वर्ष 2020 में सरकार 3 कृषि कानून-फौर्मर्स प्रोड्यूस ट्रेड कौमर्स (प्रमोशन एंड फैसिलिटेशन) एक्ट 2020, फौर्मर्स (एंपावरमैंट एंड प्रोटैक्शन) एग्रीमेंट औफ प्राइस एश्योरैंस एंड फौर्म सर्विस एक्ट 2020, एसैंशियल कौमोडिटीज (अमैंडमैंट) एक्ट 2020-अचानक संसद में लाई तो तब देशभर में न तो उन्हें बनाने के लिए किसानों का कोई आंदोलन चल रहा था, न जंतरमंतर पर धरने दिए जा रहे थे, न संसद में सुधारों की बात हो रही थी, न ही किसानों के प्रतिनिधियों से बात हो रही थी.
भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली नरेंद्र मोदी सरकार को आखिर इन कानूनों की सू?ाबू?ा आई कैसे और कहां से, यह स्पष्ट नहीं है. आमतौर पर जनता किसी कानून, किसी नीति के परिवर्तन, किसी सुधार की मांग करती है या अदालतों में विवादों की संख्या बढ़ती है तब समस्याओं को हल करने के लिए कानून बनाए जाते हैं. ये कानून दिल्ली के नौर्थ ब्लौक में बैठे बाबुओं की देन भी नहीं हैं, क्योंकि इन कानूनों से बाबूशाही को कोई विशेष धनलाभ नहीं मिलने वाला था. उन के पास पहले के मंडी कानूनों और जमाखोरी रोकने के कानूनों में भरपूर अधिकार मिले हुए थे जिन के जरिए जिस भी अधिकारी का हाथ लगता वह करोड़ों कमा रहा था.
सो, अपने पैरों पर भला क्यों कुल्हाड़ी मारते? ये कानून असल में पौराणिक सोच की देन थे जिस के अनुसार किसानों को सेवा करनी चाहिए, उन्हें संपत्ति जमा करने का हक नहीं होना चाहिए. हमारे पुराण और स्मृतियां ऐसे उल्लेखों से भरे हैं जो आदेश देते हैं कि राज्य शूद्रों की अर्जित संपत्ति को जब्त कर लें. वर्ष 1947 से पहले इस सिद्धांत को खुलेतौर पर अपनाया जाता था. सदियों से हिंदू राजाओं ने और उस के बाद बौद्ध व मुगल राजाओं ने भी इस स्थिति को बनाए रखा था और जमीन पर हक जमींदारों, ब्राह्मणों, मंदिरों, व्यापारियों को दे दिया था. अंगरेजों ने इस व्यवस्था को जमींदारी व्यवस्था ला कर थोपा था और देश के स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में प्रबुद्ध वर्ग ने कभी किसानों को संपत्ति को देने की बात नहीं की थी. वर्ष 1947 के बाद बड़े भरे मन से जवाहरलाल नेहरू की फेबियन समाजवादी सोच के कारण कट्टरपंथी कांग्रेसियों को जमींदारी उन्मूलन कानून लागू करने पड़े थे पर वर्ष 2000 तक भी किसानों की 10 एकड़ की जमीन का मूल्य शहर के छोटे मकान के मूल्य से भी कम होता था. हरित क्रांति के कारण किसानों के पास पैसा आना शुरू हुआ और उन को वोट के अधिकार के कारण अपने हकों का ज्ञान होने लगा तो उन्होंने जमीन को उपजाऊ बनाना शुरू किया.
बिजली की उपलब्धि होने लगी. नहरों से पानी मिला. बाद में ट्यूबवैल की क्रांति आ गई और किसानों की संपत्ति फिर बढ़ने लगी. देश के प्रबुद्ध तिलकधारी व हाथ में कलेवा पहने समाज को न चौधरी चरण सिंह पसंद आए, न देवीलाल, न प्रताप सिंह कैरों, न लालू प्रसाद यादव. ये किसानों के नेता पैसा कमाने लगे थे, राजनीति में दखल देने लगे थे. फिर इंग्लिश में फर्राटे से संसद में भाषण देने वालों के साथ बदबू देते, मैलेकुचैले कपड़ों में आने लगे थे. इन्हें खेती से मतलब था पर न मंदिर से, न मंत्र से, न यज्ञहवन से. लेकिन यह पौराणिक आदेश की घोर अवहेलना थी. संघ समर्थित समाज के लोग, जिस भी पार्टी में थे या यों कहें कि तकरीबन सभी पार्टियों में थे, किसानों को कुचलने और लूटने के षड्यंत्र लगातार रचते रहते थे ताकि यह पूरी जमात सेवक के तौर पर हरदम हाजिर रहे. इन्हीं किसानों से सैनिक निकले जो गरमी और बर्फ में सीमा पर बंदूक ताने खड़े रहते.
