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इंद्रधनुष का आठवां रंग: जब अपने ही पिता के दोस्त का शिकार बनी रावी

लेखिका- Er Asha Sharma

वसुधा की नजरें अभी भी दरवाजे पर ही टिकी थीं. इसी दरवाजे से अभीअभी रावी अपने पति के साथ निकली थी. पीली साड़ी, सादगी से बनाया जूड़ा, माथे पर बिंदिया, मांग में सिंदूर, हाथों में भरीभरी चूडि़यां… कुल मिला कर संपूर्ण भारतीय नारी की छवि को साकार करती रावी बहुत खूबसूरत लग रही थी. गोद में लिए नन्हे बच्चे ने एक स्त्री को मां के रूप में परिवर्तित कर कितना गरिमामय बना दिया था.

वसुधा ने अपना सिर कुरसी पर टिका आराम की मुद्रा में आंखें बंद कर लीं. उन की आंखों में 3-4 साल पहले के वे दिन चलचित्र की भांति घूम गए जब रावी के मम्मीपापा उसे काउंसलिंग के लिए वसुधा के पास लाए थे.

वसुधा सरकारी हौस्पिटल में मनोवैज्ञानिक हैं, साथ ही सोशल काउंसलर भी. हौस्पिटल के व्यस्त लमहों में से कुछ पल निकाल कर वे सोशल काउंसलिंग करती हैं. अवसाद से घिरे और जिंदगी से हारे हताशनिराश लोगों को अंधेरे से बाहर निकाल कर उन्हें फिर से जिंदगी के रंगों से परिचित करवाना ही उन का एकमात्र उद्देश्य है.

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रावी को 3-4 साल पहले वसुधा के हौस्पिटल में भरती करवाया गया था. छत के पंखे से लटक कर आत्महत्या की कोशिश की थी उस ने, मगर वक्त रहते उस की मां ने देख लिया और उसे तुरंत हौस्पिटल लाया गया. समय पर चिकित्सा सुविधा मिलने से रावी को बचा लिया गया था. मगर वसुधा पहली ही नजर में भांप गई थीं कि उस के शरीर से भी ज्यादा उस का मन आहत और जख्मी है.

वसुधा ने हकीकत जानने के लिए रावी की मां शांति से बात की. पहले तो वे नानुकुर करती टालती रहीं, मगर जब वसुधा ने उन्हें पूरी बात को गोपनीय रखने और उन की मदद करने का भरोसा दिलाया तब जा कर उन्होंने अपने आधेअधूरे शब्दों और इशारों से जो बताया उसे सुन कर वसुधा का मासूम रावी पर स्नेह उमड़ आया.

शांति ने उन्हें बताया, ‘‘रावी दुराचार का शिकार हुई है और वह भी अपने पिता के खास दोस्त के द्वारा. पिता का जिगरी दोस्त होने के नाते उन के घर में उस का बिना रोकटोक आनाजाना था. कोई शक करे भी तो कैसे? उस की सब से छोटी बेटी रावी की सहेली भी थी. दोनों एक ही क्लास में पढ़ती थीं. एक दिन रावी अपनी सहेली से एक प्रोजैक्ट फाइल लेने उस के घर गई. सहेली अपनी मां के साथ बाजार गई हुई थी. अत: उस के पापा ने कहा कि तेरी सहेली का बैग अंदर रखा है. अंदर जा कर ले ले जो भी लेना है. उस के बाद जब रावी वापस घर आई, तो चुपचाप कमरे में जा कर सो गई. सुबह उसे तेज बुखार चढ़ गया. हम ने इसे काफी हलके में लिया. कई दिन तक जब रावी कालेज भी नहीं गई, तो हम ने सोचा शायद पीरियड नहीं लग रहे होंगे.

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‘‘फिर एक दिन जब इन के दोस्त घर आए तो हमेशा की तरह उन्हें पानी का गिलास देने को भागने वाली रावी कमरे में जा कर छिप गई. तब मेरा माथा ठनका. मैं ने रावी का सिर सहलाते हुए उसे विश्वास में लिया, तो उस ने सुबकतेसुबकते इस घिनौनी घटना का जिक्र किया, जिसे सुन कर मेरे तनबदन में आग लग गई. मैं ने तुरंत इस के पिता से पुलिस में शिकायत करने को कहा. मगर इन्होंने मुझे शांति से काम लेने को कह समझाया कि पुलिस स्टेशन में एफआईआर दर्ज करा कर केस करना तो बहुत आसान है, मगर उस की पेशियां भुगतना बहुत कष्टदाई होता है. अपराधी को सजा दिलवाना तो नाकों चने चबाना जैसा होता है. सब से पहले तो अपराध को साबित करना ही मुश्किल होता है, क्योंकि ऐसे केस में कोई गवाह नहीं होता. फिर हर पेशी पर जब रावी को वकीलों के नंगे करते सवालों के जवाब देने पड़ेंगे, तो हमारी फूल सी बेटी को फिर से उस हादसे को जीना पड़ेगा. अभी तो यह बात सिर्फ हमारे बीच में ही है, जब समाज में चली जाएगी तो बेटी का जीना मुश्किल हो जाएगा. पूरी जिंदगी पड़ी है उस के सामने… कौन ब्याहेगा उसे?’’

कुछ देर रुक शांति ने एक उदास सी सांस ली और फिर आगे कहना शुरू किया, ‘‘बेटी का हाल देख कर मन तो करता था कि उस दरिंदे को भरे बाजार गोली मार दूं, मगर पति की बात में भी सचाई थी. बेटी का वर्तमान तो खराब हो ही चुका था कम से कम उस का भविष्य तो खराब न हो, यही सोच कर हम ने कलेजे पर पत्थर रख लिया. रावी को समझाबुझा कर फिर से कालेज जाने को राजी किया. भाई उसे लेने और छोड़ने जाता. मैं भी सारा दिन उस के आसपास ही रहती. उसे आगापीछा समझाती, मगर उस की उदासी दूर नहीं कर सकी. इसी बीच एक दिन मैं थोड़ी देर के लिए पड़ोसिन के घर किसी काम से गई, तो इस ने यह कदम उठा लिया.’’

वसुधा बड़े ध्यान से सारा घटनाक्रम सुन रही थीं. जैसे ही शांति ने अपनी बात खत्म की, वसुधा जैसे नींद से जागीं. यों लग रहा था मानो वे सुन नहीं रही थीं, बल्कि इस सारे घटनाक्रम को जी रही थीं. उन्होंने शांति से रावी को अपने घर लाने के लिए कहा.

पहली बार वसुधा के सामने रावी ने अपनी जबान नहीं खोली. चुपचाप आंखें नीचे किए रही. दूसरी बार भी कुछ ऐसा ही हुआ. बस फर्क इतना था कि इस बार रावी ने नजरें उठा कर वसुधा की तरफ देखा था. इसी तरह 2 और सिटिंग्स हुईं. वसुधा उसे हर तरह से समझाने की कोशिश करतीं, मगर रावी चुपचाप खाली दीवारों को ताकती रहती.

एक दिन रावी ने बहुत ही ठहरे हुए शब्दों में वसुधा से कहा, ‘‘बहुत आसान होता है सब कुछ भूल कर आगे बढ़ने और जीने की सलाह देना. मगर जो मेरे साथ घटित हुआ वह मिट्टी पर लिखा वाक्य नहीं, जिसे पानी की लहरों से मिटा दिया जाए… आप समझ ही नहीं सकतीं उस दर्द को जो मैं ने भोगा है…जब दर्द देने वाला कोई अपना ही हो तो तन से भी ज्यादा मन लहूलुहान होता है,’’ और फिर वह फफक पड़ी.

वसुधा उसे सीने से लगा कर मन ही मन बुदबुदाईं कि यह दर्द मुझ से बेहतर और कौन समझ सकता है मेरी बच्ची.

रावी ने आश्चर्य से वसुधा की ओर देखा. उन की छलकी आंखें देख कर वह अपना रोना भूल गई. वसुधा उस की बांह थाम कर उसे 20 वर्ष पहले की यादों की गलियों में ले गईं.

‘‘स्कूल के अंतिम वर्ष में फेयरवैल पार्टी से लौटते वक्त रात अधिक हो गई थी. मैं और मेरी सहेली रूपा दोनों परेशान सी औटो की राह देख रही थीं. तभी एक कार हमारे पास आ कर रुकी. हम दोनों कुछ समझ पातीं, उस से पहले ही 2 गुंडों ने मुझे कार में खींच लिया. रूपा अंधेरे का फायदा उठा कर भागने में कामयाब हो गई. उस ने किसी तरह मेरे घर वालों को खबर दी. मगर जब तक वे मुझ तक पहुंच पाते गुंडे मेरी इज्जत को तारतार कर मुझे बेहोशी की हालत में सड़क के किनारे फेंक कर जा चुके थे.

‘‘मुझे अधमरी हालत में घर लाया गया. मांपापा रोतेधोते खुद को कोसते रह गए. मुझे अपनेआप से घिन होने लगी. मैं ने कालेज जाना छोड़ दिया. घंटों बाथरूम में अपने शरीर को रगड़रगड़ कर नहाती, मगर फिर भी उस लिजलिजे स्पर्श से अपनेआप को आजाद नहीं कर पाती. मुझे लगता मानो सैकड़ों कौकरोच मेरे शरीर पर रेंग रहे हों. एक दिन मुझे एहसास हुआ कि उस हादसे का अंश मेरे भीतर आकार

ले रहा है. तब मैं ने भी तुम्हारी ही तरह अपनी जान देने की कोशिश की, मगर जान देना इतना आसान नहीं था. मेरी कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूं. मैं बिलकुल टूट चुकी थी. मेरी इस मुश्किल घड़ी में मेरी मां मेरे साथ थीं. उन्होंने मुझे समझाया कि मैं क्यों उस अपराध की सजा अपनेआप को देने पर तुली हूं, जो मैं ने किया ही नहीं…शर्म मुझे नहीं उन दरिंदों को आनी चाहिए… धिक्कार उन्हें होना चाहिए…

‘‘और एक दिन मां मुझे अपनी जानपहचान की डाक्टर के पास ले गईं. उन्होंने मुझे इस पाप की निशानी से छुटकारा दिलाया. वह मेरा नया जन्म था और उसी दिन मैं ने ठान लिया था कि आज से मैं अपने लिए नहीं, बल्कि अपने जैसों के लिए जीऊंगी. मुझे खुशी होगी, अगर मैं तुम्हें वापस जीना सिखा सकूं,’’ वसुधा ने सब कुछ एक ही सांस में कह डाला मानो वे भी आज एक बोझ से मुक्त हुई हों.

‘‘आप को समाज से डर नहीं लगा?’’ रावी ने आश्चर्य से पूछा.

‘‘कैसा डर? किस समाज से… अब मैं हर डर से आजाद हो चुकी थी. वैसे भी मेरे पास खोने के लिए बचा ही क्या था. अब तो मुझे सब कुछ वापस पाना था.’’

‘‘फिर क्या हुआ? मेरा मतलब. आप यहां, इस मुकाम तक कैसे पहुंचीं?’’ रावी को अभी भी वसुधा की बातों पर यकीन नहीं हो रहा था.

‘‘उस हादसे को भूलने के लिए मैं ने वह शहर छोड़ दिया. आगे की पढ़ाई मैं ने होस्टल में रह कर पूरी की. अब बस मेरा एक मात्र लक्ष्य था मनोविज्ञान में मास्टर डिगरी हासिल करना ताकि मैं इनसान के मन के भीतर की उस तह तक पहुंच सकूं जहां वह अपने सारे अवसाद, राज और विकार छिपा कर रखता है. मैं ने अपनी कमजोरी को अपनी ताकत बना कर अपनी लड़ाई लड़ी और उस पर विजय पाई,’’ थोड़ी देर रुक कर वसुधा ने रावी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहना जारी रखा, ‘‘बेटा, हमें यह जीवन कुदरत ने जीने के लिए दिया है. किसी और के कुकर्मों की सजा हम अपनेआप को क्यों दें? तुम्हें भी बहादुरी से अपनी लड़ाई लड़नी है… अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है… तुम अपनी पढ़ाई पूरी करो…और हां, अपने बच्चे के नामकरण पर मुझे जरूर बुलाना,’’ वसुधा ने रावी के चेहरे पर मुसकान लाने की कोशिश की.

‘‘आप ने शादीक्यों नहीं की?’’ रावी ने यह जलता प्रश्न उछाला, तो इस बार उस की लपटें वसुधा के आंचल तक जा पहुंचीं. एक लंबी सांस ले कर वे बोलीं, ‘‘हां, यहां मैं चूक गई. मेरे साथ पढ़ने वाले डा. नमन ने मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रखा था. मैं भी उन्हें पसंद करती थी, मगर मेरी साफगोई शायद उन्हें पसंद नहीं आई. मैं ने शादी से पहले उन्हें अपने बारे में सब कुछ बता दिया, जिसे उन का पुरुषोचित अहं स्वीकार नहीं कर पाया. हालांकि उन्होंने शादी करने से मना नहीं किया था, मगर मैं ही पीछे हट गई. अब मुझे उन के प्यार में दया की बू आने लगी थी और इस मुकाम पर पहुंचने के बाद मैं किसी की दया की पात्र नहीं बनना चाहती थी. मैं जानती थी कि आज नहीं तो कल यह प्यार सहानुभूति में बदल जाएगा और मैं वह स्थिति अपने सामने नहीं आने देना चाहती थी.’’

