कोरोना के बाद जिंदगी फिर से पटरी पर लौटने लगी है. फैस्टिवल सीजन नया उत्साह ले कर आया है. जरूरत इस बात की है कि कोरोना ने जो सीख दी है उसे भूलें नहीं. कोरोना ने एक नया जीवनदर्शन दिया है. इस ने समाज, घर और परिवार के मूल्यों को सम?ाया है. नई लाइफस्टाइल में सुरक्षा कवच नहीं है, यह इस ने बता दिया है. प्रकृति और पर्यावरण के महत्त्व को इस ने नया विचार दिया है. यानी तमाम विरोधों को दरकिनार कर खुद को सुरक्षित रखते हुए लाइफ को एंजौय करना है. ‘जिंदगी हर कदम इक नई जंग है…’ 1985 में रिलीज हुई फिल्म ‘मेरी जंग’ के एक गीत का यह मुखड़ा है. इस पूरे मुखड़े में जीवन का फलसफा छिपा है.

कोरोनाकाल ने यह दिखा दिया कि जिन घर, परिवार, समाज, सरकार और संस्थानों के लिए आदमी ने जीजान लगा कर काम किया, जिन को ले कर तमाम सपने देखे थे वे सब धरे के धरे रह गए. जिन बच्चों को मांबाप ने पालपोस कर बड़ा किया उन में से बहुत सारे अंतिम संस्कार में शामिल तक नहीं हुए. सरकार की उपेक्षा सब से बड़ी थी. आर्थिक रूप से व्यक्ति जिन संस्थानों के लिए काम करता था वे भी साथ नहीं खड़े हो सके. कोरोना ने सिखाया कि जो भी आप के साथ खड़े दिख रहे हैं वे सब मतलबी, स्वार्थी हैं. आप को अपनी जिंदगी की जंग खुद ही लड़नी है.

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अंधविश्वास का बाजार

त्योहारों का यह सीजन पूरी तरह से घरों में खुशियां भर पाएगा, लोगों के मन को खुश कर पाएगा, यह संभव नहीं है. यह जरूर है कि लोग अपनी हिम्मतभर खड़े हो रहे हैं. टूटे हुए तन, मन और धन को जुटा कर जंग लड़ने के लिए तैयार हैं. अगर उन के पास कुछ है तो केवल उन की अपनी हिम्मत. बड़ी समस्या उन लोगों के लिए है जो छोटेछोटे निजी कारोबार कर रहे थे. छोटीछोटी निजी नौकरियां कर के अपना जीवन गुजार रहे थे. उन की सब से बड़ी परेशानी यह है कि वे लोग अपनी जिंदगी का दर्द कहना भी नहीं चाहते. इस लेख को लिखते समय ऐसे तमाम लोगों से संपर्क किया गया.

सब ने अपना दर्द सुनाया. लेकिन वे यह नहीं चाहते थे कि उन के फोटो या परिचय के साथ उन के विचार छापे जाएं. इस की वजह बताती हुईं ओम कुमारी सिंह कहती हैं, ‘इस से समस्या का समाधान तो होगा नहीं, उलटे, लोग हमारी मजबूरी का लाभ अलग से उठाने की सोचने लगेंगे.’ ऐसे लोग अपनी बात सब के सामने कह नहीं पाते. इस वजह से लोग सम?ाते हैं कि यह परेशानी नहीं है. सच बात यह है कि ये लोग ऐसे हैं जो अपना दर्द छिपा कर जिंदगी की जंग लड़ रहे हैं. तमाम ऐसे लोग अंदर से पूरी तरह से खोखले हो चुके हैं. इस के बाद भी बातचीत करते समय चेहरे पर शिकन नहीं आने देते. मदद मांगने में शर्म और संकोच करते हैं.

