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पतंजलि के “आटे के बिस्किट”! क्या रामदेव सिर्फ एक “सेठ” है ?

योग को व्यापार बनाने वाले रामदेव का “पतंजलि” अपने आप में एक ब्रांड बन चुका है. इसके लिए रामदेव ने अनेक नाटक नौटंकियां की. खूब आलोचनाएं और प्रशंसा भी पाई है.मगर अब उनके अनेक प्रोडक्ट पर प्रश्न चिन्ह लग गया है. बहुत सारे प्रोडक्ट की बात अगर हम यहां छोड़ रहे हैं और इस रिपोर्ट में हम आपसे योगी रामदेव के सिर्फ “आटे के बिस्किट” के बारे में चर्चा कर रहे हैं. वस्तुत: उन्होंने जब अपने अभिनव आटे से निर्मित बिस्किट को लांच किया था तो बेहतर होने के कारण उसे देश की जनता ने देखते ही देखते हाथों हाथ लिया था.

दरअसल, रामदेव का बिस्किट अन्य कंपनियों की अपेक्षा स्वादिष्ट, सुस्वादु था और यही कारण था कि वह भारी डिमांड में आ गया था.मगर अब यह बिस्किट तीसरे दर्जे की कंपनियों के बिस्कुट जैसा घटिया हो चुका है. जो कि पतंजलि इंडस्ट्री के रामदेव के धीरे-धीरे पतन की कहानी बयां करने जा रहा है.
रामदेव ने आनन-फानन में पतंजलि को खड़ा किया और यह दिखा दिया था कि स्वदेशी और प्राकृतिक की बातें करके किस तरह देश और दुनिया में अपना एक व्यापार का साम्राज्य खड़ा किया जा सकता है. यह सब तो संभव हो गया है.मगर क्वालिटी की अगर बात की जाए तो जो शिकायतें सामने आ रही है उसे पतंजलि को संज्ञान में लेना चाहिए और अपने प्रोडक्ट को बेहतर से बेहतर बनाते हुए आगे बढ़ना चाहिए.
रामदेव के बड़े और चर्चित प्रोडक्ट की बात हम छोड़ दें और आज यहां सिर्फ आटे के बिस्किट की बात करें तो जो जमीनी सच हम आपको बताने जा रहे हैं उस की हकीकत रामदेव को भी पता नहीं है.

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शायद यही कारण है कि आटे के बिस्किट इतनी घटिया स्तर के बन चुके हैं जो रामदेव की छवि को धूमिल कर रहे हैं.रामदेव ने जब कंपनी खड़ी की थी तो बड़ी-बड़ी बातें की थी यही कारण है कि विकिपीडिया में भी अगर हम देखें तो यह लिखा जाता है -“पतंजलि आयुर्वेद लिमिटेड भारत प्रांत के उत्तराखंड राज्य के हरिद्वार जिले में स्थित आधुनिक उपकरणों वाली एक औद्योगिक इकाई है. इस औद्योगिक इकाई की स्थापना शुद्ध और गुणवत्तापूर्ण खनिज और हर्बल उत्पादों के निर्माण हेतु की गई है.”
मगर अब यह सच नहीं है. और जो जमीनी ग्राउंड का सच है वह हम आपको इस रिपोर्ट में बता रहे हैं.

व्यापारी “रामदेव” के पास क्या जवाब है?

इस संवाददाता ने जब कहीं मेहमान बन कर पतंजलि इंडस्ट्री यानी रामदेव की “आटे की बिस्किट” का स्वाद लिया तो वह बाबा के आटे की बिस्कुट का मुरीद बन गया. क्योंकि देश की अन्य प्रतिष्ठित बिस्किट कंपनियों के समकक्ष के आटे का बिस्किट मानो दूध से भरा हुआ महसूस हुआ. और अक्सर लोगों के बीच यह बात दावे के साथ कहने में गुरेज नहीं थी कि के आटे का बिस्किट अपने आप में एक नजीर है जो बताती है कि रामदेव कितनी अच्छी प्रोडक्ट देश की जनता के लिए लेकर आए थे.

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मगर देखते देखते यह भ्रम टूट गया जब एक दिन पैकेट में से बेहद घटिया किस्म की बिस्किट बाहर आने लगे जिनमें न तो स्वाद था न ही पहले जैसी उत्तम क्वालिटी.इस संवाददाता ने सोचा कि शायद यह पहली बार गलती से हुआ होगा. 15 दिन बाद जब उन्होंने दूसरे पैकेट खरीदे, तो उनका भी वही पुराना हालो अहवाल मिला. यही नहीं आटे के बिस्किट इतनी भदेस स्थिति में थे जिसे की शर्मनाक ही कहा जा सकता है.
जब संवाददाता ने पतंजलि के एक डीलर (छत्तीसगढ़) नरेश अग्रवाल से बात की तो अनजान बन गए और जब लिखित शिकायत की बात कही गई तो उन्होंने कहा कि मेरे पास शिकायत करने से भी कुछ नहीं होगा. मैं भी अगर शिकायत करूंगा तो भी कुछ नहीं होगा. अच्छा है, कि आप स्वयं इसकी शिकायत उनके अधिकृत शिकायत साइट पर करें.

कुल मिलाकर के सब कुछ ऐसा लगता है कि रामदेव की पतंजलि और उनका स्वदेशी व्यापार का यह साम्राज्य धीरे-धीरे उन्हीं खामियों और खामियों से भरपूर होता जा रहा है, जहां सिर्फ रुपए पैसे ही दिखते हैं लोगों का विश्वास कोई मायने नहीं रखता.सवाल लाख टके का यह है कि एक प्रोडक्ट को खड़ा करने के बाद क्या उसे इस तरीके से बाजार में खत्म करने के पीछे जो घटनाक्रम घटित हो रहा है उसकी जानकारी भी पतंजलि और रामदेव को है या वह भी कुंभकरणी निद्रा में निमग्न है.

“एक सेठ” बन गए रामदेव भी!

रामदेव की जहां खूब आलोचना होती है, वहीं उनके चाहने वाले भी है.दरअसल, योग गुरू के बाद बिजनेसमैन बनकर “शुद्धता” की बात करने वाले रामदेव को करारा झटका लगता रहा है. कई साल पहले उनकी कंपनी पतंजलि के लगभग 40% प्रोडक्ट्स उत्‍तराखंड की एक लैब द्वारा किए गए थे क्‍वालिटी टेस्‍ट में फेल हो गए थे. इस बात का खुलासा सूचना के अधिकार (आरटीआई) के जबाव आने के बाद हुआ हुआ था. एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक साल 2013 से 2016 के बीच एकत्र किए गए 82 नमूनों में से, 32 प्रोडक्ट क्वालिटी टेस्ट में फेल पाए गए‌ थे.

