लेखक- रोहित और शाहनवाज
अगर उलटा हुआ होता यानी किसानों ने अपना आंदोलन वापस ले लिया होता तो तय है उठाने वाले देश सिर पर उठा लेते, जगहजगह पटाखे फोड़े जा रहे होते, गुलालअबीर उड़ रही होती, मिठाइयां बांटी जा रही होतीं, जुलूस निकल रहे होते, जश्न मन रहे होते और कहा यह जाता कि देखो, मोदी की एक और जीत, फर्जी किसान मुंह छिपा कर भाग गए, राष्ट्रद्रोही ताकतों ने घुटने टेक दिए और देश एक बार फिर टूटने से बच गया.
लेकिन, हुआ यह कि खुद नरेंद्र मोदी को, किसी कृषि मंत्री के मुंह से नहीं, गलती मानते हुए माफी मांगनी पड़ी. इस जीत पर किसानों व उन के नेताओं ने किसी तरह का कोई हुड़दंग नहीं मचाया, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ?ाकने पर ताने नहीं मारे. हां, यह जरूर स्पष्ट संदेश दे दिया कि वे इस सरकार पर अब रत्तीभर भी भरोसा नहीं करते. उन का मकसद और मैसेज कुछ और है. निश्चित रूप से यह किसानों की ऐसी जीत है जिस पर किसान फौरीतौर पर खुश लेकिन तात्कालिक रूप से आशंकित ज्यादा हैं क्योंकि इस से उन की समस्याएं हल नहीं हो गई हैं, कुछ नई परेशानियां दूर हो गई हैं जिन्हें सरकार, अपने बनाए नए कानूनों की आड़ ले कर, खड़ी करना चाह रही थी.
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बिना किसी विद्वान या ज्ञानी के सम?ाए किसानों ने सरकार की नीयत को सूंघ लिया तो उन के सामने सदियों पुराना शोषण का इतिहास मुंहबाए खड़ा हो गया और वे एकजुट हो, कफन सिर पर बांधे सड़कों पर आ गए ताकि सवर्णवादी ताकतें हावी न हो जाएं. इस से इतिहास की एक ?ालक दिखती है. आज से तकरीबन 114 साल पहले 1907 में जब अय्यनकली ने ‘साधु जन परिपालन संगम’ नामक संगठन की नींव डाली थी. इस संगठन ने सब से पहला काम दलितों की संतानों के लिए शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करने का काम किया था.
इस के लिए अय्यनकली के आह्वान पर पुलया तथा अन्य जाति के दलित खेतमजदूरों ने ऐतिहासिक हड़ताल शुरू की थी, जिस में उन की प्रमुख मांगें थीं कि दलित बच्चों के शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित किया जाए, खेतमजदूरों के साथ मारपीट बंद की जाए व उन्हें ?ाठे मामलों में फंसाना बंद किया जाए, स्तन ढकने के टैक्स को निरस्त किया जाए, दुकानों में दलितों को अलग सकोरों में पानी व चाय देने की प्रथा बंद की जाए, काम के दौरान आराम का वक्त और अनाज या अन्य मोटी चीजों के बजाय मजदूरी का भुगतान नकद में दिया जाए. यह हड़ताल कई मानो में अहम थी.
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एक, इसे भारत के पहले शूद्र दलित किसान मजदूर नेतृत्व द्वारा शुरू किया गया था जिस में लाखों दलित खेतमजदूरों ने भाग लिया था. दूसरे, यह सीधा वर्णव्यवस्था और वर्गव्यवस्था के खिलाफ उठा विद्रोह था जिस में फ्री फंड के सेवक सम?ो जाने वाले किसानमजदूर अपनी मेहनत का हिसाब मांगने लगे थे. हड़ताल काफी दिनों तक जारी रही. जमींदारों को लगा कि भुखमरी का शिकार होने पर पुलया लोग काम पर लौट आएंगे, मगर हड़ताली अडिग रहे. आंदोलनकारियों को भुखमरी से बचाने के लिए अय्यनकली ने इलाके के मछुआरों से संपर्क किया तथा उन से सहयोग मांगा.
सवर्णों के उत्पीड़न से परेशान मछुआरों ने खुशीखुशी उन की मदद की. स्थिति बिगड़ती देख कर रियासत के दीवान की मध्यस्थता में दलित आंदोलनकारियों के साथ जमींदारों का सम?ाता हुआ, जिस में उन्होंने दलितों की मजदूरी बढ़ाने तथा स्कूल में प्रवेश दिलाने और आजादी से घूमनेफिरने की मांग मान ली. नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल में राष्ट्रवाद शब्द हर स्तर पर खूब परवान चढ़ा जिस का सीधा सा असल मतलब ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद था. कृषि कानूनों के जरिए इस ढांचे को और पुख्ता बनाने की कोशिश की गई तो किसान तिलमिला उठे जिसे एक नई चेतना पैदा होना कहना अतिशयोक्ति न होगी. यह सोचना बेमानी है कि किसान आंदोलन सिर्फ नए कृषि कानूनों को वापस ले लेने की जिद था, बल्कि हकीकत में इस के पीछे सदियों से होते आ रहे जातिगत व आर्थिक शोषण के खिलाफ एक हुंकार थी जिसे इस बार सरकार दबा नहीं पाई तो माफी मांगते ?ाक गई.