इन्हीं किसानों से मजदूर निकले, इन्हीं किसानों के घरों से निकल कर आई औरतें चकलाघरों में पहुंचती रहीं. इन सब के साथ अगर इन के पास मजबूत राजनीतिक शक्ति आ गई तो समाज का ढांचा बिगड़ जाएगा, देश जातीय ऊंचनीच भूल जाएगा. नरेंद्र मोदी को इसी बात की चिंता थी. जिस तपस्या की बात नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में कही है वह यह पोल खोलती है कि मामला न अर्थव्यवस्था का है न कृषि सुधारों का. तपस्या तो वर मांगने के लिए की जाती रही है या फिर पाप धोने के लिए. नरेंद्र मोदी की पार्टी और उस का जनक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इन कृषि कानूनों के जरिए तपस्या में कृषि कानून का वर मांग कर लाया था. इसी में कमी रह गईर् और तपस्या भंग हो गई.
अब चूंकि पौराणिक तर्ज पर तपस्या करनी थी, इसलिए कृषि कानूनों पर खुल कर चर्चा नहीं की गई क्योंकि जरूरत ही नहीं थी. यह तो पुराणों में लिखा है कि शूद्र के पास कुछ नहीं होना चाहिए, शूद्रों को तो कर्म करना चाहिए. फल तो ऊंची जातियों के लोग खाएंगे. गीता में कृष्ण ने यह संदेश लड़ रहे अर्जुन को नहीं दिया, बाकी 3 जातियों और बिना जाति वालों को दिया. यही संदेश बारबार दोहराया गया है. सदियों से हर स्मृतिपुराण में कहा गया. शूद्रों, दस्युओं के राजाओं को उन के अपने लोगों या क्षत्रिय कहे जाने वाले राजाओं के हाथों से मरवाया गया. कृष्ण ने भीम के पुत्र घटोत्कच को भी मरवा दिया जो आदिवासी औरत से पैदा हुआ था. निषाद जाति के शूद्र एकलव्य का अंगूठा कटवा दिया गया ताकि वह अपनी सुरक्षा न कर सके लेकिन फिर भी उस में इतनी क्षमता थी कि वह कृष्ण के लिए खतरा बना रहा. कृष्ण ने उसे भी छल से मरवाया.
आज सैकड़ों नहीं, लाखों एकलव्य जमा होने लगे, हजारों दस्यु, राजा हो गए हैं. इन की जड़ समाप्त करनी थी, इसलिए ये 3 कृषि कानून लाए गए थे. ये कानून देश के गांवों के रोबदाब को नष्ट करने या आ रही संपत्ति को समाप्त करने वाले थे. इन से मंडियां समाप्त हो जातीं और किसान का उत्पाद उत्पादक की मरजी से नहीं, खरीदार सेठों के हिसाब से बिकता. आज भी मंडियों के बावजूद किसानों को ब्याज चुकता करने के बाद जो मिलता है वह न के बराबर होता है पर उतना भी उन को बल देने के लिए काफी है. वैज्ञानिक खेती अपना कर कुछ किसानों ने पैसा बना लिया, अपने बच्चों को पढ़ा कर ज्ञान पा लिया. हालांकि, ये दोनों काम पौराणिक आदेशों के विरुद्ध थे.
हिंदू धर्म व्यवस्था से मुक्त सिख किसान ज्यादा संपन्न हैं क्योंकि वे दान, पूजापाठ को उतना महत्त्व नहीं देते. बाकी किसान भी यही रास्ता अपनाएं. यह प्रबंध उन्हें खुद करना होगा. इसलिए, मोदी के इन कानूनों की कल्पना संघ के थिंकटैंकों में की गई. ब्रह्मा विष्णु से बात की गई. वहीं ड्राफ्ट बने, वहीं चर्चा हुई, वहीं विस्तार से धाराएं लिखी गईं. चर्चा में अडानी और अंबानी के सलाहकार भी रहे होंगे पर असल सोच तो पौराणिक है. यह गुप्त ज्ञान का परिणाम था जो 5 जून, 2020 को संसद के सामने पेश किया गया और भेड़रूपी भाजपा सांसदों से पारित करा दिया गया. कोई सांसदों की बहस नहीं, कोई सलैक्ट कमेटी नहीं. भाजपा को विश्वास था कि जैसे किसान सदियों से रामजी और शिवजी के नाम पर अपना सर्वस्व लुटाते रहे हैं, मोदीजी और भागवतजी के नाम पर अपनी संपत्ति का बलिदान हिंदू पौराणिक व्यवस्था के नाम कर देंगे कि उस का काम ऋ षिमुनियों की सेवा करना, उन की रक्षा करना, उन्हें दान देना, उन से यज्ञहवन कराना, उन्हें दान में सुवर्ण और गाय दासियों सहित देना और शूद्रों का काम दान देना, सेवा करना, फल की अपेक्षा न करना बारबार पुराणों में दोहराया गया है.
