अल्पना राजेश और नेहा के पास आ गई थीं. लगा, बेटी की तरह गले लगने में कुछ हिचक सी महसूस कर रही थी नेहा पर उस हिचकिचाहट को उन्होंने समाप्त कर दिया. बहू को गले लगाकर स्नेहचुंबन माथे पर अंकित कर दिया उन्होंने.
घर पहुंच कर कितनी देर तक सब बतियाते रहे थे. कुछ यहांवहां की बातें कर के आखिर बात फिर मुख्य मुद्दे पर अटक गई. राजेश बारबार पिता को वहां रहने का आग्रह करता और वे मन ही मन डर जातीं कि कहीं पति कमजोर न पड़ जाएं. लेकिन रीतेश ने बड़ी ही समझदारी से बेटे की बात टाल दी थी. वे बोले, ‘‘बांद्रा से कोलाबा काफी दूर है बेटा. इतनी लंबी ड्राइविंग से थक जाऊंगा मैं.’’
अल्पना ने चैन की सांस ली और राजेश निरुत्तर हो गया था. काफी चहलपहल थी. सभी बातों में मशगूल थे. नेहा चाय बनाने गई तो उन्होंने क्षितिजा को बहू के पीछेपीछे भेज दिया था और खुद उठ कर थैले से उपहार निकाल लाई थीं. नेहा ने बहुत खुश हो कर साड़ी स्वीकार की थी. हां, क्षितिजा कभी रंग पर अटक जाती तो कभी पिं्रट पर. हमेशा से ही ऐसी है नकचढ़ी. क्या मजाल जो कुछ भा जाए उसे.
रीतेश को बच्चों ने घोड़ा बना दिया था और नेहा और क्षितिजा बंबई की समस्याओं के बारे में बता रही थीं. रात्रि का भोजन खा कर क्षितिजा और निखिल जब चले गए तो रीतेश तो सोफे पर ही अधलेटे से हो गए थे. उन्हें कुछ अच्छा नहीं लगा था. बहू साथ बैठने में कुछ कतरा रही थी. पति को कुरतापजामा पकड़ा कर खुद भी वे सोने की तैयारी करने लगी थीं. दिल्ली में देर रात तक टीवी देखने की आदत थी उन्हें, पर यहां तो मृदुल को स्कूल जाना था दूसरे दिन अगर वह भी उन के साथ बैठा रहा तो दूसरे दिन उठ नहीं पाएगा.
दूसरे दिन सुबहसुबह उन्हें रसोई से खटरपटर की आवाज सुनाई दी. शायद बहू होगी चौके में, सोच कर करवट बदल ली थी उन्होंने. पर नहीं, बात कुछ और ही थी. उठ कर देखा तो बिल्ली दूध का भगौना चाट रही थी. शायद बहू दूध फ्रिज में रखना भूल गई थी. अब चाय कैसे बनेगी? पति सुबह सैर को जा ही रहे थे. उन्होंने दूध की 2 थैलियां उन्हें लाने को कह दिया था.
राजेश उठा और जब उसे सारा माजरा समझ में आया तो बीबी को आड़े हाथों लिया था. उस ने न जाने कितने पुराने किस्से बीवी की लापरवाही के बखान कर दिए उन के सामने. नेहा अपमान का घूंट पी कर रह गई थी.
बरसों पुराना वह दृश्य अब तक उन के मानसपटल पर अंकित था, जब रीतेश ने अम्माजी के सामने दाल में नमक ज्यादा पड़ने पर उन्हें कैसे अपमानित किया था, और अम्मा नेता के समान खड़ी हो कर तमाशा देख रही थीं. अब अगर बीचबचाव करूं और यह आधुनिक परिवेश में पलीबढ़ी नेहा न बरदाश्त कर पाए तो उन के हस्तक्षेप का फिर क्या होगा?