‘‘फिर आप मुझे शादी करने के लिए क्यों कह रही हैं? यह परिस्थिति तो मेरे सामने भी आएगी.’’

‘‘वही मैं तुम्हें समझाना चाह रही हूं कि जो गलती मैं ने की वह तुम भूल कर भी मत करना. यह एक कड़वी सचाई है कि खुद कई गर्लफ्रैंड्स रखने वाले पुरुष भी पत्नी वर्जिन ही चाहते हैं. तुम्हें किसी को भी सफाई देने की जरूरत नहीं  है. जब तक तुम खुद किसी को नहीं बताओगी, तुम्हारे साथ हुए हादसे के बारे में किसी को कुछ पता नहीं चलेगा.’’

‘‘मगर यह तो किसी को धोखा देने जैसा हुआ?’’ रावी अभी भी तर्क कर रही थी.

‘‘धोखा तो वह था जो तुम्हारे पापा के दोस्त ने तुम्हारे पापा को दिया… अपने परिवार को दिया… तुम्हारी मासूमियत और इनसानियत को दिया. हम औरतों को अब अपने लिए थोड़ा स्वार्थी होना ही पड़ेगा… जीवन के इंद्रधनुष में 8वां रंग हमें खुद भरना होगा. अच्छा एक बात बताओ तुम्हारा वह तथाकथित अंकल बिना किसी को कुछ बताए समाज में शान से रह रहा है न? फिर तुम क्यों नहीं? अगर सोने पर कीचड़ लग जाए, तो भी उस की शुद्धता में रत्ती भर भी फर्क नहीं आता. तुम्हें भी इस हादसे को एक बुरा सपना मान कर भूलना होगा,’’ कह वसुधा ने उसे सोचने के लिए छोड़ दिया.

‘‘अगर अंकल ने मुझे ब्लैकमेल करने की कोशिश की तो?’’ रावी ने अपनी शंका जाहिर की.

‘‘वह ऐसा नहीं करेगा, क्योंकि ऐसा करने पर खुद उस की पहचान भी तो उजागर होगी और फिर कोई भी व्यक्ति अपने परिवार और समाज के सामने जलील नहीं होना चाहेगा,’’ वसुधा ने अपने अनुभव के आधार पर कहा.

बात रावी की समझ में आ गई थी. वह पूरे आत्मविश्वास के साथ उठ कर वसुधा के चैंबर से निकल गई. उस के कालेज के लास्ट ईयर के फाइनल ऐग्जाम का टाइमटेबल आ चुका था. उस ने मन लगा कर परीक्षा दी और प्रथम श्रेणी से पास हुई. उस के बाद उस ने कंप्यूटर का बेसिक कोर्स किया और फिर उसी संस्थान में काम करने लगी. साल भर पहले एक अच्छा सा लड़का देख कर उस के घर वालों ने उस की शादी कर दी. उस के बाद रावी आज ही वसुधा से मिलने आई थी. अपने बेटे के नामकरण का निमंत्रण देने.

इस बीच वसुधा निरंतर शांति के संपर्क में रहीं. कदमकदम पर उन्हें राह दिखाती रहीं, मगर रावी से दूर ही रहीं. वे उसे खुद ही गिर कर उठने देना चाहती थीं. वे संतुष्ट थीं कि उन्होंने एक और कली को मुरझाने से बचा लिया.

रावी ने तो अपना वादा निभा दिया था, अब उन की बारी थी. अत: तैयार हो वे अपना पर्स उठा नन्हे मेहमान के लिए गिफ्ट लेने बाजार चल दीं.

शिवसेना नेत्री का सेक्स रैकेट

सौज्नया- मनोहर कहानियां

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के सब से नजदीकी जिले सीहोर की दूरी महज 35 किलोमीटर है. इंदौरभोपाल रोड पर हाईवे बन जाने के बाद से यह दूरी महज आधे घंटे में तय हो जाती है. एक तरह से सीहोर भोपाल का ही हिस्सा बनता जा रहा है क्योंकि ये दोनों शहर तेजी से एकदूसरे की तरफ बढ़ रहे हैं.
शहरीकरण का असर ही इसे कहेंगे कि छोटे और घनी बसाहट वाले कसबे सीहोर में भी कालोनियों और अपार्टमेंटों की बाढ़ सी आती जा रही है, जो सारे के सारे बाहर की तरफ बन रहे हैं.

लेकिन सीहोर की पहचान पुराने शहर से ही है खासतौर से बसस्टैंड से, जो शहर को चारों तरफ से जोड़ता है. इस बसस्टैंड पर देर रात तक चहलपहल रहती है. बसस्टैंड के आसपास कई पुराने मोहल्लों में से एक है हाउसिंग बोर्ड कालोनी, जहां आधे पक्के और आधे कच्चे मकान बने हुए हैं. यहीं से आधा किलोमीटर दूर स्थित है सिटी कोतवाली, जो कोतवाली चौराहे पर स्थित है.आमतौर पर बसस्टैंड के आसपास के मोहल्लों में पुश्तों से रह रहे लोग ही ज्यादा हैं और सभी एकदूसरे को जानते हैं. इसी बसस्टैंड के पास एक मकान या योग आश्रम, कुछ भी कह लें, अनुपमा तिवारी का भी है. जिन के बारे में लोग ज्यादा कुछ नहीं जानते सिवाय इस के कि वह शिवसेना की नेत्री हैं.

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साल 2015 में वह नगर पालिका अध्यक्ष का चुनाव भी इसी पार्टी से लड़ी थीं, जिस के राष्ट्रीय मुखिया कभी बालासाहेब ठाकरे जैसे आक्रामक और कट्टरवादी हिंदू नेता हुआ करते थे और आजकल उन के बेटे उद्धव ठाकरे इन दिनों कांग्रेस और एनसीपी के सहयोग से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हैं.शिवसेना की कोई खास पूछपरख सीहोर ही क्या पूरे मध्यप्रदेश में नहीं है. शायद इसीलिए अनुपमा तिवारी को 700 वोट भी नहीं मिले थे और उस की जमानत जब्त हो गई थी.छोटे शहरों में जो स्थानीय निकाय का चुनाव लड़ लेता है उसे पूरा शहर जानने लगता है, यही अनुपमा के साथ हुआ था कि सीहोर के लोग उस के नाम से परिचित हो गए थे. चुनाव हार चुकी अनुपमा ने हिम्मत नहीं हारी और वह समाज सेवा के क्षेत्र में सक्रिय हो गई.

छोटेमोटे जुलूस और धरनेप्रदर्शनों में शिवसेना की अधेड़ और सामान्य दिखने वाली नेत्री अनुपमा तिवारी के इर्दगिर्द कुछ महिलाएं भी नजर आने लगीं तो लोग और मीडिया उस का नोटिस भी लेने लगे और शायद यही वह चाहती थी.कुछ कर गुजरने की कशिश के चलते महत्त्वाकांक्षी अनुपमा ने सन 2017 में शहर के व्यस्ततम कोतवाली चौराहे पर शराब के विरोध में धरना दिया था और शराब को प्रतिबंधित करने की उस की मांग न माने जाने पर हाहाकारी आंदोलन की चेतावनी दी थी. उस वक्त उस के साथ महिलाओं की संख्या पहले के मुकाबले कुछ ज्यादा थी.

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यह धरना शिवसेना गौजन कल्याण संघ के बैनर तले दिया गया था, जिस की प्रमुख अनुपमा तिवारी खुद थी और उस का साथ दे रही महिलाओं को महिला बिग्रेड कहा गया था. इस धरने से भी कुछ हासिल नहीं हुआ, लेकिन अनुपमा को लोग अब अच्छे से पहचानने लगे थे.धीरेधीरे अनुपमा फुलटाइम समाजसेवी होती गई और कई छोटेबड़े समारोहों में नजर आने लगी. महिला हितों की बात करते रहने से फायदा यह हुआ कि उस के आसपास दुखियारी पीडि़त महिलाएं इकट्ठा होने लगीं जिन्हें बड़ी उम्मीद रहती थी कि कोई और उन की बात सुने न सुने, लेकिन अनुपमा दीदी जरूर सुनेंगी और जरूरत पड़ी तो उन के हक में लड़ेंगी भी.

इस सक्रियता का ही नतीजा था कि उसे 21 जून, 2018 को नेहरू युवा केंद्र सीहोर के एक कार्यक्रम में अपर कलेक्टर द्वारा सम्मानित किया गया था. सम्मान की वजह थी उस का योगाचार्य होना. इस समारोह में वह राजनीति में सक्रिय और सफल साध्वियों जैसी भगवा ड्रेस पहन कर गई थी, इसलिए भी आकर्षण का केंद्र रही थी.एक चेहरे पर लगाए कई चेहरे अनुपमा अब तक योगाचार्य ही नहीं रह गई थी, बल्कि नेत्री और समाजसेवी के अलावा वह एक पत्रकार व साहित्यकार के रूप में भी प्रचारित हो चुकी थी. बसस्टैंड वाले मकान में अब अनुपमा का छोटामोटा दरबार भी लगने लगा था, जहां हैरानपरेशान औरतें अपना दुखड़ा ले कर आती थीं और अनुपमा से मदद की गुहार लगाती थीं. राजनीति और समाजसेवा के इस नए मठ को सीहोर के लोग अब उत्सुकता से देखने लगे थे, जो आश्रम कहलाता हुआ एक शक्ति केंद्र भी बनता जा रहा था. अनुपमा अब औरतों से ताल्लुक रखते राष्ट्रीय मुद्दों पर भी बोलने लगी थी.

अपनी आवाज में दम लाने के लिए उस ने सोशल मीडिया पर भी सक्रिय रहना शुरू कर दिया था और तमाम प्लेटफार्मों पर वह दिग्गज सियासी हस्तियों के साथ अपने फोटो व उपलब्धियां भी शेयर करने लगी थी. यह और बात थी कि उसे न तो ज्यादा फालोअर्स कभी मिले और न ही उस का अपना बड़ा प्रशंसक वर्ग बन पाया. लेकिन कुछ महिलाएं जरूर उस की मुरीद हो गई थीं, जिन से वह औफलाइन भी बड़ीबड़ी क्रांतिकारी बातें शेयर करने लगी थी.

ऐसी ही एक पोस्ट उस ने 8 नवंबर, 2017 को शेयर की थी जिस में लिखा था— प्रदेश में महिलाएं सुरक्षित नहीं, बच्चियां वहशी दरिंदों का शिकार हो रही हैं.इत्तफाक से ठीक 4 साल बाद 8 नवंबर, 2021 को ही अनुपमा तिवारी पुलिस की गिरफ्त में आ गई. आरोप था महिलाओं से देह व्यापार करवाना. इन 4 सालों में सीहोर की पार्वती नदी का पानी बहुत बह चुका था और यह अनुपमा अब सैक्स रैकेट की सरगना के तौर पर भी जानी गई, जिस की सीहोर वासियों को कोई खास हैरानी नहीं हुई. क्योंकि जो वह कर रही थी, उस से पूरा शहर वाकिफ हो चुका था.

छापे के बाद लोग हुए हैरान सीहोर के युवा एसपी मयंक अवस्थी को सीहोर आए अभी 2 महीने ही पूरे हुए थे. पदभार संभालते ही उन्हें शिकायतें मिलने लगी थीं कि बसस्टैंड के नजदीक धड़ल्ले से देह व्यापार का अड्डा संचालित हो रहा है जिस की कर्ताधर्ता एक पहुंच वाली और रसूखदार नेत्री है. मुखबिर भी लगातार खबर दे रहे थे कि यह अड्डा कौन संचालित करता है और कैसे काम करता है.इतना ही नहीं, मोहल्ले के लोग भी नाम से और गुमनाम शिकायतें पुलिस को कर चुके थे कि इस मकान में सैक्स रैकेट के चलते उन का वहां रहना मुहाल हो रहा है लिहाजा पुलिस सख्त काररवाई करे.

मयंक अवस्थी ने अनुपमा की कुंडली खंगाली तो उन्हें आरोप व शिकायतें सच और अनुपमा की गतिविधियां संदिग्ध लगीं. लिहाजा उन्होंने सीएसपी समीर यादव की अगुवाई में एक टीम गठित कर दी, जिन के निर्देशन में थानाप्रभारी कोतवाली अर्चना अहीर और उन के साथियों ने 8 नवंबर, 2021 को योजनाबद्ध तरीके से अनुपमा के घर पर छापा मार दिया.जैसे ही पुलिस टीम मकान के अंदर पहुंची तो तीनों कमरों में योगासनों की जगह वात्स्यायन के कामसूत्र में वर्णित कामासनों और अय्याशी का खुला खेल चल रहा था. शबाब के साथसाथ शराब भी थी, कंडोम भी थे और उत्तेजक अश्लील सामग्री भी थी, जो इस तरह के हर छापे में आमतौर पर मिलती ही हैं.