यह एक नमूना हम आपके सामने प्रस्तुत कर पाए हैं बहुत सी जानकारियां अभी प्रकाश में आ गई है.
ऐसे में यह कहा जा सकता है कि रामदेव को अपनी क्वालिटी में सतत ध्यान देना होगा. अन्यथा कांग्रेस के बहुचर्चित नेता दिग्विजय सिंह ने जो कहा था वह सच होगा कि बाबा रामदेव के भीतर एक सेठ साहूकार छिपा हुआ है. और सभी जानते हैं कि व्यापारी ग्राहक को किसी भी तरह लूटने से बाज नहीं आता.

सिद्धार्थ शुक्ला की बर्थ एनिवर्सरी पर परिवार वाले देंगे फैंस को तोहफा

टीवी के जानेमाने कलाकार सिद्धार्थ शुक्ला के निधन ने सभी को तोड़कर रख दिया था, सिद्धार्थ के जानेे के बाद से अगर कोई सबसे ज्यादा टूटा था तो वो थी , सिद्धार्थ की खास दोस्त शहनाज गिल, उन्होंने सिद्धार्थ को ट्रिब्यूट देने के लिए एक गाना रिलीज किया था, जिसका नाम था ‘तू यही हैं’ .

इस गाने में शहनाज ने हर वो बात डाले थें, जिसे सभी के सामने बयां करने के लिए हिम्मत होनी चाहिए, अब रिपोर्ट की मानें तो शहनाज का परिवार उनके जन्मदिन पर उनके फैंस को खास तोहफा देना चाहता है, जो सिद्धार्थ के बहुत करीब था.

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सिद्धार्थ का बर्थ एनिवर्सरी 12 दिसंबर को है, जिसपर सिद्धार्थ की मां और बहन ने फैसला किया है कि उनका गाया हुआ रैप लॉच करेंगी, जो सिद्धार्थ का सपना था.रिपोर्ट के मुताबिक सिद्धार्थ शुक्ला पहली बार रैप गाने की कोशिश किए थें, जिसमें उनकी मदद शहनाज गिल के भाई शहबाज करते नजर आएं थें. शहबाज ने सिद्धार्थ के लिए रैप लिखा था. उसके बाद से सिद्धार्थ ने इस रैप को गाया था.

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इस रैप से सिद्धार्थ की कई सारी यादें जुड़ी होंगी, शहनाज गिल कुछ दिन पहले एक फिल्म के प्रमोशन के दौरान सिद्धार्थ शुक्ला को यादकर रोने लगी थीं. दरअसल, प्रमोशन के दौरान किसी ने उनके सामने सिद्धार्थ शुक्ला का नाम लिया तो वह खुद को संभाल ही नहीं पाई, और रोने लगी.

बेशक सिद्धार्थ आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी यादें हमेशा हमारे साथ रहेंगी.

Bigg Boss 15 : Vishal Kotian ने मेकर्स को बताया धोखेबाज, कहा- मुझे इविक्शन मंजूर नहींं

बिग बॉस 15 में इस साल बहुत सारे इविक्शन हुए हैं, जिसमें से एक नाम विशाल कोटियान का भी है, जिन्हें कम समय में ही घर से बाहर का रास्ता दिखाया गया है, विशाल कोटियान एक ऐसे कंटेस्टेंट थें, जिन्होंने दर्शकों का जमकर मनोरंजन किया था.

विशाल कोटियान ने इविक्शन पर एक्सक्लूसिव बात करते हुए कहा है कि वह इविक्शन के लिए तैयार नहीं थें, क्योंकि उन्हें एक चाल के तहत घर से बाहर किया गया था.

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विशाल कोटियन ने बताया कि वह पहली बार जब घर में गए थें, तो वह शो को जीतने के लिए गए थें. मैंने अपने पहले एपिसोड से ही दर्शकों का मनोरंज किया था, मैं गेम जीतने के लिए गेम खेल रहा था. जो लोग शो देख रहे होंगे उन्हें पता होगा कि बराई करने के बाद भी अंत में लोग मेरे पास ही आते थें.

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आगे उन्होंने कहा कि 1 घंटे के इविक्शन पर मुझे बाहर निकाल दिया गया था, आगे उन्होंने कहा कि अगर मुझे बाहर करने का फैसला पूरा देश मिलकर लेता तो मुझे कोई दिक्कत नहीं होती, मैं इस इविक्शन को स्वीकार नहीं करता हूं.

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मेकर्स ने ऐसा क्यों किया यह तो मुझे पता नहीं है लेकिन मैं इस गेम को जीतने के लिए आया था, जबसे मैं बाहर आया हूं लगातार ट्विटर पर मेरा नाम ट्रेंड कर रहा है. इससे भी अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोगों में मेरी दीवानगी का क्या असर है.

फैंस लगातर विशाल कोटियन को सपोर्ट कर रहे हैं.

 

संपादकीय

हरियाणा ने एक सिरफिरे कानून के अंतर्गत सभी प्राइवेट कंपनियों और उद्योगों के लिए 30000 के कम के वेतन पाने वाले कर्मचारियों में से 75′ हरियाणा निवासी ही रखने की शर्त रखी है. यह एकदम बेवकूफी वाला कानून है जो भारत की अखंडता और काम की स्वतंत्रता पर ऊपर और नीचे दोनों तरफ से प्रहार करता है. केवल चुनावी लटकोंझटकों के लिए और अपना निकम्मापन छिपाने के लिए बनाए गए इस कानून को अगर थोपा गया तो इस का कृषि कानूनों का सा परिणाम होगा.

जो भी उद्योग या व्यापार हरियाणा में लगाया जाना है उन की प्राथमिकता यही होती है कि स्थानीय लोग ही उन्हें काम करने को मिले. आजकल कंपनियों ने सुनिश्चित नीति के अंतर्गत स्टाफ क्वाटर्स बनाने बंद कर दिए हैं क्योंकि जिसे एक बार घर दे दो वह घर और नौकरी दोनों का मालिक बन बैठता है. किराए पर रहने वाला कर्मचारी थोड़ा ज्यादा मेहनती होता है.

हरियाणा में काम करने वाले कर्मचारी हरियाणा के हैं या कहीं और है, यह नौकरी देने वालों की अब तक ङ्क्षचता नहीं थी. वे टेलेंट और अपनी वेतन क्षमता के अनुसार नियुक्ति करते थे. इस कानून का अर्थ है कि उन्हें घर का प्रमाणपत्र दिखाना होगा, कई तरह की रिटर्न भरती होंगी और व्यर्थ का कागजी बोझ बनाना होगा सिर्फ इसलिए कि मनोहर ङ्क्षसह खट्टर एक बार फिर चुनाव जीत कर आ सकें.

