाहर नहीं आ रहे थे. लगता था जैसे रोने का नाटक कर रही हो.

इंसपेक्टर धनंजय मिश्रा ने शहजादी के बारे में कालोनी में उस के पड़ोसियों से पूछताछ की तो पता चला उस का प्रेमप्रसंग सिकंदर नाम के युवक से चल रहा था. पति जावेद से शहजादी को कोई लगाव नहीं था, वजह यह थी जावेद उसे मारतापीटता था.

इस के बाद इंसपेक्टर मिश्रा ने शहजादी के मोबाइल नंबर की कालडिटेल्स निकलवाई तो पता चला कि शहजादी एक नंबर पर दिन में कई बार लंबीलंबी बातें करती थी. घटना वाली रात भी उस ने उसी नंबर पर साढ़े ग्यारह बजे तक बात की थी.

जिस नंबर पर शहजादी की बात होती थी, वह सिकंदर के नाम पर था.

 

26 अप्रैल को इंस्पेक्टर धनंजय मिश्रा पूछताछ के लिए शहजादी को हिरासत में ले कर कोतवाली आ गए.

वहां महिला कांस्टेबल की उपस्थिति में जब उस से सख्ती से पूछताछ की गई तो उस ने अपना जुर्म स्वीकार कर लिया.

उस से  पूछताछ के बाद इंसपेक्टर मिश्रा ने उसी दिन दोपहर 12:30 बजे छावनी लाइन स्थित एक ढाबे के पास से सिकंदर और उस के दोस्त रहीस गोरख को गिरफ्तार कर लिया.

शहजादी सिकंदर की मुरीद हो गई थी. उस के बिना शहजादी को अपनी जिंदगी सूनीसूनी लगती थी. वह सिकंदर के साथ भाग कर अपनी नई दुनिया बसाना चाहती थी. लेकिन बच्चों की वजह से उस के कदम आगे नहीं बढ़ते थे.

दूसरी ओर जावेद ने उस की जिंदगी को नर्क से बदतर बना दिया था. इसलिए उस ने फैसला किया कि जावेद को ही रास्ते से हटा दे तो सिकंदर भी उसे मिल जाएगा और बच्चों को भी उसे नहीं छोड़ना पडे़गा.

 

इस संबंध में शहजादी ने सिकंदर से बात की. सिकंदर तो शहजादी का गुलाम था और गुलाम शहजादी की बात को नकार नहीं सकता था. वैसे वह भी कई दिनों से यही तरीका सोच रहा था.

शहजादी ने उस के तरीके पर अपनी मोहर लगा दी तो सिकंदर तैयार हो गया. उस ने इस संबंध में वंशीबाजार में रहने वाले दोस्त रहीस गोरख से बात की और जावेद की हत्या करने में सहयोग मांगा. रहीस ने हां कर दी. रहीस भी जावेद से अपना एक हिसाब चुकता करना चाहता था.

रहीस ने जावेद के जरीए एक सैकंड हैंड मोटर साइकिल खरीदी थी. इस के बाद पुलिस ने उसे बाइक चोरी में गिरफ्तार कर के जेल भेज दिया था. साढे़ चार साल की सजा काटने के बाद वह बीते 4 अप्रैल को जेल से रिहा हुआ था.

रहीस को लगता था कि जावेद ने उसे चोरी की मोटर साइकिल खरीदवा कर पुलिस

से उस को पकड़वा दिया था. इसलिए वह जावेद से उस का बदला लेना चाहता था.

रहीस तैयार हुआ तो तीनों ने मिल कर जावेद की हत्या की योजना बनाई.

योजनानुसार 23 अप्रैल की रात जब जावेद काम से लौट रहा था तो सिकंदर और रहीस ने उसे रास्ते में ही रोक लिया और शराब दिखा कर शराब पीने के लिए चलने को कहा तो उस ने मना कर दिया लेकिन उन की जिद पर जावेद उन के साथ हो लिया.

सरकारी फार्म हाउस पर पहुंच कर तीनों एक खेत में शराब पीने बैठ गए. दोनों ने जावेद को ज्यादा शराब पिलाई.

खुद कम पी. जावेद के नशे में बेसुध होने पर उन दोनों ने साथ लाए तौलिया से उस का गला घोंट दिया, जिस से जावेद की मौत हो गई.

जावेद को मारने के बाद इन लोगों ने उस की जेब से मोबाइल निकाल लिया. वहां से दोनों ईदगाह के पीछे पहुंचे वहां एक जगह जावेद का तौलिया और मोबाइल छिपा दिया. फिर सिकंदर ने शहजादी को जावेद की मौत की सूचना दे दी और उस से काफी देर तक बात करने के बाद अपने घर चला गया. रहीस भी वहां से अपने घर लौट गया.

तीनों बड़ी असानी से पुलिस के जाल में फंस गए. इंसपेक्टर धनंजय मिश्रा ने अभियुक्तों की निशानदेही पर ईदगाह के पीछे से हत्या में इस्तेमाल तौलिया और जावेद का मोबाइल बरामद कर लिया. इस के बाद आवश्यक कानूनी लिखापढ़ी के बाद तीनों को न्यायालय में पेश कर न्यायिक अभिरक्षा में जेल भेज दिया गया.  द्य

  (कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित)

बिलखता मौन-भाग 4 : किरण कमरे में क्यों बंद थी?

‘‘मिस हैलन, आप नहीं जानतीं, मां की एक झलक ने मुझे कई वर्ष पीछे धकेल दिया. अपनी कल्पना में मैं आज भी उन पलों में लौट जाती हूं जब मैं बहुत छोटी थी और मेरे पास मां थी. तब सबकुछ था. कैसे वह मेरी उंगली पकड़ स्कूल ले जाती. वापसी में आइसक्रीम, चौकलेट ले कर देती. कैसे रास्ते में मैं उन के साथ लुकाछिपी खेलती. कभी कार के पीछे छिप जाती, कभी पेड़ के पीछे. अपनी जिद पूरी करवाने के लिए वहीं सड़क पर पैर पटकतीपटकती बैठ जाती. आज भी उन दिनों को याद कर शिथिल, निढाल हो जाती हूं मैं. जब दुखी होती हूं तो दृश्य आंखों के सामने रीप्ले होने लगता है. 15 दिसंबर, 1995 को जब ‘सोशल सर्विसेज’ वाले मुझे यहां लाए थे, उस दिन मेरी मां के दुपट्टे का छोर मेरे हाथों से खिसकतेखिसकते सदा के लिए छूट गया था. ‘‘क्रिसमस की छुट्टियों के समाप्त होने का इंतजार मुझे बड़ी ब्रेसब्री से रहता. मन में मां की झलक पाने की लालसा, भाई को देखने की उमंग उमड़ने लगी. इसी धुन में अकसर मैं स्कूल के किसी छिपे हुए कोने से मां और भाई को निहारती रहती. छोटा भाई सूरज पैर पटकने में मुझ पर गया था, मेरा भाई जो ठहरा. सूरज के प्ले टाइम में मैं अपनी कक्षा में न जा कर उस से बातें करती, उसे छूने की कोशिश करती. यही सोच कर कि मां ने इसे छुआ होगा. उस में मां की खुशबू ढूंढ़ती. जब बिक्की कहती कि सूरज की आंखें बिलकुल तुम जैसी हैं, मुझे बहुत अच्छा लगता था. मां यह नहीं जानती थीं कि मैं भी इसी स्कूल में हूं. यह सिलसिला चलता रहा. धीरेधीरे मां से मेरी नाराजगी प्यार में बदल गई. मां से भी भला कोई कब तक नाराज रह सकता है. उन्हें बिना देखे मन उदास हो जाता. इतने बड़े संसार में एक वही तो थीं, मेरी बिलकुल अपनी. एक दिन अचानक मां और मेरी नजरें टकराईं. मां बड़ी बेरुखी से मुझे अनदेखा कर आगे बढ़ गईं.

