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Toxic workplace : अब औफिस का माहौल मेरे लिए जहरीला सा हो गया है

Toxic workplace : मैं 33 वर्ष का हूं. एक प्राइवेट फर्म में पिछले 6 वर्षों से काम कर रहा हूं. हाल ही में मुझे प्रमोशन मिला है, लेकिन इस के बाद से मेरे सहकर्मी मुझ से कटने लगे हैं. वे मेरे काम में गलतियां ढूंढ़ने की कोशिश करते हैं और बौस के सामने मेरी बुराई करते हैं. अब समझ नहीं आता कि मैं खुश रहूं या सावधान?

जवाब : किसी की सफलता देखने के बाद ईर्ष्या होना एक आम मानवीय व्यवहार है. आप को खुद को इस से प्रभावित नहीं होने देना चाहिए. सब से पहले, अपने काम पर ध्यान केंद्रित रखें और यह सुनिश्चित करें कि आप की परफौर्मेंस में कोई कमी न हो. साथ ही, टीम के साथ छोटेछोटे संवाद बनाए रखें. चाय पर आमंत्रित करें, मदद की पेशकश करें. इस से गलतफहमियां कम हो सकती हैं.

अगर फिर भी कोई व्यक्ति बारबार आप को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो उस के व्यवहार को ले कर अपने सीनियर से बात करें. याद रखें, चुप रहना हमेशा समाधान नहीं होताToxic workplace 

अपनी समस्‍याओं को इस नंबर पर 8588843415 लिख कर भेजें, हम उसे सुलझाने की कोशिश करेंगे.

Social Story : एक रात का सफर – क्या हुआ अक्षरा के साथ?

Social Story : बस के हौर्न देते ही सभी यात्री जल्दीजल्दी अपनीअपनी सीटों पर बैठने लगे. अक्षरा ने बंद खिड़की से ही हाथ हिला कर चाचाचाची को बाय किया. उधर से चाचाजी भी हाथ हिलाते हुए जोर से बोले, ‘‘मैं ने कंडक्टर को कह दिया है कि बगल वाली सीट पर किसी महिला को ही बैठाए और पहुंचते ही फोन कर देना.’’

बस चल दी. अक्षरा खिड़की का शीशा खोलने की कोशिश करने लगी ताकि ठंडी हवा के झोंकों से उसे उलटी का एहसास न हो, मगर शीशा टस से मस नहीं हुआ तो उस ने कंडक्टर से शीशा खोल देने को कहा. कंडक्टर ने पूरा शीशा खोल दिया.

अक्षरा की बगल वाली सीट अभी भी खाली थी. उधर कंडक्टर एक दंपती से कह रहा था, ‘‘भाई साहब, प्लीज आप आगे वाली सीट पर बैठ जाएं तो आप की मैडम के साथ एक लड़की को बैठा दूं, देखिए न रातभर का सफर है, कैसे बेचारी पुरुष के साथ बैठेगी?’’

अक्षरा ने मुड़ कर देखा, कंडक्टर पीछे वाली सीट पर बैठे युवा जोड़े से कह रहा था. आदमी तो आगे आने के लिए मान गया पर औरत की खीज को भांप अक्षरा बोली, ‘‘मुझे उलटी होती है, उन से कहिए न मुझे खिड़की की तरफ वाली सीट दे दें.’’

‘‘वह सब आप खुद देख लीजिए,’’ कंडक्टर ने दो टूक लहजे में कहा तो अक्षरा झल्ला कर बोली, ‘‘तो फिर मुझे नहीं जाना, मैं अपनी सीट पर ही ठीक हूं.’’

कंडक्टर भी अव्वल दर्जे का जिद्दी था. वह तुनक कर बोला, ‘‘अब आप की बगल में कोई पुरुष आ कर बैठेगा तो मुझे कुछ मत बोलिएगा, आप के पेरैंट्स ने कहा था इसलिए मैं ने आप के लिए महिला के साथ की सीट अरेंज की.’’

तभी झटके से बस रुकी और एक दादानुमा लड़का बस में चढ़ा और लपक कर ड्राइवर का कौलर पकड़ कर बोला, ‘‘क्यों बे, मुझे छोड़ कर भागा जा रहा था, मेरे पहुंचे बिना बस कैसे चला दी तू ने?’’

ड्राइवर डर गया. मौका   देख कर कंडक्टर ने हाथ जोड़ते हुए बात खत्म करनी चाही, ‘‘आइए बैठिए, देखिए न बारिश का मौसम है इसीलिए, नहीं तो आप के बगैर….’’ उस ने लड़के को अक्षरा की बगल वाली सीट पर ही बैठा दिया.

अक्षरा समझ गई कि कंडक्टर बात न मानने का बदला ले रहा था. उस ने खिड़की की तरफ मुंह कर लिया.

बारिश शुरू हो चुकी थी और बस अपनी रफ्तार पकड़ने लगी थी. टेढ़ेमेढ़े घुमावदार पहाड़ी रास्तों पर अपने गंतव्य की ओर बढ़ती बस के शीशों से बारिश का पानी रिसरिस कर अंदर आने लगा. सभी अपनीअपनी खिड़कियां बंद किए हुए थे. अक्षरा ने भी अपनी खिड़की बंद करनी चाही, लेकिन शीशा अपनी जगह से टस से मस नहीं हुआ. उस ने इधरउधर देखा, कंडक्टर आगे जा कर बैठ गया था. पानी रिसते हुए अक्षरा को भिगा रहा था.

तभी बगल वाले लड़के ने पूछा, ‘‘खिड़की बंद करनी है तो मैं कर देता हूं.’’

अक्षरा ने कोई उत्तर नहीं दिया. फिर भी उस ने उठ कर पूरी ताकत लगा कर खिड़की बंद कर दी. पानी का रिसना बंद हो गया, बाहर बारिश भी तेज हो गई थी.

अक्षरा खिड़की बंद होते ही अकुलाने लगी. उमस और बस के धुएं की गंध से उस का जी मिचलाने लगा था. बाहर बारिश काफी तेज थी लेकिन उस की परवाह न करते हुए उस ने शीशे को सरकाना चाहा तो लड़के ने उठ कर फुरती से खिड़की खोल दी.

अक्षरा उलटी करने लगी. थोड़ी देर तक उलटी करने के बाद वह शांत हुई मगर तब तक उस के बाल और कपड़े काफी भीग चुके थे.

बगल में बैठे लड़के ने आत्मीयता से पूछा, ‘‘आप की तबीयत तो ठीक है, मैं पानी दूं, कुल्ला कर लीजिए.’’

अक्षरा अनमने भाव से बोली, ‘‘मेरे पास पानी है.’’

वह फिर बोला, ‘‘आप अकेली ही जा रही हैं, आप के साथ और कोई नहीं है?’’

अक्षरा इस सवाल से असहज हो उठी, ‘‘क्यों मेरे अकेले जाने से आप को क्या लेना?’’

‘‘जी, मैं तो यों ही पूछ रहा था,’’ लड़के को भी लगा कि शायद वह गलत सवाल पूछ बैठा है, लिहाजा वह दूसरी तरफ देखने लगा.

थोड़ी देर तक बस में शांति छाई रही. बस के अंदर की बत्ती भी बंद हो चुकी थी. तभी ड्राइवर ने टेपरिकौर्डर चला दिया. कोई अंगरेजी गाना था, बोल तो स्पष्ट नहीं थे पर कानफोड़ू संगीत गूंज उठा.

तभी पीछे से कोई चिल्लाया, ‘‘अरे, ओ ड्राइवरजी, बंद कीजिए इसे. अंगरेजी समझ में नहीं आती हमें. कुछ हिंदी में बजाइए.’’

कुछ देर बाद एक पुरानी हिंदी फिल्म का गाना बजने लगा.

रात काफी बीत चुकी थी, बारिश कभी कम तो कभी तेज हो रही थी. बस पहाड़ी रास्ते की सर्पीली ढलान पर आगे बढ़ रही थी. सड़क के दोनों तरफ उगी जंगली झाडि़यां अंधेरे में तरहतरह की आकृतियों का आभास करवा रही थीं. बारिश फिर तेज हो उठी. अक्षरा ने बगल वाले लड़के को देखा, वह शायद सो चुका था. वह चुपचाप बैठी रही.

पानी का तेज झोंका जब अक्षरा को भिगोते हुए आगे बढ़ कर लड़के को भी गिरफ्त में लेने लगा तो वह जाग गया, ‘‘अरे, इतनी तेज बारिश है आप ने उठाया भी नहीं,‘‘ कहते हुए उस ने खिड़की बंद कर दी.

थोड़ी देर बाद बारिश थमी तो खुद ही उठ कर खिड़की खोल भी दी और बोला, ‘‘फिर बंद करनी हो तो बोलिएगा,’’ और आंखें बंद कर लीं.

अक्षरा ने घड़ी पर नजर डाली, सुबह के 3 बज रहे थे, नींद से उस की आंखें बोझिल हो रही थीं. उस ने खिड़की पर सिर टेक कर सोना चाहा, तभी उसे लगा कि लड़के का पैर उस के सामने की जगह पर फैला हुआ है. उस ने डांटने के लिए जैसे ही लड़के की तरफ सिर घुमाया तो देखा कि उस ने अपना सिर दूसरी तरफ झुका रखा था और नींद की वजह से तिरछा हो गया था और उस का पैर अपनी सीट के बजाय अक्षरा की सीट के सामने फैल गया था. अक्षरा उस की शराफत पर पहली बार मुसकराई.

सुबह के 6 बजे बस गंतव्य पर पहुंची. वह लड़का उठा और धड़धड़ाते हुए कंडक्टर के पास पहुंचा, ‘‘उस लड़की का सामान उतार दे और जिधर जाना हो उधर के आटो पर बैठा देना. एक बात और सुन ले जानबूझ कर तू ने मुझे वहां बैठाया था, आगे से किसी भी लड़की के साथ मेरे जैसों को बैठाया तो मुझ से बुरा कोई नहीं होगा. फिर वह उतर कर तेज कदमों से चला गया.’’

अक्षरा के मस्तिष्क में कई सवाल एकसाथ कौंध गए. उसे जहां उस लड़के की सहायता के बदले धन्यवाद न कहने का मलाल था, वहीं इस जमाने में भी इंसानियत और भलाई की मौजूदगी का एहसास. Social Story

Family Story In Hindi : मेरा फूड जिहाद

Family Story In Hindi : औफिस से घर जाते हुए मैं ने लखनऊ की मशहूर दुकान ‘छप्पनभोग’ से जीत की मनपसंद मिठाई, रसमलाई ली. आज उस की 7वीं क्लास का रिजल्ट घोषित हुआ है. मैथ्स में उस के 100 में से 90 नंबर आए हैं. पिछले साल मैथ्स में उस के नंबर इतने कम थे कि मैं ने रिजल्ट उस के मुंह पर मारा था. वह फेल होतेहोते बचा था.

घर जाने के पूरे रास्ते मैं बहुत खुश था. कल अनाथालय भी जाऊंगा, अनाथ बच्चों को उपहार दूंगा. आखिर सब प्रकृति की ही तो कृपा है जो जीत मैथ्स में अपनी मां पर नहीं गया. वैसे, मैथ्स के नाम से तो बुखार मुझे भी चढ़ता रहा है.

मैं जैसे ही अपनी सोसाइटी के अंदर घुसा, वौचमैन असलम ने मुझे सलाम किया. मेरा मूड खराब हो गया. पता नहीं, सिक्योरिटी वाले को कोई और नहीं मिला क्या, हमारी पूरी बिल्डिंग में सब हिंदू हैं, बस, यही असलम मेरा दिमाग खराब करता है. बाकी की बिल्डिंग्स में इक्कादुक्का मुसलिम हैं. अपनी बिल्डिंग से मैं इसी बात पर खुश होता हूं कि यहां एक भी मुसलिम फैमिली नहीं. बस, इस असलम की जगह कोई और आ जाए तो अच्छा रहेगा.

मेरा बस चले, तो पूरी सोसाइटी में एक भी मुसलिम फैमिली को रहने न दूं. अपने फ्लैट की डोरबैल बजाई तो पत्नी रीना ने दरवाजा खोला. उसके पीछे से जीत ने झांका और चिल्लाया, “पापा, देखो, मेरा रिजल्ट, कितने अच्छे नंबर हैं.” उस के पीछे से जीत की बड़ी बहन मेघा ने भी उत्साह से कहा, “पापा, जीत ने इस बार कमाल कर दिया. हमारे यहां तो मैथ्स में कभी किसी के इतने अच्छे नंबर नहीं आए.”

घर खिलखिला रहा था. मैं ने अपना बैग एक तरफ रख जीत के हाथ में मिठाई देते हुए उसे खूब प्यार किया, “शाबाश, सच बेटा, मजा आ गया.”

रीना ने कहा, “चलो, आप फ्रैश हो जाओ, मैं सब का खाना लगाती हूं. आज सब जीत की पसंद का बना है. जीत, कल एक काम करना, अपनी शाहीन मैडम के लिए भी मिठाई ले जाना.”

पत्नी की यह बात सुन कर मैं वौशरूम जाता हुआ रुक गया, पलटा, “कौन शाहीन?”

“अरे, जीत की मैथ्स टीचर.”

“क्या बकवास कर रही हो, यह किसी मुसलमान टीचर से पढ़ता है?”

“आप को बताया तो था, भूल गए क्या?”

“झूठ मत बोलो, मुझे किसी ने बताया ही नहीं. मैं कभी अपने बच्चे को किसी मुसलिम टीचर से ट्यूशन पढ़ने नहीं भेज सकता.”

अब मेघा ने कुछ नाराज़गी से कहा, “पापा, आप की बात सुनने में ही शर्म आ रही है. आजकल ऐसी बातें कौन सोचता है?”

“कोई सोचता नहीं, तभी देश का यह हाल हो रहा है. मैं अभी जा कर उस टीचर से खुद कह कर आता हूं कि जीत अब कभी नहीं आएगा.”

