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शाहिर शेख बने पिता: पत्नी रुचिका कपूर ने बेटी को दिया जन्म, फैंस दे रहे बधाई

टीवी स्टार शाहिर शेख इन दिनों सीरियल पवित्र रिश्ता 2.0 की शूटिंग में व्यस्त हैं. पवित्र रिश्ता के एक्टर के घर इस सीरियल के आने से पहले ही खुशियां दस्तक दे दी है. बीते दिन ही शाहिर शेख की पत्नी रुचिका ने एक बेटी को जन्म दिया है.

शाहिर शेख ने गणपति उत्सव के खास मौके पर अपने घर में बेटी का स्वागत किया है. एक रिपोर्ट में मिली जानकारी के अनुसार शाहिर शेख की पत्नी रुचिका कपूर और उनकी बेटी काफी ज्यादा स्वस्थ्य हैं. इस खास मौके पर शाहिर शेख अपनी पत्नी पर जमकर प्यार लुटाते नजर आएं. बता दें कि रुचिका कपूर और शाहिर शेख ने बीते साल नवंबर में शादी की थी.

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इसके साथ ही  हैं. शाहिर शेख की को स्टार अंकिता लोखंडे ने भी इस बात का खुलासा किया है कि पवित्र रिश्ता का काम खत्म होते ही वह अपने बॉयफ्रेंड से शादी करने वाली हैं, इंटरव्यू में शाहिर शेख ने इस बात की खुलासा किया था कि एक बार वह अंकिता को बोले कि कॉम ऑन अब बता ही दो कि शादी कब करने वाली हो तब अंकिता ने उन्हें हंसते हए जवाब देकर कहा था कि वह इस शो का काम निपटाने के तुरंत बाद शादी के बंंधन में बधेंगी.

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जिसके बाद से अंकिता शाहिर से थोड़ी नाराजगी भी दिखाई थीं, और कहा था कि अभी तो मुझे अपने प्रोजेक्ट पर काम करना है उसके बाद मैं शादी के बारे में सोचूंगी.

इससे पहले भी शाहिर शेख कई सारे सीरियल्स में शाहिर शेख नजर आ चुके हैं, लोगों नने खूब सारा प्यार दिया है.

द कपिल शर्मा शो : गोविंदा की पत्नी ने कृष्णा को लेकर तोड़ी चुप्पी, शो में कही ये बड़ी बात

कॉमे़डियन और एक्टर कृष्णा अभिषेक ने कुछ वक्त पहले यह बयान जारी करते हु कहा था कि कपिल शर्मा शो के अपकमिंग एपिसोड का हिस्सा नहीं होगें, दरअसल कृष्णा ने यह बात इसलिए कहा था क्योंकि अगले एपिसोड में गोविंदा और उनकी पत्नी सुनीता अहूजा आनेे वाले थें.

गौरतलब है की पिछले कुछ महीनों से गोविंदा और कृष्णा के परिवार में तनावपूर्ण माहौल चल रहा है. जिस वजह से कृष्णा इस शो का हिस्सा बनने से इंकार कर दिए. वहीं गोविंदा की पत्नी कृष्णा से इतनी ज्यादा नाराज हैं कि उन्होंने कहा है कि वह कभी भी कृष्णा का चेहरा नहीं देखेंगी.

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आगे सुनीता अहूजा ने कहा कि पिछले साल गोविंदा ने कहा था कि वह कभी भी पारिवारिक मुद्दों का पब्लिक तौर पर नहीं लाना चाहते हैं लेकिन अगर कोई भी उन्हें ज्यादा अंगूली करेगा तो उन्हें वह बर्दाश्त भी नहीं करेंगे. इस बात पर गोविंदा जैंटलमैन की तरह अड़े भी रहे लेकिन पत्नी सुनीता ने कृष्णा के बारे मं बुराई करने से पीछे नहीं हटी.

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अब यह पारिवारिक मुद्दा इतना ज्यादा बढ़ गया है कि इसे मिलकर हल करने की जरुरत है. आगे सुनीता ने कहा कि जब भी हम शो में आते हैं तो हमारे परिवार को लेकर मीडिया पब्लिसिटी लेने की हर कोशिश करती है जो मुझे बिल्कल भी पसंद नहीं है. इस बात पर गोविंदा भी रिएक्ट नहीं करते हैं. लेकिन यह सब चीजें मुझे परेशान करती है.

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इसके बगैर भी तो तुम्हारा शो हिट होता है तो इन सब बकवास चीजों की क्या जरुरत है. गोविंदा की पत्नी की बातों से साफ हो रहा था कि वह काफी ज्यादा नाराज है.

व्यंग्य: माधो! पग पग ठगों का डेरा

लेखक- अशोक गौतम

पता नहीं क्यों कई दिनों से दांत में दर्द हो रहा था. वायरस-फ्री पेस्ट तो दिन में चारचार बार करता रहा हूं. औफिस में खाना तो मैं ने उस दिन से ही त्यागपरित्याग दिया था जिस दिन सिर में पहला सफेद बाल दिखा था. हो सकता है पुराने खाए के चलते अब अंदर से कोई दांत सड़ रहा हो. पुरानी बीमारियां अकसर ईमानदार होने पर ही रंग दिखाती हैं. आजकल वैसे भी अंदर से ही सब सड़ा जा रहा है, क्या सिस्टम, क्या शरीर, बाहर से तो सब चकाचक है. इधरउधर से डैंटिस्ट के रिव्यू सुनने के बाद उन दंत चिकित्सकों के पास गया जिन के बारे में यह भी विख्यात था कि जो भी उन के पास अपने दांतों को ले कर एक बार गया वह दूसरी बार न गया. ‘‘क्या बात है?’’ ‘‘जी, दांत में दर्द है.’’ यह सुन उन्होंने अपने आगे मेरा मुंह खुलवाते कहा, ‘‘गुड, वैरी गुड, वैरीवैरी गुड. अच्छा तो अपना मुंह खोलो.’’ मेरे बहुत कोशिश करने के बाद भी जब उन के मनमाफिक मेरा मुंह न खुला तो वे डांटते बोले, ‘‘हद है यार, खुले मुंहों के दौर में ठीक ढंग से अपना मुंह भी नहीं खोल सकते, जबकि आज आदमी अपना मुंह सोएसोए भी खुला रखता है.’’

‘‘सर, विवाह से पहले मुंह खोलने की जो थोड़ीबहुत आदत थी, विवाह करने के बाद वह भी जाती रही. अब तो जबजब भी मुंह खोलने की कोशिश की, मुंह पर ही मुंह की खानी पड़ी. और अब हालात ये हैं कि महीनों बाद मुंह अभ्यास करने को खोल लिया करता हूं, एकांत में, ताकि कल को मुंह खुलना बिलकुल ही बंद न हो जाए या कि मुंह खोलना भूल ही न जाऊं.’’ पर आखिर वे भी वे थे. अपने हिसाब से मेरा मुंह खुलवा कर ही रहे. जब मेरा मुंह उन के आगे उन के हिसाब का खुल गया तो वे ज्ञान की टौर्च जला मेरे मुंह के भीतर झांकते मु झे दांत दर्द का ओरल समाधान और प्रायोगिक ज्ञान एकसाथ देते बोले, ‘‘डियर, आजकल दर्द कहां नहीं? आजकल दर्द किसे नहीं? यह संसार दर्द के सिवा और कुछ नहीं. इस लोक में दर्द ही शाश्वत है बाकी सब मिथ्या. ब्रह्मचर्य दर्द देता है, गृहस्थ दर्द देता, वानप्रस्थ दर्द देता है,

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और संन्यास तक तो कोई आज पहुंच ही नहीं पाता. ‘‘जो सरकार में हैं उन के भी दर्द हैं, जो सरकार से बाहर हैं उन के तो दर्द ही दर्द हैं, नख से ले कर शिख तक. वोटर से ले कर वेटर तक, हर जीव दर्द से दर्ददर्द चिल्ला रहा है. वे सुबह 10 बजे दर्द लिए उठते हैं और रात को 8 बजे दर्द में चिल्लातेचिल्लाते सो जाते हैं. सारा दिन टीवी के आगे बैठी बीवी सुबह से ले कर शाम तक दर्द से चीखचिल्लाए कराह रही है तो औफिस में उस का वर्कर वर्कलोड के दर्द से चीखचिल्लाए कराह रहा है पर सुनता कोई नहीं. ‘‘आज किसी के सिर में दर्द है तो किसी के पांव में. किसी के पेट में दर्द है तो किसी के दिल में. आजकल बंधु, हवा ही ऐसी चली है कि बंदों को चैन की सांस लेने में दर्द फील हो रहा है.’’ वे डिम टौर्च के प्रकाश से मेरे भीतर पचाने से अधिक ज्ञान का प्रकाश डालते मुंह खुलवाए रखे और बोलते खुद रहे, ‘‘पर याद रहे, आदमी के इसी दर्द का फायदा उठाने को इस दर्द से नजात दिलवाने के लिए आज पगपग पर ठग डेरा सजाए बैठे हैं. धर्म की आड़ में संत ठग रहे हैं तो लोकहित की आड़ में श्रीमंत.

‘‘इधर पकी फसल काटने के नेक इरादे लिए सरकार के शोध संस्थान की मारफत अपना शुद्धीकरण करवा सरकार में आए फसल बटोरने वाले ठग सरकार को ठग रहे हैं तो उधर नंगेपांव सरकार के साथ चले वर्करों को सरकार ठग रही है. कोई दर्द की आड़ में दर्दपीडि़त को ठग रहा है तो कोई मर्ज की आड़ में मर्जपीडि़त को. कोई रोटी की आड़ में भूखे को ठग रहा है तो कोई लंगोटी की आड़ में नंगे को. ‘‘कहीं प्रिय शिष्य की आड़ में ठग आदर्श गुरु को ठग रहा है तो कहीं आदर्श गुरु की आड़ में गुरुकंटाल भोले शिष्य को ठग रहा है. कहीं ठग घनिष्ठ बन ठग को ठग रहा है तो कहीं ठग को घनिष्ठ बना ठगों द्वारा ठगा जा रहा है. कुल मिला कर यह संसार ठगी के अड्डे के अतिरिक्त और कुछ नहीं. ‘‘डियर, दर्द और मर्ज से छुटकारा पाने का लोभ दे भलेचंगे से भलेचंगे, सुखी से सुखी जीव को जितनी सहजता से ठगा जा सकता है उतनी सहजता से स्वर्ग का लोभ दे कर भी नहीं. बिन मेहनत किए बैकुंठ की कामना करने वाला एक यह सुखप्रिय प्राणी है कि स्वयंजनित सौ विध तापों से नजात पाने के चक्कर में ठगों द्वारा कदमकदम पर सप्रेम, सादर, सानुनय ठगा जा रहा है.

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‘‘अब दांत के दर्द को मारो गोली. चक्षु हो तो देखो, सड़क से ले कर संसद तक ठग ही ठग बैठे लेटे हैं, शिकार का इंतजार करते. इसलिए जिंदगी में किसी और से सावधान रहना या न, पर ऐसे ठगों से सावधान जरूर रहना.’’ यह कह उन्होंने मेरे मुंह में घुसाई ज्ञान की टौर्च बाहर निकाली तो मुंह अपनी पोजिशन में आने लगा धीरेधीरे. मत पूछो, मु झे उस वक्त मुंह खोलने में कितनी तकलीफ हुई थी, इतनी कि तब मैं दांत का दर्द तक भूल गया था. उन्होंने ज्ञान की टौर्च औफ कर फाइनली कहा, ‘‘अब एक संवैधानिक सलाह देता हूं, केवल 500 रुपए फीस में. किसी ऐरेगैरे के आगे कभी दांत दिखाने को मुंह मत खोलना. वह मुंह खुलवाने की चाहे जितनी भी कोशिश क्यों न करे, दांत कुछ और दिन चलाने हों तो.’’ सच कहूं, जब मैं ने दांत के दर्द को गोली मार उन को गौर से देखा तो उस वक्त वे मु झे डाक्टर कम किसी चर्च के पादरी अधिक लगे.

और फिर कातिल भाव से मेरी जेब को निहारते चुप हो गए तो मैं ने िझ झकते िझ झकते अपनी जेब से खुशीखुशी उन को 500 रुपए का नोट मुसकराते हुए थमाया और खुशीखुशी घर आ गया. यह सोच कर कि चलो, दांतदर्द के लिए कम से कम कोई दवाई तो न लिखवानीखानी पड़ी. वरना आजकल तो दवा के नाम पर मरीज को पता नहीं क्याक्या खिलायापिलाया जा रहा है.

