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जल्दी जल्दी खाने की आदत पैदा कर सकती है मुसीबत

लेखिका- स्नेहा सिंह 

आज की दौड़भाग भरी जिंदगी में खाना तो नसीब है लेकिन उसे चबाना नहीं. हर कोई जल्दीजल्दी खा लेना चाहता है. लेकिन ध्यान रहे, यह आदत भविष्य में मुसीबत बन सकती है. स्नेहा सिंहभागदौड़ भरी जीवनशैली में काम की व्यस्तता के कारण लोगों के पास आज इतना समय नहीं होता कि वे शांति से बैठ कर खाना खा सकें. अब तो लोग खाना भी भागमभाग के बीच ही खाते हैं. कभी अगर शांति से खाने का समय मिलता भी है तो लोग इसे एक काम की ही तरह निबटाते हैं.

उतावलेपन में खाया गया खाना स्वास्थ्य को तमाम तरह से नुकसान पहुंचा सकता है. घर के बड़ेबुजुर्ग अकसर हमें धीरेधीरे और चबा कर खाने की सलाह देते हैं. जल्दीजल्दी खाना खराब आदत में शुमार किया जाता है. अगर आप की भी ऐसी ही आदत है तो आप को समय से चेत जाना चाहिए, वरना आप के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ सकता है. द्य ओवरईटिंग की समस्या : जल्दीजल्दी खाने के चक्कर में कभीकभी हम अधिक खा लेते हैं. इस ओवरईटिंग के कारण वजन बढ़ जाता है और शरीर में तरहतरह की बीमारियां लग जाती हैं. जब हम जल्दीजल्दी खाते हैं तो हमारे दिमाग तक यह संदेश नहीं पहुंच पाता कि हमारा पेट भर गया है.

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-फैटी बौडी : जल्दीजल्दी खाने से शरीर का वजन बढ़ने की समस्या अब सामान्य हो गई है. जल्दीजल्दी खाने से डाइट का संतुलन नहीं बनता. खाने को अगर धीरेधीरे चबा कर खाया जाए तो शरीर का वजन बढ़ने की समस्या नहीं होती.

-पाचनतंत्र पर असर : जल्दीजल्दी खाने वाले लोग बड़ेबड़े कौर मुंह में डालते हैं और उसे इधरउधर घुमा कर बिना चबाए ही गले के नीचे उतार देते हैं. इतना ही नहीं, कभीकभी उसे नीचे नहीं उतार पाते तो पानी या कोल्डड्रिंक का सहारा लेते हैं. इस तरह खाने से खाना पेट में ठीक से नहीं पचता और पेट में अनेक तरह की समस्याएं पैदा हो जाती हैं.

-इंसुलिन प्रतिकार : जल्दीजल्दी खाने से कभीकभी खून में शुगर की मात्रा एकाएक बढ़ जाती है. इसलिए इंसुलिन प्रतिकार की समस्या रहती है. समय के साथ यह समस्या डायबिटीज का रूप ले लेती है.

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सांस की दुर्गंध और कैविटी : खाने को अच्छी तरह चबा कर खाने से खाना दांतों के बीच नहीं फंसता, जिस से सांस की दुर्गंध और कैविटी जैसी समस्याओं से बचा जा सकता है. अच्छी तरह चबा कर खाने से मुंह में रहने वाले बैक्टीरिया भी मर जाते हैं. लंबे समय तक खाने को चबाते रहने से मुंह से निकलने वाली लार बैक्टीरिया को खत्म कर देती है.

-पेट में दर्द : कभीकभी जल्दीजल्दी खाने के चक्कर में ध्यान नहीं रहता और आप ज्यादा खा लेती हैं. जरूरत से ज्यादा खा लेने से खाना पेट में पचता नहीं, जिस से पेट में दर्द होने लगता है.

-हृदय संबंधी बीमारी : खानेपीने में उतावलापन करने से कभीकभी शरीर का मेटाबोलिज्म कम हो जाता है इस से शरीर का कोलैस्ट्रौल लैवल बढ़ जाता है. और इस से हार्टअटैक व स्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है. अगर जल्दीजल्दी खाने की आदत हो तो उसे सुधारें और धीरेधीरे खाने की आदत डालें.

आखिरी खत- भाग 2 : राहुल तनु को इशारे में क्या कहना चाह रहा था

अपरिचित व्यक्ति का टैलीग्राम पढ़ कर, उस के वाक्यों का वह अंश कि ‘अपनी अमानत…’ तनु कुछ सम झ नहीं पा रही थी. फिर शकुन नाम की उस लड़की के साथ कुछ भूलीबिसरी यादें उसे याद आने लगीं.

3 साल पहले शकुन राहुल के दफतर में काम करती थी. राहुल के सहकर्मी इंजीनियर प्रकाश की सड़क दुर्घटना में हुई आकस्मिक मृत्यु के बाद उस की पत्नी शकुन को राहुल ने अपनी कंपनी में नौकरी दिलवाई थी.

तनु 2 बार उस से मिली थी, उसी दौरान शकुन ने अपने बारे में बताया था कि 12 बरस की उम्र में वह अनाथाश्रम में छोड़ दी गई थी, पर कारण उस ने नहीं बताया था. 12वीं की परीक्षा दे कर उस ने टाइप, शौर्टहैंड भी सीखी थी. नौकरी की तलाश में निकली शकुन को नौकरी देने के बजाय प्रकाश ने अपने मांबाप की इच्छा के विरुद्ध उस से शादी कर ली थी.

प्रकाश की मृत्यु के बाद शकुन बिलकुल अकेली हो चुकी थी. बच्चा कोई नहीं था, पर न जाने क्यों, वह बहुत परेशान नजर आई. 4-5 माह बाद ही अपना तबादला अहमदाबाद की शाखा में करवाने के बाद वह तनु से मिलने आई थी.

खैर, जो भी हो, शकुन के जीवन की समाप्ति के बाद उस की बेटी को ले जाने के आग्रह के साथ ‘आप की अमानत’ शब्द तनु के मनमस्तिष्क में उभरतेमिटते रहे.एकाएक तनु को याद आया कि आज लेडीज क्लब में एक सांस्कृतिक कार्यक्रम है. मन में उभरती यादें समेट कर वह तैयार हो कर निकल पड़ी.

कार्यक्रम खत्म होते ही उसे कंपनी के जनरल मैनेजर की पत्नी सुमेधा मिली. तनु को देखते ही न जाने क्यों सुमेधा पूछने लगी, ‘‘तनुश्री, क्या बात है? तुम्हारी तबीयत तो ठीक है न? कैसी मुर झाई सी लग रही हो?’’

शायद अंतस में घुमड़ते भावों की परछाईं तनु के चेहरे पर पड़ने लगी थी. पता नहीं, किस भावना के बहाव में आ कर तनु बोली, ‘‘शकुन को शायद आप भी जानती होंगी. वही, प्रकाश की पत्नी, जिस की सड़क दुर्घटना मे मौत हो गईर् थी, अब वह भी नहीं रही. लिवर कैंसर से मौत हो गई. पता नहीं क्यों, आज इन के दफ्तर में राहुल के नाम टैलीग्राम आया था.’’

एक पल मौन पसर गया, फिर सुमेधा ही बोली, ‘‘शकुन को कभी देखा नहीं, पर सुना था कि वह बहुत खूबसूरत लड़की थी और प्रकाश ‘ड्रग एडिक्ट’ था. उस की मौत के बाद राहुल ने उस की बहुत ‘कृपा’ की थी. कई बार उन्हें लोगों ने शकुन के साथ देखा था. अपना तबादला अहमदाबाद करवाने की भी एक वजह थी. वह गर्भवती थी और शायद राहुल को बदनामी से बचाने के लिए…’’सुमेधा का आखिरी वाक्य तनु के शरीर में ठंडी लहर की तरह दौड़ गया. सुमेधा के इतना कुछ कहने के बाद तनु पलट कर कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं थी.

आवेगों की लहरों से पस्त तनु अपने निर्जीव से तन को ठेल कर घर तक पहुंची और मथुरा प्रसाद के भेजे गए उस टैलीग्राम को तकिए के नीचे दबा कर, अपने कांपते पैरों को समेट कर औंधी लेट गई. तर्कवितर्क तनु के मन को मथते रहे कि राहुल ने शकुन की मदद की… दुर्घटनाग्रस्त प्रकाश के क्षतविक्षत शरीर को देख कर शकुन के मन में व्याप्त भय को दूर करने के लिए राहुल उसे मनोवैज्ञानिक के पास भी ले जाता था. यह सब तो वह जानती थी, लेकिन वह ‘बच्ची’… ‘अमानत’… सब को जोड़ कर जब उस ने सोचा तो एक घुटीघुटी सी चीख उस के गले से निकली, ‘नहीं,’ जिसे सुन कर बाबूजी और नीतू दौड़े चले आए.

बाबूजी के सवालों का जवाब तो तनु नहीं दे सकी, पर हिलकहिलक कर रोती रही. देखती रही कि बाबूजी वहीं खड़ेखड़े डाक्टर को फोन कर रहे हैं, फिर उन्होंने प्रभा दीदी को फोन किया, ‘‘बेटी, तुम जितनी जल्दी हो सके, यहां पहुंच जाओ. बहू को न जाने कैसी तकलीफ हो रही है. कुछ कह नहीं रही है. राहुल तो परसों ही लौटेगा.’’

डाक्टर के आने तक तनु कुछ संभल गई थी, लेकिन ऐसा लग रहा था जैसे मस्तिष्क में अंधेरे के सिवा कुछ नहीं है. डाक्टर के इंजैक्शन के बाद उसे ऐसा लगा जैसे वह रुई की तरह हलकी हो कर तैर रही है. उसे बाबूजी की आवाज बहुत धीमी सुनाई पड़ रही थी, ‘‘अचानक सदमा किस बात का पहुंचा होगा? शाम को क्लब गई, तब तो बिलकुल ठीक थी.’’

शून्य तले मस्तिष्क के अंधेरे प्रकोष्ठों में सब आवाजें फैल गईं, फिर वह सागर की सी गहराई में डूबने लगीं. तनु की नींद खुली तो रात के 2 बज रहे थे. साथ वाले पलंग पर नीतू अपनी बूआ के गले में बांहें डाल कर सो रही थी. बो िझल पलकों पर तनु ने हथेली रख दी तो अतीत अंधेरे में परछाइयों की तरफ सरकने लगा.

मानसपटल पर उभर आती है एक जिद्दी लड़की की तसवीर, जो समाज के रस्मोरिवाज के खिलाफ आवाज उठाने को छटपटाती रहती थी. बेवजह घंटों बहस करना उसे अच्छा लगता था. उन्हें मुट्ठीभर बारूद से उड़ा देने को उस का जी चाहता था, जो अम्मा से कहते थे, ‘कल्याणी, लल्ली 27 बरस की हो चुकी है. कब तक अपने आंगन के खूंटे से बांधे रखने का इरादा है? लगता है, अमरनाथजी को बेटी की कमाई पर ऐश करने की आदत हो गई है?’

बाबूजी की कोशिश थी कि सेवानिवृत्त होने से पहले वे अपनी एकलौती बेटी का ब्याह कर दें, सो विज्ञापन दे डाला. कितने ही रिश्ते आए, पर कोई भी ठीक नहीं जमा. तनु को याद है बाबूजी का वह आग्रह, ‘बिटिया, यह विज्ञापन वाले नहीं हैं, मेरे एक दोस्त का बेटा है, जो 4 साल पहले आईपीएस के लिए चुना गया था. उस से मिलने में हर्ज क्या है?’

तनु का जवाब तब भी ‘नहीं’ ही था. वह लड़के वालों के ऐसे उलटेसीधे सवालों से खी झ गई थी कि चल कर दिखाओ, नौकरी नहीं छोड़ोगी, विदेशी पर्यटकों के साथ बाहर जाने में कोई परेशानी तो नहीं होती? ऐसे सवाल, जिन की आड़ में उस के चरित्र को गहराई तक जानने के प्रयास किए जाते थे.

उन्हीं दिनों तनु की बड़ी भाभी ने यों ही कहा था, ‘शायद कोई मन भा गया है, तभी सारे रिश्ते नकारे जाते हैं.’ यह सुन तनु भड़क उठी थी. छोटी भाभी ने चुहलभरे अंदाज में कहा था, ‘तयशुदा शादी इसे पसंद नहीं है, इश्क के लिए फुरसत नहीं है. अम्माजी और बाबूजी से कहूंगी कि इस बार बीबी रानी के जन्मदिन पर स्वयंवर रचा डालें.’

तनु लपक कर भाभी के गले जा लगी थी और बोली थी, ‘आप का प्रस्ताव फिर भी गौर करने लायक है.’ तनु यों ही बात टालने के अंदाज में कह गई थी, पर तब तो उसे यह भी नहीं पता था कि अगले महीने ही अपनी सहेली शुभा की शादी में शुभा के ताऊ के लड़के राहुल से उस की भेंट होगी. महज एक दिन का परिचय मित्रता में पनप कर सालभर  के अंदर शादी जैसे मोड़ पर पहुंचा देगा, यह तो उस ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था.

 

चैनलों की भक्ति: गायब किसान और समाज के मुद्दे

आज पूरे विश्व में हिटलर और उस की दहशत के बारे में कौन नहीं जानता होगा. ऐसा क्रूर शासक, जिस के बारे में प्रचलित किस्से कहानियां आज भी रूह कंपा देती हैं, सोचने पर मजबूर कर देती है कि क्या लोकतंत्र के दमन का ऐसा भी कोई शासन चलाया जा सकता था? इस प्रश्न का जवाब यदि हिटलर युग में ढूंढा जाता तो शायद नहीं मिलता, पर आज इस का जवाब जोसेफ गुएबल्स के रूप में मिलता है.

जोसेफ गोएबल्स नाजी जर्मनी का मिनिस्टर औफ प्रोपेगेंडा था. गोएबल्स का कहना था कि ‘एक झूठ को अगर बारबार दोहराया जाए तो वह सच बन जाता है और लोग उसी पर यकीन करने लगते हैं.’

बात बिलकुल सही थी, इसलिए पूरे विश्व में हिटलर के राज और जोसफ के काज को मानने वाले संकीर्ण लोगों ने इसे तहेदिल से स्वीकार किया. अब जोसफ तो नहीं रहा, पर उस की कही बातें कईयों के मनमस्तिष्क पर घर कर गई है और आधुनिक तकनीकी युग में यहां पुरे तंत्रयंत्र से हर साख पर जोसफ सरीखे खड़े हो गए है जिन का काम सिर्फ सरकार का प्रचारतंत्र बनना हो गया है.

इस का मौजूदा उदाहरण किसान आन्दोलन है. बीते लंबे समय से दिल्ली के बौर्डर पर चलने वाले किसान आंदोलन आज किसी से भी अछूता नहीं है. इस में कोई शक नहीं कि आंदोलन से ध्यान भटकाने के लिए तमाम मैनस्ट्रीम मीडिया चैनलों पर किसानों के मुद्दे पर अब बहस नहीं हुआ करती, वह लगातार किसान के मुद्दों से बच रही है. अगर वह किसानों के मुद्दों को थोड़ा बहुत कवर भी करती है तो वह महज खानापूर्ति और दिखावा मात्र ही है जिसे भी वह किसानों पर ही दोष मढ़ने के लिए दिखाया जाता है. आंदोलनरत किसान इस बात से अनजान नहीं है. वह जानते हैं कि उन के मुद्दों को आम लोगों से छिपाने के लिए टीवी चैनलों पर बेफिजूल के मुद्दों पर बहस चलती रहती है.