‘‘उस रात मन में अनेक गूंगे प्रश्न उठे, जो मेरे रोंआसे मुख से सूखे तिनके की भांति मन के तालाब में डूबने लगे. सभी दिशाओं से नकारात्मक बहिष्कृति की भावनाएं मेरी पढ़ाई पर हावी होती गईं. स्कूल से मन उचाट रहने लगा. घर के कामकाजों की थकावट के कारण स्कूल का काम करना नामुमकिन सा हो गया. होम स्कूल लाएजन अध्यापिका (घर स्कूल संपर्क अधिकारी) तथा सोशलवर्कर को बुलाया गया. मिसेज एडवर्ड ने सारा दोष मुझ पर उडे़ल दिया. उन के आरोप सुनतेसुनते मैं भी गुस्से में बोली, ‘घर के कामों से फुरसत मिले तो न? मेरी तो नींद तक भी पूरी नहीं होती. मैं यहां नहीं रहना चाहती.’ इतना सुनते ही सोशलवर्कर के शक की पुष्टि हो गई. कुछ ही दिनों में मैं फिर रैजिडैंशियल होम में थी.

‘‘एक दिन बिक्की से मिलते ही उस का प्रवचन शुरू हो गया, ‘किरण, तुम्हें जीवन में आगे बढ़ना है. पीछे देखती रहोगी तो पीछे ही रह जाओगी. संभालो खुद को. केवल पढ़ाई ही काम आएगी.’

‘‘‘तुम ठीक कहती हो, बिक्की.’ उस दिन हम ने अगलीपिछली मन की सब बातें दोहराईं. बिक्की के जाने के बाद मेरे प्रश्नों के उत्तर मेरे भीतर उभरने लगे. नकारात्मक प्रश्नों को मैं ने चिंदीचिंदी कर कूड़े के ढोल में फेंक डाला. पढ़ाई में मन लगाना आरंभ कर दिया.

‘‘छोटे भाई सूरज से मिलने का क्रम चलता रहा. कभी मैं सूरज से मिलती और कभी बिक्की. एक शनिवार को मैं और बिक्की दोनों पिज्जा हट में पिज्जा खा रहे थे. ‘किरण, एक बुरी खबर है,’ बिक्की ने कहा.

‘‘‘क्या है, जल्दी से बता?’

‘‘‘सूरज से पता चला है, इस वर्ष के आखिर में वह किसी और स्कूल में भरती होने वाला है.’

‘‘‘कहां? फिर मैं सूरज और मां को कैसे देखूंगी?’

‘‘‘उदास मत हो, किरण. इस का हल भी मैं ने ढूंढ़ लिया है. मैं ने सूरज से उन के घर का पता ले लिया है. साथ ही, सूरज ने बताया कि शनिवार को शौपिंग के बाद वह और मां माथा टेकने के लिए सोहोरोड गुरुद्वारे जाते हैं. वहां लंगर भी चखते हैं.’

‘‘‘यह तो बहुत अच्छा किया.’

‘‘पिज्जा खाने के बाद हम दोनों अपनेअपने घर चले गए. परीक्षा नजदीक आ रही थी. बिक्की की डांट तो खा चुकी थी. मेरा मां को देखने का लुकाछिपी का क्रम चलता रहा. चौकलेट ने हमारी सूरज से अच्छी दोस्ती करवा दी थी.

‘‘परीक्षा में तल्लीन होने के कारण कई दिन सूरज से नहीं मिल पाए. स्कूल जा कर मालूम हुआ, सूरज बहुत दिनों से स्कूल नहीं आया. मुझे चिंता होने लगी. बिक्की ने दिलासा देते हुए कहा, ‘चिंता मत करो. शनिवार को गुरुद्वारे जा कर मिल लेंगे.’ शनिवार को गुरुद्वारे जाते वक्त मुझे खुशी के साथसाथ बहुत घबराहट हो रही थी. ‘बिक्की, अगर मुझे गुरुद्वारे में अंदर न जाने दिया गया तो?’

‘‘‘किरण, विश्वास करो, ऐसा बिलकुल नहीं होगा. वहां सब का स्वागत है. बस, सिर जरूर ढक लेना.’

‘‘कुछ सप्ताह मां और सूरज गुरुद्वारे में भी दिखाई नहीं दिए. चिंता सी होने लगी थी. हार कर एक दिन मैं और बिक्की मां के घर की ओर चल दीं. वहां तो और ही दृश्य था. बहुत से लोग सफेद कपड़े पहने जमा थे. मेरा दिल धड़का.

‘‘‘किरण, लगता है यहां वह हुआ है जो नहीं होना चाहिए था. शायद किसी की मृत्यु हुई है.’ हम दोनों हैरान सी खड़ी रहीं. इतने में हमें दूर से हमारी ओर एक महिला आती दिखाई दीं. बिक्की ने हिम्मत बटोर कर पूछ ही लिया, ‘आंटीजी, यहां क्या हुआ है?’

‘‘‘सिंह साहब की पत्नी की मृत्यु हो गई है. कई महीनों से बीमार थीं.’

‘‘‘आंटीजी, फ्यूनरल कब है?’

‘‘‘बेटा, शुक्रवार को ढाई बजे. पैरीबार के मुर्दाघाट में.’ ‘‘इतना सुनते ही मैं तो सन्न रह गई. भारी मन लिए बड़ी मुश्किल से हम दोनों घर पहुंचीं. देखतेदेखते झुंड के झुंड बादल घिर आए. बादलों की गुड़गुड़ ध्वनि के साथ मेरे मन में भी सांझ उतर आई थी. ‘‘4 दिनों बाद अंतिम संस्कार था. कितना कुछ कहना चाहती थी मां से. सभी गिलेशिकवे, मन की बातें अब मन ही में रह जाएंगी. यह कभी नहीं सोचा था, उस वक्त मैं खुद को बेबस, असहाय महसूस कर रही थी.’’

मानसून स्पेशल: जानें क्या है हीमोफीलिया और इसके लक्षण

‘‘मैं जब सिर्फ 3 महीने का था तो मेरे माथे पर एक छोटी सी चोट लगने से काफी देर तक खून बहता रहा. खून लगातार बह रहा था. पहले तो मातापिता ने इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन जब काफी कोशिशों के बावजूद खून बंद नहीं हुआ तो वे मुझे अस्पताल ले गए. वहां डाक्टरों ने खून की जांच करवा कर बताया कि मुझे हीमोफीलिया की बीमारी है. उस समय इस बीमारी के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी. और न ही इस रोग के डाक्टर उपलब्ध थे. तब हीमोफीलिया के विशेषज्ञ ही उपचार किया करते थे. ऐसे विशेषज्ञ से मेरा भी इलाज चलता रहा.