एक कमरे में मसाज बैड भी था और बड़ी स्क्रीन वाला टीवी भी दीवार पर टंगा था. जब पुलिस टीम बाहर टोह ले रही थी, तब इस मकान से तेज आवाज में संगीत की भी आवाज आ रही थी. जाहिर है मौजमस्ती के शौकीन गुलाबी सर्दी को पूरी तरह एंजौय कर रहे थे, जिन की सारी खुमारी पुलिस टीम को सामने खड़ा देख हवा हो गई थी.कमरों की मुकम्मल तलाशी के बाद जब आरोपियों को लाइन में खड़ा किया गया तो उन के चेहरों पर हवाइयां उड़ रही थीं. रंगेहाथों पकड़े जाने के कारण किसी के पास अपनी सफाई में कहने को कुछ नहीं था.शुरुआती पूछताछ में यह बात साफ हो गई कि चारों महिलाएं भोपाल की उपनगरी बैरगढ़ से धंधा करने आईं थीं, जिन का अपना एक वाट्सऐप ग्रुप भी था. ग्राहकों और कालगर्ल्स को इंदुलता नाम की एक महिला मैनेज करती थी.

पकड़े गए चारों ग्राहक सीहोर के ही थे जिन के हावभाव देख साफ लग रहा था कि वे इस अड्डे से अच्छी तरह वाकिफ थे, लेकिन इस बार गच्चा खा गए थे. क्योंकि पुलिस ने अनुपमा मैडम के नाम और रसूख का कोई लिहाज नहीं किया था.कानूनी खानापूर्ति के बाद आरोपियों को थाने लाया गया, लेकिन उस के पहले ही इस छापे की खबर जंगल की आग की तरह सीहोर से भोपाल होती हुई पूरे मध्य प्रदेश और देश में फैल गई थी, जिस की इकलौती वजह यह थी कि इस गिरोह की सरगना शिवसेना की नेत्री थी, जो नगर पालिका अध्यक्ष पद का चुनाव भी लड़ चुकी थी.

पुलिस टीम ने मौके से 10 मोबाइल फोन और 28 हजार रुपए नगद भी जब्त किए. 2 लग्जरी कारें भी मकान के बाहर से बरामद की गईं. सभी आरोपियों के खिलाफ थाना कोतवाली सीहोर में अनैतिक देह व्यापार निवारण अधिनियम की धाराओं के तहत काररवाई की गई.पुलिस टीम में एसआई प्रिया परते और पूजा राजपूत के अलावा कांस्टेबल कुलदीप, चंद्रभान व विक्रम शामिल थे. बदनामी के डर से कांप रहे आरोपियों और महिलाओं ने उस वक्त चैन की सांस ली, जब उन्हें देर रात थाने से ही बांड भरवा कर जमानत दे दी गई.

गलत क्या कर रही थी अनुपमा

अनुपमा ने देह व्यापार की बात स्वीकारी क्योंकि यह तो छापे में ही साबित हो चुका था कि ग्राहकों ने कालगर्ल्स को 500-500 रुपए के हिसाब से भुगतान किया था और ये महिलाएं बैरागढ़ से आई थीं.
अनुपमा के पति की मौत कोई 3 साल पहले हो चुकी थी. इस के बाद उसे पैसों की किल्लत होने लगी थी. कुछ दिन मायके होशंगाबाद में रहने के बाद वह ससुराल सीहोर वापस आई और समाजसेवा के काम में
जुट गई. लेकिन इस के बाद वह इंदौर चली गई थी.इस दौरान वह सीहोर कभीकभार आती रही लेकिन उस की गतिविधियां और सक्रियता कम हो रही थीं.

आजकल समाजसेवा भी मुफ्त में नहीं होती फिर अनुपमा के खर्चे तो अनापशनाप थे. विधवा होने की त्रासदी भुगत रही अनुपमा ने देखा कि उस के जैसी कई विधवाएं और परित्यक्ताएं बदहाल जिंदगी जी रही हैं. कइयों के पति निकम्मे और शराबी हैं तो कुछ का चक्कर इधरउधर चल रहा है.ऐसी औरतों को कमानेखाने और बच्चे अगर हों तो उन की परवरिश और स्कूलिंग के लिए पैसों के लाले पड़े रहते हैं और उन की कोई सगे वाला तो दूर की बात है दूर वाला भी मदद नहीं करता और जो करता है वह उन से कुछ न कुछ चाहता जरूर है.

अनुपमा ने कुछ सोचा और फिर इन बेसहाराओं और जरूरतमंदों की मदद करने की गरज से उन से देहव्यापार करवाना शुरू कर दिया, जिस से उसे भी दलाली के जरिए खासी आमदनी होने लगी.
अनुपमा के संपर्क में लगभग 15 महिलाएं थीं और एकदो को छोड़ कर सभी अधेड़ सी थीं, जिन की अपने पतियों से पटरी नहीं बैठती थी या पतियों ने उन्हें छोड़ रखा था यानी वह इस धंधे में शादीशुदाओं को ही लाती थी. क्योंकि ग्राहक से ज्यादा वे राज उजागर होने से डरती थीं.

पैसों के लिए देह व्यापार का शार्टकट अपनाने के लिए अनुपमा ने उन्हें उकसाया और समझाया था, कोई जोरजबरदस्ती की होगी, जैसा कि पुलिस और मीडिया वाले कह रहे हैं, ऐसा लग नहीं रहा. जिस का खुलासा अदालत में हो जाएगा.सीहोर में पकड़े गए रैकेट में सभी महिलाएं अधेड़ और वक्त की मारी थीं, जिन का इकलौता आर्थिक और सामाजिक सहित भावनात्मक सहारा भी अनुपमा ही थी.अनुपमा ने कानूनन जरूर जुर्म किया है जो अगर साबित हो पाया तो उसे सजा भी मिलेगी. लेकिन देखा जाए तो उस ने बेसहारा औरतों को होने वाले मुफ्त के शारीरिक शोषण को सशुल्क कर दिया था, जिस से उन्हें किसी के आगे हाथ नहीं पसारना पड़ता था.

अनुपमा के पास बड़ा मकान था और उस का अपना एक अलग रुतबा भी था, जिस का फायदा उठा कर उस ने देह व्यापार का आदिम धंधा शुरू कर दिया. यह भी सोलह आने सच है कि पुलिस उस पर हाथ डालने से कतरा रही थी क्योंकि उस के तार कई दिग्गजों से जुड़े थे.

लेकिन गिरफ्तारी के बाद चर्चा के मुताबिक कोई बड़ा नाम सामने नहीं आया तो तमाम अटकलों पर विराम लग गया और अनुपमा को भी समझ आ गया कि लोग लुत्फ और फायदा तो उठाने में पीछे नहीं रहते, लेकिन कीचड़ को भी माथे से नहीं लगाते. हर कोई पाकसाफ दिखना चाहता है.

यह भी हर्ज या ऐतराज की बात नहीं, पर सीहोर का यह छापा सोचने को मजबूर करता ही है कि हैरानपरेशान और जरूरतमंद औरतें देह व्यापार में क्यों आती हैं और इन्हें सजा देने से अब तक किस को क्या हासिल हुआ है. देह व्यापार जब कानून से बंद नहीं हो सकता तो इसे कानूनी मान्यता देने में हर्ज क्या है.

कृषक अब शूद्र नहीं

वर्ष 2020 में सरकार 3 कृषि कानून-फौर्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड कौमर्स (प्रमोशन एंड फैसिलिटेशन) एक्ट 2020, फौर्मर्स (एंपावरमैंट एंड प्रोटैक्शन) एग्रीमेंट औफ प्राइस एश्योरैंस एंड फौर्म सर्विस एक्ट 2020, एसैंशियल कौमोडिटीज (अमैंडमैंट) एक्ट 2020-अचानक संसद में लाई तो तब देशभर में न तो उन्हें बनाने के लिए किसानों का कोई आंदोलन चल रहा था, न जंतरमंतर पर धरने दिए जा रहे थे, न संसद में सुधारों की बात हो रही थी, न ही किसानों के प्रतिनिधियों से बात हो रही थी.

भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली नरेंद्र मोदी सरकार को आखिर इन कानूनों की सू?ाबू?ा आई कैसे और कहां से, यह स्पष्ट नहीं है. आमतौर पर जनता किसी कानून, किसी नीति के परिवर्तन, किसी सुधार की मांग करती है या अदालतों में विवादों की संख्या बढ़ती है तब समस्याओं को हल करने के लिए कानून बनाए जाते हैं. ये कानून दिल्ली के नौर्थ ब्लौक में बैठे बाबुओं की देन भी नहीं हैं, क्योंकि इन कानूनों से बाबूशाही को कोई विशेष धनलाभ नहीं मिलने वाला था. उन के पास पहले के मंडी कानूनों और जमाखोरी रोकने के कानूनों में भरपूर अधिकार मिले हुए थे जिन के जरिए जिस भी अधिकारी का हाथ लगता वह करोड़ों कमा रहा था.

सो, अपने पैरों पर भला क्यों कुल्हाड़ी मारते? ये कानून असल में पौराणिक सोच की देन थे जिस के अनुसार किसानों को सेवा करनी चाहिए, उन्हें संपत्ति जमा करने का हक नहीं होना चाहिए. हमारे पुराण और स्मृतियां ऐसे उल्लेखों से भरे हैं जो आदेश देते हैं कि राज्य शूद्रों की अर्जित संपत्ति को जब्त कर लें. वर्ष 1947 से पहले इस सिद्धांत को खुलेतौर पर अपनाया जाता था. सदियों से हिंदू राजाओं ने और उस के बाद बौद्ध व मुगल राजाओं ने भी इस स्थिति को बनाए रखा था और जमीन पर हक जमींदारों, ब्राह्मणों, मंदिरों, व्यापारियों को दे दिया था. अंगरेजों ने इस व्यवस्था को जमींदारी व्यवस्था ला कर थोपा था और देश के स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में प्रबुद्ध वर्ग ने कभी किसानों को संपत्ति को देने की बात नहीं की थी. वर्ष 1947 के बाद बड़े भरे मन से जवाहरलाल नेहरू की फेबियन समाजवादी सोच के कारण कट्टरपंथी कांग्रेसियों को जमींदारी उन्मूलन कानून लागू करने पड़े थे पर वर्ष 2000 तक भी किसानों की 10 एकड़ की जमीन का मूल्य शहर के छोटे मकान के मूल्य से भी कम होता था. हरित क्रांति के कारण किसानों के पास पैसा आना शुरू हुआ और उन को वोट के अधिकार के कारण अपने हकों का ज्ञान होने लगा तो उन्होंने जमीन को उपजाऊ बनाना शुरू किया.

बिजली की उपलब्धि होने लगी. नहरों से पानी मिला. बाद में ट्यूबवैल की क्रांति आ गई और किसानों की संपत्ति फिर बढ़ने लगी. देश के प्रबुद्ध तिलकधारी व हाथ में कलेवा पहने समाज को न चौधरी चरण सिंह पसंद आए, न देवीलाल, न प्रताप सिंह कैरों, न लालू प्रसाद यादव. ये किसानों के नेता पैसा कमाने लगे थे, राजनीति में दखल देने लगे थे. फिर इंग्लिश में फर्राटे से संसद में भाषण देने वालों के साथ बदबू देते, मैलेकुचैले कपड़ों में आने लगे थे. इन्हें खेती से मतलब था पर न मंदिर से, न मंत्र से, न यज्ञहवन से. लेकिन यह पौराणिक आदेश की घोर अवहेलना थी. संघ समर्थित समाज के लोग, जिस भी पार्टी में थे या यों कहें कि तकरीबन सभी पार्टियों में थे, किसानों को कुचलने और लूटने के षड्यंत्र लगातार रचते रहते थे ताकि यह पूरी जमात सेवक के तौर पर हरदम हाजिर रहे. इन्हीं किसानों से सैनिक निकले जो गरमी और बर्फ में सीमा पर बंदूक ताने खड़े रहते.

इन्हीं किसानों से मजदूर निकले, इन्हीं किसानों के घरों से निकल कर आई औरतें चकलाघरों में पहुंचती रहीं. इन सब के साथ अगर इन के पास मजबूत राजनीतिक शक्ति आ गई तो समाज का ढांचा बिगड़ जाएगा, देश जातीय ऊंचनीच भूल जाएगा. नरेंद्र मोदी को इसी बात की चिंता थी. जिस तपस्या की बात नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में कही है वह यह पोल खोलती है कि मामला न अर्थव्यवस्था का है न कृषि सुधारों का. तपस्या तो वर मांगने के लिए की जाती रही है या फिर पाप धोने के लिए. नरेंद्र मोदी की पार्टी और उस का जनक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इन कृषि कानूनों के जरिए तपस्या में कृषि कानून का वर मांग कर लाया था. इसी में कमी रह गईर् और तपस्या भंग हो गई.