हाल ही में 28 अगस्त को भाजपा हरियाणा ने प्रदेश में होने वाले आगामी पंचायत चुनावों को लेकर बैठक का आयोजन किया था जिस की अध्यक्षता खुद हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर करने वाले थे. इसी को ध्यान में रखते हुए किसानों ने 28 अगस्त के दिन ही करनाल हरियाणा में महापंचायत की घोषणा की. किसानों ने इस दिन किए जाने वाले महापंचायत और प्रदर्शन का फैसला ले कर अपने आन्दोलन को और गति दी.

क्योंकि किसानों का यह प्रदर्शन सभी 3 कृषि कानूनों की वापसी और भाजपा की होने वाली इस बैठक के खिलाफ था तो हरियाणा सरकार ने भी किसानों के इस प्रदर्शन को रोकने के लिए पूरी एड़ी चोटी का जोर लगा दिया. सरकार ने किसान महापंचायत को रोकने के लिए करनाल में अतिरिक्त बलों की लगभग 40 कंपनियां, पांच अधीक्षक स्तर के अधिकारी और 25 उपाधीक्षक स्तर के अधिकारियों के साथ हजारों पुलिस कर्मियों को तैनात कर दिया.

किसानों के इस महापंचायत को होने से रोकने के लिए करनाल के एसडीएम आयुष सिन्हा ने पुलिस बलों को किसानों पर लाठीचार्ज की खुल्ली छुट दे दी. जिस के बाद लाठीचार्ज के दौरान कई किसान घायल हुए, कईयों के सर फूटे यहां तक की सुशील काजल नाम के एक किसान की मृत्यु भी हुई. इस महापंचायत के अगले ही दिन एसडीएम आयुष का विडियो वायरल हुआ जो कि बेहद हैरान करने वाला था.

वायरल विडियो में बैरिकेड की एक ओर करीब 7-8 पुलिसकर्मियों के सामने आयुष सिन्हा सफेद कमीज पहन कर अपने हाथ हवा में लहराते और इशारा करते हुए साफ शब्दों में यह कहते हुए सुने जा सकते हैं कि, “कोई भी हो, यहां से (बैरिकेड से) कोई भी (किसान) नहीं जाएगा वहां. इसी तरह मैं स्पष्ट कर देता हूं, सर फोड़ देना.” उस के बाद एक के बाद एक विडियो वायरल होते गए जिस में पुलिसकर्मी किसानों को बेरहमी से पीटते हुए, दौड़ा कर मारते हुए नजर आए.

लेकिन भारत के न्यूज चैनलों का मुद्दा यह नहीं था कि एक पब्लिक औफिसर प्रदर्शनकारी किसानों के लिए लोकतांत्रिक दायरे में रहते हुए ऐसी शब्दावली भला कैसे इस्तेमाल कर सकते हैं? उन का सवाल यह नहीं था कि सरकार क़ानून का पालन करने में असफल कैसे रही? बल्कि उल्टा वे किसानों को ही कटघरे में खड़ी करती रही.

इस घटना के कुछ दिनों बाद किसानों ने अपने आन्दोलन का रुख उत्तर प्रदेश के मुज्जफरनगर की ओर मोड़ा. 5 सितम्बर रविवार के दिन मुजफ्फरनगर में राजकीय इंटर कौलेज (जीआईसी) के मैदान पर किसानों ने महापंचायत का आयोजन किया. किसानों का यह महापंचायत इतना विशाल था की जहां तक नजर जाए वहां किसानों की भीड़ ही दिखाई दे रही थी. इतनी बड़ी संख्या में लोगों के इकट्ठे होने और प्रदर्शन करने की सुर्ख़ियों ने गोदी मीडिया के न्यूज चैनलों को भी आकर्षित किया. लेकिन अफसोस हर कोई उसे कवर करने के काबिल नहीं था.

मुज्जफरनगर के महापंचायत में किसानों ने आज तक चैनल की महिला एंकर चित्रा त्रिपाठी को अपना आन्दोलन कवर नहीं करने दिया. लेकिन वहीं उन्ही किसानों ने अजित अंजुम जैसे पत्रकारों का पसीना भी पोछा. ये दोहरा ट्रीटमेंट देने की मुख्य वजह यही थी कि एक तरफ तो जिन चैनलों को किसानों के मुद्दों को अपने चैनल में स्पेस देना चाहिए था वो अपने चैनलों पर अफगानिस्तान, पाकिस्तान, तालिबान इत्यादि जैसे मुद्दों को लेकर डिबेट में उलझे रहते हैं. वे ऐसे मुद्दे उठाते हैं जिन से आम आदमी का कोई सरोकार नहीं है.

किसान आन्दोलन की आज की स्थिति यह है कि करनाल में जिस एसडीएम (आयुष सिन्हा) ने किसानों के “सर फोड़ देने” की बात कही थी उसे बर्खास्त करने की मांग उठाई जा रही है. लेकिन शासन प्रशासन ने करनाल के इलाके में इन्टरनेट सेवाओं को बंद कर के रखा है, रेल सेवाओं को बंद कर दिया गया है, पूरे इलाके में धारा 144 लगाई गई है, सिर्फ इसीलिए की किसान अपनी मांगों को उठाते हुए नजर न आ जाए.

यह सीधे रूप में देखा जा सकता है कि मीडिया किसानों की बात जनता के सामने लाने में खास दिलचस्पी नहीं दिखा रही है. ज्यादातर न्यूज चैनल हमेशा की तरह सरकार की पीठ थपथपाने और उस की चाटुकारिता में लगे हैं. इसी बात की पड़ताल के लिए हमारी टीम ने प्राइम टाइम में कुछ हिंदी चैनल्स पर अपनी नजर बना कर रखी.

इंडिया टीवी

रात 8 बजे हकीकत क्या है के तहत कुछ विषयों को लिया गया जिस में सब से पहले 13 वें ब्रिक्स समिट की बात की गई. ब्रिक्स समिट की अध्यक्षता मोदी द्वारा की जा रही है और इस बहाने 15 – 20 मिनट तक मोदी का भरपूर गुणगान किया गया.

इस के बाद बाराबंकी यूपी में असदुद्दीन ओवैसी की रैली को ले कर रिपोर्ट दिखाई गई. इस में बताया गया कि कैसे ओवैसी का मुख्य एजेंडा, यूपी में मुसलमानों का नेता क्यों नहीं है्, सीएम की दावेदारी और सीएए पर सवाल उठाना है. इस रिपोर्ट को भी जरूरत से ज्यादा कवरेज दी गई.

इस के बाद कैमरा घूमने लगा दादर के भीड़ भरे बाजारों में. गणेश चतुर्थी के नाम पर लोगों के धार्मिक उन्माद और इस के पीछे बीजेपी विधायक नीतीश राणा और महाराष्ट्र के सीएम उद्धव ठाकरे की चूहे बिल्ली सी लड़ाई से जुड़ी एक रिपोर्ट भी दिखाई गई.

इस के बाद सुपर फास्ट 100 न्यूज़ दिखाए गए. इस में हर तरह के समाचार लिए गए थे मगर एंकर की आवाज राजधानी एक्सप्रेस से भी तेज थी. जिस की वजह से ज्यादातर समाचार जब तक समझने की कोशिश की जाती तब तक अगला समाचार आ जाता.

प्राइम टाइम यानी रात 9 बजे आज की बात रजत शर्मा के साथ की शुरुआत हुई. उन के बोलने का अंदाज ऐसा होता है जैसे कितनी बड़ी बात बता रहे हों मगर बात उतनी बड़ी होती नहीं है. बाड़मेर हाईवे पर यानी पाकिस्तान से 40 किलोमीटर दूर कैसे जैगुआर और हरक्यूलिस विमान उतारे गए इस विषय को बहुत लंबा खींचा गया और नितिन गडकरी का एक्सक्लूसिव इंटरव्यू भी लिया गया जब कि ऐसे मुद्दों में जनता की खास दिलचस्पी नहीं होती.

इस के बाद एक रिपोर्ट पाकिस्तान के बाजार में अमेरिकी हथियार की खुलेआम बिक्री पर हुई और फिर तालिबानी फरमान से संबंधित वह रिपोर्ट दिखाई गई जिस में महिलाओं के खेलने कूदने पर प्रतिबंध लगाए गए हैं.

अंत में प्रियंका गांधी के यूपी जाने की बात और राहुल गांधी का वैष्णो देवी के दरबार में जाने के समाचार को विस्तार से बताया गया. ऐसे समाचारों का आम जनता से कोई सरोकार नहीं होता. इस के बजाए बढ़ती महंगाई, महिलाओं से जुड़ी हिंसाओं या देश की लचर अर्थ व्यवस्था से जुड़े हालातों पर चर्चा होती तो जनता ज्यादा दिलचस्पी लेती. दरअसल चैनल जनता को बहकाने के लिए फ़ालतू समाचारों में समय बर्बाद करते हैं और काम के मुद्दों पर बात करने की जहमत ही नहीं उठाते.
कुल मिला कर कहा जाए तो देश की जमीनी समस्याओं, देश के हलकान वर्ग और किसानों की मुश्किलों और आम जनता के कल्याण से जुड़े मुद्दों के बजाए कुर्सी पर बैठे नेताओं की तारीफों के पल बांधते ये न्यूज़ चैनल क्या सचमुच अपने मूल मकसद से भटक नहीं गए हैं?

एनडीटीवी

वामपंथी और सरकार विरोधी कहे जाने बाले चेनल एनडीटीवी के तेवर बरकरार हैं . जब रात 8 बजे इस चेनल ने ब्रिक्स पर बहस दिखाना शुरू की तो ऐसा लगा कि दूसरे और इस चेनल में बहुत ज्यादा फर्क नहीं क्योंकि सभी इस विषय पर दिखा रहे थे लेकिन फर्क यह था कि यहाँ मोदी की तारीफ नहीं बल्कि 5 देशों की अलग अलग भूमिकाओं पर फोकस किया जा रहा था और खामोखावाह अपनी पीठ नहीं थपथपाई जा रही थी

9 बजे एंकर रवीश कुमार के साथ दर्शकों को टेक्सटाइल इंडस्ट्री की बदहाली और इस सेक्टर में बढ़ती बेरोजगारी के कारण जानने मिले जो आंकड़ों और तथ्यों पर आधारित होने से वजनदार थे इसमें स्मृति इरानी को घेरने काफी होम वर्क किया साफ़ साफ़ लगा ;लेकिन शायद यह पहला चेनल था जिसने प्राइम टाइम में किसानों को जगह देने अपनी जिम्मेदारी समझा . करनाल में किसान कैसे क्या कर रहे हैं यह विस्तार से दिखाया गया . हरियाणा सरकार द्वारा गन्ने के समर्थन मूल्य बढ़ाए जाने पर किसानों की राय भी दिखाई गई जिसका सार यह था कि इससे किसानों को कोई फायदा नहीं होने बाला .

घायल किसान महेंद्र पुनिया को किसान कैसे चंदा कर मदद दे रहे हैं यह भी उल्लेखनीय बात थी साथ ही यह भी कि कैसे प्रधान मंत्री फसल बीमा योजना फिसड्डी और केवल बीमा कम्पनियों को मुनाफा देने बाली साबित हो रही है . इस बाबत भी आंकड़े और उदाहरण एंकर सहित किसानों ने दिए .

एनडीटीवी से भक्त कुढ़ते क्यों हैं यह बात इसके प्राइम टाइम से भी स्पष्ट होती है कि इसमें मोदी चालीसा नहीं पढ़ा जाता सरकार की उन उपलब्धियों जो दरसल में होती ही नहीं दिखाया नहीं जाता . हाँ सवा साल से आन्दोलनकारी अन्नदाता किसानों पर जरुर कवरेज दी जा रही है आम लोगों से ताल्लुक रखते मुद्दों मंहगाई बेरोजगारी बगैरह पर जरुर लगातार बात की जा रही है . सरकार से सवाल करना भी दर्शकों को सुकून देने बाली बात होती है.

न्यूज नेशन

पिछले कई महीनों से देश के उत्तरी भारत में 3 कृषि कानून को रद्द कराने के मद्देनजर किसान आंदोलनरत हैं. उन की मीडिया से भी शिकायत है कि मीडिया इस ज्वलंत मुद्दे पर उन की समस्याओं को जनता के सामने मजबूती से पेश नहीं करता है. जब लोग रात को टैलीविजन पर खबरें सुनते हैं तो उन्हें किसान कहीं नहीं दिखाई देते हैं. 9 सितंबर को इस की पड़ताल की गई.

खबरिया चैनल टीवी 9 पर रात के 8 बजे पड़ोसी देश अफगानिस्तान में तालिबान के मुद्दे पर खास कार्यक्रम दिखाया गया. यह आधा घंटे का प्रोग्राम था. इस प्रोग्राम में ज्यादातर उन वीडियो के बारे में बातचीत की गई थी, जो जनता बहुत बार देख चुकी है. चीन पाकिस्तान, और भारत के नजरिए से रिपोर्ट पेश की गई थी, जिस में सटीक जानकारी के बजाय सनसनी ज्यादा थी. रिपोर्टर का ऊंची और तेज आवाज में बदहवास हो कर बोलना खल रहा था.

इसी तरह एक और न्यूज चैनल न्यूज नेशन पर रात के 8 बजे स्टेरौयड का इस्तेमाल पर खास रिपोर्ट दिखाई गई थी. टैलीविजन कलाकार सिद्धार्थ शुक्ला की मौत के बाद से यह सवाल उठाया जा रहा था कि 40 साल का एक हैंडसम और सेहतमंद इंसान कैसे दिल के दौरे से मर सकता है.

एक छोटी सी खबर को इतना बढ़ाचढ़ा कर बताना उसे बोर बना रहा था. इस से दिल के रोग की गंभीरता का दम सा घुट रहा था.

टीवी 9 पर रात के 8.30 बजे सुपर प्राइम टाइम कार्यक्रम था, जिस में आधे घंटे में कैसे फरार हुए 6 फिलिस्तीनी कैदी पर फोकस था. इस के बाद तालिबान पर 100 फटाफट खबरें दिखाई गईं, जिन का देश की समस्याओं से कोई लेनादेना नहीं था. ये खबरें जबरदस्ती की बनाई लग रही थीं मतलब खबर में से खबर निकाली मालूम हो रही थीं. पेश करने वाले एंकर चूंकि दूसरे बड़े चैनलों जैसे मशहूर तो नहीं थे, पर उन के चिल्लाने और जनता को बरगलाने का अंदाज वही था.

न्यूज नेशन पर तो हद हो गई थी. वहां 8.30 बजे ‘देश की बहस’ कार्यक्रम में कुछ लोगों के पैनल की बहस दिखाई गई. इस बहस में भारतपाकिस्तान के कुछ बुद्धिजीवियों की आपसी तूतूमैंमैं ही थी. उन लोगों में से बहुत से पैनलिस्ट को शायद ही कोई जानता होगा. कुछ दर्शक भी पकड़ रखे थे, जो उन लोगों से सवाल कर रहे थे. ज्यादातर लोगों को पहले ही सवाल पकड़ा दिए गए थे. इस बहस का कोई मतलब नहीं था. क्योंकि यह बहस कम आपसी झगड़ेबाजी ज्यादा थी. अपनी बात को तर्कसंगत तरीके से किसी ने पेश नहीं किया और लफ्फाजी करते नजर आए. यह कुल एक घंटे की बहस थी, जो समय की बरबादी से ज्यादा कुछ नहीं था.

उधर टीवी 9 चैनल पर रात के 9 बजे फिक्र आप की कार्यक्रम में पाकिस्तान की शामत आई, भारत की सामरिक ताकत में इजाफा, सड़क पर फाइटर जहाज की लैंडिंग में उस खबर को अहमियत दी गई, जिस में हाईवे पर फाइटर जहाज की लैंडिंग को दिखाया गया. कई बार तो मौडल जहाजों को ग्राफिक्स के जरीए ही हाईवे पर लैंड करते दिखाया गया. ऐसा माहौल पेश किया गया जैसे अब तो पाकिस्तान कभी भारत की तरफ आंख उठा कर नहीं देखेगा.