जीत रोने को हो आया, “पापा, प्लीज, मेरी टीचर बहुत अच्छी हैं, सब बच्चों को बहुत प्यार से पढ़ाती हैं, मुझे सब समझ आता है. मैं उन्हीं से पढूंगा.”

“टीचर की कोई कमी है क्या जो उसी से पढ़ोगे? जिसे पैसे देंगे, वही पढ़ा देगा.”

रीना को गुस्सा आ गया, “किसी को जाने बिना बस हिंदूमुसलिम करते रहा करो, आप को पता भी है कि वह सोसाइटी की मैथ्स की बेस्ट टीचर है. कितने मन से बच्चों को समझाती है, मैं ने खुद देखा है.”

“मुझे कुछ नहीं पता, मेरा बेटा उस से नहीं पढ़ेगा. मैं अभी उस का हिसाब कर के आता हूं.” और मैं गुस्से में पैर पटकते हुए बाहर निकलने लगा. मेरा पूरा परिवार मेरे गुस्से से वाकिफ था, सब मुझे रोकते रह गए. मैं न रुका.

मैं आताजाता असलम को देख कर खून जलाता हूं, और मेरा बेटा रोज़ एक मुसलिम के घर कम से कम 2 घंटे तो बिता कर आता है, हद हो गई. पता नहीं वहां कुछ खातापीता भी हो…ब्राह्मण हो कर क्या अधर्म हो गया मुझ से?

मैं अपनी बिल्डिंग से बाहर निकल तो आया पर फिर याद आया कि मुझे तो पता ही नहीं कि यह टीचर कौन सी बिल्डिंग में रहती है. एक तो औफिस के कामों में इतना व्यस्त रहने लगा हूं कि कुछ होश ही नहीं रहता. इसलिए हो सकता है कि रीना ने कभी इस शाहीन टीचर के बारे में बताया भी हो तो मैं ने अपनी धुन में सुना न हो.

मैं वापस असलम की तरफ आया. वह फौरन अपनी चेयर से उठ कर खड़ा हो गया. मैं ने चिढ़ते हुए पूछा, “तुम्हें पता है कि यह शाहीन टीचर कौन सी बिल्डिंग में रहती है?”

“जी, साब. 7वीं बिल्डिंग में.”

हम एक नंबर में रहते हैं. मैं ने 7वीं बिल्डिंग में जा कर बोर्ड पर नज़र डाली, हां, दूसरी फ्लोर पर 202. यही कोई आदम खान का नाम लिखा है, यही होगा. दूसरी फ्लोर के लिए क्या लिफ्ट लेनी, मैं गुस्से में सीढ़ियों से चढ़ गया. पहली फ्लोर पर ही पहुंचा था कि जैसे किसी खुशबू ने पैर रोक लिए, कहां से आ रही है इतने लज़ीज़ खाने की खुशबू, ऐसा लग रहा है जैसे कोई ‘टुंडे का कबाब’ खा रहा हो. मेरे कदम कुछ सुस्त हो गए. अब गुस्से से ध्यान हट कर खाने की खुशबू में अटक गया था.

मैं ने 202 नंबर फ्लैट की घंटी बजाई. घर का मेन दरवाजा खूब सजा हुआ था. दरवाजे के बाहर ही सुंदर पौधे रखे हुए थे. पता नहीं अंदर से कैसी खुशबू आ रही थी. दरवाज़ा खुला तो करीब 40 साल की एक लड़की, नहीं, लड़की क्या कहूं, पर लड़की जैसी ही. घुटनों तक की एक ब्लैक ड्रैस पहने, कंधे तक कटे बाल, बेहद खूबसूरत, स्मार्ट महिला ने मुसकराते हुए कहा, “यस? किस से मिलना है?”

मैं जैसे होश में आया, मैं ने कहा, “शाहीन टीचर से. मैं जीत का पिता.”

“अरे, आइए, आइए, वैलकम.” फिर वह अंदर आने का इशारा करते हुए पीछे हुई. सामने ही एक पैसेज था. एक तरफ शू रैक थी. उस के ऊपर बहुत से छोटेछोटे गमले थे जिन में बहुत से पौधे थे. समझ आ गया कि मैडम फूलों की शौक़ीन हैं.

“बैठिए, मैं आप के लिए पानी लाती हूं.”

“नहीं, नहीं, पानी नहीं चाहिए.” वह फिर भी किचन में चली गई. मैं ने लिविंगरूम में नज़र दौड़ाई, चमकता हुआ फर्श, बढ़िया सोफे, एक तरफ करीने से सजी डाइनिंग टेबल, खूबसूरत से स्टाइलिश परदे, पूरा घर जैसे रहने वालों के व्यक्तित्व का परिचय दे रहा था. लिविंगरूम के साथ की बालकनी में भी खूब हरियाली थी. सामने ही साफ़ सुथरी किचन से आती खुशबू. ओह्ह, यही खुशबू तो पहली मंजिल तक पहुंच रही थी. क्या बना है आज.

टीचर एक सुंदर सी ट्रे में नीले रंग के कांच के गिलास में पानी लाई. मैं तो गिलास ही देखता रह गया. मैं सब भूल गया और गटागट पानी पी गया. इतने में टीचर सामने वाले सोफे पर बैठ गई और खुशदिली से कहने लगी, “मुबारक हो, जीत बहुत अच्छे नंबरों से पास हुआ है.” फिर एक कोने में रखे बहुत सारे गिफ्ट्स के पैकेट दिखाती हुई बोली, “कल मैं अपने सब स्टूडैंट्स को गिफ्ट दूंगी. सब के बहुत अच्छे नंबर आए हैं. अभी अपने पति आदम से ये गिफ्ट्स मंगाए हैं. वे नहाने गए हैं.”

मेरी बोलती टीचर के आगे बंद थी. शायद ही जीवन में मैं ऐसी स्थिति में रहा होऊं जिस में मेरी बोलती बंद हुई हो. तभी टीचर के पति भी लिविंगरूम में आए तो टीचर ने परिचय करवाया, “आदम, ये जीत के पिता, सुधीर शर्मा जी हैं, मिलने आए हैं.” टीचर को मेरा नाम भी याद था. कमाल है, इस का मतलब सचमुच तेज़ दिमाग है.

आदम ने मुझ से बहुत अपनेपन से हाथ मिलाया और कहा, “शाहीन आज बहुत खुश है, उस के स्टूडैंट्स के नंबर हमेशा की तरह अच्छे आए हैं. मैं उस के बच्चों के लिए हर साल की तरह कुछ गिफ्ट्स ले कर अभी ही लौटा था. चलो शाहीन, भाईसाहब का भी खाना लगा लो. “भाईसाहब, आज ख़ुशी का दिन है, आज आप हमारे साथ ही डिनर कीजिए, प्लीज.”

“नहींनहीं, बिलकुल नहीं. फिर कभी आऊंगा.”

“एक्सक्यूज़ मी,” कह कर शाहीन अंदर चली गई, जल्दी ही वापस आ गई, फिर किचन में जा कर कुछ व्यस्त सी हो गई. आदम मुझ से बातें करने लगा, हम अपनेअपने औफिस की बातें करते रहे. वह किसी फार्मा कंपनी में था, बता रहा था, “मैं अकसर टूर पर रहता हूं. शाहीन अपनेआप को ट्यूशंस में बिजी रखती है. मैथ्स में तो इस की बहुत ही रुचि रही है. टौपर रही है.”

शाहीन डाइनिंग टेबल पर चुपचाप खाना रख रही थी और उस खाने की खुशबू में मेरा ईमान डोलने पर तुला था. मैं आदम की बातों से ज़्यादा खाने के बारे में सोच रहा था, पक्का, कुछ अच्छा नौनवेज बना है. मैं नौनवेज खा तो लेता हूं पर एक मुसल्म के घर तो नहीं खा सकता न. इतने में डोरबैल हुई. मेघा जितनी उम्र की प्यारी सी लड़की अंदर आई. आते ही मुझे ‘हेलो’ बोला और चहकती हुई बोली, “अंकल, आप मेघा और जीत के पापा हैं न?”

मैं ने मुसकराते हुए ‘हां’ में सिर हिला दिया, पूछा, “मुझे जानती हो?”

“हां अंकल. आप को कई बार उन के साथ आतेजाते देखा है,” फिर बोली, “मम्मी, बहुत तेज़ भूख लगी है, खाना तौयार है न? अभी मुझे अपने प्रोजैक्ट की तैयारी करनी है.”

“हां, जल्दी हाथ धो कर आ जाओ, सब तैयार है.” इतने में फिर डोरबैल हुई. टीचर ने किसी से कोई पार्सल लिया और ‘थैंक यू’ कहा. फिर वह पार्सल मुझे दिखा कर टेबल पर रखती हुई हंस कर बोली, “यह आप के लिए वेज खाना और्डर कर दिया था, हमारे यहां तो आज बिरयानी और कबाब बने हैं.”

मेरे दिल से एक आह निकल गई, ओह्ह, मेरे इसी मनपसंद खाने की खुशबू मुझे इतनी देर से परेशान कर रही थी. आदम बोले, “आइए, भाईसाहब, आज हमारा साथ दीजिए.”

हम चारों डाइनिंग टेबल पर बैठ गए. मेरे मन में जैसे एक फ़ूड जिहाद छिड़ा हुआ था, मुझे बाहर का पार्सल नहीं खाना था, लेकिन एक मुसलिम के घर का भी तो नहीं खाना चाहिए, मैं ब्राह्मण हूं, मेरा धर्म भ्रष्ट नहीं होना चाहिए. छीछी, सुधीर शर्मा एक मुसलमान के घर खाना खाएगा… नहीं, कभी नहीं.

बिरयानी के डोंगे से और कबाब की प्लेट से जो खुशबू मेरी नाक में गई, मैं सब भूल गया. टीचर जब मेरे लिए होम डिलीवरी वाला पार्सल खोलने लगी तो मैं ने तुरंत कहा, “अरे नहीं, मैं तो आप के हाथ से बना खाना ही खाऊंगा.”

टीचर खुश हो गई और मैं उस खाने पर टूट पड़ा. एक चम्मच बिरयानी खाते ही मेरे मुंह से ‘वाह वाह’ निकल गया और कबाब तो क्या ही कहूं. मैं हर हफ्ते टुंडे के कबाब खाता हूं. रीना से कबाब इतने अच्छे नहीं बनते. बिरयानी तो उसे बनानी ही नहीं आती. हम ये दोनों चीज़ें बाहर ही खाते हैं और यहां तो मेरे सामने जैसे लज़ीज़ खाने की प्लेट नहीं, कोई अनमोल खजाने जैसा कुछ मेरे हाथ लगा था. मैं ज़बरदस्त फूडी हूं और यहां अब मैं फ़ूड जिहाद पर उतर आया था.

बेहद महंगी क्रौकरी में मनपसंद खाने ने जैसे आज की शाम बेहद खुशनुमा बना दी थी. मैं बिलकुल भूल चुका था कि मैं यहां क्यों आया था. मैं ने जम कर खाया, खूब तारीफ़ की. मेरे लिए आया पार्सल खुला ही नहीं. खाने के बाद शाहीन एक छोटी सी प्लेट में सेवईं ले कर आई.

मैं ने जैसे ही एक चम्मच सेवईं अपने मुंह में डाली, लगा जैसे मुंह में कोई मावा सा घुल गया हो. ड्राईफ्रूट्स से भरी सेवईं ने जैसे मुझे दूसरी दुनिया में पहुंचा दिया. ओफ्फो, क्या खाना बनाती है यह. हर चीज़ में होशियार लग रही है. पूरा परिवार ही सभ्य है. शाहीन कह रही थी, ‘आज अपने स्टूडैंट्स के लिए सेवईं बनाई है. कल सब बच्चों को खिलाऊंगी.’

मैं सब खापी कर उठ खड़ा हुआ, हाथ जोड़ते हुए बोला, “मैं तो आप को थैंक्स बोलने आया था, आप की वजह से जीत के आज इतने अच्छे नंबर आए हैं. मेरी तो यहां पार्टी हो गई.”

सब ने मुझे खुशदिली से विदा किया. तृप्त पेट से मैं घर की तरफ झूमता सा चला. टीचर के घर जा कर मेरी सारी मूर्खता, सारी धर्मांधता ने जैसे एक कुएं में कूद कर आत्महत्या कर ली थी. मैं कितना खुश था. अपनी बिल्डिंग में पहुंच कर मैं ने मुसकराते हुए असलम को आज पहली बार सौ रुपए का नोट दिया, कहा, “आज जीत बहुत अच्छे नंबरों से पास हुआ है, तुम भी कुछ मिठाई खा लेना.”

“थैंक यू, साब,” कह कर असलम ने हाथ जोड़ दिए थे.

मैं घर पहुंचा. परेशान से सब मेरा खाने पर इंतज़ार कर रहे थे. रीना ने गुस्से से कहा, “इतनी देर लगा दी? लड़ आए?”

मैं ज़ोर से हंसा, कहा, “नहीं भाई, इतना बुरा नहीं हूं. टीचर की फैमिली के साथ डिनर कर के आया हूं. तुम लोग खा लो, अपन तो बहुत शानदार खाना खा कर आए हैं.”

“क्या मतलब?” सब ने एकसाथ पूछा,

मैं ने कहा, “तुम लोग खाना शुरू करो, मैं बताता हूं.”

वे सब खाना खाते रहे और मेरी बातें सुन कर हंसते रहे. Family Story In Hindi

Romantic Story in Hindi : वाइट पैंट – जब 3 सहेलियों के बीच प्यार ने दी दस्तक

Romantic Story in Hindi : इस बार जब मायके आई तो घूमते हुए कालेज के आगे से गुजरना हुआ. तभी अनायास ही वह सफेद पैंट पहना हुआ शख्स आंखों के आगे लहरा गया जिस का नाम ही हम लोगों ने वाइट पैंट रखा हुआ था. और सोचते हुए कालेज के दिन चलचित्र जैसे आंखों के आगे नाचने लगे.