अब लक्षद्वीप को डुबोने की तैयारी

‘‘बचपन में मेरी नानी मु झे बताती थी कि हम लोग मूंगे की चट्टानों पर बसे हैं. मूंगा जो हमारे द्वीप की मिट्टी के नीचे है और पूरे द्वीप को अपने ऊपर संभाले हुए है. नानी कहती थी कि जिस दिन मूंगा नहीं रहेगा, उस दिन हम भी नहीं रहेंगे. मूंगे की इन मजबूत चट्टानों से ही लक्षद्वीप का पूरा ईकोसिस्टम (पारिस्थितिकी तंत्र) बना है. नानी की बातें अब मु झे डराती हैं क्योंकि मूंगा धीरेधीरे खत्म हो रहा है. मूंगे से बनी प्रवाल भित्तियां (कोरल रीफ) सिकुड़ रही हैं. ‘‘मु झे याद है, मेरे बचपन में मूंगे के छोटेबड़े टुकड़े जब बह कर किनारे पर आते थे तो हम दोनों भाई उन्हें घर की दीवारें बनाने के लिए इकट्ठा करते थे. उन को कूट कर उसी मिट्टी से घर बनाते थे. अब्बा बड़ी सी नाव में मछलियां पकड़ते थे. कभीकभी वे मु झे अपने साथ ले जाते थे. जिस दिन टूना मछली फंस गई वह दिन अब्बा अपना लकी डे मानते थे. क्योंकि टूना बड़ी मछली है और काफी महंगी बिकती है.

मछली पकड़ना हमारा पारिवारिक पेशा है. हम 2 भाई उच्च शिक्षा ले कर बाहर निकल आए, सरकारी नौकरियों में लग गए मगर परिवार के बाकी सदस्य अभी भी लक्षद्वीप में बितरा द्वीप पर ही रहते हैं.’’ दिल्ली के लक्षद्वीप भवन में ठहरे अमानत खादर लक्षद्वीप के बारे में यों बताते हैं. अमानत केरल में नौकरी करते हैं और काम के सिलसिले में दिल्ली आते रहते हैं. यहां वे अधिकतर लक्षद्वीप भवन में ही ठहरते हैं. लक्षद्वीप के बारे में उन से बातचीत में वे लक्षद्वीप के वर्तमान प्रशासक प्रफुल्ल खोड़ा पटेल के रवैए व उन के कार्यों से नाराज दिखते हैं. उन का कहना है, ‘‘विकास के नाम पर इस समय जो कुछ लक्षद्वीप में हो रहा है वह पूरे द्वीप को बरबाद कर देगा.’’ अमानत आगे कहते हैं, ‘‘सरकार लक्षद्वीप को पर्यटन स्थल के तौर पर विकसित करना चाहती है, मगर वहां के ईकोसिस्टम की सम झ किसी को नहीं है. वहां की परिस्थितियों को सम झे बगैर, वहां के लोगों को विश्वास में लिए बगैर, आप निर्माण कार्य कैसे कर सकते हैं? ‘‘सौंदर्यीकरण के नाम पर मूंगे की चट्टानों को तोड़ा जाएगा.

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उस में सुराख किए जाएंगे. जलमहल बनाए जाएंगे. यह तो पूरे द्वीप को समुद्र में डुबो देगा. ये चट्टानें ही इस द्वीप को समुद्र की ताकतवर लहरों व तूफानों से बचाती हैं. अगर ये दरक गईं तो पूरा द्वीप समुद्र में समा जाएगा. फिर सरकार को वहां के निवासियों और उन के व्यवसाय के बारे में भी सोचना चाहिए. सौंदर्यीकरण और स्वच्छता के नाम पर समुद्र किनारे से हमारे शेड, नावें, मछलियां सुखाने की जगह खाली कराई जाएगी. सड़कें और पार्क बनाने के नाम पर हमारी जमीनें छीनी जाएंगी. जब वहां के निवासियों की रोजीरोटी, जमीन, व्यवसाय सब छिन जाएगा तो वे क्या करेंगे? कहां जाएंगे?’’ मूंगा जो लक्षद्वीप की कहानियों, कल्पनाओं, जीवन, आजीविकाओं और पारिस्थितिक तंत्र का केंद्र है, धीरेधीरे समाप्त हो रहा है. इस के कारण लक्षद्वीप के ईकोसिस्टम में आ रहे परिवर्तनों को यहां के मछुआरे दशकों से देख रहे हैं. अनेक वैज्ञानिक यहां मूंगे की चट्टानों और इस से जुड़े पर्यावरण पर शोध कर रहे हैं. जलवायु परिवर्तन के चलते बीते 2 दशकों में लक्षद्वीप के समुद्र में मछलियों की संख्या में आश्चर्यजनक रूप में कमी आई है. अब यहां मछुआरों को अपनी नावें ले कर समुद में दूरदूर तक मछली की तलाश में जाना पड़ता है. अमानत बताते हैं, ‘‘मछलियों की तलाश में लोग कईकई दिनों तक गायब रहते हैं, कभीकभी हफ्तों तक क्योंकि मूंगे की चट्टानें, जिन में चारा मछलियां पलती थीं और बड़ी मछलियां उन की तलाश में द्वीप के आसपास ही जमा रहती थीं, अब गायब हो रही हैं. वजह है जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र के व्यवहार में परिवर्तन और इस से मूंगे की चट्टानों का लगातार टूटना व नष्ट होना.

’’ शांत और सुरम्य द्वीप पर अशांति के बादल अरब सागर में स्थित भारत का सब से छोटा केंद्रशासित प्रदेश लक्षद्वीप 36 द्वीपों का एक समूह है. यह भारत के तटीय शहर कोच्चि से करीब 220-440 किलोमीटर की दूरी पर है और कुल 32 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला है. इस में 12 एटोल, 3 रीफ, 5 जलमग्न बैंक और 10 बसे हुए द्वीप हैं. लक्षद्वीप की राजधानी कवरत्ती है. यह द्वीपसमूह केरल उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आता है. 2011 की भारतीय जनगणना के अनुसार लक्षद्वीप की कुल जनसंख्या 64,473 थी जो अब बढ़ कर 70 हजार के आसपास पहुंच गई है. अधिकांश आबादी स्थानीय मुसलमानों की है और उन में से भी ज्यादातर सुन्नी संप्रदाय के शाफी से हैं. यहां के लोगों का मुख्य व्यवसाय मछली पकड़ना और नारियल की खेती करना है, साथ ही टूना मछली का निर्यात भी किया जाता है. इस केंद्रशासित प्रदेश में हर 7वां व्यक्ति मछुआरा है. मछली पकड़ना और नारियल की खेती करना यहां जीवनयापन के पारंपरिक साधन हैं. लेकिन लोग पढ़ेलिखे हैं. यहां 93 फीसदी साक्षरता है. हर द्वीप पर अच्छे स्कूल हैं. 4 कालेज भी हैं. युवा उच्चशिक्षा ग्रहण करने के बाद देश की मुख्य भूमि पर काम करने जाते हैं. लक्षद्वीप के लोगों का केरल के साथ गहरा संबंध है और वे मलयालम भाषा बोलते हैं. सिर्फ मिनिकाय में मालदीव की भाषा दिवेही बोली जाती है.

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यहां के लोग केरल पर निर्भर ही नहीं बल्कि केरल से ही अपनी पहचान मानते हैं. लक्षद्वीप के लोग आपस में काफी घुलमिल कर रहते हैं. कोई भूखा नहीं रहता. स्वास्थ्य सेवाएं भी यहां अच्छी हैं. बीते कुछ सालों में परिवहन व्यवस्था भी बेहतर हुई है. लोगों को लाने व ले जाने के लिए अनेक जहाज चलते हैं. अगत्ती द्वीप से उड़ानें भी हैं. इस के अलावा हैलिकौप्टर सेवा भी है. मगर पर्यटन के लिहाज से लक्षद्वीप कोई आकर्षक जगह नहीं है. यहां सब से बड़ा द्वीप 5 वर्ग किलोमीटर का है और सब से लंबा द्वीप एक छोर से दूसरी छोर तक मात्र 10 किलोमीटर है. पर्यटन सुविधाएं सिर्फ 3 द्वीपों तक ही सीमित हैं. बंगरम द्वीप वैसे तो पानी की कमी के कारण रहने के काबिल नहीं है लेकिन यहां एक खूबसूरत छोटा रिजौर्ट है. यहां के रहवासियों ने अपने द्वीप को काफी शांत, स्वच्छ और खूबसूरत रखा है. मगर अब इस की खूबसूरती पर दाग लगाने की तैयारी की जा रही है. इस की शांत फिजाएं दर्द से चीखने को हैं क्योंकि केंद्र सरकार की ललचाई दृष्टि इस द्वीप पर जम गई है. एक सुरम्य द्वीप समूह पर विकास के नाम पर जो होने वाला है, वह यहां के पर्यावरण की बरबादी का दुस्वप्न है. केंद्र में भाजपा के सत्तासीन होने के बाद से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) देशभर में अपना सांप्रदायिक एजेंडा चला रहा है.

इसी कड़ी में मोदी सरकार का अगला निशाना अब लक्षद्वीप है. लक्षद्वीप में विकास और बदलाव के नाम पर तानाशाही के नएनए फरमान जारी किए जा रहे हैं. यह तथाकथित विकास और उस के साथ कुछ और एजेंडे पिछले साल दिसंबर में केंद्र की तरफ से गुजरात के पूर्व गृहमंत्री प्रफुल्ल खोड़ा पटेल को लक्षद्वीप का प्रशासक नियुक्त करने के बाद से सामने आने शुरू हुए हैं. प्रफुल्ल खोड़ा दादर नगर हवेली के भी प्रशासक हैं. लक्षद्वीप को ले कर उन के प्रस्ताव काफी चौंकाने वाले हैं. प्रफुल्ल खोड़ा पटेल लक्षद्वीप के निवासियों के पारंपरिक खानपान में दखल देने से ले कर उन के घरबार, रोजगार, राजनीतिक और जनवादी अधिकार सबकुछ छीन लेने का मंसूबा पाले हुए हैं. वे लक्षद्वीप में विकास के नाम पर जिस तरह के प्रस्ताव पेश कर रहे हैं उन में आम लोगों की जमीनें हथियाने की योजना से ले कर स्थानीय चुनाव में उन की भागीदारी सीमित करने तक की साजिश साफ नजर आ रही है.

एक प्रस्ताव के मुताबिक, 2 से अधिक बच्चों के मातापिता स्थानीय निकाय चुनाव में हिस्सेदारी नहीं कर सकते. वहीं लक्षद्वीप में प्राकृतिक संपदा के दोहन व पर्यटकों की आमद बढ़ाने का सरकारी एजेंडा भूचाल पैदा कर रहा है. प्रफुल्ल पटेल वहां राष्ट्रीय राजमार्ग, मुख्य मार्ग, रिंग रोड, रेलवे, ट्राम, सुरंगें, जलमहल, फाइवस्टार होटल, रिजौर्ट, एयरपोर्ट, बड़ेबड़े पार्क, 50 मीटर चौड़ी सड़क, स्मार्ट सिटी प्रोजैक्ट के तहत नई इमारतें, हाईवे और नहरें बनाने जैसी बातें कर रहे हैं. लक्षद्वीप की प्राकृतिक सुंदरता को देशीविदेशी अमीर सैलानियों को बेचने के लिए यहां इन तमाम निर्माण कार्यों के ठेके मोदी सरकार के चहेते पूंजीपतियों को दिए जाएंगे, जिन में से ज्यादातर गुजराती हैं. इस के लिए लक्षद्वीप के नाजुक पर्यावरण को नुकसान से बचाने के लिए बने तमाम पुराने कानूनों को तोड़नेमरोड़ने से भाजपा को गुरेज नहीं है. नए कानूनों का औचित्य? लक्षद्वीप की पारिस्थितिकी तंत्र को सम झे बगैर, वैज्ञानिकों की सलाहों को दरकिनार कर के विकास की बातें तो हो ही रही हैं, साथ ही, कानून में भी मनमरजी बदलाव व संशोधन किए जा रहे हैं ताकि संघ के एजेंडे में रुकावट बनने वालों को जेल में ठूंसा जा सके.

उल्लेखनीय है कि प्रफुल्ल खोड़ा यहां ‘गुंडा अधिनियम’, ‘तटरक्षक अधिनियम’, ‘पशु संरक्षण अधिनियम’ तथा ‘मसौदा लक्षद्वीप विकास प्राधिकरण विनियमन 2021’ (एलडीएआर 2021)’’ को लागू करना चाहते हैं. स्थानीय निवासियों में इन कानूनों को ले कर डर पैदा होने लगा है और वे इस के विरोध में एकजुट होना शुरू हो गए हैं. यह भी गौर करने वाली बात है कि दशकों से लक्षद्वीप के प्रशासक के तौर पर आईएएस अफसर की तैनाती ही होती आई है. यह पहली बार है जब मोदी सरकार ने लक्षद्वीप में गुजरात के पूर्व मंत्री प्रफुल्ल खोड़ा पटेल को कमान सौंपी है. खोड़ा के प्रस्ताव लक्षद्वीप के लिए काफी खतरनाक हैं. वे वहां बीफ पर बैन लगाने की बात करते हैं. गोहत्या पर 10 साल की जेल की सजा का प्रावधान उन के प्रस्ताव के पीछे छिपे एजेंडे को सम झने के लिए काफी है. लक्षद्वीप में ज्यादा आबादी मुसलामानों की है. बीफ, मछली, नारियल यहां खाने का अहम हिस्सा है.