इस के साथ ही भारत में बुखार हुआ वायरल में कोरोना से अलग दूसरे बुखार का जिक्र किया था जो लोगों की जान ले रहा है. साथ ही, हरियाणा के वन विभाग का घपला, खोरी गांव, फरीदाबाद की रिपोर्ट में खोरी गांव से खदेड़े गए लोगों की आपबीती और प्रशासन के घालमेल का ब्योरा था. ये दोनों खबरें आम लोगों की समस्याओं से जुड़ी कही जा सकती हैं.

कुलमिला कर रात के 8 बजे से 10 बजे तक खबरों के नाम पर देश की जनता को ठगा गया था. किसान और उन से जुड़े मुद्दे तो सिरे से गायब थे. जो भी खबरें दिखाई गईं, वे भी लोगों को उकसाने वालीं, उन का ब्लड प्रैशर बढ़ाने वाली थीं. खबरें नहीं कोरा शोर था. सरकार की वाहवाही थी, तभी भन्नाए लोग ऐसे मीडिया को ‘गोदी मीडिया’ कहते हैं.

जी हिन्दुस्तान

जी हिंदुस्तान चैनल पर पूरे दो घंटे 3 स्लौट हुए. एक शब्द किसान को लेकर नहीं थे. पूरे 2 घंटे अफगानिस्तान-पाकिस्तान-चीन को लेकर बात चली. तीनों शो में सिमिलर बातें अलग अलग अंदाज में कहीं गईं.

* पहला शो ‘वंदे मातरम’ चला जिस में चीन तालिबान और पाकिस्तान के संबंधों का जिक्र अधिक था. ज्यादा हिस्सा चीन पर था कि वह कैसे अफगानिस्तान को अपने जाल में फंसाएगा और तालिबान चीन के आगे भीख मांगेगा.

* रात 8.40 पर दूसरा शो ‘मेरा राज्य मेरा देश’ चला. इस में ना तो मेरे राज्य पर बात हुई ना मेरे देश पर. इसका भी अधिकतर हिस्सा चीन तालिबान और पाकिस्तान को लेकर थी. हां, बीच में एक हिस्सा ओवेसी को लेकर था,

* 9 बजे प्राइम टाइम में ‘राष्ट्रवाद’ नाम का शो आया. इस में अधिक चर्चा मोदी के मास्टरस्ट्रोक को लेकर थी. रूस अमेरिका और भारत की एनएसए लेवल मीटिंग और बाड़मेर में रणवे को लेकर बात. इसी हिस्से में पाकिस्तान में इमरान के महिलाओं पर कमेंट और औवेसी की रैली पर चर्चा हुई. इस के बाद 10 बजे ओवेसी की रैली को लेकर लम्बी चर्चा हुई.

कुल मिलाकर किसानों का न्यूज़ को लेकर कहना ठीक है. 3 घण्टे में किसान शब्द तक इस चैनल में सुनने को नहीं मिला.

आजतक के प्राइम टाइम पर टिप्पणी

आजतक खुद को देश के सब से सर्वश्रेष्ठ और तेज न्यूज़ चैनल होने का दावा करता है, लेकिन अगर देश के सर्वश्रेष्ठ न्यूज़ चैनल का स्टैण्डर्ड ये है, जो वह दिखा रहा है तो लोकतंत्र और फ्रीडम औफ स्पीच के लिए इस से ज्यादा शर्मनाक और कुछ नहीं हो सकता.

बतौर उदाहरण अगर 9 सितंबर के प्राइम टाइम (रात 8-10 बजे) की बात करे तो आजतक के सर्वश्रेष्ठ होने की कलई खुल जाती है. क्योंकि इन दो घंटों में चैनल की सो कौल्ड पोपुलर (पोपुलर नहीं ग्लैमरस कहें तो बेहतर होगा) एंकर अंजना ओम कश्यप और श्वेता सिंह ने देश के हर गंभीर मुद्दे को प्राइम टाइम से ऐसे बाहर निकाल फेंका है, जैसे कोई दूध से मक्खी को बाहर निकाल फेंकता है.

पूरे प्राइम टाइम में न तो देश की गिरती जीडीपी की चर्चा हुई, न किसानों की दुर्दशा को लेकर कोई डिस्कशन हुआ, युवाओं में बढ़ती बेरोज़गारी के आंकड़े भी नदारत दिखे. इस प्राइम टाइम में इन 5-6 खबरों को ही कवर किया गया. आइए बारीबारी से पड़ताल करते हैं.

प्रधानमंत्री मोदी का इंटरनेशनल प्रोपोगेंडा- इस पूरे सेगमेंट में मोदी की नीतियों को बढ़ाचढ़ा कर दिखाया गया. ऐसे प्रचार किया जा रहा है मानो मोदी ने इंडिया को अमेरिका बना दिया हो. जबकि सच्चाई क्या है ये हम सब जानते ही हैं. चैनल और एंकर सेगमेंट के दौरान मोदी की अंधभक्ति में पूरी तरह से डूबे नजर आते हैं. सरकार और उन की नीतियों की आवश्यक आलोचना करने के बजाय मोदी की प्रशंसा गीत गाती एंकर अंजना ओम कश्यप को देखकर ऐसा लगता है कि हम आजतक नहीं बल्कि कोई आस्था का चैनल देख रहे हो. न कोई संतुलित आंकड़े और न ही कोई स्पष्ट लौजिक. बस जैसे हमें तो मोदीमोदी ही करना है.

गणपति के नाम पर धर्म का वही पुराना तमाशा- गणपति विसर्जन के नाम पर पूरे देश में युवाओं के हुड़दंग को ऐसे बताया जाता है, जैसे इन के ढोल नगाड़ों से देश का जीडीपी बढ़ जाएगी और कोरोना भी भाग जाएगा. ऐसे ही त्योहारों में सामाजिक दूरी का घोर उल्लंघन होता है. सब धर्म का खेल है.

आंतकवाद और तालिबान के नाम पर मिसलीडिंग रिपोर्ट- रिपोर्ट में आतंकवाद के नाम पर वही तालिबान का घिसापिटा राग अलापते रहे और लोगों को एकतरफा तस्वीर दिखा कर गुमराह किया जाता है.

फिल्मी नोटंकी- फिल्म के नाम पर आमिर खान के भाई का वही पुराना रोनाधोना दिखाया, जो सालों से चल रहा है और एंकर को शायद याद नहीं है कि भारत का किसान भी रो रहा है.

क्रिकेट का फर्जी गुणगान- पब्लिक को एंटरटेनमेंट के नाम पर सट्टे का अड्डा बन चुके क्रिकेट की डोज दी जाती है. जिस में लोगों को अपना कीमती समय बर्बाद करने की जमकर सिफारिश की जाती है.

गैर जरूरी पब्लिसिटी- आजकल लोग कितना ज्यादा औनलाइन ठगी का शिकार हो रहे हैं. ऐसे में आजतक ई-कौमर्स की गैर जरूरी पब्लिसिटी को बढ़ावा देकर लोगों को लूटने पर जोर दे रहा है. अरे किसानों की खबरों को भी कवर कर लो.

हर न्यूज चैनल व उस के एंकर का सामाजिक उतरदादित्व होता है कि वो देश के सामने सभी गंभीर मुद्दों को न सिर्फ पेश करे बल्कि सरकार को आड़े हाथों लेकर इन मसलों को हल करवाने का भी दबाव डाले. क्योंकि मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, लेकिन आजतक को देखकर लगता है कि इस चैनल में काम करने वाले सभी एंकर, रिपोर्टर्स, रिसर्च टीम, आंकड़े व सर्वे जुटाने वाले लोग सिर्फ सरकार की अंधभक्ति का राग अलाप रहे हैं.

सवाल यह है कि अगर देश का सर्वश्रेष्ट न्यूज चैनल, सो कौल्ड लीडिंग एंकर, अगर देश के असल मुद्दो को उठाने की हिम्मत नहीं रखते हैं तो इनको न्यूज चैनल चलाने के बजाह चाय पकौड़ी की दुकान खोल लेनी चाहिए. जहां बेमतलब की फिजूल गपशप चलती है और लोगों को सिर्फ चाय की चुस्कियों से मतलब होता है और देश जाए भाड़ में.

वेलडन आजतक!

रिपब्लिक भारत

वैसे तो रिपब्लिक चैनल के बारे में सभी को पता ही है कि ये जनता के मुद्दे उठाने वाला चैनल नहीं बल्कि छुपाने वाला चैनल है. ये एक विशेष प्रोपगंडा के तहत ही काम करता है. किन्तु जिज्ञासा इस बात पर थी कि किसानों के इतने बड़े मुद्दे को छुपाने के लिए इस चैनल ने आज किन खबरों को दिखाया, इस की पड़ताल शुरू होती है रात 8 बजे की सुपरफास्ट 200 खबरों से, जिस में शुरुआती 1 से लेकर 40 खबरें सिर्फ तालिबान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान से ही जुड़ी हुई थी. उस के बाद बंगाल में होने वाली राजनीतिक उथल पुथल, उत्तर प्रदेश में चुनाव को लेकर भाजपा की तैयारियां वगैरह वगैरह.

बीच में कहीं किसानों की खबरों को स्पेस मिला. वो भी मात्र 5 बुलेट्स में जिसे पढ़ने में दोनों महिला एंकरों ने मुश्किल से 35 सेकेंड्स का समय लगाया. किसानों से जुड़ी इन खबरों की सुर्खियों पर नजर घुमाएंगे तो ये मान बैठेंगे की कुछ भी हो दोष किसानों का ही है. आवाज में एक अजीब तरह का तीखापन जो कानों की चीर दे.

अंत में कुछ अन्य सुर्खियों के साथ, जिस में कुछ पौजिटिव खबरें थी तो कुछ कुत्ते बिल्ली शेर गीदड़ इत्यादि से जुड़ी खबरों के साथ प्रोग्राम का अंत हुआ.

रात 9 बजे ऐश्वर्य कपूर के साथ ‘पूछता है भारत’ प्राइम टाइम. टोपिक था तालिबानी क्रूरता की ‘क्राइम कुंडली’. टोपिक पर पेनलिस्टों की डिबेट शुरू करने से पहले एंकर का 10 मिनट शुरुआती चिखम चिल्ली. 20 सालों पहले हुए अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमले को याद किया गया. उस के बाद डिबेट शुरू हुई. चैनल के सबसे नीचे चलने वाली सुर्खियों पर भी नजर बनाई हुई थी. लेकिन पूरे शो के दौरान किसानों को ले कर मात्र एक या दो खबरों के अलावा नहीं दिखाई दी.

रिपब्लिक चैनल पर खबरे हो चाहे न हों, लेकिन मसाले में किसी तरह की कोई कमी नहीं मिलेगी. रिपब्लिक भारत चैनल पर नजर बना कर रखना किसी टोर्चर से कम नहीं था.

किसान नहीं जाति और धर्म पर डिबेट

आजतक की महिला पत्रकार चित्रा त्रिपाठी जब किसान आंदोलन को कवर करने गई तो उन को किसानों ने घेर लिया और वापस जाने के नारे लगाए. चित्रा को किसी तरह से बच कर भागना पड़ा. इस के बाद भी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में किसानों के मुद्दे को पूरी तरह से गायब करने की साजिश चल रही है. किसानों के मुद्दों की जगह चुनाव, धर्म और जातिवाद के मुद्दों को जगह दी जा रही. एक दिन के समाचार चैनलों में किसानों को किंतनी जगह मिली देखिये.

9 सितंबर को भारत समाचार में ‘द डिबेट’ शो में ‘मिशन उत्तर प्रदेश’ के नाम से पहली डिबेट हुई. इस के एंकर ब्रजेश मिश्रा थे. यह इन का फेसम शो है. ब्रजेश मिश्रा का नाम अभी चर्चा में आया था जब उन के यहां आयकर की टीम ने छापेमारी की थी. उस समय ब्रजेश मिश्रा ने कहा था कि वो सरकार के खिलाफ लड़ाई जारी रखेंगे. अब उन की डिबेट में किसान की जगह यूपी चुनाव और जाति धर्म को प्रमुखता मिलने लगी है.

9 सितंबर की चर्चा का विषय था कि ‘यूपी चुनाव 2022 में भाजपा को कौन टक्कर दे पायेगा”. इस में प्रियंका गांधी और अखिलेश यादव की तैयारियों पर बात हुई. इस डिबेट में सपा के मनोज पांडेय, आप से संजय सिंह, कांग्रेस के दीपक सिंह और भाजपा के स्वत्रंत देव सिंह के भाषण सुनवाए गए. जो पार्टियों की चुनावी तैयारियो से संबंधित थी.

मुद्दे नहीं जातिवाद हावी- ‘द डिबेट’ का दूसरा हिस्सा ‘ब्राह्मण राजनीति’ को लेकर था. इस डिबेट में हिस्सा लेने वालों में नावेद सिद्दीकी, हरिशंकर पांडेय, शिवम त्यागी, मनीष हिंदवी, असीम वकार, फैजान खान और संजय सिंह प्रमुख थे. ‘डिबेट’ का प्रस्तुतिकरण ऐसा था जैसे जातिवाद का विरोध हो पर चर्चा पूरी तरह से जातिवाद को बढ़ावा देती दिख रही थी. यह बताने की कोशिश हो रही थी कि भाजपा का मुकाबला किसी भी तरह से नहीं सकता है.

छोटे नेताओं को दबाने की कोशिश- ‘द डिबेट’ का तीसरा हिस्सा उत्तर प्रदेश में नेता संजय निषाद के स्टिंग औपरेशन को लेकर थी. स्ट्रिग औपरेशन सवालों के घेरे में है पर डिबेट के जरिये यह साबित करने का काम किया जा रहा था कि संजय निषाद विरोधी दलों से बातचीत करके गलत काम कर रहे है. डिबेट और न्यूज के जरिये भाजपा के मुद्दों को बढ़ाचढ़ा कर दिखाया जाता है.

चर्चा से बाहर किसान- इस तरह किसानों को इस डिबेट में कंही जगह नहीं मिली. जबकि किसानों की समस्या सब से अधिक थी. केंद्र सरकार ने एमएसपी भी बढ़ाई और पश्चिम उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन तेजी पकड़ रहा. उत्तर प्रदेश के किसानों ने हरियाणा के करनाल तक के किसानों का समर्थन भी दिया उन की ताकत बने पर यह चर्चा में शामिल नहीं हो पाए.

एंकर ही बन जाता है भाजपा प्रवक्ता- न्यूज 18 चैनल में ‘चुनावी चक्रव्यूह’ मुख्य विषय था. ‘मोदी योगी की काट किस के पास’ शीर्षक से यह चर्चा हुई. एंकर अजय वत्स ने कांग्रेस के उमा शंकर पांडेय और भाजपा के प्रशांत वशिष्ठ के साथ यह चर्चा की. यहां भी किसान चर्चा से बाहर थे. माफिया मुख्तार अंसारी तक को बहस में जगह मिलती रही पर किसान चर्चा से बाहर ही रहा.

मजेदार बात यह कि एंकर ही भाजपा का प्रवक्ता बन जाता है. वो विपक्ष के नेताओं को अपनी बात रखने का मौका नहीं देते. कई बार ऐसा लगता है जैसे कि वह अपने तर्कों और तथ्यों से भाजपा का बचाव कर रहा हो.

