दशक 1990-2010 के बीच सिनेमाई पर्दे पर ऐसी कई फ़िल्में देखने को मिल जाती थी जिसमें सियासत और बाहुबल का मेलजोल खूब होता था. फिल्मों में नेता किस तरह से अपने वोटों के लिए स्थानीय बाहुबलियों को पालपोंस कर बड़ा करते थे और फिर अपने मतलब से उनका राजनीति में इस्तेमाल करते थे. बचपन में ऐसी फ़िल्में देख कर लगता था कि “इतना भी क्या नेता-गुंडों में सांठगांठ होता होगा, ये फ़िल्में कुछ ज्यादा ही दिखा देती हैं.” लेकिन अब सोच कर लगता है कि यह सिनेमा कहीं न कहीं इसी समाज की हकीकतों से होकर गुजरता है.

लेकिन यहां बात सिनेमा की नहीं है. क्योंकि सिनेमा तो एक आइना महज हो सकता है. यह बात उस हकीकत की है जो 2-3 जुलाई के रात से देश के सामने बाहें परोसे खड़ी थी. जिस घटना ने देश की भावी पीढ़ी को चेतावनी दी कि “इस राजनीति की मैं ही हकीकत हूँ. उठो देखो मुझे और समझो. तुम्हारे नेता तुम्हे पल पल बेवकूफ बनाते हैं.” लेकिन यह बात क्या हमारी इस पीढ़ी को समझ आने वाली है? नहीं, क्योंकि हमारी पीढ़ी भी तो इसी समाज का ही हिस्सा है. जाहिर है जब समाज ने बबूल बोना सिखाया है तो फल की जगह कांटे ही तो मिलेंगे.

अब इसे समझने के लिए कोई रोकेट साइंस की जरूरत नहीं बल्कि यह उदाहरण हमारे आसपास बहते है. एकाध अपवाद अगर छोड़ दिया जाए तो मुस्लिम बहुल क्षेत्र से मुस्लिम प्रत्याशी चुनाव जीतता है, ब्राह्मण बहुल इलाके से ब्राहमण और दलित बहुल से दलित. यानी हम जिन भेदभावों को अपने दिमाग में सोचते हैं ये राजनेता उन्ही का इस्तेमाल करके उसे बुनियादी बना देते हैं. फिर राजनेता तो इसी कीचड़ में अपना कमल खिलाना जानते हैं. क्योंकि इस कीचड को बनाए रखने से ही तो उनके स्वार्थ पुरे होते हैं.

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