ऐसे में खोड़ा बीफ को बैन करना चाहते हैं और शराब का कारोबार खोलना चाहते हैं, जो मुसलिम कम्युनिटी में हराम मानी जाती है. गौरतलब है कि बंगरम द्वीप के अलावा लक्षद्वीप में बाकी सभी जगहों पर मद्यनिषेध है, लेकिन खोड़ा का नया प्रस्ताव बाकी द्वीपों पर भी शराब के कारोबार को हरी झंडी देने वाला है. कहने को पर्यटन बढ़ाने के नाम पर ऐसा किया जा रहा है, लेकिन इस के पीछे छिपा एजेंडा यह है कि इस से मुसलिम कम्युनिटी में रोष पैदा होगा, वे विरोध करेंगे और फिर कानून व्यवस्था बिगाड़ने के आरोप में उन को जेल भेजना आसान होगा. गौरतलब है कि लक्षद्वीप एक शांत और सौहार्दपूर्ण जगह है. पुलिस की वैबसाइट के अनुसार, यहां अपराध की दर भारत में सब से कम है. यहां अपराध का आंकड़ा लगभग शून्य है. यहां की जेल में मात्र 4 कैदी हैं. ऐसे में नई जेलों के निर्माण का क्या औचित्य है? प्रफुल्ल खोड़ा के नए प्रस्ताव में नई जेलों का निर्माण भी शामिल है. प्रफुल्ल खोड़ा के प्रस्तावों पर उठने लगी हैं उंगलियां 80 के दशक में लक्षद्वीप के प्रशासक रह चुके जगदीश सागर कहते हैं, ‘‘जहां सब से लंबी सड़क ही मात्र 10 किलोमीटर की है, वहां हाईवे बनाने जैसी बात हो रही है.

क्या मजाक है? प्रफुल्ल खोड़ा लक्षद्वीप को मालदीव की तरह पर्यटन स्थल बनाने का प्रस्ताव ले कर आए हैं. वे क्यों भूल रहे हैं कि मालदीव में 300 द्वीप हैं, जिन में से करीब 100 पर पर्यटक जाते हैं. लेकिन मात्र 36 द्वीपों वाले लक्षद्वीप, जिन में से सिर्फ 10 द्वीपों पर ही लोग बसे हैं, की तुलना मालदीव से कैसे की जा सकती है? लक्षद्वीप में जितने पर्यटक अभी आते हैं, उस से अधिक की उस की क्षमता ही नहीं है. और फिर सैकड़ों मील समुद्र को पार कर कौन यहां उस हाईवे पर चलने आएगा, जिस की कोई मंजिल नहीं? या फिर ट्राम में सफर का आनंद लेने कौन आएगा?’’ शराब की खरीदफरोख्त को खुली छूट, बीफ पर बैन और गुंडा एक्ट लाने के प्रस्ताव पर भी जगदीश सागर सवाल उठाते हैं. सागर पूछते हैं, ‘‘मद्यनिषेध से गुजरात में पर्यटकों का आना बंद नहीं हुआ तो यहां की मुसलिम आबादी की इच्छा के खिलाफ मद्यनिषेध क्यों खत्म किया जा रहा है? पटेल बीफ पर बैन लगा कर स्थानीय नागरिकों के खानपान में बदलाव करना चाहते हैं. जहां कोई गुंडा नहीं, वहां प्रफुल्ल खोड़ा गुंडा कानून लाने की बात कर रहे हैं. क्योंकि इस एक्ट से उन्हें किसी को भी हिरासत में लेने का अधिकार मिल जाएगा.

‘‘जाहिर है, उस का इस्तेमाल मनमाना होगा. जब विकास के नाम पर लोगों की जमीनें जबरन अधिग्रहीत की जाएंगी तो विरोध प्रदर्शन होंगे ही, तब यह एक्ट स्थानीय लोगों को जेल में ठूंसने के काम आएगा. मेरी सम झ से स्थानीय लोगों के लिए बेहद क्रूर फैसले किए जा रहे हैं.’’ खत्म हो सकता है लक्षद्वीप : रोहन आर्थर : लक्षद्वीप पर 20 वर्षों तक शोध करने वाले वरिष्ठ समुद्री जीवविज्ञानी और नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के संस्थापक ट्रस्टी, डाक्टर रोहन आर्थर लक्षद्वीप की आयु को ले कर बेहद चिंतित हैं. बीते 2 दशकों से वे लगातार द्वीप के नीचे मूंगे की चट्टानों को टूटते व सिकुड़ते देख रहे हैं. आर्थर कहते हैं, ‘‘मेरी मुख्य चिंता मूंगे की चट्टानों को ले कर है. यहां के लोगों का अस्तित्व उन्हीं पर निर्भर है. चट्टानों का संबंध केवल मूंगे से नहीं है बल्कि ये संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करती हैं. सरकार इसे पानी के नीचे के जंगल के रूप में देखे और जंगल का मतलब सिर्फ पेड़ नहीं है.’’ वे कहते हैं, ‘‘लक्षद्वीप में एक ही समय में 2 बड़े बदलाव हो रहे हैं, जलवायु परिवर्तन से मूंगे की चट्टानों को नुकसान पहुंच रहा है और दूसरा, इस से मछली की आपूर्ति प्रभावित हो रही है. इन दोनों कारणों से लक्षद्वीप पर मछुआरे और उन की आजीविका प्रभावित हो रही है. लक्षद्वीप में चल रहे ताजा घटनाक्रमों के बीच एक ऐसी त्रासदी धीरेधीरे इस जगह को प्रभावित कर रही है,

जिस से आने वाले दिनों में इन द्वीपों पर मनुष्य का निवास मुश्किल हो सकता है.’’ रोहन आर्थर प्रफुल्ल खोड़ा पटेल द्वारा लाई जा रही विकास की तमाम परियोजनाओं पर ढेरों सवाल खड़े करते हैं. वे कहते हैं, ‘‘जिस तेजी से जलवायु परिवर्तन हो रहा है और मूंगे की चट्टानें बिखर रही हैं उस को देखते हुए लक्षद्वीप के पास समय बहुत कम है और इस कम समय में हम कौन से कदम उठाते हैं, उन पर द्वीपसमूह का और द्वीपसमूह के नागरिकों का अस्तित्व निर्भर करेगा.’’ रीफ के डूबने का खतरा द्वीप पर रहने वाले लोग पूरी तरह कोरल रीफ पर निर्भर होते हैं. प्रवाल भित्तियां, कोरल या मूंगा जीव का समूह है जो सूरज के प्रकाश की मदद से प्रकाश संश्लेषण कर समुद्री जल को अरगोनाइट नामक खनिज में बदलता है. इस के फलस्वरूप चट्टान का निर्माण होता है. प्रवाल के जीवनचक्र की वजह से धीरेधीरे भित्तियों का निर्माण होता है. कुदरती प्रक्रिया, जैसे तूफान, समुद्री लहरें और प्रवाल खाने वाली प्रजातियों की वजह से भित्तियों में कटाव होता है. कटे हुए अरगोनाइट के टुकड़े इस प्रक्रिया में तट पर आते रहते हैं और टूट कर रेत में तबदील हो जाते हैं. प्रवाल भित्तियों के बीचोंबीच रेत का ढेर जमा हो जाता है और द्वीपों का निर्माण होता है. यही द्वीप मनुष्यों का ठिकाना हैं. इसी प्रकार प्रवाल का जीवनचक्र किसी अरगोनाइट या सीमेंट फैक्ट्री जैसे काम करता है. अरगोनाइट बनने की प्रक्रिया अगर चलती रहती है तो यह प्रवाल से बनी हुई सुरक्षा दीवार द्वीप को बनाए रखती है.

और समुद्र की बड़ी लहरों या तूफान के खिलाफ प्रतिरक्षा विकसित करती है. लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के कारण समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और जलवायु परिवर्तन के सामने द्वीप का यह रक्षा कवच बौना साबित हो रहा है. प्रवाल की क्षति सहने की क्षमता कम होती जा रही है. ऐसे में यदि सरकार यहां विकास के नाम पर खुदाई शुरू करेगी या निर्माण कार्य होंगे तो द्वीप का नष्ट होना तय है. शोध में यह बात सामने आई है कि लक्षद्वीप की राजधानी कवरत्ती में प्रवाल भित्ति के बनने की रफ्तार उन की कटाई की रफ्तार से बहुत कम हो गई है. इस का मतलब यह हुआ कि अगले कुछ दशकों में कवरत्ती में तट का कटाव तेज होगा और ताजे पानी का भंडार कम हो जाएगा, या खत्म हो जाएगा. ओखी और ताउते जैसे तूफानों से द्वीप को भविष्य में बड़ा नुकसान उठाना पड़ेगा. ‘‘जलवायु परिवर्तन के कारण क्या लक्षद्वीप के डूबने का खतरा है? इस सवाल के जवाब में डा. आर्थर कहते हैं, ‘‘बीते कुछ दशकों से लक्षद्वीप बाढ़ के गंभीर खतरे का सामना कर रहा है. इस का खुलासा हाल ही में जारी आईपीसीसी की रिपोर्ट में भी हो चुका है. जलवायु परिवर्तन के कारण हिंद महासागर में समुद्र के लैवल में बढ़ोतरी हो रही है.

इस से लक्षद्वीप जैसे निचले द्वीपों के लिए गंभीर संकट पैदा हो गया है. लक्षद्वीप में भूमि की औसत ऊंचाई समुद्र के लैवल से 1-2 मीटर के बीच है. इन द्वीपों और उन में रहने वालों की रक्षा मूंगे की वे सख्त चट्टानें कर रही हैं जो किले की तरह द्वीप को घेरे हुए हैं. मगर एक ओर जहां समुद्र का स्तर अभूतपूर्व गति से बढ़ रहा है, वहीं जलवायु परिवर्तन के कारण मूंगे की यह सुरक्षात्मक दीवार ढह रही है. हमारी टीम द्वारा किए गए शोध व अनुमानों से पता चलता है कि क्षरण की दर 2100 तक इतनी बढ़ जाएगी कि द्वीप का अस्तित्व खत्म हो सकता है. आईआईटी खड़गपुर की एक टीम द्वारा हाल के अध्ययन भी इसी दिशा को इंगित करते हैं कि आने वाली शताब्दी में लक्षद्वीप के 80 फीसदी द्वीपों में बाढ़ आ जाएगी.’’ विकास की आवश्यकता क्यों? विकास के नाम पर मूंगे की चट्टानों से छेड़छाड़ द्वीप को नुकसान पहुंचाएगी. चट्टानें द्वीप के लिए एक सुरक्षात्मक अवरोध बनाती हैं जो द्वीपों को तूफान, भूमि कटाव और भूजल स्रोतों के खारे होने से सुरक्षित रखती हैं. इस के अलावा, चट्टान ही स्थानीय समुदायों के लिए जीविका का एक समृद्ध स्रोत है. यह दैनिक भोजन के लिए मछली और अन्य उत्पाद प्रदान करती है.

इसलिए, एक स्वस्थ द्वीप के लिए बुनियादी जीवन का हर तत्त्व, जैसे भोजन, पानी या भूमि सुरक्षा के लिए स्वस्थ चट्टानें आवश्यक हैं. कोई भी गतिविधि जो इस नाजुक प्रणाली के लिए खतरा है, सीधे द्वीप और उस के लोगों के अस्तित्व के लिए खतरा है. जलवायु परिवर्तन से चट्टानें पहले ही नाजुक स्थिति में हैं. हाल ही में मछली पकड़ने में अनियंत्रित वृद्धि ने चट्टान को एक और खतरे से जोड़ दिया है. ऐसे में जिस तरह की विकास योजनाएं सरकार ला रही है वे लक्षद्वीप के ताबूत में अंतिम कील साबित होंगी. अगर मूंगे की चट्टानों को छेड़ा गया तो परिणाम विनाशकारी हो सकते हैं. सच पूछिए तो लक्षद्वीप को विकास की आवश्यकता नहीं है. यहां 100 फीसदी साक्षरता है. असमानता का सूचकांक यहां दुनिया में सब से कम है. यहां एक समग्र मानव विकास सूचकांक है जो भारत के सभी राज्यों से ज्यादा है. अपराध नगण्य है. लोग शांतिपूर्वक मिलजुल कर रहते हैं तो फिर, ऐसे द्वीप को ‘विकास’ की आवश्यकता क्यों है? यह सब सिर्फ मुनाफाखोरी के लिए किया जा रहा है, जो भूमि उपयोग की सदियों पुरानी परंपराओं को उलट देंगे. द्वीपों के विकास और पर्यटन को बढ़ावा देने की जहां तक बात है, उस का एक अलग मौडल होता है. छोटेछोटे पैमाने पर विकास होता है, द्वीपों के भूउपयोग की संस्कृति और परंपराओं के प्रति सम्मान रखते हुए होता है और वहां के ईकोसिस्टम के प्रति संवेदनशील रहते हुए होता है.