किसान आंदोलन से मीडिया को कोई सरोकार नहीं

किसान आंदोलन को कवर करने से गोदी मीडिया लगातार बच रहा है. उस के कुछ रिपोर्टर्स अगर कुछ कवर कर भी रहे हैं तो उन के सुर किसानों को ही कटघरे में खड़ा करने वाले हैं. एबीपी न्यूज, आज तक, जी न्यूज, इंडिया टीवी, इंडिया न्यूज जैसे तमाम बड़े चैनलों पर किसान आंदोलन कवर करने के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति भर है. आधे घंटे की खास खबर में किसानों, उन की मांगो और उन के उत्पीड़न पर एक मिनट से भी कम समय की खबरें दिखाई जा रही है.

मीडिया का किसानों के प्रति जो बर्ताव है, उस से किसान भड़के हुए हैं. मुजफ्फरनगर पंचायत में आज तक चैनल की तेज तर्रार कही जाने वाली रिपोर्टर चित्रा त्रिपाठी को घेर कर किसानों ने ऐसी हूटिंग की कि उन को अपने कैमरामैन के साथ वहां से निकल भागना पड़ा. किसानों की आवाज दबाने की कोशिश और सत्ताधीशों की पसंद की रिपोर्टिंग करके पत्रकारिता पर धब्बा बन चुके इन रिपोर्टर्स को समय रहते संभालने की जरुरत है.

ये पहली बार नहीं है जब भारत में सरकार के फैसलों के विरोध में खड़े हुए किसान आंदोलन के दौरान मीडिया के प्रति नाराजगी जाहिर की जा रही है. एनआरसी और सीएए के विरोध में जानलेवा ठण्ड के मौसम में खुले आसमान के नीचे शाहीन बाग में धरने पर बैठी बुजुर्ग महिलाओं को भी गोदी मीडिया ने अपनी रिपोर्ट्स में कोई ज़्यादा स्थान नहीं दिया था. उलटे उन की वजह से हो रही यतायात की दिक्कतों को खूब बढ़ा चढ़ा कर दिखाया था.

दिल्ली को हरियाणा और उत्तर प्रदेश से जोड़ने वाले राजमार्गों पर किसानों का जो आंदोलन चल रहा है उस में मीडिया के प्रति दिख रहा गुस्सा असाधारण है. मुख्यधारा की मीडिया के कई चैनलों के पत्रकारों को लोग खुलकर हूट कर रहे हैं. बकायदा पोस्टरों और बैनरों के जरिये उन का विरोध किया जा रहा है. मीडिया, जो अपने आप को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहता है, वह आज अपनी विश्वसनीयता खोता दिखाई दे रहा है.

मुख्यधारा की मीडिया के प्रति कम हुए विश्वास ने पत्रकारिता में जो बड़ा शून्य उत्पन्न कर दिया है. उसे छोटेछोटे चैनलों और सोशल मीडिया चैनलों के पत्रकार भर रहे हैं. आंदोलन स्थलों पर ऐसे सैकड़ों पत्रकार हैं जो स्वतंत्र रूप से अपने यूट्यूब चैनल चला रहे हैं और किसान आंदोलन से जुड़ी खबरें पोस्ट कर रहे हैं. वहीं कुछ क्षेत्रीय चैनल (पंजाब और हरियाणा) भी किसान आंदोलन को भरपूर कवरेज दे रहे हैं.

पंजाब यूथ क्लब आर्गेनाइजेशन से जुड़े जोगिंदर जोगी कहते हैं, ‘सोशल मीडिया और लोकल चैनलों ने ही किसान आंदोलन को जिंदा रखा है वरना ये अब तक मर गया होता. नेशनल मीडिया ने इसे कोई तवज्जो नहीं दी है. मीडिया की जिम्मेदारी समाज के साथ हो रहे अन्याय को सामने लाना है, लेकिन मीडिया बिक चुका है. वह किसानों की बात रखने के बजाए सरकार का पक्ष ही दिखा रहा है.’

बड़े मीडिया समूह किसान आंदोलन में ऐसे एंगल तलाश रहे हैं जो सरकार के एजेंडे को ही आगे बढ़ाए. किसानों का यही आंदोलन अगर 2014 के पहले हो रहा होता तो दर्जनों चैनलों के पचासों रिपोर्टर वहां खड़े होकर देश को ये बता रहे होते कि किसानों की मांगे कितनी जायज हैं. सत्ता में मोदी हैं, तो सत्ता के तलवे चाटने वाले मीडिया ग्रुप आंदोलन को उसी रूप में दिखाने की कोशिश कर रहे हैं जो सत्ता को सूट करता है. इसलिए किसानों को विदेशी फ़ंडिंग और खलिस्तान के एंगल तक से जोड़ने में उन्हें गुरेज नहीं है.

मीडिया की भूमिका आंदोलन में शामिल किसानों की मांगों को समझकर उसे सरकार और देश तक पहुंचाने की है. लेकिन आंदोलन में शामिल किसानों को लगने लगा है कि मीडिया ये काम करने के बजाए किसी भी तरह से आंदोलन की कोई कमी खोज लेना चाहता है और फिर राई का पहाड़ बना कर किसानों को बदनाम करने की उसकी साजिशें उछाल मारती हैं.

जहां लाखों किसान शान्ति से बैठे हैं. जिस में युवा, बुज़ुर्ग, महिलाएं सभी हैं मगर गोदी मीडिया के कैमरे इन लोगों की बात सुनने के बजाए उन दोचार लोगों को खोजते रहते हैं जो किसी तरह की हुल्लड़बाजी कर रहे हैं. ‘जो बोले सो निहाल’ का नारा लगाने वाले सिख किसानों को यह चैनल पर खालिस्तानी बताकर दिखा रहे हैं.

इसीलिए आज के समय यह जरुरी है कि टीवी चैनलों में परोसे जा रहे आधे अधूरे तथ्यों वाली खबरों से, दिखाए जाने वाले फेक न्यूज से, मसालेदार खबरों से खुद को बचाया जाए. ये टीवी चैनल समाज को और अधिक खोखला करने का काम कर रहे हैं. अपना रिश्ता पत्रिकाओं से जोड़ें जो खबर के हर पहलु को देखने का सही नजरिया देता है. दिल्ली प्रेस पत्रिकाओं से जुड़ें और स्वतंत्र रहे.

आपसी सिरफुट्टवल से उबर नहीं पा रही कांग्रेस

80 के दशक के बाद से कांग्रेस का लगातार पतन हो रहा है. उसकी सीटें हर राज्य में कम हो रही हैं और वोट शेयर भी. 2022 में पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं और 2024 में लोकसभा के चुनाव हैं. दूसरी पार्टियों के नेता जहां इन चुनावों को ले कर अपनी रणनीतियां बनाने में जुट गए हैं वहीँ कांग्रेस खेमे में सन्नाटा पसरा है. उसके तमाम बड़े दिग्गज आराम फरमा रहे हैं. मुकुल वासनिक, जितिन प्रसाद, भूपेंद्र सिंह हुडा, राजेंद्र कौर भट्टल, एम वीरप्पा मोईली, पृथ्वीराज चव्हाण, पीजे कूरियन, अजय सिंह, रेणुका चौधरी, मिलिंद देवड़ा, राज बब्बर, अरविंदर सिंह लवली, कौल सिंह ठाकुर, अखिलेश प्रसाद सिंह, कुलदीप शर्मा, योगानंद शास्त्री, संदीप दीक्षित, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह सभी खामोश हैं. वहीँ कुछ नेता कुर्सी की लालसा में अपनों से ही भिड़े हुए हैं.

चुनाव के मद्देनज़र कुछ हलचल है तो वो गाँधी परिवार में ही है. उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनाव के वक़्त जनेऊ धारण करके खुद को हिन्दू साबित करने की कोशिश करने वाले कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गाँधी इस बार 14 किलोमीटर की पद यात्रा करके वैष्णव देवी के दर्शन करने पहुंचे हैं तो वहीँ लखनऊ में प्रियंका गाँधी वधऱा कार्यकर्ताओं को एकजुट करने में जुटी हैं. हाल ही में उन्होंने अपने बेटे रेहान वढरा के राजनितिक भविष्य को सिक्योर करने के इरादे से उसका का नाम बदल कर रेहान राजीव वढरा रख दिया है. कुछ समय पहले रेहान अपने मामा राहुल गाँधी के नक़्शे कदम पर चलते हुए उनकी लोकसभा सीट अमेठी के गोरेगांव में अपने दो दोस्तों के साथ एक दलित के घर में रात बिताई थी. वे अक्सर अपनी माँ प्रियंका के साथ भी देखे जाते हैं. मगर सिर्फ गाँधी-वधऱा परिवार के दो-तीन सदस्यों की कोशिश से चुनावी वैतरणी पार नहीं की जा सकती है. इसके लिए तो पूरी कांग्रेस को एकजुट होना होगा.

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गौरतलब है कि 2019 के आम चुनावों में कांग्रेस को 20 प्रतिशत वोट ही मिले थे और पार्टी सिर्फ़ 52 सीटें ही जीत पाई थी. ये आम चुनावों में कांग्रेस की लगातार दूसरी हार थी. लेकिन पार्टी के पास अभी भी संसद के दोनों सदनों में क़रीब 100 सांसद और देश की अलग-अलग विधानसभाओं में 880 विधायक हैं. कांग्रेस भारत में भाजपा के खिलाफ सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है. बावजूद इसके पार्टी के दिग्गज नेताओं के बीच कोई तालमेल ना होने और अध्यक्ष पद को लेकर बीते दो दशकों से जो असमंजस की स्थिति बनी हुई है, उससे चुनावों के प्रति कोई तैयारी नहीं दिख रही है. ऐसा लगता है जैसे पार्टी की इच्छाशक्ति जवाब दे चुकी है.

दिग्गज राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर कहते हैं, ”मैं टिप्पणी करने वाला कोई नहीं हूँ कि कांग्रेस पार्टी में क्या ग़लत हो रहा है, लेकिन मुझे लगता है कि पार्टी के चुनावी प्रदर्शन से जो दिख रहा है, समस्या उससे कहीं अधिक गंभीर है. पार्टी की समस्याएँ उसके ढांचे को लेकर अधिक हैं.” दरअसल सारा मसला नेतृत्व को लेकर है. कांग्रेस का नेतृत्व कमजोर हो रहा है, जिसके कारण पूरी पार्टी दरक रही है. पुराने नेता पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी की बात सुनने-मानने को तैयार नहीं हैं.

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इतिहास गवाह है कि बड़े-बड़े साम्राज्यों के पतन की शुरुआत सूबों में विद्रोह से ही होती रही है. जिस तरह से कांग्रेस पार्टी में विभिन्न सूबों में बगावत की आग सुलग रही है, निसंदेह यह कांग्रेस की ताकत को धीरे क्षीण कर रही है. एक वक़्त थी जब पूरे देश में कांग्रेस पार्टी का ही शासन होता था मगर अब अब वह मात्र तीन प्रदेशों में सिमट कर रह गया है. और इन तीनों प्रदेशों में भी लगातार बढ़ता विद्रोह कांग्रेस पार्टी के लिए शुभ संकेत नहीं है.

पंजाब में सिद्धू और कैप्टन का विवाद

गांधी परिवार के हस्तक्षेप के बाद लगने लगा था कि पंजाब में कांग्रेस पार्टी की अंदरूनी लड़ाई का अंत हो जाएगा और पार्टी एकजुट हो कर अगले वर्ष की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनाव की तैयारी में जुट जायेगी. लेकिंग ये भ्रम अब टूटता नज़र आ रहा है. मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवनियुक्त प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के खुली तकरार जारी है. भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम की घोषणा और उसका पालन शायद ज्यादा आसान है पर पंजाब में मुख्यमंत्री और प्रदेश अध्यक्ष की लड़ाई में युद्ध विराम की संभावना के कोई आसार नहीं दिख रहे हैं. सिद्धू सिद्ध वक्ता हैं. पंजाब और उत्तर प्रदेश चुनाव में उनके जैसा स्टार प्रचारक पूरे दमखम के साथ चुनावी रणभेरी फूंकता तो कांग्रेस में नयी ऊर्जा का संचार हो जाता मगर सिद्धू तो अपनी सारी ऊर्जा अमरिंदर सिंह से धींगामुश्ती में गँवाए दे रहे हैं. उनको ना कांग्रेस की ख़राब होती छवि की परवाह है, ना गिरती साख की और ना चुनाव की. पंजाब में चुनाव में 6 महीनों से भी कम समय बचा है, पर जिस तरह से सिद्धू खेमा अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाने की मुहिम में लगा हुआ है, उसे साफ़ है कि सिद्धू को पार्टी की जीत की ज्यादा फ़िक्र नहीं है. उनका वन पॉइंट एजेंडा है अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री पद से हटाना.

छत्तीसगढ़ में कुर्सी के लिए खींचतान

राहुल गाँधी के अपरिपक्व फैसले कई बार पार्टी पर काफी भारी पड़ते हैं. 2018 में जब राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे तो उन्होंने छत्तीसगढ़ में पार्टी की शानदार विजय के बाद नेतृत्व के सवाल को सुलझाने के लिए एक फार्मूला बनाया था जिसके तहत उन्होंने स्पिलिट लीडरशिप का फैसला लिया. स्प्लिट लीडरशिप अक्सर गठबंधन की सरकारों में देखा जाता था, पर यह पहला अवसर था कि एक बहुमत की सरकार में मुखिया के नाम पर स्प्लिट लीडरशिप की सोच रखी गई. इसके मुताबिक़ भूपेश बघेल को पहले ढाई वर्ष तक मुख्यमंत्री रहना था और मुख्यमंत्री पद के दूसरे दावेदार टीएस सिंह देव को बाद के ढाई वर्षों तक. जून में बघेल का मुख्यमंत्री के रूप में ढाई वर्ष पूरे हो गए और टी. एस. सिंह देव ने पार्टी को राहुल गांधी के वादे की याद दिलानी शुरू कर दी.

टीएस सिंह देव पिछले ढाई वर्षों से प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री थे, कागजों पर अब भी हैं, पर जब सरकार को करोना के आशंकित तीसरे दौर से लड़ने की तैयारी करनी थी, सिंह देव ने नाराज़ हो कर अपने आप को मंत्रालय के काम काज से दूर कर लिया. सिंह देव को समझाने और उनकी नाराज़गी दूर करने के लिए राहुल गांधी के घर पर बघेल, सिंह देव, राज्य के प्रभारी पी.एल. पुनिया और पार्टी के संगठन महामंत्री के.सी. वेणुगोपाल की बैठक भी रखी गयी. तीन घंटे चली बैठक में इधर उधर की बातें होती रहीं पर नेतृत्व को लेकर कोई बात नहीं हुई. सिंह देव इससे और तुनक गए हैं. उनको लग रहा है कि राहुल अपने वादे से मुकर गए हैं. अगर नेतृत्व के मुद्दे पर चर्चा नहीं होनी थी तो बघेल और सिंह देव को दिल्ली क्यों बुलाया गया? अब वे बघेल की नींव खोदने में जुटे हैं और प्रदेश में पार्टी की कमजोर हो रही है.

राजस्थान में गहलोत और पायलट में उठा पटक

तीसरे कांग्रेस शासित प्रदेश राजस्थान में तो पिछले 15 महीने से घमासान छिड़ा हुआ है. पूर्व उपमुख्यमंत्री सचिन पायलट के गुट की मांग है कि पायलट के करीबियों को मंत्रीमंडल और पार्टी के प्रदेश इकाई में जगह मिले, मगर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उनकी बात पर कान भी नहीं धर रहे हैं. पायलट गुट का विद्रोह कांग्रेस आलाकमान ने पिछले साल यह कह कर शांत कर दिया था कि उनकी मांग मानी जाएगी. एक के बाद एक, पार्टी के बड़े नेताओं ने जयपुर का चक्कर लगाया पर गहलोत ने किसी की बात नहीं सुनी और पायलट गुट को अभी भी दरकिनार कर रखा है. गांधी परिवार में शायद इतनी शक्ति नहीं है कि वह गहलोत और पायलट को आमने सामने बिठा कर इस समस्या का हल निकालें. अगर पायलट गुट फिर से विद्रोह का बिगुल फूंकता है तो इससे कांग्रेस पार्टी को काफी नुकसान होगा.