मगर कुछ किसान नेताओं ने चाल सम?ा ली. वे विद्रोह पर अड़ गए. मोदी सरकार इस पर किसी संशोधन को तैयार न थी क्योंकि उसे विश्वास था कि इसे भगवान का आदेश मान कर कुछ बिगड़े किसान आज नहीं तो कल मान ही जाएंगे. उसे यह भी विश्वास था कि मतदान केंद्रों तक जाते समय धर्म के पाखंड का जोर इतना पकड़ेगा कि मूर्ख पाखंडग्रस्त जनता वोट तो रामजी और मंदिरों के रक्षकों को ही देगी. लेकिन पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु और बाद के उपचुनावों में मिली करारी हार ने नरेंद्र मोदी की सोच बदल दी. पुराणों की हार वैसी ही हुई जैसी सोमनाथ के रक्षा के समय हुई, जैसे शकों के आक्रमणों में हुई, जैसी हूणों के अत्याचारों के सामने हुई, जैसी मुसलिम लुटेरों के हाथों हुई, जैसी मुगल शासकों के हाथों हुई, ये सब खैबर दर्रे की दुर्गम पहाडि़यों के संकरे रास्तों के बीच से आए और देश पर जम कर बैठ गए. एक और हार, अंगरेजों के हाथों हुई जो लकड़ी की नावों में न जाने कौन से समुद्र पार कर आए थे.
कृषि कानून क्या हैं, क्या करते, किस तरह मालिक किसान को खेतिहर मजदूर बनाते, किस तरह कौर्पोरेट जमींदारी लाते, ये सब किताबी बातें हैं. मुख्य बात यह है कि ये शूद्र को संपत्तिविहीन कर देते. उन से संपत्ति छीन लेने वाले कानून को समाप्त करने का अर्थ यह है कि फिलहाल देश के लोग शांति से रह सकते हैं. इस से यह साफ हो गया है कि देश में धनपति का राज नहीं चलेगा. यहां हर कमजोर चाहे मजदूर हो, किसान हो, औरत हो, विधवा हो, गरीब हो, छोटा व्यापारी हो, कारीगर हो, मोची हो, पकौड़े तलने वाला हो, सुरक्षित रह सकता है यदि वह अपना हक मांगे. धर्म और जाति का भय दिखा कर शासन करने की नीति पर यह जबरदस्त चोट है. कानून के सहारे भेदभाव अपनी ही सरकार पर अंकुश लगाने वाले अपने ही कानूनों के सहारे अपना प्रभुत्व दूसरों पर थोपने की कला कूटनीति में कोई नई नहीं है.
चीन ने अभी 62 धाराओं वाले 7 चैप्टरों के एक कानून को अपनी संसद से अनुमोदित कराया है जिस में सरकार से कहा गया है कि पीपल्स रिपब्लिक औफ चाइना अपनी सार्वभौमिकता और सीमाओं की पूरी रक्षा करेगी और सरकार को इस के लिए किसी भी तरह का कदम उठाने का अधिकार है. यह कानून चीन की लंबी सीमाओं, जिन में भारत के लद्दाख से अरुणाचल प्रदेश तक की सीमा भी शामिल है, पर लागू होता है. सीमा में हो रही घुसपैठ को ले कर जो बातचीत सैनिक स्तर पर हो रही है उस में चीनी सैनिक अधिकारी अब नए कानून का हवाला दे कर मुंह बंद करने की कोशिश करेंगे. अपना कानून बना कर दूसरे देश के मामले या सीमा में दखल देना सभी देश करते रहते हैं. भारत के नागरिकता संशोधन कानून में अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बंगलादेश था. इस में नाम ले कर कहा गया है कि वहां सताए गए अल्पसंख्यक हिंदुओं को भारत नागरिकता तुरंत प्रदान कर सकता है.
इस का अर्थ यह है कि भारत इन देशों में अल्पसंख्यकों से भेदभाव किए जाने का कानून के जरिए आरोप लगा रहा है. नेपाल ने अपने संविधान में संशोधन कर के कुछ भारतीय हिस्सा नेपाल का माना है. भारत सरकार इस से बहुत नाराज है. यह कूटनीति का हिस्सा है कि पहले एक देश दूसरे देशों के प्रभावित करने वाला कानून या नीति घोषित कर दे, फिर उस का सहारा ले कर दूसरे से ?ागड़ा करे. एक अमेरिकी राष्ट्रपति ने नीति बनाई कि अमेरिका संयुक्त राज्य अमेरिका के अलावा भौगोलिक स्तर पर दक्षिण अमेरिका में भी कहीं भी विदेशी फौजों के दखल को अमेरिका पर आक्रमण सम?ोगा.
भतरो सिद्धांत के नाम से जाने गए इस कानून का हवाला दे कर अमेरिका रूस से क्यूबा में रूस द्वारा आणविक प्रक्षेपास्त्र लगाने को ले कर किसी भी तरह का युद्ध करने को राष्ट्रपति जौन कैनेडी के समय तैयार हो गया. अपने कानून का सहारा ले कर दूसरे देश की सीमा या उस की सरकार को धमकाना ताकतवर देशों का एक पुराना हथियार बन गया है. दुनियाभर में बीसियों बड़े युद्ध इसी को ले कर हुए हैं.