‘‘एक बार तो इस बीमारी की वजह से मेरे हाथ में सूजन आ गई. एक डाक्टर ने इसे किसी कीड़े के काटने से आई सूजन समझ कर कट लगा दिया जिस से काफी ब्लीडिंग होती रही. उस के बाद मेरे पिता ने किसी अखबार में हीमोफीलिया फैडरेशन औफ इंडिया के बारे में पढ़ा. इस फैडरेशन तक पहुंचने में 4 साल लग गए. यहां पहुंचने पर मेरा फैक्टर टैस्ट हुआ. जिस के जरिए डायग्नोज हुआ कि मुझे ‘बी’ टाइप का हीमोफीलिया है.

‘‘मेरे मातापिता मेरे इलाज को ले कर काफी परेशान रहते. मैं अन्य बच्चों की तरह खेलकूद भी नहीं सकता था. 3 महीने में तकरीबन 20 से 25 इंजैक्शन लगवाने पड़ते. लेकिन आज मैं एक आम आदमी की तरह जी सकता हूं और अपने काम को पूर्ण रूप से करने में सक्षम भी हूं. हां, आज भी मुझे कुछ सावधानियां जरूर बरतनी पड़ती हैं.’’

ये भी पढ़ें-मानसून स्पेशल: क्या करें जब हो लीवर इंफेक्शन

उपरोक्त कथन 36 साल के डा. रमन खन्ना का है. केवल रमन खन्ना ही नहीं, न जाने ऐसे कितने ही मरीज हैं जो हीमोफीलिया नामक इस बीमारी से जूझ रहे हैं. डा. रमन तो फिर भी बेहतर स्थिति में हैं कि उन्हें अपनी इस बीमारी के बारे में जानकारी है लेकिन न जाने ऐसे कितने मरीज हैं जिन्हें इस बीमारी के बारे में न तो जानकारी है और न ही वे इस का इलाज करवा पाने में सक्षम हैं.

हीमोफीलिक इस बीमारी को गंभीरता से लेते ही नहीं हैं. वे लगातार खून बहते रहने को एक आम समस्या की तरह लेते हैं. वे समझते हैं कि खून बहना कोई बीमारी नहीं है. कई डाक्टर भी यही कहते हैं कि खून बहना कोई बीमारी नहीं है. लेकिन लगातार बिना रुके खून बहते रहना अन्य गंभीर बीमारियों की तरह ही एक बीमारी है, जिस का समय पर इलाज किया जाना जरूरी है.

दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल के डा. डी के गुप्ता बताते हैं कि हीमोफीलिया एक आनुवंशिक बीमारी है, जो आमतौर पर पुरुषों में ही अधिक पाई जाती है. यह बीमारी रक्त में थक्का नहीं बनने देती. हीमोफीलिया के मरीजों में रक्त प्रोटीन की कमी होती है जिसे क्लौटिंग फैक्टर भी कहा जाता?है. यह प्रोटीन या फैक्टर रक्त का वह गुण है जो बहते खून पर थक्के जमा कर उस का बहना रोक देता है. रक्तस्राव अंगों या ऊतकों को हानि पहुंचाता?है और कई बार अधिक रक्तस्राव जानलेवा भी होता है. यह बीमारी वास्तव में है क्या और किस तरह इसे नियंत्रित किया जा सकता है, जानना जरूरी है.

ये भी पढ़ें-कब्ज से कैसे पाएं छुटकारा, जानें घरेलू नुस्खे

लक्षण

हीमोफीलिया के प्रकार व गंभीरता पर निर्भर करता है कि रक्तस्राव कितना होता है. जिस बच्चे को हलका हीमोफीलिया है, हो सकता है उस के लक्षण तब तक प्रकट न हों जब तक कि उस की कोई ऐसी सर्जरी या दुर्घटना न हो जिस में बहुत खून बहे. रक्तस्राव बाहरी या भीतरी, कैसा भी हो सकता है.

अत्यधिक बाहरी रक्तस्राव के लक्षण हैं:

– मुंह के भीतर कटने या दांत उखड़ने की वजह से रक्त बहना.

– बिना किसी कारण के नाक से खून बहना.

– किसी जख्म से खून कुछ देर के लिए बंद होने के बाद दोबारा बहने लगना.

जोड़ों मेें रक्तस्राव : घुटनों, कोहनियों आदि जोड़ों में?भीतरी रक्तस्राव बिना किसी चोट के हो सकता है. शुरू में जोड़ों में कसाव आ जाता है पर कोई पीड़ा नहीं होती, खून बहने का कोई निशान भी नहीं होता जोकि दिखाई दे. फिर जोड़ में सूजन आ जाती है, छूने पर वह गरम महसूस होता है. उस जोड़ को घुमानेहिलाने मेें दर्द होता?है. अस्थायी तौर पर जोड़ में कोई क्रिया नहीं हो पाती. जोड़ों में होने वाला रक्तस्राव तत्काल बंद न किया गया तो वह अंग हमेशा के लिए क्षतिग्रस्त हो सकता है.

ये भी पढ़ें-मानसून स्पेशल: बीमारियों से बचें और ले मानसून का मजा

मस्तिष्क  में रक्तस्राव : दिमाग में रक्तस्राव का होना एक बहुत ही गंभीर समस्या है, जो एक साधारण गुमड़े  से भी हो सकती है या किसी गंभीर चोट से.

रक्तस्राव के लक्षण

– लंबे समय तक रहने वाले तकलीफदेह सिरदर्द या गरदन में पीड़ा या कड़ापन.

– बारबार उलटी होना.

– अचानक कमजोरी होना, बाजुओं या पांवों का बेडौल होना या चलने में तकलीफ होना.

– दोहरी दृष्टि, ऐंठन.

उपचार

हीमोफीलिया के लिए जो मुख्य उपचार है वह रिप्लेसमैंट थेरैपी कहलाता है. इस में मरीज को क्लौटिंग फैक्टर दिया या बदला जाता है. क्लौटिंग फैक्टर 8 (हीमोफीलिया ‘ए’ हेतु) या क्लौटिंग फैक्टर 9 (हीमोफीलिया ‘बी’ हेतु) को धीरेधीरे ड्रिप या इंजैक्शन के माध्यम से नसों में पहुंचाया जाता?है.

ये भी पढ़ें-मानसून में पेट की बीमारियों से कैसे बचें

एक और उपचार है, जिसे डेस्मोप्रेसिन कहते हैं. यह इंसान द्वारा बनाया गया एक हार्मोन है, जो निम्न से मध्यम स्तर के हीमोफीलिया ‘ए’ के मरीजों को दिया जाता है. इसे हीमोफीलिया ‘बी’ तथा गंभीर हीमोफीलिया ‘ए’ के मरीजों के उपचार के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. इस तरह हीमोफीलिया के मरीजों को आशा नहीं खोनी चाहिए. यदि डाक्टर के निर्देशानुसार उपचार लिया जाए तो इस के रोगी सक्रिय रह कर सारा जीवन जी सकते हैं

बिलखता मौन-भाग 2 : किरण कमरे में क्यों बंद थी?