कांग्रेस शासित तीनों प्रदेशों में फिलहाल विद्रोह की स्थिति है. वहीं कुछ अन्य राज्य भी हैं जहां पार्टी सत्ता में नहीं है पर घमासान चल रहा है. जैसे कि हरियाणा में नेता प्रतिपक्ष भूपेंद्र सिंह हुड्डा और प्रदेश अध्यक्ष कुमारी शैलजा के बीच की लड़ाई, तमिलनाडु में नेतृत्व परिवर्तन के नाम पर विवाद और उत्तराखंड में मुख्यमंत्री पद के दावेदार को चुनने का विवाद. इन सबकी सुध लेने और अपने घर को संभालने की जगह पार्टी आलाकमान 2024 लोकसभा चुनाव के मद्देनजर विपक्षी एकता के प्रयासों में जुटी हुई है, साथ ही साथ कांग्रेस आलाकमान यह सुनिश्चित करने में लगी हुई है कि चाहे जो भी हो राहुल गांधी को ही विपक्ष की तरफ से प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनाना है. और उसके लिए ज़रूरी है कि पार्टी की कमान गांधी परिवार के हाथों में ही रहे.

इतिहास के पन्नों में ऐसे कई किस्से दर्ज हैं, जब साम्राज्यों का अंत इन्हीं परिस्थितियों में हुआ, जो अभी कांग्रेस पार्टी में दिख रही हैं. यह उम्मीद करना कि रातों रात राहुल गांधी इतने लोकप्रिय नेता बन जाएंगे कि समस्त भारत उनके नाम पर वोट डालेगा और केंद्र में उनके नेतृत्व में कांग्रेस पार्टी की सरकार बन जाएगी, सच्चाई से मुंह मोड़ने जैसा ही है. कांग्रेस पार्टी के लगातार पतन का सबसे बड़ा कारण ही है कि पार्टी की किसी को चिंता नहीं है, सभी को सिर्फ पद की चिंता है.

प्रशांत किशोर को हायर करना कितना सार्थक होगा

कांग्रेस को आज की तारीख़ में एक अच्छे को-ऑर्डिनेटर ( संयोजक) की ज़रूरत है, जो काम प्रशांत किशोर निभा सकते हैं. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी इस बात को शिद्दत से महसूस कर रही हैं. यही वजह है कि पिछले दिनों प्रशांत किशोर ने राहुल, प्रियंका और सोनिया तीनो से मुलाक़ात की है. उत्तर प्रदेश चुनाव का दारोमदार अगर प्रशांत के कंधे पर डाला जाता है तो ज़्यादा आश्चर्यं नहीं होना चाहिए.

दरसअल प्रशांत किशोर चुनाव जिताने वाले वह शख़्स हैं, नेता जिनकी मुट्ठी में रहते हैं. प्रशांत किशोर कोई साधारण राजनीतिक रणनीतिकार नहीं हैं. उन्हें भारत का सबसे चर्चित राजनीतिक सलाहकार और रणनीतिकार कहा जाता है. हालांकि वो इस विवरण को पसंद नहीं करते हैं.

उन्हें ऐसे व्यक्ति के तौर पर देखा जाता है, जिन्होंने चुनाव जीतने और लोगों की राय को प्रभावित करने में महारत हासिल कर ली है. साल 2011 के बाद से प्रशांत किशोर और उनकी राजनीतिक सलाह देने वाली फर्म ने नौ चुनावों में अलग-अलग पार्टियों के लिए काम किया है. इनमें से आठ में उन्होंने जीत हासिल की है.

प्रशांत किशोर सभी रंगों और विचारों के राजनीतिक दलों को अपनी सेवाएं दे चुके हैं. साल 2014 में वो नरेंद्र मोदी के साथ थे, वे पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह के सलाहकार रहे और हाल ही में उन्होंने मोदी की चिर प्रतिद्वंद्वी ममता बनर्जी को पश्चिम बंगाल में जीत हासिल करने में मदद की. उन्होंने बिहार में अपनी सेवाएं नीतीश कुमार को भी दीं. ऐसे में उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर गहरी चिंता में ग्रस्त कांग्रेस यदि उनको हायर करने की बात सोच रही है, तो कुछ गलत नहीं है.

प्रशांत किशोर जिस तरह काम करते हैं, उससे भारत में राजनीतिक सलाहकारों के काम की झलक मिलती है. उनकी कंपनी आईपैक (इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी) में चुनावों के समय 4,000 तक लोग काम कर रहे होते हैं. ये जिस पार्टी के लिए काम करते हैं, एक तरह से उसी में घुस जाते हैं. वो एक तरह से पार्टी की ताकत बढ़ाने वाले फ़ैक्टर के रूप में काम करते हैं. एक पार्टी को चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करने के लिए जो भी करना जरूरी होता है, वो उसमें मदद करते हैं. इससे कुछ फर्क तो पड़ता है लेकिन ये कितना होता है, इसकी सटीक गणना करना मुश्किल है.

 

प्रिया – भाग 2 : क्या था प्रिया के खुशहाल परिवार का सच?

‘‘तुम शुरू करो, मैं बुलाता हूं,’’ लेकिन अमर के बुलाने से पहले ही वह आ गई और आते ही कहने लगी, ‘‘मैं सनी को सुलाने गई थी, वैसे मुझे भी बड़ी जोर की भूख लगी है,’’ और वह कुरसी खींच कर विकास के सामने बैठ गई.

विकास सोच रहा था यह प्यार भी अजीब चीज है. हम हमेशा उसी चीज से प्यार करते हैं, जो हमारे बस में नहीं होती. सब जानते हुए भी मजबूर हो जाते हैं. प्रिया का चेहरा आज भी खिलते गुलाब जैसा था. आज भी उस पर नजरें टिक नहीं रही थीं. जब तक लड़कियों की शादी नहीं हो जाती तब तक उन्हें लगता है वे अपने प्यार के बिना मर जाएंगी, लेकिन फिर वही लड़कियां अपने पति के प्यार में इतना आगे निकल जाती हैं कि उन्हें अपना अतीत किसी बेवकूफी से कम नहीं लगता.

विकास के मन में आया कि वह उस के हंसतेबसते घर को बरबाद कर दे… अगर वह बेचैन है तो प्रिया को भी कोई हक नहीं है चैन से रहने का…

‘‘विकास, तुम खा कम और सोच ज्यादा रहे हो.’’

‘‘नहीं, ऐसी बात नहीं,’’ अमर के कहने पर वह चौंका.

‘‘लगता है खाना पसंद नहीं आया आप को,’’ प्रिया कहते हुए मुसकराई.

‘‘नहीं, खाना तो बहुत टेस्टी है.’’

‘‘प्रिया खाना बहुत अच्छा बनाती है,’’ अमर ने कहा तो वह हंस दी, फिर उठते हुए बोली, ‘‘आप लोग बातें करो, मैं चाय बना कर लाती हूं.’’

कुछ ही देर में प्रिया ट्रे उठाए आ गई. और बोली, ‘‘आप बता रहे थे आप के दोस्त शाम को चले जाएंगे… कम से कम 1 दिन तो आप को इन्हें रोकना चाहिए…’’

विकास उस की बातों से हैरान रह गया. उस के हिसाब से तो प्रिया उस से पीछा छुड़ाने की कोशिश करती.

‘‘अरे, मैं कहां जाने दूंगा इसे… कम से कम 1 दिन तो इसे यहां ठहरना ही पड़ेगा.’’

फिर विकास ने भी ज्यादा नानुकर नहीं की. वह मन में प्रिया से सारे हिसाब बराबर करने का फैसला कर चुका था. चाय के बाद अमर उसे थोड़ी देर आराम करने के लिए दूसरे रूम में छोड़ गया.

नर्म बैड, ठंडा कमरा, अभी लेट कर आंखें बंद की ही थीं कि प्रिया एक बार फिर सामने आ गई जिसे वर्षों बाद भी मन भुला नहीं पाया था…

उन के पड़ोस में जो नया परिवार आया था वह प्रिया का ही था. जल्द ही विकास की बहन नीलू की प्रिया से दोस्ती हो गई. अकसर उस की प्रिया से मुलाकात हो जाती थी. कभीकभी विकास भी उन दोनों की बातों में शामिल हो जाता था. गपशप के दौरान विकास को लगता कि प्रिया भी उसे पसंद करती है. उस की आंखों के पैगाम प्रिया के दिल तक पहुंच जाते. पता नहीं किस पल, किस वक्त वह इस तिलिस्म में कैद हुआ था, जिसे प्यार कहते हैं. लेकिन उस के दिल की बात कभी जबान तक नहीं आई थी.

घर में बड़ा बेटा होने के कारण विकास मांबाप का दुलारा था. उस ने एमबीए करने के बाद जब बिजनैस शुरू किया तो उस की इच्छा देखते हुए उस की मम्मी ने प्रिया की जन्मपत्री मंगा ली थी. लेकिन जब वह नहीं मिली तो दोनों के परिवार वाले इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं हुए. विकास के तनबदन में आग लग गई. वह इस अंधविश्वास के कारण प्रिया से दूर नहीं रह सकता था. अत: उस ने मन की तसल्ली के लिए नीलू को प्रिया के मन का हाल जानने के लिए भेजा. हालांकि अब तक प्रिया से उस की कोई ऐसी गंभीर बात नहीं हुई थी फिर भी अगर वह विकास का साथ दे तो वे कोर्ट मैरिज कर सकते हैं.

लेकिन प्रिया के जवाब से विकास के दिल को बहुत ठेस पहुंची थी. उस का कहना था कि वह विकास की भावनाओं की कद्र करती है. वह उसे पसंद करती है, लेकिन वह विवाह मातापिता की सहमति से ही करेगी. विकास का बुरा हाल था. वह सोचता, वह सब कुछ क्या था? वह उसे देख कर मुसकराना, उस से बातें करना, क्या प्रिया उस की भावनाओं से खेलती रही? विकास को एक पल चैन नहीं आ रहा था. उसे लगा प्रिया ने उस के साथ धोखा किया है. उस के बाद प्रिया से बात नहीं हुई.

धीरेधीरे प्रिया ने घर आना भी छोड़ दिया. अब विकास का यहां दम घुटने लगा था. कुछ दिनों बाद वह लंदन आ गया. कभीकभी उसे लगता कि शायद यह एक दिमागी कमी है, जिसे इश्क कहते हैं. अतीत में खोए विकास को कब नींद आ गई, पता ही नहीं चला.

जागने पर नहाने के बाद विकास ने स्वयं को फ्रैश महसूस किया. सारी थकान खत्म हो चुकी थी. दरवाजा खोल कर वह बाहर आया, प्रिया चाय की ट्रे मेज पर रख ही रही थी. हलके मेकअप ने उस के चेहरे को और भी निखार दिया था. विकास की नजर प्रिया के चेहरे पर जम कर रह गई. फिर उस ने पूछा, ‘‘अमर कहां है?’’

‘‘कुछ सामान लेने गए हैं, आते ही होंगे.’’

‘‘तुम चाय में साथ नहीं दोगी?’’ विकास का बेचैन दिल एक बार फिर उस की कंपनी के लिए मचलने लगा.

‘‘आप लीजिए, मैं किचन में बिजी हूं,’’ कह कर वह किचन की तरफ बढ़ गई.

विकास सोचने लगा, आखिर थी न बेवफा औरत, कैसे टिक सकती थी मेरे सामने. मगर मैं इतना बेवकूफ नहीं हूं प्रिया, यह तुम्हें जल्द ही पता चल जाएगा. और फिर अंदर की ईर्ष्या ने उसे ज्यादा देर बैठने नहीं दिया.

प्रिया किचन में थी और वह किचन के दरवाजे पर खड़ा उसे देख रहा था. समय ने उस के सौंदर्य में कमी के बजाय वृद्धि ही की थी.

‘‘क्या देख रहे हैं आप?’’ प्रिया लगी तो काम में थी, लेकिन ध्यान विकास पर ही था.

विकास बोला, ‘‘तुम जैसी लड़कियां प्यार किसी से करती हैं और शादी किसी और से, कैसे बिताती हैं ऐसा दोहरा जीवन?’’

प्रिया काम करते हुए ही बोली, ‘‘आप मुझ से क्यों पूछ रहे हैं?’’

‘‘तुम इतनी अनजान क्यों बन रही हो? तुम मुझे क्यों बेवकूफ बनाती रहीं? क्या मैं इतना पागल नजर आता था?’’

खौफ – भाग 3 : हिना के मन में अन्नया को लेकर क्या खौफ था

 

मम्मी के बड़े भाई गणेश मामा के 2 जवान बेटे थे. उन में से बड़े बेटे शेखर की कम उम्र में ही शादी हो गई थी और वे एक कंपनी में नौकरी करते थे. जबकि छोटा बेटा अभी पढ़ाई कर रहा था. वह हिना के बड़े भाई रमेश का हमउम्र था. बचपन से  हिना उन के साथ घुलीमिली थी. अकसर वे उन के घर आतेजाते रहते. गणेश मामा कानपुर में ही रहते थे. मम्मी अपने भतीजों का बहुत ध्यान रखती.

एक बार शेखर की तबीयत खराब हो गई. उन के फेफड़ों में पानी भर गया था. मामा को शेखर की देखभाल करने में परेशानी हो रही थी. यह देख कर मम्मी ने उन्हें अपने घर पर बुला लिया, जिस से उन की ठीक से हिफाजत हो सके.

शेखर की उम्र तकरीबन 26 साल की थी और वे एक बच्चे के पिता भी बन चुके थे. उन की पत्नी रूपा मामी गांव में थी. मम्मी ने बड़े भइया का कमरा उन्हें दे दिया. वह दिनरात उन की खिदमत में लगी रहती, जिस से वे जल्दी ठीक हो कर नौकरी पर चले जाएं.

हिना और उस का छोटा भाई अरुण एक ही कमरे में अलग बिस्तर पर सोते. मम्मीपापा का अलग कमरा था. हिना के कमरे से लगा हुआ बड़े भइया का कमरा था. गरमियों में मच्छरों के आतंक से बचने के लिए सभी के बिस्तर पर मच्छरदानी लगी रहती.

एक दिन उस ने महसूस किया कि रात में कोई उस की मच्छरदानी खींच रहा है.  कुछ देर बाद एक हाथ मच्छरदानी के अंदर उस के पैरों तक पहुंच गया. हिना ने पूरा जोर लगा कर उसे झटक दिया. कुछ देर बाद उसे वही हाथ अपने शरीर पर रेंगता हुआ महसूस हुआ. उस ने उस पर दांत गड़ा दिए, तो हाथ तेजी से मच्छरदानी से बाहर निकल गया.

इस घटना के बाद वह सुकून से सो न सकी. उसे महसूस हो गया कि यह किस का हाथ था, लेकिन वह कुछ कह न पाई. सुबह उठ कर उस ने मम्मी से इस का जिक्र नहीं किया.  छोटा भाई निश्चिंत हो कर बगल की चारपाई में सोया था. उसे इस का इल्म तक  न था. दूसरे दिन उस ने मम्मी से पूछा, “शेखर भइया कब तक यहां रहेंगे ?”