द्वीपों के विकास में 4 चीजें महत्त्वपूर्ण हैं, पहला, वह जलवायु परिवर्तन को देखते हुए पर्याप्त पारिस्थितिकी लचीलेपन को दर्शाता हो. दूसरा, बुजुर्गों और महिलाओं की स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ा हो. तीसरा, उस द्वीप पर उत्पन्न होने वाले उत्पादों के मूल्यवर्धन को प्रोत्साहित करने वाला हो. और चौथा, उस तरह के पर्यटन को प्रोत्साहित करे जो द्वीपों की समृद्ध संस्कृति, इतिहास और ईकोसिस्टम का सम्मान करे. सरकारी योजनाओं की सब से चिंताजनक बात यह है कि इस में सामाजिक न्याय और स्थानीय आजीविका को पूरी तरह नजरअंदाज किया गया है. ‘वर्जिन बीच’ की तलाश में आने वाला सैलानी यह नहीं देखना चाहेगा कि तटों पर मछुआरे अपने जालों की गंदगी साफ कर रहे हैं या अपनी मछलियां सुखा रहे हैं. जबकि लक्षद्वीप में समुद्रतट एक जीवंत, मिश्रित उपयोग वाली जगह है जहां मछुआरे, उन के बच्चे और महिलाएं तथा समाज के अन्य सदस्य एकसाथ उस जगह को सा झा करते हैं. यह भारत के किसी भी हिस्से के गांव जैसा है, जहां सब बराबर हैं और यह उन की सामाजिक एकता के लिए नितांत आवश्यक भी है. पर्यटन स्थलों के नाम पर अगर इन चीजों को तटों पर होने से रोका जाएगा तो न सिर्फ मछुआरों व उन की आजीविका पर कुठाराघात होगा, बल्कि लक्षद्वीप समाज के बहुत सारे कार्य इस से प्रभावित होंगे. इन तटों से अधिकांश आबादी की रोजीरोटी जुड़ी है. परियोजना की समीक्षा जरूरी डा. रोहन आर्थर कहते हैं, ‘‘पर्यावरण, मत्स्य पालन, पर्यटन, विकास किसी भी क्षेत्र की किसी भी योजना को, नियमों में बदलाव को जलवायु परिवर्तन और इस से जुड़े प्रतिरोध क्षमता के नजरिए से देखना जरूरी है.

मगर इस मुद्दे पर सब तरफ अजीब सी खामोशी व्याप्त है. ‘‘इस मामले में 2014 में जस्टिस रवींद्रन कमेटी की रिपोर्ट में कई बेहतरीन विचार सु झाए गए थे. उन में लक्षद्वीप और उस के समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र की संवेदनशीलता का स्पष्ट रूप से उल्लेख था और द्वीपसमूह की पारिस्थितिकी को बचाए रखने के लिए तथाकथित ‘विकास’ की एक सीमा तय करने की सिफारिश की गई थी. पर विडंबना ही है कि उन सिफारिशों पर कभी ध्यान नहीं दिया गया. नीति आयोग द्वारा लक्षद्वीप को विकसित करने की ताजा योजना को देखते हुए तो कहा जा सकता है कि जस्टिस रवींद्रन कमेटी की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है.’’ डा. रोहन आर्थर कहते हैं, ‘‘लक्षद्वीप के विकास के लिए प्रस्तावित (ड्राफ्ट लक्षद्वीप डैवलपमैंट अथौरिटी रैगुलेशन औफ 2021) विकास के मौडल का यहां के पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से कोई लेनादेना नहीं है. इस में विकास संबंधित मूलभूत संरचना, उचित शासन और दृढ़ योजनाओं की जरूरत पर ही बल दिया गया है.’’ ‘‘इस नए रैगुलेशन में जमीन के उपयोग संबंधी सभी निर्णयों को किसी एक संस्था के हाथ में केंद्रित करने की बात कही गई है जो अपनी सहज बुद्धिविवेक से द्वीपों के विकास की राह तय करेगी. मगर हास्यास्पद है कि इस विकास की दशादिशा तय करने में लक्षद्वीप के नागरिकों की कोई भूमिका नहीं होगी, जो अपने क्षेत्र को भलीभांति सम झते हैं.

न ही वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं को कोई जगह दी गई है.’’ आर्थर के अनुसार, सरकार उपभोक्तावादी विकास मौडल को लागू करने से पहले जान ले कि लक्षद्वीप की प्रवाल भित्तियां अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं. उन के भीतर रहने वाली मछलियों की संख्या कम होती जा रही है. यहां के निवासियों के लिए मीठे पानी के स्रोत कम हो रहे हैं. समुद्र का बढ़ता जलस्तर द्वीप को पानी में डुबो कर खत्म करने पर आमादा है. लक्षद्वीप अंधाधुंध विकास का भार उठा ही नहीं सकता है. यह काफी छोटा पर अनमोल द्वीप है. यह बहुत अजीब है कि सरकार प्रवाल भित्तियों को बचाने व संरक्षित करने के बजाय यहां निर्माण कार्य करवाने पर उतारू है. द्य एनिमल प्रिजर्वेशन रैगुलेशन की क्या जरूरत ‘‘लक्षद्वीप में नए नियमों की कोई जरूरत नहीं है. पुराने कानून से ही लक्ष्य साधा जा सकता है. लक्षद्वीप को मालदीव मौडल पर विकसित करने की सोच खतरनाक है. प्रफुल्ल खोड़ा पटेल चाहते हैं कि लक्षद्वीप को मालदीव की तर्ज पर विकसित किया जाए, लेकिन पर्यावरणविद पहले ही ऐसे प्रस्ताव को खारिज कर चुके हैं. ‘‘आईलैंड डैवलपमैंट अथौरिटी ने मालदीव का दौरा किया था. उस के बाद उस ने बहुत ही गंभीरता से मालदीव मौडल को लागू करने से मना कर दिया था. क्या पटेल चाहते हैं कि लक्षद्वीप में भी मालदीव की तरह अतिवाद और चरमपंथी गतिविधियां बढ़ें? कृपया अपने दिमाग का इस्तेमाल कीजिए. लक्षद्वीप एनिमल प्रिजरर्वेशन रैगुलेशन की क्या जरूरत है? यहां के लोगों का मुख्य भोजन नौनवेज है. लोग बीफ, सीफूड, कै्रब और औक्टोपस खाना पसंद करते हैं. आप उन से उन का खानपान कैसे छीन सकते हैं?’’ वजाहत हबीबुल्लाह (लक्षद्वीप के पूर्व प्रशासक)

जमीन में हिस्सेदारी, विधवाओं की जान पर भारी

साल 2005 में केंद्र की डाक्टर मनमोहन सिंह सरकार ने पति की मौत के बाद उस की विधवा पत्नी का नाम आवश्यक रूप से दर्ज करने का आदेश दिया. इस के बाद से खेती की जमीन में भी पति के न रहने के बाद पत्नी और बेटी का नाम दर्ज किया जाने लगा. पत्नी और बेटी को भी बराबर का हिस्सा मिलने लगा. जायदाद के कागजों में नाम दर्ज होने का सब से बड़ा लाभ यह हुआ कि अब बिना विधवा की सहमति के जमीन को बेचा नहीं जा सकता. ऐसे में कई बार विधवा औरतों को हिंसा का शिकार होना पड़ता है. लखनऊ जिले की मोहनलालगंज तहसील के निगोहां थाने में घटी ऐसी घटनाएं इस का उदाहरण हैं. कानून के द्वारा भले ही महिलाओं को संपत्ति अधिकार मिल चुका हो पर घरपरिवार के लोग किसी भी तरह से संपत्ति में महिलाओं को अधिकार नहीं देना चाहते. ऐसे में अगर महिला बूढ़ी है और उस के पति की मौत हो चुकी है तो बेटा तक उसे जमीन नहीं देना चाहता.

जिन परिवारों में बेटा नशे जैसी बुरी आदत का शिकार हो वहां तो ऐसे लोगों की हत्या तक कर दी जाती है. लखनऊ जिले के निगोहां थाना क्षेत्र के कलासर खेड़ा गांव में रहने वाले संजय ने अपनी 48 साल की मां लीलावती की हत्या कर दी. कलासर खेड़ा में रहने वाले श्रीकेशन की 4 साल पहले मौत हो चुकी थी. श्रीकेशन के पास खेती की 3 बीघा जमीन थी. श्रीकेशन के परिवार में बड़ा बेटा संजय और छोटा बेटा संगम थे. उस की एक बेटी राजरानी भी थी. दोनों बेटों और बेटी की शादी हो चुकी थी. छोटा बेटा संगम लखनऊ में रह कर मजदूरी करता था. बड़ा संजय गांव में रहता था, नशे का आदी था. श्रीकेशन की मौत के बाद पत्नी लीलावती अपने दोनों ही बेटों से अलग गांव में ही कोठरी में रहती थी.

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श्रीकेशन की खेती वाली जमीन उस के दोनों बेटों, बेटी और पत्नी के नाम हो जानी थी. लंबे समय तक यह काम नहीं हो पाया. दो माह पहले हुई थी विरासत श्रीकेशन की मौत के बाद बेटा संजय रोज ही जमीन को ले कर घर में विवाद करता रहता था. श्रीकेशन की मौत के बाद भी जमीन में उस की पत्नी और बेटीबेटों का नाम दर्ज नहीं हुआ था. इस कारण संजय अपनी जमीन को बेच नहीं पा रहा था. जमीन के इस टुकड़े पर गांव के लोगों की नजर थी. उन को पता था कि नशे का शिकार बेटा जमीन बेचेगा. योगी सरकार ने खेती की जमीन में विरासत दर्ज करने का अभियान चलाया, जिस की वजह से अप्रैल 2021 में श्रीकेशन की जमीन उस के दोनों बेटों, एक बेटी और पत्नी के नाम बराबर के हिस्से में दर्ज हो गई. संजय और उस की मां का हिस्सा 9 बिसवा था. संजय अपने हिस्से की जमीन बेचना चाहता था. खरीदने वाले लोग ज्यादा से ज्यादा हिस्सा चाहते थे. इस कारण वह संजय पर दबाव बना रहे थे कि वह अपनी मां को भी अपने हिस्से की जमीन बेचने के लिए राजी कर ले.

मां लीलावती जानती थी कि संजय अपनी नशे की आदत को पूरा करने के लिए जमीन बेचना चाहता है. इस कारण वह कभी भी अपने हिस्से की जमीन बेचने को तैयार नहीं हो रही थी. संजय की आदतों से केवल मां लीलावती ही परेशान नहीं थी. संजय की पत्नी सीता भी परेशान रहती थी. नशे के चलते संजय ने अपनी पत्नी और मां के गहने बेच दिए थे. वह पैसे न देने पर पत्नी की पिटाई भी करता था. होली के समय उस ने पत्नी पर जानलेवा हमला किया था जिस की वजह से पत्नी मायके चली गई. उस ने यह कह दिया कि अब वह ससुराल नहीं आएगी. मां की हत्या पत्नी के जाने के बाद संजय अपनी मां से विवाद करने लगा. वह चाहता था कि मां भी अपना हिस्सा साथ में बेच ले. लीलावती जानती थी कि अगर उस ने जमीन बेची तो बेटा सारे पैसे नशे में उड़ा देगा. इस कारण वह अपनी जमीन बेचने को तैयार नहीं हो रही थी. 25 जुलाई की रात भी संजय शराब के नशे में धुत हो कर मां पर जमीन बेचने का दबाव बनाने लगा. इस बात पर दोनों के बीच कहासुनी होने लगी.

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गुस्से और नशे की हालत में संजय मां की पिटाई करने लगा. मां ने जब विरोध किया तो साड़ी के पल्लू से मां का गला कस कर उसे मौत के घाट उतार दिया. अगले दिन सुबह लीलावती का शव उस के घर के बाहर मिट्टी से सना हुआ पड़ा था. साड़ी के पल्लू से गला कसा हुआ. लीलावती का शव पड़ा देख पड़ोसियों ने निगोहां थाने की पुलिस को सूचना दी. सूचना पा कर छोटा बेटा और बेटी भी पहुंच गए. मौके पर पहुंची पुलिस ने ग्रामीणों व परिवारीजनों से पूछताछ कर शव को कब्जे में ले कर पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया. गांव वालों ने बताया कि पिछली रात संजय और उस की मां के बीच झगड़ा होने की आवाज आ रही थी. छोटे बेटे संगम ने बड़े बेटे संजय के विरुद्ध जमीन के लालच में हत्या करने का मुकदमा दर्ज कराया. निगोहां थाने के इंस्पैक्टर नंद किशोर ने पुलिस टीम को इस काम में लगा कर हत्या के आरोपी संजय को पकड़ कर जेल भेज दिया. वे कहते हैं, ‘‘जमीन के विवाद सब से अधिक अपराध के कारण बन रहे हैं.’’ क्षेत्राधिकारी सैयद नईमुल हसन कहते हैं, ‘‘जमीन पर अधिकार के लिए विधवाओं के साथ आपराधिक घटनाएं बढ़ रही हैं. इस से बचने के लिए कानून और समाज को मिल कर काम करना पड़ेगा.