एक देश, एक टैक्स, एक देश एक विवाह कानून, एक देश एक भाषा, एक देश एक धर्म, एक देश एक नेता जैसे नारे लगाने वाली भारतीय जनता पार्टी छोटे से राज्य में सत्ता बचा रखने के लिए इतना छटपटा रही है कि वह संविधान की अखंडता की भावना की ङ्क्षचता भी नहीं करती. संविधान हर जने को कहीं भी जाने और काम करने की स्वतंत्रता देता है. सिविली सेवाओं में पहले दक्षिण भारतीय भरे रहते थे, फिर उत्तर प्रदेश के उच्च ब्राहमण भरे जाने लगे. फिर बिहारियों का कब्जा शुरू हुआ और कैट डोर से गुजराती कनेक्शन वाले प्रभावी पदों पर हैं. वहां यह कानून क्यों न लागू हो. हर राज्य के बाङ्क्षशदे को क्यों न 75′ का स्थान मिले.

भारत सरकार एक तरफ  केंद्रीय अर्धसैनिक बलों को दूसरे राज्यों में भेजने का हक मजबूत कर रही है और पुलिस पोशाक में लाठी बंदूक धारी अलग दिखने वाले सिपाही या अर्धसैनिक हर जगह दिखने लगे हैं. ऐसे में अपने राज्य के ही लोगों को आरक्षण देने का अर्थ है कि खट्टर सरकार अपने यहां नौकरियां पैदा करने में असमर्थ रही है और अब दूसरे राज्यों के कर्मचारियों को निकलवा कर अपने वोटरों को नौकरियां दिलाना चाह रही है ताकि गद्दी बची रहे.

मेरे पति, जेठ और ननद के बीच संपत्ति को लेकर काफी मनमुटाव चल रहा है, मुझे इस स्थिति में क्या करना चाहिए ?

सवाल

मेरी उम्र 32 वर्ष है. मेरे ससुर का कुछ दिन पहले ही देहांत हुआ है और सास तो बरसों पहले ही गुजर चुकी हैं. मेरे पति और जेठ का मेरी ननद से रिश्ता हमेशा से अच्छा रहा है. लेकिन, अब ससुर के देहांत के बाद उन की संपत्ति के बंटवारे के नाम पर उन के रिश्ते में दरार आने लगी है. मेरे पति और जेठ का कहना है कि पिता के लिए मेरी ननद ने आज तक कुछ नहीं किया तो अब पैसे मांगने क्यों आ रही है. इस पर मेरी ननद का कहना है कि इस के लिए उसे कोर्ट भी जाना पड़ा तो वह जाएगी. इन सब में मैं नहीं चाहती कि इन सभी में यह मनमुटाव हो और रिश्ते खराब हों. मुझे इस स्थिति में क्या करना चाहिए?

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जवाब

देखिए, आप की ननद जो कुछ भी कह रही है वह बिलकुल सही है. पिता की संपत्ति में बेटी का उतना ही हक होता है जितना कि बेटे का. यह कानूनन मान्य भी है. ऐसे में आप के पति और जेठ का अपनी बहन को पिता की संपत्ति में हिस्सा न देने वाली बात सही नहीं है. उन का यह कहना कि उस ने पिता के लिए कुछ नहीं किया या वह अचानक ही पैसे मांगने आ गई है, पूर्ण रूप से तर्कहीन है. भारतीय समाज की यह सोच, कि बेटी की शादी में जो खर्च करना था, कर दिया और अब वह पराई है तो किसी तरह का हिस्सा न मांगे, खोखली है.

आप यदि रिश्तों का मान रखना चाहती हैं तो अपने पति और जेठ को समझाइए कि अपनी सोच बदलें और खुशीखुशी बहन को हिस्सा दे दें. वे अपनी इस संकुचित मानसिकता में बंधे रहेंगे तो बहन के साथ रिश्ता तो खत्म होगा ही, साथ ही कोर्ट के चक्कर लगातेलगाते नानी याद आ जाएगी.

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जागने लगी उम्मीदें

जागने लगी उम्मीदें : भाग 3

एक रात उन्हें बुखार और खांसी शुरू हो गई. उन्हें महसूस हुआ कि यह कोरोना हो सकता है. सब से पहले उन्होंने उमा को फोन कर के कहा, ”मुझे ठीक नहीं लग रहा है, आप में से कोई यहां मत आना.”शेखर ने रवि से बात की, रवि के कहने पर शेखर अपना टेस्ट करवाने गए, रिपोर्ट पौजिटिव थी, एक बार तो दिल घबराया कि अकेले घर में तबीयत बिगड़ी तो क्या करेंगे, पर अब तो ऐसे ही जीना है तो क्या कर सकते हैं.

अब बच्चे और उमा लगातार उन से बात कर ही रहे थे, उमा को उन के बच्चों ने कहा, ”मम्मी, इस बीमारी का कुछ पता नहीं कि हालत कब कैसी हो जाए, बेचारे अंकल बहुत अकेले हैं, हम उन्हें यहीं ऊपर रहने के लिए बुला लें, उन्हें अकेले छोड़ने का तो बिलकुल मन नहीं कर रहा है. मम्मी, इतना तो किसी के लिए कुछ किया ही जा सकता है न? ऊपर वाले कमरे में जो एक बैड लगा है, अंकल उस पर सो लेंगे, उन्हें वहीं आइसोलेट कर देंगे और ऐसे उन का ध्यान भी रख पाएंगे.‘’

उमा और उन के बीच थोड़ा अपनापन तो हो ही गया था फिर भी शेखर ने यह बात सुनते ही मना कर दिया, ”नहीं, उमाजी, मैं आप लोगों को बिलकुल तकलीफ नहीं दे सकता.‘’उमा रवि को अपने भाई जैसा ही मानती थी, रवि को यह बात बताई तो रवि ने ही शेखर को प्यार भरी झाड़ लगाई, ”अपना सामान एक बैग में रखो, शरीर में इतना दर्द है तुम्हें कि दरवाजे पर रखा टिफिन भी नहीं उठा पाओगे, दवा शुरू करो और जा कर उमा के रूम में चुपचाप शिफ्ट हो जाओ. हाई ब्लडप्रैशर के मरीज हो, अस्पतालों में जगह नहीं है, उमा के घर जाओ, मैं फोन पर बात करता रहूंगा. इस से अच्छा आईडिया इस समय किसी को आ नहीं सकता था. चुपचाप चले जाओ, कैसी तबीयत रहेगी, कुछ नहीं पता चलता.‘’

उमा के घर शिफ्ट होने से पहले शेखर ने हरिद्वार में रह रहे अपने कजिन रमेश को अपनी तबीयत के बारे में  बताई, रमेश ने कोई अपनापन लिए रिस्पौंस नहीं दिया. 1-2 और रिश्तेदारों को अपने कोरोना पौजिटिव होने की बात बताई, पर किसी को जैसे उन से मतलब ही नहीं था. उन्हें लगा कि सचमुच उन्हें आज के हालातों में कुछ भी हो सकता है. बहुत सोचविचार के बाद उन्होंने उमा के घर शिफ्ट होने का मन बना लिया.