बात तब की है जब हम ने कालेज में नयानया ऐडमिशन लिया था. उस जमाने में कालेज जाना ही बहुत बड़ी बात होती थी. हर कोई स्कूल के बाद कालेज तक नहीं पहुंच पाता था. तो हम खुद को बहुत खुशनसीब समझते थे जो कालेज की चौखट तक पहुंचे थे. इंटर कालेज के कठोर अनुशासन के बाद कालेज का खुलापन और रंगबिरंगे परिधान एक अलग ही दुनिया की सैर कराते थे.

हमारे लिए हर दिन नया दिन होता था. कालेज हमें कभी बोर नहीं करता था. हम 3 सहेलियां थीं सरिता, सुमित्रा और सुदेश. हम हमेशा साथसाथ रहती थीं, इसीलिए सभी लोग हमें त्रिमूर्ति भी कहते थे.

हम तीनों अकसर क्लास खत्म होने के बाद खुले मैदान में बैठ कर घंटों गपें लड़ाती थीं. इसी क्रम में हम तीनों ने महसूस किया कि कोई हमारे आसपास खड़ा हो कर हम पर नजर रखता है और इस बात को हम तीनों ने ही नोट किया. हम ने देखा मध्यम कदकाठी का एक लड़का, जो बहुत खूबसूरत नहीं था, उस के गेहुएं रंग में सिल्की बाल अच्छे ही लग रहे थे. शर्ट जैसी भी पहने था. लेकिन पैंट वह हमेशा सफेद ही पहनता था. रोजरोज उसे सफेद पैंट में देखने के कारण हम ने उस का नाम ही वाइट पैंट रख दिया था जिस से हमें उस के बारे में बात करने में आसानी रहती थी.

हमारा काम था क्लास के बाद मैदान में बैठ कर टाइम पास करना और उस का काम एक निश्चित दूरी से हम को देखते रहना. जब यह क्रम काफी दिनों तक चलता रहा तो हमें भी कुतूहल हुआ कि आखिर यह हम तीनों में से किसे पसंद करता है. सो, हम तीनों ने सोचा क्यों न इस बात का पता लगाया जाए. तो इत्तफाक से एक दिन सुदेश नहीं आई लेकिन हम ने देखा कि वाइट पैंट फिर भी हमारे आसपास उपस्थित है. तो इतना तो पक्का हो गया कि सुदेश वह लड़की नहीं है जिस के लिए वह हमारा ग्रुप ताकता है. कुछ समय बाद सुमित्रा उपस्थित न रही. फिर भी उस का हमें ताकना बदस्तूर जारी रहा. अब सुमित्रा भी इस शक के घेरे से बाहर थी. अब रह गई थी एकमात्र मैं और फिर किसी कारणवश मैं ने भी छुट्टी ली तो अगले दिन कालेज जाने पर पता चला कि मेरे न होने पर भी उस का ताकना जारी था.

अब तो हम तीनों को गुस्सा आने लगा. लेकिन कर भी क्या सकते थे. हम कहीं भी जा कर बैठते, उसे अपने आसपास ही पाते. हम ने कई बार अपने बैठने की जगह भी बदली, मगर उसे अपने ग्रुप के आसपास ही पाया. तीनों में मैं थोड़ी साहसी और निडर थी. हम रोज उसे देख कर यही सोचते कि इसे कैसे मजा चखाया जाए. लेकिन हमारे पास कोई आइडिया नहीं था और वैसे भी, इतने महीनों तक न उस ने कुछ बात की और न ही कभी कोई गलत हरकत. इसलिए भी हम कुछ नहीं कर सके. लेकिन उस का हमेशा हमारे ही ग्रुप को ताकना हमें किसी बोझ से कम नहीं लगता था. एक दिन हमारे बैठते ही जब वह भी आ गया तो मैं ने कहा चलो, आज इसे मजा चखाते हैं. तो दोनों बोलीं, ‘कैसे?’

?मैं ने कहा, ‘यह रोज हमारा पीछा करता है न, तो चलो आज हम इस का पीछा करते हैं.’ वे दोनों बोलीं, ‘कैसे?’ मैं ने कहा, ‘तुम दोनों सिर्फ मेरा साथ दो. जैसा मैं कहती हूं, बस, मेरे साथसाथ वैसे ही चलना.’ उन दोनों ने हामी भर दी. फिर हम वहीं बैठे रहे. हम ने देखा लगभग एक घंटे बाद वह लाइब्रेरी की तरफ गया तो मैं ने दोनों से कहा कि चलो अब मेरे साथ इस के पीछे. आज हम इस का पीछा करेंगे और इसे सताएंगे. मेरी बात सुन कर वे दोनों खुश हो गईं. और हम तीनों उस के पीछेपीछे लाइब्रेरी पहुंच गए. जितनी दूरी पर वह खड़ा होता था, लगभग उतनी ही दूरी बना कर हम तीनों खड़े हो गए. जब उस की नजर हम पर पड़ी तो वह हमें देख कर चौंक गया और हलके से मुसकरा कर अपने काम में लग गया.

उस के बाद वह पानी पीने वाटरकूलर के पास गया तो हम भी उस के पीछेपीछे वहीं पहुंच गए. अब तक वह हम से परेशान हो चुका था. फिर वो नीचे आया और मैदान के दूसरे छोर पर बने विज्ञान विभाग की तरफ चल दिया. हम भी उस के पीछेपीछे चल दिए. वह विज्ञान विभाग के अंदर गया और काफी देर तक बाहर नहीं आया. हम बाहर ही मैदान में बैठ कर उस के बाहर आने का इंतजार करने लगे.

लगभग 35 मिनट के बाद वह चोरों की तरह झांकता हुआ बाहर निकला, तो उस ने हम तीनों को उस के इंतजार में बैठे पाया. 10 बजे से इस चूहेबिल्ली के खेल में 2 बज चुके थे. वह हम से भागतेभागते बुरी तरह थक चुका था. वह कालेज से बाहर निकला और ऋषिकेश की तरफ पैदल चलने लगा. हम भी उस के पीछे हो लिए. वह मुड़मुड़ कर हमें देखता और आगे चलता जाता. जब थकहार कर उसे हम किसी भी तरह टलते नहीं दिखे तो आखिर में वह हरिद्वार जाने वाली बस में चढ़ गया और हमारे सामने से हमें टाटा करते हुए मुसकराते हुए निकल गया. हम तीनों अपनी इस जीत पर पेट पकड़ कर हंसती रहीं और फिर उस दिन के बाद कभी दोबारा हम ने वाइट पैंट को अपने आसपास नहीं देखा. Romantic Story in Hindi 

Hindi Love Stories : लफंगे – क्या थी उन लड़कों की सच्चाई

Hindi Love Stories : ‘‘निधि, यह स्टौल ले ले…’’ आरती की नजरें निधि के चुस्त टौप पर जमी थीं. और निधि के चेहरे पर झुंझलाहट थी.

‘‘रख लो, बाद में अपने बैग में डाल लेना.’’

‘‘ऊफ, बैग में क्या और सामान कम है जो इसे भी ढोती फिरूं.’’

‘‘यहां से निकलते वक्त थोड़ा सा ध्यान रखा करो, बाहर चाय की दुकान पर खड़े वे लफंगे…’’

‘‘अब क्या मैं मनमरजी के कपड़े भी नहीं पहन सकती हूं? और वैसे भी आज तक उन लोगों ने न कुछ कहा है, न कोई ऐसा व्यवहार किया है जिस से मुझे कोई परेशानी हो. और तो और, उस दिन मेरी स्कूटी स्टार्ट नहीं हो रही थी तो उन लड़कों ने ही ठीक कर दी थी वरना मेरा एग्जाम भी मिस हो जाता.’’

‘‘बेवकूफ है तू. जरा अपने सैंसेज को जगा कर रखा कर. सामने वाले हिमेशजी की बेटी को देख, कैसे ढंग के कपड़े पहनती है और आज तक उस ने…’’

‘‘मम्मी, प्लीज…मुझे किसी से कंपेयर मत करो,’’ कहती हुई निधि इतनी तेजी से भागी कि आरती उसे स्टौल पकड़ा ही नहीं पाई.

मांबेटी का लगभग रोज का विवाद और चिकचिक हरीश को अच्छी नहीं लगी, सो बोल उठे, ‘‘तुम क्यों मन खराब करती हो. किसी और की वजह से निधि पर इतनी रोकटोक ठीक नहीं है. महल्ले वालों की वजह से क्या वह अपनी मनमरजी से पहनओढ़ भी नहीं सकती?’’ ‘‘महल्ले वालों की परवा नहीं है, हरीश, मेरा मन तो उस चाय की गुमटी पर खड़े लड़कों को देख कर खराब होता है.’’

‘‘अरे, सुबहशाम ही तो चाय पीने का समय होता है, तुम तो ऐसे बोल रही हो जैसे ये लड़के दिनभर वहीं खड़े रहते हैं.’’ ‘‘दिनभर खड़े रहें तो ठीक है, पर उसी वक्त क्यों खड़े होते हैं जब अपनी निधि कालेज जाती और आती है.’’ आरती के तर्क का जवाब देना हरीश के बस में नहीं था.

‘‘तुम नहीं जानते, हरीश. मुझे उन की हंसी से चिढ़ होती है. आतेजाते लोगों को ताकना और धीरेधीरे बातें कर के हंसना, मेरे गुस्से को बढ़ा देता है.’’ ‘‘अब यह क्या बात हुई, किसी की हंसी से तुम उस के चरित्र पर उंगली कैसे उठा सकती हो?’’

‘‘उन लड़कों की शक्ल ही बताती है कि कितने लफंगे हैं वे.’’

‘‘अब छोड़ो, उन लड़कों की जिंदगी है जैसे बितानी है, बिताएं.’’

‘‘मुझे उन की जिंदगी से कोई लेनादेना नहीं है. लेकिन उन के जीने के ढंग की आंच खुद तक पहुंचने लगे तो कोई क्या करे.’’ बाहर चाय की चुस्कियां लेते और एकदूसरे के हाथों पर हाथ मार कर हंसते उन लड़कों को देख कर आरती का मन घृणा से भर उठा था. बात बदलने की गरज से हरीश बोले, ‘‘आज मैं फ्री हूं, तुम बहुत दिनों से हिमेशजी के यहां जाने को बोल रही थीं.’’

‘‘हां, आज हो आएंगे, बहुत दिनों से बुला रहे हैं. एक वही तो हैं, वरना यहां किसी से बात करने का मन नहीं करता है. मैं ने निधि से भी कहा है कि उन की बेटी से दोस्ती कर ले पर वह सुनती कहां है.’’ पैट्रोल पंप के मालिक हिमेशजी के सभ्य और अभिजात्य परिवार से आरती बहुत प्रभावित थी. 2 महीने पहले जब आरती का परिवार यहां शिफ्ट हो रहा था तो हिमेशजी ने ही नसीहत दी थी, ‘यहां के लोगों से बातचीत और व्यवहार ज्यादा न रखें, खासकर जब घर में लड़की हो. यहां इतना बड़ा और आलीशान मकान बनवा कर हम पछता रहे हैं. भाभीजी, जरा इन लफंगों से सावधान रहना.’ हिमेशजी की कही बात ने आरती के दिमाग में गहरी पैठ बना ली थी. आतेजाते इन लड़कों को कोसती तो हरीश समझाते, ‘इन लड़कों पर नहीं, अपने संस्कारों पर भरोसा करो,’ पर जाने क्या हो जाता था आरती को, जब भी इन लड़कों को बाहर चाय की दुकान पर हंसीमजाक करते देखती तो गुस्से के मारे बदन में आग लग जाती थी.

इधर कुछ दिनों से उन लड़कों का उठनाबैठना ज्यादा बढ़ गया था. ‘‘एक तरफ हम लड़कियों को बराबरी का दरजा दे रहे हैं, दूसरी तरफ उन की सुरक्षा को ले कर चिंतित रहते हैं. इन की वजह से इंसानियत शर्मसार होती है,’’ सहसा आरती के मुंह से निकला शब्द हरीश के कानों में पड़ गया था. ‘‘अब बस करो, आरती. तुम ओवररिऐक्ट कर रही हो. चिंता करने की कोई हद तो तय है नहीं. अब यह तो अपने ऊपर है कि चिंता करें या फिर परिस्थितियों की मांग के हिसाब से उन से मुकाबला करें.’’ ‘‘किसकिस से मुकाबला करें, अब किसी के चेहरे पर तो लिखा नहीं है कि उस के मन में क्या चल रहा है.’’

‘‘जब लिखा नहीं है तो तुम क्यों अपना दिल जलाती हो.’’

‘‘हरीश, दिल तो जलता ही है, इन लफंगों को तो देख कर कोई भी बता सकता है कि ये कितने कुत्सित विचारों के होंगे. इन के चेहरे पर तो लिखा नजर आता है कि ये सब समाज के नाम पर धब्बा बनेंगे.’’

‘‘अच्छा, अब यह बताओ अभि के लिए कुछ भेज रही हो या नहीं?’’ बात और मूड बदलने की गरज से हरीश ने एक बार फिर बातों के रुख को मोड़ा.

‘‘अरे हां, हरीश, कल ही तो आप को अहमदाबाद जाना है. मैं ने कोई तैयारी भी नहीं की है. आज मठरी और लड्डू बनाऊंगी. क्या बताऊं, निधि को अकेले नहीं छोड़ सकती वरना मेरा भी मन था कि अभि से मिल आती,’’ आरती का मन बेटे अभि को याद कर भीग सा गया था. ढेर सारी चिंता आंखों में समाए आरती उठ खड़ी हुई थी. 9 बज गए लेकिन शन्नो का कुछ पता नहीं था. आज तो उस से राशन भी मंगवाया था, पता नहीं उस ने खरीदा भी होगा या नहीं…सोचती हुई आरती के कानों में दरवाजे की घंटी की आवाज पड़ी तो उस ने जल्दी से दरवाजा खोल दिया. पर यह क्या? बाहर राशन के सामान से लदीफंदी शन्नो के पीछे बाहर चाय के अड्डे पर खड़े होने वाले 2 लफंगे आटे की बोरी पकड़े खड़े थे. ‘नमस्ते आंटी…’ सुन कर लगा जैसे कानों में कोई पिघला सीसा उड़ेल दिया हो. आरती की भावभंगिमा देख कर आटे की बोरी वहीं रख वे लड़के चलते बने. उन के जाते ही आरती शन्नो पर बुरी तरह से फट पड़ी थी, ‘‘देख शन्नो, हम बेटी वाले हैं, ऐसे में किसी को भी घर में ले कर चले आना ठीक नहीं है.’’