तभी इस तरह की घटनाओं को रोका जा सकता है. इस के अलावा नशे की आदत का विरोध करना पड़ेगा. नशे में ऐसी घटनाएं ज्यादा होती हैं. नशे को रोकने का प्रयास करना चाहिए.’’ घटनाएं और भी हैं यह कोई अकेली घटना नहीं है. केवल निगोहां थाना क्षेत्र में ऐसी तमाम घटनाएं घट चुकी हैं जहां जमीन के लालच में रिश्तों का खून किया गया. फरवरी माह में मदार खेड़ा गांव में अनिल नामक युवक ने अपनी बूढ़ी दादी का कत्ल कर दिया. उस के बाद ब्रह्मदासपुर गांव में नीमा देवी की हत्या उस के बेटे चेतराम ने की थी. इसी तरह रामदयाल ने अपनी पत्नी की हत्या कर दी. वह जमीन बेचने से मना कर रही थी. वीरसिंहपुर गांव में भी रामकुमार ने अपनी पत्नी सीमा की हत्या कर दी. असल में लखनऊ शहर की सीमाओं के विस्तार होने से आसपास के गांवों की जमीन की कीमत बढ़ने लगी.

ऐसे में जमीन को बिकवाना भी एक धंधा बन कर उभरने लगा, जिस को ‘प्रौपर्टी डीलिंग’ का नाम दिया गया. गांवगांव ऐसे लोगों की संख्या बढ़ने लगी जो प्रौपर्टी डीलिंग का काम करने लगे. ये लोग उस जमीन पर नजर रखने लगे जिस के बिकने की संभावना दिखती थी. जिस के घर में झगड़ा, बंटवारा और नशा करने वाले लोग होते थे, वहां इन की नजर सब से पहले पहुंचती है. कई बार तो नशा करने वालों को ये ही पैसा देते थे जिस से कि वह जमीन उन को ही बेचे. इस कारण जमीन बेच कर पैसा पाने की चाहत ने अपराध कराने शुरू कर दिए. इस का शिकार घर की बूढ़ी औरतें ज्यादातर होने लगीं. पति के मरने के बाद बेटे और परिवार के लोग यह चाहते थे कि बूढ़ी विधवा औरतें जमीन बेच दें. जब ये औरतें जमीन बेचने को तैयार न होतीं तो उन के साथ झगड़ा करने से ले कर हत्या तक कर दी जाती है.

आखिरी खत- भाग 1 : राहुल तनु को इशारे में क्या कहना चाह रहा था

लेखक-लीला रामचंद्रन

राहुल के लिए मेज पर नाश्ता और हौटकेस में दोपहर का खाना रख कर जब तनु रसोईघर से बाहर निकल कर कमरे में दाखिल हुई तब राहुल कोई धुन गुनगुनाता, टाई की नौट ठीक करता हुआ बोला, ‘‘तनु, मेज पर पड़ी फाइलें ब्रीफकेस में रख दो और सूटकेस बंद कर के चाबी ब्रीफकेस में डाल देना.’’

राहुल का कहा सुन तनु को यह सम झते देर न लगी कि मुंबई जाने के लिए वह दफ्तर से सीधा एअरपोर्ट चला जाएगा. वह तुरंत बोली, ‘‘मुंबई से  कब लौटोगे?’’

‘‘4-5 दिनों का काम है. काम खत्म करने पर कोलकाता जाने की सोच रहा हूं. फिर भी जाने से पहले फोन जरूर कर दूंगा. पर अचानक यह सवाल क्यों पूछा जा रहा है? क्या मैं जान सकता हूं?’’

‘‘तुम्हारी बिटिया रानी की खातिर पूछ रही हूं,’’ तनु ने हंस कर कहा,  तो राहुल पलट कर बोला, ‘‘कभी तुम्हें भी इंतजार हुआ करता था, पर अब तुम्हें फुरसत ही नहीं होती.’’

राहुल का इशारा तनु की ‘टूरिस्ट गाइड’ की नौकरी और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की संगीतमय शामों की ओर था. यह तो तनु सम झ गई थी, परंतु राहुल की अभिव्यक्तियों में सहजता या असहजता के भावों को पहचानना बहुत मुश्किल था.

कई महीनों से मन में घुमड़ते सवालों के बो झ में राहत पाने के मकसद से ही उस ने पूछ लिया, ‘‘राहुल, तुम्हें यह जानने की फुरसत भी तो नहीं होती कि यह सब मैं क्यों करती हूं. पार्टियों में जाते वक्त ही तुम्हें मेरा खयाल आता है, वरना तुम्हें तो यह भी जानने की फुरसत नहीं होती कि घर में क्या हो रहा है.’’

राहुल ने गहरी नजरों से तनु को निहार कर उस के सब सवालों का जवाब एक ही बार में दे डाला, ‘‘हर तरक्की के बाद जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं, तनु. रही बात पार्टियों की, वहां तो मैं कभी भी अकेला नहीं जाता. तुम्हारे बिना अधूरापन महसूस करता हूं.’’

तनु के मन में भी उफान की तरह एक सवाल उभर कर गले तक आ कर रुक गया कि अम्माजी के गुजरने के बाद के इन 5 बरसों में उस की भी तो जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं. तनिक रुकती हूं तो लगता है कि तरक्की के पीछे भागता हुआ राहुल मु झ से बहुत आगे निकल गया है.

खड़ीखड़ी इस वक्त तनु उस से क्या कहती, सो इतना ही कह पाई, ‘‘सामाजिक संपर्क बढ़ाने के लिए जिस तरह पार्टियों में मनु का साथ जाना जरूरी है, उसी तरह परिवार के रिश्तेनाते निभाने में राहुल का साथ होना भी जरूरी है. लखनऊ और इलाहाबाद दौरे पर जाते वक्त तुम नेहा और दिव्या दीदी से तो मिल आते हो, पर पुणे में ही रह कर प्रभा दीदी से मिलने की फुरसत नहीं होती जबकि वह हमारे लिए कितना कुछ करती हैं.’’

यह सुन कर, तनु के कंधे पर हाथ धर कर तनिक  झुक कर राहुल अपने खास अंदाज में बोला, ‘‘दीदी और जीजाजी का खयाल तुम तो रखती हो, मेरे हिस्से की भी जिम्मेदारियां निबटाती हो. गृहस्थी का सारा इंतजाम… और मैं खुद भी तो तुम्हारे लिए ही हूं, मेरी जान.’’

यों तनु के सारे प्रश्न अनुत्तरित रह गए और नाश्ता करतेकरते ही राहुल ने तनु को कामों की लंबी फेहरिस्त पकड़ा दी. मकान की मरम्मत का काम खत्म होने वाला है, लिहाजा, ‘होमकेयर’ वालों को फोन कर के याद दिला देना, ताकि इस हफ्ते ‘वुडवर्क’ शुरू हो जाए. पानी का कनैक्शन कल मिल जाएगा. लिहाजा, रामसिंह को साथ ले जाना, सारे नलों और पाइपलाइनों की जांच कर लेगा.

फेहरिस्त में दिए राहुल के आदेश तनु के मन की सतह पर तैरते रहे. नाश्ता कर के राहुल कमरे में चला गया.तनु का प्लास्टर उतरा हुआ दाहिना पैर बुरी तरह दुखने लगा था. राहुल का ध्यान तो उस ओर नहीं गया, पर बाबूजी ने उसे लंगड़ा कर चलते देख लिया था. दर्दनिवारक तेल की शीशी उसे पकड़ा कर बाबूजी स्नेह से बोले, ‘‘बेटी, अपने पैर को कभी तनिक आराम भी दे दिया करो. थोड़ी देर धूप में बैठ जाओ और मालिश कर लो.’’

यह सुन कर धुलने के लिए कपड़े इकट्ठा करती हुई तनु हंस कर बोली, ‘‘बाबूजी, बस 5 मिनट का काम और है, फिर फुरसत में,’’ तभी फोन की घंटी बजने लगी.

तनु ने रिसीवर उठा बात की, फिर बोली, ‘‘राहुल, मुंबई से ट्रंककौल है,’’ कहते हुए वह राहुल को आवाज दे कर बाहर निकली तो बाहर धोबी इस्तिरी के कपड़े ले जाने के लिए खड़ा मिला. तनु को देख कर बाबूजी हंस पड़े और बोले, ‘‘द्रौपदी के चीर की तरह है तुम्हारे कामों का सिलसिला. घरबाहर की इतनी जिम्मेदारियां तो हैं ही, उस पर मकान का काम और जुड़ गया है. कहांकहां डोलती रहोगी? तुम मु झे मना करती हो, वरना मैं…’’

बीच में ही टोक कर तनु बोली, ‘‘आप ज्यादा सोचने लगे हैं, तभी आप का ब्लडप्रैशर कम नहीं हो रहा है. आप मेरा इतना खयाल रखते हैं, मेरी गैरहाजिरी में घर का खयाल रखते हैं, यही मेरे लिए बहुत है, बाबूजी.’’ससुर और बहू की बातचीत के बीच ही अपनी रवानगी की सूचना देता हुआ राहुल उन के करीब से निकल गया.बाबूजी लंबी सांस ले कर बोले, ‘‘महीने में 20 दिन दौरे पर रहता है. जिन दिनों यहां होता है, क्लब, डिनर, मीटिंग, घर देर से लौटता है… तुम कुछ कहती क्यों नहीं?’’

पर तनु ने मौन साध लिया. राहुल के प्यार में स्नेह और अपनत्व की गहराई भी तो है, जिस की वजह से वह उस की हरकतों को नजरअंदाज कर जाती है.राहुल की बढ़ती व्यस्तता से तनु की जिंदगी में जो खालीपन आया था उसे भरने के लिए तनु ने मनपसंद सामाजिक गतिविधियों से खुद को जोड़ लिया था. शायद कभी राहुल के मन में उस की व्यस्तता को ले कर पूर्वाग्रह हों भी, लेकिन इतने नहीं, जिन से कि उन के बीच दरार बन पाने की संभावना हो.

अपने कमरे में लगे छोटे बरामदे में आरामकुरसी पर अधलेटी सी तनु सर्दी की कुनकुनी धूप में अपना बदन सेंक रही थी. उसे खयाल आया कि आज राहुल को आ जाना चाहिए या फोन ही कर देना चाहिए, पर फोन तो 2 दिनों से खराब पड़ा हुआ है… शायद दफ्तर में फोन किया हो, तभी फाटक खोल कर दफ्तर का चपरासी रामविलास दाखिल हुआ.

‘‘बहूजी, ये चिट्ठियां ले कर आया हूं. साहब का फोन भी आया था. मुंबई से कोलकाता के लिए चल पड़े हैं, परसों लौट आएंगे,’’ उस ने चिट्ठियां देते हुए कहा.तनु स्टडीरूम में बैठ कर डाक में आए पत्रों को फाइल में लगा रही थी कि उन पत्रों के बीच उसे एक टैलीग्राम नजर आया. उसे खोल कर देखा तो अहमदाबाद में मथुरा प्रसाद नाम के किसी व्यक्ति ने भेजा था. लिखा था, ‘शकुन की मृत्यु लिवर कैंसर से हो गई. उस का आखिरी खत और बच्ची का बर्थ सर्टिफिकेट शायद आप को मिल गया होगा. जितनी जल्दी हो सके, अपनी अमानत को ले जाइए.’

 

आखिरी खत

जनसंख्या नियंत्रण नहीं, प्रबंधन है जरूरत

दुनिया में लोग अगर सभ्य और खुशहाल हुए हैं तो किसी और वजह से पहले उस की बुनियादी वजह सैक्स है क्योंकि शरीर सुख ने ही लोगों के दिलों में लगाव, प्यार और भावनाएं पैदा की हैं. मशहूर मनोविज्ञानी सिगमंड फ्रायड की इस थ्योरी को आज तक कोई चुनौती नहीं दे पाया है कि सैक्स एक एनर्जी है और जिंदा रहने के लिए बहुत जरूरी है. खाने के बाद की सब से बड़ी जरूरत सहवास केवल संतति आगे बढ़ाने का जरियाभर नहीं है बल्कि एक प्राकृतिक आनंद और उपहार भी है जिस का लुत्फ लोग जब जैसे चाहें, उठा सकते हैं. इस पर रोकटोक हो, तो जिंदगी कुंठित और तनावग्रस्त हो जाती है. क्या आप चाहेंगे कि जब आप अपने पार्टनर के साथ सैक्स कर रहे हों तो कोई आप के सिरहाने खड़ा हो? निश्चितरूप से आप का जवाब न में होगा, क्योंकि यह सोचना ही आप को असहज कर देगा.

यदि सिरहाने खड़ी या बैडरूम में आप की निगरानी कर रही वह अदृश्य चीज ‘कानून’ है तो यकीन मानें, आप सहवास नहीं कर सकते क्योंकि आप ही क्या, कोई भी इन अंतरंग क्षणों पर किसी तरह की पहरेदारी बरदाश्त नहीं कर सकता. लेकिन ऐसा होने वाला है. कानून आप के सैक्स कर्म पर ऐसी बंदिश लगाने वाला है जिसे न तो आप निगल सकेंगे और न ही उगल. जिस जनसंख्या नियंत्रण कानून को आप के इर्दगिर्द एक जाल की तरह बुना व बिछाया जाने वाला है, दरअसल, वह आप के प्राइवेट पार्ट्स पर नियंत्रण की एक साजिश है, औरत की कोख पर सरकारी ताला लगाने की चाल है. इस का संबंध जनसंख्या नियंत्रण से कम, आप की व्यक्तिगत आजादी को गुलामी में तबदील कर देने से ज्यादा है. इस साजिश को बहुत बारीकी से सम झने की जरूरत है कि किस तरह जनसंख्या नियंत्रण की आड़ में सरकार तरहतरह की दलीलें दे कर आप के बैडरूम में कानून का डंडा ले कर दाखिल होने वाली है. जनसंख्या नियंत्रण कानून का फंडा यही है कि कानून आप के सहवास की संख्या पर नहीं, बल्कि उस से होने वाले बच्चों की संख्या पर अंकुश लगाने के लिए है. यानी भोजन के उपवास की तरह आप सहवास का भी उपवास करें, वरना सजा भुगतने को तैयार रहें. सैक्स जितना चाहे करें, पर बच्चे उतने ही हों जितने सरकार तय कर दे.