पचाप अपने कमरे में लौट आई थीं वे और सोच रही थीं, ‘ये पुरुष हमेशा अपनी मां को देख कर शेर क्यों बन जाते हैं?’ उस दिन पितापुचुत्र के दफ्तर जाने के बाद उन्होंने घर की माई से पूछ कर कुछ दुकानों का पता किया और फल, सब्जी, दूध, बिस्कुट ले आई थीं. किसी भी मेहमान के घर आने पर खर्चा बढ़ता है, यह वे जानती थीं. फिर सब कुछ इन्हीं बच्चों का ही है, तो क्यों न इन्हें थोड़ा सहारा दिया जाए.
शाम को राजेश घर लौटा तो उन्होंने उस से बात नहीं की. दोएक दिन के लिए अबोला सा ठहर गया था मांबेटे में. नेहा भी मां को देख रही थी पर चुप्पी का कारण नहीं जान पा रही थी. ऐसा नहीं था कि उन्होंने बेटे की अवहेलना की हो. रसोई में जाती तो उन्हें लगता, बहू के हाथ सधे हुए नहीं हैं. बेचारी से कभी रोटी टेढ़ी हो जाती तो कभी सब्जी काटते समय हाथ कट जाता. अकेले रहते होंगे तो काम कुछ कम होता होगा. बराबर वह रसोई में उस के साथ लगी रहतीं.
राजेश मां के खाने की प्रशंसा करता तो वे उसे ऐसे घूरतीं जैसे कोई अपराध किया हो उस ने. आंखों के इशारों से उन्होंने समझाया था उसे कि पत्नी के सामने मां की प्रशंसा करने की जरूरत नहीं है. और न ही मां के सामने पत्नी का अपमान करने की. ऐसे में अनजाने ही ईर्ष्या की नागफनी फैल जाएगी गृहस्थी के इर्दगिर्द.
यहां आए उन्हें एक सप्ताह बीत गया था. इस बीच कम से कम 4 बार क्षितिजा आ चुकी थी. अगर नहीं आती तो फोन पर बात करती. उन्हें लगा, यों ननद का रोजरोज चले आना बहू को अच्छा लगे या न लगे.
फिर बेटी का अपना भी तो परिवार है. मां आ गईं तो क्या रोज चल पडे़गी मायके? फोन पर भी बेटी खोदखोद कर घर की बातें पूछती तो उन्हें लगता, उन की शिक्षा में कहीं कुछ कसर रह गई है. इसीलिए तो वह शाम को इस इमारत के लौन में नहीं जाती थीं. बड़ीबूढि़यां बहुओं के बुराई पुराण ले कर बैठतीं तो उन का दम घुटता था. परोक्ष रूप से बेटी को समझा दिया था अपना मंतव्य उन्होंने.
पूरा दिन काटे नहीं कटता था. अपने घर में तो काम होते थे उन के पास, नहीं होते तो ढूंढ़ लेती थीं. अनुशासनहीनता और अकर्मण्यता का उन के जीवन में कोई स्थान न था. कभीकभी रीतेश के साथ अपने फ्लैट पर चली जातीं, लकड़ी का काम हो रहा था वहां.
कभीकभी उन्हें लगता, यहां भी बहुत कुछ है करने को. परदे के हुक यों ही लटके पड़े थे. गमलों के पौधे सूखे हुए थे. पीतल के शोपीस काले हो रहे थे. नेहा हर काम माई से करवाती थी. खराब होता तो मियांबीवी की नोकझोंक शुरू हो जाती. बैठेबैठे उन्होंने राजेश का बिखरा घर समेट दिया था. फिर आशंका जागी थी मन में. पड़ोस की शीला की बहू इसीलिए घर छोड़ कर भाग गई थी क्योंकि शीला हर काम बहू से अधिक सलीके से करती थी. कहीं नेहा को बुरा लगा तो? शाम को राजेश ने ज्यों ही प्रशंसा के दो बोल बोलने चाहे, उन्होंने नेहा को सामने कर दिया था. मालूम नहीं, उसे कैसा लगा लेकिन उस के बाद से उसे इन कामों में दिलचस्पी सी होने लगी थी.
