वह अच्छी तरह जानती है कि गाड़ी चलाते समय पूरी सावधानी रखनी चाहिए. तमाम प्रयासों के बावजूद उस का मन एकाग्र नहीं रह पाता, भटकता ही रहता है. उस के मन को तो जैसे पंख ही लगे हैं. कहीं भी हो, बस दौड़ता ही रहता है.
वह अपनेआप से बतियाती है. वह चाहती है कि वह जानती है उसे सब जानें. लेकिन वह खुद ही सब से छिपाती है. बस, सबकुछ अपनेआप से दोहराती रहती है. वह सिर को झटकती है. विचारों को गाड़ी के शीशे से बाहर फेंकना चाहती है. पर वह और उस की कहानी दोनों साथसाथ चलते हैं. अब तो उसे अपने विचारों के साथसाथ चलने की आदत हो गई है. उस के अंतर्मन और बाहरी दुनिया दोनों के बीच अच्छा तारतम्य बैठ गया है.
उस की स्मृतियों में भटकते रहते हैं उस के जीवन के वे दिन जो खून के साथ उस की नसों में दौड़ते रहते हैं. वह खेल रही है रेत में मिट्टी, धूल से सनी हुई. उस की गुडि़या भी उस के साथ रहती है. वह घूम रही है खेतों में, गांव के धूलभरे रास्तों में. दादादादी और कई लोग हैं जो उस के साथ हैं. वह भीग रही है. दौड़ रही है.
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घर में मिट्टी के बरतनों में खाने के सामान रखे हैं. बरामदे की अलमारियों में उस की पसंद की मिठाइयां रखी रहती हैं. बाबा रोज स्कूल से आने पर उस से पाठ सुनते हैं. दादी जहां जाती वह उन के साथ जाती, उन के संगसंग घूमती है. ईंधन, चूल्हा, खेतखलिहान, गायभैंस, कुआं, गूलर का पेड़ कुछ भी तो ऐसा नहीं है जो उस की यादों से कणभर भी धूमिल हुआ हो. पर इन सब स्मृतियों में उस के जन्मदाता कहां हैं? उन की यादों को वह अपने अंतर्मन पर पलटना भी नहीं चाहती. उस की स्मृतियों में उन का स्थान इतना धूमिल सा क्यों है?