‘‘मेमसाब, बेटी वाले हम भी हैं. इतनी तो पहचान हमें भी है, आदमी को आदमी समझना सीखो,’’ शन्नो बड़बड़ा रही थी. उस का मूड खराब कर के आरती अपने काम को बढ़ाना नहीं चाहती थी, सो बात को वहीं छोड़ कर वह नरमी से बोली, ‘‘हमारी किसी से निजी दुश्मनी तो है नहीं, घर में लड़की है, सो चिंता बनी रहती है. तू खुद ही देख, ये लफंगे से लगने वाले लड़के सुबहशाम यहीं खड़े रहते हैं.’’ आटा माड़ते हुए शन्नो ने कहा, ‘‘ये बच्चे भी हमारेआप के जैसे परिवारों से हैं, अकेले रहते हैं, पढ़ाई करते हैं, थोड़ा बाहर हंसबोल लेते हैं तो क्या हुआ?’’

‘‘ये लड़के यहां के नहीं हैं क्या?’’

‘‘नहीं, कोई कोर्स कर रहे हैं.’’

‘‘तू इतना सब कैसे जानती है?’’

‘‘इन के लिए शाम की रोटी मैं ही बनाती हूं.’’ इस खुलासे के बाद तो आरती का मूड ही खराब हो गया. जाने शन्नो ने उन्हें क्याक्या बताया होगा. दूसरे दिन हरीश अहमदाबाद चले गए, तो आरती ने खुद को घर में कैद कर लिया. ऐसे में शन्नो एक ऐसी खबर लाई कि आरती का दिल और दिमाग दहल गया. मुंहअंधेरे नुक्कड़ पर कोई एक लड़की को कार से ढकेल गया था. आधेअधूरे कपड़ों में उस लड़की को तमाशा बना दुनिया देखती रही. इन लड़कों के कहने पर शन्नो ने खुद की ओढ़ी शौल उसे दी. चाय की गुमटी वाले अब्दुल चाचा के आश्वासन पर ही उस लड़की को उन लड़कों ने अस्पताल पहुंचाया. बेचारे डर भी रहे थे. पुलिसथाने का कोई चक्कर न हो, हिमेशजी ने तो दूर से ही हाथ जोड़ दिए थे. ‘‘आप ही बताओ मेमसाब, आदमी ही आदमी की मदद न करे तो उस की बड़ीबड़ी बातें किस काम की. हिमेशजी  के पास 2-2 गाडि़यां खड़ी रहती हैं पर जरूरत के समय साफ मना कर दिया. ऐसे मामले में सब डरते हैं पर इतना भी क्या डरना कि आदमी से गीदड़ बन जाए. सब बातों के शेर हैं, दम किसी में नहीं.’’ शन्नो ने अपने मन की भड़ास निकाली, ‘‘उस बेचारी की दुर्दशा किस के कुकर्मों का नतीजा है, कौन जानता है?’’

आरती का चेहरा पीला हो गया. दूसरे दिन शाम को आरती घर से बाहर निकली तो हिमेशजी मिल गए. हमेशा की तरह चिंता में लीन. देखते ही बोले, ‘‘भाभीजी, सुना आप ने, कल क्या हुआ?’’

‘‘जी, शन्नो ने बताया था.’’ ‘‘मैं कहता था न, आजकल जमाना लड़कियों का बाहर निकलने वाला नहीं है. मुझे देखिए 2-2 गाडि़यां घर में रख छोड़ी हैं, मजाल है जो मेरी बेटी अकेलेदुकेले कहीं निकल जाए. मैं तो कहता हूं, आप भी अपनी बिटिया को यों अकेले बाहर न जाने दिया करें. गाड़ी नहीं है तो कम से कम आटो कर दीजिए. 4-5 दिन पहले उस की स्कूटी भी शायद खराब हो गई थी.’’ आरती समझ गई थी कि उन्होंने उन लड़कों को निधि की स्कूटी स्टार्ट करते देख लिया था और अब वे एक अच्छे पड़ोसी होने का फर्ज उन दबेढके शब्दों में उसे आगाह करने की कोशिश कर निभा रहे थे. आज जाने क्यों आरती को हिमेशजी की बातों से कुछ कोफ्त सी हुई. उन्हें लगभग टालती हुई सामने बने पार्क की बैंच पर बैठ गई. सुबह से जी मिचला रहा था. शायद कल रात हुई घटना ने उस पर असर किया था. हिमेशजी की पत्नी अपनी बेटी सुप्रिया के साथ आती दिखीं. वहां खड़े दोनों लड़कों ने उसे अजीब नजरों से देखा, फिर मुंह घुमा लिया. आरती ने आज तक सुप्रिया को किसी से बातचीत करते नहीं देखा है. हिमेशजी ने बताया था कि उन की बेटी रिजर्व स्वभाव की है.

‘‘अरे भाभीजी, आज अकेले? भाईसाहब नहीं दिख रहे हैं?’’

‘‘अहमदाबाद गए हैं.’’

‘‘चलिए, किसी चीज की जरूरत हो तो बताइएगा,’’ कर्तव्य पूर्ति कर के हिमेशजी की पत्नी अपने घर के भीतर चली गईं. सामने चाय की गुमटी में बैठे उन लड़कों की ओर आरती की नजर गई. लड़के…हां लड़के ही तो थे. जाने क्यों लफंगे शब्द की अनुगूंज सुनाई नहीं दी. पार्क में खिले गुलाब के फूलों की ओर हाथ बढ़ाते बच्चों को माली ने डांटा. आरती की नजर उन फूलों की ओर गई. एक दिन सुबह की सैर करते हुए उस के आंचल में कांटे अटक गए थे तब से वह सावधान हो कर वहां से निकलती है लेकिन आज कांटों से ध्यान हट कर छिपे फूलों की ओर चला गया, जिन की महक उस के मन को छू कर निकली थी. आज शाम कुछ नई सी थी, किसी की हंसी कानों को चुभ नहीं रही थी. आरती ने एक बार फिर ध्यान से उन लड़कों को देखा. कल इन लड़कों द्वारा उस अनजान लड़की के प्रति दिखाई संवेदनशीलता ने साबित किया था कि संवेदना किसी खास चेहरे और स्तर की मुहताज नहीं होती. आरती यों ही बैठी रही. करीब आधे घंटे बाद उठी तो ऐसा चक्कर आया कि कुछ होश न रहा. आंख खुली तो देखा सामने डाक्टर बैठा था.

‘‘चलिए, आप को होश आ गया, अब मैं चलता हूं. चिंता की कोई बात नहीं है,’’ मुसकराते हुए डाक्टर ने आरती से कहा, ‘‘ये लड़के मुझे अपनी बाइक में हवाई जहाज जैसी स्पीड में ले कर आए थे.’’ ‘‘मम्मी, आप की तबीयत ठीक नहीं थी तो बता देतीं, केतन और सुनील नहीं होते तो आज पता नहीं मैं कैसे मैनेज करती. इन बेचारों ने मेरी वजह से खाना भी नहीं खाया है, तब से यहीं भूखे बैठे हैं.’’

‘‘कौन?’’ आरती अवाक् सी उन केतन और सुनील नाम वाले लफंगों को देखती रही. निधि ने धीरे से आरती के हाथ को दबा दिया, उसे डर था, इन बेचारों के प्रति चेहरे पर नफरत न आ जाए. ‘‘आंटीजी, आज हमारा पिक्चर देखने और बाहर खाना खाने का प्रोग्राम था, इसलिए शन्नो दीदी को मना कर दिया था. हम जाने ही वाले थे लेकिन देखा, आप अचानक गिर गईं. सोच ही रहे थे कि क्या करें, तब तक दीदी आ गईं. उन्होंने बताया कि आप को स्पौंडिलाइटिस की वजह से चक्कर आ जाते हैं. गिरने की वजह से आप के सिर पर चोट लग गई तो हम घबरा गए थे.’’

‘‘आज तो तुम लोगों को खाना भी नहीं मिलेगा.’’

‘‘कोई बात नहीं, केतन की मम्मी के बनाए लड्डू हैं. उन्हें खा कर हमारा मस्त काम चलेगा.’’

आरती ने पूछा, ‘‘तुम लोग यहां अकेले रहते हो?’’ ‘‘आंटीजी, यहां पास वाली गली में 4 लड़कों के साथ एक कमरे को साझा कर रहे हैं. हम दोनों बीटेक और वे दोनों लड़के एक टैक्निकल ट्रेनिंग कर रहे हैं. इम्तिहान खत्म हो गए हैं पर घर नहीं गए. यहीं 3-4 घंटे पार्टटाइम नौकरी में समय बिता रहे हैं. जेबखर्च निकल आता है. मतलब किताबों वगैरह के लिए,’’ सुनील ने सफाई दी. आरती हैरानी से उन लफंगों को देख रही थी, ‘‘निधि, देख तो जरा. अभि के लिए बनाया नाश्ता डब्बों में पड़ा है, थोड़ा दे दे, क्या भूखे सोएंगे ये बच्चे?’’ ये बोलती हुई आरती अपने शब्दों पर खुद ही अचकचा गई. आश्चर्य हुआ कि इन लड़कों के लिए ममत्व जागा कैसे? बड़े संकोच से केतन ने निधि के हाथ से पैकेट ले लिया, पर दरवाजे तक आ कर अचकचा कर रुक गया.

‘‘क्या हुआ?’’ निधि ने पूछा तो केतन ने कुछ संकोच से कहा, ‘‘1 मिनट बाद जाएंगे.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘वे हिमेश अंकल अपना गेट बंद कर रहे हैं. हमें यहां देख लिया तो…’’

‘‘तो क्या?’’

‘‘वह आप नहीं समझेंगी,’’ अपने बालों पर हाथ फेरते हुए फर्श की ओर ताकते शर्माते हुए केतन बोला, ‘‘आप लड़की हैं न, हिमेश अंकल ने आप को मेरे साथ देख लिया तो पता नहीं क्या सोचेंगे.’’

‘‘क्या सोचेंगे?’’

‘‘वे हमें लफंगा समझते हैं न इसलिए.’’ उन की मनोदशा से आरती का जी भर आया. बोली, ‘‘चलो, मैं भी चलती हूं. खुली हवा में बैठूंगी तो मन बदलेगा.’’ आरती ने धीरे से पलंग से उतर कर चप्पल पहनी. निधि के साथ बाहर आई तो केतन उस से दूरी बना कर तेज कदमों से चलने लगा. बाहर झुरमुट में हिमेशजी के लौन के पिछवाड़े एक साया देख कर आरती डर गई, तो सुनील ने कहा, ‘‘आंटी, आप घर जाइए.’’ आरती की नजर सामने हिमेशजी के लौन के पिछवाड़े पर टिकी थी. खिड़की से एक साया अंदर जाता साफ दिख रहा था.

‘‘मम्मी, हिमेश अंकल के घर इन्फौर्म करिए, कोई पीछे के रास्ते से घर में घुसने की कोशिश कर रहा है,’’ निधि बोली.

‘‘रहने दीजिए, यह हर दूसरेतीसरे दिन होता है,’’ केतन बोला.

‘‘यह कमरा तो सुप्रिया का है न? कौन है जो यों चोरी से घुस रहा है?’’ ‘‘उस कार का मालिक,’’ एक बड़ी सी कार की ओर इशारा करते हुए सुनील और केतन तेजी से सामने वाली गली में गुम हो गए थे. कुछ दूर अंधेरे में खड़ी कार को देख कर सिहर गई आरती का चेहरा स्याह था. रात की कालिमा से ज्यादा स्याह यह सभ्य लोगों का सच था. घर आ कर निधि ने चाय बना कर दी तो सहसा कानों में चाय की गुमटी में खड़े लड़कों की हंसी की आवाजें सुनाई देने लगीं. जाने क्यों, इस हंसी में खिलंदड़पन की महक आई. सामने खिड़की से हिमेशजी के लौन का कुछ हिस्सा दिख रहा था. आरती ने अपनी सोच पर रोक लगाते हुए अपनी नजर हिमेशजी के बंगले की ओर दौड़ाई तो वहां अंधेरा था. शायद हिमेशजी गहरी नींद में सो रहे थे, अलबत्ता उन की बेटी के कमरे में हलका उजाला दिख रहा था. हिमेशजी  दूसरों को असामाजिक तत्त्वों से बचने की सीख देते हैं जबकि रात के अंधेरे में वे अपने घर में पीछे की ओर से किसी लफंगे के आनेजाने से बेखबर थे. आरती ने चुपचाप अपने कमरे की खिड़की बंद कर दी थी. Hindi Love Stories

Social Story In Hindi : सब से बड़ा रुपया

Social Story In Hindi : ‘‘नहीं खाऊंगी, नहीं खाऊंगी,’’ राशि इतनी जोर से चीखी कि रुक्मिणी देवी कांप उठी थीं.

राशि का हाथ लगने से रुक्मिणी देवी के हाथ से प्लेट गिर कर चकनाचूर हो गई थी. राशि के चीखने और प्लेट गिरने की आवाज सुन कर दालान में काम करते मंगल की भवें तन गई थीं. उस के हाथ एकदम थम गए. वह तेजी से अंदर आया और राशि पर एक भरपूर नजर डाली. उस की आंखों में इतना क्रोध था कि राशि ने सहम कर नजरें झुका ली थीं.

