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सब से बड़ा सुख-भाग 3: रीतेश के मन में किस बात का डर था

अल्पना राजेश और नेहा के पास आ गई थीं. लगा, बेटी की तरह गले लगने में कुछ हिचक सी महसूस कर रही थी नेहा पर उस हिचकिचाहट को उन्होंने समाप्त कर दिया. बहू को गले लगाकर स्नेहचुंबन माथे पर अंकित कर दिया उन्होंने.

घर पहुंच कर कितनी देर तक सब बतियाते रहे थे. कुछ यहांवहां की बातें कर के आखिर बात फिर मुख्य मुद्दे पर अटक गई. राजेश बारबार पिता को वहां रहने का आग्रह करता और वे मन ही मन डर जातीं कि कहीं पति कमजोर न पड़ जाएं. लेकिन रीतेश ने बड़ी ही समझदारी से बेटे की बात टाल दी थी. वे बोले, ‘‘बांद्रा से कोलाबा काफी दूर है बेटा. इतनी लंबी ड्राइविंग से थक जाऊंगा मैं.’’

अल्पना ने चैन की सांस ली और राजेश निरुत्तर हो गया था. काफी चहलपहल थी. सभी बातों में मशगूल थे. नेहा चाय बनाने गई तो उन्होंने क्षितिजा को बहू के पीछेपीछे भेज दिया था और खुद उठ कर थैले से उपहार निकाल लाई थीं. नेहा ने बहुत खुश हो कर साड़ी स्वीकार की थी. हां, क्षितिजा कभी रंग पर अटक जाती तो कभी पिं्रट पर. हमेशा से ही ऐसी है नकचढ़ी. क्या मजाल जो कुछ भा जाए उसे.

रीतेश को बच्चों ने घोड़ा बना दिया था और नेहा और क्षितिजा बंबई की समस्याओं के बारे में बता रही थीं. रात्रि का भोजन खा कर क्षितिजा और निखिल  जब चले गए तो रीतेश तो सोफे पर ही अधलेटे से हो गए थे. उन्हें कुछ अच्छा नहीं लगा था. बहू साथ बैठने में कुछ कतरा रही थी. पति को कुरतापजामा पकड़ा कर खुद भी वे सोने की तैयारी करने लगी थीं. दिल्ली में देर रात तक टीवी देखने की आदत थी उन्हें, पर यहां तो मृदुल को स्कूल जाना था दूसरे दिन अगर वह भी उन के साथ बैठा रहा तो दूसरे दिन उठ नहीं पाएगा.

दूसरे दिन सुबहसुबह उन्हें रसोई से खटरपटर की आवाज सुनाई दी. शायद बहू होगी चौके में, सोच कर करवट बदल ली थी उन्होंने. पर नहीं, बात कुछ और ही थी. उठ कर देखा तो बिल्ली दूध का भगौना चाट रही थी. शायद बहू दूध फ्रिज में रखना भूल गई थी. अब चाय कैसे बनेगी? पति सुबह सैर को जा ही रहे थे. उन्होंने दूध की 2 थैलियां उन्हें लाने को कह दिया था.

राजेश उठा और जब उसे सारा माजरा समझ में आया तो बीबी को आड़े हाथों लिया था. उस ने न जाने कितने पुराने किस्से बीवी की लापरवाही के बखान कर दिए उन के सामने. नेहा अपमान का घूंट पी कर रह गई थी.

बरसों पुराना वह दृश्य अब तक उन के मानसपटल पर अंकित था, जब रीतेश ने अम्माजी के सामने दाल में नमक ज्यादा पड़ने पर उन्हें कैसे अपमानित किया था, और अम्मा नेता के समान खड़ी हो कर तमाशा देख रही थीं. अब अगर बीचबचाव करूं और यह आधुनिक परिवेश में पलीबढ़ी नेहा न बरदाश्त कर पाए तो उन के हस्तक्षेप का फिर क्या होगा?

पचाप अपने कमरे में लौट आई थीं वे और सोच रही थीं, ‘ये पुरुष हमेशा अपनी मां को देख कर शेर क्यों बन जाते हैं?’ उस दिन पितापुचुत्र के दफ्तर जाने के बाद उन्होंने घर की माई से पूछ कर कुछ दुकानों का पता किया और फल, सब्जी, दूध, बिस्कुट ले आई थीं. किसी भी मेहमान के घर आने पर खर्चा बढ़ता है, यह वे जानती थीं. फिर सब कुछ इन्हीं बच्चों का ही है, तो क्यों न इन्हें थोड़ा सहारा दिया जाए.

शाम को राजेश घर लौटा तो उन्होंने उस से बात नहीं की. दोएक दिन के लिए अबोला सा ठहर गया था मांबेटे में. नेहा भी मां को देख रही थी पर चुप्पी का कारण नहीं जान पा रही थी. ऐसा नहीं था कि उन्होंने बेटे की अवहेलना की हो. रसोई में जाती तो उन्हें लगता, बहू के हाथ सधे हुए नहीं हैं. बेचारी से कभी रोटी टेढ़ी हो जाती तो कभी सब्जी काटते समय हाथ कट जाता. अकेले रहते होंगे तो काम कुछ कम होता होगा. बराबर वह रसोई में उस के साथ लगी रहतीं.

राजेश मां के खाने की प्रशंसा करता तो वे उसे ऐसे घूरतीं जैसे कोई अपराध किया हो उस ने. आंखों के इशारों से उन्होंने समझाया था उसे कि पत्नी के सामने मां की प्रशंसा करने की जरूरत नहीं है. और न ही मां के सामने पत्नी का अपमान करने की. ऐसे में अनजाने ही ईर्ष्या की नागफनी फैल जाएगी गृहस्थी के इर्दगिर्द.

यहां आए उन्हें एक सप्ताह बीत गया था. इस बीच कम से कम 4 बार क्षितिजा आ चुकी थी. अगर नहीं आती तो फोन पर बात करती. उन्हें लगा, यों ननद का रोजरोज चले आना बहू को अच्छा लगे या न लगे.

फिर बेटी का अपना भी तो परिवार है. मां आ गईं तो क्या रोज चल पडे़गी मायके? फोन पर भी बेटी खोदखोद कर घर की बातें पूछती तो उन्हें लगता, उन की शिक्षा में कहीं कुछ कसर रह गई है. इसीलिए तो वह शाम को इस इमारत के लौन में नहीं जाती थीं. बड़ीबूढि़यां बहुओं के बुराई पुराण ले कर बैठतीं तो उन का दम घुटता था. परोक्ष रूप से बेटी को समझा दिया था अपना मंतव्य उन्होंने.

पूरा दिन काटे नहीं कटता था. अपने घर में तो काम होते थे उन के पास, नहीं होते तो ढूंढ़ लेती थीं. अनुशासनहीनता और अकर्मण्यता का उन के जीवन में कोई स्थान न था. कभीकभी रीतेश के साथ अपने फ्लैट पर चली जातीं, लकड़ी का काम हो रहा था वहां.

कभीकभी उन्हें लगता, यहां भी बहुत कुछ है करने को. परदे के हुक यों ही लटके पड़े थे. गमलों के पौधे सूखे हुए थे. पीतल के शोपीस काले हो रहे थे. नेहा हर काम माई से करवाती थी. खराब होता तो मियांबीवी की नोकझोंक शुरू हो जाती. बैठेबैठे उन्होंने राजेश का बिखरा घर समेट दिया था. फिर आशंका जागी थी मन में. पड़ोस की शीला की बहू इसीलिए घर छोड़ कर भाग गई थी क्योंकि शीला हर काम बहू से अधिक सलीके से करती थी. कहीं नेहा को बुरा लगा तो? शाम को राजेश ने ज्यों ही प्रशंसा के दो बोल बोलने चाहे, उन्होंने नेहा को सामने कर दिया था. मालूम नहीं, उसे कैसा लगा लेकिन उस के बाद से उसे इन कामों में दिलचस्पी सी होने लगी थी.

अब चुप रहने वाली अंतर्मुखी नेहा उन के पास आ कर बैठती थी. कभीकभी अपनी समस्याएं भी उन्हें सुनाती जिस में अधिक परेशानी आर्थिक थी, ऐसा उन्हें लगा था. राजेश जैसा स्वाभिमानी युवक मातापिता से कोई सहायता कभी नहीं लेगा, यह वे भलीभांति जानती थीं, बहू ने विश्वास में ले कर उन्हें अपनी समस्या सुनाई थी तो उन्होंने भी उसे समझाया, ‘‘नेहा, तुम पढ़ीलिखी हो. घर में बैठ कर ट्यूशन शुरू कर दो. तुम तो मृदुल को भी ट्यूशन पढ़ने भेजती हो, चार पैसे भी हाथ में आएंगे और आत्मविश्वास भी बढ़ेगा.’’

‘‘घर का काम कैसे होगा, मां?’’

‘‘घर का काम है ही कितना? और जब तक मैं हूं, तुम्हें सहायता मिल ही जाएगी.’’

उन्हें अपने दिन याद आए थे. एक आय में सब कुछ निपटाना सरल नहीं था, उन के लिए भी. और ये बच्चे? अभावों में पले ही कब हैं जो थोड़ी भी कोरकसर बरदाश्त करें? उन्हें भी अच्छा लग रहा था यहां. सब कुछ सुचारु रूप से तो चल ही रहा था. कभीकभी नेहा नए व्यंजनों और पकवानों के विषय में पूछती तो उन्हें लगता कहीं आडंबर तो नहीं कर रही. उस की आंखों में झांक कर देखा, कहीं भी मनमुटाव, दुराव, छल व प्रवंचना के भाव नहीं दिखे थे उन्हें.