उमा और उन के बीच शायद एक दुख का रिश्ता जुड़ ही गया था. शेखर उमा के घर के ऊपर बने रूम में शिफ्ट हो गए. रवि लगातार फोन पर उन के संपर्क में थे, चारों में एक अपनापन बढ़ गया था. उमा एक दोस्त की तरह उन से दूर से ही खड़ी हो कर बात करती. सब सैट हो चुका था, बहुत समय से उन का खानापीना, दवाएं उन्हें मिलती रहीं, बच्चे दूर से उन से बात करते.

वे एक चेयर पर बैठे रहते, उन्हें शरीर में बहुत दर्द चल रहा था. बहुत कमजोर हो गए थे. जब वे कुछ ठीक होने लगे, रवि अपनी कार ले कर आए, उन का टेस्ट करवाया, रिपोर्ट नेगेटिव आई तो उस दिन उमा ने खुश हो कर उन की पसंद का खाना बनाया. अब तक उन की पसंदनापसंद सब जान चुकी थी. उमा के घर शिफ्ट होने से पहले शेखर ने जबरदस्ती ही रवि को उमा को देने के लिए कुछ धनराशि दे दी थी.

अब जब वे घर जाने की बात करने लगे, नेहा और शशांक का दिल उदास होने लगा. शेखर बच्चों के दिल में एक खास जगह बना चुके थे. उमा ने भी एक दिन कह ही दिया, ”शेखरजी, क्या करेंगे घर जा कर, हमारे साथ ही रहिए ऐसे ही, क्या दिक्कत है.”

मां की बात पर बच्चे चहक उठे,”बस, अंकल, अब ऐसे ही रहिए न हमारे साथ. कितना अच्छा लगता है आप के साथ.””बच्चो, उमाजी, यह तो मुश्किल है पर हां, आताजाता रहूंगा.‘’इस बात पर चारों कभी हंस कर, कभी गंभीर हो कर बात कर ही रहे थे कि उमा के दरवाजे पर किसी ने शेखर को आवाज दी, शेखर को अभी बहुत कमजोरी थी, उमा ही उठ कर गई, शेखर की उम्र का ही एक पुरुष और एक महिला अंदर आए, शेखर सामने ही सोफे पर बैठे हुए थे. शेखर खुश हुए,”अरे, रमेश, तुम लोग? इस लौकडाउन में?” शेखर को लगा कि वे उन्हें देखने आए हैं पर रमेश गुर्राया,” अपना घर छोड़ कर यहां पड़े हो?”

सब के चेहरे उतर गए. शेखर का अपमान बच्चों और उमा को सहन नहीं हुआ, उमा बोल पड़ी, ”आप शेखरजी से कैसे बात कर रहे हैं?””तुम चुप रहो, आप का तो शायद यह धंधा है कि अमीर और अकेले आदमी को फंसाने की.”शेखर गुस्से में खड़े हो गए, ”अभी चले जाओ यहां से, रमेश. खबरदार जो इन्हें एक भी शब्द भी कहा तो.”

”यह सारा ड्रामा तेरी प्रौपर्टी लेने के लिए कर रही है यह औरत, शेखर. हम रखेंगे तेरा ध्यान. चल, हमारे साथ, ये लोग तेरा घर, बचत सब ले लेंगे.””हां, ले लेंगे तो अच्छा है, यही हैं मेरे अपने अब. तुम मेरी प्रौपर्टी की चिंता मत करो, मेरे भाई, जाओ यहां से.”

”एक वैश्या के चक्कर में सब लुटा दोगे अपना ?”बच्चे चिल्ला पड़े,”निकलो हमारे घर से,” और कहतेकहते एक धक्का सा दे कर सचमुच उन्हें निकाल दिया.शेखर ने उमा और बच्चों के आगे हाथ जोड़ दिए,”तुम सब से माफी मांगता हूं, मेरी वजह से आप सब को तकलीफ हुई. उमाजी, मुझे माफ कर दीजिए, शर्मिंदा हूं,” शेखर नजरें नीची करते हुए बोले.उमा ने शांत स्वर में कहा, ”शेखरजी, जीवन का एक लंबा समय बहुत कुछ सुन कर, सह कर बिताया है. अब किसी की कोई बात से दुख नहीं होता, सब ठीक है, आप बीमारी से उठे हैं, इन बातों पर ध्यान मत दें.‘’

दोनों बच्चे आज अचानक शेखर के पास बैठ कर पहली बार उन से लिपट  गए, ”अंकल, हम किसी की बात पर दुखी नहीं होंगे, मां ने यही सिखाया है कि इतना कमजोर नहीं बनना है कि कोई भी हमारा दिल दुखी कर के चला जाए, अपने हिसाब से अपनी खुशी के लिए जीना है. अंकल, आप टैंशन मत लेना, हम सब साथ ही हैं.‘’

शेखर के चेहरे पर एक मुसकान आ गई, उन्होंने उमा को देखा, वे हमेशा की तरह एक दोस्ताना ढंग से मुसकराई, फिर बोली, ”चलो, खाना खाते हैं सब.”उमा ने बच्चों के साथ मिल कर खाना लगाया, शेखर तीनों को देखते रहे, सोच रहे थे कि असल में ये हैं उन के अपने 3 इंसान, अकेलापन कम होने लगा है, जीना तो है ही, जी लेंगे इन के साथ. मन में कुछ उम्मीदें जागने लगी थीं.