अब चुप रहने वाली अंतर्मुखी नेहा उन के पास आ कर बैठती थी. कभीकभी अपनी समस्याएं भी उन्हें सुनाती जिस में अधिक परेशानी आर्थिक थी, ऐसा उन्हें लगा था. राजेश जैसा स्वाभिमानी युवक मातापिता से कोई सहायता कभी नहीं लेगा, यह वे भलीभांति जानती थीं, बहू ने विश्वास में ले कर उन्हें अपनी समस्या सुनाई थी तो उन्होंने भी उसे समझाया, ‘‘नेहा, तुम पढ़ीलिखी हो. घर में बैठ कर ट्यूशन शुरू कर दो. तुम तो मृदुल को भी ट्यूशन पढ़ने भेजती हो, चार पैसे भी हाथ में आएंगे और आत्मविश्वास भी बढ़ेगा.’’
‘‘घर का काम कैसे होगा, मां?’’
‘‘घर का काम है ही कितना? और जब तक मैं हूं, तुम्हें सहायता मिल ही जाएगी.’’
उन्हें अपने दिन याद आए थे. एक आय में सब कुछ निपटाना सरल नहीं था, उन के लिए भी. और ये बच्चे? अभावों में पले ही कब हैं जो थोड़ी भी कोरकसर बरदाश्त करें? उन्हें भी अच्छा लग रहा था यहां. सब कुछ सुचारु रूप से तो चल ही रहा था. कभीकभी नेहा नए व्यंजनों और पकवानों के विषय में पूछती तो उन्हें लगता कहीं आडंबर तो नहीं कर रही. उस की आंखों में झांक कर देखा, कहीं भी मनमुटाव, दुराव, छल व प्रवंचना के भाव नहीं दिखे थे उन्हें.
राखी का त्योहार था उस दिन. क्षितिजा सुबह से ही आना चाह रही थी. इधर नेहा को बुखार था. राजेश भी उसी दिन दौरे से लौटा था. रीतेश के साथ जा कर वे पूरा सामान बाजार से ले आई थीं, यहां तक कि उपहार की साड़ी भी. नेहा का भाई भी राखी बंधवाने घर ही आने वाला था. समयसमय पर बहू की दवा, रसोई की देखभाल, घर की सजावट ने उन्हें शिथिल कर दिया था. काफी थक गई थीं. इतना काम करने की उन की भी तो आदत छूट गई थी.
बेटी आई तो उस की गुडि़या और मृदुल की नोंकझोंक शुरू हो गई थी. सिर बुरी तरह फटने लगा था. क्षितिजा की बिटिया है भी तो तूफान और क्षितिजा, चाहे अपनी बेटी ही सही, कुछ तो कहे अपनी बेटी को. अनायास ही उन के मुंह से निकल गया था, ‘‘जैसी मां वैसी बेटी.’’
बस, क्षितिजा का मुंह फूल गया था. तभी नेहा ने उसे समझाया, ‘‘मां मजाक कर रही हैं, क्षितिजा. तुम बुरा क्यों मान गईं? हर बात दिल से मत लगाया करो.’’
अल्पना को प्यार उमड़ आया था बहू पर. अगर यही बरताव बहू ने किया होता तो कैसा लगता उन्हें? शायद बहुत बुरा. किसे बहू कहें, किसे बेटी?
नेहा उठ कर मेज वगैरह ठीक करने लगी थी. उन्हें लगा, क्षितिजा भी कुछ मदद कर देती भाभी की तो ठीक रहता, लेकिन उस का तो मूड ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा था. उधर नेहा का भाई भी आ गया था राखी बंधवाने.
राखी बांधने, खानेपीने के बाद विदाई की बेला आई तो वे रसोई से सुपारी लेने चली गई थीं. अचानक बहू के शब्द उन के कर्णपटल से टकराए, ‘‘क्षितिजा को उपहार क्या दोगे?’’
‘‘मैं तो बाजार जा ही नहीं पाया, पैसे भी नहीं हैं. बैंक भी बंद है आज.’’
‘‘तुम भी अजीब हो, मैं बाबूजी से मांग लेती हूं.’’