अब चूंकि पौराणिक तर्ज पर तपस्या करनी थी, इसलिए कृषि कानूनों पर खुल कर चर्चा नहीं की गई क्योंकि जरूरत ही नहीं थी. यह तो पुराणों में लिखा है कि शूद्र के पास कुछ नहीं होना चाहिए, शूद्रों को तो कर्म करना चाहिए. फल तो ऊंची जातियों के लोग खाएंगे. गीता में कृष्ण ने यह संदेश लड़ रहे अर्जुन को नहीं दिया, बाकी 3 जातियों और बिना जाति वालों को दिया. यही संदेश बारबार दोहराया गया है. सदियों से हर स्मृतिपुराण में कहा गया. शूद्रों, दस्युओं के राजाओं को उन के अपने लोगों या क्षत्रिय कहे जाने वाले राजाओं के हाथों से मरवाया गया. कृष्ण ने भीम के पुत्र घटोत्कच को भी मरवा दिया जो आदिवासी औरत से पैदा हुआ था. निषाद जाति के शूद्र एकलव्य का अंगूठा कटवा दिया गया ताकि वह अपनी सुरक्षा न कर सके लेकिन फिर भी उस में इतनी क्षमता थी कि वह कृष्ण के लिए खतरा बना रहा. कृष्ण ने उसे भी छल से मरवाया.

आज सैकड़ों नहीं, लाखों एकलव्य जमा होने लगे, हजारों दस्यु, राजा हो गए हैं. इन की जड़ समाप्त करनी थी, इसलिए ये 3 कृषि कानून लाए गए थे. ये कानून देश के गांवों के रोबदाब को नष्ट करने या आ रही संपत्ति को समाप्त करने वाले थे. इन से मंडियां समाप्त हो जातीं और किसान का उत्पाद उत्पादक की मरजी से नहीं, खरीदार सेठों के हिसाब से बिकता. आज भी मंडियों के बावजूद किसानों को ब्याज चुकता करने के बाद जो मिलता है वह न के बराबर होता है पर उतना भी उन को बल देने के लिए काफी है. वैज्ञानिक खेती अपना कर कुछ किसानों ने पैसा बना लिया, अपने बच्चों को पढ़ा कर ज्ञान पा लिया. हालांकि, ये दोनों काम पौराणिक आदेशों के विरुद्ध थे.

हिंदू धर्म व्यवस्था से मुक्त सिख किसान ज्यादा संपन्न हैं क्योंकि वे दान, पूजापाठ को उतना महत्त्व नहीं देते. बाकी किसान भी यही रास्ता अपनाएं. यह प्रबंध उन्हें खुद करना होगा. इसलिए, मोदी के इन कानूनों की कल्पना संघ के थिंकटैंकों में की गई. ब्रह्मा विष्णु से बात की गई. वहीं ड्राफ्ट बने, वहीं चर्चा हुई, वहीं विस्तार से धाराएं लिखी गईं. चर्चा में अडानी और अंबानी के सलाहकार भी रहे होंगे पर असल सोच तो पौराणिक है. यह गुप्त ज्ञान का परिणाम था जो 5 जून, 2020 को संसद के सामने पेश किया गया और भेड़रूपी भाजपा सांसदों से पारित करा दिया गया. कोई सांसदों की बहस नहीं, कोई सलैक्ट कमेटी नहीं. भाजपा को विश्वास था कि जैसे किसान सदियों से रामजी और शिवजी के नाम पर अपना सर्वस्व लुटाते रहे हैं, मोदीजी और भागवतजी के नाम पर अपनी संपत्ति का बलिदान हिंदू पौराणिक व्यवस्था के नाम कर देंगे कि उस का काम ऋ षिमुनियों की सेवा करना, उन की रक्षा करना, उन्हें दान देना, उन से यज्ञहवन कराना, उन्हें दान में सुवर्ण और गाय दासियों सहित देना और शूद्रों का काम दान देना, सेवा करना, फल की अपेक्षा न करना बारबार पुराणों में दोहराया गया है.

मगर कुछ किसान नेताओं ने चाल सम?ा ली. वे विद्रोह पर अड़ गए. मोदी सरकार इस पर किसी संशोधन को तैयार न थी क्योंकि उसे विश्वास था कि इसे भगवान का आदेश मान कर कुछ बिगड़े किसान आज नहीं तो कल मान ही जाएंगे. उसे यह भी विश्वास था कि मतदान केंद्रों तक जाते समय धर्म के पाखंड का जोर इतना पकड़ेगा कि मूर्ख पाखंडग्रस्त जनता वोट तो रामजी और मंदिरों के रक्षकों को ही देगी. लेकिन पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और बाद के उपचुनावों में मिली करारी हार ने नरेंद्र मोदी की सोच बदल दी. पुराणों की हार वैसी ही हुई जैसी सोमनाथ के रक्षा के समय हुई, जैसे शकों के आक्रमणों में हुई, जैसी हूणों के अत्याचारों के सामने हुई, जैसी मुसलिम लुटेरों के हाथों हुई, जैसी मुगल शासकों के हाथों हुई, ये सब खैबर दर्रे की दुर्गम पहाडि़यों के संकरे रास्तों के बीच से आए और देश पर जम कर बैठ गए. एक और हार, अंगरेजों के हाथों हुई जो लकड़ी की नावों में न जाने कौन से समुद्र पार कर आए थे.

कृषि कानून क्या हैं, क्या करते, किस तरह मालिक किसान को खेतिहर मजदूर बनाते, किस तरह कौर्पोरेट जमींदारी लाते, ये सब किताबी बातें हैं. मुख्य बात यह है कि ये शूद्र को संपत्तिविहीन कर देते. उन से संपत्ति छीन लेने वाले कानून को समाप्त करने का अर्थ यह है कि फिलहाल देश के लोग शांति से रह सकते हैं. इस से यह साफ हो गया है कि देश में धनपति का राज नहीं चलेगा. यहां हर कमजोर चाहे मजदूर हो, किसान हो, औरत हो, विधवा हो, गरीब हो, छोटा व्यापारी हो, कारीगर हो, मोची हो, पकौड़े तलने वाला हो, सुरक्षित रह सकता है यदि वह अपना हक मांगे. धर्म और जाति का भय दिखा कर शासन करने की नीति पर यह जबरदस्त चोट है. कानून के सहारे भेदभाव अपनी ही सरकार पर अंकुश लगाने वाले अपने ही कानूनों के सहारे अपना प्रभुत्व दूसरों पर थोपने की कला कूटनीति में कोई नई नहीं है.

चीन ने अभी 62 धाराओं वाले 7 चैप्टरों के एक कानून को अपनी संसद से अनुमोदित कराया है जिस में सरकार से कहा गया है कि पीपल्स रिपब्लिक औफ चाइना अपनी सार्वभौमिकता और सीमाओं की पूरी रक्षा करेगी और सरकार को इस के लिए किसी भी तरह का कदम उठाने का अधिकार है. यह कानून चीन की लंबी सीमाओं, जिन में भारत के लद्दाख से अरुणाचल प्रदेश तक की सीमा भी शामिल है, पर लागू होता है. सीमा में हो रही घुसपैठ को ले कर जो बातचीत सैनिक स्तर पर हो रही है उस में चीनी सैनिक अधिकारी अब नए कानून का हवाला दे कर मुंह बंद करने की कोशिश करेंगे. अपना कानून बना कर दूसरे देश के मामले या सीमा में दखल देना सभी देश करते रहते हैं. भारत के नागरिकता संशोधन कानून में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बंगलादेश था. इस में नाम ले कर कहा गया है कि वहां सताए गए अल्पसंख्यक हिंदुओं को भारत नागरिकता तुरंत प्रदान कर सकता है.

इस का अर्थ यह है कि भारत इन देशों में अल्पसंख्यकों से भेदभाव किए जाने का कानून के जरिए आरोप लगा रहा है. नेपाल ने अपने संविधान में संशोधन कर के कुछ भारतीय हिस्सा नेपाल का माना है. भारत सरकार इस से बहुत नाराज है. यह कूटनीति का हिस्सा है कि पहले एक देश दूसरे देशों के प्रभावित करने वाला कानून या नीति घोषित कर दे, फिर उस का सहारा ले कर दूसरे से ?ागड़ा करे. एक अमेरिकी राष्ट्रपति ने नीति बनाई कि अमेरिका संयुक्त राज्य अमेरिका के अलावा भौगोलिक स्तर पर दक्षिण अमेरिका में भी कहीं भी विदेशी फौजों के दखल को अमेरिका पर आक्रमण सम?ोगा.

भतरो सिद्धांत के नाम से जाने गए इस कानून का हवाला दे कर अमेरिका रूस से क्यूबा में रूस द्वारा आणविक प्रक्षेपास्त्र लगाने को ले कर किसी भी तरह का युद्ध करने को राष्ट्रपति जौन कैनेडी के समय तैयार हो गया. अपने कानून का सहारा ले कर दूसरे देश की सीमा या उस की सरकार को धमकाना ताकतवर देशों का एक पुराना हथियार बन गया है. दुनियाभर में बीसियों बड़े युद्ध इसी को ले कर हुए हैं.

अंत भला तो सब भला : भाग 1

संगीता को यह एहसास था कि आज जो दिन में घटा है, उस के कारण शाम को रवि से झगड़ा होगा और वह इस के लिए मानसिक रूप से तैयार थी. लेकिन जब औफिस से लौटे रवि ने मुसकराते हुए घर में कदम रखा तो वह उलझन में पड़ गई.

‘‘आज मैं बहुत खुश हूं. तुम्हारा मूड हो तो खाना बाहर खाया जा सकता है,’’ रवि ने उसे हाथ से पकड़ कर अपने पास बैठा लिया.

‘‘किस कारण इतना खुश नजर आ रहे हो ’’ संगीता ने खिंचे से स्वर में पूछा.

‘‘आज मेरे नए बौस उमेश साहब ने मुझे अपने कैबिन में बुला कर मेरे साथ दोस्ताना अंदाज में बहुत देर तक बातें कीं. उन की वाइफ से तो आज दोपहर में तुम मिली ही थीं. उन्हें एक स्कूल में इंटरव्यू दिलाने मैं ही ले गया था. मेरे दोस्त विपिन के पिताजी उस स्कूल के चेयरमैन को जानते हैं. उन की सिफारिश से बौस की वाइफ को वहां टीचर की जौब मिल जाएगी. बौस मेरे काम से भी बहुत खुश हैं. लगता है इस बार मुझे प्रमोशन जरूर मिल जाएगी,’’ रवि ने एक ही सांस में संगीता को सारी बात बता डाली. संगीता ने उस की भावी प्रमोशन के प्रति कोई प्रतिक्रिया जाहिर करने के बजाय वार्त्तालाप को नई दिशा में मोड़ दिया, ‘‘प्रौपर्टी डीलर ने कल शाम जो किराए का मकान बताया था, तुम उसे देखने कब चलोगे ’’

‘‘कभी नहीं,’’ रवि एकदम चिड़ उठा.

‘‘2 दिन से घर के सारे लोग बाहर गए हुए हैं और ये 2 दिन हम ने बहुत हंसीखुशी से गुजारे हैं. कल सुबह सब लौट आएंगे और रातदिन का झगड़ा फिर शुरू हो जाएगा. तुम समझते क्यों नहीं हो कि यहां से अलग हुए बिना हम कभी खुश नहीं रह पाएंगे…हम अभी उस मकान को देखने चल रहे हैं,’’ कह संगीता उठ खड़ी हुई.

‘‘मुझे इस घर को छोड़ कर कहीं नहीं जाना है. अगर तुम में जरा सी भी बुद्धी है तो अपनी बहन और जीजा के बहकावे में आना छोड़ दो,’’ गुस्से के कारण रवि का स्वर ऊंचा हो गया था. ‘‘मुझे कोई नहीं बहका रहा है. मैं ने 9 महीने इस घर के नर्क में गुजार कर देख लिए हैं. मुझे अलग किराए के मकान में जाना ही है,’’ संगीता रवि से भी ज्यादा जोर से चिल्ला पड़ी. ‘‘इस घर को नर्क बनाने में सब से ज्यादा जिम्मेदार तुम ही हो…पर तुम से बहस करने की ताकत अब मुझ में नहीं रही है,’’ कह रवि उठ कर कपड़े बदलने शयनकक्ष में चला गया और संगीता मुंह फुलाए वहीं बैठी रही.

उन का बाहर खाना खाने का कार्यक्रम तो बना ही नहीं, बल्कि घर में भी दोनों ने खाना अलगअलग और बेमन से खाया. घर में अकेले होने का कोई फायदा वे आपसी प्यार की जड़ें मजबूत करने के लिए नहीं उठा पाए. रात को 12 बजे तक टीवी देखने के बाद जब संगीता शयनकक्ष में आई तो रवि गहरी नींद में सो रहा था. अपने मन में गहरी शिकायत और गुस्से के भाव समेटे वह उस की तरफ पीठ कर के लेट गई. किराए के मकान में जाने के लिए रवि पर दबाव बनाए रखने को संगीता अगली सुबह भी उस से सीधे मुंह नहीं बोली. रवि नाश्ता करने के लिए रुका नहीं. नाराजगी से भरा खाली पेट घर से निकल गया और अपना लंच बौक्स भी मेज पर छोड़ गया. करीब 10 बजे उमाकांत अपनी पत्नी आरती, बड़े बेटे राजेश, बड़ी बहू अंजु और 5 वर्षीय पोते समीर के साथ घर लौटे. वे सब उन के छोटे भाई के बेटे की शादी में शामिल होने के लिए 2 दिनों के लिए गांव गए थे.