‘‘इतना सुनते ही मैं दूसरे कमरे में चली गई. मुझे उन की सब बातें सुनाई दे रही थीं. बहुत तो नहीं, थोड़ाथोड़ा समझ में आ रहा था…

‘‘‘सुखी, तुझे तो मैडल मिलना चाहिए. तू ने तो वह कर दिखाया जो अकसर लड़के किया करते हैं. क्या गोरा, क्या काला. कोई लड़का छोड़ा भी था?’ ज्योति आंटी ने मां को छेड़ते हुए कहा.

‘‘‘ज्योति, तू नहीं समझेगी. सुन, जब मैं भारत से आई थी, उस समय मैं 14 वर्ष की थी. स्कूल पहुंचते ही हक्कीबक्की सी हो गई. यहां का माहौल देख कर मेरी आंखें खुली की खुली रह गईं. तकरीबन सभी लड़केलड़कियां गोरेचिट्टे, संगमरमरी सफेद चमड़ी वाले, उन के तीखेतीखे नैननक्श. नीलीनीली हरीहरी आंखें, भूरेभूरे सोने जैसे बाल, उन्हें देख कर ऐसा लगता था मानो लड़के नहीं, संगमरमर के बुत खड़े हों. लड़कियां जैसे आसमान से उतरी परियां. मेरी आंखें तो उन पे गड़ी की गड़ी रह जातीं. शुरूशुरू में उन का खुलापन बहुत अजीब सा लगता था. बिना संकोच के लड़केलड़कियां एकदूसरे से चिपटे रहते. उन का निडर, आजाद, हाथों में हाथ डाले घूमते रहना, ऐसा लगता था जैसे वे शर्म शब्द से अनजान हैं. धीरेधीरे वही खुलापन मुझे अच्छा लगने लगा. ज्योति, सच बताऊं, कई बार तो उन्हें देख कर मेरे मन में भी गुदगुदी होती. मन मचलने लगता. उन से ईर्ष्या तक होने लगती थी. तब मैं घंटों अपने भारतीय होने पर मातम मनाती. बहुत कोशिशें करने के बावजूद मेरे मन में भी जवानी की इच्छाएं इठलाने लगतीं. आहिस्ताआहिस्ता यह आग ज्वालामुखी की भांति भभकने लगी. एक दिन आखिर के 2 पीरियड खाली थे. मार्क ने कहा, ‘सुखी, कौफी पीने चलोगी?’ मैं ने उचक कर झट से हां कर दी. क्यों न करती? उस समय मेरी आंखों के सामने वही दृश्य रीप्ले होने लगा. तुम इसे चुनौती कहो या जिज्ञासा. मुझे भी अच्छा लगने लगा. धीरेधीरे दोस्ती बढ़ने लगी. मार्क को देख कर जौर्ज और जौन की भी हिम्मत बंधी. कई लड़कों को एकसाथ अपने चारों ओर घूमते देख कर अपनी जीत का एहसास होता. इसे तुम होल्ड, कंट्रोल या फिर पावर गेम भी कह सकती हो. अपने इस राज की केवल मैं ही राजदार थी.’

‘‘‘सुखी, तुम कौन से जौर्ज की बात कर रही हो, वही अफ्रीकन?’

‘‘‘हां, वह तो एक जिज्ञासा थी. उसे टाइमपास भी कह सकती हो. न जाने कब और कैसे मैं आगे बढ़ती गई. आसमान पर बादलों के संगसंग उड़ने लगी. पढ़ाई से मन उचाट हो गया. एक दिन पता चला कि मैं मां बनने वाली हूं. घर में जो हंगामा हुआ, सो हुआ. मुझे स्कूल छोड़ना पड़ा. सभी लड़कों ने जिम्मेदारी से मुंह मोड़ लिया. मैं भी किस पर हाथ रखती. मैं तो खुद ही नहीं जानती थी. किरण का जन्म होते ही उसे अपनाना तो दूर, मां ने किसी को उसे हाथ तक नहीं लगाने दिया. जैसे मेरी किरण गंदगी में लिपटी छूत की बीमारी हो. इस के बाद मेरी मां के घर से क्रिसमस का उपहार तो क्या, कार्ड तक नहीं आया.’’’

‘‘किरण, तुम्हें यह सब किस ने बताया?’’ वार्डन ने स्नेहपूर्वक पूछा.

‘‘उस दिन मैं ने मां और ज्योति आंटी की सब बातें सुन ली थीं. जल्दी ही समय की कठोर मार ने मुझे उम्र से अधिक समझदार बना दिया. मां जो कभीकभी सबकुछ भुला कर मुझे प्यार कर लेती थीं, अब उन के व्यवहार में भी सौतेलापन झलकने लगा. जो पैसे उन्हें सोशल सिक्योरिटी से मिलते थे, उन से वे सारासारा दिन शराब पी कर सोई रहतीं. घर के काम के कारण कईकई दिन स्कूल नहीं भेजतीं. सोशलवर्कर घर पर आने शुरू हो गए. सोशल सर्विसेज की मुझे केयर में ले जाने की चेतावनियों का मां पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा. शायद मां भी यही चाहती थीं. मां हर समय झुंझलाई सी रहतीं. मुझे तो याद ही नहीं कि कभी मां ने मुझे प्यार से बुलाया हो या फिर कभी अपने संग बिस्तर में लिटाया हो. मैं मां की ओर ललचाई आंखों से देखती रहती. ‘एक दिन मां ने मुझे बहुत मारा. शाम को वे मुझे अकेला छोड़ कर दोस्तों के संग पब (बीयर बार) में चली गईं. उस वक्त मैं केवल 8 वर्ष की थी. घर में दूध के सिवा कुछ खाने को नहीं था. बाहर बर्फ पड़ रही थी. रातभर मां घर नहीं आईं. न ही मुझे डर के मारे नींद. दूसरे दिन सुबह मैं ने पड़ोसी मिसेज हैंपटन का दरवाजा खटखटाया. मुझे डरीडरी, सहमीसहमी देख कर उन्होंने पूछा, ‘किरण, क्या बात है? इतनी डरीडरी क्यों हो?’

‘‘मम्मी अभी तक घर नहीं आईं,’ मैं ने सुबकतेसुबकते कहा.

‘‘‘डरो नहीं, अंदर आओ.’

‘‘मैं सर्दी से ठिठुर रही थी. मिसेज हैंपटन ने मुझे कंबल ओढ़ा कर हीटर के सामने बिठा दिया. वे मेरे लिए दूध लेने चली गईं. 20 मिनट के बाद एक सोशलवर्कर, एक पुलिस महिला के संग वहां आ पहुंची. जैसेतैसे पुलिस ने मां का पता लगाया.

‘‘‘चाइल्ड प्रोटैक्शन ऐक्ट’ के अंतर्गत वे मुझे अपने साथ ले गए. मां के चेहरे पर पछतावे के कोई चिह्न न थे. न ही उन्होंने मुझे रोकने का ही प्रयास किया. पिता का पता नहीं था. मां भी छूट गई. मानो, मुझे एक मिट्टी की गुडि़या समझ कर कहीं रख कर भूल गई हों. चिल्ड्रंस होम में एक और अनाथ की भरती हो गई.