जागने लगी उम्मीदें : भाग 2

शेखर के चेहरे पर आंसू बहे जा रहे थे. गमगीन माहौल में शेखर ने बहुत दिन बाद खाना खा ही लिया, फिर बोले, ”उमाजी को बोलना, बस 2 ही रोटी भेजें 3 नहीं और मैं चावल के साथ तो 1 ही रोटी खाता हूं. तुम क्या करती हो, बेटा?””अंकल, अभी पढ़ रही हूं, आजकल कालेज तो बंद हैं न, औनलाइन क्लासेज हैं. अच्छा हुआ, आज आप को खाना देने मैं आ गई, कुछ ब्रैक मिला वरना घर से निकलने का कोई बहाना ही नहीं बचा.‘’

शेखर इस बात पर हंस दिए, उन्होंने टिफिन धो कर नेहा को दिया और एकसाथ ₹5 हजार दे कर बोले, ”यह ऐडवांस मम्मी को दे देना. हिसाब वे खुद ही करती रहें. जब मुझे देना हो, बता दें.‘’बहुत दिनों बाद शेखर लंच कर के थोड़ी देर सोए, उठे तो तबीयत हलकी लगी. थोड़ा टीवी देखा, फिर मशीन में कपडे धोने लगे, शाम को चाय पी कर छत पर टहलने चले गए. थोड़ी देर यों ही कुछकुछ काम करते रहे, टीवी देखा, शाम होतेहोते तो उन के मन की उदासी बहुत बढ़ती चली जाती, घर के कोनेकोने में पत्नी और बेटे को जैसे ढूंढ़ते फिरते. खाली घर सायंसायं करता रहता, आसपड़ोस में भी कोई कभीकभार ही दिखता. समय होता तो कहीं निकल जाते पर यह कोरोना महामारी का समय था, बैठना भी घर में बंद हो कर था और इस दुख से मन हटाने के लिए कोई रास्ता समझ नहीं आता था.

शाम को साढ़े 7 बजे डोरबेल बजी तो एक लड़का हाथ में टिफिन ले कर खड़ा था, उन्हें लड़के की शक्ल जानीपहचानी लगी, शेखर 1 साल पहले ही कालेज से रिटायर हुए थे, हिंदी के अध्यापक थे, लड़के ने कहा, ”सर, मैं शशांक, आप ने मुझे 9वीं क्लास में पढ़ाया है. आप का टिफिन लाया हूं, नेहा दीदी ने कहा है कि आप को खिला कर ही वापस जाऊं, अंदर आ जाऊं?”

शशांक उन के पास ही वैसे ही बैठ गए जैसे नेहा बैठी थी. शेखर को उस का साथ अच्छा लग रहा था, उस की पढ़ाई के बारे में बहुत कुछ पूछते रहे. खाना उन्हें बहुत अच्छा लगा था.शशांक ने कहा, ”सर…”उस की बात पूरी होने से पहले ही शेखर बोले, ”अब अंकल ही कहो, मुझे अच्छा लगेगा.‘’”अंकल, मम्मी ने कहा है कि आप को तकलीफ हो तो नाश्ता भी ले आया करें? उस के लिए मम्मी आप से कुछ ऐक्स्ट्रा पैसे नहीं लेंगी.‘’

”नहीं, नाश्ता मैं कर लेता हूं, कभी टोस्ट, कभी कौर्नफ्लैक्स… बस, खाने का आराम हो गया, इतना बहुत है.”शशांक उन से बहुत देर बातें करता रहा, फिर चला गया. उस के जाने के बाद शेखर थोड़ी देर टहलते रहे. आज बहुत दिनों के बाद 2 बच्चों से बैठ कर बातें की थी, कुछ ठीक लगा था, अब यह सिलसिला शुरू हो गया, लंच ले कर नेहा आती, डिनर शशांक लाता. दिन पर दिन दोनों बच्चे उन से खुलते गए, अब तो शेखर को उन का इंतजार रहने लगा. उन के ये 2 मासूम से साथी उन पर खूब स्नेह भरा हक जमाने लगते, कभी नेहा कहती, ”अंकल, यह शशांक शाम को न आए तो मैं आप के पास 2 बार आ जाऊं, पर यह शैतान भी आप के पास आने के चक्कर में लगा रहता है.”

अब तो नेहा उन के घर भर में चक्कर लगा जाती, शशांक तो उन के कितने ही काम कर जाता. दोनों बच्चे उन के स्नेह में खिले से रहते. शेखर को इन बच्चों का साथ बड़ा भला लगता.

अब यह भी होने लगा कि नेहा लंच के साथ अपनी बुक्स भी उठा लाती, आराम से कहती, ”अंकल, आप के यहां कितनी शांति है, कितना अच्छा लगता है. वहां तो मम्मी कोई न कोई काम बता कर उठाती रहती हैं और यह शशांक कोई काम नहीं करना  चाहता, पढ़ाई का बहाना कर देता है, कामचोर… बस, आप के पास आने के लिए तैयार रहता है.‘’

इस बात पर शेखर को हंसी आ जाती. बच्चे खूब एकदूसरे की शिकायत उन से करते तो वे हंसते रहते और मजेदार बात यह थी कि दोनों चाहते कि वे जब कोई बात बता रहे हों, शेखर उन की ही साइड लें. बच्चों ने ही उन्हें बताया था कि जब वे छोटे थे, उन के पिता सुधीर की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी, फिर उमा ने ही छोटेमोटे काम कर के दोनों को पढ़ायालिखाया था.

मामले बढ़ते ही जा रहे थे. हर तरफ एक चिंता का माहौल था. एक दोपहर उन की डोरबेल बजी, देखा तो एक शालीन महिला उन का टिफिन लिए खड़ी थी, नम्रता से अभिवादन करती हुई बोली, ”शेखरजी, नेहा को हलका बुखार सा लग रहा है, शशांक भी सिरदर्द बता रहा है, उन की बहुत चिंता हो रही है, बाकी सब को तो मना कर दिया था पर आप का खाना ले कर आई हूं.‘’

शर्मिंदा से शेखर बोले, ”अरे, क्या हो गया बच्चों को? और आप मुझे फोन कर देतीं, आज खाना रहने देतीं, क्यों परेशान हुईं आप ऐसे में?””बच्चों को आप से बहुत लगाव हो गया है, यही कहे जा रहे हैं कि मम्मी, बस, अंकल को खाना दे आओ.‘’”डाक्टर को दिखाया है?””डाक्टर रवि से बात की है, उन्होंने कुछ दवाएं भेज दी हैं और 1-2 दिन देखते रहने के लिए कहा है. वायरल भी हो सकता है, बस आजकल एक डर सा तो है ही.‘’

”मेरी कोई जरूरत हो तो बताइएगा और खाना अब बच्चों के ठीक होने के बाद ही आ जाएगा.‘’”नहीं, मैं ले आउंगी, बच्चों को चैन नहीं आएगा, हर समय आप की ही तो बात करते हैं.”टिफिन दे कर उमा चली गई. शाम को शेखर ने उन्हें फोन किया, बच्चों की तबीयत पूछी, उन्हें कुछ आराम था, उमा से कहने लगे,”आप खाना ले कर मत आना, मैं आ जाऊंगा टिफिन लेने.‘’

