नोटबंदी हुए 5 साल बीत चुके हैं. 50 दिन का समय मांगते प्रधानमंत्री मोदी को जनता ने 5 साल दे दिए, पर आज भी सभी के दिमाग में कई सवाल घूम रहे हैं कि आखिरकार नोटबंदी से क्या फायदा हुआ? क्या कालाधन आया? क्या आतंकवाद व नक्सलवाद खत्म हुआ? क्या देश की अर्थव्यवस्था बढ़ी? अगर नहीं, तो यह जनता पर क्यों थोपी गई? ‘‘यह पूरी रफ्तार से दौड़ रही कार के टायरों में गोली मार देने जैसा काम है.’’ 8 नवंबर, 2016 को घोषित नोटबंदी के बाद सब से सटीक प्रतिक्रिया देने वाले भारतीय अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के बारे में कम ही लोग जानते हैं कि मनरेगा जैसी महत्त्वाकांक्षी और उपयोगी योजना उन्होंने ही डिजाइन की थी.
इन दिनों रांची में रहते वे राइट टू फूड कैम्पेन से जुड़े हैं. मूलरूप से बेल्जियम के ज्यां द्रेज दर्जनों किताबें अर्थशास्त्र पर लिख चुके हैं और उन के सैकड़ों रिसर्च पेपर भी प्रकाशित हो चुके हैं. कई बड़े संस्थानों में पढ़ा चुके इस विकासशील अर्थशास्त्री ने भारतीय युवती बेला भाटिया से शादी की थी जो छत्तीसगढ़ में सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम कर रही हैं. यह और बात है कि उन के कामों से चिढ़ कर दक्षिणपंथी उन्हें नक्सलियों का दलाल कहते रहते हैं और उन्हें बस्तर से खदेड़ने की कोशिश भी कर चुके हैं. नोटबंदी के 5 साल से भी ज्यादा वक्त गुजर जाने के बाद ज्यां द्रेज की उक्त तुलना लोगों को सम?ा आ रही है कि वाकई भारतीय अर्थव्यवस्था की गाड़ी पटरी से उतरी पड़ी है और इसे लागू करने की जो वजहें तब गिनाई गई थीं वे इस फैसले की तरह ही अव्यावहारिक व काल्पनिक थीं. साबित यह भी हो रहा है कि मोदी सरकार के इस सनकभरे फरमान से देश कई साल पीछे खिसक चुका है.
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आंकड़े और तथ्यों से पहले खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात के सुबूत ही कहे जाएंगे जो अपने किसी भाषण में भूले से भी नोटबंदी के अपने फैसले का जिक्र नहीं करते. अगर यह कदम रत्तीभर भी कारगर हुआ होता तो तय है सरकार इस की सालगिरह धूमधाम से मना रही होती. सरकार की खामोशी एक तरह की स्वीकारोक्ति ही है कि ‘हां, यह एक नादानीभरा अतिउत्साह में लिया गया फैसला था जिस का खमियाजा देश ने तब भी भुगता था और आज भी भुगत रहा है,’ कैसे? इसे सम?ाने के तथ्य भी हैं और आंकड़े भी, जो बताते हैं कि नोटबंदी एक ऐसा घाव है जो कभी भरेगा नहीं, बल्कि रिसता रहेगा. कालेधन का सफेद सच नोटबंदी की स्याह शाम को जो दावे प्रधानमंत्री और सरकार ने किए थे वे निहायत ही खोखले साबित हो रहे हैं. लगता ऐसा है कि देश की अर्थव्यवस्था के विशालकाय पेड़ में दीमक स्थायी तौर पर जड़ें जमा चुकी है जिस का वक्त रहते ट्रीटमैंट नहीं किया गया तो यह जड़ों तक भी पहुंच सकती है.
सरकार ने दावा किया था कि देश में इफरात से काला धन है जिस से भ्रष्टाचार और गैरकानूनी गतिविधियां बढ़ती हैं और लोग टैक्स बचाने के लिए भी इस पैसे की जानकारी छिपाते हैं. सरकार की नजर में यह वह नकदी पैसा था जो गैरकानूनी तरीके से जुटाया गया है. अव्वल तो काला धन नाम की कोई चीज ही वजूद में नहीं होती, हां, कुछ गतिविधियों को जरूर गैरकानूनी कहा जा सकता है, मसलन आतंकवाद वगैरह. शायद ही कोई जानकार बता पाए कि अर्थव्यवस्था से बाहर पैसा कैसे कोई रख सकता है. ऐसा होता है या हो सकता है, यह मान लेने की कोई वजह नहीं.
