‘‘मैं जब सिर्फ 3 महीने का था तो मेरे माथे पर एक छोटी सी चोट लगने से काफी देर तक खून बहता रहा. खून लगातार बह रहा था. पहले तो मातापिता ने इस ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन जब काफी कोशिशों के बावजूद खून बंद नहीं हुआ तो वे मुझे अस्पताल ले गए. वहां डाक्टरों ने खून की जांच करवा कर बताया कि मुझे हीमोफीलिया की बीमारी है. उस समय इस बीमारी के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं थी. और न ही इस रोग के डाक्टर उपलब्ध थे. तब हीमोफीलिया के विशेषज्ञ ही उपचार किया करते थे. ऐसे विशेषज्ञ से मेरा भी इलाज चलता रहा.
‘‘एक बार तो इस बीमारी की वजह से मेरे हाथ में सूजन आ गई. एक डाक्टर ने इसे किसी कीड़े के काटने से आई सूजन समझ कर कट लगा दिया जिस से काफी ब्लीडिंग होती रही. उस के बाद मेरे पिता ने किसी अखबार में हीमोफीलिया फैडरेशन औफ इंडिया के बारे में पढ़ा. इस फैडरेशन तक पहुंचने में 4 साल लग गए. यहां पहुंचने पर मेरा फैक्टर टैस्ट हुआ. जिस के जरिए डायग्नोज हुआ कि मुझे ‘बी’ टाइप का हीमोफीलिया है.
‘‘मेरे मातापिता मेरे इलाज को ले कर काफी परेशान रहते. मैं अन्य बच्चों की तरह खेलकूद भी नहीं सकता था. 3 महीने में तकरीबन 20 से 25 इंजैक्शन लगवाने पड़ते. लेकिन आज मैं एक आम आदमी की तरह जी सकता हूं और अपने काम को पूर्ण रूप से करने में सक्षम भी हूं. हां, आज भी मुझे कुछ सावधानियां जरूर बरतनी पड़ती हैं.’’
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