‘‘उठो, थाली लो, उस में खाना निकाल लो. खुद भी खाओ और हार्दिक को भी खिलाओ. यहां कोई नहीं है तुम्हारे नखरे उठाने को,’’ मंगल की चेतावनी सुन कर राशि और उस से एक साल छोटा हार्दिक दोनों ही सहम गए. रुक्मिणी देवी ने कनखियों से मंगल को शांत रहने का इशारा किया.

‘‘मुझे नहीं रहना यहां. मैं तो मम्मीपापा के पास जाऊंगा,’’ बहन को रोते देख कर हार्दिक गला फाड़ कर रो उठा.

‘‘कहीं नहीं जाना है. कहा न, खाना खा लो,’’ कहते हुए मंगल ने मारने के लिए हाथ उठाया.

‘‘रहने दे, बेटा, बहुत छोटा बच्चा है. क्यों सताता है उसे?’’ रुक्मिणी देवी ने मंगल को रोकते हुए कहा.

‘‘छोटा है तो छोटे की तरह रहे, दोनों भाईबहनों ने मिल कर जीना मुश्किल कर रखा है,’’ मंगल बेहद गुस्साए स्वर में बोला.

रुक्मिणी देवी ने हार्दिक को गोद में बिठा कर उस के आंसू पोंछे. उसे देख मंगल की आंखें भी छलछला आई थीं. नीलेश बाबू अपने कमरे में से मांबेटे का यह वार्त्तालाप अपनी थकी आंखों से देख रहे थे.

‘‘मामाजी, मुझे माफ कर दो. हम दोनों ने आप को बहुत दुख पहुंचाया है. अब हमें जो भी मिलेगा, चुपचाप वही खा लेंगे. कभी जिद नहीं करेंगे,” राशि बोली.

रुक्मिणी देवी ने फिर खाना निकाल कर दोनों बच्चों को खिलाया. थोड़ाबहुत खा कर दोनों बच्चे सो गए, तो रुक्मिणी देवी काम में लग गईं. पर मंगल शून्य में ताकता बैठा रहा. उस की बहन उर्मिला का हंसताखिलखिलाता चेहरा उस की आंखों में तैर गया था. कितनी सुखी गृहस्थी थी उस की. किराने की बड़ी सी दुकान से 5-6 लोगों के परिवार का काम अच्छी तरह चल जाता था. दोमंजिला मकान उन की संपन्नता की पहचान था, पर भूकंप के उन कुछ क्षणों ने सबकुछ लील लिया था. नीचे की मंजिल पर उस की बहन उर्मिला, उस का पति रीतेश, छोटा भाई और विधवा मां सब दब गए थे. दोमंजिला घर मानो किसी बड़े से अंधे कुंए में धंसता चला गया था.

उस पर विडंबना यह थी कि दोनों बच्चे राशि और हार्दिक डरेसहमे सुबकते हुए भुज में स्थित अपने घर से ऐसे निकल आए मानो कुछ हुआ ही न हो. उन के शरीर पर खरोंच के निशान तक न थे. नानानानी नीलेश लाल व रुक्मिणी देवी और मामा मंगल के अलावा केवल दूर के रिश्ते की एक बूआ ऋचा थी, जो भाई के परिवार पर आई विपत्ति का समाचार सुन कर वहां पहुंची अवश्य थी, पर बच्चों का भार उठाने में अपनी असमर्थता जता कर चली गई थी.

राशि और हार्दिक को रुक्मिणी देवी बिना कुछ बताए अपने साथ ले आई थीं. पहले से डरेसहमे बच्चों को सचाई बताने का उन का साहस नहीं होता था. वे जब भी मातापिता के बारे में पूछते तो नानानानी और मामा उन्हें यही बताते कि उन के मम्मीपापा ऊना गए हैं जरूरी दवाएं खरीदने.

‘इतने दिन हो गए अभी तक लौटे क्यों नहीं, मम्मीपापा?’ राशि दिन में 3-4 बार पूछ लेती और हार्दिक तो मचल कर, रोरो कर घर सिर पर उठा लेता था. यहां तक कि रुक्मिणी देवी और मंगल, उर्मिला और उस के परिवार को याद कर के फूटफूट कर रो पड़ते थे. नीलेश बाबू धैर्य से सब के आंसू पोंछते रहते थे.

मित्रों, सगेसंबंधियों को समझा दिया गया था कि बच्चों को उन के मम्मीपापा के बारे में कुछ न बताया जाए. उन से ऐसा ही व्यवहार किया जाए मानो उन के मम्मीपापा कहीं बाहर गए हैं और शीघ्र ही लौट आएंगे, पर वृद्ध दंपती को यही चिंता खाए जा रही थी कि बच्चों की देखभाल कैसे होगी. उन दोनों की तो खैर आयु हो चली थी.
उन के बेटे मंगल की लोहे के कलपुरजे बनाने की छोटी सी वर्कशौप थी. अभी तो मंगल गुजरबसर लायक कमा लेता था, पर कल को विवाह होगा तब उस की पत्नी पता नहीं बच्चों की देखभाल करेगी भी या नहीं. इन्हीं बातों को सोच कर रुक्मिणी देवी की रातों की नींद उड़ जाती थी.

‘‘देखो तो, दोनों कैसे चैन की नींद सो रहे हैं, भोलेभाले, निश्छल, निष्कपट मानो केले के पत्ते पर ओस की बूंद,” रुक्मिणी देवी सोते हुए बच्चों को निहारती हुई बोलीं.

‘‘वाह, तुम तो बच्चों को देखते ही कविता करने लगीं. पर सोचो, यह सब कितने दिन चलेगा. जब इन्हें पता चलेगा कि इन के मम्मीपापा इस दुनिया में नहीं रहे तो क्या गुजरेगी इन पर,’’ नीलेश बाबू गंभीर स्वर में बोले.

‘‘यह सब सोच कर तो कलेजा मुंह को आता है. कौन करेगा मांबाप की तरह इन की सारसंभाल…’’ रुक्मिणी देवी की आंखें डबडबा आईं और स्वर भर्रा गया.

‘‘मेरे मन में एक बात आई है. यदि तुम लोग तैयार हो, तो मैं कुछ कहूं,’’ नीलेश बाबू धीरे से बोले.

‘‘अरे, तो कहो न. इस में अनुमति मांगने की कौन सी बात है,’’ रुक्मिणी देवी मुसकराई थीं.

‘‘क्यों न हम इन दोनों बच्चों को संपन्न परिवारों में गोद दे दें. निसंतान दंपतियों को संतान मिल जाएगी और इन अनाथ बच्चों को मातापिता.’’

‘‘कोई ऐसा परिवार है क्या आप की नजरों में?’’

‘‘कल ही एक समाजसेवक मिले थे. कहने लगे, कैसी विडंबना है, कहीं बच्चे मातापिता का प्यार पाने को तरस रहे हैं और कहीं मातापिता एक अदद बच्चे के लिए अपना सबकुछ निछावर करने को तैयार हैं,’’ नीलेश बाबू ने अपनी बात स्पष्ट की, ‘‘बातोंबातों में राशि और हार्दिक की बात निकली थी. वह तो कह रहा था कि एक अत्यंत संपन्न दंपती को जानता है, जहां बच्चे राज करेंगे, राज.’’

‘‘फिर आप ने क्या कहा?’’

‘‘मैं ने तो कह दिया कि घर बुलाओ उन्हें चायनाश्ते पर. बच्चों को उन्हें सौंपने से पहले हम भी तो अपनी तसल्ली कर लें,’’ नीलेश बाबू ने बताया.

‘‘ठीक ही किया आप ने.’’

‘‘क्या खाक ठीक किया, हमारा खून क्या इतना सफेद हो गया है कि उर्मिला के बच्चों को किसी अन्य को सौंप देंगे,’’ रुक्मिणी देवी की बात पूरी होने से पहले ही मंगल चीख उठा था.

‘‘बेटे, कोरे उत्साह से काम नहीं चलता. तुम क्या समझते हो हमें राशि और हार्दिक प्यारे नहीं हैं. पर जीवन केवल भावुकता से नहीं जिया जाता. फिर संपन्न परिवार में जाने से बच्चों का भविष्य भी सुरक्षित हो जाएगा,’’ नीलेश बाबू धीरगंभीर स्वर में बोले.

‘‘साफसाफ क्यों नहीं कहते कि आप का बेटा इतना नालायक है, जो अपनी बहन के बच्चों का भार उठाने लायक ही नहीं है?’’ क्रोधित स्वर में वह बोलता हुआ बाहर निकला.

‘‘आप उस की चिंता न करें. मंगल को तो दुनियादारी की समझ ही नहीं है, पर मेरे जीतेजी बच्चे जीवन में सुव्यवस्थित हो गए तो चैन से आंखें मूंद सकूंगी,’’ रुक्मिणी देवी ने अपना निर्णय सुनाया.

दूसरे ही दिन वह समाजसेवक श्रीधर एक दंपती कमलेश्वर और उस की पत्नी कामायिनी को ले कर आ गया. रुक्मिणी देवी ने राशि और हार्दिक को सजाधजा कर प्रस्तुत किया.

‘‘बहुत ही प्यारे बच्चे हैं,” कामायिनी ने बच्चों को देखते ही कहा.

‘‘बच्चो, आप के मम्मीपापा कहां हैं?” कमलेश्वर ने पूछा.

‘‘ऊना गए हैं, हमारे लिए दवा लेने. यह मेरा छोटा भाई है न, हार्दिक, जब देखो तब बीमार पड़ता रहता है,” राशि बोली.

‘‘ठीक है, आप दोनों अंदर जा कर खेलो. बड़ों के बीच बच्चों का क्या काम,” रुक्मिणी देवी ने प्यार से उन्हें थपथपाते हुए कहा, तो राशि और हार्दिक कमरे में चले गए.

‘‘देखिए, हम तो एक ही बच्चा चाहते हैं, वह भी एक साल से छोटा, जिसे हम अपने समान ढाल सकें,’’ कामायिनी बोली.

‘‘हम आप की बात समझते हैं, पर हम अपने बच्चों को अलग नहीं कर सकते. मातापिता से अलग हो कर उन्हें एकदूसरे के साथ का ही तो सहारा है,’’ नीलेश बाबू दुखी स्वर में बोले.

‘‘वही तो, आप ने तो बच्चों को उन के मातापिता के निधन के बारे में कुछ बताया तक नहीं है. यदि आप उन्हें बता देते तो अब तक तो वे संभल जाते. इस बात को आप कब तक उन से छिपाएंगे.’’

‘‘हो सकता है कि आप ठीक कह रहे हों, पर हमारे विचार आप से पूरी तरह भिन्न हैं. हम नहीं चाहते कि इतने छोटे बच्चों को ऐसी भयानक सचाई बता कर आहत कर दें,’’ रुक्मिणी देवी आहत हो उठीं.

‘‘श्रीधर बाबू, उस संबंध में पूछिए न,’’ कमलेश्वर ने समाजसेवक श्रीधर से कहा.

‘‘आप ही पूछ लीजिए. मैं नहीं चाहता कि दोनों पक्षों के बीच कुछ गुप्त रहे.’’

‘‘बात क्या है,’’ नीलेश बाबू हैरान स्वर में बोले.

‘‘हम पूछना तो नहीं चाहते, पर बच्चों के भविष्य के बारे में कोई निर्णय लेने से पहले यह जानना भी जरूरी है.’’

‘‘हां, कहिए न, हम भी कुछ छिपाना नहीं चाहते.’’

‘‘आप की पुत्री का परिवार अपेक्षाकृत संपन्न ही था न, नीलेश बाबू,’’ कमलेश्वर ने पूछा.

‘‘जी हां, पर आप यह क्यों पूछ रहे हैं?’’

‘‘अब, जब उन के परिवार में इन बच्चों के अलावा और कोई नहीं बचा है, तो जोकुछ परिवार की संपत्ति है इन बच्चों के नाम ही की जानी चाहिए,’’ कामायिनी ने अपना मंतव्य स्पष्ट किया.

‘‘देखिए, खातापीता परिवार था हमारी बेटी का, पर भूंकप में सब स्वाहा हो गया. घर का खंडहर अवश्य खड़ा है. उस भूमि का, जो भी मूल्य हो. उस के अलावा नकदी, गहनों या बैंक में जमा पैसे के बारे में हम कुछ नहीं जानते,’’ इस बार उत्तर रुक्मिणी देवी ने दिया.

‘‘तो पता कीजिए न, नीलेश बाबू. अब संसार में आप के अलावा इन का है ही कौन?’’ कमलेश्वर ने कहा और चलने को उठ खड़े हुए.

मंगल के क्रोधित चेहरे का बदलता रंग नीलेश से छिपा नहीं रहा था. वह कुछ कहता, इस से पहले ही उन्होंने इशारे से उसे शांत रहने को कहा.

कमलेश्वर और कामायिनी श्रीधर के साथ बाहर निकल गए. कुछ देर बाद श्रीधर फिर आया और बोला, ‘‘आप गलत मत समझिएगा, नीलेश बाबू, हाल ही में कमलेश्वरजी को व्यापार में भारी घाटा हुआ है. वे अब ऐसे अनाथ बच्चे को गोद लेना चाहते हैं जिस के नाम कम से कम 10 लाख रुपए तो हों, ताकि उस रकम से उन का व्यापार पटरी पर आ सके.’’

‘‘भूकंप ने कई अभागों को अनाथ बना दिया है. कोई ‘आंख का अंधा, गांठ का पूरा’ मिल ही जाएगा. तो क्षमा ही कीजिए,’’ कहते हुए नीलेश बाबू ने हाथ जोड़ दिए.

‘‘देख लीजिए, परिवार बहुत शालीन व सुसंस्कृत है,” श्रीधर ने सिफारिश की.