“अभी उन की तबीयत ठीक नहीं है. हो सकता है कि कुछ हफ्ते और लग जाएं.” “मम्मी, आप उन्हें उन के घर भेज दो.” “तुझे क्या परेशानी है उन से? बेचारा एक कमरे में पड़ा रहता है. उस की तबीयत सुधर जाएगी, तो मैं खुद ही उसे जाने के लिए कह दूंगी. तू  जानती है कि तेरी मामी यहां नहीं रहती. घर में उस की देखभाल करने वाला कोई नहीं है,” मम्मी बोली.

“अब उन की तबीयत काफी सुधर गई है. वे चाहें तो मामी को गांव से बुला सकते हैं.””कैसी बहकीबहकी बातें कर रही है तू? वह मेरा भतीजा और तेरा भाई है. रमेश और उस में क्या फर्क है? तुझे भी उस का खयाल रखना चाहिए.”

उन का तर्क सुन कर वह चुप हो गई. अगले दिन रात को फिर वही घटना घटी. इस बार सुरक्षा के तौर पर हिना ने मच्छरदानी बहुत अच्छी तरह से गद्दे के नीचे दबा दी  और अपने साथ बिस्तर पर टौर्च रख ली. मच्छरदानी खिंचने के साथ हाथ महसूस करते ही वह झट से  उठ कर बैठ गई और जोर से बोली, “कौन है?”

उस की आवाज और टौर्च की रोशनी से मम्मी उठ गईं. वह तुरंत उस के पास पहुंच कर बोलीं, “क्या हुआ हिना?”  “मम्मी, मुझे लगा जैसे कोई मेरी मच्छरदानी खींच रहा है. खतरा महसूस होते ही मैं ने टौर्च जला दी. सामने शेखर भइया खड़े थे.”

उसे देख कर मम्मी को कोई आश्चर्य नहीं हुआ. उन्होंने पूछा, “क्या हुआ शेखर? तुम यहां कैसे चले आए?” “बुआजी बहुत जोर की प्यास लगी थी. पानी खत्म हो गया. वही लेने जा रहा था. शायद दरवाजा खुलने की आवाज से हिना डर कर उठ गई.”

“कोई बात नहीं बेटा. तू आराम कर. मैं पानी ला कर रख देती हूं,” कह कर उस ने जग भर पानी उन के कमरे में रख दिया.

आज रात इतना कुछ अपनी आंखों से देख कर भी मम्मी को कुछ समझ नहीं आया था. हिना परेशान थी कि यह बात उन्हें कैसे समझाए? सीधे इलजाम लगाने पर बात बहुत बढ़ सकती थी और अंत में उसे ही चुप करा दिया जाता. लिहाजा, वह चुप ही रही.

अगली रात सोने से पहले उस ने मम्मी को हिदायत दे दी, “मम्मी, शेखर भैया के कमरे में हर चीज पहले से ही रख दिया करो. जरा सी खटपट होने पर मेरी नींद खुल जाती है. मुझे रात में किसी का कमरे में आना अच्छा नहीं लगता.”

“तुझे क्या हो गया है हिना?कैसी बातें कर रही है. शेखर सुनेगा तो क्या सोचेगा?” “सोचता है तो सोचने दो. मुझे किसी की परवाह नहीं है,” इतना कह कर उस ने बीच के दरवाजे पर कुंडी चढ़ा दी.

हिना को आश्चर्य हो रहा था कि कितना कुछ कहने पर भी मम्मी आंखें मूंदें थीं और उस के इशारे नहीं समझ रही थीं. हिना सबकुछ जानते हुए भी चुप थी, इसीलिए उस की हिम्मत ज्यादा बढ़ गई.

बीच का दरवाजा बंद हो जाने से शेखर की उम्मीदों पर पानी फिर गया. एक बच्चे का पिता होने के बावजूद भी उस की गंदी नजर अपनी बुआ की बेटी  हिना पर पता नहीं कब से लगी थी. अकसर वह उस के लिए गिफ्ट ले आता और उस के साथ खुल कर बातें करता. उसे याद आ रहा था कि वे उसे अजीब तरीके से छूते.

‘अगर वह उन के बहकावे में आ जाती तो…’ सोच कर ही वह सिहर गई. लोकलाज के कारण उसे पता नहीं क्या कुछ झेलना पड़ता. मम्मी अपने भतीजे पर कभी शक तक नहीं कर सकीं. अब शेखर को खुद वहां रहना अखरने लगा था. हिना की निगाहों में उठने वाली नफरत को झेलने में वह समर्थ नहीं था. उस ने इस बीच कई बार उस से बात करने की कोशिश की. उस के पास आते ही वह चुपचाप वहां से उठ कर चली जाती.

हफ्तेभर बाद शेखर अपने पापा के घर चला गया था. इस घटना से हिना ने महसूस किया कि बाहर वालों से ज्यादा अपने लोग  खतरनाक होते हैं. रिश्तों की आड़ में क्याकुछ कर गुजरते हैं, इस का किसी को एहसास तक नहीं होता. वे जानते हैं कि अपनों को बदनामी से बचाने व झूठी शान के लिए इस समाज में औरत की आवाज हर हाल में दबा दी जाएगी.

हिना की शादी के 2 साल बाद अनन्या पैदा हुई. उस ने सोच लिया था कि वह अपनी बेटी को दुश्मनों से बचा कर रखेगी. वह बचपन से उसे एक रात के लिए भी किसी रिश्तेदार के घर अकेला न छोड़ती. कई बार बड़े भैया ने कहा भी, लेकिन हिना कोई न कोई बहाना बना कर टाल जाती. अनन्या को यह बात समझ आने लगी थी. वह कई  मौकों पर मम्मी का विरोध भी करती. घर पर अकसर मेहमान आते. हिना उन का पूरा खयाल रखती, लेकिन बेटी की सुरक्षा के लिए कोई रिस्क न उठाती.

उस ने गेस्टरूम घर की छत पर अलग से बना रखा था, जिस से उन का वक्तबेवक्त उस के परिवार से कोई संपर्क न रहे. खानापीना खिला कर वह मेहमानों को गेस्टरूम में टिका देती. पता नहीं, उस की अंदर की दहशत ने उसे कितना हिला कर रख दिया था.

नजदीकी रिश्तों के प्रति उस की आस्था ही खत्म हो गई थी. उसे लगता, रिश्ते की आड़ में छुपे हुए भेड़िए कभी भी अपने ऊपर की रिश्ते की चादर सरका कर अपने असल रूप में आ उस की बेटी पर हमला कर सकते हैं.

बहुत देर तक उसे अतीत में तैरते हुए नींद नहीं आ रही थी. अगली सुबह वह समय से उठ गई, लेकिन अनन्या देर तक सोती रही. उस ने  उसे उठाना उचित न समझा. शादी की रात भी हिना की नजरें शादी की रस्मों के बीच उस पर ही लगी रहीं. रात के 3 बजे फेरे खत्म हो गए और उस के बाद वह अनन्या के साथ कमरे में आ गई.

विदाई के समय सभी भावुक हो गए थे. 8 बजे ईशा की विदाई हो गई. घर सूना हो गया था. दोपहर तक अधिकांश मेहमान  जाने लगे थे. सिद्धार्थ उस से और दी से मिलने आया, “अच्छा बुआ चलता हूं.” “इतनी जल्दी क्या है? 1-2 दिन और रुक जाते,” राशि बोली.

“जिस काम के लिए आए थे, वह पूरा हो गया. घर जा कर पढ़ाई भी करनी है.” अनन्या अभी 1-2 दिन और मौसी के पास रुकना चाहती थी, लेकिन मम्मी की वजह से कहने में हिचक रही थी.  राशि दी खुद ही बोली, “ईशा के जाने के बाद घर खाली हो गया है. हिना अनन्या को कुछ दिन यहां छोड़ दे.”

“नहीं दी, इस के पापा नाराज होंगे. हम फिर आ जाएंगे. यहां से अलीगढ़ है ही कितना दूर. जब तुम कहोगी तभी ईशा और दामादजी से मिलने चले आएंगे.” अगले दिन वह बेटी के साथ घर वापस जा रही थी. अनन्या के मन में कई सवाल थे, लेकिन वह मम्मी से कुछ पूछने की हिम्मत नहीं कर पा रही थी.

हिना जानती थी कि अनन्या मम्मी के व्यवहार से नाखुश है, लेकिन वह मजबूर थी. वह अपनी मम्मी की तरह रिश्तों की छांव में आंख मूंद कर निश्चिंत हो कर नहीं रह सकती थी. शुक्र था, जवानी में खुद सचेत रहने के कारण वह अपने को बचा पाई थी, नहीं तो उस के साथ कुछ भी बुरा घट सकता था. वह अपनी बेटी को ऐसी परिस्थितियों से दूर रखना चाहती थी.

बाहर वाला कुछ गलत कर बैठे तो उस के विरुद्ध शोर मचाना आसान होता है, लेकिन अपनों के खिलाफ आवाज बुलंद करने के लिए कितना हौसला चाहिए, इस की अनन्या कल्पना भी नहीं कर सकती. बेटी चाहे लाख नाराज हो होती रहे, उसे इस की परवाह नहीं. उसे तो केवल भेड़िए को रोकने की परवाह है. अपनेपन की आड़ में वे सबकुछ लूट कर ले जाते हैं और लूटने वाला उन के खिलाफ आवाज तक नहीं उठा पाता. खुद घर वाले उस की आवाज को दबा देते हैं.

‘अभी उसे कुछ समझाना बेकार है. धीरेधीरे अपने अनुभव से उसे बहुतकुछ पता चल जाएगा. तब उसे अपनी मम्मी की यह बात अच्छे से समझ आ जाएगी,’

यह सोच कर वह थोड़ी आश्वस्त हो गई और अनन्या की नाराजगी को नजरअंदाज कर उस से सहज हो कर बातें करने लगी.

शेष चिह्न – भाग 4 : निधि की क्या मजबूरी थी

उन्हें होश आया तो वह बोले, ‘‘निधि, मुझे बहुत दुख है कि अभी अपने विवाह को केवल 10 माह ही हुए हैं और मैं इस प्रकार झूठे मामले में फंसा दिया गया. तुम यह मकान बेच कर मां को ले कर मायके चली जाना. मधु के मामा संपन्न हैं. वे उन्हें जरूर इलाहाबाद ले जाएंगे. यदि मां को ले जाना चाहें तो ले जाने देना. मैं ने कुछ रुपए कबाड़खाने के टूटे बाक्स में पुराने कागजों के नीचे दबा रखे हैं. वहां कोई न ढूंढ़ पाएगा. तुम अपने कब्जे में कर लेना. बचे रहे तो मुकदमा लड़ने के काम आएंगे.’’

निधि फूटफूट कर रो पड़ी फिर बोली, ‘‘पर वहां तो सील लग गई है. पुलिस का पहरा है,’’ निधि के मुंह से यह सुन कर उन की आंखों से ढेरों आंसू लुढ़क पड़े. फिर पता नहीं कब दवा के नशे में सोतेसोते ही उन्हें दूसरा दौरा पड़ा, 3 हिचकियां आईं और उन के प्राण निकल गए.

निधि की तो अब दुनिया ही उजड़ गई. जिस धन की इच्छा में उस ने अधेड़ विधुर को अपनाया था वह उसे मंझधार में ही छोड़ कर चला गया.

मातापिता सब आए. मधु के नाना, मामा आदि पूरा परिवार जुड़ आया. सब उस के अशुभ चरणों को कोस रहे थे. चारों ओर के व्यंग्य व लांछनों से वह घबरा गई. पुलिस ने उस के मायके तक को खंगाल डाला था.

मांजी तो जीवित लाश सी हो गई थीं. निधि की हालत देख कर उन्होंने उसे अपने पास बुलाया और पूजागृह से अपनी संदूक खींच कर उसे यह कहते हुए सौंप दी, ‘‘बेटी, इस में जो कुछ है तेरा है. मैं तो अपनी बेटी के पास शेष जीवन काट लूंगी. यह लोग तुझे जीने नहीं देंगे. मकान बिकेगा तो तुझे भी हिस्सा मिलेगा. मेरे दामाद व बेटी तुझे अवश्य हिस्सा दिलवाएंगे. तू अपने नंगे गले में मेरा यह लाकेट डाल ले और ये चूडि़यां, शेष तो सब सरकारी हो गया. बेटी, 1 साल बाद जहां चाहे दूसरा विवाह कर लेना… अभी तेरी उम्र ही क्या है.’’

वह चुपचाप रोती रही. फिर उसे ध्यान आया और जहां पति ने बताया था वहां ढूंढ़ा तो 10 लाख की गड्डियां प्राप्त हुईं. तलाशी तो पहले ही हो चुकी थी इस से वह सब ले कर मांबाप के साथ मायके आ गई. बस, वह पेंशन की हकदार रह गई थी. वह भी तब तक जब तक कि वह पति की विधवा बन कर रहे.

निधि ने रुपए किसी बैंक में नहीं डाले बल्कि उन से कंप्यूटर खरीद कर बहनों के साथ अपनी कंप्यूटर क्लास खोल ली. उस ने बैंक से लोन भी लिया था, जिस से कभी पकड़ी न जाए. अच्छी पेंशन मिली वह भी केस निबटने के कई वर्ष बाद.

मैं निधि के घर तुरंत गई थी. उस का वैधव्य रूप, शिथिल काया, कांतिहीन चेहरा देख कर खूब रोई.

‘‘मीनू, देख, कैसा राजसुख भोग कर लौटी हूं. रही बात अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिलने की तो वह 2 राज्यों के चलते कभी न मिल पाएगी. मैं उत्तर प्रदेश में रह नहीं सकती और मध्य प्रदेश में नौकरी मिल नहीं सकती. हर माह पेंशन के लिए मुझे लखनऊ जाना पड़ेगा. गनीमत है कि मैं बाप पर भार नहीं हूं. पति सुख नहीं केवल धन सुख भोग पाऊंगी. इसी रूप की तू सराहना करती थी पर वहां तो सब मनहूस की पदवी दे गए.

‘‘वे क्या जानें कि मैं ने आधी रात को नशे में चूर डगमगाए पति की भारीभरकम देह को कैसे संभाला है. मद में चूर, कामातुर असफल पुरुष की मर्दानगी को गरम रेत पर पड़ी मछली सी तड़प कर लोटलोट कर काटी हैं ये पूरे 10 माह की रातें. मेरा कुआंरा अनजाना तनमन जैसे लाज भरी उत्तेजना से उद्भासित हो उठता.’’

‘‘निधि, संभाल अपनेआप को. तू जानती है न कि मैं अभी इस अनुभव से सर्वथा अनजान हूं.’’

‘‘ओह, सच में मीना. मैं अपनी रौ में सब भूल गई कि तू यह सब क्या जाने. मुझे क्षमा करेगी न?’’

‘‘कोई बात नहीं निधि, तेरी सखी हूं न, जो समझ पाई वह ठीक, नहीं समझी वह भी ठीक. तेरा मन हलका हुआ. शायद विवाह के बाद मैं तेरी ये बातें समझ पाऊंगी, तब तेरी यह व्यथा बांटूंगी.’’

‘‘तब तक ये ज्वाला भी शीतल पड़ जाएगी. मैं अपने पर अवश्य विजय पा लूंगी. अभी तो नया घाव है न जैसे आवां से तप कर बरतन निकलता है तो वह बहुत देर तक गरम रहता है.’’

‘‘अच्छा, अब चलूंगी. बहुत देर हो गई.