राखी का त्योहार था उस दिन. क्षितिजा सुबह से ही आना चाह रही थी. इधर नेहा को बुखार था. राजेश भी उसी दिन दौरे से लौटा था. रीतेश के साथ जा कर वे पूरा सामान बाजार से ले आई थीं, यहां तक कि उपहार की साड़ी भी. नेहा का भाई भी राखी बंधवाने घर ही आने वाला था. समयसमय पर बहू की दवा, रसोई की देखभाल, घर की सजावट ने उन्हें शिथिल कर दिया था. काफी थक गई थीं. इतना काम करने की उन की भी तो आदत छूट गई थी.

बेटी आई तो उस की गुडि़या और मृदुल की नोंकझोंक शुरू हो गई थी. सिर बुरी तरह फटने लगा था. क्षितिजा की बिटिया है भी तो तूफान और क्षितिजा, चाहे अपनी बेटी ही सही, कुछ तो कहे अपनी बेटी को. अनायास ही उन के मुंह से निकल गया था, ‘‘जैसी मां वैसी बेटी.’’

बस, क्षितिजा का मुंह फूल गया था. तभी नेहा ने उसे समझाया, ‘‘मां मजाक कर रही हैं, क्षितिजा. तुम बुरा क्यों मान गईं? हर बात दिल से मत लगाया करो.’’

अल्पना को प्यार उमड़ आया था बहू पर. अगर यही बरताव बहू ने किया होता तो कैसा लगता उन्हें? शायद बहुत बुरा. किसे बहू कहें, किसे बेटी?

नेहा उठ कर मेज वगैरह ठीक करने लगी थी. उन्हें लगा, क्षितिजा भी कुछ मदद कर देती भाभी की तो ठीक रहता, लेकिन उस का तो मूड ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा था. उधर नेहा का भाई भी आ गया था राखी बंधवाने.

राखी बांधने, खानेपीने के बाद विदाई की बेला आई तो वे रसोई से सुपारी लेने चली गई थीं. अचानक बहू के शब्द उन के कर्णपटल से टकराए, ‘‘क्षितिजा को उपहार क्या दोगे?’’

‘‘मैं तो बाजार जा ही नहीं पाया, पैसे भी नहीं हैं. बैंक भी बंद है आज.’’

‘‘तुम भी अजीब हो, मैं बाबूजी से मांग लेती हूं.’’

यह सुन कर धक्का सा लगा था उन्हें. यह सच है कि जमाना बदल गया पर क्या नैतिक मूल्य भी बदल गए? समधियों से पैसे ले कर घर की बेटी को दिए जाएंगे? मन में आया, कोई तो इन का मार्गदर्शन करे. यदि पिता से पैसे लेगी तो जगहंसाई से कौन बचाएगा इन्हें? अपने थैले में से सिल्क की साड़ी निकाल कर राजेश के हाथ में पकड़ाई उन्होंने.

‘‘यह क्या, मां?’’ अवाक् सा वह मां का चेहरा निहारने लगा था. उधर मां का व्यक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि वह ‘न’ भी नहीं कर पाया था. लेकिन इतना समझ गया था, ‘यह त्योहार औपचारिकताएं निभाने के लिए बने हैं. प्यारविश्वास का अटूट बंधन है रक्षाबंधन. भविष्य में फिर ऐसी लापरवाही नहीं होनी चाहिए.’

क्षितिजा गई तो वे टूट सी गई थीं. रहरह कर चक्कर आ रहे थे उन्हें. ऐसे मौकों पर रीतेश हमेशा घबरा जाते हैं. उच्च रक्तचाप की शिकायत है अल्पना को, जानते थे वे. राजेश भाग कर डाक्टर ले आया था. नेहा सास के सिरहाने बैठ कर उन का सिर दबा रही थी.

3 दिन 3 रात तक वे नीमबेहोशी की हालत में रही थीं. नेहा को लग रहा था, उस का घर बिखर रहा है. बारबार राजेश को अच्छे से अच्छे डाक्टर से परामर्श करने को कह रही थी.

6 दिन की बेहोशी, बच्चों की सेवासुश्रूषा के बाद जब वे उठीं तो अपने चारों ओर अपने बच्चों को देख कर उन का मन भर आया था. कैसी निस्वार्थ सेवा है इन बच्चों की? दिल्ली में एक बार जब रीतेश को टायफाइड हुआ था तो कितने एहसान से पड़ोसी मदद करते थे.

आत्मग्लानि से उन का मन भर गया था. लोगों के कड़वे अनुभव सुन कर पढ़ कर, आने वाले भविष्य की कल्पना से डर कर, अपने बच्चों के लिए मन में व्यर्थ शंका पाल ली थी उन्होंने, किसी अप्रत्याशित की कल्पना में अपना वर्तमान खोने को तत्पर हो उठी थीं वे.

उधर फ्लैट लगभग तैयार हो चुका था. रीतेश ने बताया, कभी भी रह सकते थे वे लोग वहां पर. अल्पना का मन छोटा होने लगा था. मोहलगाव रहरह कर उठ रहे थे. मन चाह रहा था कुछ कहें पर जबान तालू से चिपकी हुई थी.

शाम की चाय ले कर नेहा कुरसी खींच कर उन के पास बैठ गई थी. सहसा उन्हें उस का आर्द्र स्वर सुनाई दिया, ‘‘मां, हम से कोई भूल हो गई जो आप हमारे साथ नहीं रहना चाह रही हैं?’’

उस के सपाट प्रश्न पर हैरान रह गई थीं वे. क्या कहतीं? उन की तरफ से तो कुछ भी कमी नहीं थी. उन का ही मन कलुषित था. एक ओर एक अज्ञात डर की कल्पना थी तो दूसरी तरफ बच्चों का साथ.

उन्हें लगा, संवेदनाएं, भावनाएं मान्यताएं इतनी नहीं बदली हैं जितना हम सोचते हैं. जीवन की इस तेज दौड़ में हम एकदूसरे को समझ नहीं पा रहे हैं. हम भूल गए हैं कि ये हमारे बच्चे हैं. जिन्हें हम ने अपने प्यार से सिंचित, पोषित किया है. कमा कर पत्नी ले आए तो हमारी अपेक्षाएं बदल जाती हैं शायद. जीवन का सब से बड़ा सुख वे आशंकाओं के जाल में फंस कर खोने नहीं देंगी.

उन्होंने रीतेश को फ्लैट वापस करने को कहा तो उन का खिलाखिला सा परिवार उन के पास सिमट आया था. उन्हें लगा, कोई अमूल्य धन मिल गया हो जैसे

सब से बड़ा सुख-भाग 1: रीतेश के मन में किस बात का डर था

जब रीतेश ने बंबई में अपना तबादला होने का समाचार अल्पना को सुनाया, वे अनमनी सी हो उठीं. ऐसा नहीं कि तबादला कोई पहली बार हुआ हो. पति के 20 वर्ष के कार्यकाल में न जाने कितनी बार उन्होंने सामान बांधा था, नई गृहस्थी जमाई थी, दरवाजों के परदे खिड़की पर छोटे कर के टांगे थे और खिड़कियों के परदे जोड़ कर दरवाजों पर.

अब तो यह सब करने की भी आवश्यकता नहीं थी. रीतेश मुख्य निदेशक थे अपनी कंपनी के. सभी सुखसुविधाएं मुहैया कराना अब कंपनी के जिम्मे था. फिर तो कोई खास परेशानी ही नहीं थी. बस एक प्रकार का डर था जिस ने उन के मनमस्तिष्क को बुरी तरह घेर रखा था, वह था बेटे राजेश और वधू नेहा के साथ रहने का.

वैसे अपने बच्चों के साथ रहने की परिकल्पना अपनेआप में कितनी सुखदायक है, विशेषकर उन मातापिता के लिए जिन्होंने अपने जीवन का हर पल अपने बच्चों और परिवार के प्रति समर्पित किया हो. लेकिन नई दुनिया के नए अनुभवों ने उन्हें चिंताग्रस्त कर दिया था. आज के भौतिकवादी युग में उन के भावुक हृदय ने एक बात महसूस की थी कि रिश्तों की खुशबूभरी परंपरा लगभग समाप्त हो गई है.

दो ही बच्चे थे उन के. बेटी क्षितिजा, जिस के पति डाक्टर हैं और बेटा राजेश, जो एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में इंजीनियर है. कितना संघर्ष और परिश्रम किया था उन्होंने उसे पढ़ानेलिखाने और सुसंस्कृत बनाने में. सुबह 5 बजे से ले कर रात 11 बजे तक का मशीनी जीवन बच्चों के टिफिन तैयार करने, स्कूल की पोशाक पर इस्तिरी करने, सुबह बस स्टौप ले जाने और दोपहर बस स्टौप से वापस लिवा लाने में वक्त कब और कैसे सरक गया, कुछ पता ही न चला.

कभीकभी उन का मलिन मुख देख कर रीतेश उन्हें समझाते, ‘‘दो पल चैन से लेट जाया करो, कुछ देर सुस्ताने से थकावट कम हो जाती है.’’ पर वह समय भी वे बच्चों के बस्ते टटोलने और गृहकार्य देखने में बितातीं. फिर शाम को दूध के गिलास के साथ मधुर मुसकान बिखेर कर अपना पूरा ममत्व उन पर न्योछावर कर देतीं.

बचपन बीता. बच्चों ने कालेज में दाखिला लिया तो उन का शारीरिक श्रम भी कम हो गया. बच्चे अपनेआप पढ़ते थे, यानी आत्मनिर्भर हो गए थे. उधर रीतेश पदोन्नति के साथसाथ अपने कार्यक्षेत्र में व्यस्त होते चले गए थे. अब उन्हें खालीपन सा महसूस होता.

समय काटना जब मुश्किल हो गया तो उन्होंने बंगले में फल, तरकारी की क्यारियां बना ली थीं. पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर दिया था. लेकिन एक आसरा तो था कि दिनभर एक सूनापन रात को खाने की मेज पर समाप्त हो जाएगा. सभी दिनभर के अपनेअपने अनुभव सुनाते, कुछ समय टीवी देखते.