लखनऊ के कैसरबाग में एक ऐसा परिवार है जो चाय के होटल से अपना परिवार अच्छी तरह से चलाता था. कोरोना में घर के मुखिया और एक दूसरे व्यक्ति की मौत हो जाने के बाद होटल बंद हो चुका है. घर की महिलाओं ने चाय के होटल को औनेपौने दाम पर किराए पर दे दिया है. उस से ही परिवार गुजरबसर कर रहा है. बहुतकुछ खोया पर जिंदगी तो जीनी है चैतन्य वैलफेयर फाउंडेशन की अध्यक्ष ओम कुमारी सिंह कहती हैं, ‘‘हम ने ऐसे लोगों के साथ सब से अधिक काम किया है. हम उन की मदद करते हैं. उन का रिकौर्ड तो रखते हैं पर सार्वजनिक रूप से इस का कहीं जिक्र पहचान के साथ नहीं करते.

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मेरे पास एक बीए में पढ़ने वाली लड़की आई. उस के घर वालों के पास 9 हजार रुपए सैमेस्टर की फीस जमा करने के लिए नहीं थे. वे किसी से मांग नहीं सकते थे. उस के पापा एक निजी कंपनी में काम करते थे. कंपनी वालों ने उन्हें बिना कोई ड्यूज दिए नौकरी से निकाल दिया. कंपनी वाले कह रहे हैं कि कोर्ट जाओे. उस के पापा ने कभी किसी से मदद नहीं ली थी. कोर्ट में लड़ने के लिए पैसा और सहयोग नहीं मिल रहा.’’ ओम कुमारी सिंह कहती हैं, ‘‘हम ने लड़की की फीस तो दी ही है, अब उस कंपनी के खिलाफ श्रम विभाग में शिकायत कर के मुकदमा करने की तैयारी भी कर ली है. जल्दी ही इस को पूरा करेंगे.’’ ऐसे लोगों की संख्या बहुत है. यह वर्ग पैसे से कमजोर है. ऐसे में यह कानूनी लड़ाई नहीं लड़ सकता, जिस के कारण इन को शोषण का शिकार होना पड़ रहा है. लड़की को ट्यूशन पढ़ाने को मिल गया है.

अब वह अपनी पढ़ाई के साथ ही साथ घर की मदद भी करने लगी है. जिंदगी के साथ अपनी जंग को वह सदा याद रखेगी. कोरोना के बाद जिंदगी की नई जंग शुरू हो गई है.’’ परिवार टूटा पर हिम्मत नहीं हारी मंजरी पांडेय बताती हैं, ‘‘कोरोना के पहले बिजनैस बहुत अच्छा था. छोटे से स्कूल से अपना सफर तय कर 4 स्कूल खोल लिए थे. महिलाओं को रोजगार देने के लिए रेडीमेड कपड़ों का बिजनैस शुरू किया. 2 स्टोर खोल दिए. बैंक से पैसा लिया. मन में यह जज्बा था कि अभी काम करने का समय है. जल्द से जल्द कुछ नया कर लेंगे. अपना फैशन स्टोर भी खोल देंगे. फैशन स्टोर भी खुल गया.

जब बिजनैस का समय आया तो कोरोना आ गया. तालाबंदी हो गई. ‘‘सब से पहले स्कूल बंद करने पड़े. फिर धीरेधीरे फैशन स्टोर कम करने पड़े. 3 फैशन स्टोर्स को एक में करना पड़ा. इसी बीच परिवार में कई लोग कोरोना की चपेट में आ गए. हम संयुक्त परिवार में रहते हैं. मेरी सास भी कोरोना में बीमार हुई और एक दिन वह नहीं रही. परिवार इस हादसे से अभी भी नहीं निकल पाया है. जिंदगी की जंग लड़नी है तो हम ने सारा ध्यान अपने एक फैशन स्टोर को चलाने में लगा दिया है.’’ मंजरी पांडेय कहती हैं, ‘‘अपने फैशन स्टोर के बिजनैस को बढ़ाने के लिए पूरी मेहनत से काम करने में लगे हैं.