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किसान आंदोलन की जीत 19 नवंबर की सुबह पहली बार ऐसा हुआ कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन से सही मानो में जनता के चेहरों पर मुसकान देखने को मिली. संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने पिछले साल देश के किसानों पर थोपे हुए तीनों कृषि कानूनों, कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) कानून 2020, कृषि (सशक्तीकरण और संरक्षण) कीमत आश्वासन और कृषि सेवा करार कानून 2020, आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून 2020, को वापस लेने की घोषणा की. इस संबोधन के साथ देश के सभी किसानों और दिल्ली के अलगअलग बौर्डरों पर सालभर से आंदोलन कर रहे किसानों की आंशिक जीत हो गई. किसानों की सब से पहली मांग यही थी कि कृषि सुधार के नाम पर केंद्र सरकार द्वारा लाए गए तीनों कृषि कानूनों को वापस लिया जाए, पर किसानों का संघर्ष यहीं समाप्त नहीं हुआ. वे अपनी दूसरी अहम मांगों पर भी सरकार से जवाब चाहते हैं,
जिन में एमएसपी (मिनिमम सपोर्ट प्राइस) पर कानून बनाना, विद्युत अधिनियम संशोधन विधेयक 2020-21 को वापस लेना, शहीद किसानों को मुआवजा दिया जाना, किसानों पर चलाए मुकदमों को वापस लिया जाना व लखीमपुर कांड में किसानों को न्याय दिलाना मुख्य हैं. किसानों की यह जीत कोई आम जीत नहीं है जिस पर छोटीमोटी चर्चा कर या सुर्खियों के धागों में पिरो कर भुला दिया जाए. इस जीत के माने दूर तक देखे जा सकते हैं. यह जीत न सिर्फ किसानों की है बल्कि देश के उन समस्त नागरिकों की जीत है जो अन्न का उपभोग करते हैं. यह जीत देशवासियों की खाद्य सुरक्षा को बचाने की जीत है. यह जीत उस विश्वास को बल देने की है जिस ने एक मजबूत, संगठित और सशक्त आंदोलन के जरिए बड़े से बड़े अहंकारी शासक को ?ाकाने का काम किया है, यह जीत सीमित हो रहे लोकतंत्र को बचाए जाने की भी है.
इस जीत की खुशी ने पिछले एक वर्ष से अनगिनत विपदाओं, भीषण सर्दीगरमी, बारिशतूफान और मेनस्ट्रीम मीडिया व सोशल मीडिया में दुष्प्रचार ?ोल रहे किसानों की पीड़ा को कम करने का काम किया. यह जीत सरकार की उन बर्बरताओं जिन में, लाठीडंडे, वाटर कैनन, आंसू गैस के गोले, फर्जी मुकदमे, रोड़ापत्थर, कंटीली तारों के रास्तों के खिलाफ है. ऐसा कोई हथकंडा नहीं बचा था जिसे सरकार ने इस आंदोलन को कुचलने के लिए अपनाया न हो. इस जीत ने उन सभी घिनौने आरोपों का सच सब के सामने ला दिया है जिन में किसानों को खालिस्तानी, देशद्रोही, आतंकवादी, माओवादी, टुकड़ेटुकड़े गैंग और पाकिस्तान समर्थित कहा जा रहा था. यह जीत देश में चल रहे भगवा कृत्य के खिलाफ है जो समाज को भी पुरुष धर्म, जाति, भाषा और क्षेत्र के आधार पर बांटने की कोशिश कर रहा है.
रस्सी जल गई, बल नहीं गया देश के नाम संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा करते हुए कहा, ‘‘मैं आज देशवासियों से क्षमा मांगते हुए, सच्चे मन से और पवित्र हृदय से कहना चाहता हूं कि शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमी रह गई होगी, जिस के कारण दीए के प्रकाश जैसा सत्य कुछ किसान भाइयों को हम सम?ा नहीं पाए. आज मैं आप को, पूरे देश को यह बताने आया हूं कि हम ने 3 कृषि कानूनों को वापस लेने का निर्णय लिया है.’’ प्रधानमंत्री की इस घोषणा ने पिछले एक साल से आंदोलन पर मंडराते उन बादलों को छांटने का काम किया जो किसानों की किसानी पर ही सवाल खड़ा कर रहे थे. ‘सच्चे मन’ और ‘पवित्र हृदय’ का तो पता नहीं, पर इस आंदोलन ने प्रधानमंत्री को यह मानने पर जरूर मजबूर किया कि आंदोलन में बैठे लोग सच्चे किसान हैं, वरना तो वे इन्हें ‘आंदोलनजीवी’ जैसे खुद के गड़े नाम से संबोधित कर चुके थे.