 

सफल रसोई, सुखी परिवार : सास-बहू का तालमेल है जरूरी

रसोई न केवल घर बल्कि पूरे परिवार का केंद्र होता है. यहीं से स्वास्थ्य, संतुष्टि, सौहार्द, स्नेह, समभाव व दूसरे अनेक भावों की सृष्टि होती है. अभिनेत्री करिश्मा कपूर हों या काजोल, श्रीदेवी हों या माधुरी दीक्षित नेने, जब वे कहती हैं कि वे अपने मातृत्व को रसोई से सार्थक मानती हैं लेकिन बच्चों व पति के लिए रसोई में कुछ बनाने में उन्हें बहुत सुखसंतोष मिलता है तो लगता है कि स्त्री का दिल रसोई में ही बसता है. यही वह जगह है जहां जिंदगी के हर रंग और स्वाद का मजा मिलता है. विवाह के सभी रस्मों को निभाते हुए एक नववधू जब नए परिवेश में नई रसोई में अपना पहला कदम रखती है तो उस के मन में अनेक सवाल, अनेक सपने जन्म ले रहे होते हैं. रसोई में पहले कदम से ले कर रसोई से जुड़े विभिन्न रंगों और स्वादों का सफर पेश है आप के सामने.

रसोई में पहला कदम

नेहा अपनी शादी की सभी रस्मोरिवाजों को निभाते हुए ससुराल पहुंची. वहां की रस्मोंरिवाजों को निभाते हुए जब रसोई में पहला कदम रखा तो उसे घबराहट होने लगी कि वह ऐसा क्या बनाए जिस से वह सब का दिल जीत ले. ऐसे में ससुराल का भय कि कहीं कुछ गलत हो गया तो मायके को ताने दिए जाएंगे. मायके में जैसा चाहे बना दो चल जाएगा पर ससुराल में तौबा. वैसे भी ‘फर्स्ट इंप्रैशन इज द लास्ट इंप्रैशन’ होता है. नेहा जैसी घबराहट हर नई दुलहन के मन में होती है. आइए, जानें नई दुलहन रसोई में कैसे जमाए अपने कदम.

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दुलहन की जिम्मेदारी

अगर नईनवेली दुलहन पहले से ही अपनी ससुराल की पसंद/नापसंद को समझ ले कि उन्हें वहां वालों को खाने में क्या अच्छा लगता है तो उसे नई रसोई में काम करने और परिवार वालों का दिल जीतने में आसानी होगी. पहले दिन रसोई में जाने से पहले अपनी सास से पूरा सहयोग लें, चाहे आप कितनी भी ऐक्सपर्ट क्यों न हों. इस से आप की इमेज अच्छी बहू की बनेगी. अपना अधिकार जमाना न शुरू कर दें क्योंकि जो सास सालों से रसोई संभाल रही है उसे बुरा लग सकता है. खुद को संयम में रखें. ज्यादा जल्दबाजी न करें. कोई चीज बनानी नहीं आती तो पूछने में कोई बुराई नहीं है. रसोई में अपनी ही न चलाएं कि हमारे मायके में तो ऐसे बनता है क्योंकि ससुराल और मायके की स्थिति व खानपान में अंतर हो सकता है. अपनी पसंद को ससुराल वालों पर न थोपें क्योंकि सब की अपनी पसंद होती है. आप सब की पसंद और रुचि के अनुसार काम करेंगी तभी आप परफैक्ट बहू बनेंगी.

सास का कर्तव्य

सास नईनवेली दुलहन के आते ही उस पर रसोई का पूरा भार न छोड़ें. उसे कुछ दिन ससुराल के नियमकायदों को समझने का समय दें. रसोई के पहले दिन दुलहन को पूरा सहयोग दें क्योंकि नए वातावरण में वह इतनी घबराई हुई होती है कि सही चीजें भी उस से गलत हो जाती हैं. सास अगर खाना बनाने में ऐक्सपर्ट हैं तो जरूरी नहीं कि आने वाली बहू भी ऐक्सपर्ट होगी. उस से ज्यादा अपेक्षाएं न रखें. अगर खाना बनाने में नई?दुलहन से कोई गलती हो जाए तो उसे प्यार से समझाएं. घर के लोगों की पसंदनापसंद के बारे में आप उसे सही ढंग से बता सकती हैं. धीरेधीरे उसे रसोई की जिम्मेदारी दें और उस की प्रशंसा भी करती रहें.

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रसोई में पौलिटिक्स

व्यस्ततम जीवनशैली में स्त्री का कार्यक्षेत्र सिर्फ घर और रसोई ही नहीं रह गया है. उस ने घर से बाहर की दुनिया में कदम रख कर अपनी जिम्मेदारी बढ़ा ली है. वह घर पर काम करती है, बाहर भी करती है, इसलिए वह थकती भी है पर इस पर ज्यादा सोचा नहीं जाता बल्कि तरहतरह की किचन पौलिटिक्स की जाती है.आजकल हर क्षेत्र में होती पौलिटिक्स ने रसोई को भी अछूता नहीं रखा है. पहले यह पौलिटिक्स टीवी सीरियलों तक सीमित थी लेकिन अब तो तकरीबन हर रसोई में पौलिटिक्स की घुसपैठ हो चुकी है. रसोई ऐसी जगह है जहां तूतू-मैंमैं होना स्वाभाविक है. सब अपने काम को रफैक्ट मानते हैं, जिस की वजह से गुपचुप बातें शेयर करने का यह अड्डा कभीकभी युद्ध का मैदान भी बन जाता है.

सास को लगता है कि वे वर्षों से रसोई संभाल रही हैं, इसलिए उन का काम करने का तरीका सही है. रसोई में सब उन के अनुसार काम करें. उधर आज के जमाने की बहू को लगता है कि रसोई ‘टू मिनट कौंसैप्ट’ पर आधारित होनी चाहिए ताकि काम फटाफट निबट जाए.  कुछ बहुएं रसोई में सास की दखलंदाजी पसंद नहीं करती हैं और अगर इन के बीच नौकरानी का भी पार्टिसिपेशन हो जाए तो इन तीनों के बीच शीतयुद्ध हो जाता है. इस बारे में दिल्ली की 52 वर्षीय मोहिनी कहती हैं, ‘‘मेरी बहू रसोई में मुझ से ज्यादा स्पेस नौकरानी को देती है, जिस की वजह से नौकरानी मेरी कोई बात नहीं सुनती. अगर मैं उस से कुछ करने के लिए कहती हूं तो उलटा मुझे कहती है कि मेमसाहब ने ऐसा करने से मना किया है इसीलिए मैं नहीं कर सकती. यह सुन कर मुझे बहुत गुस्सा आता है और मैं अपनी बहू व कामवाली दोनों को भलाबुरा सुनाने लगती हूं.’’

खटपट की वजह

रसोई में खटपट होने की कई वजहें हो सकती हैं. कुछ खास संभावित वजहें ये हैं: 

स्वाद को ले कर :

सासबहू के बीच नोकझोंक इसलिए होती है क्योंकि सास को बहू का एक्सपैरिमैंट पसंद नहीं आता है. वह चाहती है कि बहू उन्हीं की तरह पारंपरिक खाना बनाए, मार्केट की रेडीमेड चीजों का कम प्रयोग करें.

पैक्डफूड को ले कर :

नए जमाने की बहू खाने के लिए पैक्डफूड का ज्यादा इस्तेमाल करती है. उसे लगता है कि पैक्डफूड से जब खाना मिनटों में तैयार हो जाता है तो कौन इतनी मेहनत करे. जबकि सास को लगता है कि खुद से बनाए खाने में जो स्वाद है वह पैक्डफूड में कहां. और इस बात को ले कर सासूमां अपनी बहू को ताने मारती हैं.

रसोई अव्यवस्थित होने पर :

रसोई जरा सी भी गंदी हो या जिस तरह से सजाई गई है, उस में थोड़ी सी भी छेड़छाड़ होने पर दोनों के बीच नोकझोंक हो ही जाती है.

समय का ध्यान नहीं रखने पर :

अगर किसी दिन बहू खाना बनाने में थोड़ा लेट हो जाती है तो सासूमां उसे ताना मारने में जरा भी देर नहीं करतीं.

मां के हाथ का खाना

स्त्रियों में यह वाक्य ‘मां के हाथों का खाना’ गर्व का कारण नहीं बनता. दरअसल, मां जितने प्यार व अपनत्व से बच्चों के लिए पोषण का ध्यान रख कर खाना बनाती हैं लोग पत्नी से भी वही भाव चाहते हैं. पत्नी उस भाव को लाने के बजाय मां यानी सास के हाथ के खाने की तारीफ से हटाने के लिए सास को ही रसोई से हटाने की भरसक चेष्टा करती है. उसे लगता है कि जब तक सास खाना बनाती रहेंगी, उस के खाने की कोई पूछ नहीं रहेगी. 

एक मनोविज्ञानी का कहना है कि मां व बहन का खाना दिलोदिमाग में बसा रहता है क्योंकि किसी के भी जीवन में पत्नी या भाभी आदि का प्रवेश देर से होता है. इसलिए स्त्रियों को घर की महिलाओं का अनुकरण कर के सीखने में रुचि रखनी चाहिए न कि घुटघुट कर जीने या दूसरों के बनाए खाने में नुक्ताचीनी करने में.

एक कहावत है कि जब चार बरतन होंगे तो टकराएंगे जरूर लेकिन थोड़ी सी समझदारी और आपसी सूझबूझ से रिश्तों को मधुर बनाए रखा जा सकता है.

प्यार से सुलझाएं रिश्तों को

पारिवारिक रिश्ते नाजुक डोर से बंधे होते हैं. इस में हर छोटी बात दिल पर लग जाती है. अगर कभी रसोई की किसी बात को ले कर आप दोनों के बीच मनमुटाव हो भी जाता है तो रसोई की खटपट का असर अपने रिश्ते पर न पड़ने दें. रसोई से बाहर निकलते ही उस बात को भूल जाएं.

तूतू-मैंमैं करने के बजाय रिश्तों को मजबूत बनाने की कोशिश करें. बहू को चाहिए कि वह सास के साथ मिल कर ही रसोई को मैनेज करे. वहीं, सास को चाहिए कि वे हमेशा बहू के कामों में नुक्स निकालने के बजाय उस की मदद करें और खुद नईनई, आधुनिक चीजों को सीखने की कोशिश करें ताकि आप आधुनिक सास के साथ परफैक्ट कुक भी बन जाएं.

– रेखा व्यास के साथ एनी और आभा

एंटी कैंसर थेरैपी में देरी ठीक नहीं

स्वास्थ्य एंटी कैंसर थेरैपी में देरी ठीक नहीं द्य डा. सुमन एस कारंथ कोविड-19 के चलते कैंसर के इलाज में देरी से कैंसर मरीजों पर होते दुष्प्रभाव और भविष्य में कैसे उन के हितों को सुनिश्चित किया जाना चाहिए, आइए जानें. कोरोना महामारी के दौरान संक्रमण के डर से अस्पतालों में इलाज के लिए जाने वाले मरीजों की संख्या काफी गिर गई थी. मरीजों के सीधे संपर्क में आने के बजाय दुनियाभर में डाक्टरों ने टैलीफोन या वीडियो कंसल्टेशन को प्राथमिकता दी और खासतौर से फौलोअप के मामलों में तो इसी विकल्प को ज्यादा अपनाया गया.

बेशक, कुछ उपचारों के मामले में मामूली देरी चलती है लेकिन केवल कुछ समय के लिए ही ऐसा करना उचित है. कैंसर जैसे रोगों के मामलों में तत्काल उपचार की जरूरत होती है. लेकिन देखने में आया कि टैलीमैडिसिन की सुविधा के बावजूद आबादी के एक बड़े हिस्से ने इस विकल्प को ठीक से नहीं अपनाया. मरीजों ने अपनेआप ही डाक्टर से परामर्श लेना बंद कर दिया. यूरोपियन सोसाइटी औफ मैडिकल ओंकोलौजी की एक अग्रणी जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि मरीजों को अपनी एंटी कैंसर थेरैपी में किसी प्रकार की देरी नहीं करनी चाहिए.

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इस में यह भी स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कैंसरग्रस्त रोगियों के कोविड-19 संक्रमण का शिकार होने की आशंका भी काफी अधिक रहती है. इस की वजह से मरीज के इलाज पर बुरा असर पड़ता है और वह अपने इलाज में देरी कर सकता है जोकि सही नहीं है. मरीजों के उपचार के मामले में कुछ उपायों का पालन किया जा सकता है ताकि संक्रमण के जोखिम और इलाज में देरी से बचा जा सके. ओंकोलौजिस्टों के लिए भी यह जरूरी है कि वे मरीजों को अधिक जोखिमग्रस्त, मध्यम दर्जे के जोखिम या कम प्राथमिकता जैसे समूहों में बांटें जिस से अधिक गंभीर रोगियों की एंटी कैंसर थेरैपी शुरू की जा सके. जब भी लोकल ट्रीटमैंट के तौर पर सर्जरी या रेडिएशन की आवश्यकता हो, उपचार स्थगित करने के बजाय जोखिम अनुपात पर विचार करना चाहिए ताकि मरीज के जीवन पर इस के प्रभाव का आकलन हो सके.

इसी तरह हाई रिस्क मरीजों के मामले में सहायक थेरैपी दी जा सकती है ताकि उन्हें अधिकतम लाभ मिल सके. यदि ओरल कीमोथेरैपी का विकल्प हो तो अस्थायी तौर पर ही सही इसे अपनाना चाहिए जोकि जोखिम के आकलन के बाद हो सकता है. पैलिएटिव कीमोथेरैपी प्राप्त करने वाले मरीजों को कीमोथेरैपी के बीच के अंतराल में अतिरिक्त ड्रग फौलीडे गैप्सन दिए जा सकते हैं. इसी तरह कम अवधि के कीमोथेरैपी या रेडिएशन शैड्यूल भी चुने जा सकते हैं जोकि इस पर निर्भर होगा कि मरीज की बीमारी किस चरण में है. मरीजों को भी संक्रमण का खतरा कम करने के लिए कुछ उपायों का पालन करना चाहिए. डाक्टरों से रूटीन कंसल्टेनशन और चैकअप के लिए जितना संभव हो, टैलीमैडिसिन सुविधा का लाभ उठाएं. अस्पताल उसी स्थिति में जाएं जबकि शारीरिक जांच आवश्यक हो.

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यदि अस्पताल जाना जरूरी हो तो अपने डाक्टर से पहले ही अपौइंटमैंट लें ताकि ओपीडी में इंतजार से बचा जा सके. बुखार से पीडि़त मरीजों को मेन ओपीडी एरिया में आने से बचना चाहिए ताकि दूसरे लोगों को संक्रमण का खतरा न हो. अतिरिक्त लक्षणों, जैसे सांस फूलना, कमजोरी आदि की भी उन की जांच की जानी चाहिए ताकि कीमोथेरैपी की वजह से पैदा होने वाले फिब्रिल न्यू ट्रोपिनिया और कोविड संक्रमण के बीच फर्क किया जा सके. अब कोविड वैक्सीनेशन की प्रक्रिया शुरू होने के बाद अमेरिका सरीखे कई देशों ने हैल्थकेयर प्रोफैशनल्सी के बाद कैंसर मरीजों को प्राथमिकता सूची में रखा है.

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वैक्सीनेशन की प्रक्रिया सुरक्षित है और यह मरीजों को कैंसर उपचार के क्रोनिक चरण में सुरक्षा प्रदान करती है. अलबत्ता, ऐक्टिव एंटी कैंसर थेरैपी ले रहे मरीजों पर वैक्सीनेशन के प्रभावों का आकलन अभी किया जाना बाकी है ताकि यह पता चल सके कि इस के विपरीत असर होते हैं या यह कम प्रभावी है. कुल मिला कर, यह स्पष्ट है कि कैंसर एक प्रकार का विषम रोग है और आप के ओंकोलौजिस्ट के साथ सलाहमशवरा के आधार पर ही कोई फैसला इलाज के बारे में लेना चाहिए ताकि कोविड महामारी के दौर में सुरक्षित और कारगर एंटी कैंसर उपचार सुनिश्चित किया जा सके.  (लेखक फोर्टिस मैमोरियल रिसर्च इंस्टिट्यूट, गुरुग्राम के डिपार्टमैंट औफ मैडिकल ओंकोलौजी एंड हिमेटोलौजी में कंसल्टैंट पद पर सेवारत हैं.)