‘‘नहीं, श्रीधर बाबू, यह संभव नहीं हो सकेगा. हम बूढ़े व अशक्त ही सही. इन का मामा मंगल इन का लालनपालन बिना किसी लालच के कर सकता है.”

श्रीधर ने 2-4 निसंतान दंपतियों को नीलेश बाबू व रुक्मिणी देवी से और मिलवाया, पर हर जगह किसी न किसी रूप में धनसंपत्ति का प्रश्न आ जाता.

एक दिन मंगल ने स्पष्ट स्वर में घोषणा कर दी थी कि राशि और हार्दिक कहीं नहीं जाएंगे. वे उन के साथ ही रहेंगे. यदि नीलेश बाबू व रुक्मिणी देवी चाहें तो वह आजीवन अविवाहित रहने को भी तैयार है.

“दूसरा भीष्म पितामह बनने की जरूरत नहीं है. हम तुम्हारे लिए ऐसी पत्नी ढूंढ़ेंगे, जो राशि और हार्दिक का भार भी संभालने को तैयार हो,” रुक्मिणी देवी ने मंगल की बात पर अपनी मुहर लगा दी.

जीवन अपने ही ढर्रे पर चलने लगा. राशि और हार्दिक का स्कूल में दाखिला करवा दिया गया. बच्चे भी ननिहाल में घुलनेमिलने लगे. लगता था, कुछ ही समय में सबकुछ सामान्य हो जाएगा, पर एक दिन अचानक ही राशि और हार्दिक की दूर रिश्ते की बूआ ऋचा आ पहुंची. आते ही राशि और हार्दिक को गले लगा कर वह विलाप करने लगी, ‘‘कैसी विपत्ति आई है मेरे बच्चों पर? इतनी कम उम्र में मातापिता, चाचा, दादी सब सिधार गए. मैं ने सोचा, इन बच्चों का भार आगे से मैं ही उठाऊंगी.’’

‘‘मेरी दीदी, जीजाजी को एक तो 6 माह से ऊपर हो गए, आज अचानक ही राशि और हार्दिक की याद कैसे आ गई,’’ मंगल ने व्यंग्य किया.

‘‘बनो मत मंगल, हम भी इसी धरती पर रहते हैं. तुम भी तो इन बच्चों को गोद देने वाले थे, फिर इरादा कैसे बदल दिया. पर यह मत समझना कि 10 लाख रुपए अकेले ही हड़प जाओगे,’’ ऋचा बोली.

‘‘10 लाख रुपए? किस 10 लाख रुपए की बात कर रही हो.’’

‘‘इतने भोले मत बनो, जैसे कि तुम जानते ही नहीं कि राशि और हार्दिक को 10 लाख रुपए बीमे की रकम मिलने वाली है.”

‘‘ओह, तो इसीलिए राशि व हार्दिक के प्रति आप का स्नेह उमड़ पड़ा है,’’ कहता हुआ मंगल व्यंग्य से मुसकराया, ‘‘मैं आप का अनादर नहीं करना चाहता. पर आप यहां से चली जाएं, इसी में सब की भलाई है,’’ मंगल क्रोधित स्वर में बोला.

‘‘ठीक है, अभी तो मैं चली जाती हूं, पर मैं फिर आऊंगी. रकम तुम्हें अकेले नहीं हजम करने दूंगी,” कहती हुई ऋचा चली गई.

अब सब का ध्यान राशि और हार्दिक की ओर गया था. वे दोनों पत्थर की मूरत बने बैठे थे.

‘‘क्या हुआ?’’ रुक्मिणी देवी ने पूछा.

‘‘मम्मीपापा दवा लेने नहीं गए हैं न, नानीमां. वे अब कभी नहीं आएंगे न,’’ राशि ने रोंआसे स्वर में पूछा और जवाब की प्रतीक्षा किए बिना ही दोनों बच्चे फूटफूट कर रो पड़े. नीलेश बाबू, मंगल और रुक्मिणी देवी उन्हें चुप कराने का प्रयत्न कर रहे थे, तभी फोन की घंटी बज उठी.

‘‘राशि और हार्दिक कैसे हैं? मैं उन का चचेरा चाचा प्रसून बोल रहा हूं.’’

‘‘ओह, काफी जल्दी याद आई है, उन की. स्वयं ही आ कर देख लीजिए न,’’ कह कर मंगल ने रिसीवर पटक दिया.

‘‘लगता है, इन बच्चों का भविष्य सुरक्षित करने के लिए किसी वकील से सलाह लेनी पड़ेगी,’’ कहते हुए नीलेश बाबू बाहर निकल गए. Social Story In Hindi

Family Story : फर्ज की याद – गणेशी के हाथ से सुनील ने क्यों नही पिया पानी

Family Story : जब से सुनील शर्मा इस दफ्तर में प्रमोशन ले कर आए हैं तब से वे कभी चपरासी गणेशी से पानी नहीं मंगाते हैं. वे खुद ही उठ कर पी आते हैं, चाहे मेज पर कितना भी काम हो.

गणेशी कई दिनों से सुनील शर्मा की इस आदत को देख रहा था. आज भी जब वे पानी पी कर अपनी मेज पर आ कर बैठे तब गणेशी आ कर बोला, ‘‘बाबूजी, एक बात कहूं…’’

‘‘कहो,’’ सुनील शर्मा ने नजर उठा कर गणेशी की तरफ देखा.

‘‘जब से आप आए हो, उठ कर पानी पीते हो.’’

‘‘हां, पीता हूं,’’ सुनील शर्मा ने सहजता से जवाब दिया.

‘‘आप मुझे आदेश दे दिया करें न, मैं पिला दिया करूंगा. आखिर मेरी ड्यूटी पानी पिलाने की ही है,’’ गणेशी ने सवालिया निगाहों से पूछा.

‘‘देखो गणेशी, मेरा उसूल है कि अपना काम खुद करना चाहिए,’’ सुनील शर्मा ने अपनी बात रखी.

‘‘ऐसी बात नहीं है बाबूजी, आप मेरे हाथ का पानी पीना नहीं चाहते हैं,’’ गणेशी ने यह कह कर गुस्से से सुनील शर्मा को देखा.

सुनील शर्मा तुरंत कोई जवाब नहीं दे पाए. गणेशी फिर बोला, ‘‘मगर, मैं सब जानता हूं बाबूजी, आप मेरे हाथ का पानी क्यों नहीं पीना चाहते हैं.’’

‘‘क्या जानते हो?’’

‘‘मैं अछूत हूं, इसलिए आप मेरा दिया पानी नहीं पीना चाहते हो.’’

‘‘ऐसी बात नहीं है गणेशीजी, मैं छुआछूत को नहीं मानता हूं.’’

‘‘फिर मुझ से पानी मंगा कर क्यों नहीं पीते हो?’’

‘‘देखो गणेशीजी, आप चपरासी हो. मैं जब से इस दफ्तर में आया हूं, किसी को आप ने अपनी मरजी से पानी नहीं पिलाया. जिस बाबू ने पानी पीने के लिए कहा तब कहीं जा कर आप ने पिलाया…’’ समझाते हुए सुनील शर्मा बोले, ‘‘इसी बात को मैं कई दिनों से देख रहा था, जबकि तुम्हारा यह फर्ज बनता है कि बाबुओं को बिना मांगे पानी पिलाना चाहिए.’’

‘‘बाबूजी, जब प्यास लगती है तभी तो पानी पिलाना चाहिए.’’

‘‘नहीं, यही तो आप गलती कर रहे हो. बिना मांगे पानी ले कर हर मेज पर पहुंच जाना चाहिए. यही एक चपरासी का फर्ज होता है…’’ समझाते हुए सुनील शर्मा बोले, ‘‘यही वजह है कि मैं खुद उठ कर पानी पीता हूं. आप ने आज तक अपनी मरजी से मुझे पानी नहीं पिलाया है.’’

‘‘अरे बाबूजी, आप ही पहले ऐसे आदमी हो वरना सभी बाबू मांग कर पानी पीते हैं. आप ही ऐसे हैं जो मुझे अछूत समझ कर पानी नहीं मंगाते हो,’’ गणेशी ने आरोप लगाते हुए कहा.

सुनील शर्मा सोच में डूब गए. गणेशी उन की बात का उलटा मतलब ले रहा है. वे कुछ और जवाब दें, इस से पहले ही साहब की घंटी बज उठी. गणेशी साहब के केबिन में चला गया.

सुनील शर्मा मन ही मन झुंझला उठे. पास की मेज पर बैठे मुकेश भाटी बोले, ‘‘शर्माजी, देख लिए गणेशी के तेवर. आप की बात का उस पर कोई असर नहीं पड़ा.’’

‘‘हां भाटीजी, असर तो नहीं पड़ा,’’ उन्होंने भी स्वीकार करते हुए कहा.

‘‘इसलिए मैं कहता हूं कि अपने उसूल छोड़ दो वरना यह आप पर छुआछूत बरतने का केस दायर कर देगा…’’ समझाते हुए मुकेश भाटी बोले, ‘‘फिर कचहरी के चक्कर काटते रहना क्योंकि कानून भी इस का ही पक्ष लेगा.’’

‘‘देखो भाटीजी, मैं तो उस को अपने फर्ज की याद दिला रहा था.’’

‘‘कोई जरूरत नहीं है शर्माजी. जिस को अपना फर्ज समझना ही नहीं है उसे याद दिलाना फुजूल है. उस से बहस कर के खुद का सिर फोड़ना है. फिर मेरा काम था समझाने का समझा दिया. आप अपने उसूलों पर ही रहना चाहते हो तो रहो. कल को कुछ हो जाए, तो फिर मुझे कुछ मत कहना,’’ कह कर मुकेश भाटी अपने काम में लग गए.

सुनील शर्मा के भीतर इन बातों को सुन कर हलचल मच गई. अब पहले वाला जमाना नहीं है. सरकार भी रिजर्वेशन के तहत सब महकमों में इन की भरती करती जा रही है, इसलिए चपरासी से ले कर अफसर तक ये ही मिलेंगे.

जिस परिवार में सुनील शर्मा का जन्म हुआ है, वह ब्राह्मण परिवार है. 1970 के पहले उन का ठेठ देहाती गांव था. छुआछूत का जोर था. किसी अछूत को छूना भी पाप समझा जाता था, इसलिए वे गांव में ही अलग बस्ती में रहते थे.

सुनील शर्मा के पिता गंगा सागर गांव में शादीब्याह कराने और कथा बांचने का काम करते थे. वे यह काम केवल ऊंची जाति वालों के यहां किया करते थे. निचली जाति के लोगों के यहां कर्मकांड के लिए वे मना कर दिया करते थे.

गांव की दलित बस्ती गंगा सागर से बहुत नाराज रहती थी. मगर वे कर कुछ नहीं पाते थे, क्योंकि उन की चलती ही नहीं थी.

जब कोई दलित किसी काम से गंगा सागर के पास आता था, तो वे उन्हें बाहर बिठा कर संस्कार करा देते थे. बदले में वे कुछ सिक्के देते थे, जिन्हें वे जमीन पर ही रखवा देते थे. तब यजमान मखौल उड़ा कर कहते थे, ‘पंडितजी, यह कैसा नियम. मेरे हाथ से नहीं लिया, मगर हाथ से अपवित्र सिक्के को आप ने ग्रहण कर लिया तो अपवित्र नहीं हुए.’

बदले में गंगा सागर संस्कृत में शुद्धीकरण के श्लोक पढ़ कर उसे शुद्धी का पाठ पढ़ा देते थे.

उस समय दलितों में कूटकूट कर अपढ़ता भरी थी. विरोध करने के बजाय वे सबकुछ सच मान लेते थे. गांव में कोई गंगा सागर को दलित दिख जाता, तो वे उस से बच कर निकलते थे.

मगर जैसेजैसे दिन बीतते रहे, छुआछूत की यह परंपरा शहरों में खत्म होने के साथसाथ गांवों में भी खत्म होने लगी थी. अब तो न के बराबर रही है. अब भी कुछ पुराने लोग हैं जो छुआछूत को मानते हैं क्योंकि वे उसी जमाने में जी रहे हैं.

सुनील शर्मा को आज नौकरी करते हुए 32 साल हो गए हैं. इन 32 सालों में उन्होंने बहुतकुछ देख लिया है. रिटायरमैंट में 3 साल बचे हैं. गणेशी जैसे कितने ही लोग हैं जो इस दलित अवसर को भुनाना चाहते हैं. इन को सामान्य वर्ग के प्रति हमेशा से नफरत थी, जो विष बीज बन कर वट वृक्ष

बन गई है. सरकार ने साल 1989 में इन के लिए जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल करने पर बैन लगा दिया है, तब से ही इन के हौसले बढ़ने लगे हैं.

‘‘अरे शर्माजी, पानी पीयो,’’ इस आवाज से सुनील शर्मा की सारी विचारधारा भंग हो गई.

गणेशी गिलास लिए उन के सामने खड़ा था. उन्होंने गटागट पानी पी कर वापस उसे गिलास थमा दिया.

गणेशी बोला, ‘‘बाबूजी, आप ने मुझे मेरा फर्ज याद दिला दिया.’’

‘‘वह कैसे गणेशीजी?’’ हैरानी से सुनील शर्मा ने पूछा.

‘‘देखिए बाबूजी, अब तक जो मांगता था, उसे ही मैं पानी पिलाता था, मगर आप ने यह कह कर मेरी आंखें खोल दीं कि पानी तो हर मेज पर जा कर पिलाना चाहिए, इसलिए आज से ही मैं ने आप से शुरुआत की है.’’

‘‘यह तो बहुत अच्छा काम किया गणेशीजी. चलो, मेरी बात पर आप ने गौर तो किया.’’

‘‘हां बाबूजी, अब मुझे किसी को फर्ज की याद दिलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी,’’ कह कर गणेशी चला गया.