प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि वे ‘दीये के प्रकाश जैसे सत्य को कुछ किसानों को सम?ा नहीं पाए’, दरअसल, सचाई यह है कि इन कृषि कानूनों की बुनियाद ही एक बड़े ?ाठ पर टिकी हुई थी, जिस में किसानों के साथ धोखे के अलावा और कुछ न था. जिस समय देश लौकडाउन के चलते बंद पड़ा था उस दौरान केंद्र ने बिना किसान यूनियनों की सहमति लिए इन अध्यादेशों को कैबिनेट में पास करा अध्यादेश का रूप दिया. यह न सिर्फ किसानों को अंधेरे में रखने जैसा था बल्कि किसी जालसाजी से भी कम न था. इसी प्रकार, सितंबर में आननफानन एक हफ्ते में ही तीनों बिलों को दोनों सदनों में बगैर खास चर्चा के जैसेतैसे पास करा कर राष्ट्रपति की मुहर भी लगवा दी. राज्यसभा में तो विपक्षी नेताओं को सदन से बाहर कर ध्वनिमत से बिलों को पास कराया गया.
अगर ये कानून दीये के प्रकाश के सामान सत्य थे तो प्रधानमंत्री को अंधेरे में इसे पास कराने की जरूरत क्यों पड़ गई? आखिर इतनी क्या हड़बड़ी थी? जहां तक बात इन तीनों कानूनों को सम?ाने की है, तो यह जानना भी जरूरी है कि आज का किसान पहले जैसा फटेहाल नहीं रहा. यदि वह अपने हिसाबों का बहीखाता मांग रहा है तो उसे पढ़ना व सम?ाना आता है. जो लोग 70 सालों का रोना आएदिन रोते रहते हैं वे यह कभी नहीं बताते कि इन सालों में किसानों को क्या मिला सिवा इस के कि उन के तन पर सलीके के कपड़े दिखने लगे, उन के कच्चे ?ांपड़े अधपक्के हो गए, कुछ जगह हल की जगह ट्रैक्टर दिखने लगे. लेकिन क्या यह बहुत बड़ी बात या उपलब्धि है. इस सवाल का जवाब शायद ही कोई कानून या सरकार दे पाए जबकि ट्रैक्टर खेतीकिसानी और ट्रांसपोर्टिंग का एक जरूरी उपकरण है. पिछले 7 सालों में मोदी सरकार क्या हाहाकारी बदलाव किसानों के हक में ले आई सिवा बातों के बताशे फोड़ने के.
मसलन, किसानों की आय दोगुनी कर दी जाएगी और हम यह कर देंगे वह कर देंगे आदिआदि. किसानों की औसत मासिक आमदनी 6 हजार रुपए है और उन का खर्च भी लगभग इतना ही है तो फिर, हुआ क्या है? और जो हुआ है, वह किसानों ने अपने दम पर, अपनी लगन व मेहनत से हासिल किया है. उस में किसी सरकार की नीतियों, कानूनों या धर्म का कोई योगदान नहीं है. यहां यह गौरतलब है कि 80 फीसदी किसान छोटी जोत और छोटी जातियों वाले हैं जिन्हें बेदखल और कमजोर करने की मंशा से कृषि कानून लाए गए थे. धार्मिक किस्सेकहानियों, जिन से रोज हर किसी को रूबरू होना पड़ता है, में कहीं इस बात का जिक्र नहीं है कि अनाज के एक दाने से सैकड़ोंहजारों दाने पैदा होते हैं. लेकिन इस बात को चमत्कार कहा जाता है कि एक गांधारी के सौ बेटे मांस के एक लोथड़े या घड़े से पैदा हुए थे.
यह भी एक स्थापित सच है कि सनातन धर्म और वैदिक सभ्यता कभी उत्पादन और उत्पादकता पर जोर नहीं देते क्योंकि उत्पादक यानी मजदूर किसान तो हमेशा से ही वे शूद्र रहे हैं जिन्हें कथित लोकतंत्र के इस दौर में एससी, एसटी और ओबीसी वाला कहा जाता है. इस दौर के मशहूर दलित लेखक कांचा इलैया ने अपनी किताब ‘द शूद्राज : विजन फौर ए न्यू पाथ’ में विस्तार से इस स्याह पहलू पर दीये का नहीं, बल्कि ज्ञान और तथ्यों का प्रकाश डाला है कि ब्राह्मण और क्षत्रिय खेती व पशुपालन तथा दूसरे उत्पादक कार्यों से पूरी तरह दूर थे. कुछ वैश्य जरूर श्रमजीवी संस्कृति का हिस्सा थे लेकिन धीरेधीरे वे भी उत्पादक कार्यों से दूर हो गए. तपस्या किस की गीता के अध्याय 3 में लिखा है, अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभव:। यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:॥ (3 : 14) ‘अर्थात, संपूर्ण प्राणी अन्न से पैदा होते हैं और अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है और वृष्टि यज्ञ से होती है और वह यज्ञ कर्मों से उत्पन्न होने वाला है.’ जिन कानूनों को किसानों ने नामंजूर कर दिया था, आखिर प्रधानमंत्री उन के बारे में क्या सम?ाना चाहते थे किसानों को? क्या गीता के श्लोक से यह बताने की कोशिश चल रही थी कि ‘देखो, तुम्हारी मेहनत तो असल में दो कौड़ी की भी नहीं है, असल मेहनत तो यज्ञ करने वालों की है. इसलिए तुम्हारा इस मसले पर बोलने का कोई अधिकार नहीं.