”जी, ठीक है.‘’आजकल दुकानें थोड़ी देर के लिए ही खुलती थीं. शेखर ने फल वाले को फोन कर के बहुत सारे फल बच्चों के लिए मंगाए. शाम को जब अपना टिफिन लेने गए तो बाहर गेट पर ही उमा को फलों का बैग दे कर बोले, “यह बच्चों के लिए, अब वे कैसे हैं?””अरे, आप ने क्यों तकलीफ की? बच्चे काफी ठीक हैं.‘’

”मुझे कोई तकलीफ नहीं हुई और भी कोई चीज चाहिए तो बता दीजिए, मेरा भी मन नहीं लग रहा है बच्चों के बिना,” कहतेकहते उन की जो नजर उमा से मिली, लगा वहीं एकदूसरे के दुख को जैसे कहसुन लिया गया है. उन नजरों में बहुत कुछ था जो अकेले मन को सहारा देता सा महसूस किया दोनों ने. बच्चे ठीक हो गए, लाइफ में चारों अब एकदूसरे से और जुड़ते चले गए थे. शेखर का मन थोड़ा हलका हुआ.

धर्म: आस्था और अंधता का जहर

आस्था के नाम पर मानव समाज ने इतिहास से ले कर अब तक कई बर्बरताएं देखी हैं. धर्म और आस्था के नाम पर कई युद्ध हुए हैं, कितने ही लोग मारेकाटे गए हैं. ये सब होते रहने व देखते रहने के बावजूद आज लोग इस मामले में अंधे बने हुए हैं. कैमिस्ट्री या फिजिक्स के किसी भी बड़े वैज्ञानिक की कोई किताब खरीद कर चौराहे पर जाइए और उस के पन्ने फाड़ना शुरू कीजिए, उस के चीथड़े कर डालिए, उस को रौंद दीजिए. इतने में भी मन न भरे तो उस के पन्ने जला दीजिए. इस पूरी घटना का वीडियो बना कर सोशल मीडिया पर डालिए.

अगले दिन आप को न किसी वैज्ञानिक से धमकी मिलेगी, न कोई आप के खिलाफ रैली निकालेगा, न आप को सोशल मीडिया पर भद्दी गालियां दी जाएंगी और न ही आप पर किसी वैज्ञानिक संगठन द्वारा मुकदमा दर्ज कराया जाएगा. गौरतलब है कि सत्य किसी के पन्ने फाड़ने या जलाने से मिट नहीं जाता. सच को अपने प्रचार के लिए लीपापोती की जरूरत नहीं पड़ती. सत्य कभी खतरे में नहीं आता. सत्य को साबित करने के लिए आप को हिंसा का सहारा लेने की जरूरत नहीं होती.

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सत्य कभी संगठन बना कर हिंसा के सहारे किसी पर थोपा नहीं जाता. लानत है ऐसे धर्मों पर जो इंसान को इंसान न समझें. धर्म के प्रति हद से ज्यादा संवेदनशीलता भी व्यक्ति को इंसानियत के प्रति संवेदनहीन बना देती है. धार्मिक अंधता का शिकार व्यक्ति अकसर यह महसूस करता है कि मेरे धर्म या धर्मगुरु या धार्मिक ग्रंथों पर की गई छोटीमोटी टिप्पणी से मेरा धर्म खतरे में आ जाएगा, तो यह निरी मूर्खता है. ऐसा व्यक्ति खुद को धर्मरक्षक समझ कर अपने धर्म को बचाने के लिए इंसानियत का ही दुश्मन बन जाता है जोकि निकृष्टता की पराकाष्ठा है. देश और दुनिया में धर्म के नाम पर इंसानों को मारनेकाटने की घटनाएं रोज देखने व सुनने को मिलती हैं.

निहंगों द्वारा की गई बर्बर पैशाचिक हत्या इंसानियत के नाम पर कलंक है. दुनिया की कोई वजह ऐसी नीच और कायराना हरकत को सही नहीं ठहरा सकती. अगर आप के धर्म ने आप को इतना अंधा कर दिया है कि धार्मिक कट्टरता और नफरत के शिकार हो कर आप ऐसी बर्बरता का समर्थन करने को उतारू हैं तो समझ लीजिए कि आप मानवता के दुश्मन बन चुके हैं. उचित यही होगा कि हम इंसानियत को सर्वोपरि धर्म मानें और उसी के अनुरूप अपना आचरण हो,

तभी मानवजाति का उद्धार हो सकेगा, वरना इस कट्टरता के माहौल में एक दिन सर्वनाश होना तय है और इस के लिए हम सब जिम्मेदार होंगे. आस्था या अंधता के जहर के सामने कोबरा का विष नीबूपानी है और सल्फास चूर्ण की गोली है. मानवता की कितनी तबाही आस्था के नाम पर हुई है, इस के सही आंकड़े प्रस्तुत करना लगभग असंभव है और मनुष्य द्वारा मनुष्यता का नाश करवाने में इस आस्था ने जो भूमिका निभाई है, उस की गाथा अनंत है. आस्था का मनोरोग ऐसा भयावह है कि हम गर्व का अनुभव करते हुए नीच से नीच कर्म कर सकते हैं, क्रूरतम बन सकते हैं और दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं. आस्था के निर्माण के लिए किसी चीज की आवश्यकता नहीं है,

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बस, जिस तरह प्रतिरक्षा तंत्र कमजोर होते ही शरीर रोग की चपेट में आ जाता है उसी तरह बुद्धि की पकड़ जरा सी ढीली पड़ते ही आस्था अपनी जड़ें जमा लेती है. एक बार आस्था का संक्रमण हो जाए तो उस का वायरस एचआईवी के वायरस से भी तेजी से फैलता है और बुद्धि को चूस कर उस के ऊपर जहालत की घिनौनी फंगस उगा देता है और अंत में बुद्धि को पूरी तरह से लकवा मार जाता है और आदमी की नसनस में आस्था का जहर फैल जाता है. आस्था के रोग का संक्रमण कई तरीकों से हो सकता है. अधिकांश मामलों में बच्चों के पालनपोषण के दौरान ही इस का वायरस उन के दिमाग में घुसा दिया जाता है. वयस्क होने पर हम इस संक्रमण को खत्म करने के बजाय और बढ़ाने में लग जाते हैं. फिर आस्था से संचालित एक ऐसा रोबोट तैयार होता है जिस के हाथपांव तो अपनी मरजी से चलते हैं लेकिन बुद्धि को यही आस्था संचालित करती है. आस्था के नाम पर हिंसा हमेशा से होती आई है.