‘‘वहां में सब ने मेरा खुली बांहों से स्वागत किया. एक तसल्ली थी, वहां मेरे जैसे और भी कई बच्चे थे. मेरे देखतेदेखते कितने बच्चे आए और चले गए. बिक्की और मेरा कमरा सांझा था. बिक्की और मेरा स्कूल भी एक ही था. वीकेंड में सभी बच्चों के फोन आते तो मेरे कानों का एंटीना (एरियल) भी खड़ा हो जाता. लेकिन मां का फोन कभी नहीं आया. लगता था मां मुझे हमेशा के लिए भूल गई थीं. अब बिक्की ही मेरी लाइफलाइन थी. हम दोनों की बहुत पटती थी. पढ़ाई में भी होड़ लगा करती थी. बिक्की के प्यार तथा चिल्ड्रंस होम के सदस्यों के सहयोग से धीरेधीरे मैं ने स्वयं को समेटना आरंभ कर दिया.

Hyundai Grand i10 Nios – #MakesYouFeelAlive

Hyundai Grand i10 Nios के बारे में अभी तक हम उसके फ्रंट और साइड के पार्ट के बारे में जान चुके हैं, लेकिन आज हम इसके बैक के कुछ खास पार्ट्स की खूबसूरती के बारे में जानेंगे.

Nios का बैक एक बेहतरीन कोण के आकार में बना हुआ है. कार के लाइट के बीच में कार का Logo  डिजाइन किया हुआ है. इससे कार का नाम ऊभर कर आ रहा है. पीछे का लुक भी लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करने वाला है.

ये भी पढ़ेंं-Hyundai Grand i10 Nios: Exterior

वहीं कार की लाइट जब जलती है तो हुंडई Grand i10 Nios का Logo और भी ज्यादा आकर्षित करता है. पीछे का यह डिजाइन सभी को खूब पसंद आ रहा है. कार कि लाइट को भी एक स्पेशल डिजाइन में लगाया गया है.

Grand i10 Nios  कार का यह प्वाइंट ही पीछे के सारे लुक को चेंज कर दे रहा है.

सुशांत के सुसाइड के बाद पहली बार यहां दिखे करण जौहर, नीतू कपूर के बर्थडे में हुए थे शामिल

बॉलीवुड अदाकारा नीतू कपूर ने अपना 62 वां जन्मदिन मनाया है. इस खास मौके पर उनके परिवार के अलावा फिल्म निर्माता करण जौहर भी नजर आएं. करण जौहर सुशांत सिंह राजपूत के मौत के बाद पहली बार किसी पार्टी मे नजर आएं है. सुशांत सिंह के मौत के बाद इन्हें विवादों का सामना करना पड़ा था.

दरअसल, सुशांत के मौत के बाद करण जौहर को लगातार ट्रोलिंग का सामना कर रहे हैं. इस सभी हंगामें के बाद करण जौहर पूरी तरह से टूट गए हैं. उन्होंने कुछ दिनों पहले सोशल मीडिया पर पोस्ट किया था जिसमें में उन्होंने बताया था कि मुंबई फिल्मउत्सव मामी को रिजाइन किया है.. इसके साथ उन्होंने सोशल मीडिया पर अपना कमेंट बॉक्स भी बंद कर दिया था.

करण इस घटना के बाद से खुद को पूरी तरह से टूटा हुआ बता रहे थें लेकिन नीतू कपूर के पार्टी  की तस्वीर जबसे वायरल होनी शुरू हुई है. एकबार फिर वह यूजर्स के निशाने पर आ गए हैं. यूजर्स इन्हे दूबारा ट्रोल करने लगे हैं.

ये भी पढ़ें-जल्द हो सकती है सुशांत की आत्महत्या की CBI जांच! सुब्रमण्यम स्वामी ने किया ये Tweet

बात करें नीतू कपूर की तो पति ऋषि कपूर के जानें के बाद वो अपना पहला जन्मदिन मना रही हैं. इस खास मौके पर उनकी बेटी रिद्धिमा ने पूरा इंतजाम किया था. रिद्धिमा ने फैमली मेंबर्स के अलावा करण जौहर को भी अपने पार्टी में शामिल किया था.

इस खास मौके पर नीतू कपूर बेहद खूबसूरत अंदाज में ऩजर आ रही थीं. उन्होंने ब्लैक रंग का ड्रेस पहन रखा था. वहीं रणबीर और रिद्धिमा भी बहुत प्यारे लग रहे थें. उन्होंने ने अपनी मां के जन्मदिन को खास बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. इसे देखकर अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह जन्मदिन नीतू कपूर के लिए यादगार रहा होगा.

रिद्धिमा और रणबीर अपनी सबसे खूबसूरत पल यानी मां के जन्मदिन के लिए छोटा सा डिनर पार्टी रखा था. जिसमें नीतू कपूर का पसंदीदा भोजन बना हुआ था. नीतू ने इस दौरान खुद को दुनिया की सबसे अमीर औरत बताया.

ये भी पढ़ें-सुशांत की आखिरी फिल्म दिल बेचारा का टाइटल सॉन्ग रिलीज, देखें VIDEO

इंस्टाग्राम पर पोस्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि जिनके पास रिश्ते होते हैं वह दुनिया की सबसे खूबसूरत महिला होती है. हम अपने रिश्ते से एक-दूसरे को खुश करने की कोशिश करते रहते हैं.

ये भई पढ़ें-सुशांत सिंह राजपूत के जैसा दिखता है ये शख्स, फोटोज देखकर फैन्स हुए Shocked

बता दें नीतू कपूर के पति यानी ऋषि कपूर को गए हुए कुछ ही महीने हुए हैं लेकिन इस खुशी के पल को देखकर लग रहा है कि फैमली खुद को संभाल ली है. वैसे नीतू कपूर ऋषि कपूर के लिए आए दिन नए-नए पोस्ट सोशल मीडिया पर शेयर करती रहती हैं.

जल्द हो सकती है सुशांत की आत्महत्या की CBI जांच! सुब्रमण्यम स्वामी ने किया ये Tweet

पूर्व केद्रीय मंत्री सुब्रमण्यम स्वामी ने सुशांत सिंह राजपूत आत्महत्या मामले को एक बार फिर सबके सामने लाने की कोशिश में लगे हुए हैं .उन्होंने इस मामले को जांच करने के लिए वकील नियुक्त किया है. साथ ही यह भी कहा है कि इस मामले की जांच सीबीआई में जरूर होनी चाहिए.

बता दें कि बीती रात सुब्रमण्यम स्वामी ने इस बात की जानकारी अपने ट्विटर के माध्यम से दिया है. उन्होंने ईश्वर भंडारी को सभी मामलों में जांच करने के लिए कहा है. यही नहीं सुशांत के प्रशंसक भी लगातार सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं.

सुब्रमण्यम स्वामी ने अपने ट्विट में कहा है कि मैं इस मामले  की जांच करने के लिए पूरी जिम्मेदारी ईश्वर को दी है. यह सीबीआई उपयुक्त मामला है. मैंने ईश्वर को बोला है कि इस मामले में पीआईएल या क्रिमिनल कंप्लेंट  किया जाए और सुशांत के आत्महत्या वाले मामले को गंभीरता से लिया जाए.