अन्न पैदा करने वाला किसान भूखा सोए तो यह तुम्हारे पाप कर्मों का फल है जो वह किसान यानी शूद्र योनि में पैदा हुआ.’ दरअसल, इस और ऐसे कई श्लोकों से यह जताने की भी कोशिश की जाती रही है कि श्रम का कोई मूल्य या महत्त्व नहीं होता. महत्त्व है यज्ञ और हवन का जिन्हें श्रेष्ठि वर्ग संपन्न कराता है. इस से ज्यादा धूर्तता वाली कोई और बात हो भी नहीं सकती कि मेहनत कोई और करे जबकि उस का श्रेय उन निकम्मों के खाते में डाल दिया जाए जो परजीवी हुआ करते थे.
ऐसे ऋषिमुनि आज भी पूंजीपतियों की शक्ल में हैं जिन के भले के लिए कृषि कानूनों को थोपने के लिए 7 वर्षों से तपस्या की जा रही थी. प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में तपस्या का जिक्र किया. लेकिन वे यह बताना भूल गए कि सरकार ने किसानों को किस तपस्या से सम?ाने की कोशिश की. क्या सालभर चले इस आंदोलन में प्रधानमंत्री का किसानों के साथ एक बार भी चर्चा नहीं करना इसी तपस्या का हिस्सा था? क्या किसानों पर लाठीडंडों की मार ही सरकार की तपस्या थी? क्या वाटर कैनन की बौछार ही वह तपस्या थी? सरकार बताए कि किसानों को दिल्ली में न घुसने देना, सड़कों पर गहरे गड्ढे खोद देना, बड़ेबड़े कंटेनरों को लगाना, मोटी दीवारें खड़ी करना, रास्तों पर नुकीली कीलें, सरिए व सरहदों पर लगने वाली कंटीली तारें और फौज को खड़ी करना क्या इसी तपस्या का हिस्सा थीं?
तपस्या और त्याग किसे कहते हैं, यह शायद प्रधानमंत्री मोदी सही व सनातनी माने अच्छे से जानते हैं पर असल में त्याग किसानों ने किया. सयुंक्त किसान मोरचा के अनुसार, नवंबर में दिल्ली के बौर्डरों पर आंदोलन शुरू होने के बाद पहले महीने के भीतर प्रदर्शन के दौरान आंदोलन में जान गंवा देने वाले किसानों की संख्या 50 तक पहुंच गई थी. अगले 3 महीनों में यानी मार्च तक आतेआते यह संख्या 248 तक पहुंच गई. जुलाई आतेआते आंदोलन में जान गंवा देने वाले किसानों की संख्या 537 तक पहुंच गई. वहीं नवंबर तक आंदोलन के दौरान मरने वाले किसानों की किसानों 750 हो गई. पिछले एक साल से किसान अपने खेतों को बचाने के लिए अपनी जान की परवा किए बगैर शांतिपूर्ण तरीके से सड़कों पर बैठे रहे, अपने घरपरिवार, खेतखलिहान सबकुछ त्याग कर किसान अनिश्चितकाल के लिए बौर्डर पर डटे रहे,
वह भी ऐसी सरकार से मांग मनवाने के लिए जो उन्हें किसान सम?ाने को ही तैयार न थी. किसानों पर गोदी मीडिया और भगवा प्रचार के माध्यम से प्रहार किए गए, ठंडबारिश ?ोलना तो एक तरफ था, आरोपों, जिन में किसानों को खालिस्तानी, आतंकवादी, पाकिस्तानी और तरहतरह के घटिया, बेसिरपैर वाले इलजाम लगते रहे, को शांतिपूर्ण तरह से ?ोलना दूसरी तरफ. असलियत में उन सभी आरोपों को ?ोलते हुए, अपनी मांगों को ले कर शांतिपूर्ण तरीके से डटे रहने की तपस्या किसानों ने की. भला, इस से बड़ी तपस्या और क्या हो सकती है. पिछले एक साल से किसानों ने अपने घरों में खुशियां नहीं मनाईं. शादीब्याह के कार्यक्रम तक उन्हें टालने पड़ गए. किसानों ने अपने जीवन की पाईपाई कमाई को इस आंदोलन में लगा दिया.
