अकसर पेरैंट्स में कनफ्यूजन रहता है कि बच्चों को जेबखर्च के लिए पैसा दिया जाए या नहीं और यदि दिया जाए तो कितना. यह जेबखर्च इतना न हो कि बच्चा गलत आदत का शिकार हो जाए और इतना भी कम न हो कि उसे शर्मिंदा होना पड़ जाए. मृणालिनी अपने दोनों बच्चों को हर सप्ताह 10 रुपए जेबखर्च देती थी. बच्चे खुशीखुशी स्कूल जाते थे. लेकिन कई बार कुछ बच्चों के पेरैंट्स अपने बच्चों को अधिक पैसे देते थे जिस से मृणालिनी के बच्चों को खराब लगता था.

कई बार तो उन्होंने अपने पैसे जेब से निकाले नहीं और कह दिया, ‘मां ने आज जेबखर्च नहीं दिया, शायद भूल गई होगी.’ बच्चों ने यह बात मां को कभी नहीं बताई. अगले सप्ताह फिर 10 रुपए जोड़ कर जब 20 रुपए होते तो वे पैसे निकाल कर स्कूल कैंटीन से कुछ खा लेते थे. एक दिन मां की नजर सोनू का बैग साफ करतेकरते 10 रुपए पर पड़ी. उन्होंने बेटे से इस की वजह पूछी, क्योंकि जेबखर्च वाले दिन मृणालिनी अपने बच्चों को टिफिन न दे कर फ्रूट्स देती थी. इस पर 8 साल का सोनू रोने लगा. उस की दीदी मिताली ने सारी बात बताई. तब मां ने दोनों को किसी बात को उन से न छिपाने की सलाह दी और अगले सप्ताह से मां ने हर सप्ताह 20 रुपए देना शुरू कर दिया.

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रखें नजर खर्च पर जेबखर्च बच्चे को दिया जाए या नहीं, इसे ले कर वैज्ञानिक, समाजशात्री और मनोचिकित्सक की राय अलगअलग हैं. कुछ के अनुसार पौकेट मनी से बच्चे को पैसे की कीमत सिखाना आसान होता है. इस से बच्चा किसी भी चीज को खरीदते समय पैसे के बदले में वस्तु लेने के लायक है या नहीं, की परख कर पाता है. यह चीज उस को भविष्य में बचत करने की जरूरत को समझने में सहायक होती है. जबकि कुछ मानते हैं कि इस से बच्चे में पैसे का लालच बढ़ जाता है और उतने पैसे न मिलने पर वे कुछ गलत कर बैठते हैं. देखा जाए तो जेबखर्च बच्चे को बना और बिगाड़ भी सकता है.

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