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अगस्त 2018 में रिजर्व बैंक औफ इंडिया ने अपनी सालाना रिपोर्ट में माना था कि बंद किए गए 500 और 1,000 रुपए के नोटों का 99.3 फीसदी हिस्सा बैंकों के पास लौट आया है. इस कीमत के कुल 15 लाख 41 हजार नोट चलन में थे जिन में से 15 लाख 31 करोड़ रुपए मूल्य के नोट चलन में आ गए थे. क्या बस इतना सा ही काला धन देश में था जिस की चिंता में सरकार दुबलाई जा रही थी, जबकि इतने बड़े देश में अरबों के नोट तो जलने और फटने से ही नष्ट हो जाते हैं. हकीकत कुछ और है जो सरकार की मंशा को भी कठघरे में खड़ा करती है कि उस का असल मकसद कालेधन को पकड़ना या खत्म करना नहीं, बल्कि उसे सफेद में बदलने और सिस्टम में लाने देने का सुनहरा मौका था, जिस में पिसा आम आदमी जो बचत की 10-15 हजार रुपए ही नकदी रखता था.
इस आम आदमी को कैसे घंटों और दिनोंदिन बैंकों की लाइनों में खड़ा कर रुला दिया गया, यह मंजर शायद ही कोई भूला हो. भोपाल की एक बैंककर्मी नेहा की मानें तो वे सभी के लिए यातनाभरे दिन थे. पूरा देश एक अनियंत्रित भीड़ और मंडी में तबदील हो चुका था. इस भीड़ और तनाव में कितने लोग मारे गए, यह आंकड़ा किसी के पास नहीं. गरीब, दिहाड़ी वाले और खासे खातेपीते लोग भी भूखप्यास से बेहाल नोट बदलने की चिंता में डूबे थे. महिलाएं अलग हैरानपरेशान थीं जिन्होंने बुरे वक्त के लिए कुछ नकद बचत कर रखी थी. लग ऐसा रहा था कि किसी दुश्मन देश ने हमला कर दिया है या कोई आसमानी आफत टूट पड़ी है. किसी को अपना कुछ पैसा रखने का गुनाह या गलती सम?ा नहीं आ रही थी.
लेकिन नरेंद्र मोदी को नोटबंदी के 6ठे दिन ही अपनी गलती सम?ा आ गई थी क्योंकि इस बेतुके फैसले का व्यापक विरोध शुरू हो चुका था और लोग उन्हें कोसने लगे थे. यह विरोध जनविद्रोह में बदल पाता, इस के पहले ही उन्होंने 13 नवंबर को गोवा की एक सभा में बड़ी जज्बाती बातें कहीं जो सरासर इमोशनल ब्लैकमेलिंग के दायरे में आती हैं. उन्होंने जनता से कहा था, ‘‘मु?ो 50 दिन का वक्त और दीजिए, इस के बाद भी आप को लगे कि मेरा फैसला गलत है या मेरा इरादा गलत है तो देश जिस चौराहे पर खड़ा कर के जो सजा देगा, उसे भुगतने के लिए मैं तैयार हूं.’’ इस भाषण में अपने कथित रूप से घरपरिवार छोड़ने की दुहाई देते उन्होंने यह भी कहा था कि,
‘‘मैं जानता हूं कि मैं ने कैसीकैसी ताकतों से लड़ाई मोल ले ली है. ये लोग मु?ो बरबाद कर देंगे, मु?ो जिंदा नहीं छोड़ेंगे.’’ इस भावुक अपील का उम्मीद के मुताबिक असर हुआ था और लोग विरोध छोड़ कर नोट बदलने की लाइन में लगते सजा खुद भुगतने को राजी हो गए थे पर नरेंद्र मोदी ने अभी तक नहीं बताया कि ये कैसेकैसे लोग कौन थे? और अगर वे उन्हें जानते थे तो उन से डर क्यों रहे थे? उन के नाम उन्होंने सार्वजनिक क्यों नहीं किए? इस के बाद लोगों ने जीभर कर काला धन सफेद किया और सब खामोशी से यह नजारा देखते रहे कि कैसेकैसे लोग लाइन में लगे हैं और इन में से कितने असली और कितने भाड़े के हैं.