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यह सैक्स की आजादी छीनने का ऐसा अनूठा तरीका है. सरकार देती क्या है जनसंख्या के निवारण होने पर काल्पनिक खाद्यान्न संकट का सहारा लिया जाता है. इस बाबत सरकार के अपने खोखले तर्क हैं कि भविष्य के लिए ज्यादा से ज्यादा अनाज बचाना उस की जिम्मेदारी है. लेकिन खाने की बात से हर कोई इस पर सहमत होगा कि खाना सरकार नहीं देती है बल्कि आम और खास सभी अपनी मेहनत का खाते हैं. उत्पादन किसान करते हैं. वे तो उन का करते हैं कि इस का निर्यात भरपूर किया जाता है. यह भी दूसरी खैरातों की तरह प्रचारित हथकंडा है कि लोग इतने निकम्मे हैं कि खुद अपना और परिवार का पेट भरने लायक नहीं कमा पाते हैं, इसलिए सरकार को मुफ्त अनाज बांटना पड़ता है. उधर, लोग सम झ ही नहीं पाते कि सरकार उन की मेहनत से पैदा किया गया अनाज उन्हें ही भीख की तरह दे कर उन के सोचनेसम झने की शक्ति को मंद और कुंद कर रही है. वह कुछ नहीं उपजाती है और जो लोग उपजाते हैं वे अपनी मेहनत का सच नहीं सम झ पाते. कोरोना की दूसरी लहर के बाद केंद्र सरकार ने घोषणा की थी कि वह 90 करोड़ लोगों को दीवाली तक 5 किलो अनाज मुफ्त देगी.

किसी ने यह पूछने या सोचने की जहमत नहीं उठाई कि यह अनाज आ कहां से रहा है जबकि हकीकत यह है कि यह अनाज किसानों और मेहनतकश मजदूरों के पसीने से ही पैदा होता है जिसे सरकार अपना घोषित कर देती है और लोग खामोशी से इसे सच मान भी लेते हैं. अमीर यानी करदाता कहते हैं कि यह उन के टैक्स का पैसा है जिसे सरकार बेरहमी से लुटा रही है. अगर हम टैक्स न दें तो लोग भूखों मर जाएं. पेटभर खाना मिलने की शर्त पर जो किसानमजदूर इसे उगाते हैं वे बेचारे तो कुछ बोल ही नहीं पाते कि फिर हमारी जुर्रत क्या. टैक्स तो हर मजदूर भी देता है क्योंकि जब भी वह फैक्ट्री का बना सामान इस्तेमाल करता है उस पर ढेरों टैक्स लगे होते हैं. इस स्थिति को सोशल मीडिया पर वायरल होते एक जोक से बेहतर सम झा जा सकता है. जंगल के राजा शेर ने भेड़ों के लिए ऐलान किया कि सब को एकएक कम्बल मुफ्त दिया जाएगा, तो भेड़ों में खुशी की लहर दौड़ गई और वे नाचनेगाने लगे. तभी एक युवा भेड़ ने सवाल किया, ‘लेकिन कम्बल बनाने के लिए ऊन आएगा कहां से?’ तो सभी भेड़ सकपका उठे. यही हाल मुफ्त अनाज पर हमारे देश का है.

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फर्क इतनाभर है कि कोई युवा यह नहीं पूछ पा रहा कि यह अनाज आया कहां से. टैक्सपेयर शायद ही इस सवाल का जवाब दे पाएं कि मुफ्त की सरकारी योजनाओं में उन का क्या योगदान है और इस से कौन सी उन की तिजोरी खाली हो रही है. माइक्रो और मैक्रो दोनों इकोनौमिक्स घोंटने और खंगालने के बाद भी वे यह साबित नहीं कर पाएंगे कि मुफ्त अनाज दरअसल, अमीरों के टैक्स के पैसे का ही है. बात जहां तक बढ़ती जनसंख्या की है तो इस से उन का क्या बिगड़ रहा है. हकीकत में मुफ्तखोर कोई नहीं है बल्कि मेहनती लोगों को ही मुफ्तखोर मान लिया गया है क्योंकि उन की तादाद ज्यादा है और आवरण कम. सरकार एक लाख करोड़ रुपए हर महीने जीएसटी से पाती है जो कर ऐसा था उत्पाद पर लगता है. कौन गरीब इस में अपना योगदान न करता. खेल एक और कानून का अगर लोकतंत्र कायम रह पाया और नरेंद्र मोदी सरकार के कामकाज का निष्पक्ष मूल्यांकन कोई कर पाया तो वह उस में यह जोड़े बिना नहीं रह पाएगा कि इस सरकार ने कानूनों का मनमाने ढंग से इस्तेमाल करते हुए उन्हें अपनी सहूलियत से तोड़ामरोड़ा और बनायामिटाया.

जो कानून उस के हिंदू राष्ट्र निर्माण के एजेंडे में अड़ंगा थे उन का प्रभाव कम किया गया या उन्हें खत्म ही कर दिया गया और जो उस में सहायक थे उन्हें और प्रभावी बना कर किसानों, दलितों, अल्पसंख्यकों व आदिवासियों के लिए मुश्किलें पैदा की गईं. इन तबकों के लोगों की जिंदगी दुश्वार करने के लिए दरियादिली से कानून बनाए और थोपे गए. प्रस्तावित जनसंख्या नियंत्रण कानून इन में से एक है जिसे सांसद राकेश सिन्हा एक प्राइवेट बिल के जरिए राज्यसभा में पेश कर चुके हैं. इस पर बहस होनी है. बिहार के राकेश सिन्हा आरएसएस के कट्टर विचारक हैं जिन्हें भगवा गैंग ने अपने हिंदुत्व के एजेंडे को मजबूती देने के लिए खासतौर से संसद में भेजा है. ये वही राकेश सिन्हा हैं जो साल 2018 में राममंदिर निर्माण के लिए भी प्राइवेट बिल पेश करने को उतावले थे जबकि मंदिर का मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था. उन्हें यह शक और डर सता रहा था कि कहीं सब से बड़ी अदालत से मनमाफिक फैसला नहीं आया तो राममंदिर निर्माण का सनातनी सपना अधूरा रह जाएगा. बहरहाल, फैसला उम्मीद के मुताबिक आया और अयोध्या में करोड़ों की लागत से राममंदिर बन भी रहा है.

राकेश सिन्हा जैसे कट्टर संघियों की नई चिंता या मुहिम अब जिस नए ट्रैक पर है वह जनसंख्या है. ये चाहते हैं कि सभी लोग सवर्णों की तरह कम से कम बच्चे पैदा करें लेकिन दलील हमेशा की तरह राष्ट्रहित की दे रहे हैं और बढ़ती जनसंख्या के नुकसान गिनाने लगे हैं. कुछ सालों पहले तक प्राइमरी और मिडिल स्कूलों में निबंधों के जरिए छात्रों से उम्मीद की जाती थी कि बालिग हो कर वे जनसंख्या के नुकसानों को ध्यान में रखते हुए एक या दो बच्चे ही पैदा कर तसल्ली कर लेंगे. वे बच्चे बड़े हो कर भूल गए कि उन्होंने क्याक्या पढ़ा था, तो अब कानून बना कर जनसंख्या नियंत्रण का ख्वाब देखा जा रहा है. इस के पीछे भी हिंदुत्व का एजेंडा साफ दिख रहा है, जिसे कम से कम शब्दों में सम झा जाए तो सार कुछ इस तरह निकलता है कि ऊंची जाति वाले हिंदू कम संतानें पैदा करते हैं और मुसलमान ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं. इस से होता यह है कि मुट्ठीभर लोगों का टैक्स का पैसा ज्यादा बच्चे वालों के पास इमदाद की शक्ल में चला जाता है जो टैक्स नहीं देते हैं. जबकि यह आधाअधूरा सच है.

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दरअसल, इस से कम बच्चे पैदा करने वालों, जाहिर है सवर्ण हिंदुओं को बहकायाफुसलाया जाता है कि सरकार तो तुम्हें वह सब देने को तैयार है जिस की तुम उम्मीद करते हो और हकदार हो लेकिन इन की बढ़ती आबादी सबकुछ निगल जाती है. कानून के जरिए आबादी को काबू में करने का सपना अव्यावहारिक और बेतुका है, यह बात कई उदाहरणों और तथ्यों से साबित भी होती है. लेकिन मौजूदा सरकार अपनी मंशा के चलते दुनियाभर के आंकड़ों व उदाहरणों, खासतौर से चीन से कोई सबक नहीं ले रही और 5वीं व 8वीं कक्षा के निबंधों के मसौदे पर अड़ी है कि जनसंख्या बढ़ने से गरीबी बढ़ती है, लोगों की सेहत गिरती है, प्रदूषण और बीमारियां फैलती हैं, रोजगार के मौके कम हो जाते हैं, जीवनस्तर घटिया हो जाता है और अर्थव्यवस्था चरमरा जाती है आदिआदि. उत्तर प्रदेश का सच मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के निर्देश पर राज्य का विधि आयोग उत्तर प्रदेश जनसंख्यक (नियंत्रण, स्थिरीकरण व कल्याण) विधेयक 2021 को अंतिम रूप दे रहा है. उम्मीद की जा रही है कि वहां चुनाव के पहले यह कानून अमल में आ सकता है. योगी आदित्यनाथ और राकेश सिन्हा या फिर सांसद रवि किशन जिन्होंने अभीअभी अपने नाम के आगे अपना सरनेम शुक्ला लगा कर अपनी ब्राह्मण जाति दर्शाना शुरू किया है,

में मानसिकता के मामले में कोई खास फर्क नहीं है. गौरतलब है कि गोरखपुर से भाजपा सांसद व भोजपुरी कलाकार रवि किशन भी जनसंख्या नियंत्रण पर प्राइवेट बिल लोकसभा में रखने वाले हैं. इस बिल का मसौदा उत्तर प्रदेश के विधेयक से ज्यादा अलग होने की उम्मीद करना बेकार की बात है क्योंकि इन सभी का उद्भव आरएसएस है. पिछली 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस के मौके पर योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश की जनसंख्या नीति 2021-2030 को पेश करते कहा था कि इस का मकसद 2026 तक जन्मदर को 2.1 प्रति हजार और फिर 2030 तक 1.9 पर लाना है जो अभी 2.7 फीसदी है. जन्मदर का मतलब होता है कि औसतन एक महिला कितनी संतान पैदा करती है. उन्होंने यह भी कहा था कि आबादी जिस तेजी से बढ़ रही है उस से स्वास्थ्य समेत अन्य सुविधाएं देने में कठिनाई आ रही है, इसलिए आबादी को काबू करना जरूरी हो गया है. इस प्रस्तावित विधेयक के मसौदे में स्पष्ट किया गया है कि यह ‘टू चाइल्ड पौलिसी’ को बढ़ावा देता है.

जो लोग केवल 2 बच्चे पैदा करेंगे, उन्हें कई रियायतें दी जाएंगी और जो 2 से ज्यादा बच्चे पैदा करेंगे उन से कई रियायतें छीन ली जाएंगी. यह कोई नई बात नहीं है. कई राज्यों में यह प्रावधान लागू है. इस का बेहतर उदाहरण मध्य प्रदेश है जहां 2 से ज्यादा संतान होने पर सरकारी नौकरी छीन ली जाती है. हैरानी की बात यह है कि राज्य में यह प्रावधान 26 जनवरी, 2000 को लागू किया गया था, तब सरकार कांग्रेस की थी और मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह थे. लोगों को यह कानून रास नहीं आया तो उन्होंने दिग्विजय सिंह और कांग्रेस को चलता कर दिया. लेकिन उत्तर प्रदेश के मसौदे में यह भी जोड़ा गया कि 2 से अधिक बच्चे वाले व्यक्ति का राशनकार्ड 4 सदस्यों तक सीमित रहेगा और वह किसी भी तरह की सरकारी सहायता का पात्र नहीं होगा. अगर यह विधेयक हो रही चर्चाओं के मुताबिक, लागू हो पाया तो इस के कानून में तबदील होने पर सभी सरकारी कर्मचारियों और स्थानीय निकाय चुनावों में चुन कर आए प्रतिनिधियों को हलफनामा देना पड़ेगा कि वे इन नियमों का उल्लंघन नहीं करेंगे यानी 2 से ज्यादा बच्चे पैदा नहीं करेंगे और करेंगे तो न तो वे सरकारी नौकरी पाने के हकदार होंगे और न ही स्थानीय निकायों के चुनाव लड़ सकेंगे.