राजेश शुरू से अल्पभाषी था, पर बिटिया क्षितिजा हवा के झोंके की तरह चंचल. कितनी बड़ी हो गई पर चुलबुलापन नहीं गया. कभी उस की नोंकझोंक से राजेश परेशान हो जाता तो चिढ़ कर कहता ‘मां,मेहरबानी कर के अपनी लाड़ली से कहो कि चुप हो जाए.’

तब वह उसे झिड़क देतीं, ‘दो दिन की मेहमान है यह. कल को ससुराल चली गई तो मुंह देखने को तरस जाओगे.’

‘मां, कब से सुन रहा हूं दो दिन. ये दो दिन कब खत्म होंगे?’ और क्षितिजा रूठ कर अपने कमरे में चली जाती. हारमनुहार, रूठमनौअल में कब वे सुनहरे दिन बीत गए, पता ही नहीं चला.

अब तो दोनों बंबई में अपनीअपनी गृहस्थी में सुखी हैं, राजेश के पास नन्हा मृदुल है और क्षितिजा के पास नन्ही गुडि़या. रह गई हैं वे अकेली, नितांत अकेली. इतना बड़ा घर काटता है उन्हें. पूरी दोपहरी करवटें बदलने में बीत जाती है. काम कुछ भी नहीं है, न खानेपकाने का, न सफाई का. कभीकभी तो ऐसा लगता है कि रसोई में जूसर, टोस्टर का ही साम्राज्य हो गया है.

वह कितनी बार रोती थीं बच्चों को याद कर के. कुछ भी बच्चों की पसंद का पकातीं तो खुद कहां खा पाती थीं. निवाला हलक में अटक जाता था. रीतेश को देखतीं, कभी भी आंखें नम नहीं होती थीं उन की, अल्पना की तरह. क्या बच्चों की याद इन्हें नहीं सताती होगी? मां और पिता की सोच में इतना फर्क क्यों होता है? क्या मां की भावुकता उसे अधिक चिंताएं बख्शती है? कभी उन का मन रखने के लिए इतना जरूर कहते थे वे, ‘कुछ दिन घूम आओ बच्चों के पास या उन्हें ही कुछ दिनों के लिए बुला लो यहां, मन लग जाएगा तुम्हारा.’

वे सोचतीं, वह बात तो नहीं बन पाएगी न जो हमेशा साथ रहने में होती और अब समय आया है साथ रहने का तो डर कैसा? उन के साथ कुछ घटा हो, ऐसा भी तो नहीं है. खुद ही तो अपनी पसंद की नेहा को अपनी बहू बनाया था उन्होंने. वैसे तो राजेशक्षितिजा को पूरी छूट दी थी जीवनसाथी का चयन करने की क्योंकि इस युग में जीवनसाथी के बीच ऐसी अदृश्य सी रेखा खिंची हुई पाती थीं तो मन कांप सा जाता था.

अब उन का समय तो रहा नहीं  जब ‘विवाह’ शब्द से जुड़ी भावनाओं का अर्थ होता था मात्र दो व्यक्तियों का नहीं दो कुटुंबों का सम्मिलन. जब अर्पणसमर्पण की सारी प्रतिज्ञाएं इस शब्द में सम्मिलित रहती थीं. एक नहीं दोदो कुलों की मर्यादा का संवहन हर बेटी, हर बहू करती थी. अब तो मियांबीवी का रिश्ता ही कच्ची डोर में बंधा दिखता है. कौन जाने कब अदालत का दरवाजा खटखटा दें.

सब से बड़ा सुख-भाग 2: रीतेश के मन में किस बात का डर था

पर दोनों बच्चों ने उन पर यह दायित्व छोड़ दिया था. काफी कठिन काम था यह. बेटी के लिए उन्होंने डाक्टर निखिल को चुना था. पर राजेश के लिए वधू का चयन काफी मुश्किल था. विदेश में उच्च शिक्षा के लिए गए उन के बेटे को न जाने पत्नी के लिए कैसी उम्मीदें थीं, यह भी तो नहीं जानती थीं वे. अल्पभाषी राजेश कुछ कहता भी तो नहीं था. पर मां होने के नाते इतना तो वे जानती थीं कि उच्च शिक्षित, सुसंस्कृत कन्या ही राजेश की परिणीता बनेगी जो समयअसमय उसे बौद्धिक व आर्थिक रूप से संबल प्रदान कर सके. इसी तलाशबीन के दौरान डा. अमरीश की बेटी नेहा उन्हें पसंद आई थी. दानदहेज तो अच्छा दिया था उन्होंने, पर सब से ज्यादा वे इस बात से भी खुश थीं कि उस ने कई ऐसे कोर्स भी किए थे जिन से घर बैठ कर कुछ आमदनी कर सके.

नेहा को पा कर राजेश के चेहरे पर संतोष की झलक देख वे भी संतुष्ट हुई थीं. भीड़भड़क्के, नातेरिश्तेदारों की भीड़ के नुकीले संवादों, आक्षेपों से उन्होंने बहू को बखूबी बचाया था. लखनऊ वाली ननद तो हमेशा तरकश से जहरीले बाण ही चलाती थीं. बोलीं, ‘‘दहेज तो दिखाओ भाभी, बहू का. हम कोई छीनझपट कर थोड़े ले जाएंगे.’’

वे चिढ़ गई थीं. दहेज न हुआ, नुमाइश हुई. इन औरतों की छींटाकशी से बेखबर नहीं थीं वे जो इतनी बचकानी हरकत करतीं. आज तक अपना अपमान नहीं भूल पाई थीं वे, जो उन का दहेज देखने पर इनऔरतों ने किया था. बड़ी जीजी नाराज थीं कि बहू के हाथ का भोजन नहीं चखा था उन्होंने अब तक. वैसे यह भी कुछ बेकार का आरोप था.

वे तो मन ही मन डर रही थीं कि कालेज से निकली लड़की रसोई में जा कर दो पल खड़ी न हो सकी तो? खुद उन की बिटिया ही कितना कर पाती है? पूरी रसोई कभी संभाली हो, याद नहीं पड़ता उन्हें. इसी चखचख से बचने और बहू को बचाने के लिए उन्हें हनीमून पर भेज दिया था उन्होंने. वापस लौटे तो राजेश को बंबई जाना था.

मन में इच्छा हुई कि बहू को अपने पास रख लें कुछ दिन. पर फिर सोचा, नयानया ब्याह हुआ है उन का, खेलनेखाने के दिन हैं. एक बार जिम्मेदारी बढ़ी तो इंसान पिंजरे में कैद पक्षी के समान हो जाता है. अगर फड़फड़ाना भी चाहे तो पिंजरे की तारें उसे आहत करती हैं.

बहू और बेटे ने गंतव्य की ओर प्रस्थान किया तो फिर अकेलापन सालने लगा था. अगर यहीं होते मेरे पास तो कितना अच्छा होता. लेकिन फिर सोचतीं, अच्छा ही है कि दूर है, कम से कम प्यार तो है, अपनत्व तो है, वरना एक ही घर में रहते हुए भी लोगों के मुंह इधरउधर ही रहते हैं. किसी की बहू घर छोड़ कर चली गई, कहीं सास ने आत्महत्या कर ली, यही तो घरघर की कहानी है जिसे उन्हें दोहराने से डर लग रहा था.

उस दिन दफ्तर से रीतेश लौट कर आए तो चाय की चुस्की लेते हुए बोले,  ‘‘अल्पना, कल से सामान बांधना शुरू कर दो. और देखो, कुछ भारीभरकम ले जाने की जरूरत नहीं. राजेश के घर में किसी भी चीज की कमी नहीं है. जरूरत भर का सामान ले लेंगे. 3 साल बाद वापस दिल्ली लौटना ही है.’’

पति के आदेश पर वह जैसे यथार्थ में लौट आई थीं. तो क्या रीतेश ने निश्चय कर लिया है बेटे के साथ रहने का? कुछ असमंजस, कुछ ऊहापोह की स्थिति में वह चुपचाप बैठी रहीं. फिर साहस बटोर कर पति से पूछा,  ‘‘सुनो, कंपनी की तरफ से तुम्हें कार और फ्लैट तो मिलेगा? है न?’’

‘‘हांहां, हमारी कंपनी के कुछ फ्लैट कोलाबा में हैं.’’

‘‘तो क्यों न हम वही चल कर रहें?’’

‘‘कैसी बातें करती हो? राजेश के वहां रहते हुए हम अलग कैसे रह सकते हैं? लोग क्या कहेंगे?’’

‘‘तो इस में बुरा क्या है? वैसे भी एकाध साल में अलग रहने की नौबत तो आ ही जाती है. क्यों न पहले से सावधानी बरतें?’’

‘‘यह मां का दिल कह रहा है या स्वयं का अहं और स्वाभिमान?’’

‘‘तुम चाहे कुछ भी समझो, पर बात को नकारा नहीं जा सकता. आजकल सामंजस्य स्थापित कितने घरों में हो रहा है?’’ वे बोलीं.

रीतेश ने उन्हें समझाना चाहा, ‘‘देखो, जब सासबहू अनपढ़ हों तो बात अलग है किंतु जब तुम दोनों ही शिक्षित हो फिर यह समस्या क्यों आएगी ?’’

‘‘विचारों का विरोधाभास, पीढ़ी का अंतराल, व्यक्तिगत स्वतंत्रता में बाधा आदि कई ऐसे प्रश्न हैं जिन पर इन संबंधों की इमारत खड़ी है.’’

‘‘तुम स्वयं को सास नहीं, नेहा की मां समझना अल्पना, और बेटे से अपेक्षाएं कम रखना तो…’’

‘‘और अगर वह मेरी बेटी न बनना चाहे तो?’’  उन की बात बीच में काट कर अल्पना बोलीं तो रीतेश निरुत्तर हो गए थे. यों दुनिया के रंग को कोई बंद आंखों से नहीं देखते थे वे भी. फिर भी अपने बच्चों से दूर रहना उन्हें तर्कसंगत भी नहीं लग रहा था.