अगर कोरोना नहीं आया होता तो हमें कोई दिक्कत नहीं थी. कोरोना ने जिंदगी के चैलेंज का सामना करना सिखा दिया है. रिश्तों की कीमत भी बता दी है. जिंदगी को कम से कम किस तरह से चलाया जाए, यह भी बता दिया है. हम उम्मीद करते हैं कि सभी लोग मुश्किलभरे दौर से बाहर आ कर अब नए सिरे से जिंदगी के धागे बुनने लगे हैं जिस से नई सुबह जल्द आएगी.’’ लखनऊ में अपना कौन्वैंट स्कूल चलाने वाले प्रदीप कुमार शुक्ला कहते हैं, ‘‘अप्रैल के अंतिम सप्ताह से ले कर अक्तूबर की शुरुआत तक हम ने अपने परिवार के 5 लोगों को कोरोना में खोया है. सब से पहले मेरे भाई की मृत्यु हो गई. उन के सदमे में मेरे पिताजी की मौत हो गई. इसी बीच मेरे एक करीबी साथी की मृत्यु हुई.

स्कूल के एक स्टाफ की मौत हुई. ये सारे सदमे मेरी मां सहन नहीं कर पाईं और अक्तूबर आतेआते उन की भी मौत हो गई. इस सदमे को मैं खुद सहन नहीं कर पा रहा हूं पर जिंदगी तो जीनी है. स्कूल संभालना है. धीरेधीरे इन हालात से बाहर आना है. इस की पूरी कोशिश कर रहा हूं. जिंदगी मुसकरा कर गुजारने का काम कर रहा हूं.’’ प्रदीप कुमार शुक्ला जैसे अनेक परिवार हैं जो अपने दर्द को छिपा कर न केवल मुसकरा रहे हैं बल्कि अपने बिजनैस को भी संभाल रहे हैं. इन में से तमाम लोग अपने दर्द को कहना भी नहीं चाहते. मनोवैज्ञानिक सुप्रीति बाली कहती हैं, ‘‘असल में ऐसे परिवारों को दर्द भरे हालात से बाहर निकालना बेहद जरूरी है. ये लोग अगर अपने मन की बात नहीं करेंगे तो धीरेधीरे मानसिक रूप से बीमार हो सकते हैं. इन की काउंसलिंग करनी जरूरी है.

यह बात जरूरी नहीं कि काउंसलिंग कोई कांउसलर ही करे. घरपरिवार के सदस्य, करीबी कोई भी कर सकता है. मन के अंदर के दर्द को बाहर निकालना जरूरी है. तभी ये लोग कोरोना के दर्द को पीछे छोड़ कर जिंदगी को बेहतर बनाने और उसे वापस पटरी पर लाने के लिए काम कर सकेंगे.’’ आर्थिक संकट सब से बड़ा कारण जिंदगी को पटरी पर लाने में सब से बड़ा सहयोग आर्थिक मजबूती का होता है. जिन की नौकरियां सरकारी थीं, अस्पतालों में इलाज कराने के लिए जिन के पास साधन थे वे कुछ बेहतर हालत में हैं. जो निजी संस्थानों में नौकरी करते थे उन की दिक्कतें ज्यादा हो गईं. संस्थानों ने ऐसे लोगों को हटाया या उन के वेतनभत्ते में कटौती की. समय पर पैसा नहीं दिया. सोशल ऐक्टिविस्ट ओम कुमारी सिंह कहती हैं, ‘‘हमारे पास मदद मांगने के लिए जो परिवार आए उन से बातचीत के बाद जो एक धारणा बनी वह यही थी कि जिन लोगों के पास आर्थिक संकट नहीं था, कोरोना के दौरान भी उन्होंने खुद को संभाल लिया.