इस मसौदे में कहा गया है कि यह कानून राज्य के उन सभी दंपतियों पर लागू होगा जहां लड़के की उम्र 21 और लड़की की उम्र 18 साल है. जिस दंपती के 2 बच्चे हैं और वे तीसरा बच्चा गोद लेते हैं तो इसे कानून का उल्लंघन नहीं माना जाएगा लेकिन ऐसा कोई भी दंपती एक से ज्यादा बच्चा गोद नहीं ले सकेगा. अगर किसी दंपती के बच्चे नहीं हैं तो वे अधिकतम 2 बच्चों को गोद ले सकते हैं. तीसरा बच्चा गोद लेना कानून का उल्लंघन माना जाएगा. दिलचस्प मसौदे में यह भी कहा गया है कि अगर दूसरी बार में जुड़वां बच्चे पैदा होते हैं तो 3 बच्चे होने पर भी कानून का उल्लंघन नहीं माना जाएगा. मसौदा कितना बचकाना और क्रूर है, इस की एक मिसाल यह प्रावधान भी है कि अगर 2 बच्चों में से एक दिव्यांग है तो दंपती तीसरा बच्चा पैदा कर सकते हैं यानी यह भी कानून का उल्लंघन नहीं होगा. अगर 2 बच्चे हैं और उन में से किसी एक की मौत हो जाती है तो ऐसे दंपतियों को तीसरा बच्चा पैदा करने की इजाजत रहेगी. इसी तरह एक से अधिक पति या पत्नी होने पर दंपती को अलग इकाई माना जाएगा. लेकिन सभी शादियों से वह अधिकतम 2 बच्चे ही पैदा कर सकता है.

तीसरा बच्चा किसी भी जीवनसाथी से हो, वह कानून का उल्लंघन माना जाएगा. खामियों से भरपूर पहली नजर में ही मसौदा खामियों से भरा नजर आ रहा है जो काफी हद तक स्त्रीविरोधी भी है और जिस का उस के मकसद जनसंख्या नियंत्रण से कोई खास वास्ता भी नहीं. सरकार की नजर में दिव्यांग बच्चा किसी काम का नहीं होता, इसलिए मांबाप तीसरा बच्चा पैदा कर सकते हैं, यह बात दिव्यांगों में हीनता भर देने वाली नहीं तो और क्या है. अगर तीसरा बच्चा भी दिव्यांग हुआ तो क्या होगा, यह स्पष्ट नहीं किया गया है. कितने दिव्यांग बच्चे एक सामान्य स्वस्थ बच्चे के बराबर सरकार की नजर में होते हैं. यह भी साफ हो जाता तो बात हर्ज की न होती. अगर किसी विधुर के 2 बच्चे हैं और वह दूसरी शादी करता है तो तीसरा बच्चा पैदा करने से वह हिचकिचाएगा क्योंकि उसे राशनकार्ड सहित दूसरी सरकारी सुविधाएं चाहिए होंगी. जाहिर है यहां खमियाजा वह औरत भुगतेगी जो किसी विधुर या बच्चों वाले तलाकशुदा से शादी करेगी. सरकार तो सीधेसीधे उस से मां बनने का हक छीन रही है जो हरेक महिला की स्वाभाविक इच्छा होती है. उलट इस के, यह बात विधवाओं और तलाकशुदा बच्चेवालियों पर भी लागू होती है कि वे अपने नए पति को औलाद का सुख सरकारी सुखसुविधाएं छोड़ने की शर्त पर ही दे पाएंगी. ऐसे में विधवा विवाह और तलाकशुदा महिलाओं की दूसरी शादी आसान नहीं रह जाएगी जो धार्मिक व सामाजिक वजहों के चलते पहले से ही मुश्किल है. एक खामी यह भी है कि अगर किसी दंपती के एकसाथ 3 या ज्यादा बच्चे होते हैं तो उन की वैधानिक स्थिति क्या होगी, इस पर मसौदा खामोश है.

इसी तरह यह मसौदा सिंगल पेरैंट्स के बारे में भी कुछ नहीं कहता कि शादी करने और न करने पर भी 2 या 3 में उन के जैविक बच्चों को गिना जाएगा या नहीं. यदि हां, तो उस का फार्मूला क्या होगा? ऐसे कानून चूंकि एक खास मकसद से बनाए गए होते हैं, इसलिए आमतौर पर किसी काम के नहीं होते. मध्य प्रदेश में हजारों दंपती 2 से ज्यादा बच्चे होने के बाद भी धड़ल्ले से सरकारी नौकरी कर रहे हैं. तीसरे बच्चे के जन्म को या तो वे छिपा जाते हैं या फिर बच्चा किसी परिचित या रिश्तेदार को कागजों में गोद देते हैं लेकिन वह रहता उन्हीं के पास है. सरकार के पास ऐसा कोई जरिया नहीं होता कि वह बड़े पैमाने पर इन्हें पहचान सके. मध्य प्रदेश स्कूली शिक्षा विभाग के एक अधिकारी की मानें तो महिलाएं ज्यादा होने के कारण ऐसा हमारे विभाग में ज्यादा होता है लेकिन कार्रवाई उन्हीं के खिलाफ हो पाती है जिन की कोई प्रमाण सहित शिकायत करता है. लेकिन चिंता की बड़ी बात लड़के की आदिम चाहत है. लोग दोतीन लड़कियों के बाद भी बेटे की चाहत नहीं छोड़ पाते क्योंकि वह तारने वाला जो होता है. इस धार्मिक बीमारी का इलाज किसी सरकार या कानून के पास नहीं तो फिर ऐसे बेतुके कानूनों की जरूरत क्या और उन से किस वर्ग के लोगों को ज्यादा फायदा मिलेगा और किस तबके का नुकसान ज्यादा होगा, यह देखा जाना भी जरूरी है.

उत्तर प्रदेश का विधेयक साफतौर पर कहता है कि जो 2 से कम बच्चे पैदा करेगा उसे सरकारी नौकरी में अतिरिक्त वेतन वृद्धि दी जाएगी. उस के पैंशन प्लान में भी सरकारी योगदान ज्यादा रहेगा. इतना ही नहीं, ऐसे लोगों को सरकारी एजेंसियों के मकान और भूखंड के आवंटन में प्राथमिकता दी जाएगी. बच्चों की शिक्षा और इलाज फ्री होगा. बीपीएल कार्डधारी अगर एक बच्चे के बाद नसबंदी कराते हैं तो उन्हें एकमुश्त एक लाख रुपए दिया जाएगा (अर्थात सरकार की नजर में एक बच्चे की कीमत या लागत, कुछ भी कह लें, एक लाख रुपए है) और स्नातक स्तर तक सरकार मुफ्त शिक्षा मुहैया कराएगी. कानून का पालन न करने वालों को कोई शारीरिक सजा नहीं दी जाएगी, बस, उन से ऊपर बताई सुविधाएं छीन ली जाएंगी जो किसी सजा से कम नहीं. शायद ही केंद्र या भाजपा सरकार यह बता पाए कि राशन सरीखी दर्जनों सरकारी सहूलियतों को किसी दुधमुंहे बच्चे से छीनने से किस को क्या हासिल होगा.

तीसरा बच्चा क्यों इन सहूलियतों का हकदार नहीं होगा जबकि उस बेचारे की तो कोई गलती ही नहीं जो 18 साल से ले कर 70 साल की उम्र तक देश के लिए कुछ न कुछ करता ही रहेगा. फिर वह कैसे दोषी हुआ और मांबाप के किए की सजा उसे क्यों दी जा रही है, बात सम झ से परे है. यानी कम बच्चे पैदा करने वालों को काफीकुछ दिया जाएगा और ज्यादा बच्चे पैदा करने वालों से काफीकुछ छीन लिया जाएगा. अब ये किस तबके के लोग होंगे, इस पर गौर किया जाए तो यह कानून चाहे वह उत्तर प्रदेश में बने या संसद से निकल कर देशभर में लागू हो, सीधेतौर पर ऊंची जाति वाले हिंदुओं को देने वाला और मुसलमानों से छीनने वाला होगा जो एक शिष्ट व संभ्रांत कानूनी और धार्मिक षड्यंत्र है. प्रस्तावित कानून में यह जाने क्यों नहीं कहा गया कि जो पंडित तीसरे बच्चे के जनेऊ और अन्नप्राशन्न संस्कार कराएगा उसे भी कानूनन दोषी मान सजा दी जाएगी और अगर किन्नर तीसरे बच्चे के जन्म पर नेग मांगने जाएंगे तो वे भी सजा के हकदार होंगे और इन को जेल क्यों न भेजा जाए? मुसलिम विरोधी कानून असल में जनसंख्या नियंत्रण कानून आरएसएस के हिंदूवादी एजेंडे का चरणबद्ध हिस्सा है.

संघ प्रमुख मोहन भागवत अकसर इस की जरूरत मौका देख कर बताते रहे हैं. 22 जुलाई को उन्होंने असम के गुवाहाटी में जोर दे कर कहा था कि साल 1930 से ही संगठित तरीके से देश में मुसलिम आबादी बढ़ाने की कोशिशें चल रही हैं जिस की वजह भारत को पाकिस्तान बनाना है. 2002 के गुजरात विधानसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी खुलेआम मुसलमानों पर 5 से 25 होने का आरोप लगाते रहे हैं जो किसी तरह से आंकड़ों से साबित नहीं किया जा सकता. यह बात अलगअलग तरीकों से सोशल मीडिया पर साल 2014 से ही प्रचारित की जाती रही है जिस में खास यह डर फैलाना है कि अगर मुसलिमों की आबादी इसी तरह बढ़ती रही तो वह दिन ज्यादा दूर नहीं जब वे फिर से देश पर राज कर रहे होंगे और भारत भी मुसलिम राष्ट्र बन जाएगा. बात में दम लाने के लिए इन भड़काऊ पोस्टों में यह डर भी हिंदुओं को दिखाया जाता है कि फिर तुम्हारे बच्चों को भाले की नोंक पर बलात मुसलमान बनाया जाएगा, हिंदू औरतों की सरेराह इज्जत लूटी जाएगी और मंदिर नष्ट कर दिए जाएंगे, इसलिए जाग जाओ. अब धर्म और राजनीति के इन दुकानदारों को कौन बताए कि हिंदू को उन्होंने सोने ही कब दिया,

उसे तो आजादी के पहले से ही मुसलमानों का डर दिखादिखा कर उस की नींद इस हद तक उड़ा रखी है कि वह हिंसक, कुंठित और पूर्वाग्रही हो चला है. हरियाणा में अगर हिंदूवादी पंचायतें आयोजित कर मुसलिम औरतों के कपड़े उतारने की बात की जा रही है तो सहज सम झा जा सकता है कि सामाजिक स्थिति कितनी बदतर हो गई है. सोशल मीडिया पर क्याक्या नहीं होता, इस की तो बात करना ही बेकार है. 2000 के गुजरात विधान से या चुनावों में नरेंद्र मोदी खुलेआम मुसलमानों पर ऐसे 25 होने का आरोप लगाते रहे हैं जो किसी तरह से आंकड़ों से साबित नहीं कि जा सकता. मुसलिमों की बढ़ती आबादी का हल्ला या डर कोई नई बात नहीं है, जिसे आजादी के बाद से ही बड़ा खतरा बताया जाता रहा है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो 2 साल पहले आजादी के दिन लालकिले से साफसाफ कहा था कि कम बच्चे पैदा करने वाले एक तरह से देशभक्त हैं. इस का उलट मतलब यह निकलता है कि ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले देशद्रोही हैं. इस पर हर किसी का ध्यान मुसलमानों की तरफ गया था क्योंकि उन्हें ज्यादा बच्चे पैदा करने वाला पहले से ही मान लिया गया है जो पूरी तरह गलत बात भी नहीं है.

पर इस के लिए कानून कतई जरूरी नहीं जो एक तरह से हर तबके की औरत की कोख पर पहरा है और सहवास या सैक्स की कुदरती जरूरत व इच्छा के अलावा प्राइवेसी पर भी हमला है. पाकिस्तान बनने के बाद 1951 की जनगणना में हिंदुओं की आबादी 84.1 फीसदी और मुसलमानों की आबादी 9.8 फीसदी थी. 2011 की जनगणना में हिंदुओं की आबादी 79.8 फीसदी और मुसलमानों की 14.23 फीसदी की शक्ल में सामने आई. इसी को आधार मानते हुए एक काल्पनिक दहशत फैलाई गई कि जिस दिन मुसलमान कुल आबादी का 30 फीसदी हो जाएंगे उस दिन देश हिंदुओं के हाथ से खिसक जाएगा. जबकि हकीकत बदल रही है अफसोस यह है कि आज के दौर में धर्म के ठेकेदार राजनीति और राजनेता पूजापाठ करते खुलेआम नजर आते हैं. इसलिए देशभर में एक बड़ी गफलत फैली हुई है जो हकीकत को न तो देखती और न ही देखने देती है. अफसोस यह भी है कि आईना दिखाने वाला मीडिया भी सरकारी भोंपू बन चुका है. एक वक्त था जब शिक्षित और जागरूक मुसलमान भी बच्चों को खुदा की नेमत, रहमत और तोहफा सहित न जाने क्याक्या मानते परिवार नियोजन को हराम मानता था.