फैली हुई रसोई को देख कर आरती ने संगीता से कुछ तीखे शब्द बोले तो दोनों के बीच फौरन ही झगड़ा शुरू हो गया. अंजु ने बीचबचाव की कोशिश की तो संगीता ने उसे भी कड़वी बातें सुनाते हुए झगड़े की चपेट में ले लिया. इन लोगों के घर पहुंचने के सिर्फ घंटे भर के अंदर ही संगीता लड़भिड़ कर अपने कमरे में बंद हो गई थी. उस की सास ने उसे लंच करने के लिए बुलाया पर वह कमरे से बाहर नहीं निकली. ‘‘यह संगीता रवि भैया को घर से अलग किए बिना न खुद चैन से रहेगी, न किसी और को रहने देगी, मम्मी,’’ अंजु की इस टिप्पणी से उस के सासससुर और पति पूरी तरह सहमत थे. ‘‘इस की बहन और मां इसे भड़काना छोड़ दें तो सब ठीक हो जाए,’’ उमाकांत की विवशता और दुख उन की आवाज में साफ झलक रहा था.

‘‘रवि भी बेकार में ही घर से कभी अलग न होने की जिद पर अड़ा हुआ है. शायद किराए के घर में जा कर संगीता बदल जाए और इन दोनों की विवाहित जिंदगी हंसीखुशी बीतने लगे,’’ आरती ने आशा व्यक्त की.‘‘किराए के घर में जा कर बदल तो वह जाएगी ही पर रवि को यह अच्छी तरह मालूम है कि उस के घर पर उस की बड़ी साली और सास का राज हो जाएगा और वह इन दोनों को बिलकुल पसंद नहीं करता है. बड़े गलत घर में रिश्ता हो गया उस बेचारे का,’’ उमाकांत के इस जवाब को सुन कर आरती की आंखों में आंसू भर आए तो सब ने इस विषय पर आगे कोई बात करना मुनासिब नहीं समझा.

शाम को औफिस से आ कर रवि उस से पिछले दिन घटी घटना को ले कर झगड़ा करेगा, संगीता की यह आशंका उस शाम भी निर्मूल साबित हुई. रवि परेशान सा घर में घुसा तो जरूर पर उस की परेशानी का कारण कोई और था. ‘‘मुझे अस्थाई तौर पर मुंबई हैड औफिस जाने का आदेश मिला है. मेरी प्रमोशन वहीं से हो जाएगी पर शायद यहां दिल्ली वापस आना संभव न हो पाए,’’ उस के मुंह से यह खबर सुन कर सब से ज्यादा परेशान संगीता हुई.

‘‘प्रमोशन के बाद कहां जाना पड़ेगा आप को ’’ उस ने चिंतित लहजे में पूछा.

‘‘अभी कुछ पता नहीं. हमारी कंपनी की कुछ शाखाएं तो ऐसी घटिया जगह हैं, जहां न अच्छा खानापीना मिलता है और न अस्पताल, स्कूल जैसी सुविधाएं ढंग की हैं,’’ रवि के इस जवाब को सुन कर उस का चेहरा और ज्यादा उतर गया.

‘‘तब आप प्रमोशन लेने से इनकार कर दो,’’ संगीता एकदम चिड़ उठी, ‘‘मुझे दिल्ली छोड़ कर धक्के खाने कहीं और नहीं जाना है.’’ ‘‘तुम पागल हो गई हो क्या  मैं अपनी प्रमोशन कैसे छोड़ सकता हूं ’’ रवि गुस्सा हो उठा.

‘‘तब इधरउधर धक्के खाने आप अकेले जाना. मैं अपने घर वालों से दूर कहीं नहीं जाऊंगी,’’ अपना फैसला सुना कर नाराज नजर आती संगीता अपने कमरे में घुस गई. आगामी शनिवार को रवि हवाईजहाज से मुंबई चला गया. उस के घर छोड़ने से

 

सबको साथ चाहिए- भाग 4: पति की मौत के बाद माधुरी की जिंदगी में क्या हुआ?

Writer- Vinita Rahurikar

माधुरी के मातापिता भी उसे अपने नए परिवार में खुशी से रचाबसा देख कर संतुष्ट थे. दिन पंख लगा कर उड़ते गए. सुधीर का साथ पा कर माधुरी के मन की मुरझाई लताफिर हरी हो गई. ऐसा नहीं कि माधुरी को प्रशांत की और सुधीर को अपनी पत्नी की याद नहीं आती थी, लेकिन उन दोनों की याद को वे लोग सुखद रूप में लेते थे. उस दुख को उन्होंने वर्तमान पर कभी हावी नहीं होने दिया. उन की याद में रोने के बजाय वे उन के साथ बिताए सुखद पलों को एकदूसरे के साथ बांटते थे.  सोचतेसोचते माधुरी गहरी नींद में खो गई. इस घटना के 10-12 दिन बाद ही सुधीर ने माधुरी को बताया कि रविजी और उन की पत्नी उन के घर आने के इच्छुक हैं. माधुरी उन के आने के पीछे की मंशा समझ गई. उस ने सुधीर से कह दिया कि वे उन्हें रात के खाने पर सपरिवार निमंत्रित कर लें. 2 दिन बाद ही रविजी अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को ले कर डिनर के लिए आ गए. विमला माधुरी की हैल्प करवाने के बहाने किचन में आ गई और माधुरी से बातें करने लगी. माधुरी ने स्नेहा से कहा कि प्रिया को बोल दे, डायनिंग टेबल पर प्लेट्स लगा कर रख देगी.

‘‘उसे आज बहुत सारा होमवर्क मिला है मां. उसे पढ़ने दीजिए. मैं आप की हैल्प करवा देती हूं,’’ स्नेहा ने जवाब दिया.

‘‘पर बेटा, तुम्हारे तो टैस्ट चल रहे हैं. तुम जा कर पढ़ाई करो. मैं मैनेज कर लूंगी,’’ माधुरी ने स्नेहा से कहा.

‘‘कोई बात नहीं मां. कल अंगरेजी का टैस्ट है और मुझे सब आता है,’’ स्नेहा प्लेट पोंछ कर टेबल पर सजाने लगी. तभी सुकेश और मधुर बाजार से आइसक्रीम और सलाद के लिए गाजर और खीरे वगैरह ले आए. सुकेश ने तुरंत आइसक्रीम फ्रीजर में रखी और मां से बोला, ‘‘मां, और कुछ काम है क्या?’’

‘‘नहीं, बेटा. अब तुम आनंद और अमृता को अपने रूम में ले जाओ. वे लोग बाहर अकेले बोर हो रहे हैं,’’ माधुरी ने कहा तो सुकेश बाहर चला गया.

‘‘ठीक है मां, कुछ काम पड़े तो बुला लेना,’’ स्नेहा भी अपना काम खत्म कर के चली गई. अब किचन में सिर्फ मधुरी और विमला ही रह गईं. अब विमला ज्यादा देर तक अपनी उत्सुकता को रोक नहीं पाई और उस ने माधुरी से सवाल किया, ‘‘हम तो 2 ही बच्चों को बड़ी मुश्किल से संभाल पा रहे हैं. आप ने 4-4 बच्चों को कैसे संभाला होगा? चारों में अंतर भी ज्यादा नहीं लगता. स्नेहा और मधुर तो बिलकुल एक ही उम्र के लगते हैं.’’  माधुरी इस सवाल के लिए तैयार ही थी. वह अत्यंत सहज स्वर में बोली, ‘‘हां, स्नेहा और मधुर की उम्र में बस 8 महीनों का ही फर्क है.’’

‘‘क्या?’’ विमला बुरी तरह से चौंक गई, ‘‘ऐसा कैसे हो सकता है?’’

तब माधुरी ने बड़ी सहजता से मुसकराते हुए संक्षेप में अपनी और सुधीर की कहानी सुना दी.  अब तो विमला के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा.

‘‘तब भी आप के चारों बच्चों में इतना प्यार है जबकि वे आपस में सगे भी नहीं हैं. मेरे तो दोनों बच्चे सगे भाईबहन होने के बाद भी आपस में इतना झगड़ते हैं कि बस पूछो मत. एक मिनट भी नहीं पटती है उन में. मैं तो इतनी तंग आ गई हूं कि लगता है इन्हें पैदा ही क्यों किया? लेकिन आप के चारों बच्चों में तो बहुत प्यार और सौहार्द दिखता है. चारों आपस में एकदूसरे पर और आप पर तो मानो जान छिड़कते हैं,’’ विमला बोली.

तभी सुधीर की मां किचन में आईं और विमला से बोलीं, ‘‘बात सगेसौतेले की नहीं, प्यार होता है आपसी सामंजस्य से. दरअसल, हम सब अपने जीवन में कुछ अपनों को खोने का दर्द झेल चुके हैं इसलिए हम सभी अपनों की कीमत समझते हैं. इस दर्द और समझ ने ही मेरे परिवार को प्यार से एकसाथ बांध कर रखा है. चारों बच्चे अपनी मां या पिता को खोने के बाद अकेलेपन का दंश झेल चुके थे, इसलिए जब चारों मिले तो उन्होंने जाना कि घर में जितने ज्यादा भाईबहन हों उतना ही मजा आता है. यही राज है हमारे परिवार की खुशियों का. हम दिल से मानते हैं कि सब को साथ चाहिए.’’

विमला उन की बातें सुन कर मुग्ध हो गई, ‘‘सचमुच मांजी, आप के परिवार के विचार और सौहार्द तो अनुकरणीय हैं.’

समय बीतता गया. सुकेश पढ़लिख कर इंजीनियर बना तो मधुर डाक्टर बन गया. मधुर ने एमडी किया और सुकेश ने बैंगलुरु से एमटेक. प्रिया और स्नेहा ने भी अपनेअपने पसंदीदा क्षेत्र में कैरियर बना लिया और फिर उन चारों के विवाह, फिर नातीपातों का जन्म, नामकरण मुंडन आदि की भागदौड़ में बरसों बीत गए. फिर एकएक कर सब पखेरू अपनेअपने नीड़ों में बस गए. सुकेश और प्रिया दोनों इंगलैंड चले गए. जहां दोनों भाईबहन पासपास ही रहते थे. मधुर बेंगलुरु में सैटल हो गया और स्नेहा मुंबई में. मांजी और माधुरी के मातापिता का निधन हो गया.

अब इतने बड़े घर में सुधीर और माधुरी अकेले रह गए. जब बच्चे और नातीपोते आते तो घर भर जाता. कभी ये लोग बारीबारी से सारे बच्चों के पास रह आते, लेकिन अधिकांश समय दोनों अपने घर में ही रहते. अपनी दिनचर्या को उन्होंने इस तरह से ढाला कि सुबह की चाय बगीचे की ताजी हवा में साथ बैठ कर पीते, साथ बागबानी करते. साथसाथ घर के सारे काम करने में दिन कब गुजर जाता, पता ही नहीं चलता. दोनों पल भर कभी एकदूसरे से अलग नहीं रह पाते. अब जा कर माधुरी और सुधीर को एहसास होता कि अगर उन्होंने उस समय अपने मातापिता की बात न मान कर विवाह नहीं किया होता तो आज जीवन की इस संध्याबेला में दोनों इतने माधुर्यपूर्ण साथ से वंचित हो कर बिलकुल अकेले रह जाते. जीवन की सुबह मातापिता की छत्रछाया में गुजर जाती है, दोपहर भागदौड़ में बीत जाती है मगर संध्याबेला की इस घड़ी में जब जीवन में अचानक ठहराव आ जाता है तब किसी के साथ की सब से अधिक आवश्यकता होती है. सुधीर के कंधे पर सिर टिकाए हुए माधुरी यही सोच रही थी. सचमुच, बिना साथी के जीवन अत्यंत कठिन और दुखदायक है. साथ सब को चाहिए.

Covid postive हुईं करीना कपूर और उनकी दोस्त, बच्चों को किया कोरेंटाइन

बॉलीवुड अदाकारा करीना कपूर खान को कोरोना वायरस चपेट में ले लिया है, अदाकारा ने बीते दिनों अपना कोरोना टेस्ट करवाया है. जिसमें उनका रिपोर्ट पॉजिटीव आया है. करीना के इस कोरोना रिपोर्ट आने के बाद से फैंस तैमूर अली खान और जेह अली खान को लेकर काफी ज्यादा चितिंत हैं.

आपको बता दें कि तैमूर अली खान और जेह अली खान बिल्कुल सुरक्षित हैं और वह अपने घर पर हैं. करीना के पिता रणधीर कपूर ने बताया कि उनकी बेटी को थोड़ा सा बुखार है लेकिन इसमें चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है. डॉक्टर्स लगातार उसका ध्यान रख रहे हैं.