प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद सरिता पत्रिका की टीम सिंघु बौर्डर पर किसानों के अनुभव जानने के लिए पहुंची. पंजाब के फतेहगढ़ साहिब के गांव जलखेड़ा खीरी के रहने वाले 67 वर्षीय जरनैल सिंह बीते एक साल से चल रहे आंदोलन के अपने अनुभव सा?ा करते हैं. वे बताते हैं कि वे अपने गांव के लोगों के साथ यहां आंदोलन के लिए पहुंचे हैं. ‘‘इस एक साल में उन्होंने बहुतकुछ देखा है, बहुतकुछ सहा है. लोगों के मन में डर देखा, आने वाले कल के लिए उन के मन में असुरक्षा की भावना को पनपता हुआ महसूस किया. लोगों के घरों में शादियों को टलते हुए देखा, बच्चों की पढ़ाई रुक गई.’’ जब उन से पूछा कि अब तो वापस चले जाएंगे, आप की मांग तो पूरी हो गई, तो वे कहते हैं,
‘‘सरकार ने हम पर ये कृषि कानून जबरन थोपे थे. इन्हें वापस कराना हमारा हक था. हमारी मांगें एमएसपी पर गारंटी, बिजली की कीमतों में कटौती इत्यादि हैं, जो मिलनी बाकी है. इस आंदोलन में गरीब से गरीब किसान ने अपनी जमापूंजी खर्च कर दी है. किसी ने अनाज दे कर मदद की तो किसी ने चंदा दे कर. हर किसी ने अपनी क्षमता के अनुसार मदद की.’’ ‘कुछ किसानों’ से डरी सरकार? आदिकाल से ही किसानों का शोषण धर्म की आड़ में किया जाता रहा है. राजेरजवाड़ों के दौर में ज्यादा या कम बारिश के चलते फसल नहीं होती थी तब भी उन्हें लगान देना ही पड़ता था. इतिहास में शोषित होने वाले ये किसान लोकतांत्रिक व्यवस्था में भी कोई राहत नहीं पा सके हैं, उलटे उन के भले के नाम पर बिना उन की रायशुमारी के उलटेसीधे कानून बना उन्हें फिर से संपत्ति से बेदखल कर धन्नासेठ और व्यापारी बिरादरी की तिजोरियों को भरने के काम में लगाया जा रहा है. यह एक तथ्य है कि सरकार द्वारा लागू किए गए कृषि कानूनों के खिलाफ सब से पहले पूरे पंजाब राज्य से आवाज बुलंद हुई थी.
लेकिन यह भी एक तथ्य है कि जिस आंदोलन का नेतृत्व पंजाब के किसानों ने किया उस आंदोलन में समय के साथसाथ भारत के अन्य राज्यों के किसान भी एकजुट हो गए. जिन ‘कुछ किसानों’ की बात प्रधानमंत्री अपने संबोधन में कर गए, वे असल में वे फर्जी किसान थे जिन से सरकार इस प्रमुख आंदोलन को खत्म करने के लिए समानांतर में आंदोलन चलवा रही थी. याद हो तो सरकार ने किसान आंदोलन के खिलाफ किसान सम्मलेन के जरिए अपने किसान खड़े करने का प्रयास किया था. सरकार ने किसान आंदोलन के खिलाफ बड़े पैमाने पर प्रचारयुद्ध छेड़ा था. राज्यसभा में कांग्रेस सांसद नासिर हुसैन और राजमणि पटेल के सवाल के जवाब में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा था कि सितंबर 2020 से जनवरी 2021 तक, केवल 5 महीने में सवा 7 करोड़ 25 लाख की राशि इसी प्रचार में खर्च कर दी गई थी.
इस कोशिश में सरकार ने करीब 68 लाख रुपए की लागत से फिल्में तक बनाईं ताकि किसानों के आंदोलन की छवि बिगाड़ी जा सके. किसान आंदोलन की शुरुआत भले पंजाब के किसानों ने ही की हो, लेकिन इसी आंदोलन में किसानों ने देशभर के उन गरीब किसानों का भी मुद्दा उठा दिया जो देश के बहुसंख्यक किसानों की मांग थी. जिन में से एक है किसानों की फसलों की खरीद पर एमएसपी की गारंटी और बिजली की कीमतों में कटौती. इन्ही मांगों को देखते हुए देशभर के किसानों का समर्थन इस आंदोलन को हासिल हुआ. जिस आंदोलन को सरकार शुरुआत में एक (पंजाब) राज्य का आंदोलन कह रही थी वह धीरेधीरे अपनी जमीन देश के बाकी राज्यों में बनाने लगा.