एनएफएचएस यानी नैशनल फैमिली हैल्थ सर्वे के ताजे आंकड़ों पर गौर करें तो हिंदुओं के साथसाथ मुसलमानों की प्रजनन दर भी तेजी से गिरी है. इस एजेंसी के मुताबिक, 1992-93 में हिंदुओं की प्रजनन दर 3.3 थी जो 2015-16 में घट कर 2.1 फीसदी रह गई. ठीक इसी तर्ज पर मुसलमानों की प्रजनन दर जो साल 1992-93 में 4.4 थी वह घट कर 2015-16 में 2.6 रह गई. इस लिहाज से हिंदू परिवारों की प्रजनन दर 27 फीसदी घटी जबकि मुसलिम परिवारों में यह गिरावट 40 फीसदी के लगभग है. यह इतना बड़ा अंतर भी नहीं है जिसे पाटने को किसी नियंत्रण कानून की जरूरत पड़े, वह भी बहुत कड़ी शर्तों के साथ. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, अगर आबादी 2.1 फीसदी की दर से भी बढ़ती है तो यह चिंता का विषय नहीं. पौपुलेशन फाउंडेशन औफ इंडिया के जौइंट डायरैक्टर आलोक वाजपेयी के मुताबिक, जनसंख्या विस्फोट उस सूरत में माना जाता है जब प्रजनन दर 4 से ऊपर हो. उत्तर प्रदेश की औसत प्रजनन दर 2015 : 6 में 2.7 थी. ऐसे में कानून लाने की क्या जल्दबाजी है

, इसे आसानी से सम झा जा सकता है कि इस की असल मंशा हिंदुत्व की कोख में कहीं छिपी है. आजादी के वक्त मुसलिम प्रजनन क्षमता हिंदुओं से 10 फीसदी ज्यादा थी जो 70 का दशक आतेआते और बढ़ी क्योंकि उस वक्त तक जागरूक हिंदू गर्भनिरोधकों का इस्तेमाल करने लगे थे लेकिन मुसलमानों ने धार्मिक कारणों से इस से दूरी बनाए रखी थी. 1990 का दशक आतेआते मुसलिमों की भी प्रजनन दर घटी. जाहिर है, उन्होंने भी परिवार नियोजन की अहमियत सम झते उसे अपनाया. इस से ताल्लुक रखती दूसरी दिलचस्प बात यह भी है कि उस वक्त ज्यादा बच्चे पैदा करना और पालना मुसलमानों को भी महंगा पड़ने लगा था. जनसंख्या नियंत्रण कानून शुद्ध रूप से राजनीतिक और धार्मिक दांव है जिस में भगवा खेमे की मंशा वोटों के ध्रुवीकरण की है, क्योंकि 22 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की तादाद लगभग 4.5 करोड़ है. पश्चिम बंगाल की हार अभी तक भाजपा को कसक रही है,

लिहाजा वह कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती. हालांकि, यह बहुत बड़ा जोखिम साबित हो सकता है क्योंकि इस कानून की लपेट में 4 करोड़ दलित भी आ रहे हैं. वे अगर बंगाल की तर्ज पर सपा के साथ हो लिए तो भाजपा को लेने के देने पड़ जाने के लिए पिछड़ों का भी आज की जनसंख्या नियंत्रण आपनाना आसान नहीं है. इस कानून से सिर्फ सवर्ण हिंदू उत्साहित हैं जिन की नई पीढ़ी एक बच्चा पैदा करने से पहले भी हजार बार सोचती है. खुद को उदार बताने वाले इन हिंदुओं की एक मंशा यह भी है कि इन विधर्मी और छोटी जाति वालों को मुफ्त का सरकारी मालपानी मिलना बंद हो, तभी इन की अक्ल ठिकाने आएगी. यह जान कर हैरानी होती है कि इस संवेदनशील और व्यक्तिगत मसले पर लोगों में विकट की उदासीनता है क्योंकि मांगने के बाद भी राज्य सरकार को महज 8 हजार के लगभग लोगों ने प्रतिक्रियाएं या अपनी राय दीं. इन में भी अधिकांश लोगों ने यह मांग रखी थी कि 2 से ज्यादा बच्चे पैदा करने वालों से आरक्षण की सहूलियत भी छीनी जाए.

चीन से सबक लें जब कानून बना कर आबादी काबू की जाती है तो हाल क्या होता है, इस का विस्तार से अध्ययन बढ़ती जनसंख्या को ले कर चिंतित हो रहे लोगों को कर लेना चाहिए और सबक चीन से लेना चाहिए, जहां अब लोगों को 2 से ज्यादा बच्चे पैदा करने को प्रोत्साहन दिया जा रहा है. 30 जुलाई के कुछ अखबारों में एक दिलचस्प खबर यह छपी थी कि चीन के दक्षिणी पश्चिमी प्रांत के पजिहुआ शहर में सरकार दूसरा और तीसरा बच्चा पैदा करने वालों को हर महीने 500 युआन यानी 5,748 रुपए प्रतिबच्चा हर महीने देगी. यह वही चीन है जिस ने बढ़ती आबादी को रोकने के लिए साल 1979 में सिंगल चाइल्ड पौलिसी लागू की थी. दूसरे बच्चे की पैदाइश पर दंपतियों को कड़े दंड दिए जाते थे जिन में से एक गर्भपात करना भी था. इस से चीन की आबादी कम होने लगी लेकिन जल्द ही उसे सम झ आ गया कि इस से युवाओं पर भार पड़ रहा है और बूढ़ों की तादाद बेतहाशा बढ़ रही है जो अनुत्पादक हैं. इस वजह से उस ने यह कानून वापस ले लिया और 2 बच्चे पैदा करने की इजाजत दे दी. लेकिन इस से भी कोई खास फायदा नहीं हुआ क्योंकि 20 साल बच्चे पैदा नहीं हुए या न के बराबर हुए तो ज्यादा जीने वाले बूढ़ों की खासी फौज वहां तैयार हो गई है.

2010 से चीन की गिरती विकास दर उस के लिए चिंता की बात है और वहां की सरकार मानने लगी है कि उस के जनसंख्या नियंत्रण कानून के चलते ऐसा हुआ. बूढ़ों की सेवा से थक रहे हैं युवा अब युवा काम करें या अपने बच्चों सहित पेरैंट्स और ग्रैंड पेरैंट्स की देखभाल करें, यह समस्या चीन की तरह कभी हमारे देश और जनसंख्या नियंत्रण कानून वाले राज्यों में भी खड़ी हो सकती है. तब हमारी सरकारें भी वही करने को मजबूर होंगी कि ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करो, पैसा, शिक्षा और दीगर खर्च हम देंगे. लेकिन तब तक बहुत नुकसान हो चुका होगा जिस की भरपाई हमारादेश नहीं कर पाएगा क्योंकि हमारी अर्थव्यवस्था, चीन तो दूर की बात है, छोटे से पड़ोसी देश बंगलादेश के सामने भी कहीं नहीं ठहरती है. जब युवा ही नहीं रहेंगे तो कौन मजदूरी सहित दूसरे मेहनत वाले काम करेगा, इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है. इसलिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारों को इस तरह की फैशनेबल मूर्खता से बचना चाहिए और बजाय नियंत्रण के, प्रबंधन पर ध्यान देना चाहिए. यानी सभी के रोजगार को प्रोत्साहन देना चाहिए.

सरकारी नियमकानून हर काम पर कुंडली मारे बैठे हैं. सरकार के पास जनता की सेवा की फुरसत नहीं, पर कंट्रोल की फुरसत है. लेकिन राज्य के 6 करोड़ बेरोजगार युवा इस झांसे या लालच में भाजपा को वोट देंगे, ऐसा कहने की कोई वजह नहीं, क्योंकि वे कह और पूछ रहे हैं कि यह ड्रामा चुनाव के वक्त ही क्यों? इस कानून का प्रभाव तो 20-25 साल बाद होगा. आज तो सिर्फ ढोल पीटा जाएगा. युवा यानी जनसंख्या का आधा हिस्सा बेकार रहे जबकि नौकरियों सहित तमाम प्राकृतिक संसाधन देश में मौजूद हैं. उन का दोहन कर रोजगार क्यों सरकार पैदा नहीं कर पाई और वोट झटकने के लिए जब जवाब देने का वक्त आया तो बढ़ती आबादी का डर दिखा कर मूर्ख बना रही है. भाजपा की बड़ी चिंता यही युवा वर्ग है जो उस से छिटक रहा है और यह मानने को तैयार नहीं कि बेरोजगारी बढ़ती आबादी की वजह से ही है. सच तो यह है कि युवा रोजगार के मसले पर न तो मोदी सरकार से संतुष्ट है और न ही योगी सरकार से खुश है क्योंकि वह बेरोजगारी के चलते जिल्लत और जलालतभरी जिंदगी जी रहा है.

उसे न तो मंदिर से मतलब है और न किसी हिंदूमुसलमान की घटतीबढ़ती आबादी से कोई सरोकार है. भुगतेंगी तो महिलाएं युवाओं के बाद अब महिलाओं के नाराज होने की बारी है. कहने को तो उन्हें खुश होना चाहिए क्योंकि नए कानून के वजूद में आते ही उन्हें बारबार गर्भधारण नहीं करना पड़ेगा लेकिन कानून कैसे उन की कोख पर गाज गिरा रहा है, यह उन्हें सम झ आ रहा है. कानून की मार से बचने के लिए पति उन्हें नसबंदी कराने को मजबूर करेंगे ताकि उन की खुद की मर्दानगी सलामत रहे. पूरे देश सहित उत्तर प्रदेश में भी नसबंदी का औपरेशन महिलाओं के हिस्से में ही आता है. लिहाजा, मना करने पर घरों में कलह होगी जिस की जिम्मेदारी सरकार तो लेने से रही. होगा यह भी कि 2 के बाद जल्दबाजी, असावधानी या लापरवाही के चलते वे तीसरी बार गर्भधारण करेंगी तो पति उन्हें गर्भपात के लिए मजबूर करेंगे जो उन की सेहत और जिंदगी के लिए खतरा ही होगा क्योंकि बारबार गर्भपात करने पर डाक्टर को को ही प्रस्तावित कानून अपराधी मानेगा. अगर गर्भपात नहीं हो पाया तो लोग, खासतौर से निचले तबके के, तीसरे बच्चे को बो झ सम झते हुए उसे कूड़े के ढेर या घूरे पर फेंकने में हिचकिचाएंगे नहीं. मां बनना है या नहीं और बनना है तो कितने बच्चों की, यह फैसला लेने का पहला हक औरत को होना चाहिए क्योंकि बच्चे को 9 महीने पेट में वही रखती है और परवरिश भी करती है.

लेकिन अब फैसला करने का अधिकार सरकार ले रही है, जो 2 बच्चों के बाद परिवार नियोजन अपनाने पर एक सर्टिफिकेट पकड़ा देगी, जिसे राशन की दुकान से ले कर नौकरी के आवेदन और अगर चुनाव लड़ा तो उस के फौर्म में भी लगाना पड़ेगा. यह एक और नई कागजी सिरदर्दी लोगों को बेवजह ढोनी पड़ेगी कि मेरे 2 ही बच्चे हैं. होना यह चाहिए परिवार नियोजन सस्ता होना चाहिए. कंडोम मुफ्त मिलने चाहिए. गर्भपात मुफ्त में होना चाहिए. नसबंदी औपरेशन मुफ्त में हो. धार्मिक किस्सेकहानियों को प्रतिबंधित करना चाहिए जो ज्यादा संतानोत्पत्ति को बढ़ावा देते हैं, मसलन पांडव 5 और कौरव 100 भाई थे. दशरथ के 4 पुत्र थे बच्चा भगवान की देन होता है. यह भावना निकाली जानी चाहिए : ‘सौभाग्यवती भव:’ शब्दों पर बैन लगना चाहिए. रोक उन पंडों, ज्योतिषियों और तांत्रिकों पर क्यों नहीं जो शर्तिया संतान दिलाने का दावा करते हैं. अगर उन के दावों में दम है तो सरकार को चाहिए कि वह जनसंख्या नियंत्रण के लिए उन की सेवाएं ले क्योंकि जो लोग संतान पैदा करवा सकते हैं वे पैदा होने से रोक भी सकते हैं.

बैडरूम में कानून के दाखिले होने से लोग, खासतौर से महिलाएं, असहज ही होंगे क्योंकि सरकारी सहूलियतें और सुविधाएं महंगाई के चलते उन की मजबूरी हो चली हैं. लिहाजा, उन की व्यक्तिगत जिंदगी और निजता पूरे तनाव के साथ प्रभावित होगी. गंभीरता से ये कानूनवीर सोचें और सर्वे करवाएं तो दोषी खुद को ही पाएंगे कि हम न तो लोगों को रोजगार दे पा रहे और न उन की सेहत के लिए कुछ कर पा रहे हैं. हम तो बस हिंदुत्व के एजेंडे और मंदिरनिर्माण में लगे रहे. इन कर्मों की भी खिसियाहट और अपराधबोध, बशर्ते, हो तो ये कानूनवीर इस नतीजे पर जरूर पहुंचेंगे कि वे प्रस्तावित मसौदे को कानूनी अमलीजामा पहनाने की एक और गलती करने जा रहे हैं.

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