मगर सुनील शर्मा उस में अचानक आए इस बदलाव को देख कर हैरान थे. Family Story

AI Monkey : सोशल मीडिया पर तार्किक एआई बंदर कर रहे पाखंड का भांडाफोड़

AI Monkey : इंस्टाग्राम में एआई बंदर खूब वायरल हो रहे हैं जो तर्क की बातें कर धार्मिक पाखंड पर चोट करते हैं. दिलचस्प यह कि इन की वेशभूषा धार्मिक सरीकी है और बातें ठीक विपरीत.

विज्ञान तकनीक देता है. तकनीक सहूलियत देता है. इस का इस्तेमाल कैसे करना है यह इंसान पर निर्भर करता है. यही इंसान इसी तकनीक का इस्तेमाल विज्ञान को गाली देने में भी कर सकता है.

अकसर सत्संगों, धर्म सभाओं में माइक स्पीकर, एसी कूलर, आरो का पानी पीपी कर तमाम ऐयाशियों में जी रहे कथावाचक व बाबा विज्ञान को कोसते रहते हैं. वे कहते हैं कि सब मोहमाया है और अध्यात्म ही असल सच है, जबकि सब से ज्यादा मोह से यही घिरे रहते हैं. गुची के बैग से ले कर रोल्स रोयस गाड़ी तक, रे बेन के चश्मों से ले कर पराडा के स्नीकर तक, क्याक्या ये इस्तेमाल नहीं करते. मगर जैसे ही बात दूसरों को प्रवचन देने की आती है तो अध्यात्म का चूर्ण बाटने लगते हैं.

हालांकि जैसे को तैसा भी कुछ लोग देते रहते हैं. ऐसे ही सोशल मीडिया पर आजकल इन्हीं पाखंडियों की धोती खोलने वाले एक एआई बंदर बाबा बवाल काटे हुआ है. बंदर लीला योगी नाम से इस एआई बंदर ने अभी तक मात्र 18 पोस्ट की हैं और रीच ऐसी कि मेटा सोफ्टवेयर भी हैरान हो जाए. एआई का ऐसा भी इस्तेमाल हो सकता है यह अपनेआप में अनोखा प्रयोग है.

इस अकाउंट में एक एआई द्वारा निर्मित बंदर है जो इमेजनरी कथावाचक बाबा बना है. इस की रील्स में इस बंदर बाबा का सत्संग चलता है. सत्संग में एआई से ही लोगों की भीड़ हाथ जोड़े दिखाई देती है. जैसे ही बाबा कुछ कहती है ये लोग अपने भाव उसी तरह बनाते हैं, जैसे धार्मिक कथावाचकों के सत्संगों में आई भीड़. भव्य नजारा ऐसा होता है जैसा धीरेंद्र शास्त्री या अनिरुद्धाचार्य के सत्संगों में होता है. पीछे स्क्रीन पर विषय से संबंधित स्लाइड चलती रहती है.

‘बंदर लीला योगी’ नाम के इस बंदर के हाथ में एक माइक है और कपड़े भगवा पहना हुआ है. देख कर लगता है इसे जानबूझ कर भगवा कपड़े पहनाए गए हैं, मगर ज्ञान की ऐसी बातें करता है, जो धर्म में अंधे जाहिलों का सीना चीर दे. दरअसल इस का कांसेप्ट थोड़ा अलग है, यह बाबा धर्म सत्संग लगा कर धार्मिक पाखंड की ही बखियां उधेड़ रहा है.

यही इसे अनोखा और क्रिएटिव भी बना रहा है और लोगों के बीच वायरल भी करा रहा है. जैसे एक रील में यह बंदर कहता है, “जब भगवान को प्रसाद चढ़ाते हैं तो सब में बांटते हैं,’ एआई वाले लोग ‘हां’ कहते हैं. फिर कहता है, ‘जब भगवान को चढ़ाया प्रसाद लोगों में बांटते हैं तो भगवान को चढ़ाया पैसा लोगों में क्यों नहीं बांटते?’ अपनी इस पहली ही रील में इस ने 18 लाख रीच हासिल कर ली.

अपनी एक और वीडियो में यह कहता है, “यह कैसा धर्म है कि सोमवार मंगलवार को मांस खाने पर तो भ्रष्ट होता है मगर मंगलवार को खाया जाए तो कुछ नहीं होता है.” वह कटाक्ष करते आगे कहता है, “भक्तों अब सावन ख़त्म हो गया है अब मुर्गों बकरों को पवित्र आहार में गिन सकते हैं.” वह कहता है, “जो सावन में दूसरों की थाली की हड्डी देख कर अपना धर्म आहात कर लेते थे. सावन ख़त्म होते ही वही भक्त मांस पर ऐसे टूट पड़ा है जैसे उस की सारी भक्ति सारी पवित्रता मांसाहार के लिए बैचेन थी.”

इस की रील्स धर्म और धर्म की दुकान खोले हुए बाबाओं पर चोट करती हैं. क्योंकि जो धार्मिक कथावाचक लोगों को भगवा कपड़े पहन कर भाग्यवादी और अंधविश्वासी बना रहे हैं उसी पोशाक को ओढ़े यह बंदर धार्मिक कर्मकांडों की पोल खोल रहा है. यहां तक कि देश की बेहाल स्थिति पर सरकार से सवाल कर रहा है.

अपनी एक रील में यह कहता है, “जिस देश में सरकारी स्कूलों की छत टपकती हों और मंदिरों की छतें सोने से जड़ी हों उस देश में विकास नहीं हो सकता. अगर मंदिरों में भगवान का पैसा जमा है उस पैसे से सरकारी स्कूलों को ठीक कर दिया जाए तो भारत विकसित हो सकता है लेकिन ऐसा होगा नहीं क्योंकि कुछ लोगों को डर है आप के बच्चे पढ़लिख गए तो सवाल पूछने लगेंगे.”

यह नहीं भूलना चाहिए, यह बंदर ऐसे समय में ये रीलें बना रहा है जहां सत्ताविरोधी बात करने पर या तो चैनल डब्बा बंद कर दिया जाता है या धारा वारा लगा या डराधमका कर चुप करा दिया जाता है.

हाल में हुए एसएससी छात्रों के विरोध प्रदर्शन पर भी इस ने रील बनाई है. इस में वह छात्रों के समर्थन में कहता है, “हमें ऐसा सिस्टम चाहिए जिस में पेपर लीक न हो और कोई हेरफेर न हो. लोकतंत्र की खूबी यह है कि आप अपना विरोध दर्ज करा सकते हैं, मगर दिक्कत यह है कि आवाज सुनी नहीं जाती और बात मनवाने के लिए विरोध लंबा करना पड़ता है.

यही नहीं, बिहार में हो रहे चुनाव आयोग के एसआईआर सर्वे पर भी इस बंदर ने सवाल उठाए. बंदर अपनी एक वीडियो में कहता है, “बिहार में इन लोगों ने वोटबंदी लगा दी है. पहले नोटबंदी में लाइन में लगाया अब वोटबंदी में. बिहार की भयानक बारिश और बाढ़ में आप कहते हो कि 50 साल पुराना कागज़ ढूंढ के लाओ. जो आदमी दिनभर में कंस्ट्रक्शन साईट पर ईंट ढो रहा है वो रात को रोटी बनाए या फौर्म भरे. एक पढ़ेलिखे आदमी को भी औनलाइन फौर्म भरने में पसीना छूट जाता है और आप यह गरीब अनपढ़ों से भरने को कह रहे हैं. वह आगे कहता है,v “चुनाव आयोग कहता है वोटर लिस्ट में इमिग्रेंट्स हैं, विदेशी हैं, जब इन से पूछो कि कितने हैं तो कुछ नहीं कहते. यह विपक्ष के वजूद की अंतिम लड़ाई है.”

दिखने में अनोखा और हैरान करने वाला यह बंदर ऐसा नहीं है कि अपनी तकनीक के चलते वायरल हो रहा है. एआई या एनीमेशन का इस्तेमाल आज हर चौथा आदमी कर ही रहा है. लेकिन बड़ी बात यह कि इस बंदर के पीछे बैठा आदमी इस का इस्तेमाल काफी सोचसमझ कर धर्म और सत्ता की काट के लिए कर रहा है.

जाहिर है इन रीलों के पीछे जरूर विज्ञान और तर्क के आधार पर अपनी बात रखने वाला आदमी है. बंदर चूंकि हिंदू धर्म में पूजनीय बना दिया गया है, और बहुत आम सा जानवर है इसलिए उस ने काफी सोच समझ कर बंदर के चेहरे का इस्तेमाल किया है और सत्संग को अपनी बात पहुंचाने का जरिया बनाया है. वही सत्संग जिसे कथावाचक ताकत, पैसा और अय्याशी पाने का जरिया बनाए हुए हैं.

फिलहाल इस ने अपनी पहचान गुप्त रखी हुई है, मगर इंस्टाग्राम पर इस ने एक लिंक दिया है जिस का प्रोफाइल नाम ‘मान सिंह’ है. इस के अलावा यह ट्विटर पर भी इसी नाम से ख़ासा एक्टिव है. जहां इस के 5 हजार फौलोवर्स हैं.

हालांकि ऐसा नहीं है कि सोशल मीडिया पर यह एकलौता ऐसा बंदर है. वर्चुअल बंदर अब ढेरों में दिखने लगे हैं. कुछ व्लौग बना रहे हैं. ऐसा ही एक व्लौगर एआई बंदर ‘व्लौगर बबलू एआई’ के नाम से है. यह बंदर अलगअलग जगह घूमता है. व्लौग बनाता है. इस बंदर की भी पोशाक भगवा है मगर इस की रील्स उतनी सामाजिक नहीं जितनी ‘बंदर लीला’ की हैं. हां बीचबीच में जरूर सामाजिक मुद्दों पर बार करता है. मगर अधिकतर हंसीमजाक वाली वीडियो होती हैं. मगरयह तय है कि इसे बनाने में जरूर दिमाग और मेहनत लग रही है. इस बंदर को बनाने वाला ‘लखन सिंह’ नाम का इंस्टाग्राम यूजर है.

साकेत सचिन नाम से एक अन्य यूजर है जिस के 34 हजार फौलोवर्स हैं. अपने पेज पर वह अधिकतर अम्बेडरवादी पोस्ट करता है. उस ने भी कुछ एआई बंदर की रील्स पोस्ट की हैं. अनोखा यह कि इस में बंदर ने भगवा कपड़े की जगह नीले कपड़े पहने हैं. इसे डा. भीम राव आंबेडकर का एआई बंदर वर्जन कहा जा सकता है, जिस के हाथ में संविधान की प्रति भी है.

इस रील में एआई आंबेडकर कहता है, “दुनिया में इंसान एक तरह से पैदा होते हैं. यह अकेला ऐसा देश है जहां कोई मुख से पैदा हो गया, कोई भुजाओं से पैदा हो गया. जब हमारे देश में ऐसी टैक्नोलौजी है तो फ्रांस से राफेल और रूस से एस400 मंगाने की क्या जरूरत?”

इस के अलावा धर्मेन्द्र कुमार नाम से एक और इंस्टाग्राम यूजर है. इन के इंस्टाग्राम पर 70 हजार के लगभग फौलोवर्स हैं. ये फेसबुक और यूट्यूब पर भी एक्टिव हैं. उम्र में 40-45 साल के दिखाई पड़ते हैं. साधारण से हैं. छोटी सी किराना दुकान चलाते हैं. इन की बायो बताती है कि ये गोरखपुर के हैं. ये भी एआई बंदर का इस्तेमाल करते हैं. बल्कि ये ज्यादा वोकल दिखाई पड़ते हैं.

इन की एक रील में जब एक महिला बंदर से सवाल करती हैं कि लोग कहते हैं गाय का मूत्र सब से पवित्र होता है इस पर क्या जवाब देंगे. तो बंदर जवाब देता है, “यदि गौमूत्र पवित्र होता तो भगवान् को चढ़ाना चाहिए मंदिर में जाके. तो प्रसाद न चढ़ा कर रोज एक लोटा गौमूत्र चढ़ाना चाहिए. इस से वे भी पवित्र हो जाएंगे.”

एक और रील में वह कहता है, “भगवान को सोने का मुकुट चढ़ाने से पहले किसी भूखे को रोटी चढ़ाओ. भक्ति का मतलब भीड़ में धक्का देना नहीं किसी गिरते को संभालना है.”

इन एआई बंदरों के पीछे बैठे दिमागों को देख कर लगता है कि विज्ञान की कृत्रिम बौद्धिकता के पीछे भी बुद्धि की जरूरत होती है. तकनीक का इस्तेमाल हर तरह से किया जा सकता है. यही तकनीक धर्मान्धियों के लिए पाखंड फैलाने का साधन भी बनती है, मगर पाखंड का विरोध करने वालों का जरिया भी बन सकती है. यह इंसान को ही तय करना होता है कि वह इस का कैसे इस्तेमाल करे. एआई का इस्तेमाल कर कुछ तार्किक लोग अपनी बात कह पा रहे हैं यह अच्छी बात है. मगर अभी भी इन वैज्ञानिक प्लेटफौर्मो पर पाखंडियों का ही कब्ज़ा है. AI Monkey

Life Lessons : खाई में न गिर जाएं

Life Lessons : सरकार चलानी हो, जीवन चलाना हो, परिवार चलाना हो, दफ्तर या दुकान चलानी हो, याद रखो कुछ भी सीधा पूर्व निर्धारित नहीं होता. हर क्षण स्थितियां बदलती हैं, बिगड़ती हैं, बनती हैं. यह वह रस्सी नहीं है जिसे पकड़ कर आप सीधे पहाड़ की चोटी पर पहुंच जाएं. यह वह रास्ता है जिस में सैकड़ों पगडंडियां हैं, हजारों मोड़ हैं और कब कौन सा रास्ता आप को लक्ष्य की ओर ले जाए और कौन सा बीच में फंसा दे, पता नहीं.