अगर यह केवल कुछ ही किसानों का आंदोलन था तो कैसे हरियाणा के गांवकसबों तक यह पहुंच गया? यदि यह केवल कुछ ही किसानों का आंदोलन था तो फिर कैसे उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गुजरात, महाराष्ट्र, बंगाल इत्यादि राज्यों में किसानों की महापंचायतें हुईं और उन में हजारों की तादाद में लोग इकट्ठे होने लगे, कैसे देशभर के अलगअलग इलाकों के टोल प्लाजा पर किसानों के प्रदर्शन होने लगे, कैसे भारत बंद सफल हो पाया? कैसे देशभर की रेलें और सड़कें जाम हो पाईं? याद हो तो पिछले साल बंगाल के विधानसभा चुनावों में जो भाजपा 200 पार की बात कर रही थी, उसे बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा था. सिर्फ बंगाल ही नहीं, भाजपा की हालत स्थानीय स्तर के नगरनिगम चुनावों में भी लचर हो गई. जनता ने भाजपा को साफ रिजैक्ट करने का काम किया.
हालिया उपचुनाव के नतीजे सब के सामने हैं. राजस्थान, महाराष्ट्र, हिमाचल प्रदेश में भाजपा को मुंह की खानी पड़ी. इस में कोई शक नहीं कि पिछले एक साल से चल रहे किसान आंदोलन का इन चुनावों पर सीधा असर रहा है. भाजपा की हालत आज के समय यह है कि जिन 5 राज्यों में अगले साल चुनाव होने वाले हैं उन में चुनावप्रचार के लिए भाजपा को गांवकसबों में घुसने तक नहीं दिया जा रहा था. लखीमपुर और करनाल की घटना इस का सब से बड़ा उदाहरण है, जहां किसान भाजपा के बड़ेबड़े नेताओं का विरोध कर रहे थे और इसी हताशा में आ कर किसानों के सिर फोड़ने व गाडि़यों से कुचलने वाली घटनाएं घटीं, यह हताशा और गुस्सा इसलिए भी था कि कल तक ये किसान भगवा गैंग के लिए वोटबैंक हुआ करते थे. भगवा गैंग के लिए ये बस, खेती करने वाले शूद्र थे,
लेकिन आज ये उन्हीं का विरोध कर रहे हैं. पुरातनवादियों के मंसूबे निरस्त इतिहास सभ्यता का ऐसा दर्पण है जो सतह से ऊपर ही देखता रहा है. इस में ताकतवर लोगों, राजामहाराजाओं की आपसी जीतहार के किस्से, रणनीति और राजनीतिक षड्यंत्र सब दिखाई देते रहे हैं. उन के स्वाभिमान, बलवानता पर पोथियां गड़ी गई हैं. उन की वीरता की गाथाएं रोचक तरीके से पेश की जाती रही हैं. उन्हें महान और भगवान दिखाने की कोशिशें होती रही हैं.
बस, नहीं दिखाया जाता रहा तो उन लोगों का संघर्ष, बलिदान और त्याग जो सतह से नीचे अपनी गुलामी के खिलाफ लड़ रहे होते हैं और हुकूमत को चुनौती दे रहे होते हैं. महाभारत युद्ध के आरंभ होने से ठीक पहले श्रीकृष्ण अर्जुन को कई उपदेश देते हैं. गीता में श्रीकृष्ण जीवन का सच बताते हुए अर्जुन से कहते हैं, अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थित:। अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च॥ (20) अर्थात, ‘हे अर्जुन, मैं समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित आत्मा हूं और मैं ही सभी प्राणियों की उत्पत्ति का, मैं ही सभी प्राणियों के जीवन का और मैं ही सभी प्राणियों की मृत्यु का कारण हूं.’ सार यह कि कृष्ण खुद को सृष्टि का आदि और अंत बताते हैं. समाज के कणकण में होने वाली हलचल के पूर्ण जिम्मेदार वही हैं. मोदी के संबोधन के बाद चारों तरफ से एकतरफा बात आग की तरह लगातार सामने आने लगी कि कृषि कानूनों की वापसी किसान आंदोलन के कारण नहीं हुई है बल्कि यह तो उन के युगपुरुष मोदी की किसान आंदोलन को मात देने की एक नायाब चाल है. यानी कानून लाए तो मास्टरस्ट्रोक और कानून हटाए तो मास्टरस्ट्रोक, भला ऐसे कैसे संभव हो सकता है?
इस प्रचार से प्रधानमंत्री मोदी की ब्रैंडिंग बड़े स्केल पर की जा रही है. इस प्रोपगंडा को न सिर्फ भाजपा और आरएसएस प्रायोजित प्रचारतंत्र फैलाने में लगा है, बल्कि यह कि कई ऐसे दूसरे पक्ष के धुरंधर बुद्धिजीवी भी हैं जो इन के जाल में फंस कर इस जीत का श्रेय किसान आंदोलन से छीन रहे हैं. मसलन, वे भी यह साबित करने की कोशिश करने में लगे पड़े हैं कि मोदी का यह निर्णय तो आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर लिया गया है. यानी, वे इस पूरे खेल के कर्ताधर्ता मोदी को ही मान कर बैठे हैं. इस तर्क से न सिर्फ वे इस बड़े आंदोलन को सीमित कर देख रहे हैं बल्कि उन 750 किसानों का उपहास भी उड़ा रहे हैं जिन्होंने इस आंदोलन में अपनी शहादत दी. जाहिर है, अगर किसान आंदोलन न होता तो भाजपा को इतने बड़े स्तर पर राजनीतिक खतरा भी न दिखता और वह ऐसा निर्णय लेने के लिए मजबूर न होती.