एक कबीला अपनी आस्थाओं की रक्षा के लिए दूसरे कबीले से भिड़ जाता था. आज भी कई कबीले ऐसे हैं जो अपने पूर्वजों द्वारा दूसरे कबीलों के लोगों के काटे हुए सिर अपनी बैठक में शान से सजाते हैं, लेकिन संगठित और सुनियोजित रूप से निरपराध लोगों का निर्मम कत्लेआम ‘क्रूसेड’ के नाम पर 6ठी व 7वीं शताब्दी में चालू हुआ और इस में भाग ले कर मासूम पुरुषों, बच्चों और महिलाओं को निर्दयता से मारने, जिंदा जला देने वाले अपने को ‘गौड’ का महान सेवक मानते थे. ‘जिहाद’ को मानने वाले भी पीछे नहीं रहे और उन्होंने भी तलवार की धार से खून की धारा बहाते हुए अपने को ‘खुदा’ की राह पर चलने वाला बंदा घोषित कर दिया. 15वीं से 18वीं शताब्दी के बीच में पूरे यूरोप और एशिया के कुछ भागों में डायन और जादूगरनी बता कर हजारों महिलाओं को जिंदा जला दिया गया,

अंगभंग कर दिए गए या पेड़ों से बांध कर तड़पतड़प कर मरने के लिए छोड़ दिया गया. इतिहास की कोई भी किताब उठा लीजिए, उस के पन्नों में आप को आस्था के नाम पर बहाया हुआ खून रिसता दिखेगा और मासूमों की चीखों की आवाज सुनाई देगी. इस का यह मतलब नहीं कि आज यह सब पुराने इतिहास की ही बातें हैं. आस्थाओं के नाम पर भारतीय उपमहाद्वीप में 2 देश बनाए गए और हत्या, बलात्कार, क्रूरता का जो खेल आस्थावानों ने खेला उस का इतिहास में दूसरा उदाहरण मिलना मुश्किल है. आजाद देश बन जाने के बावजूद इन आस्थावानों का खूनी खेल आज भी जारी है. आज भी दुनिया में ऐसी जगहें हैं जहां पति की बात न मानने पर महिला की नाक काट दी जाती है,

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पढ़ाई करने की जिद करने वाली किशोरी को गोली मार दी जाती है, बारिश में भीग कर नाचने पर 2 लड़कियों को मौत के घाट उतार दिया जाता है, ईशनिंदा के आरोप में छोटे बच्चे की जान ले ली जाती है और जराजरा से आरोपों में मौत की सजा पाई कुंआरी लड़कियों को फांसी पर चढ़ाने से पहले उन का बलात्कार किया जाता है क्योंकि आस्था के अनुसार अगर कोई कुंआरी लड़की मरती है तो उसे जन्नत नसीब होती है. बड़ेबड़े धर्मगुरु बाल यौनशोषण करते हैं और आस्था के नाम पर सब माफ कर दिया जाता है. पूरे विश्व में अपनी संस्कृति का ढोल पीटने वाला हमारा देश लाखों बच्चियों को जन्मने से पहले ही इसलिए मार देता है क्योंकि उस की आस्था है कि लड़के से ही लोकपरलोक सुधरता है.

जो फिर भी पैदा हो गई हैं उन को आस्था के अनुसार लड़कों से कम खाना दिया जाता है. उन के लिए किसी तरह दहेज जुटाया जाता है और शादी कर के (अकसर कम उम्र में) यौनप्रताड़ना से ले कर हर तरह के शोषण का शिकार बनाया जाता है. हर साल अनेक महिलाओं को नंगा कर यातनाएं दी जाती हैं और निर्दयता से मार दिया जाता है क्योंकि आस्था यह कहती है कि वे डायन हैं. जिस देश का हर 5वां व्यक्ति भूखा है, उसी देश के मंदिरों की आय करोड़ों से कम नहीं है क्योंकि आस्था का सवाल है. जिस देश में एक पति अपनी पत्नी को प्रसवपीड़ा होने पर अपनी पीठ पर लाद कर 40 किलोमीटर लंबा ऊबड़खाबड़ जंगली रास्ता पार कर के अस्पताल पहुंचाता है,

फिर भी उस का होने वाला बच्चा मर जाता है, उसी देश के धर्मगुरु और बाबा आम लोगों को आस्था के नाम पर बेवकूफ बना कर वातानुकूलित कारों और हैलिकौप्टरों में घूमते हैं. यह आस्था का ही भयानक रूप है कि एक जानवर के मल की पूजा करने वाला एक इंसान के छूने से अपवित्र हो जाता है, जातिविशेष की महिलाओं द्वारा बिछुए पहनने पर उन के पैरों की उंगलियों को कुचलने के लिए तैयार हो जाता है और जातिविशेष के लोगों द्वारा बरात निकालने पर खूनखराबे पर उतारू हो जाता है. यही आस्था अलग जाति या धर्म में विवाह अथवा एक ही गोत्र में शादी करने पर उलटा लटका कर जान से मार देती है. आस्था के कारण किए गए कुकर्मों को लिखने के लिए समुद्रों की स्याही कम पड़ेगी और धरती का कागज छोटा रहेगा. यहां उन का वर्णन करना असंभव है. बस, यही कहा जा सकता है कि काश, आस्था के लिए भी जगहजगह ‘डिएडिक्शन सैंटर’ होते तो शायद मानवता को आस्था के जहर से बचाया जा सकता.

कितना दें बच्चों को जेब खर्च

अकसर पेरैंट्स में कनफ्यूजन रहता है कि बच्चों को जेबखर्च के लिए पैसा दिया जाए या नहीं और यदि दिया जाए तो कितना. यह जेबखर्च इतना न हो कि बच्चा गलत आदत का शिकार हो जाए और इतना भी कम न हो कि उसे शर्मिंदा होना पड़ जाए. मृणालिनी अपने दोनों बच्चों को हर सप्ताह 10 रुपए जेबखर्च देती थी. बच्चे खुशीखुशी स्कूल जाते थे. लेकिन कई बार कुछ बच्चों के पेरैंट्स अपने बच्चों को अधिक पैसे देते थे जिस से मृणालिनी के बच्चों को खराब लगता था.

कई बार तो उन्होंने अपने पैसे जेब से निकाले नहीं और कह दिया, ‘मां ने आज जेबखर्च नहीं दिया, शायद भूल गई होगी.’ बच्चों ने यह बात मां को कभी नहीं बताई. अगले सप्ताह फिर 10 रुपए जोड़ कर जब 20 रुपए होते तो वे पैसे निकाल कर स्कूल कैंटीन से कुछ खा लेते थे. एक दिन मां की नजर सोनू का बैग साफ करतेकरते 10 रुपए पर पड़ी. उन्होंने बेटे से इस की वजह पूछी, क्योंकि जेबखर्च वाले दिन मृणालिनी अपने बच्चों को टिफिन न दे कर फ्रूट्स देती थी. इस पर 8 साल का सोनू रोने लगा. उस की दीदी मिताली ने सारी बात बताई. तब मां ने दोनों को किसी बात को उन से न छिपाने की सलाह दी और अगले सप्ताह से मां ने हर सप्ताह 20 रुपए देना शुरू कर दिया.