ये भी पढ़ें-सुशांत की आखिरी फिल्म दिल बेचारा का टाइटल सॉन्ग रिलीज, देखें VIDEO

सुशांत सिंह राजपूत मामले को करीब एक महीना होने वाला है लेकिन अभी तक इस पर खुलकर कोई भी सुनवाई नहीं हो रही है. इस बात पर सभी लोग हैरान और परेशान है. सुब्रमण्यम स्वामी ने इस सराहनीय कदम को उठाया है.

ये भी पढ़ें-सुशांत सिंह राजपूत के जैसा दिखता है ये शख्स, फोटोज देखकर फैन्स हुए

सभी लोग यही चाहते है कि इस मामले की जांच सीबीआई करें. लोगों को कहना है कि सुशांत ने आत्महत्या नहीं कि है उसे मारा गया है.

यहीं नहीं इस मामले में करीब 28 लोगों से अब तक पूछताछ हो चुकी है.  फिल्म डायरेक्टर संजय लीला भंसाली, रिया चक्रवर्ती और भी कई मशहूर अभिनेता शामिल हैं.

ये भी पढ़ें-‘दिल बेचारा’ के ट्रेलर में सुशांत सिंह की टी-शर्ट में लिखा मैसेज हो रहा है वायरल

बता दें हाल ही में सुशांत सिंह राजपूत की आखिरी फिल्म” दिल बेचारा “के ट्रेलर लॉच हुआ है जिसे फैंस उसे खूब पसंद कर रहे हैं. इस फिल्म के किरदार में सुशांत ने सभी का दिल छू लेने वाला रोल अदा किया है.

सुशांत इस दुनिया को अलविदा तो कह चुके हैं लेकिन फैंस अपने फैंस के दिल में हमेशा जिंदा रहेंगे.

 

विकास दुबे इस राजनीति की पहचान है वह मर नहीं सकता

दशक 1990-2010 के बीच सिनेमाई पर्दे पर ऐसी कई फ़िल्में देखने को मिल जाती थी जिसमें सियासत और बाहुबल का मेलजोल खूब होता था. फिल्मों में नेता किस तरह से अपने वोटों के लिए स्थानीय बाहुबलियों को पालपोंस कर बड़ा करते थे और फिर अपने मतलब से उनका राजनीति में इस्तेमाल करते थे. बचपन में ऐसी फ़िल्में देख कर लगता था कि “इतना भी क्या नेता-गुंडों में सांठगांठ होता होगा, ये फ़िल्में कुछ ज्यादा ही दिखा देती हैं.” लेकिन अब सोच कर लगता है कि यह सिनेमा कहीं न कहीं इसी समाज की हकीकतों से होकर गुजरता है.

लेकिन यहां बात सिनेमा की नहीं है. क्योंकि सिनेमा तो एक आइना महज हो सकता है. यह बात उस हकीकत की है जो 2-3 जुलाई के रात से देश के सामने बाहें परोसे खड़ी थी. जिस घटना ने देश की भावी पीढ़ी को चेतावनी दी कि “इस राजनीति की मैं ही हकीकत हूँ. उठो देखो मुझे और समझो. तुम्हारे नेता तुम्हे पल पल बेवकूफ बनाते हैं.” लेकिन यह बात क्या हमारी इस पीढ़ी को समझ आने वाली है? नहीं, क्योंकि हमारी पीढ़ी भी तो इसी समाज का ही हिस्सा है. जाहिर है जब समाज ने बबूल बोना सिखाया है तो फल की जगह कांटे ही तो मिलेंगे.

अब इसे समझने के लिए कोई रोकेट साइंस की जरूरत नहीं बल्कि यह उदाहरण हमारे आसपास बहते है. एकाध अपवाद अगर छोड़ दिया जाए तो मुस्लिम बहुल क्षेत्र से मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव जीतता है, ब्राह्मण बहुल इलाके से ब्राहमण और दलित बहुल से दलित. यानी हम जिन भेदभावों को अपने दिमाग में सोचते हैं ये राजनेता उन्ही का इस्तेमाल करके उसे बुनियादी बना देते हैं. फिर राजनेता तो इसी कीचड़ में अपना कमल खिलाना जानते हैं. क्योंकि इस कीचड को बनाए रखने से ही तो उनके स्वार्थ पुरे होते हैं.

विकास दुबे की मौत, भ्रष्ट नेता और अफसरों के लिए जीवनदान?

स्पेशल टास्क फ़ोर्स की तरफ से अधिकारिक तौर से जानकारी मिली कि विकास दुबे एनकाउंटर में मारा गया है. हिंदुस्तान टाइम्स की खबर के अनुसार विकास पुलिस की पिस्तौल छीनकर भागने की कोशिश कर रहा था. जिस मुठभेड़ में कुछ पुलिसमैन भी घायल बताए जा रहे हैं. जिसके बाद उसका एनकाउंटर किया गया. यह एनकाउंटर कानपूर के सचेंडी बॉर्डर पर हुआ. है न पक्का फ़िल्मी सीन? जो व्यक्ति एक दिन पहले खुद की गिरफ्तारी करवाता है क्या वह इतनी सुरक्षा के बीच भागने की हिमाकत कर सकता है?

एसटीएफ के लगभग 15 के आसपास सिपाही उसे लेकर आज कोर्ट में समन करवाने वाले थे किन्तु शहर में दाखिल होने से पहले ही उसका एनकाउंटर हो गया. अब इस एनकाउंटर ने पुरे मामले को और भी संदेहों के घेरों में डाल दिया है. विकास को लेकर यह माना जा रहा था कि उसकी गिरफ्तारी के बाद संभावना है कि राजनीतिक गलियारों में हडकंप मचने वाली थी. इसकी चपेट में सूबे के साथ साथ एमपी के नेता भी घिर रहे थे. भाजपा, सपा, बसपा के साथ गैंगस्टर विकास के संबंध मीडिया की सुर्ख़ियों में जगह पा रहे थे. विकास के जिन भी राजनेताओं, पुलिस और अफसरों से लेनदेन चलता था वह उजागर हो सकते थे. लेकिन इस एनकाउंटर ने एक हद तक उन कयासों को दबा दिया है.

ये भी पढ़ें- विकास दुबे एनकाउंटर: कानून और न्याय से नहीं, बंदूक की नोक पर होगा शासन!

अब पूरा मामला एनकाउंटर के तौरतरीकों और विकास के मारे जाने के सही-गलत फैंसले के बीच ठेहर कर रह गई है. जो गैंगस्टरों को राजनीतिक संरक्षण दिए जाने की बहस इतने दिनों से देश में चल रही थी और नेताओं की पोल पट्टी खुल रही थी उसे पूरी तरह से “एनकाउंटर” कर घुमा दिया गया है. उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इस एनकाउंटर के पीछे बड़े राज को छुपाने का आरोप लगाया है.