परंतु मसला इस से कहीं बड़ा है. यह सिर्फ 2022 या 2024 के चुनाव के खींचतान का मसला नहीं है यह देश में फैल रहे भगवा आंदोलन, जिसे साजिश कहना ठीक होगा, के विफल होने का मसला है, जो भाजपा की सब से बड़ी दीर्घकालिक हार साबित हो सकती है. ध्यान हो तो, आंदोलन की शुरुआत में किसान नेता राकेश टिकैत ने एक महापंचायत में किसानों को संबोधित करते हुए कहा था कि, ‘‘मंदिरों को रोज पूजा जा रहा है, लेकिन मंदिर वाला एक भी कोई दिखाई नहीं दे रहा. हर किसी ने मंदिरों में लाइन लगा रखी है. हमारी मांबहनें वहां (मंदिरों में) जा कर दूध दे रही हैं, लेकिन किसान आंदोलन में एक कप चाय नहीं दी इन्होंने. गाय ब्याहती है, भैंस ब्याहती है लेकिन सब से पहले दूध पंडितजी को.’’ इस बयान के कई बड़े दूरदर्शी माने थे जिन का तुरंत विरोध भगवा खेमों ने करना शुरू कर दिया था.
राकेश टिकैत ने यह बात यों ही नहीं कह दी थी. पिछड़ों का यही तबका था जो सवर्णों के बनाए नियमकानूनों में जकड़ा हुआ है और टिकैत ने इसी पर चोट की थी. किसान आंदोलन का स्वरूप सिर्फ सरकार के काले कानूनों के विरोध सहित बाकी मांगों के लिए नहीं उठा, बल्कि पिछले कुछ सालों से देश में तेजी से चल रहे भगवा मुहिम के विरोध में भी सामानांतर चलने लगा था. किसान आंदोलन का कृषि कानूनों के खिलाफ उठना, वह भी ब्राह्मण नेता के बगैर, यह साबित कर रहा है कि किसान अब सवर्णों का पिछलग्गू नहीं हैं और वे अब पौराणिक रीतिनीतियों से भी टकराने की हिम्मत रखते हैं. चुनावों में वोट न पड़ना, यह 5-10 साल तक की ही बात रहती है. इस पर आरएसएस एक हद तक ही परेशान रह सकता है,
पर यदि दान देने वाला सेवक हाथ से निकल गया तो भगवा आंदोलन/ मुहिम/साजिश ही खत्म हो जाएगा, शूद्रसेवक को सवर्णों के खिलाफ विद्रोह करने की आदत पड़ जाएगी और उलटा, कहीं यह न हो जाए कि यह आंदोलन अपना स्वरूप तीखा कर व्यापारी, सवर्णों और धार्मिक दुकानदारों के खिलाफ न हो जाए. सरकार ने किसान आंदोलन के आगे अपने हथियार डाले क्योंकि इन्हीं लोगों से ही सरकार को टैक्स मिलता है और यदि ये भगवा कानून मानने से ही मना कर देंगे तो उन्हें फिर कभी भगवा खेमे में भगवा गैंग वापस नहीं ला पाएगा. साफ कहें तो भगवा दल अब इस बदलाव को जैसेतैसे रोकने के प्रयास में है. आज बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी और कोरोना लापरवाही के चलते राममंदिर का मुद्दा ठंडा पड़ता दिख रहा है,
ऐसे में किसान आंदोलन इन मुद्दों में जुड़ कर बड़ा प्रहार कर रहा था. महंगाई और कोरोना लापरवाही को कंट्रोल करना तो सरकार के बस की बात नहीं है. इसी तरह से कोविड के समय में सरकार ने मिसमैनेजमैंट किया, वह उसे कंट्रोल नहीं कर पाई. ऐसे में सरकार के पास एक ही रास्ता बचता था, वह था कृषि कानूनों को वापस लेना और अपने खिलाफ निरंतर उठ रही आवाज को शांत करना. कानून वापसी सिर्फ अगले साल विभिन्न राज्यों के चुनावों में जीत हासिल करने के लिए नहीं हुई क्योंकि इन कानूनों को वापस लेने के बाद भाजपा को चुनावों में कोई खास फायदा होगा, ऐसा दिखता नहीं, बल्कि वजह यह जरूर है कि भगवा खेमा अपने सेवकों को विद्रोही नहीं बनने देना चाहता है.