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आगे उन्होंने कहा कि करीना घर पर ही कोरेंटाइन मैंने उससे कहा कि जेह और तैमूर को मेरे पास भेज दें तो उसने कहा कि नहीं बच्चों घर पर ही रहेंगे. करीना और बच्चें ठीक हैं जल्द स्वस्थ्य हो जाएंगे. बता दें कि करीना कपूर के साथ- साथ उनकी दोस्त अमृता अरोड़ा को भी कोरोना हो गया है. अमृता का रिपोर्ट भी पॉजिटीव आया है.

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बीते दिन इन दोनों ने कई सारी पार्टियां अटेंड कि है जिसमें कई सारे लोग थें, इन लोगों में कई सारे लोग ऐसे भी थें जो इन दोनों के संपर्क में आएं थें. लेकिन उम्मीद है कि इन लोगों ने अपना कोरोना टेस्ट करवा लिया होगा.

Corona की वजह से कैंसिल हुआ अंकिता लोखंडे और विक्की जैन की शादी का ये प्रोग्राम

अंकिता लोखंडे और विक्की जैन की शादी में सिर्फ कुुछ ही घंटे बचे हैं, इसके बाद ये दोनों एक दूसरे के पति -पत्नी हो जाएंगे. पिछले 2-3 दिनों से इन दोनों की शादी कि रस्में जारी है. इन दोनों की रस्मों की फोटो आग की तरह इंटरनेट पर फैल रही है. फैंस इन दोनों को खूब बधाइंया दे रहे हैं.

अंकिता लोखंडे और विक्की जैन जल्द अपनी शादी की फोटो फैंस के बीच शेयर करेंगे और फैंस से बधाइंया लेंगे. खबर ये है कि शादी के बाद अंकिता लोखंडे और विक्की जैन मीडिया के सामने आने वाले थें, लेकिन कोरोना के बढ़ते मामले को देखते हुए इस प्रोग्राम को कैंसिल कर दिया गया है.

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दरअसल, मुंबई में लगातार कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं जिस वजह से मीडिया इवेंट को कैंसिल किया जा रहा है. इसके अलावा शनिवार और रविवार को मुंबई में धारा 144 भी लागू कर दिया गया है. ताकी लोगों की भीड़ ज्यादा न हो और ज्यादा भीड़ में ही कोरोना बढ़ रहा है.

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ऐसे में कोरोना के नियमों का पालन करना ज्यादा जरुरी है. अब भीड़ भाड़ वाले जगहों पर जाना लोग पहले जैसा कम करने लगे हैं. कोरोना के बढ़ते मामले को देखकर अंकिता और विक्की ने फैसला लिया कि वह परिवार और दोस्तों के बीच ही शादी रचाएंगे.

अरेबियन दूल्हा -भाग 1: नसीबन और शकील के दिलों पर क्या बीती

दीवान का भतीजा शकील 5-6 साल की उम्र से ही दीवान के साथ बंगले पर रोज हाजिरी देता. मैडम उसे कुछ अच्छा खाने के लिए या कभीकभी अठन्नी दे देती थीं जिस के लालच में वह अपने नन्हेमुन्हे हाथों से मैडम के पैर दबाने का काम बड़ी मुस्तैदी से करता था.

दीवान के जिम्मे फैक्टरी पर ड्यूटी देने के अलावा कई घरेलू काम भी थे जैसे मैडम के आदेश पर किसी महिला को बुलवाना या कोई सामान लाना आदि. जिस के बदले में वे दीवान को हर महीने फैक्टरी की तनख्वाह के अलावा 1 हजार रुपए किसी बहाने से पकड़ा देतीं. चूंकि वह मैडम का करीबी था इसलिए फैक्टरी के कर्मचारियों में उस की इज्जत थी. वह फैक्टरी के लोगों के छोटेमोटे काम साहब से करवाने में अकसर कामयाब हो जाता था.

दीवान के रास्ते पर चलतेचलते शकील भी जब 18 साल का हुआ तो मैडम ने खाली जगह पर उसे दिहाड़ी मजदूर के रूप में रखवा दिया. गांव वालों में वह भी अब हैसियत वाला माना जाने लगा. पहली वजह फैक्टरी में 2,500 रुपए का मुलाजिम, दूसरी, बड़े साहब के बंगले तक पहुंच. हर किसी को पक्का विश्वास था कि जल्द ही उसे पक्की नौकरी मिल जाएगी.

करीमन की इकलौती बेटी नसीबन 10वीं पास थी. 16 वसंत पार करतेकरते उस का झुकाव शकील की तरफ होने लगा. दोनों की जाति एक थी और उन में 2 साल का फर्क था. बिना कुछ लिएदिए काम चल जाए तो क्या हर्ज. उस की मां ने तो उसे उल्टे ढील दे रखी थी. हालांकि दीवान कभीकभी शकील को दिखावे के लिए डांटता.

नसीबन बड़ी समझदार थी. लड़के गांव में बहुत थे. झुकी तो सोचसमझ कर, हमउम्र, फैक्टरी का मुलाजिम, बचपन से मैडम का मुंहचढ़ा, गजब की कदकाठी. शकील का चौड़ा सीना…जब देखो, दिल सटने को चाहे. ताकत इतनी कि दीवान का एक बैल मर गया तो दूसरे का तब तक हल में साथ दिया जब तक कि उस ने दूसरा बैल खरीद न लिया. नसीबन को इस बात से कुछ लेना न था कि शकील सिर्फ चौथी तक पढ़ा है.

नसीबन के पिता कभी फरीदाबाद में राजमिस्त्री का काम कर के अच्छा पैसा कमा लेते थे. इकलौती बेटी को अच्छा पढ़ाते व पहनाते थे. फालिज की मार ऐसी पड़ी की वे चल बसे. आमदनी का जरिया जाता रहा तो मजबूर हो कर नसीबन की मां को खेतों में काम कर के गुजारा करना पड़ा.

एक दिन शकील के घर के सामने वाले आम के पेड़ से कईकई बार कूद कर भी नसीबन सिर्फ 2 कच्चे आम तोड़ पाई थी कि शकील ने उस की कलाई पकड़ कर कहा, ‘‘मांग के आम नहीं ले सकती थी. सिर्फ 2 आम के लिए अपनी प्यारीप्यारी टांगें तुड़वाती. ला, दबा दूं… चोट तो नहीं लगी.’’

नसीबन ने हाथ छुड़ाना जरूरी नहीं समझा. उसे शकील के पकड़ते ही करंट लग चुका था. फटी कमीज में यों ही नसीबन की जवानी फूट रही थी. धीरे से बोली, ‘‘टांगें दबानी हैं तो पहले निकाह पढ़.’’

उपयुक्त वातावरण देख कर शकील ने अंधेरे का फायदा उठा कर कहा, ‘‘आम क्या चीज है तू मेरी जान मांग के तो देख.’’

‘‘देख शकील, आगे न बढ़ना,’’ नसीबन के इतना कहते ही शकील ने पकड़ ढीली कर दी. फिर बोला, ‘‘किसी से कहना नहीं, मैं तेरे लिए आम लाता हूं. 2 मिनट चैन से यहीं बैठ कर दिल की बातें करेंगे,’’ उस के बाद शकील ने उसे गोद में लिटा कर एक आम खुद खाया और एक उसे अपने हाथ से खिलाया.

काफी देर दोनों अंधेरे में एकदूसरे में खोए रहे. वह शकील के बालों में उंगलियां फिराती बोली, ‘‘चचा से कहो न, मां से मेरा हाथ मांगें.’’

‘‘जल्दी क्या पड़ी है. देख, पहली पगार से तेरे लिए सोने की अंगूठी लाया हूं,’’ अंगूठी पहना कर शकील ने उस का गाल चूमा तो उस ने फटी कमीज की तरफ इशारा कर के कहा, ‘‘यहां.’’

शकील ने अपने होंठ उस के सीने के उभार पर रख दिए.

तभी नसीबन की मां की आवाज आई, ‘‘नसीबन? कहां है?’’

कपड़े ठीक कर के वह बोली, ‘‘मां, अभी आई.’’

सुबह बेटी की उंगली में सोने की अंगूठी देख कर मां बोलीं. ‘‘यह तुझे किस ने दी.’’

‘‘शकील ने,’’ खुश हो कर वह बोली.

‘‘4-5 हजार से कम की नहीं होगी. बेटी, लेकिन निकाह के पहले कमर के नीचे न छूने देना.’’

‘‘मां,’’ कह कर वह करीमन से लिपट गई.

शकील के प्रस्ताव पर दीवान ने भतीजे को समझा दिया कि वह करीमन से कहेगा कि वह बेटी की अभी कहीं जबान न दे. तुम्हारी पक्की नौकरी हो जाए. 1-2 कमरे बन जाएं तो निकाह पढ़वा लेंगे. शकील तब खुश हो गया.

दीवान ने अगले ही दिन करीमन से बात की, ‘‘करीमन, 4-6 महीने अपनी लौंडिया नहीं रोक सकती. शकील की पक्की नौकरी होने दे. 1-2 कमरे पक्के बनवा दूं. आखिर कहां रखेंगे. क्या शकील को घरदामाद बनाने का इरादा है और साफसाफ सुन ले, रात में बेटी को बगीचे में भेजेगी तो तू समझना, जवान लड़का है, मैं नहीं रोक पाऊंगा. कुछ ऊंचनीच हो गई तो, मुझे मत कहना.’’

‘‘दीवान भाई, मैं क्यों घरदामाद बनाती. मेरे बाद तो यह घर उसी का है. बात पक्की समझूं.’’

‘‘हां, पक्की.’’

 

बैगन की खेती

भारत में बैगन को गरीबों की सब्जी कहा जाता है. बैगन हर तरह की मिट्टी में उगाया जा सकता है, क्योंकि इस का पौधा काफी सहनशील होता है. देश के सभी हिस्सों में बैगन की खेती की जाती है. एक अनुमान के मुताबिक, चीन के बाद हमारे देश में सब से ज्यादा बैगन उगाया जाता है, जो दुनिया की कुल पैदावार का तकरीबन 30 फीसदी है. बैगन की खेती अगर उन्नत वैज्ञानिक तरीके से की जाए, तो यह किसान को काफी मालामाल कर देती है.

आइए जानें कि कैसे बैगन की खेती से ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाया जा सकता है : खेत की तैयारी बैगन की खेती आमतौर पर सभी तरह की मिट्टियों में होती है, लेकिन दोमट मटियार और चिकनी दोमट मिट्टी में इस की पैदावार ज्यादा होती है. जिस मिट्टी में पानी का निकास अच्छा होता हो, बैगन की खेती के लिए ज्यादा ठीक रहती है. खेत की तैयारी के लिए 4 से 6 जुताई अच्छी रहती हैं. मिट्टी के महीन व भुरभुरी होने तक खेत को जोतते रहना चाहिए. पौध ऐसे करें तैयार बैगन को सीधे खेत में नहीं बोया जाता. पहले इस की पौध नर्सरी में तैयार की जाती है.

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नर्सरी के लिए अच्छी मिट्टी का चुनाव करना चाहिए, जिस में कुदरती खाद ज्यादा से ज्यादा हो. बीज को बोर्डो मिश्रण से उपचारित करने से पौध सड़न का डर कम हो जाता है. इसे बीमारियों से बचाने के लिए कैप्टान का इस्तेमाल करना चाहिए. 1 किलोग्राम बीज को उपचारित करने के लिए 4 ग्राम कैप्टान का इस्तेमाल किया जाता है. एक हेक्टेयर खेत के लिए 500 ग्राम बीज काफी होता है. नर्सरी में क्यारी 10 सैंटीमीटर की ऊंचाई पर बना कर पौध तैयार की जानी चाहिए. पौध तैयार करने से पहले क्यारियों को अच्छी तरह साफ कर लेना चाहिए. पौध साल में 3 बार यानी जूनजुलाई, अक्तूबरनवंबर और फरवरीमार्च में तैयार की जा सकती है.

बोआई का तरीका जब पौध 4-6 पत्ती वाली हो जाए, तब इसे खेत में रोपना चाहिए. रोपाई के 2-3 दिनों पहले सिंचाई करनी चाहिए, जिस से पौध अच्छी तरह जम जाए. इसी तरह रोपाई के भी 2-3 दिनों बाद सिंचाई करने से पौधों को जमने में मदद मिलती है. पौध से पौध की दूरी 60 सैंटीमीटर व लाइन से लाइन की दूरी भी 60 सैंटीमीटर रखना बेहतर होता है, क्योंकि बैगन का पौधा 2-3 मीटर तक बढ़ता है. सिंचाई : गरमियों में ली जाने वाली फसल में एक हफ्ते में सिंचाई जरूर करनी चाहिए, जबकि सर्दियों की फसल में 15-20 दिनों के अंतर से सिंचाई करना बेहतर होता है. बैगन में सिंचाई सुबह के वक्त करना अच्छा होता है. खाद और उर्वरक बैगन की अच्छी पैदावार के लिए खाद की ज्यादा जरूरत होती है. एक हेक्टेयर खेत के लिए 150 क्विंटल गोबर की खाद या कंपोस्ट खाद की जरूरत होती है. इस से फसल को सभी जरूरी पोषक तत्त्व मिल जाते हैं.