यह किसी फ़िल्मी कहानी सा लगता है. एक कुख्यात दबंग अपराधी जिसका नेताओं के साथ उठना बेठना था. जिसकी कानपुर में धाक थी. जिसका इस्तेमाल तमाम पार्टी वोटों को बटोरने के लिए अपने फायदे में करती थी. जो अपने आकाओं की मदद से राजनीती की ऊँची सीढ़ी चढ़ना चाहता था. एक दिन इन्ही आकाओं के साथ तनातनी हो चलती है और वह किसी कांस्पीरेसी में मार दिया जाता है.

ठीक ऐसे ही विकास दुबे जैसा खूंखार अपराधी जिसके ऊपर 60 अपराधिक मामले दर्ज थे. कुछ तो सनसनी फैलाने वाली हत्याएं थी. इसमें उसका 2001 में थाने में घुसकर दर्जा प्राप्त मंत्री को मारना भी शामिल है जिसकी गवाही देने के लिए उस दौरान घटनास्थल पर मौजूद पुलिस तक सामने नहीं आई. जबकि उस दौरान प्रदेश में राजनाथ की सरकार थी. जैंसे जैंसे इसका अपराध बढ़ता रहा वैसे ही यह राजनीति की सीढियां भी चढ़ता रहा. वर्षों तक गांव में खुद या परिवारजन प्रधान चुने जाते रहे. पत्नी जिला अध्यक्ष बनी. इस दौरान उसके बसपा, भाजपा, सपा के साथ संबंध निकट के रहे. कानपूर का चुनाव में अहम् हिस्सा था तो उसकी विधायक बनने की महत्वाकांशा भी थी. इसी जुगत में वह 2022 के चुनाव की तैयारी भी कर रहा था.

“गिरफ़्तारी” के पीछे किसका हाथ था?

विकास दुबे के “एनकाउंटर” के बाद से अब चीजें दबी जुबान प्रशासन की मिलीभगत को साफ़ कर दिया हैं. लेकिन इसे एक ऐसे मोड़ पर लाकर छोड़ दिया है जहां सिर्फ अटकलों और लम्बी न्यायिक जांच के देर बाद गुमनामी की फाइलों में दफन हो जाएगी. यह मामला शुरू से ही गोल मोल घुमाया जा रहा था. पुलिस हत्याकांड के रोज जितने सवाल उस घटना ने सबके सामने ला खड़े किये थे उतने ही सवालों के घेरे में उसकी कथित “गिरफ्तारी” सामने आ रही थी. इसे कथित इसलिए कहा जा रहा है क्योंकि यह गिरफ्तारी कम सरेंडर अधिक था. यहां भी बड़े बड़े ओधेदार लोगों के साथ मिलकर बड़ी चालाकी से गिरफ्तारी की योजना बनाई गई लगती थी. घटना के बाद से ही उत्तरप्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, बिहार, मध्यप्रदेश, झारखंड इत्यादि विकास को लेकर हाई अलर्ट पर थे. उत्तरप्रदेश की 40 थानों की पुलिस उसके पीछे लगी हुई थी. लगभग 156 के आसपास छापे मारे गए थे. जगह जगह चेकपॉइंट्स बनाए गए थे. इसके साथियों का एनकाउंटर किया जा रहा था.

ये भी पढ़ें-अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव 2020,ले डूबेंगे ट्रंप के तेवर

किन्तु उतनी हाईटेक सेकुरिटी के बावजूद वह 4 राज्यों से होता हुआ एमपी के उज्जैन के महाकाल मंदिर में आराम से घूमता हुआ दिखाई दिया. वह सिर्फ दिखाई नहीं दिया, उसने बाकायदा मंदिरदर्शन के लिए 250 रूपए की वीआईपी टिकेट ली जिसमें विशेष तौर पर आईडी दिखानी पड़ती है. यहां तक कि उसने टिकेट पर अपना सही नाम लिखवाकर और मंदिर के पास फोटो खिंचवाकर खुद के जिन्दा होने का सबूत दिया.

यहां तक कि इतने कुख्यात अपराधी को मंदिर के गार्ड ने कथित तौर पर पकड़ा. जिसके हाथ न बन्दूक थी न कोई हथियार. इसकी खबर वहां की स्थानीय पुलिस तक को नहीं थी. पुलिस ने जब विकास को पकड़ा तो वह चीख चीख कर लोगों को बता रहा था कि “मैं विकास दुबे हूँ कानपूर वाला.” विकास को पकड़ने के बाद 2 घंटे की पूछताछ की गई यह पता लगाने के लिए कि यही असली विकास है या नहीं. क्या इसे किसी भी एंगल से गिरफ़्तारी कहा जा सकता है? क्या यह बिना राजनीतिक संरक्षण के हो सकता था?

इसे लेकर कांग्रेस की यूपी और एमपी टीम की तरफ से 2 अलग अलग ट्वीट किये गए. जिसमें उन्होंने एमपी के गृहमंत्री व उज्जैन के प्रभारी नरोत्तम मिश्रा के विकास दुबे के साथ आपसी संबंधो की तरफ इशारा किया. ध्यान देने वाली बात यह कि विकास दुबे की गिरफ़्तारी पर पहला मीडिया रिएक्शन नरोत्तम मिश्रा का ही आया था. जिसमें उन्होंने इससे एमपी पुलिस की सफलता बताया था. और अपनी पीठ थपथपाई थी. वहीँ प्रियंका गाँधी ने इस गिरफ्तारी को यूपी की खराब सुरक्षा व्यवस्था और सरकार पर मिलीभगत होने का आरोप लगाया. इन सारी चीजों ने 7 दिनों के भीतर व्यवस्था के भीतर की पोलपट्टी खोल कर रख दी है. साथ ही गैंगस्टर का समाज और राजनीति में बढ़ते दखल को दिखा दिया है.

यूपी में राजनीति की हकीकत

यह बात पहले भी आ चुकी है कि भारत में अधिकतम चुनावी राजनीति, जाति आधारित होती है. इसे इस बात से समझा जा सकता है कि जिस जगह राजपूत-ठाकुर बहुल होते हैं वहां महाराणा प्रताप के स्वर गूंजते है, ब्राह्मण इलाकों में परसुराम की ताल तो दलित क्षेत्रों में जय भीम के नारे. यानी किसी सीट पर प्रत्याशी और मुददों का चयन वहां किस जाति की बहुलता है उस पर निर्भर करती है.

ये भी पढ़ें-क्या चीन तीसरे विश्व युद्ध के संकेत दे रहा है?

इस तरह की राजनीति के लिए यूपी, बिहार पुरे देश में मुख्य पायदान पर आते हैं. जहां कुछ अपवाद को छोड़कर जाति के आधार पर वोट बटोरा जाता है. चुनाव होने से पहले यह तय कर लिया जाता है कि इस बार कौन जीतने वाला है. उत्तरप्रदेश में ग्रामीण इलाके जाति आधारित टोलों के हिसाब से बंटे होते है. इन टोलों के भीतर स्थानीय दबंग पैदा हो जाते हैं या किये जाते हैं. जो दबंग खुद बा खुद पैदा होते हैं वे या तो हटा/मार दिए जाते हैं या समीकरण देख कर वोटों के लिए उनका इस्तेमाल किया जाता है.