यह सुन कर धक्का सा लगा था उन्हें. यह सच है कि जमाना बदल गया पर क्या नैतिक मूल्य भी बदल गए? समधियों से पैसे ले कर घर की बेटी को दिए जाएंगे? मन में आया, कोई तो इन का मार्गदर्शन करे. यदि पिता से पैसे लेगी तो जगहंसाई से कौन बचाएगा इन्हें? अपने थैले में से सिल्क की साड़ी निकाल कर राजेश के हाथ में पकड़ाई उन्होंने.
‘‘यह क्या, मां?’’ अवाक् सा वह मां का चेहरा निहारने लगा था. उधर मां का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि वह ‘न’ भी नहीं कर पाया था. लेकिन इतना समझ गया था, ‘यह त्योहार औपचारिकताएं निभाने के लिए बने हैं. प्यारविश्वास का अटूट बंधन है रक्षाबंधन. भविष्य में फिर ऐसी लापरवाही नहीं होनी चाहिए.’
क्षितिजा गई तो वे टूट सी गई थीं. रहरह कर चक्कर आ रहे थे उन्हें. ऐसे मौकों पर रीतेश हमेशा घबरा जाते हैं. उच्च रक्तचाप की शिकायत है अल्पना को, जानते थे वे. राजेश भाग कर डाक्टर ले आया था. नेहा सास के सिरहाने बैठ कर उन का सिर दबा रही थी.
3 दिन 3 रात तक वे नीमबेहोशी की हालत में रही थीं. नेहा को लग रहा था, उस का घर बिखर रहा है. बारबार राजेश को अच्छे से अच्छे डाक्टर से परामर्श करने को कह रही थी.
6 दिन की बेहोशी, बच्चों की सेवासुश्रूषा के बाद जब वे उठीं तो अपने चारों ओर अपने बच्चों को देख कर उन का मन भर आया था. कैसी निस्वार्थ सेवा है इन बच्चों की? दिल्ली में एक बार जब रीतेश को टायफाइड हुआ था तो कितने एहसान से पड़ोसी मदद करते थे.
आत्मग्लानि से उन का मन भर गया था. लोगों के कड़वे अनुभव सुन कर पढ़ कर, आने वाले भविष्य की कल्पना से डर कर, अपने बच्चों के लिए मन में व्यर्थ शंका पाल ली थी उन्होंने, किसी अप्रत्याशित की कल्पना में अपना वर्तमान खोने को तत्पर हो उठी थीं वे.
उधर फ्लैट लगभग तैयार हो चुका था. रीतेश ने बताया, कभी भी रह सकते थे वे लोग वहां पर. अल्पना का मन छोटा होने लगा था. मोहलगाव रहरह कर उठ रहे थे. मन चाह रहा था कुछ कहें पर जबान तालू से चिपकी हुई थी.
शाम की चाय ले कर नेहा कुरसी खींच कर उन के पास बैठ गई थी. सहसा उन्हें उस का आर्द्र स्वर सुनाई दिया, ‘‘मां, हम से कोई भूल हो गई जो आप हमारे साथ नहीं रहना चाह रही हैं?’’
उस के सपाट प्रश्न पर हैरान रह गई थीं वे. क्या कहतीं? उन की तरफ से तो कुछ भी कमी नहीं थी. उन का ही मन कलुषित था. एक ओर एक अज्ञात डर की कल्पना थी तो दूसरी तरफ बच्चों का साथ.
उन्हें लगा, संवेदनाएं, भावनाएं मान्यताएं इतनी नहीं बदली हैं जितना हम सोचते हैं. जीवन की इस तेज दौड़ में हम एकदूसरे को समझ नहीं पा रहे हैं. हम भूल गए हैं कि ये हमारे बच्चे हैं. जिन्हें हम ने अपने प्यार से सिंचित, पोषित किया है. कमा कर पत्नी ले आए तो हमारी अपेक्षाएं बदल जाती हैं शायद. जीवन का सब से बड़ा सुख वे आशंकाओं के जाल में फंस कर खोने नहीं देंगी.
उन्होंने रीतेश को फ्लैट वापस करने को कहा तो उन का खिलाखिला सा परिवार उन के पास सिमट आया था. उन्हें लगा, कोई अमूल्य धन मिल गया हो जैसे