ऐसे बहुत कम मौके आते हैं जब ऐसे दबेकुचले लोग इतिहास की करवट को बदल रहे होते हैं और ताकतवर लोग अपने घुटने के बल दिखाई देते हैं, वरना अधिकतर समय वे इस तरह के किसी इतिहास को या तो कुचल देते हैं या अंकित ही नहीं होने देते. अय्यनकली द्वारा शुरू किए खेतमजदूरों के संघर्ष से ले कर मौजूदा समय में चल रहे किसानों के विरले संघर्षों ने शासकों को घुटने के बल ला खड़ा किया है. ये वे शासक हैं जो अपनी गाथाओं और किस्सों से खुद को महान दिखाने की कोशिश करते रहे हैं. –साथ में भारत भूषण द्य नेताओं की बोली
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी : 8 फरवरी, 2021 ‘‘मैं देख रहा हूं कि पिछले कुछ समय से इस देश में नई जमात पैदा हुई है. एक नई बिरादरी सामने आई है और वह है आंदोलनजीवी.’’
मनोज तिवारी : 2 दिसंबर, 2020 ‘‘जिस तरह से कुछ गुट यहां एनआरसी व सीएए के खिलाफ शाहीन बाग में इकट्ठे हुए थे, उस से साफ है कि टुकड़ेटुकड़े गैंग एक बार फिर से शाहीन बाग 2.0 के जरिए किसानों के प्रदर्शन को उग्र करना चाहते थे. द्य भाजपा नेता राव साहब दानवे : 9 दिसंबर, 2020 ‘‘दिल्ली में जो किसान आंदोलन चल रहा है, वह किसानों का नही है. इस के पीछे चीन और पाकिस्तान का हाथ है. यह दूसरे देशों की साजिश है.’’
पूर्व कानून और न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद : 14 दिसंबर, 2020 ‘‘किसानों के आंदोलन की आड़ में भारत को तोड़ने वाले लोग, टुकड़ेटुकड़े लोग पीछे हो कर आंदोलन के कंधे से गोली चलाएंगे तो इस के खिलाफ बहुत कड़ी कार्यवाही भी की जाएगी.’’
पूर्व रेलमंत्री और कोयला मंत्री पीयूष गोयल : 12 दिसंबर, 2020 ‘‘मैं सम?ाता हूं कि अगर यह किसान आंदोलन माओवादी और नक्सल ताकतों से मुक्त हो जाए तो हमारे किसान भाईबहन यह जरूर सम?ोंगे कि किसान के बिल उन के हित में हैं. यह आंदोलन किसानों के हाथों से निकल चुका है. उन के कंधे से माओवादी नक्सल ताकतें इस आंदोलन को चला रही हैं.’’
राष्ट्रीय महासचिव बी एल संतोष : 29 नवंबर, 2020 ‘‘अराजकतावादी योजनाओं के लिए किसानों को गिनी पिग बनने की अनुमति न दें.’’ द्य राज्यसभा सदस्य सुशील कुमार मोदी : 2 दिसंबर, 2020 ‘‘किसानों के आंदोलन को टुकड़ेटुकड़े गैंग और सीएए विरोधी ताकतों ने हाईजैक करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.’’
हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर : 28 नवंबर, 2020 ‘‘हमारे पास इनपुट हैं कि कुछ अवांछित तत्त्व इस भीड़ के अंदर घुसे हुए हैं. हमारे पास इस की रिपोर्ट्स हैं. अभी इस का खुलासा करना ठीक नहीं है. उन्होंने सीधे नारे लगाए हैं. जो औडियो और वीडियो सामने आए हैं उन में इंदिरा गांधी को ले कर साफ नारे लगाए जा रहे हैं और कह रहे हैं कि जब इंदिरा के साथ यह कर दिया तो मोदी क्या चीज है.’’ द्य राज्यसभा सदस्य दुष्यंत कुमार गौतम : 29 नवंबर, 2020 ‘‘वहां पर खालिस्तान जिंदाबाद के नारे लग रहे हैं, पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे लग रहे हैं. ऐसे लोगों के नारे लग रहे हैं जो राष्ट्रविरोधी हैं.’’
भाजपा राष्ट्रीय सचिव वाई कुमार : 3 अक्तूबर, 2021 ‘‘आतंकवादी भिंडरांवाले किसान तो नहीं था? उत्तर प्रदेश में जिस तरह गुंडे तथाकथित किसान बन कर हिंसक आंदोलन कर रहे हैं, वह कोई संयोग नहीं बल्कि एक सुनियोजित प्रयोग लगता है. जिहादी और खालिस्तानी अराजक तत्त्व प्रदेश में अशांति फैलाना चाहते हैं.’’
लोकसभा सदस्य जसकौर मीना : 20 जनवरी, 2021 ‘‘ये आतंकवादी बैठे हुए हैं और आतंकवादियों ने एके47 रखी हुई है. खालिस्तान का ?ांडा लगाया हुआ है.’’ द्य गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र टेनी : 25 सितंबर, 2021 ‘‘जिस दिन मैं ने उस चुनौती को स्वीकार कर के काम कर लिया उस दिन बलिया नहीं, लखीमपुर तक छोड़ना पड़ जाएगा, यह याद रहे. सामना करो आ कर, हम आप को सुधार देंगे, 2 मिनट लगेगा केवल.’’