हर राजनीतिक पार्टी सरकार में आते ही, दुसरे पार्टी के दबंगों को ख़त्म करवाती है या अपने पार्टी में शामिल करवा लेती है. ‘कुछ इसे अपराध का खात्मा कहते हैं कुछ इसे अपनी राजनीति की पकड़ को मजबूत करना कहते हैं.’ ये स्थानीय दबंग ही सूबे की राजनीति की रीढ़ मानी जाती है. इनका काम अपनी जाति के लोगों को डराधमका या बहला फुसलाकर पार्टी के लिए वोट को बटोरना होता है. इनका प्रभुत्व का इस्तेमाल सिर्फ अपनी जाति के लोगों के भीतर वोट बटोरने के लिए ही नहीं बल्कि दुसरी जाति के लोगों को डराने धमकाने के लिए भी किया जाता है. इसे लेकर पत्रकार प्रांशु मिश्रा ने विकास दुबे को लेकर एक खबर लिखी थी. जिसे 2001 में पब्लिश किया गया था. जिसमें बताया गया कि दुबे के पीछे कैसे एमएलए, एमपी और मंत्रियों का हाथ रहता था. कैसे 1990 में उसने अपनी अपराध की शुरुआत पिछड़े जाति के नेताओं को दबाने से शुरू किया.

विकास दुबे मामले में भी 2001 में भाजपा के स्थानीय नेता संतोष शुक्ला की ह्त्या इसी जाति के स्टेटस वार के चलते की गई. संतोष शुक्ला भी ब्राह्मण जाति से था. वह उसी इलाके में सक्रिय था और ब्राह्मण वोट को खींचने में दुबे को टक्कर दे रहा था.

यह सिर्फ लोगों या स्थानीय दबंगों के आपसी टसल तक ही नहीं सीमित है बल्कि पुलिस महकमें द्वारा भी उसकी जातिगत पहचान के चलते नरमी दिखाई जाती थी. हिन्दुस्तान टाइमस में 5 जुलाई को छपी खबर के अनुसार एसटीएफ की जांच में यह बात सामने आती है कि आला पुलिस अफसरों ने दुबे को जाति और रिश्वतखोरी के आधार पर मदद की थी. जाहिर है इससे पहले भी अनेकों मामलों में पुलिस ने अपने बिरादराना संबंधो को बनाए रखने के लिए अपनी कार्यवाहियों नहीं की.

ये भी पढ़ें- अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव 2020,ले डूबेंगे ट्रंप के तेवर

इसे सिर्फ दबंगई और पुलिसिया गठजोड़ से देखना सीमित दायरा होना है

यह बात तह है कि विकास दुबे कानपूर इलाके का नामी बदमाश पहले से ही था. यह बात पुलिस से लेकर सरकार तक सब जानते थे. उसका नाम कुख्यात अपराधियों में दर्ज था. इसलिए कानपुर के बिकरू गांव में खूंखार विकास दुबे को पकड़ने गए ‘8 पुलिसकर्मियों की हत्या’ को सिर्फ इस तौर पर देखना सही नहीं है कि इसमें ‘एक अपराधी ने उम्मीद से ज्यादा दुस्साहस दिखा दिया.’ या सिर्फ इस तौर पर ही नहीं कि कुछ पुलिसकर्मी विकास की रोटीबोटी और जाति के प्रति वफादार थे. बल्कि इससे अधिक यह समझने की भी जरुरत है कि बिना राजनीतिक संरक्षण के किसी अपराधी में इतनी हिम्मत नहीं होती कि वह पुलिस टीम को योजना बना कर घेर कर मारे और वहां से फरार भी हो जाए.

प्राय यह देखा गया है कि उत्तरप्रदेश में किसी दबंग का रंगबाजी से लेकर शुरू हुआ सफ़र धीरे धीरे “माननीय” वाली राजनीति तक पहुँचता है. इस बीच में वह सब होता है जो एक अपराधी को राजनेता बनने के लिए जरुरी योग्यता चाहिए होती है. फिर चाहे वह लूटपाट हो, जमीन पर अवैध कब्ज़ा हो, हत्या हो. अपराध के बढ़ने के साथ इलाके में राजनीतिक प्रभुत्व भी समानांतर बढ़ता जाता है. पहले पुराने बाहुबलियों के साथ उठना बैठना, उसी आधार पर विधायक, मंत्रियों के साथ मेलजोल बढ़ता है. यही अपराध और राजनीति एक पटरी के दो छोर बन जाते हैं. जो इससे पार पाता है वह मुख़्तार अंसारी, ब्रिजेश सिंह, वीरेंदर प्रताप शाही, हरिशंकर त्रिपाठी इत्यादि बन जाते है जो डगमगा जाते है वे विकास दुबे, मुन्ना बजरंगी सरीखो की लिस्ट में आ जाते हैं.

यह शुरू के दिन से चर्चा में था कि किस प्रकार विकास दुबे का इस्तेमाल वोटों को संकलित करने और इलाके में पार्टी के दबदबे के लिए किया जाता था. साथ ही इसके बदले उसकी बढती गुंडागर्दी पर हर पार्टी अपने कार्यकाल में उसे राजनीतिक संरक्षण देती थी. वह आम लोगों को डरा धमका कर इलाके का दादा बना रहता था लेकिन पुलिस यह सब देखते हुए भी उसके आगे जी हुजूरी करती थी.

ये भी पढ़ें-चीन को महंगा पड़ेगा भारत से पंगा लेना

आज यह सोचने की जरुरत है कि 2019 के लोकसभा के चुनाव में अकेले भाजपा की तरफ से 40 फीसदी प्रत्याशीयों पर अपराधिक मामले दर्ज थे. वही विपक्ष में 39 फीसदी अपराधिक मामलों में लिप्त थे. 19 प्रतिशत कैंडिडेट ऐसे थे जिन पर बहुत संजीदा अपराधिक आरोप थे. वहीँ बात अगर 2017 के यूपी विधानसभा की किया जाए तो अकेले भाजपा की तरफ से 37 फीसदी ऐसे प्रत्याशी चुन कर विधानसभा गए हैं जिन पर अपराधिक मामले दर्ज हैं. 312 सीटों में जीती भाजपा के 114 विधायक अपराध मामले से जुड़े हैं जिसमें से 83 विधायकों पर संगीन अपराधों में लिप्त होने का आरोप है. यानी हम खुद ऐसे गुंडे प्रत्याशियों को चुन कर संसद, विधानसभा में भेज रहे है और उम्मीद कर रहे है कि अपराध ख़त्म होगा.

हकीकत यह है कि विकास दुबे इस राजनीति की पहचान हैं, वह नहीं मर सकता. बल्कि उसीकी राह पर ऐसे कई लोग होंगे जो राजनीति में यही वाला शॉर्टकट लेने की चाहत रखते होंगे. विकास दुबे तो मात्र एक प्यादा है, जिसका इस्तेमाल बड़े बड़े नेता अपनी ताकत बढाने के लिए करते हैं, या टाइम आने पर कुर्बानी देने के लिए. लेकिन असली दरिन्दे तो वोह है जिन्होंने इनसे मलाई खाई और संरक्षण दिया.

ये भी पढ़ें- क्या चीन तीसरे विश्व युद्ध के संकेत दे रहा है?

अनलिमिटेड कहानियां-आर्टिकल पढ़ने के लिएसब्सक्राइब करें