कुछ देर और भी वादविवाद चला पर सब अकारथ ही गया. रीतेश कंपनी के फ्लैट में रहने को तैयार हो गए थे. लेकिन अभी कुछ दिनों तक वहां नहीं रहा जा सकता था क्योंकि जो मुख्य प्रबंधक वहां रह रहे थे, बच्चों की परीक्षा के कारण उसे खाली कर पाने में असमर्थ थे. अत: उस समय तक अल्पना बहूबेटे के साथ रहने को सहर्ष तैयार हो गई थीं.

अल्पना ने अपनी गृहस्थी समेटनी शुरू कर दी थी. कुछ ही दिन रह गए बंबई जाने में. बाजार जा कर बेटी और बहू के लिए कांजीवरम की साडि़यां ले आई थीं. और भी कई प्रकार के उपहार व दुर्लभ वस्तुएं जो बंबई में नहीं मिलतीं, ले कर आई थीं वे. मन में असीम उत्साह था पर आशंकित भी थीं. बेटेबहू के साथ रह कर जिस रिश्ते को रेशमी धागे में पिरोए मोती की लडि़यों की तरह उन्होंने सहेज कर रखा था अब तक, कहीं उलझ न जाए. क्योंकि प्रेम का धागा एक बार टूट जाता है तो उस में गांठ तो पड़ ही जाती है.

हवाईजहाज ने सांताक्रूज हवाई अड्डे को छुआ तो उन की व्याकुल नजरें अपने बच्चों को ढूंढ़ रही थीं. कुछ औपचारिकताएं निभाने के बाद वे बाहर आ गए थे. दूर से ही नटखट क्षितिजा का चेहरा दिखा तो पिता ने गले से लगा लिया था बिटिया को.

स्मृतियों का जाल : लाख प्रयास के बावजूद भी वह अपने अतीत को नहीं भूला पा रही थी

वह अच्छी तरह जानती है कि गाड़ी चलाते समय पूरी सावधानी रखनी चाहिए. तमाम प्रयासों के बावजूद उस का मन एकाग्र नहीं रह पाता, भटकता ही रहता है. उस के मन को तो जैसे पंख ही लगे हैं. कहीं भी हो, बस दौड़ता ही रहता है.

वह अपनेआप से बतियाती है. वह चाहती है कि वह जानती है उसे सब जानें. लेकिन वह खुद ही सब से छिपाती है. बस, सबकुछ अपनेआप से दोहराती रहती है. वह सिर को झटकती है. विचारों को गाड़ी के शीशे से बाहर फेंकना चाहती है. पर वह और उस की कहानी दोनों साथसाथ चलते हैं. अब तो उसे अपने विचारों के साथसाथ चलने की आदत हो गई है. उस के अंतर्मन और बाहरी दुनिया दोनों के बीच अच्छा तारतम्य बैठ गया है.

उस की स्मृतियों में भटकते रहते हैं उस के जीवन के वे दिन जो खून के साथ उस की नसों में दौड़ते रहते हैं. वह खेल रही है रेत में मिट्टी, धूल से सनी हुई. उस की गुडि़या भी उस के साथ रहती है. वह घूम रही है खेतों में, गांव के धूलभरे रास्तों में. दादादादी और कई लोग हैं जो उस के साथ हैं. वह भीग रही है. दौड़ रही है.

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घर में मिट्टी के बरतनों में खाने के सामान रखे हैं. बरामदे की अलमारियों में उस की पसंद की मिठाइयां रखी रहती हैं. बाबा रोज स्कूल से आने पर उस से पाठ सुनते हैं. दादी जहां जाती वह उन के साथ जाती, उन के संगसंग घूमती है. ईंधन, चूल्हा, खेतखलिहान, गायभैंस, कुआं, गूलर का पेड़ कुछ भी तो ऐसा नहीं है जो उस की यादों से कणभर भी धूमिल हुआ हो. पर इन सब स्मृतियों में उस के जन्मदाता कहां हैं? उन की यादों को वह अपने अंतर्मन पर पलटना भी नहीं चाहती. उस की स्मृतियों में उन का स्थान इतना धूमिल सा क्यों है?

दृश्य बदल रहा है. गांव छूट गया है. ममता का घना वृक्ष, जिस की छाया में उस का बचपन सुरक्षित था, वहीं रह गया. अब वह शहर आ गई है. यहां कोई छांव नहीं है. बस, कड़ी धूप है. धूप इतनी तेज थी कि उस का बचपन भी झुलस कर रह गया और उस झुलसन के निशान उस के मन पर छोड़ता गया. अब तो, बस, लड़ाई ही लड़ाई थी – अस्तित्व की लड़ाई, अस्मिता की लड़ाई, अपनेआप को जीवित रखने, मरने न देने की लड़ाई.

उस ने भी इस लड़ाई को जारी रखा. लड़ती रही. उस ने किताबों से दोस्ती कर ली. किताबों के पाठों, कविताओं, कहानियों में खुद को ढूंढ़ती रहती. अपने अंदर बसे हुए डर का सामना करती. वह चलती रही. सब से अलग, अकेली अपनी दुनिया के साथ जीती रही.

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स्मृतियां हमारा पीछा नहीं छोड़तीं. अतीत अगर साथसाथ न चलता तो व्यक्ति का जीवन कैसा होता? क्या तब वह ज्यादा सुखी होता? क्या पता? यह तो तब होता जब व्यक्ति आगे बढ़ता जाता और पिछला भूलता जाता. परंतु ऐसा होता कहां है? बीता हुआ बीतता कब है. वह तो जमा होता रहता है और गीली लकड़ी सा सुलगता रहता है.

बचपन से ले कर अब तक कितने ही साल तक वह सपनों में भी डरती रही. लोगों की उलाहनाएं, दुत्कार उस के मन को दुख और घृणा से भर देते. आत्मविश्वास से हीन, डरपोक वह. हीनभावना उस के दिल पर इस कदर हावी हो गई थी कि उस का अस्तित्व भी लोगों को नजर नहीं आता था. तपती धूप उसे जलाती. जितना वह आगे बढ़ने की कोशिश करती, दिखावटी आवरणों से ढके लोग उसे पीछे ढकेलने में लग जाते अपने पूरे सामर्थ्य के साथ. किंतु अपने सारे डरों के साथ भी वह चलती रही. जितनी ज्यादा ठोकरें लगतीं, उस का हौसला उतना ही मजबूत होता जाता. हालांकि बाहर से वह डरी हुई, घबराई हुई दिखती किंतु उस का आत्मबल, दृढ़ता इतनी पर्याप्त थी कि वह कभी अपने रास्ते से डिगी नहीं.

जीवन चल रहा है, आज वह दुनिया के सामने सफल है. उस के पास अच्छी जौब है, घर है, गाड़ी है, पैसा है. वह मां है, पत्नी है. कुछ भी ऐसा नहीं दिखता जो नहीं है. पर क्या है जो नहीं है? जो नहीं है वह कभी मिलेगा भी नहीं. क्योंकि वह तो कभी था ही नहीं. व्यक्ति जो महसूस करता है, जिस संसार में जीता है, कई बार उस का बाहरी संसार से कोई सरोकार नहीं होता. यहां तो दौड़ है. दूसरे को ढकेल कर खुद आगे निकलने की दौड़. ऐसे में कौन होगा जो उसे समझना चाहेगा, उस की भावनाओं को अहमियत देगा. नहीं, उसे किसी से कुछ नहीं कहना. सबकुछ अपने भीतर ही समेट कर रखना है.

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सबकुछ अपने अंदर ही जब्त करतेकरते उस की उम्र ही गुजर गई. अब वह उम्रदराज हो गई है. पर उस के मन की उम्र नहीं बढ़ी. अभी भी वह अपने आधेअधूरे सपनों की दुनिया में ही जीती है.

पर अब उसे घुटन होने लगी है. अपनेआप को सीमाओं में बांधे रहने की अपनी प्रकृति से उसे खीझ होती. कब तक वह इसी तरह जिएगी. अब वह सब छोड़ देना चाहती है. भाग जाना चाहती है. उसे अपना अस्तित्व एक पिंजरे में कैद पंछी जैसा लगता. हर आकर्षण, हर इच्छा को वह सब अपने अंदर ही अंदर जीती है और धीरेधीरे उसे खत्म कर देती है. उसे अपना जिस्म, अपना मन सब बंधे हुए महसूस होते. दायरे, सीमाएं, विवेक सब बंधन हैं जो मनुष्य के जीवन को गुलाम बना लेते हैं. इस गुलामी की बेडि़यां इतनी मजबूत होती हैं कि मनुष्य चाह कर भी उन्हें तोड़ नहीं पाता.

उसे अब किसी से भी द्वेष नहीं होता. अपने जन्मदाताओं से भी नहीं जिन्होंने उसे जीवन की दौड़ में अकेला छोड़ दिया. उन्होंने अपनाअपना जीवन जी लिया. अगर वे भी बंधे रहते तो क्या पता उन का जीवन भी उसी के जैसा हो जाता, घुटन भरा.

वह अब स्वप्न देख रही है. वह उड़ रही है. मुक्त आकाश में विचरण कर रही है. हंस रही है. वर्षों से जमा मैल साफ हो गया है. असंभव अब संभव हो गया है. बेडि़यों को झटक कर अब वह आजाद हो गई है.

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मैं झेलम ऐक्सप्रैस से पुणे से जम्मू जा रही थी. मैं सैकंड एसी में थी. मेरी ऊपर की सीट पर एक युवक बैठा हुआ था. उस की सीट से 2 बार सामान नीचे गिरा, तो मुझे अच्छा नहीं लगा.

मैं ने उसे झिड़क कर कहा, ‘‘ठीक से क्यों नहीं बैठते?’’

उस ने ‘सौरी’ कहा और फिर कान में इयरफोन लगा कर गाने सुनने  में मस्त हो गया.