जुताई से पहले खाद की ढेरियां बना कर खेत में बिखेर देना चाहिए, जिस से वह पूरे खेत में बराबरी से फैल और मिल जाए. बैगन की फसल के लिए 100 किलोग्राम नाइट्रोजन, 60 किलोग्राम फास्फोरस व 30 किलोग्राम पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से दी जानी चाहिए. नाइट्रोजन को 3 हिस्सों में बांट कर देना चाहिए. इस की पहली खुराक रोपाई के एक हफ्ते बाद, दूसरी खुराक 4 हफ्ते बाद व तीसरी खुराक 8 हफ्ते बाद दी जानी चाहिए. बैगन की किस्में साइज के लिहाज से बैगन की किस्मों को 2 हिस्सों में बांटा गया है. जिस किस्म की मांग या खपत इलाके में हो, उसी के हिसाब से किस्मों को बोना चाहिए. लंबे फल वाली किस्में : पूसा पर्पल क्लस्टर, पूसा कांति, पूसा अनुपम, पूसा पर्पल लौंग बांग, पीएच 4, अर्काशील, एचएलवी 25, पूसा संकर 9 और आजाद बी 3. गोल फल वाली किस्में : पूसा पर्पल राउंड, टाइप 3, पंजाब बहार, पंत ऋतुराज, अर्का नवनीत, बीआर 112, सिलैक्शन. रोग व उन की रोकथाम डंपिंग औफ : यह बैगन की आम नुकसानदेह बीमारी है, जो पीथियम एफेनीडर्मेटम नाम की फफूंद से होती है. यह बीमारी ज्यादातर नर्सरी के पौधों में होती है.

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इस में पौधे गलने या सूख कर मुरझाने लगते हैं. इस की रोकथाम के लिए कैप्टान, एग्रोसान या सेरेसान रसायन का इस्तेमाल करना चाहिए.

फोमोटिसम बैक्सम झुलसा : यह बैगन की एक खतरनाक बीमारी है, जो फोमोटिसम बैक्सम नाम की फफूंद से होती है. इस में पत्तियों पर भूरे रंग के छोटेछोटे गोल धब्बे बनने लगते हैं, जिस से पत्तियां पीली हो कर सूखने लगती हैं. इस बीमारी की रोकथाम के लिए बेहतर यही होता है कि बीज को उपचारित कर के बोया जाए. बैक्सटीन नाम की एक ग्राम दवा से एक किलोग्राम बीज उपचारित किए जा सकते हैं. खेत में रोग दिखाई देते ही रोगग्रस्त पौधों व हिस्सों को इकट्ठा कर के जला देना चाहिए. छोटी पत्ती रोग : इस रोग को लिटिल लीफ भी कहते हैं, जो लीफ हौपर नाम के एक कीड़े से फैलता है. इस में पौधा छोटा रह जाता है और पत्तियां सिकुड़ जाती हैं.

इस का प्रमुख लक्षण बैगन के पौधे का झाड़ी जैसा हो जाना है. इस की उचित रोकथाम करने के लिए नीम के काढ़े के साथ माइक्रोझाइम नाम की दवा का समय पर छिड़काव करना चाहिए. फल छेदक : हलके गुलाबी रंग की यह सूंड़ी बैगन के लिए बेहद खतरनाक साबित होती है. यह पौधे के तने और पत्तियों को खाने लगती है. फल आने पर यह उस में घुस जाती है, जिस से फल बढ़ नहीं पाता. इस से बचाव के लिए सेवन या थायोडान का 0.2 फीसदी का घोल बना कर छिड़कना चाहिए. एपीलेकना बीटल : बैगन में लगने वाला यह लाल रंग का कीड़ा है, जो पत्ती, तना और फल खाता है.

इस के हमले से पत्तियां छन्नी जैसी हो जाती हैं. बचाव के लिए सेविन डस्ट का 20 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर के हिसाब से छिड़काव करना चाहिए. लस्सी कीट : यह कीट बैगन के पौधे के रस को चूसता है, जिस से पौधे की बढ़वार कम हो जाती है और फल सही आकार में नहीं बन पाता. इस से बचाव के लिए मैटासिस्टाक्स घोल 0.15 फीसदी तैयार कर प्रति हेक्टेयर में छिड़कना चाहिए.

निराईगुड़ाई : बैगन की ज्यादा पैदावार के लिए समयसमय पर निराईगुड़ाई करना जरूरी है. खरपतवारों को हटाने के लिए पहली निराई 15 दिन में और दूसरी एक महीने बाद करनी चाहिए. तोड़ाई व उपज : बैगन के पके फल समय पर तोड़ लेने चाहिए. आमतौर पर एक हेक्टेयर में बैगन की 250-300 क्विंटल पैदावार होती है. उन्नत किस्मों की वैज्ञानिक तरीके से खेती की जाए, तो 600 क्विंटल तक उपज मिलती है.

5 साल से रिस रहा है नोटबंदी का घाव

नोटबंदी हुए 5 साल बीत चुके हैं. 50 दिन का समय मांगते प्रधानमंत्री मोदी को जनता ने 5 साल दे दिए, पर आज भी सभी के दिमाग में कई सवाल घूम रहे हैं कि आखिरकार नोटबंदी से क्या फायदा हुआ? क्या कालाधन आया? क्या आतंकवाद व नक्सलवाद खत्म हुआ? क्या देश की अर्थव्यवस्था बढ़ी? अगर नहीं, तो यह जनता पर क्यों थोपी गई? ‘‘यह पूरी रफ्तार से दौड़ रही कार के टायरों में गोली मार देने जैसा काम है.’’ 8 नवंबर, 2016 को घोषित नोटबंदी के बाद सब से सटीक प्रतिक्रिया देने वाले भारतीय अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के बारे में कम ही लोग जानते हैं कि मनरेगा जैसी महत्त्वाकांक्षी और उपयोगी योजना उन्होंने ही डिजाइन की थी.

इन दिनों रांची में रहते वे राइट टू फूड कैम्पेन से जुड़े हैं. मूलरूप से बेल्जियम के ज्यां द्रेज दर्जनों किताबें अर्थशास्त्र पर लिख चुके हैं और उन के सैकड़ों रिसर्च पेपर भी प्रकाशित हो चुके हैं. कई बड़े संस्थानों में पढ़ा चुके इस विकासशील अर्थशास्त्री ने भारतीय युवती बेला भाटिया से शादी की थी जो छत्तीसगढ़ में सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम कर रही हैं. यह और बात है कि उन के कामों से चिढ़ कर दक्षिणपंथी उन्हें नक्सलियों का दलाल कहते रहते हैं और उन्हें बस्तर से खदेड़ने की कोशिश भी कर चुके हैं. नोटबंदी के 5 साल से भी ज्यादा वक्त गुजर जाने के बाद ज्यां द्रेज की उक्त तुलना लोगों को सम?ा आ रही है कि वाकई भारतीय अर्थव्यवस्था की गाड़ी पटरी से उतरी पड़ी है और इसे लागू करने की जो वजहें तब गिनाई गई थीं वे इस फैसले की तरह ही अव्यावहारिक व काल्पनिक थीं. साबित यह भी हो रहा है कि मोदी सरकार के इस सनकभरे फरमान से देश कई साल पीछे खिसक चुका है.

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आंकड़े और तथ्यों से पहले खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात के सुबूत ही कहे जाएंगे जो अपने किसी भाषण में भूले से भी नोटबंदी के अपने फैसले का जिक्र नहीं करते. अगर यह कदम रत्तीभर भी कारगर हुआ होता तो तय है सरकार इस की सालगिरह धूमधाम से मना रही होती. सरकार की खामोशी एक तरह की स्वीकारोक्ति ही है कि ‘हां, यह एक नादानीभरा अतिउत्साह में लिया गया फैसला था जिस का खमियाजा देश ने तब भी भुगता था और आज भी भुगत रहा है,’ कैसे? इसे सम?ाने के तथ्य भी हैं और आंकड़े भी, जो बताते हैं कि नोटबंदी एक ऐसा घाव है जो कभी भरेगा नहीं, बल्कि रिसता रहेगा. कालेधन का सफेद सच नोटबंदी की स्याह शाम को जो दावे प्रधानमंत्री और सरकार ने किए थे वे निहायत ही खोखले साबित हो रहे हैं. लगता ऐसा है कि देश की अर्थव्यवस्था के विशालकाय पेड़ में दीमक स्थायी तौर पर जड़ें जमा चुकी है जिस का वक्त रहते ट्रीटमैंट नहीं किया गया तो यह जड़ों तक भी पहुंच सकती है.

सरकार ने दावा किया था कि देश में इफरात से काला धन है जिस से भ्रष्टाचार और गैरकानूनी गतिविधियां बढ़ती हैं और लोग टैक्स बचाने के लिए भी इस पैसे की जानकारी छिपाते हैं. सरकार की नजर में यह वह नकदी पैसा था जो गैरकानूनी तरीके से जुटाया गया है. अव्वल तो काला धन नाम की कोई चीज ही वजूद में नहीं होती, हां, कुछ गतिविधियों को जरूर गैरकानूनी कहा जा सकता है, मसलन आतंकवाद वगैरह. शायद ही कोई जानकार बता पाए कि अर्थव्यवस्था से बाहर पैसा कैसे कोई रख सकता है. ऐसा होता है या हो सकता है, यह मान लेने की कोई वजह नहीं.

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अगस्त 2018 में रिजर्व बैंक औफ इंडिया ने अपनी सालाना रिपोर्ट में माना था कि बंद किए गए 500 और 1,000 रुपए के नोटों का 99.3 फीसदी हिस्सा बैंकों के पास लौट आया है. इस कीमत के कुल 15 लाख 41 हजार नोट चलन में थे जिन में से 15 लाख 31 करोड़ रुपए मूल्य के नोट चलन में आ गए थे. क्या बस इतना सा ही काला धन देश में था जिस की चिंता में सरकार दुबलाई जा रही थी, जबकि इतने बड़े देश में अरबों के नोट तो जलने और फटने से ही नष्ट हो जाते हैं. हकीकत कुछ और है जो सरकार की मंशा को भी कठघरे में खड़ा करती है कि उस का असल मकसद कालेधन को पकड़ना या खत्म करना नहीं, बल्कि उसे सफेद में बदलने और सिस्टम में लाने देने का सुनहरा मौका था, जिस में पिसा आम आदमी जो बचत की 10-15 हजार रुपए ही नकदी रखता था.

इस आम आदमी को कैसे घंटों और दिनोंदिन बैंकों की लाइनों में खड़ा कर रुला दिया गया, यह मंजर शायद ही कोई भूला हो. भोपाल की एक बैंककर्मी नेहा की मानें तो वे सभी के लिए यातनाभरे दिन थे. पूरा देश एक अनियंत्रित भीड़ और मंडी में तबदील हो चुका था. इस भीड़ और तनाव में कितने लोग मारे गए, यह आंकड़ा किसी के पास नहीं. गरीब, दिहाड़ी वाले और खासे खातेपीते लोग भी भूखप्यास से बेहाल नोट बदलने की चिंता में डूबे थे. महिलाएं अलग हैरानपरेशान थीं जिन्होंने बुरे वक्त के लिए कुछ नकद बचत कर रखी थी. लग ऐसा रहा था कि किसी दुश्मन देश ने हमला कर दिया है या कोई आसमानी आफत टूट पड़ी है. किसी को अपना कुछ पैसा रखने का गुनाह या गलती सम?ा नहीं आ रही थी.

लेकिन नरेंद्र मोदी को नोटबंदी के 6ठे दिन ही अपनी गलती सम?ा आ गई थी क्योंकि इस बेतुके फैसले का व्यापक विरोध शुरू हो चुका था और लोग उन्हें कोसने लगे थे. यह विरोध जनविद्रोह में बदल पाता, इस के पहले ही उन्होंने 13 नवंबर को गोवा की एक सभा में बड़ी जज्बाती बातें कहीं जो सरासर इमोशनल ब्लैकमेलिंग के दायरे में आती हैं. उन्होंने जनता से कहा था, ‘‘मु?ो 50 दिन का वक्त और दीजिए, इस के बाद भी आप को लगे कि मेरा फैसला गलत है या मेरा इरादा गलत है तो देश जिस चौराहे पर खड़ा कर के जो सजा देगा, उसे भुगतने के लिए मैं तैयार हूं.’’ इस भाषण में अपने कथित रूप से घरपरिवार छोड़ने की दुहाई देते उन्होंने यह भी कहा था कि,

‘‘मैं जानता हूं कि मैं ने कैसीकैसी ताकतों से लड़ाई मोल ले ली है. ये लोग मु?ो बरबाद कर देंगे, मु?ो जिंदा नहीं छोड़ेंगे.’’ इस भावुक अपील का उम्मीद के मुताबिक असर हुआ था और लोग विरोध छोड़ कर नोट बदलने की लाइन में लगते सजा खुद भुगतने को राजी हो गए थे पर नरेंद्र मोदी ने अभी तक नहीं बताया कि ये कैसेकैसे लोग कौन थे? और अगर वे उन्हें जानते थे तो उन से डर क्यों रहे थे? उन के नाम उन्होंने सार्वजनिक क्यों नहीं किए? इस के बाद लोगों ने जीभर कर काला धन सफेद किया और सब खामोशी से यह नजारा देखते रहे कि कैसेकैसे लोग लाइन में लगे हैं और इन में से कितने असली और कितने भाड़े के हैं.

