लेखक- रोहित और शाहनवाज
अगर उलटा हुआ होता यानी किसानों ने अपना आंदोलन वापस ले लिया होता तो तय है उठाने वाले देश सिर पर उठा लेते, जगहजगह पटाखे फोड़े जा रहे होते, गुलालअबीर उड़ रही होती, मिठाइयां बांटी जा रही होतीं, जुलूस निकल रहे होते, जश्न मन रहे होते और कहा यह जाता कि देखो, मोदी की एक और जीत, फर्जी किसान मुंह छिपा कर भाग गए, राष्ट्रद्रोही ताकतों ने घुटने टेक दिए और देश एक बार फिर टूटने से बच गया.
लेकिन, हुआ यह कि खुद नरेंद्र मोदी को, किसी कृषि मंत्री के मुंह से नहीं, गलती मानते हुए माफी मांगनी पड़ी. इस जीत पर किसानों व उन के नेताओं ने किसी तरह का कोई हुड़दंग नहीं मचाया, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ?ाकने पर ताने नहीं मारे. हां, यह जरूर स्पष्ट संदेश दे दिया कि वे इस सरकार पर अब रत्तीभर भी भरोसा नहीं करते. उन का मकसद और मैसेज कुछ और है. निश्चित रूप से यह किसानों की ऐसी जीत है जिस पर किसान फौरीतौर पर खुश लेकिन तात्कालिक रूप से आशंकित ज्यादा हैं क्योंकि इस से उन की समस्याएं हल नहीं हो गई हैं, कुछ नई परेशानियां दूर हो गई हैं जिन्हें सरकार, अपने बनाए नए कानूनों की आड़ ले कर, खड़ी करना चाह रही थी.
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बिना किसी विद्वान या ज्ञानी के सम?ाए किसानों ने सरकार की नीयत को सूंघ लिया तो उन के सामने सदियों पुराना शोषण का इतिहास मुंहबाए खड़ा हो गया और वे एकजुट हो, कफन सिर पर बांधे सड़कों पर आ गए ताकि सवर्णवादी ताकतें हावी न हो जाएं. इस से इतिहास की एक ?ालक दिखती है. आज से तकरीबन 114 साल पहले 1907 में जब अय्यनकली ने ‘साधु जन परिपालन संगम’ नामक संगठन की नींव डाली थी. इस संगठन ने सब से पहला काम दलितों की संतानों के लिए शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करने का काम किया था.