इस बार तो मैं नियंत्रण नहीं रख पाई जब उस का पानी से भरा गिलास ही नीचे गिर गया और मेरा कंबल भीग गया. मैं ने कंबल झटका और खड़ी हो कर गुस्से से बोली, ‘‘तुम्हें सफर करने की तमीज नहीं? तुम्हें नीचे की सीट पर बैठने वाले का कोई खयाल नहीं.’’

मेरे आगबबूला होने पर भी वह जब चुपचाप रहा, तब कुछ अटपटा सा लगा और उस ने जब बिना उंगलियों वाले अपने हाथ दिखाए तो मैं अवाक रह गई. अब मैं ने सौरी कहा और चुपचाप लेट गई. मुझे अपने व्यवहार पर शर्मिंदगी हो रही थी.

अचानक रात को एसी के चलते ठंड लगने से मुझे तेज कंपकंपी आई और शरीर तपने लगा. मैं ने बराबर की सीट पर लेटी महिला से कहा, ‘‘क्या आप मेरी मदद कर सकती हैं, यह चाबी ले लीजिए और मेरे ब्रीफकेस को खोल दें. इस में पैरासिटामोल है, मैं ले लूंगी. और अटैंडैंट से कह कर एक कंबल दिलवा दीजिए.’’

उस महिला ने पता नहीं सुना या नहीं, वह करवट ले कर लेट गई. मैं कांप रही थी, तभी मुझे एहसास हुआ, कोई मुझे जगा रहा है. देखा, तो वह ऊपर वाला लड़का एक गिलास में पानी और दवाई की एक स्ट्रिप लिए खड़ा था. शायद उस ने अटैंडैंट से भी कह दिया होगा. तभी वह 2 कंबल ले आया.

वह लड़का बोला, ‘‘आंटीजी, पैरासिटामौल है, आप डेट चैक कर लीजिए और ले लीजिए. एक कंबल नीचे बिछा लीजिए. मैं आप की हैल्प करता हूं.’’ उस का ही सहारा ले कर मैं खड़ी हुई, कंबल बिछाया और दवाई ली. सुबह मेरी तबीयत ठीक थी. मैं ने आंखें खोलीं, तो देखा वह चाय वाले से कह रहा था, ‘‘आंटीजी को भी एक चाय दे दो.’’

मुझ में अब उस लड़के को धन्यवाद कहने की भी हिम्मत नहीं थी.

चिंता-लता के मन में अचानक सुशील के लिए प्यार क्यों आने लगा था

बलदेवसिंह महरोक

लता के पति घर से क्या गए, उस का मन दुश्चिताओं से भर गया. क्या वह दुर्घटना के शिकार हो गए? क्या किसी ने उन का सबकुछ छीन लिया?

बुधवार को दिन भर लता अपने पत  के लौटने की प्रतीक्षा करती रही. घर के मुख्यद्वार पर जरा सी आहट होने पर उस की निगाहें खुद ब खुद बाहर की ओर उठ जाती थीं. एक बार तो उसे लगा जैसे कोई दरवाजे पर दस्तक दे रहा हो. आशा भरे मन से उस ने दरवाजा खोला. देखा तो एक पिल्ला दरवाजे से अंदर घुसने का व्यर्थ प्रयास कर रहा था, जिस के कारण खटखट की आवाज हो रही थी. देख कर लता के होंठों पर मुसकराहट तैर गईर्. अगले ही पल निराश हो कर वह फिर लौट आईर्.

पिछले शनिवार को उस के पति इलाहाबाद गए थे. उस दिन अचानक उन्हें अपने मुख्य अधिकारी की ओर से इलाहाबाद जाने का आदेश प्राप्त हुआ था. कुछ गोपनीय कागजात सुबह तक वहां जरूरी पहुंचाए जाने थे, इसलिए वह रात की गाड़ी से ही रवाना हो गए थे. लता को यह बता कर गए थे कि एकदो दिन का ही काम है, मंगलवार को वह हर हालत में वापस लौट आएंगे.

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मंगलवार की शाम तक तो लता को अधिक फिक्र नहीं थी परंतु जब बुधवार की शाम तक भी उस के पति नहीं लौटे तो उसे चिंता सताने लगी. उसे लगा, जैसे उन्हें घर से गए महीनों बीत गए हों. जब देर रात गए तक भी पति महोदय नहीं आए तो उस के मन में बुरेबुरे विचार आने लगे. वह सोने का असफल प्रयास करने लगी. कभी एक ओर करवट लेती तो कभी दूसरी ओर, पर नींद जैसे उस से कोसों दूर थी.

‘कहां रुक सकते हैं वह,’ लता सोचने लगी, ‘कहीं गाड़ी न छूट गई हो. लेकिन अगर गाड़ी छूट गई होती तो अगली गाड़ी भी पकड़ सकते थे. कल न सही, आज तो आ ही सकते थे.

‘हो सकता है उन की जेब कट गई हो और सभी पैसे निकल गए हों. ऐसे में उन्हें बड़ी मुश्किल हो गई होगी. वापसी पर टिकट लेने के लिए उन के सामने विकट समस्या खड़ी हो गई होगी.’

पर दूसरे ही क्षण लता उस का समाधान भी खोजने लगी, ‘इस के बावजूद तो कई उपाय थे. वहां स्थित अपने कार्यालय के शाखा अधिकारी को अपनी समस्या बता कर पैसे उधार मांग सकते थे. वहां के शाखा अधिकारी यहीं से तो स्थानांतरित हो कर गए हैं और उन के अच्छे दोस्त भी हैं. हां, उन की कलाई पर घड़ी भी तो बंधी है, उसे बेच सकते हैं. नहीं, उन की जेब नहीं कटी होगी. अब तक न आ सकने का कोई और ही कारण रहा होगा.

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‘हो सकता है स्टेशन पर उन का सामान चुरा लिया गया हो. तब तो वह बड़ी मुसीबत में फंस गए होंगे. उन के ब्रीफकेस में तो दफ्तर के बहुत सारे महत्त्वपूर्ण कागज थे. यदि ऐसा हो गया तो अनर्थ हो जाएगा. फिर तो उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाएगा. अपनी नौकरी के बचाव के लिए अधिकारियों के सामने गिड़गिड़ाना पड़ेगा. कैसी भयावह स्थिति होगी वह?’

यह सोच कर लता की आंखों के सामने कई प्रकार के भयानक दृश्य घूमने लगे.

‘नौकरी छूट गई तो दरदर भटकना पड़ेगा. आजकल दूसरी नौकरी कहां मिलती है? हर महीने मिलने वाला वेतन एकदम बंद हो जाएगा. तनख्वाह के बिना गुजारा कैसे चलेगा? मकान का किराया कहां से देंगे? बच्चों की फीस, किताबें, घर का अन्य खर्च, इतना सबकुछ. कटकटा कर उन्हें हर माह 2,200 रुपए तनख्वाह मिलती है. सब का सब घर के अंदर व्यय हो जाता है. लेकिन अगर यह पैसा भी मिलना बंद हो गया तो कहां से करेंगे ये सब खर्च?

‘यदि ऐसी नौबत आ गई तो कोई अन्य उपाय करना होगा…हां, अपने मायके से कुछ मदद लेनी होगी. पर वह भी आखिर कब तक हमारी सहायता करेंगे? बाबूजी, मां, भैया, भाभी और उन के छोटेछोटे बच्चे…उन का भी भरापूरा परिवार है. उन के अपने भी तो बहुत सारे खर्चे हैं. अंत में तो उन्हें खुद ही कुछ न कुछ अपनी आमदनी का उपाय करना होगा.

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‘हां, एक बात हो सकती है,’ लता को उपाय सूझा, ‘मैं अपने पिताजी से कहसुन कर उन्हें कोई छोटीमोटी दुकान खुलवा दूंगी. कितने कष्टदायक दिन होंगे वे भी. क्या हमारे लिए दूसरों का मोहताज बनने की नौबत आ जाएगी.’

लता सोचतेसोचते एक बार फिर वर्तमान में लौट आईर्. दोनों बच्चे चारपाई पर हर बात से बेखबर गहरी नींद सो रहे थे. वह सोचने लगी, ‘काश, वह खुद भी एक बच्ची होती.’

बाहर घुप अंधेरा छाया हुआ था. दूर कहीं से कुत्ते भूंकने की आवाज रात के सन्नाटे को तोड़ रही थी. उस ने अनुमान लगाया कि रात के 12 बज चुके होंगे. उस ने सिर को झटका दिया, ‘मैं तो यों ही जाने क्याक्या सोचने लगी हूं. बाहर जाने वाले को किसी कारण ज्यादा दिन भी तो लग सकते हैं.’

लता ने अपने मन को समझाने की पूरीपूरी कोशिश की. दुश्ंिचताएं उस का पीछा नहीं छोड़ रही थीं. न चाहते हुए भी उसे तरहतरह के खयाल सताने लगते थे.

‘नहीं, उन का सामान चोरी नहीं हुआ होगा. तो फिर वह अभी तक लौटे क्यों नहीं थे? कल तो उन्हें जरूर आ जाना चाहिए,’ और तब लता को पति पर रहरह कर गुस्सा आने लगा, अगर ज्यादा ही दिन लगाने थे तो कम से कम तार द्वारा तो सूचना दे ही सकते थे. फोन पर भी बता सकते थे कि वह अभी नहीं आ सकेंगे…आ जाएं एक बार, खूब खबर लूंगी उन की. आएंगे तो दरवाजा ही नहीं खोलूंगी. पर दरवाजा तो खोलना ही होगा. मैं उन से बात ही नहीं करूंगी. बेशक, जितना जी चाहे मनाते रहें. खूब तंग करूंगी. चाय तक के लिए नहीं पूछूंगी. वह समझते क्या हैं अपनेआप को. पता नहीं, जनाब वहां क्या गुलछर्रे उड़ा रहे होंगे. उन्हें क्या पता यहां उन की चिंता  में कोई दिनरात घुले जा रहा है.’