इस के बाद तो काले और सफेद दोनों तरह के धनवानों ने कमीशन तक पर नोट बदलने के लिए लोग रख लिए थे. यह दौर भी गुजर गया लेकिन विदेशी बैंकों में जमा उस कालेधन का अभी तक अतापता नहीं जिस के एवज में कभी हर जेब में 15-15 लाख रुपए डालने का वादा नरेंद्र मोदी ने यह कहते किया था कि यह काला पैसा चोरलुटेरों का है और जिस दिन भाजपा सत्ता में आ जाएगी तो हम यह पैसा वापस ले आएंगे. अब हाल यह है कि उन की ही सरकार में वित्त राज्यमंत्री पंकज चौधरी के मुंह से बीती जुलाई यह बात सामने आई कि, ‘‘हमारे पास पिछले 10 सालों में स्विस बैंक में छिपाए गए कालेधन का कोई अधिकृत आंकड़ा नहीं है.’’ ऐसे में फिर नरेंद्र मोदी किस मुंह से और किस जानकारी की बिना पर कालेधन की पाईपाई किस जादू से हिंदुस्तान ला कर उसे गरीबों में बांटने का दावा करते रहे थे,

इस सवाल का जवाब कौन देगा? एक जवाब दिया था कोरोना के दौरान उमड़ती भीड़ को सरकार की गलत नीतियों व असंतुलित विकास का नतीजा बताने वाले अर्थशास्त्र के नामी प्रोफैसर अरुण कुमार ने यह कहते कि ‘‘इस सवाल का जवाब सरकार के पास नहीं होगा क्योंकि जिस तरह से पैसे के स्रोत को छिपाया जाता है, पैसा कहां से आता है यह पता नहीं होता, उसी तरह यह भी पता नहीं होता कि कितना पैसा कहां से चल कर कहां जा रहा है.’’ अरुण कुमार के मुताबिक, मान लीजिए कि पैसा पहले केमन आईलैंड गया, फिर बरमूडा, वहां से उसे ब्रिटिश वर्जिन आईलैंड भेजा गया, वहां से यह पैसा जमैका गया और फिर उसे स्विट्जरलैंड भेजा गया. अब यहां यह हमें साबित करना पड़ेगा कि जो बहता हुआ स्विट्जरलैंड पहुंचा वह पैसा किसी भारतीय का है और गलत तरीके से ही कमाया गया है.

यह तय है कि भारत सरकार इसे साबित नहीं कर सकती. ऐसे में स्विट्जरलैंड सरकार की क्या गरज पड़ी है और वह कैसे व क्यों साबित करे. स्विस सरकार तो इस पैसे को जायज और कानूनी मानेगी. बकौल अरुण कुमार, भाजपा ने कांग्रेस को हराने के लिए कालेधन का राजनीतिक इस्तेमाल किया. कुछ दिनों पहले ही न्यूज एजेंसी पीटीआई के हवाले से खबर आई थी कि भारतीयों और उन की कंपनियों के स्विस बैंक में 20 हजार करोड़ से ज्यादा रुपए जमा हैं. नरेंद्र मोदी इस पैसे को देश क्यों नहीं ला पा रहे? क्या यही वे लोग हैं जिन से उन्होंने खुद की जान को खतरा बताया था या ये वे खतरे वाले लोग नहीं हैं? यह तो वे ही बता सकते हैं. मुमकिन है, नोटबंदी का वादा किसी से प्रधानमंत्री बनने के पहले या बाद में नरेंद्र मोदी ने ही किया हो और उसे निभाने के लिए भावुकता का ड्रामा किया हो,

नहीं तो इतना बड़ा और अहम फैसला लेने से पहले उन्हें, सभी दलों से न सही, विशेषज्ञों से तो राय जरूर लेनी चाहिए थी. यों एकाएक ही गुपचुप, चोरीछिपे लिए गए फैसले को थोपने के माने किसी को सम?ा नहीं आए थे. पूर्व अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी 7 नवंबर, 2017 को नोटबंदी की पहली सालगिरह पर संसद में यह गलत नहीं कहा था कि नोटबंदी संगठित लूट और कानूनी डकैती है. बीती 17 जून को खुद स्विस बैंक द्वारा जारी आंकड़े बता रहे थे कि उस में भारतीयों के 20,700 करोड़ से भी ज्यादा रुपए जमा हैं. यह राशि पिछले 13 वर्षों में सब से ज्यादा है जिस में 286 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. प्रधानमंत्री बनने और नोटबंदी करने तक नरेंद्र मोदी स्विस बैंक के कुबेरों को छांटछांट कर सजा देने की बात करते थे और अब उन के नाम सा?ा या सार्वजनिक करने से कतराने लगे हैं, तो जाहिर है उन की ही दाढ़ी में तिनका है. ये वादे भी फुस्स काला धन कम होने के बजाय बढ़ने लगा तब लोगों की सम?ा आया कि दरअसल, इस की परिभाषा ही गड़बड़ है.

हिंदी फिल्मों में जो पैसा विलेन के गद्दे, तकियों और रजाई या सेफ और सोफों की गद्दियों के नीचे से निकलता है, सरकार ने उसे ही काला धन मान लिया था, जो न के बराबर होता है. तब बड़े पैमाने पर आम लोगों को एक और खास बात यह भी सम?ा आई थी कि दरअसल, काला धन कोई नकदी की शक्ल में इकट्ठा कर के नहीं रखता, बल्कि अकसर उसे रियल एस्टेट और सोने की खरीद में लगा दिया जाता है. रही बात टैक्स चोरी की तो वह अभी भी ज्यों की त्यों है. तमाम नएपुराने नियमकानून इस पर बेबस और बौने साबित हो रहे हैं. इक्कादुक्का लोग आज की तरह पहले भी पकड़े जाते थे. इस पर सरकार को अपनी पीठ थपथपाने का कोई हक नहीं. मसलन, थपथपाने के बजाय अब सरकार अपनी पीठ छिपाती नजर आ रही है क्योंकि नोटबंदी के वक्त उस ने यह भी दावा और वादा किया था कि इस से आतंकवाद खत्म हो जाएगा. किंतु आतंकवादियों ने उन की इस ख्वाहिश का कोई लिहाज नहीं किया. पूर्वोत्तर राज्यों से ले कर कश्मीर तक में आतंकी वारदातें हो रही हैं.

जिन्हें 8 नवंबर, 2016 का भाषण याद है वे भक्त और अभक्त दोनों सोच रहे हैं कि नोटबंदी से आतंकवाद खत्म क्यों नहीं हुआ और नकली नोट भी धड़ल्ले से छप और चल रहे हैं. कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक जाली नोट चलाने वाले आएदिन पकड़े जा रहे हैं. नए नोटों की डिजाइन और प्रिंटिंग क्वालिटी इतनी घटिया है कि लोग इन की फोटो कौपी तक खपा रहे हैं जबकि नए नोटों की छपाई पर सरकार ने 8 हजार करोड़ रुपए खर्च किए थे. जाली नोटों के चलन के डर के चलते सरकार ने 2 हजार रुपए के नोटों की छपाई बंद कर दी है. घूसखोर और भ्रष्टाचारी भी मोदीजी के भाषण का लिहाज नहीं कर रहे, इसलिए वे निसंदेह देशद्रोही हैं तो नोटबंदी से फायदा क्या हुआ, इस बात को नोटबंदी के बाद जगहजगह इस के बचकाने और काल्पनिक फायदे गिनाते तत्कालीन केंद्रीय मंत्रियों में से एक रविशंकर प्रसाद ने कहा था, ‘‘नोटबंदी से देह व्यापार में कमी आई है.’’

यह वह तथ्य था जिस का जिक्र अपने भाषण में करना प्रधानमंत्री भूल गए थे. यानी, कुछ दिनों बाद ही नोटबंदी के मकसद बदल गए थे. अब यह भी और बात है कि देश में रोज दर्जनभर छापों में देह के व्यापारी पकड़े जा रहे हैं, तो भी देह व्यापार कम हुआ या बड़ा, इस सवाल का जवाब देने के लिए रविशंकर अब मंत्री नहीं रह गए हैं. मंत्रिमंडल के पिछले फेरबदल में ऐसे विद्वान और खोजी मंत्री को चलता करना नरेंद्र मोदी की गलती ही मानी जाएगी. नोटबंदी के दौरान वित्त मंत्री रहे अरुण जेटली ने भी खिसियाते हुए कहा था कि दरअसल, कैशलैस इकोनौमी बनाने के लिए यह प्रधानमंत्रीजी का मास्टर स्ट्रोक था. अब कोई इकोनौमी कैसे कैशलैस हो सकती है, भगवान, कहीं हो तो वही जाने. लेकिन यह सच है कि… भारतीय रिजर्व बैंक की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, नोटबंदी के 2 महीने बाद जनवरी 2017 में लोगों के पास महज 7 लाख 80 करोड़ रुपए की नकदी थी जो अब 28.30 लाख करोड़ रुपए है. डिजिटल लेनदेन जरूर बढ़ा है लेकिन वह शहरी इलाकों तक ही सीमित है.

इस की भी वजह लेनदेन को आसान बना देना है. हकीकत में लोगों का नकदी पर भरोसा बढ़ रहा है. देश में आमतौर पर जीडीपी के अनुपात में नकदी की मात्रा 10 से 12 फीसदी रहती थी जो अब 14 फीसदी है. इस से साफ है कि लोगों का विश्वास बैंकों पर से भी घट और हट रहा है. असल बात जीडीपी की है, जो नोटबंदी के बाद से लगातार घट रही है. इस की ग्रोथ रेट साल 2015-16 में 8 फीसदी के इर्दगिर्द थी, वह साल 2021-22 में -7.3 दर्ज हुई थी. यानी, महज 5 साल में 200 फीसदी के लगभग गिरावट जीडीपी में आई और अर्थशास्त्र के ज्ञात इतिहास में पहली बार वह माइनस में पहुंची. इस सच का तो अचार भी नहीं डाला जा सकता जिस का सीधा संबंध नोटबंदी से है.

संक्षेप में जीडीपी को सम?ों तो यह अर्थव्यवस्था की स्थिति को दर्शाता है और इसी से पता चलता है कि देश का विकास किस तरह से हो रहा है. जीडीपी की परिभाषा भी बहुत सरल है कि, ‘‘किसी भी एक साल के भीतर देश में उत्पादित होने वाले सभी सामानों और सेवाओं का कुल मूल्य जीडीपी है, जिसे हिंदी में सकल घरेलू उत्पाद कहते हैं.’’ नोटबंदी कैसे एक विध्वंसक फैसला था, इसे ‘कैश एंड द इकोनौमी एविडैंस फ्रौम इंडियाज डिमोनटाइजेशन’ शीर्षक से किए अध्ययन में बताया गया है कि नोटबंदी ने भारत की आर्थिक वृद्धि को कम कर दिया और नौकरियों में 3 फीसदी तक की कमी आई. लाखों छोटी इकाइयां तो 2016 में खत्म होने के पहले ही खत्म हो गई थीं. साल 2016 में ही देश की आर्थिक गतिविधियों में 2.2 प्रतिशत की गिरावट आई थी. तो फिर गोली क्यों चलाई थी ज्यां द्रेज ने भारतीय अर्थव्यवस्था की तुलना रेसिंग कार से की थी जिस के टायरों पर नोटबंदी नाम की गोली चलाई गई.

इसी बात को रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने नोटबंदी को एक खराब विचार करार देते कहा था, ‘‘नोटबंदी ने भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि घटा दी, ऐसे समय में जबकि वैश्विक अर्थव्यवस्था वृद्धि दर्ज कर रही है. भारत की जीडीपी की वृद्धिदर पर नोटबंदी की वजह से काफी बड़ा असर पड़ा. इस के अलावा जीएसटी लागू करने से भी देश की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ा…’’ और जो पड़ा वह हर किसी को दिख भी रहा है कि महंगाई चरम पर है, बेरोजगारी पिछले तमाम रिकौर्ड तोड़ चुकी है, देश में भुखमरी बढ़ रही है, लोगों की आमदनी घट रही है. यह व ऐसी और कई बातें प्रधानमंत्री को सम?ा क्यों न आईं जो उन्होंने टायरों पर गोली चला दी. बिलाशक, इसे एक जिद व सनक ही कहा जाएगा जिस में शासक अच्छाबुरा कुछ नहीं देखता और आत्मघाती प्रयोग कर डालता है, जिस का खमियाजा लंबे वक्त तक जनता को भुगतना पड़ता है.

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