जो इस बात को समझ कर अपने लक्ष्य या किसी मुकाम पर पहुंच जाते हैं वे अकसर अपनी गौरवगाथा इस तरह लिखते हैं मानो उन्हें मालूम था कि उन्होंने जो रस्सी पकड़ी, जो पगडंडी चुनी, जिस अवरोध को हटाया उस का अंदाजा उन्हें था. यह केवल संयोग था या उन का परिश्रम. उन्होंने सही रास्ता चुना, हर रुकावट को मेहनत से हटाया. तभी वे लोग प्रधानमंत्री बने, तभी महात्मा गांधी बने, तभी हिटलर बने, तभी मुसोलिनी बने, तभी माओ बने, तभी नेहरू या बराक ओबामा बने.

आम आदमी अकसर ज्ञानियों के चरणों में बैठ कर सही मार्ग पूछते हैं. यह मूर्खता है. मार्ग को तो खुद ढूंढ़ना होता है. ज्ञानी, जो दुकान लगा कर बैठे होते हैं, सिर्फ सपने दिखाते हैं. वे कहते हैं, ‘सही रस्सी ढूंढ़ों, सही रास्ता चुनो, अवरोध को हटाओ.’ पर कैसे, यह उन्हें भी नहीं मालूम. हजारों नहीं, अरबों लोग इन ज्ञानियों के आगे मार्गदर्शन के लिए हाथ फैलाए रहते हैं. अपनी बुद्धि, विवेक, परिश्रम से जो थोड़ाबहुत उन्होंने पाया है, उस को वे उन पर लुटाते रहते हैं और फिर वहीं के वहीं रह जाते हैं.

हर जने में क्षमता है कि वह उस मार्ग को ढूंढ़ सके जो उसे उस के लक्ष्य तक ले जाए. आखिर यों ही मानव ने 5,000 साल पहले बड़ेबड़े निर्माण नहीं कर लिए थे. मेसोपटामिया, इजिप्ट, मोहनजोदड़ो, रोमन साम्राज्य सब मिट्टी से शुरू हुए थे. कोरी मिट्टी, कोरे पत्थरों, कोरी जमीन पर बने विशाल स्ट्रक्चर आज भी भौचक्का कर रहे हैं. उन के निर्माताओं ने सही लक्ष्य चुना. गलतियां की होंगी पर उन्हें सुधारा. वे हमारे लिए अद्भुत धरोहर छोड़ गए हैं.

पिछले 200 सालों में विज्ञान की इस कला ने एक नया मार्ग दिखाया है. टेढ़ी जगह को भी सीधा करो. ऊंचे पहाड़ों में सड़कें बनाओ, फिर उन में गुफाओं को बना कर सड़कों को सीधा करो. पानी पर तैरो, फिर जहाज बनाओ. विज्ञान ने हमेशा नई रस्सी बनाई है. पुरानी रस्सी पर चल कर जहां तक पहुंचे, उस से आगे का रास्ता विज्ञान ने बनाया है. हर जना विज्ञान से सीख सकता है कि कुछ भी अपनेआप नहीं होता. कुछ पकता नहीं, पकाया जाता है. कुछ बनता नहीं, बनाया जाता है.

आप की वह इच्छा कहां है जो कुछ बनाने की हो. नहीं है, तो उसे ढूंढ़ो, उसे पैदा करो. जिस समाज ने कोरी जमीन पर सड़कें बनाईं, वह आगे रहता है. अमेरिका 400 साल में वहां पहुंचा हुआ है जहां एशिया, यूरोप या अफ्रीका के 5,000 साल पुराने देश नहीं पहुंचे. अमेरिका में दरअसल कुछ नया करने की इच्छा थी. आज भी हम पुरानी रस्सी को ढूंढ़ रहे हैं. सो, पक्का है कि पहाड़ से गिर कर खाई में गिरेंगे. Life Lessons

Hindi Love Stories : 20 सालों का लिव इन

Hindi Love Stories : रविवार का दिन था. शकुंतला और कमलेश डाइनिंग टेबल पर बैठ कर नाश्ता कर रहे थे.

“शकुंतला, क्यों न हम शादी कर लें?” कमलेश ने कहा.

चौंक गई शकुंतला. आज 20 सालों से वह कमलेश के साथ लिव इन रिलेशन में रह रही है. आज तक शादी की बात उस ने सोची नहीं फिर आज ऐसा क्या हो गया? पहली बार कमलेश से जब वह मिली थी तो 32 साल की थी. कमलेश उस समय 40 का रहा होगा. परिस्थितियां कुछ ऐसी थीं कि दोनों अकेले थे.

“क्यों, ऐसा क्या हुआ कि तुम शादी की सोचने लगे? पिछले 20 सालों से हम बगैर शादी किए रह रहे हैं और बहुत ही इत्मीनान से रह रहे हैं. कभी कोई समस्या नहीं आई. अगर आई भी तो हम ने मिलजुल कर उस का समाधान कर लिया. फिर आज ऐसी क्या बात हो गई?” कुछ देर सोचने के बाद शकुंतला ने कहा.

“ऐसा है, शकुंतला कि हमारी उम्र हो चुकी है. मैं 60 का हो गया और तुम 52 की. यह बात सही है कि हम बिना शादी किए भी बहुत मजे में बड़ी समझदारी और तालमेल के साथ जिंदगी जी रहे हैं. पर मैं कानूनी दृष्टिकोण से सोच रहा हूं. अगर हम दोनों में से किसी को कुछ हो गया तो हमें कानूनन पतिपत्नी होने पर विधिक दृष्टि से लाभ होगा. बस, यही सोच कर मैं ऐसा कह रहा हूं. मुझ पर किसी प्रकार का शक न करो,” कमलेश ने कहा.

“शक नहीं कर रही, कमलेश. तुम मेरे हमसफर रहे हो पिछले 20 सालों से और मैं गर्व के साथ कह सकती हूं कि तुम से ज्यादा प्यारा कोई नहीं मेरी जिंदगी में. बस, मैं यही सोच रही हूं कि जब सबकुछ सही चल रहा है तो क्यों न हम कुछ नया करने की सोचें. हम दोनों ने जो बीमा पौलिसी ली है उस में एकदूसरे को नौमिनी बनाया है. हमारे बैंक खातों में भी हम एकदूसरे के नौमिनी हैं. फिर और क्या आवश्यकता है ऐसा सोचने की. पर तुम ने कुछ सोच कर ही ऐसा कहा होगा.

“ऐसा करते हैं, 1-2 दिनों के बाद इस पर विचार करते हैं. पहले मुझे इस नए प्रस्ताव के बारे में सोच लेने दो,” शकुंतला ने कहा.

“बिलकुल, आराम से सोच लो. जो भी होगा तुम्हारी सहमति से ही होगा,“ कमलेश ने मुसकरा कर कहा.

फुरसत में बैठने पर शकुंतला सोचने लगी थी कि जब पहली बार वह कमलेश से मिली थी. दोनों अलगअलग कंपनियों में काम करते थे. कमलेश जिस कंपनी में काम करता था उस कंपनी से शकुंतला की कंपनी का व्यावसायिक संबंध था. इस नाते दोनों की अकसर मुलाकातें होती रहती थीं. पहले परिचय हुआ फिर दोस्ती. शकुंतला की शादी बचपन में ही हो गई थी और पति से मिलने से पहले ही वह विधवा भी हो गई थी.

उन दिनों विधवा विवाह को सही निगाहों से नहीं देखा जाता था और यही कारण था कि उस का विवाह नहीं हो पाया था. आज भी विधवा विवाह कम ही होते हैं. कमलेश को न जाने क्यों विवाह संस्था में विश्वास नहीं था और शुरुआती दौर में उस ने शादी के लिए मना कर दिया था. बाद में जब 35 से ऊपर का हो गया था तो रिश्ते आने भी बंद हो गए. थकहार कर घर वालों ने भी दबाव देना बंद कर दिया था और कमलेश अकेला रह गया.

दोनों की जिंदगी में कोई नहीं था. दोनों के विचार इतने मिलते थे और दोनों एकदूसरे के लिए इतना खयाल रखते थे कि दिल ही दिल में कब एकदूसरे के हो गए पता ही नहीं चला. शकुंतला जिस किराए के फ्लैट में रहती थी उस का मालिक उसे बेचने वाला था और खरीदने वाले को खुद फ्लैट में रहना था. इसलिए शकुंतला को कहीं और फ्लैट की आवश्यकता थी. जब उस ने कमलेश को इस बारे में बताया तो उस ने कहा कि उस के पास 2 कमरों का फ्लैट है. वह चाहे तो एक कमरे में रह सकती है. हौल और किचन साझा प्रयोग किया जाएगा. थोड़ी झिझकी थी शकुंतला. अकेले परपुरुष के साथ रहना क्या ठीक रहेगा. पर कमलेश ने आश्वस्त किया कि वह पूरी सुरक्षा और अधिकार के साथ उस के साथ रह सकती है, तो वह मान गई थी.

एकदूसरे को दोनों पसंद तो करते ही थे, साथसाथ रहने से और भी नजदीकियां बढ़ गईं और शादीशुदा न होने के बावजूद पतिपत्नी की तरह ही दोनों रहने लगे. आसपास के लोग उन्हें पतिपत्नी के रूप में ही जानते थे. इस लिव इन रिलेशन से दोनों खुश थे. दोनों एकदूसरे से प्यार करते थे. कभी किसी प्रकार की समस्या नहीं आई थी अभी तक.

और इतने सालों के बाद कमलेश ने शादी का प्रस्ताव रख दिया था. शकुंतला के मन में कई बातें उभरने लगीं. क्या इस से मेरा व्यक्तिगत जीवन प्रभावित नहीं होगा? क्या शादी करने के बाद हमारे संबंध वैसे ही रह पाएंगे जैसे अभी हैं? क्या शादी के लिए स्पष्ट रूप से नियम और शर्तें निर्धारित कर लिए जाएं? शकुंतला का एक मन तो कह रहा था कि जिस प्रकार वे रह रहे हैं उसी प्रकार रहें. आखिर जब सबकुछ सही चल रहा है तो नए प्रयोग क्यों किए जाएं भला? पर दूसरा मन कह रहा था कि कमलेश के साथ वह इतने सालों से है और वह हमेशा दोनों के हित की बात ही करता था. कभी उस ने सिर्फ अपने स्वार्थ की बात नहीं की. इतने दिनों से वह उसी के फ्लैट में रह रही है. उस का व्यवहार हमेशा एक हितैषी सा रहा है. उस ने जो कहा है वह भी सही हो सकता है. उस से विस्तार से बात करने की आवश्यकता है. आखिर हम 20 सालों से रह रहे हैं और एकदूसरे के साथ खुशीखुशी रह रहे हैं. हम एकदूसरे के साथ खुल कर अपनी बात साझा भी कर सकते हैं.

इसी प्रकार 6-7 दिन बीत गए. इस बारे में न तो कमलेश ने कुछ कहा न शकुंतला ने. कमलेश के दिल की बात तो शकुंतला नहीं जानती थी पर वह हमेशा इस बात पर विचार करती थी. हो सकता है कि कमलेश भी इस बात पर विचार करता होगा पर उस ने दोबारा कभी इस विषय को नहीं उठाया. शायद वह शकुंतला पर किसी प्रकार का दबाव नहीं बनाना चाहता था.

आज फिर दोनों की कंपनी में अवकाश का दिन था. आज शकुंतला ने फिर डाइनिंग टेबल पर उस विषय को उठाया,”कमलेश, मैं ने तुम्हारे प्रस्ताव पर विचार किया पर मुझे लगता है, हम जैसे हैं वैसे ही रहें. शादी का सर्टिफिकेट एक कागज का टुकड़ा ही तो होगा. बगैर सर्टिफिकेट के हम आदर्श जोड़े की तरह रह रहे हैं. मेरे विचार से शादी करने की कोई आवश्यकता नहीं है.”

“मैं हमारी स्थाई संपत्ति के बारे में सोच रहा था. मान लो मेरी मृत्यु हो जाए तो मेरे नजदीक दूर के रिश्तेदार इस फ्लैट पर दावा करेंगे. ऐसे में तुम्हें परेशानी होगी. इसी तरह की बातों को ध्यान में रख कर मैं अपने संबंध को एक कानूनी जामा पहनाना चाह रहा था,” कमलेश बोला.

“कमलेश, तुम मेरा कितना खयाल रखते हो. पर यह काम तो हम वसीयत बना कर भी कर सकते हैं. हम दोनों एकदूसरे के नाम वसीयत बना दें तो कोई तीसरा इस प्रकार का दावा नहीं कर पाएगा. हम क्यों शादी का अनावश्यक रश्म निभाएं…”

“देखो शकुंतला, शादी से कई कानूनी और सामाजिक हक मिल जाते हैं पतिपत्नी को. उदाहरण के लिए पत्नी पति की संपत्ति में बराबर हिस्सा पाने की हकदार होती है. साथ ही पति के पैतृक संपत्ति पर भी पत्नी का अधिकार होता है और कोई भी पत्नी से इस अधिकार को छीन नहीं पाएगा. तुम जानती हो कि मेरी पैतृक संपत्ति काफी मूल्यवान है. कुदरत न करे यदि किसी कारण से हम अलगअलग रहने की योजना बना लें तो शादीशुदा होने की स्थिति में पत्नी को गुजाराभत्ता लेने का अधिकार होता है. फिर संयुक्त संपत्ति में भी पत्नी का अधिकार होता है. यह अधिकार लिव इन रिलेशन में उपलब्ध नहीं है.”

“मैं तुम्हारी सभी बातों से सहमत हूं, पर मुझे इस उम्र में जितनी संपत्ति की आवश्यकता है उतनी है मेरे पास. और मुझे नहीं लगता इतने सालों के बाद हम अलग होंगे. इसलिए मेरी सलाह तो यही है कि अब शादी करने की कोई आवश्यकता नहीं है. हां, हम यह वादा करें एकदूसरे से कि जैसे अभी तक साथसाथ रहते आए हैं वैसे ही साथसाथ रहते रहें,” शकुंतला ने कहा.

“चलो, यह भी सही है,” कमलेश ने अपनी सहमति दी. Hindi Love Stories 

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