जिन के सामने आर्थिक संकट था उन लोगों को दोहरी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. यही नहीं, जिंदगी की गाड़ी को पटरी पर लाने में ऐसे लोग जल्दी सफल होंगे जिन के पास आर्थिक सुरक्षा है.’’ बचत तो करनी होगी कोरोना के इस काल में जाति और धर्म का अंतर भी खत्म हो गया था. अस्पताल से ले कर अंतिम संस्कार के दाहसंस्कार तक में एकजैसा ही माहौल था. इस से यह भी पता चलता है कि आज का सब से बड़ा आधार आर्थिक सुरक्षा है. बैंक, क्रैडिट कार्ड और अन्य तरह की बचत योजनाओं के साथ ही साथ पैसों का भौतिकरूप से भी पास में होना जरूरी होता है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नोटबंदी और जीएसटी के सहारे जिस डिजिटल इंडिया की बात कर रहे थे वह कोरोना संकट में काम नहीं आई. बड़े पैमाने पर अस्पतालों में नकद रुपयों की मांग की जाने लगी थी.

तमाम तरह की कालाबाजारी इतने बड़े पैमाने पर अस्पतालों में देखी गई जिस ने डिजिटल इंडिया को फेल कर दिया. शैली द्विवेदी के घर में पति सहित उन का पूरा परिवार कोरोना की चपेट में था. औक्सीजन सिलैंडर से ले कर दवा सब ब्लैक में बिक रही थीं. यह कीमत बड़ी थी. ये लोग बैंक या क्रैडिट कार्ड से पैसा लेने को तैयार नहीं थे. इन को नकद पैसा चाहिए था. ऐसे में जो नकद पैसा पास था वही काम आया. नई पीढ़ी अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए ईएमआई लोन ले कर काम करने लगी थी. जितना वेतन मिलता था वह पूरा का पूरा बैंक की ईएमआई देने में चला जाता था. कोरोना संकट में जब बीमारी में पैसों की जरूरत आई तो उन के पास पैसा नहीं था.

वेतन और भत्तों में कटौती व नौकरी जाने की वजह से यह संकट और गहरा हो गया. अब ये लोग सम?ा गए हैं कि बचत बेहद जरूरी हो गई है. यही मुसीबत के समय काम आती है. बदलनी होगी लाइफस्टाइल कोरोना जैसी महामारी दुनिया से जाने वाली नहीं है. यह किसी न किसी रूप में आती रहेगी. पर्यावरण के जानकार मानते हैं कि ‘जलवायु परिर्वतन’ की वजह से दुनिया पर संकट बढ़ता जा रहा है. ऐसे में गरमी, बरसात, जाड़ा जैसे मौसम भी बदल रहे हैं. इस का प्रभाव जीवन पर पड़ रहा है. ऐसे में जरूरी है कि लोग अपनी लाइफस्टाइल को बदलें. कोरोना का प्रभाव उन लोगों पर कम पड़ा जो किसी और तरह से बीमार नहीं थे, जिन की रोगप्रतिरोधक क्षमता अच्छी थी.

जो किसी तरह का नशा नहीं करते थे वे इस बीमारी से लड़ने में सफल हो गए. ऐसे में जरूरी है कि लोग अपनी हैल्थ की तरफ ध्यान दें. अच्छी डाइट रखें. खानेपीने और सोनेजागने का तय समय रखें. मनोविज्ञानी आकांक्षा जैन कहती हैं, ‘‘अच्छी लाइफस्टाइल के लिए लोगों को नकारात्मक विचारों से दूर रहना है. लाइफ को सुरक्षित करने के लिए लाइफ को बदलना होगा. जिंदगी को जिंदादिली के साथ जीना होगा. कोरोना संकट के समय लोगों के दिलों में मौत को ले कर जिस तरह से खौफ था, वैसे माहौल से लड़ने के लिए जिंदादिली बेहद जरूरी होती है जो अंत तक जीवन में आशा का संचार रखती है. यह लाइफस्टाइल और सोच के बदलने से ही होगा.’’

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