परिवर्तन की आंधी

लेखक- डा. रमेश यादव

“मुन्ना के पापा सुनो तो, आज मुन्ना नया घर तलाशने की बात कर रहा था. वह काफी परेशान लग रहा था. मुझ से बोला कि मैं आप से बात कर लूं.”

“मगर, मुझ से तो वह कुछ नहीं बोला. बात क्या है मुन्ने की अम्मां? खुल कर बोलो. कई वर्षों से बिल्डिंग को ले कर समिति, किराएदार, मालिक और हाउसिंग बोर्ड के बीच लगातार मीटिंग चल रही है. ये तो मैं जानता हूं, पर आखिर में फैसला क्या हुआ?”

“वह कह रहा था कि हमारी बिल्डिंग अब बहुत पुरानी और जर्जर हो चुकी है, इसलिए बरसात के पहले सभी किराएदारों को घर खाली करने होंगे. सरकार की नई योजना के अनुसार इसे फिर से बनाया जाएगा. पर तब तक सब को अपनीअपनी छत का इंतजाम खुद करना होगा. वह कुछ रुपयों की बात कर रहा था. जल्दी में था, इसलिए आप से मिले बिना ही चला गया.”

गंगाप्रसाद तिवारी अब गहरी सोच में डूब गए. इतने बड़े शहर में बड़ी मुश्किल से घरपरिवार का किसी तरह से गुजारा हो रहा था. बुढ़ापे के कारण उन की अपनी नौकरी भी अब नहीं रही. ऐसे में नए सिर से फिर से नया मकान ढूंढ़ना, उस का किराया देना, नाको चने चबाने जैसा है. गैलरी में कुरसी पर बैठेबैठे तिवारीजी शून्य में खो गए थे. उन की आंखों के सामने तीस साल पहले का वह मंजर किसी चलचित्र की तरह चलने लगा.

‘दो छोटेछोटे बच्चे और मुन्ने की मां को ले कर जब वे पहली बार इस शहर में आए थे, तब यह शहर अजनबी सा लग रहा था. पर समय के साथ वे यहीं के हो कर रह गए.

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‘सेठ किलाचंदजी एंड कंपनी में मुनीमजी की नौकरी, छोटा सा औफिस, एक टेबल और कुरसी. मगर व्यापार करोड़ों का था, जिस का मैं एकछत्र सेनापति था. सेठजी की ही मेहरबानी थी कि उस कठिन दौर में बड़ी मुश्किल से लाखों की पगड़ी का जुगाड़ कर पाया और अपने परिवार के लिए एक छोटा सा आशियाना बना पाया, जो ऊबदार घर कब बन गया, पता ही नहीं चला. दिनभर की थकान मिटाने के लिए अपने हक की छोटी सी जमीन, जहां सुकून से रात गुजर जाती थी और सुबह होते ही फिर वही रोज की आपाधापी भरी तेज रफ्तार वाली शहर की जिंदगी.

‘पहली बार मुन्ने की मां जब गांव से निकल कर ट्रेन में बैठी, तो उसे सबकुछ अविश्वसनीय सा लग रहा था. दो रात का सफर करते हुए उसे लगा, जैसे वह विदेश जा रही हो. धीरे से वह कान में फुसफुसाई, “अजी, इस से तो अच्छा अपना गांव था. सभी अपने थे वहां. यहां तो ऐसा लगता है जैसे हम किसी पराए देश में आ गए हों? कैसे गुजारा होगा यहां?”

“चिंता मत करो मुन्ने की अम्मां, सब ठीक हो जाएगा. जब तक मन करेगा यहां रहेंगे और जब घुटन होने लगेगी तो गांव लौट जाएंगे. गांव का घर, खेत, खलिहान इत्यादि सब है. अपने बड़े भाई के जिम्मे सौंप कर आया हूं. बड़ा भाई पिता समान होता है.”

इन तीस सालों में इस अजनबी शहर में हम ऐसे रचबस गए, मानो यही अपनी तपस्वी कर्मभूमि है. आज मुन्ने की मां भी गांव में जा कर बसने का नाम नहीं लेती. उसे इस शहर से प्यार हो गया है. उसे ही क्यों, खुद मेरे और दोनों बच्चों के रोमरोम में यह शहर बस गया है. माना कि अब मैं थक चुका हूं, मगर अब बच्चों की पढ़ाई पूरी हो गई है. उन्हें ढंग की नौकरी मिल जाएगी तो उन के हाथ पीले कर दूंगा और जिंदगी की गाड़ी फिर से पटरी पर अपनी रफ्तार से दौड़ने लगेगी. अचानक किसी की आवाज ने तिवारीजी की तंद्रा भंग की. देखा तो सामने मुन्ने की मां थी.

“अजी किस सोच में डूबे हो? सुबह से दोपहर हो गई. चलो, अब भोजन कर लो. मुन्ना भी आ गया है. उस से पूरी बात कर लो और सब लोग मिल कर सोचो कि आगे क्या करना है ? आखिर कोई समाधान तो निकालना ही पड़ेगा.”

भोजन के बाद तिवारीजी का पूरा परिवार एकसाथ बैठ कर विमर्श करने लगा. मुन्ने ने बताया, “पापा, हमारी बिल्डिंग का हाउसिंग बोर्ड द्वारा रिडेवलपमेंट किया जा रहा है. सबकुछ अब फाइनल हो गया है. एग्रीमेंट के मुताबिक हमें मालिकाना अधिकार का 250 स्क्वेयर फीट का फ्लैट मुफ्त में मिलेगा. मगर वह काफी छोटा पड़ेगा. इसलिए यदि कोई अलग से या मौजूदा कमरे से जोड़ कर एक और कमरा लेना चाहता हो, तो उसे एक्स्ट्रा कमरा मिलेगा, पर उस के लिए बाजार भाव से दाम देना होगा.”

”ठीक कहते हो मुन्ना, मुझे तो लगता है कि यदि हम गांव की कुछ जमीन बेच दें तो हमारा मसला हल हो जाएगा और एक कमरा अलग से मिल जाएगा. अधिक रुपयों का इंतजाम हो जाए तो यह बिलकुल संभव है कि हम अपना एक और फ्लैट खरीद लेंगे.” तिवारीजी बोले.

बरसात से पहले तिवारीजी ने सरकारी डेवलपमेंट बोर्ड को अपना रूम सौंप दिया और पूरे परिवार के साथ अपने गांव आ गए.

गांव में प्रारंभ के दिनों में बड़े भाई और भाभी ने उन की काफी आवभगत की, पर जब उन्हें पूरी योजना के बारे में पता चला तो वे लोग पल्ला झाड़ने लगे. यह बात गंगाप्रसाद तिवारी की समझ में नहीं आ रही थी. उन्हें कुछ शक हुआ. धीरेधीरे उन्होंने अपनी जगह जमीन की खोजबीन शुरू की. हकीकत का पता चलते ही उन के पैरों तले की जमीन ही सरक गई, मानो उन पर आसमान टूट पड़ा हो.

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“अजी क्या बात हैं? खुल कर बताते क्यों नहीं, दिनभर घुटते रहते हो? यदि जेठजी को हमारा यहां रहना भारी लग रहा है, तो वे हमारे हिस्से का घर, खेत और खलिहान हमें सौंप दें, हम खुद अपना बनाखा लेंगे.”

“धीरे बोलो भाग्यवान, अब यहां हमारा गुजारा नहीं हो पाएगा. हमारे साथ धोखा हुआ है. हमारे हिस्से की सारी जमीनजायदाद उस कमीने भाई ने जालसाजी से अपने नाम कर ली है. झूठे कागजात बना कर उस ने दिखाया है कि मैं ने अपने हिस्से की सारी जमीनजायदाद उसे बेच दी है. हम बरबाद हो गए मुन्ने की अम्मां… अब तो एक पल के लिए भी यहां कोई ठौरठिकाना नहीं है. हम से सब से बड़ी भूल यह हुई कि साल दो साल में एकाध बार यहां आ कर अपनी जमीनजायदाद की कोई खोजखबर नहीं ली.”

“अरे दैय्या, ये तो घात हो गया. अब हम कहां रहेंगे? कौन देगा हमें सहारा? कहां जाएंगे हम अपने इन दोनों बच्चों को ले कर? बच्चों को इस बात की भनक लग जाएगी तो बड़ा अनर्थ हो जाएगा,” विलाप कर के मुन्ने की मां रोने लगी. पूरा परिवार शोक में डूब गया. न चाहते हुए भी तिवारीजी के मन में घुमड़ती पीड़ा की गठरी आखिर खुल ही गई थी.

इस के बाद तिवारी परिवार में कई दिनों तक वादविवाद, विमर्श होता रहा. सुकून की रोटी जैसे उन के नसीब की परीक्षा ले रही थी.

अपने ही गांवघर में अब गंगाप्रसादजी का परिवार बेगाना हो चुका था. उन्हें कोई सहारा नहीं दे रहा था. वे लोग जान चुके थे कि उन्हें लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी होगी. पर इस समय गुजरबसर के लिए छोटी सी झुग्गी भी उन के पास नहीं थी. गांव की जमीन के हिस्से की पावर औफ एटोर्नी बड़े भाई को दे कर उन्होंने बहुत बड़ी भूल की थी. उसी के चलते आज वे दरदर की ठोकरें खाने के लिए मजबूर थे.

उसी गांव में मधुकर चौहान नामक संपन्न दलित परिवार था. गांव में उन की अपनी बड़ी सी किराने की दुकान थी. बड़ा बेटा रामकुमार पढ़ालिखा और आधुनिक खयालात का था. जब उसे छोटे तिवारीजी के परिवार पर हो रहे अन्याय के बारे में पता चला तो उस का खून खौल उठा, पर वह मजबूर था. गांव में जातिबिरादरी की राजनीति से वह पूरी तरह परिचित था. एक ब्राह्मण परिवार को मदद करने का मतलब, अपनी बिरादरी से रोष लेना था. पर दूसरी तरफ उसे शहर से आए उस परिवार के प्रति लगाव भी था.

उस दिन घर में उस के पिताजी ने तिवारीजी को ले कर बात छेड़ी, “जानते हो तुम लोग, हम वही दलित परिवार हैं, जिस के पुरखे किसी जमाने में उसी तिवारीजी के यहां पुश्तों से हरवाही किया करते थे. तिवारीजी के दादाजी बड़े भले इनसान थे. जब हमारा परिवार रोटी के लिए मुहताज था, तब इस तिवारीजी के दादाजी ने आगे बढ़ कर हमें गुलामी की दास्तां से मुक्ति दे कर अपने पैरों पर खड़े होने का हौसला दिया था. उस अन्नदाता परिवार के एक सदस्य पर आज विपदा की घड़ी आई है. ऐसे में मुझे लगता है कि हमें उन के लिए कुछ करना चाहिए. आज उसी परिवार की बदौलत गांव में हमारी दुकान है और हम सुखी हैं.”

”हां बाबूजी, हमें सच का साथ देना चाहिए. मैं ने सुना है कि बैंकों के राष्ट्रीयकरण के बाद जब बैंक के दरवाजे सामान्य लोगों के लिए खुले, तब बड़े तिवारीजी ने हमें राह दिखाई थी. यह उसी परिवर्तन के दौर का नतीजा है कि कभी दूसरों के टुकड़ों पर पलने वाला गांव का यह दलित परिवार आज संपन्न परिवार में गिना जाता है और शान से रहता है,” रामकुमार ने अपनी जोरदार हुंकारी भरी.

रामकुमार ताल ठोंक कर अब छोटे तिवारीजी के साथ खड़ा हो गया था. काफी सोचसमझ कर चौहान परिवार ने छोटे तिवारीजी से गहन विचारविमर्श किया.

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“हम आप को दुकान खुलवाने और सिर पर छत के लिए जगह, जमीन, पैसा इत्यादि की हर संभव मदद करने को तैयार हैं. आप अपने पैरों पर खड़े हो जाएंगे, तो यह लड़ाई आसान हो जाएगी. एक दिन आप को आप का हक जरूर मिलेगा.”

चौहान परिवार का भरोसा और साथ मिल जाने से तिवारी परिवार का हौसला बढ़ गया था. रामकुमार के सहारे अंकिता अपनी दुकानदारी को बखूबी संभालने लगी थी. इस से घर में पैसे आने लगे थे. धीरेधीरे उन के पंखों में बल आने लगा और वे अपने पैरों पर खड़े हो गए.

तिवारीजी की दुकानदारी का भार उन की बिटिया अंकिता के जिम्मे था, क्योंकि तिवारीजी और उन का बड़ा बेटा अकसर कोर्टकचहरी और शहर के फ्लैट के काम में व्यस्त रहते थे.

इस घटना से गांव के ब्राह्मण घरों में जातिबिरादरी की राजनीति जन्म लेने लगी. कुंठित दलित बिरादरी के लोग भी रामकुमार और अंकिता को ले कर साजिश रचने लगे. चारों ओर तरहतरह की अफवाहें रंग लेने लगीं, पर बापबेटे ने पूरे गांव को खरीखोटी सुनाते हुए अपने हक की लड़ाई जारी रखी. इस काम में रामकुमार तन, मन और धन से उन के साथ था. उस ने जिले के नामचीन वकील से तिवारीजी की मुलाकात कराई और उस की सलाह पर ही पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई.

छोटीमोटी इस उड़ान को भरतेभरते अंकिता और रामकुमार कब एकदूसरे को दिल दे बैठे, इस का उन्हें पता ही नहीं चला. इस बात की भनक पूरे गांव को लग जाती है. लोग इस बेमेल प्यार को जाति का रंग दे कर तिवारी और चौहान परिवार को बदनाम करने की कोशिश करते हैं. इस काम में अंकिता के ताऊजी अग्रणी भर थे.

गंगाप्रसादजी के परिवार को जब इस बात की जानकारी होती है, तो वे राजीखुशी इस रिश्ते को स्वीकार कर लेते हैं. इतने वर्षों तक बड़े शहर में रहते हुए उन की सोच भी बड़ी हो चुकी होती है. जातिबिरादरी के बजाय सम्मान, इज्जत और इनसानियत को वे तवज्जुह देना जानते थे. जमाने के बदलते दस्तूर के साथ परिवर्तन की आंधी अब अपना रंग जमा चुकी थी.

अंकिता ने अपना निर्णय सुनाया, “बाबूजी, मैं रामकुमार से प्यार करती हूं और हम शादी के पवित्र बंधन में बंध कर अपनी नई राह बनाना चाहते हैं.”

“बेटी, हम तुम्हारे निर्णय का स्वागत करते हैं. हमें तुम पर पूरा भरोसा है. अपना भलाबुरा तुम अच्छी तरह जानती हो. चौहान परिवार के हम पर बड़े उपकार हैं.”

आखिर में चौहान और तिवारी परिवार आपसी रजामंदी से उसी गांव में विरोधियों की छाती पर मूंग दलते हुए अंकिता और रामकुमार की शादी बड़े धूमधाम से संपन्न करा दी.

एक दिन वह भी आया, जब गंगाप्रसादजी अपनी जमीनजायदाद की लड़ाई जीत गए और उन की खोई हुई संपत्ति उन्हें वापस मिल गई. जालसाजी के केस में उन के बड़े भाई को जेल जाने की नौबत आ गई.

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