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अगले क्षण उसे किसी अज्ञात भय ने घेर लिया, ‘कहीं वह किसी औरत वगैरह के चक्कर में न पड़ गए हों. आजकल बड़ेबडे़ शहरों में कई पेशेवर औरतें केवल अजनबी व्यक्तियों को फंसाने के चक्कर में रहती हैं. जरूर ऐसा ही हुआ होगा. उन्हें फंसा कर उन का सब कुछ लूट लिया होगा. पर ऐसा नहीं हो सकता. वह आसानी से किसी के चंगुल में फंसने वाले नहीं हैं. जरूर कोई अन्य कारण रहा होगा.’ लता के दिलोदिमाग में अजीब तर्कवितर्क चल रहे थे.

ऐसी कौन सी वजह हो सकती है जो वह अभी तक नहीं लौटे. कहीं कोई दुर्घटना वगैरह तो नहीं हो गई? नहीं, नहीं…लता एक बार तो भीतर तक कांप उठी.

‘रिकशा से स्टेशन आते समय कोई दुर्घटना…नहीं, नहीं…बस दुर्घटना या रेलगाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो गई हो. अगर चोट लगी होगी तो किसी अस्पताल में पड़े कराह रहे होंगे…नहीं, नहीं, उन्हें कुछ नहीं हो सकता.’ लता मन ही मन पति की सलामती के लिए कामना करने लगी.

‘अगर ऐसी कोई दुर्घटना हुई होती तो अब तक अखबार, रेडियो या टेलीविजन पर खबर आ जाती.’

लता चारपाई से उठी और अलमारी में से पिछले 3-4 दिन के समाचारपत्र ढूंढ़ कर ले आई. उस ने अखबारों के सभी पन्ने उलटपलट कर एकएक खबर देख डाली. इलाहाबाद की किसी भी दुर्घटना की खबर नहीं थी.

‘यह मैं क्या उलटासीधा सोचने लगी. कितनी मूर्ख हूं मैं,’ लता ने अपनेआप को चिंता के भंवर से मुक्त करना चाहा. पर उस का व्याकुल मन उसे घेरघार कर फिर वहीं ले आता. उसे लगता, जैसे उस के पति अस्पताल में पड़े मौत से जूझ रहे हों.

‘वहां तो उन की देखभाल करने वाला कोई भी नहीं होगा. बेहोशी की हालत में वह अपना अतापता भी नहीं बता पाए होंगे. कहीं वह वहीं पर दम न तोड़ गए हों. नहीं, नहीं, उन का लावारिस शव…यह सोच कर वह अंदर तक सिहर उठी. उस ने पाया कि उस की आंखें गीली हो गई हैं और आंसुओं की बूंदें उस के गालों पर लुढ़क आईं. अपनी नादान सोच पर उसे हंसी भी आई और गुस्सा भी.

‘यह मुझे क्या होता जा रहा है. जागते हुए भी मुझे कैसेकैसे बुरे सपने आने लगे हैं.’ लता कल्पना की आंखों से देख रही थी कि कुछ लोग उस के पति के शव को गाड़ी पर लाद कर ले आए हैं. घर पर भीड़ जमा हो गई है. चारों ओर हंगामा मचा हुआ है. लोग उस से सहानुभूति जता रहे हैं.’

उस ने एक बार फिर उन विचारों को अपने दुखी मन से झटक देना चाहा, पर विचारों की उड़ान पर किस का वश चलता है.

‘उन के मरने के बाद मेरा क्या होगा? उन के अभाव में यह पहाड़ सी जिंदगी कैसे कटेगी,’ लता के विचारों की शृंखला लंबी होती जा रही थी.

‘नहीं, नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. ऐसे में दूसरी शादी…नहीं, नहीं, किस से शादी करूंगी मैं? इस उम्र में कौन थामेगा मेरा हाथ. क्या कोई व्यक्ति उस के दोनों बच्चों को अपनाने के लिए राजी हो जाएगा. कौन करेगा इतना त्याग, पर मैं अभी इतनी बूढ़ी तो नहीं हो गई हूं कि कोई मुझे पसंद न करे. 24 वर्ष की उम्र ही क्या होती है. 2 बच्चों को जन्म देने के बाद भी मैं सुंदर व अल्हड़ युवती सी दिखाई देती हूं. उस दिन पड़ोस वाली कमला चाची कह रही थीं, ‘लता, लगता ही नहीं तुम 2 बच्चों की मां हो. अगर साथ में बच्चे न हों और मांग में सिंदूर न हो तो कोई पहचान ही नहीं सकता कि तुम विवाहिता हो.’

फिर एकाएक लता को सुशील का ध्यान हो आया, ‘सुशील अविवाहित है. कई बार मैं ने सुशील को प्यार भरी नजरों से अपनी ओर निहारते पाया है. वह अकसर मेरे बनाए खाने की तारीफ किया करता है. मुझे खुद भी तो सुशील बहुत अच्छा लगता है. सुशील सुदर्शन है, सभ्य है, मनमोहक व्यक्तित्व वाला है. वह उन का दोस्त भी है. यहां घर पर आताजाता रहता है. मैं किसी के माध्यम से उस के दिल को टोहने का प्रयास करूंगी. यदि वह मान गया तो उस के साथ मेरा जीवन खूब सुखमय रहेगा. वह उन से ऊंचे पद पर भी है. आय भी अच्छी है. उस के पास कार, बंगला सबकुछ है. वह जरूर मुझ से विवाह कर लेगा,’ लता अनायास मन ही मन खुद को सुशील के साथ जोड़ने लगी.

‘मैं सुशील के साथ हनीमून भी मनाने जाऊंगी. वह मुझे कश्मीर ले जाने के लिए कहेगा. मैं ने कभी कश्मीर नहीं देखा है. उन्होंने कभी मुझे कश्मीर नहीं दिखाया. कितनी बार उन से अनुरोध किया कि कभी कश्मीर घुमा लाओ, पर वह हमेशा टालते रहे हैं. पर मुन्ना और मुन्नी? उन को मैं यहीं उन के नानानानी के पास छोड़ जाऊंगी.’

सुशील के साथ प्रेम क्रीड़ा, छेड़छाड़ इत्यादि क्षण भर में ही लता कई बातें अनर्गल सोच गईर्.

कश्मीर का काल्पनिक दृश्य, तसवीरों में देखी डल झील, शिकारे, हाउस बोट, निशात बाग, शालीमार बाग, गुलमर्ग इत्यादि के बारे में सोच कर उस का मन रोमांचित हो उठा.

एकाएक उस की तंद्रा भंग हो गई. बाहर दरवाजे पर दस्तक हो रही थी. लता कल्पनाओं के संसार से मुक्त हो कर एकाएक वास्तविकता के धरातल पर लौट आईर्. अपने ऊटपटांग विचारों को स्मरण कर के वह ग्लानि से भर गई, ‘कितने नीच विचार हैं मेरे. क्या मैं इतना गिर गई हूं? क्या इतनी ही पतिव्रता हूं मैं?’ लता को लगा जैसे अभीअभी उस ने कोई भयंकर सपना देखा हो.

बाहर कोई अब भी दरवाजा खटखटा रहा था. ‘इतनी रात गए कौन हो सकता है?’ लता सोचती हुई उठी और आंगन में आ गईर्. दरवाजा खोला, देखा तो उस के पति ब्रीफकेस हाथ में लिए सामने खड़े मुसकरा रहे थे. वह दौड़ कर उन से लिपट गई.

प्रसन्नता के मारे उस की आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी.

अद्भुत है वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी- पंकज कपूर

फोटोग्राफी भी अपनी तरह से एक कहानी बयां करती है. कहानी शब्दों में बयान होती है. फोटोग्राफी कैमरे के जरिये कहानी को व्यक्त करती है. फोटोग्राफर भी एक तरह का कहानीकार ही होता है वह कैमरे के जरीये कहानी को बयां करता है.

लखनऊ के रहने वाले पंकज कपूर एक ऐसे ही वन्यजीव फोटोग्राफर है. वह कहते है फोटोग्राफी मेरा जुनून और पेशा है, दूसरे शब्दों में कहे तो “अगर मैं क्लिक नहीं कर रहा हूं, तो मैं जीवित नहीं हूं. मैं पिछले 9 वर्षों से वन्यजीव फोटोग्राफी कर रहा हूं और मेरा क्रेज मुझे लगभग हर जगह ले गया है. इनमें प्रकृति और वन्यजीव प्रमुख है.‘

पंकज कपूर ने एक वन्यजीव फोटोग्राफर के रूप में अपनी यात्रा शुरू की. जिम कॉर्बेट, बांधवगढ़, पन्ना, कान्हा, संजय दुबरी, पेंच, तडोबा, काबिनी, दुधवा, पीलीभीत, सुंदरबन सभी जगहों पर वह फोटोग्राफी करने गये. इसके साथ ही साथ भरतपुर, किलबरी, पंगोट, भीमताल, सत्तल और कई अन्य पक्षी अभयारण्यों की भी यात्रा की.

पंकज कपूर कहते है कि तेंदुए की फोटो के लिए मुझे राजस्थान के झालाना और जवाई जाना पडा. वह कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय वन्यजीव और प्रकृति संरक्षण समूहों से जुडे है. इनकी फोटो को राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय फोटोग्राफी ग्रुप में भी स्थान दिया गया. वन्यजीव प्रकृति का एक अनमोल उपहार है. प्राकृतिक संतुलन को  बनाए रखने के लिए जानवर, पौधे और समुद्री प्रजातियां मनुष्यों की तरह ही महत्वपूर्ण हैं.