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रखें नजर खर्च पर जेबखर्च बच्चे को दिया जाए या नहीं, इसे ले कर वैज्ञानिक, समाजशात्री और मनोचिकित्सक की राय अलगअलग हैं. कुछ के अनुसार पौकेट मनी से बच्चे को पैसे की कीमत सिखाना आसान होता है. इस से बच्चा किसी भी चीज को खरीदते समय पैसे के बदले में वस्तु लेने के लायक है या नहीं, की परख कर पाता है. यह चीज उस को भविष्य में बचत करने की जरूरत को समझने में सहायक होती है. जबकि कुछ मानते हैं कि इस से बच्चे में पैसे का लालच बढ़ जाता है और उतने पैसे न मिलने पर वे कुछ गलत कर बैठते हैं. देखा जाए तो जेबखर्च बच्चे को बना और बिगाड़ भी सकता है.

इसलिए बच्चे को सोचसमझ कर जेबखर्च देना चाहिए और बच्चा किस पर उस पैसे को खर्च करता है, इस की जानकारी पेरैंट्स को होनी चाहिए. कई बार बच्चे के पास अधिक पैसे न होने पर वह किसी दूसरे बच्चे के बैग से या मातापिता की अलमारी से भी निकालते हुए पाया गया है. ऐसा होने पर बच्चे के साथ मातापिता का सीधा संवाद होना चाहिए. छोटे बच्चे अधिकतर जो भी गलत करते हैं, डर की वजह से बता देते हैं लेकिन थोड़े बड़े बच्चे ऐसा नहीं करते. इसलिए व्यस्त होने पर भी बच्चे के साथ रोज कुछ क्वालिटी समय बिताएं. समझाएं पैसे का महत्त्व मुंबई के मनोचिकित्सक डा. हरीश शेट्टी कहते हैं कि बच्चे को जेब खर्च देते समय कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए- द्य परिवार की आमदनी जितनी भी हो उस में पारदर्शिता का होना अर्थात बच्चे को भी उस के बारे में जानकारी होना.

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परिवार में किसी लक्जरी सामान को खरीदते समय लिए गए निर्णय में बच्चों की भागीदारी का होना, इस से बच्चे को अपने भविष्य में किसी वस्तु को खरीदते समय निर्णय लेने में आसान होता है. द्य बचत की इच्छा का विकसित होना. द्य वित्तीय ज्ञान होना. पेरैंट्स न करें गलतियां कुछ पेरैंट्स के पास कमाई बहुत अधिक होती है, जिस से वे अपनी शान दिखाने के लिए कुछ ऐसी गलतियां कर बैठते हैं जिस का पछतावा उन्हें बाद में होता है.

इसलिए कुछ बातों को बच्चों के साथ शेयर न करना ही अच्छा होता है. ये निम्न हैं-

-बचपन में पेरैंट्स से जेब खर्च का न मिलना. द्य खुद के बच्चे की सारी इच्छाएं पूरी करना. द्य बच्चे को शांति से बैठने के लिए भी उस की पसंद की वस्तु देना.

-बच्चे की जिद को पहले पूरा करने के लिए आपस में कंपीटिशन करना. क्या किया जाना चाहिए

-पैसे की मात्रा आपसी समझ के आधार पर दें.

-बच्चे को हमेशा अस्तित्व, एहसास और पर्यावरण का ज्ञान देने/होने की जरूरत.

-पैसा देते समय हमेशा पेरैंट्स को बच्चे के व्यवहार पर ध्यान देना चाहिए जिस से बच्चा अपनी शान किसी के आगे न दिखाए. उसे नीचा न समझे, किसी के लिए भी सम्मान उस के व्यवहार में होना जरूरी है.

दें हलका पनिशमैंट गलत व्यवहार के लिए डा. हरीश कहते हैं कि अगर बच्चे ने कहीं से पैसा निकाला है तो उस की जरूरत क्या है, पेरैंट्स को देखना है. मेरे पास अधिकतर बच्चे फोन को ले कर आते हैं जैसे किसी के पास आईफोन है लेकिन मेरे पास नहीं. इस तरह की समस्या से पेरैंट्स परेशान रहते हैं. बच्चे के हिसाब से ये चीजें अगर किसी के पास हैं तो उस का आत्मविश्वास अधिक बढ़ जाता है. ऐसे बच्चों को मातापिता सामने बैठा कर उन को आत्मविश्वास के बारे में जरूर समझाएं.

अपने अनुभव के बारे में मनोचिकित्सक कहते हैं कि ‘‘एक परिवार में केवल 20 रुपए मिसिंग थे. महिला ने अपनी मेड पर शक किया. उस के मना करने पर उन्होंने बच्चों से पूछा. बच्चों ने पहले मना किया, फिर छोटा बच्चा बड़े को बाथरूम में ले गया और उस से अपनी गलती बताने को कहा. ‘‘बड़े ने कहा, ‘तुम भी तो मेरे साथ वड़ापाव खाए हो तो तुम्हीं बता दो.’’ मां के कान में यह बात पड़ने पर मां ने इस का पनिशमैंट उन दोनों के लिए एक सप्ताह टीवी न चलाने का रखा. इस से दोनों रोने और कूदने लगे जैसे कुछ गंभीर बात हो पर मां अपनी बात पर अटल रही. इस से फैमिली के बीच संवाद बड़ा और मां के दिए इस पनिशमैंट के चलते बच्चों ने फिर कभी अनुपयुक्त काम नहीं किया.

‘‘इस के अलावा एक टीनेजर बच्चे ने 50 हजार रुपए अलमारी से निकाल कर उड़ा दिया और खुद मां के साथ जा कर पुलिस स्टेशन में कंप्लेन किया. पुलिस ने पड़ोसी और घरवालों से पूछताछ की पर कुछ पता न चला. शक के आधार पर पुलिस ने उस बच्चे को पकड़ा और थोड़ा जोर लगा कर बात करने पर उस ने बताया कि मां के घर से जाने पर उस ने पड़ोस से चाबी ले कर पैसा निकाला था.’’ डाक्टर के अनुसार, ऐसे बच्चों को सुधारना आसान होता है. पेरैंट्स को घबराना नहीं चाहिए. बच्चों को इमोशनल सेफ्टी अवश्य दें. कुछ गलत करने पर मातापिता और स्कूल उसे सही करें.

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