इस के बाद तो काले और सफेद दोनों तरह के धनवानों ने कमीशन तक पर नोट बदलने के लिए लोग रख लिए थे. यह दौर भी गुजर गया लेकिन विदेशी बैंकों में जमा उस कालेधन का अभी तक अतापता नहीं जिस के एवज में कभी हर जेब में 15-15 लाख रुपए डालने का वादा नरेंद्र मोदी ने यह कहते किया था कि यह काला पैसा चोरलुटेरों का है और जिस दिन भाजपा सत्ता में आ जाएगी तो हम यह पैसा वापस ले आएंगे. अब हाल यह है कि उन की ही सरकार में वित्त राज्यमंत्री पंकज चौधरी के मुंह से बीती जुलाई यह बात सामने आई कि, ‘‘हमारे पास पिछले 10 सालों में स्विस बैंक में छिपाए गए कालेधन का कोई अधिकृत आंकड़ा नहीं है.’’ ऐसे में फिर नरेंद्र मोदी किस मुंह से और किस जानकारी की बिना पर कालेधन की पाईपाई किस जादू से हिंदुस्तान ला कर उसे गरीबों में बांटने का दावा करते रहे थे,
इस सवाल का जवाब कौन देगा? एक जवाब दिया था कोरोना के दौरान उमड़ती भीड़ को सरकार की गलत नीतियों व असंतुलित विकास का नतीजा बताने वाले अर्थशास्त्र के नामी प्रोफैसर अरुण कुमार ने यह कहते कि ‘‘इस सवाल का जवाब सरकार के पास नहीं होगा क्योंकि जिस तरह से पैसे के स्रोत को छिपाया जाता है, पैसा कहां से आता है यह पता नहीं होता, उसी तरह यह भी पता नहीं होता कि कितना पैसा कहां से चल कर कहां जा रहा है.’’ अरुण कुमार के मुताबिक, मान लीजिए कि पैसा पहले केमन आईलैंड गया, फिर बरमूडा, वहां से उसे ब्रिटिश वर्जिन आईलैंड भेजा गया, वहां से यह पैसा जमैका गया और फिर उसे स्विट्जरलैंड भेजा गया. अब यहां यह हमें साबित करना पड़ेगा कि जो बहता हुआ स्विट्जरलैंड पहुंचा वह पैसा किसी भारतीय का है और गलत तरीके से ही कमाया गया है.
यह तय है कि भारत सरकार इसे साबित नहीं कर सकती. ऐसे में स्विट्जरलैंड सरकार की क्या गरज पड़ी है और वह कैसे व क्यों साबित करे. स्विस सरकार तो इस पैसे को जायज और कानूनी मानेगी. बकौल अरुण कुमार, भाजपा ने कांग्रेस को हराने के लिए कालेधन का राजनीतिक इस्तेमाल किया. कुछ दिनों पहले ही न्यूज एजेंसी पीटीआई के हवाले से खबर आई थी कि भारतीयों और उन की कंपनियों के स्विस बैंक में 20 हजार करोड़ से ज्यादा रुपए जमा हैं. नरेंद्र मोदी इस पैसे को देश क्यों नहीं ला पा रहे? क्या यही वे लोग हैं जिन से उन्होंने खुद की जान को खतरा बताया था या ये वे खतरे वाले लोग नहीं हैं? यह तो वे ही बता सकते हैं. मुमकिन है, नोटबंदी का वादा किसी से प्रधानमंत्री बनने के पहले या बाद में नरेंद्र मोदी ने ही किया हो और उसे निभाने के लिए भावुकता का ड्रामा किया हो,
नहीं तो इतना बड़ा और अहम फैसला लेने से पहले उन्हें, सभी दलों से न सही, विशेषज्ञों से तो राय जरूर लेनी चाहिए थी. यों एकाएक ही गुपचुप, चोरीछिपे लिए गए फैसले को थोपने के माने किसी को सम?ा नहीं आए थे. पूर्व अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी 7 नवंबर, 2017 को नोटबंदी की पहली सालगिरह पर संसद में यह गलत नहीं कहा था कि नोटबंदी संगठित लूट और कानूनी डकैती है. बीती 17 जून को खुद स्विस बैंक द्वारा जारी आंकड़े बता रहे थे कि उस में भारतीयों के 20,700 करोड़ से भी ज्यादा रुपए जमा हैं. यह राशि पिछले 13 वर्षों में सब से ज्यादा है जिस में 286 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है. प्रधानमंत्री बनने और नोटबंदी करने तक नरेंद्र मोदी स्विस बैंक के कुबेरों को छांटछांट कर सजा देने की बात करते थे और अब उन के नाम सा?ा या सार्वजनिक करने से कतराने लगे हैं, तो जाहिर है उन की ही दाढ़ी में तिनका है. ये वादे भी फुस्स काला धन कम होने के बजाय बढ़ने लगा तब लोगों की सम?ा आया कि दरअसल, इस की परिभाषा ही गड़बड़ है.