पंकज कपूर कहते है ‘हमारे देश में वन्यजीव भरपूर है. हमारे देश में जैविक पार्क, प्राणि उद्यान, चाय बागान, वन्यजीव अभयारण्य, शक्तिशाली पहाड़ और हरे भरे जंगल हैं. जिनमें से पन्ना टाइगर रिजर्व एक ऐसा बहुमूल्य रत्न है. पन्ना टाइगर रिजर्व भारत में मध्य प्रदेश के पन्ना और छतरपुर जिलों में स्थित है. इसे 1993 में भारत के बीसवें टाइगर रिजर्व के रूप में घोषित किया गया था. पन्ना टाइगर रिजर्व उत्तरी मध्य प्रदेश में विंध्य हिल में स्थित एक महत्वपूर्ण बाघ निवास स्थान है. पठारों और घाटियों के साथ जलमग्न झरने, भीलों, पुरातात्विक भव्यताओं, किंवदंतियों और सांस्कृतिक समृद्धि की भूमि है. यह केन नदी की भूमि भी है. जो इसे अनुपम सौंदर्य प्रदान करती है. यह प्राचीन भूमि उत्तर की तरह प्राकृतिक सीमाओं से घिरी हुई है. यह सागौन के जंगल से घिरा हुआ है. वन्य जीव फोटोग्राफी के लिहाज से बहुत अच्छी जगह है.‘

मध्यप्रदेश -बेतुके कानूनों का हो रहा विकास

युवाओं को नौकरी और रोजगार के इंतजाम नहीं कर पा रही , भ्रष्टाचार काबू नहीं कर पा रही ,बेतहाशा बढ़ते अपराधों पर अंकुश नहीं लगा पा रही , आम लोगों की बदहाली दूर नहीं कर पा रही और विकास तो रत्ती भर भी नहीं कर पा रही मध्यप्रदेश सरकार के मुखिया शिवराज सिंह चौहान ने अपनी इन और ऐसी कई नाकामियों पर से जनता का ध्यान बंटाने के लिए नए नए बेतुके कानूनों की बौछार शुरू कर दी है जिनका प्रदेश की तरक्की से कोई वास्ता है ऐसा कहने की कोई वजह नहीं उलटे इन कानूनों से राज्य का माहौल और कानून व्यवस्था पहले के मुकाबले और बिगड़ने लगे हैं .

विधानसभा की 28 सीटों के उप चुनाव में 19 सीट जीतने के बाद कांग्रेस से सत्ता छीनकर चौथी बार मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह की इमेज एक ऐसे नेता की रही थी जो आरएसएस के अखाड़े का पट्ठा होने के बाद भी कट्टरवाद खुलेआम नहीं थोपता और विकास कार्यों पर तवज्जुह देता है .  इसीलिए साल 2004 से जनता उन पर भरोसा भी जताती रही . लेकिन यह भरोसा अब दरकने लगा है क्योंकि वे भी उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के नक़्शे कदम पर चलते वर्ग विशेष के मुट्ठी भर लोगों को खुश करने ऐसे कानून बनाने लगे हैं जिनकी न कोई जरुरत है और न ही अहमियत है .

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दरअसल में यह भगवा गेंग का मुस्लिम और दलित विरोधी एजेंडा है जिस पर अमल करना शिवराज सिंह की मज़बूरी और ड्यूटी हो गई है नहीं तो सियासी गलियारों में यह चर्चा अक्सर होती रहती है कि उन्हें कभी भी चलता किया जा सकता है क्योंकि डेढ दशक से प्रदेश भाजपा के दूसरी पंक्ति के नरोत्तम मिश्रा , कैलाश विजयवर्गीय और नरेन्द्र सिंह तोमर जैसे आधा दर्जन कद्दावर  महत्वकांक्षी नेता मुख्यमंत्री बनने छटपटा रहे हैं .  यह और बात है कि शिवराज सिंह अपनी जुगाड़ तुगाड़ और पकड़ के चलते उन्हें कामयाब नहीं होने देते .

इमेज चमकाने बेतुके कानून –

एकाएक ही शिवराज सिंह कट्टर हो चले हैं तो इसकी इकलौती वजह आलाकमान का दबाब ही है कि सब कुछ छोड़ छाड़कर अपने हिंदुत्व विकास के एजेंडे में जुट जाओ नहीं तो ……. इस नहीं तो की गाज और अंजाम से बचने उन्होंने ऐसे कानून बनाना शुरू कर दिए हैं जो किसी के काम के नहीं और विकास और जनता के भले से तो इनका कोई ताल्लुक ही नहीं .

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इनमे पहला है गौ वंश संरक्षण के लिए गौ – अधिनियम जिसके लम्बे चौड़े मसौदे का सार और निष्कर्ष इतना ही है कि गौ वंश अब मानव वंश से ज्यादा अहम् है . गायों के प्रति अपना प्रेम और आस्था दिखाने शिवराज सिंह आये दिन गौ माता का बखान और पूजन करते रहते हैं इस पर भी कोई शक न करे इस बाबत उन्होंने गौ केबिनेट का गठन कर डाला है जो अब सिर्फ गौ वंश के विकास के लिए काम करेगा .  इस पर करोड़ों अरबों रु फूंके जायेंगे  . उल्लेखनीय बात यह भी है कि अब सरकार 4 हजार गौ शालाओं के निर्माण के लिए हर तरह की इमदाद देगी और सरकारी जमीने भी मुफ्त में बांटेगी जिसे हड़पने गौ माफिया आकार लेने लगा है .यह बात भी कम हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण नहीं जिसका खामियाजा माध्यम वर्ग को ज्यादा भुगतना पड़ेगा कि सरकार गाय उपकर यानी सेस भी लगाने जा रही है जिसका कोई विरोध नहीं कर पा रहा .

धार्मिक उन्माद को बढ़ावा देता एक और कानून लव जिहाद भी प्रदेश में लागू हो गया है जिसे धर्म स्वातंत्र्य अध्यादेश  2020 नाम दिया गया है .इस गैरजरूरी कानून का मसौदा उत्तरप्रदेश सरीखा ही है कि बल और छल पूर्वक धर्म परिवर्तन के मामलों में दोषी को 5 साल तक की सजा होगी और 25 हजार रु का जुर्माना भी ठोका जाएगा . महिला , नाबालिग और दलित आदिवासियों के मामलों में दोषियों को 10 साल तक जेल की सजा के अलावा 50 हजार रु तक का जुर्माना देना होगा . इस मसौदे की मुद्दे की बात यह है कि धर्म छिपाकर किसी को धोखा देकर शादी करने बालों को 10 साल की सजा होगी और शादी कराने बाले धर्म गुरु या संस्था  को भी दोषी माना जाकर सजा दी जायेगी .

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निशाने पर कौन  –

अंतर्धर्मीय शादियाँ कोई नई बात नहीं हैं जिनका विरोध भी नई बात नही क्योंकि इससे धर्म के दुकानदारों को नुकसान होता है . पिछले 2 साल से सोशल मीडिया पर हिन्दूवादियों ने हल्ला मचा रखा था कि मुस्लिम युवक नाम और धार्मिक पहचान बदलकर हिन्दू युवतियों से शादी कर उन्हें मुसलमान बनने मजबूर करते हैं और उन पर तरह तरह के कहर भी ढाते हैं . बिलाशक ऐसा हो रहा था लेकिन 7 करोड़ की आबादी बाले मध्यप्रदेश में बीते 7 साल में ऐसे 7 वास्तविक मामले भी सामने नहीं आयेंगे .

क्या इस मामूली बात जिसका जानबूझ कर बतंगड़ बनाया गया पर कानून बनाया जाना जरुरी था और क्या कानून बन जाने से समस्या दूर हो जाएगी इसकी गारंटी लेने कोई तैयार नहीं दरअसल में सरकार के निशाने पर मुस्लिम युवा और हिन्दू युवतियां ज्यादा हैं . अपनी मंशा भाजपा के कई नेताओं ने प्रगट भी कर दी है . विधानसभा के प्रोटेम स्पीकर रामेश्वर शर्मा का कहना है कि मुस्लिम लड़के धर्म बदलकर हिन्दू बहिन बेटियों को लालच देकर उनके फोटो खींचते हैं और बाद में उन्हें ब्लेकमेल करते हैं ये अकेला लव नहीं है बल्कि जिहाद है . इसमें पाकिस्तान और आइएसआई का भी हाथ है . राज्य के गृहमंत्री नरोत्तम मिश्रा भी कई बार कह चुके हैं कि मुस्लिम युवक नाम बदलकर और हिन्दू धार्मिक प्रतीक चिन्ह धारण कर हिन्दू युवतियों को फंसाते हैं .

ये कट्टर हिंदूवादी नेता शायद ही बता पाएंगे कि क्या हिन्दू युवा हिन्दू लड़कियों को इसी तरह ब्लेकमेल और शादी नहीं करते क्या हिदू युवा प्रेमिकाओं और पत्नियों को रानी की तरह रखते हैं और क्या हिन्दू होने के नाते उन्हें ऐसा करने की छूट है और अगर यह कानूनन जुर्म है तो क्या मुस्लिम युवाओं को भी ब्लेकमेलिंग की धाराओं के तहत सजा देना क्यों काफी नहीं है .

बहुत बारीकी से देखें तो इस कानून का एक मकसद आदिवासी इलाकों में धर्मान्तरण रोकना है जहाँ आदिवासी इसाई बन जाते हैं .  लेकिन इसे धर्मान्तरण नहीं कहा सकता क्योंकि आदिवासी खुद को हिन्दू नहीं मानते हैं फिर धर्म परिवर्तन का तो सवाल ही नहीं उठता .  निश्चित रूप से यह लम्बी और तथ्यात्मक बहस का गंभीर और संवेदनशील मसला है जिसमे इस कानून के जरिये भी आदिवासियों को जबरिया हिन्दू ठहराने की साजिश रची जा रही है . चंद महीनों बाद ही आदिवासी इलाकों से ये ख़बरें आना तय हैं कि बौद्ध या इसाई बने आदिवासी युवक जबरिया या धर्म छिपाकर हिन्दू आदिवासी युवतियों से शादी कर उन्हें प्रताडित कर रहे हैं .