हिंदी फिल्मों में जो पैसा विलेन के गद्दे, तकियों और रजाई या सेफ और सोफों की गद्दियों के नीचे से निकलता है, सरकार ने उसे ही काला धन मान लिया था, जो न के बराबर होता है. तब बड़े पैमाने पर आम लोगों को एक और खास बात यह भी सम?ा आई थी कि दरअसल, काला धन कोई नकदी की शक्ल में इकट्ठा कर के नहीं रखता, बल्कि अकसर उसे रियल एस्टेट और सोने की खरीद में लगा दिया जाता है. रही बात टैक्स चोरी की तो वह अभी भी ज्यों की त्यों है. तमाम नएपुराने नियमकानून इस पर बेबस और बौने साबित हो रहे हैं. इक्कादुक्का लोग आज की तरह पहले भी पकड़े जाते थे. इस पर सरकार को अपनी पीठ थपथपाने का कोई हक नहीं. मसलन, थपथपाने के बजाय अब सरकार अपनी पीठ छिपाती नजर आ रही है क्योंकि नोटबंदी के वक्त उस ने यह भी दावा और वादा किया था कि इस से आतंकवाद खत्म हो जाएगा. किंतु आतंकवादियों ने उन की इस ख्वाहिश का कोई लिहाज नहीं किया. पूर्वोत्तर राज्यों से ले कर कश्मीर तक में आतंकी वारदातें हो रही हैं.
जिन्हें 8 नवंबर, 2016 का भाषण याद है वे भक्त और अभक्त दोनों सोच रहे हैं कि नोटबंदी से आतंकवाद खत्म क्यों नहीं हुआ और नकली नोट भी धड़ल्ले से छप और चल रहे हैं. कश्मीर से ले कर कन्याकुमारी तक जाली नोट चलाने वाले आएदिन पकड़े जा रहे हैं. नए नोटों की डिजाइन और प्रिंटिंग क्वालिटी इतनी घटिया है कि लोग इन की फोटो कौपी तक खपा रहे हैं जबकि नए नोटों की छपाई पर सरकार ने 8 हजार करोड़ रुपए खर्च किए थे. जाली नोटों के चलन के डर के चलते सरकार ने 2 हजार रुपए के नोटों की छपाई बंद कर दी है. घूसखोर और भ्रष्टाचारी भी मोदीजी के भाषण का लिहाज नहीं कर रहे, इसलिए वे निसंदेह देशद्रोही हैं तो नोटबंदी से फायदा क्या हुआ, इस बात को नोटबंदी के बाद जगहजगह इस के बचकाने और काल्पनिक फायदे गिनाते तत्कालीन केंद्रीय मंत्रियों में से एक रविशंकर प्रसाद ने कहा था, ‘‘नोटबंदी से देह व्यापार में कमी आई है.’’
यह वह तथ्य था जिस का जिक्र अपने भाषण में करना प्रधानमंत्री भूल गए थे. यानी, कुछ दिनों बाद ही नोटबंदी के मकसद बदल गए थे. अब यह भी और बात है कि देश में रोज दर्जनभर छापों में देह के व्यापारी पकड़े जा रहे हैं, तो भी देह व्यापार कम हुआ या बड़ा, इस सवाल का जवाब देने के लिए रविशंकर अब मंत्री नहीं रह गए हैं. मंत्रिमंडल के पिछले फेरबदल में ऐसे विद्वान और खोजी मंत्री को चलता करना नरेंद्र मोदी की गलती ही मानी जाएगी. नोटबंदी के दौरान वित्त मंत्री रहे अरुण जेटली ने भी खिसियाते हुए कहा था कि दरअसल, कैशलैस इकोनौमी बनाने के लिए यह प्रधानमंत्रीजी का मास्टर स्ट्रोक था. अब कोई इकोनौमी कैसे कैशलैस हो सकती है, भगवान, कहीं हो तो वही जाने. लेकिन यह सच है कि… भारतीय रिजर्व बैंक की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, नोटबंदी के 2 महीने बाद जनवरी 2017 में लोगों के पास महज 7 लाख 80 करोड़ रुपए की नकदी थी जो अब 28.30 लाख करोड़ रुपए है. डिजिटल लेनदेन जरूर बढ़ा है लेकिन वह शहरी इलाकों तक ही सीमित है.
इस की भी वजह लेनदेन को आसान बना देना है. हकीकत में लोगों का नकदी पर भरोसा बढ़ रहा है. देश में आमतौर पर जीडीपी के अनुपात में नकदी की मात्रा 10 से 12 फीसदी रहती थी जो अब 14 फीसदी है. इस से साफ है कि लोगों का विश्वास बैंकों पर से भी घट और हट रहा है. असल बात जीडीपी की है, जो नोटबंदी के बाद से लगातार घट रही है. इस की ग्रोथ रेट साल 2015-16 में 8 फीसदी के इर्दगिर्द थी, वह साल 2021-22 में -7.3 दर्ज हुई थी. यानी, महज 5 साल में 200 फीसदी के लगभग गिरावट जीडीपी में आई और अर्थशास्त्र के ज्ञात इतिहास में पहली बार वह माइनस में पहुंची. इस सच का तो अचार भी नहीं डाला जा सकता जिस का सीधा संबंध नोटबंदी से है.
संक्षेप में जीडीपी को सम?ों तो यह अर्थव्यवस्था की स्थिति को दर्शाता है और इसी से पता चलता है कि देश का विकास किस तरह से हो रहा है. जीडीपी की परिभाषा भी बहुत सरल है कि, ‘‘किसी भी एक साल के भीतर देश में उत्पादित होने वाले सभी सामानों और सेवाओं का कुल मूल्य जीडीपी है, जिसे हिंदी में सकल घरेलू उत्पाद कहते हैं.’’ नोटबंदी कैसे एक विध्वंसक फैसला था, इसे ‘कैश एंड द इकोनौमी एविडैंस फ्रौम इंडियाज डिमोनटाइजेशन’ शीर्षक से किए अध्ययन में बताया गया है कि नोटबंदी ने भारत की आर्थिक वृद्धि को कम कर दिया और नौकरियों में 3 फीसदी तक की कमी आई. लाखों छोटी इकाइयां तो 2016 में खत्म होने के पहले ही खत्म हो गई थीं. साल 2016 में ही देश की आर्थिक गतिविधियों में 2.2 प्रतिशत की गिरावट आई थी. तो फिर गोली क्यों चलाई थी ज्यां द्रेज ने भारतीय अर्थव्यवस्था की तुलना रेसिंग कार से की थी जिस के टायरों पर नोटबंदी नाम की गोली चलाई गई.
इसी बात को रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने नोटबंदी को एक खराब विचार करार देते कहा था, ‘‘नोटबंदी ने भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि घटा दी, ऐसे समय में जबकि वैश्विक अर्थव्यवस्था वृद्धि दर्ज कर रही है. भारत की जीडीपी की वृद्धिदर पर नोटबंदी की वजह से काफी बड़ा असर पड़ा. इस के अलावा जीएसटी लागू करने से भी देश की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ा…’’ और जो पड़ा वह हर किसी को दिख भी रहा है कि महंगाई चरम पर है, बेरोजगारी पिछले तमाम रिकौर्ड तोड़ चुकी है, देश में भुखमरी बढ़ रही है, लोगों की आमदनी घट रही है. यह व ऐसी और कई बातें प्रधानमंत्री को सम?ा क्यों न आईं जो उन्होंने टायरों पर गोली चला दी. बिलाशक, इसे एक जिद व सनक ही कहा जाएगा जिस में शासक अच्छाबुरा कुछ नहीं देखता और आत्मघाती प्रयोग कर डालता है, जिस का खमियाजा लंबे वक्त तक जनता को भुगतना पड़ता है.