ध्यान इधर क्यों नहीं –

इन कानूनों के बाद एक और दिलचस्प कानून नए साल के पहले दिन राज्य में वजूद में आ चुका है जिसके मुताबिक शासकीय अधिकारियों एवं कर्मचारियों के खिलाफ किसी भी तरह के भ्रष्टाचार के मामलों में पुलिस एफआईआर दर्ज नहीं कर सकती . और तो और भ्रष्टाचार के दर्ज मामलों में उनसे पूछ ताछ भी नहीं कर सकती . भ्रष्टाचार को प्रोत्साहित करने इस बाबत  सरकार ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 ( संशोधित ) , धारा 17 ए जोड़ दी है .

तय है अब मध्यप्रदेश में किसी और चीज का हो न हो भ्रष्टाचार का दनादन विकास होगा क्योंकि भ्रष्ट मुलाजिमों की गिरहबान पकड़ने प्रक्रिया इतनी लम्बी कर दी गई है कि उसका सिरा ही कानून की पकड़ में नहीं आने बाला . कानून वीर शिवराज सरकार को एक बार आँख से भगवा चश्मा उतारकर ट्रांसपेरेंसी इंटरनेश्नल इंडिया और लोकल सर्किल एजेंसी की दिसंबर 2019 इस रिपोर्ट को पढ़ लेना चाहिए कि राज्य में हर दूसरे नागरिक को घूस देकर काम कराना पड़ते हैं . इस रिपोर्ट के मुताबिक मध्यप्रदेश में 10 फ़ीसदी भ्रष्टाचार बढ़ा है . केवल 12 फ़ीसदी लोगों ने माना कि उनका काम बिना घूस दिए हुआ यानी 88 फ़ीसदी मुलाजिम भ्रष्ट हैं .

घूसखोरी के साथ मध्यप्रदेश में विकास बेरोजगारी का भी हो रहा है कोई 50 लाख शिक्षित युवा नौकरी और रोजगार की आस में बूढ़े हुए जा रहे हैं . जवानी की खुशियाँ और मस्ती इनसे छीनने की जिम्मेदार सरकार लव जिहाद जैसे फिजूल कानून लाकर प्यार पर भी पहरे लगा रही है . अपराधों के मामले में नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक मध्यप्रदेश टॉप 5 राज्यों में रहकर विकास के कौन से कीर्तिमान गढ़ रहा है यह राम कहीं हो तो वह जाने .

दलितों और महिलाओं के प्रति अपराधों और प्रताड़ना के मामले में भी मध्यप्रदेश अव्वल राज्य है . यह विकास सरकार के लिए चिंता का विषय नहीं है उसके लिए चिंता का विषय है गौ वंश और यदा कदा बालिगों के बीच होने बाली अंतर्धर्मीय शादियाँ जिनका विकास रोकने बेवजह के  कानून थोप कर वह जनता का पैसा और वक्त बरबाद कर रही है .

 

आहना कुमरा की फिल्म ‘बावरी छोरी’ का ट्रेलर हुआ वायरल

‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्का’ वह ‘खुदा हाफिज ‘ जैसी कई फिल्मों और ‘सैंडविच फॉरएवर’ जैसी कई वेब सीरीज में अपने अभिनय का प्रदर्शन कर शोहरत बटोर चुकी अदाकारा आहना कुमरा अब बहुत  जल्द “इरोज नाउ” पर स्ट्रीम होने वाली फिल्म ‘बावरी छोरी’ में एक नए व जोशीले अवतार में नजर आने वाली हैं. इसका ट्रेलर वायरल हो चुका है.  ट्रेलर से इस बात का एहसास होता है कि इसमें दर्शक आहना कुमरा  की बेहतरीन अभिनय  प्रतिभा का भी आनंद ले सकेंगे . वैसे इस वेब सीरीज में आहाना कुमरा के साथ रूमाना मोल्ला, विक्रम कोचर और निक्की वालिया भी होंगी.
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इरॉस  नाऊ के आधिकारिक हैंडल ने सोशल मीडिया पर ‘बावरी छोरी’ का ट्रेलर साझा करते हुए लिखा है- राधिका के साथ जुड़ें. क्योंकि वह अपने खोए हुए पति की तलाश में है.उसे मारने के लिए.#इरोज नाउ पर # बावरी छोरी का ट्रेलर देखें.
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‘बावरी छोरी’ के ट्रेलर के अनुसार इसकी कहानी के केंद्र में राधिका (आहना कुमरा) है, जो कि अपने पति की तलाश में लंदन में भटक रही हैं. वह अपने पति को मारना चाहती है. इस बीच राधिका दोस्ती स्वतंत्रता और प्यार का एहसास भी करती है. शादी के तुरंत बाद उसका पति लंदन चला गया था. मगर उसने वहां से कभी भी राधिका को फोन नहीं किया और वह उसके पास वापस भी नहीं लौटा. जिसके चलते एक दिन राधिका कठोर निर्णय लेते हुए अपना बैग बांधकर लंदन पहुंच जाती है.
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‘बावरी छोरी’ का निर्माण अजय जी राय, मोहित छाबरा और सुदीप्तो सरकार ने किया है .जबकि इसके संगीतकार कार्तिक रामलिंगम हैं और निर्देशक अखिलेश जायसवाल हैं.

नेहा पेंडसें ने ट्रोलर्स को दिया था करारा जवाब, कहा मैं भी वर्जन नहीं हूं

बीते कुछ सालों से भाभी जी घर पर हैं कि फेमस एक्टर सौम्य टंडन सीरियल में नजर नहीं आ रही हैं इसके पीछे कि वजह है कि वह सीरियल से अलविदा लेकर अपनी फैमली को टाइम दे रही हैं. वहीं सौम्या टंडन की जगह अब नेहा पेंडसें लेने वाली हैं. इस सीरियल में काम करके नेहा अपनी एक अलग पहचान बनाएंगी.

नेहा पेंडसें को नए लुक में देखने के लिए फैंस अभी से बेताब नजर आ रहे हैं. अगर बात करें नेहा पेंडसें के एक्टिंग करियर की तो उन्हें एक्टिंग का अच्छा अनुभव है. वह कई फिल्मों में नजर आ चुकी हैं. इसके साथ ही नेहा चैनल लाइफ ओके के सीरियल May I come in madam से बहुत ज्यादा चर्चा में आई थी. नेहा के किरदार को फैंस ने खूब पसंद किया था.

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नेहा पेंडसें ने पिछले साल बिजनेसमैन शार्दुल सिंह बयास से शादी रचाई है. जिसके बाद उन्हें ट्रोलर्स का जमकर सामना करना पड़ा. नेहा के शादी के बाद कुछ लोगों ने उन्हें बधाई दी तो वहीं कुछ लोगों ने उन्हें जमकर ट्रोल करना शुरू कर दिया. दरअसल नेहा ने जिसे शादी रचाई थी उस व्यक्ति कि यह तीसरी शादी थी.

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जिसके बाद नेहा ने ट्रोलर्स का दो टुक में जवाब देते हुए कहा था कि अगर शार्दुल तलाकशुदा हैं तो मेरी भी कौन सी वर्जन हूं. इसके बाद से नेहा ने को लोग सोशल मीडिया पर ट्रोल करना बंद कर दिए थें.

मैं अपने और पति के फैसले कि सराहना करती हूं हमलोगों ने एक-दूसरे को खुले दिल से स्वीकारा है. इसके लिए आप चाहे कुछ भी कह लें हम दोनों के रिश्ते पर कोई फर्क नहीं पड़ता हैं.

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नेहा अपने पति के साथ अपनी शादी शुदा लाइफ को एंजॉय कर रही हैं. नेहा के इस फैसले से उनकी फैमली बहुत ज्यादा खुश है. नेहा नहीं चाहती लोग उनके पर्सनल लाइफ को लेकर बहुत ज्यादा सवाल खड़े करें.

बिग बॉस 14: घर से बाहर जाते ही राहुल महाजन ने राखी सावंत को लेकर दिया ये बड़ा बयान

बिग बॉस के घर में नए-नए टॉस्क होना आम बात है. ऐसे में कल रात बिग बॉस के घर में दिखाया गया पूर्व बीबी प्रतियोगिता जिसकी घोषणा एक्ट्रेस मोनालिसा ने किया. जिसके बाद राहुल महाजन को सबसे कम वोट मिले और उन्हें घर से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

राहुल महाजन घर से बाहर आते ही राखी सावंत को लेकर ऐसे बयान देंगे किसी ने सोचा नहीं था. एक रिपोर्ट में बात करते हुए राहुल महाजन ने कहा कि मैं राखी सावंत को ज्यादा नहीं जानता हूं, उनसे मेरी मुलाकात आज से 10 वर्ष पहले स्वंयवर के शो पर हुआ था. जिसके बाद से अब मैं बिग बॉस में उनसे मिला हूं.

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राखी सावंत को मैं बहुत अच्छे से नहीं जानता हूं इसके अलावा मैं राखी सावंत से एक या दो बार हाल चाल लिया हुंगा. लेकिन इसके अलावा मैं उन्हें पर्सनल नहीं जानता हूं.

 

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राखी सावंत जैसे अपनी बातों को रखती हैं उसे मैं नहीं पसंद करता हूं. ना ही मैं कभी ऐसे लोगों को अपना दोस्त बनाना चाहता हूं. राहुल महाजन के इस बयान को देखऩे को बाद सभी हैरान हैं.

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एक वक्त ऐसा था जब बिग बॉस के घर में सभी लोग राखी सावंत के खिलाफ थें. तब राहुल ने उन्हें सपोर्ट किया था लेकिन अब राहुल महाजन का पलटता हुआ  व्यवहार देखकर फैंस भी परेशान है कि राहुल महाजन ऐसा क्यों कर रहे हैं.

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अब देखना है कि राखी सावंत को जब राहुल महाजन की असलियत का पत्ता चलेगा तो वह क्या रिएक्शन देंगी.

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